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Full text of "Mahabharat Geeta Press"

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॥ श्रीहरि: ।। 
श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत 


महाभारत 
(प्रथम खण्ड) 


[आदिपर्व और सभापर्३व] 
(सचित्र, सरल हिंदी-अनुवाद) 





त्वमेव माता च पिता त्वमेव 
त्वमेव बन्धुश्व सखा त्वमेव । 
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव 
त्वमेव सर्व मम देवदेव ।। 





अनुवादक-- 


-_  साहित्याचार्य पणिडत रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' 





सं० २०७२ सत्रहवाँ पुनर्मुद्रण. ३,५०० 
कुल मुद्रण... ८६,७०० 


प्रकाशक-- 


गीताप्रेस, गोरखपुर--२७३००५ 
(गोबिन्दभवन-कार्यालय, कोलकाता का संस्थान) 
फोन : (०५५१) २३३४७२१, २३३१२५०; फैक्स : (०५५१) २३३६९९७ 


जज : शा997/९5५5.072 ९-नाभा। : 900ए59९508 शं।977९5५.०९ 
गीताप्रेस प्रकाशन शा9०7९5६०००ए५७॥०फए था से ०॥४॥९ खरीदें। 


॥। ७ श्रीपरमात्मने नमः ।। 


नम्र निवेदन 
महाभारत आर्य-संस्कृति तथा सनातनधर्मका एक महान ग्रन्थ तथा 


अमूल्य रत्नोंका अपार भण्डार है। भगवान्‌ वेदव्यास स्वयं कहते हैं कि “इस 
महाभारतमें मैंने वेदोंके रहस्य और विस्तार, उपनिषदोंके सम्पूर्ण सार, इतिहास- 
पुराणोंके उन्मेष और निमेष, चातुर्वर्ण्यके विधान, पुराणोंके आशय, ग्रह-नक्षत्र-तारा 
आदिके परिमाण, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान, पाशुपत (अन्तर्यामीकी महिमा), 
तीर्थों, पुण्य देशों, नदियों, पर्वतों, वनों तथा समुद्रोंका भी वर्णन किया गया है। 
अतएव महाभारत महाकाव्य है, गूढ़ार्थमय ज्ञान-विज्ञान-शान्त्र है, धर्मग्रन्थ है, 
राजनीतिक दर्शन है, कर्मयोग-दर्शन है, भक्ति-शास्त्र है, अध्यात्म-शास्त्र है, 
आर्यजातिका इतिहास है और सर्वार्थसाधक तथा सर्वशास्त्रसंग्रह है। सबसे अधिक 
महत्त्वकी बात तो यह है कि इसमें एक, अद्वितीय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्‌, 
सर्वलोकमहेश्वर, परमयोगेश्वर, अचिन्त्यानन्त गुणगणसम्पन्न, सृष्टि-स्थिति- 
प्रलयकारी, विचित्र. लीलाविहारी, भक्त-भक्तिमान्‌, भक्त-सर्वस्व, 
निखिलरसामृतसिन्धु, अनन्त प्रेमाधार, प्रेमघनविग्रह, सच्चिदानन्दधन, वासुदेव 
भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुण-गौरवका मधुर गान है। इसकी महिमा अपार है। औपनिषद 
ऋषिने भी इतिहास-पुराणको पंचम वेद बताकर महाभारतकी सर्वोपरि महत्ता 
स्वीकार की है। 

इस महाभारतके हिन्दीमें कई अनुवाद इससे पहले प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु 
इस समय मूल संस्कृत तथा हिन्दी-अनुवादसहित सम्पूर्ण ग्रन्थ शायद उपलब्ध नहीं 
है। इसे गीताप्रेसने संवत्‌ १९९९ में प्रकाशित किया था, किन्तु परिस्थिति एवं 
साधनोंके अभावमें पाठकोंकी सेवामें नहीं दिया जा सका। भगवत्कृपासे इसे 
पुनर्मुद्रित करमेका सुअवसर अब प्राप्त हुआ है। 

इस महाभारतमें मुख्यतः नीलकण्ठीके अनुसार पाठ लिया गया है। साथ ही 
दाक्षिणात्य पाठके उपयोगी अंशोंको सम्मिलित किया गया है और इसीके अनुसार 
बीच-बीचमें उसके श्लोक अर्थसहित दे दिये गये हैं पर उन शलोकोंकी शलोक-संख्या 
न तो मूलमें दी गयी है, न अर्थमें ही। अध्यायके अन्तमें दाक्षिणात्य पाठके श्लोकोंकी 
संख्या अलग बताकर उक्त अध्यायकी पूर्ण श्लोक-संख्या बता दी गयी है और इसी 
प्रकार पर्वके अन्तमें लिये हुए दाक्षिणात्य अधिक पाठके श्लोकोंकी संख्या अलग- 
अलग बताकर उस पर्वकी पूर्ण श्लोक-संख्या भी दे दी गयी है। इसके अतिरिक्त 
महाभारतके पूर्वप्रकाशित अन्यान्य संस्करणों तथा पूनाके संस्करणसे भी पाठ- 


निर्णयमें सहायता ली गयी है और अच्छा प्रतीत होनेपर उनके मूलपाठ या 
पाठान्तरको भी ग्रहण किया गया है। इस संस्करणमें कुल शलोक-संख्या १००२१७ 
है। इसमें उत्तर भारतीय पाठकी ८६६००, दाक्षिणात्य पाठकी ६५८४ तथा “उवाच! 
की संख्या ७०३२ है। 

इस विशाल ग्रन्थके हिन्दी-अनुवादका प्राय: सारा कार्य गीताप्रेसके प्रसिद्ध तथा 
सिद्धहस्त भाषान्तरकार संस्कृत-हिन्दी दोनों भाषाओंके सफल लेखक तथा कवि, 
परम विद्दान्‌ पण्डितप्रवर श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री महोदयने किया है। इसीसे 
अनुवादकी भाषा सरल होनेके साथ ही इतनी सुमधुर हो सकी है। दार्शनिक 
वयोवृद्ध विद्वान्‌ डॉ० श्रीभगवानदासजीने इस अनुवादकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। 

आदिपर्व तथा कुछ अन्य पर्वोके कुछ अनुवादको हमारे परम आदरणीय विद्वान्‌ 
स्वामीजी श्रीअखण्डानन्दजी महाराजने भी कृपापूर्वक देखा है; इसके लिये हम 
उनके कृतज्ञ हैं। 

इसके अतिरिक्त, पाठनिर्णय तथा अनुवाद देखनेका सारा कार्य हमारे 
परमश्रद्धेय.. श्रीजयदयालजी . गोयन्दकाने समय-समयपर  स्वामीजी 
श्रीरामसुखदासजी, श्रीहरिकृष्णदासजी गोयन्दका, श्रीघनश्यामदासजी जालान, 
श्रीवासुदेवजी काबरा आदिको साथ रखकर किया है। श्रीगोयन्दकाजी तथा इन 
महानुभावोंने इतनी लगनके साथ बहुत लम्बा समय नियमितरूपसे देकर काम न 
किया होता तो इस विशाल ग्रन्थका प्रकाशन होना सम्भव नहीं था। 

इस प्रकार भगवत्कृपासे यह महान्‌ कार्य ६ खण्डोंमें पूरा हुआ है। आशा है, 
भारतीय जनता इससे लाभ उठाकर धार्मिक जीवनयापन एवं अपने जीवनको 
सफल बनानेमें सक्षम होगी। 


विनीत--प्रकाशक 


झखुक्पा मपजी 
(आदिपर्व) 


अध्याय विषय 
(अनुक्रमणिकापर्व) 
$- ग्रन्थका उपक्रम, ग्रन्थमें कहे हुए अधिकांश विषयोंकी संक्षिप्त सूची तथा इसके 
पाठकी महिमा 





(पर्वसंग्रहपर्व) 


(पौष्यपर्व) 
3- जनमेजयको सरमाका शाप,_जनमेजयद्वारा सोमश्रवाका पुरोहितके पदपर वरण, 
आरुणि,_उपमन्यु,_वेद_और उत्तंककी गुरुभक्ति तथा उत्तंकका सर्पयज्ञके लिये 
जनमेजयको प्रोत्साहन देना 


(पौलोमपर्व) 





४- कथा-प्रवेश 

५- भगुके आश्रमपर पुलोमा दानवका आगमन और उसकी अग्निदेवके साथ बातचीत 

६- महर्षि च्यवनका जन्म,_उनके तेजसे पुलोमा राक्षसका भस्म होना तथा भृगुका 
अग्निदेवको शाप देना 

७- शापसे कुपित हुए_अग्निदेवका अदृश्य होना और ब्रह्माजीका उनके शापको 
संकुचित करके उन्हें प्रसन्न करना 

८- प्रमद्वराका जन्म,_रुरुके साथ उसका वाग्दान तथा विवाहके पहले ही साँपके 
कावनेसे प्रमद्वराकी मृत्यु 

९- रुरुकी आधी आयुसे प्रमद्वराका जीवित होना,_रुर्के साथ उसका विवाह,_रुरुका 
सर्पोंको मारनेका निश्चय तथा रुरु-डुण्डुभ-संवाद 








११- डुण्डुभकी आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुकुको अहिंसाका उपदेश 
१२- जनमेजयके सर्पसत्रके विषयमें रुकुकी जिज्ञासा और पिताद्वारा उसकी पूर्ति 


पितरोंके अनुरोधसे विवाहके लिये उद्यत होना 
किकी बहिनद 3नका पाएणिग्र पाणिग्रहण 





हुए आगे बढ़ना | 
२३- पराजित विनताका कद्रकी दासी होना,_गरुडकी उत्पत्ति तथा देवताओंद्वारा 


उनकी नक ] | स्तुति 







सर्पोंसे उपाय पूछना 
२८- गरुडका अमृतके लिये जाना और अपनी माताकी आज्ञाके अ लिये जाना और अपनी माताकी 

भक्षण करना 
२९- कश्यपजीका गरुडको हाथी ३ गर्‌ और कछएके पूर्वजन्म 











४१- शृंगी ऋषिका राजा परीक्षितको शाप देना 


करते हुए शापको अनुचित बताना 















रा आत्मरक्षाव गि व्यवस्था तथा तक्षक नाग और काश्यपकी बातचीत 


देना और छलसे राजा परीक्षितके समीप 











५४- माताकी आज्ञासे मामाको सान्त्वना देकर आस्तीकका सर्पयज्ञमें जाना 
हि शस्तीकके द्वारा यजमान,_य 














८- देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुएँमें गिरायी गयी दे 
य॒यातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यजीके साथ वार्तालाप 


[द्वारा देवयानीको समझाना और 
















श॒की चर्चा करना 





जन संवाद जि जा एल कै दिये हुए पुण्यदानकोी अस्वीकार 





राजा ययातिका वसुमान्‌ और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक 


आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना 











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घ- 


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९८- शान्तनु _और गंगाका कुछ शर्तोंके साथ सम्बन्ध,_वसुओंका जन्म और शापसे 


उद्धार तथा भीष्मकी उत्पत्ति 








३२००- शान्तनुके 5 रूप,_गुण और बल की प्र 
प्रा तथा देवबतवी भीष्य-प्रति ववब्रतकी भीष्म-प्रतिज्ञा 





महर्षि माण्डव्यका शूलीपर चढ़ाया जाना 


॥/5 


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० ४७ 
५७० ४७ 


॥/७० ४७ 
| 


पुत्र-प्राप्तिका कथन 


तथा गंगामें 


पान करना 





कृपाचार्य और अभश्वत्थामाकी उत्पत्ति तथा द्रोणको परशुरामजीसे अस्त्र 
की प्राप्तिकी कथा के 


क८ गचार्य ट्रोण व 











शसे पाण्डवोंकी वारणावत-यात्रा 
णावत नगरमें लाक्षागृह बनाना 








(बकवधपर्व) 















५- व्यासजीके सामने द्रौपदीका पाँच पुरु षोस रुषोंसे विवाह होनेके वि ः 
धिष्ठिरका अपने-अपने विचार व्यक्त करना | 




















शिक्षा 
(खाण्डवदाहपर्व) 


२२१- युधिष्ठटिरके राज्यकी विशेषता,_कृष्ण और अर्ज़ुनका खाण्डववनमें जाना तथा उन 
दोनोंके पास ब्राह्मणवेषधारी अग्निदिवका आगमन 
२२२- अग्निदेवका खाण्डववनको जलानेके लिये श्रीकृष्ण और अर्जुनसे सहायताकी 











राजा श्रेतकिकी कथा गा 
२२३- अर्ज़नका अग्निकी प्रार्थना स्वीकार करके उनसे दिव्य धनुष एवं रथ आदि 
माँगना 
२२४- अग्निदेवका अर्जुन और श्रीकृष्णको दिव्य धनुष,_अक्षय तरकस,_दिव्य रथ और 














२५- खाण्डववनमें जलते हुए प्राणियोंकी दुर्दशा और इन्द्रके द्वारा जल बरसाकर आग 


बुझानेकी चेष्टा 
२२६- देवताओं आदिके साथ श्रीकृष्ण और अर्जुनका युद्ध 


(मयदर्शनपर्व) 


२२७- देवताओंकी पराजय, खाण्डववनका विनाश और मयासुरकी रक्षा 





२३२- मन्दपालका अपने बाल-बच्चोंसे मिलना 
२३३- इन्द्रदेवका श्रीकृष्ण और अर्ज़ुनको वरदान तथा श्रीकृष्ण,_अर्ज़ुन और मयासुरका 
अग्निसे विदा लेकर एक साथ यमुनातटपर बैठना 


(आदिपर्व सम्पूर्ण) 


सभापर्व 
(सभाक्रियापर्व) 





















लोकपालसभाख्यानपर्व) 


७ ४७, 2 शा बह 
43088 ३8 





बह्माजीक कर 
राजा हरिश्वन्द्रका माहात्म्य तथा युधिष्ठिरके प्रति राजा पाण्डुका संत 


(राजसूयारम्भपर्व) 


॥4७ ५ 


अनुमोदन तथा युधिष्ठिरको जरासंधकी 


देना और उसीके नामपर बालकका नामकरण 





जब: जिंते गखगात और नि आप और विभिन्न देशोंपर विजय पाना 


जीतकर भारी धन-सम्पत्तिके 








चीरहरण एवं भगवानद्वारा उसकी लज्जारक्षा तथा 
उदाहरण देकर सभासदोंको विरोधके लिये प्रेरित करना 





८०- वनगमनके समय पाण्डवोंकी चेष्टा और प्रजाजनोंकी शोकातुरताके विषयमें 
धृतराष्ट्र तथा विदुरका संवाद और शरणागत कौरवोंको द्रोणाचार्यका आश्वासन 
८१- धृवराष्ट्रकी चिन्ता और उनका संजयके साथ वार्तालाप 


(सभापर्व सम्पूर्ण) 


नीला ()) प+_अस+- 





चित्र-सूची 
(सादा) 

$- उग्रश्नवाजीके द्वारा महाभारतकी कथा 
२- रुरुके दर्शनसे सहख्रपाद ऋषिकी सर्पयोनिसे मुक्ति 
3- भगवान विष्णुने चक्रसे राहुका सिर काट दिया 
४- ब्रह्माजीने शेषजीको वरदान तथा पृथ्वी धारण करनेकी आज्ञा दी 
५- आस्तीकने तक्षकको अग्निकुण्डमें गिरनेसे रोक दिया 
६- शुक्राचार्य और कच 
७- ययातिका पतन 





९- धर्मराज और अणीमाण्डव्य 
१०- अणीमाण्डव्य ऋषि शूलीपर 
११- शतशंग पर्वतपर पाण्डुका तप 
१२- बालक भीमके शरीरकी चोटसे चट्टान टूट गयी 
१३- सुरंगद्वारा मातासहित पाण्डवोंका लाक्षागृहसे निकलना 
१४- भीम अपने चारों भाइयोंकोी तथा माताको उठाकर ले चले 
१५- हिडिम्ब-वध 
१६- भीमसेन और घटोत्कच 
१७- पाण्डवोंकी व्यासजीसे भेंट 
१८- धृष्टय्युम्नकी घोषणा 
१९- कुन्तीद्वारा ब्राह्मण-दम्पतिको सान्त्वना 
२०- बकासुरपर भीमका प्रहार 
२१- विश्वामित्रकी सेनापर नन्दिनीका कोप 
२२- पाणए्डव, द्रपद और व्यासजीमें बातचीत 














२४- सुन्द और उपसुन्दका अत्याचार 

२५- तिलोत्तमाके लिये सुन्द और उपसुन्दका युद्ध 

२६- सुभद्राका कुन्ती और द्रौपदीकी सेवामें उपस्थित होना 
२७- श्रीकृष्ण और अर्जनका देवताओंसे युद्ध 

२८- अर्जुन और श्रीकृष्णको इन्द्रका वरदान 

२९- पाण्डवोंद्वारा देवर्षि नारदका पूजन 








३०- जरासंधके भवनमें श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन 

भीमसेन और जरासंधका युद्ध 

3३- भीष्मका युधिष्ठिरको श्रीकृष्णकी महिमा बताना 

33- शिशुपालका युद्धके लिये उद्योग 
४- भूमिका भगवानको अदितिके कुण्डल देना 

3५- शिशुपालके वधके लिये भगवानका हाथमें चक्र ग्रहण करना 

दुर्योधनका स्थलके भ्रमसे जलमें गिरना 

३७- दूत-क्रीडामें युधिष्ठिससे पराजय 

3८- दुःशासनका द्रौपदीके केश पकड़कर खींचना 

०- गान्धारीका धृतराष्ट्रको समझाना 





॥ श्रीहरि: ।। 
* श्रीगणेशाय नम: * 
॥ श्रीवेदव्यासाय नम: ।। 


श्रीमहाभारतम्‌ 
आदिपर्व 


अनुक्रमणिकापर्व 


प्रथमो 5 ध्याय: 


ग्रन्थका उपक्रम, ग्रन्थमें के ए अधिकांश विषयोंकी 
संक्षिप्त सूची तथा पाठकी महिमा 


नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्‌ | 

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्‌ ।। 

“बदरिकाश्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि श्रीनारायण तथा श्रीनर (अन्तर्यामी नारायणस्वरूप 
भगवान्‌ श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन), उनकी लीला प्रकट 
करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यासको नमस्कार कर (आसुरी 
सम्पत्तियोंका नाश करके अन्त:करणपर दैवी सम्पत्तियोंको विजय प्राप्त करानेवाले) जयः 
(महाभारत एवं अन्य इतिहास-पुराणादि)-का पाठ करना चाहिये।/3 

39 नमो भगवते वासुदेवाय। ३० नमः पितामहाय। ३9 नम: प्रजापतिभ्य:। ३० 
नम: कृष्णद्वेपायनाय। ३० नम: सर्वविघ्नविनायकेशभ्य:। 

३“कारस्वरूप भगवान्‌ वासुदेवको नमस्कार है। $४कारस्वरूप भगवान्‌ पितामहको 
नमस्कार है। ३“कारस्वरूप प्रजापतियोंको नमस्कार है। ३“कारस्वरूप श्रीकृष्णद्वैपायनको 
नमस्कार है। >कारस्वरूप सर्व-विघ्नविनाशक विनायकोंको नमस्कार है। 

लोमहर्षणपुत्र उग्रश्नवा: सौति: पौराणिको 

नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपते्द्धादशवार्षिके सत्रे || १ ।। 

सुखासीनानभ्यगच्छद्‌ ब्रह्मर्षीन्‌ संशितव्रतान्‌ | 

विनयावनतो भूत्वा कदाचित्‌ सूतनन्दन: ।। २ ।। 


एक समयकी बात है, नैमिषारण्यमें: कुलपति* महर्षि शौनकके बारह वर्षोतक चालू 
रहनेवाले सत्रमें* जब उत्तम एवं कठोर ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका पालन करनेवाले ब्रह्मर्षिगण 
अवकाशके समय सुखपूर्वक बैठे थे, सूतकुलको आनन्दित करनेवाले लोमहर्षणपुत्र 
उमग्रश्रवा सौति स्वयं कौतूहलवश उन ब्रह्मर्षियोंक समीप बड़े विनीतभावसे आये। वे 
पुराणोंके विद्वान और कथावाचक थे ।। १-२ ।। 

तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम्‌ । 

चित्रा: श्रोतुं कथास्तत्र परिवब्रुस्तपस्विन: ।। ३ ।। 

उस समय नैमिषारण्यवासियोंके आश्रममें पधारे हुए उन उग्रश्रवाजीको, उनसे चित्र- 
विचित्र कथाएँ सुननेके लिये, सब तपस्वियोंने वहीं घेर लिया ।। ३ ।। 

अभिवाद्य मुनींस्तांस्तु सर्वानेव कृताञ्जलि: । 

अपृच्छत्‌ स तपोवृद्धि सद्धिश्वैवाभिपूजित: ।। ४ ।॥। 

उम्रश्रवाजीनी पहले हाथ जोड़कर उन सभी मुनियोंकों अभिवादन किया और 
“आपलोगोंकी तपस्या सुखपूर्वक बढ़ रही है न?” इस प्रकार कुशल-प्रश्न किया। उन 
सत्पुरुषोंने भी उग्रश्रवाजीका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया ।। ४ ।। 

अथ तेषूपविष्टेषु सर्वेष्वेव तपस्विषु । 

निर्दिष्टमासनं भेजे विनयाललौमहर्षणि: ।। ५ ।। 

इसके अनन्तर जब वे सभी तपस्वी अपने-अपने आसनपर विराजमान हो गये, तब 
लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाजीने भी उनके बताये हुए आसनको विनयपूर्वक ग्रहण किया ।। 

सुखासीनं ततस्तं तु विश्रान्तमुपलक्ष्य च । 

अथापच्छदृषिस्तत्र कश्रित्‌ प्रस्तावयन्‌ कथा: ।। ६ ।। 

तत्पश्चात्‌ यह देखकर कि उग्रश्रवाजी थकावटसे रहित होकर आरामसे बैठे हुए हैं, 
किसी महर्षिने बातचीतका प्रसंग उपस्थित करते हुए यह प्रश्न पूछा-- ।। ६ ।। 

कुत आगम्यते सौते क्व चायं विह्वतस्त्वया । 

काल: कमलपपत्राक्ष शंसैतत्‌ पृच्छतो मम ।। ७ ।। 

कमलनयन सूतकुमार! आपका शुभागमन कहाँसे हो रहा है? अबतक आपने कहाँ 
आनन्दपूर्वक समय बिताया है? मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये || ७ ।। 

एवं पृष्टो5ब्रवीत्‌ सम्यग्‌ यथावल्लौमहर्षणि: । 

वाक्‍्यं वचनसम्पन्नस्तेषां च चरिताश्रयम्‌ ।। ८ ।। 

तस्मिन्‌ सदसि विस्तीर्णे मुनीनां भावितात्मनाम्‌ । 

उम्रश्रवाजी एक कुशल वक्ता थे। इस प्रकार प्रश्न किये जानेपर वे शुद्ध अन्तःकरणवाले 
मुनियोंकी उस विशाल सभामें ऋषियों तथा राजाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली उत्तम एवं यथार्थ 
कथा कहने लगे ।। ८३ ।। 


सौतिरुवाच 


जनमेजयस्य राजर्षे: सर्पसत्रे महात्मन: ।। ९ ।। 

समीपे पार्थिवेन्द्रस्य सम्यक्‌ पारिक्षितस्य च । 

कृष्णद्वैपायनप्रोक्ता: सुपुण्या विविधा: कथा: ।। १० || 

कथिताश्चापि विधिवद्‌ या वैशम्पायनेन वै । 

श्र॒ुत्वाहं ता विचित्रार्था महाभारतसंश्रिता: ।। ११ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--महर्षियो! चक्रवर्ती सम्राट्‌ महात्मा राजर्षि परीक्षित्‌-नन्दन 
जनमेजयके सर्पयज्ञमें उन्हींके पास वैशम्पायनने श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीके द्वारा निर्मित 
परम पुण्यमयी चित्र-विचित्र अर्थसे युक्त महाभारतकी जो विविध कथाएँ विधिपूर्वक कही 
हैं, उन्हें सुनकर मैं आ रहा हूँ ।| ९--११ ।। 

बहूनि सम्परिक्रम्य तीर्थान्यायतनानि च | 

समनतपजञ्चकं नाम पुण्यं द्विजनिषेवितम्‌ ।। १२ ।। 

गतवानस्मि त॑ देशं युद्ध यत्राभवत्‌ पुरा । 

कुरूणां पाण्डवानां च सर्वेषां च महीक्षिताम्‌ ।। १३ ।। 

मैं बहुत-से तीर्थों एवं धामोंकी यात्रा करता हुआ ब्राह्मणोंके द्वारा सेवित उस परम 
पुण्यमय समन्तपंचक क्षेत्र कुरुक्षेत्र देशमें गया, जहाँ पहले कौरव-पाण्डव एवं अन्य सब 
राजाओंका युद्ध हुआ था ।। १२-१३ ।। 

दिदृक्षुरागतस्तस्मात्‌ समीपं भवतामिह । 

आयुष्मन्त: सर्व एव ब्रह्मभूता हि मे मता: । 

अस्मिन्‌ यज्ञे महाभागा: सूर्यपावकवर्चस: ।। १४ ।। 

वहींसे आपलोगोंके दर्शनकी इच्छा लेकर मैं यहाँ आपके पास आया हूँ। मेरी यह 
मान्यता है कि आप सभी दीर्घायु एवं ब्रह्मस्वरूप हैं। ब्राह्मणो! इस यज्ञमें सम्मिलित आप 
सभी महात्मा बड़े भाग्यशाली तथा सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी हैं ।। १४ ।। 

कृताभिषेका: शुचय: कृतजप्याहुताग्नय: । 

भवन्त आसने स्वस्था ब्रवीमि किमहं द्विजा: ।। १५ ।। 

पुराणसंहिता: पुण्या: कथा धर्मार्थसंश्रिता: । 

इति वृत्तं नरेन्द्राणामृषीणां च महात्मनाम्‌ ।। १६ ।। 

इस समय आप सभी स्नान, संध्या-वन्दन, जप और अग्निहोत्र आदि करके शुद्ध हो 
अपने-अपने आसनपर स्वस्थचित्तसे विराजमान हैं। आज्ञा कीजिये, मैं आपलोगोंको क्‍या 
सुनाऊँ? क्‍या मैं आपलोगोंको धर्म और अर्थके गूढ़ रहस्यसे युक्त, अन्तःकरणको शुद्ध 
करनेवाली भिन्न-भिन्न पुराणोंकी कथा सुनाऊँ अथवा उदारचरित महानुभाव ऋषियों एवं 
सम्राटोंके पवित्र इतिहास? ।। १५-१६ ।। 


ऋषय ऊचु: 

द्वैपायनेन यत्‌ प्रोक्त पुराणं परमर्षिणा । 

सुरैब्रह्रार्षिभिश्वैव श्रुव्वा यदभिपूजितम्‌ ।। १७ ।। 

तस्याख्यानवरिष्ठस्य विचित्रपदपर्वण: । 

सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थभ्रूषितस्य च ।। १८ ।। 

भारतस्येतिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम्‌ । 

संस्कारोपगतां ब्राह्मीं नानाशास्त्रोपबृंहिताम्‌ ।। १९ ।। 

जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशम्पायन उत्तवान्‌ | 

यथावत्‌ स ऋषिस्तुष्ट्या सत्रे द्वैघायनाज्ञया || २० ।। 

वेदैश्वतुर्भि: संयुक्तां व्यासस्याद्भुतकर्मण: । 

संहितां श्रोतुमिच्छाम: पुण्यां पापभयापहाम्‌ ॥। २१ ।। 

ऋषियोंने कहा--उग्रश्रवाजी! परमर्षि श्रीकृष्ण-द्वैधायनने जिस प्राचीन इतिहासरूप 
पुराणका वर्णन किया है और देवताओं तथा ऋषियोंने अपने-अपने लोकमें श्रवण करके 
जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जो आख्यानोंमें सर्वश्रेष्ठ है, जिसका एक-एक पद, वाक्य 
एवं पर्व विचित्र शब्दविन्यास और रमणीय अर्थसे परिपूर्ण है, जिसमें आत्मा-परमात्माके 
सूक्ष्म स्वरूपका निर्णय एवं उनके अनुभवके लिये अनुकूल युक्तियाँ भरी हुई हैं और जो 
सम्पूर्ण वेदोंके तात्पर्यानुकूल अर्थसे अलंकृत है, उस भारत-इतिहासकी परम पुण्यमयी, 
ग्रन्थके गुप्त भावोंको स्पष्ट करनेवाली, पदों-वाक्योंकी व्युत्पत्तिसे युक्त, सब शास्त्रोंके 
अभिप्रायके अनुकूल और उनसे समर्थित जो अदभुतकर्मा व्यासकी संहिता है, उसे हम 
सुनना चाहते हैं। अवश्य ही वह चारों वेदोंके अर्थोंसे भरी हुई तथा पुण्यस्वरूपा है। पाप 
और भयका नाश करनेवाली है। भगवान्‌ वेदव्यासकी आज्ञासे राजा जनमेजयके यज्ञमें 
प्रसिद्ध ऋषि वैशम्पायनने आनन्दमें भरकर भलीभाँति इसका निरूपण किया है ।। १७-- 
२१ || 

सौतिर्वाच 

आट्य॑ पुरुषमीशान पुरुहूतं पुरुष्ठतम्‌ । 

ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्ते सनातनम्‌ ।। २२ ।। 

असच्च सदसच्चैव यद्‌ विश्व सदसत्परम्‌ । 

परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम्‌ ॥। २३ ।। 

मड़ल्यं मड़लं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम्‌ । 

नमस्कृत्य हृषीकेशं चराचरगुरुं हरिम्‌ || २४ ।। 

महर्षे: पूजितस्येह सर्वलोकैर्महात्मन: । 

प्रवक्ष्यामि मतं॑ पुण्यं व्यासस्याद्भुतकर्मण: ॥। २५ ।। 


उग्रश्रवाजीने कहा--जो सबका आदि कारण, अन्तर्यामी और नियन्ता है, यज्ञोंमें 
जिसका आवाहन और जिसके उद्देश्यसे हवन किया जाता है, जिसकी अनेक पुरुषोंद्वारा 
अनेक नामोंसे स्तुति की गयी है, जो ऋत (सत्यस्वरूप), एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव एवं एकमात्र 
अविनाशी और सर्वव्यापी परमात्मा), व्यक्ताव्यक्त (साकार-निराकार)-स्वरूप एवं सनातन 
है, असत-सत्‌ एवं उभयरूपसे जो स्वयं विराजमान है; फिर भी जिसका वास्तविक स्वरूप 
सत्‌-असत्‌ दोनोंसे विलक्षण है, यह विश्व जिससे अभिन्न है, जो सम्पूर्ण परावर (स्थूल- 
सूक्ष्म) जगत्‌का स्रष्टा, पुराणपुरुष, सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर एवं वृद्धि-क्षय आदि विकारोंसे रहित 
है, जिसे पाप कभी छू नहीं सकता, जो सहज शुद्ध है, वह ब्रह्म ही मंगलकारी एवं मंगलमय 
विष्णु है। उन्हीं चराचरगुरु हृषीकेश (मन-इन्द्रियोंके प्रेरक) श्रीहरिको नमस्कार करके 
सर्वलोकपूजित अद्भुतकर्मा महात्मा महर्षि व्यासदेवके इस अन्तःकरणशोधक मतका मैं 
वर्णन करूँगा || २२--२५ |। 

आचख्यु: कवय: केचित्‌ सम्प्रत्याचक्षते परे । 

आख््यास्यन्ति तथैवान्ये इतिहासमिमं भुवि ।। २६ ।। 

पृथ्वीपर इस इतिहासका अनेकों कवियोंने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत-से 
वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन करते रहेंगे || २६ ।। 

इदं तु त्रिषु लोकेषु महज्ज्ञानं प्रतिष्ठितम्‌ । 

विस्तरैश्व॒ समासैश्न धार्यते यद्‌ द्विजातिभि: ।। २७ ।। 

इस महाभारतकी तीनों लोकोंमें एक महान्‌ ज्ञानके रूपमें प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादि 
द्विजाति संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपोंमें अध्ययन और अध्यापनकी परम्पराके द्वारा 
इसे अपने हृदयमें धारण करते हैं || २७ ।। 

अलंकृतं शुभै: शब्दै: समयैर्दिव्यमानुषै: । 

छन्‍्दोवृत्तैश्न विविधैरन्वितं विदुषां प्रियम्‌ ।। २८ ।। 

यह शुभ (ललित एवं मंगलमय) शब्दविन्याससे अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या 
संस्कृत-प्राकृत संकेतोंसे सुशोभित है। अनुष्टप्‌, इन्द्रवज्ञा आदि नाना प्रकारके छन्‍्द भी 
इसमें प्रयुक्त हुए हैं; अतः यह ग्रन्थ विद्वानोंकों बहुत ही प्रिय है ।। २८ ।। 

(पुण्ये हिमवत: पादे मध्ये गिरिगुहालये । 

विशोध्य देहं धर्मात्मा दर्भसंस्तरमाश्रित: ।। 

शुचि: सनियमो व्यास: शान्तात्मा तपसि स्थित: । 

भारतस्येतिहासस्य धर्मेणान्वीक्ष्य तां गतिम्‌ ।। 

प्रविश्य योगं ज्ञानेन सो5पश्यत्‌ सर्वमन्ततः ।) 

हिमालयकी पवित्र तलहटीमें पर्वतीय गुफाके भीतर धर्मात्मा व्यासजी स्नानादिसे 
शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुशका आसन बिछाकर बैठे थे। उस समय नियमपालनपूर्वक 
शान्तचित्त हो वे तपस्यामें संलग्न थे। ध्यानयोगमें स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत- 


इतिहासके स्वरूपका विचार करके ज्ञानदृष्टिद्वारा आदिसे अन्ततक सब कुछ प्रत्यक्षकी 
भाँति देखा (और इस ग्रन्थका निर्माण किया)। 

निष्प्रभेडस्मिन्‌ निरालोके सर्वतस्तमसावृते । 

बृहदण्डम भूदेक॑ प्रजानां बीजमव्ययम्‌ ।। २९ ।। 

सृष्टिके प्रारम्भमें जब यहाँ वस्तुविशेष या नामरूप आदिका भान नहीं होता था, 
प्रकाशका कहीं नाम नहीं था, सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक 
बहुत बड़ा अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओंका अविनाशी बीज था ।। २९ |। 

युगस्यादौ निमित्तं तन्‍्महद्दिव्यं प्रचक्षते । 

यस्मिन्‌ संश्रूयते सत्यं ज्योतिर्त्रह्या सनातनम्‌ ।। ३० ।। 

ब्रह्मकल्पके आदिमें उसी महान्‌ एवं दिव्य अण्डको चार प्रकारके प्राणिसमुदायका 
कारण कहा जाता है। जिसमें सत्यस्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट 
हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती हैः || ३० ।। 

अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतां गतम्‌ | 

अव्यक्तं कारण सूक्ष्मं यत्तत्‌ सदसदात्मकम्‌ ।। ३१ ।। 

वह ब्रह्म अदभुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समानरूपसे व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म, कारणस्वरूप 
एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत्‌-असत्‌रूपमें उपलब्ध होता है, सब वही है || ३१ ।। 

यस्मात्‌ पितामहो जज्ञे प्रभुरेक: प्रजापति: । 

ब्रह्मा सुरगुरु: स्थाणुर्मनु: कः परमेष्ठ्यूथ ।। ३२ |। 

प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च॒ सप्त वै । 

ततः प्रजानां पतय: प्राभवन्नेकविंशति: ।। ३३ ।। 

उस अण्डसे ही प्रथम देहधारी, प्रजापालक प्रभु, देवगुरु पितामह ब्रह्मा तथा रुद्र, मनु, 
प्रजापति, परमेष्ठी, प्रचेताओंके पुत्र, दक्ष तथा दक्षके सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, 
अंगिरा, कर्दम और अश्व) प्रकट हुए। तत्पश्चात्‌ इक्कीस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि 
और चौदह मनु)- पैदा हुए ।। ३२-३३ ।। 

पुरुषश्चाप्रमेयात्मा यं सर्व ऋषयो विदु: । 

विश्वेदेवास्तथादित्या वसवो<5थाश्विनावपि ।। ३४ ।। 

जिन्हें मत्स्य-कूर्म आदि अवतारोंके रूपमें सभी ऋषि-मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा 
विष्णुरूप पुरुष और उनकी विभूतिरूप विश्वेदेव, आदित्य, वसु एवं अश्विनीकुमार आदि भी 
क्रमश: प्रकट हुए हैं || ३४ ।। 

यक्षा: साध्या: पिशाचाश्च गुह्मका: पितरस्तथा । 

ततः प्रसूता विद्वांस: शिष्टा ब्रद्यूर्षिसत्तमा: ।। ३५ ।। 


तदनन्तर यक्ष, साध्य, पिशाच, गुहाक और पितर एवं तत्त्वज्ञानी सदाचारपरायण 
साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए ।। ३५ ।। 

राजर्षयश्न बहव: सर्वे समुदिता गुणै: । 

आपो द्यौ: पृथिवी वायुरन्तरिक्षं दिशस्तथा ॥। ३६ ।। 

इसी प्रकार बहुत-से राजर्षियोंका प्रादुर्भाव हुआ है, जो सब-के-सब शौर्यादि सदगुणोंसे 
सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्डसे जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष और दिशाएँ भी 
प्रकट हुई हैं || ३६ ।। 

संवत्सरर्तवो मासा: पक्षाहोरात्रय: क्रमात्‌ । 

यच्चान्यदपि तत्‌ सर्व सम्भूतं लोकसाक्षिकम्‌ ।। ३७ ।। 

संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, दिन तथा रात्रिका प्राकट्य भी क्रमश: उसीसे हुआ है। 
इसके सिवा और भी जो कुछ लोकमें देखा या सुना जाता है, वह सब उसी अण्डसे उत्पन्न 
हुआ है ।। ३७ ।। 

यदिदं दृश्यते किंचिद्‌ भूत॑ स्थावरजड्रमम्‌ | 

पुन: संक्षिप्यते सर्व जगत्‌ प्राप्ते युगक्षये | ३८ ।। 

यह जो कुछ भी स्थावर-जंगम जगत दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलयकाल आनेपर 
अपने कारणमें विलीन हो जाता है ।। ३८ ।। 

यर्थर्तावृतुलिड्रानि नानारूपाणि पर्यये । 

दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ।। ३९ ।। 

जैसे ऋतुके आनेपर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकारके चिह्न प्रकट होते हैं और 
ऋतु बीत जानेपर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कल्पका आरम्भ होनेपर पूर्ववत्‌ 
वे-वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्पके अन्तमें उनका लय हो जाता है ।। ३९ ।। 

एवमेतदनाद्यन्तं भूतसंहारकारकम्‌ । 

अनादिनिधन लोके चक्र सम्परिवर्तते || ४० ।। 

इस प्रकार यह अनादि और अनन्त काल-चक्र लोकमें प्रवाहरूपसे नित्य घूमता रहता 
है। इसीमें प्राणियोंकी उत्पत्ति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उद्धव और विनाश 
नहीं होता || ४० ।। 

त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि च । 

त्रयस्त्रिंशच्च देवानां सृष्टि: संक्षेपलक्षणा ।। ४१ ।। 

देवताओंकी सृष्टि संक्षेपसे तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती 
है || ४१ ।। 

दिव:पुत्रो बृहद्धानुश्चक्षुरात्मा विभावसु: । 

सविता स ऋचीकोड को भानुराशावहो रवि: ।। ४२ ।। 

पुरा विवस्वत: सर्वे महास्तेषां तथावर: । 


देवभ्राट्‌ तनयस्तस्य सुभाडिति ततः स्मृतः ।। ४३ ।। 

पूर्वकालमें दिव:पुत्र, बृहत्‌, भानु, चक्षु, आत्मा, विभावसु, सविता, ऋचीक, अर्क, भानु, 
आशावह तथा रवि--ये सब शब्द विवस्वान्‌के बोधक माने गये हैं, इन सबमें जो अन्तिम 
'रवि' हैं वे 'महा' (मही--पृथ्वीमें गर्भ स्थापन करनेवाले एवं पूज्य) माने गये हैं। इनके 
तनय देवश्राट्‌ हैं और देवभ्राटके तनय सुभ्राट माने गये हैं || ४२-४३ ।। 

सुभ्राजस्तु त्रय: पुत्रा: प्रजावन्तो बहुश्रुता: । 

दशज्योति: शतज्योति: सहस्रज्योतिरेव च ।। ४४ ।। 

सुभ्राटके तीन पुत्र हुए, वे सब-के-सब संतानवान्‌ और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रोंके) ज्ञाता 
हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं--दशज्योति, शतज्योति तथा सहस्रज्योति ।। ४४ ।। 

दशपुत्रसहसत्राणि दशज्योतेर्महात्मन: । 

ततो दशगुणाश्चान्ये शतज्योतेरिहात्मजा: ।। ४५ ।। 

महात्मा दशज्योतिके दस हजार पुत्र हुए। उनसे भी दस गुने अर्थात्‌ एक लाख पुत्र 
यहाँ शतज्योतिके हुए || ४५ ।। 

भूयस्ततो दशगुणा: सहस्रज्योतिष: सुता: । 

तेभ्यो5यं कुरुवंशश्व॒ यदूनां भरतस्य च ।। ४६ ।। 

ययातीक्ष्वाकुवंशश्व राजर्षीणां च सर्वशः । 

सम्भूता बहवो वंशा भूतसर्गा: सुविस्तरा: ।। ४७ ।। 

फिर उनसे भी दस गुने अर्थात्‌ दस लाख पुत्र सहस्रज्योतिके हुए। उन्हींसे यह कुरुवंश, 
यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाकुके वंश तथा अन्य राजर्षियोंके सब वंश चले। 
प्राणियोंकी सृष्टिपरम्परा और बहुत-से वंश भी इन्हींसे प्रकट हो विस्तारको प्राप्त हुए 
हैं । ४६-४७ ।। 

भूतस्थानानि सर्वाणि रहस्यं त्रिविधं च यत्‌ । 

वेदा योग: सविज्ञानो धर्मो5र्थ: काम एव च ॥। ४८ ।। 

धर्मकामार्थयुक्तानि शास्त्राणि विविधानि च । 

लोकयात्राविधानं च सर्व तद्‌ दृष्टवानृषि: ।। ४९ ।। 

भगवान्‌ वेदव्यासने, अपनी ज्ञानदृष्टिसे सम्पूर्ण प्राणियोंके निवासस्थान, धर्म, अर्थ और 
कामके भेदसे त्रिविध रहस्य, कर्मोपासनाज्ञानरूप वेद, विज्ञानसहित योग, धर्म, अर्थ एवं 
काम, इन धर्म, काम और अर्थरूप तीन पुरुषार्थोंके प्रतिपादन करनेवाले विविध शास्त्र, 
लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये आयुर्वेद, धरनुर्वेद, स्थापत्यवेद, गान्धर्ववेद आदि लौकिक 
शास्त्र सब उन्हीं दशज्योति आदिसे हुए हैं--इस तत्त्वको और उनके स्वरूपको भलीभाँति 
अनुभव किया || ४८-४९ ।। 

इतिहासा: सवैयाख्या विविधा: श्रुतयोडपि च । 

इह सर्वमनुक्रान्तमुक्तं ग्रन्थस्य लक्षणम्‌ ।। ५० ।। 


उन्होंने ही इस महाभारत ग्रन्थमें, व्याख्याके साथ उस सब इतिहासका तथा विविध 
प्रकारकी श्रुतियोंके रहस्य आदिका पूर्णरूपसे निरूपण किया है और इस पूर्णताको ही इस 
ग्रन्थका लक्षण बताया गया है ।। ५० ।। 

विस्तीर्यैतन्महज्ज्ञानमृषि: संक्षिप्य चाब्रवीत्‌ । 

इष्ट हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम्‌ ।। ५१ ।। 

महर्षिने इस महान्‌ ज्ञानका संक्षेप और विस्तार दोनों ही प्रकारसे वर्णन किया है; 
क्योंकि संसारमें विद्वान्‌ पुरुष संक्षेप और विस्तार दोनों ही रीतियोंको पसंद करते 
हैं ।। ५१ ।। 

मन्वादि भारतं केचिदास्तीकादि तथा परे | 

तथोपरिचराद्यन्ये विप्रा: सम्पगधीयते ।। ५२ ।। 

कोई-कोई इस ग्रन्थका आरम्भ “नारायणं नमस्कृत्य'-से मानते हैं और कोई-कोई 
आस्तीकपर्वसे। दूसरे विद्वान्‌ ब्राह्मण उपरिचर वसुकी कथासे इसका विधिपूर्वक पाठ 
प्रारम्भ करते हैं || ५२ ।। 

विविध संहिताज्ञानं दीपयन्ति मनीषिण: । 

व्याख्यातुं कुशला: केचिद्‌ ग्रन्थान्‌ धारयितुं परे || ५३ ।। 

विद्वान्‌ पुरुष इस भारतसंहिताके ज्ञानको विविध प्रकारसे प्रकाशित करते हैं। कोई- 
कोई ग्रन्थकी व्याख्या करके समझानेमें कुशल होते हैं तो दूसरे विद्वान्‌ अपनी तीक्षण 
मेधाशक्तिके द्वारा इन ग्रन्थोंको धारण करते हैं ।। ५३ ।। 

तपसा ब्रद्म॒चर्येण व्यस्य वेदं सनातनम्‌ । 

इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवतीसुत: ।। ५४ ।। 

सत्यवतीनन्दन भगवान्‌ व्यासने अपनी तपस्या एवं ब्रह्मचर्यकी शक्तिसे सनातन वेदका 
विस्तार करके इस लोकपावन पवित्र इतिहासका निर्माण किया है ।। ५४ ।। 

पराशरात्मजो दिद्वान ब्रद्मर्षि: संशितव्रत: । 

तदाख्यानवरिष्ठं स कृत्वा द्वैपायन: प्रभु: ॥। ५५ ।। 

कथमध्यापयानीह शिष्यान्नित्यन्वचिन्तयत्‌ । 

तस्य तच्चिन्तितं ज्ञात्वा ऋषेद्वैपायनस्य च ।। ५६ ।। 

तत्राजगाम भगवान्‌ ब्रह्मा लोकगुरु: स्वयम्‌ । 

प्रीत्यर्थ तस्य चैवर्षेलोकानां हितकाम्पया ।। ५७ ।। 

प्रशस्त व्रतधारी, निग्रहानुग्रह-समर्थ, सर्वज्ञ पराशरनन्दन ब्रह्मर्षि श्रीकृष्णद्वैघयायन इस 
इतिहासशिरोमणि महाभारतकी रचना करके यह विचार करने लगे कि अब शिष्योंको इस 
ग्रन्थका अध्ययन कैसे कराऊँ? जनतामें इसका प्रचार कैसे हो? द्वैपायन ऋषिका यह 
विचार जानकर लोकगुरु भगवान्‌ ब्रह्मा उन महात्माकी प्रसन्नता तथा लोककल्याणकी 
कामनासे स्वयं ही व्यासजीके आश्रमपर पधारे ।। ५५--५७ ।। 


त॑ दृष्टवा विस्मितो भूत्वा प्राउजलि: प्रणत: स्थित: । 

आसन कल्पयामास सर्वर्मुनिगणैर्वृत: ।। ५८ ।। 

व्यासजी ब्रह्माजीको देखकर आश्चर्यवकित रह गये। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम 
किया और खड़े रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि-मुनियोंके साथ उन्होंने ब्रह्माजीके लिये 
आसनकी व्यवस्था की ।। ५८ ।। 

हिरण्यगर्भमासीनं तस्मिंस्तु परमासने । 

परिवृत्यासनाभ्याशे वासवेय: स्थितो5भवत्‌ ।। ५९ ।। 

जब उस श्रेष्ठ आसनपर ब्रह्माजी विराज गये, तब व्यासजीने उनकी परिक्रमा की और 
ब्रह्माजीके आसनके समीप ही विनयपूर्वक खड़े हो गये ।। ५९ ।। 

अनुज्ञातो5थ कृष्णस्तु ब्रह्मणा परमेषछ्ठिना । 

निषसादासनाभ्याशे प्रीयमाण: शुचिस्मित: ।। ६० ।। 

परमेष्ठी ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे उनके आसनके पास ही बैठ गये। उस समय व्यासजीके 
हृदयमें आनन्दका समुद्र उमड़ रहा था और मुखपर मन्द-मन्द पवित्र मुसकान लहरा रही 
थी || ६० ।। 

उवाच स महातेजा ब्रह्माणं परमेषछ्ठिनम्‌ । 

कृतं मयेदं भगवन्‌ काव्यं परमपूजितम्‌ ॥। ६१ ।। 

परम तेजस्वी व्यासजीने परमेष्ठी ब्रह्माजीसे निवेदन किया--“भगवन्‌! मैंने यह सम्पूर्ण 
लोकोंसे अत्यन्त पूजित एक महाकाव्यकी रचना की है” ।। ६१ ।। 

ब्रह्मन्‌ वेदरहस्यं च यच्चान्यत्‌ स्थापितं मया । 

साज़्रोपनिषदां चैव वेदानां विस्तरक्रिया ।। ६२ ।। 

ब्रह्मन! मैंने इस महाकाव्यमें सम्पूर्ण वेदोंका गुप्ततम रहस्य तथा अन्य सब शास्त्रोंका 
सार-सार संकलित करके स्थापित कर दिया है। केवल वेदोंका ही नहीं, उनके अंग एवं 
उपनिषदोंका भी इसमें विस्तारसे निरूपण किया है || ६२ ।। 

इतिहासपुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत्‌ । 

भूतं भव्यं भविष्य॑ च त्रिविधं कालसंज्ञितम्‌ । ६३ ।। 

इस ग्रन्थमें इतिहास और पुराणोंका मन्थन करके उनका प्रशस्त रूप प्रकट किया गया 
है। भूत, वर्तमान और भविष्यकालकी इन तीनों संज्ञाओंका भी वर्णन हुआ है ।। ६३ ।। 

जरामृत्युभयव्याधिभावाभावविनिश्चय: । 

विविधस्य च धर्मस्य ह्याश्रमाणां च लक्षणम्‌ ।। ६४ ।। 

इस ग्रन्थमें बुढ़ापा, मृत्यु, भय, रोग और पदार्थोंके सत्यत्व और मिथ्यात्वका 
विशेषरूपसे निश्चय किया गया है तथा अधिकारी-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रकारके धर्मों एवं 
आश्रमोंका भी लक्षण बताया गया है ।। ६४ ।। 

चातुर्व्ण्यविधानं च पुराणानां च कृत्स्नश: । 


तपसो ब्रह्मचर्यस्य पृथिव्याश्रन्द्रसूर्ययो: ।। ६५ ।। 

ग्रहनक्षत्रताराणां प्रमाणं च युगै:ः सह । 

ऋचो यजूषि सामानि वेदाध्यात्मं तथैव च ।। ६६ ।। 

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र--इन चारों वर्णोंके कर्तव्यका विधान, पुराणोंका सम्पूर्ण 
मूलतत्त्व भी प्रकट हुआ है। तपस्या एवं ब्रह्मचर्यके स्वरूप, अनुष्ठान एवं फलोंका विवरण, 
पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग--इन सबके परिमाण 
और प्रमाण, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और इनके आध्यात्मिक अभिप्राय और 
अध्यात्मशास्त्रका इस ग्रन्थमें विस्तारसे वर्णन किया गया है || ६५-६६ ।। 

न्यायशिक्षाचिकित्सा च दान॑ पाशुपतं तथा । 

हेतुनैव सम॑ जन्म दिव्यमानुषसंज्ञितम्‌ ।। ६७ ।। 

न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान तथा पाशुपत (अन्तर्यामीकी महिमा)-का भी इसमें 
विशद निरूपण है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि देवता, मनुष्य आदि भिन्न-भिन्न 
योनियोंमें जन्मका कारण क्या है? ।। ६७ ।। 

तीर्थानां चैव पुण्यानां देशानां चैव कीर्तनम्‌ । 

नदीनां पर्वतानां च वनानां सागरस्य च ।। ६८ ।। 

लोकपावन तीर्थों, देशों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्रका भी इसमें वर्णन किया गया 
है ।। ६८ ।। 

पुराणां चैव दिव्यानां कल्पानां युद्धकौशलम्‌ । 

वाक्यजातिविशेषाक्ष लोकयात्राक्रमक्ष यः ।। ६९ ।। 

यच्चापि सर्वगं वस्तु तच्चैव प्रतिपादितम्‌ । 

परं न लेखक: कश्चिदेतस्य भुवि विद्यते || ७० ।। 

दिव्य नगर एवं दुर्गोके निर्माणका कौशल तथा युद्धकी निपुणताका भी वर्णन है। भिन्न- 
भिन्न भाषाओं और जातियोंकी जो विशेषताएँ हैं, लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये जो कुछ 
आवश्यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी पदार्थ हो सकते हैं, उन सबका इसमें 
प्रतिपादन किया गया है; परंतु मुझे इस बातकी चिन्ता है कि पृथ्वीमें इस ग्रन्थको लिख 
सके ऐसा कोई नहीं है” ।। ६९-७० ।। 

ब्रह्मोवाच 


तपोविशिष्टादपि वै विशिष्टान्मुनिसंचयात्‌ । 

मन्ये श्रेष्ठतरं त्वां वै रहस्यज्ञानवेदनात्‌ || ७१ ।। 

ब्रह्माजीने कहा--व्यासजी! संसारमें विशिष्ट तपस्या और विशिष्ट कुलके कारण 
जितने भी श्रेष्ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्हें सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ; क्योंकि तुम जगत्‌, जीव 
और ईश्वर-तत्त्वका जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो || ७१ ।। 


जन्मप्रभृति सत्यां ते वेझि गां ब्रह्म॒वादिनीम्‌ । 

त्वया च काव्यमित्युक्त तस्मात्‌ काव्यं भविष्यति ।। ७२ ।। 

मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्य भाषण करती रही है और 
तुमने अपनी रचनाको काव्य कहा है, इसलिये अब यह काव्यके नामसे ही प्रसिद्ध 
होगी | ७२ ।। 

अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे । 

विशेषणे गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमा: || ७३ ।। 

काव्यस्य लेखनार्थाय गणेश: स्मर्यतां मुने । 

संसारके बड़े-से-बड़े कवि भी इस काव्यसे बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीक 
वैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओंद्वारा 
गृहस्थाश्रमसे आगे नहीं बढ़ सकते। मुनिवर! अपने काव्यको लिखवानेके लिये तुम 
गणेशजीका स्मरण करो ।। ७३ ३ ।। 


सौतिरुवाच 


एवमाभाष्य त॑ ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम्‌ ।। ७४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--महात्माओ! ब्रह्माजी व्यासजीसे इस प्रकार सम्भाषण करके 
अपने धाम ब्रह्मलोकमें चले गये || ७४ ।। 

ततः सस्मार हेरम्बं व्यास: सत्यवतीसुतः । 

स्मृतमात्रो गणेशानो भक्तचिन्तितपूरक: ।। ७५ ।। 

तत्राजगाम विघ्नेशो वेदव्यासो यतः स्थित: । 

पूजितश्लोपविष्ट श्न॒ व्यासेनोक्तस्तदाउनघ || ७६ ।। 

निष्पाप शौनक! तदनन्तर सत्यवतीनन्दन व्यासजीने भगवान्‌ गणेशका स्मरण किया 
और स्मरण करते ही भक्तवांछाकल्पतरु विष्नेश्वर श्रीगणेशजी महाराज वहाँ आये, जहाँ 
व्यासजी विद्यमान थे। व्यासजीने गणेशजीका बड़े आदर और प्रेमसे स्वागत-सत्कार किया 
और वे जब बैठ गये, तब उनसे कहा-- || ७५-७६ ।। 

लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक । 

मयैव प्रोच्यमानस्य मनसा कल्पितस्य च ।। ७७ |। 

“गणनायक! आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत-ग्रन्थके लेखक बन जाइये; मैं 
बोलकर लिखाता जाऊँगा। मैंने मन-ही-मन इसकी रचना कर ली है' || ७७ ।। 

श्रुत्वैतत्‌ प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम्‌ | 

लिखितो नावतिषछ्ेत तदा स्यां लेखको हाहम्‌ ।। ७८ ।। 

यह सुनकर विघ्नराज श्रीगणेशजीने कहा--“व्यासजी! यदि लिखते समय क्षणभरके 
लिये भी मेरी लेखनी न रुके तो मैं इस ग्रन्थका लेखक बन सकता हूँ || ७८ ।। 


व्यासो<5प्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित्‌ | 

ओमित्युक्त्वा गणेशो5पि बभूव किल लेखक: ।। ७९ |। 

व्यासजीने भी गणेशजीसे कहा--“बिना समझे किसी भी प्रसंगमें एक अक्षर भी न 
लिखियेगा।” गणेशजीने “३5” कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये ।। ७९ ।। 

ग्रन्थग्रन्थिं तदा चक्रे मुनिर्गूठं कुतूहलात्‌ । 

यस्मिन्‌ प्रतिज्ञया प्राह मुनिर्द्धपायनस्त्विदम्‌ ।। ८० ।। 

तब व्यासजी भी कुतूहलवश ग्रन्थमें गाँठ लगाने लगे। वे ऐसे-ऐसे श्लोक बोल देते 
जिनका अर्थ बाहरसे दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बन्धमें 
प्रतिज्ञापूर्वक श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिने यह बात कही है-- ।। ८० ।। 

अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च । 

अहं वेि शुको वेत्ति संजयो वेत्ति वान वा ।। ८१ ।। 

इस ग्रन्थमें ८८०० (आठ हजार आठ सौ) श्लोक ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, 
शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है ।। ८१ ।। 

तच्छलोककूटमद्यापि ग्रथितं सुदृढं मुने । 

भेत्तुं न शक्‍्यते<र्थस्य गूढत्वात्‌ प्रश्मनितस्थ च ।। ८२ ।। 

मुनिवर! वे कूट श्लोक इतने गुँथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्य- 
भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति और 
रूढवृत्ति आदि रचनावैचित्रयके कारण गम्भीर हैं || ८२ ।। 

सर्वज्ञोडपि गणेशो यत्‌ क्षणमास्ते विचारयन्‌ | 

तावच्चकार व्यासो5पि श्लोकानन्यान्‌ बहूनपि ।। ८३ ।। 

स्वयं सर्वज्ञ गणेशजी भी उन श्लोकोंका विचार करते समय क्षणभरके लिये ठहर जाते 
थे। इतने समयमें व्यासजी भी और बहुत-से श्लोकोंकी रचना कर लेते थे ।। ८३ ॥। 

अज्ञानतिमिरान्धस्य लोकस्य तु विचेष्टत: । 

ज्ञानाज्जनशलाकाभिर्नेत्रोन्मीलनकारकम्‌ ।। ८४ ।। 

धर्मार्थकाममोीक्षार्थ: समासव्यासकीर्तनै: । 

तथा भारतसूर्येण नृणां विनिहतं तम: ।। ८५ ।। 

संसारी जीव अज्ञानान्धकारसे अंधे होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानांजनकी 
शलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्‍या है? धर्म, अर्थ, काम और 
मोक्षरूप पुरुषार्थोका संक्षेप और विस्तारसे वर्णन। यह न केवल अज्ञानकी रतौंधी दूर 
करता, प्रत्युत सूर्यके समान उदित होकर मनुष्योंकी आँखके सामनेका सम्पूर्ण अन्धकार ही 
नष्ट कर देता है || ८४-८५ ।। 

पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्ना: प्रकाशिता: । 

नृबुद्धिकेरवाणां च कृतमेतत्‌ प्रकाशनम्‌ ।। ८६ ।। 


यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमाके समान है, जिससे श्रुतियोंकी चाँदनी छिटकती है और 
मनुष्योंकी बुद्धिरूपी कुमुदिनी सदाके लिये खिल जाती है ।। ८६ ।। 

इतिहासप्रदीपेन मोहावरणघातिना । 

लोकगर्भगृहं कृत्स्नं यथावत्‌ सम्प्रकाशितम्‌ ।। ८७ ।। 

यह भारत-इतिहास एक जाज्वल्यमान दीपक है। यह मोहका अन्धकार मिटाकर 
लोगोंके अन्तःकरण-रूप सम्पूर्ण अन्तरंग गृहको भलीभाँति ज्ञानालोकसे प्रकाशित कर देता 
है || ८७ |। 

संग्रहाध्यायबीजो वै पौलोमास्तीकमूलवान्‌ । 

सम्भवस्कन्धविस्तार: सभारण्यविटड्कवान्‌ ॥। ८८ ।। 

महाभारत-वृक्षका बीज है संग्रहाध्याय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीकपर्व। 
सम्भवपर्व इसके स्कन्धका विस्तार है और सभा तथा अरण्यपर्व पक्षियोंके रहनेयोग्य कोटर 
हैं ।। ८८ ।। 

अरणीपर्वरूपाढ्यो विराटोद्योगसारवान्‌ | 

भीष्मपर्वमहाशाखो द्रोणपर्वपलाशवान्‌ ।। ८९ |।। 

अरणीपर्व इस वृक्षका ग्रन्थिस्थल है। विराट और उद्योगपर्व इसका सारभाग है। 
भीष्मपर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोणपर्व इसके पत्ते हैं || ८९ ।। 

कर्णपर्वसितै: पुष्पै: शल्यपर्वसुगन्धिभि: । 

स्त्रीपर्वीषीकविश्राम: शान्तिपर्वमहाफल: ।। ९० |। 

कर्णपर्व इसके श्वेत पुष्प हैं और शल्यपर्व सुगन्ध। स्त्रीपर्व और ऐषीकपर्व इसकी छाया 
है तथा शान्तिपर्व इसका महान्‌ फल है ।। ९० ।। 

अश्वमेधामृतरसस्त्वाश्रमस्थानसंश्रय: । 

मौसल: श्रुतिसंक्षेप: शिष्टद्धिजनिषेवित: ।। ९१ ।। 

अश्वमेधपर्व इसका अमृतमय रस है और आश्रम-वासिकपर्व आश्रय लेकर बैठनेका 
स्थान। मौसलपर्व श्रुति-रूपा ऊँची-ऊँची शाखाओंका अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवं 
विद्यासे सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं ।। ९१ ।। 

सर्वेषां कविमुख्यानामुपजीव्यो भविष्यति । 

पर्जन्य इव भूतानामक्षयो भारतद्रुम: ।। ९२ ।। 

संसारमें जितने भी श्रेष्ठ कवि होंगे उनके काव्यके लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसे 
मेघ सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है || ९२ ।। 


सौतिरुवाच 


तस्य वृक्षस्य वक्ष्यामि शश्रत्पुष्पफलोदयम्‌ | 
स्वादुमेध्यरसोपेतमच्छेद्यममरैरपि ।। ९३ ।। 


उग्रश्रवाजी कहते हैं-यह भारत एक वृक्ष है। इसके स्वादु, पवित्र, सरस एवं 


अविनाशी पुष्प तथा फल हैं--धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्षसे अलग नहीं कर 
सकते; अब मैं उन्हींका वर्णन करूँगा ।। ९३ ।। 


मातुर्नियोगाद्‌ धर्मात्मा गाड़ेयस्य च धीमत: । 

क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य कृष्णद्वैधायन: पुरा ।। ९४ ।। 

त्रीनग्नीनिव कौरव्यान्‌ जनयामास वीर्यवान्‌ | 

उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डंं विदुरमेव च ।। ९५ ।। 

पहलेकी बात है--शक्तिशाली, धर्मात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन (व्यास)-ने अपनी माता 


सत्यवती और परमज्ञानी गंगापुत्र भीष्मपितामहकी आज्ञासे विचित्रवीर्यकी पत्नी अम्बिका 
आदिके गर्भसे तीन अग्नियोंके समान तेजस्वी तीन कुरुवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम 
हैं--धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर || ९४-९५ ।। 


जगाम तपसे धीमान्‌ पुनरेवाश्रमं प्रति । 

तेषु जातेषु वृद्धेषु गतेषु परमां गतिम्‌ ।। ९६ ।। 

अब्रवीद्‌ भारतं॑ लोके मानुषे5स्मिन्‌ महानृषि: । 

जनमेजयेन पृष्ट: सन्‌ ब्राह्मणैश्व सहस्रश: ।। ९७ ।। 

शशास शिष्यमासीनं वैशम्पायनमन्तिके । 

ससदस्यै: सहासीन: श्रावयामास भारतम्‌ ।। ९८ ।। 

कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमान: पुन: पुनः । 

इन तीन पुत्रोंको जन्म देकर परम ज्ञानी व्यासजी फिर अपने आश्रमपर चले गये। जब 


वे तीनों पुत्र वृद्ध हो परम गतिको प्राप्त हुए, तब महर्षि व्यासजीने इस मनुष्यलोकमें 
महाभारतका प्रवचन किया। जनमेजय और हजारों ब्राह्मणोंके प्रश्न करनेपर व्यासजीने 
पास ही बैठे अपने शिष्य वैशम्पायनको आज्ञा दी कि तुम इन लोगोंको महाभारत सुनाओ। 
वैशम्पायन याज्ञिक सदस्योंके साथ ही बैठे थे, अतः जब यज्ञकर्ममें बीच-बीचमें अवकाश 
मिलता, तब यजमान आदिके बार-बार आग्रह करनेपर वे उन्हें महाभारत सुनाया करते 
थे ।। ९६-९८ $ || 


विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम्‌ ।। ९९ ।। 
क्षत्तु: प्रज्ञां धृतिं कृन्त्या: सम्यग्‌ द्वैघधायनोडब्रवीत्‌ । 
वासुदेवस्य माहात्म्यं पाण्डवानां च सत्यताम्‌ ।। १०० || 
दुर्वत्त धार्तराष्ट्राणामुक्तवान्‌ भगवानृषि: । 

इदं शतसहसंरं तु लोकानां पुण्यकर्मणाम्‌ ।। १०१ ।। 
उपाख्यानै: सह ज्ञेयमाद्यं भारतमुत्तमम्‌ । 


इस महाभारत-पग्रन्थमें व्यासजीने कुरुवंशके विस्तार, गान्धारीकी धर्मशीलता, विदुरकी 
उत्तम प्रज्ञा और कुन्तीदेवीके धैर्यका भलीभाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान्‌ व्यासने 
इसमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके माहात्म्य, पाण्डवोंकी सत्यपरायणता तथा धुृतराष्ट्रपुत्र 
दुर्योधन आदिके दुर्व्यवहारोंका स्पष्ट उल्लेख किया है। पुण्यकर्मा मानवोंके 
उपाख्यानोंसहित एक लाख श्लोकोंके इस उत्तम ग्रन्थको आद्यभारत (महाभारत) जानना 
चाहिये || ९९--१०१ ३ ।। 

चतुर्विशतिसाहस्रीं चक्रे भारतसंहिताम्‌ ।। १०२ ।। 

उपाख्यानैर्विना तावद्‌ भारतं प्रोच्यते बुधैः । 

ततो<प्यर्धशतं भूय: संक्षेपं कृतवानृषि: ॥। १०३ ।। 

अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तान्तं सर्वपर्वणाम्‌ | 

इदं द्वैपायन: पूर्व पुत्रमध्यापयच्छुकम्‌ । १०४ ।। 

तदनन्तर व्यासजीने उपाख्यानभागको छोड़कर चौबीस हजार श्लोकोंकी भारतसंहिता 
बनायी; जिसे विद्वान्‌ पुरुष भारत कहते हैं। इसके पश्चात्‌ महर्षिने पुनः पर्वसहित ग्रन्थमें 
वर्णित वृत्तान्तोंकी अनुक्रमणिका (सूची)-का एक संक्षिप्त अध्याय बनाया, जिसमें केवल 
डेढ़ सौ श्लोक हैं। व्यासजीने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेवजीको इस महाभारत-ग्रन्थका 
अध्ययन कराया || १०२--१०४ ।। 

ततोडन्‍्येभ्यो5नुरूपेभ्य: शिष्येभ्य: प्रददौ विभु: । 

षष्टिं शतसहस््राणि चकारान्यां स संहिताम्‌ ।। १०५ ।। 

तदनन्तर उन्होंने दूसरे-दूसरे सुयोग्य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्योंको इसका उपदेश 
दिया। तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ व्यासने साठ लाख श्लोकोंकी एक दूसरी संहिता 
बनायी ।। १०५ ।। 

त्रिंशच्छतसहस्रं च देवलोके प्रतिछ्ठितम्‌ । 

पित्रये पज्चदश प्रोक्तं गन्धर्वेषु चतुर्देश ।। १०६ ।। 

उसके तीस लाख श्लोक देवलोकमें समादृत हो रहे हैं, पितृलोकमें पंद्रह लाख तथा 
गन्धर्वलोकमें चौदह लाख श्लोकोंका पाठ होता है || १०६ ।। 

एकं शतसहसंर तु मानुषेषु प्रतिक्तितम्‌ । 

नारदो5श्रावयद्‌ देवानसितो देवल: पितृन्‌ ।। १०७ ।। 

इस मनुष्यलोकमें एक लाख शलोकोंका आद्यभारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। देवर्षि 
नारदने देवताओंको और असित-देवलने पितरोंको इसका श्रवण कराया है | १०७ ।। 

गन्धर्वयक्षरक्षांसि श्रावयामास वै शुक: । 

अस्मिंस्तु मानुषे लोके वैशम्पायन उतक्तवान्‌ ।। १०८ ।। 

शिष्यो व्यासस्य धर्मात्मा सर्ववेदविदां वर: | 

एकं शतसहसंं तु मयोक्तं वै निबोधत | १०९ ।। 


शुकदेवजीने गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षसोंको महाभारतकी कथा सुनायी है; परंतु इस 
मनुष्यलोकमें सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंके शिरोमणि व्यास-शिष्य धर्मात्मा वैशम्पायनजीने इसका 
प्रवचन किया है। मुनिवरो! वही एक लाख श्लोकोंका महाभारत आपलोग मुझसे श्रवण 
कीजिये ।। १०८-१०९ ।। 
दुर्योधनो मन्युमयो महाद्रुम: 
स्कन्ध: कर्ण: शकुनिस्तस्य शाखा: । 
दुःशासन: पुष्पफले समद्धे 
मूलं राजा धृतराष्ट्रोडमनीषी || ११० ।। 
दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्षके समान है। कर्ण स्कन्ध, शकुनि शाखा और दुःशासन 
समृद्ध फल-पुष्प है। अज्ञानी राजा धृतराष्ट्र ही इसके मूल हैं- ।। ११० ।। 
युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुम: 
स्कन्धो<र्जुनो भीमसेनो5स्य शाखा: । 
माद्रीसुतौ पुष्पफले समद्धे 
मूलं कृष्णो ब्रह्म च ब्राह्मणाश्व॒ ।। १११ ।। 
युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन स्कनध, भीमसेन शाखा और माद्रीनन्दन इसके 
समृद्ध फल-पुष्प हैं। श्रीकृष्ण, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्षके मूल (जड़) हैं" || १११ ।। 
पाण्ड््जित्वा बहून्‌ देशान्‌ बुद्धया विक्रमणेन च । 
अरण्ये मृगयाशीलो नन्‍्यवसन्मुनिभि: सह ।। ११२ ।। 
महाराज पाण्डु अपनी बुद्धि और पराक्रमसे अनेक देशोंपर विजय पाकर (हिंसक) 
मृगोंकों मारनेके स्वभाववाले होनेके कारण ऋषि-मुनियोंके साथ वनमें ही निवास करते 
थे।। ११२ |। 
मृगव्यवायनिधनात्‌ कृच्छां प्राप स आपदम्‌ | 
जन्मप्रभृति पार्थानां तत्राचारविधिक्रम: ।। ११३ ।। 
एक दिन उन्होंने मृगरूपधारी महर्षिको मैथुनकालमें मार डाला। इससे वे बड़े भारी 
संकटमें पड़ गये (ऋषिने यह शाप दे दिया कि स्त्री-सहवास करनेपर तुम्हारी मृत्यु हो 
जायगी), यह संकट होते हुए भी युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंके जन्मसे लेकर जातकर्म आदि 
सब संस्कार वनमें ही हुए और वहीं उन्हें शील एवं सदाचारकी रक्षाका उपदेश 
हुआ || ११३ |। 
मात्रोरभ्युपपत्तिश्व धर्मोपनिषदं प्रति । 
धर्मस्य वायो: शक्रस्य देवयोशक्ष तथाश्विनो: ।। ११४ ।। 
(पूर्वोक्त शाप होनेपर भी संतान होनेका कारण यह था कि) कुल-धर्मकी रक्षाके लिये 
दुर्वासदद्वारा प्राप्त हुई विद्याका आश्रय लेनेके कारण पाण्डवोंकी दोनों माताओं कुन्ती और 


माद्रीके समीप क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार--इन देवताओंका आगमन 
सम्भव हो सका (इन्हींकी कृपासे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन एवं नकुल-सहदेवकी उत्पत्ति 
हुई) || ११४ ।। 

(ततो धर्मोपनिषद: श्रुत्वा भर्तु: प्रिया पृथा । 

धर्मानिलेन्द्रान्‌ स्तुतिभिर्जुहाव सुतवाउछया । 

तद्दत्तोपनिषन्माद्री चाश्विनावाजुहाव च ।) 

तापसै: सह संवृद्धा मातृभ्यां परिरक्षिता: । 

मेध्यारण्येषु पुण्येषु महतामाश्रमेषु च ।। ११५ ।। 

पतिप्रिया कुन्तीने पतिके मुखसे धर्म-रहस्यकी बातें सुनकर पुत्र पानेकी इच्छासे मन्त्र- 
जप॒पूर्वक स्तुतिद्वारा धर्म, वायु और इन्द्र देववाका आवाहन किया। कुन्तीके उपदेश देनेपर 
माद्री भी उस मन्त्र-विद्याको जान गयी और उसने संतानके लिये दोनों अश्विनीकुमारोंका 
आवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओंसे पाण्डवोंकी उत्पत्ति हुई। पाँचों पाण्डव 
अपनी दोनों माताओंद्वारा ही पाले-पोसे गये। वे वनोंमें और महात्माओंके परम पुण्य 
आश्रमोंमें ही तपस्वी लोगोंके साथ दिनोदिन बढ़ने लगे || ११५ ।। 

ऋषिभिर्यत्तदा5<नीता धार्तराष्ट्रान्‌ प्रति स्‍्वयम्‌ । 

शिशवश्चाभिरूपाश्न जटिला ब्रह्मब॒चारिण: ।। ११६ ।। 

(पाण्डुकी मृत्यु होनेके पश्चात्‌) बड़े-बड़े ऋषि-मुनि स्वयं ही पाण्डवोंको लेकर धृतराष्ट्र 
एवं उनके पुत्रोंक पास आये। उस समय पाण्डव नन्‍्हे-नन्‍्हे शिशुके रूपमें बड़े ही सुन्दर 
लगते थे। वे सिरपर जटा धारण किये ब्रह्मचारीके वेशमें थे | ११६ ।। 

पुत्राश्न भ्रातरश्नेमे शिष्या श्व सुहृदश्ष व: । 

पाण्डवा एत इत्युक्त्वा मुनयो<न्तर्हितास्तत: ।। ११७ ।। 

ऋषियोंने वहाँ जाकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रोंसे कहा--“ये तुम्हारे पुत्र, भाई, शिष्य 
और सुहृद्‌ हैं। ये सभी महाराज पाण्डुके ही पुत्र हैं।। इतना कहकर वे मुनि वहाँसे अन्तर्धान 
हो गये ।। ११७ ।। 

तांस्तै्निवेदितान्‌ दृष्टवा पाण्डवान्‌ कौरवास्तदा । 

शिष्टाश्च वर्णा: पौरा ये ते हर्षाच्चुक्रुशुर्भशम्‌ ।। ११८ ।। 

ऋषियोंद्वारा लाये हुए उन पाण्डवोंको देखकर सभी कौरव और नगरनिवासी, शिष्ट 
तथा वर्णाश्रमी हर्षसे भरकर अत्यन्त कोलाहल करने लगे || ११८ ।। 

आहु: केचिन्न तस्यैते तस्यैत इति चापरे । 

यदा चिरमृत: पाण्डु: कथं तस्येति चापरे ।। ११९ ।। 

कोई कहते, “ये पाण्डुके पुत्र नहीं हैं। दूसरे कहते, “अजी! ये उन्हींके हैं।! कुछ लोग 
कहते, “जब पाण्डुको मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं?” ।। 

स्वागतं सर्वथा दिष्ट्या पाण्डो: पश्याम संततिम्‌ | 


उच्यतां स्वागतमिति वाचो<श्रूयन्त सर्वश: ।। १२० || 

फिर सब लोग कहने लगे, “हम तो सर्वथा इनका स्वागत करते हैं। हमारे लिये बड़े 
सौभाग्यकी बात है कि आज हम महाराज पाण्डुकी संतानको अपनी आँखोंसे देख रहे हैं।' 
फिर तो सब ओरसे स्वागत बोलनेवालोंकी ही बातें सुनायी देने लगीं || १२० ।। 

तस्मिन्नुपरते शब्दे दिश: सर्वा निनादयन्‌ | 

अन्तर्हितानां भूतानां नि:ःस्वनस्तुमुलो5भवत्‌ ॥। १२१ ।। 

दर्शकोंका वह तुमुल शब्द बन्द होनेपर सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करती हुई 
अदृश्य भूतों--देवताओंकी यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूँज उठी--'ये पाण्डव 
ही हैं! ।। १२१ ।। 

पुष्पवृष्टि: शुभा गन्धा: शड्खदुन्दुभिनि:स्वना: । 

आसन प्रवेशे पार्थानां तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। १२२ ।। 

जिस समय पाण्डवोंने नगरमें प्रवेश किया, उसी समय फूलोंकी वर्षा होने लगी, सब 
ओर सुगन्ध छा गयी तथा शंख और दुन्दुभियोंके मांगलिक शब्द सुनायी देने लगे। यह एक 
अद्भुत चमत्कारकी-सी बात हुई ।। १२२ ।। 

तत्प्रीत्या चैव सर्वेषां पौराणां हर्षसम्भव: । 

शब्द आसीन्महांस्तत्र दिव:स्पृक्कीर्तिवर्धन: ।। १२३ ।। 

सभी नागरिक पाण्डवोंके प्रेमसे आनन्दमें भरकर ऊँचे स्वरसे अभिनन्दन-ध्वनि करने 
लगे। उनका वह महान्‌ शब्द स्वर्गलोकतक गूँज उठा जो पाण्डवोंकी कीर्ति बढ़ानेवाला 
था ।। १२३ || 

ते5धीत्य निखिलान्‌ वेदाउ्छास्त्राणि विविधानि च । 

न्यवसन्‌ पाण्डवास्तत्र पूजिता अकुतोभया: ।। १२४ ।। 

वे सम्पूर्ण वेद एवं विविध शास्त्रोंका अध्ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभी 
उनका आदर करते थे और उन्हें किसीसे भय नहीं था || १२४ ।। 

युधिष्ठटिरस्य शौचेन प्रीता: प्रकृतयो5भवन्‌ | 

धृत्या च भीमसेनस्य विक्रमेणार्जुनस्य च ।। १२५ ।। 

गुरुशुश्रूषया क्षान्त्या यमयोर्विनयेन च । 

तुतोष लोक: सकलस्तेषां शौर्यगुणेन च ।। १२६ ।। 

राष्ट्रकी सम्पूर्ण प्रजा युधिष्ठिके शौचाचार, भीमसेनकी धृति, अर्जुनके विक्रम तथा 
नकुल-सहदेवकी गुरुशुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनयसे बहुत ही प्रसन्न होती थी। सब लोग 
पाण्डवोंके शौर्यगुणसे संतोषका अनुभव करते थे- ।। 

समवाये ततो राज्ञां कन्यां भर्त॒स्वयंवराम्‌ | 

प्राप्तवानर्जुन: कृष्णां कृत्वा कर्म सुदुष्करम्‌ | १२७ ।। 


तदनन्तर कुछ कालके पश्चात्‌ राजाओंके समुदायमें अर्जुनने अत्यन्त दुष्कर पराक्रम 
करके स्वयं ही पति चुननेवाली द्रुपदकन्या कृष्णाको प्राप्त किया || १२७ ।। 

ततः प्रभृति लोके5स्मिन्‌ पूज्य: सर्वधनुष्मताम्‌ । 

आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्य: समरेष्वपि चाभवत्‌ | १२८ ।। 

तभीसे वे इस लोकमें सम्पूर्ण धनुर्धारियोंक पूजनीय (आदरणीय) हो गये और 
समरांगणमें प्रचण्ड मार्तण्डकी भाँति प्रतापी अर्जुनकी ओर किसीके लिये आँख उठाकर 
देखना भी कठिन हो गया ।। १२८ ।। 

स सर्वान्‌ पार्थिवाज्‌ जित्वा सर्वाश्ष महतो गणान्‌ । 

आजहारार्जुनो राज्ञो राजसूयं महाक्रतुम्‌ ।। १२९ ।। 

उन्होंने पृथकू-पृथक्‌ तथा महान्‌ संघ बनाकर आये हुए सब राजाओंको जीतकर 
महाराज युधिष्ठिरके राजसूय नामक महायज्ञको सम्पन्न कराया || १२९ |। 

अन्नवान्‌ दक्षिणावांश्व सर्व: समुदितो गुणै: । 

युधिष्ठटिरेण सम्प्राप्तो राजसूयो महाक्रतु: ।। १३० ।। 

सुनयाद्‌ वासुदेवस्य भीमार्जुनबलेन च । 

घातयित्वा जरासन्धं चैद्यं च बलगर्वितम्‌ ।। १३१ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सुन्दर नीति और भीमसेन तथा अर्जुनकी शक्तिसे बलके घमण्डमें 
चूर रहनेवाले जरासन्ध और चेदिराज शिशुपालको मरवाकर धर्मराज युधिष्ठिरने महायज्ञ 
राजसूयका सम्पादन किया। वह यज्ञ सभी उत्तम- गुणोंसे सम्पन्न था। उसमें प्रचुर अन्न और 
पर्याप्त दक्षिणाका वितरण किया गया था ।। १३०-१३१ ।। 

दुर्योधनं समागच्छन्नहणानि ततस्तत: । 

मणिकाउज्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वधनानि च ।। १३२ ।। 

विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च । 

कम्बलाजिनरत्नानि राड़कवास्तरणानि च ।। १३३ ।। 

उस समय इधर-उधर विभिन्न देशों तथा नृपतियोंके यहाँसे मणि, सुवर्ण, रत्न, गाय, 
हाथी, घोड़े, धन-सम्पत्ति, विचित्र वस्त्र, तम्बू, कनात, परदे, उत्तम कम्बल, श्रेष्ठ मृगचर्म तथा 
रंकुनामक मृगके बालोंसे बने हुए कोमल बिछौने आदि जो उपहारकी बहुमूल्य वस्तुएँ 
आतीं, वे दुर्योधनके हाथमें दी जातीं--उसीकी देख-रेखमें रखी जाती थीं || १३२-१३३ ।। 

समृद्धां तां तथा दृष्टवा पाण्डवानां तदा श्रियम्‌ । 

ईर्ष्यासमुत्थ: सुमहांस्तस्य मन्युरजायत ।। १३४ ।। 

उस समय पाण्डवोंकी वह बढ़ी-चढ़ी समृद्धि-सम्पत्ति देखकर दुर्योधनके मनमें 
ईर्ष्याजनित महान्‌ रोष एवं दुःखका उदय हुआ ।। १३४ ।। 

विमानप्रतिमां तत्र मयेन सुकृतां सभाम्‌ | 

पाण्डवानामुपद्तां स दृष्टवा पर्यतप्यत ।। १३५ ।। 


उस अवसरपर मयदानवने पाण्डवोंको एक सभाभवन भेंटमें दिया था, जिसकी 
रूपरेखा विमानके समान थी। वह भवन उसके शिल्पकौशलका एक अच्छा नमूना था। उसे 
देखकर दुर्योधनको और अधिक संताप हुआ ।। १३५ || 

तत्रावहसितश्नासीत्‌ प्रस्कन्दन्निव सम्भ्रमात्‌ । 

प्रत्यक्ष वासुदेवस्थ भीमेनानभिजातवत्‌ ।। १३६ ।। 

उसी सभाभवनमें जब सम्भ्रम (जलमें स्थल और स्थलमें जलका भ्रम) होनेके कारण 
दुर्योधनके पाँव फिसलने-से लगे, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णके सामने ही भीमसेनने उसे गँवार- 
सा सिद्ध करते हुए उसकी हँसी उड़ायी थी || १३६ ।। 

स भोगान्‌ विविधान्‌ भुज्जन्‌ रत्नानि विविधानि च । 

कथितो धृतराष्ट्रस्य विवर्णो हरिण: कृश: ।। १३७ ।। 

दुर्योधन नाना प्रकारके भोग तथा भाँति-भाँतिके रत्नोंका उपयोग करते रहनेपर भी 
दिनोदिन दुबला रहने लगा। उसका रंग फीका पड़ गया। इसकी सूचना कर्मचारियोंने 
महाराज धृतराष्ट्रको दी || १३७ ।। 

अन्वजानातू ततो द्ूतं धृतराष्ट्र: सुतप्रिय: । 

तच्छुत्वा वासुदेवस्थ कोप: समभवन्महान्‌ ।। १३८ ।। 

धृतराष्ट्र अपने उस पुत्रके प्रति अधिक आसक्त थे, अत: उसकी इच्छा जानकर उन्होंने 
उसे पाण्डवोंके साथ जूआ खेलनेकी आज्ञा दे दी। जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह समाचार 
सुना, तब उन्हें धृतराष्ट्रपर बड़ा क्रोध आया ।। १३८ ।। 

नातिप्रीतमनाश्नासीद्‌ विवादांश्वान्चमोदत । 

द्यूतादीननयान्‌ घोरान्‌ विविधांश्षाप्युपैक्षत ।। १३९ ।। 

यद्यपि उनके मनमें कलहकी सम्भावनाके कारण कुछ विशेष प्रसन्नता नहीं हुई, तथापि 
उन्होंने (मौन रहकर) इन विवादोंका अनुमोदन ही किया और भिन्न-भिन्न प्रकारके भयंकर 
अन्याय, द्यूत आदिको देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी ।। १३९ |। 

निरस्य विदुरं भीष्म द्रोणं शारद्वतं कृपम्‌ । 

विग्रहे तुमुले तस्मिन्‌ दहन्‌ क्षत्रं परस्परम्‌ ।। १४० ।। 

(इस अनुमोदन या उपेक्षाका कारण यह था कि वे धर्मनाशक दुष्ट राजाओंका संहार 
चाहते थे। अतः उन्हें विश्वास था कि) इस विग्रहजनित महान्‌ युद्धमें विदुर, भीष्म, 
द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्यकी अवहेलना करके सभी दुष्ट क्षत्रिय एक-दूसरेको अपनी 
क्रोधाग्निमें भस्म कर डालेंगे || १४० ।। 

जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुव्वा सुमहदप्रियम्‌ । 

दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा ।। १४१ ।। 

धृतराष्ट्रश्निरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत्‌ । 

शृणु संजय सर्व मे न चासूयितुमहसि ।। १४२ ।। 


श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्‌ प्राज्ञसम्मतः । 

न विग्रहे मम मतिर्न च प्रीये कुलक्षये ।। १४३ ।। 

जब युद्धमें पाण्डवोंकी जीत होती गयी, तब यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर तथा 
दुर्योधन, कर्ण और शकुनिके दुराग्रहपूर्ण निश्चित विचार जानकर धृतराष्ट्र बहुत देरतक 
चिन्तामें पड़े रहे। फिर उन्होंने संजयसे कहा--'संजय! मेरी सब बातें सुन लो। फिर इस 
युद्ध या विनाशके लिये मुझे दोष न दे सकोगे। तुम विद्धानू, मेधावी, बुद्धिमान्‌ और 
पण्डितके लिये भी आदरणीय हो। इस युद्धमें मेरी सम्मति बिलकुल नहीं थी और यह जो 
हमारे कुलका विनाश हो गया है, इससे मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है ।। १४१-- 
१४३ || 

न मे विशेष: पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा । 

वृद्ध मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणा: ।। १४४ ।। 

मेरे लिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंमें कोई भेद नहीं था। किंतु क्या करूँ? मेरे पुत्र 
क्रोधके वशीभूत हो मुझपर ही दोषारोपण करते थे और मेरी बात नहीं मानते थे ।। १४४ ।। 

अहं त्वचक्षु: कार्पण्यात्‌ पुत्रप्रीत्या सहामि तत्‌ | 

मुहान्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम्‌ ।। १४५ ।। 

मैं अंधा हूँ, अतः कुछ दीनताके कारण और कुछ पुत्रोंके प्रति अधिक आसक्ति होनेसे 
भी वह सब अन्याय सहता आ रहा हूँ। मन्दबुद्धि दुर्योधन जब मोहवश दुःखी होता था, तब 
मैं भी उसके साथ दुःखी हो जाता था || १४५ ।। 

राजसूये श्रियं दृष्टवा पाण्डवस्य महौजस: । 

तच्चावहसन  प्राप्प सभारोहणदर्शने ।। १४६ ।। 

अमर्षण: स्वयं जेतुमशक्त: पाण्डवान्‌ रणे | 

निरुत्साहश्व सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोडपि सन्‌ ।। १४७ ।। 

गान्धारराजसहितश्छट्द्यूतममन्त्रयत्‌ । 

तत्र यद्‌ यद्‌ यथा ज्ञातं मया संजय तच्छुणु || १४८ ।। 

राजसूय-यज्ञमें महापराक्रमी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरकी सर्वोपरि समृद्धि-सम्पत्ति देखकर 
तथा सभाभवनकी सीढ़ियोंपर चढ़ते और उस भवनको देखते समय भीमसेनके द्वारा 
उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्षमें भर गया था। युद्धमें पाण्डवोंको हरानेकी शक्ति तो 
उसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्धके लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परंतु 
पाण्डवोंकी उस उत्तम सम्पत्तिको हथियानेके लिये उसने गान्धारराज शकुनिको साथ लेकर 
कपट॒पूर्ण द्यूत खेलनेका ही निश्चय किया। संजय! इस प्रकार जूआ खेलनेका निश्चय हो 
जानेपर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुए 
मैंने समय-समयपर विजयकी आशाके विपरीत जो-जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ, 
सुनो-- || १४६-१४८ ।। 


श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः । 
ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत ।। १४९ ।। 
सूतनन्दन! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनोंको सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैं 
कितना प्रज्ञाचक्षु हूँ ।। १४९ ।। 
यदाओ्ष॑ धनुरायम्य चित्र 
विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम्‌ । 
कृष्णां द्वतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञां 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५० ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुनने धनुषपर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया और 
उसे धरतीपर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओंके सामने, जबकि वे टुकुर-टुकुर देखते ही 
रह गये, बलपूर्वक द्रौपदीको ले आया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी || १५० ।। 
यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां 
प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन । 
इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरी च यातौ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५१ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुनने द्वारकामें मधुवंशकी राजकुमारी (और श्रीकृष्णकी 
बहिन) सुभद्राको बलपूर्वक हरण कर लिया और श्रीकृष्ण एवं बलराम (इस घटनाका 
विरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थमें आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं हो 
सकती ।। १५१ || 
यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टें 
शर्रैं्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन 
अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५२ ।। 
जब मैंने सुना कि खाण्डवदाहके समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहते 
थे और अर्जुनने उसे अपने दिव्य बाणोंसे रोक दिया तथा अग्निदेवको तृप्त किया, संजय! 
तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५२ ।। 
यदाश्रौष॑ जातुषाद्‌ वेश्मनस्तान्‌ 
मुक्तान्‌ पार्थान्‌ पज्च कुन्त्या समेतान्‌ । 
युक्त चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५३ ।। 
जब मैंने सुना कि लाक्षाभवनसे अपनी मातासहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयं 
विदुर उनकी स्वार्थसिद्धिके प्रयत्नमें तत्पर हैं, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी 
थी ।। १५३ ।। 


यदाश्रौष द्रौपदी रड्गम ध्ये 
लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन । 
शूरान्‌ पज्चालान्‌ पाण्डवेयांश्व युक्तां- 
स्‍्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥। १५४ ।। 
जब मैंने सुना कि रंगभूमिमें लक्ष्यवेध करके अर्जुनने द्रौपदी प्राप्त कर ली है और 
पांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं, संजय! उसी समय मैंने विजयकी 
आशा छोड़ दी ।। १५४ ।। 
यदाओषं मागधानां वरिष्ठ 
जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम्‌ । 
दोर्भ्या हतं भीमसेनेन गत्वा 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १५५ || 
जब मैंने सुना कि मगधराज-शिरोमणि, क्षत्रियजातिके जाज्वल्यमान रत्न जरासन्धको 
भीमसेनने उसकी राजधानीमें जाकर बिना अस्त्र-शस्त्रके हाथोंसे ही चीर दिया। संजय! मेरी 
जीतकी आशा तो तभी टूट गयी ।। १५५ ।। 
यदाश्रौषं दिग्विजये पाण्डुपुत्रै- 
व॑शीकृतान्‌ भूमिपालान्‌ प्रसहा । 
महाक्रतुं राजसूयं कृतं च 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १५६ ।। 
जब मैंने सुना कि दिग्विजयके समय पाण्डवोंने बलपूर्वक बड़े-बड़े भूमिपतियोंको 
अपने अधीन कर लिया और महायज्ञ राजसूय सम्पन्न कर दिया। संजय! तभी मैंने समझ 
लिया कि मेरी विजयकी कोई आशा नहीं है ।। १५६ ।। 
यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं 
सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम्‌ । 
रजस्वलां नाथवतीमनाथवत्‌ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १५७ || 
संजय! जब मैंने सुना कि दु:खिता द्रौपदी रजस्वलावस्थामें आँखोंमें आँसू भरे केवल 
एक वस्त्र पहने वीर पतियोंके रहते हुए भी अनाथके समान भरी सभामें घसीटकर लायी 
गयी है, तभी मैंने समझ लिया था कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५७ ।। 
यदाओईषं वाससां तत्र राशिं 
समाक्षिपत्‌ कितवो मन्दबुद्धि: । 
दुःशासनो गतवान्‌ नैव चान्तं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥। १५८ ।। 


जब मैंने सुना कि धूर्त एवं मन्दबुद्धि दुःशासनने द्रौपदीका वस्त्र खींचा और वहाँ 
वस्त्रोंका इतना ढेर लग गया कि वह उसका पार न पा सका; संजय! तभीसे मुझे विजयकी 
आशा नहीं रही ।। १५८ ।। 
यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं 
पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम्‌ | 
अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयै- 
स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५९ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिरको जूएमें शकुनिने हगा दिया और उनका 
राज्य छीन लिया, फिर भी उनके अतुल बलशाली धीर गम्भीर भाइयोंने युधिष्ठिरका 
अनुगमन ही किया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १५९ ।। 
यदाश्रौष॑ विविधास्तत्र चेष्टा 
धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय । 
ज्येष्प्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६० ।। 
जब मैंने सुना कि वनमें जाते समय धर्मात्मा पाण्डव धर्मराज युधिष्ठिरके प्रेमवश दुःख 
पा रहे थे और अपने हृदयका भाव प्रकाशित करनेके लिये विविध प्रकारकी चेष्टाएँ कर रहे 
थे; संजय! तभी मेरी विजयकी आशा नष्ट हो गयी ।। १६० ।। 
यदाओ्रौष॑ स्नातकानां सहस्रै- 
रन्वागतं धर्मराजं वनस्थम्‌ | 
भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६१ ।। 
जब मैंने सुना कि हजारों स्नातक वनवासी युधिष्ठिरके साथ रह रहे हैं और वे तथा 
दूसरे महात्मा एवं ब्राह्मण उनसे भिक्षा प्राप्त करते हैं। संजय! तभी मैं विजयके सम्बन्धमें 
निराश हो गया ।। १६१ ।। 
यदाश्रौषमर्जुन देवदेवं 
किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे । 
अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्र 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६२ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि किरातवेषधारी देवदेव त्रिलोचन महादेवको युद्धमें संतुष्ट 
करके अर्जुनने पाशुपत नामक महान्‌ अस्त्र प्राप्त कर लिया है, तभी मेरी आशा निराशामें 
परिणत हो गयी ।। १६२ ।। 
(यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान्‌ 
समागतान्‌ महर्षिशि: पुराणै: । 


उपास्यमानान्‌ सगणैर्जातसख्यान्‌ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥) 
यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनज्जयं 
शक्रात्‌ साक्षाद्‌ दिव्यमस्त्रं यथावत्‌ | 
अधीयानं शंसितं सत्यसन्ध॑ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६३ ।। 
जब मैंने सुना कि वनवासमें भी कदुन्तीपुत्रोंके पास पुरातन महर्षिगण पधारते और 
उनसे मिलते हैं। उनके साथ उठते-बैठते और निवास करते हैं तथा सेवक-सम्बन्धियोंसहित 
पाण्डवोंके प्रति उनका मैत्रीभाव हो गया है। संजय! तभीसे मुझे अपने पक्षकी विजयका 
विश्वास नहीं रह गया था। जब मैंने सुना कि सत्यसंध धनंजय अर्जुन स्वर्गमें गये हुए हैं और 
वहाँ साक्षात्‌ इन्द्रसे दिव्य अस्त्र-शस्त्रकी विधिपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और वहाँ उनके 
पौरुष एवं ब्रह्मचर्य आदिकी प्रशंसा हो रही है, संजय! तभीसे मेरी युद्धमें विजयकी आशा 
जाती रही ।। १६३ ।। 
यदाशओ्रौषं कालकेयास्ततस्ते 
पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ता: | 
देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६४ ।। 
जबसे मैंने सुना कि वरदानके प्रभावसे घमंडके नशेमें चूर कालकेय तथा पौलोम 
नामके असुरोंको, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं जीत सकते थे, अर्जुनने बात-की-बातमें 
पराजित कर दिया, तभीसे संजय! मैंने विजयकी आशा कभी नहीं की ।। १६४ ।। 
यदाओ्रषमसुराणां वधार्थे 
किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम्‌ | 
कृतार्थ चाप्यागतं शक्रलोकात्‌ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १६५ ।। 
मैंने जब सुना कि शत्रुओंका संहार करनेवाले किरीटी अर्जुन असुरोंका वध करनेके 
लिये गये थे और इन्द्रलोकसे अपना काम पूरा करके लौट आये हैं, संजय! तभी मैंने समझ 
लिया--अब मेरी जीतकी कोई आशा नहीं ।। १६५ ।। 
(यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं 
पाण्डो: सुतं सहितं लोमशेन । 
तस्मादश्रौषीदर्जुनस्या रर्थला भं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।) 
यदाश्रौष॑ वैश्रवणेन सार्ध 
समागतं भीममन्यांश्व पार्थान्‌ । 


तस्मिन्‌ देशे मानुषाणामगम्ये 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६६ ।। 
जब मैंने सुना कि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर महर्षि लोमशजीके साथ तीर्थयात्रा कर रहे हैं 
और लोमशजीके मुखसे ही उन्होंने यह भी सुना है कि स्वर्गमें अर्जुनको अभीष्ट वस्तु 
(दिव्यास्त्र)-की प्राप्ति हो गयी है, संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा ही छोड़ दी। जब मैंने 
सुना कि भीमसेन तथा दूसरे भाई उस देशमें जाकर, जहाँ मनुष्योंकी गति नहीं है, कुबेरके 
साथ मेल-मिलाप कर आये, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। १६६ ।। 
यदाओ्रौष॑ घोषयात्रागतानां 
बन्ध॑ गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन । 
स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६७ ।। 
जब मैंने सुना कि कर्णकी बुद्धिपर विश्वास करके चलनेवाले मेरे पुत्र घोषयात्राके 
निमित्त गये और गन्धर्वोके हाथ बन्दी बन गये और अर्जुनने उन्हें उनके हाथसे छुड़ाया। 
संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १६७ ।। 
यदाश्रौष॑ं यक्षरूपेण धर्म 
समागतं धर्मराजेन सूत । 
प्रश्नान्‌ कांश्चिद्‌ विब्रुवाणं च सम्यक्‌ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६८ ।। 
सूत संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज यक्षका रूप धारण करके युधिष्ठिरसे मिले और 
युधिष्ठिरने उनके द्वारा किये गये गूढ़ प्रश्नोंका ठीक-ठीक समाधान कर दिया, तभी विजयके 
सम्बन्धमें मेरी आशा टूट गयी ।। १६८ ।। 
यदाश्रौष॑ न विदुर्मामकास्तान्‌ 
प्रच्छन्नरूपान्‌ वसत: पाण्डवेयान्‌ | 
विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६९ ।। 
संजय! विराटकी राजधानीमें गुप्तरूपसे द्रौपदीके साथ पाँचों पाण्डव निवास कर रहे 
थे, परंतु मेरे पुत्र और उनके सहायक इस बातका पता नहीं लगा सके; जब मैंने यह बात 
सुनी, मुझे यह निश्चय हो गया कि मेरी विजय सम्भव नहीं है ।। १६९ ।। 
(यदाओ्रषं कीचकानां वरिष्ठ 
निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम्‌ 
द्रौपद्यर्थ भीमसेनेन संख्ये 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।) 
यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान्‌ 


धनज्जयेनैकरथेन भग्नान्‌ | 
विराटराष्ट्रे वसता महात्मना 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७० ।। 

संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेनने द्रौपदीके प्रति किये हुए अपराधका बदला लेनेके 
लिये कीचकोंके सर्वश्रेष्ठ वीरको उसके सौ भाइयोंसहित युद्धमें मार डाला था, तभीसे मुझे 
विजयकी बिलकुल आशा नहीं रह गयी थी। संजय! जब मैंने सुना कि विराटकी राजधानीमें 
रहते समय महात्मा धनंजयने एकमात्र रथकी सहायतासे हमारे सभी श्रेष्ठ महारथियोंको 
(जो गो-हरणके लिये पूर्ण तैयारीके साथ वहाँ गये थे) मार भगाया, तभीसे मुझे विजयकी 
आशा नहीं रही ।। १७० ।। 

यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा 

सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय । 
तां चार्जुन: प्रत्यगृह्नात्‌ सुतार्थे 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७१ ।। 

जिस दिन मैंने यह बात सुनी कि मत्स्यराज विराटने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री 
उत्तराको अर्जुनके हाथ अर्पित कर दिया, परंतु अर्जुनने अपने लिये नहीं, अपने पुत्रके लिये 
उसे स्वीकार किया, संजय! उसी दिनसे मैं विजयकी आशा नहीं करता था ।। १७१ |। 

यदाश्रौष॑ निर्जितस्याधनस्य 

प्रत्राजितस्य स्वजनात्‌ प्रच्युतस्य । 
अक्षौहिणी: सप्त युधिष्ठिरस्य 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७२ ।। 

संजय! युथधिष्छिर जूएमें पराजित हैं, निर्धन हैं, घरसे निकाले हुए हैं और अपने सगे- 
सम्बन्धियोंसे बिछुड़े हुए हैं। फिर भी जब मैंने सुना कि उनके पास सात अक्षौहिणी सेना 
एकत्र हो चुकी है, तभी विजयके लिये मेरे मनमें जो आशा थी, उसपर पानी फिर 
गया ।। १७२ ।। 

यदाश्रौष॑ माधवं वासुदेवं 

सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम्‌ । 
यस्थेमां गां विक्रममेकमाहु- 
स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७३ ।। 

(वामनावतारके समय) यह सम्पूर्ण पृथ्वी जिनके एक डगमें ही आ गयी बतायी जाती 
है, वे लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्ण पूरे हृदयसे पाण्डवोंकी कार्यसिद्धिके लिये तत्पर हैं, जब 
यह बात मैंने सुनी, संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७३ ।। 

यदाश्रौष॑ नरनारायणौ तौ 

कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य । 


अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक्‌ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७४ ।। 
जब देवर्षि नारदके मुखसे मैंने यह बात सुनी कि श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात्‌ नर और 
नारायण हैं और इन्हें मैंने ब्रह्मलोकमें भलीभाँति देखा है, तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ 
दी || १७४ ।। 
यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं 
शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम्‌ | 
शमं कुर्वाणमकृतार्थ च यातं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७५ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण लोककल्याणके लिये शान्तिकी 
इच्छासे आये हुए हैं और कौरव-पाण्डवोंमें शान्ति-सन्धि करवाना चाहते हैं, परंतु वे अपने 
प्रयासमें असफल होकर लौट गये, तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७५ ।। 
यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां 
बुद्धि कृतां निग्रहे केशवस्य । 
त॑ चात्मानं बहुधा दर्शयानं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७६ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि कर्ण और दुर्योधन दोनोंने यह सलाह की है कि श्रीकृष्णको 
कैद कर लिया जाय और श्रीकृष्णने अपने-आपको अनेक रूपोंमें विराट्‌ या अखिल विश्वके 
रूपमें दिखा दिया, तभीसे मैंने विजयाशा त्याग दी थी ।। १७६ ।। 


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गीताप्रेस, गोरखपुर... 








अवतारके लिये प्रार्थना 





सिंह-बाघोंमें बालक भरत 


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एकलव्यकी गुरु-दक्षिणा 
































द्रौपदी-स्वयंवर 








प्रभासक्षेत्रमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका मिलन 


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यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते 
रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम्‌ । 
आर्ता पृथां सान्त्वितां केशवेन 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७७ ।। 
जब मैंने सुना--यहाँसे श्रीकृष्णके लौटते समय अकेली कुन्ती उनके रथके 
सामने आकर खड़ी हो गयी और अपने हृदयकी आर्ति-वेदना प्रकट करने लगी, 
तब श्रीकृष्णने उसे भलीभाँति सान्त्वना दी। संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा 
छोड़ दी ।। १७७ |। 
यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेव॑ 
तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम्‌ | 
भारद्वाजं चाशिषो*नुब्रुवा्ं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १७८ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि श्रीकृष्ण पाण्डवोंके मन्त्री हैं और शान्तनुनन्दन 
भीष्म तथा भारद्वाज द्रोणाचार्य उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं, तब मुझे विजय- 
प्राप्तिकी किंचित्‌ भी आशा नहीं रही ।। १७८ ।। 
यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्म॑ 
नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति । 
हित्वा सेनामपचक्राम चापि 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७९ ।। 
जब कर्णने भीष्मसे यह बात कह दी कि “जबतक तुम युद्ध करते रहोगे 
तबतक मैं पाण्डवोंसे नहीं लडूँगा', इतना ही नहीं--वह सेनाको छोड़कर हट 
गया, संजय! तभीसे मेरे मनमें विजयके लिये कुछ भी आशा नहीं रह 
गयी ।। १७९ |। 
यदाश्रौष॑ वासुदेवार्जुनौ तौ 
तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम्‌ । 
त्रीण्युग्रवीयाणि समागतानि 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८० ।॥। 
संजय! जब मैंने सुना कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण, वीरवर अर्जुन और अतुलित 
शक्तिशाली गाण्डीव धनुष--ये तीनों भयंकर प्रभावशाली शक्तियाँ इकट्टी हो 
गयी हैं, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी || १८० ।। 
यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने 
रथोपस्थे सीदमानेअर्जुने वै । 
कृष्णं लोकान्‌ दर्शयानं शरीरे 


तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८१ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि रथके पिछले भागमें स्थित मोहग्रस्त अर्जुन 
अत्यन्त दुःखी हो रहे थे और श्रीकृष्णने अपने शरीरमें उन्हें सब लोकोंका दर्शन 
करा दिया, तभी मेरे मनसे विजयकी सारी आशा समाप्त हो गयी ।। १८१ ।। 
यदाश्रौष॑ भीष्मममित्रकर्शनं 
निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम्‌ । 
नैषां कश्चिद्‌ वध्यते ख्यातरूप- 
स्‍्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८२ ।। 
जब मैंने सुना कि शत्रुघाती भीष्म रणांगणमें प्रतिदिन दस हजार रथियोंका 
संहार कर रहे हैं, परंतु पाण्डवोंका कोई प्रसिद्ध योद्धा नहीं मारा जा रहा है, 
संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १८२ ।। 
यदाश्रौष॑ चापगेयेन संख्ये 
स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण । 
तच्चाकार्षु: पाण्डवेया: प्रह्ृष्टा- 
स्‍्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८३ ।। 
जब मैंने सुना कि परम धार्मिक गंगानन्दन भीष्मने युद्धभूमिमें पाण्डवोंको 
अपनी मृत्युका उपाय स्वयं बता दिया और पाण्डवोंने प्रसन्न होकर उनकी उस 
आज्ञाका पालन किया। संजय! तभी मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १८३ ।। 
यदाओ्रौष॑ भीष्ममत्यन्तशूरं 
हत॑ पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्‌ । 
शिखण्डिनं पुरत: स्थापयित्वा 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८४ ।। 
जब मैंने सुना कि अर्जुनने सामने शिखण्डीको खड़ा करके उसकी ओटसे 
सर्वथा अजेय अत्यन्त शूर भीष्मपितामहको युद्धभूमिमें गिरा दिया। संजय! 
तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। १८४ ।। 
यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं 
वृद्ध वीरं सादितं चित्रपुड्खै: । 
भीष्म कृत्वा सोमकानल्पशेषां- 
स्‍्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८५ ।। 
जब मैंने सुना कि हमारे वृद्ध वीर भीष्मपितामह अधिकांश सोमकवंशी 
योद्धाओंका वध करके अर्जुनके बाणोंसे क्षत-विक्षत शरीर हो शरशय्यापर शयन 
कर रहे हैं, संजय! तभी मैंने समझ लिया अब मेरी विजय नहीं हो 
सकती ।। १८५ ।। 


यदाओ्रौष॑ शान्तनवे शयाने 
पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन । 
भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्म॑ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १८६ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि शान्तनुनन्दन भीष्मपितामहने शरशय्यापर सोते 
समय अर्जुनको संकेत किया और उन्होंने बाणसे धरतीका भेदन करके उनकी 
प्यास बुझा दी, तब मैंने विजयकी आशा त्याग दी || १८६ ।। 
यदा वायुश्नन्द्रसूर्यों च युक्तौ 
कौन्तेयानामनुलोमा जयाय । 
नित्यं चास्माउश्वापदा भीषयन्ति 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८७ ।। 
जब वायु अनुकूल बहकर और चन्द्रमा-सूर्य लाभस्थानमें संयुक्त होकर 
पाण्डवोंकी विजयकी सूचना दे रहे हैं और कुत्ते आदि भयंकर प्राणी प्रतिदिन 
हमलोगोंको डरा रहे हैं। संजय! तब मैंने विजयके सम्बन्धमें अपनी आशा छोड़ 
दी ।। १८७ || 
यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान्‌ 
निदर्शयन्‌ समरे चित्रयोधी । 
न पाण्डवाउश्रेष्ठतरान्‌ निहन्ति 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १८८ ।। 
संजय! हमारे आचार्य ट्रोण बेजोड़ योद्धा थे और उन्होंने रणांगणमें अपने 
अस्त्र-शस्त्रके अनेकों विविध कौशल दिखलाये, परंतु जब मैंने सुना कि वे वीर- 
शिरोमणि पाण्डवोंमेंसे किसी एकका भी वध नहीं कर रहे हैं, तब मैंने विजयकी 
आशा त्याग दी ।। १८८ ।। 
यदाश्रौष॑ चास्मदीयान्‌ महारथान्‌ 
व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय । 
संशप्तकान्‌ निहतानर्जुनेन 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८९ ।। 
संजय! मेरी विजयकी आशा तो तभी नहीं रही जब मैंने सुना कि मेरे जो 
महारथी वीर संशप्तक योद्धा अर्जुनके वधके लिये मोर्चेपर डटे हुए थे, उन्हें 
अकेले ही अर्जुनने मौतके घाट उतार दिया ।। १८९ |।। 
यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यै- 
भरिद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम्‌ । 
भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं 


तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९० ।। 
संजय! स्वयं भारद्वाज द्रोणाचार्य अपने हाथमें शस्त्र उठाकर उस 
चक्रव्यूहकी रक्षा कर रहे थे, जिसको कोई दूसरा तोड़ ही नहीं सकता था, परंतु 
सुभद्रानन्दन वीर अभिमन्यु अकेला ही छित्न-भिन्न करके उसमें घुस गया, जब 
यह बात मेरे कानोंतक पहुँची, तभी मेरी विजयकी आशा लुप्त हो 
गयी ।। १९० ।। 
यदाभिमन्युं परिवार्य बालं 
सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवु: । 
महारथा: पार्थमशवनुवन्त- 
स्‍्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९१ ।। 
संजय! मेरे बड़े-बड़े महारथी वीरवर अर्जुनके सामने तो टिक न सके और 
सबने मिलकर बालक अभिमन्युको घेर लिया और उसको मारकर हर्षित होने 
लगे, जब यह बात मुझतक पहुँची, तभीसे मैंने विजयकी आशा त्याग 
दी ।। १९१ ।। 
यदाओऔषमभिमन्युं निहत्य 
हर्षान्मूढान्‌ क्रोशतो धार्तराष्ट्रानू । 
क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९२ ।। 
जब मैंने सुना कि मेरे मूढ़ पुत्र अपने ही वंशके होनहार बालक अभिमन्युकी 
हत्या करके हर्षपूर्ण कोलाहल कर रहे हैं और अर्जुनने क्रोधवश जयद्रथको 
मारनेकी भीषण प्रतिज्ञा की है, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ 
दी || १९२ ।। 
यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां 
प्रतिज्ञातां तद्गधायार्जुनेन । 
सत्यां तीर्णा शत्रुमध्ये च तेन 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९३ ।। 
जब मैंने सुना कि अर्जुनने जयद्रथको मार डालनेकी जो दृढ़ प्रतिज्ञा की थी, 
उसने वह शत्रुओंसे भरी रणभूमिमें सत्य एवं पूर्ण करके दिखा दी। संजय! 
तभीसे मुझे विजयकी सम्भावना नहीं रह गयी ।। १९३ ।। 
यदाओष॑ श्रान्तहये धनज्जये 
मुक्त्वा हयान्‌ पाययित्वोपवृत्तान्‌ | 
पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९४ ।। 


युद्धभूमिमें धनज्जय अर्जुनके घोड़े अत्यन्त श्रान्त और प्याससे व्याकुल हो 
रहे थे। स्वयं श्रीकृष्णने उन्हें रथसे खोलकर पानी पिलाया। फिरसे रथके निकट 
लाकर उन्हें जोत दिया और अर्जुनसहित वे सकुशल लौट गये। जब मैंने यह 
बात सुनी, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। १९४ ।। 
यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु 
रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन । 
सर्वान्‌ योधान्‌ वारितानर्जुनेन 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९५ ।। 
जब संग्रामभूमिमें रथके घोड़े अपना काम करनेमें असमर्थ हो गये, तब 
रथके समीप ही खड़े होकर पाण्डववीर अर्जुनने अकेले ही सब योद्धाओंका 
सामना किया और उन्हें रोक दिया। मैंने जिस समय यह बात सुनी, संजय! उसी 
समय मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९५ ।। 
यदाश्रौष॑ नागबलै: सुदुःसहं 
द्रोणानीक॑ युयुधानं प्रमथ्य । 
यात॑ वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थो 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९६ ।। 
जब मैंने सुना कि वृष्णिवंशावतंस युयुधान--सात्यकिने अकेले ही 
द्रोणाचार्यकी उस सेनाको, जिसका सामना हाथियोंकी सेना भी नहीं कर सकती 
थी, तितर-बितर और तहस-नहस कर दिया तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके पास 
पहुँच गये। संजय! तभीसे मेरे लिये विजयकी आशा असम्भव हो 
गयी ।। १९६ || 
यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्त 
वधाद्‌ भीम॑ कुत्सयित्वा वचोभि: । 
धनुष्कोट्या55तुद्य कर्णेन वीरं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९७ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि वीर भीमसेन कर्णके पंजेमें फँस गये थे, परंतु 
कर्णने तिरस्कारपूर्वक झिड़ककर और धनुषकी नोक चुभाकर ही छोड़ दिया 
तथा भीमसेन मृत्युके मुखसे बच निकले। संजय! तभी मेरी विजयकी आशापर 
पानी फिर गया ।। १९७ ।। 
यदा द्रोण: कृतवर्मा कृपश्न 
कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्व शूर: । 
अमर्षयन्‌ सैन्धवं वध्यमानं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९८ ।। 


जब मैंने सुना कि द्रोणाचार्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कर्ण और अभश्वत्थामा 
तथा वीर शल्यने भी सिन्धुराज जयद्रथका वध सह लिया, प्रतीकार नहीं किया। 
संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९८ ।। 
यदाश्रौष॑ देवराजेन दत्तां 
दिव्यां शक्ति व्यंसितां माधवेन । 
घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १९९ ।। 
संजय! देवराज इन्द्रने कर्णको कवचके बदले एक दिव्य शक्ति दे रखी थी 
और उसने उसे अर्जुनपर प्रयुक्त करनेके लिये रख छोड़ा था; परंतु मायापति 
श्रीकृष्णने भयंकर राक्षस घटोत्कचपर छुड़वाकर उससे भी वंचित करवा दिया। 
जिस समय यह बात मैंने सुनी, उसी समय मेरी विजयकी आशा टूट 
गयी ।। १९९ || 
यदाश्रौष॑ कर्णघटोत्कचाभ्यां 
युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम्‌ । 
यया वध्य: समरे सव्यसाची 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०० ।। 
जब मैंने सुना कि कर्ण और घटोत्कचके युद्धमें कर्णने वह शक्ति 
घटोत्कचपर चला दी, जिससे रणांगणमें अर्जुनका वध किया जा सकता था। 
संजय! तब मैंने विजयकी आशा छोड़ दी || २०० |। 
यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेक॑ 
धृष्टय्युम्नेना भ्यतिक्रम्य धर्मम्‌ । 
रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०१ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि आचार्य द्रोण पुत्रकी मृत्युके शोकसे शस्त्रादि 
छोड़कर आमरण अनशन करनेके निश्चयसे अकेले रथके पास बैठे थे और 
धृष्टद्युम्नने धर्मयुद्धकी मर्यादाका उल्लंघन करके उन्हें मार डाला, तभी मैंने 
विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। २०१ |। 
यदाश्रौषं ट्रौणिना द्वैरथस्थं 
माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये । 
सम॑ युद्धे मण्डले भ्य क्षरन्तं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०२ ।। 
जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा-जैसे वीरके साथ बड़े-बड़े वीरोंके सामने ही 
माद्रीनन्दन नकुल अकेले ही अच्छी तरह युद्ध कर रहे हैं। संजय! तब मुझे 


जीतकी आशा न रही ।। २०२ |। 
यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो 
नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन्‌ 
नैषामन्तं गतवान्‌ पाण्डवानां 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०३ ।। 
जब द्रोणाचार्यकी हत्याके अनन्तर अश्वत्थामाने दिव्य नारायणास्त्रका प्रयोग 
किया; परंतु उससे वह पाण्डवोंका अन्त नहीं कर सका। संजय! तभी मेरी 
विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। २०३ ।। 
यदाओ्रौष॑ भीमसेनेन पीत॑ 
रक्त भ्रातुर्युधि दःशासनस्य । 
निवारितं नान्यतमेन भीम॑ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०४ ।। 
जब मैंने सुना कि रणभूमिमें भीमसेनने अपने भाई दुःशासनका रक्तपान 
किया, परंतु वहाँ उपस्थित सत्पुरुषोंमेंसे किसी एकने भी निवारण नहीं किया। 
संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा बिलकुल नहीं रह गयी || २०४ ।। 
यदाश्रौष॑ कर्णमत्यन्तशूरं 
हत॑ पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्‌ । 
तस्मिन्‌ भ्रातृणां विग्रहे देवगुहो 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०५ ।। 
संजय! वह भाईका भाईसे युद्ध देवताओंकी गुप्त प्रेरणासे हो रहा था। जब 
मैंने सुना कि भिन्न-भिन्न युद्धभूमियोंमें कभी पराजित न होनेवाले अत्यन्त 
शूरशिरोमणि कर्णको पृथापुत्र अर्जुनने मार डाला, तब मेरी विजयकी आशा नष्ट 
हो गयी ।। २०५ ।। 
यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूर 
दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम्‌ । 
युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०६ ।। 
जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, शूरवीर दुःशासन 
एवं उम्र योद्धा कृतवर्माको भी युद्धमें जीत रहे हैं, संजय! तभीसे मुझे विजयकी 
आशा नहीं रह गयी || २०६ ।। 
यदाओ्ष॑ निहत॑ मद्रराजं॑ 
रणे शूरं धर्मराजेन सूत । 
सदा संग्रामे स्पर्थते यस्तु कृष्णं 


तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०७ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि रणभूमिमें धर्मराज युधिष्ठिरने शूरशिरोमणि 
मद्रराज शल्यको मार डाला, जो सर्वदा युद्धमें घोड़े हाँकनेके सम्बन्धमें 
श्रीकृष्णकी होड़ करनेपर उतारू रहता था, तभीसे मैं विजयकी आशा नहीं 
करता था || २०७ || 
यदाशओ्रौषं कलहयद्यूतमूलं 
मायाबलं सौबलं पाण्डवेन | 
हतं संग्रामे सहदेवेन पाप॑ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०८ ।। 
जब मैंने सुना कि कलहकारी द्यूतके मूल कारण, केवल छल-कपटके बलसे 
बली पापी शकुनिको पाण्डुनन्दन सहदेवने रणभूमिमें यमराजके हवाले कर 
दिया, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। २०८ ।। 
यदाश्रौषं श्रान्तमेक॑ शयानं 
हृद॑ गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भ: | 
दुर्योधनं विरथं भग्नशक्ति 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०९ ।। 
जब दुर्योधनका रथ छित्न-भिन्न हो गया, शक्ति क्षीण हो गयी और वह थक 
गया, तब सरोवरपर जाकर वहाँका जल स्तम्भित करके उसमें अकेला ही सो 
गया। संजय! जब मैंने यह संवाद सुना, तब मेरी विजयकी आशा भी चली 
गयी || २०९ |। 
यदाश्रौष॑ पाण्डवांस्तिष्ठमानान्‌ 
गत्वा हदे वासुदेवेन सार्थम्‌ । 
अमर्षणं धर्षयत: सुतं मे 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१० ।। 
जब मैंने सुना कि उसी सरोवरके तटपर श्रीकृष्णके साथ पाण्डव जाकर 
खड़े हैं और मेरे पुत्रको असहा दुर्वचन कहकर नीचा दिखा रहे हैं, तभी संजय! 
मैंने विजयकी आशा सर्वथा त्याग दी || २१० ।। 
यदाश्रौष॑ विविधांश्रित्रमार्गान्‌ 
गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम्‌ । 
मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्धया 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २११ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि गदायुद्धमें मेरा पुत्र बड़ी निपुणतासे पैंतरे 
बदलकर रणकौशल प्रकट कर रहा है और श्रीकृष्णकी सलाहसे भीमसेनने 


गदायुद्धकी मर्यादाके विपरीत जाँघमें गदाका प्रहार करके उसे मार डाला, तब 
तो संजय! मेरे मनमें विजयकी आशा रह ही नहीं गयी || २११ ।। 
यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तै- 
हतान्‌ पज्चालान  द्रौपदेयांश्व सुप्तान्‌ । 
कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१२ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि अअश्वत्थामा आदि दुष्टोंने सोते हुए पाउ्चाल 
नरपतियों और द्रौपदीके होनहार पुत्रोंको मारकर अत्यन्त बीभत्स और वंशके 
यशको कलंकित करनेवाला काम किया है, तब तो मुझे विजयकी आशा रही ही 
नहीं ।। २१२ ।। 
यदाओष॑ भीमसेनानुयाते- 
नाश्वत्थाम्ना परमास्त्र प्रयुक्तम्‌ । 
क्रुद्धेनेषीकमवधीद्‌ येन गर्भ 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१३ ।। 
संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेनके पीछा करनेपर अभ्वत्थामाने 
क्रोधपूर्वक सींकके बाणपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग कर दिया, जिससे कि पाण्डवोंका 
गर्भस्थ वंशधर भी नष्ट हो जाय, तभी मेरे मनमें विजयकी आशा नहीं 
रही ।। २१३ ।। 
यदाश्रौषं ब्रह्मशिरो<र्जुनेन 
स्वस्तीत्युक्त्वास्त्रमस्त्रेण शान्तम्‌ । 
अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं 
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१४ ।। 
जब मैंने सुना कि अअभश्वत्थामाके द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मशिर अस्त्रको अर्जुनने 
'स्वस्ति', 'स्वस्ति” कहकर अपने अस्त्रसे शान्त कर दिया और अभश्वत्थामाको 
अपना मणिरत्न भी देना पड़ा। संजय! उसी समय मुझे जीतकी आशा नहीं 
रही ।। २१४ ।। 
यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भे 
वैराट्या वै पात्यमाने महास्त्रै: 
द्वैपायन: केशवो द्रोणपुत्र 
परस्परेणाभिशापै: शशाप || २१५ ।। 
शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैर्विहीना 
तथा बन्धुभि: पितृभि भ्रतिभिश्न । 
कृतं कार्य दुष्करं पाण्डवेयै: 


प्राप्त राज्यमसपत्नं पुनस्तै: ।। २१६ ।। 
जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा अपने महान्‌ अस्त्रोंका प्रयोग करके उत्तराका 
गर्भ गिरानेकी चेष्टा कर रहा है तथा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास और स्वयं भगवान्‌ 
श्रीकृष्णने परस्पर विचार करके उसे शापोंसे अभिशप्त कर दिया है (तभी मेरी 
विजयकी आशा सदाके लिये समाप्त हो गयी)। इस समय गान्धारीकी दशा 
शोचनीय हो गयी है; क्योंकि उसके पुत्र-पौत्र, पिता तथा भाई-बन्धुओंमेंसे कोई 
नहीं रहा। पाण्डवोंने दुष्कर कार्य कर डाला। उन्होंने फिरसे अपना अकण्टक 
राज्य प्राप्त कर लिया || २१५-२१६ |। 
कष्ट युद्धे दश शेषा: श्रुता मे 
त्रयो5स्माकं पाण्डवानां च सप्त । 
दयूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां 
तस्मिन्‌ संग्रामे भैरवे क्षत्रियाणाम्‌ ।। २१७ ।। 
हाय-हाय! कितने कष्टकी बात है, मैंने सुना है कि इस भयंकर युद्धमें केवल 
दस व्यक्ति बचे हैं; मेरे पक्षके तीन--कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा तथा 
पाण्डवपक्षके सात--श्रीकृष्ण, सात्यकि और पाँचों पाण्डव। क्षत्रियोंके इस 
भीषण संग्राममें अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हो गयीं || २१७ ।। 
तमस्त्वतीव विस्तीर्ण मोह आविशतीव माम्‌ । 
संज्ञां नोपलभे सूत मनो विद्धलतीव मे ।। २१८ ।। 
सारथे! यह सब सुनकर मेरी आँखोंके सामने घना अन्धकार छाया हुआ है। 
मेरे हृदयमें मोहका आवेश-सा होता जा रहा है। मैं चेतना-शून्य हो रहा हूँ। मेरा 
मन विह्नल-सा हो रहा है ।। २१८ ।। 
सौतिर्वाच 


इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रो<थ विलप्य बहुदु:खित: । 

मूर्च्छित: पुनराश्वस्त: संजयं वाक्यमब्रवीत्‌ ।। २१९ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--धृतराष्ट्रने ऐसा कहकर बहुत विलाप किया और 
अत्यन्त दुःखके कारण वे मूर्च्छित हो गये। फिर होशमें आकर कहने 
लगे ।| २१९ |। 

धृतराष्ट्र रवाच 

संजयीैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम्‌ | 

स्तोक॑ हापि न पश्यामि फलं जीवितधारणे ।। २२० ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--संजय! युद्धका यह परिणाम निकलनेपर अब मैं 
अविलम्ब अपने प्राण छोड़ना चाहता हूँ। अब जीवन-धारण करनेका कुछ भी 


फल मुझे दिखलायी नहीं देता || २२० ।। 
सौतिर्वाच 


त॑ तथावादिनं दीन विलपन्तं महीपतिम्‌ | 

निःश्वसन्तं यथा नागं मुहा[मानं पुनः पुन: ।। २२१ ।। 

गावल्गणिरिदं धीमान्‌ महार्थ वाक्‍्यमब्रवीत्‌ | 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--जब राजा धृतराष्ट्र दीनतापूर्वक विलाप करते हुए 
ऐसा कह रहे थे और नागके समान लम्बी साँस ले रहे थे तथा बार-बार मूर्च्छित 
होते जा रहे थे, तब बुद्धिमान्‌ संजयने यह सारगर्भित प्रवचन किया ।। २२१३ 

|| 
संजय उवाच 

श्रुतवानसि वै राजन्‌ महोत्साहान्‌ महाबलान्‌ ॥। २२२ ।। 

द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमत: । 

संजयने कहा--महाराज! आपने परम ज्ञानी देवर्षि नारद एवं महर्षि 
व्यासके मुखसे महान्‌ उत्साहसे युक्त एवं परम पराक्रमी नृपतियोंका चरित्र 
श्रवण किया है || २२२६ ।। 

महत्सु राजवंशेषु गुणै: समुदितेषु च ।। २२३ ।। 

जातान्‌ दिव्यास्त्रविदुष: शक्रप्रतिमतेजस: । 

धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्जैरिष्टवाप्तदक्षिणै: || २२४ ।। 

अस्मिल्‍्लोके यश: प्राप्प ततः कालवशं गतान्‌ । 

शैब्यं महारथं वीरं॑ सृज्जयं जयतां वरम्‌ ।। २२५ ।। 

सुहोत्र रन्तिदेवं च काक्षीवन्तमथौशिजम्‌ | 

बाह्लीकं दमन चैद्यं शर्यातिमजितं नलम्‌ ।। २२६ ।। 

विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम्‌ । 

मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुं गयं भरतमेव च ।। २२७ ।। 

रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दुं भगीरथम्‌ । 

कृतवीर्य महाभागं तथैव जनमेजयम्‌ ।। २२८ ।। 

ययातिं शुभकर्माणं देवैयों याजित: स्वयम्‌ । 

चैत्ययूपाड्किता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा ।। २२९ ।। 

इति राज्ञां चतुर्विशन्नारदेन सुरर्िणा । 

पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा श्वैत्याय कीर्तितम्‌ ।। २३० ।। 

आपने ऐसे-ऐसे राजाओंके चरित्र सुने हैं जो सर्वसद्गुणसम्पन्न महान्‌ 
राजवंशोंमें उत्पन्न, दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंके पारदर्शी एवं देवराज इन्द्रके समान 


प्रभावशाली थे। जिन्होंने धर्मयुद्धसे पृथ्वीपर विजय प्राप्त की, बड़ी-बड़ी 
दक्षिणावाले यज्ञ किये, इस लोकमें उज्ज्वल यश प्राप्त किया और फिर कालके 
गालमें समा गये। इनमेंसे महारथी शैब्य, विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ संजय, सुहोत्र, 
रन्तिदेव, काक्षीवान, औशिज, बाह्लीक, दमन, चैद्य, शर्याति, अपराजित नल, 
शत्रुघाती विश्वामित्र, महाबली अम्बरीष, मरुत्त, मनु, इक्ष्वाकु, गय, भरत 
दशरथनन्दन श्रीराम, शशबिन्दु, भगीरथ, महाभाग्यशाली कृतवीर्य, जनमेजय 
और वे शुभकर्मा ययाति, जिनका यज्ञ देवताओंने स्वयं करवाया था, जिन्होंने 
अपनी राष्ट्रभूमिको यज्ञोंकी खान बना दिया था और सारी पृथ्वी यज्ञ-सम्बन्धी 
यूपों (खंभों)-से अंकित कर दी थी--इन चौबीस राजाओंका वर्णन पूर्वकालमें 
देवर्षि नारदने पुत्रशोकसे अत्यन्त संतप्त महाराज श्रवैत्यका दुःख दूर करनेके 
लिये किया था || २२३--२३० || 

तेभ्यश्वान्ये गता: पूर्व राजानो बलवत्तरा: । 

महारथा महात्मान: सर्वे: समुदिता गुणै: ।। २३१ ।। 

पूरु: कुरुर्यदु: शूरो विष्वगश्वो महाद्युति: । 

अणुहो युवनाश्वश्व॒ ककुत्स्थो विक्रमी रघु: ।। २३२ ।। 

विजयो वीतिहोत्रो5ड़ो भव: श्वेतो बृहद्गुरु: । 

उशीनर: शतरथ: कड़को दुलिदुहो द्रुम: | २३३ ।। 

दम्भोद्धव: परो वेन: सगर: संकृतिर्निमि: । 

अजेय: परशु: पुण्ड: शम्भुर्देवावधोडनघ: ।। २३४ ।। 

देवाह्वयः सुप्रतिम: सुप्रतीको बृहद्रथः । 

महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुर्नैषधो नलः ।। २३५ ।। 

सत्यव्रत: शान्तभय: सुमित्र: सुबल: प्रभु: । 

जानुजड्घो5नरण्यो<र्क: प्रियभृत्य: शुचिव्रत: ।। २३६ ।। 

बलबन्धुर्निरामर्द: केतुशुड्रो बृहद्धल: | 

धष्टकेतुर्ब॒हत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामय: ।। २३७ ।। 

अवीक्षिच्चपलो धूर्त: कृतबन्धुर्दकेषुधि: । 

महापुराणसम्भाव्य: प्रत्यज्र: परहा श्रुति: ।। २३८ ।। 

एते चान्ये च राजान: शतशो5थ सहस््रश: । 

श्रूयन्ते शतशश्चान्ये संख्याताश्वैव पद्मश: ।। २३९ |। 

हित्वा सुविपुलान्‌ भोगान्‌ बुद्धिमन्तो महाबला: । 

राजानो निधन प्राप्तास्तव पुत्रा इव प्रभो ।। २४० ।। 

महाराज! पिछले युगमें इन राजाओंके अतिरिक्त दूसरे और बहुत-से 
महारथी, महात्मा, शौर्य-वीर्य आदि सदगुणोंसे सम्पन्न, परम पराक्रमी राजा हो 


गये हैं। जैसे--पूरु, कुरु, यदु, शूर, महातेजस्वी विष्वगश्च, अणुह, युवनाश्रव, 
ककुत्स्थ, पराक्रमी रघु, विजय, वीतिहोत्र, अंग, भव, श्वेत, बृहद्गुरु, उशीनर, 
शतरथ, कंक, दुलिदुह, ट्रुम, दम्भोद्धव, पर, वेन, सगर, संकृति, निमि, अजेय, 
परशु, पुण्ड्र, शम्भु, निष्पाप देवावृध, देवाह्नय, सुप्रतिम, सुप्रतीक, बृहद्रथ, 
महान्‌ उत्साही और महाविनयी सुक्रतु, निषधराज नल, सत्यव्रत, शान्तभय, 
सुमित्र, सुबल, प्रभु, जानुजंघ, अनरण्य, अर्क, प्रियभृत्य, शुचित्रत, बलबन्धु, 
निरामर्द, केतुशंग, बृहद्वल, धृष्टकेतु, बृहत्केतु, दीप्तकेतु, निरामय, अवीक्षित्‌, 
चपल, धूर्त, कृतबन्धु, दृढेषुधि, महापुराणोंमें सम्मानित प्रत्यंग, परहा और श्रुति 
--ये और इनके अतिरिक्त दूसरे सैकड़ों तथा हजारों राजा सुने जाते हैं, जिनका 
सैकड़ों बार वर्णन किया गया है और इनके सिवा दूसरे भी, जिनकी संख्या 
पद्मोंमें कही गयी है, बड़े बुद्धिमान्‌ और शक्तिशाली थे। महाराज! किंतु वे अपने 
विपुल भोग-वैभवको छोड़कर वैसे ही मर गये, जैसे आपके पुत्रोंकी मृत्यु हुई 
है || २३१--२४० ।। 

येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च | 

माहात्म्यमपि चास्तिक्यं सत्यं शौचं दयार्जवम्‌ ।। २४१ ।। 

विद्वद्धि: कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमै: । 

सर्वर्द्धिंगुणसम्पन्नास्ते चापि निधनं गता: ।। २४२ ।। 

जिनके दिव्य कर्म, पराक्रम, त्याग, माहात्म्य, आस्तिकता, सत्य, पवित्रता, 
दया और सरलता आदि सदगुणोंका वर्णन बड़े-बड़े विद्वान्‌ एवं श्रेष्ठटम कवि 
प्राचीन ग्रन्थोंमें तथा लोकमें भी करते रहते हैं, वे समस्त सम्पत्ति और सदगुणोंसे 
सम्पन्न महापुरुष भी मृत्युको प्राप्त हो गये | २४१-२४२ ।। 

तव पुत्रा दुरात्मान: प्रतप्ताश्चैव मन्युना । 

लुब्धा दुर्वत्तभूयिष्ठा न ताञ्छोचितुमहसि ।। २४३ ।। 

आपके पुत्र दुर्योधन आदि तो दुरात्मा, क्रोधसे जले-भुने, लोभी एवं अत्यन्त 
दुराचारी थे। उनकी मृत्युपर आपको शोक नहीं करना चाहिये ।। २४३ ।। 

श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्‌ प्राज्ञसम्मतः । 

येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुहान्ति भारत ॥। २४४ ।। 

आपने गुरुजनोंसे सत्‌-शास्त्रोंका श्रवण किया है। आपकी धारणाशक्ति तीव्र 
है, आप बुद्धिमान्‌ हैं और ज्ञानवान्‌ पुरुष आपका आदर करते हैं। 
भरतवंशशिरोमणे! जिनकी बुद्धि शास्त्रके अनुसार सोचती है, वे कभी शोक- 
मोहसे मोहित नहीं होते || २४४ ।। 

निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप । 

नात्यन्तमेवानुवृत्ति: कार्या ते पुत्ररक्षणे || २४५ ।। 


महाराज! आपने पाण्डवोंके साथ निर्दयता और अपने पुत्रोंके प्रति 
पक्षपातका जो बर्ताव किया है, वह आपको विदित ही है। इसलिये अब पुत्रोंके 
जीवनके लिये आपको अत्यन्त व्याकुल नहीं होना चाहिये || २४५ ।। 

भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुम्सि । 

दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमहति ।। २४६ ।। 

होनहार ही ऐसी थी, इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। भला, 
इस सृष्टिमें ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो अपनी बुद्धिकी विशेषतासे होनहार मिटा 
सके ।। २४६ ।। 

विधातृविहितं मार्ग न कश्चिदतिवर्तते । 

कालमूलमिदं सर्व भावाभावौ सुखासुखे ।। २४७ ।। 

अपने कर्मोंका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है--यह विधाताका विधान 
है। इसको कोई टाल नहीं सकता। जन्म-मृत्यु और सुख-दुःख सबका मूल 
कारण काल ही है ।। २४७ ।। 

काल: सृजति भूतानि काल: संहरते प्रजा: । 

संहरन्तं प्रजा: कालं काल: शमयते पुन: ।। २४८ ।। 

काल ही प्राणियोंकी सृष्टि करता है और काल ही समस्त प्रजाका संहार 
करता है। फिर प्रजाका संहार करनेवाले उस कालको महाकालस्वरूप 
परमात्मा ही शान्त करता है || २४८ ।। 

कालो हि कुरुते भावान्‌ सर्वलोके शुभाशुभान्‌ । 

काल: संक्षिपते सर्वा: प्रजा विसृजते पुन: ।। २४९ ।। 

सम्पूर्ण लोकोंमें यह काल ही शुभ-अशुभ सब पदार्थोका कर्ता है। काल ही 
सम्पूर्ण प्रजाका संहार करता है और वही पुनः सबकी सृष्टि भी करता 
है || २४९ |। 

काल: सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रम: । 

काल: सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृत: सम: ।। २५० || 

अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम्‌ । 

तान्‌ कालनिर्मितान्‌ बुद्ध्वा न संज्ञां हातुमहसि ।। २५१ ।। 

जब सुषुप्ति-अवस्थामें सब इन्द्रियाँ और मनोवृतियाँ लीन हो जाती हैं, तब 
भी यह काल जागता रहता है। कालकी गतिका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। 
वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे बेरोक-टोक अपनी क्रिया करता रहता है। 
इस सृष्टिमें जितने पदार्थ हो चुके, भविष्यमें होंगे और इस समय वर्तमान हैं, वे 
सब कालकी रचना हैं; ऐसा समझकर आपको अपने विवेकका परित्याग नहीं 
करना चाहिये || २५०-२५१ ।। 


सौतिरुवाच 

इत्येवं पुत्रशोकर्त धृतराष्ट्रं जने श्वरम्‌ । 

आश्रचास्य स्वस्थमकरोत्‌ सूतो गावल्गणिस्तदा | २५२ ।। 

अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनो<ब्रवीत्‌ । 

विद्वद्धिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमै: ।। २५३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--सूतवंशी संजयने यह सब कहकर पुत्रशोकसे 
व्याकुल नरपति धृतराष्ट्रको समझाया-बुझाया और उन्हें स्वस्थ किया। इसी 
इतिहासके आधारपर श्रीकृष्णद्वैपायनने इस परम पुण्यमयी उपनिषद्‌-रूप 
महाभारतका (शोकातुर प्राणियोंका शोक नाश करनेके लिये) निरूपण किया। 
विद्वज्जन लोकमें और श्रेष्ठतम कवि पुराणोंमें सदासे इसीका वर्णन करते आये 
हैं ।। २५२-२५३ ।। 

भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयत: । 

श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषत: ।। २५४ ।। 

महाभारतका अध्ययन अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला है। जो कोई श्रद्धाके 
साथ इसके किसी एक श्लोकके एक पादका भी अध्ययन करता है, उसके सब 
पाप सम्पूर्णरूपसे मिट जाते हैं || २५४ ।। 

देवा देवर्षयो द्वात्र तथा ब्रह्मर्षपो5मला: । 

कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगा: | २५५ ।। 

इस ग्रन्थरत्नमें शुभ कर्म करनेवाले देवता, देवर्षि, निर्मल ब्रह्मर्षि, यक्ष और 
महानागोंका वर्णन किया गया है || २५५ || 

भगवान्‌ वासुदेवश्व कीर्त्यते5त्र सनातन: । 

स हि सत्यमृतं चैव पवित्र पुण्यमेव च ।। २५६ ।। 

इस ग्रन्थके मुख्य विषय हैं स्वयं सनातन परब्रह्मस्वरूप वासुदेव भगवान्‌ 
श्रीकृष्ण। उन्हींका इसमें संकीर्तन किया गया है। वे ही सत्य, ऋत, पवित्र एवं 
पुण्य हैं | २५६ ।। 

शाश्च॒तं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योति: सनातनम्‌ । 

यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिण: ।। २५७ ।। 

वे ही शाश्वत परब्रह्म हैं और वे ही अविनाशी सनातन ज्योति हैं। मनीषी 
पुरुष उन्हींकी दिव्य लीलाओंका संकीर्तन किया करते हैं || २५७ ।। 

असच्च सदसच्चैव यस्माद्‌ विश्व प्रवर्तते । 

संततिश्न प्रवृत्तिश्न जन्ममृत्युपुनर्भवा: ।। २५८ ।। 

उन्हींसे असत्‌, सत्‌ तथा सदसत्‌-उभयरूप सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है। 
उन्हींसे संतति (प्रजा), प्रवृत्ति (कर्त्तव्य-कर्म), जन्म-मृत्यु तथा पुनर्जन्म होते 


हैं ।। २५८ ।। 

अध्यात्मं श्रूयते यच्च पजचभूतगुणात्मकम्‌ | 

अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते ॥। २५९ ।। 

इस महाभारतमें जीवात्माका स्वरूप भी बतलाया गया है एवं जो सत्त्व- 
रज-तम--इन तीनों गुणोंके कार्यरूप पाँच महाभूत हैं, उनका तथा जो अव्यक्त 
प्रकृति आदिके मूल कारण परम ब्रह्म परमात्मा हैं, उनका भी भलीभाँति 
निरूपण किया गया है || २५९ || 

यत्तद्‌ यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विता: । 

प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्‌ ।। २६० ।। 

ध्यानयोगकी शक्तिसे सम्पन्न जीवन्मुक्त यतिवर, दर्पणमें प्रतिबिम्बके समान 
अपने हृदयमें अवस्थित उन्हीं परमात्माका अनुभव करते हैं || २६० ।। 

श्रद्धधान: सदा युक्त: सदा धर्मपरायण: । 

आसेवन्निममध्यायं नर: पापात्‌ प्रमुच्यते || २६१ ।। 

जो धर्मपरायण पुरुष श्रद्धाके साथ सर्वदा सावधान रहकर प्रतिदिन इस 
अध्यायका सेवन करता है, वह पाप-तापसे मुक्त हो जाता है ।। २६१ ।। 

अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादित: । 

आस्तिक: सततं शृण्वन्‌ न कृच्छेष्ववसीदति ।। २६२ ।। 

जो आस्तिक पुरुष महाभारतके इस अनुक्रमणिका-अध्यायको आदिसे 
अन्ततक प्रतिदिन श्रवण करता है, वह संकटकालमें भी दुःखसे अभिभूत नहीं 
होता ।। २६२ ।। 

उभे संध्ये जपन्‌ किंचित्‌ सद्यो मुच्येत किल्बिषात्‌ | 

अनुक्रमण्या यावत्‌ स्यादल्ला रात्रया च संचितम्‌ ।। २६३ ।। 

जो इस अनुक्रमणिका-अध्यायका कुछ अंश भी प्रात:-सायं अथवा 
मध्याह्ममें जपता है, वह दिन अथवा रात्रिके समय संचित सम्पूर्ण पापराशिसे 
तत्काल मुक्त हो जाता है ।। २६३ ।। 

भारतस्य वपुर्ठोतित्‌ सत्यं चामृतमेव च । 

नवनीतं यथा दबध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा ।। २६४ ।। 

आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्यो*डमृतं यथा । 

हृदानामुदधि: श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्‌ ।। २६५ ।। 

यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते । 

यश्नैनं श्रावयेच्छाद्धे ब्राह्मणान्‌ पादमन्तत: ।। २६६ ।। 

अक्षय्यमन्नपानं वै पितृस्तस्योपतिष्ठते । 


यह अध्याय महाभारतका मूल शरीर है। यह सत्य एवं अमृत है। जैसे दहीमें 
नवनीत, मनुष्योंमें ब्राह्मण, वेदोंमें उपनिषद्‌ ओषधियोंमें अमृत, सरोवरोंमें समुद्र 
और चौपायोंमें गाय सबसे श्रेष्ठ है, वैसे ही उन्हींके समान इतिहासोंमें यह 
महाभारत भी है। जो श्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंको अन्तमें इस 
अध्यायका एक चौथाई भाग अथवा श्लोकका एक चरण भी सुनाता है, उसके 
पितरोंको अक्षय अन्न-पानकी प्राप्ति होती है ।। २६४-२६६  ।। 

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबंहयेत्‌ | २६७ ।। 

बिभेत्यल्पश्रुताद्‌ वेदो मामयं प्रहरिष्यति । 

कार्ष्ण वेदमिमं विद्वाउश्रावयित्वार्थमश्रुते | २६८ ।। 

इतिहास और पुराणोंकी सहायतासे ही वेदोंके अर्थका विस्तार एवं समर्थन 
करना चाहिये। जो इतिहास एवं पुराणोंसे अनभिज्ञ है, उससे वेद डरते रहते हैं 
कि कहीं यह मुझपर प्रहार कर देगा। जो दिद्वान्‌ श्रीकृष्णद्वैपायनद्वारा कहे हुए 
इस वेदका दूसरोंको श्रवण कराते हैं, उन्हें मनोवांछित अर्थकी प्राप्ति होती 
है || २६७-२६८ ।। 

भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्वादसंशयम्‌ | 

य इमं शुचिरध्यायं पठेत्‌ पर्वणि पर्वणि ।। २६९ ।। 

अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्थादिति मे मति: । 

यश्चैनं शृणुयान्नित्यमार्ष श्रद्धासमन्वित: ।। २७० ।। 

स दीर्घमायु: कीर्ति च स्वर्गतिं चाप्तुयान्नर: । 

एकततकश्नतुरो वेदान्‌ भारतं चैतदेकत: ।। २७१ ।। 

पुरा किल सुरै: सर्वे: समेत्य तुलया धृतम्‌ | 

चतुर्भ्य: सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो हाधिकं यदा ।। २७२ ।। 

तदा प्रभृति लोके5स्मिन्‌ महाभारतमुच्यते । 

महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यत्तोडधिकम्‌ ।। २७३ |। 

और इससे भ्रूणहत्या आदि पापोंका भी नाश हो जाता है, इसमें संदेह नहीं 
है। जो पवित्र होकर प्रत्येक पर्वपर इस अध्यायका पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण 
महाभारतके अध्ययनका फल मिलता है, ऐसा मेरा निश्चय है। जो पुरुष श्रद्धाके 
साथ प्रतिदिन इस महर्षि व्यासप्रणीत ग्रन्थरत्नका श्रवण करता है, उसे दीर्घ 
आयु, कीर्ति और स्वर्गकी प्राप्ति होती है। प्राचीन कालमें सब देवताओंने इकट्ठे 
होकर तराजूके एक पलड़ेपर चारों वेदोंको और दूसरेपर महाभारतको रखा। 
परंतु जब यह रहस्यसहित चारों वेदोंकी अपेक्षा अधिक भारी निकला, तभीसे 
संसारमें यह महाभारतके नामसे कहा जाने लगा। सत्यके तराजूपर तौलनेसे यह 


ग्रन्थ महत्त्व, गौरव अथवा गम्भीरतामें वेदोंसे भी अधिक सिद्ध हुआ है ।। २६९ 
--२७३ || 
महत्त्वाद्‌ भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते । 
निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापै: प्रमुच्यते || २७४ ।। 
अतएव महत्ता, भार अथवा गम्भीरताकी विशेषतासे ही इसको महाभारत 
कहते हैं। जो इस ग्रन्थके निर्वचनको जान लेता है, वह सब पापोंसे छूट जाता 
है || २७४ ।। 
तपो न कल्को<ध्ययनं न कल्कः 
स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्क: । 
प्रसह वित्ताहरणं न कल्क- 
स्तान्येव भावोपहतानि कल्कः ।। २७५ ।। 
तपस्या निर्मल है, शास्त्रोंका अध्ययन भी निर्मल है, वर्णाश्रमके अनुसार 
स्वाभाविक वेदोक्त विधि भी निर्मल है और कष्टपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन 
भी निर्मल है, किंतु वे ही सब विपरीत भावसे किये जानेपर पापमय हैं अर्थात्‌ 
दूसरेके अनिष्टके लिये किया हुआ तप, शास्त्राध्ययन और वेदोक्त स्वाभाविक 
कर्म तथा क्लेशपूर्वक उपार्जित धन भी पापयुक्त हो जाता है। (तात्पर्य यह कि 
इस ग्रन्थरत्नमें भावशुद्धिपर विशेष जोर दिया गया है; इसलिये महाभारत- 
ग्रन्थका अध्ययन करते समय भी भाव शुद्ध रखना चाहिये) || २७५ ।। 


इति श्रीमन्‍न्महाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि प्रथमो<ध्याय: ।। 
१२ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अनुक्रमाणिकापरबववमें पहला अध्याय 
पूरा हुआ ॥ ९ ॥ 
[दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७ श्लोक मिलाकर कुल २८२ श्लोक हैं] 


।। अनुक्रमणिकापर्व सम्पूर्ण ।। 


३. जय शब्दका अर्थ महाभारत नामक इतिहास ही है। आगे चलकर कहा है--“जयो नामेतिहासो5यम्‌' 
इत्यादि। अथवा अठारहों पुराण, वाल्मीकिरामायण आदि सभी आर्ष-ग्रन्थोंकी संज्ञा जय” है। 

२. मंगलाचरणका श्लोक देखनेपर ऐसा जान पड़ता है कि यहाँ नारायण शब्दका अर्थ है भगवान्‌ 
श्रीकृष्ण और नरोत्तम नरका अर्थ है नररत्न अर्जुन। महाभारतमें प्राय: सर्वत्र इन्हीं दोनोंका नर-नारायणके 
अवतारके रूपमें उल्लेख हुआ है। इससे मंगलाचरणमें ग्रन्थके इन दोनों प्रधान पात्र तथा भगवानके मूर्ति- 
युगलको प्रणाम करना मंगलाचरणको नमस्कारात्मक होनेके साथ ही वस्तुनिर्देशात्मक भी बना देता है। 
इसलिये अनुवादमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका ही उल्लेख किया गया है। 


3. नैमिषारण्य नामकी व्याख्या वाराहपुराणमें इस प्रकार मिलती है-- 
एवं कृत्वा ततो देवो मुनिं गौरमुखं तदा। उवाच निमिषेणेदं निहतं दानवं बलम्‌ ।। 
अरुण्येडस्मिंस्ततस्त्वेतत्नैमिषारण्यसंज्ञितम्‌ । 

ऐसा करके भगवानने उस समय गौरमुख मुनिसे कहा--“मैंने निमिषमात्रमें इस अरण्य (वन)-के भीतर 
इस दानव-सेनाका संहार किया है; अत: यह वन नैमिषारण्यके नामसे प्रसिद्ध होगा।” 

४. जो दिद्वान्‌ ब्राह्ण अकेला ही दस सहसख्र जिज्ञासु व्यक्तियोंका अन्न-दानादिके द्वारा भरण-पोषण 
करता है, उसे कुलपति कहते हैं। 

५. जो कार्य अनेक व्यक्तियोंके सहयोगसे किया गया हो और जिसमें बहुतोंको ज्ञान, सदाचार आदिकी 
शिक्षा तथा अन्न-वस्त्रादि वस्तुएँ दी जाती हों, जो बहुतोंके लिये तृप्तिकारक एवं उपयोगी हो, उसे “सत्र” 
कहते हैं। 

$. “तत्‌ सृष्टवा तदेवानु प्राविशत” (तैत्तिरीय उपनिषद्‌)। ब्रह्मने अण्ड एवं पिण्डकी रचना करके मानो 
स्वयं ही उसमें प्रवेश किया है। 

२. ऋषय: सप्त पूर्वे ये मनवश्च चतुर्दश । एते प्रजानां पतय एभि: कल्प: समाप्यते ।। 

(नीलकपण्ठीमें ब्रह्माण्डपुराणका वचन) 
> यह और इसके बादका श्लोक महाभारतके तात्पर्यके सूचक हैं। दुर्योधन क्रोध है। यहाँ क्रोध शब्दसे 
द्वेष-असूया आदि दुर्गुण भी समझ लेने चाहिये। कर्ण, शकुनि, दःशासन आदि उससे एकताको प्राप्त हैं, 
उसीके स्वरूप हैं। इन सबका मूल है राजा धृतराष्ट्र। यह अज्ञानी अपने मनको वशमें करनेमें असमर्थ है। 
इसीने पुत्रोंकी आसक्तिसे अंधे होकर दुर्योधनको अवसर दिया, जिससे उसकी जड़ मजबूत हो गयी। यदि 
यह दुर्योधनको वशमें कर लेता अथवा बचपनमें ही विदुर आदिकी बात मानकर इसका त्याग कर देता तो 
विष-दान, लाक्षागृहदाह, द्रौपदी-केशाकर्षण आदि दुष्कर्मोंका अवसर ही नहीं आता और कुलक्षय न 
होता। इस प्रसंगसे यह भाव सूचित किया गया है कि यह जो मन्यु (दुर्योधन)-रूप वृक्ष है, इसका दृढ़ 
अज्ञान ही मूल है, क्रोध-लोभादि स्कन्ध हैं, हिंसा-चोरी आदि शाखाएँ हैं और बन्धन-नरकादि इसके फल- 
पुष्प हैं। पुरुषार्थकामी पुरुषको मूलाज्ञानका उच्छेद करके पहले ही इस (क्रोधरूप) वृक्षको नष्ट कर देना 
चाहिये। 


- युधिष्ठिर धर्म हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे शम, दम, सत्य, अहिंसा आदि रूप धर्मकी मूर्ति हैं। 
अर्जुन-भीम आदिको धर्मकी शाखा बतलानेका अभिप्राय यह है कि वे सब युधिष्ठिरके ही स्वरूप हैं, उनसे 
अभिन्न हैं। शुद्धसत्त्वमय ज्ञानविग्रह श्रीकृष्णरूप परमात्मा ही उसके मूल हैं। उनके दृढ़ ज्ञानसे ही धर्मकी 
नींव मजबूत होती है। श्रुति भगवतीने कहा है कि “हे गार्गी! इस अविनाशी परमात्माको जाने बिना इस 
लोकमें जो हजारों वर्षपर्यन्त यज्ञ करता है, दान देता है, तपस्या करता है, उन सबका फल नाशवान्‌ ही 
होता है।' ज्ञानका मूल है ब्रह्म अर्थात्‌ वेद। वेदसे ही परमधर्म योग और अपरधर्म यज्ञ-यागादिका ज्ञान होता 
है। यह निश्चित सिद्धान्त है कि धर्मका मूल केवल शब्दप्रमाण ही है। वेदके भी मूल ब्राह्मण हैं; क्योंकि वे ही 
वेद-सम्प्रदायके प्रवर्तक हैं। इस प्रकार उपदेशकके रूपमें ब्राह्मण, प्रमाणके रूपमें वेद और अनुग्राहकके 
रूपमें परमात्मा धर्मका मूल है। इससे यह बात सिद्ध हुई है कि वेद और ब्राह्मणका भक्त अधिकारी पुरुष 
भगवदाराधनके बलसे योगादिरूप धर्ममय वृक्षका सम्पादन करे। उस वृक्षके अहिंसा-सत्य आदि तने हैं। 
धारण-ध्यान आदि शाखाएँ हैं और तत्त्व-साक्षात्कार ही उसका फल है। इस धर्ममय वृक्षके समाश्रयसे ही 
पुरुषार्थकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं। 

> शास्त्रोक्त आचारका परित्याग न करना, सदाचारी सत्पुरुषोंका संग करना और सदाचारमें दृढ़तासे 
स्थित रहना--इसको “शौच” कहते हैं। अपनी इच्छाके अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थोंकी प्राप्ति होनेपर 
चित्तमें विकार न होना ही 'धृति" है। सबसे बढ़कर सामर्थ्यका होना ही “विक्रम” है। सद्वृत्तकी अनुवृत्ति ही 
'शुश्रूषा” है। (सदाचारपरायण गुरुजनोंका अनुसरण गुरुशुश्रूषा है।) किसीके द्वारा अपराध बन जानेपर भी 
उसके प्रति अपने चित्तमें क्रोध आदि विकारोंका न होना ही 'क्षमाशीलता' है। जितेन्द्रियता अथवा अनुद्धत 
रहना ही “विनय” है। बलवान्‌ शत्रुको भी पराजित कर देनेका अध्यवसाय “शौर्य” है। इनके संग्राहक श्लोक 
इस प्रकार हैं-- 

आचारापरिहारश्न संसर्गश्चाप्यनिन्दितै: | आचारे च व्यवस्थानं शौचमित्यभिधीयते ।। 


इष्टानिष्टार्थसम्पत्तौ चित्तस्याविकृतिर्धृतिः | सर्वातिशयसामर्थ्य॑ विक्रमं परिचक्षते ।। 
वृत्तानुवृत्ति: शुश्रूषा क्षान्तिरागस्यविक्रिया । जितेन्द्रियत्वं विनयो5थवानुद्धतशीलता ।। 
शौर्यमध्यवसायः स्याद्‌ बलिनो5पि पराभवे ।। 
> आचार्य, ब्रह्मा, ऋत्विकू, सदस्य, यजमान, यजमानपत्नी, धन-सम्पत्ति, श्रद्धा-उत्साह, विधि- 
विधानका सम्यक्‌ पालन एवं सदबुद्धि आदि यज्ञकी उत्तम गुणसामग्रीके अन्तर्गत हैं। 


(पर्वसंग्रहपर्व) 
द्वितीयो<्ध्याय: 


समन्तपंचकक्षेत्रका वर्णन, अक्षौहिणी सेनाका प्रमाण, 
महाभारतमें वर्णित पर्वों और उनके संक्षिप्त विषयोंका 
संग्रह तथा महाभारतके श्रवण एवं पठनका फल 


ऋषय ऊचु: 
समन्तपञ्चकमिति यदुक्त सूतनन्दन । 
एतत्‌ सर्व यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम्‌ ।। १ ।। 
ऋषि बोले--सूतनन्दन! आपने अपने प्रवचनके प्रारम्भमें जो समनन्‍्तपंचक (कुरुक्षेत्र)- 
की चर्चा की थी, अब हम उस देश (तथा वहाँ हुए युद्ध)-के सम्बन्धमें पूर्णरूपसे सब कुछ 
यथावत्‌ सुनना चाहते हैं ।। १ ।। 
सौतिर्वाच 
शृणुध्वं मम भो विद्रा ब्रुवतश्न॒ कथा: शुभा: । 
समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुर्महथ सत्तमा: ।। २ ।। 
उग्रश्रवाजीने कहा--साधुशिरोमणि विप्रगण! अब मैं कल्याणदायिनी शुभ कथाएँ 
कह रहा हूँ; उसे आपलोग सावधान चित्तसे सुनिये और इसी प्रसंगमें समन्तपंचकक्षेत्रका 
वर्णन भी सुन लीजिये ।। २ ।। 
त्रेताद्वापरयो: सन्धौ राम: शस्त्रभृतां वर: । 
असकृत्‌ पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदित: ।। ३ ।। 
त्रेता और द्वापरकी सन्धिके समय शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने क्षत्रियोंके प्रति 
क्रोधसे प्रेरित होकर अनेकों बार क्षत्रिय राजाओंका संहार किया ।। ३ ।। 
स सर्व क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युति: । 
समनतपजञ्चके पञ्च चकार रौधिरान्‌ हृदान्‌ ॥। ४ ।। 
अग्निके समान तेजस्वी परशुरामजीने अपने पराक्रमसे सम्पूर्ण क्षत्रियवंशका संहार 
करके समन्तपंचवक्षेत्रमें रक्तके पाँच सरोवर बना दिये ।। ४ ।। 
स तेषु रुधिराम्भ:सु हदेषु क्रोधमूर्च्छित: । 
पितृन्‌ संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम्‌ ॥। ५ ।। 


क्रोधसे आविष्ट होकर परशुरामजीने उन रक्तरूप जलसे भरे हुए सरोवरोंमें 
रक्ताउ्जलिके द्वारा अपने पितरोंका तर्पण किया, यह बात हमने सुनी है ।। ५ ।। 

अथर्चीकादयो<भ्येत्य पितरो राममन्रुवन्‌ । 

राम राम महाभाग प्रीता: सम तव भार्गव ।। ६ ।। 

अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो । 

वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते |। ७ ।। 

तदनन्तर, ऋचीक आदि पितृगण परशुरामजीके पास आकर बोले--“महाभाग राम! 
सामर्थ्यशाली भृगुवंशभूषण परशुराम!!! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रमसे हम बहुत ही 
प्रसन्न हैं। महाप्रतापी परशुराम! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जिस वरकी इच्छा हो हमसे माँग 
लो' ।। ६-७ ।। 

राम उवाच 


यदि मे पितर: प्रीता यद्यनुग्राह्मता मयि । 

यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया ।। ८ ।। 

अतश्न पापान्मुच्ये5हमेष मे प्रार्थितो वर: । 

हृदाश्न तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुता: ।। ९ ।। 

परशुरामजीने कहा--यदि आप सब हमारे पितर मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे अपने 
अनुग्रहका पात्र समझते हैं तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंशका विध्वंस किया है, इस 
कुकर्मके पापसे मैं मुक्त हो जाऊँ और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वीमें प्रसिद्ध तीर्थ हो 
जायँ। यही वर मैं आपलोगोंसे चाहता हूँ ।। ८-९ ।। 

एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन्‌ । 

तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह ॥। १० ।। 

तदनन्तर 'ऐसा ही होगा” यह कहकर पितरोंने वरदान दिया। साथ ही “अब बचे-खुचे 
क्षत्रियवंशको क्षमा कर दो'--ऐसा कहकर उन्हें क्षत्रियोंक संहारसे भी रोक दिया। इसके 
पश्चात्‌ परशुरामजी शान्त हो गये ।। १० ।। 

तेषां समीपे यो देशो हृदानां रुधिराम्भसाम्‌ | 

समनन्‍्तपजञ्चकमिति पुण्यं तत्‌ परिकीर्तितम्‌ ।। ११ ।। 

उन रक्तसे भरे सरोवरोंके पास जो प्रदेश है उसे ही समन्तपंचक कहते हैं। यह क्षेत्र 
बहुत ही पुण्यप्रद है ।। ११ ।। 

येन लिड्लरेन यो देशो युक्त: समुपलक्ष्यते । 

तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिण: ।। १२ ।। 

जिस चिह्नसे जो देश युक्त होता है और जिससे जिसकी पहचान होती है, विद्वानोंका 
कहना है कि उस देशका वही नाम रखना चाहिये ।। १२ ।। 


अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत्‌ । 

समन्तपज्चके युद्ध कुरुपाण्डवसेनयो: ।। १३ ।। 

जब कलियुग और द्वापरकी सन्धिका समय आया, तब उसी समन्तपंचवक्षेत्रमें कौरवों 
और पाण्डवोंकी सेनाओंका परस्पर भीषण युद्ध हुआ ।। १३ ।। 

तस्मिन्‌ परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते | 

अष्टादश समाजम्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया || १४ ।। 

भूमिसम्बन्धी दोषोंसेः रहित उस परम धार्मिक प्रदेशमें युद्ध करनेकी इच्छासे अठारह 
अक्षौहिणी सेनाएँ इकट्टी हुई थीं ।। १४ ।। 

समेत्य त॑ द्विजास्ताश्न तत्रैव निधनं गता: । 

एततन्नामाभिनिर्वत्तं तस्य देशस्य वै द्विजा: ।। १५ ।। 

ब्राह्मणो! वे सब सेनाएँ वहाँ इकट्टी हुईं और वहीं नष्ट हो गयीं। द्विजवरो! इसीसे उस 
देशका नाम समन्तपंचकः) पड़ गया ।। १५ ।। 

पुण्यश्ष रमणीयश्व स देशो व: प्रकीर्तित: । 

तदेतत्‌ कथित सर्व मया ब्राह्मणसत्तमा: । 

यथा देश: स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रता: ।। १६ ।। 

वह देश अत्यन्त पुण्यमय एवं रमणीय कहा गया है। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले 
श्रेष्ठ ब्राह्मणो! तीनों लोकोंमें जिस प्रकार उस देशकी प्रसिद्धि हुई थी, वह सब मैंने 
आपलोगोंसे कह दिया || १६ ।। 

ऋषय ऊचु: 

अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्या सूतनन्दन । 

एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम्‌ ।। १७ ।। 

ऋषियोंने पूछा--सूतनन्दन! अभी-अभी आपने जो अक्षौहिणी शब्दका उच्चारण 
किया है, इसके सम्बन्धमें हमलोग सारी बातें यथार्थरूपसे सुनना चाहते हैं || १७ ।। 

अक्षौहिण्या: परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्‌ । 

यथावच्चैव नो ब्रहि सर्व हि विदितं तव ।। १८ ।। 

अक्षौहिणी सेनामें कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते हैं? इसका हमें यथार्थ वर्णन 
सुनाइये; क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है ।। १८ ।। 

सौतिरुवाच 


एको रथो गजकश्लनैको नरा: पञठच पदातय: । 
त्रयश्न तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते ।। १९ ।। 


उग्रश्रवाजीने कहा--एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े--बस, 
इन्हींको सेनाके मर्मज्ञ विद्वानोंने 'पत्ति' कहा है ।। १९ ।। 

पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहु: सेनामुखं बुधा: । 

त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते ।। २० ।। 

इसी पत्तिकी तिगुनी संख्याको विद्वान्‌ पुरुष 'सेनामुख” कहते हैं। तीन 'सेनामुखों” को 
एक “गुल्म” कहा जाता है ।। २० ।। 

त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रय: । 

स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्य: पृतनेति विचक्षणै: ।। २१ ।। 

तीन गुल्मका एक “गण” होता है, तीन गणकी एक “वाहिनी' होती है और तीन 
वाहिनियोंको सेनाका रहस्य जाननेवाले विद्वानोंने 'पृतना” कहा है | २१ ।। 

चमूस्तु पृतनास्तिस्नस्तिस्रश्नम्बस्त्वनीकिनी । 

अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधा: || २२ ।। 

तीन पृतनाकी एक “चमू”, तीन चमूकी एक “अनीकिनी” और दस अनीकिनीकी एक 
'अक्षौहिणी' होती है। यह विद्वानोंका कथन है ।। २२ ।। 

अक्षौहिण्या: प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमा: । 

संख्या गणिततत्त्वज्जै: सहस्राण्येकविंशति: ।। २३ ॥॥ 

शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्व सप्तति: । 

गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्‌ ।। २४ ।। 

श्रेष्ठ ब्राह्यणो! गणितके तत्त्वज्ञ विद्वानोंने एक अक्षौहिणी सेनामें रथोंकी संख्या 
इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (२१,८७०) बतलायी है। हाथियोंकी संख्या भी इतनी ही 
कहनी चाहिये || २३-२४ ।। 

ज्ञेय शतसहस््रं तु सहस्नाणि नवैव तु । 

नराणामपि पजञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघा: ॥। २५ ।। 

निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणीमें पैदल मनुष्योंकी संख्या एक लाख नौ हजार तीन 
सौ पचास (१,०९,३५०) जाननी चाहिये || २५ ।। 

पज्चषष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च । 

दशोत्तराणि षट्‌ प्राहुर्यथावदिह संख्यया ।। २६ ।। 

एक अक्षौहिणी सेनामें, घोड़ोंकी ठीक-ठीक संख्या पैंसठ हजार छः: सौ दस 
(६५,६१०) कही गयी है ।। २६ ।। 

एतामक्षौहिणीं प्राहु: संख्यातत्त्वविदो जना: । 

यां व: कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधना: ।। २७ ।। 

तपोधनो! संख्याका तत्त्व जाननेवाले विद्वानोंने इसीको अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने 
आपलोगोंको विस्तारपूर्वक बताया है ।। २७ ।। 


एतया संख्यया हासन्‌ कुरुपाण्डवसेनयो: । 

अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठा: पिण्डिताष्टादशैव तु ।। २८ ।। 

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणनाके अनुसार कौरव-पाण्डव दोनों सेनाओंकी संख्या अठारह 
अक्षौहिणी थी || २८ ।। 

समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गता: । 

कौरवान्‌ कारण कृत्वा कालेनाद्भधुतकर्मणा ।। २९ ।। 

अदभुत कर्म करनेवाले कालकी प्रेरणासे समन्तपंचकक्षेत्रमें कौरवोंको निमित्त बनाकर 
इतनी सेनाएँ इकट्टी हुईं और वहीं नाशको प्राप्त हो गयीं ।। २९ ।। 

अहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित्‌ । 

अहानि पज्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम्‌ ।। ३० || 

अस्त्र-शस्त्रोंके सर्वोपरि मर्मज्ञ भीष्मपितामहने दस दिनोंतक युद्ध किया, आचार्य 
द्रोणने पाँच दिनोंतक कौरव-सेनाकी रक्षा की || ३० ।। 

अहनी युयुधे द्वे तु कर्ण: परबलार्दन: । 

शल्यो<र्धदिवसं चैव गदायुद्धमत: परम्‌ ।। ३१ ।। 

शत्रुसेनाको पीड़ित करनेवाले वीरवर कर्णने दो दिन युद्ध किया और शल्यने आधे 
दिनतक। इसके पश्चात्‌ (दुर्योधन और भीमसेनका परस्पर) गदायुद्ध आधे दिनतक होता 
रहा || ३१ ।। 

तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमा: । 

प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुर्याधिष्ठिरे बलम्‌ ।। ३२ ।। 

अठारहवाँ दिन बीत जानेपर रात्रिके समय अभश्व॒त्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्यने 
नि:शंक सोते हुए युधिष्ठिरके सैनिकोंको मार डाला ।। ३२ ।। 

यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम्‌ | 

जनमेजयस्य तत्‌ सत्रे व्यासशिष्येण धीमता ।। ३३ ।। 

कथितं विस्तरार्थ च यशो वीर्य महीक्षिताम्‌ । 

पौष्यं तत्र च पौलोममास्तीकं चादित: स्मृतम्‌ ।। ३४ ।। 

शौनकजी! आपके इस सत्संग-सत्रमें मैं यह जो उत्तम इतिहास महाभारत सुना रहा हूँ, 
यही जनमेजयके सर्पयज्ञमें व्यासजीके बुद्धिमान्‌ शिष्य वैशम्पायनजीके द्वारा भी वर्णन 
किया गया था। उन्होंने बड़े-बड़े नरपतियोंके यश और पराक्रमका विस्तारपूर्वक वर्णन 
करनेके लिये प्रारम्भमें पौष्य, पौलोम और आस्तीक--इन तीन पर्वोका स्मरण किया 
है ।। ३३-३४ ।। 

विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम्‌ । 

प्रतिपन्नं नरै: प्राजैरवैराग्यमिव मोक्षिभि: ।। ३५ ।। 


जैसे मोक्ष चाहनेवाले पुरुष पर-वैराग्यकी शरण ग्रहण करते हैं, वैसे ही प्रज्ञावान्‌ मनुष्य 
अलौकिक अर्थ, विचित्र पद, अदभुत आख्यान और भाँति-भाँतिकी परस्पर विलक्षण 
मर्यादाओंसे युक्त इस महाभारतका आश्रय ग्रहण करते हैं || ३५ ।। 

आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम्‌ । 

इतिहास: प्रधानार्थ: श्रेष्ठ: सर्वागमेष्वयम्‌ ।। ३६ ।। 

जैसे जाननेयोग्य पदार्थो्में आत्मा, प्रिय पदार्थोमें अपना जीवन सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही 
सम्पूर्ण शास्त्रोंमें परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिरूप प्रयोजनको पूर्ण करनेवाला यह इतिहास 
श्रेष्ठ है ।। ३६ ।। 

अनश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते । 

आहारमनपगश्रिित्य शरीरस्येव धारणम्‌ ।। ३७ ।। 

जैसे भोजन किये बिना शरीर-निर्वाह सम्भव नहीं है, वैसे ही इस इतिहासका आश्रय 
लिये बिना पृथ्वीपर कोई कथा नहीं है ।। ३७ ।। 

तदेतद्‌ भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते । 

उदयप्रेप्सुभिर्भुत्यैरैभिजात इवेश्वर: ।। ३८ ।। 

जैसे अपनी उन्नति चाहनेवाले महत्त्वाकांक्षी सेवक अपने कुलीन और सद्धावसम्पन्न 
स्वामीकी सेवा करते हैं, इसी प्रकार संसारके श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी सेवा करके ही 
अपने काव्यकी रचना करते हैं || ३८ ।। 

इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा । 

स्वरव्यज्जनयो: कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्‌ ।। ३९ ।। 

जैसे लौकिक और वैदिक सब प्रकारके ज्ञानको प्रकाशित करनेवाली सम्पूर्ण वाणी 
स्वरों एवं व्यंजनोंमें समायी रहती है, वैसे ही (लोक, परलोक एवं परमार्थसम्बन्धी) सम्पूर्ण 
उत्तम विद्या-बुद्धि इस श्रेष्ठ इतिहासमें भरी हुई है ।। ३९ ।। 

तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वण: । 

सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थभ्भूषितस्य च ।। ४० ।। 

भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रह: । 

पर्वनुक्रमणी पूर्व द्वितीय: पर्वसंग्रह: ।। ४१ ।। 

यह महाभारत इतिहास ज्ञानका भण्डार है। इसमें सूक्ष्म-से-सूक्ष्म पदार्थ और उनका 
अनुभव करानेवाली युक्तियाँ भरी हुई हैं। इसका एक-एक पद और पर्व आश्चर्यजनक है 
तथा यह वेदोंके धर्ममय अर्थसे अलंकृत है। अब इसके पर्वोकी संग्रह-सूची सुनिये। पहले 
अध्यायमें पर्वानुक्रमणी है और दूसरेमें पर्वसंग्रह || ४०-४१ ।। 

पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्‌ | 

ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम्‌ ।। ४२ ।। 


इसके पश्चात्‌ पौष्य, पौलोम, आस्तीक और आदिअंशावतरण पर्व हैं। तदनन्तर 
सम्भवपर्वका वर्णन है, जो अत्यन्त अद्भुत और रोमांचकारी है || ४२ ।। 

दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते । 

ततो बकवध: पर्व पर्व चैत्ररथं तत: ।। ४३ ।। 

इसके पश्चात्‌ जतुगृह (लाक्षाभवन) दाहपर्व है। तदनन्तर हिडिम्बवधपर्व है, फिर 
बकवध और उसके बाद चैत्ररथपर्व है ।। ४३ ।। 

ततः स्वयंवरो देव्या: पाज्चाल्या: पर्व चोच्यते । 

क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्‌ ।। ४४ ।। 

उसके बाद पांचालराजकुमारी देवी द्रौपदीके स्वयंवरपर्वका तथा क्षत्रियधर्मसे सब 
राजाओंपर विजय-प्राप्तिपूर्वक वैवाहिकपर्वका वर्णन है ।। ४४ ।। 

विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च । 

अर्जुनस्य वने वास: सुभद्राहरणं तत: ।। ४५ ।। 

विदुरागमन, राज्यलम्भपर्व, तत्पश्चात्‌ अर्जुन-वनवासपर्व और फिर सुभद्राहरणपर्व 
है || ४५ || 

सुभद्राहरणादूर्ध्व ज्ेया हरणहारिका । 

तत: खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम्‌ || ४६ ।। 

सुभद्राहरणके बाद हरणाहरणपर्व है, पुनः खाण्डवदाह-पर्व है, उसीमें मयदानवके 
दर्शनकी कथा है || ४६ ।। 

सभापर्व ततः प्रोक्त मन्त्रपर्व ततः परम्‌ । 

जरासन्धवध: पर्व पर्व दिग्विजयं तथा ।। ४७ ।। 

इसके बाद क्रमश: सभापर्व, मन्त्रपर्व, जरासन्ध-वधपर्व और दिग्विजयपर्वका प्रवचन 
है || ४७ |। 

पर्व दिग्विजयादूर्ध्व राजसूयिकमुच्यते । 

ततश्चार्धाभिहरणं शिशुपालवधस्तत: ।। ४८ ।। 

तदनन्तर राजसूय, अर्घाभिहरण और शिशुपाल-वधपर्व कहे गये हैं ।। ४८ ।। 

द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमत: परम्‌ । 

तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च ।॥। ४९ || 

इसके बाद क्रमशः द्यूत एवं अनुद्यूतपर्व हैं। तत्पश्चात्‌ वनयात्रापर्व तथा किर्मीरवधपर्व 
है ।। ४९ || 

अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमत: परम्‌ | 

ईश्वरार्जुनयोर्युद्धे पर्व कैरातसंज्ञितम्‌ ।। ५० || 

इसके बाद अर्जुनाभिगमनपर्व जानना चाहिये और फिर कैरातपर्व आता है, जिसमें 
सर्वेश्वर भगवान्‌ शिव तथा अर्जुनके युद्धका वर्णन है ।। ५० ।। 


इन्द्रलोकाभिगमन पर्व ज्ञेयमत: परम्‌ । 

नलोपाख्यानमपि च धार्मिक करुणोदयम्‌ ।। ५१ ।। 

तत्पश्चात्‌ इन्द्रलोकाभिगमनपर्व है, फिर धार्मिक तथा करुणोत्पादक नलोपाख्यानपर्व 
है ।। ५१ ।। 

तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः । 

जटासुरवध: पर्व यक्षयुद्धमत: परम्‌ ।। ५२ ।। 

तदनन्तर बुद्धिमान्‌ कुरुराजका तीर्थयात्रापर्व, जटासुरवधपर्व और उसके बाद 
यक्षयुद्धपर्व है ।। ५२ ।। 

निवातकवचैरय्युद्ध पर्व चाजगरं ततः । 

मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते ।। ५३ ।। 

इसके पश्चात्‌ निवातकवचयुद्ध, आजगर और मार्कण्डेयसमास्यापर्व क्रमश: कहे गये 
हैं ।। ५३ ।। 

संवादश्न तत: पर्व द्रौोपदीसत्यभामयो: । 

घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं तत: ।। ५४ ।। 

व्रीहिद्रोणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च । 

द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम्‌ ।। ५५ ।। 

इसके बाद आता है द्रौपदी और सत्यभामाके संवादका पर्व, इसके अनन्तर 
घोषयात्रापर्व है, उसीमें मृगस्वप्नोद्भव और व्रीहिद्रौीणिक उपाख्यान है। तदनन्तर इन्द्रद्यम्नका 
आख्यान और उसके बाद द्रौपदीहरणपर्व है। उसीमें जयद्रथविमोक्षणपर्व है ।। ५४-५५ ।। 

पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्रयाश्वैवमद्भुतम्‌ । 

रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमत: परम्‌ ।। ५६ ।। 

इसके बाद पतित्रता सावित्रीके पातिव्रत्यका अदभुत माहात्म्य है। फिर इसी स्थानपर 
रामोपाख्यानपर्व जानना चाहिये ।। ५६ ।। 

कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते । 

आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम्‌ | 

पाण्डवानां प्रवेशश्व॒ समयस्य च पालनम्‌ ॥। ५७ || 

इसके बाद क्रमश: कुण्डलाहरण और आरणेय-पर्व कहे गये हैं। तदनन्तर विराटपर्वका 
आरम्भ होता है, जिसमें पाण्डवोंके नगरप्रवेश और समयपालन-सम्बन्धीपर्व हैं ।। ५७ ।। 

कीचकानां वध: पर्व पर्व गोग्रहणं तत: । 

अभिमन्योश्र वैराट्या: पर्व वैवाहिकं स्मृतम्‌ ।। ५८ ।। 

इसके बाद कीचकवधपर्व, गोग्रहण (गोहरण)-पर्व तथा अभिमन्यु और उत्तराके 
विवाहका पर्व है ।। ५८ ।। 

उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्व॑ महाद्भुतम्‌ । 


ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमत: परम्‌ ।। ५९ ।। 

प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया । 

पर्व सानत्सुजातं वै गुह्मध्यात्मदर्शनम्‌ ।। ६० ।। 

इसके पश्चात्‌ परम अदभुत उद्योगपर्व समझना चाहिये। इसीमें संजययानपर्व कहा गया 
है। तदनन्तर चिन्ताके कारण धृतराष्ट्रके रातभर जागनेसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रजागरपर्व 
समझना चाहिये। तत्पश्चात्‌ वह प्रसिद्ध सनत्सुजातपर्व है, जिसमें अत्यन्त गोपनीय 
अध्यात्मदर्शनका समावेश हुआ है ।। ५९-६० ।। 

यानसन्धिस्तत: पर्व भगवद्यानमेव च । 

मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च ॥। ६१ ।। 

सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च । 

जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षघोडशराजिकम्‌ ।। ६२ ।। 

इसके पश्चात्‌ यानसन्धि तथा भगवदयानपर्व है, इसीमें मातलिका उपाख्यान, गालव- 
चरित, सावित्र, वामदेव तथा वैन्य-उपाख्यान, जामदग्न्य और षोडशराजिक-उपाख्यान 
आते हैं ।। ६१-६२ ।। 

सभाप्रवेश: कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम्‌ | 

उद्योग: सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च ।। ६३ ।। 

फिर श्रीकृष्णका सभाप्रवेश, विदुलाका अपने पुत्रके प्रति उपदेश, युद्धका उद्योग, 
सैन्यनिर्याण तथा विश्वोपाख्यान--इनका क्रमश: उल्लेख हुआ है ।। ६३ ।। 

ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मन: । 

निर्याणं च तत: पर्व कुरुपाण्डवसेनयो: ।। ६४ ।। 

इसी प्रसंगमें महात्मा कर्णका विवादपर्व है। तदनन्तर कौरव एवं पाण्डव-सेनाका 
निर्याणपर्व है ।। ६४ ।। 

रथातिरथसंख्या च पर्वोक्ते तदनन्तरम्‌ | 

उलूकदूतागमन पर्वामर्षविवर्धनम्‌ ।। ६५ ।। 

तत्पश्चात्‌ रथातिरथसंख्यापर्व और उसके बाद क्रोधकी आग प्रज्वलित करनेवाला 
उलूकदूतागमनपर्व है ।। ६५ ।। 

अम्बोपाख्यानमन्रैव पर्व ज्ञेगमत: परम्‌ | 

भीष्माभिषेचन पर्व ततश्वाद्भुतमुच्यते ।। ६६ ।। 

इसके बाद ही अम्बोपाख्यानपर्व है। तत्पश्चात्‌ अदभुत भीष्माभिषेचनपर्व कहा गया 
है ।। ६६ |। 

जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्ते तदनन्तरम्‌ | 

भूमिपर्व ततः प्रोक्ते द्वीपविस्तारकीर्तनम्‌ ।। ६७ ।। 


इसके आगे जम्बूखण्ड विनिर्माणपर्व है। तदनन्तर भूमिपर्व कहा गया है, जिसमें 
द्वीपोंके विस्तारका कीर्तन किया गया है ।। ६७ ।। 

पर्वोक्ते भगवद्वीता पर्व भीष्मवधस्तत: । 

द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्तत: ।। ६८ ।। 

इसके बाद क्रमश: भगवदगीता, भीष्मवध, द्रोणाभिषेक तथा संशप्तकवधपर्व 
हैं | ६८ ।। 

अभिमन्युवध: पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते । 

जयद्रथवध: पर्व घटोत्कचवधस्तत: ।। ६९ || 

इसके बाद अभिमन्युवधपर्व, प्रतिज्ञापर्व, जयद्रथवधपर्व और घटोत्कचवधपर्व 
हैं ।। ६९ |। 

ततो द्रोणवध: पर्व विज्ञेयं लोमहर्षणम्‌ । 

मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते || ७० ।। 

फिर रोंगटे खड़े कर देनेवाला द्रोणवधपर्व जानना चाहिये। तदनन्तर 
नारायणास्त्रमोक्षपर्व कहा गया है || ७० ।। 

कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम्‌ । 

ह्नदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमत: परम्‌ ।। ७१ ।। 

फिर कर्णपर्व और उसके बाद शल्यपर्व है। इसी पर्वमें हृदप्रवेश और गदायुद्धपर्व भी 
हैं ।। ७१ ।। 

सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम्‌ । 

अत ऊर्ध्व॑ सुबीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते ।। ७२ ।। 

तदनन्तर सारस्वतपर्व है, जिसमें तीर्थों और वंशोंका वर्णन किया गया है। इसके बाद है 
अत्यन्त बीभत्स सौप्तिकपर्व || ७२ |। 

ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्व सुदारुणम्‌ 

जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्तत: परम्‌ ।। ७३ ।। 

इसके बाद अत्यन्त दारुण ऐषीकपर्वकी कथा है। फिर जलप्रदानिक और 
स्त्रीविलापपर्व आते हैं || ७३ ।। 

भ्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदेहिकम्‌ । 

चार्वाकनिग्रह: पर्व रक्षसो ब्रह्म॒रूपिण: ।। ७४ ।। 

तत्पश्चात्‌ श्राद्धपर्व है, जिसमें मृत कौरवोंकी अन्त्येष्टिक्रियाका वर्णन है। उसके बाद 
ब्राह्मण-वेषधारी राक्षस चार्वाकके निग्रहका पर्व है || ७४ ।। 

आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमत: । 

प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्ते तदनन्तरम्‌ ।। ७५ ।। 


तदनन्तर धर्मबुद्धिसम्पन्न धर्मराज युधिष्ठिरके अभिषेकका पर्व है तथा इसके पश्चात्‌ 
गृहप्रविभागपर्व है || ७५ ।। 

शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम्‌ | 

आपद्धर्मश्न पर्वोक्त मोक्षधर्मस्ततः परम्‌ ।। ७६ ।। 

इसके बाद शान्तिपर्व प्रारम्भ होता है; जिसमें राजधर्मानुशासन, आपद्धर्म और 
मोक्षधर्मपर्व हैं | ७६ ।। 

शुकप्रश्नाभिगमन ब्रह्म॒प्रश्नानुशासनम्‌ । 

प्रादुर्भावश्व दुर्वास: संवादश्वैव मायया ।। ७७ ।। 

फिर शुकप्रश्नाभिगमन, ब्रह्मप्रश्नानुशासन, दुर्वासाका प्रादुर्भाव और मायासंवादपर्व 
हैं || ७७ |। 

ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम्‌ | 

स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमत: ।॥। ७८ ।। 

इसके बाद धर्माधर्मका अनुशासन करनेवाला आनुशासनिकपर्व है, तदनन्तर बुद्धिमान्‌ 
भीष्मजीका स्वर्गारोहणपर्व है || ७८ ।। 

ततो<5श्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम्‌ । 

अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम्‌ ।। ७९ || 

अब आता है आश्वमेधिकपर्व, जो सम्पूर्ण पापोंका नाशक है। उसीमें अनुगीतापर्व है, 
जिसमें अध्यात्मज्ञानका सुन्दर निरूपण हुआ है ।। ७९ ।। 

पर्व चाश्रमवासाख्य॑ पुत्रदर्शनमेव च । 

नारदागमनं पर्व ततः: परमिहोच्यते ।। ८० ।। 

इसके बाद आश्रमवासिक, पुत्रदर्शन और तदनन्तर नारदागमनपर्व कहे गये 
हैं ।। ८० ।। 

मौसल पर्व चोद्िष्टं ततो घोरं सुदारुणम्‌ । 

महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं तत: ।। ८३ ।। 

इसके बाद है अत्यन्त भयानक एवं दारुण मौसलपर्व। तत्पश्चात्‌ महाप्रस्थानपर्व और 
स्वर्गारोहण-पर्व आते हैं ।। ८१ ।। 

हरिवंशस्तत: पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्‌ 

विष्णुपर्व शिशोश्षचर्या विष्णो: कंसवधस्तथा ॥। ८२ ।। 

इसके बाद हरिवंशपर्व है, जिसे खिल (परिशिष्ट) पुराण भी कहते हैं, इसमें विष्णुपर्व, 
श्रीकृष्णकी बाललीला एवं कंसवधका वर्णन है ।। ८२ ।। 

भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत्‌ । 

एतत्‌ पर्वशतं पूर्ण व्यासेनोक्ते महात्मना ।। ८३ ।। 


इस खिलपर्वमें भविष्यपर्व भी कहा गया है, जो महान्‌ अदभुत है। महात्मा 
श्रीव्यासजीने इस प्रकार पूरे सौ पर्वोकी रचना की है || ८३ ।। 

यथावत्‌ सूरपुत्रेण लौमहर्षणिना ततः । 

उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु ।। ८४ ।॥ 

सूतवंशशिरोमणि लोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवाजीने व्यासजीकी रचना पूर्ण हो जानेपर 
नैमिषारप्यक्षेत्रमें इन्हीं सौ पर्वोको अठारह पर्वोके रूपमें सुव्यवस्थित करके ऋषियोंके 
सामने कहा ।। ८४ ।। 

समासो भारतस्यायमत्रोक्त: पर्वसंग्रह: । 

पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्‌ ।। ८५ ।। 

सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोर्वध: । 

तथा चैत्रर॒थं देव्या: पाज्चाल्याश्व॒ स्वयंवर: ।। ८६ ।। 

क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्‌ । 

विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च ।। ८७ ।। 

वनवासोडर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं तत: । 

हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च ॥। ८८ ।। 

मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते । 

इस प्रकार यहाँ संक्षेपसे महाभारतके पर्वोका संग्रह बताया गया है। पौष्य, पौलोम, 
आस्तीक, आदिअंशावतरण, सम्भव, लाक्षागृह, हिडिम्बवध, बकवध, चैत्ररथ, देवी 
द्रौपदीका स्वयंवर, क्षत्रियधर्मसे राजाओंपर विजयप्राप्तिपूर्वक वैवाहिक विधि, विदुरागमन, 
राज्यलम्भ, अर्जुनका वनवास, सुभद्राका हरण, हरणाहरण, खाण्डवदाह तथा मयदानवसे 
मिलनेका प्रसंग--यहाँतककी कथा आदिपर्वमें कही गयी है || ८५-८८ ३ ।। 

पौष्ये पर्वणि माहात्म्यमुत्तड़कस्योपवर्णितम्‌ ।। ८९ ।। 

पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तार: परिकीर्तित: । 

आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भव: ।। ९० ।। 

पौष्यपर्वमें उत्तंकके माहात्म्यका वर्णन है। पौलोमपर्वमें भूगुवंशके विस्तारका वर्णन है। 
आस्तीकपर्वमें सब नागों तथा गरुड़की उत्पत्तिकी कथा है || ८९-९० ।|। 

क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चै:अ्रवसस्तथा । 

यजत: सर्पसत्रेण राज्ञ: पारीक्षितस्थ च ।। ९१ ।। 

कथेयमभिनिर्वत्ता भरतानां महात्मनाम्‌ | 

विविधा: सम्भवा राज्ञामुक्ता: सम्भवपर्वणि ।। ९२ ।। 

अन्‍्येषां चैव शूराणामृषेद्वैपायनस्य च । 

अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम्‌ ।। ९३ ।। 


इसी पर्वमें क्षीरसागरके मन्थन और उच्चै:श्रवा घोड़ेके जन्मकी भी कथा है। 
परीक्षित्‌नन्दन राजा जनमेजयके सर्पयज्ञमें इन भरतवंशी महात्मा राजाओंकी कथा कही 
गयी है। सम्भवपर्वमें राजाओंके भिन्न-भिन्न प्रकारके जन्मसम्बन्धी वृत्तान्तोंका वर्णन है। 
इसीमें दूसरे शूरवीरों तथा महर्षि द्वैपषायनके जन्मकी कथा भी है। यहीं देवताओंके 
अंशावतरणकी कथा कही गयी है || ९१--९३ ।। 

दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम्‌ । 

नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम्‌ ।। ९४ ।। 

अन्‍्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्धव: । 

महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विन: ।। ९५ ।। 

शकुन्तलायां दुष्यन्ताद्‌ भरतश्नापि जज्ञिवान्‌ 

यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्‌ ।। ९६ ।। 

इसी पर्वमें अत्यन्त प्रभावशाली दैत्य, दानव, यक्ष, नाग, सर्प, गन्धर्व और पक्षियों तथा 
अन्य विविध प्रकारके प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन है। परम तपस्वी महर्षि कण्वके 
आश्रममें दुष्यन्तके द्वारा शकुन्तलाके गर्भसे भरतके जन्मकी कथा भी इसीमें है। उन्हीं 
महात्मा भरतके नामसे यह भरतवंश संसारमें प्रसिद्ध हुआ है ।। ९४--९६ ।। 

वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम्‌ | 

शान्तनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि ।। ९७ ।। 

इसके बाद महाराज शान्तनुके गृहमें भागीरथी गंगाके गर्भसे महात्मा वसुओंकी उत्पत्ति 
एवं फिरसे उनके स्वर्गमें जानेका वर्णन किया गया है ।। ९७ ।। 

तेजों5शानां च सम्पातो भीष्मस्याप्यत्र सम्भव: | 

राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थिति: ।। ९८ ।। 

प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राड्भदस्य च | 

हते चित्राड्दे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयस: ।। ९९ ।। 

विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम्‌ । 

धर्मस्य नृषु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा || १०० ।। 

कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा । 

धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्व॒ पाण्डवानां च सम्भव: ।। १०१ || 

इसी पर्वमें वसुओंके तेजके अंशभूत भीष्मके जन्मकी कथा भी है। उनकी राज्यभोगसे 
निवृत्ति, आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतमें स्थित रहनेकी प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञापालन, चित्रांगदकी रक्षा और 
चित्रांगदकी मृत्यु हो जानेपर छोटे भाई विचित्रवीर्यकी रक्षा, उन्हें राज्य-समर्पण, 
अणीमाण्डव्यके शापसे भगवान्‌ धर्मकी विदुरके रूपमें मनुष्योंमें उत्पत्ति, 
श्रीकृष्णद्वैपायनके वरदानके कारण धृतराष्ट्र एवं पाण्डुका जन्म और इसी प्रसंगमें 
पाण्डवोंकी उत्पत्ति-कथा भी है | ९८--१०१ ॥। 


वारणावततयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च । 

कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्‌ प्रति ।। १०२ ।। 

हितोपदेशश्न पथि धर्मराजस्य धीमत: । 

विदुरेण कृतो यत्र हितार्थ म्लेच्छभाषया ।। १०३ ।। 

लाक्षागृहदाहपर्वमें पाण्डवोंकी वारणावत-यात्राके प्रसंगमें दुर्योधनके गुप्त षड़्यन्त्रका 
वर्णन है। उसका पाण्डवोंके पास कूटनीतिज्ञ पुरोचनको भेजनेका भी प्रसंग है। मार्गमें 
विदुरजीने बुद्धिमान्‌ युधिष्ठिरके हितके लिये म्लेच्छभाषामें जो हितोपदेश किया, उसका भी 
वर्णन है ।। १०२-१०३ ।। 

विदुरस्य च वाक्येन सुरज्रोपक्रमक्रिया । 

निषाद्या: पज्चपुत्राया: सुप्ताया जतुवेश्मनि ।॥। १०४ ।। 

पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम्‌ । 

पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्व दर्शनम्‌ ।। १०५ ।। 

तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात्‌ । 

घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता | १०६ ।। 

फिर विदुरकी बात मानकर सुरंग खुदवानेका कार्य आरम्भ किया गया। उसी 
लाक्षागृहमें अपने पाँच पुत्रोंके साथ सोती हुई एक भीलनी और पुरोचन भी जल मरे--यह 
सब कथा कही गयी है। हिडिम्बवधपर्वमें घोर वनके मार्गसे यात्रा करते समय पाण्डवोंको 
हिडिम्बाके दर्शन, महाबली भीमसेनके द्वारा हिडिम्बासुरके वध तथा घटोत्कचके जन्मकी 
कथा कही गयी है ।। १०४--१०६ ।। 

महर्षेर्दर्शन॑ं चैव व्यासस्यामिततेजस: । 

तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने ।। १०७ ।। 

अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तित: । 

बकस्य निधन चैव नागराणां च विस्मय: ।। १०८ ।। 

अमिततेजस्वी महर्षि व्यासका पाण्डवोंसे मिलना और उनकी आज्ञासे एकचक्रा 
नगरीमें ब्राह्मणके घर पाण्डवोंके गुप्त निवासका वर्णन है। वहीं रहते समय उन्होंने 
बकासुरका वध किया, जिससे नागरिकोंको बड़ा भारी आश्चर्य हुआ || १०७-१०८ ।। 

सम्भवश्वैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह । 

ब्राह्मणात्‌ समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिता: ।। १०९ |। 

द्रौपदी प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया । 

पज्चालानभितो जममुर्यत्र कौतूहलान्विता: ।। ११० ।। 

इसके अनन्तर कृष्णा (द्रौपदी) और उसके भाई धृष्टद्युम्नकी उत्पत्तिका वर्णन है। जब 
पाण्डवोंको ब्राह्मणके मुखसे यह संवाद मिला, तब वे महर्षि व्यासकी आज्ञासे द्रौपदीकी 


प्राप्तिकि लिये कौतूहलपूर्ण चित्तसे स्वयंवर देखने पांचालदेशकी ओर चल 
पड़े || १०९-११० || 

अड्भारपर्ण निर्जित्य गड़्ाकूले<र्जुनस्तदा । 

सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे ।। १११ ।। 

तापत्यमथ वासिष्ठमौर्व चाख्यानमुत्तमम्‌ । 

भ्रातृभि: सहित: सर्वे: पजड्चालानभितो ययौ ।। ११२ ।। 

पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्ता धनंजय: । 

द्रौपदी लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम्‌ ।। ११३ ।। 

भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान्‌ पृथिवीपतीन्‌ । 

शल्यकर्णो च तरसा जितवन्तौ महामृथे ।। ११४ ।। 

चैत्ररथपर्वमें गंगाके तटपर अर्जुनने अंगारपर्ण गन्धर्वको जीतकर उससे मित्रता कर ली 
और उसीके मुखसे तपती, वसिष्ठ और और्वके उत्तम आख्यान सुने। फिर अर्जुनने वहाँसे 
अपने सभी भाइयोंके साथ पांचालकी ओर यात्रा की। तदनन्तर अर्जुनने पांचालनगरके 
बड़े-बड़े राजाओंसे भरी सभामें लक्ष्यवेध करके द्रौपदीको प्राप्त किया--यह कथा भी इसी 
पर्वमें है। वहीं भीमसेन और अर्जुनने रणांगणमें युद्धके लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओंको 
तथा शल्य और कर्णको भी अपने पराक्रमसे पराजित कर दिया || १११--११४ ।। 

दृष्टवा तयोश्व तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम्‌ । 

शड्कमानीौ पाण्डवांस्तान्‌ रामकृष्णौ महामती ।। ११५ ।। 

जग्मतुस्तै: समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि । 

पञज्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रपदस्य च ।। ११६ ।। 

महामति बलराम एवं भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब भीमसेन एवं अर्जुनके अपरिमित और 
अतिमानुष बल-वीर्यको देखा, तब उन्हें यह शंका हुई कि कहीं ये पाण्डव तो नहीं हैं। फिर 
वे दोनों उनसे मिलनेके लिये कुम्हारके घर आये। इसके पश्चात्‌ ट्रपदने 'पाँचों पाण्डवोंकी 
एक ही पत्नी कैसे हो सकती है'--इस सम्बन्धमें विचार-विमर्श किया ।। ११५-११६ ।। 

पज्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्धुतमुच्यते । 

द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्नाप्यमानुष: ॥। ११७ ।। 

इसी वैवाहिकपर्वमें पाँच इन्द्रोंका अदभुत उपाख्यान और द्रौपदीके देवविहित तथा 
मनुष्य-परम्पराके विपरीत विवाहका वर्णन हुआ है ।। ११७ ।। 

क्षत्तुश्न धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्‌ प्रति । 

विदुरस्य च सम्प्राप्तिर्दर्शन॑ केशवस्य च ।। ११८ ।। 

इसके बाद धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पास विदुरजीको भेजा है, विदुरजी पाण्डवोंसे मिले हैं 
तथा उन्हें श्रीकृष्णका दर्शन हुआ है ।। ११८ ।। 

खाण्डवप्रस्थवासश्न तथा राज्यार्धथसर्जनम्‌ । 


नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्या: समयक्रिया ।। ११९ ।। 

इसके पश्चात्‌ धृतराष्ट्रका पाण्डवोंको आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थमें पाण्डवोंका निवास 
करना एवं नारदजीकी आज्ञासे द्रौपदीके पास आने-जानेके सम्बन्धमें समय-निर्धारण आदि 
विषयोंका वर्णन है ।। ११९ ।। 

सुन्दोपसुन्दयोस्तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम्‌ । 

अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिछ्िरम्‌ ।। १२० ।। 

अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम्‌ । 

मोक्षयित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थ कृतनिश्चय: ।। १२१ ।। 

समयं पालयन्‌ वीरो वन यत्र जगाम ह । 

पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगम: ।। १२२ ।। 

इसी प्रसंगमें सुन्दर और उपसुन्दके उपाख्यानका भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिन 
धर्मराज युधिष्ठिर द्रौपदीके साथ बैठे हुए थे। अर्जुनने ब्राह्मणके लिये नियम तोड़कर वहाँ 
प्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मणकी वस्तु उसे प्राप्त करा दी और दृढ़ निश्चय 
करके वीरताके साथ मर्यादापालनके लिये वनमें चले गये। इसी प्रसंगमें यह कथा भी कही 
गयी है कि वनवासके अवसरपर मार्गमें ही अर्जुन और उलूपीका मेल-मिलाप हो 
गया ।। १२०-१२२ ।। 

पुण्यतीर्थानुसंयानं बश्रुवाहनजन्म च । 

तत्रैव मोक्षयामास पठ्च सो5प्सरस: शुभा: | १२३ || 

शापाद्‌ ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विन: । 

प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागम: ।। १२४ ।। 

इसके बाद अर्जुनने पवित्र तीर्थोकी यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदाके गर्भसे 
बभ्रुवाहनका जन्म हुआ है और इसी यात्रामें उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओंको मुक्तिदान 
किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मणके शापसे ग्राह हो गयी थीं। फिर प्रभासतीर्थमें श्रीकृष्ण और 
अर्जुनके मिलनका वर्णन है ।। १२३-१२४ ।। 

द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी । 

वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना ॥। १२५ ।। 

तत्पश्चात्‌ यह बताया गया है कि द्वारकामें सुभद्रा और अर्जुन परस्पर एक-दूसरेपर 
आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्णकी अनुमतिसे अर्जुनने सुभद्राको हर लिया ।। १२५ ।। 

गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने । 

अभिमन्यो: सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजस: ।। १२६ ।। 

तदनन्तर देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णके दहेज लेकर पाण्डवोंके पास पहुँचनेकी और 
सुभद्राके गर्भसे परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्युके जन्मकी कथा है || १२६ ।। 

द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवो«नुप्रकीर्तित: । 


विहारार्थ च गतयो: कृष्णयोर्यमुनामनु || १२७ ।। 

सम्प्राप्तिश्नक्रधनुषो: खाण्डवस्य च दाहनम्‌ | 

मयस्य मोक्षो ज्वलनाद्‌ भुजड़स्य च मोक्षणम्‌ ।। १२८ ।। 

इसके पश्चात्‌ द्रौपदीके पुत्रोंकी उत्पत्तिकी कथा है। तदनन्तर जब श्रीकृष्ण और अर्जुन 
यमुनाजीके तटपर विहार करनेके लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुषकी 
प्राप्ति हुई, उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डववनके दाह, मयदानवके छुटकारे और 
अग्निकाण्डसे सर्पके सर्वथा बच जानेका वर्णन हुआ है ।। १२७-१२८ ।। 

महर्षेमन्दपालस्य शार्ड्र्या तनयसम्भव: । 

इत्येतदादिपर्वोक्त प्रथमं बहुविस्तरम्‌ ।। १२९ ।। 

इसके बाद महर्षि मन्दपालका शार्ड्ी पक्षीके गर्भसे पुत्र उत्पन्न करनेकी कथा है। इस 
प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्वका सबसे प्रथम निरूपण हुआ है ।। १२९ ।। 

अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा । 

सप्तविंशतिरथ्याया व्यासेनोत्तमतेजसा ।। १३० ।। 

परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यासने इस पर्वमें दो सौ सत्ताईस (२२७) अध्यायोंकी 
रचना की है ।। १३० ।। 

अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च । 

श्लोकाश्न चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना ।। १३१ ।। 

महात्मा व्यास मुनिने इन दो सौ सत्ताईस (२२७) अध्यायोंमें आठ हजार आठ सौ 
चौरासी (८,८८४) श्लोक कहे हैं ।। १३१ ।। 

द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते । 

सभाक्रिया पाण्डवानां किड्कराणां च दर्शनम्‌ ।। १३२ ।। 

लोकपालसभाख्यानं नारदाद्‌ देवदर्शिन: । 

राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा || १३३ ।। 

गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम्‌ । 

तथा दिग्विजयोअ्चत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तित: ।। १३४ ।। 

दूसरा सभापर्व है। इसमें बहुत-से वृत्तान्तोंका वर्णन है। पाण्डवोंका सभानिर्माण, 
किंकर नामक राक्षसोंका दीखना, देवर्षि नारदद्वारा लोकपालोंकी सभाका वर्णन, 
राजसूययज्ञका आरम्भ एवं जरासन्धवध, गिरिव्रजमें बंदी राजाओंका श्रीकृष्णके द्वारा 
छुड़ाया जाना और पाण्डवोंकी दिग्विजयका भी इसी सभापर्वमें वर्णन किया गया 
है ।। १३२--१३४ ।। 

राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महाक्रतौ । 

राजसूये<र्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा ।। १३५ ।। 


राजसूय महायज्ञमें उपहार ले-लेकर राजाओंके आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो 
इस विषयको लेकर छिड़े हुए विवादमें शिशुपालके वधका प्रसंग भी इसी सभापर्वमें आया 
है ।। १३५ || 

यज्ञे विभूतिं तां दृष्टवा दुःखामर्षान्वितस्य च | 

दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले ।। १३६ ।। 

यज्ञमें पाण्डवोंका यह वैभव देखकर दुर्योधन दुःख और ईरष्यासे मन-ही-मनमें जलने 
लगा। इसी प्रसंगमें सभाभवनके सामने समतल भूमिपर भीमसेनने उसका उपहास 
किया ।। १३६ |। 

यत्रास्य मन्युरुदभूतो येन द्यूतमकारयत्‌ । 

यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनि: कितवो5जयत्‌ ।। १३७ ।। 

उसी उपहासके कारण दुर्योधनके हृदयमें क्रोधाग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने 
जूएके खेलका षड़्यन्त्र रचा। इसी जूएमें कपटी शकुनिने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको जीत 
लिया ।। १३७ |। 

यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदी नौरिवार्णवात्‌ । 

धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञ: स्नुषां परमदु:खिताम्‌ ।। १३८ ।। 

तारयामास तांस्‍्तीर्णान ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः । 

पुनरेव ततो द्यूते समाह्दयत पाण्डवान्‌ | १३९ ।। 

जैसे समुद्रमें डूबी हुई नौकाको कोई फिरसे निकाल ले, वैसे ही द्यूतके समुद्रमें डूबी हुई 
परमदु:खिनी पुत्रवधू द्रौपदीको परम बुद्धिमान्‌ धृतराष्ट्रने निकाल लिया। जब राजा 
दुर्योधनको जूएकी विपत्तिसे पाण्डवोंके बच जानेका समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें 
(पितासे आग्रह करके) जूएके लिये बुलवाया | १३८-१३९ ।। 

जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्तत: । 

एतत्‌ सर्व सभापर्व समाख्यातं महात्मना ।। १४० ।। 

दुर्योधनने उन्हें जूएमें जीतकर वनवासके लिये भेज दिया। महर्षि व्यासने सभापर्वमें 
यही सब कथा कही है ।। १४० ।। 

अध्याया: सप्ततिरज्ञैयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया । 

श्लोकानां द्वे सहस्ने तु पजच शलोकशतानि च ।। १४१ ।। 

श्लोकाश्नैकादश ज्ञेया: पर्वण्यस्मिन्‌ द्विजोत्तमा: । 

अतः पर तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत्‌ ।। १४२ ।। 

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या अठहत्तर (७८) है और श्लोकोंकी संख्या 
दो हजार पाँच सौ ग्यारह (२,५११) बतायी गयी है। इसके पश्चात्‌ महत्त्वपूर्ण वनपर्वका 
आरम्भ होता है ।। १४१-१४२ ।। 

वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु । 


पौरानुगमन चैव धर्मपुत्रस्य धीमत: ।। १४३ ।। 

जिस समय महात्मा पाण्डव वनवासके लिये यात्रा कर रहे थे, उस समय बहुत-से 
पुरवासी लोग बुद्धिमान्‌ धर्मराज युधिष्ठिरके पीछे-पीछे चलने लगे ।। १४३ ।। 

अन्नौषधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना । 

द्विजानां भरणार्थ च कृतमाराधनं रवे: ।। १४४ ।। 

महात्मा युधिष्ठिरने पहले अनुयायी ब्राह्मणोंक भरण-पोषणके लिये अन्न और 
ओषधियाँ प्राप्त करनेके उद्देश्यसे सूर्यभभगवान्‌की आराधना की || १४४ ॥। 

धौम्योपदेशात्‌ तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भव: । 

हित॑ च ब्रुवत: क्षत्तु: परित्यागोडम्बिकासुतात्‌ ।। १४५ ।। 

त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा । 

पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात्‌ ।। १४६ ।। 

कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मते: । 

वनस्थान्‌ पाण्डवान्‌ हन्तुं मन्त्रों दुर्योधनस्य च || १४७ ।। 

महर्षि धौम्यके उपदेशसे उन्हें सूर्यभगवान्‌की कृपा प्राप्त हुई और अक्षय अन्नका पात्र 
मिला। उधर विदुरजी धृतराष्ट्रको हितकारी उपदेश कर रहे थे, परंतु धृतराष्ट्रने उनका 
परित्याग कर दिया। धुृतराष्ट्रके परित्यागपर विदुरजी पाण्डवोंके पास चले गये और फिर 
धृतराष्ट्रका आदेश प्राप्त होनेपर उनके पास लौट आये। धुृतराष्ट्रनन्दन दुर्मति दुर्योधनने 
कर्णके प्रोत्साहनसे वनवासी पाण्डवोंको मार डालनेका विचार किया ।। १४५--१४७ ।। 

त॑ दुष्टभावं॑ विज्ञाय व्यासस्यागमन द्रुतम्‌ । 

निर्याणप्रतिषेधश्व सुरभ्याख्यानमेव च ।। १४८ ।। 

दुर्योधनके इस दूषित भावको जानकर महर्षि व्यास झटपट वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने 
दुर्योधनकी यात्राका निषेध कर दिया। इसी प्रसंगमें सुरभिका आख्यान भी है ।। १४८ ।। 

मैत्रेयागमन चात्र राज्ञश्नैवानुशासनम्‌ । 

शापोत्सर्गश्न तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च ।। १४९ ।। 

मैत्रेय ऋषिने आकर राजा धृतराष्ट्रको उपदेश किया और उन्होंने ही राजा दुर्योधनको 
शाप दे दिया ।। १४९ |। 

किर्मीरस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे | 

वृष्णीनामागमश्चात्र पज्चालानां च सर्वश: ।। १५० ।। 

इसी पर्वमें यह कथा है कि युद्धमें भीमसेनने किर्मीरको मार डाला। पाण्डवोंके पास 
वृष्णिवंशी और पांचाल आये। पाण्डवोंने उन सबके साथ वार्तालाप किया ।। १५० ।। 

श्रुत्वा शकुनिना द्ूते निकृत्या निर्जितांश्व॒ तान्‌ । 

क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्नैव किरीटिना || १५१ ।। 


जब श्रीकृष्णने यह सुना कि शकुनिने जूएमें पाण्डवोंको कपटसे हरा दिया है, तब वे 
अत्यन्त क्रोधित हुए; परंतु अर्जुनने हाथ जोड़कर उन्हें शान्त किया || १५१ ।। 

परिदेवनं च पाज्चाल्या वासुदेवस्य संनिधौ | 

आश्चासनं च कृष्णेन दु:खार्ताया: प्रकीर्तितम्‌ ।। १५२ ।। 

द्रौपदी श्रीकृष्णके पास बहुत रोयी-कलपी। श्रीकृष्णने दुःखार्त द्रौपदीको आश्वासन 
दिया। यह सब कथा वनपर्वमें है ।। १५२ ।। 

तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा । 

सुभद्राया: सपुत्राया: कृष्णेन द्वारकां पुरीम्‌ ।। १५३ ।। 

नयन द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह । 

प्रवेश: पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतववने तत: ।। १५४ ।। 

इसी पर्वमें महर्षि व्यासने सौभवधकी कथा कही है। श्रीकृष्ण सुभद्राको पुत्रसहित 
द्वारकामें ले गये। धृष्टद्युम्न द्रौपदीके पुत्रोंकी अपने साथ लिवा ले गये। तदनन्तर पाण्डवोंने 
परम रमणीय द्वैतवनमें प्रवेश किया ।। १५३-१५४ ।। 

धर्मराजस्य चात्रैव संवाद: कृष्णया सह । 

संवादश्न तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तित: ।। १५५ || 

इसी पर्वमें युधिष्ठिर एवं द्रौपदीका संवाद तथा युधिष्ठिर और भीमसेनके संवादका 
भलीभाँति वर्णन किया गया है || १५५ ।। 

समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा । 

प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दान राज्ञो महर्षिणा ।। १५६ ।। 

महर्षि व्यास पाण्डवोंके पास आये और उन्होंने राजा युधिष्ठिरको प्रतिस्मृति नामक 
मन्त्रविद्याका उपदेश दिया ।। १५६ ।। 

गमन॑ काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः । 

अस्त्रहेतोर्विवासक्ष पार्थस्यामिततेजस: ।। १५७ || 

व्यासजीके चले जानेपर पाण्डवोंने काम्यकवनकी यात्रा की। इसके बाद 
अमिततेजस्वी अर्जुन अस्त्र प्राप्त करनेके लिये अपने भाइयोंसे अलग चले गये ।। १५७ ।। 

महादेवेन युद्ध च किरातवपुषा सह । 

दर्शन॑ं लोकपालानामग्त्रप्राप्तिस्तथैव च ।। १५८ ।। 

वहीं किरातवेशधारी महादेवजीके साथ अर्जुनका युद्ध हुआ, लोकपालोंके दर्शन हुए 
और अस्त्रकी प्राप्ति हुई || १५८ ।। 

महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिन: । 

यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी ।। १५९ ।। 

इसके बाद अर्जुन अस्त्रके लिये इन्द्रलोकमें गये यह सुनकर धृतराष्ट्रको बड़ी चिन्ता 
हुई ।। १५९ || 


दर्शन बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मन: । 

युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसन परिदेवनम्‌ ।। १६० ।। 

इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको शुद्धहृदय महर्षि बृहदश्वका दर्शन हुआ। युधिष्छिरने 
आर्त होकर उन्हें अपनी दुःखगाथा सुनायी और विलाप किया ।। १६० ।। 

नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करूणोदयम्‌ । 

दमयन्त्या: स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा ।। १६१ ।। 

इसी प्रसंगमें नलोपाख्यान आता है, जिसमें धर्मनिष्ठाका अनुपम आदर्श है और जिसे 
पढ़-सुनकर हृदयमें करुणाकी धारा बहने लगती है। दमयन्तीका दृढ़ धैर्य और नलका चरित्र 
यहीं पढ़नेको मिलते हैं || १६१ ।। 

तथाक्षह्गदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षित: । 

लोमशस्यागमस्तत्र स्वर्गात्‌ पाण्डुसुतान्‌ प्रति ॥॥ १६२ ।। 

वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम्‌ | 

स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता लोमशेनार्जुनस्य वै ।। १६३ ।। 

उन्हीं महर्षिसे पाण्डवोंको अक्षहृदय (जूएके रहस्य)-की प्राप्ति हुई। यहीं स्वर्गसे महर्षि 
लोमश पाण्डवोंके पास पधारे। लोमशने ही वनवासी महात्मा पाण्डवोंको यह बात बतलायी 
कि अर्जुन स्वर्गमें किस प्रकार अस्त्र-विद्या सीख रहे हैं ।। १६२-१६३ ।। 

संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया । 

तीर्थानां च फलप्राप्ति: पुण्यत्वं चापि कीर्तितम्‌ ।। १६४ ।। 

इसी पर्वमें अर्जुनका संदेश पाकर पाण्डवोंने तीर्थयात्रा की। उन्हें तीर्थयात्राका फल 
प्राप्त हुआ और कौन तीर्थ कितने पुण्यप्रद होते हैं--इस बातका वर्णन हुआ है ।। १६४ ।। 

पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा । 

तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम्‌ ।। १६५ ।। 

कर्णस्य परिमोक्षो5त्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्‌ 

तथा यज्ञविभूतिश्न गयस्यात्र प्रकीर्तिता ।। १६६ ।। 

इसके बाद महर्षि नारदने पुलस्त्यतीर्थकी यात्रा करनेकी प्रेरणा दी और महात्मा 
पाण्डवोंने वहाँकी यात्रा की। यहीं इन्द्रके द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वंचित करनेका तथा 
राजा गयके यज्ञवैभवका वर्णन किया गया है ।। १६५-१६६ ।। 

आगस््त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम्‌ | 

लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेस्तथा ।। १६७ ।। 

इसके बाद अगस्त्य-चरित्र है, जिसमें उनके वातापिभक्षण तथा संतानके लिये 
लोपामुद्राके साथ समागमका वर्णन है ।। १६७ ।। 

ऋष्यशृज्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिण: । 

जामदग्न्यस्य रामस्य चरित॑ं भूरितेजस: ।। १६८ ।। 


इसके पश्चात्‌ कौमार ब्रह्मचारी ऋष्यशृंगका चरित्र है। फिर परम तेजस्वी 
जमदग्निनन्दन परशुरामका चरित्र है ।। १६८ ।। 

कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते | 

प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्व॒ समागम: ।। १६९ || 

इसी चरित्रमें कार्तवीर्य अर्जुन तथा हैहयवंशी राजाओंके वधका वर्णन किया गया है। 
प्रभासतीर्थमें पाण्डवों एवं यादवोंके मिलनेकी कथा भी इसीमें है || १६९ ।। 

सीकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गव: । 

शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्‌ सोमपीतिनौ ।। १७० ।। 

इसके बाद सुकन्याका उपाख्यान है। इसीमें यह कथा है कि भृगुनन्दन च्यवनने 
शर्यातिके यज्ञमें अश्विनीकुमारोंकोी सोमपानका अधिकारी बना दिया || १७० |। 

ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यावनं प्रतिपादित: । 

मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोड्त्रैव प्रकीर्तितम्‌ ।। १७१ ।। 

उन्हीं दोनोंने च्यवन मुनिको बूढ़ेसे जवान बना दिया। राजा मान्धाताकी कथा भी इसी 
पर्वमें कही गयी है ।। १७१ ।। 

जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमक: । 

पुत्रार्थभयजद्‌ राजा लेभे पुत्रशतं च सः ।। १७२ ।। 

यहीं जन्तूपाख्यान है। इसमें राजा सोमकने बहुत-से पुत्र प्राप्त करनेके लिये एक पुत्रसे 
यजन किया और उसके फलस्वरूप सौ पुत्र प्राप्त किये || १७२ ।। 

ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम्‌ | 

इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थ शिबिं नृूपम्‌ ।। १७३ ।। 

इसके बाद श्येन (बाज) और कपोत (कबूतर)-का सर्वोत्तम उपाख्यान है। इसमें इन्द्र 
और अग्नि राजा शिबिके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये आये हैं || १७३ ।। 

अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना । 

अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेडभवत्‌ ।। १७४ ।। 

नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च । 

पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना ॥। १७५ |। 

विजित्य सागर प्राप्तं पितरं लब्धवानृषि: । 

यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मन: । 

गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे ।। १७६ ।। 

इसी पर्वमें अष्टावक्रका चरित्र भी है। जिसमें बन्दीके साथ जनकके यज्ञमें ब्रह्मर्षि 
अष्टावक्रके शास्त्रार्थका वर्णन है। वह बन्दी वरुणका पुत्र था और नैयायिकोंमें प्रधान था। 
उसे महात्मा अष्टावक्रने वाद-विवादमें पराजित कर दिया। महर्षि अष्टावक्रने बन्दीको 
हराकर समुद्रमें डाले हुए अपने पिताको प्राप्त कर लिया। इसके बाद यवक्रीत और महात्मा 


रैभ्यका उपाख्यान है। तदनन्तर पाण्डवोंकी गन्धमादनयात्रा और नारायणाश्रममें निवासका 
वर्णन है । १७४--१७६ || 

नियुक्तो भीमसेन श्व द्रौपद्या गन्धमादने । 

व्रजन्‌ पथि महाबाहुर्दृष्टटान्‌ पवनात्मजम्‌ ।। १७७ ।। 

कदलीखण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम्‌ । 

यत्र सौगन्धिकार्थेड्सौ नलिनीं तामधर्षयत्‌ ।। १७८ ।। 

द्रौपदीने सौगन्धिक कमल लानेके लिये भीमसेनको गन्धमादन पर्वतपर भेजा। यात्रा 
करते समय महाबाहु भीमसेनने मार्गमें कदलीवनमें महाबली पवननन्दन श्रीहनुमानजीका 
दर्शन किया। यहीं सौगन्धिक कमलके लिये भीमसेनने सरोवरमें घुसकर उसे मथ 
डाला || १७७-१७८ || 

यत्रास्य युद्धमभवत्‌ सुमहद्‌ राक्षसै: सह । 

यक्षैश्षैव महावीर्यर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा ।। १७९ ।। 

वहीं भीमसेनका राक्षसों एवं महाशक्तिशाली मणिमान्‌ आदि यक्षोंके साथ घमासान 
युद्ध हुआ ।। १७९ ।। 

जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात्‌ । 

वृषपर्वणश्न राजर्षेस्ततो 5भिगमनं स्मृतम्‌ ।। १८० ।। 

आर्डिषेणाश्रमे चैषां गमनं वास एव च । 

प्रोत्साहनं च पाउचाल्या भीमस्यात्र महात्मन: ।। १८१ ।। 

कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षेर्बलोत्कटै: । 

युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखै: सह ।। १८२ ।। 

तत्पश्चात्‌ भीमसेनके द्वारा जटासुर राक्षसका वध हुआ। फिर पाण्डव क्रमशः राजर्षि 
वृषपर्वा और आर्श्षिणके आश्रमपर गये और वहीं रहने लगे। यहीं द्रौपदी महात्मा 
भीमसेनको प्रोत्साहित करती रही। भीमसेन कैलासपर्वतपर चढ़ गये। यहीं अपनी शक्तिके 
नशेमें चूर मणिमान्‌ आदि यक्षोंके साथ उनका अत्यन्त घोर युद्ध हुआ || १८०-१८२ ।। 

समागमश्न पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च । 

समागमश्नार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभि: सह ।। १८३ ।। 

यहीं पाण्डवोंका कुबेरके साथ समागम हुआ। इसी स्थानपर अर्जुन आकर अपने 
भाइयोंसे मिले || १८३ ।। 

अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थ सव्यसाचिना । 

निवातकवचैर्युद्ध हिरण्यपुरवासिभि: ।। १८४ ।। 

इधर सव्यसाची अर्जुनने अपने बड़े भाईके लिये दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये और 
हिरण्यपुरवासी निवातकवच दानवोंके साथ उनका घोर युद्ध हुआ ।। १८४ ।। 

निवातकवचैघररिर्दानवै: सुरशत्रुभि: । 


पौलोमै: कालकेयैश्व यत्र युद्ध किरीटिन: ।। १८५ ।। 

वधश्नैषां समाख्यातों राज्ञस्तेनेव धीमता । 

अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ ।। १८६ ।। 

वहाँ देवताओंके शत्रु भयंकर दानव निवातकवच, पौलोम और कालकेयोंके साथ 
अर्जुनने जैसा युद्ध किया और जिस प्रकार उन सबका वध हुआ था, वह सब बुद्धिमान्‌ 
अर्जुनने स्वयं राजा युधिष्ठिरको सुनाया। इसके बाद अर्जुनने धर्मराज युधिष्ठिरके पास अपने 
अस्त्र-शस्त्रोंका प्रदर्शन करना चाहा ।। १८५-१८६ ।। 

पार्थस्य प्रतिषेधश्व॒ नारदेन सुर््िणा । 

अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात्‌ ।। १८७ ।। 

इसी समय देवर्षि नारदने आकर अर्जुनको अस्त्र-प्रदर्शनसे रोक दिया। अब पाण्डव 
गन्धमादन पर्वतसे नीचे उतरने लगे || १८७ ।। 

भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा । 

भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन्‌ सुगहने वने || १८८ ।। 

फिर एक बीहड़ वनमें पर्वतके समान विशाल शरीरधारी बलवान्‌ अजगरने भीमसेनको 
पकड़ लिया ।। १८८ ।। 

अमोक्षयद्‌ यत्र चैन॑ प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिर: । 

काम्यकागमन चैव पुनस्तेषां महात्मनाम्‌ ।। १८९ |। 

धर्मराज युधिष्ठिरने अजगर-वेशधारी नहुषके प्रश्नोंका उत्तर देकर भीमसेनको छुड़ा 
लिया। इसके बाद महानुभाव पाण्डव पुन: काम्यकवनमें आये ।। १८९ ।। 

तत्रस्थांश्व पुनर्द्रष्ट पाण्डवान्‌ पुरुषर्षभान्‌ । 

वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम्‌ ।। १९० ।। 

जब नरपुंगव पाण्डव काम्यकवनमें निवास करने लगे, तब उनसे मिलनेके लिये 
वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण उनके पास आये--यह कथा इसी प्रसंगमें कही गयी है ।। १९० ।। 

मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वश: । 

पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा ।। १९१ ।। 

पाण्डवोंका महामुनि मार्कण्डेयके साथ समागम हुआ। वहाँ महर्षिने बहुत-से 
उपाख्यान सुनाये। उनमें वेनपुत्र पृुथुका भी उपाख्यान है ।। १९१ ।। 

संवादश्न सरस्वत्यास्ताक्ष्यरषें: सुमहात्मन: । 

मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम्‌ ।। १९२ ।। 

इसी प्रसंगमें प्रसिद्ध महात्मा महर्षि ताक्ष्य और सरस्वतीका संवाद है। तदनन्तर 
मत्स्योपाख्यान भी कहा गया है ।। १९२ ।। 

मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते । 

ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च ।। १९३ ।। 


इसी मार्कण्डेय-समागममें पुराणोंकी अनेक कथाएँ, राजा इन्द्रद्युम्नका उपाख्यान तथा 
धुन्धुमारकी कथा भी है ।। १९३ ।। 

पतिव्रतायाश्नाख्यानं तथैवाज्धिरसं स्मृतम्‌ । 

द्रौपद्या: कीर्तितश्चात्र संवाद: सत्यभामया ।। १९४ ।। 

पतिव्रताका और आंगिरसका उपाख्यान भी इसी प्रसंगमें है। द्रौपदीका सत्यभामाके 
साथ संवाद भी इसीमें है ।। १९४ ।। 

पुनर्द्धतवनं चैव पाण्डवा: समुपागता: । 

घोषयात्रा च गन्धर्वर्यत्र बद्ध: सुयोधन: ।। १९५ ।। 

तदनन्तर धर्मात्मा पाण्डव पुन: द्वैतवनमें आये। कौरवोंने घोषयात्रा की और गन्धर्वोने 
दुर्योधनको बन्दी बना लिया | १९५ || 

ह्वियमाणस्तु मन्दात्मा मोक्षितो5सौ किरीटिना | 

धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनम्‌ ।। १९६ ।। 


वे मन्दमति दुर्योधनको कैद करके लिये जा रहे थे कि अर्जुनने युद्ध करके उसे छुड़ा 
लिया। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको स्वप्नमें हरिणके दर्शन हुए ।। १९६ ।। 

काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते । 

व्रीहिद्रोणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्‌ । १९७ ।। 

इसके पश्चात्‌ पाण्डवगण काम्यक नामक श्रेष्ठ वनमें फिरसे गये। इसी प्रसंगमें अत्यन्त 
विस्तारके साथ व्रीहिद्रौणिक उपाख्यान भी कहा गया है || १९७ ।। 

दुर्वाससो<प्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्‌ | 

जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात्‌ ।। १९८ ।। 

इसीमें दुर्वासाजीका उपाख्यान और जयद्रथके द्वारा आश्रमसे द्रौपदीके हरणकी कथा 
भी कही गयी है || १९८ ।। 

यत्रैनमन्वयाद्‌ भीमो वायुवेगसमो जवे । 

चक्रे चैनं पजचशिखं यत्र भीमो महाबल: ।। १९९ || 

उस समय महाबली भयंकर भीमसेनने वायुवेगसे दौड़कर उसका पीछा किया था तथा 
जयद्रथके सिरके सारे बाल मूँड़कर उसमें पाँच चोटियाँ रख दी थीं ।। १९९ ।। 

रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्‌ । 

यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि ।। २०० ।। 

वनपर्वमें बड़े ही विस्तारके साथ रामायणका उपाख्यान है, जिसमें भगवान्‌ 
श्रीरामचन्द्रजीने युद्धभूमिमें अपने पराक्रमसे रावणका वध किया है || २०० ।। 

सावितन्र्याश्नाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्‌ । 

कर्णस्य परिमोक्षो5त्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्‌ ।। २०१ ।। 

इसके बाद ही सावित्रीका उपाख्यान और इन्द्रके द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वंचित कर 
देनेकी कथा है || २०१ |। 

यत्रास्य शरक्ति तुष्टोठससावदादेकवधाय च । 

आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोडन्वशात्‌ सुतम्‌ ।। २०२ ।। 

इसी प्रसंगमें इन्द्रने प्रसन्न होकर कर्णको एक शक्ति दी थी, जिससे कोई भी एक वीर 
मारा जा सकता था। इसके बाद है आरणेय उपाख्यान, जिसमें धर्मराजने अपने पुत्र 
युधिष्ठिरको शिक्षा दी है । २०२ ।। 

जम्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवा: पश्चिमां दिशम्‌ 

एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम्‌ ।। २०३ ।। 

अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिति । 

एकोनसप्ततिश्नैव तथाध्याया: प्रकीर्तिता: ।। २०४ ।। 

और उनसे वरदान प्राप्तकर पाण्डवोंने पश्चिम दिशाकी यात्रा की। यह तीसरे वनपर्वकी 
सूची कही गयी। इस पर्वमें गिनकर दो सौ उनहत्तर (२६९) अध्याय कहे गये 


हैं | २०३-२०४ ।। 

एकादशसहस्राणि शलोकानां षट्‌ शतानि च | 

चतुःषष्टिस्तथाश्लोका: पर्वण्यस्मिन्‌ प्रकीर्तिता: ।। २०५ ।। 

ग्यारह हजार छ: सौ चौंसठ (११,६६४) श्लोक इस पर्वमें हैं ।। २०५ || 

अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम्‌ । 

विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम्‌ ।। २०६ ।। 

दृष्टवा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा हयायुधान्युत । 

यत्र प्रविश्य नगरं छटझ्मना न्यवसंस्तु ते | २०७ ।। 

इसके बाद विराटपर्वकी विस्तृत सूची सुनो। पाण्डवोंने विराटनगरमें जाकर श्मशानके 
पास एक विशाल शमीका वृक्ष देखा। उसीपर उन्होंने अपने सारे अस्त्र-शस्त्र रख दिये। 
तदनन्तर उन्होंने नगरमें प्रवेश किया और छठ्मावेशमें वहाँ निवास करने 
लगे || २०६-२०७ ।। 

पाजउ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतस: । 

दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात्‌ || २०८ ।। 

कीचक स्वभावसे ही दुष्ट था। द्रौपदीको देखते ही उसका मन कामबाणसे घायल हो 
गया। वह द्रौपदीके पीछे पड़ गया। इसी अपराधसे भीमसेनने उसे मार डाला। यह कथा 
इसी पर्वमें है । २०८ ।। 

पाण्डवान्वेषणार्थ च राज्ञो दुर्योधनस्यथ च । 

चारा: प्रस्थापिताश्चात्र निपुणा: सर्वतोदिशम्‌ | २०९ ।। 

राजा दुर्योधनने पाण्डवोंका पता चलानेके लिये बहुत-से निपुण गुप्तचर सब ओर 
भेजे || २०९ |। 

नच प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम्‌ | 

गोग्रहश्न विराटस्य त्रिगर्ते: प्रथमं कृत: ।। २१० ।। 

परंतु उन्हें महात्मा पाण्डवोंकी गतिविधिका कोई हालचाल न मिला। इन्हीं दिनों 
त्रिगर्तोने राजा विराटकी गौओंका प्रथम बार अपहरण कर लिया ।। २१० ।। 

यत्रास्य युद्ध सुमहत्‌ तैरासीललोमहर्षणम्‌ । 

ह्वियमाणश्ष्‌ यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षित: ।। २११ ।। 

राजा विराटने त्रिगर्तोंके साथ रोंगटे खड़े कर देनेवाला घमासान युद्ध किया। त्रिगर्त 
विराटको पकड़कर लिये जा रहे थे; किंतु भीमसेनने उन्हें छुड़ा लिया || २११ ।। 

गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवै: । 

अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम्‌ ।। २१२ ।। 

साथ ही पाण्डवोंने उनके गोधनको भी त्रिगर्तोंसे छुड़ा लिया। इसके बाद ही कौरवोंने 
विराटनगरपर चढ़ाई करके उनकी (उत्तर दिशाकी) गायोंको लूटना प्रारम्भ कर 


दिया ।। २१२ ।। 

समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिता: कुरवो युधि । 

प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना ।। २१३ ।। 

इसी अवसरपर किरीटधारी अर्जुनने अपना पराक्रम प्रकट करके संग्रामभूमिमें सम्पूर्ण 
कौरवोंको पराजित कर दिया और विराटके गोधनको लौटा लिया ।। २१३ ।। 

विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिन: । 

अभिमन्युं समुद्दिश्य सौभद्रमरिघातिनम्‌ ।। २१४ ।। 

(पाण्डवोंके पहचाने जानेपर) राजा विराटने अपनी पुत्री उत्तरा शत्रुघाती सुभद्रानन्दन 
अभिमन्युसे विवाह करनेके लिये पुत्रवधूके रूपमें अर्जुनको दे दी || २१४ ।। 

चतुर्थमेतद्‌ विपुलं वैराट्ट पर्व वर्णितम्‌ । 

अत्रापि परिसंख्याता अध्याया: परमर्षिणा || २१५ ।। 

सप्तषष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु । 

श्लोकानां द्वे सहस्ने तु *लोका: पठ्चाशदेव तु ।। २१६ ।। 

उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन्‌ महर्षिणा । 

उद्योगपर्व विज्ञेयं पजचमं शृण्वत: परम्‌ ।। २१७ ।। 

इस प्रकार इस चौथे विराटपर्वकी सूचीका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया। परमर्षि 
व्यासजी महाराजने इस पर्वमें गिनकर सड़सठ (६७) अध्याय रखे हैं। अब तुम मुझसे 
श्लोकोंकी संख्या सुनो। इस पर्वमें दो हजार पचास (२,०५०) श्लोक वेदवेत्ता महर्षि 
वेदव्यासने कहे हैं। इसके बाद पाँचवाँ उद्योगपर्व समझना चाहिये। अब तुम उसकी विषय- 
सूची सुनो | २१५--२१७ ।। 

उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया । 

दुर्योधनो<र्जुनश्वैव वासुदेवमुपस्थितो ।। २१८ ।। 

जब पाण्डव उपप्लव्यनगरमें रहने लगे, तब दुर्योधन और अर्जुन विजयकी आकांक्षासे 
भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास उपस्थित हुए ।। २१८ ।। 

साहाय्यमस्मिन्‌ समरे भवान्‌ नौ कर्तुमर्हति | 

इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामति: ।। २१९ |। 

दोनोंने ही भगवान्‌ श्रीकृष्णसे प्रार्थना की कि “आप इस युद्धमें हमारी सहायता 
कीजिये।” इसपर महामना श्रीकृष्णने कहा-- ।। २१९ ।। 

अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ । 

अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य कि वा ददाम्यहम्‌ ।। २२० ।। 

“दुर्योधन और अर्जुन! तुम दोनों ही श्रेष्ठ पुरुष हो। मैं स्वयं युद्ध न करके एकका मन्त्री 
बन जाऊँगा और दूसरेको एक अक्षौहिणी सेना दे दूँगा। अब तुम्हीं दोनों निश्चय करो कि 
किसे क्या दूँ?" || २२० ।। 


वच्रे दुर्योधन: सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मति: । 

अयुध्यमानं सचिवं वत्रे कृष्णं धनज्जय: ।। २२१ ।। 

अपने स्वार्थके सम्बन्धमें अनजान एवं खोटी बुद्धिवाले दुर्योधनने एक अक्षौहिणी सेना 
माँग ली और अर्जुनने यह माँग की कि “श्रीकृष्ण युद्ध भले ही न करें, परंतु मेरे मन्त्री बन 
जायूँ' || २२१ ।। 

मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान्‌ प्रति । 

उपहारैर्वज्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधन: ।। २२२ ।। 

वरदं त॑ वरं वत्रे साहाय्यं॑ क्रियतां मम । 

शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान्‌ ।। २२३ ।। 

शान्तिपूर्व चाकथयद्‌ यत्रेन्द्रविजयं नृप: । 

पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवै: कौरवान्‌ प्रति || २२४ ।। 

मद्रदेशके अधिपति राजा शल्य पाण्डवोंकी ओरसे युद्ध करने आ रहे थे, परंतु 
दुर्योधनने मार्गमें ही उपहारोंसे धोखेमें डालकर उन्हें प्रसन्न कर लिया और उन वरदायक 
नरेशसे यह वर माँगा कि “मेरी सहायता कीजिये।” शल्यने दुर्योधनसे सहायताकी प्रतिज्ञा 
कर ली। इसके बाद वे पाण्डवोंके पास गये और बड़ी शान्तिके साथ सब कुछ समझा- 
बुझाकर सब बात कह दी। राजाने इसी प्रसंगमें इन्द्रकी विजयकी कथा भी सुनायी। 
पाण्डवोंने अपने पुरोहितको कौरवोंके पास भेजा | २२२--२२४ ।। 

वैचित्रवीर्यस्थ वच: समादाय पुरोधस: । 

तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधस: || २२५ ।। 

संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान्‌ प्रति । 

यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्र: प्रतापवान्‌ ।। २२६ ।। 

धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पुरोहितके इन्द्रविजयविषयक वचनको सादर श्रवण करते हुए 
उनके आगमनके औवचित्यको स्वीकार किया। तत्पश्चात्‌ परम प्रतापी महाराज धृतराष्ट्रने भी 
शान्तिकी इच्छासे दूतके रूपमें संजयको पाण्डवोंके पास भेजा || २२५-२२६ ।। 

श्रुत्वा च पाण्डवान्‌ यत्र वासुदेवपुरोगमान्‌ | 

प्रजागर: सम्प्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया | २२७ ।। 

विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च । 

श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्र मनीषिणम्‌ ।। २२८ ।। 

जब धुृतराष्ट्रने सुना कि पाण्डवोंने श्रीकृष्णको अपना नेता चुन लिया है और वे उन्हें 
आगे करके युद्धके लिये प्रस्थान कर रहे हैं, तब चिन्ताके कारण उनकी नींद भाग गयी--वे 
रातभर जागते रह गये। उस समय महात्मा विदुरने मनीषी राजा धृतराष्ट्रको विविध प्रकारसे 
अत्यन्त आश्चर्यजनक नीतिका उपदेश किया है (वही विदुरनीतिके नामसे प्रसिद्ध 
है) || २२७-२२८ ।। 


तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम्‌ | 

मनस्तापान्वितो राजा श्रावित: शोकलालस: ।। २२९ || 

उसी समय महर्षि सनत्सुजातने खिन्नचित्त एवं शोकविह्नल राजा धुृतराष्ट्रको सर्वोत्तम 
अध्यात्मशास्त्रका श्रवण कराया || २२९ || 

प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभो: । 

ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च ॥। २३० ।। 

प्रातःकाल राजसभामें संजयने राजा धृतराष्ट्रसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके ऐकात्म्य अथवा 
मित्रताका भलीभाँति वर्णन किया || २३० ।। 

यत्र कृष्णो दयापन्न: संधिमिच्छन्‌ महामति: । 

स्वयमागाच्छमं कर्तु नगरं नागसाह्नयम्‌ ।। २३१ ।। 

इसी प्रसंगमें यह कथा भी है कि परम दयालु सर्वज्ञ भगवान्‌ श्रीकृष्ण दया-भावसे युक्त 
हो शान्ति-स्थापनके लिये सन्धि करानेके उद्देश्यसे स्वयं हस्तिनापुर नामक नगरमें 
पधारे ।। २३१ ।। 

प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै । 

शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोहितम्‌ ।। २३२ |। 

यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्ण दोनों ही पक्षोंका हित चाहते थे और शान्तिके लिये प्रार्थना 
कर रहे थे, परंतु राजा दुर्योधनने उनका विरोध कर दिया ।। २३२ || 

दम्भोद्धवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्‌ । 

वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्ष महात्मन: ।। २३३ ।। 

इसी पर्वमें दम्भोद्भधवकी कथा कही गयी है और साथ ही महात्मा मातलिका अपनी 
कन्याके लिये वर ढूँढ़नेका प्रसंग भी है || २३३ ।। 

महर्षेश्नापि चरितं कथितं गालवस्य वै । 

विदुलायाश्न पुत्रस्य प्रोक्ते चाप्पनुशासनम्‌ ।। २३४ ।। 

इसके बाद महर्षि गालवके चरित्रका वर्णन है। साथ ही विदुलाने अपने पुत्रको जो 
शिक्षा दी है, वह भी कही गयी है || २३४ ।। 

कर्णदुर्योधनादीनां दुष्ट विज्ञाय मन्त्रितम्‌ । 

योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम्‌ । २३५ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कर्ण और दुर्योधन आदिकी दूषित मन्त्रणाको जानकर राजाओंकी 
भरी सभामें अपने योगैश्वर्यका प्रदर्शन किया || २३५ ।। 

रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोडनुमन्त्रित: । 

उपायपूर्व शौटीर्यात्‌ प्रत्याख्यातश्व॒ तेन सः || २३६ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कर्णको अपने रथपर बैठाकर उसे (पाण्डवोंके पक्षमें आनेके लिये) 
अनेक युक्तियोंसे बहुत समझाया-बुझाया, परंतु कर्णने अहंकारवश उनकी बात अस्वीकार 


कर दी ।। २३६ |। 

आगम्य हा[स्तिनपुरादुपप्लव्यमरिन्दम: । 

पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान्‌ हरि: ।। २३७ ।। 

शत्रुसूदन श्रीकृष्णने हस्तिनापुरसे उपप्लव्यनगर आकर जैसा कुछ वहाँ हुआ था, सब 
पाण्डवोंको कह सुनाया || २३७ ।। 

ते तस्य वचन श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम्‌ | 

सांग्रामिकं ततः सर्व सज्जं चक्र: परंतपा: ।। २३८ ।। 

शत्रुधाती पाण्डव उनके वचन सुनकर और क्या करनेमें हमारा हित है--यह परामर्श 
करके युद्ध-सम्बन्धी सब सामग्री जुटानेमें लग गये || २३८ ।। 

ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिन: । 

नगराद्धास्तिनपुराद्‌ बलसंख्यानमेव च ।। २३९ ।। 

इसके पश्चात्‌ हस्तिनापुर नामक नगरसे युद्धके लिये मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियोंकी 
चतुरंगिणी सेनाने कूच किया। इसी प्रसंगमें सेनाकी गिनती की गयी है ।। २३९ ।। 

यत्र राज्ञा ह्मुलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान्‌ प्रति । 

श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान्‌ प्रभु: ॥। २४० ।। 

फिर यह कहा गया है कि शक्तिशाली राजा दुर्योधनने दूसरे दिन प्रात:कालसे होनेवाले 
महायुद्धके सम्बन्धमें उलूकको दूत बनाकर पाण्डवोंके पास भेजा || २४० ।। 

रथातिरथसंख्यानमम्बोपाख्यानमेव च । 

एतत्‌ सुबहुवृत्तान्तं पजचमं पर्व भारते || २४१ ।। 

इसके अनन्तर इस पर्वमें रथी, अतिरथी आदिके स्वरूपका वर्णन तथा अम्बाका 
उपाख्यान आता है। इस प्रकार महाभारतमें उद्योगपर्व पाँचवाँ पर्व है और इसमें बहुत-से 
सुन्दर-सुन्दर वृत्तान्त हैं || २४१ ।। 

उद्योगपर्व निर्दिष्ट संधिविग्रहमिश्रितम्‌ 

अध्यायानां शतं प्रोक्त षडशीतिर्महर्षिणा || २४२ ।। 

श्लोकानां पट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च । 

श्लोकाश्ष नवति: प्रोक्तास्तथैवाष्टी महात्मना ।। २४३ ।। 

व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधना: । 

इस उद्योगपर्ममें श्रीकृष्णके द्वारा सन्धि-संदेश और उलूकके विग्रह-संदेशका महत्त्वपूर्ण 
वर्णन हुआ है। तपोधन महर्षियो! विशालबुद्धि महर्षि व्यासने इस पर्वमें एक सौ छियासी 
(१८६) अध्याय रखे हैं और शलोकोंकी संख्या छ: हजार छ: सौ अट्ठानबे (६,६९८) बतायी 
है ।। २४२-२४३ ३ ।। 

अतः पर विचित्रार्थ भीष्मपर्व प्रचक्षते | २४४ ।। 

जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्ते संजयेन ह | 


यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्‌ परम्‌ ।। २४५ ।। 

यत्र युद्धमभूद्‌ घोरं दशाहानि सुदारुणम्‌ । 

कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामति: ।। २४६ ।। 

मोहजं नाशयामास हेतुभिमोंक्षदर्शिभि: । 

समीक्ष्याधोक्षज: क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रत: ॥। २४७ ।। 

रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारथी: । 

प्रतोदपाणिराधावद्‌ भीष्म हन्तु व्यपेतभी: ।। २४८ ।। 

इसके बाद विचित्र अर्थोंसे भरे भीष्मपर्वकी विषय-सूची कही जाती है, जिसमें संजयने 
जम्बूद्वीपकी रचनासम्बन्धी कथा कही है। इस पर्वमें दस दिनोंतक अत्यन्त भयंकर घोर 
युद्ध होनेका वर्णन आता है, जिसमें धर्मराज युधिष्ठिरकी सेनाके अत्यन्त दुःखी होनेकी 
कथा है। इसी युद्धके प्रारम्भमें महातेजस्वी भगवान्‌ वासुदेवने मोक्षतत्त्वका ज्ञान 
करानेवाली युक्तियोंद्वारा अर्जुनके मोहजनित शोक-संतापका नाश किया था (जो कि 
भगवदगीताके नामसे प्रसिद्ध है)। इसी पर्वमें यह कथा भी है कि युधिष्ठिरके हितमें संलग्न 
रहनेवाले निर्भय, उदारबुद्धि, अधोक्षज, भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण अर्जुनकी शिथिलता 
देख शीघ्र ही हाथमें चाबुक लेकर भीष्मको मारनेके लिये स्वयं रथसे कूद पड़े और बड़े 
वेगसे दौड़े || २४४--२४८ ।। 

वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डव: । 

गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभूृतां वर: ॥। २४९ ।। 

साथ ही सब शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ गाण्डीवधन्वा अर्जुनको युद्धभूमिमें भगवान्‌ श्रीकृष्णने 
व्यंग्य-वाक्यके चाबुकसे मार्मिक चोट पहुँचायी || २४९ ।। 

शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनु: । 

विनिध्नन्‌ निशितैर्बाणै रथाद्‌ भीष्ममपातयत्‌ ।। २५० ।। 

तब महाथधनुर्धर अर्जुनने शिखण्डीको सामने करके तीखे बाणोंसे घायल करते हुए 
भीष्मपितामहको रथसे गिरा दिया || २५० || 

शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह । 

षष्ठमेतत्‌ समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम्‌ ।। २५१ ।। 

जबकि भीष्मपितामह शरशय्यापर शयन करने लगे। महाभारतमें यह छठा पर्व 
विस्तारपूर्वक कहा गया है ।। २५१ ।। 

अध्यायानां शतं प्रोक्त तथा सप्तदशापरे । 

पजञ्च श्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टी शतानि च ।। २५२ |। 

श्लोकाश्न चतुराशीतिरस्मिन्‌ पर्वणि कीर्तिता: । 

व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि ॥। २५३ ।। 


वेदके मर्मज्ञ विद्वान्‌ श्रीकृष्णद्वैधायन व्यासने इस भीष्मपर्वमें एक सौ सत्रह (११७) 
अध्याय रखे हैं। श्लोकोंकी संख्या पाँच हजार आठ सौ चौरासी (५,८८४) कही गयी 
है ।। २५२-२५३ ।। 

द्रोणपर्व ततश्रित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते । 

सैनापत्येडभिषिक्तो5थ यत्राचार्य: प्रतापवान्‌ ।। २५४ ।। 

तदनन्तर अनेक वृत्तान्तोंसे पूर्ण अद्भुत द्रोणपर्वकी कथा आरम्भ होती है, जिसमें 
परम प्रतापी आचार्य द्रोणके सेनापतिपदपर अभिषिक्त होनेका वर्णन है ।। २५४ ।। 

दुर्योधनस्य प्रीत्यर्थ प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्‌ । 

ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमत: ।। २५५ ।। 

वहीं यह भी कहा गया है कि अस्त्रविद्याके परमाचार्य द्रोणने दुर्योधनको प्रसन्न करनेके 
लिये बुद्धिमान्‌ धर्मराज युधिष्ठिरको पकड़नेकी प्रतिज्ञा कर ली || २५५ ।। 

यत्र संशप्तका: पार्थमपनिन्यू रणाजिरात्‌ | 

भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि ।। २५६ ।। 

सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्त: किरीटिना । 

इसी पर्वमें यह बताया गया है कि संशप्तक योद्धा अर्जुनको रणांगणसे दूर हटा ले गये। 
वहीं यह कथा भी आयी है कि ऐरावतवंशीय सुप्रतीक नामक हाथीके साथ महाराज 
भगदत्त भी, जो युद्धमें इन्द्रके समान थे, किरीटधारी अर्जुनके द्वारा मौतके घाट उतार दिये 
गये || २५६३ ।। 

यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेके महारथा: || २५७ ।। 

जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम्‌ | 

इसी पर्वमें यह भी कहा गया है कि शूरवीर बालक अभिमन्युको, जो अभी जवान भी 
नहीं हुआ था और अकेला था, जयद्रथ आदि बहुत-से विश्वविख्यात महारथियोंने मार 
डाला ।। २५७३ || 

हतेडभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे ॥। २५८ ।। 

अक्षौहिणी: सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथ: । 

अभिमन्युके वधसे कुपित होकर अर्जुनने रणभूमिमें सात अक्षौहिणी सेनाओंका संहार 
करके राजा जयद्रथको भी मार डाला || २५८ ३ ।। 

यत्र भीमो महाबाहु: सात्यकिश्व॒ महारथ: ।। २५९ ।। 

अन्वेषणार्थ पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया । 

प्रविष्टी भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि || २६० ।। 

उसी अवसरपर महाबाहु भीमसेन और महारथी सात्यकि धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञासे 
अर्जुनको ढूँढ़नेके लिये कौरवोंकी उस सेनामें घुस गये, जिसकी मोर्चेबन्दी बड़े-बड़े देवता 
भी नहीं तोड़ सकते थे || २५९-२६० ।|। 


संशप्तकावशेषं च कृतं नि:शेषमाहवे । 

संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम्‌ ।। २६१ ।। 

किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम्‌ | 

धृतराष्ट्रस्य पुत्राशक्ष तथा पाषाणयोधिन: ।। २६२ ।। 

नारायणाक्ष गोपाला: समरे चित्रयोधिन: । 

अलनम्बुष: श्रुतायुश्न जलसन्धश्न वीर्यवान्‌ ।। २६३ ।। 

सौमदत्तिविराटश्न द्रुपदश्चन महारथ: । 

घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि ।। २६४ ।। 

अर्जुनने संशप्तकोंमेंसे जो बच रहे थे, उन्हें भी युद्धभूमिमें निःशेष कर दिया। महामना 
संशप्तक वीरोंकी संख्या नौ करोड़ थी; परंतु किरीटधारी अर्जुनने आक्रमण करके अकेले 
ही उन सबको यमलोक भेज दिया। धुृतराष्ट्रपुत्र, बड़े-बड़े पाषाणखण्ड लेकर युद्ध 
करनेवाले म्लेच्छ-सैनिक, समरांगणमें युद्धके विचित्र कला-कौशलका परिचय देनेवाले 
नारायण नामक गोप, अल्म्बुष, श्रुतायु, पराक्रमी जलसन्ध, भूरिश्रवा, विराट, महारथी 
द्रपद तथा घटोत्कच आदि जो बड़े-बड़े वीर मारे गये हैं, वह प्रसंग भी इसी पर्वमें है ।। २६१ 
-२५६४ ।। 

अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते । 

अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षित: ।। २६५ ।। 

इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि युद्धमें जब पिता द्रोणाचार्य मार गिराये गये, तब 
अश्वत्थामाने भी शत्रुओंके प्रति अमर्षमें भरकर “नारायण” नामक भयानक अस्त्रको प्रकट 
किया था ।। २६५ || 

आगनेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम्‌ । 

व्यासस्य चाप्यागमन माहात्म्यं कृष्णपार्थयो: ।। २६६ ।। 

इसीमें आग्नेयास्त्र तथा भगवान्‌ रुद्रके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया गया है। 
व्यासजीके आगमन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके माहात्म्यकी कथा भी इसीमें है || २६६ ।। 

सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाह्नतम्‌ 

यत्र ते पृथिवीपाला: प्रायशो निधनं गता: ।। २६७ ।। 

द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टा: पुरुषर्षभा: । 

अत्राध्यायशतं प्रोक्ते तथाध्यायाश्व॒ सप्तति: ।। २६८ ।। 

अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च । 

श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। २६९ |। 

पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि । 


महाभारतमें यह सातवाँ महान्‌ पर्व बताया गया है। कौरव-पाण्डवयुद्धमें जो नरश्रेष्ठ 
नरेश शूरवीर बताये गये हैं, उनमेंसे अधिकांशके मारे जानेका प्रसंग इस द्रोणपर्वमें ही आया 
है। तत्त्वदर्शी पराशरनन्दन मुनिवर व्यासने भलीभाँति सोच-विचारकर द्रोणपर्वमें एक सौ 
सत्तर (१७०) अध्यायों और आठ हजार नौ सौ नौ (८,९०९) श्लोकोंकी रचना एवं गणना 
की है | २६७७--२६९ ३ ।। 

अतः: परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम्‌ ।। २७० ।। 

सारथ्ये विनियोगश्न मद्रराजस्य धीमतः । 

आख यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम्‌ ।। २७१ ।। 

इसके बाद अत्यन्त अदभुत कर्णपर्वका परिचय दिया गया है। इसीमें परम बुद्धिमान्‌ 
मद्रराज शल्यको कर्णके सारथि बनानेका प्रसंग है, फिर त्रिपुरके संहारकी पुराणप्रसिद्ध 
कथा आयी है | २७०-२७१ ।। 

प्रयागे परुषक्षात्र संवाद: कर्णशल्ययो: । 

हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम्‌ ।। २७२ ।। 

युद्धके लिये जाते समय कर्ण और शल्यमें जो कठोर संवाद हुआ है, उसका वर्णन भी 
इसी पर्वमें है। तदनन्तर हंस और कौएका आक्षेपपूर्ण उपाख्यान है ।। २७२ ।। 

वध: पाण्ड्यस्य च तथा अभश्वत्थाम्ना महात्मना । 

दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा ।। २७३ ।। 

उसके बाद महात्मा अअश्रृत्थामाके द्वारा राजा पाण्ड्यके वधकी कथा है। फिर दण्डसेन 
और दण्डके वधका प्रसंग है || २७३ ।। 

द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिर: । 

संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम्‌ ।। २७४ ।। 

इसी पर्वमें कर्णके साथ युधिष्ठिरके द्वैरथ (द्वन्द्ठ) युद्धका वर्णन है, जिसमें कर्णने सब 
धनुर्धर वीरोंके देखते-देखते धर्मराज युधिष्ठिरके प्राणोंको संकटमें डाल दिया था || २७४ ।। 

अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनो: । 

यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्थ हि ।। २७५ ।। 

तत्पश्चात्‌ युधिष्ठिर और अर्जुनके एक-दूसरेके प्रति क्रोधयुक्त उदगार हैं, जहाँ भगवान्‌ 
श्रीकृष्णने अर्जुनको समझा-बुझाकर शान्त किया है || २७५ |। 

प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्थ च । 

भित्त्वा वृकोदरो रक्त पीतवान्‌ यत्र संयुगे | २७६ ।। 

इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि भीमसेनने पहलेकी की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार 
दुःशासनका वक्ष:स्थल विदीर्ण करके रक्त पीया था ।। २७६ ।। 

देैरथे यत्र पार्थेन हत: कर्णो महारथ: । 

अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्‌ भारतचिन्तकैः ।। २७७ ।। 


तदनन्तर द्वब््युद्धमें अर्जुनने महारथी कर्णको जो मार गिराया, वह प्रसंग भी 
कर्णपर्वमें ही है। महाभारतका विचार करनेवाले विद्वानोंने इस कर्णपर्वको आठवाँ पर्व कहा 
है || २७७ |। 

एकोनसप्तति: प्रोक्ता अध्याया: कर्णपर्वणि । 

चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च ॥। २७८ ।। 

चतुःषष्टिस्तथा श्लोका: पर्वण्यस्मिन्‌ प्रकीर्तिता: । 

कर्णपर्वमें उनहत्तर (६९) अध्याय कहे गये हैं और चार हजार नौ सौ चौंसठ (४,९६४) 
श्लोकोंका पाठ इस पर्वमें किया गया है ।। २७८ $ ।। 

अतः परं विचित्रार्थ शल्यपर्व प्रकीर्तितम्‌ ।। २७९ ।। 

तत्पश्चात्‌ विचित्र अर्थयुक्त विषयोंसे भरा हुआ शल्यपर्व कहा गया है ।। २७९ ।। 

हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरो5 भवत्‌ । 

यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च | २८० ।। 

इसीमें यह कथा आयी है कि जब कौरवसेनाके सभी प्रमुख वीर मार दिये गये, तब 
मद्रराज शल्य सेनापति हुए। वहीं कुमार कार्तिकेयका उपाख्यान और अभिषेककर्म कहा 
गया है || २८० ।। 

वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागश: । 

विनाश: कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते | २८१ ।। 

शल्यस्य निधन चात्र धर्मराजान्महात्मन: । 

शकुनेश्व वधो<बत्रैव सहदेवेन संयुगे | २८२ ।। 

साथ ही वहाँ रथियोंके युद्धका भी विभागपूर्वक वर्णन किया गया है। शल्यपर्वमें ही 
कुरुकुलके प्रमुख वीरोंके विनाशका तथा महात्मा धर्मराजद्वारा शल्यके वधका वर्णन किया 
गया है। इसीमें सहदेवके द्वारा युद्धमें शकुनिके मारे जानेका प्रसंग है । २८१-२८२ ।। 

सैन्ये च हतभूयिष्टे किंचिच्छिष्टे सुयोधन: । 

हृद॑ प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थित: ।। २८३ |। 

जब अधिक-से-अधिक कौरवसेना नष्ट हो गयी और थोड़ी-सी बच रही, तब दुर्योधन 
सरोवरमें प्रवेश करके पानीको स्तम्भित कर वहीं विश्रामके लिये बैठ गया || २८३ ।। 

प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकै: । 

क्षेपयुक्तैर्वचोभि श्ष॒ धर्मराजस्य धीमत: ।। २८४ ।। 

हृदात्‌ समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोडत्यमर्षण: । 

भीमेन गदया युद्ध यत्रासी कृतवान्‌ सह | २८५ ।। 

किंतु व्याधोंने भीमसेनसे दुर्योधनकी यह चेष्टा बतला दी। तब बुद्धिमान्‌ धर्मराजके 
आक्षेपयुक्त वचनोंसे अत्यन्त अमर्षमें भरकर धुृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन सरोवरसे बाहर निकला 
और उसने भीमसेनके साथ गदायुद्ध किया। ये सब प्रसंग शल्यपर्वमें ही हैं | २८४-२८५ ।। 


समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम्‌ । 

सरस्वत्याश्व तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता ।। २८६ ।। 

गदायुद्ध॑ं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम्‌ । 

उसीमें युद्धूके समय बलरामजीके आगमनकी बात कही गयी है। इसी प्रसंगमें 
सरस्वतीतटवर्ती तीर्थोंके पावन माहात्म्यका परिचय दिया गया है। शल्यपर्वमें ही भयंकर 
गदायुद्धका वर्णन किया गया है || २८६३ ।। 

दुर्योधनस्य राज्ञोडथ यत्र भीमेन संयुगे ।। २८७ ।। 

ऊरू भरनी प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया । 

नवमं पर्व निर्दिप्टमेतदद्भुतमर्थवत्‌ ।। २८८ ।। 

जिसमें युद्ध करते समय भीमसेनने हठपूर्वक (युद्धके नियमको भंग करके) अपनी 
भयानक वेग-शालिनी गदासे राजा दुर्योधनकी दोनों जाँघें तोड़ डालीं, यह अद्भुत अर्थसे 
युक्त नवाँ पर्व बताया गया है || २८७-२८८ ।। 

एकोनषष्टिरध्याया: पर्वण्यत्र प्रकीर्तिता: । 

संख्याता बहुवृत्तान्ता: श्लोकसंख्यात्र कथ्यते | २८९ ।। 

इस पर्वमें उनसठ (५९) अध्याय कहे गये हैं, जिसमें बहुत-से वृत्तान्तोंका वर्णन आया 
है। अब इसकी श्लोक-संख्या कही जाती है || २८९ ।। 

त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा । 

मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभूता ।। २९० ।। 

कौरव-पाण्डवोंके यशका पोषण करनेवाले मुनिवर व्यासने इस पर्वमें तीन हजार दो 
सौ बीस (३,२२०) श्लोकोंकी रचना की है | २९० ।। 

अतः: पर प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम्‌ । 

भग्नोरुँ यत्र राजान॑ दुर्योधनममर्षणम्‌ ।। २९१ ।। 

अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्ते5 भ्याययू रथा: । 

कृतवर्मा कृपो द्रौणि: सायाद्ले रुधिरोक्षितम्‌ ।। २९२ ।। 

इसके पश्चात्‌ मैं अत्यन्त दारुण सौप्तिकपर्वकी सूची बता रहा हूँ, जिसमें पाण्डवोंके 
चले जानेपर अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए टूटी जाँघवाले राजा दुर्योधनके पास, जो खूनसे 
लथपथ हुआ पड़ा था, सायंकालके समय कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा--ये तीन 
महारथी आये ।। २९१-२९२ ।। 

समेत्य ददृशुर्भूमी पतितं रणमूर्थनि । 

प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्त्र महारथ: ।। २९३ ।। 

अहत्वा सर्वपज्चालान्‌ धृष्टद्युम्नपुरोगमान्‌ । 

पाण्डवांश्व सहामात्यान्‌ न विमोक्ष्यामि दंशनम्‌ ।। २९४ ।। 


निकट आकर उन्होंने देखा, राजा दुर्योधन युद्धके मुहानेपर इस दुर्दशामें पड़ा था। यह 
देखकर महारथी अभश्व॒त्थामाको बड़ा क्रोध हुआ और उसने प्रतिज्ञा की कि “मैं धृष्टद्युम्न 
आदि सम्पूर्ण पांचालों और मन्त्रियोंसहित समस्त पाण्डवोंका वध किये बिना अपना कवच 
नहीं उतारूँगा” || २९३-२९४ ।। 

यत्रैवमुक्त्वा राजानमफक्रम्य त्रयो रथा: । 

सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद्‌ बनम्‌ ।। २९५ ।। 

सौप्तिकपर्वमें राजा दुर्योधनसे ऐसी बात कहकर वे तीनों महारथी वहाँसे चले गये और 
सूर्यास्त होते-होते एक बहुत बड़े वनमें जा पहुँचे || २९५ ।। 

न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद्‌ व्यवस्थिता: । 

ततः काकान्‌ बहून्‌ रात्रौ दृष्टवोलूकेन हिंसितान्‌ ।। २९६ ।। 

द्रौणि: क्रोधसमाविष्ट: पितुर्वधमनुस्मरन्‌ । 

पज्चालानां प्रसुप्तानां वध प्रति मनो दधे || २९७ ।। 

वहाँ तीनों एक बहुत बड़े बरगदके नीचे विश्रामके लिये बैठे। तदनन्तर वहाँ एक उल्लूने 
आकर रातमें बहुत-से कौओंको मार डाला। यह देखकर क्रोधमें भरे अश्वत्थामाने अपने 
पिताके अन्यायपूर्वक मारे जानेकी घटनाको स्मरण करके सोते समय ही पांचालोंके वधका 
निश्चय कर लिया | २९६-२९७ || 

गत्वा च शिविरद्धारि दुर्दुशं तत्र राक्षसम्‌ 

घोररूपमपश्यत्‌ स दिवमावृत्य धिष्ठितम्‌ | २९८ ।। 

तत्पश्चात्‌ पाण्डवोंके शिविरके द्वारपर पहुँचकर उसने देखा, एक बड़ा भयंकर राक्षस, 
जिसकी ओर देखना अत्यन्त कठिन है, वहाँ खड़ा है। उसने पृथ्वीसे लेकर आकाशतकके 
प्रदेशको घेर रखा था ।। २९८ ।। 

तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च । 

द्रौणिर्यत्र विरूपाक्ष॑ रुद्रमाराध्य सत्वर: ।। २९९ ।। 

अश्वत्थामा जितने भी अस्त्र चलाता, उन सबको वह राक्षस नष्ट कर देता था। यह 
देखकर द्रोणकुमारने तुरंत ही भयंकर नेत्रोंवाले भगवान्‌ रुद्रकी आराधना करके उन्हें प्रसन्न 
किया ।। २९९ ।। 

प्रसुप्तान्‌ निशि विश्वस्तान्‌ धृष्टद्युम्नपुरोगमान्‌ । 

पञ्चालान्‌ सपरीवारान्‌ द्रौपदेयांश्व॒ सर्वश: ।। ३०० ।। 

कृतवर्मणा च सहित: कृपेण च निजध्निवान्‌ । 

यत्रामुच्यन्त ते पार्था: पजच कृष्णबलाश्रयात्‌ ।। ३०१ ।। 

सात्यकिश्न महेष्वास: शेषाश्ष निधनं गता: । 

पज्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्‌ वध: ।। ३०२ ।। 

धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदित:ः । 


द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता ।। ३०३ |। 

तत्पश्चात्‌ अश्वत्थामाने रातमें निःशंक सोये हुए धृष्टद्युम्म आदि पांचालों तथा 
द्रौपदीपुत्रोंकी कृतवर्मा और कृपाचार्यकी सहायतासे परिजनोंसहित मार डाला। भगवान्‌ 
श्रीकृष्णकी शक्तिका आश्रय लेनेसे केवल पाँच पाण्डव और महान धनुर्धर सात्यकि बच 
गये, शेष सभी वीर मारे गये। यह सब प्रसंग सौप्तिकपर्वमें वर्णित है। वहीं यह भी कहा 
गया है कि धृष्टद्युम्नके सारथिने जब पाण्डवोंको यह सूचित किया कि द्रोणपुत्रने सोये हुए 
पांचालोंका वध कर डाला है, तब द्रौपदी पुत्रशोकसे पीड़ित तथा पिता और भाईकी हत्यासे 
व्यथित हो उठी || ३००--३०३ ।। 

कृतानशनसंकल्पा यत्र ६ 0 शत्‌ | 

द्रौोपदीवचनाद्‌ यत्र भीमो : ॥| ३०४ | 

प्रियं तस्याश्रिकीर्षन्‌ वै गदामादाय वीर्यवान्‌ | 

अन्वधावत्‌ सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरो: सुतम्‌ । ३०५ ।। 

वह पतियोंको अभश्वत्थामासे इसका बदला लेनेके लिये उत्तेजित करती हुई आमरण 
अनशनका संकल्प ले अन्न-जल छोड़कर बैठ गयी। द्रौपदीके कहनेसे भयंकर पराक्रमी 
महाबली भीमसेन उसका प्रिय करनेकी इच्छासे हाथमें गदा ले अत्यन्त क्रोधमें भरकर 
गुरुपुत्र अश्वत्थामाके पीछे दौड़े || ३०४-३०५ ।। 

भीमसेनभयाद्‌ यत्र दैवेनाभिप्रचोदित: । 

अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत्‌ ।। ३०६ ।। 

तब भीमसेनके भयसे घबराकर दैवकी प्रेरणासे पाण्डवोंके विनाशके लिये 
अश्न॒त्थामाने रोषपूर्वक दिव्यास्त्रका प्रयोग किया || ३०६ ।। 

मैवमित्यब्रवीत्‌ कृष्ण: शमयंस्तस्य तद्‌ वच: । 

यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुन: ।। ३०७ ।। 

किंतु भगवान्‌ श्रीकृष्णने अश्वत्थामाके रोषपूर्ण वचनको शान्त करते हुए कहा 
--'मैवम्‌/--'पाण्डवोंका विनाश न हो।” साथ ही अर्जुनने अपने दिव्यास्त्रद्वारा उसके 
अस्त्रको शान्त कर दिया || ३०७ || 

द्रौणेश्व द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा । 

द्रौणिद्वेपायनादीनां शापाक्षान्योन्यकारिता: ।। ३०८ || 

उस समय पापात्मा द्रोणपुत्रके द्रोहपूर्ण विचारको देखकर द्वैपायन व्यास एवं 
श्रीकृष्णने अश्वत्थामाको और अअश्वत्थामाने उन्हें शाप दिया। इस प्रकार दोनों ओरसे एक- 
दूसरेको शाप प्रदान किया गया || ३०८ ।। 

मर्णिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात्‌ । 

पाण्डवा: प्रददुर्ह्वष्ट द्रौपद्यै जितकाशिन: ।| ३०९ ।। 


महारथी अभश्वत्थामासे मणि छीनकर विजयसे सुशोभित होनेवाले पाण्डवोंने 
प्रसन्नतापूर्वक द्रौपदीको दे दी | ३०९ ।। 

एतदू वै दशामं पर्व सौप्तिकं समुदाह्तम्‌ । 

अष्टादशास्मिन्नध्याया: पर्वण्युक्ता महात्मना ।। ३१० ।। 

इन सब तवृत्तान्तोंसे युक्त सौप्तिकपर्व दसवाँ कहा गया है। महात्मा व्यासने इसमें 
अठारह (१८) अध्याय कहे हैं || ३१० ।। 

श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया । 

श्लोकाश्न सप्तति:ः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्म॒वादिना ।। ३११ ।। 

इसी प्रकार उन ब्रह्मवादी मुनिने इस पर्वमें श्लोकोंकी संख्या आठ सौ सत्तर (८७०) 
बतायी है ।। ३११ ।। 

सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा । 

अत ऊर्ध्व॑मिदं प्राहु: स्त्रीपर्व करूणोदयम्‌ ॥। ३१२ ।। 

उत्तम तेजस्वी व्यासजीने इस पर्वमें सौप्तिक और ऐषीक दोनोंकी कथाएँ सम्बद्ध कर 
दी हैं। इसके बाद दिद्वानोंने स्त्रीपर्व कहा है, जो करुणरसकी धारा बहानेवाला 
है || ३१२ ।। 

पुत्रशोकाभिसंतप्त: प्रज्ञाचक्षुर्नराधिप: । 

कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढाम्‌ू || ३१३ ।। 

भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धतराष्ट्री बभज्ज ह । 

तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमत: ।। ३१४ ।। 

संसारगहनं बुद्धया हेतुभिमोंक्षदर्शनै: । 

विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासन कृतम्‌ ।। ३१५ ।। 

प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्रने पुत्रशोकसे संतप्त हो भीमसेनके प्रति द्रोहबुद्धि कर ली और 
श्रीकृष्णद्वारा अपने समीप लायी हुई लोहेकी मजबूत प्रतिमाको भीमसेन समझकर 
भुजाओंमें भर लिया तथा उसे दबाकर टूक-टूक कर डाला। उस समय पुत्रशोकसे पीड़ित 
बुद्धिमान्‌ राजा धृतराष्ट्रको विदुरजीने मोक्षका साक्षात्कार करानेवाली युक्तियों तथा 
विवेकपूर्ण बुद्धिके द्वारा संसारकी दुःखरूपताका प्रतिपादन करते हुए भलीभाँति समझा- 
बुझाकर शान्त किया ।। ३१३--३१५ |। 

धृतराष्ट्रस्य चात्रव कौरवायोधनं तथा । 

सानन्‍्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम्‌ ।। ३१६ ।। 

इसी पर्वमें शोकाकुल धृतराष्ट्रका अन्तःपुरकी स्त्रियोंक साथ कौरवोंके युद्धस्थानमें 
जानेका वर्णन है || ३१६ ।। 

विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुण: स्मृत: । 

क्रोधावेश: प्रमोहश्च॒ गान्धारीधृतराष्ट्रयो: ।। ३१७ ।। 


वहीं वीरपत्नियोंके अत्यन्त करुणापूर्ण विलापका कथन है। वहीं गान्धारी और 
धृतराष्ट्रके क्रोधावेश तथा मूर्च्छित होनेका उल्लेख है || ३१७ ।। 

यत्र तान्‌ क्षत्रिया: शूरान्‌ संग्रामेष्वनिवर्तिन: । 

पुत्रान्‌ भ्रातृन्‌ पितृश्चैव ददृशुर्निहतान्‌ रणे ।। ३१८ ।। 

उस समय जन क्षत्राणियोंने युद्धमें पीठ न दिखानेवाले अपने शूरवीर पुत्रों, भाइयों और 
पिताओंको रणभूमिमें मरा हुआ देखा ।। ३१८ ।। 

पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता । 

गान्धार्याश्वापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया ।। ३१९ ।। 

पुत्रों और पौत्रोंके वधसे पीड़ित गान्धारीके पास आकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनके 
क्रोधको शान्त किया। इस प्रसंगका भी इसी पर्वमें वर्णन किया गया है ।। ३१९ ।। 

यत्र राजा महाप्राज्ञ: सर्वधर्मभृतां वर: । 

राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रत: | ३२० ।। 

वहीं यह भी कहा गया है कि परम बुद्धिमान्‌ और सम्पूर्ण धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजा 
युधिष्ठिरने वहाँ मारे गये समस्त राजाओंके शरीरोंका शास्त्रविधिसे दाह-संस्कार किया और 
कराया || ३२० ।। 

तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके । 

गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथया55त्मन: ।। ३२१ ।। 

सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा | 

एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम्‌ ॥। ३२२ |। 

प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम्‌ । 

सप्तविंशतिरध्याया: पर्वण्यस्मिन्‌ प्रकीर्तिता: ।। ३२३ ।। 

श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता । 

संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता ।। ३२४ ।। 

तदनन्तर राजाओंको जलांजलिदानके प्रसंगमें उन सबके लिये तर्पणका आरम्भ होते 
ही कुन्तीद्वारा गुप्तरूपसे उत्पन्न हुए अपने पुत्र कर्णका गूढ़ वृत्तान्त प्रकट किया गया, यह 
प्रसंग आता है। महर्षि व्यासने ये सब बातें स्त्रीपर्वमें कही हैं। शोक और विकलताका संचार 
करनेवाला यह ग्यारहवाँ पर्व श्रेष्ठ पुरुषोंके चित्तको भी विह्नल करके उनके नेत्रोंसे आँसूकी 
धारा प्रवाहित करा देता है। इस पर्वमें सत्ताईस (२७) अध्याय कहे गये हैं। इसके श्लोकोंकी 
संख्या सात सौ पचहत्तर (७७५) कही गयी है। इस प्रकार परम बुद्धिमान्‌ व्यासजीने 
महाभारतका यह उपाख्यान कहा है ।| ३२१--३२४ ।। 

अतः: परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम्‌ । 

यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिर: || ३२५ ।। 

घातयित्वा पितृन्‌ भ्रातृन्‌ पुत्रान्‌ सम्बन्धिमातुलान्‌ । 


शान्तिपर्वणि धर्माक्ष व्याख्याता: शारतल्पिका: ।। ३२६ ।। 

स्त्रीपर्वके पश्चात्‌ बारहवाँ पर्व शान्तिपर्वके नामसे विख्यात है। यह बुद्धि और विवेकको 
बढ़ानेवाला है। इस पर्वमें यह कहा गया है कि अपने पितृतुल्य गुरुजनों, भाइयों, पुत्रों, सगे- 
सम्बन्धी एवं मामा आदिको मरवाकर राजा युधिष्लिरके मनमें बड़ा निर्वेद (दुःख एवं वैराग्य) 
हुआ। शान्तिपर्वमें बाणशय्यापर शयन करनेवाले भीष्मजीके द्वारा उपदेश किये हुए धर्मोका 
वर्णन है ।। ३२५-३२६ || 

राजभिवेंदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञानबुभुत्सुभि: | 

आपद्धर्माश्चे तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिन: ।। ३२७ ।। 

यान्‌ बुद्ध्वा पुरुष: सम्यक्‌ सर्वज्ञत्वमवाप्रुयात्‌ । 

मोक्षधर्माश्न कथिता विचित्रा बहुविस्तरा: | ३२८ ।। 

उत्तम ज्ञानकी इच्छा रखनेवाले राजाओंको उन्हें भलीभाँति जानना चाहिये। उसी पर्वमें 
काल और कारणकी अपेक्षा रखनेवाले देश और कालके अनुसार व्यवहारमें लानेयोग्य 
आपद्धर्मोका भी निरूपण किया गया है, जिन्हें अच्छी तरह जान लेनेपर मनुष्य सर्वज्ञ हो 
जाता है। शान्तिपर्वमें विविध एवं अद्भुत मोक्ष-धर्मोका भी बड़े विस्तारके साथ प्रतिपादन 
किया गया है | ३२७-३२८ ।। 

द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्‌ प्राज्ञजनप्रियम्‌ । 

अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम्‌ ।। ३२९ ।। 

त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधना: । 

चतुर्दश सहस्नाणि तथा सप्त शतानि च ॥। ३३० |। 

सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया । 

अत ऊर्ध्व॑ च विज्ञेगमनुशासनमुत्तमम्‌ ।। ३३१ ।। 

इस प्रकार यह बारहवाँ पर्व कहा गया है, जो ज्ञानीजनोंको अत्यन्त प्रिय है। इस पर्वमें 
तीन सौ उनन्‍्तालीस (३३९) अध्याय हैं और तपोधनो! इसकी श्लोक-संख्या चौदह हजार 
सात सौ बत्तीस (१४,७३२) है। इसके बाद उत्तम अनुशासनपर्व है, यह जानना 
चाहिये || ३२९--३३१ ।। 

यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम्‌ । 

भीष्माद्‌ भागीरथीपुत्रात्‌ कुरुराजो युधिष्िर: | ३३२ ।। 

जिसमें कुरुराज युधिष्छिर गंगानन्दन भीष्मजीसे धर्मका निश्चित सिद्धान्त सुनकर 
प्रकृतिस्थ हुए, यह बात कही गयी है ।। ३३२ ।। 

व्यवहारोजत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थी यः प्रकीर्तित: । 

विविधानां च दानानां फलयोगा: प्रकीर्तिता: ।। ३३३ ।। 

इसमें धर्म और अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाले हितकारी आचार-व्यवहारका निरूपण किया 
गया है। साथ ही नाना प्रकारके दानोंके फल भी कहे गये हैं | ३३३ ।। 


तथा पात्रविशेषाक्ष दानानां च परो विधि: । 

आचारविधियोगश्न सत्यस्य च परा गति: ।। ३३४ ।। 

महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च । 

रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम्‌ ।। ३३५ ।। 

एतत्‌ सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम्‌ | 

भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्ति: स्वर्गस्य परिकीर्तिता ।। ३३६ ।। 

दानके विशेष पात्र, दानकी उत्तम विधि, आचार और उसका विधान, सत्यभाषणकी 
पराकाष्ठा, गौओं और ब्राह्मणोंका माहात्म्य, धर्मोंका रहस्य तथा देश और काल (तीर्थ और 
पर्व)-की महिमा--ये सब अनेक वृत्तान्त जिसमें वर्णित हैं, वह उत्तम अनुशासन-पर्व है। 
इसीमें भीष्मको स्वर्गकी प्राप्ति कही गयी है ।। ३३४--३३६ ।। 

एतत्‌ त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम्‌ | 

अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु ।। ३३७ ।। 

धर्मका निर्णय करनेवाला यह पर्व तेरहवाँ है। इसमें एक सौ छियालीस (१४६) अध्याय 
हैं || ३३७ ।। 

श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया । 

ततो<श्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्त चतुर्दशम्‌ ॥। ३३८ ।। 

और पूरे आठ हजार (८,०००) श्लोक कहे गये हैं। तदनन्तर चौदहवें आश्वमेधिक 
नामक पर्वकी कथा है ॥। ३३८ ।। 

तत्‌ संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम्‌ । 

सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षित: ।। ३३९ ।। 

जिसमें परम उत्तम योगी संवर्त तथा राजा मरुत्तका उपाख्यान है। युधिष्ठिरको सुवर्णके 
खजानेकी प्राप्ति और परीक्षित्‌के जन्मका वर्णन है || ३३९ ।। 

दग्थस्यास्त्राग्निना पूर्व कृष्णात्‌ संजीवनं पुन: । 

चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छत: ।। ३४० ।। 

तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणै: । 

चित्राड़दाया: पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजय: | ३४१ ।। 

संग्रामे बश्रुवाहेण संशयं चात्र दर्शित: । 

अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च ।। ३४२ ।। 

इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम्‌ । 

अध्यायानां शतं चैव त्रयो< ध्यायाश्ष कीर्तिता: ।। ३४३ ।। 

त्रीणि श"्लोकसहस््राणि तावन्त्येव शतानि च । 

विंशतिश्न तथा श्लोका: संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। ३४४ ।। 


पहले अभश्व॒त्थामाके अस्त्रकी अग्निसे दग्ध हुए बालक परीक्षित्‌का पुनः श्रीकृष्णके 
अनुग्रहसे जीवित होना कहा गया है। सम्पूर्ण राष्ट्रों घूमनेके लिये छोड़े गये 
अश्वमेधसम्बन्धी अश्वके पीछे पाण्डुनन्दन अर्जुनके जाने और उन-उन देशोंमें कुपित 
राजकुमारोंके साथ उनके युद्ध करनेका वर्णन है। पुत्रिकाधर्मके अनुसार उत्पन्न हुए 
चित्रांगदाकुमार बश्रुवाहनने युद्धमें अर्जुनको प्राणसंकटकी स्थितिमें डाल दिया था; यह 
कथा भी अश्वमेधपर्वमें ही आयी है। वहीं अश्वमेध-महायज्ञमें नकुलोपाख्यान आया है। इस 
प्रकार यह परम अद्भुत आश्वमेधिकपर्व कहा गया है। इसमें एक सौ तीन अध्याय पढ़े गये 
हैं। तत्त्वदर्शी व्यासजीने इस पर्वमें तीन हजार तीन सौ बीस (३, ३२०) श्लोकोंकी रचना की 
है || ३४०--३४४ ।। 

ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्‌ । 

यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृप: ।। ३४५ ।। 

धृतराष्ट्रो55श्रमपदं विदुरश्चन॒ जगाम ह । 

य॑ दृष्टवा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययां तदा || ३४६ ।। 

पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता । 

तदनन्तर आश्रमवासिक नामक पंद्रहवें पर्वका वर्णन है। जिसमें गान्धारीसहित राजा 
धृतराष्ट्र और विदुरके राज्य छोड़कर वनके आश्रममें जानेका उल्लेख हुआ है। उस समय 
धृतराष्ट्रको प्रस्थान करते देख सती साध्वी कुन्ती भी गुरुजनोंकी सेवामें अनुरक्त हो अपने 
पुत्रका राज्य छोड़कर उन्हींके पीछे-पीछे चली गयीं ।। ३४५-३४६३  ।। 

यत्र राजा हतान्‌ पुत्रान्‌ पौत्रानन्यांश्व पार्थिवान्‌ । ३४७ ।। 

लोकान्तरगतान्‌ वीरानपश्यत्‌ पुनरागतान्‌ । 

ऋषे: प्रसादात्‌ कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम्‌ ।। ३४८ ।। 

त्यक्त्वा शोकं सदारक्ष सिद्धिं परमिकां गतः । 

यत्र धर्म समाश्रित्य विदुर: सुगतिं गत: ।। ३४९ ।। 

संजयश्न सहामात्यो विद्वान्‌ गावल्गणिर्वशी । 

ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिर: || ३५० ।। 

जहाँ राजा धुृतराष्ट्रने युद्धमें मरकर परलोकमें गये हुए अपने वीर पुत्रों, पौत्रों तथा 
अन्यान्य राजाओंको भी पुनः अपने पास आया हुआ देखा। महर्षि व्यासजीके प्रसादसे यह 
उत्तम आश्चर्य देखकर गान्धारीसहित धृतराष्ट्रने शोक त्याग दिया और उत्तम सिद्धि प्राप्त 
कर ली। इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि विदुरजीने धर्मका आश्रय लेकर उत्तम गति 
प्राप्त की। साथ ही मन्त्रियोंसहित जितेन्द्रिय विद्वान्‌ गवल्गणपुत्र संजयने भी उत्तम पद 
प्राप्त कर लिया। इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि धर्मराज युधिष्ठिरको नारदजीका 
दर्शन हुआ || ३४७--३५० ।। 

नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत्‌ | 


एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्त महदद्भुतम्‌ ।। ३५१ ।। 

नारदजीसे ही उन्होंने यदुवंशियोंके महान्‌ संहारका समाचार सुना। यह अत्यन्त 
अदभुत आश्रमवासिकपर्व कहा गया है || ३५१ ।। 

द्विचत्वारिंशदध्याया: पर्वतदभिसंख्यया । 

सहस्रमेकं॑ श्लोकानां पठच श्लोकशतानि च ।। ३५२ ।। 

षडेव च तथा श्लोका: संख्यातास्तत्त्वदर्शिना । 

अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम्‌ ।। ३५३ ।। 

इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या बयालीस (४२) है। तत्त्वदर्शी व्यासजीने इसमें एक हजार 
पाँच सौ छः: (१,५०६) “लोक रखे हैं। इसके बाद मौसलपर्वकी सूची सुनो--यह पर्व 
अत्यन्त दारुण है || ३५२-३५३ ।। 

यत्र ते पुरुषव्याप्रा: शस्त्रस्पर्शहता युधि | 

ब्रहद्मवण्डविनिष्पिष्टा: समीपे लवणाम्भस: || ३५४ ।। 

इसीमें यह बात आयी है कि वे श्रेष्ठ यदुवंशी वीर क्षारसमुद्रके तटपर आपसके युद्धमें 
अस्त्र-शस्त्रोंके स्पर्शमात्रसे मारे गये। ब्राह्मणोंके शापने उन्हें पहले ही पीस डाला 
था || ३५४ ।। 

आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिता: । 

एरकारूपिभिरर्ज्ै्निजघ्नुरितरेतरम्‌ ।। ३५५ ।। 

उन सबने मधुपानके स्थानमें जाकर खूब पीया और नशेसे होश-हवास खो बैठे। फिर 
दैवसे प्रेरित हो परस्पर संघर्ष करके उन्होंने एरकारूपी वज़्से एक-दूसरेको मार 
डाला || ३५५ || 

यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ । 

नातिचक्रामतु: काल प्राप्तं सर्वहरं महत्‌ ।। ३५६ ।। 

वहीं सबका संहार करके बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाइयोंने समर्थ होते हुए भी 
अपने ऊपर आये हुए सर्वसंहारकारी महान्‌ कालका उल्लंघन नहीं किया (महर्षियोंकी 
वाणी सत्य करनेके लिये कालका आदेश स्वेच्छासे अंगीकार कर लिया) ।। ३५६ ।। 

यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम्‌ । 

दृष्टवा विषादमगमत्‌  परां चार्ति नरर्षभ: ।। ३५७ ।। 

वहीं यह प्रसंग भी है कि नरश्रेष्ठ अर्जुन द्वारकामें आये और उसे वृष्णिवंशियोंसे सूनी 
देखकर विषादमें डूब गये। उस समय उनके मनमें बड़ी पीड़ा हुई || ३५७ ।। 

स संस्कृत्य नरश्रेष्ठ मातुलं शौरिमात्मन: । 

ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत्‌ । ३५८ ।। 

उन्होंने अपने मामा नरश्रेष्ठ वसुदेवजीका दाहसंस्कार करके आपानस्थानमें जाकर 
यदुवंशी वीरोंके विकट विनाशका रोमांचकारी दृश्य देखा || ३५८ ।। 


शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मन: । 

संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानत: ।। ३५९ ।। 

वहाँसे भगवान्‌ श्रीकृष्ण, महात्मा बलराम तथा प्रधान-प्रधान वृष्णिवंशी वीरोंके 
शरीरोंको लेकर उन्होंने उनका संस्कार सम्पन्न किया || ३५९ || 

स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम्‌ | 

ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम्‌ ।। ३६० ।। 

तदनन्तर अर्जुनने द्वारकाके बालक, वृद्ध तथा स्त्रियोंको साथ ले वहाँसे प्रस्थान किया; 
परंतु उस दुःखदायिनी विपत्तिमें उन्होंने अपने गाण्डीव धनुषकी अभूतपूर्व पराजय 
देखी ।। ३६० ।। 

सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम्‌ | 

नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रभावाणामनित्यताम्‌ ।। ३६१ ।। 

दृष्टवा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदित: । 

धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत्‌ ।। ३६२ ।। 

उनके सभी दिव्यास्त्र उस समय अप्रसन्न-से होकर विस्मृत हो गये। वृष्णिकुलकी 
स्त्रियोंका देखते-देखते अपहरण हो जाना और अपने प्रभावोंका स्थिर न रहना--यह सब 
देखकर अर्जुनको बड़ा निर्वेद (दु:ख) हुआ। फिर उन्होंने व्यासजीके वचनोंसे प्रेरित हो 
धर्मराज युधिष्ठटिस्से मिलकर संन्यासमें अभिरुचि दिखायी || ३६१-३६२ ।। 

इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम्‌ | 

अध्यायाष्टौ समाख्याता: श्लोकानां च शतत्रयम्‌ ।। ३६३ ।। 

श्लोकानां विंशतिश्वैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना । 

महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्व सप्तदशं स्मृतम्‌ ।। ३६४ ।। 

इस प्रकार यह सोलहवाँ मौसलपर्व कहा गया है। इसमें तत्त्वज्ञानी व्यासने गिनकर 
आठ (८) अध्याय और तीन सौ बीस (३२०) श्लोक कहे हैं। इसके पश्चात्‌ सत्रहवाँ 
महाप्रस्थानिकपर्व कहा गया है ।। ३६३--३६४ ।। 

यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवा: पुरुषर्षभा: । 

द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिता: ।। ३६५ ।। 


जिसमें नरश्रेष्ठ पाण्डव अपना राज्य छोड़कर द्रौपदीके साथ महाप्रस्थानके- पथपर 
आ गये ।। ३६५ ।। 

यत्र तेडग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्प सागरम्‌ । 

यत्राग्निना चोदितकश्ष पार्थस्तस्मै महात्मने ।। ३६६ ।। 

ददौ सम्पूज्य तदू दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम्‌ । 

यत्र भ्रातृन्‌ निपतितान्‌ द्रौपदी च युधिष्ठिर: ॥। ३६७ ।। 

दृष्टवा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन्‌ | 


एतत्‌ सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम्‌ ।। ३६८ ।। 

उस यात्रामें उन्होंने लाल सागरके पास पहुँचकर साक्षात्‌ अग्निदेवको देखा और 
उन्हींकी प्रेरणासे पार्थने उन महात्माको आदरपूर्वक अपना उत्तम एवं दिव्य गाण्डीव धनुष 
अर्पण कर दिया। उसी पर्वमें यह भी कहा गया है कि राजा युधिष्ठिरने मार्गमें गिरे हुए अपने 
भाइयों और द्रौपदीको देखकर भी उनकी क्या दशा हुई यह जाननेके लिये पीछेकी ओर 
फिरकर नहीं देखा और उन सबको छोड़कर आगे बढ़ गये। यह सत्रहवाँ महाप्रस्थानिकपर्व 
कहा गया है ।। ३६६-३६८ ।। 

यत्राध्यायास्त्रय: प्रोक्ता: श्लोकानां च शतत्रयम्‌ । 

विंशतिश्व॒ तथा श्लोका: संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। ३६९ ।। 

इसमें तत्त्वज्ञानी व्यासजीने तीन (३) अध्याय और एक सौ तेईस (१२३) श्लोक 
गिनकर कहे हैं ।। ३६९ ।। 

स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत्‌ तदमानुषम्‌ । 

प्राप्तं दैवरथं स्वगन्निष्टवान्‌ यत्र धर्मराट्‌ ।। ३७० ।। 

आरोढूुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना । 

तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मन: ।। ३७१ ।। 

श्वरूप॑ यत्र तत्‌ त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वित: । 

स्वर्ग प्राप्त: स च तथा यातना विपुला भृशम्‌ ।। ३७२ || 

देवदूतेन नरक यत्र व्याजेन दर्शितम्‌ । 

शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातृणां करुणा गिर: ॥। ३७३ ।। 

निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम्‌ । 

अनुदर्शितश्व धर्मेण देवराजेन पाण्डव: ।। ३७४ ।। 

तदनन्तर स्वर्गारोहणपर्व जानना चाहिये। जो दिव्य वृत्तान्तोंसे युक्त और अलौकिक है। 
उसमें यह वर्णन आया है कि स्वर्गसे युधिष्ठिरको लेनेके लिये एक दिव्य रथ आया, किंतु 
महाज्ञानी धर्मराज युधिष्ठिरने दयावश अपने साथ आये हुए कुत्तेको छोड़कर अकेले उसपर 
चढ़ना स्वीकार नहीं किया। महात्मा युधिष्ठिरकी धर्ममें इस प्रकार अविचल स्थिति जानकर 
कुत्तेने अपने मायामय स्वरूपको त्याग दिया और अब वह साक्षात्‌ धर्मके रूपमें स्थित हो 
गया। धर्मके साथ युधिष्ठछिर स्वर्गमें गये। वहाँ देवदूतने व्याजसे उन्हें नरककी विपुल 
यातनाओंका दर्शन कराया। वहीं धर्मात्मा युधिष्ठिरने अपने भाइयोंकी करुणाजनक पुकार 
सुनी थी। वे सब वहीं नरकप्रदेशमें यमराजकी आज्ञाके अधीन रहकर यातना भोगते थे। 
तत्पश्चात्‌ धर्मराज तथा देवराजने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको वास्तवमें उनके भाइयोंको जो 
सदगति प्राप्त हुई थी, उसका दर्शन कराया || ३७०--३७४ ।। 

आप्लुत्याकाशगज़ायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम्‌ | 

स्वधर्मनिर्जित स्थान स्वर्गे प्राप्प स धर्मराट्‌ । ३७५ ।। 


मुमुदे पूजित: सर्व: सेन्द्रै: सुरगणै: सह । 

एतदष्टादशं पर्व प्रोक्त व्यासेन धीमता ।। ३७६ ।। 

इसके बाद धर्मराजने आकाशगंगामें गोता लगाकर मानवशरीरको त्याग दिया और 
स्वर्गलोकमें अपने धर्मसे उपार्जित उत्तम स्थान पाकर वे इन्द्रादि देवताओंके साथ उनसे 
सम्मानित हो आनन्दपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार बुद्धिमान्‌ व्यासजीने यह अठारहवाँ पर्व 
कहा है ।। ३७५-३७६ ।। 

अध्याया: पज्च संख्याता: पर्वण्यस्मिन्‌ महात्मना । 

श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधना: ।। ३७७ ।। 

नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याता: परमर्षिणा । 

अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषत: ।। ३७८ ।। 

तपोधनो! परम ऋषि महात्मा व्यासजीने इस पर्वमें गिने-गिनाये पाँच (५) अध्याय और 
दो सौ नौ (२०९) श्लोक कहे हैं। इस प्रकार ये कुल मिलाकर अठारह पर्व कहे गये 
हैं ।। ३७७-३७८ ।। 

खिलेषु हरिवंशश्व भविष्यं च प्रकीर्तितम्‌ । 

दशश्लोकसहस्राणि विंशच्छूलोेकशतानि च ॥। ३७९ ।। 

खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा । 

एतत्‌ सर्व समाख्यातं भारते पर्वसंग्रह: ।। ३८० ।। 

खिलपर्वोमें हरिवंश तथा भविष्यका वर्णन किया गया है। हरिवंशके खिलपर्वोमें महर्षि 
व्यासने गणनापूर्वक बारह हजार (१२,०००) श्लोक रखे हैं। इस प्रकार महाभारतमें यह 
सब पर्वोका संग्रह बताया गया है |। ३७९-३८० |। 

अष्टादश समाजम्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया । 

तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशा भवत्‌ ॥। ३८१ ।। 

कुरक्षेत्रमें युद्धकी इच्छासे अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थीं और वह 
महाभयंकर युद्ध अठारह दिनोंतक चलता रहा ।। ३८१ ।। 

यो विद्याच्चतुरो वेदान्‌ साड़्ोपनिषदो द्विज: । 

न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्‌ विचक्षण: ।। ३८२ ।। 

जो द्विज अंगों और उपनिषदोंसहित चारों वेदोंको जानता है, परंतु इस महाभारत- 
इतिहासको नहीं जानता, वह विशिष्ट विद्वान्‌ नहीं है ।। ३८२ ।। 

अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्त धर्मशास्त्रमिदं महत्‌ | 

कामशास्त्रमिदं प्रोक्ते व्यासेनामितबुद्धिना ।। ३८३ ।। 

असीम बुद्धिवाले महात्मा व्यासने यह अर्थशास्त्र कहा है। यह महान धर्मशास्त्र भी है, 
इसे कामशास्त्र भी कहा गया है (और मोक्षशास्त्र तो यह है ही) ।। ३८३ ।। 

श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते । 


पुंस्कोकिलरुतं श्रुत्वा रूक्षा ध्वाड्क्षस्य वागिव ।। ३८४ ।। 

इस उपाख्यानको सुन लेनेपर और कुछ सुनना अच्छा नहीं लगता। भला कोकिलका 
कलरव सुनकर कौओंकी कठोर “काँय-काँय' किसे पसंद आयेगी? ।। ३८४ ।। 

इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धय: । 

पज्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रय: ॥। ३८५ ।। 

जैसे पाँच भूतोंसे त्रिविध (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) लोकसृष्टियाँ 
प्रकट होती हैं, उसी प्रकार इस उत्तम इतिहाससे कवियोंको काव्यरचनाविषयक बुद्धियाँ 
प्राप्त होती हैं | ३८५ ।। 

अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजा: । 

अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधा: | ३८६ ।। 

द्विजवरो! इस महाभारत-इतिहासके भीतर ही अठारह पुराण स्थित हैं, ठीक उसी 
तरह, जैसे आकाशमें ही चारों प्रकारकी प्रजा (जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्धिज्ज) 
विद्यमान हैं || ३८६ ।। 

क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रय: । 

इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रिया: ।। ३८७ ।। 

जैसे विचित्र मानसिक क्रियाएँ ही समस्त इन्द्रियोंकी चेष्टाओंका आधार हैं उसी प्रकार 
सम्पूर्ण लौकिक-वैदिक कर्मोके उत्कृष्ट फल-साधनोंका यह आख्यान ही आधार 
है | ३८७ |। 

अनश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते । 

आहारमनपगश्रिित्य शरीरस्येव धारणम्‌ ।। ३८८ ।। 

जैसे भोजन किये बिना शरीर नहीं रह सकता, वैसे ही इस पृथ्वीपर कोई भी ऐसी कथा 
नहीं है जो इस महाभारतका आश्रय लिये बिना प्रकट हुई हो || ३८८ ।। 

इदं कविवरै: सर्वैराख्यानमुपजीव्यते । 

उदयप्रेप्सुभिर्भुत्यैरैभिजात इवेश्वर: ।। ३८९ ।। 

अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे । 

साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमा: ।। ३९० ।। 

सभी श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी कथाका आश्रय लेते हैं और लेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे 
उन्नति चाहनेवाले सेवक श्रेष्ठ स्वामीका सहारा लेते हैं। जैसे शेष तीन आश्रम उत्तम गृहस्थ 
आश्रमसे बढ़कर नहीं हो सकते, उसी प्रकार संसारके कवि इस महाभारत काव्यसे बढ़कर 
काव्य-रचना करनेमें समर्थ नहीं हो सकते || ३८९-३९० ।। 

धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां 

स होक एव परलोकगतस्य बन्धु: । 
अर्था: स्त्रियश्न निपुणैरपि सेव्यमाना 


नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्‌ ।। ३९१ ।। 
तपस्वी महर्षियो! (तथा महाभारतके पाठको!)) आप सब लोग सदा सांसारिक 
आसक्तियोंसे ऊँचे उठें और आपका मन सदा धर्ममें लगा रहे; क्योंकि परलोकमें गये हुए 
जीवका बन्धु या सहायक एकमात्र धर्म ही है। चतुर मनुष्य भी धन और स्त्रियोंका सेवन तो 
करते हैं, किंतु वे उनकी श्रेष्ठतापर विश्वास नहीं करते और न उन्हें स्थिर ही मानते 
हैं ।। ३९१ ।। 
द्वैपायनोष्ठपुटनि:सृतमप्रमेयं 
पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च । 
यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं 
कि तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ।। ३९२ |। 
जो व्यासजीके मुखसे निकले हुए इस अप्रमेय (अतुलनीय) पुण्यदायक, पवित्र, 
पापहारी और कल्याणमय महाभारतको दूसरोंके मुखसे सुनता है, उसे पुष्करतीर्थके जलमें 
गोता लगानेकी क्या आवश्यकता है? ।। ३९२ ।। 
यदल्ला कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्वरन्‌ । 
महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम्‌ ।। ३९३ ।। 
ब्राह्मण दिनमें अपनी इन्द्रियोंद्वारा जो पाप करता है, उससे सायंकाल महाभारतका 
पाठ करके मुक्त हो जाता है ।। ३९३ ।। 
यद्‌ रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा । 
महाभारतमाख्याय पूर्वा संध्यां प्रमुच्यते || ३९४ ।। 
इसी प्रकार वह मन, वाणी और क्रियाद्वारा रातमें जो पाप करता है, उससे प्रात:काल 
महाभारतका पाठ करके छूट जाता है ।। ३९४ ।। 
यो गोशतं कनकश्‌ज्रमयं ददाति 
विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय । 
पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं 
तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव ।। ३९५ ।। 
जो गौओंके सींगमें सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्राह्मणको प्रतिदिन सौ गौएँ दान 
देता है और जो केवल महाभारत-कथाका श्रवणमात्र करता है, इन दोनोंमेंसे प्रत्येकको 
बराबर ही फल मिलता है ।। ३९५ |। 
आख््यानं तदिदमनुत्तमं महार्थ 
विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण । 
श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं 
विस्तीर्ण लवणजलं यथा प्लवेन ।। ३९६ ।। 


यह महान्‌ अर्थसे भरा हुआ परम उत्तम महाभारत-आख्यान यहाँ पर्वसंग्रहाध्यायके 
द्वारा समझना चाहिये। इस अध्यायको पहले सुन लेनेपर मनुष्योंके लिये महाभारत-जैसे 
महासमुद्रमें प्रवेश करना उसी प्रकार सुगम हो जाता है जैसे जहाजकी सहायतासे अनन्त 
जल-राशिवाले समुद्रमें प्रवेश सहज हो जाता है ।। ३९६ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि पर्वसंग्रहपर्वणि द्वितीयो$ध्याय: ।। २ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्माभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पर्वसंग्रहपर्वमें दूसरा अध्याय पूरा 
हुआ ॥ २ ॥। 


८-52 अर अं ४-4 


३. अधिक नीचा-ऊँचा होना, काँटेदार वृक्षोंसे व्याप्हहोना तथा कंकड़-पत्थरोंकी अधिकताका होना आदि 
भूमिसम्बन्धी दोष माने गये हैं। 

२, समन्त नामक क्षेत्रमें पाँच कुण्ड या सरोवर होनेसे उस क्षेत्र और उसके समीपवर्ती प्रदेशका भी समनन्‍्तपंचक नाम 
हुआ। परंतु उसका समन्त नाम क्‍यों पड़ा, इसका कारण इस श्लोकमें बता रहे हैं--'समेतानाम्‌ अन्तो यस्मिन्‌ स 
समनन्‍्त:'--समागत सेनाओंका अन्त हुआ हो जिस स्थानपर, उसे समनन्‍्त कहते हैं। इसी व्युत्पत्तिके अनुसार वह क्षेत्र 
समनन्‍्त कहलाता है। 

> घर छोड़कर निराहार रहते हुए, स्वेच्छासे मृत्युका वरण करनेके लिये निकल जाना और विभिन्न दिशाओंमें भ्रमण 
करते हुए अन्तमें उत्तर दिशा--हिमालयकी ओर जाना--महाप्रस्थान कहलाता है--पाण्डवोंने ऐसा ही किया। 


(पौष्यपर्व) 
तृतीयो<ध्याय: 


जनमेजयको सरमाका शाप, जनमेजयद्वारा सोमश्रवाका 
पुरोहितके पदपर वरण, आरुणि, उपमन्यु, वेद और 
उत्तंककी गुरुभक्ति तथा उत्तंकका सर्पयज्ञके लिये 
जनमेजयको प्रोत्साहन देना 


सौतिरुवाच 


जनमेजय: पारीक्षित: सह भ्रातृभि: कुरुक्षेत्रे दीर्घसत्रमुपास्ते | तस्य भ्रातरस्त्रय: 
श्रुतसेन उग्रसेनो भीमसेन इति । तेषु तत्सत्रमुपासीनेष्वागच्छत्‌ सारमेय: ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--परीक्षितके पुत्र जनममेजय अपने भाइयोंके साथ कुरक्षेत्रमें 
दीर्घकालतक चलनेवाले यज्ञका अनुष्ठान करते थे। उनके तीन भाई थे--श्रुतसेन, उग्रसेन 
और भीमसेन। वे तीनों उस यज्ञमें बैठे थे। इतनेमें ही देवताओंकी कुतिया सरमाका पुत्र 
सारमेय वहाँ आया ।। १ ।। 

स जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतो रोरूयमाणो मातु: समीपमुपागच्छत्‌ ।। २ ।। 

जनमेजयके भाइयोंने उस कुत्तेकों मारा। तब वह रोता हुआ अपनी माँके पास 
गया ।। २ ।। 

त॑ माता रोरूयमाणमुवाच । कि रोदिषि केनास्यभिहत इति ।। ३ ।। 

बार-बार रोते हुए अपने उस पुत्रसे माताने पूछा--“बेटा! क्यों रोता है? किसने तुझे 
मारा है?' ।। ३ ।। 

स एवमुक्तो मातरं प्रत्युवाच जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतोडस्मीति || ४ ।। 

माताके इस प्रकार पूछनेपर उसने उत्तर दिया--'माँ! मुझे जनमेजयके भाइयोंने मारा 
है! | ४ ।। 

त॑ माता प्रत्युवाच व्यक्त त्वया तत्रापराद्धं येनास्यभिहत इति | ५ ।। 

तब माता उससे बोली--“बेटा! अवश्य ही तूने उनका कोई प्रकटरूपमें अपराध किया 
होगा, जिसके कारण उन्होंने तुझे मारा है” || ५ ।। 

स तां पुनरुवाच नापराध्यामि किंचिचन्नावेक्षे हवींषि नावलिह इति ।। ६ ।। 


तब उसने मातासे पुनः इस प्रकार कहा--“मैंने कोई अपराध नहीं किया है। न तो 
उनके हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही है” ।। ६ ।। 

तच्छुत्वा तस्य माता सरमा पुत्रदुःखार्ता तत्‌ सत्रमुपागच्छद्‌ यत्र स जनमेजय: 
सह भ्रातृभिदर्दीर्घ-सत्रमुपास्ते || ७ ।। 

यह सुनकर पुत्रके दुःखसे दुःखी हुई उसकी माता सरमा उस सत्रमें आयी, जहाँ 
जनमेजय अपने भाइयोंके साथ दीर्घकालीन सत्रका अनुष्ठान कर रहे थे ।। ७ ।। 

स तया क्ुद्धया तत्रोक्तो<यं मे पुत्रो न किंचिदपराध्यति नावेक्षते हवींषि नावलेढि 
किमर्थमभिहत इति ।। ८ ।। 

वहाँ क्रोधमें भरी हुई सरमाने जनमेजयसे कहा--'मैरे इस पुत्रने तुम्हारा कोई अपराध 
नहीं किया था, न तो इसने हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही था, तब तुमने इसे 
क्यों मारा?” ।। ८ ।। 

न किज्चिदुक्तवन्तस्ते सा तानुवाच यस्मादयमभिहतो5नपकारी तस्मादद्‌ष्टं त्वां 
भयमागमिष्यतीति ।। ९ ।। 

किंतु जनमेजय और उनके भाइयोंने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब सरमाने 
उनसे कहा, "मेरा पुत्र निरपराध था, तो भी तुमने इसे मारा है; अतः तुम्हारे ऊपर अकस्मात्‌ 
ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहलेसे कोई सम्भावना न रही हो” ।। ९ ।। 

जनमेजय एवमुक्तो देवशुन्या सरमया भृशं सम्भ्रान्तो विषण्णश्वासीत्‌ ।। १० ।। 

देवताओंकी कुतिया सरमाके इस प्रकार शाप देनेपर जनमेजयको बड़ी घबराहट हुई 
और वे बहुत दुःखी हो गये ।। १० ।। 

स तस्मिन्‌ सत्रे समाप्ते हास्तिनपुरं प्रत्येत्य पुरोहितमनुरूपमन्विच्छमान: परं 
यत्नमकरोदू यो मे पापकृत्यां शमयेदिति ।। ११ ।। 

उस सत्रके समाप्त होनेपर वे हस्तिनापुरमें आये और अपनेयोग्य पुरोहितकी खोज 
करते हुए इसके लिये बड़ा यत्न करने लगे। पुरोहितके ढूँढ़नेका उद्देश्य यह था कि वह मेरी 
इस शापरूप पापकृत्याको (जो बल, आयु और प्राणका नाश करनेवाली है) शान्त कर 
दे ।। ११ || 

स कदाचिन्मृगयां गतः पारीक्षितों जनमेजय: कम्मिंश्वित्‌ु स्वविषय 
आश्रममपश्यत्‌ ।। १२ ।। 

एक दिन परीक्षितपुत्र जनममेजय शिकार खेलनेके लिये वनमें गये। वहाँ उन्होंने एक 
आश्रम देखा, जो उन्हींके राज्यके किसी प्रदेशमें विद्यमान था ।। १२ ।। 

तत्र कश्चिदृषिरासांचक्रे श्रुतश्रवा नाम | तस्य तपस्यभिरत: पुत्र आस्ते सोमश्रवा 
नाम ।। १३ || 

उस आश्रममें श्रुतश्रवा नामसे प्रसिद्ध एक ऋषि रहते थे। उनके पुत्रका नाम था 
सोमश्रवा। सोमश्रवा सदा तपस्यामें ही लगे रहते थे ।। १३ ।। 


तस्य तं॑ पुत्रमभिगम्य जनमेजय: पारीक्षित: पौरोहित्याय वत्रे || १४ ।। 

परीक्षितकुमार जनमेजयने महर्षि श्रुतश्रवाके पास जाकर उनके पुत्र सोमश्रवाका 
पुरोहितपदके लिये वरण किया ।। १४ ।। 

स नमस्कृत्य तमृषिमुवाच भगवन्नयं तव पुत्रो मम पुरोहितो$स्त्विति | १५ ।। 

राजाने पहले महर्षिको नमस्कार करके कहा--“भगवन्‌! आपके ये पुत्र सोमश्रवा मेरे 
पुरोहित हों! ।। १५ ।। 

स एवमुक्त: प्रत्युवाच जनमेजयं भो जनमेजय पुत्रो5यं मम सर्प्या जातो 
महातपस्वी स्वाध्याय-सम्पन्नो मत्तपोवीर्यसम्भूतो मच्छुक्रे पीतवत्यास्तस्या: कुक्षौ 
जात: ।। १६ ।। 

उनके ऐसा कहनेपर श्रुतश्रवाने जनमेजयको इस प्रकार उत्तर दिया--“महाराज 
जनमेजय! मेरा यह पुत्र सोमश्रवा सर्पिणीके गर्भसे पैदा हुआ है। यह बड़ा तपस्वी और 
स्वाध्यायशील है। मेरे तपोबलसे इसका भरण-पोषण हुआ है। एक समय एक सर्पिणीने 
मेरा वीर्यपान कर लिया था, अत: उसीके पेटसे इसका जन्म हुआ है ।। १६ ।। 

समर्थो5यं भवत: सर्वा: पापकृत्या: शमयितु-मन्तरेण महादेवकृत्याम्‌ ।। १७ ।। 

यह तुम्हारी सम्पूर्ण पापकृत्याओं (शापजनित उपद्रवों)-का निवारण करनेमें समर्थ है। 
केवल भगवान्‌ शंकरकी कृत्याको यह नहीं टाल सकता ।। १७ ।। 

अस्य त्वेकमुपांशुब्रतं यदेनं कश्रिद्‌ ब्राह्मण: कंचिदर्थमभियाचेत्‌ तं तस्मै दद्यादयं 
यद्येतदुत्सहसे ततो नयस्वैनमिति ।। १८ ।। 

किंतु इसका एक गुप्त नियम है। यदि कोई ब्राह्मण इसके पास आकर इससे किसी 
वस्तुकी याचना करेगा तो यह उसे उसकी अभीष्ट वस्तु अवश्य देगा। यदि तुम उदारतापूर्वक 
इसके इस व्यवहारको सहन कर सको अथवा इसकी इच्छापूर्तिका उत्साह दिखा सको तो 
इसे ले जाओ' ।। १८ ।। 

तेनैवमुक्तो जनमेजयस्तं प्रत्युवाच भगवंस्तत्‌ तथा भविष्यतीति ।। १९ ।। 

श्रुतश्रवाके ऐसा कहनेपर जनमेजयने उत्तर दिया--“भगवन्‌! सब कुछ उनकी रुचिके 
अनुसार ही होगा” ।। १९ || 

स त॑ पुरोहितमुपादायोपावृत्तों भ्रातूनुवाच मयायं वृत उपाध्यायो यदयं ब्रूयात्‌ तत्‌ 
कार्यमविचारयद्/िर्भवद्धिरिति । तेनैवमुक्ता भ्रातरस्तस्य तथा चक्कु: | स तथा भ्रातृन्‌ 
संदिश्य तक्षशिलां प्रत्यभिप्रतस्थे त॑ च देशं वशे स्थापयामास ।। २० ।। 

फिर वे सोमश्रवा पुरोहितको साथ लेकर लौटे और अपने भाइयोंसे बोले--*इन्हें मैंने 
अपना उपाध्याय (पुरोहित) बनाया है। ये जो कुछ भी कहें, उसे तुम्हें बिना किसी सोच- 
विचारके पालन करना चाहिये।” जनमेजयके ऐसा कहनेपर उनके तीनों भाई पुरोहितकी 
प्रत्येक आज्ञाका ठीक-ठीक पालन करने लगे। इधर राजा जनमेजय अपने भाइयोंको 


पूर्वोक्त आदेश देकर स्वयं तक्षशिला जीतनेके लिये चले गये और उस प्रदेशको अपने 
अधिकारमें कर लिया || २० || 

एतस्मिन्नन्तरे कश्चिदृषिर्धोम्यो नामायोदस्तस्य शिष्यास्त्रयो 
बभूवुरुपमन्युरारुणिवेंदश्वेति । २१ ।। 

(गुरुकी आज्ञाका किस प्रकार पालन करना चाहिये, इस विषयमें आगेका प्रसंग कहा 
जाता है--) इन्हीं दिनों आयोदधौम्य नामसे प्रसिद्ध एक महर्षि थे। उनके तीन शिष्य हुए-- 
उपमन्यु, आरुणि पांचाल तथा वेद ।। २१ ।। 

स एकं शिष्यमारुणिं पाज्चाल्यं प्रेषयामास गच्छ केदारखण्डं बधानेति ॥। २२ ।। 

एक दिन उपाध्यायने अपने एक शिष्य पांचालदेशवासी आरुणिको खेतपर भेजा और 
कहा--“वत्स! जाओ, क्यारियोंकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो” ।। २२ ।। 

स॒उपाध्यायेन संदिष्ट आरुणि: पाज्चाल्यस्तत्र गत्वा तत्‌ केदारखण्डं बद्धूं 
नाशकत्‌ | स क्लिश्यमानोडपश्यदुपायं भवत्वेवं करिष्यामि ।। २३ ।। 

उपाध्यायके इस प्रकार आदेश देनेपर पांचालदेशवासी आरुणि वहाँ जाकर उस 
धानकी क्यारीकी मेड़ बाँधने लगा; परंतु बाँध न सका। मेड़ बाँधनेके प्रयत्नमें ही परिश्रम 
करते-करते उसे एक उपाय सूझ गया और वह मन-ही-मन बोल उठा--“अच्छा; ऐसा ही 
करूँ” || २३ |। 

स तत्र संविवेश केदारखण्डे शयाने च तथा तस्मिंस्तदुदकं तस्थौ ।। २४ ।। 

वह क्यारीकी टूटी हुई मेड़की जगह स्वयं ही लेट गया। उसके लेट जानेपर वहाँका 
बहता हुआ जल रुक गया ।। २४ ।। 

ततः कदाचिदुपाध्याय आयोदो धौम्य: शिष्यानपृच्छत्‌ क्व आरुणि: पाज्चाल्यो 
गत इति ।। २५ || 

फिर कुछ कालके पश्चात्‌ उपाध्याय आयोदधौम्यने अपने शिष्योंसे पूछा 
--'पांचालनिवासी आरुणि कहाँ चला गया?” || २५ || 

ते त॑ प्रत्यूचुर्भगवंस्त्वयैव प्रेषितो गच्छ केदारखण्डं बधानेति | स 
एवमुक्तस्ताज्कछिष्यान्‌ प्रत्युवाच तस्मात्‌ तत्र सर्वे गच्छामो यत्र स गत इति ।। २६ ।। 

शिष्योंने उत्तर दिया--“भगवन्‌! आपहीने तो उसे यह कहकर भेजा था कि “जाओ, 
क्यारीकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो।' शिष्योंके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उनसे कहा--“तो 
चलो, हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ आरुणि गया है” ।। २६ ।। 

स तत्र गत्वा तस्याह्वानाय शब्द चकार | भो आरुणे पाज्चाल्य क्वासि 
वत्सैहीति ।। २७ ।। 

वहाँ जाकर उपाध्यायने उसे आनेके लिये आवाज दी--'पांचालनिवासी आरुणि! कहाँ 
हो वत्स! यहाँ आओ” || २७ ।। 


स॒तच्छुत्वा आरुणिरुपाध्यायवाक्यं तस्मात्‌ केदारखण्डातू सहसोत्थाय 
तमुपाध्यायमुपतस्थे ।। २८ ।। 

उपाध्यायका यह वचन सुनकर आरुणि पांचाल सहसा उस क्यारीकी मेड़से उठा और 
उपाध्यायके समीप आकर खड़ा हो गया ॥। २८ ।। 

प्रोवाच चैनमयमस्म्यत्र केदारखण्डे नि:सरमाणमुदकमवारणीयं संरोद्धूं संविष्टो 
भगवच्छब्दं श्रुत्वैव सहसा विदार्य केदारखण्डं भवन्तमुपस्थित: ।। २९ |। 

फिर उनसे विनयपूर्वक बोला--'भगवन्‌! मैं यह हूँ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़से निकलते 
हुए अनिवार्य जलको रोकनेके लिये स्वयं ही यहाँ लेट गया था। इस समय आपकी आवाज 
सुनते ही सहसा उस मेड़को विदीर्ण करके आपके पास आ खड़ा हुआ ।। २९ |।। 

तदभिवादये भगवन्‍न्तमाज्ञापयतु भवान्‌ कमर्थ करवाणीति ।। ३० ॥। 

“मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ, आप आज्ञा दीजिये, मैं कौन-सा कार्य 
करूँ?” ।। ३० ।। 

स॒ एवमुक्त उपाध्याय: प्रत्युवाच यस्मादू्‌ भवान्‌ केदारखण्डं 
विदार्योत्थितस्तस्मादुद्दालक एव नाम्ना भवान्‌ 
भविष्यतीत्युपाध्यायेनानुगृहीत: ।। ३१ ।। 

आरुणिके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया--“तुम क्यारीके मेड़को विदीर्ण करके 
उठे हो, अत: इस उद्दलनकर्मके कारण उद्दालक नामसे ही प्रसिद्ध होओगे।' ऐसा कहकर 
उपाध्यायने आरुणिको अनुगृहीत किया ।। ३१ ।। 

यस्माच्च त्वया मद्बचनमनुष्ठितं तस्माच्छेयो&वाप्स्यसि । सर्वे च ते वेदा: 
प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति ॥। ३२ ।। 

साथ ही यह भी कहा कि, “तुमने मेरी आज्ञाका पालन किया है, इसलिये तुम 
कल्याणके भागी होओगे। सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धिमें स्वयं प्रकाशित 
हो जायूँगे” || ३२ ।। 

स॒ एवमुक्त उपाध्यायेनेष्टं देश जगाम । अथापर: शिष्यस्तस्यैवायोदस्य 
धौम्यस्योपमन्युर्नाम ।। ३३ ।। 

उपाध्यायके इस प्रकार आशीर्वाद देनेपर आरुणि कृतकृत्य हो अपने अभीष्ट देशको 
चला गया। उन्हीं आयोदधौम्य उपाध्यायका उपमन्यु नामक दूसरा शिष्य था ।। ३३ ।। 

त॑ चोपाध्याय: प्रेषषामास वत्सोपमन्यो गा रक्षस्वेति ।। ३४ ।। 

उसे उपाध्यायने आदेश दिया--“वत्स उपमन्यु! तुम गौओंकी रक्षा करो” ।। ३४ ।। 

स॒ उपाध्यायवचनादरक्षद्‌ गाः;: स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये 
गुरुगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रत: स्थित्वा नमश्नक्रे || ३५ ।। 

उपाध्यायकी आज्ञासे उपमन्यु गौओंकी रक्षा करने लगा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें 
रहकर संध्याके समय गुरुजीके घरपर आता और उनके सामने खड़ा हो नमस्कार 


करता ।। ३५ || 

तमुपाध्याय: पीवानमपश्यदुवाच चैनं वत्सोपमन्यो केन वृत्ति कल्पयसि 
पीवानसि दृढमिति ।॥। ३६ ।। 

उपाध्यायने देखा उपमन्यु खूब मोटा-ताजा हो रहा है, तब उन्होंने पूछा--“बेटा 
उपमन्यु! तुम कैसे जीविका चलाते हो, जिससे इतने अधिक हृष्ट-पुष्ट हो रहे हो?” ।। ३६ ।। 

स उपाध्यायं प्रत्युवाच भो भैक्ष्यैण वृत्ति कल्पयामीति ।। ३७ ।। 

उसने उपाध्यायसे कहा--'गुरुदेव! मैं भिक्षासे जीवन-निर्वाह करता हूँ” || ३७ ।। 

तमुपाध्याय: प्रत्युवाच मय्यनिवेद्य भैक्ष्यं नोपयोक्तव्यमिति | स तयथेत्युक्त्वा 
भैक्ष्यं चरित्वोपाध्यायाय न्यवेदयत्‌ ।। ३८ ।। 

यह सुनकर उपाध्याय उपमन्युसे बोले--“मुझे अर्पण किये बिना तुम्हें भिक्षाका अन्न 
अपने उपयोगमें नहीं लाना चाहिये।” उपमन्युने “बहुत अच्छा” कहकर उनकी आज्ञा 
स्वीकार कर ली। अब वह भिक्षा लाकर उपाध्यायको अर्पण करने लगा ।। ३८ ।। 

स तस्मादुपाध्याय: सर्वमेव भैक्ष्यमगृह्नात्‌ू | स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद्‌ गा: । 
अहनि रक्षित्वा निशामुखे गुरुकुलमागम्य गुरोरग्रत: स्थित्वा नमश्नक्रे ।। ३९ ।। 

उपाध्याय उपमन्युसे सारी भिक्षा ले लेते थे। उपमन्यु “तथास्तु” कहकर पुनः पूर्ववत्‌ 
गौओंकी रक्षा करता रहा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहता और (संध्याके समय) पुनः 
गुरुके घरपर आकर गुरुके सामने खड़ा हो नमस्कार करता था ।। ३९ |।। 

तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्टवोवाच वत्सोपमन्यो सर्वमशेषतस्ते भैक्ष्यं 
गृह्नामि केनेदानीं वृत्ति कल्पयसीति ।। ४० ।। 

उस दशामें भी उपमन्युको पूर्ववत्‌ हृष्ट-पुष्ट ही देखकर उपाध्यायने पूछा--“बेटा 
उपमन्यु! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं ले लेता हूँ, फिर तुम इस समय कैसे जीवन-निर्वाह करते 
हो?” ।। ४० ।। 

स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि तेन वृत्तिं 
कल्पयामीति ।। ४१ ।। 

उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उन्हें उत्तर दिया--“भगवन्‌! पहलेकी लायी हुई 
भिक्षा आपको अर्पित करके अपने लिये दूसरी भिक्षा लाता हूँ और उसीसे अपनी जीविका 
चलाता हूँ || ४१ ।। 

तमुपाध्याय: प्रत्युवाच नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिरन्येषामपि भैक्ष्योपजीविनां 
वृत्त्युपरोधं करोषि इत्येवं वर्तमानो लुब्धोडसीति ।। ४२ ।। 

यह सुनकर उपाध्यायने कहा--“यह न्याययुक्त एवं श्रेष्ठ वृत्ति नहीं है। तुम ऐसा करके 
दूसरे भिक्षाजीवी लोगोंकी जीविकामें बाधा डालते हो; अतः लोभी हो (तुम्हें दुबारा भिक्षा 
नहीं लानी चाहिये)” ।। ४२ ।। 


स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत्‌ । रक्षित्वा च पुनरुपाध्यायगृहमागम्योपा ध्यायस्याग्रत: 
स्थित्वा नमश्षक्रे || ४३ ।। 

उसने “तथास्तु” कहकर गुरुकी आज्ञा मान ली और पूर्ववत्‌ गौओंकी रक्षा करने लगा। 
एक दिन गायें चराकर वह फिर (सायंकालको) उपाध्यायके घर आया और उनके सामने 
खड़े होकर उसने नमस्कार किया || ४३ ।। 

तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्टवा पुनरुवाच वत्सोपमन्यो अहं ते सर्व भैक्ष्यं 
गृह्नामि न चान्यच्चरसि पीवानसि भृशं केन वृत्ति कल्पयसीति ।। ४४ ।। 

उपाध्यायने उसे फिर भी मोटा-ताजा ही देखकर पूछा--“बेटा उपमन्यु! मैं तुम्हारी 
सारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा नहीं माँगते, फिर भी बहुत मोटे हो। 
आजकल कैसे खाना-पीना चलाते हो?” ।। ४४ ।। 

स एवमुक्तस्तमुपाध्यायं प्रत्युवाच भो एतासां गवां पयसा वृत्ति कल्पयामीति । 
तमुवाचोपाध्यायो नैतन्न्याय्यं पय उपयोक्तुं भवतो मया नाभ्यनुज्ञातमिति ।। ४५ ।। 

इस प्रकार पूछनेपर उपमन्युने उपाध्यायको उत्तर दिया--“भगवन्‌! मैं इन गौओंके 
दूधसे जीवन-निर्वाह करता हूँ।” (यह सुनकर) उपाध्यायने उससे कहा---मैंने तुम्हें दूध 
पीनेकी आज्ञा नहीं दी है, अतः इन गौओंके दूधका उपयोग करना तुम्हारे लिये अनुचित 
है! | ४५ || 

स तयथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनरुपाध्यायगृहमेत्य गुरोरग्रत: स्थित्वा 
नमश्षुक्रे || ४६ ।। 

उपमन्युने “बहुत अच्छा” कहकर दूध न पीनेकी भी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत्‌ 
गोपालन करता रहा। एक दिन गोचारणके पश्चात्‌ वह पुनः उपाध्यायके घर आया और 
उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया || ४६ ।। 

तमुपाध्याय: पीवानमेव दृष्टवोवाच वत्सोपमन्यो भैक्ष्यं नाश्नासि न चान्यच्चरसि 
पयो न पिबसि पीवानसि भृशं केनेदानीं वृत्ति कल्पयसीति ।। ४७ ।। 

उपाध्यायने अब भी उसे हृष्ट-पुष्ट ही देखकर पूछा--“बेटा उपमन्यु! तुम भिक्षाका अन्न 
नहीं खाते, दुबारा भिक्षा भी नहीं माँगते और गौओंका दूध भी नहीं पीते; फिर भी बहुत मोटे 
हो। इस समय कैसे निर्वाह करते हो?” ।। ४७ ।। 

स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भो: फेनं पिबामि यमिमे वत्सा मातृणां स्तनात्‌ 
पिबन्त उद्गिरन्ति | ४८ ।। 

इस प्रकार पूछनेपर उसने उपाध्यायको उत्तर दिया--'भगवन्‌! ये बछड़े अपनी 
माताओंके स्तनोंका दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, उसीको पी लेता हूँ” || ४८ ।। 

तमुपाध्याय: प्रत्युवाच--एते त्वदनुकम्पया गुणवन्तो वत्सा: प्रभूततरं 
फेनमुद्गिरन्ति । तदेषामपि वत्सानां वृत्त्युपरोधं करोष्येवं वर्तमान: | फेनमपि भवान्‌ 
न पातुमर्हतीति । स तथेति प्रतिश्रुत्य पुनररक्षद्‌ गा: ।। ४९ ।। 


यह सुनकर उपाध्यायने कहा--'ये बछड़े उत्तम गुणोंसे युक्त हैं, अतः तुमपर दया 
करके बहुत-सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ोंकी 
जीविकामें बाधा उपस्थित करते हो, अत: आजसे फेन भी न पिया करो।” उपमन्युने “बहुत 
अच्छा” कहकर उसे न पीनेकी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत्‌ गौओंकी रक्षा करने 
लगा ।। ४९ |। 

तथा प्रतिषिद्धो भैक्ष्यं नाश्नाति न चान्यच्चरति पयो न पिबति फेन॑ नोपयुद्धक्ते । 
स कदाचिदरणप्ये क्षुधार्तोंडर्कपत्राण्यभक्षयत्‌ ।। ५० ।। 

इस प्रकार मना करनेपर उपमन्यु न तो भिक्षाका अन्न खाता, न दुबारा भिक्षा लाता, न 
गौओंका दूध पीता और न बछड़ोंके फेनको ही उपयोगमें लाता था (अब वह भूखा रहने 
लगा)। एक दिन वनमें भूखसे पीड़ित होकर उसने आकके पत्ते चबा लिये || ५० ।। 

स तैरर्कपन्रैर्भक्षितै: क्षारतिक्तकदुरूक्षैस्तीक्षणविपाकैश्नक्षुष्युपहतो5न्धो बभूव । 
ततः सो<न्धोडपि चड्क्रम्यमाण: कूपे पपात ।। ५१ ।। 

आकके पत्ते खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है 
(पाचनकालमें वे पेटके अंदर आगकी ज्वाला-सी उठा देते हैं)) अतः: उनको खानेसे 
उपमन्युकी आँखोंकी ज्योति नष्ट हो गयी। वह अन्धा हो गया। अन्धा होनेपर भी वह इधर- 
उधर घूमता रहा; अतः कुएँमें गिर पड़ा || ५१ ।। 

अथ तस्मिन्ननागच्छति सूर्य चास्ताचलावलम्बिनि उपाध्याय: शिष्यानवोचत्‌-- 
नायात्युपमन्युस्त ऊचुर्वनं गतो गा रक्षितुमिति ॥। ५२ ।। 

तदनन्तर जब सूर्यदेव अस्ताचलकी चोटीपर पहुँच गये, तब भी उपमन्यु गुरुके घरपर 
नहीं आया, तो उपाध्यायने शिष्योंसे पूछा--“उपमन्यु क्‍यों नहीं आया?' वे बोले--“वह तो 
गाय चरानेके लिये वनमें गया था” || ५२ ।। 

तानाह उपाध्यायो मयोपमन्यु: सर्वतः प्रतिषिद्धः स नियतं कुपितस्ततो 
नागच्छति चिरं ततो<न्वेष्य इत्येवमुक्त्वा शिष्यै: सार्थमरण्यं गत्वा तस्याद्वानाय शब्दं 
चकार भो उपमन्यो क्वासि वत्सैहीति ।। ५३ |। 

तब उपाध्यायने कहा--'मैंने उपमन्युकी जीविकाके सभी मार्ग बंद कर दिये हैं, अतः 
निश्चय ही वह रूठ गया है; इसीलिये इतनी देर हो जानेपर भी वह नहीं आया, अतः हमें 
चलकर उसे खोजना चाहिये।” ऐसा कहकर शिष्योंके साथ वनमें जाकर उपाध्यायने उसे 
बुलानेके लिये आवाज दी--'ओ उपमन्यु! कहाँ हो बेटा! चले आओ” ।। ५३ ।। 

स॒ उपाध्यायवचनं श्रु॒त्वा प्रत्युवाचोच्चैरयमस्मिन्‌ू कूपे पतितो5हमिति 
तमुपाध्याय: प्रत्युवाच कथ॑ं त्वमस्मिन्‌ कूपे पतित इति ।। ५४ ।। 

उसने उपाध्यायकी बात सुनकर उच्च स्वरसे उत्तर दिया--“गुरुजी! मैं कुएँमें गिर पड़ा 
हूँ।' तब उपाध्यायने उससे पूछा--“वत्स! तुम कुएँमें कैसे गिर गये?” ।। ५४ ।। 


स उपाध्यायं प्रत्युवाच--अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतो5स्म्यत: कूपे पतित 
इति ।। ५५ || 
उसने उपाध्यायको उत्तर दिया--'भगवन्‌! मैं आकके पत्ते खाकर अन्धा हो गया हूँ; 
इसीलिये कुएँमें गिर गया” || ५५ ।। 
तमुपाध्याय: प्रत्युवाच--अश्विनौ स्तुहि । तौ देवभिषजोौ त्वां चक्षुष्मन्तं 
कर्ताराविति । स एवमुक्त उपाध्यायेनोपमन्युरश्विनौ स्तोतुमुपचक्रमे देवावश्चिनौ 
वाम्भिऋग्भि: ।। ५६ || 
तब उपाध्यायने कहा--“वत्स! दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके वैद्य हैं। तुम उन्हींकी 
स्तुति करो। वे तुम्हारी आँखें ठीक कर देंगे।' उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने 
अश्विनीकुमार नामक दोनों देवताओंकी ऋग्वेदके मन्त्रोंद्वारा स्तुति प्रारम्भ की || ५६ ।। 
प्रपूर्वगौ पूर्वजी चित्रभानू 
गिरा वा55शंसामि तपसा हानन्तौ । 
दिव्यौ सुपर्णा विरजौ विमाना- 
वधिक्षिपन्तौ भुवनानि विश्वा ॥। ५७ ।। 
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों सृष्टिसे पहले विद्यमान थे। आप ही पूर्वज हैं। आप ही 
चित्रभानु हैं। मैं वाणी और तपके द्वारा आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि आप अनन्त हैं। 
दिव्यस्वरूप हैं। सुन्दर पंखवाले दो पक्षीकी भाँति सदा साथ रहनेवाले हैं। रजोगुणशून्य 
तथा अभिमानसे रहित हैं। सम्पूर्ण विश्वमें आरोग्यका विस्तार करते हैं |। ५७ ।। 
हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ 
नासत्यदस्रौ सुनसौ वै जयन्तौ । 
शुक्ल वयन्तौ तरसा सुवेमा- 
वधिव्ययन्तावसितं विवस्वत: ।। ५८ ।। 
सुनहरे पंखवाले दो सुन्दर विहंगमोंकी भाँति आप दोनों बन्धु बड़े सुन्दर हैं। 
पारलौकिक उन्नतिके साधनोंसे सम्पन्न हैं। नासत्य तथा दख्न--ये दोनों आपके नाम हैं। 
आपकी नासिका बड़ी सुन्दर है। आप दोनों निश्चितरूपसे विजय प्राप्त करनेवाले हैं। आप 
ही विवस्वान्‌ (सूर्यदेव)-के सुपुत्र हैं; अतः स्वयं ही सूर्यरूपमें स्थित हो दिन तथा रात्रिरूप 
काले तन्‍्तुओंसे संवत्सररूप वस्त्र बुनते रहते हैं और उस वस्त्रद्वारा वेगपूर्वक देवयान और 
पितृयान नामक सुन्दर मार्गोको प्राप्त कराते हैं || ५८ ।। 
ग्रस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिका- 
ममुज्चतामश्विनौ सौभगाय । 
तावत्‌ सुवृत्तावनमन्त मायया 
वसत्तमा गा अरुणा उदावहन्‌ ॥। ५९ ।। 


परमात्माकी कालशक्तिने जीवरूपी पक्षीको अपना ग्रास बना रखा है। आप दोनों 
अश्विनीकुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषोंने ज्ञान देकर कैवल्यरूप महान्‌ सौभाग्यकी 
प्राप्तिके लिये उस जीवको कालके बन्धनसे मुक्त किया है। मायाके सहवासी अत्यन्त 
अज्ञानी जीव जबतक राग आदि विषयोंसे आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियोंके समक्ष नत-मस्तक 
रहते हैं, तबतक वे अपने-आपको शरीरसे आबद्ध ही मानते हैं ।। ५९ ।। 
षष्टिक्ष गावस्त्रिशताक्ष धेनव 
एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति । 
नानागोष्ठा विहिता एकदोहना- 
स्तावश्विनौ दुहतो घर्ममुक्थ्यम्‌ ।। ६० ।। 
दिन एवं रात--ये मनोवांछित फल देनेवाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं। वे सब एक 
ही संवत्सररूपी बछड़ेको जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबका 
उत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़ेको निमित्त बनाकर उन गौओंसे 
विभिन्न फल देनेवाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं; उन सब क्रियाओंका एक 
(तत्त्वज्ञानकी इच्छा) ही दोहनीय फल है। पूर्वोक्त गौओंको आप दोनों अश्विनीकुमार ही 
दुहते हैं || ६० ।। 
एकां नाभि सप्तशता अरा:ः श्रिता: 
प्रधिष्वन्या विंशतिरपिंता अरा: । 
अनेमि चक्र परिवर्तते5जरं 
मायाश्विनौ समनक्ति चर्षणी ।। ६३१ ।। 
हे अश्विनीकुमारो! इस कालचक्रकी एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिसपर रात और 
दिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं। वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरोंको 
थामनेवाले पुट्टठों)-में जुड़े हुए हैं। अश्विनीकुमारो! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्र 
बिना नेमिके ही अनियत गतिसे घूमता तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकोंकी 
प्रजाओंका विनाश करता रहता है || ६१ ।। 
एकं॑ चक्र वर्तते द्वादशारं 
षण्णाभिमेकाक्षमृतस्य धारणम्‌ | 
यस्मिन्‌ देवा अधि विश्वे विषक्ता- 
स्तावश्चिनौ मुज्चतं मा विषीदतम्‌ ।। ६२ ।। 
अश्विनीकुमारो! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छः: 
नाभियाँ हैं और संवत्सर जिसकी एक धुरी है, वह एकमात्र कालचक्र सब ओर चल रहा है। 
यही कर्मफलको धारण करनेवाला आधार है। इसीमें सम्पूर्ण कालाभिमानी देवता स्थित हैं। 
आप दोनों मुझे इस कालचक्रसे मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदिके दुःखसे अत्यन्त 
वष्ट पा रहा हूँ ।। ६२ ।। 


अश्विनाविन्दुममृतं वृत्त भूयौ 
तिरोधत्तामश्चिनौ दासपत्नी । 
हित्वा गिरिमश्रचिनौ गा मुदा चरन्तौ 
तद्वृष्टिमल्वा प्रस्थितो बलस्य ।। ६३ ।। 
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनोंमें सदाचारका बाहुल्‍य है। आप अपने सुयशसे चन्द्रमा, 
अमृत तथा जलकी उज्ज्वलताको भी तिरस्कृत कर देते हैं। इस समय मेरु पर्वतको 
छोड़कर आप पृथ्वीपर सानन्द विचर रहे हैं। आनन्द और बलकी वर्षा करनेके लिये ही 
आप दोनों भाई दिनमें प्रस्थान करते हैं || ६३ ।। 
युवां दिशो जनयथो दशाग्रे 
समान मूर्थ्नि रथयानं वियन्ति । 
तासां यातमृषयोअनुप्रयान्ति 
देवा मनुष्या: क्षितिमाचरन्ति ।। ६४ ।। 
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों ही सृष्टिके प्रारम्भकालमें पूर्वांदि दसों दिशाओंको प्रकट 
करते--उनका ज्ञान कराते हैं। उन दिशाओंके मस्तक अर्थात्‌ अन्तरिक्ष-लोकमें रथसे यात्रा 
करनेवाले तथा सबको समानरूपसे प्रकाश देनेवाले सूर्यदेवका और आकाश आदि पाँच 
भूतोंका भी आप ही ज्ञान कराते हैं। उन-उन दिशाओंमें सूर्यका जाना देखकर ऋषिलोग भी 
उनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकारके अनुसार) स्वर्ग या 
मर्त्पलोककी भूमिका उपयोग करते हैं ।। ६४ ।। 
युवां वर्णान्‌ विकुरुथो विश्वरूपां- 
स्तेडधिक्षियन्ते भुवनानि विश्वा | 
ते भानवो5प्यनुसूता श्चरन्ति 
देवा मनुष्या: क्षितिमाचरन्ति || ६५ ।। 
हे अश्विनीकुमारो! आप अनेक रंगकी वस्तुओंके सम्मिश्रणसे सब प्रकारकी ओषधियाँ 
तैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्वका पोषण करती हैं। वे प्रकाशभान ओषधियाँ सदा आपका 
अनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपने 
अधिकारके अनुसार स्वर्ग और मर्त्यलोककी भूमिमें रहकर उन ओषधियोंका सेवन करते 
हैं ।। ६५ ।। 
तौ नासत्यावद्चिनौ वां महे5हं 
स्रजं च यां बिभूथ: पुष्करस्य । 
तौ नासत्यावमृतावृतावृधा- 
वृते देवास्तत्प्रपदे न सूते || ६६ ।। 
अश्विनीकुमारो! आप ही दोनों “नासत्य' नामसे प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो 
कमलकी माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होनेके साथ ही 


सत्यका पोषण और विस्तार करनेवाले हैं। आपके सहयोगके बिना देवता भी उस सनातन 
सत्यकी प्राप्तिमें समर्थ नहीं हैं || ६६ ।। 
मुखेन गर्भ लभेतां युवानौ 
गतासुरेतत्‌ प्रपदेन सूते । 
सद्यो जातो मातरमत्ति गर्भ- 
स्तावश्विनौ मुज्चथो जीवसे गा: ।। ६७ ।। 
युवक माता-पिता संतानोत्पत्तिके लिये पहले मुखसे अन्नरूप गर्भ धारण करते हैं। 
तत्पश्चात्‌ पुरुषोंमें वीर्यरूपमें और स्त्रीमें रजोरूपसे परिणत होकर वह अन्न जड शरीर बन 
जाता है। तत्पश्चात्‌ जन्म लेनेवाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही माताके स्तनोंका दूध पीने 
लगता है। हे अश्विनीकुमारो! पूर्वोक्त रूपसे संसार-बन्धनमें बँधे हुए जीवोंको आप 
तत्त्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाहके लिये मेरी नेत्रेन्द्रियको भी रोगसे मुक्त 
करें ।। ६७ ।। 
स्तोतुं न शकनोमि गुणैर्भवन्तौ 
चक्षुविहीन: पथि सम्प्रमोह: । 
दुर्गेडहहमस्मिन्‌ पतितो5स्मि कूपे 
युवां शरण्यौ शरणं प्रपद्ये || ६८ ।। 
अश्विनीकुमारो! मैं आपके गुणोंका बखान करके आप दोनोंकी स्तुति नहीं कर सकता। 
इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचाननेमें भी भूल हो जाती है; इसीलिये 
इस दुर्गम कूपमें गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं; अतः मैं आपकी शरण 
लेता हूँ || ६८ ।। 
इत्येवं तेनाभिष्टतावश्वचिनावाजग्मतुराहतुश्चैनं प्रीतौ स्व एब ते5पूपो5शानैनमिति 
॥। ६९ || 
इस प्रकार उपमन्युके स्तवन करनेपर दोनों अश्विनीकुमार वहाँ आये और उससे बोले 
--'उपमन्यु! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। यह तुम्हारे खानेके लिये पूआ है, इसे खा 
लो' ।। ६९ || 
स एवमुक्तः प्रत्युवाच नानृतमूचतुर्भगवन्ती न त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहे 
गुरवेडनिवेद्येति ॥। ७० ।। 
उनके ऐसा कहनेपर उपमन्यु बोला--'भगवन्‌! आपने ठीक कहा है, तथापि मैं 
गुरुजीको निवेदन किये बिना इस पूएको अपने उपयोगमें नहीं ला सकता” || ७० ।। 
ततस्तमश्रिनावूचतु:--आवाभ्यां पुरस्ताद्‌ भवत 
उपाध्यायेनैवमेवाभिष्टृता भ्यामपूपो दत्त उपयुक्त: स तेनानिवेद्य गुरवे त्वमपि तथैव 
कुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति ।। ७१ ।। 


तब दोनों अश्विनीकुमार बोले--“वत्स! पहले तुम्हारे उपाध्यायने भी हमारी इसी प्रकार 
स्तुति की थी। उस समय हमने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरुजीको निवेदन 
किये बिना ही काममें ले लिया था। तुम्हारे उपाध्यायने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी 
करो” || ७१ ।। 

स एवमुक्तः प्रत्युवाच--एतत्‌ प्रत्यनुनये भवन्तावश्विनौ नोत्सहेडहमनिवेद्य 
गुरवे5पूपमुपयोक्तुमिति ॥। ७२ ।। 

उनके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उत्तर दिया--'इसके लिये तो आप दोनों 
अश्विनीकुमारोंकी मैं बड़ी अनुनय-विनय करता हूँ। गुरुजीके निवेदन किये बिना मैं इस 
पूएको नहीं खा सकता” ।। ७२ ।। 

तमश्विनावाहतु: प्रीतो स्वस्तवानया गुरुभक्त्या उपाध्यायस्य ते कार्ष्णायसा 
दन्‍ता भवतोडपि हिरण्मया भविष्यन्ति चक्षुष्मांश्ष॒ भविष्यसीति 
श्रेयक्षावाप्स्पसीति ।। ७३ ।। 

तब अश्विनीकुमार उससे बोले, “तुम्हारी इस गुरु-भक्तिसे हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे 
उपाध्यायके दाँत काले लोहेके समान हैं। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायाँगे। तुम्हारी आँखें 
भी ठीक हो जायँगी और तुम कल्याणके भागी भी होओगे” ।। ७३ ।। 

स एवमुक्तोउश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्याभ्यवादयत्‌ ।। ७४ ।। 

अश्विनीकुमारोंक ऐसा कहनेपर उपमन्युको आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्यायके 
समीप आकर उन्हें प्रणाम किया ।। ७४ ।। 

आचचक्षे च स चास्य प्रीतिमान्‌ बभूव || ७५ ।। 

तथा सब बातें गुरुजीसे कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए || ७५ ।। 

आह चैन यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोडवाप्स्यसि || ७६ ।। 

और उससे बोले--'जैसा अभश्विनीकुमारोंने कहा है, उसी प्रकार तुम कल्याणके भागी 
होओगे ।। ७६ ।। 

सर्वे च ते वेदा: प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति । एषा तस्यापि 
परीक्षोपमन्यो: ।। ७७ ।। 

“तुम्हारी बुद्धिमें सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे।” इस प्रकार 
यह उपमन्युकी परीक्षा बतायी गयी ।। ७७ ।। 

अथापर: शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्याय: समादिदेश वत्स 
वेद इहास्यतां तावन्‍न्मम गृहे कंचित्‌ काल॑ शुश्रूषुणा च भविततव्यं श्रेयस्ते 
भविष्यतीति ।। ७८ ।। 

उन्हीं आयोदधौम्यके तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें उपाध्यायने आज्ञा दी, “वत्स वेद! तुम 
कुछ कालतक यहाँ मेरे घरमें निवास करो। सदा शुश्रूषामें लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण 
होगा” ।। ७८ ।। 


स तथेत्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरो 5वसदू गौरिव नित्यं गुरुणा धूर्ष 
नियोज्यमान: शीतोष्ण क्षुत्तृष्णादुःखसह: सर्वत्राप्रतिकूलस्तस्य महता कालेन गुरु: 
परितोष॑ जगाम || ७९ |। 

वेद “बहुत अच्छा” कहकर गुरुके घरमें रहने लगे। उन्होंने दीर्घकालतक गुरुकी सेवा 
की। गुरुजी उन्हें बैलकी तरह सदा भारी बोझ ढोनेमें लगाये रखते थे और वेद सरदी-गरमी 
तथा भूख-प्यासका कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओंमें गुरुके अनुकूल ही रहते थे। इस 
प्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरुजी उनपर पूर्णतः संतुष्ट हुए || ७९ ।। 

तत्परितोषाच्च श्रेय: सर्वज्ञतां चावाप | एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य ॥। ८० ।। 

गुरुके संतोषसे वेदने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली। इस प्रकार यह वेदकी परीक्षाका 
वृत्तान्त कहा गया ।। ८० ।। 

स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृतस्तस्माद्‌ गुरुकुलवासाद गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत । 
तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रय: शिष्या बभूवु: स शिष्यान्‌ न किंचिदुवाच कर्म वा क्रियतां 
गुरुशुश्रूषा चेति । दुःखाभिज्ञो हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान्‌ परिक्लेशेन योजयितुं 
नेयेष ।। ८१ ।। 

तदनन्तर उपाध्यायकी आज्ञा होनेपर वेद समावर्तन-संस्कारके पश्चात्‌ स्नातक होकर 
गुरुगहसे लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया। अपने घरमें निवास करते 
समय आचार्य वेदके पास तीन शिष्य रहते थे, किंतु वे “काम करो अथवा गुरुसेवामें लगे 
रहो” इत्यादि रूपसे किसी प्रकारका आदेश अपने शिष्योंको नहीं देते थे; क्योंकि गुरुके 
घरमें रहनेपर छात्रोंको जो कष्ट सहन करना पड़ता है, उससे वे परिचित थे। इसलिये उनके 
मनमें अपने शिष्योंको क्लेशदायक कार्यमें लगानेकी कभी इच्छा नहीं होती थी ।। ८१ ।। 

अथ कम्मिंश्वित्‌ काले वेदं ब्राह्मणं जनमेजय: पौष्यश्न क्षत्रियावुपेत्य 
वरयित्वोपाध्यायं चक्रतु:ः ॥ ८२ ॥ स कदाचिद्‌ याज्यकार्येणाभिप्रस्थित 
उत्तड़कनामानं शिष्यं नियोजयामास ।। ८३ ॥| भो यत्‌ किंचिदस्मदगृहे परिहीयते 
तदिच्छाम्यहमपरिहीयमानं भवता क्रियमाणमिति स एवं प्रतिसंदिश्योत्तड़क॑ वेद: 
प्रवासं जगाम || ८४ ।। 

एक समयकी बात है--ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेदके पास आकर “जनमेजय और पौष्य' 
नामवाले दो क्षत्रियोंने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर 
एक दिन उपाध्याय वेदने यजमानके कार्यसे बाहर जानेके लिये उद्यत हो उत्तंक नामवाले 
शिष्यको अग्निहोत्र आदिके कार्यमें नियुक्त किया और कहा--“वत्स उत्तंक! मेरे घरमें मेरे 
बिना जिस किसी वस्तुकी कमी हो जाय, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।' 
उत्तंकको ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये || ८२--८४ ।। 

अथोत्तड़्क: शुश्रूषुर्गुकुनियोगमनुतिष्ठमानो गुरुकुले वसति सम । स तत्र वसमान 
उपाध्यायस्त्रीभि: सहिताभिराहूयोक्त: ।। ८५ ।। 


उत्तंक गुरुकी आज्ञाका पालन करते हुए सेवापरायण हो गुरुके घरमें रहने लगे। वहाँ 
रहते समय उन्हें उपाध्यायके आश्रयमें रहनेवाली सब स्त्रियोंने मिलकर बुलाया और कहा 
-- ८५ ॥।। 

उपाध्यायानी ते ऋतुमती, उपाध्यायश्न प्रोषितो5स्या यथायमृतुर्वन्ध्यो न भवति 
तथा क्रियतामेषा विषीदतीति ।। ८६ ।। 

तुम्हारी गुरुपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल 
जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो; इसके लिये गुरुपत्नी बड़ी चिन्तामें पड़ी हैं || ८६ ।। 

एवमुक्तस्ता: स्त्रिय: प्रत्युवाच न मया स्त्रीणां वचनादिदमकार्य करणीयम्‌ । न 
हाहमुपाध्यायेन संदिष्टोडकार्यमपि त्वया कार्यमिति ॥। ८७ ।। 

यह सुनकर उत्तंकने उत्तर दिया--'मैं स्त्रियोंक कहनेसे यह न करनेयोग्य निन्द्य कर्म 
नहीं कर सकता। उपाध्यायने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी है कि “तुम न करनेयोग्य कार्य भी 
कर डालना” || ८७ || 

तस्य पुनरुपाध्याय: कालान्तरेण गृहमाजगाम तस्मात्‌ प्रवासात्‌ | स तु तद्‌ वृत्तं 
तस्याशेषमुपलभ्य प्रीतिमानभूत्‌ || ८८ ।। 

इसके बाद कुछ काल बीतनेपर उपाध्याय वेद परदेशसे अपने घर लौट आये। आनेपर 
उन्हें उत्तंकका सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, इससे वे बड़े प्रसन्न हुए || ८८ ।। 

उवाच चैनं वत्सोत्तड़क कि ते प्रियं करवाणीति । धर्मतो हि शुश्रूषितो5स्मि 
भवता तेन प्रीति: परस्परेण नौ संवृद्धा तदनुजाने भवन्तं सर्वानिव कामानवाप्स्यसि 
गम्यतामिति ॥। ८९ ।। 

और बोले--*बेटा उत्तंक! तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? तुमने धर्मपूर्वक मेरी सेवा 
की है। इससे हम दोनोंकी एक-दूसरेके प्रति प्रीति बहुत बढ़ गयी है। अब मैं तुम्हें घर 
लौटनेकी आज्ञा देता हँ--जाओ, तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी” ।। ८९ ।। 

स एवमुक्त: प्रत्युवाच किं ते प्रियं करवाणीति, एवमाहु: ।। ९० ।। 

गुरुके ऐसा कहनेपर उत्तंक बोले--“भगवन्‌! मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? 
वृद्ध पुरुष कहते भी हैं ।। ९० ।। 

यश्चाधर्मेण वै ब्रूयाद्‌ यश्चाधर्मेण पृच्छति । 

तयोरन्यतर:ः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति ।। ९१ ।। 

जो अधर्मपूर्वक अध्यापन या उपदेश करता है अथवा जो अधर्मपूर्वक प्रश्न या अध्ययन 
करता है, उन दोनोंमेंसे एक (गुरु अथवा शिष्य) मृत्यु एवं विद्वेषको प्राप्त होता है ।। ९१ ।। 

सो5हमनुज्ञातो भवतेच्छामीष्टं गुर्वर्थमुपहर्तुमिति । तेनैवमुक्त उपाध्याय: 
प्रत्युवाच वत्सोत्तड़क उष्यतां तावदिति ॥। ९२ ।। 

अतः आपकी आज्ञा मिलनेपर मैं अभीष्ट गुरुदक्षिणा भेंट करना चाहता हूँ।” उत्तंकके 
ऐसा कहनेपर उपाध्याय बोले--*बेटा उत्तंक! तब कुछ दिन और यहीं ठहरो' ।। ९२ ।। 


स कदाचिदुपाध्यायमाहोत्तड़क आज्ञापयतु भवान्‌ कि ते प्रियमुपाहरामि 
गुर्वर्थमिति ।। ९३ ।। 

तदनन्तर किसी दिन उत्तंकने फिर उपाध्यायसे कहा--“भगवन्‌! आज्ञा दीजिये, मैं 
आपको कौन-सी प्रिय वस्तु गुरुदक्षिणाके रूपमें भेंट करूँ?” ।। ९३ ।। 

तमुपाध्याय: प्रत्युवाच वत्सोत्तड़क बहुशो मां चोदयसि गुर्वर्थमुपाहरामीति तद्‌ 
गच्छैनां प्रविश्योपाध्यायानीं पृष्छ किमुपाहरामीति ।। ९४ ॥। एषा यद्‌ ब्रवीति 
तदुपाहरस्वेति । 

यह सुनकर उपाध्यायने उनसे कहा--“वत्स उत्तंक! तुम बार-बार मुझसे कहते हो कि 
'मैं क्या गुरुदक्षिणा भेंट करूँ?” अत: जाओ, घरके भीतर प्रवेश करके अपनी गुरुपत्नीसे 
पूछ लो कि “मैं कया गुरुदक्षिणा भेंट करूँ?” ।॥। ९४ ।। “वे जो बतावें वही वस्तु उन्हें भेंट 
करो।' 

स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छद्‌ भगवत्युपाध्यायेनास्म्यनुज्ञातो गृहं 
गन्तुमिच्छामीष्टं ते गुर्वर्थमुपहत्यानूणो गन्तुमिति ॥| ९५ ॥। तदाज्ञापयतु भवती 
किमुपाहरामि गुर्वर्थमिति । 

उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उत्तंकने गुरुपत्नीसे पूछा--'देवि! उपाध्यायने मुझे घर 
जानेकी आज्ञा दी है, अतः मैं आपको कोई अभीष्ट वस्तु गुरुदक्षिणाके रूपमें भेंट करके 
गुरुके ऋणसे उऋण होकर जाना चाहता हूँ ।। ९५ ।। अत: आप जाज्ञा दें; मैं गुरुदक्षिणाके 
रूपमें कौन-सी वस्तु ला दूँ।” 

सैवमुक्तोपाध्यायानी तमुत्तड़्कं प्रत्युवाच गच्छ पौष्यं प्रति राजानं कुण्डले 
भिक्षितुं तस्य क्षत्रियया पिनद्धे । ९६ ।। 

उत्तंकके ऐसा कहनेपर गुरुपत्नी उनसे बोलीं--“वत्स! तुम राजा पौष्यके यहाँ, उनकी 
क्षत्राणी पत्नीने जो दोनों कुण्डल पहन रखे हैं, उन्हें माँग लानेके लिये जाओ || १६ ।। 

ते आनयस्व चतुर्थेडहनि पुण्यकं भविता ताभ्यामाबद्धाभ्यां शोभमाना ब्राह्मणान्‌ 
परिवेष्टमिच्छामि । तत्‌ सम्पादयस्व, एवं हि कुर्वतः श्रेयो भवितान्यथा कुतः श्रेय 
इति ।। ९७ || 

“और उन कुण्डलोंको शीघ्र ले आओ। आजके चौथे दिन पुण्यक व्रत होनेवाला है, मैं 
उस दिन कानोंमें उन कुण्डलोंको पहनकर सुशोभित हो ब्राह्मणोंको भोजन परोसना चाहती 
हूँ; अतः तुम मेरा यह मनोरथ पूर्ण करो। तुम्हारा कल्याण होगा। अन्यथा कल्याणकी प्राप्ति 
कैसे सम्भव है?” ।। ९७ ।। 

स॒ एवमुक्तस्तया प्रातिष्ठतोत्तड़ुक: स पथि गच्छन्नपश्यदृषभमतिप्रमाणं 
तमधिरूढं च पुरुषमतिप्रमाणमेव स पुरुष उत्तड़कमभ्यभाषत ।। ९८ ।। 

गुरुपत्नीके ऐसा कहनेपर उत्तंक वहाँसे चल दिये। मार्गमें जाते समय उन्होंने एक बहुत 
बड़े बैलको और उसपर चढ़े हुए एक विशालकाय पुरुषको भी देखा। उस पुरुषने उत्तंकसे 


कहा-- ॥। ९८ ।। 

भो उत्तड़कैतत्‌ पुरीषमस्य ऋषभस्य भक्षयस्वेति स एवमुक्तो नैच्छत्‌ ।। ९९ ।। 

“उत्तंक! तुम इस बैलका गोबर खा लो।' किंतु उसके ऐसा कहनेपर भी उत्तंकको वह 
गोबर खानेकी इच्छा नहीं हुई ।। ९९ ।। 

तमाह पुरुषो भूयो भक्षयस्वोत्तड़क मा विचारयोपाध्यायेनापि ते भक्षितं 
पूर्वमिति । १०० ।। 

तब वह पुरुष फिर उनसे बोला--“उत्तंक! खा लो, विचार न करो। तुम्हारे उपाध्यायने 
भी पहले इसे खाया था” ।। १०० ।। 

स एवमुक्तो बाढमित्युक्त्वा तदा तद्‌ वृषभस्य मूत्र पुरीषं च भक्षयित्वोत्तड़कः 
सम्भ्रमादुत्थित एवाप उपस्पृश्य प्रतस्थे ।। १०१ ।। 

उसके पुनः ऐसा कहनेपर उत्तंकने “बहुत अच्छा” कहकर उसकी बात मान ली और 
उस बैलके गोबर तथा मूत्रको खा-पीकर उतावलीके कारण खड़े-खड़े ही आचमन किया। 
फिर वे चल दिये ।। १०१ ।। 

यत्र स॒ क्षत्रियः पौष्यस्तमुपेत्यासीनमपश्यदुत्तड़क: । स 
उत्तड़कस्तमुपेत्याशीर्भिरभिनन्द्योवाच ।। १०२ ।। 

जहाँ वे क्षत्रिय राजा पौष्य रहते थे, वहाँ पहुँचकर उत्तंकने देखा--वे आसनपर बैठे हुए 
हैं, तब उत्तंकने उनके समीप जाकर आशीर्वादसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा-- ।। १०२ ।। 

अर्थी भवन्तमुपागतो5स्मीति स एनमभिवाद्योवाच भगवन्‌ पौष्य: खल्वहं किं 
करवाणीति ।। १०३ ।। 

“राजन! मैं याचक होकर आपके पास आया हूँ।” राजाने उन्हें प्रणाम करके कहा 
--“भगवन्‌! मैं आपका सेवक पौष्य हूँ; कहिये, किस आज्ञाका पालन करूँ?” ।। १०३ ।। 

तमुवाच गुर्वर्थ कुण्डलयोरथ्थेनाभ्यागतोडस्मीति । ये वै ते क्षत्रियया पिनद्धे 
कुण्डले ते भवान्‌ दातुमर्हतीति ।। १०४ ।। 

उत्तंकने पौष्यसे कहा--'राजन! मैं गुरुदक्षिणाके निमित्त दो कुण्डलोंके लिये आपके 
यहाँ आया हूँ। आपकी क्षत्राणीने जिन्हें पहन रखा है, उन्हीं दोनों कुण्डलोंको आप मुझे दे 
दें। यह आपके योग्य कार्य है” || १०४ ।। 

त॑ प्रत्युवाच पौष्य: प्रविश्यान्तः:पुरं क्षत्रिया याच्यतामिति | स तेनैवमुक्तः 
प्रविश्यान्त:पुरं क्षत्रियां नापश्यत्‌ ।। १०५ ।। 

यह सुनकर पौष्यने उत्तंकसे कहा--'ब्रह्मन! आप अन्तःपुरमें जाकर क्षत्राणीसे वे 
कुण्डल माँग लें।” राजाके ऐसा कहनेपर उत्तंकने अन्तःपुरमें प्रवेश किया, किंतु वहाँ उन्हें 
क्षत्राणी नहीं दिखायी दी || १०५ ।। 

स पौष्यं पुनरुवाच न युक्त भवताहमनृतेनोपचरितुं न हि तेडन्तःपुरे क्षत्रिया 
सन्निहिता नैनां पश्यामि ।। १०६ ।। 


तब वे पुनः राजा पौष्यके पास आकर बोले--'राजन्‌! आप मुझे संतुष्ट करनेके लिये 
झूठी बात कहकर मेरे साथ छल करें, यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके अन्तःपुरमें 
क्षत्राणी नहीं हैं, क्योंकि वहाँ वे मुझे नहीं दिखायी देती हैं" | १०६ ।। 

स एवमुक्त: पौष्य: क्षणमात्र विमृश्योत्तड्कं प्रत्युवाच नियतं भवानुच्छिष्ट: समर 
तावन्न हि सा क्षत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना शकक्‍्या द्रष्टं पतिव्रतात्वात्‌ू सैषा 
नाशुचेर्दर्शनमुपैतीति ।। १०७ ।। 

उत्तंकके ऐसा कहनेपर पौष्यने एक क्षणतक विचार करके उन्हें उत्तर दिया--“निश्चय 
ही आप जूँठे मुँह हैं, स्मरण तो कीजिये, क्योंकि मेरी क्षत्राणी पतिव्रता होनेके कारण 
उच्छिष्ट-- अपवित्र मनुष्यके द्वारा नहीं देखी जा सकती हैं। आप उच्छिष्ट होनेके कारण 
अपवित्र हैं, इसलिये वे आपकी दृष्टिमें नहीं आ रही हैं! | १०७ ।। 

अथैवमुक्त उत्तड़क: स्मृत्वोवाचास्ति खलु मयोत्थितेनोपस्पृष्टं गच्छतां चेति । तं 
पौष्य: प्रत्युवाच--एष ते व्यतिक्रमो नोत्थितेनोपस्पृष्ट भवतीति शीघ्रं गच्छता 
चेति ।। १०८ ।। 

उनके ऐसा कहनेपर उत्तंकने स्मरण करके कहा--'हाँ, अवश्य ही मुझमें अशुद्धि रह 
गयी है। यहाँकी यात्रा करते समय मैंने खड़े होकर चलते-चलते आचमन किया है।” तब 
पौष्यने उनसे कहा--'ब्रह्मन! यही आपके द्वारा विधिका उल्लंघन हुआ है। खड़े होकर और 
शीघ्रतापूर्वक चलते-चलते किया हुआ आचमन नहींके बराबर है” || १०८ ।। 

अथोत्तड़कस्तं तथेत्युक्त्वा प्राइ़मुख उपविश्य सुप्रक्षालितपाणिपादवदनो 
निःशब्दाभिरफेनाभिरनुष्णाभि्वद्गताभिरद्धिस्त्रि.. पीत्वा द्विः परिमृज्य 
खान्यद्धिरुपस्पृश्य चान्त:पुरं प्रविवेश ।। १०९ ।। 

तत्पश्चात्‌ उत्तंक राजासे “ठीक है” ऐसा कहकर हाथ, पैर और मुँह भलीभाँति धोकर 
पूर्वाभिमुख हो आसनपर बैठे और हृदयतक पहुँचनेयोग्य शब्द तथा फेनसे रहित शीतल 
जलके द्वारा तीन बार आचमन करके उन्होंने दो बार अँगूठेके मूल भागसे मुख पोंछा और 
नेत्र, नासिका आदि इन्द्रिय-गोलकोंका जलसहित अंगुलियोंद्वारा स्पर्श करके अन्तःपुरमें 
प्रवेश किया || १०९ ।। 

ततस्तां क्षत्रियामपश्यत्‌, सा च दृष्ट्वैवोत्तड्कं प्रत्युत्थायाभिवाद्योवाच स्वागतं ते 
भगवन्नाज्ञापय कि करवाणीति ॥। ११० ।। 

तब उन्हें क्षत्राणीका दर्शन हुआ। महारानी उत्तंकको देखते ही उठकर खड़ी हो गयीं 
और प्रणाम करके बोलीं--'भगवन्‌! आपका स्वागत है, आज्ञा दीजिये, मैं क्‍या सेवा 
करूँ?” ।। ११० ।। 

स तामुवाचैते कुण्डले गुर्वर्थ मे भिक्षिते दातुरमहसीति । सा प्रीता तेन तस्य 
सद्भावेन पात्रमयमनतिक्रमणीयश्नेति मत्वा ते कुण्डलेडवमुच्यास्मै प्रायच्छदाह 
तक्षको नागराज: सुभशं प्रार्थयत्यप्रमत्तो नेतुमरहसीति ।। १११ ।। 


उत्तंकने महारानीसे कहा--'देवि! मैंने गुरुक लिये आपके दोनों कुण्डलोंकी याचना की 
है। वे ही मुझे दे दें।” महारानी उत्तंकके उस सद्भाव (गुरुभक्ति)-से बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने 
यह सोचकर कि ये सुपात्र ब्राह्मण हैं, इन्हें निराश नहीं लौटाना चाहिये/--अपने दोनों 
कुण्डल स्वयं उतारकर उन्हें दे दिये और उनसे कहा--“ब्रह्मन! नागराज तक्षक इन 
कुण्डलोंको पानेके लिये बहुत प्रयत्नशील हैं। अतः आपको सावधान होकर इन्हें ले जाना 
चाहिये! || १११ ।। 

स एवमुक्तस्तां क्षत्रियां प्रत्युवाच भगवति सुनिर्वता भव । न मां शक्तस्तक्षको 
नागराजो धर्षयितुमिति ॥। ११२ ।। 

रानीके ऐसा कहनेपर उत्तंकने उन क्षत्राणीसे कहा--'देवि! आप निश्षिन्त रहें। नागराज 
तक्षक मुझसे भिड़नेका साहस नहीं कर सकता” ।। ११२ |। 

स एवमुक्‍त्वा तां क्षत्रियामामन्त्रय पौष्पसकाशमागच्छत्‌ । आह चैनं भो: पौष्य 
प्रीतो5स्मीति तमुत्तड्क॑ पौष्य: प्रत्युवाच ।। ११३ ।। 

महारानीसे ऐसा कहकर उनसे आज्ञा ले उत्तंक राजा पौष्यके निकट आये और बोले 
--“महाराज पौष्य! मैं बहुत प्रसन्न हूँ (और आपसे विदा लेना चाहता हूँ)।' यह सुनकर 
पौष्यने उत्तंकसे कहा-- || ११३ ।। 

भगवंश्विरेण पात्रमासाद्यते भवांश्व गुणवानतिथिस्तदिच्छे श्राद्धं कर्तु क्रियतां 
क्षण इति । ११४ ।। 

“भगवन्‌! बहुत दिनोंपर कोई सुपात्र ब्राह्मण मिलता है। आप गुणवान्‌ अतिथि पधारे 
हैं, अतः मैं श्राद्ध करना चाहता हूँ। आप इसमें समय दीजिये” || ११४ ।। 

तमुत्तड़क: प्रत्युवाच कृतक्षण एवास्मि शीघ्रमिच्छामि यथोपपन्नमन्नमुपस्कृतं 
भवतेति स तथेत्युक्त्वा यथोपपन्नेनान्नेनेने भोजयामास ।। ११५ || 

तब उत्तंकने राजासे कहा--“मेरा समय तो दिया ही हुआ है, किंतु शीघ्रता चाहता हूँ। 
आपके यहाँ जो शुद्ध एवं सुसंस्कृत भोजन तैयार हो उसे मँगाइये।” राजाने “बहुत अच्छा” 
कहकर जो भोजन-सामग्री प्रस्तुत थी, उसके द्वारा उन्हें भोजन कराया ।। ११५ |। 

अथोत्तड़क: सकेशं शीतमन्नं दृष्टवा अशुच्येतदिति मत्वा तं पौष्यमुवाच 
यस्मान्मे5शुच्यन्नं ददासि तस्मादन्धो भविष्यसीति ।। ११६ ।। 

परंतु जब भोजन सामने आया, तब उत्तंकने देखा, उसमें बाल पड़ा है और वह ठण्डा 
हो चुका है। फिर तो “यह अपवित्र अन्न है” ऐसा निश्चय करके वे राजा पौष्यसे बोले--“आप 
मुझे अपवित्र अन्न दे रहे हैं, अतः अन्धे हो जायँगे” ।। ११६ ।। 

त॑ पौष्य: प्रत्युवाच यस्मात्त्वमप्यदुष्टमन्नं दूषयसि तस्मात्त्वमनपत्यो भविष्यसीति 
तमुत्तड़क: प्रत्युवाच ।। ११७ ।। 

तब पौष्यने भी उन्हें शापके बदले शाप देते हुए कहा--'आप शुद्ध अन्नको भी दूषित 
बता रहे हैं, अतः आप भी संतानहीन हो जायूँगे।” तब उत्तंक राजा पौष्यसे बोले 


-- | ११७ || 

न युक्त भवतान्नमशुचि दत्त्वा प्रतिशापं दातुं तस्मादन्नमेव प्रत्यक्षीकुरु । ततः 
पौष्यस्तदन्नमशुचि दृष्टवा तस्याशुचिभावमपरोक्षयामास ।॥। ११८ ।। 

“महाराज! अपवित्र अन्न देकर फिर बदलेमें शाप देना आपके लिये कदापि उचित नहीं 
है। अतः पहले अन्नको ही प्रत्यक्ष देख लीजिये।” तब पौष्यने उस अन्नको अपवित्र देखकर 
उसकी अपवित्रताके कारणका पता लगाया ।। ११८ ।। 

अथ तदन्नं मुक्तकेश्या स्त्रिया यत्‌ कृतमनुष्णं सकेशं चाशुच्येतदिति मत्वा 
तमृषिमुत्तड़क॑ प्रसादयामास ।। ११९ ।। 

वह भोजन खुले केशवाली स्त्रीने तैयार किया था। अतः उसमें केश पड़ गया था। 
देरका बना होनेसे वह ठण्डा भी हो गया था। इसलिये वह अपवित्र है, इस निश्चयपर 
पहुँचकर राजाने उत्तंक ऋषिको प्रसन्न करते हुए कहा-- || ११९ ।। 

भगवजन्नेतदज्ञानादन्न॑ं सकेशमुपाहतं शीतं तत्‌ क्षामये भवन्तं न भवेयमन्ध इति 
तमुत्तड़क: प्रत्युवाच || १२० ।। 

'भगवन्‌! यह केशयुक्त और शीतल अन्न अनजानमें आपके पास लाया गया है। अतः 
इस अपराधके लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। आप ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मैं अन्धा न 
होऊँ।” तब उत्तंकने राजासे कहा-- || १२० ।। 

न मृषा ब्रवीमि भूत्वा त्वमन्धो न चिरादनन्धो भविष्यसीति | ममापि शापो 
भवता दत्तो न भवेदिति ।। १२१ ।। 

“राजन! मैं झूठ नहीं बोलता। आप पहले अन्धे होकर फिर थोड़े ही दिनोंमें इस दोषसे 
रहित हो जायूँगे। अब आप भी ऐसी चेष्टा करें, जिससे आपका दिया हुआ शाप मुझपर 
लागू न हो” || १२१ ।। 

त॑ पौष्य: प्रत्युवाच न चाहं शक्तः शापं प्रत्यादातुं न हि मे मन्युरद्याप्युपशमं 
गच्छति कि चैतद्‌ भवता न ज्ञायते यथा-- ॥। १२२ ।। 

नवनीतं ह्ृदयं ब्राह्मणस्य 

वाचि क्षुरो निहितस्तीक्षणधार: । 
तदुभयमेतद्‌ू विपरीत क्षत्रियस्य 
वाड्नवनीतं हृदयं तीक्ष्णधारम्‌ | इति || १२३ ।। 

यह सुनकर पौष्यने उत्तंकसे कहा--“मैं शापको लौटानेमें असमर्थ हूँ, मेरा क्रोध 
अभीतक शान्त नहीं हो रहा है। क्या आप यह नहीं जानते कि ब्राह्मणका हृदय मक्खनके 
समान मुलायम और जल्दी पिघलनेवाला होता है? केवल उसकी वाणीमें ही तीखी धारवाले 
छुरेका-सा प्रभाव होता है। किंतु ये दोनों ही बातें क्षत्रियके लिये विपरीत हैं। उसकी वाणी 
तो नवनीतके समान कोमल होती है, लेकिन हृदय पैनी धारवाले छुरेके समान तीखा होता 
है ।। १२२-१२३ ।। 


तदेवं गते न शक्तो5हं तीक्षणहृदयत्वात्‌ तं शापमन्यथा कर्तु गम्यतामिति । 
तमुत्तड़क: प्रत्युवाच भवताहमन्नस्याशुचिभावमालक्ष्य प्रत्यनुनीत: प्राक्‌ च 
तेडभिहितम्‌ ।। १२४ ॥। यस्माददुष्टमन्नं दूषयसि तस्मादनपत्यो भविष्यसीति । दुष्टे 
चान्ने नैष मम शापो भविष्यतीति ॥। १२५ ।। 

“अतः ऐसी दशामें कठोरहृदय होनेके कारण मैं उस शापको बदलनेमें असमर्थ हूँ। 
इसलिये आप जाइये।” तब उत्तंक बोले--'राजन्‌! आपने अन्नकी अपवित्रता देखकर मुझसे 
क्षमाके लिये अनुनय-विनय की है, किंतु पहले आपने कहा था कि “तुम शुद्ध अन्नको दूषित 
बता रहे हो, इसलिये संतानहीन हो जाओगे।” इसके बाद अन्नका दोषयुक्त होना प्रमाणित 
हो गया, अत: आपका यह शाप मुझपर लागू नहीं होगा” ।। १२४-१२५ || 

साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तड़कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सो5पश्यदथ पथि 
नग्नं क्षपषणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दश्यमानमदृश्यमानं च ।। १२६ ।। 

“अब हम अपना कार्यसाधन कर रहे हैं।' ऐसा कहकर उत्तंक दोनों कुण्डलोंको लेकर 
वहाँसे चल दिये। मार्गमें उन्होंने अपने पीछे आते हुए एक नग्न क्षपणकको देखा जो बार- 
बार दिखायी देता और छिप जाता था ।। १२६ ।। 

अथोत्तड़कस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदकार्थ प्रचक्रमे । एतस्मिन्नन्तरे स 
क्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत्‌ ।। १२७ ।। 

कुछ दूर जानेके बाद उत्तंकने उन कुण्डलोंको एक जलाशयके किनारे भूमिपर रख 
दिया और स्वयं जलसम्बन्धी कृत्य (शौच, स्नान, आचमन, संध्यातर्पण आदि) करने लगे। 
इतनेमें ही वह क्षपणक बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आया और दोनों कुण्डलोंको लेकर 
चंपत हो गया ।। १२७ ।। 

तमुत्तड़को5भिसृत्य कृतोदककार्य: शुचि: प्रयतो नमो देवेभ्यो गुरुभ्यश्न कृत्वा 
महता जवेन तमन्वयात्‌ ॥। १२८ ।। 

उत्तंकने स्नान-तर्पण आदि जलसम्बन्धी कार्य पूर्ण करके शुद्ध एवं पवित्र होकर 
देवताओं तथा गुरुओंको नमस्कार किया और जलसे बाहर निकलकर बड़े वेगसे उस 
क्षपणकका पीछा किया ।। १२८ ।। 

तस्य तक्षको दृढ्मासन्न: स तं जग्राह गृहीतमात्र: स तद्रूपं विहाय तक्षकस्वरूपं 
कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं॑ प्रविवेश || १२९ ।। 

वास्तवमें वह नागराज तक्षक ही था। दौड़नेसे उत्तंकके अत्यन्त समीपवर्ती हो गया। 
उत्तंकने उसे पकड़ लिया। पकड़में आते ही उसने क्षपणकका रूप त्याग दिया और तक्षक 
नागका रूप धारण करके वह सहसा प्रकट हुए पृथ्वीके एक बहुत बड़े विवरमें घुस 
गया ।। १२९ |। 

प्रविश्य च नागलोकं॑ स्वभवनमगच्छत्‌ । अथोत्तड्कस्तस्या: क्षत्रियाया वचः 
स्मृत्वा तं तक्षकमन्वगच्छत्‌ ।। १३० ।। 


बिलमें प्रवेश करके वह नागलोकमें अपने घर चला गया। तदनन्तर उस क्षत्राणीकी 
बातका स्मरण करके उत्तंकने नागलोकतक उस तक्षकका पीछा किया ।। १३० |। 

स तद्‌ बिलं दण्डकाछ्लेन चखान न चाशकत्‌ । तं क्लिश्यमानमिन्द्रोडपश्यत्‌ स 
वजन प्रेषयामास ।। १३१ ।। 

पहले तो उन्होंने उस विवरको अपने डंडेकी लकड़ीसे खोदना आरम्भ किया, किंतु 
इसमें उन्हें सफलता न मिली। उस समय इन्द्रने उन्हें क्लेश उठाते देखा तो उनकी 
सहायताके लिये अपना वज्र भेज दिया ।। १३१ ।। 

गच्छास्य ब्राह्मणस्य साहाय्यं कुरुष्वेति । अथ वज्ं दण्डकाष्ठमनुप्रविश्य तद्‌ 
बिलमदारयत्‌ ।। १३२ ।। 

उन्होंने वज़से कहा--“जाओ, इस ब्राह्मणकी सहायता करो।” तब वज्ने डंडेकी 
लकड़ीमें प्रवेश करके उस बिलको विदीर्ण कर दिया (इससे पाताललोकमें जानेके लिये 
मार्ग बन गया) ।। १३२ ।। 

तमुत्तड़को5नुविवेश तेनैव बिलेन प्रविश्य च तं 
नागलोकमपर्यन्तमनेकविधप्रासादहर्म्यवलभीनिर्यूहशतसंकुलमुच्चावचक्रीडा श्चर्य 
स्थानावकीर्णमपश्यत्‌ ।। १३३ ।॥। स तत्र नागांस्तानस्तुवदेभि: श्लोकै:-- 

य ऐरावतराजान: सर्पा: समितिशोभना: । 

क्षरन्त इव जीमूता: सविद्युत्पवनेरिता: ।। १३४ ।। 

तब उत्तंक उस बिलमें घुस गये और उसी मार्गसे भीतर प्रवेश करके उन्होंने 
नागलोकका दर्शन किया, जिसकी कहीं सीमा नहीं थी। जो अनेक प्रकारके मन्दिरों, महलों, 
झुके हुए छज्जोंवाले ऊँचे-ऊँचे मण्डपों तथा सैकड़ों दरवाजोंसे सुशोभित और छोटे-बड़े 
अदभुत क्रीडास्थानोंसे व्याप्त था। वहाँ उन्होंने इन श्लोकोंद्वारा उन नागोंका स्तवन किया 
--ऐरावत जिनके राजा हैं, जो समरांगणमें विशेष शोभा पाते हैं, बिजली और वायुसे प्रेरित 
हो जलकी वर्षा करनेवाले बादलोंकी भाँति बाणोंकी धारावाहिक वृष्टि करते हैं, उन सर्पोकी 
जय हो ।। १३३-१३४ ।। 

सुरूपा बहुरूपाश्च तथा कल्माषकुण्डला: । 

आदित्यवन्नाकपृष्ठे रेजुरैरावतोद्धवा: ।। १३५ ।। 

ऐरावतकुलनमें उत्पन्न नागगणोंमेंसे कितने ही सुन्दर रूपवाले हैं, उनके अनेक रूप हैं, वे 
विचित्र कुण्डल धारण करते हैं तथा आकाशमें सूर्यदेवकी भाँति स्वर्गलोकमें प्रकाशित होते 
हैं । १३५ ।। 

बहूनि नागवेश्मानि गज्जायास्तीर उत्तरे । 

तत्रस्थानपि संस्तौमि महतः पन्नगानहम्‌ ।। १३६ ।। 

गंगाजीके उत्तर तटपर बहुत-से नागोंके घर हैं, वहाँ रहनेवाले बड़े-बड़े सर्पोकी भी मैं 
स्तुति करता हूँ || १३६ ।। 


इच्छेत्‌ को<र्काशुसेनायां चर्तुमैरावतं विना । 

शतान्यशीतिरष्टी च सहस्राणि च विंशति: ।। १३७ ।। 

सर्पाणां प्रग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रो यदैजति । 

ये चैनमुपसर्पन्ति ये च दूरपथं गता: ।। १३८ ।। 

अहमैरावतज्येष्ठ भ्रातृभ्योडकरवं नम: । 

यस्य वास: कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत्‌ पुरा || १३९ ।। 

त॑ नागराजमस्तौषं कुण्डलार्थाय तक्षकम्‌ | 

तक्षवश्चाश्वसेनश्व नित्यं सहचरावुभौ ।। १४० ।। 

कुरुक्षेत्र च वसतां नदीमिक्षुमतीमनु । 

जघन्यजस्तक्षकस्य श्रुतसेनेति य: श्रुत:ः ।। १४१ ।। 

अवसद्‌ यो महद्युम्नि प्रार्थयन्‌ नागमुख्यताम्‌ । 

करवाणि सदा चाहं नमस्तस्मै महात्मने ।। १४२ ।। 

ऐरावत नागके सिवा दूसरा कौन है, जो सूर्यदेवकी प्रचण्ड किरणोंके सैन्यमें विचरनेकी 
इच्छा कर सकता है? ऐरावतके भाई धृतराष्ट्र जब सूर्यदेवके साथ प्रकाशित होते और चलते 
हैं, उस समय अट्ठाईस हजार आठ सर्प सूर्यके घोड़ोंकी बागडोर बनकर जाते हैं। जो इनके 
साथ जाते हैं और जो दूरके मार्गपर जा पहुँचे हैं, ऐगावतके उन सभी छोटे बन्धुओंकों मैंने 
नमस्कार किया है। जिनका निवास सदा कुरुक्षेत्र और खाण्डववनमें रहा है, उन नागराज 
तक्षककी मैं कुण्डलोंके लिये स्तुति करता हूँ। तक्षक और अश्वसेन--ये दोनों नाग सदा 
साथ विचरनेवाले हैं। ये दोनों कुरुक्षेत्रमें इक्षुमती नदीके तटपर रहा करते थे। जो तक्षकके 
छोटे भाई हैं, श्रुतसेन नामसे जिनकी ख्याति है तथा जो पाताललोकमें नागराजकी पदवी 
पानेके लिये सूर्यदेवकी उपासना करते हुए कुरुक्षेत्रमें रहे हैं, उन महात्माको मैं सदा 
नमस्कार करता हूँ | १३७--१४२ ।। 

एवं स्तुत्वा स विप्रर्षिरुत्तड़को भुजगोत्तमान्‌ | 

नैव ते कुण्डले लेभे ततश्चिन्तामुपागमत्‌ ।। १४३ ।। 

इस प्रकार उन श्रेष्ठ नागोंकी स्तुति करनेपर भी जब ब्रह्मर्षि उत्तंक उन कुण्डलोंको न 
पा सके तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई ।। १४३ ।। 

एवं स्तुवन्नपि नागान्‌ यदा ते कुण्डले नालभत तदापश्यत्‌ स्त्रियौ तन्त्रे अधिरोप्य 
सुवेमे पर्ट वयन्त्यौ । तस्मिंस्तन्त्रे कृष्णा: सिताश्न तन्तवश्नक्र चापश्यद्‌ द्वादशारं 
षड्भि: कुमारै: परिवर्त्यमानं पुरुषं चापश्यदश्वंं च दर्शनीयम्‌ ।। १४४ ।॥। स तान्‌ 
सर्वास्तुष्टाव एभिममन्त्रवदेव श्लोकै: ।। १४५ ।। 

इस प्रकार नागोंकी स्तुति करते रहनेपर भी जब वे उन दोनों कुण्डलोंको प्राप्त न कर 
सके, तब उन्हें वहाँ दो स्त्रियाँ दिखायी दीं, जो सुन्दर करघेपर रखकर सूतके तानेमें वस्त्र 
बुन रही थीं, उस तानेमें उत्तंक मुनिने काले और सफेद दो प्रकारके सूत और बारह अरोंका 


एक चक्र भी देखा, जिसे छः कुमार घुमा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ पुरुष भी दिखायी दिये। 
जिनके साथ एक दर्शनीय अश्व भी था। उत्तंकने इन मन्त्रतुल्य श्लोकोंद्वारा उनकी स्तुति की 
-- || १४४-१४५ |। 
त्रीण्यर्पितान्यत्र शतानि मध्ये 
षष्टिश्व नित्यं चरति ध्रुवेडस्मिन्‌ । 
चक्रे चतुर्विशतिपर्वयोगे 
षड्‌ वै कुमारा: परिवर्तयन्ति || १४६ ।। 
यह जो अविनाशी कालचक्र निरन्तर चल रहा है, इसके भीतर तीन सौ साठ अरे हैं, 
चौबीस पर्व हैं और इस चक्रको छः कुमार घुमा रहे हैं | १४६ ।। 
तन्त्रं चेद॑ विश्वरूपे युवत्यौ 
वयतस्तन्तून्‌ सतत वर्तयन्त्यौ । 
कृष्णान्‌ सितांश्वैव विवर्तयन्त्यौ 
भूतान्यजस््रं भुवनानि चैव ।। १४७ ।। 
यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, ऐसी दो युवतियाँ सदा काले और सफेद 
तन्तुओंको इधर-उधर चलाती हुई इस वासना-जालरूपी वस्त्रको बुन रही हैं तथा वे ही 
सम्पूर्ण भूतों और समस्त भुवनोंका निरन्तर संचालन करती हैं || १४७ ।। 
वज्स्य भर्ता भुवनस्य गोप्ता 
वृत्रस्थ हन्ता नमुचेर्निहन्ता । 
कृष्णे वसानो वसने महात्मा 
सत्यानृते यो विविनक्ति लोके ।। १४८ ।। 
यो वाजिन गर्भमपां पुराणं 
वैश्वानरं वाहनमभ्युपैति । 
नमोअस्तु तस्मै जगदी श्चराय 
लोकत्रयेशाय पुरन्दराय ।। १४९ ।। 
जो महात्मा वज्र धारण करके तीनों लोकोंकी रक्षा करते हैं, जिन्होंने वृत्रासुरका वध 
तथा नमुचि दानवका संहार किया है, जो काले रंगके दो वस्त्र पहनते और लोकमें सत्य एवं 
असत्यका विवेचन करते हैं; जलसे प्रकट हुए प्राचीन वैश्वानररूप अश्वको वाहन बनाकर 
उसपर चढ़ते हैं तथा जो तीनों लोकोंके शासक हैं, उन जगदीश्वर पुरन्दरको मेरा नमस्कार 
है ।। १४८-१४९ || 
ततः स एन पुरुष: प्राह प्रीतो5स्मि तेडहमनेन स्तोत्रेण कि ते प्रियं करवाणीति स 
तमुवाच ।। १५० ।। 
तब वह पुरुष उत्तंकसे बोला--“ब्रह्मन! मैं तुम्हारे इस स्तोत्रसे बहुत प्रसन्न हूँ। कहो, 
तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?” यह सुनकर उत्तंकने कहा-- || १५० ।। 


नागा मे वशमीयुरिति स चैन पुरुष: पुनर॒ुवाच एतमश्वमपाने 
धमस्वेति ।। १५१ ।। 

“सब नाग मेरे अधीन हो जायँ"--उनके ऐसा कहनेपर वह पुरुष पुनः उत्तंकसे बोला 
--“इस घोड़ेकी गुदामें फूँक मारो” || १५१ ।। 

ततो<श्वस्यापानमधमत्‌ ततो<श्वाद्धम्यमानात्‌ सर्वस््रोतो भ्य: पावकार्चिष: सधूमा 
निष्पेतु: ।। १५२ ।। 

यह सुनकर उत्तंकने घोड़ेकी गुदामें फूँक मारी। फूँकनेसे घोड़ेके शरीरके समस्त 
छिद्रोंसे धूएँसहित आगकी लपटें निकलने लगीं ।। १५२ ।। 

ताभिनागलोक उपधूपितेड्थ सम्भ्रान्तस्तक्षकोड्ग्नेस्तेजोभयाद्‌ू_ विषण्ण: 
कुण्डले गृहीत्वा सहसा भवनान्निष्क्रम्योत्तड़कमुवाच ।। १५३ ।। 

उस समय सारा नागलोक धूएँसे भर गया। फिर तो तक्षक घबरा गया और आगकी 
ज्वालाके भयसे दुःखी हो दोनों कुण्डल लिये सहसा घरसे निकल आया और उत्तंकसे बोला 
-- | १५३ || 

इमे कुण्डले गृह्नातु भवानिति स ते प्रतिजग्राहोत्तड़क: प्रतिगृह्दा च 
कुण्डलेडचिन्तयत्‌ । १५४ ।। 

“ब्रह्म! आप ये दोनों कुण्डल ग्रहण कीजिये।” उत्तंकने उन कुण्डलोंको ले लिया। 
कुण्डल लेकर वे सोचने लगे-- || १५४ ।। 

अद्य तत्‌ पुण्यकमुपाध्यायान्या दूरं चाहमभ्यागत: स कथं सम्भावयेयमिति तत 
एन॑ चिन्तयानमेव स पुरुष उवाच ।। १५५ ।। 

“अहो! आज ही गुरुपत्नीका वह पुण्यकव्रत है और मैं बहुत दूर चला आया हूँ। ऐसी 
दशामें किस प्रकार इन कुण्डलोंद्वारा उनका सत्कार कर सकूँगा?” तब इस प्रकार चिन्तामें 
पड़े हुए उत्तंकसे उस पुरुषने कहा-- || १५५ || 

उत्तड़क एनमेवाश्वमधिरोह वत्वां क्षणेनैवोपाध्यायकुलं प्रापयिष्पतीति ।। १५६ ।। 

“उत्तंक! इसी घोड़ेपर चढ़ जाओ। यह तुम्हें क्षणभरमें उपाध्यायके घर पहुँचा 
देगा” ।। १५६ || 

स तथेत्युक्त्वा तमश्वमधिरुह्य प्रत्याजगामोपाध्यायकुलमुपाध्यायानी च स्नाता 
केशानावापयन्त्युपविष्टोत्तड़को नागच्छतीति शापायास्य मनो दथे ।। १५७ ।। 

“बहुत अच्छा” कहकर उत्तंक उस घोड़ेपर चढ़े और तुरंत उपाध्यायके घर आ पहुँचे। 
इधर गुरुपत्नी स्नान करके बैठी हुई अपने केश सँवार रही थीं। “उत्तंक अबतक नहीं 
आया'--यह सोचकर उन्होंने शिष्यको शाप देनेका विचार कर लिया || १५७ ।। 

अथ तस्मिन्नन्तरे स उत्तड़कः: प्रविश्य उपाध्यायकुलमुपाध्यायानीम भ्यवादयत्‌ ते 
चास्यै कुण्डले प्रायच्छत्‌ सा चैन प्रत्युवाच ।। १५८ ।। 


इसी बीचमें उत्तंकने उपाध्यायके घरमें प्रवेश करके गुरुपत्नीको प्रणाम किया और उन्हें 
वे दोनों कुण्डल दे दिये। तब गुरुपत्नीने उत्तंकसे कहा-- || १५८ ।। 

उत्तड़क देशे काले<भ्यागत: स्वागतं ते वत्स त्वमनागसि मया न शप्तः 
श्रेयस्तवोपस्थितं सिद्धिमाप्रुहीति | १५९ ।। 

“उत्तंक! तू ठीक समयपर उचित स्थानमें आ पहुँचा। वत्स! तेरा स्वागत है। अच्छा 
हुआ जो बिना अपराधके ही तुझे शाप नहीं दिया। तेरा कल्याण उपस्थित है, तुझे सिद्धि 
प्राप्त हो || १५९ ।। 

अथोत्तड़क उपाध्यायमभ्यवादयत्‌ । तमुपाध्याय: प्रत्युवाच वत्सोत्तड़क स्वागतं 
ते किं चिरं कृतमिति ।। १६० ।। 

तदनन्तर उत्तंकने उपाध्यायके चरणोंमें प्रणाम किया। उपाध्यायने उससे कहा--“वत्स 
उत्तंक! तुम्हारा स्वागत है। लौटनेमें देर क्यों लगायी?” ।। १६० ।। 

तमुत्तड़क उपाध्यायं प्रत्युवाच भोस्तक्षकेण मे नागराजेन विघ्न: कृतो5स्मिन्‌ 
कर्मणि तेनास्मि नागलोक॑ गत: ।। १६१ ।। 

तब उत्तंकने उपाध्यायको उत्तर दिया--'भगवन्‌! नागराज तक्षकने इस कार्यमें विघ्न 
डाल दिया था। इसलिये मैं नागलोकमें चला गया था ।। १६१ ।। 

तत्र च मया दृष्टे स्त्रियां तन्त्रेडथिरोप्य पर्ट वयन्त्यौ तस्मिंश्न कृष्णा: सिताश्न 
तनन्‍्तव: कि तत्‌ ।। १६२ ।। 

“वहीं मैंने दो स्त्रियाँ देखी, जो करघेपर सूत रखकर कपड़ा बुन रही थीं। उस करघेमें 
काले और सफेद रंगके सूत लगे थे। वह सब क्या था? ।। १६२ ।। 

तत्र च मया चक्र दृष्ट द्वादशारं षट्‌ चैनं कुमारा: परिवर्तयन्ति तदपि किम्‌ । 
पुरुषश्चापि मया दृष्ट: स चापि कः । अभश्वश्लातिप्रमाणो दृष्ट: स चापि क: ।। १६३ ।। 

“वहीं मैंने एक चक्र भी देखा, जिसमें बारह अरे थे। छः: कुमार उस चक्रको घुमा रहे थे। 
वह भी क्या था? वहाँ एक पुरुष भी मेरे देखनेमें आया था। वह कौन था? तथा एक बहुत 
बड़ा अश्व भी दिखायी दिया था। वह कौन था? ।। १६३ ।। 

पथि गच्छता च मया ऋषभो दृष्टस्तं च पुरुषो5धिरूढस्तेनास्मि सोपचारमुक्त 
उत्तड़कास्य ऋषभस्य पुरीषं भक्षय उपाध्यायेनापि ते भक्षितमिति ।। १६४ ।। 

इधरसे जाते समय मार्गमें मैंने एक बैल देखा, उसपर एक पुरुष सवार था। उस पुरुषने 
मुझसे आग्रहपूर्वक कहा--'उत्तंक! इस बैलका गोबर खा लो। तुम्हारे उपाध्यायने भी पहले 
इसे खाया है” || १६४ ।। 

ततस्तस्य वचनान्मया तदृषभस्य पुरीषमुपयुक्ते स चापि कः । तदेतद्‌ 
भवतोपदिष्टमिच्छेयं श्रोतुं किं तदिति । स तेनैवमुक्त उपाध्याय: प्रत्युवाच || १६५ ।। 

“तब उस पुरुषके कहनेसे मैंने उस बैलका गोबर खा लिया। अतः वह बैल और पुरुष 
कौन थे? मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ, वह सब क्या था?” उत्तंकके इस प्रकार 


पूछनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया-- || १६५ ।। 

ये ते स्त्रियौ धाता विधाता च ये च ते कृष्णा: सितास्तन्तवस्ते रातज्यहनी । यदपि 
तच्चक्रं द्वादशारं षड़्‌ वै कुमारा: परिवर्तयन्ति तेडपि षड़्‌ ऋतव: द्वादशारा द्वादश 
मासा: संवत्सरश्षक्रम्‌ ।। १६६ ।। 

वे जो दोनों स्त्रियाँ थीं, वे धाता और विधाता हैं। जो काले और सफेद तन्‍्तु थे, वे रात 
और दिन हैं। बारह अरोंसे युक्त चक्रको जो छ: कुमार घुमा रहे थे, वे छः ऋतुएँ हैं। बारह 
महीने ही बारह अरे हैं। संवत्सर ही वह चक्र है ।। १६६ ।। 

यः पुरुष: स पर्जन्यो यो<श्वः सोडग्निर्य ऋषभस्त्वया पथि गच्छता दृष्ट: स 
ऐरावतो नागराट्‌ ।। १६७ ।। 

“जो पुरुष था, वह पर्जन्य (इन्द्र) है। जो अश्व था वह अग्नि है। इधरसे जाते समय 
मार्गमें तुमने जिस बैलको देखा था, वह नागराज ऐरावत हैं ।। १६७ ।। 

यश्नैनमधिरूढ: पुरुष: स चेन्द्रो यदपि ते भक्षितं तस्य ऋषभस्य पुरीषं तदमृतं 
तेन खल्वसि तस्मिन्‌ नागभवने न व्यापन्नस्त्वम्‌ ।। १६८ ।। 

“और जो उसपर चढ़ा हुआ पुरुष था, वह इन्द्र है। तुमने बैलके जिस गोबरको खाया 
है, वह अमृत था। इसीलिये तुम नागलोकमें जाकर भी मरे नहीं ।। १६८ ।। 

स हि भगवानिन्द्रो मम सखा त्वदनुक्रोशादि-ममनुग्रहं कृतवान्‌ । तस्मात्‌ कुण्डले 
गृहीत्वा पुनरागतोडसि ।। १६९ ।। 

“वे भगवान्‌ इन्द्र मेरे सखा हैं। तुमपर कृपा करके ही उन्होंने यह अनुग्रह किया है। यही 
कारण है कि तुम दोनों कुण्डल लेकर फिर यहाँ लौट आये हो ।। १६९ ।। 

तत्‌ सौम्य गम्यतामनुजाने भवन्तं श्रेयोडवाप्स्यसीति । स उपाध्यायेनानुज्ञातो 
भगवानुत्तड़कः: क्रुद्धस्तक्षकं प्रतिचिकीर्षमाणो हास्तिनपुरं प्रतस्थे || १७० ।। 

“अतः सौम्य! अब तुम जाओ, मैं तुम्हें जानेकी आज्ञा देता हूँ। तुम कल्याणके भागी 
होओगे।” उपाध्यायकी आज्ञा पाकर उत्तंक तक्षकके प्रति कुपित हो उससे बदला लेनेकी 
इच्छासे हस्तिनापुरकी ओर चल दिये ।। १७० ।। 

स हास्तिनपुरं प्राप्प न चिराद्‌ विप्रसत्तम: । 

समागच्छत राजानमुत्तड़को जनमेजयम्‌ ।। १७१ ।। 

हस्तिनापुरमें शीघ्र पहुँचकर विप्रवर उत्तंक राजा जनमेजयसे मिले ।। १७१ ।। 

पुरा तक्षशिलासंस्थ॑ं निवृत्तमपराजितम्‌ । 

सम्यग्विजयिन दृष्टवा समन्तान्मन्त्रिभिवृतम्‌ ।। १७२ ।। 

तस्मै जयाशिष: पूर्व यथान्यायं प्रयुज्य सः । 

उवाचैनं वच: काले शब्दसम्पन्नया गिरा || १७३ ।। 

जनमेजय पहले तक्षशिला गये थे। वे वहाँ जाकर पूर्ण विजय पा चुके थे। उत्तंकने 
मन्त्रियोंसे घिरे हुए उत्तम विजयसे सम्पन्न राजा जनमेजयको देखकर पहले उन्हें न्यायपूर्वक 


जयसम्बन्धी आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात्‌ उचित समयपर उपयुक्त शब्दोंसे विभूषित 
वाणीद्वारा उनसे इस प्रकार कहा-- ।। १७२-१७३ ।। 
उत्तड्ुक उवाच 

अन्यस्मिन्‌ करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम | 

बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम ।। १७४ ।। 

उत्तंक बोले--नृपश्रेष्ठ! जहाँ तुम्हारे लिये करनेयोग्य दूसरा कार्य उपस्थित हो, वहाँ 
अज्ञानवश तुम कोई और ही कार्य कर रहे हो ।। १७४ ।। 

सौतिर्वाच 


एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजय: । 
अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम्‌ | १७५ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--विप्रवर उत्तंकके ऐसा कहनेपर राजा जनमेजयने उन 
द्विजश्रेष्ठका विधिपूर्वक पूजन किया और इस प्रकार कहा ।। १७५ ।। 
जनमेजय उवाच 
आसां प्रजानां परिपालनेन 
स्वं क्षत्रधर्म परिपालयामि । 
प्रत्रुहि मे किं करणीयमद्य 
येनासि कार्येण समागतस्त्वम्‌ । १७६ ।। 
जनमेजय बोले--्रह्मन! मैं इन प्रजाओंकी रक्षाद्वारा अपने क्षत्रियरधर्मका पालन 
करता हूँ। बताइये, आज मेरे करनेयोग्य कौन-सा कार्य उपस्थित है? जिसके कारण आप 
यहाँ पधारे हैं ।। १७६ ।। 
सौतिर्वाच 
स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन 
द्विजोत्तम: पुण्यकृतां वरिष्ठ: । 
उवाच राजानमदीनसत्त्व॑ 
स्वमेव कार्य नृपते कुरुष्व || १७७ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयके इस प्रकार कहनेपर पुण्यात्माओंमें 
अग्रगण्य विप्रवर उत्तंकने उन उदार हृदयवाले नरेशसे कहा--“महाराज! वह कार्य मेरा 
नहीं, आपका ही है, आप उसे अवश्य कीजिये” ।। १७७ ।। 
उत्तड़क उवाच 
तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसित: पिता । 


तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने | १७८ ।। 

इतना कहकर उत्तंक फिर बोले--भूपालशिरोमणे! नागराज तक्षकने आपके 
पिताकी हत्या की है; अतः आप उस दुरात्मा सर्पसे इसका बदला लीजिये ।। १७८ ।। 

कार्यकाल हि मन्ये5हं विधिदृष्टस्थ कर्मण: । 

तद्गच्छापचितिं राजन्‌ पितुस्तस्य महात्मन: ।। १७९ ।। 

मैं समझता हूँ, शत्रुनाशन-कार्यकी सिद्धिके लिये जो सर्पयज्ञरूप कर्म शास्त्रमें देखा 
गया है, उसके अनुष्ठानका यह उचित अवसर प्राप्त हुआ है। अतः राजन! अपने महात्मा 
पिताकी मृत्युका बदला आप अवश्य लें ।। १७९ || 

तेन हानपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना । 

पज्चत्वमगमद्‌ राजा वज्राहत इव द्रुम: || १८० ।। 

यद्यपि आपके पिता महाराज परीक्षितने कोई अपराध नहीं किया था तो भी उस 
दुष्टात्मा सर्पने उन्हें डँस लिया और वे वज्रके मारे हुए वृक्षकी भाँति तुरंत ही गिरकर कालके 
गालमें चले गये || १८० ।। 

बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षक: पन्नगाधम: । 

अकार्य कृतवान्‌ पापो यो5दशत्‌ पितरं तव ।। १८१ ।। 

सर्पोमें अधम तक्षक अपने बलके घमण्डसे उन्मत्त रहता है। उस पापीने यह बड़ा भारी 
अनुचित कर्म किया जो आपके पिताको डँस लिया ।। १८१ ।। 

राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम्‌ । 

यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत पापकृत्‌ । १८२ ।। 

वे महाराज परीक्षित्‌ राजर्षियोंके वंशकी रक्षा करनेवाले और देवताओंके समान 
तेजस्वी थे, काश्यप नामक एक ब्राह्मण आपके पिताकी रक्षा करनेके लिये उनके पास 
आना चाहते थे, किंतु उस पापाचारीने उन्हें लौटा दिया || १८२ ।। 

होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने । 

सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद्‌ विधीयताम्‌ ।। १८३ ।। 

अतः महाराज! आप सर्पयज्ञका अनुष्ठान करके उसकी प्रज्वलित अग्निमें उस पापीको 
होम दीजिये; और जल्दी-से-जल्दी यह कार्य कर डालिये ।। १८३ ।। 

एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि । 

मम प्रियं च सुमहत्‌ कृतं राजन्‌ भविष्यति ।। १८४ ।। 

कर्मण: पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना | 

विघ्न: कृतो महाराज गुर्वर्थ चरतोडनघ ।। १८५ ।। 

ऐसा करके आप अपने पिताकी मृत्युका बदला चुका सकेंगे एवं मेरा भी अत्यन्त प्रिय 
कार्य सम्पन्न हो जायगा। समूची पृथ्वीका पालन करनेवाले नरेश! तक्षक बड़ा दुरात्मा है। 


पापरहित महाराज! मैं गुरुजीके लिये एक कार्य करने जा रहा था, जिसमें उस दुष्टने बहुत 
बड़ा विघ्न डाल दिया था ॥। १८४-१८५ |। 
सौतिर्वाच 


एतच्छुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह । 

उत्तड़कवाक्यहविषा दीप्तोडग्नि्हविषा यथा ।। १८६ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--महर्षियो! यह समाचार सुनकर राजा जनमेजय तक्षकपर 
कुपित हो उठे। उत्तंकके वाक्यने उनकी क्रोधाग्निमें घीका काम किया। जैसे घीकी आहुति 
पड़नेसे अग्नि प्रजजलित हो उठती है, उसी प्रकार वे क्रोधसे अत्यन्त कुपित हो 
गये ।। १८६ ।। 

अपृच्छत्‌ स तदा राजा मन्त्रिणस्तान्‌ सुदु:ःखित: । 

उत्तड़कस्यैव सांनिध्ये पितु: स्वर्गगतिं प्रति ॥। १८७ ।। 

उस समय राजा जनमेजयने अत्यन्त दुःखी होकर उत्तंकके निकट ही मन्त्रियोंसे 
पिताके स्वर्गगमनका समाचार पूछा ।। १८७ ।। 

तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतो5 भवत्‌ | 

यदैव वृत्तं पितरमुत्तड़कादशूणोत्‌ तदा ।। १८८ ।। 

उत्तंकके मुखसे जिस समय उन्होंने पिताके मरनेकी बात सुनी, उसी समय वे महाराज 
दुःख और शोकमें डूब गये ।। १८८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौष्यपर्वणि तृतीयो5ध्याय: ।। ३ ॥। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौष्यपर्वमें (पौष्पाख्यानविषयक) तीयरा 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ३ ॥। 


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(पौलोमपर्व) 
चतुर्थो 5 ध्याय: 


कथा-प्रवेश 


लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौति:: पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य 
कुलपतेद्धादशवार्षिके सत्रे ऋषीनभ्यागतानुपतस्थे ।। १ ।। 

नैमिषारण्यमें कुलपति शौनकके बारह वर्षोतक चालू रहनेवाले सत्रमें उपस्थित 
महर्षियोंक समीप एक दिन लोमहर्षणपुत्र सूतनन्दन उग्रश्रवा आये। वे पुराणोंकी कथा 
कहनेमें कुशल थे ।। १ ।। 

पौराणिक: पुराणे कृतश्रम: स कृताञ्जलिस्तानुवाच । कि भवन्‍न्त:ः श्रोतुमिच्छन्ति 
किमहं ब्रवाणीति ।। २ ।। 

वे पुराणोंके ज्ञाता थे। उन्होंने पुराणविद्यामें बहुत परिश्रम किया था। वे 
नैमिषारण्यवासी महर्षियोंसे हाथ जोड़कर बोले--'पूज्यपाद महर्षिगण! आपलोग क्‍या 
सुनना चाहते हैं? मैं किस प्रसंगपर बोलूँ?” ।। २ ।। 

तमृषय ऊचु: परमं लौमहर्षणे वक्ष्यामस्त्वां नः प्रतिवक्ष्यसि वच: शुश्रूषतां 
कथायोगं नः कथायोगे ।। ३ ।॥। 

तब ऋषियोंने उनसे कहा--लोमहर्षणकुमार! हम आपको उत्तम प्रसंग बतलायेंगे और 
कथा-प्रसंग प्रारम्भ होनेपर सुननेकी इच्छा रखनेवाले हमलोगोंके समक्ष आप बहुत-सी 
कथाएँ कहेंगे ।। ३ ।। 

तत्र भगवान्‌ कुलपतिस्तु शौनकोडग्निशरणमध्यास्ते ।। ४ ।। 

किंतु पूज्यपाद कुलपति भगवान्‌ शौनक अभी अग्निकी उपासनामें संलग्न हैं ।। ४ ।। 

यो5सौ दिव्या: कथा वेद देवतासुरसंश्रिता: । 

मनुष्योरगगन्धर्वकथा वेद च सर्वश: ।। ५ ।। 

वे देवताओं और असुरोंसे सम्बन्ध रखनेवाली बहुत-सी दिव्य कथाएँ जानते हैं। 
मनुष्यों, नागों तथा गन्धरवोकी कथाओंसे भी वे सर्वथा परिचित हैं ।। ५ ।। 

स चाप्यस्मिन्‌ मखे सौते विद्वान्‌ कुलपतिर्द्धिज: । 

दक्षो धृतव्रतो धीमाउ्छास्त्रे चारण्यके गुरु: ।। ६ ।। 

सूतनन्दन! वे विद्वान्‌ कुलपति विप्रवर शौनकजी भी इस यज्ञमें उपस्थित हैं। वे चतुर, 
उत्तम व्रतधारी तथा बुद्धिमान हैं। शास्त्र (श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण) तथा आरण्यक 


(बृहदारण्यक आदि)-के तो वे आचार्य ही हैं || ६ ।। 
सत्यवादी शमपरस्तपस्वी नियतव्रतः । 
सर्वेषामेव नो मान्य: स तावत्‌ प्रतिपाल्यताम्‌ ।। ७ ।। 





उग्रश्रवाजीके द्वारा महाभारतकी कथा 


वे सदा सत्य बोलनेवाले, मन और इन्द्रियोंके संयममें तत्पर, तपस्वी और नियमपूर्वक 
व्रतको निबाहनेवाले हैं। वे हम सभी लोगोंके लिये सम्माननीय हैं; अतः जबतक उनका 
आना न हो, तबतक प्रतीक्षा कीजिये || ७ ।। 

तस्मिन्नध्यासति गुरावासनं परमार्चितम्‌ | 

ततो वक्ष्यसि यत्त्वां स प्रक्ष्यति द्विजसत्तम: ।। ८ ।। 

गुरुदेव शौनक जब यहाँ उत्तम आसनपर विराजमान हो जाय, उस समय वे द्विजश्रेष्ठ 
आपसे जो कुछ पूछें, उसी प्रसंगको लेकर आप बोलियेगा ।। ८ ।। 

सौतिरवाच 

एवमस्तु गुरौ तस्मिन्नुपविष्टे महात्मनि । 

तेन पृष्ट: कथा: पुण्या वक्ष्यामि विविधाश्रया: ॥। ९ |॥। 

उग्रश्रवाजीने कहा--एवमस्तु (ऐसा ही होगा), गुरुदेव महात्मा शौनकजीके बैठ 
जानेपर उन्हींके पूछनेके अनुसार मैं नाना प्रकारकी पुण्यदायिनी कथाएँ कहूँगा ।। ९ ।। 


सो<थ विप्रर्षभ: सर्व कृत्वा कार्य यथाविधि । 

देवान्‌ वाम्भि: पितृनद्धिस्तर्पयित्वा55जगाम ह ।। १० ।। 

यत्र ब्रह्मर्षप: सिद्धा: सुखासीना धृतव्रता: । 

यज्ञायतनमा॒श्रित्य सूतपुत्रपुर:सरा: ।। ११ ।। 

तदनन्तर विप्रशिरोमणि शौनकजी क्रमश: सब कार्योंका विधिपूर्वक सम्पादन करके 
वैदिक स्तुतियोंद्वारा देववाओंको और जलकी अंजलिद्वारा पितरोंको तृप्त करनेके पश्चात्‌ 
उस स्थानपर आये, जहाँ उत्तम व्रतधारी सिद्ध-ब्रह्मर्षिगण यज्ञमण्डपमें सूतजीको आगे 
विराजमान करके सुखपूर्वक बैठे थे || १०-११ ।। 

ऋतच्विक्ष्वथ सदस्येषु स वै गृहपतिस्तदा । 

उपविष्टेषूपविष्ट: शौनको<थाब्रवीदिदम्‌ ।। १२ ।। 

ऋत्विजों और सदस्योंके बैठ जानेपर कुलपति शौनकजी भी वहाँ बैठे और इस प्रकार 
बोले ।। १२ || 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि कथाप्रवेशो नाम चतुर्थोउध्याय: ।। ४ 
|। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत पौलोगपर्वमें कथा-प्रवेश नामक चौथा 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ४ ॥/ 


ऑपनआक्रात बछ। अं क्ााज 


पञठ्चमो<ध्याय: 


भूगुके आश्रमपर पुलोमा दानवका आगमन और उसकी 
अग्निदेवके साथ बातचीत 


शौनक उवाच 


पुराणमखिलं तात पिता ते5धीतवान्‌ पुरा । 

कच्चित्‌ त्वमपि तत्‌ सर्वमधीषे लौमहर्षणे ।। १ ।। 

शौनकजीने कहा--तात लोमहर्षणकुमार! पूर्वकालमें आपके पिताने सब पुराणोंका 
अध्ययन किया था। क्या आपने भी उन सबका अध्ययन किया है? ।। १ ।। 

पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्न धीमताम्‌ | 

कथ्यन्ते ये पुरास्माभ्रि: श्रुतपूर्वा: पितुस्तव ।। २ ।। 

पुराणमें दिव्य कथाएँ वर्णित हैं। परम बुद्धिमान्‌ राजर्षियों और ब्रह्मर्षियोंके आदिवंश 
भी बताये गये हैं। जिनको पहले हमने आपके पिताके मुखसे सुना है | २ ।। 

तत्र वंशमहं पूर्व श्रोतुमिच्छामि भार्गवम्‌ | 

कथयस्व कथामेतां कल्या: सम श्रवणे तव ।। ३ ।। 

उनमेंसे प्रथम तो मैं भूगुवंशका ही वर्णन सुनना चाहता हूँ। अत: आप इसीसे सम्बन्ध 
रखनेवाली कथा कहिये। हम सब लोग आपकी कथा सुननेके लिये सर्वथा उद्यत हैं ।। ३ ।। 

सौतिर्वाच 


यदधीतं पुरा सम्यग द्विजश्रेष्ठेमहात्मभि: । 

वैशम्पायनवित्राग्र्यैस्तैश्ञापि कथितं यथा ।। ४ ।। 

सूतपुत्र उग्रश्रवाने कहा--भृगुनन्दन! वैशम्पायन आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महात्मा 
द्विजवरोंने पूर्वकालमें जो पुराण भलीभाँति पढ़ा था और उन विद्दवानोंने जिस प्रकार 
पुराणका वर्णन किया है, वह सब मुझे ज्ञात है ।। ४ ।। 

यदधीतं च पित्रा मे सम्यक्‌ चैव ततो मया । 

तावच्छूणुष्व यो देवै: सेन्‍्द्रै: सर्षिमरुदूगणै: ।। ५ ।। 

पूजित: प्रवरो वंशो भार्गवो भगुनन्दन । 

इमं वंशमहं पूर्व भार्गव ते महामुने ।। ६ ।। 

निगदामि यथा युक्त पुराणाश्रयसंयुतम्‌ । 

भृगुर्महर्षिर्भगवान्‌ ब्रह्मणा वै स्वयम्भुवा ।। ७ ।। 

वरुणस्य क्रतौ जात: पावकादिति न: श्रुतम्‌ । 

भूगो: सुदयित: पुत्रश्ष्यवनो नाम भार्गव: ।। ८ ।। 


मेरे पिताने जिस पुराणविद्याका भलीभाँति अध्ययन किया था, वह सब मैंने उन्हींके 
मुखसे पढ़ी और सुनी है। भूगुनन्दन! आप पहले उस सर्वश्रेष्ठ भुगुवंशका वर्णन सुनिये, जो 
देवता, इन्द्र, ऋषि और मरुदगणोंसे पूजित है। महामुने! आपके इस अत्यन्त दिव्य 
भार्गववंशका परिचय देता हूँ। यह परिचय अदभुत एवं युक्तियुक्त तो होगा ही, पुराणोंके 
आश्रयसे भी संयुक्त होगा। हमने सुना है कि स्वयम्भू ब्रह्माजीने वरुणके यज्ञमें महर्षि 
भगवान्‌ भृगुको अग्निसे उत्पन्न किया था। भृगुके अत्यन्त प्रिय पुत्र च्यवन हुए, जिन्हें भार्गव 
भी कहते हैं || ५--८ ।। 

च्यवनस्य च दायाद: प्रमतिर्नाम धार्मिक: । 

प्रमतेरप्यभूत्‌ पुत्रो घृताच्यां रुरुरित्युत ।। ९ ।। 

च्यवनके पुत्रका नाम प्रमति था, जो बड़े धर्मात्मा हुए। प्रमतिके घृताची नामक 
अप्सराके गर्भसे रुरु नामक पुत्रका जन्म हुआ ।। ९ ।। 

रुरोरपि सुतो जज्ञे शुन॒को वेदपारग: । 

प्रमद्वरायां धर्मात्मा तव पूर्वपितामह: ।। १० ।। 

रुरुके पुत्र शुनक थे, जिनका जन्म प्रमद्वराके गर्भसे हुआ था। शुनक वेदोंके पारंगत 
विद्वान्‌ और धर्मात्मा थे। वे आपके पूर्व पितामह थे ।। १० ।॥। 

तपस्वी च यशस्वी च श्रुतवान्‌ ब्रह्मवित्तम: | 

धार्मिक: सत्यवादी च नियतो नियताशन: ।। ११ ।। 

वे तपस्वी, यशस्वी, शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे। धर्मात्मा, सत्यवादी और मन- 
इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले थे। उनका आहार-विहार नियमित एवं परिमित था ।। ११ ।। 


शौनक उवाच 


सूतपुत्र यथा तस्य भार्गवस्य महात्मन: । 
च्यवनत्वं परिख्यातं तन्‍्ममाचक्ष्व पृच्छत: ।। १२ ।। 
शौनकजी बोले--सूतपुत्र! मैं पूछता हूँ कि महात्मा भार्गवका नाम च्यवन कैसे 
प्रसिद्ध हुआ? यह मुझे बताइये ।। १२ ।। 
सौतिर्वाच 


भगो: सुदयिता भार्या पुलोमेत्यभिविश्रुता । 

तस्यां समभवद्‌ गर्भो भृगुवीर्यसमुद्धव:ः ।। १३ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--महामुने! भूगुकी पत्नीका नाम पुलोमा था। वह अपने पतिको 
बहुत ही प्यारी थी। उसके उदरमें भृगुजीके वीर्यसे उत्पन्न गर्भ पल रहा था || १३ ।। 

तस्मिन्‌ गर्भेडथ सम्भूते पुलोमायां भृगूद्गवह । 

समये समशीलिन्यां धर्मपत्न्यां यशस्विन: ।। १४ ।। 

अभिषेकाय निष्क्रान्ते भूगौ धर्मभृतां वरे । 


आश्रमं तस्य रक्षोडथ पुलोमाभ्याजगाम ह ॥। १५ ।। 

भृगुवंशशिरोमणे! पुलोमा यशस्वी भूगुकी अनुकूल शील-स्वभाववाली धर्मपत्नी थी। 
उसकी कुक्षिमें उस गर्भके प्रकट होनेपर एक समय धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भुगुजी स्नान करनेके 
लिये आश्रमसे बाहर निकले। उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उनके 
आश्रमपर आया ।। १४-१५ || 

त॑ प्रविश्याश्रमं दृष्टवा भुगोर्भार्यामनिन्दिताम्‌ 

हृच्छयेन समाविष्टो विचेता: समपद्यत ।। १६ ।। 

आश्रममें प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षि भूगुकी पतितव्रता पत्नीपर पड़ी और वह 
कामदेवके वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा ।। १६ ।। 

अभ्यागतं तु तद्रक्ष: पुलोमा चारुदर्शना । 

न्यमन्त्रयत वन्येन फलमूलादिना तदा ।। १७ ।। 

सुन्दरी पुलोमाने उस राक्षसको अभ्यागत अतिथि मानकर वनके फल-मूल आदिसे 
उसका सत्कार करनेके लिये उसे न्योता दिया ।। १७ ।। 

तां तु रक्षस्तदा ब्रह्मन्‌ हच्छयेनाभिपीडितम्‌ । 

दृष्टवा दृष्टम भूद्‌ राजन जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम्‌ ।। १८ ।। 

ब्रह्मन! वह राक्षस कामसे पीड़ित हो रहा था। उस समय उसने वहाँ पुलोमाको अकेली 
देख बड़े हर्षका अनुभव किया, क्योंकि वह सती-साध्वी पुलोमाको हर ले जाना चाहता 
था || १८ ।। 

जातमित्यब्रवीत्‌ कार्य जिहीर्षुर्मुदित: शुभाम्‌ । 

सा हि पूर्व वृता तेन पुलोम्ना तु शुचिस्मिता ।। १९ ।। 

मनमें उस शुभलक्षणा सतीके अपहरणकी इच्छा रखकर वह प्रसन्नतासे फ़ूल उठा और 
मन-ही-मन बोला, “मेरा तो काम बन गया।” पवित्र मुसकानवाली पुलोमाको पहले उस 
पुलोमा नामक राक्षसने वरण- किया था ॥। १९ |। 

तां तु प्रादात्‌ पिता पश्चाद्‌ भृगवे शास्त्रवत्तदा । 

तस्य तत्‌ किल्बिषं नित्यं हृदि वर्तति भार्गव ।। २० || 

किंतु पीछे उसके पिताने शास्त्रविधिके अनुसार महर्षि भूगुके साथ उसका विवाह कर 
दिया। भृगुनन्दन! उसके पिताका वह अपराध राक्षसके हृदयमें सदा काँटे-सा कसकता 
रहता था || २० |। 

इदमन्तरमित्येवं हर्तु चक्रे मनस्तदा । 

अथाग्निशरणेडपश्यज्ज्वलन्तं जातवेदसम्‌ | २१ ।। 

यही अच्छा मौका है, ऐसा विचारकर उसने उस समय पुलोमाको हर ले जानेका पक्का 
निश्चय कर लिया। इतनेहीमें राक्षसने देखा, अग्निहोत्र-गृहमें अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे 
हैं ।। २१ ।। 


तमपृच्छत्‌ ततो रक्ष: पावकं ज्वलितं तदा | 

शंस मे कस्य भार्येयमग्ने पृच्छे ऋतेन वै ।। २२ ।। 

तब पुलोमाने उस समय उस प्रज्वलित पावकसे पूछा--“अग्निदेव! मैं सत्यकी शपथ 
देकर पूछता हूँ, बताओ, यह किसकी पत्नी है?” | २२ ।। 

मुखं त्वमसि देवानां वद पावक पृच्छते । 

मया हीयं वृता पूर्व भार्यार्थे वरवर्णिनी || २३ ।। 

“पावक! तुम देवताओंके मुख हो। अतः मेरे पूछनेपर ठीक-ठीक बताओ। पहले तो 
मैंने ही इस सुन्दरीको अपनी पत्नी बनानेके लिये वरण किया था ।। २३ ।। 

पश्चादिमां पिता प्रादाद्‌ भूगवेडनृतकारक: । 

सेयं यदि वरारोहा भृगोर्भार्या रहोगता ।। २४ ।। 

तथा सत्यं समाख्याहि जिहीर्षाम्याश्रमादिमाम्‌ | 

स मन्युस्तत्र हृदयं प्रदहन्निव तिष्ठति । 

मत्पूर्व भार्या यदिमां भगुराप सुमध्यमाम्‌ ।। २५ ।। 

“किंतु बादमें असत्य व्यवहार करनेवाले इसके पिताने भूगुके साथ इसका विवाह कर 
दिया। यदि यह एकान्तमें मिली हुई सुन्दरी भृगुकी भार्या है तो वैसी बात सच-सच बता दो; 
क्योंकि मैं इसे इस आश्रमसे हर ले जाना चाहता हूँ। वह क्रोध आज मेरे हृदयको दग्ध-सा 
कर रहा है; इस सुमध्यमाको, जो पहले मेरी भार्या थी, भृगुने अन्यायपूर्वक हड़प लिया 
है! ।| २४-२५ |। 

सौतिर्वाच 


एवं रक्षस्तमामन्त्रय ज्वलितं जातवेदसम्‌ । 

शड्कमानं भृगोर्भार्या पुनः पुनरपृच्छत ।। २६ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--इस प्रकार वह राक्षस भृगुकी पत्नीके प्रति, यह मेरी है या 
भगुकी--ऐसा संशय रखते हुए, प्रज्वलित अग्निको सम्बोधित करके बार-बार पूछने लगा 
-- || २६ || 

त्वमग्ने सर्वभूतानामन्तश्नर॒सि नित्यदा । 

साक्षिवत्‌ पुण्यपापेषु सत्य॑ ब्रूहि कवे वच: ।। २७ ।। 

“अग्निदेव! तुम सदा सब प्राणियोंके भीतर निवास करते हो। सर्वज्ञ अग्ने! तुम पुण्य 
और पापके विषयमें साक्षीकी भाँति स्थित रहते हो; अत: सच्ची बात बताओ ।। २७ ।। 

मत्पूर्वापह्वता भार्या भूुगुणानृतकारिणा । 

सेयं यदि तथा मे त्वं सत्यमाख्यातुमहसि ।। २८ ।। 

“असत्य बर्ताव करनेवाले भृगुने, जो पहले मेरी ही थी, उस भार्याका अपहरण किया 
है। यदि यह वही है, तो वैसी बात ठीक-ठीक बता दो || २८ ।। 


श्र॒त्वा त्वत्तो भुगोर्भाया हरिष्याम्याश्रमादिमाम्‌ | 
जातवेद: पश्यतस्ते वद सत्यां गिरं मम ।। २९ ।। 
'सर्वज्ञ अग्निदेव! तुम्हारे मुखसे सब बातें सुनकर मैं भूगुकी इस भार्याको तुम्हारे 
देखते-देखते इस आश्रमसे हर ले जाऊँगा; इसलिये मुझसे सच्ची बात कहो” ।। २९ ।। 
सौतिर्वाच 


तस्यैतद्‌ वचन श्रुत्वा सप्तार्चिदु:खितो5भवत्‌ । 
भीतो<नृताच्च शापाच्च भृगोरित्यब्रवीच्छनै: ।। ३० ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--राक्षसकी यह बात सुनकर ज्वालामयी सात जिहल्ठाओंवाले 
अग्निदेव बहुत दुःखी हुए। एक ओर वे झूठसे डरते थे तो दूसरी ओर भृगुके शापसे; अतः 
धीरेसे इस प्रकार बोले || ३० ।। 
अग्निनर्वाच 


त्वया वृता पुलोमेयं पूर्व दानवनन्दन । 

किन्त्वियं विधिना पूर्व मन्त्रवन्न वृता त्वया || ३१ ।। 

अग्निदेव बोले--दानवनन्दन! इसमें संदेह नहीं कि पहले तुम्हींने इस पुलोमाका वरण 
किया था, किंतु विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए इसके साथ तुमने विवाह नहीं किया 
था | ३१ || 

पित्रा तु भूगवे दत्ता पुलोमेयं यशस्विनी । 

ददाति न पिता तुभ्यं वरलोभान्महायशा: ।। ३२ ।। 

पिताने तो यह यशस्विनी पुलोमा भृगुको ही दी है। तुम्हारे वरण करनेपर भी इसके 
महायशस्वी पिता तुम्हारे हाथमें इसे इसलिये नहीं देते थे कि उनके मनमें तुमसे श्रेष्ठ वर 
मिल जानेका लोभ था ॥। ३२ ।। 

अथेमां वेददृष्टेन कर्मणा विधिपूर्वकम्‌ । 

भायमिषिर्भगु: प्राप मां पुरस्कृत्य दानव ।। ३३ ।। 

दानव! तदनन्तर महर्षि भृगुने मुझे साक्षी बनाकर वेदोक्त क्रियाद्वारा विधिपूर्वक इसका 
पाणिग्रहण किया था ।। ३३ ।। 

सेयमित्यवगच्छामि नानृतं वक्तुमुत्सहे । 

नानृतं हि सदा लोके पूज्यते दानवोत्तम ।। ३४ ।। 

यह वही है, ऐसा मैं जानता हूँ। इस विषयमें मैं झूठ नहीं बोल सकता। दानवश्रेष्ठ! 
लोकमें असत्यकी कभी पूजा नहीं होती है || ३४ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि पुलोमाग्निसंवादे पठचमो<ध्याय: ।। ५ 
|| 


इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपरववके अन्तर्गत पौलोमपर्वरें पुलोमा-अग्निसंवादविषयक 
पॉचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ५ ॥ 


है अर छा | अकाल 


- बाल्यावस्थामें पुलोमा रो रही थी। उसके रोदनकी निवृत्तिके लिये पिताने डराते हुए कहा--'रे राक्षस! तू इसे पकड़ 
ले।” घरमें पुलोमा राक्षस पहलेसे ही छिपा हुआ था। उसने मन-ही-मन वरण कर लिया--“यह मेरी पत्नी है।' बात केवल 
इतनी ही थी। इसका अभिप्राय यह है कि हँसी-खेलमें भी या डाँटने-डपटनेके लिये भी बालकोंसे ऐसी बात नहीं कहनी 
चाहिये और राक्षसका नाम भी नहीं रखना चाहिये। 


षष्ठो 5 ध्याय: 


महर्षि च्यवनका जन्म, उनके तेजसे पुलोमा राक्षसका भस्म 
होना तथा भगुका अग्निदेवको शाप देना 


सौतिरुवाच 


अग्नेरथ वच: श्रुत्वा तद्‌ रक्ष: प्रजहार ताम्‌ । 

ब्रह्मन्‌ वराहरूपेण मनोमारुतरंहसा ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--ब्रह्मन! अग्निका यह वचन सुनकर उस राक्षसने वराहका रूप 
धारण करके मन और वायुके समान वेगसे उसका अपहरण किया ।। १ ॥। 

ततः स गर्भो निवसन्‌ कुक्षौ भूगुकुलोद्वह । 

रोषान्मातुश्च्युत: कुक्षेक्ष्यवनस्तेन सो5भवत्‌ ॥। २ ।। 

भगुवंशशिरोमणे! उस समय वह गर्भ जो अपनी माताकी कुक्षिमें निवास कर रहा था, 
अत्यन्त रोषके कारण योगबलसे माताके उदरसे च्युत होकर बाहर निकल आया। च्युत 
होनेके कारण ही उसका नाम च्यवन हुआ |॥। २ ।। 

त॑ दृष्टवा मातुरुदराच्च्युतमादित्यवर्चसम्‌ | 

तद्‌ रक्षो भस्मसाद्धूतं पपात परिमुच्य ताम्‌ ।। ३ ।। 

माताके उदरसे च्युत होकर गिरे हुए उस सूर्यके समान तेजस्वी गर्भको देखते ही वह 
राक्षस पुलोमाको छोड़कर गिर पड़ा और तत्काल जलकर भस्म हो गया ।। ३ ।। 

सा तमादाय सुश्रोणी ससार भृगुनन्दनम्‌ | 

च्यवनं भार्गवं पुत्र॑ पुलोमा दुःखमूर्च्छिता ।। ४ ।। 

सुन्दर कटिप्रदेशवाली पुलोमा दु:ःखसे मूर्च्छिंत हो गयी और किसी तरह सँभलकर 
भगुकुलको आनन्दित करनेवाले अपने पुत्र भार्गव च्यवनको गोदमें लेकर ब्रह्माजीके पास 
चली || ४ ।। 

तां ददर्श स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामह:ः । 

रुदतीं बाष्पपूर्णाक्षीं भुगोर्भायामनिन्दिताम्‌ ।। ५ ।। 

सान्त्वयामास भगवान्‌ वर्धूं ब्रह्मा पितामह:ः । 

अश्रुबिन्दूद्धवा तस्या: प्रावर्तत महानदी ।। ६ ।। 

सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजीने स्वयं भूगुकी उस पतिव्रता पत्नीको रोती और 
नेत्रोंस आँसू बहाती देखा। तब पितामह भगवान्‌ ब्रह्माने अपनी पुत्रवधूको सान्त्वना दी-- 
उसे धीरज बँँधाया। उसके आँसुओंकी बूँदोंसे एक बहुत बड़ी नदी प्रकट हो गयी ।। ५-६ ।। 

आवर्तन्ती सृतिं तस्या भूगो: पन्त्यास्तपस्विन: । 


तस्या मार्ग सृतवतीं दृष्टवा तु सरितं तदा ।। ७ ।। 

नाम तस्यास्तदा नद्याक्षक्रे लोकपितामह: । 

वधूसरेति भगवांद्ष्यवनस्याश्रमं प्रति ।। ८ ।। 

वह नदी तपस्वी भूगुकी उस पत्नीके मार्गको आप्लावित किये हुए थी। उस समय 
लोकपितामह भगवान्‌ ब्रह्माने पुलोमाके मार्गका अनुसरण करनेवाली उस नदीको देखकर 
उसका नाम वधूसरा रख दिया, जो च्यवनके आश्रमके पास प्रवाहित होती है || ७-८ ।। 

स एव च्यवनो जज्ञे भृगो: पुत्र: प्रतापवान्‌ । 

त॑ं ददर्श पिता तत्र च्यवनं तां च भामिनीम्‌ । 

स पुलोमां ततो भार्या पप्रच्छ कुपितो भृगु: ।। ९ ।। 

इस प्रकार भृगुपुत्र प्रतापी च्यवनका जन्म हुआ। तदनन्तर पिता भृगुने वहाँ अपने पुत्र 
च्यवन तथा पत्नी पुलोमाको देखा और सब बातें जानकर उन्होंने अपनी भार्या पुलोमासे 
कुपित होकर पूछा-- ।। ९ ।। 

भूगुरुवाच 

केनासि रक्षसे तस्मै कथिता त्वं जिहीर्षते । 

नहिवत्वां वेद तद्‌ रक्षो मद्भार्या चारहासिनीम्‌ ।। १० ।। 

भगु बोले--कल्याणी! तुम्हें हर लेनेकी इच्छासे आये हुए उस राक्षसको किसने 
तुम्हारा परिचय दे दिया? मनोहर मुसकानवाली मेरी पत्नी तुझ पुलोमाको वह राक्षस नहीं 
जानता था ।। १० || 

तत्त्वमाख्याहि त॑ हराद्य शप्तुमिच्छाम्यहं रुषा 

बिभेति को न शापान्मे कस्य चायं व्यतिक्रम: ।। ११ ।। 

प्रिये! ठीक-ठीक बताओ। आज मैं कुपित होकर अपने उस अपराधीको शाप देना 
चाहता हूँ। कौन मेरे शापसे नहीं डरता है? किसके द्वारा यह अपराध हुआ है? ।। ११ ।। 


पुलोगोवाच 


अग्निना भगवंस्तस्मै रक्षसे5हं निवेदिता । 

ततो मामनयद्‌ रक्ष: क्रोशन्ती कुररीमिव ।। १२ ।। 

पुलोमा बोली--भगवन्‌! अग्निदेवने उस राक्षसको मेरा परिचय दे दिया। इससे 
कुररीकी भाँति विलाप करती हुई मुझ अबलाको वह राक्षस उठा ले गया ।। १२ ।। 

साहं तव सुतस्यास्य तेजसा परिमोक्षिता | 

भस्मीभूतं च तद्‌ रक्षो मामुत्सृज्य पपात वै ॥। १३ ।। 

आपके इस पुत्रके तेजसे मैं उस राक्षसके चंगुलसे छूट सकी हूँ। राक्षस मुझे छोड़कर 
गिरा और जलकर भस्म हो गया ।। १३ ।। 

सौतिर्वाच 


इति श्रुत्वा पुलोमाया भृगु: परममन्युमान्‌ । 

शशापाग्निमतिक्रुद्ध: सर्वभक्षो भविष्यसि ।। १४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--पुलोमाका यह वचन सुनकर परम क्रोधी महर्षि भृगुका क्रोध 
और भी बढ़ गया। उन्होंने अग्निदेवको शाप दिया--“तुम सर्वभक्षी हो जाओगे” ।। १४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि अग्निशापे षष्ठछो5ध्याय: ।। ६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहा भारत आदिपव॑के अन्तर्गत पौलोगपर्वमें अग्निशापविषयक छठा अध्याय 
पूरा हुआ ॥। ६ ॥ 


ऑपन- मा बछ। अर 


सप्तमो<्ध्याय: 


शापसे कुपित हुए अग्निदेवका अदृश्य होना और 
ब्रद्माजीका उनके शापको संकुचित करके उन्हें प्रसन्न 
करना 


सौतिरुवाच 


शप्तस्तु भुगुणा वद्िः क्ुद्धो वाक्यमथाब्रवीत्‌ । 

किमिदं साहसं ब्रह्मन्‌ कृतवानसि मां प्रति ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--महर्षि भूगुके शाप देनेपर अग्निदेवने कुपित होकर यह बात 
कही--“ब्रह्मन! तुमने मुझे शाप देनेका यह दुस्साहसपूर्ण कार्य क्यों किया हे?” ।। १ ।। 

धर्मे प्रयतमानस्य सत्यं च वदत: समम्‌ | 

पृष्टो यदब्रवं सत्यं व्यभिचारो5त्र को मम ।। २ ।। 

“मैं सदा धर्मके लिये प्रयत्मनशील रहता और सत्य एवं पक्षपातशून्य वचन बोलता हूँ; 
अतः उस राक्षसके पूछनेपर यदि मैंने सच्ची बात कह दी तो इसमें मेरा क्या अपराध 
है? ।| २ ।। 

पृष्टो हि साक्षी यः साक्ष्यं जानानो5प्यन्यथा वदेत्‌ । 

स पूर्वानात्मन: सप्त कुले हन्यात्‌ तथा परान्‌ ।। ३ ।। 

“जो साक्षी किसी बातको ठीक-ठीक जानते हुए भी पूछनेपर कुछ-का-कुछ कह देता 
--झूठ बोलता है, वह अपने कुलमें पहले और पीछेकी सात-सात पीढ़ियोंका नाश करता 
-5उन्हें नरकमें ढकेलता है || ३ ।। 

यश्न कार्यार्थतत्त्वज्ञो जानानोडपि न भाषते । 

सो<पि तेनैव पापेन लिप्यते नात्र संशय: ।। ४ ।। 

“इसी प्रकार जो किसी कार्यके वास्तविक रहस्यका ज्ञाता है, वह उसके पूछनेपर यदि 
जानते हुए भी नहीं बतलाता--मौन रह जाता है तो वह भी उसी पापसे लिप्त होता है; 
इसमें संशय नहीं है || ४ ।। 

शक्तो5हमपि शप्तुं त्वां मान्यास्तु ब्राह्मणा मम । 

जानतो<पि च ते ब्रह्मन्‌ कथयिष्ये निबोध तत्‌ ।। ५ ।। 

“मैं भी तुम्हें शाप देनेकी शक्ति रखता हूँ तो भी नहीं देता हूँ; क्योंकि ब्राह्मण मेरे मान्य 
हैं। ब्रह्मन! यद्यपि तुम सब कुछ जानते हो, तथापि मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ, उसे ध्यान देकर 
सुनो-- || ५ |। 

योगेन बहुधात्मानं कृत्वा तिष्ठामि मूर्तिषु 


अन्निहात्रेषु सत्रेषु क्रियासु च मखेषु च ।। ६ ।। 

'मैं योगसिद्धिके बलसे अपने-आपको अनेक रूपोंमें प्रकट करके गार्हपत्य और 
दक्षिणाग्नि आदि मूर्तियोंमें, नित्य किये जानेवाले अन्निहोत्रोंमें, अनेक व्यक्तियोंद्वारा 
संचालित सत्रोंमें, गर्भाधान आदि क्रियाओंमें तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों (यज्ञों)-में सदा 
निवास करता हूँ ।। ६ ।। 

वेदोक्तेन विधानेन मयि यद्‌ हूयते हवि: । 

देवता: पितरश्वैव तेन तृप्ता भवन्ति वै ।। ७ ।। 

“मुझमें वेदोक्त विधिसे जिस हविष्यकी आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय ही 
देवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं || ७ ।। 

आपो देवगणा: सर्वे आप: पितृगणास्तथा । 

दर्शश्व॒ पौर्णमासश्न देवानां पितृभि: सह ।। ८ ।। 

“जल ही देवता हैं तथा जल ही पितृगण हैं। दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथा 
देवताओंके लिये किये जाते हैं | ८ ।। 

देवता: पितरस्तस्मात्‌ पितरश्नापि देवता: । 

एकीभूताश्न पूज्यन्ते पृथक्त्वेन च पर्वसु ।। ९ ।। 

“अत: देवता पितर हैं और पितर ही देवता हैं। विभिन्न पर्वोपर ये दोनों एक रूपमें भी 
पूजे जाते हैं और पृथक्‌-पृथक्‌ भी || ९ ।। 

देवता: पितरश्वैव भुज्जते मयि यद्‌ हुतम्‌ । 

देवतानां पितृणां च मुखमेतदहं स्मृतम्‌ ।। १० ।। 

“मुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवता और पितर दोनों भक्षण करते हैं। इसीलिये 
मैं देवताओं और पितरोंका मुख माना जाता हूँ || १० ।। 

अमावास्यां हि पितर: पौर्णमास्यां हि देवता: । 

मन्मुखेनैव हूयन्ते भुड्जते च हुतं हवि: ॥॥ ११ ।। 

सर्वभक्ष: कथं त्वेषां भविष्यामि मुखं त्वहम्‌ 

“अमावास्याको पितरोंके लिये और पूर्णिमाको देवताओंके लिये मेरे मुखसे ही आहुति 
दी जाती है और उस आहुतिके रूपमें प्राप्त हुए हविष्यका वे देवता और पितर उपभोग 
करते हैं, सर्वभक्षी होनेपर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ?” | ११३ ।। 

सौतिर्वाच 


चिन्तयित्वा ततो वल्रिश्वक्रे संहारमात्मन: ।। १२ ।। 
द्विजानामन्निहोत्रेषु यज्ञसत्रक्रियासु च । 
निरोंकारवषट्कारा: स्वधास्वाहाविवर्जिता: ।। १३ ।। 
विनाग्निना प्रजा: सर्वास्तत आसन सुदु:खिता: । 


अथर्षय: समुद्विग्ना देवान्‌ गत्वाब्रुवन्‌ वच: ।। १४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--महर्षियो! तदनन्तर अग्निदेवने कुछ सोच-विचारकर द्विजोंके 
अन्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कारसम्बन्धी क्रियाओंमेंसे अपने-आपको समेट लिया। फिर 
तो अग्निके बिना समस्त प्रजा ३>कार, वषट्कार, स्वथा और स्वाहा आदिसे वंचित होकर 
अत्यन्त दुःखी हो गयी। तब महर्षिगण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओंके पास जाकर बोले 
-- || १२--१४ || 

अग्निनाशात्‌ क्रियाभ्रंशाद्‌ भ्रान्ता लोकास्त्रयो5नघा: । 

विदध्वमत्र यत्‌ कार्य न स्यात्‌ कालात्ययो यथा ।। १५ ।। 

“पापरहित देवगण! अग्निके अदृश्य हो जानेसे अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओंका 
लोप हो गया है। इससे तीनों लोकोंके प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं; अतः इस विषयमें 
जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आपलोग करें। इसमें अधिक विलम्ब नहीं होना 
चाहिये” || १५ ।। 

अथर्षयकश्न देवाश्व॒ ब्रह्माणमुपगम्य तु । 

अग्नेरावेदयछ्छापं क्रियासंहारमेव च ।। १६ ।। 

तत्पश्चात्‌ ऋषि और देवता ब्रह्माजीके पास गये और अग्निको जो शाप मिला था एवं 
अग्निने सम्पूर्ण क्रियाओंसे जो अपने-आपको समेटकर अदृश्य कर लिया था, वह सब 
समाचार निवेदन करते हुए बोले-- ।। १६ ।। 

भगुणा वै महाभाग शप्तो<ग्नि: कारणान्तरे | 

कथं देवमुखो भूत्वा यज्ञभागाग्रभुक्‌ तथा ।। १७ ।। 

हुतभुक्‌ सर्वलोकेषु सर्वभक्षत्वमेष्यति 

“महाभाग! किसी कारणवश महर्षि भृगुने अग्निदेवको सर्वभक्षी होनेका शाप दे दिया 
है, किंतु वे सम्पूर्ण देवताओंके मुख, यज्ञभागके अग्रभोक्ता तथा सम्पूर्ण लोकोंमें दी हुई 
आहुतियोंका उपभोग करनेवाले होकर भी सर्वभक्षी कैसे हो सकेंगे?” || १७३ ।। 

श्रुत्वा तु तद्‌ वचस्तेषामग्निमाहूय विश्वकृत्‌ ।। १८ ।। 

उवाच वचन श्लक्ष्णं भूताभावनमव्ययम्‌ । 

लोकानामिह सर्वेषां त्वं कर्ता चान्त एव च ॥। १९ |। 

त्वं धारयसि लोकांस्त्रीन्‌ क्रियाणां च प्रवर्तक: । 

स तथा कुरु लोकेश नोच्छिद्येरन्‌ यथा क्रिया: ॥। २० ।। 

कस्मादेवं विमूढस्त्वमी श्वर: सन्‌ हुताशन | 

त्वं पवित्र॑ं सदा लोके सर्वभूतगतिश्न ह ।। २१ ।। 

देवताओं तथा ऋषियोंकी बात सुनकर विश्वविधाता ब्रह्माजीने प्राणियोंको उत्पन्न 
करनेवाले अविनाशी अग्निको बुलाकर मधुर वाणीमें कहा--'हुताशन! यहाँ समस्त 
लोकोंके स्रष्टा और संहारक तुम्हीं हो, तुम्हीं तीनों लोकोंको धारण करनेवाले हो, सम्पूर्ण 


क्रियाओंके प्रवर्तक भी तुम्हीं हो। अतः लोकेश्वर! तुम ऐसा करो जिससे अग्निहोत्र आदि 
क्रियाओंका लोप न हो। तुम सबके स्वामी होकर भी इस प्रकार मूढ़ (मोहग्रस्त) कैसे हो 
गये? तुम संसारमें सदा पवित्र हो, समस्त प्राणियोंकी गति भी तुम्हीं हो | १८--२१ ॥। 

न त्वं सर्वशरीरेण सर्वभक्षत्वमेष्यसि । 

अपाने हार्चिषो यास्ते सर्व भक्ष्यन्ति ता: शिखिन्‌ ।। २२ ।। 

“तुम सारे शरीरसे सर्वभक्षी नहीं होओगे। अग्निदेव! तुम्हारे अपानदेशमें जो ज्वालाएँ 
होंगी, वे ही सब कुछ भक्षण करेंगी ।। २२ ।। 

क्रव्यादा च तनुर्या ते सा सर्व भक्षयिष्यति । 

यथा सूर्याशुभि: स्मृष्टं सर्व शुचि विभाव्यते ।। २३ ।। 

तथा त्वदर्चिनिर्दिग्धं सर्व शुचि भविष्यति । 

त्वमग्ने परमं तेज: स्वप्रभावाद्‌ विनिर्गतम्‌ ।। २४ ।। 

स्वतेजसैव तं शापं कुरु सत्यमृषेर्विभो । 

देवानां चात्मनो भागं गृहाण त्वं मुखे हुतम्‌ ।। २५ ।। 

“इसके सिवा जो तुम्हारी क्रव्याद मूर्ति है (कच्चा मांस या मुर्दा जलानेवाली जो 
चिताकी आग है) वही सब कुछ भक्षण करेगी। जैसे सूर्यकी किरणोंसे स्पर्श होनेपर सब 
वस्तुएँ शुद्ध मानी जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारी ज्वालाओंसे दग्ध होनेपर सब कुछ शुद्ध हो 
जायगा। अग्निदेव! तुम अपने प्रभावसे ही प्रकट हुए उत्कृष्ट तेज हो; अतः विभो! अपने 
तेजसे ही महर्षिके उस शापको सत्य कर दिखाओ और अपने मुखमें आहुतिके रूपमें पड़े 
हुए देवताओंके तथा अपने भागको भी ग्रहण करो” ।। २३--२५ ।। 

सौतिर्वाच 

एवमस्त्विति तं वह्रि: प्रत्युवाच पितामहम्‌ । 

जगाम शासन कर्तु देवस्य परमेछ्ठिन: । २६ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--यह सुनकर अग्निदेवने पितामह ब्रह्माजीसे कहा--“एवमस्तु 
(ऐसा ही हो)।” यों कहकर वे भगवान्‌ ब्रह्माजीके आदेशका पालन करनेके लिये चल 
दिये || २६ ।। 

देवर्षयश्न मुदितास्ततो जम्मुर्यथागतम्‌ । 

ऋषयश्च यथापूर्व क्रिया: सर्वाः प्रचक्रिरे || २७ ।। 

इसके बाद देवर्षिगण अत्यन्त प्रसन्न हो जैसे आये थे वैसे ही चले गये। फिर ऋषि- 
महर्षि भी अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण कर्मोंका पूर्ववत्‌ पालन करने लगे ।। २७ ।। 

दिवि देवा मुमुदिरे भूतसड्घाश्व॒ लौकिका: । 

अन्निश्च परमां प्रीतिमवाप हतकल्मष: || २८ ।। 


देवतालोग स्वर्गलोकमें आनन्दित हो गये और इस लोकके समस्त प्राणी भी बड़े प्रसन्न 
हुए। साथ ही शापजनित पाप कट जानेसे अग्निदेवको भी बड़ी प्रसन्नता हुई || २८ ।। 

एवं स भगवाउ्छापं लेभेडग्निर्भुगुत: पुरा । 

एवमेष पुरावृत्त इतिहासोडग्निशापज: । 

पुलोम्नश्न विनाशो5यं च्यवनस्य च सम्भव: ।। २९ |। 

इस प्रकार पूर्वकालमें भगवान्‌ अग्निदेवको महर्षि भृगुसे शाप प्राप्त हुआ था। यही 
अग्निशापसम्बन्धी प्राचीन इतिहास है। पुलोमा राक्षसके विनाश और च्यवन मुनिके 
जन्मका वृत्तान्त भी यही है ।। २९ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि अग्निशापमोचने सप्तमो<5ध्याय: ।। ७ 
|| 
इस प्रकार श्रीमह्योा भारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत पौलोगपर्वमें अग्निशापमोचनसम्बन्धी यातवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ७ ॥ 


अपन बछ। ] अाडण का: 


अष्टमो> ध्याय: 


प्रमद्वराका जन्म, रुरुके साथ उसका वाग्दान तथा 
विवाहके पहले ही सॉपके काटनेसे प्रमद्वराकी मृत्यु 


सौतिरुवाच 


स चापि च्यवनो ब्रह्मन्‌ भार्गवो5जनयत्‌ सुतम्‌ । 

सुकन्यायां महात्मानं प्रमतिं दीप्ततेजसम्‌ ।। १ ।। 

प्रमतिस्तु रुरं नाम घृताच्यां समजीजनत्‌ । 

रुरु: प्रमद्वरायां तु शुनकं समजीजनत्‌ ।॥। २ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--ब्रह्मन! भृगुपुत्र च्यवनने अपनी पत्नी सुकन्याके गर्भसे एक 
पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम प्रमति था। महात्मा प्रमति बड़े तेजस्वी थे। फिर प्रमतिने 
घृताची अप्सरासे रुरु नामक पुत्र उत्पन्न किया तथा रुरुके द्वारा प्रमद्वराके गर्भसे शुनकका 
जन्म हुआ ।। १-२ || 

(शौनकस्तु महाभाग शुनकस्य सुतो भवान्‌ ।) 

शुनकस्तु महासत्त्व: सर्वभार्गवनन्दन: । 

जातस्तपसि तीव्रे च स्थित: स्थिरयशास्तत: ।। ३ ।। 

महाभाग शौनकजी! आप शुनकके ही पुत्र होनेके कारण 'शौनक' कहलाते हैं। शुनक 
महान्‌ सत्त्वगुणसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण भूगुवंशका आनन्द बढ़ानेवाले थे। वे जन्म लेते ही 
तीव्र तपस्यामें संलग्न हो गये। इससे उनका अविचल यश सब ओर फैल गया ।। ३ ।। 

तस्य ब्रह्मन्‌ रुरो: सर्व चरितं भूरितेजस: । 

विस्तरेण प्रवक्ष्यामि तच्छुणु त्वमशेषत: ।। ४ ।। 

ब्रह्मन्‌! मैं महातेजस्वी रुरुके सम्पूर्ण चरित्रका विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा। वह सब- 
का-सब आप सुनिये ।। ४ ।। 

ऋषिरासीन्महान्‌ पूर्व तपोविद्यासमन्वित: । 

स्थूलकेश इति ख्यात: सर्वभूतहिते रत: ।। ५ ।। 

पूर्वकालमें स्थूलकेश नामसे विख्यात एक तप और विद्यासे सम्पन्न महर्षि थे; जो 
समस्त प्राणियोंके हितमें लगे रहते थे ।। ५ ।। 

एतस्मिन्नेव काले तु मेनकायां प्रजज्ञिवान्‌ । 

गन्धर्वराजो वित्रर्षे विश्वावसुरिति स्मृत: ।। ६ ।। 

विप्रर्षे! इन्हीं महर्षिके समयकी बात हैं--गन्धर्वराज विश्वावसुने मेनकाके गर्भसे एक 
संतान उत्पन्न की ।। ६ |। 


अप्सरा मेनका तस्य त॑ गर्भ भगुनन्दन । 

उत्ससर्ज यथाकालं स्थूलकेशाश्रमं प्रति ।। ७ ।। 

भृगुनन्दन! मेनका अप्सराने गन्धर्वराजद्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भको समय पूरा 
होनेपर स्थूलकेश मुनिके आश्रमके निकट जन्म दिया || ७ |। 

उत्सृज्य चैव त॑ गर्भ नद्यास्तीरे जगाम सा । 

अप्सरा मेनका ब्रह्मन्‌ निर्दया निरपत्रपा ।। ८ ।। 

ब्रह्मन्‌! निर्दय और निर्लज्ज मेनका अप्सरा उस नवजात गर्भको वहीं नदीके तटपर 
छोड़कर चली गयी ।। ८ ।। 

कन्याममरगर्भाभां ज्वलन्तीमिव च श्रिया | 

तां ददर्श समुत्सृष्टां नदीतीरे महानृषि: ।। ९ ।। 

स्थूलकेश: स तेजस्वी विजने बन्धुवर्जिताम्‌ । 

सतां दृष्टवा तदा कन्यां स्थूलकेशो महाद्विज: ।। १० ।। 

जग्राह च मुनिश्रेष्ठ: कृपाविष्ट: पुपोष च । 

ववृधे सा वरारोहा तस्याश्रमपदे शुभे ।। ११ ।। 

तदनन्तर तेजस्वी महर्षि स्थूलकेशने एकान्त स्थानमें त्यागी हुई उस बन्धुहीन कन्याको 
देखा, जो देवताओंकी बालिकाके समान दिव्य शोभासे प्रकाशित हो रही थी। उस समय 
उस कन्याको वैसी दशामें देखकर द्विजश्रेष्ठ मुनिवर स्थूलकेशके मनमें बड़ी दया आयी; 
अतः वे उसे उठा लाये और उसका पालन-पोषण करने लगे। वह सुन्दरी कन्या उनके शुभ 
आश्रमपर दिनोदिन बढ़ने लगी || ९--११ ।। 

जातकाद्या: क्रियाश्चास्या विधिपूर्व यथाक्रमम्‌ । 

स्थूलकेशो महाभागश्नचकार सुमहानृषि: ।। १२ ।। 

महाभाग महर्षि स्थूलकेशने क्रमशः: उस बालिकाके जात-कर्मादि सब संस्कार 
विधिपूर्वक सम्पन्न किये || १२ ।। 

प्रमदाभ्यो वरा सा तु सत्त्वरूपगुणान्विता । 

ततः प्रमद्वरेत्यस्था नाम चक्रे महानृषि: ।। १३ ।। 

वह बुद्धि, रूप और सब उत्तम गुणोंसे सुशोभित हो संसारकी समस्त प्रमदाओं (सुन्दरी 
स्त्रियों)-से श्रेष्ठ जान पड़ती थी; इसलिये महर्षिने उसका नाम “प्रमद्धरा' रख दिया ।। १३ ।। 

तामाश्रमपदे तस्य रुरुर्दृष्टवा प्रमद्वराम्‌ । 

बभूव किल धर्मात्मा मदनोपहतस्तदा ।। १४ ।। 

एक दिन धर्मात्मा रुसने महर्षिके आश्रममें उस प्रमद्वराको देखा। उसे देखते ही उनका 
हृदय तत्काल कामदेवके वशीभूत हो गया ।। १४ ।। 

पितरं सखिभि: सो5थ श्रावयामास भार्गवम्‌ | 

प्रमतिश्चा भ्ययाचत्‌ तां स्थूलकेशं यशस्विनम्‌ ॥। १५ ।। 


तब उन्होंने मित्रोंद्वारा अपने पिता भृगुवंशी प्रमतिको अपनी अवस्था कहलायी। 
तदनन्तर प्रमतिने यशस्वी स्थूलकेश मुनिसे (अपने पुत्रके लिये) उनकी वह कन्या 
माँगी || १५ ।। 

ततः प्रादात्‌ पिता कन्‍्यां रुरवे तां प्रमद्वराम्‌ । 

विवाहं स्थापयित्वाग्रे नक्षत्रे भगदैवते ।। १६ ।। 

तब पिताने अपनी कन्या प्रमद्वराका रुकुके लिये वाग्दान कर दिया और आगामी 
उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रमें विवाहका मुहूर्त निश्चित किया ।। १६ ।। 

तत: कतिपयाहस्य विवाहे समुपस्थिते । 

सखीभ्रि: क्रीडती सार्थ सा कन्या वरवर्णिनी ।। १७ ।। 

तदनन्तर जब विवाहका मुहूर्त निकट आ गया, उसी समय वह सुन्दरी कन्या सखियोंके 
साथ क्रीड़ा करती हुई वनमें घूमने लगी ।। १७ ।। 

नापश्यत्‌ सम्प्रसुप्तं वै भुजड़ूूं तिर्यगायतम्‌ । 

पदा चैनं समाक्रामन्मुमूर्ष: कालचोदिता ।। १८ ।। 

मार्गमें एक साँप चौड़ी जगह घेरकर तिरछा सो रहा था। प्रमद्वराने उसे नहीं देखा। वह 
कालसे प्रेरित होकर मरना चाहती थी, इसलिये सर्पको पैरसे कुचलती हुई आगे निकल 
गयी ।। १८ ।। 

स तस्या: सम्प्रमत्तायाश्वोदित: कालधर्मणा । 

विषोपलिप्तान्‌ दशनान्‌ भृशमड़े न्यपातयत्‌ ।। १९ ।। 

उस समय कालधर्मसे प्रेरित हुए उस सर्पने उस असावधान कन्याके अंगमें बड़े जोरसे 
अपने विषभरे दाँत गड़ा दिये || १९ ।। 

सा दष्टा तेन सर्पेण पपात सहसा भुवि । 

विवर्णा विगतश्रीका भ्रष्टाभरणचेतना ।। २० ।। 

निरानन्दकरी तेषां बन्धूनां मुक्तमूर्थजा । 

व्यसुरप्रेक्षणीया सा प्रेक्षणीयतमाभवत्‌ ।। २१ ।। 

उस सर्पके डँस लेनेपर वह सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी। उसके शरीरका रंग उड़ गया, 
शोभा नष्ट हो गयी, आभूषण इधर-उधर बिखर गये और चेतना लुप्त हो गयी। उसके बाल 
खुले हुए थे। अब वह अपने उन बन्धुजनोंके हृदयमें विषाद उत्पन्न कर रही थी। जो कुछ ही 
क्षण पहले अत्यन्त सुन्दरी एवं दर्शनीय थी, वही प्राणशून्य होनेके कारण अब देखनेयोग्य 
नहीं रह गयी || २०-२१ ।। 

प्रसुप्ते वाभवच्चापि भुवि सर्पविषार्दिता । 

भूयो मनोहरतरा बभूव तनुमध्यमा ।। २२ ।। 

वह सर्पके विषसे पीड़ित होकर गाढ़ निद्रामें सोयी हुईकी भाँति भूमिपर पड़ी थी। 
उसके शरीरका मध्यभाग अत्यन्त कृश था। वह उस अचेतनावस्थामें भी अत्यन्त 


मनोहारिणी जान पड़ती थी ।। २२ || 

ददर्श तां पिता चैव ये चैवान्ये तपस्विन: । 

विचेष्टमानां पतितां भूतले पद्मवर्चसम्‌ || २३ ।। 

उसके पिता स्थूलकेशने तथा अन्य तपस्वी महात्माओंने भी आकर उसे देखा। वह 
कमलकी-सी कान्तिवाली किशोरी धरतीपर चेष्टारहित पड़ी थी ।। २३ ।। 

ततः सर्वे द्विजवरा: समाजग्मु: कृपान्विता: । 

स्वस्त्यात्रेयो महाजानु: कुशिक: शड्खमेखल: ।। २४ ।। 

उद्दालक: कठझ्जैव श्लेतश्वैव महायशा: । 

भरद्वाज: कौणकुत्स्य आर्टिषिणो5थ गौतम: ।। २५ ।। 

प्रमति: सह पुत्रेण तथान्ये वनवासिन: । 

तदनन्तर स्वस्त्यात्रेय, महाजानु, कुशिक, शंखमेखल, उद्दालक, कठ, महायशस्वी श्वेत, 
भरद्वाज, कौणकुत्स्य, आर्टिषिण, गौतम, अपने पुत्र रुकुसहित प्रमति तथा अन्य सभी 
वनवासी श्रेष्ठ द्विज दयासे द्रवित होकर वहाँ आये ।। २४-२५३ ।। 

तां ते कन्‍्यां व्यसुं दृष्टवा भुजड्स्य विषार्दिताम्‌ ।। २६ ।। 

रुरुदुः कृपयाविष्टा रुरुस्त्वार्तों बहिर्ययौ । 

ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठास्तत्रैवोपाविशंस्तदा || २७ ।। 

वे सब लोग उस कन्याको सर्पके विषसे पीड़ित हो प्राणशून्य हुई देख करुणावश रोने 
लगे। रुरु तो अत्यन्त आर्त होकर वहाँसे बाहर चला गया और शेष सभी द्विज उस समय 
वहीं बैठे रहे || २६-२७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वरासर्पदंशे5ष्टमो5ध्याय: ।। ८ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत पौलोगपर्वमें प्रमद्वराके सर्पदेंशनसे सम्बन्ध 
रखनेवाला आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ८ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ श्लोक मिलाकर कुल २७३ “लोक हैं) 


नील + () आस 


नवमो<्ध्याय: 


रुरुकी आधी आयुसे प्रमद्वराका जीवित होना, रुरुके साथ 
उसका विवाह, रुरुका सर्पोंको मारनेका निश्चय तथा रुरु- 
डुण्डुभ-सवाद 
सौतिर्वाच 

तेषु तत्रोपविष्टेषु ब्राह्मणेषु महात्मसु । 

रुरुश्लुक्रोश गहनं वन॑ं गत्वातिदुःखित: ।। १ ।। 

शोकेनाभिहत: सो5थ विलपन्‌ करुणं बहु । 

अब्रवीद्‌ वचनं शोचन्‌ प्रियां स्मृत्वा प्रमद्धराम्‌ ।। २ ।। 

शेते सा भुवि तन्वज्गी मम शोकविवर्धिनी । 

बान्धवानां च सर्वेषां कि नु दुःखमत: परम्‌ ।। ३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! वे ब्राह्मण प्रमद्वराके चारों ओर वहाँ बैठे थे, उसी 
समय रुरु अत्यन्त दुःखित हो गहन वनमें जाकर जोर-जोरसे रुदन करने लगा। शोकसे 
पीड़ित होकर उसने बहुत करुणाजनक विलाप किया और अपनी प्रियतमा प्रमद्वराका 
स्मरण करके शोकमग्न हो इस प्रकार बोला--“हाय! वह कृशांगी बाला मेरा तथा समस्त 
बान्धवोंका शोक बढ़ाती हुई भूमिपर सो रही है; इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता 
है? ।। १--३ ।। 

यदि दत्तं तपस्तप्तं गुरवो वा मया यदि । 

सम्यगाराधितास्तेन संजीवतु मम प्रिया ।। ४ ।। 

“यदि मैंने दान दिया हो, तपस्या की हो अथवा गुरुजनोंकी भलीभाँति आराधना की हो 
तो उसके पुण्यसे मेरी प्रिया जीवित हो जाय ।। ४ ।। 

यथा च जन्मप्रभृति यतात्माहं धृतव्रत: । 

प्रमद्वरा तथा होषा समुनत्तिष्ठतु भामिनी ।। ५ ।। 

“यदि मैंने जन्मसे लेकर अबतक मन और इन्द्रियोंपर संयम रखा हो और ब्रह्मचर्य 
आदि दव्रतोंका दृढ़तापूर्वक पालन किया हो तो यह मेरी प्रिया प्रमद्वरा अभी जी उठे” ।। ५ ।। 

(कृष्णे विष्णौ हृषीकेशे लोकेशे<सुरविद्धिषि । 

यदि मे निश्चला भक्तिर्मम जीवतु सा प्रिया ।।) 

“यदि पापी असुरोंका नाश करनेवाले, इन्द्रियोंके स्वामी जगदीश्वर एवं सर्वव्यापी 
भगवान्‌ श्रीकृष्णमें मेरी अविचल भक्ति हो तो यह कल्याणी प्रमद्वरा जी उठे'। 

एवं लालप्यतस्तस्य भार्यार्थे दु:खितस्य च । 


देवदूतस्तदाभ्येत्य वाक्यमाह रुरुं वने ।। ६ ।। 

इस प्रकार जब रुरु पत्नीके लिये दुःखित हो अत्यन्त विलाप कर रहा था, उस समय 
एक देवदूत उसके पास आया और वनमें रुरुसे बोला || ६ ।। 

देवदूत उवाच 

अभिधत्से ह यद्‌ वाचा रुरो दुःखेन तन्मृषा । 

यतो मर्त्यस्य धर्मात्मन्‌ नायुरस्ति गतायुष: ।। ७ ।। 

गतायुरेषा कृपणा गन्धर्वाप्सरसो: सुता । 

तस्माच्छोके मनस्तात मा कृथास्त्वं कथंचन ।। ८ ।। 

देवदूतने कहा--धर्मात्मा रुक! तुम दुःखसे व्याकुल हो अपनी वाणीद्वारा जो कुछ 
कहते हो, वह सब व्यर्थ है; क्योंकि जिस मनुष्यकी आयु समाप्त हो गयी है, उसे फिर आयु 
नहीं मिल सकती। यह बेचारी प्रमद्वरा गन्धर्व और अप्सराकी पुत्री थी। इसे जितनी आयु 
मिली थी, वह पूरी हो चुकी है। अतः तात! तुम किसी तरह भी मनको शोकमें न 
डालो || ७-८ |। 

उपायश्षात्र विहित:ः पूर्व देवैर्महात्मभि: । 

त॑ यदीच्छसि कर्तु त्वं प्राप्स्यसीह प्रमद्धराम्‌ ।। ९ ।। 

इस विषयमें महात्मा देवताओंने एक उपाय निश्चित किया है। यदि तुम उसे करना 
चाहो तो इस लोकमें प्रमद्धवराको पा सकोगे ।। ९ |। 


रुस्स्वाच 


क उपाय: कृतो देवैब्रूहि तत्त्वेन खेचर । 

करिष्ये5हं तथा श्रुत्वा त्रातुमहति मां भवान्‌ ।। १० ।। 

रुरु बोला--आकाशचारी देवदूत! देवताओंने कौन-सा उपाय निश्चित किया है, उसे 
ठीक-ठीक बताओ? उसे सुनकर मैं अवश्य वैसा ही करूँगा। तुम मुझे इस दुःखसे 
बचाओ ।। १० ।। 

देवदूत उवाच 

आयुषोउर्ध प्रयच्छ त्वं कन्यायै भुगुनन्दन । 

एवमुत्थास्यति रुरो तव भार्या प्रमद्वरा | ११ ।। 

देवदूतने कहा--भृगुनन्दन रुरु! तुम उस कन्याके लिये अपनी आधी आयु दे दो। ऐसा 
करनेसे तुम्हारी भार्या प्रमद्वरा जी उठेगी || ११ ।। 

रुरुख्वाच 


आयुषो<र्ध प्रयच्छामि कन्यायै खेचरोत्तम । 
शृज्भाररूपाभरणा समुत्तिष्ठतु मे प्रिया ।। १२ ।। 


रुरु बोला--देवश्रेष्ठ! मैं उस कन्‍्याको अपनी आधी आयु देता हूँ। मेरी प्रिया अपने 

शंगार, सुन्दर रूप और आभूषणोंके साथ जीवित हो उठे ।। १२ ।। 
सौतिर्वाच 

ततो गन्धर्वराजश्च देवदूतश्न॒ सत्तमौ । 

धर्मराजमुपेत्येदं वचन प्रत्यभाषताम्‌ ।। १३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तब गन्धर्वराज विश्वावसु और देवदूत दोनों सत्पुरुषोंने 
धर्मराजके पास जाकर कहा-- ।॥। १३ ।। 

धर्मराजायुषो<र्धेन रुरोर्भार्या प्रमद्धरा । 

समुत्तिषठतु कल्याणी मृतैवं यदि मन्‍्यसे ।। १४ ।। 

“धर्मराज! रुरुकी भार्या कल्याणी प्रमद्वरा मर चुकी है। यदि आप मान लें तो वह 
रुरुकी आधी आयुसे जीवित हो जाय” ।। १४ ।। 


धर्मराज उवाच 


प्रमद्धरां रुरोर्भार्या देवदूत यदीच्छसि । 
उत्तिष्ठत्वायुषो<र्धेन रुरोरेव समन्विता ।। १५ ।। 
धर्मराज बोले--देवदूत! यदि तुम रुरुकी भार्या प्रमद्वराको जिलाना चाहते हो तो वह 
रुरुकी ही आधी आयुसे संयुक्त होकर जीवित हो उठे ।। १५ ।। 
सौतिरुवाच 


एवमुक्ते ततः कन्या सोदतिष्ठत्‌ प्रमद्धरा । 

रुरोस्तस्यायुषो<र्धेन सुप्तेव वरवर्णिनी ।। १६ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--धर्मराजके ऐसा कहते ही वह सुन्दरी मुनिकन्या प्रमद्वरा रुकी 
आधी आयुसे संयुक्त हो सोयी हुईकी भाँति जाग उठी ।। १६ ।। 

एतद्‌ दृष्टं भविष्ये हि रुरोरुत्तमतेजस: । 

आयुषो&तिप्रवृद्धस्य भार्यार्थेडर्थधमलुप्पत ।। १७ ।। 

तत इष्टेडहनि तयो: पितरौ चक्रतुर्मुदा । 

विवाहं तौ च रेमाते परस्परहितैषिणौ ।। १८ ।। 

उत्तम तेजस्वी रुरुके भाग्यमें ऐसी बात देखी गयी थी। उनकी आयु बहुत बढ़ी-चढ़ी 
थी। जब उन्होंने भायके लिये अपनी आधी आयु दे दी, तब दोनोंके पिताओंने निश्चित 
दिनमें प्रसन्नतापूर्वक उनका विवाह कर दिया। वे दोनों दम्पति एक-दूसरेके हितैषी होकर 
आनन्दपूर्वक रहने लगे || १७-१८ ।। 

स लब्ध्वा दुर्लभां भार्या पद्मकिज्जल्कसुप्र भाम्‌ । 

व्रतं चक्रे विनाशाय जिह्मगानां धृतव्रत: ।। १९ ।। 


कमलके केसरकी-सी कान्तिवाली उस दुर्लभ भार्याको पाकर व्रतधारी रुरुने सर्पोंके 
विनाशका निश्चय कर लिया ।। १९ |। 

स दृष्टवा जिद्दागान्‌ सर्वास्तीव्रकोपसमन्वित: । 

अभिहन्ति यथासत्त्वं गृह प्रहरणं सदा ।। २० ।। 

वह सर्पोको देखते ही अत्यन्त क्रोधमें भर जाता और हाथमें डंडा ले उनपर यथाशक्ति 
प्रहार करता था || २० ।। 

स कदाचिद्‌ वन विप्रो रुरुरभ्यागमन्महत्‌ । 

शयानं तत्र चापश्यद्‌ डुण्डुभं वयसान्वितम्‌ ।। २१ ।। 

एक दिनकी बात है, ब्राह्मण रुक किसी विशाल वनमें गया, वहाँ उसने डुण्डुभ जातिके 
एक बूढ़े साँपको सोते देखा || २१ ।। 

तत उद्यम्य दण्डं स कालदण्डोपमं तदा । 

जिधघांसु: कुपितो विप्रस्तमुवाचाथ डुण्डुभ: ।। २२ ।। 

उसे देखते ही उसके क्रोधका पारा चढ़ गया और उस ब्राह्मणने उस समय सर्पको मार 
डालनेकी इच्छासे कालदण्डके समान भयंकर डंडा उठाया। तब उस डुण्डुभने मनुष्यकी 
बोलीमें कहा-- || २२ ।। 

नापराध्यामि ते किज्चिदहमद्य तपोधन । 

संरम्भाच्च किमर्थ मामभिहंसि रुषान्वित: ।। २३ ।। 

“तपोधन! आज मैंने तुम्हारा कोई अपराध तो नहीं किया है? फिर किसलिये क्रोधके 
आवेशमें आकर तुम मुझे मार रहे हो' || २३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वराजीवने नवमो5ध्याय: ।। ९ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत पौलोगपर्वमें प्रमद्वराके जीवित होनेये सम्बन्ध 
रखनेवाला नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं) 


ऑपन---+र< बक। है २ 


दशमो<ध्याय: 
रुरु मुनि और डुण्डुभका संवाद 


रुस्स्वाच 


मम प्राणसमा भार्या दष्टासीद्‌ भुजगेन ह | 

तत्र मे समयो घोर आत्मनोरग वै कृत: ॥। १ ।। 

भुजड़ूं वै सदा हन्यां यं यं पश्येयमित्युत । 

ततोऊहं त्वां जिघांसामि जीवितेनाद्य मोक्ष्यसे |। २ ।। 

रुरु बोला--सर्प! मेरी प्राणोंके समान प्यारी पत्नीको एक साँपने डँस लिया था। उसी 
समय मैंने यह घोर प्रतिज्ञा कर ली कि जिस-जिस सर्पको देख लूँगा, उसे-उसे अवश्य मार 
डालूँगा। उसी प्रतिज्ञाके अनुसार मैं तुम्हें मार डालना चाहता हूँ। अतः आज तुम्हें अपने 
प्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा ॥। १-२ ।। 

डुण्ड्रुभ उवाच 

अन्‍्ये ते भुजगा ब्रह्मन्‌ ये दशन्तीह मानवान्‌ | 

डुण्डुभानहिगन्धेन न त्वं हिंसितुमहसि ।। ३ ।। 

डुण्डुभने कहा--ब्रह्मन्‌! वे दूसरे ही साँप हैं जो इस लोकमें मनुष्योंको डँसते हैं। 
साँपोंकी आकृति-मात्रसे ही तुम्हें डुण्डुभोंको नहीं मारना चाहिये ।। ३ ।। 





रुरुके दर्शनसे सहस्रपाद ऋषिकी सर्पयोनिसे मुक्ति 


एकानर्थान्‌ पृथगर्थनिकदुःखान्‌ पृथक्सुखान्‌ । 
डुण्डुभान्‌ धर्मविद्‌ भूत्वा न त्वं हिंसितुमहसि ।। ४ ।। 
अहो! आश्चर्य है, बेचारे डुण्डुभ अनर्थ भोगनेमें सब सर्पोंके साथ एक हैं; परंतु उनका 
स्वभाव दूसरे सर्पोंसे भिन्न है तथा दुःख भोगनेमें तो वे सब सर्पोके साथ एक हैं; किंतु सुख 
सबका अलग-अलग है। तुम धर्मज्ञ हो, अतः तुम्हें डुण्डुभोंकी हिंसा नहीं करनी 
चाहिये ।। ४ ।। 
सौतिर्वाच 


इति श्रुत्वा वचस्तस्य भुजगस्य रुरुस्तदा । 

नावधीद्‌ भयसंविग्नमृषिं मत्वाथ डुण्डुभम्‌ ।। ५ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--डुण्डुभ सर्पका यह वचन सुनकर रुऱुने उसे कोई भयभीत 
ऋषि समझा, अतः उसका वध नहीं किया ।। ५ ।। 

उवाच चैनं भगवान्‌ रुरु: संशमयन्निव । 

काम॑ मां भुजग ब्रूहि को$सीमां विक्रियां गत: ।। ६ ।। 

इसके सिवा, बड़भागी रुसने उसे शान्ति प्रदान करते हुए-से कहा--“भुजंगम! बताओ, 
इस विकृत (सर्प)-योनिमें पड़े हुए तुम कौन हो?” ।। ६ ।। 

डुण्ड्रुभ उवाच 

अहं पुरा रुरो नाम्ना ऋषिरासं सहस्रपात्‌ । 

सो<हं शापेन विप्रस्य भुजगत्वमुपागत: ।। ७ ।। 

डुण्डुभने कहा--रुरो! मैं पूर्वजन्ममें सहस्रपाद नामक ऋषि था; किंतु एक ब्राह्मणके 
शापसे मुझे सर्पयोनिमें आना पड़ा है || ७ ।। 

रुरुस्वाच 


किमर्थ शप्तवान्‌ क्रुद्धो द्विजस्त्वां भुजगोत्तम । 

कियन्तं चैव काल॑ ते वपुरेतद्‌ भविष्यति ।। ८ ।। 

रुरुने पूछा--भुजगोत्तम! उस ब्राह्मणने किसलिये कुपित होकर तुम्हें शाप दिया? 
तुम्हारा यह शरीर अभी कितने समयतक रहेगा? ।। ८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि रुरुडडुण्डुभसंवादे दशमो<5ध्याय: ॥। १० 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोगपर्वमें रुु-डुण्ड्रुभसंवादाविषयक दसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। १० ॥ 


अपन बछ। ] अतिफऑशाए:< 


एकादशोब< ध्याय: 


डुण्डुभकी आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुकुको अहिंसाका 


उपदेश 
डुण्ड्रुभ उवाच 
सखा बभूव मे पूर्व खगमो नाम वै द्विज: । 
भृशं संशितवाक्‌ तात तपोबलसमन्वित: ।। १ ।। 
स मया क्रीडता बाल्ये कृत्वा तार्ण भुजज्रमम्‌ । 
अगन्निहोत्रे प्रसक्तस्तु भीषित: प्रमुमोह वै ।। २ ।। 
डुण्डुभने कहा--तात! पूर्वकालमें खगम नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण मेरा मित्र था। 
वह महान्‌ तपोबलसे सम्पन्न होकर भी बहुत कठोर वचन बोला करता था। एक दिन वह 
अन्निहोत्रमें लगा था। मैंने खिलवाड़में तिनकोंका एक सर्प बनाकर उसे डरा दिया। वह 
भयके मारे मूर्च्छित हो गया ।। १-२ ।। 
लब्ध्वा स च पुन: संज्ञां मामुवाच तपोधन: । 
निर्दहन्निव कोपेन सत्यवाक्‌ संशितव्रत: ।। ३ ।। 
फिर होशमें आनेपर वह सत्यवादी एवं कठोरव्रती तपस्वी मुझे क्रोधसे दग्ध-सा करता 
हुआ बोला-- || ३ || 
यथावीर्यस्त्वया सर्प: कृतो5यं मद्बिभीषया । 
तथावीर्यों भुजड़स्त्वं मम शापाद्‌ भविष्यसि ।। ४ ।। 
“अरे! तूने मुझे डरानेके लिये जैसा अल्प शक्तिवाला सर्प बनाया था, मेरे शापवश ऐसा 
ही अल्पशक्तिसम्पन्न सर्प तुझे भी होना पड़ेगा” ।। ४ ।। 
तस्याहं तपसो वीर्य जानन्नासं तपोधन । 
भृशमुद्विग्नह्ददयस्तमवोचमहं तदा ।। ५ ।। 
प्रणत: सम्भ्रमाच्चैव प्राउ्जलि: पुरत: स्थित: । 
सखेति सहसेदं ते नर्मार्थ वै कृतं मया ।। ६ ।। 
क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मनू शापो5यं विनिवर्त्यताम्‌ | 
सो<थ मामब्रवीद्‌ दृष्टवा भृशमुद्धिग्नचेतसम्‌ ।। ७ ।। 
मुहुरुष्णं विनि:श्वस्य सुसम्भ्रान्तस्तपोधन: । 
नानृतं वै मया प्रोक्त भवितेद॑ं कथंचन || ८ ।। 
तपोधन! मैं उसकी तपस्याका बल जानता था, अतः मेरा हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठा 
और बड़े वेगसे उसके चरणोंमें प्रणाम करके, हाथ जोड़, सामने खड़ा हो, उस तपोधनसे 


बोला--सखे! मैंने परिहासके लिये सहसा यह कार्य कर डाला है। ब्रह्मन! इसके लिये क्षमा 
करो और अपना यह शाप लौटा लो। मुझे अत्यन्त घबराया हुआ देखकर सम्भ्रममें पड़े हुए 
उस तपस्वीने बार-बार गरम साँस खींचते हुए कहा--“मेरी कही हुई यह बात किसी प्रकार 
झूठी नहीं हो सकती” || ५--८ ।। 

यत्तु वक्ष्यामि ते वाक्‍्यं शृणु तन्मे तपोधन । 

श्रुत्वा च हृदि ते वाक्यमिदमस्तु सदानघ ।। ९ |। 

“निष्पाप तपोधन! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो और सुनकर अपने 
हृदयमें सदा धारण करो ।। ९ ।। 

उत्पत्स्यति रुरुर्नाम प्रमतेरात्मज: शुचि: । 

त॑ दृष्टवा शापमोक्षस्ते भविता नचिरादिव ।। १० ।। 

“भविष्यमें महर्षि प्रमतिके पवित्र पुत्र रुरु उत्पन्न होंगे, उनका दर्शन करके तुम्हें शीघ्र ही 
इस शापसे छुटकारा मिल जायगा' ।। १० || 

स त्वं रुुरिति ख्यात: प्रमतेरात्मजोडपि च । 

स्वरूपं प्रतिपद्याहमद्य वक्ष्यामि ते हितम्‌ ।। ११ ।। 

जान पड़ता है तुम वही रुरु नामसे विख्यात महर्षि प्रमतिके पुत्र हो। अब मैं अपना 
स्वरूप धारण करके तुम्हारे हितकी बात बताऊँगा ।। ११ ।। 

स डौण्डुभं परित्यज्य रूपं विप्रर्षभस्तदा । 

स्वरूपं भास्वरं भूय: प्रतिपेदे महायशा: ।। १२ ।। 

इदं चोवाच वचन रुरुमप्रतिमौजसम्‌ | 

अहिंसा परमो धर्म: सर्वप्राणभूतां वर ।। १३ ।। 

इतना कहकर महायशस्वी विप्रवर सहस्रपादने डुण्डुभका रूप त्यागकर पुनः अपने 
प्रकाशमान स्वरूपको प्राप्त कर लिया। फिर अनुपम ओजवाले रुरुसे यह बात कही 
--'समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है ।। १२-१३ ।। 

तस्मात्‌ प्राणभूत:ः सर्वान्‌ न हिंस्याद्‌ ब्राह्मण: क्वचित्‌ | 

ब्राह्मण: सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुति: ।। १४ ।। 

“अतः ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंमेंसे किसीकी कभी और कहीं भी हिंसा नहीं करनी 
चाहिये। ब्राह्मण इस लोकमें सदा सौम्य स्वभावका ही होता है, ऐसा श्रुतिका उत्तम वचन 
है ।। १४ ।। 

वेदवेदाड़विन्नाम सर्वभूताभयप्रद: । 

अहिंसा सत्यवचन क्षमा चेति विनिश्चितम्‌ ।। १५ ।। 

ब्राह्मणस्य परो धर्मो वेदानां धारणापि च । 

क्षत्रियस्य हि यो धर्म: स हि नेष्येत वै तव ।। १६ ।। 


“वह वेद-वेदांगोंका विद्वान्‌ और समस्त प्राणियोंको अभय देनेवाला होता है। अहिंसा, 
सत्यभाषण, क्षमा और वेदोंका स्वाध्याय निश्चय ही ये ब्राह्मणके उत्तम धर्म हैं। क्षत्रियका जो 
धर्म है वह तुम्हारे लिये अभीष्ट नहीं है ।। १५-१६ ।। 

दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम्‌ | 

तदिदं क्षत्रियस्यासीत्‌ कर्म वै शृणु मे रुरो || १७ ।। 

जनमेजयस्य यज्ञेडस्मिन्‌ सर्पाणां हिंसनं पुरा । 

परित्राणं च भीतानां सर्पाणां ब्राह्मणादपि ।। १८ ।। 

तपोवीर्यबलोपेताद वेदवेदाड़पारगात्‌ । 

आस्तीकाद्‌ द्विजमुख्याद्‌ वै सर्पसत्रे द्विजोत्तम ।। १९ |। 

“रुरो! दण्डधारण, उमग्रता और प्रजापालन--ये सब क्षत्रियोंके कर्म रहे हैं। मेरी बात 
सुनो, पहले राजा जनमेजयके यज्ञमें सर्पोकी बड़ी भारी हिंसा हुई। द्विजश्रेष्ठ) फिर उसी 
सर्पसत्रमें तपस्याके बल-वीर्यसे सम्पन्न, वेद वेदांगोंके पारंगत विद्वान्‌ विप्रवर आस्तीक 
नामक ब्राह्मणके द्वारा भयभीत सर्पोंकी प्राणरक्षा हुई! || १७--१९ ।। 
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि डुण्डुभशापमोक्षे एकादशो<ध्याय: ।। 

१२२ || 


इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोगपर्वमें डुण्ड्रुभशापमोक्षविषयक 
ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १९ ॥ 


अपर बक। है २ >> 


द्वादशोड् ध्याय: 


जनमेजयके सर्पसत्रके विषयमें रुरुकी जिज्ञासा और 
पिताद्वारा उसकी पूर्ति 


रुस्स्वाच 


कथं हिंसितवान्‌ सर्पानू स राजा जनमेजय: । 

सर्पा वा हिंसितास्तत्र किमर्थ द्विजसत्तम ।। १ || 

रुरुने पूछा-<द्धिजश्रेष्ठ] राजा जनमेजयने सर्पोंकी हिंसा कैसे की? अथवा उन्होंने 
किसलिये यज्ञमें सर्पोंकी हिंसा करवायी? ।। १ ।। 

किमर्थ मोक्षिताश्वैव पन्नगास्तेन धीमता । 

आस्तीकेन द्विजश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यशेषत: ।। २ ।॥। 

विप्रवर! परम बुद्धिमान्‌ महात्मा आस्तीकने किसलिये सर्पोंको उस यज्ञसे बचाया था? 
यह सब मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। २ ।। 

ऋषिरुवाच 


श्रोष्यसि त्वं रुरो सर्वमास्तीकचरितं महत्‌ | 
ब्राह्मणानां कथयतामित्युक्त्वान्तरधीयत ।। ३ ।। 
ऋषिने कहा--'रुरो! तुम कथावाचक ब्राह्मणोंके मुखसे आस्तीकका महान चरित्र 
सुनोगे।' ऐसा कहकर सहस्रपाद मुनि अन्तर्धान हो गये ।। ३ ।। 
सौतिर्वाच 


रुरुश्षापि वनं सर्व पर्यधावत्‌ समन्ततः । 

तमृषिं नष्टमन्विच्छन्‌ संश्रान्तो न्‍्यपतद्‌ भुवि || ४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तदनन्तर रुरु वहाँ अदृश्य हुए मुनिकी खोजमें उस वनके 
भीतर सब ओर दौड़ता रहा और अन्तमें थककर पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। ४ ।। 

स मोहं परमं गत्वा नष्टसंज्ञ इवाभवत्‌ | 

तदृषेर्वचनं तथ्यं चिन्तयान: पुनः पुनः ।। ५ ।। 

लब्धसंज्ञो रुरुक्षायात्‌ तदाचख्यौ पितुस्तदा । 

पिता चास्य तदाख्यान॑ पृष्ट: सर्व न्यवेदयत्‌ ।। ६ ।। 

गिरनेपर उसे बड़ी भारी मूर्च्छने दबा लिया। उसकी चेतना नष्ट-सी हो गयी। महर्षिके 
यथार्थ वचनका बार-बार चिन्तन करते हुए होशमें आनेपर रुकु घर लौट आया। उस समय 
उसने पितासे वे सब बातें कह सुनायीं और पितासे भी आस्तीकका उपाख्यान पूछा। रुरुके 
पूछनेपर पिताने सब कुछ बता दिया ।। ५-६ || 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि सर्पसत्रप्रस्तावनायां द्वादशो5्ध्याय: ।। 
१२२ || 
इस प्रकार श्रीमह्योा भारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत पौलोगपर्वमें सर्पसत्रप्रस्तावनाविषयक 
बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२ ॥ 


ऑपनआक्रात बछ। अ--क्ाज 


(आस्तीकपर्व) 
त्रयोदशो 5 ध्याय: 


जरत्कारुका अपने पितरोंके अनुरोधसे विवाहके 
लिये उद्यत होना 


शौनक उवाच 


किमर्थ राजशार्दूल: स राजा जनमेजय: । 

सर्पसत्रेण सर्पाणां गतो<न्तं तद्‌ वदस्व मे ।। १ ।। 

निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषत: । 

आस्तीकक्ष द्विजश्रेष्ठ: किमर्थ जपतां वर: ।। २ ।। 

मोक्षयामास भुजगानू्‌ प्रदीप्तादू वसुरेतस: । 

कस्य पुत्र: स राजासीत्‌ सर्पसत्रं य आहरत्‌ ।। ३ ।। 

सच द्विजातिप्रवर: कस्य पुत्रोडभिधत्स्व मे । 

शौनकजीने पूछा--सूतजी! राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयने किसलिये 
सर्पसत्रद्वारा सर्पोका अन्त किया? यह प्रसंग मुझसे कहिये। सूतनन्दन! इस 
विषयकी सब बातोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये। जप-यज्ञ करनेवाले पुरुषोंमें 
श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीकने किसलिये सर्पोंको प्रज्वलित अग्निमें जलनेसे बचाया 
और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्रका आयोजन किया था, किसके पुत्र 
थे? तथा द्विजवंशशिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? यह मुझे बताइये ।। १ 
३३ || 

सौतिर्वाच 


महदाख्यानमास्तीकं यथैतत्‌ प्रोच्यते द्विज ।। ४ ।। 
सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर । 
उग्रश्रवाजीने कहा-ब्रह्मन! आस्तीकका उपाख्यान बहुत बड़ा है। 
वक्ताओंमें श्रेष्ठ! यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो || ४३ ।। 
शौनक उवाच 


श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम्‌ ।। ५ ।। 
आस्तीकस्य पुराणर्षेब्राह्मणस्य यशस्विन: । 


शौनकजीने कहा--सूतनन्दन! पुरातन ऋषि एवं यशस्वी ब्राह्मण 
आस्तीककी इस मनोरम कथाको मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। ५३ || 
सौतिर्वाच 


इतिहासमिमं विप्रा: पुराणं परिचक्षते ।। ६ ।। 

कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु | 

पूर्व प्रचोदित: सूत: पिता मे लोमहर्षण: ।। ७ ।। 

शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान्‌ | 

तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम्‌ ।। ८ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--शौनकजी! ब्राह्मणलोग इस इतिहासको बहुत पुराना 
बताते हैं। पहले मेरे पिता लोमहर्षणजीने, जो व्यासजीके मेधावी शिष्य थे, 
ऋषियोंके पूछनेपर साक्षात्‌ श्रीकृष्णद्वैधायन (व्यास)-के कहे हुए इस 
इतिहासका नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणोंके समुदायमें वर्णन किया था। उन्हींके 
मुखसे सुनकर मैं भी इसका यथावत्‌ वर्णन करता हूँ || ६--८ ।। 

इदमास्तीकमाख्यान॑ तुभ्यं शौनक पृच्छते । 

कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम्‌ ।। ९ |। 

शौनकजी! यह आस्तीक मुनिका उपाख्यान सब पापोंका नाश करनेवाला 
है। आपके पूछनेपर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ ।। ९ ।। 

आस्तीकस्य पिता हासीत्‌ प्रजापतिसम: प्रभु: । 

ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रत: सदा ।। १० ।। 

आस्तीकके पिता प्रजापतिके समान प्रभावशाली थे। ब्रह्मचारी होनेके साथ 
ही उन्होंने आहारपर भी संयम कर लिया था। वे सदा उग्र तपस्यामें संलग्न रहते 
थे।। १० ।। 

जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरेता महातपा: । 

यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञ: संशितव्रत: ।। ११ ।। 

स कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वित: । 

चचार पृथिवीं सर्वा यत्रसायंगृहो मुनि: ।। १२ ।। 

उनका नाम था जरत्कारु। वे ऊर्ध्विता और महान्‌ ऋषि थे। यायावरोंमें+ 
उनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे धर्मके ज्ञाता थे। एक समय तपोबलसे सम्पन्न 
उन महाभाग जरत्कारने यात्रा प्रारम्भ की। वे मुनि-वृत्तिसे रहते हुए जहाँ शाम 
होती वहीं डेरा डाल देते थे || ११-१२ ।। 

तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वश: । 

चरन्‌ दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभि: ।। १३ ।। 


वे सब तीर्थोमें स्नान करते हुए घूमते थे। उन महातेजस्वी मुनिने कठोर 
व्रतोंकी ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये 
अत्यन्त दुःसाध्य थी ।। १३ ।। 

वायुभक्षो निराहार: शुष्यन्ननिमिषो मुनि: । 

इतस्तत: परिचरन्‌ दीप्तपावकसप्रभ: ।। १४ ।। 

अटमान: कदाचित्‌ स्वान्‌ स ददर्श पितामहान्‌ । 

लम्बमानान्‌ महागर्ते पादैरूर्ध्वैरवाड्मुखान्‌ ।। १५ ।। 

वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजनका सर्वथा त्याग करके अपने 
शरीरको सुखाते रहते थे। उन महर्षिने निद्रापर भी विजय प्राप्त कर ली थी, 
इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। इधर-उधर विचरण करते हुए वे 
प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। घूमते-घूमते किसी समय 
उन्होंने अपने पितामहोंको देखा जो ऊपरको पैर और नीचेको सिर किये एक 
विशाल गड्ढेमें लटक रहे थे || १४-१५ ।। 

तानब्रवीत्‌ स दृष्टवैव जरत्कारु: पितामहान्‌ । 

के भवन्तो5वलम्बन्ते गर्ते हास्मिन्नधोमुखा: ।। १६ ।। 

उन्हें देखते ही जरत्कारुने उनसे पूछा--“आपलोग कौन हैं, जो इस गड़ढेमें 
नीचेको मुख किये लटक रहे हैं | १६ ।। 

वीरणस्तम्बके लग्ना: सर्वतः परिभक्षिते | 

मूषकेन निगूढेन गर्तेडस्मिन्‌ नित्यवासिना ।। १७ ।। 

“आप जिस वीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकोंके समूह) -को पकड़कर 
लटक रहे हैं, उसे इस गड़ढेमें गुप्तरूपसे नित्य निवास करनेवाले चूहेने सब 
ओरसे प्राय: खा लिया है” ।। १७ ।।3 

पितर ऊचु. 

यायावरा नाम वयमृषय: संशितव्रता: । 

संतानप्रक्षयाद्‌ ब्रद्मुनज्नधो गच्छाम मेदिनीम्‌ ।। १८ ।। 

पितर बोले--ब्रह्मम! हमलोग कठोर व्रतका पालन करनेवाले यायावर 
नामक मुनि हैं। अपनी संतान-परम्पराका नाश होनेसे हम नीचे--पृथ्वीपर 
गिरना चाहते हैं ।। १८ ।। 

अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति स्मृत: । 

मन्दभाग्यो5ल्‍्पभाग्यानां तप एव समास्थित: ।। १९ ।। 

हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारु। हम 
भाग्यहीनोंकी वह अभागी संतान केवल तपस्यामें ही संलग्न है ।। १९ ।। 


न स पुत्राञउ्जनयितु दारान्‌ मूढश्चिकीर्षति । 

तेन लम्बामहे गर्ते संतानस्य क्षयादिह ।। २० ।। 

अनाथास्तेन नाथेन यया दुष्कृतिनस्तथा | 

कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम || २१ || 

ज्ञातुमिच्छामहे ब्रह्मनू को भवानिह नः स्थित: । 

किमर्थ चैव न: शोच्याननुशोचसि सत्तम || २२ ।। 

वह मूढ़ पुत्र उत्पन्न करनेके लिये किसी स्त्रीसे विवाह करना नहीं चाहता है। 
अत: वंशपरम्पराका विनाश होनेसे हम यहाँ इस गड्ढेमें लटक रहे हैं। हमारी 
रक्षा करनेवाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्योंकी भाँति हम 
अनाथ हो गये हैं। साधुशिरोमणे! तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बान्धवोंकी भाँति 
हमलोगोंकी इस दयनीय दशाके लिये शोक कर रहे हो? ब्रह्म! हम यह जानना 
चाहते हैं कि तुम कौन हो जो आत्मीयकी भाँति यहाँ हमारे पास खड़े हो? 
सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ हम शोचनीय प्राणियोंके लिये तुम क्‍यों शोकमग्न होते 
हो || २०--२२ ।। 

जरत्कारुर्वाच 


मम पूर्वे भवन्तो वै पितर: सपितामहा: । 

ब्रूत कि करवाण्यद्य जरत्कारुरहं स्वयम्‌ ।। २३ ।। 

जरत्कारुने कहा--महात्माओ! आपलोग मेरे ही पितामह और पूर्वज 
पितृगण हैं। स्वयं मैं ही जरत्कारु हूँ। बताइये, आज आपकी क्‍या सेवा 
करूँ? ।। २३ ।। 

पितर ऊचु. 

यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः । 

आत्मनोडर्थेडस्मदर्थे च धर्म इत्येव वा विभो ।। २४ ।। 

पितर बोले--तात! तुम हमारे कुलकी संतान-परम्पराको बनाये रखनेके 
लिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाहके लिये प्रयत्न करो। प्रभो! तुम अपने 
लिये, हमारे लिये अथवा धर्मका पालन हो, इस उद्देश्यसे पुत्रकी उत्पत्तिके लिये 
यत्न करो || २४ ।। 

न हि धर्मफलैस्तात न तपोभि: सुसंचितै: । 

तां गतिं प्राप्तुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति वै ।। २५ ।। 

तात! पुत्रवाले मनुष्य इस लोकमें जिस उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं, उसे 
अन्य लोग धर्मानुकूल फल देनेवाले भलीभाँति संचित किये हुए तपसे भी नहीं 
पाते ।। २५ ।। 


तद्‌ दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मन: कुरु । 

पुत्रकास्मन्नियोगात्‌ त्वमेतन्न: परमं हितम्‌ ।। २६ ।। 

अतः बेटा! तुम हमारी आज्ञासे विवाह करनेका प्रयत्न करो और 
संतानोत्पादनकी ओर ध्यान दो। यही हमारे लिये सर्वोत्तम हितकी बात 
होगी ।। २६ || 


जरत्कारुस्वाच 


न दारान्‌ वै करिष्ये5हं न धनं जीवितार्थत: । 

भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम्‌ ।। २७ ।। 

जरत्कारुने कहा--पितामहगण! मैंने अपने मनमें यह निश्चय कर लिया था 
कि मैं जीवनके सुख-भोगके लिये कभी न तो पत्नीका परिग्रह करूँगा और न 
धनका संग्रह ही; परंतु यदि ऐसा करनेसे आपलोगोंका हित होता है तो उसके 
लिये अवश्य विवाह कर लूँगा || २७ ।। 

समयेन च कर्ताहमनेन विधिपूर्वकम्‌ | 

तथा यद्युपलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा हाहम्‌ ।। २८ ।। 

किंतु एक शर्तके साथ मुझे विधिपूर्वक विवाह करना है। यदि उस शर्तके 
अनुसार किसी कुमारी कन्याको पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथा 
विवाह करूँगा ही नहीं ।। २८ ।। 

सनाम्नी या भवित्री मे दित्सिता चैव बन्धुभि: | 

भैक्ष्यवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः ।। २९ ।। 

(वह शर्त यों है--) जिस कनन्‍्याका नाम मेरे नामके ही समान हो, जिसे 
उसके भाई-बन्धु स्वयं मुझे देनेकी इच्छासे रखते हों और जो भिक्षाकी भाँति 
स्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्याका मैं शास्त्रीय विधिके अनुसार पाणिग्रहण 
करूँगा ।। २९ |। 

दरिद्राय हि मे भार्या को दास्यति विशेषत: । 

प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित्‌ प्रदास्यति ।। ३० ।। 

विशेष बात तो यह है कि मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगनेपर भी कौन अपनी 
कन्या पत्नीरूपमें प्रदान करेगा? इसलिये मेरा विचार है कि यदि कोई भिक्षाके 
तौरपर अपनी कन्या देगा तो उसे ग्रहण करूँगा ।। ३० ।। 

एवं दारक्रियाहेतो: प्रयतिष्ये पितामहा: । 

अनेन विधिना शश्रृन्न करिष्येडहमन्यथा ।। ३३ ।। 

पितामहो! मैं इसी प्रकार, इसी विधिसे विवाहके लिये सदा प्रयत्न करता 
रहूँगा। इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा ।। ३१ ।। 


तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै | 

शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम ।। ३२ ।। 

इस प्रकार मिली हुई पत्नीके गर्भसे यदि कोई प्राणी जन्म लेगा तो वह 
आपलोगोंका उद्धार करेगा, अत: आप मेरे पितर अपने सनातन स्थानपर जाकर 
वहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें || ३२ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुतत्पितृसंवादे 
त्रयोदशो 5 ध्याय: ।। १३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारु तथा 
उनके पितरोंका संवाद नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३ ॥ 


नक्शा न () आज अनन- 


३. यायावरका अर्थ है सदा विचरनेवाला मुनि। मुनिवृत्तिसे रहते हुए सदा इधर-उधर घूमते रहनेवाले 
गृहस्थ ब्राह्मणोंक एक समूहविशेषकी यायावर संज्ञा है। ये लोग एक गाँवमें एक रातसे अधिक नहीं ठहरते 
और पक्षमें एक बार अन्निहोत्र करते हैं। पक्षहोम सम्प्रदायकी प्रवृत्ति इन्हींसे हुई है। इनके विषयमें 
भारद्वाजका वचन इस प्रकार मिलता है-- 

यायावरा नाम ब्राह्मणा आसंस्ते अर्धमासादग्निहोत्रमजुह्नन्‌ । 
यायावरलोग घूमते-घूमते जहाँ संध्या हो जाती है वहीं ठहर जाते हैं। 

२. यहाँ भूलोक ही गड्ढा है। स्वर्गवासी पितरोंको जो नीचे गिरनेका भय लगा रहता है उसीको सूचित 
करनेके लिये यह कहा गया है कि उनके पैर ऊपर थे और सिर नीचे। काल ही चूहा है और वंशपरम्परा ही 
वीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकोंका समुदाय) है। उस वंशमें केवल जरत्कारु बच गये थे और अन्य सब 
पुरुष कालके अधीन हो चुके थे। यही व्यक्त करनेके लिये चूहेके द्वारा तिनकोंके समुदायको सब ओरसे 
खाया हुआ बताया गया है। जरत्कारुके विवाह न करनेसे उस वंशका वह शेष अंश भी नष्ट होना चाहता 
था। इसीलिये पितर व्याकुल थे और जरत्कारुको इसका बोध करानेके लिये उन्होंने इस प्रकार दर्शन दिया 
था। 


चतुर्दशो 5 ध्याय: 


जरत्कारुद्वारा वासुकिकी बहिनका पाणिग्रहण 


सौतिरुवाच 


ततो निवेशाय तदा स वि्र: संशितव्रत: । 

महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत ।। १ || 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तदनन्तर वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण भार्याकी 
प्राप्तिके लिये इच्छुक होकर पृथ्वीपर सब ओर विचरने लगे; किंतु उन्हें पत्नीकी उपलब्धि 
नहीं हुई ।। १ ।। 

स कदाचिद्‌ वन गत्वा विप्र: पितृवच: स्मरन्‌ । 

चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाच: शनैरिव ।। २ ।। 

एक दिन किसी वनमें जाकर विप्रवर जरत्कारुने पितरोंक वचनका स्मरण करके 
कन्याकी भिक्षाके लिये तीन बार धीरे-धीरे पुकार लगायी--“कोई भिक्षारूपमें कन्या दे 
जाय” |। २ || 

त॑ वासुकि: प्रत्यगृह्नादुद्यम्य भगिनीं तदा । 

नसतां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन्‌ ।। ३ ।। 

इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिनको लेकर मुनिकी सेवामें उपस्थित हो गये 
और बोले, “यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।” किंतु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे-जैसे 
नामवाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया ।। ३ ।। 

सनाम्नीं चोद्यतां भार्या गृह्लीयामिति तस्य हि । 

मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मन: ।। ४ ।। 

उन महात्मा जरत्कारुका मन इस बातपर स्थिर हो गया था कि मेरे-जैसे नामवाली 
कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसीको पत्नीरूपमें ग्रहण करूँ: || ४ ।। 

तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपा: । 

किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम ।। ५ ।। 

ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान्‌ एवं महान्‌ तपस्वी जरत्कारुने पूछा--'नागराज! 
सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिनका क्या नाम है?” ।। ५ ।। 

वायुकिरुवाच 


जरत्कारो जरत्कारु: स्वसेयमनुजा मम | 
प्रतिगृह्नीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम्‌ । 
त्वदर्थ रक्षिता पूर्व प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम ।। ६ ।। 


वासुकिने कहा--जरत्कारो! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारु नामसे ही प्रसिद्ध है। इस 
सुन्दर कटिप्रदेशवाली कुमारीको पत्नी बनानेके लिये मैंने स्वयं आपकी सेवामें समर्पित 
किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठी यह बहुत पहलेसे आपहीके लिये सुरक्षित रखी 
गयी है, अतः इसे ग्रहण करें || ६ ।। 

एवमुक्त्वा ततः प्रादाद्‌ भार्यार्थे वरवर्णिनीम्‌ । 

सचतां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा || ७ ।। 

ऐसा कहकर वासुकिने वह सुन्दरी कन्या मुनिको पत्नीरूपमें प्रदान की। मुनिने भी 
शास्त्रीय विधिके अनुसार उसका पाणिग्रहण किया ।। ७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशो5ध्याय: 
॥। १४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वायुकिकी बहिनके वरणसे 
सम्बन्ध रखनेवाला चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४ ॥। 


अपन ह बछ। | अकाल 


पञ्चदशो<् ध्याय: 


आस्तीकका जन्म तथा मातृशापसे सर्पसत्रमें नष्ट होनेवाले 
नागवंशकी उनके द्वारा रक्षा 


सौतिर्वाच 

मात्रा हि भुजगा: शप्ता: पूर्व ब्रह्मविदां वर । 

जनमेजयस्य वो यज्ञे धक्ष्यत्यनिलसारथि: ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ शौनक! पूर्वकालमें नागमाता कद्भूने सर्पोको 
यह शाप दिया था कि तुम्हें जनमेजयके यज्ञमें अग्नि भस्म कर डालेगी ।। १ ।। 

तस्य शापस्य शान्त्यर्थ प्रददौ पन्नगोत्तम: । 

स्वसारमृषये तस्मै सुव्रताय महात्मने ।। २ ।। 

सचतां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा । 

आस्तीको नाम पुत्रश्न तस्यां जज्ञे महामना: ।। ३ ।। 

उसी शापकी शान्तिके लिये नागप्रवर वासुकिने सदाचारका पालन करनेवाले महात्मा 
जरत्कारुको अपनी बहिन ब्याह दी थी। महामना जरत्कारने शास्त्रीय विधिके अनुसार उस 
नागकन्याका पाणिग्रहण किया और उसके गर्भसे आस्तीक नामक पुत्रको जन्म 
दिया ।। २-३ ।। 

तपस्वी च महात्मा च वेदवेदाड़पारग: । 

सम: सर्वस्य लोकस्य पितृमातृभयापह: ।। ४ ।। 

आस्तीक वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान, तपस्वी, महात्मा, सब लोगोंके प्रति समानभाव 
रखनेवाले तथा पितृकुल और मातृकुलके भयको दूर करनेवाले थे ।। ४ ।। 

अथ दीर्घस्य कालस्य पाण्डवेयो नराधिप: । 

आज हार महायज्ञं सर्पसत्रमिति श्रुति: ।। ५ ।। 

तस्समिन्‌ प्रवत्ते सत्रे तु सर्पाणामन्तकाय वै | 

मोचयामास तान्‌ नागानास्तीक: सुमहातपा: ।। ६ ।। 

तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात्‌ पाण्डववंशीय नरेश जनमेजयने सर्पसत्र नामक महान्‌ 
यज्ञका आयोजन किया, ऐसा सुननेमें आता है। सर्पोके संहारके लिये आरम्भ किये हुए उस 
सत्रमें आकर महातपस्वी आस्तीकने नागोंको मौतसे छुड़ाया ।। ५-६ ।। 

भ्रातृश्व मातुलांश्वैव तथैवान्यान्‌ स पन्नगान्‌ । 

पितृश्च तारयामास संतत्या तपसा तथा ।। ७ ।। 


उन्होंने मामा तथा ममेरे भाइयोंको एवं अन्यान्य सम्बन्धोंमें आनेवाले सब नागोंको 
संकटमुक्त किया। इसी प्रकार तपस्या तथा संतानोत्पादनद्वारा उन्होंने पितरोंका भी उद्धार 
किया ।। ७ ।। 

व्रतैश्न विविधैर््रह्मन्‌ स्वाध्यायैश्वानूणो5भवत्‌ | 

देवांक्ष॒ तर्पयामास यज्ञैविविधदक्षिणै: ।। ८ ।॥। 

ऋषीं श्व ब्रह्मचर्येण संतत्या च पितामहान्‌ । 

अपहृत्य गुरुं भारं पितृणां संशितव्रतः ।। ९ ।। 

जरत्कारुर्गत: स्वर्ग सहित: स्वै: पितामहै: । 

आस्तीकं च सुतं प्राप्य धर्म चानुत्तमं मुनि: ।। १० ।। 

जरत्कारु: सुमहता कालेन स्वर्गमेयिवान्‌ । 

एतदाख्यानमास्तीकं यथावत्‌ कथितं मया । 

प्रत्रूहि भूगुशार्दूल किमन्यत्‌ कथयामि ते ।। ११ ।। 

ब्रह्मन! भाँति-भाँतिके व्रतों और स्वाध्यायोंका अनुष्ठान करके वे सब प्रकारके ऋणोंसे 
उऋण हो गये। अनेक प्रकारकी दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करके उन्होंने देवताओं, 
ब्रह्मचर्यव्रतके पालनसे ऋषियों और संतानकी उत्पत्तिद्वारा पितरोंको तृप्त किया। कठोर 
व्रतका पालन करनेवाले जरत्कारु मुनि पितरोंकी चिन्ताका भारी भार उतारकर अपने उन 
पितामहोंके साथ स्वर्गलोकको चले गये। आस्तीक-जैसे पुत्र तथा परम धर्मकी प्राप्ति करके 
मुनिवर जरत्कारने दीर्घकालके पश्चात्‌ स्वर्गलोककी यात्रा की। भूगुकुलशिरोमणे! इस 
प्रकार मैंने आस्तीकके उपाख्यानका यथावत्‌ वर्णन किया है। बताइये, अब और क्या कहा 
जाय? ।। ८--११ || 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पाणां मातृशापप्रस्तावे 
पज्चदशो<ध्याय: ।। १५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पोको मातृशाप प्राप्त होनेकी 
प्रस्तावनासे युक्त पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १५ ॥। 


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घोडशो< ध्याय: 


कद्रू और विनताको 582% : वरदानसे अभीष्ट पुत्रोंकी 
प्रा 


शौनक उवाच 


सौते त्वं कथयस्वेमां विस्तरेण कथां पुन: । 

आस्तीकस्य कवे: साधो: शुश्रूषा परमा हि न: ।। १ ।। 

शौनकजी बोले--सूतनन्दन! आप ज्ञानी महात्मा आस्तीककी इस कथाको पुनः 
विस्तारके साथ कहिये। हमें उसे सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है ।। १ ।। 

मधुरं कथ्यते सौम्य श्लक्ष्णाक्षरपदं त्वया । 

प्रीयामहे भूशं तात पितेवेदं प्रभाषसे ।। २ ।। 

सौम्य! आप बड़ी मधुर कथा कहते हैं। उसका एक-एक अक्षर और एक-एक पद 
कोमल है। तात! इसे सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आप अपने पिता लोमहर्षणकी 
भाँति ही प्रवचन कर रहे हैं || २ ।। 

अस्मच्छुश्रूषणे नित्यं पिता हि निरतस्तव । 

आचहष्टैतद्‌ यथाख्यानं पिता ते त्वं तथा वद ।। ३ ।। 

आपके पिता सदा हमलोगोंकी सेवामें लगे रहते थे। उन्होंने इस उपाख्यानको जिस 
प्रकार कहा है, उसी रूपमें आप भी कहिये ।। ३ ।। 


सौतिरुवाच 


आयुष्मन्निदमाख्यानमास्तीकं॑ कथयामि ते । 

यथाश्रुतं कथयत: सकाशाद्‌ वै पितुर्मया || ४ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--आयुष्मन्‌! मैंने अपने कथावाचक पिताजीके मुखसे यह 
आस्तीककी कथा, जिस रूपमें सुनी है, उसी प्रकार आपसे कहता हूँ ।। ४ ।। 

पुरा देवयुगे ब्रह्मन्‌ प्रजापतिसुते शुभे । 

आस्तां भगिन्यौ रूपेण समुपेते5द्भुतेडनघ ।। ५ ।। 

ते भायें कश्यपस्यास्तां कद्रश्न विनता च ह । 

प्रादात्‌ ताभ्यां वरं प्रीत: प्रजापतिसम: पति: ।। ६ ।। 

कश्यपो धर्मपत्नीभ्यां मुदा परमया युत: । 

वरातिसर्ग श्रुत्वैवं कश्यपादुत्तमं च ते ।। ७ ।। 

हर्षादप्रतिमां प्रीतिं प्रापतु: सम वरस्त्रियौ । 

वच्रे कद्ग: सुतान्‌ नागान्‌ सहस्र॑ तुल्यवर्चस: ।। ८ ।। 


ब्रह्म! पहले सत्ययुगमें दक्ष प्रजापतिकी दो शुभलक्षणा कन्याएँ थीं--कद्गू और 
विनता। वे दोनों बहिनें रूप-सौन्दर्यसे सम्पन्न तथा अद्भुत थीं। अनघ! उन दोनोंका विवाह 
महर्षि कश्यपजीके साथ हुआ था। एक दिन प्रजापति ब्रह्माजीके समान शक्तिशाली पति 
महर्षि कश्यपने अत्यन्त हर्षमें भरकर अपनी उन दोनों धर्मपत्नियोंको प्रसन्नतापूर्वक वर देते 
हुए कहा--'तुममेंसे जिसकी जो इच्छा हो वर माँग लो।' इस प्रकार कश्यपजीसे उत्तम 
वरदान मिलनेकी बात सुनकर प्रसन्नताके कारण उन दोनों सुन्दरी स्त्रियोंको अनुपम आनन्द 
प्राप्त हुआ। कद्भूने समान तेजस्वी एक हजार नागोंको पुत्ररूपमें पानेका वर माँगा || ५-- 
८ ।। 

द्वौ पुत्री विनता वव्रे कद्रूपुत्राधिकौ बले | 

तेजसा वपुषा चैव विक्रमेणाधिकौ च तौ ।। ९ ।। 

विनताने बल, तेज, शरीर तथा पराक्रममें कट्रूके पुत्रोंसे श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र 
माँगे || ९ ।। 

तस्यै भर्ता वरं प्रादादत्यर्थ पुत्रमीप्सितम्‌ । 

एवमस्त्विति त॑ं चाह कश्यपं विनता तदा ॥। १० |। 

विनताको पतिदेवने, अत्यन्त अभीष्ट दो पुत्रोंके होनेका वरदान दे दिया। उस समय 
विनताने कश्यपजीसे 'एवमस्तु “कहकर उनके दिये हुए वरको शिरोधार्य किया ।। १० ।॥। 

यथावत्‌ प्रार्थितं लब्ध्वा वरं तुष्टाभवत्‌ तदा | 

कृतकृत्या तु विनता लब्ध्वा वीर्याधिकौ सुतौ || ११ ।। 

अपनी प्रार्थनाके अनुसार ठीक वर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। कद्रूके पुत्रोंसे अधिक 
बलवान्‌ और पराक्रमी--दो पुत्रोंके होनेका वर प्राप्त करके विनता अपनेको कृतकृत्य 
मानने लगी ।। ११ ।। 

कद्रूश्न लब्ध्वा पुत्राणां सहस्र॑ तुल्यवर्चसाम्‌ । 

धार्यो प्रयत्नतो गर्भावित्युक्त्वा स महातपा: ।। १२ ।। 

ते भारयें वरसंतुष्टे कश्यपो वनमाविशत्‌ । 

समान तेजस्वी एक हजार पुत्र होनेका वर पाकर कद्भू भी अपना मनोरथ सिद्ध हुआ 
समझने लगी। वरदान पाकर संतुष्ट हुई अपनी उन धर्मपत्नियोंसे यह कहकर कि “तुम दोनों 
यत्नपूर्वक अपने-अपने गर्भकी रक्षा करना” महातपस्वी कश्यपजी वनमें चले गये || १२३ 

|| 


सौतिरुवाच 


कालेन महता कढद्रूरण्डानां दशतीर्दश ।। १३ ।। 
जनयामास विष्रेन्द्र दे चाण्डे विनता तदा । 


उग्रश्रवाजीने कहा--ब्रह्मन! तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात्‌ कद्गूने एक हजार और 
विनताने दो अण्डे दिये |। १३ | ।। 

तयोरण्डानि निदधुः प्रहष्टाः: परिचारिका: ।॥। १४ ।। 

सोपस्वेदेषु भाण्डेषु पठचवर्षशतानि च । 

ततः पज्चशते काले कद्रूपुत्रा विनि:सृता: ।। १५ ।। 

अण्डाभ्यां विनतायास्तु मिथुन न व्यदृश्यत । 

दासियोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनोंके अण्डोंको गरम बर्तनोंमें रख दिया। वे अण्डे 
पाँच सौ वर्षोतक उन्हीं बर्तनोंमें पड़े रहे। तत्पश्चात्‌ पाँच सौ वर्ष पूरे होनेपर कद्भूके एक 
हजार पुत्र अण्डोंको फोड़कर बाहर निकल आये; परंतु विनताके अण्डोंसे उसके दो बच्चे 
निकलते नहीं दिखायी दिये || १४-१५३ ।। 

ततः पुत्रार्थिनी देवी ब्रीडिता च तपस्विनी ।। १६ ।। 

अणज्डं बिभेद विनता तत्र पुत्रमपश्यत । 

पूर्वार्धकायसम्पन्नमितरेणाप्रकाशता ।। १७ ।। 

इससे पुत्रार्थनिी और तपस्विनी देवी विनता सौतके सामने लज्जित हो गयी। फिर 
उसने अपने हाथोंसे एक अण्डा फोड़ डाला। फूटनेपर उस अण्डेमें विनताने अपने पुत्रको 
देखा, उसके शरीरका ऊपरी भाग पूर्णरूपसे विकसित एवं पुष्ट था, किंतु नीचेका आधा 
अंग अभी अधूरा रह गया था ।। १६-१७ ।। 

स पुत्र: क्रोधसंरब्ध: शशापैनामिति श्रुति: । 

यो5हमेवं कृतो मातस्त्वया लोभपरीतया ।। १८ ।। 

शरीरेणासमग्रेण तस्माद्‌ दासी भविष्यसि । 

पञ्चवर्षशतान्यस्या यया विस्पर्धथसे सह ।। १९ ।। 

सुना जाता है, उस पुत्रने क्रोधके आवेशमें आकर विनताको शाप दे दिया--“माँ! तूने 
लोभके वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीरका बना दिया--मैरे समस्त अंगोंको 
पूर्णतः: विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया; इसलिये जिस सौतके साथ तू लाग-डाँट रखती है, 
उसीकी पाँच सौ वर्षोतक दासी बनी रहेगी || १८-१९ ।। 

एष च त्वां सुतो मातर्दासीत्वान्मोचयिष्यति । 

यद्येनमपि मातस्त्वं मामिवाण्डविभेदनात्‌ ।। २० ।। 

न करिष्यस्यनड़ू वा व्यज्रं वापि तपस्विनम्‌ । 

और मा! यह जो दूसरे अण्डेमें तेरा पुत्र है, यही तुझे दासीभावसे छुटकारा दिलायेगा 

किंतु माता! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्रको मेरी ही तरह अण्डा फोड़कर 
अंगहीन या अधूरे अंगोंसे युक्त न बना देगी || २०३ ।। 

प्रतिपालयितव्यस्ते जन्मकालो<5स्थ धीरया ।। २१ ।। 

विशिष्ट बलमीप्सन्त्या पञ्चवर्षशतात्‌ पर: । 


“इसलिये यदि तू इस बालकको विशेष बलवान बनाना चाहती है तो पाँच सौ वर्षके 
बादतक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्मकी प्रतीक्षा करनी चाहिये" || २१६ ।। 

एवं शप्त्वा तत: पुत्रो विनतामन्तरिक्षग: ।। २२ ।। 

अरुणो दृश्यते ब्रह्मन्‌ प्रभातसमये सदा । 

आदित्यरथमध्यास्ते सारथ्यं समकल्पयत्‌ ।। २३ ।। 

इस प्रकार विनताको शाप देकर वह बालक अरुण अन्तरिक्षमें उड़ गया। ब्रह्मन! 
तभीसे प्रातःकाल (प्राची दिशामें) सदा जो लाली दिखायी देती है, उसके रूपमें विनताके 
पुत्र अरुणका ही दर्शन होता है। वह सूर्यदेवके रथपर जा बैठा और उनके सारथिका काम 
सँभालने लगा ।। २२-२३ |। 

गरुडो5पि यथाकाल जज्ञे पन्नगभोजन: । 

स जातमात्रो विनतां परित्यज्य खमाविशत्‌ ।। २४ ।। 

आदास्यन्नात्मनो भोज्यमन्न॑ विहितमस्य यत्‌ । 

विधात्रा भृगुशार्दूल क्षुधित: पतगेश्वर: ।। २५ ।। 

तदनन्तर समय पूरा होनेपर सर्पसंहारक गरुडका जन्म हुआ। भृगुश्रेष्ठ! पक्षिराज गरुड 
जन्म लेते ही क्षुधासे व्याकुल हो गये और विधाताने उनके लिये जो आहार नियत किया था, 
अपने उस भोज्य पदार्थको प्राप्त करनेके लिये माता विनताको छोड़कर आकाशमें उड़ 
गये ।। २४-२५ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पादीनामुत्पत्ती षोडशो<ध्याय: ।। 


२६ || 
इस प्रकार श्रीमह्योा भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपवर्में सर्प आदिकी उत्पत्तिसे 


सम्बन्ध रखनेवाला सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १६ ॥। 


न२्च्स्स्स्सिस्सि ह्य £:ान्प्ट् 


सप्तदशो<् ध्याय: 


मेरुपर्वतपर अमृतके लिये विचार करनेवाले देवताओंको 
भगवान्‌ नारायणका समुद्रमन्थनके लिये आदेश 


सौतिरुवाच 


एतस्मिन्नेव काले तु भगिन्यौ ते तपोधन । 

अपश्यतां समायाते उच्चै:अ्रवसमन्तिकात्‌ ।। १ ।। 

यं तं देवगणा: सर्वे हृष्टरूपमपूजयन्‌ | 

मध्यमानेअमृते जातमश्चवरत्नमनुत्तमम्‌ ।। २ ।। 

अमोघबलमश्रानामुत्तमं जगतां वरम्‌ | 

श्रीमन्तमजरं दिव्यं सर्वलक्षणपूजितम्‌ ।। ३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तपोधन! इसी समय कद्रू और विनता दोनों बहनें एक साथ ही 
घूमनेके लिये निकलीं। उस समय उन्होंने उच्चै:श्रवा नामक घोड़ेको निकटसे जाते देखा। 
वह परम उत्तम अश्वरत्न अमृतके लिये समुद्रका मन्थन करते समय प्रकट हुआ था। उसमें 
अमोघ बल था। वह संसारके समस्त अअभ्रोंमें श्रेष्ठ, उत्तम गुणोंसे युक्त, सुन्दर, अजर, दिव्य 
एवं सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे संयुक्त था। उसके अंग बड़े हृष्ट-पुष्ट थे। सम्पूर्ण देवताओंने 
उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी || १--३ ।। 

शौनक उवाच 

कथं तदमृतं देवैर्मथितं क्व च शंस मे । 

यत्र जज्ञे महावीर्य: सो5श्वराजो महाद्युति: ।। ४ ।। 

शौनकजीने पूछा--सूतनन्दन! अब मुझे यह बताइये कि देवताओंने अमृत-मनन्‍्थन 
किस प्रकार और किस स्थानपर किया था, जिसमें वह महान्‌ बल-पराक्रमसे सम्पन्न और 
अत्यन्त तेजस्वी अश्वराज उच्चै:श्रवा प्रकट हुआ? ।। ४ ।। 

सौतिर्वाच 


ज्वलन्तमचल मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम्‌ । 

आक्षिपन्त॑ प्रभां भानो: स्वशृद्गजै:ः काञज्चनोज्ज्वलै: ।। ५ ।। 

कनकाभरणं चित्र देवगन्धर्वसेवितम्‌ । 

अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनै: ।। ६ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--शौनकजी! मेरु नामसे प्रसिद्ध एक पर्वत है, जो अपनी प्रभासे 
प्रजवलित होता रहता है। वह तेजका महान्‌ पुंज और परम उत्तम है। अपने अत्यन्त 
प्रकाशमान सुवर्णमय शिखरोंसे वह सूर्यदेवकी प्रभाको भी तिरस्कृत किये देता है। उस 


स्वर्णभूषित विचित्र शैलपर देवता और गन्धर्व निवास करते हैं। उसका कोई माप नहीं है। 
जिनमें पापकी मात्रा अधिक है, ऐसे मनुष्य वहाँ पैर नहीं रख सकते ।। ५-६ ।। 

व्यालैरावारितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम्‌ | 

नाकमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छुयेण महागिरिम्‌ ।। ७ ।। 

अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम्‌ । 

नानापतगसड्घैश्न नादितं सुमनोहरै: ।। ८ ।। 

वहाँ सब ओर भयंकर सर्प भरे पड़े हैं। दिव्य ओषधियाँ उस तेजोमय पर्वतको और भी 
उद्धासित करती रहती हैं। वह महान्‌ गिरिराज अपनी ऊँचाईसे स्वर्गलोकको घेरकर खड़ा 
है। प्राकृत मनुष्योंके लिये वहाँ मनसे भी पहुँचना असम्भव है। वह गिरिप्रदेश बहुत-सी 
नदियों और असंख्य वृक्षोंसे सुशोभित है। भिन्न-भिन्न प्रकारके अत्यन्त मनोहर पक्षियोंके 
समुदाय अपने कलरवसे उस पर्वतको कोलाहलपूर्ण किये रहते हैं || ७-८ ।। 

तस्य शृज्गभमुपारुह्म बहुरत्नाचितं शुभम्‌ । 

अनन्तकल्पमुद्धिद्ध सुरा: सर्वे महौजस: ।। ९ ।। 

ते मन्त्रयितुमारब्धास्तत्रासीना दिवौकस: । 

अमृताय समागम्य तपोनियमसंयुता: ।। १० ।। 

तत्र नारायणो देवो ब्रह्माणमिदमब्रवीत्‌ । 

चिन्तयत्सु सुरेष्वेवं मन्त्रयत्सु च सर्वश: ।। ११ ।। 

देवैरसुरसड्घैश्व मथ्यतां कलशोदधि: । 

भविष्यत्यमृतं तत्र मथ्यमाने महोदधौ ।। १२ ।। 

उसके शुभ एवं उच्चतम शृंग असंख्य चमकीले रत्नोंसे व्याप्त हैं। वे अपनी 
विशालताके कारण आकाशके समान अनन्त जान पड़ते हैं। समस्त महातेजस्वी देवता 
मेरुगिरिके उस महान्‌ शिखरपर चढ़कर एक स्थानमें बैठ गये और सब मिलकर अमृत- 
प्राप्तिके लिये क्या उपाय किया जाय, इसका विचार करने लगे। वे सभी तपस्वी तथा शौच- 
संतोष आदि नियमोंसे संयुक्त थे। इस प्रकार परस्पर विचार एवं सबके साथ मन्त्रणामें लगे 
हुए देवताओंके समुदायमें उपस्थित हो भगवान्‌ नारायणने ब्रह्माजीसे यों कहा--“समस्त 
देवता और असुर मिलकर महासागरका मन्थन करें। उस महासागरका मन्‍न्थन आरम्भ 
होनेपर उसमेंसे अमृत प्रकट होगा || ९--१२ ।। 

सर्वौषधी: समावाप्य सर्वरत्नानि चैव ह । 

मन्थध्वमुदर्धि देवा वेत्स्यध्वममृतं तत: ।। १३ ।। 

“देवताओ! पहले समस्त ओषधियों, फिर सम्पूर्ण रत्नोंको पाकर भी समुद्रका मन्‍्थन 

जारी रखो। इससे अन्तमें तुमलोगोंको निश्चय ही अमृतकी प्राप्ति होगी” ।। १३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थने सप्तदशो<5ध्याय: ।। १७ 
|| 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थनविषयक सत्रहवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। १७ ॥ 


ऑपनआ कराता बछ। अं 


अष्टादशो<् ध्याय: 


देवताओं और 30020 22026 लिये समुद्रका मन्थन, 
अनेक रत्नोंके साथ उत्पत्ति और भगवानका 
मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंके हाथसे अमृत ले लेना 


सौतिरुवाच 


ततो<भ्रशिखराकारैर्गिरिशृड्रैरलंकृतम्‌ । 

मन्दरं पर्वतवरं लताजालसमाकुलम्‌ ।। १ || 

नानाविहगसंघुष्टं नानादंष्टिसमाकुलम्‌ । 

किन्नरैरप्सरोभिश्न देवैरपि च सेवितम्‌ ।। २ ।। 

एकादश सहस्राणि योजनानां समुच्छितम्‌ । 

अधो भूमे: सहस्रेषु तावत्स्वेव प्रतिक्ठितम्‌ ।। ३ ।। 

तमुद्धर्तुमशक्ता वै सर्वे देवगणास्तदा । 

विष्णुमासीनमभ्येत्य ब्रह्माणं चेदमब्रुवन्‌ ।। ४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! तदनन्तर सम्पूर्ण देवता मिलकर पर्वतश्रेष्ठ 
मन्दराचलको उखाड़नेके लिये उसके समीप गये। वह पर्वत श्रेत मेघखण्डोंके समान प्रतीत 
होनेवाले गगनचुम्बी शिखरोंसे सुशोभित था। सब ओर फैली हुई लताओंके समुदायने उसे 
आच्छादित कर रखा था। उसपर चारों ओर भाँति-भाँतिके विहंगम कलरव कर रहे थे। 
बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले व्याप्र-सिंह आदि अनेक हिंसक जीव वहाँ सर्वत्र भरे हुए थे। उस 
पर्वतके विभिन्न प्रदेशोंमें किन्नरगण, अप्सराएँ तथा देवतालोग निवास करते थे। उसकी 
ऊँचाई ग्यारह हजार योजन थी और भूमिके नीचे भी वह उतने ही सहस्र योजनोंमें प्रतिष्ठित 
था। जब देवता उसे उखाड़ न सके, तब वहाँ बैठे हुए भगवान्‌ विष्णु और ब्रह्माजीसे इस 
प्रकार बोले-- || १--४ ।। 

भवन्तावत्र कुर्वीतां बुद्धि नैःश्रेयसीं पराम्‌ 

मन्दरोद्धरणे यत्न: क्रियतां च हिताय न: ।। ५ ।। 

“आप दोनों इस विषयमें कल्याणमयी उत्तम बुद्धि प्रदान करें और हमारे हितके लिये 
मन्दराचल पर्वतको उखाड़नेका यत्न करें” || ५ || 


सौतिरुवाच 


तथेति चाब्रवीदू विष्णुर्ब्रह्मणा सह भार्गव । 
अचोदयदमेयात्मा फणीन्द्रं पद्मलोचन: ।। ६ || 


उग्रश्रवाजी कहते हैं--भूगुनन्दन! देवताओंके ऐसा कहनेपर ब्रह्माजीसहित भगवान्‌ 
विष्णुने कहा--“तथास्तु (ऐसा ही हो)'। तदनन्तर जिनका स्वरूप मन, बुद्धि एवं प्रमाणोंकी 
पहुँचसे परे है, उन कमलनयन भगवान्‌ विष्णुने नागराज अनन्तको मन्दराचल उखाड़नेके 
लिये आज्ञा दी || ६ |। 

ततो<5नन्तः समुत्थाय ब्रह्म॒णा परिचोदित: । 

नारायणेन चाप्युक्तस्तस्मिन्‌ कर्मणि वीर्यवान्‌ ।। ७ ।। 

जब ब्रह्माजीने प्रेरणा दी और भगवान्‌ नारायणने भी आदेश दे दिया, तब 
अतुलपराक्रमी अनन्त (शेषनाग) उठकर उस कार्यमें लगे || ७ ।। 

अथ पर्वतराजानं तमनन्तो महाबल: । 

उज्जहार बलाद्‌ ब्रह्मनू सवनं सवनौकसम्‌ ।। ८ ।। 

ब्रह्म! फिर तो महाबली अनन्तने जोर लगाकर गिरिराज मन्दराचलको वन और 
वनवासी जन्तुओंसहित उखाड़ लिया ।। ८ ।। 

ततस्तेन सुरा: सार्ध समुद्रमुपतस्थिरे । 

तमूचुरमृतस्यार्थे निर्मथिष्पयामहे जलम्‌ ।। ९ ।। 

अपां पतिरथोवाच ममाप्यंशो भवेत्‌ ततः । 

सोढास्मि विपुल॑ मर्द मन्दरभ्रमणादिति ।। १० ।। 

तत्पश्चात्‌ देवतालोग उस पर्वतके साथ समुद्रतटपर उपस्थित हुए और समुद्रसे बोले 
--'हम अमृतके लिये तुम्हारा मन्‍्थन करेंगे।! यह सुनकर जलके स्वामी समुद्रने कहा 
--“यदि अमृतमें मेरा भी हिस्सा रहे तो मैं मन्दराचलको घुमानेसे जो भारी पीड़ा होगी, उसे 
सह लूँगा” ।। ९-१० ।। 

ऊचुश्न कूर्मराजानमकूपारे सुरासुरा: । 

अधिष्ठानं गिरेरस्य भवान्‌ भवितुमहति ।। ११ ।। 

तब देवताओं और असुरोंने (समुद्रकी बात स्वीकार करके) समुद्रतलमें स्थित 
कच्छपराजसे कहा--“भगवन्‌! आप इस मन्दराचलके आधार बनिये' ।। ११ ।। 

कूर्मेण तु तथेत्युक्त्वा पृष्ठमस्य समर्पितम्‌ | 

तं शैलं तस्य पृष्ठस्थं वज्नेणेन्द्रो न्यपीडयत्‌ ।। १२ ।। 

तब कच्छपराजने “तथास्तु” कहकर मन्दराचलके नीचे अपनी पीठ लगा दी। देवराज 
इन्द्रने उस पर्वतको वज्रद्वारा दबाये रखा ।। १२ ।। 

मन्थानं मन्दरं कृत्वा तथा नेत्र च वासुकिम्‌ । 

देवा मथितुमारब्धा: समुद्र निधिमम्भसाम्‌ ।। १३ ।। 

अमृतार्थे पुरा ब्रह्मंस्तथैवासुरदानवा: । 

एकमन्तमुप श्लिष्टा नागराज्ञों महासुरा: ।। १४ ।। 

विबुधा: सहिता: सर्वे यत: पुच्छे ततः स्थिता: । 


ब्रह्मन! इस प्रकार पूर्वकालमें देवताओं, दैत्यों और दानवोंने मन्दराचलको मथानी और 
वासुकि नागको डोरी बनाकर अमृतके लिये जलनिधि समुद्रको मथना आरम्भ किया। उन 
महान्‌ असुरोंने नागराज वासुकिके मुखभागको दृढ़तापूर्वक पकड़ रखा था और जिस ओर 
उसकी पूँछ थी उधर सम्पूर्ण देवता उसे पकड़कर खड़े थे || १३-१४ $ ।। 

अनन्तो भगवान्‌ देवो यतो नारायणस्तत: । 

शिर उत्तक्षिप्प नागस्य पुन: पुनरवाक्षिपत्‌ ।। १५ ।। 

भगवान्‌ अनन्तदेव उधर ही खड़े थे, जिधर भगवान्‌ नारायण थे। वे वासुकि नागके 
सिरको बार-बार ऊपर उठाकर झटकते थे ।। १५ ।। 

वासुकेरथ नागस्य सहसा55क्षिप्यत: सुरै: । 

सधूमा: सार्चिषो वाता निष्पेतुरसकृन्मुखात्‌ ।। १६ ।। 

तब देवताओंद्वारा बार-बार खींचे जाते हुए वासुकि नागके मुखसे निरन्तर धूएँ तथा 
आगकी लपटोंके साथ गर्म-गर्म साँसें निकलने लगीं ।। १६ ।। 

ते धूमसड्घा: सम्भूता मेघसड्घा: सविद्युतः । 

अभ्यवर्षन्‌ सुरगणान्‌ श्रमसंतापकर्शितान्‌ ।। १७ ।। 

वे धूमसमुदाय बिजलियोंसहित मेघोंकी घटा बनकर परिश्रम एवं संतापसे कष्ट 
पानेवाले देवताओंपर जलकी धारा बरसाते रहते थे ।। १७ ।। 

तस्माच्च गिरिकूटाग्रात्‌ प्रच्युता: पुष्पवृष्टय: । 

सुरासुरगणान्‌ सर्वान्‌ समन्‍्तात्‌ समवाकिरन्‌ ॥। १८ ।। 

उस पर्वतशिखरके अग्रभागसे सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंपर सब ओरसे फूलोंकी 
वर्षा होने लगी || १८ ।। 

बभूवात्र महानादो महामेघरवोपम: । 

उदधेर्मथ्यमानस्य मन्दरेण सुरासुरै: ।। १९ ।। 

देवताओं और असुरोंद्वारा मन्दराचलसे समुद्रका मन्‍्थन होते समय वहाँ महान्‌ मेघोंकी 
गम्भीर गर्जनाके समान जोर-जोरसे शब्द होने लगा || १९ ।। 

तत्र नाना जलचरा विनिष्पिष्टा महाद्रिणा । 

विलयं समुपाजग्मु: शतशो लवणाम्भसि ।। २० ।। 

उस समय उस महान पर्वतके द्वारा सैकड़ों जलचर जन्तु पिस गये और खारे पानीके 
उस महासागरमें विलीन हो गये || २० ।। 

वारुणानि च भूतानि विविधानि महीधर: । 

पातालतलवासीनि विलयं समुपानयत्‌ ।। २१ ।। 

मन्दराचलने वरुणालय (समुद्र) तथा पातालतलमें निवास करनेवाले नाना प्रकारके 
प्राणियोंका संहार कर डाला ।। २१ ।। 

तस्मिंश्व भ्राम्यमाणेडद्रौ संघृष्यन्त: परस्परम्‌ । 


न्यपतन्‌ पतगोपेता: पर्वताग्रान्महाद्रुमा: ।। २२ ।। 

जब वह पर्वत घुमाया जाने लगा, उस समय उसके शिखरसे बड़े-बड़े वृक्ष आपसमें 
टकराकर उनपर निवास करनेवाले पक्षियोंसहित नीचे गिर पड़े || २२ ।। 

तेषां संघर्षजश्वाग्निरचिंर्भि: प्रज्वलन्‌ मुहुः । 

विद्युद्धिरिव नीला भ्रमावृणोन्मन्दरं गिरिम्‌ ।। २३ ।। 

उनकी आपसकी रगड़से बार-बार आग प्रकट होकर ज्वालाओंके साथ प्रज्वलित हो 
उठी और जैसे बिजली नीले मेघको ढक ले, उसी प्रकार उसने मन्दराचलको आच्छादित 
कर लिया || २३ ।। 

ददाह कुज्जरांस्तत्र सिंहांश्नैव विनिर्गतान्‌ । 

विगतासूनि सर्वाणि सत्त्वानि विविधानि च ।। २४ ।। 

उस दावानलने पर्वतीय गजराजों, गुफाओंसे निकले हुए सिंहों तथा अन्यान्य सहस्रों 
जन्तुओंको जलाकर भस्म कर दिया। उस पर्वतपर जो नाना प्रकारके जीव रहते थे, वे सब 
अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे || २४ ।। 

तमग्निममरश्रेष्ठ: प्रदहन्तमितस्तत: । 

वारिणा मेघजेनेन्द्र:ः शमयामास सर्वश: ।। २५ ।। 

तब देवराज इन्द्रने इधर-उधर सबको जलाती हुई उस आगको मेघोंके द्वारा जल 
बरसाकर सब ओरसे बुझा दिया || २५ ।। 

ततो नानाविधास्तत्र सुख्ुवु:ः सागराम्भसि । 

महाद्रुमाणां निर्यासा बहवश्लौषधीरसा: ।। २६ ।। 

तदनन्तर समुद्रके जलमें बड़े-बड़े वृक्षोंके भाँति-भाँतिके गोंद तथा ओषधियोंके प्रचुर 
रस चू-चूकर गिरने लगे ।। २६ ।। 

तेषाममृतवीर्याणां रसानां पयसैव च । 

अमरत्वं सुरा जग्मु: काउ्चनस्य च नि:स्रवात्‌ ।। २७ ।। 

वृक्षों और ओषधियोंके अमृततुल्य प्रभावशाली रसोंके जलसे तथा सुवर्णमय 
मन्दराचलकी अनेक दिव्य प्रभावशाली मणियोंसे चूनेवाले रससे ही देवतालोग अमरत्वको 
प्राप्त होने लगे || २७ ।। 

ततस्तस्य समुद्रस्य तज्जातमुदकं पय: । 

रसोत्तमैविमिश्र॑ च तत: क्षीरादभूद्‌ू घृतम्‌ ।। २८ ।। 

उन उत्तम रसोंके सम्मिश्रणसे समुद्रका सारा जल दूध बन गया और दूधसे घी बनने 
लगा ।। २८ ।। 

ततो ब्रह्माणमासीनं देवा वरदमन्रुवन्‌ । 

भ्रान्ता: सम सुभृशं ब्रह्मन्‌ नोद्भवत्यमृतं च तत्‌ ।। २९ ।। 

विना नारायणं देवं सर्वेडन्ये देवदानवा: । 


चिरारब्धमिदं चापि सागरस्यापि मन्थनम्‌ ।। ३० ।। 

तब देवतालोग वहाँ बैठे हुए वरदायक ब्रह्माजीसे बोले--'ब्रह्मन! भगवान्‌ नारायणके 
अतिरिक्त हम सभी देवता और दानव बहुत थक गये हैं; किंतु अभीतक वह अमृत प्रकट 
नहीं हो रहा है। इधर समुद्रका मन्थन आरम्भ हुए बहुत समय बीत चुका है” | २९-३० ।। 

ततो नारायणं देवं ब्रह्मा वचनमब्रवीत्‌ । 

विधत्स्वैषां बल॑ं विष्णो भवानत्र परायणम्‌ ।। ३१ ।। 

यह सुनकर ब्रह्माजीने भगवान्‌ नारायणसे यह बात कही--'सर्वव्यापी परमात्मन्‌! इन्हें 
बल प्रदान कीजिये, यहाँ एकमात्र आप ही सबके आश्रय हैं! | ३१ ।। 


विष्णुरुवाच 


बलं॑ ददामि सर्वेषां कर्मतद्‌ ये समास्थिता: । 
क्षोभ्यतां कलश: सर्वैर्मन्दर: परिवर्त्यताम्‌ ।। ३२ ।। 
श्रीविष्णु बोले--जो लोग इस कार्यमें लगे हुए हैं, उन सबको मैं बल दे रहा हूँ। सब 
लोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचलको घुमावें और इस सागरको क्षुब्ध कर दें ।। ३२ ।। 
सौतिर्वाच 


नारायणवच: श्रुत्वा बलिनस्ते महोदथे: । 

तत्‌ पय:ः सहिता भूयश्नचक्रिरे भूशभाकुलम्‌ ।। ३३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! भगवान्‌ नारायणका वचन सुनकर देवताओं और 
दानवोंका बल बढ़ गया। उन सबने मिलकर पुनः वेगपूर्वक महासागरका वह जल मथना 
आरम्भ किया और उस समस्त जलराशिको अत्यन्त क्षुब्ध कर डाला ।। ३३ ।। 

तत:ः शतसहसांशुर्म थ्यमानात्तु सागरात्‌ । 

प्रसन्नात्मा समुत्पन्न: सोम: शीतांशुरुज्ज्वल: ।। ३४ ।। 

फिर तो उस महासागरसे अनन्त किरणोंवाले सूर्यके समान तेजस्वी, शीतल प्रकाशसे 
युक्त, श्वैतवर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ ।। ३४ ।। 

श्रीरनन्तरमुत्पन्ना घृतात्‌ पाण्डुरवासिनी । 

सुरादेवी समुत्पन्ना तुरग: पाण्डुरस्तथा ।। ३५ ।। 

तदनन्तर उस घृतस्वरूप जलसे श्वेतवस्त्रधारिणी लक्ष्मीदेवीका आविर्भाव हुआ। इसके 
बाद सुरादेवी और श्वेत अश्व प्रकट हुए ।। ३५ ।। 

कौस्तुभस्तु मणिर्दिव्य उत्पन्नो घृत्सम्भव: । 

मरीचिविकच: श्रीमान्‌ नारायण उरोगत: ।॥। ३६ ।। 

फिर अनन्त किरणोंसे समुज्ज्वल दिव्य कौस्तुभभणिका उस जललसे प्रादुर्भाव हुआ, जो 
भगवान्‌ नारायणके वक्ष:स्थलपर सुशोभित हुई ।। ३६ ।। 

(पारिजातकश्न तत्रैव सुरभिश्न महामुने । 


जज्ञाते तौ तदा ब्रह्मन्‌ सर्वकामफलप्रदौ ।।) 

श्री: सुरा चैव सोमश्च तुरगश्च मनोजव: । 

यतो देवास्ततो जग्मुरादित्यपथमाश्रिता: ।। ३७ ।। 

ब्रह्म! महामुने! वहाँ सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाले पारिजात वृक्ष एवं सुरभि 
गौकी उत्पत्ति हुई। फिर लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा तथा मनके समान वेगशाली उच्चै:श्रवा घोड़ा 
>-ये सब सूर्यके मार्ग आकाशका आश्रय ले, जहाँ देवता रहते हैं, उस लोकमें चले 
गये ।। ३७ ।। 

धन्वन्तरिस्ततो देवो वपुष्मानुदतिष्ठत । 

श्वेत कमण्डलुं बिशभ्रदमृतं यत्र तिषतति ॥। ३८ ।। 

इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए। वे अपने हाथमें श्वेत कलश लिये 
हुए थे, जिसमें अमृत भरा था ।। ३८ ।। 

एतदत्यद्भुतं दृष्टवा दानवानां समुत्थित: । 

अमृतार्थे महान्‌ नादो ममेदमिति जल्पताम्‌ ॥। ३९ |।। 

यह अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखकर दानवोंमें अमृतके लिये कोलाहल मच गया। वे सब 
कहने लगे “यह मेरा है, यह मेरा है” || ३९ ।। 

श्वेतर्दन्तै क्षतुर्भिस्तु महाकायस्तत: परम्‌ | 

ऐरावतो महानागो5भवद्‌ वज्रभूता धृतः ।। ४० ।। 

तत्पश्चात्‌ श्वेत रंगके चार दाँतोंसे सुशोभित विशालकाय महानाग ऐरावत प्रकट हुआ, 
जिसे वज्रधारी इन्द्रने अपने अधिकारमें कर लिया || ४० ।। 

अतिनिर्मथनादेव कालकूटस्तत: पर: । 

जगदावृत्य सहसा सधूमो5ग्निरिव ज्वलन्‌ ।। ४१ ।। 

तदनन्तर अत्यन्त वेगसे मथनेपर कालकूट महाविष उत्पन्न हुआ, वह धूमयुक्त अग्निकी 
भाँति एकाएक सम्पूर्ण जगत्‌को घेरकर जलाने लगा ।। ४१ ।। 

त्रैलोक्यं मोहितं यस्य गन्धमाप्राय तद्‌ विषम्‌ । 

प्राग्रसललोकरक्षार्थ ब्रह्मणो वचनाच्छिव: || ४२ ।। 

उस विषकी गन्ध सूँघते ही त्रिलोकीके प्राणी मूर्च्छिंत हो गये। तब ब्रह्माजीके प्रार्थना 
करनेपर भगवान्‌ श्रीशंकरने त्रिलोकीकी रक्षाके लिये उस महान्‌ विषको पी लिया ।। ४२ ।। 

दधार भगवान्‌ कण्ठे मन्त्रमूर्तिमिहेश्वरः । 

तदाप्रभूति देवस्तु नीलकण्ठ इति श्रुति: ॥ ४३ ।। 

मन्त्रमूर्ति भगवान्‌ महेश्वरने विषपान करके उसे अपने कण्ठमें धारण कर लिया। 
तभीसे महादेवजी नीलकण्ठके नामसे विख्यात हुए, ऐसी जनश्रुति है || ४३ ।। 

एतत्‌ तदद्धुतं दृष्टवा निराशा दानवा: स्थिता: । 

अमृतार्थे च लक्ष्म्यर्थे महान्तं वैरमाश्रिता: || ४४ ।। 


ये सब अदभुत बातें देखकर दानव निराश हो गये और अमृत तथा लक्ष्मीके लिये 
उन्होंने देवताओंके साथ महान्‌ वैर बाँध लिया ।। ४४ ।। 

ततो नारायणो मायां मोहिनीं समुपाश्रित: । 

स्त्रीरूपमद्भुतं कृत्वा दानवानभिसंश्रित: ।। ४५ ।। 

उसी समय भगवान्‌ विष्णुने मोहिनी मायाका आश्रय ले मनोहारिणी स्त्रीका अद्भुत 
रूप बनाकर, दानवोंके पास पदार्पण किया || ४५ ।। 

ततस्तदमृतं तस्यै ददुस्ते मूढचेतस: । 

स्त्रिये दानवदैतेया: सर्वे तदूग़तमानसा: ।। ४६ ।। 

समस्त दैत्यों और दानवोंने उस मोहिनीपर अपना हृदय निछावर कर दिया। उनके 
चित्तमें मूढ़ता छा गयी। अतः उन सबने स्त्रीरूपधारी भगवानको वह अमृत सौंप 
दिया ।। ४६ |। 

(सा तु नारायणी माया धारयन्ती कमण्डलुम्‌ । 

आस्यमानेषु दैत्येषु पड्क्‍्त्या च प्रति दानवै: । 

देवानपाययद्‌ देवी न दैत्यांस्ते च चुक्रुशु: ।।) 

भगवान्‌ नारायणकी वह मूर्तिमती माया हाथमें कलश लिये अमृत परोसने लगी। उस 
समय दानवोंसहित दैत्य पंगत लगाकर बैठे ही रह गये, परंतु उस देवीने देवताओंको ही 
अमृत पिलाया; दैत्योंको नहीं दिया, इससे उन्होंने बड़ा कोलाहल मचाया। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थनेडष्टादशो5ध्याय: ।। १८ 
|| 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थनविषयक 
अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २६ शलोक मिलाकर कुल ४८३ “लोक हैं) 


नशा (0) आज अत +- 


एकोनविशो< ध्याय: 


देवताओंका अमृतपान, देवासुरसंग्राम तथा देवताओंकी 
विजय 


सौतिरुवाच 


अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च । 

प्रगृह्मा भ्यद्रवन्‌ देवान्‌ सहिता दैत्यदानवा: ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--अमृत हाथसे निकल जानेपर दैत्य और दानव संगठित हो गये 
और उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओंपर टूट पड़े ।। १ ।। 

ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान्‌ 

जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहित: प्रभु: ॥॥ २ ।। 

ततो देवगणा: सर्वे पपुस्तदमृतं तदा । 

विष्णो: सकाशात्‌ सम्प्राप्य सम्भ्रमे तुमुले सति ॥। ३ ।। 

उधर अनन्त शक्तिशाली नरसहित भगवान्‌ नारायणने जब मोहिनीरूप धारण करके 
दानवेन्द्रोंक हाथसे अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान्‌ विष्णुसे अमृत ले- 
लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्धकी सम्भावना हो गयी थी ।। २-३ ।। 

ततः पिबत्सु तत्काल देवेष्वमृतमीप्सितम्‌ । 

राहुविबुधरूपेण दानव: प्रापिबत्‌ तदा ॥। ४ ।। 

जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृतका पान कर रहे थे, ठीक उसी समय राहु नामक 
दानवने देवतारूपसे आकर अमृत पीना आरम्भ किया ।। ४ ।। 

तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा । 

आखापयातं चन्द्रसूर्या भ्यां सुराणां हितकाम्यया ।। ५ ।। 

वह अमृत अभी उस दानवके कण्ठतक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्यने 
देवताओंके हितकी इच्छासे उसका भेद बतला दिया || ५ ।। 

ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम्‌ | 

चक्रायुधेन चक्रेण पिबतो5मृतमोजसा ।। ६ ।। 

तब चक्रधारी भगवान्‌ श्रीहरिने अमृत पीनेवाले उस दानवका मुकुटमण्डित मस्तक 
चक्रद्वारा बलपूर्वक काट दिया ।। ६ ।। 





भगवान्‌ विष्णुने चक्रसे राहुका सिर काट दिया 


तच्छैलशुज्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत्‌ | 

चक्रच्छिन्न॑ं खमुत्पत्य ननादातिभयंकरम्‌ ।। ७ ।। 

चक्रसे कटा हुआ दानवका महान्‌ मस्तक पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वह 
आकाशगमें उछल-उछलकर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा ।। ७ ।। 

तत्‌ कबन्धं पपातास्य विस्फुरदू धरणीतले । 

सपर्वतवनद्दीपां दैत्यस्याकम्पयन्‌ महीम्‌ ।। ८ ।। 

किंतु उस दैत्यका वह धड़ धरतीपर गिर पड़ा और पर्वत, वन तथा द्वीपोंसहित समूची 
पृथ्वीको कैँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा ।। ८ ।। 

ततो वैरविनिर्बन्ध: कृतो राहुमुखेन वै । 

शाश्वतश्रन्द्रसूर्या भ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तौ ।। ९ ।। 

तभीसे राहुके मुखने चन्द्रमा और सूर्यके साथ भारी एवं स्थायी वैर बाँध लिया; 
इसीलिये वह आज भी दोनोंपर ग्रहण लगाता है || ९ ।। 

विहाय भगवांश्षापि स्त्रीरूपमतुलं हरि: । 

नानाप्रहरणैर्भीमैर्दानवान्‌ समकम्पयत्‌ ।। १० ।। 

(देवताओंको अमृत पिलानेके बाद) भगवान्‌ श्रीहरिने भी अपना अनुपम मोहिनीरूप 
त्यागकर नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा दानवोंको अत्यन्त कम्पित कर 
दिया ।। १० ।। 

ततः प्रवृत्त: संग्राम: समीपे लवणाम्भस: । 

सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान्‌ ।। ११ ।। 

फिर तो क्षारसागरके समीप देवताओं और असुरोंका सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ 
गया ।। ११ ।। 

प्रासाश्न विपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रश: । 

तोमराश्च सुतीक्ष्णाग्रा: शस्त्राणि विविधानि च ।। १२ ।। 

दोनों दलोंपर सहस्रों तीखी धारवाले बड़े-बड़े भालोंकी मार पड़ने लगी। तेज नोकवाले 
तोमर तथा भाँति-भाँतिके शस्त्र बरसने लगे ।। १२ ।। 

ततोअसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु । 

असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले ।। १३ ।। 

छिन्नानि पट्टिशैश्वैव शिरांसि युधि दारुणै: | 

तप्तकाञ्चनमालीनि निपेतुरनिशं तदा ।। १४ ।। 

भगवानके चक्रसे छिन्न-भिन्न तथा देवताओंके खड़्ग, शक्ति और गदासे घायल हुए 
असुर मुखसे अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर लोटने लगे। उस समय तपाये हुए 
सुवर्णकी मालाओंसे विभूषित दानवोंके सिर भयंकर पट्टिशोंसे कटकर निरन्तर युद्धभूमिमें 
गिर रहे थे ।। १३-१४ ।। 


रुधिरेणानुलिप्ताजड़ा निहताश्न महासुरा: । 

अद्रीणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते ।। १५ ।। 

वहाँ खूनसे लथपथ अंगवाले मरे हुए महान्‌ असुर, जो समरभूमिमें सो रहे थे, गेरू 
आदि धातुओंसे रँँगे हुए पर्वत-शिखरोंके समान जान पड़ते थे ।। १५ ।। 

हाहाकार: समभवत्‌ तत्र तत्र सहस्रशः । 

अन्योन्यं छिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति ।। १६ ।। 

संध्याके समय जब सूर्यमण्डल लाल हो रहा था, एक-दूसरेके शस्त्रोंसे कटनेवाले 
सहस्रों योद्धाओंका हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूँज उठा ।। १६ ।। 

परिघैरायसैस्तीकणै: संनिकर्षे च मुष्टिभि: । 

निध्नतां समरे<न्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत्‌ ।। १७ ।। 

उस समरांगणमें दूरवर्ती देवता और दानव लोहेके तीखे परिघोंसे एक-दूसरेपर चोट 
करते थे और निकट आ जानेपर आपसमें मुक्का-मुक्की करने लगते थे। इस प्रकार उनके 
पारस्परिक आघात-प्रत्याघातका शब्द मानो सारे आकाशमें गूँज उठा ।। १७ ।। 

छिन्धि भिन्धि प्रधाव त्वं पातयाभिसरेति च । 

व्यश्रूयन्त महाघोरा: शब्दास्तत्र समन्तत: ।। १८ ।। 

उस रणभूमिमें चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि “टुकड़े- 
टुकड़े कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो” ।। १८ ।। 

एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने महाभये । 

नरनारायणौ देवी समाजग्मतुराहवम्‌ ।। १९ ।। 

इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान्‌ विष्णुके दो रूप नर 
और नारायणदेव भी युद्धभूमिमें आ गये ।। १९ ।। 

तत्र दिव्यं धनुर्दष्टवा नरस्य भगवानपि । 

चिन्तयामास तच्चक्रं विष्णुर्दानवसूदनम्‌ ।। २० ।। 

भगवान्‌ नारायणने वहाँ नरके हाथमें दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानवसंहारक दिव्य 
चक्रका चिन्तन किया ।। २० ।। 

ततोअम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं 

महाप्रभं चक्रममित्रतापनम्‌ । 
विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलं 
सुदर्शन॑ संयति भीमदर्शनम्‌ ।। २१ ।। 

चिन्तन करते ही शत्रुओंको संताप देनेवाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाशमार्गसे उनके 
हाथमें आ गया। वह सूर्य एवं अग्निके समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकार 
चक्रकी गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किंतु वह युद्धमें 
शत्रुओंके लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था ।। २१ ।। 


तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभं 
भयंकर करिकरबाहुरच्युत: । 
मुमोच वै प्रबलवदुग्रवेगवान्‌ 
महाप्रभं परनगरावदारणम्‌ ॥। २२ ।। 
वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। 
उसमें शत्रुओंके बड़े-बड़े नगरोंको विध्वेंस कर डालनेकी शक्ति थी। हाथीकी सूँड़के समान 
विशाल भुजदण्डवाले उमग्रवेगशाली भगवान्‌ नारायणने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली 
चक्रको दानवोंके दलपर चलाया ।। २२ ।। 
तदन्तकज्वलनसमानवर्चसं 
पुन: पुनर्न्यपतत वेगवत्तदा । 
विदारयद्‌ दितिदनुजान्‌ सहस्रशः 
करेरितं पुरुषवरेण संयुगे ।। २३ ।। 
उस महासमरमें पुरुषोत्तम श्रीहरिके हाथोंसे संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन 
अग्निके समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहसोौरं दैत्यों तथा दानवोंको विदीर्ण करता हुआ 
बड़े वेगसे बारम्बार उनकी सेनापर पड़ने लगा ॥। २३ ।। 
दहत्‌ क्वचिज्ज्वलन इवावलेलिहत्‌ 
प्रसह तानसुरगणान्‌ न्‍्यकृन्तत । 
प्रवेरितं वियति मुहुः क्षितौ तथा 
पपौ रणे रुधिरमथो पिशाचवत्‌ ।। २४ ।। 
श्रीहरिके हाथोंसे चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्निकी भाँति अपनी 
लपलपाती लपटोंसे असुरोंको चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके 
टुकड़े-टुकड़े कर डालता था। इस प्रकार रणभूमिके भीतर पृथ्वी और आकाशकमें घूम- 
घूमकर वह पिशाचकी भाँति बार-बार रक्त पीने लगा ।। २४ ।। 
तथासुरा गिरिभिरदीनचेतसो 
मुहुर्मुहु: सुरगणमार्दयंस्तदा । 
महाबला विगलितमेघवर्चस: 
सहस्रशों गगनमभिप्रपद्य ह । २५ ।। 
इसी प्रकार उदार एवं उत्साहभरे हृदयवाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलोंके 
समान श्वेत रंगके दिखायी देते थे, उस समय सहस्रोंकी संख्यामें आकाशमें उड़-उड़कर 
शिलाखण्डोंकी वर्षासे बार-बार देवताओंको पीड़ित करने लगे ।। २५ ।। 
अथाम्बराद्‌ भयजननाः: प्रपेदिरे 
सपादपा बहुविधमेघरूपिण: । 
महाद्रय: परिगलिताग्रसानव: 


परस्परं द्रुतमभिहत्य सस्वना: || २६ ।। 
तत्पश्चात्‌ आकाशसे नाना प्रकारके लाल, पीले, नीले आदि रंगवाले बादलों-जैसे बड़े- 
बड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षोंसहित पृथ्वीपर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखर 
गलते जा रहे थे और वे एक-दूसरेसे टकराकर बड़े जोरका शब्द करते थे || २६ ।। 
ततो मही प्रविचलिता सकानना 
महाद्रिपाताभिहता समनन्‍्ततः । 
परस्परं भृशमभिगर्जतां मुहू 
रणाजिरे भूशमभिसम्प्रवर्तिते ।। २७ ।। 
उस समय एक-दूसरेको लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोरसे गरजनेवाले देवताओं और 
असुरोंके उस समरांगणमें सब ओर भयंकर मार-काट मच रही थी; बड़े-बड़े पर्वतोंके 
गिरनेसे आहत हुई वनसहित सारी भूमि काँपने लगी ।। २७ ।। 
नरस्ततो वरकनकाग्रभूषणै- 
महेषुभिर्गगननपथं समावृणोत्‌ । 
विदारयन्‌ गिरिशिखराणि पत्रिभि: 
महाभयेडसुरगणविग्रहे तदा ।। २८ ।। 
तब उस महाभयंकर देवासुर-संग्राममें भगवान्‌ नरने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभागवाले 
पंखयुक्त बड़े-बड़े बाणोंद्वारा पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण करते हुए समस्त आकाशमार्गको 
आच्छादित कर दिया || २८ ।। 
ततो महीं लवणजलं च सागरं 
महासुरा: प्रविविशुरद्दिता: सुरै: । 
वियद्गतं ज्वलितहुताशनप्रभं 
सुदर्शनं परिकुपितं निशम्य ते || २९ ।। 
इस प्रकार देवताओंके द्वारा पीड़ित हुए महादैत्य आकाशमें जलती हुई आगके समान 
उद्धासित होनेवाले सुदर्शन चक्रको अपने ऊपर कुपित देख पृथ्वीके भीतर और खारे 
पानीके समुद्रमें घुस गये |। २९ ।। 
ततः सुरैर्विजयमवाप्य मन्दर: 
स्वमेव देशं गमित: सुपूजित: । 
विनाद्य खं दिवमपि चैव सर्वशः 
ततो गता: सलिलधरा यथागतम्‌ ।॥। ३० || 
तदनन्तर देवताओंने विजय पाकर मन्दराचलको सम्मानपूर्वक उसके पूर्वस्थानपर ही 
पहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करनेवाले देवता अपने सिंहनादसे अन्तरिक्ष और 
स्वर्गलोकको भी सब ओरसे गुँजाते हुए अपने-अपने स्थानको चले गये ।। ३० ।। 
ततो<मृतं सुनिहितमेव चक्रिरे 


सुरा: परां मुदमभिगम्य पुष्कलाम्‌ | 
ददौ च तं निधिममृतस्य रक्षितुं 
किरीटिने बलभिदथामरै: सह ।। ३१ ।। 
देवताओंको इस विजयसे बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृतको बड़ी 
सुव्यवस्थासे रखा। अमरोंसहित इन्द्रने अमृतकी वह निधि किरीटधारी भगवान्‌ नरको 
रक्षाके लिये सौंप दी || ३१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि 
अमृतमन्थनसमाप्तिनमिकोनविंशो5ध्याय: ।। १९ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थन-समाप्ति नामक 
उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १९ ॥ 


अपर बक। ] अि्शशाएड< 


विशो<् ध्याय: 


कद्रू और विनताकी होड़, कद्रुद्वारा अपने पुत्रोंको शाप एवं 
ब्रह्माजीद्वारा उसका अनुमोदन 


सौतिर्वाच 
एतत्‌ ते कथितं सर्वममृतं मथितं यथा । 
यत्र सो5श्वः समुत्पन्न: श्रीमानतुलविक्रम: ।। १ ।। 
यं निशम्य तदा कद्रूविनतामिदमब्रवीत्‌ । 
उच्चै:श्रवा हि किं वर्णो भद्रे प्रत्रूहि माचिरम्‌ ।। २ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकादि महर्षियो! जिस प्रकार अमृत मथकर निकाला गया, 
वह सब प्रसंग मैंने आपलोगोंसे कह सुनाया। उस अमृत-मन्थनके समय ही वह अनुपम 
वेगशाली सुन्दर अश्व उत्पन्न हुआ था, जिसे देखकर कद्रूने विनतासे कहा--“भद्रे! शीघ्र 
बताओ तो यह उच्चै:श्रवा घोड़ा किस रंगका है?” ।। १-२ ।। 
विनतोवाच 
श्वेत एवाश्वराजो<यं किं वा त्वं मनन्‍्यसे शुभे । 
ब्रृहि वर्ण त्वमप्यस्य ततो5त्र विपणावहे ।। ३ ।। 
विनता बोली--शुभे! यह अश्वराज श्वेत वर्णका ही है। तुम इसे कैसा समझती हो? 
तुम भी इसका रंग बताओ, तब हम दोनों इसके लिये बाजी लगायेंगी || ३ ।। 
कटूरुवाच 
कृष्णवालमहं मन्ये हयमेनं शुचिस्मिते । 
एहि सार्ध मया दीव्य दासीभावाय भामिनि ।॥। ४ ।। 
कद्रूने कहा--पवित्र मुसकानवाली बहन! इस घोड़े (का रंग तो अवश्य सफेद है, किंतु 
इस)-की पूँछको मैं काले रंगकी ही मानती हूँ। भामिनि! आओ, दासी होनेकी शर्त रखकर 
मेरे साथ बाजी लगाओ (यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी; अन्यथा तुम्हें 
मेरी दासी बनना होगा) ।। ४ ।। 
सौतिर्वाच 


एवं ते समयं कृत्वा दासीभावाय वै मिथ: । 

जम्मतुः स्वगृहानेव श्रो द्रक्ष्याव इति सम ह ।। ५ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--इस प्रकार वे दोनों बहनें आपसमें एक-दूसरेकी दासी होनेकी 
शर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयीं और उन्होंने यह निश्चय किया कि कल आकर 


घोड़ेको देखेंगी ।। ५ ।। 

ततः पुत्रसहसत्रं तु कद्रूर्जिह्यां चिकीर्षती । 

आज्ञापयामास तदा वाला भूत्वाञ्जनप्रभा: ।। ६ ।। 

आविशध्वं हयं क्षिप्रं दासी न स्थामहं यथा । 

नावपद्यन्त ये वाक्यं ताञ्छशाप भुजड्मान्‌ ।। ७ ।। 

सर्पसत्रे वर्तमाने पावको व: प्रधक्ष्यति । 

जनमेजयस्य राजर्षे: पाण्डवेयस्प धीमत: ।। ८ ।। 

कद्रू कुटिलता एवं छलसे काम लेना चाहती थी। उसने अपने सहस्र पुत्रोंकी इस समय 
आज्ञा दी कि तुम काले रंगके बाल बनकर शीघ्र उस घोड़ेकी पूँछमें लग जाओ, जिससे मुझे 
दासी न होना पड़े। उस समय जिन सर्पोने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें उसने शाप दिया कि, 
“जाओ, पाण्डववंशी बुद्धिमान्‌ राजर्षि जनमेजयके सर्पयज्ञका आरम्भ होनेपर उसमें 
प्रज्वलित अग्नि तुम्हें जलाकर भस्म कर देगी” || ६--८ ।। 

शापमेनं तु शुश्राव स्वयमेव पितामह: । 

अतिक्रूरं समुत्सृष्टं कद्रवा दैवादतीव हि ।। ९ ।। 

इस शापको स्वयं ब्रह्माजीने सुना। यह दैवसंयोगकी बात है कि सर्पोंको उनकी माता 
कद्गरूकी ओरसे ही अत्यन्त कठोर शाप प्राप्त हो गया | ९ ।। 

सार्ध देवगणै: सर्वैर्वाच॑ं तामन्वमोदत । 

बहुवं प्रेक्ष्य सर्पाणां प्रजानां हितकाम्यया ।॥ १० ।। 

सम्पूर्ण देवताओंसहित ब्रह्माजीने सर्पोंकी संख्या बढ़ती देख प्रजाके हितकी इच्छासे 
कद्रूकी उस बातका अनुमोदन ही किया ।। १० ।। 

तिग्मवीर्यविषा होते दन्‍्दशूका महाबला: । 

तेषां तीक्षणविषत्वाद्धि प्रजानां च हिताय च ।। ११ ।। 

युक्त मात्रा कृतं तेषां परपीडोपसर्पिणाम्‌ । 

अन्येषामपि सत्त्वानां नित्यं दोषपरास्तु ये || १२ ।। 

तेषां प्राणान्‍्तको दण्डो देवेन विनिपात्यते । 

एवं सम्भाष्य देवस्तु पूज्य कद्रें च तां तदा ।। १३ ।। 

आहूय कश्यपं देव इदं वचनमत्रवीत्‌ । 

यदेते दन्दशूकाश्न सर्पा जातास्त्वयानघ ।। १४ ।। 

विषोल्बणा महाभोगा मात्रा शप्ता: परंतप । 

तत्र मन्युस्त्वया तात न कर्तव्य: कथंचन ।। १५ ।। 

दृष्ट पुरातनं होतद्‌ यज्ञे सर्पविनाशनम्‌ । 

इत्युक्त्वा सृष्टिकृद्‌ देवस्तं प्रसाद्य प्रजापतिम्‌ । 

प्रादाद्‌ विषहरीं विद्यां कश्यपाय महात्मने ।। १६ ।। 


“ये महाबली दुःसह पराक्रम तथा प्रचण्ड विषसे युक्त हैं। अपने तीखे विषके कारण ये 
सदा दूसरोंको पीड़ा देनेके लिये दौड़ते-फिरते हैं। अतः समस्त प्राणियोंके हितकी दृष्टिसे 
इन्हें शाप देकर माता कद्भूने उचित ही किया है। जो सदा दूसरे प्राणियोंको हानि पहुँचाते 
रहते हैं, उनके ऊपर दैवके द्वारा ही प्राणनाशक दण्ड आ पड़ता है।” ऐसी बात कहकर 
ब्रह्माजीने कट्रूकी प्रशंसा की और कश्यपजीको बुलाकर यह बात कही--“अनघ! तुम्हारे 
द्वारा जो ये लोगोंको डँसनेवाले सर्प उत्पन्न हो गये हैं, इनके शरीर बहुत विशाल और विष 
बड़े भयंकर हैं। परंतप! इन्हें इनकी माताने शाप दे दिया है, इसके कारण तुम किसी तरह 
भी उसपर क्रोध न करना। तात! यज्ञमें सर्पोंका नाश होनेवाला है, यह पुराणवृत्तान्त तुम्हारी 
दृष्टिमें भी है ही!” ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने प्रजापति कश्यपको प्रसन्न करके उन 
महात्माको सर्पोका विष उतारनेवाली विद्या प्रदान की || ११--१६ ।। 

(एवं शप्तेषु नागेषु कद्गवा च द्विजसत्तम । 

उद्विग्न: शापतस्तस्या: कद्/ूं कर्कोटको<ब्रवीत्‌ ।। 

मातरं परमप्रीतस्तदा भुजगसत्तम: । 

आविश्य वाजिन मुख्यं वालो भूत्वाउ्जनप्रभ: ।। 

दर्शयिष्यामि तत्राहमात्मानं काममाश्वस । 

एवमस्त्विति त॑ पुत्र प्रत्युवाच यशस्विनी ।।) 

द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार माता कद्भूने जब नागोंको शाप दे दिया, तब उस शापसे उद्विग्न 
हो भुजंगप्रवर कर्कोटकने परम प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी मातासे कहा--“मा! तुम 
धैर्य रखो, मैं काले रंगका बाल बनकर उस श्रेष्ठ अश्वके शरीरमें प्रविष्ट हो अपने-आपको ही 
इसकी काली पूँछके रूपमें दिखाऊँगा।' यह सुनकर यशस्विनी कढद्रूने पुत्रको उत्तर दिया 
--“बेटा! ऐसा ही होना चाहिये'। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे विंशो&ध्याय: ।। २० ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपववके अन्तर्गत आस्तीकपरववमें गरुडचरितविषयक बीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २० ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल १९ श्लोक हैं) 


अप हात< बछ। | अ-क्राछ 


एकविशो< ध्याय: 


समुद्रका विस्तारसे वर्णन 


सौतिरुवाच 


ततो रजन्यां व्युष्टायां प्रभाते5 भ्युदिते रवौ । 

कद्रश्न विनता चैव भगिन्यौ ते तपोधन ।। १ ।। 

अमर्षिते सुसंरब्धे दास्ये कृतपणे तदा । 

जम्मतुस्तुरगं द्रष्टमुच्चै:अ्रवसमन्तिकात्‌ ।। २ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तपोधन! तदनन्तर जब रात बीती, प्रात:काल हुआ और 
भगवान्‌ सूर्यका उदय हो गया, उस समय कद्रू और विनता दोनों बहनें बड़े जोश और रोषके 
साथ दासी होनेकी बाजी लगाकर उच्चै:श्रवा नामक अश्वको निकटसे देखनेके लिये 
गयीं ।। १-२ ।। 

ददृशाते<थ ते तत्र समुद्र निधिमम्भसाम्‌ । 

महान्तमुदकागाध॑ क्षो भ्यमाणं महास्वनम्‌ ।। ३ ।। 

कुछ दूर जानेपर उन्होंने मार्गमें जलनिधि समुद्रको देखा, जो महान्‌ होनेके साथ ही 
अगाध जलसे भरा था। मगर आदि जल-जन्तु उसे विक्षुब्ध कर रहे थे और उससे बड़े 
जोरकी गर्जना हो रही थी ।। ३ ।। 

तिमिड्िलझषाकीर्ण मकरैरावृतं तथा । 

सत्त्वैश्व बहुसाहस्रनैनानारूपै: समावृतम्‌ ।। ४ ।। 

वह तिमि नामक बड़े-बड़े मत्स्योंको भी निगल जानेवाले तिमिंगिलों, मत्स्यों तथा मगर 
आदिसे व्याप्त था। नाना प्रकारकी आकृतिवाले सहस्रों जल-जन्तु उसमें भरे हुए थे ।। ४ ।। 

भीषणैरविंकृतैरन्यैघोरैर्जलचरैस्तथा । 

उग्रैर्नित्यमनाधुष्यं कूर्मग्राहसमाकुलम्‌ ।। ५ ।। 

विकट आकायवाले दूसरे-दूसरे घोर डरावने जलचरों तथा उग्र जल-जन्तुओंके कारण 
वह महासागर सदा सबके लिये दुर्धर्ष बना हुआ था। उसके भीतर बहुत-से कछुए और ग्राह 
निवास करते थे ।। ५ ।। 

आकर सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च । 

नागानामालयं रम्यमुत्तमं सरितां पतिम्‌ ।। ६ ।। 

सरिताओंका स्वामी वह महासागर सम्पूर्ण रत्नोंकी खान, वरुणदेवका निवासस्थान 
और नागोंका रमणीय उत्तम गृह है ।। ६ ।। 

पातालज्वलनावासमसुराणां च बान्धवम्‌ | 

भयंकरं च सत्त्वानां पयसां निधिमर्णवम्‌ ।। ७ ।। 


पातालकी अग्नि--बड़वानलका निवास भी उसीमें है। असुरोंको तो वह जलनिधि 
समुद्र भाई-बन्धुकी भाँति शरण देनेवाला है तथा दूसरे थलचर जीवोंके लिये अत्यन्त 
भयदायक है ।। ७ ।। 

शुभं दिव्यममर्त्यानाममृतस्याकरं परम्‌ । 

अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलमद्भुतम्‌ ।। ८ ।। 

अमरोंके अमृतकी खान होनेसे वह अत्यन्त शुभ एवं दिव्य माना जाता है। उसका कोई 
माप नहीं है। वह अचिन्त्य, पवित्र जलसे परिपूर्ण तथा अद्भुत है ।। ८ ।। 

घोरं जलचरारावरौद्रै भैरवनि:स्वनम्‌ । 

गम्भीरावर्तकलिलं सर्वभूतभयंकरम्‌ ।। ९ ।। 

वह घोर समुद्र जल-जन्तुओंके शब्दोंसे और भी भयंकर प्रतीत होता था, उससे भयंकर 
गर्जना हो रही थी, उसमें गहरी भँवरें उठ रही थीं तथा वह समस्त प्राणियोंके लिये भय-सा 
उत्पन्न करता था ।। ९ ।। 

वेलादोलानिलचलं क्षोभोद्वेगसमुच्छितम्‌ । 

वीचीहस्तै: प्रचलितैर्न॑त्यन्तमिव सर्वतः ।। १० ।। 

तटपर तीव्रवेगसे बहनेवाली वायु मानो झूला बनकर उस महासागरको चंचल किये 
देती थी। वह क्षोभ और उद्वेगसे बहुत ऊँचेतक लहरें उठाता था और सब ओर चंचल 
तरंगरूपी हाथोंको हिला-हिलाकर नृत्य-सा कर रहा था ।। १० ।। 

चन्द्रवृद्धिक्षयवशादुद्वृत्तोर्मिसमाकुलम्‌ । 

पाञ्चजन्यस्य जननं रत्नाकरमनुत्तमम्‌ ।। ११ ।। 

चन्द्रमाकी वृद्धि और क्षयके कारण उसकी लहरें बहुत ऊँचे उठतीं और उतरती थीं 
(उसमें ज्वार-भाटे आया करते थे), अतः वह उत्ताल-तरंगोंसे व्याप्त जान पड़ता था। उसीने 
पांचजन्य शंखको जन्म दिया था। वह रत्नोंका आकर और परम उत्तम था ।। ११ ।। 

गां विन्द्ता भगवता गोविन्देनामितौजसा । 

वराहरूपिणा चान्तर्विक्षेभितजलाविलम्‌ ।। १२ ।। 

अमिततेजस्वी भगवान्‌ गोविन्दने वराहरूपसे पृथ्वीको उपलब्ध करते समय उस 
समुद्रको भीतरसे मथ डाला था और उस मथित जलसे वह समस्त महासागर मलिन-सा 
जान पड़ता था ।। १२ ।। 

ब्रह्मर्षिणा ब्रतवता वर्षाणां शतमत्रिणा । 

अनासादितगाध॑ं च पातालतलमव्ययम्‌ ।। १३ ।। 

व्रतधारी ब्रह्मर्षि अत्रिने समुद्रके भीतरी तलका अन्वेषण करते हुए सौ वर्षोतक चेष्टा 
करके भी उसका पता नहीं पाया। वह पातालके नीचेतक व्याप्त है और पातालके नष्ट 
होनेपर भी बना रहता है, इसलिये अविनाशी है ।। १३ ।। 

अध्यात्मयोगनिद्रां च पद्मनाभस्य सेवत: । 


युगादिकालशयनं विष्णोरमिततेजस: ।। १४ ।। 

आध्यात्मिक योगनिद्राका सेवन करनेवाले अमित-तेजस्वी कमलनाभ भगवान्‌ विष्णुके 
लिये वह (युगान्तकालसे लेकर) युगादिकालतक शयनागार बना रहता है ।। १४ ।। 

वज्पातनसंत्रस्तमैनाकस्या भयप्रदम्‌ । 

डिम्बाहवार्दितानां च असुराणां परायणम्‌ ।। १५ ।। 

उसीने वज्रपातसे डरे हुए मैनाक पर्वतको अभयदान दिया है तथा जहाँ भयके मारे 
हाहाकार करना पड़ता है, ऐसे युद्धसे पीड़ित हुए असुरोंका वह सबसे बड़ा आश्रय 
है ।। १५ |। 

वडवामुखदीप्ताग्नेस्तोयहव्यप्रदं शिवम्‌ । 

अगाधपारं विस्तीर्णमप्रमेयं सरित्पतिम्‌ ।। १६ ।। 

बड़वानलके प्रज्वलित मुखमें वह सदा अपने जलरूपी हविष्यकी आहुति देता रहता है 
और जगत्‌के लिये कल्याणकारी है। इस प्रकार वह सरिताओंका स्वामी समुद्र अगाध, 
अपार, विस्तृत और अप्रमेय है ।। १६ ।। 

महानदीभिर्बद्वीभि: स्पर्धयेव सहसत्रश: । 

अभिसार्यमाणमनिशं ददृशाते महार्णवम्‌ । 

आपूर्यमाणमत्यर्थ नृत्यमानमिवोर्मिभि: ।। १७ ।। 

सहस्रों बड़ी-बड़ी नदियाँ आपसमें होड़-सी लगाकर उस विस्तृत महासागरमें निरन्तर 
मिलती रहती हैं और अपने जलसे उसे सदा परिपूर्ण किया करती हैं। वह ऊँची-ऊँची 
लहरोंकी भुजाएँ ऊपर उठाये निरन्तर नृत्य करता-सा जान पड़ता है ।। १७ ।। 

गम्भीरं तिमिमकरोग्रसंकुलं त॑ 

गर्जन्तं जलचररावरीौद्रनादै: । 
विस्तीर्ण ददृशतुरम्बरप्रकाशं 
तेडगाधं निधिमुरुमम्भसामनन्तम्‌ ।। १८ ।। 

इस प्रकार गम्भीर, तिमि और मकर आदि भयंकर जल-जन्तुओंसे व्याप्त, जलचर 
जीवोंके शब्दरूप भयंकर नादसे निरन्तर गर्जना करनेवाले, अत्यन्त विस्तृत, आकाशके 
समान स्वच्छ, अगाध, अनन्त एवं महान्‌ जलनिधि समुद्रको कद्भू और विनताने 
देखा ॥। १८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकविंशो5ध्याय: ।। २१ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरितके प्रसंगमें 
इक्कीसवाँ अध्याय प्रा हुआ ॥/ २९ ॥। 


अपना बछ। | अड-#-#रू- 


दाविशोद्ध्याय: 
नागोंद्वारा य४22505%0 प्ूछको काली बनाना; कद्भू और 


विनताका देखते हुए आगे बढ़ना 
सौतिरुवाच 
नागाश्च संविदं कृत्वा कर्तव्यमिति तद्बच: । 


नि:स्नेहा वै दहेन्माता असम्प्राप्तमनोरथा ।। १ ।। 

प्रसन्ना मोक्षयेदस्मांस्तस्माच्छापाच्च भामिनी । 

कृष्णं पुच्छ॑ करिष्यामस्तुरगस्य न संशय: ।। २ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--महर्षियो! इधर नागोंने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया 
कि “हमें माताकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। यदि इसका मनोरथ पूरा न होगा तो वह 
स्नेहभाव छोड़कर रोषपूर्वक हमें जला देगी। यदि इच्छा पूर्ण हो जानेसे प्रसन्न हो गयी तो 
वह भामिनी हमें अपने शापसे मुक्त कर सकती है; इसलिये हम निश्चय ही उस घोड़ेकी 
पूँछको काली कर देंगे” || १-२ ।। 

तथा हि गत्वा ते तस्य पुच्छे वाला इव स्थिता: । 

एतस्मिन्नन्तरे ते तु सपत्न्यौं पणिते तदा ।। ३ ।। 

ततस्ते पणितं कृत्वा भगिन्यौ द्विजसत्तम । 

जग्मतुः परया प्रीत्या परं पारं महोदधे: ।। ४ ।। 

कद्रश्न विनता चैव दाक्षायण्यौ विहायसा । 

आलोकयन्त्यावक्षोभ्यं समुद्र निधिमम्भसाम्‌ ।। ५ ।। 

वायुनातीव सहसा क्षोभ्यमाणं महास्वनम्‌ | 

तिमिंगिलसमाकीर्ण मकरैरावृतं तथा ॥। ६ ।। 

संयुतं बहुसाहस्रै: सत्त्वै्नानाविधैरपि । 

घोरैर्घोरमनाधुष्यं गम्भीरमतिभैरवम्‌ ।। ७ ।। 

ऐसा विचार करके वे वहाँ गये और काले रंगके बाल बनकर उसकी एूँछमें लिपट गये। 
द्विजश्रेष्ठी इसी बीचमें बाजी लगाकर आयी हुई दोनों सौतें और सगी बहनें पुनः अपनी 
शर्तको दुहराकर बड़ी प्रसन्नताके साथ समुद्रके दूसरे पार जा पहुँचीं। दक्षकुमारी कद्रू और 
विनता आकाशभमार्गसे अक्षोभ्य जलनिधि समुद्रको देखती हुई आगे बढ़ीं। वह महासागर 
अत्यन्त प्रबल वायुके थपेड़े खाकर सहसा विक्षुब्ध हो रहा था। उससे बड़े जोरकी गर्जना 
होती थी। तिमिंगिल और मगरमच्छ आदि जलजन्तु उसमें सब ओर व्याप्त थे। नाना 
प्रकारके भयंकर जन्तु सहस्रोंकी संख्यामें उसके भीतर निवास करते थे। इन सबके कारण 


वह अत्यन्त घोर और दुर्धर्ष जान पड़ता था तथा गहरा होनेके साथ ही अत्यन्त भयंकर 
था || ३--७ |। 

आकर ं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्यथ च । 

नागानामालयं चापि सुरम्यं सरितां पतिम्‌ ।। ८ ।। 

नदियोंका वह स्वामी सब प्रकारके रत्नोंकी खान, वरुणका निवासस्थान तथा नागोंका 
सुरम्य गृह था ।। ८ ।। 

पातालज्वलनावासमसुराणां तथा55लयम्‌ । 

भयंकराणां सत्त्वानां पपसो निधिमव्ययम्‌ ।। ९ ।। 

वह पातालव्यापी बड़वानलका आश्रय, असुरोंके छिपनेका स्थान, भयंकर जन्तुओंका 
घर, अनन्त जलका भण्डार और अविनाशी था ।। ९ |। 

शुभ्र॑ दिव्यममर्त्यानाममृतस्याकरं परम्‌ । 

अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलसम्मितम्‌ ।। १० ।। 

वह शुभ्र, दिव्य, अमरोंके अमृतका उत्तम उत्पत्ति-स्थान, अप्रमेय, अचिन्त्य तथा परम 
पवित्र जलसे परिपूर्ण था || १० ।। 

महानदीभिर्बलद्वीभिस्तत्र तत्र सहस्रश: । 

आपूर्यमाणमत्यर्थ नृत्यन्तमिव चोर्मिभि: ।। ११ ।। 

बहुत-सी बड़ी-बड़ी नदियाँ सहस्रोंकी संख्यामें आकर उसमें यत्र-तत्र मिलतीं और उसे 
अधिकाधिक भरती रहती थीं। वह भुजाओंके समान ऊँची लहरोंको ऊपर उठाये नृत्य-सा 
कर रहा था | ११ |। 

इत्येवं तरलतरोरमिंसंकुलं त॑ 

गम्भीरं विकसितमम्बरप्रकाशम्‌ | 
पातालज्वलनशिखाविदीपिताडूं 
गर्जन्तं द्रतमभिजग्मतुस्ततस्ते || १२ ।। 

इस प्रकार अत्यन्त तरल तरंगोंसे व्याप्त, आकाशके समान स्वच्छ, बड़वानलकी 
शिखाओंसे उद्धासित, गम्भीर, विकसित और निरन्तर गर्जन करनेवाले महासागरको देखती 
हुई वे दोनों बहनें तुरंत आगे बढ़ गयीं ।। १२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे समुद्रदर्शन॑ नाम 
द्वाविंशोडध्याय: ।। २२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरितके प्रसंगमें 
समुद्रदर्शन नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २२ ॥। 


2: छा अकाल 


त्रयोविशो<् ध्याय: 


पराजित विनताका कढद्रूकी दासी होना, गरुडकी उत्पत्ति 
तथा देवताओंद्वारा उनकी स्तुति 


सौतिरुवाच 


त॑ समुद्रमतिक्रम्य कद्रू्विनतया सह । 

न्यपतत्‌ तुरगाभ्याशे नचिरादिव शीघ्रगा ।। १ ।। 

ततस्ते तं॑ हयश्रेष्ठ ददूशाते महाजवम्‌ । 

शशाड्ककिरणप्रख्यं कालवालमुभे तदा ।। २ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! तदनन्तर शीघ्रगामिनी कद्ू विनताके साथ उस 
समुद्रको लाँधकर तुरंत ही उच्चै:श्रवा घोड़ेके पास पहुँच गयीं। उस समय चन्द्रमाकी 
किरणोंके समान श्वेत वर्णवाले उस महान्‌ वेगशाली श्रेष्ठ अश्वको उन दोनोंने काली 
पूँछवाला देखा ।। १-२ ।। 

निशम्य च बहून्‌ बालान्‌ कृष्णान्‌ पुच्छसमाश्रितान्‌ | 

विषण्णरूपां विनतां कद्रूर्दास्थे ्ययोजयत्‌ ।। ३ ।। 

पूँछके घनीभूत बालोंको काले रंगका देखकर विनता विषादकी मूर्ति बन गयी और 
कद्गूने उसे अपनी दासीके काममें लगा दिया || ३ ।। 

ततः सा विनता तस्मिन्‌ पणितेन पराजिता । 

अभवद्‌ दुःखसंतप्ता दासीभावं समास्थिता ।। ४ ।। 

पहलेकी लगायी हुई बाजी हारकर विनता उस स्थानपर दुःखसे संतप्त हो उठी और 
उसने दासीभाव स्वीकार कर लिया ।। ४ ।। 

एतस्मिन्नन्तरे चापि गरुड: काल आगते । 

विना मात्रा महातेजा विदार्याण्डमजायत ।। ५ |। 

इसी बीचमें समय पूरा होनेपर महातेजस्वी गरुड माताकी सहायताके बिना ही अण्डा 
फोड़कर बाहर निकल आये ।। ५ ।। 

महासत्त्वबलोपेत: सर्वा विद्योतयन्‌ दिश: । 

कामरूप: कामगम: कामवीर्यों विहंगम: ।। ६ ।। 

वे महान्‌ साहस और पराक्रमसे सम्पन्न थे। अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित 
कर रहे थे। उनमें इच्छानुसार रूप धारण करनेकी शक्ति थी। वे जहाँ जितनी जल्दी जाना 
चाहें जा सकते थे और अपनी रुचिके अनुसार पराक्रम दिखला सकते थे। उनका प्राकट्य 
आकाशबचारी पक्षीके रूपमें हुआ था ।। ६ ।। 


अग्निराशिरिवोद्भासन्‌ समिद्धो $तिभयंकर: । 

विद्युद्धिस्पष्टपिज्ञक्षो युगान्ताग्निसमप्र भ: ।। ७ ।। 

वे प्रजजलित अग्नि-पुंजके समान उद्धासित होकर अत्यन्त भयंकर जान पढ़ते थे। 
उनकी आँखें बिजलीके समान चमकनेवाली और पिंगलवर्णकी थीं। वे प्रलयकालकी 
अग्निके समान प्रज्वलित एवं प्रकाशित हो रहे थे || ७ ।। 

प्रवृद्ध;/ सहसा पक्षी महाकायो नभोगत: । 

घोरो घोरस्वनो रौद्रो वह्निरौर्व इवापर: ।॥। ८ ।। 

उनका शरीर थोड़ी ही देरमें बढ़कर विशाल हो गया। पक्षी गरुड आकाशमें उड़ चले। 
वे स्वयं तो भयंकर थे ही, उनकी आवाज भी बड़ी भयानक थी। वे दूसरे बड़वानलकी भाँति 
बड़े भीषण जान पड़ते थे ।। ८ ।। 

तं॑ दृष्टवा शरणं जम्मुर्देवा: सर्वे विभावसुम्‌ । 

प्रणिपत्याब्रुवंश्चैनमासीनं विश्वरूपिणम्‌ ॥। ९ ।। 

उन्हें देखकर सब देवता विश्वरूपधारी अग्निदेवकी शरणमें गये और उन्हें प्रणाम करके 
बैठे हुए उन अग्निदेवसे इस प्रकार बोले-- ।। ९ ।। 

अग्ने मा त्वं प्रवर्धिष्ठा: कच्चिन्नो न दिधक्षसि । 

असौ हि राशि: सुमहान्‌ समिद्धस्तव सर्पति ।। १० ।। 

'“अग्ने! आप इस प्रकार न बढ़ें। आप हमलोगोंको जलाकर भस्म तो नहीं कर डालना 
चाहते हैं? देखिये, वह आपका महान, प्रज्वलित तेज:पुंज इधर ही फैलता आ रहा 
है" ।। १० || 

अग्निर्वाच 


नैतदेवं यथा यूय॑ मन्यध्वमसुरार्दना: । 

गरुडो बलवानेष मम तुल्यश्न तेजसा ।। ११ ।। 

अग्निदेवने कहा--असुरविनाशक देवताओ! तुम जैसा समझ रहे हो, वैसी बात नहीं 
है। ये महाबली गरुड हैं, जो तेजमें मेरे ही तुल्य हैं ।। ११ ।। 

जात: परमतेजस्वी विनतानन्दवर्धन:। 

तेजोराशिमिमं दृष्टवा युष्मान्‌ मोह: समाविशत्‌ ।। १२ ।। 

विनताका आनन्द बढ़ानेवाले ये परम तेजस्वी गरुड इसी रूपमें उत्पन्न हुए हैं। तेजके 
पुंजरूप इन गरुडको देखकर ही तुमलोगोंपर मोह छा गया है ।। १२ ।। 

नागक्षयकरश्चलैव काश्यपेयो महाबल: । 

देवानां च हिते युक्तस्त्वहितो दैत्यरक्षसाम्‌ ।। १३ ।। 

कश्यपनन्दन महाबली गरुड नागोंके विनाशक, देवताओंके हितैषी और दैत्यों तथा 
राक्षसोंके शत्रु हैं । १३ ।। 


न भी: कार्या कथं चात्र पश्यध्वं सहिता मम । 
एवमुक्तास्तदा गत्वा गरुडं वाग्भिरस्तुवन्‌ ।। १४ ।। 
ते दूसदभ्युपेत्यैनं देवा: सर्षिगणास्तदा । 
इनसे किसी प्रकारका भय नहीं करना चाहिये। तुम मेरे साथ चलकर इनका दर्शन 
करो। अग्निदेवके ऐसा कहनेपर उस समय देवताओं तथा ऋषियोंने गरुडके पास जाकर 
अपनी वाणीद्वारा उनका इस प्रकार स्तवन किया (यहाँ परमात्माके रूपमें गरुडकी स्तुति 
की गयी है) ।। १४३ ।। 
देवा ऊचु: 
त्वमृषिस्त्वं महाभागस्त्वं देव: पतगेश्वर: ।। १५ ।। 
देवता बोले--प्रभो! आप मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं; आप ही महाभाग देवता तथा आप ही 
पतगेश्वर (पक्षियों तथा जीवोंके स्वामी) हैं || १५ ।। 
त्वं प्रभुस्तपन: सूर्य: परमेष्ठी प्रजापति: । 
त्वमिन्द्रस्त्वं हयमुखस्त्वं शर्वस्त्वं जगत्पति: ।। १६ ।। 
आप ही प्रभु, तपन, सूर्य, परमेष्ठी तथा प्रजापति हैं। आप ही इन्द्र हैं, आप ही हयग्रीव 
हैं, आप ही शिव हैं तथा आप ही जगत के स्वामी हैं || १६ ।। 
त्वं मुखं पद्मजो विप्रस्त्वमग्नि: पवनस्तथा । 
त्वं हि धाता विधाता च त्वं विष्णु: सुरसत्तम: ।। १७ ।। 
आप ही भगवानके मुखस्वरूप ब्राह्मण, पद्मयोनि ब्रह्मा और विज्ञानवान्‌ विप्र हैं, आप 
ही अग्नि तथा वायु हैं, आप ही धाता, विधाता और देवश्रेष्ठ विष्णु हैं ।। १७ ।। 
त्वं महानभिभू: शश्वदमृतं त्वं महद्‌ यश: । 
त्वं प्रभास्त्वमभिप्रेतं त्वं नस्त्राणमनुत्तमम्‌ ।। १८ ।। 
आप ही महत्तत््व और अहंकार हैं। आप ही सनातन, अमृत और महान्‌ यश हैं। आप 
ही प्रभा और आप ही अभीष्ट पदार्थ हैं। आप ही हमलोगोंके सर्वोत्तम रक्षक हैं || १८ ।। 
बलोरमिमान्‌ साधुरदीनसत्त्व: 
समृद्धिमान्‌ दुर्विषहस्त्वमेव । 
त्वत्तः सृतं सर्वमहीनकीरते 
हानागतं चोपगतं च सर्वम्‌ ।। १९ ।। 
आप बलके सागर और साधु पुरुष हैं। आपमें उदार सत्त्वगुण विराजमान है। आप 
महान्‌ ऐश्वर्यशाली हैं। युद्धमें आपके वेगको सह लेना सभीके लिये सर्वथा कठिन है। 
पुण्यश्लोक! यह सम्पूर्ण जगत्‌ आपसे ही प्रकट हुआ है। भूत, भविष्य और वर्तमान सब 
कुछ आप ही हैं ।। १९ ।। 
त्वमुत्तम: सर्वमिदं चराचरं 


गभस्तिभिर्भानुरिवावभाससे । 
समाक्षिपन्‌ भानुमतः प्रभां मुहु- 
स्त्वमन्तकः सर्वमिदं ध्रुवाध्रुवम्‌ ।। २० ।। 
आप उत्तम हैं। जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे सबको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आप 
इस सम्पूर्ण जगत्‌को प्रकाशित करते हैं। आप ही सबका अन्त करनेवाले काल हैं और 
बारम्बार सूर्यकी प्रभाका उपसंहार करते हुए इस समस्त क्षर और अक्षररूप जगत्‌का संहार 
करते हैं | २० ।। 
दिवाकर: परिकुपितो यथा दहेत्‌ 
प्रजास्तथा दहसि हुताशनप्रभ । 
भयंकर: प्रलय इवाग्निरुत्थितो 
विनाशयन्‌ युगपरिवर्तनान्तकृत्‌ । २१ ।। 
अग्निके समान प्रकाशित होनेवाले देव! जैसे सूर्य क़ुद्ध होनेपर सबको जला सकते हैं, 
उसी प्रकार आप भी कुपित होनेपर सम्पूर्ण प्रजाको दग्ध कर डालते हैं। आप युगान्तकारी 
कालके भी काल हैं और प्रलयकालमें सबका विनाश करनेके लिये भयंकर संवर्तकाग्निके 
रूपमें प्रकट होते हैं || २१ ।। 
खगेश्वरं शरणमुपागता वयं 
महौजसं ज्वलनसमानवर्चसम्‌ | 
तडित्प्रभं वितिमिरमभ्रगोचरं 
महाबलं गरुडमुपेत्य खेचरम्‌ ।। २२ ।। 
आप सम्पूर्ण पक्षियों एवं जीवोंके अधीश्वर हैं। आपका ओज महान्‌ है। आप अग्निके 
समान तेजस्वी हैं। आप बिजलीके समान प्रकाशित होते हैं। आपके द्वारा अज्ञानपुंजका 
निवारण होता है। आप आकाशकमें मेघोंकी भाँति विचरनेवाले महापराक्रमी गरुड हैं। हम 
यहाँ आकर आपके शरणागत हो रहे हैं || २२ ।। 
परावरं वरदमजय्यविक्रमं 
तवौजसा सर्वमिदं प्रतापितम्‌ 
जगत्प्रभो तप्तसुवर्णवर्चसा 
त्वं पाहि सर्वाश्व सुरान्‌ महात्मन: ।। २३ ।। 
आप ही कार्य और कारणरूप हैं। आपसे ही सबको वर मिलता है। आपका पराक्रम 
अजेय है। आपके तेजसे यह सम्पूर्ण जगत्‌ संतप्त हो उठा है। जगदीश्वर! आप तपाये हुए 
सुवर्णके समान अपने दिव्य तेजसे सम्पूर्ण देवताओं और महात्मा पुरुषोंकी रक्षा 
करें ।। २३ ।। 
भयान्विता नभसि विमानगामिनो 
विमानिता विपथगतिं प्रयान्ति ते । 


ऋषे: सुतस्त्वमसि दयावत: प्रभो 
महात्मन: खगवर कश्यपस्य ह ।। २४ ।। 
पक्षिराज! प्रभो! विमानपर चलनेवाले देवता आपके तेजसे तिरस्कृत एवं भयभीत हो 
आकाशकमें पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। आप दयालु महात्मा महर्षि कश्यपके पुत्र हैं || २४ ।। 
स मा क्रुध: कुरु जगतो दयां परां 
त्वमीश्वर: प्रशममुपैहि पाहि नः । 
महाशनिस्फुरितसमस्वनेन ते 
दिशो«म्बरं त्रिदिवमियं च मेदिनी ।। २५ ।। 
चलन्ति न: खग हृदयानि चानिशं 
निगृहातां वपुरिदमग्निसंनिभम्‌ | 
तव द्युतिं कुपितकृतान्तसंनिभां 
निशम्य नश्नलति मनो<व्यवस्थितम्‌ । 
प्रसीद न: पतगपते प्रयाचतां 
शिवश्व नो भव भगवन्‌ सुखावह: ।। २६ ।। 
प्रभो! आप कुपित न हों, सम्पूर्ण जगतपर उत्तम दयाका विस्तार करें। आप ईश्वर हैं, 
अतः शान्ति धारण करें और हम सबकी रक्षा करें। महान्‌ वज्रकी गड़गड़ाहटके समान 
आपकी गर्जनासे सम्पूर्ण दिशाएँ, आकाश, स्वर्ग तथा यह पृथ्वी सब-के-सब विचलित हो 
उठे हैं और हमारा हृदय भी निरन्तर काँपता रहता है। अत: खगगश्रेष्ठ) आप अग्निके समान 
तेजस्वी अपने इस भयंकर रूपको शान्त कीजिये। क्रोधमें भरे हुए यमराजके समान 
आपकी उग्र कान्ति देखकर हमारा मन अस्थिर एवं चंचल हो जाता है। आप हम याचकोंपर 
प्रसन्न होइये। भगवन्‌! आप हमारे लिये कल्याणस्वरूप और सुखदायक हो 
जाइये ।। २५-२६ |। 
एवं स्तुतः सुपर्णस्तु देवै: सर्षिगणैस्तदा । 
तेजस: प्रतिसंहारमात्मन: स चकार ह ।। २७ ।। 
ऋषियोंसहित देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर उत्तम पंखोंवाले गरुडने उस समय 
अपने तेजको समेट लिया ।। २७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयोविंशो 5ध्याय: ।। २३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत आस्तीकपरवर्में गरुडचरित्रविषयक तेईसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २३ ॥ 


पम्प छा अर: 2 


चतुर्विशो$ध्याय: 


गरुडके द्वारा अपने तेज और शरीरका संकोच तथा सूर्यके 
क्रोधजनित तीव्र तेजकी शान्तिके लिये अरुणका उनके 
रथपर स्थित होना 


सौतिरुवाच 


स श्रुत्वाथात्मनो देहं सुपर्ण: प्रेक्ष्य च स्वयम्‌ । 

शरीरप्रतिसंहारमात्मन: सम्प्रचक्रमे ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकादि महर्षियो! देवताओंद्वारा की हुई स्तुति सुनकर 
गरुडजीने स्वयं भी अपने शरीरकी ओर दृष्टिपात किया और उसे संकुचित कर लेनेकी 
तैयारी करने लगे ।। १ ।। 

युपर्ण उवाच 

न मे सर्वाणि भूतानि विभियुर्देहदर्शनात्‌ । 

भीमरूपात्‌ समुद्विग्नास्तस्मात्‌ तेजस्तु संहरे || २ ।। 

गरुडजीने कहा--देवताओ! मेरे इस शरीरको देखनेसे संसारके समस्त प्राणी उस 


भयानक स्वरूपसे उद्विग्न होकर डर न जायाँ इसलिये मैं अपने तेजको समेट लेता 
हूँ ।। २ ।। 


सौतिरुवाच 


तत: कामगम: पक्षी कामवीर्यों विहंगम: । 

अरुणं चात्मन: पृष्ठमारोप्य स पितुर्गहात्‌ । ३ ।। 

मातुरन्तिकमागच्छत्‌ परं तीरं महोदथे: । 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तदनन्तर इच्छानुसार चलने तथा रुचिके अनुसार पराक्रम 
प्रकट करनेवाले पक्षी गरुड अपने भाई अरुणको पीठपर चढ़ाकर पिताके घरसे माताके 
समीप महासागरके दूसरे तटपर आये || ३ $ ।। 

तत्रारुणश्न निक्षिप्तो दिशं पूर्वा महाद्युति: ।। ४ ।। 

सूर्यस्तेजोभिरत्युग्रैलोकान्‌ दग्धुमना यदा । 

जब सूर्यने अपने भयंकर तेजके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध करनेका विचार किया, 
उस समय गरुडजी महान्‌ तेजस्वी अरुणको पुनः पूर्व दिशामें लाकर सूर्यके समीप रख 
आये ।। ४६ ।। 

रुरुर्वाच 


किमर्थ भगवान्‌ सूर्यो लोकान्‌ दग्धुमनास्तदा ।। ५ ।। 
किमस्यापद्त॑ देवै्येनेमं मन्युराविशत्‌ । 
रुरुने पूछा--पिताजी! भगवान्‌ सूर्यने उस समय सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध कर डालनेका 
विचार क्‍यों किया? देवताओंने उनका क्या हड़प लिया था, जिससे उनके मनमें क्रोधका 
संचार हो गया? ।। ५६ ।। 
प्रमतिरुवाच 


चन्द्रार्काभ्यां यदा राहुराख्यातो हामृतं पिबन्‌ ।। ६ ।। 

वैरानुबन्ध॑ं कृतवांश्वन्द्रादित्यौ तदानघ । 

वध्यमाने ग्रहेणाथ आदित्ये मन्युराविशत्‌ ।। ७ ।। 

प्रमतिने कहा--अनघ! जब राहु अमृत पी रहा था, उस समय चन्द्रमा और सूर्यने 
उसका भेद बता दिया; इसीलिये उसने चन्द्रमा और सूर्यसे भारी वैर बाँध लिया और उन्हें 
सताने लगा। राहुसे पीड़ित होनेपर सूर्यके मनमें क्रोधका आवेश हुआ ।। ६-७ ।। 

सुरार्थाय समुत्पन्नो रोषो राहोस्तु मां प्रति 

बह्ननर्थकरं पापमेको5हं समवाप्लुयाम्‌ ।। ८ ।। 

वे सोचने लगे, “देवताओंके हितके लिये ही मैंने राहुका भेद खोला था जिससे मेरे प्रति 
राहुका रोष बढ़ गया। अब उसका अत्यन्त अनर्थकारी परिणाम दुःखके रूपमें अकेले मुझे 
प्राप्त होता है ।। ८ ।। 

सहाय एव कार्येषु न च कृच्छेषु दृश्यते । 

पश्यन्ति ग्रस्यमानं मां सहन्ते वै दिवौकस: ।। ९ ।। 

“संकटके अवसरोंपर मुझे अपना कोई सहायक ही नहीं दिखायी देता। देवतालोग मुझे 
राहुसे ग्रस्त होते देखते हैं तो भी चुपचाप सह लेते हैं ।। ९ ।। 

तस्माललोकविनाशार्थ हावतिछे न संशय: । 

एवं कृतमति: सूर्यो हृस्तमभ्यगमद्‌ गिरिम्‌ ।। १० ।। 

“अतः सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेके लिये निःसंदेह मैं अस्ताचलपर जाकर वहीं 
ठहर जाऊँगा।' ऐसा निश्चय करके सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये ।। १० ।। 

तस्माललोकविनाशाय संतापयत भास्कर: । 

ततो देवानुपागम्य प्रोचुरेवं महर्षय: ।। ११ ।। 

और वहींसे सूर्यदेवने सम्पूर्ण जगत्‌का विनाश करनेके लिये सबको संताप देना आरम्भ 
किया। तब महर्षिगण देवताओंके पास जाकर इस प्रकार बोले-- ।। ११ ।। 

अद्यार्धरात्रसमये सर्वलोकभयावह: । 

उत्पत्स्यते महान्‌ दाहस्त्रैलोक्यस्य विनाशन: ।। १२ ।। 


“देवगण! आज आधी रातके समय सब लोकोंको भयभीत करनेवाला महान्‌ दाह 
उत्पन्न होगा, जो तीनों लोकोंका विनाश करनेवाला हो सकता है' ।। १२ ।। 

ततो देवा: सर्षिगणा उपगम्य पितामहम्‌ । 

अन्रुवन्‌ किमिवेहाद्य महद्‌ दाहकृतं भयम्‌ ।। १३ ।। 

न तावद्‌ दृश्यते सूर्य: क्षयो5यं प्रतिभाति च । 

उदिते भगवन्‌ भानौ कथमेतद्‌ भविष्यति ।। १४ ।। 

तदनन्तर देवता ऋषियोंको साथ ले ब्रह्माजीके पास जाकर बोले--“भगवन्‌! आज यह 
कैसा महान्‌ दाहजनित भय उपस्थित होना चाहता है? अभी सूर्य नहीं दिखायी देते तो भी 
ऐसी गरमी प्रतीत होती है मानो जगत॒का विनाश हो जायगा। फिर सूर्योदय होनेपर गरमी 
कैसी तीव्र होगी, यह कौन कह सकता है?” ।। १३-१४ ।। 

पितामह उवाच 


एष लोकविनाशाय रविरुद्यन्तुमुद्यत: । 

दृश्यन्नेव हि लोकान्‌ स भस्मराशीकरिष्यति ।। १५ ।। 

ब्रद्माजीने कहा--ये सूर्यदेव आज सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेके लिये ही उद्यत 
होना चाहते हैं। जान पड़ता है, ये दृष्टिमें आते ही सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देंगे ।। १५ ।। 

तस्य प्रतिविधानं च विहितं पूर्वमेव हि । 

कश्यपस्य सुतो धीमानरुणेत्यभिविश्रुत: ।। १६ ।। 

किंतु उनके भीषण संतापसे बचनेका उपाय मैंने पहलेसे ही कर रखा है। महर्षि 
कश्यपके एक बुद्धिमान पुत्र हैं, जो अरुण नामसे विख्यात हैं || १६ ।। 

महाकायो महातेजा: स स्थास्यति पुरो रवे: । 

करिष्यति च सारथ्यं तेजश्नलास्य हरिष्यति ।। १७ ।। 

लोकानां स्वस्ति चैवं स्वाद ऋषीणां च दिवौकसाम्‌ । 

उनका शरीर विशाल है। वे महान्‌ तेजस्वी हैं। वे ही सूर्यके आगे रथपर बैठेंगे। उनके 
सारथिका कार्य करेंगे और उनके तेजका भी अपहरण करेंगे। ऐसा करनेसे सम्पूर्ण लोकों, 
ऋषि-महर्षियों तथा देवताओंका भी कल्याण होगा ।। १७३६ ।। 


प्रमतिरु्वाच 
ततः: पितामहाज्ञात: सर्व चक्रे तदारुण: ।। १८ ।। 
उदितश्चैव सविता हारुणेन समावृत: । 


एतत्‌ ते सर्वमाख्यातं यत्‌ सूर्य मन्युराविशत्‌ ।। १९ ।। 

प्रमति कहते हैं--तत्पश्चात्‌ पितामह ब्रह्माजीकी आज्ञासे अरुणने उस समय सब कार्य 
उसी प्रकार किया। सूर्य अरुणसे आवृत होकर उदित हुए। वत्स! सूर्यके मनमें क्यों क्रोधका 
आवेश हुआ था, इस प्रश्नके उत्तरमें मैंने ये सब बातें कही हैं || १८-१९ ।। 


अरुण श्न यथैवास्य सारथ्यमकरोत्‌ प्रभु: । 

भूय एवापरं प्रश्न॑ं शृणु पूर्वमुदाह्ूतम्‌ ।। २० ।। 

शक्तिशाली अरुणने सूर्यके सारथिका कार्य क्‍यों किया, यह बात भी इस प्रसंगमें स्पष्ट 
हो गयी है। अब अपने पूर्वकथित दूसरे प्रश्नका पुनः उत्तर सुनो ।। २० ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे चतुर्विशो5ध्याय: ।। २४ ।। 
इस प्रकार श्रीमयह़्ा भातत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपव॑र्में गरुडचरित्रविषयक चौबीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २४ ॥ 


है ० बछ। ] अ्णऑकाडह 


पञ्चविशो< ध्याय: 


सूर्यके तापसे मूर्च्छित हुए सर्पोकी रक्षाके लिये कद्रद्वारा 
इन्द्रदेवकी स्तुति 


सौतिरुवाच 


तत: कामगम: पक्षी महावीर्यों महाबल: । 

मातुरन्तिकमागच्छत्‌ परं पारं महोदथधे: ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकादि महर्षियो! तदनन्तर इच्छानुसार गमन करनेवाले 
महान्‌ पराक्रमी तथा महाबली गरुड समुद्रके दूसरे पार अपनी माताके समीप आये ।। १ ।। 

यत्र सा विनता तस्मिन्‌ पणितेन पराजिता । 

अतीव दु:ःखसंतप्ता दासीभावमुपागता ।। २ ।। 

जहाँ उनकी माता विनता बाजी हार जानेसे दासी-भावको प्राप्त हो अत्यन्त दुःखसे 
संतप्त रहती थीं ।। २ ।। 

ततः कदाचिद्‌ विनतां प्रणतां पुत्रसंनिधौ । 

काले चाहूय वचन कद्रूरिदमभाषत ।। ३ ।। 

एक दिन अपने पुत्रके समीप बैठी हुई विनय-शील विनताको किसी समय बुलाकर 
कद्गूने यह बात कही-- ।। ३ ।। 

नागानामालयं भद्रे सुरम्यं चारुदर्शनम्‌ 

समुद्रकुक्षावेकान्ते तत्र मां विनते नय ।। ४ ।। 

“कल्याणी विनते! समुद्रके भीतर निर्जन प्रदेशमें एक बहुत रमणीय तथा देखनेमें 
अत्यन्त मनोहर नागोंका निवासस्थान है। तू वहाँ मुझे ले चल” ।। ४ ।। 

ततः सुपर्णमाता तामवहत्‌ सर्पमातरम्‌ | 

पन्नगान्‌ गरुडश्चापि मातुर्वचनचोदित: ।। ५ ।। 

तब गरुडकी माता विनता सर्पोकी माता कद्गूको अपनी पीठपर ढोने लगी। इधर 
माताकी आज्ञासे गरुड भी सर्पोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर ले चले ।। ५ ।। 

स सूर्यमभितो याति वैनतेयो विहंगम: । 

सूर्यरश्मिप्रतप्ताश्न मूर्च्छिता: पन्नगा भवन्‌ ।। ६ ।। 

पक्षिराज गरुड आकाशमें सूर्यके निकट होकर चलने लगे। अतः सर्प सूर्यकी किरणोंसे 
संतप्त हो मूर्च्छित हो गये ।। ६ ।। 

तदवस्थान्‌ सुतान्‌ दृष्टवा कद्रू: शक्रमथास्तुवत्‌ 

नमस्ते सर्वदेवेश नमस्ते बलसूदन ।। ७ ।। 


अपने पुत्रोंको इस दशामें देखकर कद्रू इन्द्रकी स्तुति करने लगी--“सम्पूर्ण देवताओंके 
ईश्वर! तुम्हें नमस्कार है। बलसूदन! तुम्हें नमस्कार है || ७ ।। 

नमुचिघ्न नमस्ते<स्तु सहस्राक्ष शचीपते । 

सर्पाणां सूर्यतप्तानां वारिणा त्वं प्लवो भव ॥। ८ ।। 

“सहस्र नेत्रोंवाले नमुचिनाशन! शचीपते! तुम्हें नमस्कार है। तुम सूर्यके तापसे संतप्त 
हुए सर्पोको जलसे नहलाकर नौकाकी भाँति उनके रक्षक हो जाओ ।। ८ ।। 

त्वमेव परमं त्राणमस्माकममरोत्तम । 

ईशो हासि पय: स्रष्टं त्वमनल्पं पुरन्दर ।। ९ |। 

“अमरोत्तम! तुम्हीं हमारे सबसे बड़े रक्षक हो । पुरन्दर! तुम अधिक-से-अधिक जल 
बरसानेकी शक्ति रखते हो ।। ९ ।। 

त्वमेव मेघस्त्वं वायुस्त्वमन्निर्विद्युतो 5म्बरे । 

त्वमभ्रगणविक्षेप्ता त्वामेवाहुर्महाघनम्‌ ।। १० ।। 

“तुम्हीं मेघ हो, तुम्हीं वायु हो और तुम्हीं आकाशमें बिजली बनकर प्रकाशित होते हो। 
तुम्हीं बादलोंको छिन्न-भिन्न करनेवाले हो और दविद्वान्‌ पुरुष तुम्हें ही महामेघ कहते 
हैं ।। १० ।। 

त्वं वज़मतुलं घोरं घोषवांस्त्वं बलाहक:ः । 

स््रष्टा त्वमेव लोकानां संहर्ता चापराजित: ।। ११ ।। 

'संसारमें जिसकी कहीं तुलना नहीं है, वह भयानक वच्न तुम्हीं हो, तुम्हीं भयंकर 
गर्जना करनेवाले बलाहक (प्रलयकालीन मेघ) हो। तुम्हीं सम्पूर्ण लोकोंकी सृष्टि और संहार 
करनेवाले हो। तुम कभी परास्त नहीं होते ।। ११ ।। 

त्वं ज्योति: सर्वभूतानां त्वमादित्यो विभावसु: । 

त्वं महद्धूतमाश्चर्य त्वं राजा त्वं सुरोत्तमः ।। १२ ।। 

“तुम्हीं समस्त प्राणियोंकी ज्योति हो। सूर्य और अग्नि भी तुम्हीं हो। तुम आश्वर्यमय 
महान्‌ भूत हो, तुम राजा हो और तुम देवताओंमें सबसे श्रेष्ठ हो || १२ ।। 

त्वं विष्णुस्त्वं सहस्राक्षस्त्वं देवस्त्वं परायणम्‌ | 

त्वं सर्वममृतं देव त्वं सोम: परमार्चित: ।। १३ ।। 

“तुम्हीं सर्वव्यापी विष्णु, सहस्नलोचन इन्द्र, द्युतिमान्‌ देवता और सबके परम आश्रय 
हो। देव! तुम्हीं सब कुछ हो। तुम्हीं अमृत हो और तुम्हीं परम पूजित सोम हो ।। १३ ।। 

त्वं मुहूर्तस्तिथिस्त्वं च त्वं लवस्त्वं पुन: क्षण: । 

शुक्लस्त्वं बहुलस्त्वं च कला काष्ठा त्रुटिस्तथा । 

संवत्सरर्तवों मासा रजन्यश्न दिनानि च ।। १४ ।। 

“तुम मुहूर्त हो, तुम्हीं तिथि हो, तुम्हीं लव तथा तुम्हीं क्षण हो। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष 
भी तुमसे भिन्न नहीं हैं। कला, काष्ठा और त्रुटि सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं। संवत्सर, ऋतु, 


मास, रात्रि तथा दिन भी तुम्हीं हो ।। १४ ।। 
त्वमुत्तमा सगिरिवना वसुन्धरा 
सभास्करं वितिमिरमम्बरं तथा । 
महोदधि: सतिमितिमिंगिलस्तथा 
महोर्मिमान्‌ बहुमकरो झषाकुल: ।। १५ ।। 

“तुम्हीं पर्वत और वनोंसहित उत्तम वसुन्धरा हो और तुम्हीं अन्धकाररहित एवं 
सूर्यससहित आकाश हो। तिमि और तिमिंगिलोंसे भरपूर, बहुतेरे मगरों और मत्स्योंसे व्याप्त 
तथा उत्ताल तरंगोंसे सुशोभित महासागर भी तुम्हीं हो || १५ ।। 

महायशास्त्वमिति सदाभिपूज्यसे 

मनीषिभिम्मुदितमना महर्षिशि: । 
अभिष्टृत: पिबसि च सोममध्वरे 
वषट्कृतान्यपि च हवींषि भूतये ।। १६ ।। 

“तुम महान्‌ यशस्वी हो। ऐसा समझकर मनीषी पुरुष सदा तुम्हारी पूजा करते हैं। 
महर्षिगण निरन्तर तुम्हारा स्तवन करते हैं। तुम यजमानकी अभीष्टसिद्धि करनेके लिये 
यज्ञमें मुदित मनसे सोमरस पीते हो और वषटकारपूर्वक समर्पित किये हुए हविष्य भी 
ग्रहण करते हो ।। १६ ।। 

त्वं विप्रै: सततमिहेज्यसे फलार्थ 

वेदाड्रेष्वतुलबलौघ गीयसे च । 
त्वद्धेतोर्यजनपरायणा द्िजेन्द्रा 
वेदाड़ान्यभिगमयन्ति सर्वयत्नै: ।। १७ ।। 

“इस जगतमें अभीष्ट फलकी प्राप्तिके लिये विप्रगण तुम्हारी पूजा करते हैं। अतुलित 
बलके भण्डार इन्द्र! वेदांगोंमें भी तुम्हारी ही महिमाका गान किया गया है। यज्ञपरायण श्रेष्ठ 
द्विज तुम्हारी प्राप्तिके लिये ही सर्वथा प्रयत्न करके वेदांगोंका ज्ञान प्राप्त करते हैं (यहाँ 
कद्रुके द्वारा ईश्वररूपसे इन्द्रकी स्तुति की गयी है)” || १७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे पजचविंशो5ध्याय: ।। २५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपवरर्में गरुडचरित्रविषयक पचीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २५ ॥ 


अपन का बछ। | अ्---#क्रत 


षड्विशो<5ध्याय: 


इन्द्रद्वारा की हुई वषसि सर्पोकी प्रसन्नता 


सौतिर्वाच 

एवं स्तुतस्तदा कद्र्वा भगवान्‌ हरिवाहन: । 

नीलजीमूतसंघातै: सर्वमम्बरमावृणोत्‌ ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--नागमाता कद्रूके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान्‌ इन्द्रने 
मेघोंकी काली घटाओंद्वारा सम्पूर्ण आकाशको आच्छादित कर दिया ।। १ |। 

मेघानाज्ञापयामास वर्षध्वममृतं शुभम्‌ । 

ते मेघा मुमुचुस्तोयं प्रभूतं विद्युदुज्ज्वला: ।। २ ।। 

साथ ही मेघोंको आज्ञा दी--'तुम सब शीतल जलकी वर्षा करो।” आज्ञा पाकर 
बिजलियोंसे प्रकाशित होनेवाले उन मेघोंने प्रचुर जलकी वृष्टि की || २ ।। 

परस्परमिवात्यर्थ गर्जन्त: सततं दिवि । 

संवर्तितमिवाकाशं जलदैः सुमहाद्भुतै: ।। ३ ।। 

सृजद्धिरतुलं तोयमजसं सुमहारवै: । 

सम्प्रनृत्तमिवाकाशं धारोमिभिरनेकश: ।। ४ ।। 

वे परस्पर अत्यन्त गर्जना करते हुए आकाशसे निरन्तर पानी बरसाते रहे। जोर-जोरसे 
गर्जने और लगातार असीम जलकी वर्षा करनेवाले अत्यन्त अद्भुत जलधरोंने सारे 
आकाशको घेर-सा लिया था। असंख्य धारारूप लहरोंसे युक्त वह व्योमसमुद्र मानो नृत्य-सा 
कर रहा था ।। ३-४ || 

मेघस्तनितनिर्धोषैर्विद्युत्पवनकम्पितै: । 

तैमेंघै: सततासारं वर्षद्धिरनिशं तदा ।। ५ ।। 

नष्टचन्द्राककिरणमम्बरं समपद्यत | 

नागानामुत्तमो हर्षस्तथा वर्षति वासवे ।। ६ ।। 

भयंकर गर्जन-तर्जन करनेवाले वे मेघ बिजली और वायुसे प्रकम्पित हो उस समय 
निरन्तर मूसलाधार पानी गिरा रहे थे। उनके द्वारा आच्छादित आकाशमें चन्द्रमा और 
सूर्यकी किरणें भी अदृश्य हो गयी थीं। इन्द्रदेवके इस प्रकार वर्षा करनेपर नागोंको बड़ा हर्ष 
हुआ || ५-६ || 

आपूर्यत मही चापि सलिलेन समन्ततः । 

रसातलमनुप्राप्त शीतलं विमलं जलम्‌ ॥। ७ ।। 

पृथ्वीपर सब ओर पानी-ही-पानी भर गया। वह शीतल और निर्मल जल रसातलतक 
पहुँच गया ।। ७ ।। 


तदा भूरभवच्छन्ना जलोरमिभिरनेकश: । 

रामणीयकमागच्छन्‌ मात्रा सह भुजड़मा: ।। ८ ।। 

उस समय सारा भूतल जलकी असंख्य तरंगोंसे आच्छादित हो गया था। इस प्रकार 
वर्षसिे संतुष्ट हुए सर्प अपनी माताके साथ रामणीयक द्वीपमें आ गये ।। ८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे षड्विंशो5ध्याय: ।। २६ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपरवर्में गरुडचरित्रविषयक छब्बीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २६ ॥ 


अपना बछ। ] अत्णऑशाय: 


सप्तविशो<्ध्याय: 


रामणीयक द्वीपके मनोरम वनका वर्णन तथा गरुडका 
दास्यभावसे छूटनेके लिये सर्पोंसे उपाय पूछना 


सौतिरुवाच 


सम्प्रहष्टास्ततो नागा जलधाराप्लुतास्तदा । 

सुपर्णेनोहमानास्ते जम्मुस्तं द्वीपमाशु वै ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--गरुडपर सवार होकर यात्रा करनेवाले वे नाग उस समय 
जलधारासे नहाकर अत्यन्त प्रसन्न हो शीघ्र ही रामणीयक द्वीपमें जा पहुँचे || १ ।। 

त॑ द्वीपं मकरावासं विहितं विश्वकर्मणा । 

तत्र ते लवणं घोरं ददृशु: पूर्वमागता: ।। २ ।। 

विश्वकर्माजीके बनाये हुए उस द्वीपमें, जहाँ अब मगर निवास करते थे, जब पहली बार 
नाग आये थे तो उन्हें वहाँ भयंकर लवणासुरका दर्शन हुआ था || २ ।। 

सुपर्णसहिता: सर्पा: काननं च मनोरमम्‌ | 

सागराम्बुपरिक्षिप्तं पक्षिसड्घनिनादितम्‌ ।। ३ ।। 

सर्प गरुडके साथ उस द्वीपके मनोरम वनमें आये, जो चारों ओरसे समुद्रद्वारा घिरकर 
उसके जलसे अभिषिक्त हो रहा था। वहाँ झुंड-के-झुंड पक्षी कलरव कर रहे थे ।। ३ ।। 

विचित्रफलपुष्पाभिववनराजिभिरावृतम्‌ । 

भवनैरावृतं रम्यैस्तथा पद्माकरैरपि ।। ४ ।। 

विचित्र फूलों और फलोंसे भरी हुई वनश्रेणियाँ उस दिव्य वनको घेरे हुए थीं। वह वन 
बहुत-से रमणीय भवनों और कमलयुक्त सरोवरोंसे आवृत था ।। ४ ।। 

प्रसन्नसलिलै श्वापि हदैर्दिव्यैर्वि भूषितम्‌ । 

दिव्यगन्धवहै: पुण्यैमारुतैरुपवीजितम्‌ ।। ५ ।। 

स्वच्छ जलवाले कितने ही दिव्य सरोवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य सुगन्धका 
भार वहन करनेवाली पावन वायु मानो वहाँ चँवर डुला रही थी ।। ५ ।। 

उत्पतद्धिरिवाकाशं वृक्षर्मलयजैरपि । 

शोभितं पुष्पवर्षाणि मुज्चद्धिर्मारुतोद्धतैः ।। ६ ।। 

वहाँ ऊँचे-ऊँचे मलयज वृक्ष ऐसे प्रतीत होते थे, मानो आकाशमें उड़े जा रहे हों। वे 
वायुके वेगसे विकम्पित हो फूलोंकी वर्षा करते हुए उस प्रदेशकी शोभा बढ़ा रहे थे ।। ६ ।। 

वायुविक्षिप्तकुसुमैस्तथान्यैरपि पादपै: । 

किरद्धिरिव तत्रस्थान्‌ नागान्‌ पुष्पाम्बुवृष्टिभि: ।। ७ ।। 


हवाके झोंकेसे दूसरे-दूसरे वृक्षोंके भी फ़ूल झड़ रहे थे, मानो वहाँके वृक्षसमूह वहाँ 
उपस्थित हुए नागोंपर फूलोंकी वर्षा करते हुए उनके लिये अर्घ्य दे रहे हों || ७ ।। 

मन:संहर्षजं दिव्यं गन्धर्वाप्ससां प्रियम्‌ । 

मत्तभ्रमरसंघुष्टं मनोज्ञाकृतिदर्शनम्‌ ।। ८ ।। 

वह दिव्य वन हृदयके हर्षको बढ़ानेवाला था। गन्धर्व और अप्सराएँ उसे अधिक पसंद 
करती थीं। मतवाले भ्रमर वहाँ सब ओर गूँज रहे थे। अपनी मनोहर छटाके द्वारा वह 
अत्यन्त दर्शनीय जान पड़ता था ।। ८ ।। 

रमणीयं शिवं पुण्यं सर्वर्जनमनोहरैः । 

नानापक्षिरुतं रम्यं कद्रूपुत्रप्रहर्षणम्‌ ।। ९ ।। 

वह वन रमणीय, मंगलकारी और पवित्र होनेके साथ ही लोगोंके मनको मोहनेवाले 
सभी उत्तम गुणोंसे युक्त था। भाँति भाँतिके पक्षियोंके कलरवोंसे व्याप्त एवं परम सुन्दर 
होनेके कारण वह कढद्रूके पुत्रोंका आनन्द बढ़ा रहा था ।। ९ ।। 

तत्‌ ते वनं समासाद्य विजहु: पन्नगास्तदा । 

अब्रुवंश्व महावीर्य सुपर्ण पतगेश्वरम्‌ ।। १० ।। 

उस वनमें पहुँचकर वे सर्प उस समय सब ओर विहार करने लगे और महापराक्रमी 
पक्षिराज गरुडसे इस प्रकार बोले-- || १० ।। 

वहास्मानपरं द्वीपं सुरम्यं विमलोदकम्‌ | 

त्वं हि देशान्‌ बहून्‌ रम्यान्‌ व्रजन्‌ पश्यसि खेचर ।। ११ ।। 

“खेचर! तुम आकाशमें उड़ते समय बहुत-से रमणीय प्रदेश देखा करते हो; अतः हमें 
निर्मल जलवाले किसी दूसरे रमणीय द्वीपमें ले चलो” ।। ११ ।। 

स विचिन्त्याब्रवीत्‌ पक्षी मातरं विनतां तदा । 

कि कारणं मया मात: कर्तव्यं सर्पभाषितम्‌ ।। १२ ।। 

गरुडने कुछ सोचकर अपनी माता विनतासे पूछा--“माँ! क्या कारण है कि मुझे 
सर्पोंकी आज्ञाका पालन करना पड़ता है?” ।। १२ ।। 

विनतोवाच 


दासी भूतास्मि दुर्योगात्‌ सपत्न्या: पतगोत्तम | 

पणं वितथमास्थाय सर्पैरुपधिना कृतम्‌ ।। १३ ।। 

विनता बोली--बेटा पक्षिराज! मैं दुर्भाग्यवश सौतकी दासी हूँ, इन सर्पोने छल करके 
मेरी जीती हुई बाजीको पलट दिया था ।। १३ ।। 

तस्मिंस्तु कथिते मात्रा कारणे गगनेचर: । 

उवाच वचन सर्पास्तेन दुःखेन दुःखित: ।। १४ ।। 


माताके यह कारण बतानेपर आकाशचारी गरुडने उस दुःखसे दुःखी होकर सर्पोसे 
कहा-- || १४ ।। 

किमाह्त्य विदित्वा वा कि वा कृत्वेह पौरुषम्‌ 

दास्याद्‌ वो विप्रमुच्येयं तथ्यं वदत लेलिहा: ।। १५ ।। 

“जीभ लपलपानेवाले सर्पो! तुमलोग सच-सच बताओ मैं तुम्हें क्या लाकर दे दूँ? किस 
विद्याका लाभ करा दूँ अथवा यहाँ कौन-सा पुरुषार्थ करके दिखा दूँ: जिससे मुझे तथा मेरी 
माताको तुम्हारी दासतासे छुटकारा मिल जाय” ।। १५ ।। 

सौतिरुवाच 

श्रुत्वा तमब्रुवन्‌ सर्पा आहरामृतमोजसा । 

ततो दास्याद्‌ विप्रमोक्षो भविता तव खेचर ।। १६ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--गरुड़की बात सुनकर सर्पोने कहा--“गरुड! तुम पराक्रम 
करके हमारे लिये अमृत ला दो। इससे तुम्हें दास्यभावसे छुटकारा मिल जायगा” ।। १६ ।। 

इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे सप्तविंशो5ध्याय: || २७ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपवरें गरुडचरित्रविषयक सत्ताईसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २७ ॥ 


अपन का बछ। | अपर 


अष्टाविशोश् ध्याय: 


गरुडका अमृतके लिये (2 और अपनी माताकी आज्ञाके 
अनुसार निषादोंका भक्षण करना 


सौतिरुवाच 


इत्युक्तो गरुड: सर्पैस्ततो मातरमब्रवीत्‌ । 
गच्छाम्यमृतमाहर्तु भक्ष्यमिच्छामि वेदितुम्‌ ।। १ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--सर्पोंकी यह बात सुनकर गरुड अपनी मातासे बोले--“माँ! मैं 
अमृत लानेके लिये जा रहा हूँ, किंतु मेरे लिये भोजन-सामग्री क्या होगी? यह मैं जानना 
चाहता हूँ" ।। १ ।। 
विनतोवाच 


समुद्रकुक्षावेकान्ते निषादालयमुत्तमम्‌ | 

निषादानां सहस्राणि तान्‌ भुक्त्वामृतमानय ।। २ ।। 

विनताने कहा--समुद्रके बीचमें एक टापू है, जिसके एकान्त प्रदेशमें निषादों 
(जीवहिंसकों)-का निवास है। वहाँ सहस्रों निषाद रहते हैं। उन्‍्हींको मारकर खा लो और 
अमृत ले आओ ।। २ ।। 

नचते ब्राह्मणं हन्तुं कार्या बुद्धि: कथंचन । 

अवध्य: सर्वभूतानां ब्राह्म॒णो हनलोपम: ।। ३ ।। 

किंतु तुम्हें किसी प्रकार ब्राह्मणको मारनेका विचार नहीं करना चाहिये; क्योंकि ब्राह्मण 
समस्त प्राणियोंके लिये अवध्य है। वह अग्निके समान दाहक होता है ।। ३ ।। 

अग्निरकोरों विषं शस्त्र विप्रो भवति कोपित: । 

गुरुहिं सर्वभूतानां ब्राह्मण: परिकीर्तित: ।। ४ || 

कुपित किया हुआ ब्राह्मण अग्नि, सूर्य, विष एवं शस्त्रके समान भयंकर होता है। 
ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंका गुरु कहा गया है || ४ ।। 

एवमादिस्वरूपैस्तु सतां वै ब्राह्मणो मत: । 

स ते तात न हन्तव्य: संक्रुद्धेनापि सर्वथा ॥ ५ ।। 

इन्हीं रूपोंमें सत्पुरुषोंके लिये ब्राह्मण आदरणीय माना गया है। तात! तुम्हें क्रोध आ 
जाय तो भी ब्राह्मणकी हत्यासे सर्वथा दूर रहना चाहिये ।। ५ ।। 

ब्राह्मणानामभिद्रोहो न कर्तव्य: कथंचन । 

न होवममग्निर्नादित्यो भस्म कुर्यात्‌ तथानघ ।। ६ ।। 

यथा कुयदिभिक्रुद्धो ब्राह्मण: संशितव्रत: । 


तदेतैरविविषधैरलिज्लिस्त्व॑ं विद्यास्तं द्विजोत्तमम्‌ । ७ ।। 

भूतानामग्रभूविंप्रो वर्णश्रेष्ठ: पिता गुरु: । 

ब्राह्मणोंके साथ किसी प्रकार द्रोह नहीं करना चाहिये। अनघ! कठोर व्रतका पालन 
करनेवाला ब्राह्मण क्रोधमें आनेपर अपराधीको जिस प्रकार जलाकर भस्म कर देता है, उस 
तरह अग्नि और सूर्य भी नहीं जला सकते। इस प्रकार विविध चिह्लोंके द्वारा तुम्हें ब्राह्मणको 
पहचान लेना चाहिये। ब्राह्मण समस्त प्राणियोंका अग्रज, सब वर्णोमें श्रेष्ठ पिता और गुरु 
है || ६-७३ || 

गरुड उवाच 


किंरूपो ब्राह्म॒णो मात: किंशील: किंपराक्रम: ।। ८ ।। 

गरुडने पूछा--माँ! ब्राह्मगका रूप कैसा होता है? उसका शील-स्वभाव कैसा है? 
तथा उसमें कौन-सा पराक्रम है || ८ ।। 

किंस्विदग्निनिभो भाति किंस्वित्‌ सौम्यप्रदर्शन: । 

यथाहमभिजानीयां ब्राह्मणं लक्षणै: शुभै: ।। ९ ।। 

तन्मे कारणतो मात: पृच्छतो वक्तुमहसि । 

वह देखनेमें अग्नि-जैसा जान पड़ता है? अथवा सौम्य दिखायी देता है? माँ! जिस 
प्रकार शुभ लक्षणोंद्वारा मैं ब्राह्मणको पहचान सकूँ, वह सब उपाय मुझे बताओ ।। ९६ ।। 

विनतोवाच 


यस्ते कण्ठमनुप्राप्तो निगीर्ण बडिशं यथा ।। १० ।। 

दहेदज्भारवत्‌ पुत्र त॑ विद्या ब्राह्मणर्षभम्‌ 

विप्रस्त्वया न हन्तव्य: संक्रुद्धेनापि सर्वदा || ११ ।। 

विनता बोली--बेटा! जो तुम्हारे कण्ठमें पड़नेपर अंगारकी तरह जलाने लगे और 
मानो बंसीका काँटा निगल लिया गया हो, इस प्रकार कष्ट देने लगे, उसे वर्णोमें श्रेष्ठ ब्राह्मण 
समझना। क्रोधमें भरे होनेपर भी तुम्हें ब्रह्महत्या नहीं करनी चाहिये || १०-११ ।। 

प्रोवाच चैनं विनता पुत्रहार्दादिदं वच: । 

जठरे न च जीरयेंद्‌ यस्तं जानीहि द्विजोत्तमम्‌ ।। १२ ।। 

विनताने पुत्रके प्रति स्नेह होनेके कारण पुन: इस प्रकार कहा--'बेटा! जो तुम्हारे पेटमें 
पच न सके, उसे ब्राह्मण जानना” ।। १२ || 

पुन: प्रोवाच विनता पुत्रहार्दादिदं वच: । 

जानन्त्यप्यतुलं वीर्यमाशीर्वादपरायणा ।। १३ ।। 

प्रीता परमदु:खार्ता नागैर्विप्रकृता सती । 


पुत्रके प्रति स्नेह होनेके कारण विनताने पुनः इस प्रकार कहा--वह पुत्रके अनुपम 
बलको जानती थी तो भी नागोंद्वारा ठगी जानेके कारण बड़े भारी दुःखसे आतुर हो गयी 
थी। अत: अपने पुत्रको प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देने लगी || १३६ ।। 
विनतोवाच 


पक्षौ ते मारुत: पातु चन्द्रसूर्यों च पृष्ठत: ।। १४ ।। 

विनताने कहा--बेटा! वायु तुम्हारे दोनों पंखोंकी रक्षा करें, चन्द्रमा और सूर्य 
पृष्ठभागका संरक्षण करें || १४ ।। 

शिरश्न पातु वह्निस्ते वसव: सर्वतस्तनुम्‌ । 

अहं च ते सदा पुत्र शान्तिस्वस्तिपरायणा ।। १५ ।। 

इहासीना भविष्यामि स्वस्तिकारे रता सदा । 

अरिएं व्रज पन्थान पुत्र कार्यार्थसिद्धये ।। १६ ।। 

अग्निदेव तुम्हारे सिरकी और वसुगण तुम्हारे सम्पूर्ण शरीरकी सब ओरसे रक्षा करें। 
पुत्र! मैं भी तुम्हारे लिये शान्ति एवं कल्याणसाधक कर्ममें संलग्न हो यहाँ निरन्तर कुशल 
मनाती रहूँगी। वत्स! तुम्हारा मार्ग विध्नरहित हो, तुम अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये यात्रा 
करो ।। १५-१६ || 


सौतिरुवाच 


ततः स मातुर्वचनं निशम्य 
वितत्य पक्षौ नभ उत्पपात । 
ततो निषादान्‌ बलवानुपागतो 
बुभुक्षित: काल इवान्तको5पर: ।। १७ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकादि महर्षियो! माताकी बात सुनकर महाबली गरुड 
पंख पसारकर आकाशमें उड़ गये तथा क्षुधातुर काल या दूसरे यमराजकी भाँति उन 
निषादोंके पास जा पहुँचे || १७ ।। 
स तान्‌ निषादानुपसंहरंस्तदा 
रज: समुद्धूय नभ:स्पृशं महत्‌ | 
समुद्रकुक्षोी च विशोषयन्‌ पय: 
समीपजान्‌ भूधरजान्‌ विचालयन्‌ ।। १८ ।। 
उन निषादोंका संहार करनेके लिये उन्होंने उस समय इतनी अधिक धूल उड़ायी, जो 
पृथ्वीसे आकाशतक छा गयी। वहाँ समुद्रकी कुक्षिमें जो जल था, उसका शोषण करके 
उन्होंने समीपवर्ती पर्वतीय वृक्षोंको भी विकम्पित कर दिया ।। १८ ।। 
तत:ः स चक्रे महदाननं तदा 
निषादमार्ग प्रतिरुध्य पक्षिराट्‌ । 


ततो निषादास्त्वरिता: प्रवव्रजुः 
यतो मुखं तस्य भुजड्रभोजिन: ।। १९ ।। 
इसके बाद पक्षिराजने अपना मुख बहुत बड़ा कर लिया और निषादोंका मार्ग रोककर 
खड़े हो गये। तदनन्तर वे निषाद उतावलीमें पड़कर उसी ओर भागे, जिधर सर्पभोजी 
गरुडका मुख था ।। १९ |। 
तदाननं विवृतमतिप्रमाणवत्‌ 
समभ्ययुर्गगनमिवार्दिता: खगा: । 
सहस्रश: पवनरजोविमोहिता 
यथानिलप्रचलितपादपे वने ।। २० ।। 
जैसे आँधीसे कम्पित वृक्षवाले वनमें पवन और धूलसे विमोहित एवं पीड़ित सहस्तरों 
पक्षी उन्मुक्त आकाशमें उड़ने लगते हैं, उसी प्रकार हवा और धूलकी वर्षासे बेसुध हुए 
हजारों निषाद गरुडके खुले हुए अत्यन्त विशाल मुखमें समा गये ।। २० ।। 
ततः खगो वदनममित्रतापन: 
समाहरत्‌ परिचपलो महाबल: । 
निषूदयन्‌ बहुविधमत्स्यजीविनो 
बुभुक्षितो गगनचरेश्वरस्तदा || २१ ।। 
तत्पश्चात्‌ शत्रुओंको संताप देनेवाले, अत्यन्त चपल, महाबली और क्षुधातुर पक्षिराज 
गरुडने मछली मारकर जीविका चलानेवाले उन अनेकानेक निषादोंका विनाश करनेके 
लिये अपने मुखको संकुचित कर लिया ।। २१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे अष्टाविंशो5ध्याय: ।। २८ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक अट्ठाईसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २८ ॥ 


ऑपनक्रात छा ्च्ज्टस:, 


एकोनत्रिशो<ड ध्याय: 


कश्यपजीका गरुडको हाथी और कछुएके पूर्वजन्मकी 
कथा सुनाना, गरुडका उन दोनोंको पकड़कर एक दिव्य 
वटवृक्षकी शाखापर ले जाना और उस शाखाका टूटना 


सौतिरुवाच 


तस्य कण्ठमनुप्राप्तो ब्राह्मण: सह भार्यया । 

दहन्‌ दीप्त इवाड्रारस्तमुवाचान्तरिक्षग: ।। १ ।। 

द्विजोत्तम विनिर्गच्छ तूर्णममास्यादपावृतात्‌ । 

नहि मे ब्राह्मणो वध्य: पापेष्वपि रत: सदा ।। २ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--निषादोंके साथ एक ब्राह्मण भी भार्यासहित गरुडके कण्ठमें 
चला गया था। वह दहकते हुए अंगारकी भाँति जलन पैदा करने लगा। तब आकाशचारी 
गरुडने उस ब्राह्मणसे कहा--(द्विजश्रेष्ठ! तुम मेरे खुले हुए मुखसे जल्दी निकल जाओ। 
ब्राह्मण पापपरायण ही क्‍यों न हो मेरे लिये सदा अवध्य है” || १-२ ।। 

ब्रुवाणमेवं गरुडं ब्राह्मण: प्रत्यभाषत । 

निषादी मम भार्येयं निर्गच्छतु मया सह ।। ३ ।। 

ऐसी बात कहनेवाले गरुडसे वह ब्राह्मण बोला--'यह निषाद-जातिकी कन्या मेरी 
भार्या है; अतः मेरे साथ यह भी निकले (तभी मैं निकल सकता हूँ)” ।। ३ ।। 


गरुड उवाच 


एतामपि निषादी  त्वं परिगृह्माशु निष्पत । 

तूर्ण सम्भावयात्मानमजीर्ण मम तेजसा ।। ४ ।। 

गरुडने कहा--ब्राह्मण! तुम इस निषादीको भी लेकर जल्दी निकल जाओ। तुम 
अभीतक मेरी जठराग्निके तेजसे पचे नहीं हो; अतः शीघ्र अपने जीवनकी रक्षा 
करो ।। ४ ।। 


सौतिरुवाच 


ततः स विदप्रो निष्क्रान्तो निषादीसहितस्तदा । 

वर्धयित्वा च गरुडमिष्टं देशं जगाम ह ।। ५ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--उनके ऐसा कहनेपर वह ब्राह्मण निषादीसहित गरुडके मुखसे 
निकल आया और उन्हें आशीर्वाद देकर अभीष्ट देशको चला गया ।। ५ || 

सहभार्ये विनिष्क्रान्ते तस्मिन्‌ विप्रे च पक्षिराट्‌ । 


वितत्य पक्षावाकाशमुत्पपात मनोजव: ।। ६ ।। 

भार्यासहित उस ब्राह्मणके निकल जानेपर पक्षिराज गरुड पंख फैलाकर मनके समान 
तीव्र वेगसे आकाशमें उड़े ।। ६ ।। 

ततो<पश्यत्‌ स पितरं पृष्टश्चाख्यातवान्‌ पितुः । 

यथान्यायममेयात्मा तं चोवाच महानृषि: ।॥। ७ ।। 

तदनन्तर उन्हें अपने पिता कश्यपजीका दर्शन हुआ। उनके पूछनेपर अमेयात्मा गरुडने 
पितासे यथोचित कुशल-समाचार कहा। महर्षि कश्यप उनसे इस प्रकार बोले || ७ ।। 

कश्यप उवाच 

कच्चिद्‌ व: कुशल नित्यं भोजने बहुलं सुत । 

कच्चिच्च मानुषे लोके तवाजन्न॑ विद्यते बहु |। ८ ।। 

कश्यपजीने पूछा--बेटा! तुमलोग कुशलसे तो हो न? विशेषतः प्रतिदिन भोजनके 
सम्बन्धमें तुम्हें विशेष सुविधा है न? क्या मनुष्यलोकमें तुम्हारे लिये पर्याप्त अन्न मिल जाता 
है ।। ८ ।। 


गरुड उवाच 


माता मे कुशला शाश्वत्‌ तथा भ्राता तथा हाहम्‌ | 

नहि मे कुशलं तात भोजने बहुले सदा ।। ९ ।। 

गरुडने कहा--मेरी माता सदा कुशलसे रहती हैं। मेरे भाई तथा मैं दोनों सकुशल हैं। 
परंतु पिताजी! पर्याप्त भोजनके विषयमें तो सदा मेरे लिये कुशलका अभाव ही है ।। ९ ।। 

अहं हि सर्प: प्रहित: सोममाहर्तुमुत्तमम्‌ । 

मातुर्दास्यविमोक्षार्थमाहरिष्ये तमद्य वै ।। १० ।। 

मुझे सर्पोने उत्तम अमृत लानेके लिये भेजा है। माताको दासीपनसे छुटकारा दिलानेके 
लिये आज मैं निश्चय ही उस अमृतको लाऊँगा ।। १० ।। 

मात्रा चात्र समादिष्टो निषादान्‌ भक्षयेति ह । 

न च मे तृप्तिरभवद्‌ भक्षयित्वा सहस्रश: ।। ११ ।। 

भोजनके विषयमें पूछनेपर माताने कहा--“निषादोंका भक्षण करो”, परंतु हजारों 
निषादोंको खा लेनेपर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है ।। ११ ।। 

तस्माद्‌ भक्ष्यं त्वमपरं भगवन्‌ प्रदिशस्व मे । 

यद्‌ भुक्त्वामृतमाहर्तु समर्थ: स्यामहं प्रभो ।। १२ ।। 

क्षुत्पिपासाविघातार्थ भक्ष्यमाख्यातु मे भवान्‌ । 

अतः भगवन्‌! आप मेरे लिये कोई दूसरा भोजन बताइये। प्रभो! वह भोजन ऐसा हो 
जिसे खाकर मैं अमृत लानेमें समर्थ हो सकूँ। मेरी भूख-प्यासको मिटा देनेके लिये आप 
पर्याप्त भोजन बताइये ।। १२३६ ।। 


कश्यप उवाच 


इदं सरो महापुण्यं देवलोकेडपि विश्रुतम्‌ ।। १३ ।। 

कश्यपजी बोले--बेटा! यह महान्‌ पुण्यदायक सरोवर है, जो देवलोकमें भी विख्यात 
है ।। १३ || 

यत्र कूर्माग्रजं हस्ती सदा कर्षत्यवाड्मुख: । 

तयोर्जन्मान्तरे वैरं सम्प्रवक्ष्याम्यशेषत: ।। १४ ।। 

तन्मे तत्त्वं निबोधत्स्व यत्प्रमाणौ च तावुभौ । 

उसमें एक हाथी नीचेको मुँह किये सदा सूँड़से पकड़कर एक कछुएको खींचता रहता 
है। वह कछुआ पूर्वजन्ममें उसका बड़ा भाई था। दोनोंमें पूर्वजन्मका वैर चला आ रहा है। 
उनमें यह वैर क्यों और कैसे हुआ तथा उन दोनोंके शरीरकी लम्बाई-चौड़ाई और ऊँचाई 
कितनी है, ये सारी बातें मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो || १४६ ।। 

आसीद्‌ विभावसुर्नाम महर्षि: कोपनो भृशम्‌ ।। १५ ।। 

भ्राता तस्यानुजश्नासीत्‌ सुप्रतीको महातपा: । 

स नेच्छति धनं भ्राता सहैकस्थं महामुनि: ।। १६ ।। 

पूर्वकालमें विभावसु नामसे प्रसिद्ध एक महर्षि थे। वे स्वभावके बड़े क्रोधी थे। उनके 
छोटे भाईका नाम था सुप्रतीक। वे भी बड़े तपस्वी थे। महामुनि सुप्रतीक अपने धनको बड़े 
भाईके साथ एक जगह नहीं रखना चाहते थे ।। १५-१६ ।। 

विभागं कीर्तयत्येव सुप्रतीको हि नित्यश: । 

अथाब्रवीच्च त॑ भ्राता सुप्रतीक॑ विभावसु: ।। १७ ।। 

सुप्रतीक प्रतिदिन बँटवारेके लिये आग्रह करते ही रहते थे। तब एक दिन बड़े भाई 
विभावसुने सुप्रतीकसे कहा-- ।। १७ ।। 

विभागं बहवो मोहात्‌ कर्तुमिच्छन्ति नित्यश: । 

ततो विभक्तास्त्वन्योन्यं विक्रुध्यन्तेडर्थमोहिता: ॥। १८ ।। 

'भाई! बहुत-से मनुष्य मोहवश सदा धनका बँटवारा कर लेनेकी इच्छा रखते हैं। 
तदनन्तर बँटवारा हो जानेपर धनके मोहमें फँसकर वे एक-दूसरेके विरोधी हो परस्पर क्रोध 
करने लगते हैं || १८ ।। 

ततः स्वार्थपरान्‌ मूढान्‌ पृथग्भूतान्‌ स्वकैर्धनै: । 

विदित्वा भेदयन्त्येतानमित्रा मित्ररूपिण: ।। १९ ।। 

*वे स्वार्थपरायण मूढ़ मनुष्य अपने धनके साथ जब अलग-अलग हो जाते हैं, तब 
उनकी यह अवस्था जानकर शत्रु भी मित्ररूपमें आकर मिलते और उनमें भेद डालते रहते 
हैं ।। १९ ।। 

विदित्वा चापरे भिन्नानन्तरेषु पतन्त्यथ । 


भिन्नानामतुलो नाश: क्षिप्रमेव प्रवर्तते | २० ।। 

“दूसरे लोग, उनमें फ़ूट हो गयी है, यह जानकर उनके छिठद्र देखा करते हैं एवं छिद्र 
मिल जानेपर उनमें परस्पर वैर बढ़ानेके लिये स्वयं बीचमें आ पड़ते हैं। इसलिये जो लोग 
अलग-अलग होकर आपसमें फूट पैदा कर लेते हैं, उनका शीघ्र ही ऐसा विनाश हो जाता है, 
जिसकी कहीं तुलना नहीं है || २० ।। 

तस्माद्‌ विभागं भ्रातृणां न प्रशंसन्ति साधव: । 

गुरुशास्त्रे निबद्धानामन्योन्येनाभिशड्किनाम्‌ ।। २१ ।। 

“अतः साधु पुरुष भाइयोंके बिलगाव या बँटवारेकी प्रशंसा नहीं करते; क्योंकि इस 
प्रकार बँट जानेवाले भाई गुरुस्वरूप शास्त्रकी अलंघनीय आज्ञाके अधीन नहीं रह जाते 
और एक-दूसरेको संदेहकी दृष्टिसे देखने लगते हैं” || २१ ।।- 

नियन्तुं न हि शक्‍्यस्त्वं भेदतो धनमिच्छसि । 

यस्मात्‌ तस्मात्‌ सुप्रतीक हस्तित्वं समवाप्स्यसि || २२ ।। 

'सुप्रतीक! तुम्हें वशमें करना असम्भव हो रहा है और तुम भेदभावके कारण ही 
बँटवारा करके धन लेना चाहते हो, इसलिये तुम्हें हाथीकी योनिमें जन्म लेना 
पड़ेगा” || २२ ।। 

शप्तस्त्वेवं सुप्रतीिको विभावसुमथाब्रवीत्‌ । 

त्वमप्यन्तर्जलचर: कच्छप: सम्भविष्यसि ।। २३ ।। 

इस प्रकार शाप मिलनेपर सुप्रतीकने विभावसुसे कहा--'तुम भी पानीके भीतर 
विचरनेवाले कछुए होओगे' ।। २३ ।। 

एवमन्योन्यशापात्‌ तौ सुप्रतीकविभावसू । 

गजकच्छपतां प्राप्तावर्थार्थ मूढचेतसौ ।। २४ ।। 

इस प्रकार सुप्रतीक और विभावसु मुनि एक-दूसरेके शापसे हाथी और कछुएकी 
योनिमें पड़े हैं। धनके लिये उनके मनमें मोह छा गया था ।। २४ ॥। 

रोषदोषानुषज्ेण तिर्यग्योनिगतावुभौ । 

परस्परद्वेषरतौ प्रमाणबलदर्पिताौ ।। २५ ।। 

सरस्यस्मिन्‌ महाकायोौ पूर्ववैरानुसारिणौ । 

तयोरन्यतर: श्रीमान्‌ समुपैति महागज: ।। २६ ।। 

यस्य बृंहितशब्देन कूर्मोउप्यन्तर्जलेशय: । 

उत्थितो5सौ महाकाय: कृत्स्नं विक्षोभयन्‌ सर: ।। २७ ।। 

रोष और लोभरूपी दोषके सम्बन्धसे उन दोनोंको तिर्यक्‌-योनिमें जाना पड़ा है। वे 
दोनों विशालकाय जन्तु पूर्व जन्मके वैरका अनुसरण करके अपनी विशालता और बलके 
घमण्डमें चूर हो एक-दूसरेसे द्वेष रखते हुए इस सरोवरमें रहते हैं। इन दोनोंमें एक जो सुन्दर 
महान्‌ गजराज है, वह जब सरोवरके तटपर आता है, तब उसके चिग्घाड़नेकी आवाज 


सुनकर जलके भीतर शयन करनेवाला विशालकाय कछुआ भी पानीसे ऊपर उठता है। 
उस समय वह सारे सरोवरको मथ डालता है || २५--२७ ।। 

यं दृष्टवा वेष्टितकर: पतत्येष गजो जलम्‌ | 

दन्तहस्ताग्रलाडूलपादवेगेन वीर्यवान्‌ ।। २८ ।। 

विक्षोभयंस्ततो नाग: सरो बहुझषाकुलम्‌ । 

कूर्मोड्प्यभ्युद्यतशिरा युद्धायाभ्येति वीर्यवान्‌ ।। २९ ।। 

उसे देखते ही यह पराक्रमी हाथी अपनी सूँड़ लपेटे हुए जलमें टूट पड़ता है तथा दाँत, 
सूँड़, पूँछ और पैरोंके वेगसे असंख्य मछलियोंसे भरे हुए समूचे सरोवरमें हलचल मचा देता 
है। उस समय पराक्रमी कच्छप भी सिर उठाकर युद्धके लिये निकट आ जाता 
है || २८-२९ |। 

षड्डुच्छितो योजनानि गजस्तद्द्विगुणायत: । 

कूर्मस्त्रियोजनोत्सेधो दशयोजनमण्डल: ।। ३० ।। 

हाथीका शरीर छ: योजन ऊँचा और बारह योजन लंबा है। कछुआ तीन योजन ऊँचा 
और दस योजन गोल है ।। ३० ।। 

तावुभौ युद्धसम्मत्ती परस्परवधैषिणौ । 

उपयुज्याशु कर्मेदं साधयेप्सितमात्मन: ।। ३१ ।। 

वे दोनों एक-दूसरेको मारनेकी इच्छासे युद्धके लिये मतवाले बने रहते हैं। तुम शीघ्र 
जाकर उन्हीं दोनोंको भोजनके उपयोगमें लाओ और अपने इस अभीष्ट कार्यका साधन 
करो ।। ३१ ।। 

महा भ्रघनसंकाशं तं भुक्त्वामृतमानय । 

महागिरिसमप्रख्यं घोररूपं च हस्तिनम्‌ ।। ३२ ।। 

कछुआ महान्‌ मेघ-खण्डके समान है और हाथी भी महान्‌ पर्वतके समान भयंकर है। 
उन्हीं दोनोंको खाकर अमृत ले आओ ।। ३२ ।। 

सौतिर्वाच 


इत्युक्त्वा गरुडं सो5थ माड़ूल्यमकरोत्‌ तदा । 

युध्यत: सह देवैस्ते युद्धे भवतु मड़लम्‌ ।। ३३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! कश्यपजी गरुडसे ऐसा कहकर उस समय उनके 
लिये मंगल मनाते हुए बोले--“गरुड! युद्धमें देवताओंके साथ लड़ते हुए तुम्हारा मंगल 
हो ।। ३३ ।। 

पूर्णकुम्भो द्विजा गावो यच्चान्यत्‌ किंचिदुत्तमम्‌ । 

शुभं स्वस्त्ययनं चापि भविष्यति तवाण्डज ।। ३४ ।। 


'पक्षिप्रवर! भरा हुआ कलश, ब्राह्मण, गौएँ तथा और जो कुछ भी मांगलिक वस्तुए हैं, 
वे तुम्हारे लिये कल्याणकारी होंगी ।। ३४ ।। 

युध्यमानस्य संग्रामे देवैः सार्थ महाबल । 

ऋचो यजूंषि सामानि पवित्राणि हवींषि च ।। ३५ ।। 

रहस्यानि च सर्वाणि सर्वे वेदाश्व ते बलम्‌ । 

इत्युक्तो गरुड: पित्रा गतस्तं हृदमन्तिकात्‌ ।। ३६ ।। 

“महाबली पक्षिराज! संग्राममें देवताओंके साथ युद्ध करते समय ऋग्वेद, यजुर्वेद, 
सामवेद, पवित्र हविष्य, सम्पूर्ण रहस्य तथा सभी वेद तुम्हें बल प्रदान करें।” पिताके ऐसा 
कहनेपर गरुड उस सरोवरके निकट गये ।। ३५-३६ ।। 

अपश्यन्निर्मलजलं नानापक्षिसमाकुलम्‌ | 

स तत्‌ स्मृत्वा पितुर्वाक्यं भीमवेगो<न्तरिक्षग: ।। ३७ ।। 

नखेन गजमेकेन कूर्ममेकेन चाक्षिपत्‌ । 

समुत्पपात चाकाशं तत उच्चैविंहंगम: ।। ३८ ।। 

उन्होंने देखा, सरोवरका जल अत्यन्त निर्मल है और नाना प्रकारके पक्षी इसमें सब 
ओर चहचहा रहे हैं। तदनन्तर भयंकर वेगशाली अन्तरिक्षगामी गरुडने पिताके वचनका 
स्मरण करके एक पंजेसे हाथीको और दूसरेसे कछुएको पकड़ लिया। फिर वे पक्षिराज 
आकाशमें ऊँचे उड़ गये || ३७-३८ ।। 

सो<5लम्बं तीर्थमासाद्य देववृक्षानुपागमत्‌ । 

ते भीता: समकम्पन्त तस्य पक्षानिलाहता: ।। ३९ ।। 

न नो भज्ज्यादिति तदा दिव्या: कनकशाखिन: । 

प्रचलाज्रान्‌ स तान्‌ दृष्टवा मनोरथफलद्रुमान्‌ ।। ४० ।। 

अन्यानतुलरूपाज्नुपचक्राम खेचर: । 

काज्चनै राजतैश्वैव फलैरवैंदूर्यशाखिन: । 

सागराम्बुपरिक्षिप्तान्‌ भ्राजमानान्‌ महाद्रुमान्‌ ।। ४१ ।। 

उड़कर वे फिर अलम्बतीर्थमें जा पहुँचे। वहाँ (मेरुगिरिपर) बहुत-से दिव्य वृक्ष अपनी 
सुवर्णमय शाखा-प्रशाखाओंके साथ लहलहा रहे थे। जब गरुड उनके पास गये, तब उनके 
पंखोंकी वायुसे आहत होकर वे सभी दिव्य वृक्ष इस भयसे कम्पित हो उठे कि कहीं ये हमें 
तोड़ न डालें। गरुड रुचिके अनुसार फल देनेवाले उन कल्पवृक्षोंको काँपते देख अनुपम 
रूप-रंग तथा अंगोंवाले दूसरे-दूसरे महावृक्षोंकी ओर चल दिये। उनकी शाखाएँ वैदूर्य 
मणिकी थीं और वे सुवर्ण तथा रजतमय फलोंसे सुशोभित हो रहे थे। वे सभी महावृक्ष 
समुद्रके जलसे अभिषिक्त होते रहते थे ।। ३९--४१ ।। 

तमुवाच खगश्रेष्ठ तत्र रोहिणपादप: । 

अतिप्रवृद्ध: सुमहानापतन्तं मनोजवम्‌ ॥। ४२ ।। 


वहीं एक बहुत बड़ा विशाल वटवृक्ष था। उसने मनके समान तीव्र-वेगसे आते हुए 
पक्षियोंके सरदार गरुडसे कहा ।। ४२ ।। 
रौहिण उवाच 
यैषा मम महाशाखा शतयोजनमायता । 
एतामास्थाय शाखां त्वं खादेमौ गजकच्छपौ ।। ४३ ।। 
वटवृक्ष बोला--पक्षिराज! यह जो मेरी सौ योजनतक फैली हुई सबसे बड़ी शाखा है, 
इसीपर बैठकर तुम इस हाथी और कछुएको खा लो ।। ४३ ।। 
ततो द्रुमं पतगसहस्रसेवितं 
महीधरप्रतिमवपु: प्रकम्पयन्‌ | 
खगोत्तमो द्रुतमभिपत्य वेगवान्‌ 
बभज्ज तामविरलपत्रसंचयाम्‌ ।। ४४ ।। 
तब पर्वतके समान विशाल शरीरवाले, पक्षियोंमें श्रेष्ठ, वेगशशाली गरुड सहस्रों 
विहंगमोंसे सेवित उस महान्‌ वृक्षको कम्पित करते हुए तुरंत उसपर जा बैठे। बैठते ही 
अपने असहा वेगसे उन्होंने सघन पल्‍लवोंसे सुशोभित उस विशाल शाखाको तोड़ 
डाला || ४४ || 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकोनत्रिंशो5ध्याय: ।। २९ |। 
इस प्रकार श्रीमह़्ा भारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत आस्तीकपरवरर्में गरुडचरित्र-विषयक उनतीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २९ ॥ 


न-आऔका-<० ड-ण करा 


- “कनिष्छान्‌ पुत्रवत्‌ पश्येज्ज्येष्ठो भ्राता पितु: समः' अर्थात्‌ “बड़ा भाई पिताके समान होता है। वह अपने छोटे 
भाइयोंको पुत्रके समान देखे।” यह शास्त्रकी आज्ञा है। जिनमें फूट हो जाती है, वे पीछे इस आज्ञाका पालन नहीं कर पाते। 


त्रिशो5थ्याय: 


गरुडका कश्यपजीसे मिलना, उनकी प्रार्थनासे वालखिल्य 
ऋषियोंका शाखा छोड़कर तपके लिये प्रस्थान और 
गरुडका निर्जन पर्वतपर उस शाखाको छोड़ना 


सौतिरुवाच 


स्पृष्टमात्रा तु पद्धयां सा गरुडेन बलीयसा । 

अभज्यत तरो: शाखा भग्नां चैनामधारयत्‌ ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकादि महर्षियो! महाबली गरुडके पैरोंका स्पर्श होते ही 
उस वृक्षकी वह महाशाखा टूट गयी; किंतु उस टूटी हुई शाखाको उन्होंने फिर पकड़ 
लिया ।। १ |। 

तां भड़्क्‍्त्वा स महाशाखां स्मयमानो विलोकयन्‌ । 

अथात्र लम्बतो5पश्यद्‌ वालखिल्यानधोमुखान्‌ ।। २ ।। 

उस महाशाखाको तोड़कर गरुड मुसकराते हुए उसकी ओर देखने लगे। इतनेहीमें 
उनकी दृष्टि वालखिल्य नामवाले महर्षियोंपर पड़ी, जो नीचे मुँह किये उसी शाखामें लटक 
रहे थे || २ ।। 

ऋष यो ह्वात्र लम्बन्ते न हन्‍्यामिति तानूषीन्‌ । 

तपोरतान्‌ लम्बमानान ब्रह्मर्षीनभिवीक्ष्य सः ।। ३ ।। 

हन्यादेतान्‌ सम्पतन्ती शाखेत्यथ विचिन्त्य सः । 

नखैर्दढतरं वीर: संगृह्द गजकच्छपौ ।। ४ ।। 

स तद्विनाशसंत्रासादभिपत्य खगाधिप: । 

शाखामास्येन जग्राह तेषामेवान्ववेक्षया ।। ५ ।। 

तपस्यामें तत्पर हुए उन ब्रह्मर्षियोंको वटकी शाखामें लटकते देख गरुडने सोचा 
-- इसमें ऋषि लटक रहे हैं। मेरे द्वारा इनका वध न हो जाय। यह गिरती हुई शाखा इन 
ऋषियोंका अवश्य वध कर डालेगी।” यह विचारकर वीरवर पक्षिराज गरुडने हाथी और 
कछुएको तो अपने पंजोंसे दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और उन महर्षियोंके विनाशके भयसे 
झपटकर वह शाखा अपनी चोंचमें ले ली। उन मुनियोंकी रक्षाके लिये ही गरुडने ऐसा 
अदभुत पराक्रम किया था || ३--५ |। 

अतिदैवं तु तत्‌ तस्य कर्म दृष्टवा महर्षय: । 

विस्मयोत्कम्पह्दया नाम चक्रुर्महाखगे ।। ६ ।। 


जिसे देवता भी नहीं कर सकते थे, गरुडका ऐसा अलौकिक कर्म देखकर वे महर्षि 
आश्चर्यसे चकित हो उठे। उनके हृदयमें कम्प छा गया और उन्होंने उस महान्‌ पक्षीका नाम 
इस प्रकार रखा (उनके गरुड नामकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की)-- ।। ६ ।। 

गुरु भारं समासाद्योड्डीन एष विहंगम: । 

गरुडस्तु खगश्रेष्स्तस्मात्‌ पन्नमनभोजन: ।। ७ ।। 

ये आकाशमें विचरनेवाले सर्पभोजी पक्षिराज भारी भार लेकर उड़े हैं; इसलिये (“गुरुम्‌ 
आदाय उड्डीन इति गरुड:” इस व्युत्पत्तिके अनुसार) ये गरुड कहलायेंगे ।। ७ ।। 

ततः शनै: पर्यपतत्‌ पक्षै: शैलान्‌ प्रकम्पयन्‌ । 

एवं सो5भ्यपतद्‌ देशान्‌ बहूनू सगजकच्छप: ।। ८ ।। 

तदनन्तर गरुड अपने पंखोंकी हवासे बड़े-बड़े पर्वतोंको कम्पित करते हुए धीरे-धीरे 
उड़ने लगे। इस प्रकार वे हाथी और कछुएको साथ लिये हुए ही अनेक देशोंमें उड़ते 
फिरे ।। ८ ।। 

दयार्थ वालखिल्यानां न च स्थानमविन्दत । 

स गत्वा पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादनमञज्जसा ।। ९ |। 

वालखिल्य ऋषियोंके ऊपर दयाभाव होनेके कारण ही वे कहीं बैठ न सके और उड़ते- 
उड़ते अनायास ही पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादनपर जा पहुँचे ।। ९ ।। 

ददर्श कश्यपं तत्र पितरं तपसि स्थितम्‌ | 

ददर्श तं पिता चापि दिव्यरूपं विहंगमम्‌ ।। १० ।। 

तेजोवीर्यबलोपेतं मनोमारुतरंहसम्‌ । 

शैलशड्डप्रतीकाशं ब्रह्मदण्डमिवोद्यतम्‌ ।। ११ ।। 

वहाँ उन्होंने तपस्यामें लगे हुए अपने पिता कश्यपजीको देखा। पिताने भी अपने 
पुत्रको देखा। पक्षिराजका स्वरूप दिव्य था। वे तेज, पराक्रम और बलसे सम्पन्न तथा मन 
और वायुके समान वेगशाली थे। उन्हें देखकर पर्वतके शिखरका भान होता था। वे उठे हुए 
ब्रह्मदण्डके समान जान पड़ते थे ।। १०-११ ।। 

अचिन्त्यमनभिध्येयं सर्वभूतभयंकरम्‌ । 

महावीर्यधरं रौद्रं साक्षादग्निमिवोद्यतम्‌ ।। १२ ।। 

उनका स्वरूप ऐसा था, जो चिन्तन और ध्यानमें नहीं आ सकता था। वे समस्त 
प्राणियोंके लिये भय उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अपने भीतर महान्‌ पराक्रम धारण कर रखा 
था। वे बहुत भयंकर प्रतीत होते थे। जान पड़ता था, उनके रूपमें स्वयं अग्निदेव प्रकट हो 
गये हैं || १२ ।। 

अप्रधृष्यमजेयं च देवदानवराक्षसै: । 

भेत्तारं गिरिशुज्भाणां समुद्रजलशोषणम्‌ ।। १३ ।। 


देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी न तो उन्हें दबा सकता था और न जीत ही सकता 
था। वे पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण करने और समुद्रके जलको सोख लेनेकी शक्ति रखते 
थे ।। १३ ।। 

लोकसंलोडडनं घोर कृतान्तसमदर्शनम्‌ | 

तमागतमभिप्रेक्ष्य भगवान्‌ कश्यपस्तदा । 

विदित्वा चास्य संकल्पमिदं वचनमत्रवीत्‌ ।। १४ ।। 

वे समस्त संसारको भयसे कम्पित किये देते थे। उनकी मूर्ति बड़ी भयंकर थी। वे 
साक्षात्‌ यमराजके समान दिखायी देते थे। उन्हें आया देख उस समय भगवान्‌ कश्यपने 
उनका संकल्प जानकर इस प्रकार कहा ।। १४ ।। 


कश्यप उवाच 


पुत्र मा साहसं कार्षी्मा सद्यो लप्स्यसे व्यथाम्‌ | 

मा त्वां दहेयु: संक्रुद्धा वालखिल्या मरीचिपा: ।। १५ ।। 

कश्यपजी बोले--बेटा! कहीं दुःसाहसका काम न कर बैठना, नहीं तो तत्काल भारी 
दुःखमें पड़ जाओगे। सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले वालखिल्य महर्षि कुपित होकर 
तुम्हें भस्म न कर डालें ।। १५ ।। 


सौतिरुवाच 


ततः प्रसादयामास कश्यप: पुत्रकारणात्‌ | 

वालखिल्यान्‌ महाभागांस्तपसा हतकल्मषान्‌ ।। १६ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तदनन्तर पुत्रके लिये महर्षि कश्यपने तपस्यासे निष्पाप हुए 
महाभाग वालखिल्य मुनियोंको इस प्रकार प्रसन्न किया ।। १६ ।। 


कश्यप उवाच 


प्रजाहितार्थमारम्भो गरुडस्य तपोधना: । 
चिकीर्षति महत्कर्म तदनुज्ञातुमरहथ ।। १७ ।। 
कश्यपजी बोले--तपोधनो! गरुडका यह उद्योग प्रजाके हितके लिये हो रहा है। ये 
महान्‌ पराक्रम करना चाहते हैं, आपलोग इन्हें आज्ञा दें || १७ ।। 
सौतिरुवाच 


एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययु: । 

मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्तं तपोडर्थिन: ।। १८ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--भगवान्‌ कश्यपके इस प्रकार अनुरोध करनेपर वे वालखिल्य 
मुनि उस शाखाको छोड़कर तपस्या करनेके लिये परम पुण्यमय हिमालयपर चले 
गये ।। १८ ।। 


ततस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतासुत: । 

शाखाव्याक्षिप्तवदन: पर्यपृच्छत कश्यपम्‌ ।। १९ ।। 

उनके चले जानेपर विनतानन्दन गरुडने, जो मुँहमें शाखा लिये रहनेके कारण 
कठिनाईसे बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजीसे पूछा-- ।। १९ ।। 

भगवन्‌ कक्‍्व विमुज्चामि तरो: शाखामिमामहम्‌ । 

वर्जित मानुषैर्देशमाख्यातु भगवान्‌ मम | २० |। 

“'भगवन्‌! इस वृक्षकी शाखाको मैं कहाँ छोड़ दूँ? आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें 
जहाँ बहुत दूरतक मनुष्य न रहते हों” || २० ।। 

ततो नि:पुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम्‌ । 

अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्थाचख्यौ स कश्यप: ।। २१ ।। 

तब कश्यपजीने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। जिसकी 
कन्दराएँ बर्फसे ढँकी हुई थीं और जहाँ दूसरा कोई मनसे भी नहीं पहुँच सकता 
था ।। २१ ।। 

त॑ं पर्वतं महाकुक्षिमुद्दिश्य स महाखग: । 

जवेनाभ्यपतत्‌ तार्क्ष्य: सशाखागजकच्छप: || २२ ।। 

उस बड़े पेटवाले पर्वतका पता पाकर महान्‌ पक्षी गरुड उसीको लक्ष्य करके शाखा, 
हाथी और कछुएसहित बड़े वेगसे उड़े || २२ ।। 

नतां वध्री परिणहेच्छतचर्मा महातनुभ्‌ | 

शाखिनो महतीं शाखां यां प्रगृह्दा ययौ खग: ।। २३ ।। 

गरुड वटवृक्षकी जिस विशाल शाखाको चोंचमें लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी 
कि सौ पशुओंके चमड़ोंसे बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी ।। २३ ।। 

स ततः शतसाहस्र॑ योजनान्तरमागत: । 

कालेन नातिमहता गरुड: पतगेश्वर: ।। २४ ।। 

पक्षिराज गरुड उसे लेकर थोड़ी ही देरमें वहाँसे एक लाख योजन दूर चले 
आये ।। २४ ।। 

सतं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनात्‌ पितु: । 

अमुज्चन्महतीं शाखां सस्वनं तत्र खेचर: || २५ ।। 

पिताके आदेशसे क्षणभरमें उस पर्वतपर पहुँचकर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ 
दी। गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ || २५ ।। 

पक्षानिलहतकश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट । 

मुमोच पुष्पवर्ष च समागलितपादप: ।। २६ ।। 

वह पर्वतराज उनके पंखोंकी वायुसे आहत होकर काँप उठा। उसपर उगे हुए बहुतेरे 
वृक्ष गिर पड़े और वह फूलोंकी वर्षा-सी करने लगा || २६ ।। 


शृज्भाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्प समन्तत: । 

मणिकाज्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम्‌ ।। २७ ।। 

उस पर्वतके मणिकांचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान्‌ शैलकी शोभा बढ़ा रहे थे, 
सब ओरसे चूर-चूर होकर गिर पड़े ।। २७ ।। 

शाखिनो बहवश्चापि शाखयाभिहतास्तया । 

काज्चनै: कुसुमैर्भान्ति विद्युत्वन्त इवाम्बुदा: | २८ ।। 

उस विशाल शाखासे टकराकर बहुत-से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय 
फ़ूलोंके कारण बिजलीसहित मेघोंकी भाँति शोभा पाते थे ।। २८ ।। 

ते हेमविकचा भूमौ युता: पर्वतधातुभि: । 

व्यराजण्छाखिनस्तत्र सूर्याशुप्रतिरज्जिता: ।। २९ ।। 

सुवर्णमय पुष्पवाले वे वृक्ष धरतीपर गिरकर पर्वतके गेरू आदि धातुओंसे संयुक्त हो 
सूर्यकी किरणोंद्वारा रँगे हुए-से सुशोभित होते थे || २९ ।। 

ततस्तस्य गिरे: शृड्रमास्थाय स खगोत्तम: । 

भक्षयामास गरुडस्तावुभी गजकच्छपौ ।। ३० ।। 

तदनन्तर पक्षिराज गरुडने उसी पर्वतकी एक चोटीपर बैठकर उन दोनों--हाथी और 
कछुएको खाया ।। ३० ।। 

तावुभौ भक्षयित्वा तु स तार्क्ष्य: कूर्मकुञ्जरौ । 

ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात महाजव: | ३१ ।। 

इस प्रकार कछुए और हाथी दोनोंको खाकर महान्‌ वेगशाली गरुड पर्वतकी उस 
चोटीसे ही ऊपरकी ओर उड़े ।। ३१ ।। 

प्रावर्तन्ताथ देवानामुत्पाता भयशंसिन: । 

इन्द्रस्य वज्ज॑ दयितं प्रजज्वाल भयात्‌ ततः ।। ३२ ।। 

उस समय देवताओंके यहाँ बहुत-से भयसूचक उत्पात होने लगे। देवराज इन्द्रका प्रिय 
आयुध वज्र भयसे जल उठा ।। ३२ ।। 

सथूमा न्‍्यपतत्‌ सार्चिर्दिवोल्का नभसभ्ष्युता । 

तथा वसूनां रुद्राणामादित्यानां च सर्वश: ।। ३३ ।। 

साध्यानां मरुतां चैव ये चान्ये देवतागणा: । 

स्वं स्वं प्रहरणं तेषां परस्परमुपाद्रवत्‌ ।। ३४ ।। 

अभूतपूर्व संग्रामे तदा देवासुरेडपि च । 

ववुर्वाता: सनिर्घाता: पेतुरुल्का: सहस्रश: ।। ३५ ।। 

आकाशसे दिनमें ही धूएँ और लपटोंके साथ उल्का गिरने लगी। वसु, रुद्र, आदित्य, 
साध्य, मरुदगण तथा और जो-जो देवता हैं, उन सबके आयुध परस्पर इस प्रकार उपद्रव 
करने लगे, जैसा पहले कभी देखनेमें नहीं आया था। देवासुर-संग्रामके समय भी ऐसी 


अनहोनी बात नहीं हुई थी। उस समय वज्रकी गड़गड़ाहटके साथ बड़े जोरकी आँधी उठने 
लगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं || ३३--३५ ।। 

निरभ्रमेव चाकाशं प्रजगर्ज महास्वनम्‌ । 

देवानामपि यो देव: सो<प्यवर्षत शोणितम्‌ ।। ३६ ।। 

आकाशमें बादल नहीं थे तो भी बड़ी भारी आवाजमें विकट गर्जना होने लगी। 
देवताओंके भी देवता पर्जन्य रक्तकी वर्षा करने लगे ।। ३६ ।। 

मम्लुर्माल्यानि देवानां नेशुस्तेजांसि चैव हि । 

उत्पातमेघा रौद्राश्न ववृषु: शोणितं बहु | ३७ ।। 

देवताओंके दिव्य पुष्पहार मुर॒झा गये, उनके तेज नष्ट होने लगे। उत्पातकालिक बहुत- 
से भयंकर मेघ प्रकट हो अधिक मात्रामें रुधिरकी वर्षा करने लगे ।। ३७ ।। 

रजांसि मुकुटान्येषामुत्थितानि व्यधर्षयन्‌ । 

ततस्त्राससमुद्धिग्न: सह देवै: शतक्रतुः । 

उत्पातान्‌ दारुणान्‌ पश्यन्नित्युवाच बृहस्पतिम्‌ ।। ३८ ।। 

बहुत-सी धूलें उड़कर देवताओंके मुकुटोंको मलिन करने लगीं। ये भयंकर उत्पात 
देखकर देवताओं-सहित इन्द्र भयसे व्याकुल हो गये और बृहस्पतिजीसे इस प्रकार 
बोले ।। ३८ ।। 


इन्द्र वाच 
किमर्थ भगवन्‌ घोरा उत्पाता: सहसोत्थिता: । 
न च शत्रु प्रपश्यामि युधि यो नः प्रधर्षयेत्‌ ।। ३९ ।। 
इन्द्रने पूछा--भगवन्‌! सहसा ये भयंकर उत्पात क्‍यों होने लगे हैं? मैं ऐसा कोई शात्र 
नहीं देखता, जो युद्धमें हम देवताओंका तिरस्कार कर सके ।। ३९ |। 
ब॒हस्पतिरु्वाच 


तवापराधाद्‌ देवेन्द्र प्रमादाच्च शतक्रतो । 

तपसा वालखिल्यानां महर्षीणां महात्मनाम्‌ ।। ४० ।। 

कश्यपस्य मुने: पुत्रो विनतायाश्व खेचर: । 

हर्तु सोममभिप्राप्तो बलवान्‌ कामरूपधृक्‌ ।। ४१ ।। 

बृहस्पतिजीने कहा--देवराज इन्द्र! तुम्हारे ही अपराध और प्रमादसे तथा महात्मा 
वालखिल्य महर्षियोंके तपके प्रभावसे कश्यप मुनि और विनताके पुत्र पक्षिराज गरुड 
अमृतका अपहरण करनेके लिये आ रहे हैं। वे बड़े बलवान्‌ और इच्छानुसार रूप धारण 
करनेमें समर्थ हैं || ४०-४१ ।। 

समर्थों बलिनां श्रेष्ठो हर्तु सोम॑ं विहंगम: । 

सर्व सम्भावयाम्यस्मिन्नसा ध्यमपि साधयेत्‌ ॥। ४२ ।। 


बलवानोंमें श्रेष्ठ आकाशचारी गरुड अमृत हर ले जानेमें समर्थ हैं। मैं उनमें सब 
प्रकारकी शक्तियोंके होनेकी सम्भावना करता हूँ। वे असाध्य कार्य भी सिद्ध कर सकते 
हैं ।। ४२ ।। 


सौतिरुवाच 


श्रुत्वैतद्‌ वचन शक्र: प्रोवाचामृतरक्षिण: । 

महावीर्यबल: पक्षी हर्तु सोममिहोद्यतः || ४३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--बृहस्पतिजीकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्र अमृतकी रक्षा 
करनेवाले देवताओंसे बोले--'रक्षको! महान्‌ पराक्रमी और बलवान पक्षी गरुड यहाँसे 
अमृत हर ले जानेको उद्यत हैं || ४३ ।। 

युष्मान्‌ सम्बोधयाम्येष यथा न स हरेद्‌ बलात्‌ | 

अतुल हि बल॑ तस्य बृहस्पतिरुवाच ह ।। ४४ ।। 

“मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ, जिससे वे बलपूर्वक इस अमृतको न ले जा सकें। 
बृहस्पतिजीने कहा है कि उनके बलकी कहीं तुलना नहीं है” ।। ४४ ।। 

तच्छुत्वा विबुधा वाक्‍्यं विस्मिता यत्नमास्थिता: । 

परिवार्यामृतं तस्थुर्वज्नी चेन्द्र: प्रतापवान्‌ ।। ४५ ।। 

इन्द्रकी यह बात सुनकर देवता बड़े आश्वर्यमें पड़ गये और यत्नपूर्वक अमृतको चारों 
ओरसे घेरकर खड़े हो गये। प्रतापी इन्द्र भी हाथमें वज् लेकर वहाँ डट गये ।। ४५ ।। 

धारयन्तो विचित्राणि काउचनानि मनस्विन: । 

कवचानि महाहणि वैदूर्यविकृतानि च ।। ४६ ।। 

मनस्वी देवता विचित्र सुवर्णमय तथा बहुमूल्य वैदूर्य मणिमय कवच धारण करने 
लगे ।। ४६ ।। 

चर्माण्यपि च गात्रेषु भानुमन्ति दृढानि च । 

विविधानि च शस्त्राणि घोररूपाण्यनेकश: ।। ४७ ।। 

शिततीक्ष्णाग्रधाराणि समुद्यम्य सुरोत्तमा: | 

सविस्फुलिड्गजज्वालानि सधूमानि च सर्वश: | ४८ ।। 

चक्राणि परिघांश्ैव त्रिशूलानि परश्वधान्‌ | 

शक्तीश्न विविधास्तीक्ष्णा: करवालांश्व निर्मलान्‌ | 

स्वदेहरूपाण्यादाय गदाश्षोग्रप्रदर्शना: ।। ४९ ।। 

उन्होंने अपने अंगोंमें यथास्थान मजबूत और चमकीले चमड़ेके बने हुए हाथके मोजे 
आदि धारण किये। नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। उन सब आयुधोंकी धार 
बहुत तीखी थी। वे श्रेष्ठ देवता सब प्रकारके आयुध लेकर युद्धके लिये उद्यत हो गये। उनके 
पास ऐसे-ऐसे चक्र थे, जिनसे सब ओर आगकी चिनगारियाँ और धूमसहित लपटें प्रकट 


होती थीं। उनके सिवा परिघ, त्रिशूल, फरसे, भाँति-भाँतिकी तीखी शक्तियाँ चमकीले खड्ग 
और भयंकर दिखायी देनेवाली गदाएँ भी थीं। अपने शरीरके अनुरूप इन अस्त्र-शस्त्रोंको 
लेकर देवता डट गये ।। ४७--४१९ ।। 
तैः शस्त्रैर्भानुमद्धिस्ते दिव्याभरण भूषिता: । 
भानुमन्त: सुरगणास्तस्थुर्विगतकल्मषा: | ५० |। 
दिव्य आभूषणोंसे विभूषित निष्पाप देवगण तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रोंक॒े साथ अधिक 
प्रकाशमान हो रहे थे ।। ५० ।। 
अनुपमबलवीर्यतेजसो 
धृतमनस: परिरक्षणेडमृतस्य । 
असुरपुरविदारणा: सुरा 
ज्वलनसमिद्धवपु:प्रकाशिन: ।। ५१ ।। 
उनके बल, पराक्रम और तेज अनुपम थे, जो असुरोंके नगरोंका विनाश करनेमें समर्थ 
एवं अग्निके समान देदीप्यमान शरीरसे प्रकाशित होनेवाले थे; उन्होंने अमृतकी रक्षाके लिये 
अपने मनमें दृढ निश्चय कर लिया था ।। ५१ ।। 
इति समरवरं सुरा: स्थितास्ते 
परिघसहस्रशतै: समाकुलम्‌ । 
विगलितमिव चाम्बरान्तरं 
तपनमरीचिविकाशितं बभासे ।। ५२ ।। 
इस प्रकार वे तेजस्वी देवता उस श्रेष्ठ समरके लिये तैयार खड़े थे। वह रणांगण लाखों 
परिघ आदि आयुधोंसे व्याप्त होकर सूर्यकी किरणोंद्वारा प्रकाशित एवं टूटकर गिरे हुए दूसरे 
आकाशके समान सुशोभित हो रहा था ।। ५२ || 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रिंशो&ध्याय: ।। ३० ॥॥ 
इस प्रकार श्रीमह़्ा भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक तीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ३० ॥ 


अपन प्रात बछ। अंक 


एकत्रिशो<5 ध्याय: 


इन्द्रके द्वारा वालखिल्योंका अपमान और उनकी तपस्याके 
प्रभावसे अरुण एवं गरुडकी उत्पत्ति 


शौनक उवाच 


को<पराधो महेन्द्रस्य कः प्रमादश्च॒ सूतज । 

तपसा वालखिल्यानां सम्भूतो गरुड: कथम्‌ ।। १ ।। 

शौनकजीने पूछा--सूतनन्दन! इन्द्रका क्या अपराध और कौन-सा प्रमाद था? 
वालखिल्य मुनियोंकी तपस्याके प्रभावसे गरुडकी उत्पत्ति कैसे हुई थी? ।। १ ।। 

कश्यपस्य द्विजातेश्व कथं वै पक्षिराट्‌ सुतः । 

अधृष्य: सर्वभूतानामवध्यश्चाभवत्‌ कथम्‌ ।। २ ।। 

कश्यपजी तो ब्राह्मण हैं, उनका पुत्र पक्षिराज कैसे हुआ? साथ ही वह समस्त 
प्राणियोंके लिये दुर्धर्ष एवं अवध्य कैसे हो गया? ।। २ ।। 

कथं च कामचारी स कामवीर्यक्ष खेचर: । 

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पुराणे यदि पठ्यते ।। ३ ।। 

उस पक्षीमें इच्छानुसार चलने तथा रुचिके अनुसार पराक्रम करनेकी शक्ति कैसे आ 
गयी? मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। यदि पुराणमें कहीं इसका वर्णन हो तो सुनाइये ।। ३ ।। 

सौतिर्वाच 


विषयो<यं पुराणस्य यन्मां त्वं परिपृच्छसि । 

शृणु मे वदत: सर्वमेतत्‌ संक्षेपतो द्विज ।। ४ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--ब्रह्मन! आप मुझसे जो पूछ रहे हैं, वह पुराणका ही विषय है। मैं 
संक्षेपमें ये सब बातें बता रहा हूँ, सुनिये || ४ ।। 

यजत: पुत्रकामस्य कश्यपस्य प्रजापते: । 

साहाय्यमृषयो देवा गन्धर्वाश्व ददु: किल ।। ५ ।। 

कहते हैं, प्रजापति कश्यपजी पुत्रकी कामनासे यज्ञ कर रहे थे, उसमें ऋषियों, 
देवताओं तथा गन्धर्वोने भी उन्हें बड़ी सहायता दी ।। ५ ।। 

तत्रेध्मानयने शक्रो नियुक्त: कश्यपेन ह | 

मुनयो वालखिल्याश्न ये चान्ये देवतागणा: ।। ६ ।। 

उस यज्ञमें कश्यपजीने इन्द्रको समिधा लानेके कामपर नियुक्त किया था। वालखिल्य 
मुनियों तथा अन्य देवगणोंको भी यही कार्य सौंपा गया था ।। ६ ।। 

शक्रस्तु वीर्यसदृशमि ध्यभारं गिरिप्रभम्‌ | 


समुद्यम्यानयामास नातिकृच्छादिव प्रभु: ।॥ ७ ।। 

इन्द्र शक्तिशाली थे। उन्होंने अपने बलके अनुसार लकड़ीका एक पहाड़-जैसा बोझ 
उठा लिया और उसे बिना कष्टके ही वे ले आये ।। ७ ।। 

अथापश्यदृषीन्‌ हस्वानडुष्ठोदरवर्ष्मण: । 

पलाशवर्तिकामेकां वहत: संहतान्‌ पथि ॥। ८ ।। 

उन्होंने मार्गमें बहुत-से ऐसे ऋषियोंको देखा जो कदमें बहुत ही छोटे थे। उनका सारा 
शरीर अँगूठेके मध्यभागके बराबर था। वे सब मिलकर पलाशकी एक बाती (छोटी-सी 
टहनी) लिये आ रहे थे ।। ८ ।। 

प्रलीनान्‌ स्वेष्विवाड्रेषु निराहारांस्तपो धनान्‌ । 

क्लिश्यमानान्‌ मन्दबलान्‌ गोष्पदे सम्प्लुतोदके ।। ९ ।। 

उन्होंने आहार छोड़ रखा था। तपस्या ही उनका धन था। वे अपने अंगोंमें ही समाये 
हुए-से जान पड़ते थे। पानीसे भरे हुए गोखुरके लाँघनेमें भी उन्हें बड़ा क्लेश होता था। 
उनमें शारीरिक बल बहुत कम था ।। ९ |। 

तान्‌ सर्वान्‌ विस्मयाविष्टो वीर्योन्मत्त: पुरन्दर: । 

अवहस्याभ्यगाच्छीघ्रं लड॒घयित्वावमन्य च ।। १० ।। 

अपने बलके घमंडमें मतवाले इन्द्रने आश्वर्ययचकित होकर उन सबको देखा और 
उनकी हँसी उड़ाते हुए वे अपमानपूर्वक उन्हें लाँधघकर शीघ्रताके साथ आगे बढ़ 
गये ।। १० ।। 

ते5थ रोषसमाविष्टा: सुभृश॑ जातमन्यव: । 

आरेभिरे महत्‌ कर्म तदा शक्रभयंकरम्‌ ।। ११ ।। 

इन्द्रके इस व्यवहारसे वालखिल्य मुनियोंकों बड़ा रोष हुआ। उनके हृदयमें भारी 
क्रोधका उदय हो गया। अतः उन्होंने उस समय एक ऐसे महान्‌ कर्मका आरम्भ किया, 
जिसका परिणाम इन्द्रके लिये भयंकर था ।। ११ ।। 

जुह॒वुस्ते सुतपसो विधिवज्जातवेदसम्‌ । 

मन्त्रैरुच्चावचैरविप्रा येन कामेन तच्छुणु || १२ ।। 

ब्राह्मणो! वे उत्तम तपस्वी वालखिल्य मनमें जो कामना रखकर छोटे-बड़े मन्त्रोंद्वारा 
विधिपूर्वक अग्निमें आहुति देते थे, वह बताता हूँ, सुनिये || १२ ।। 

कामवीर्य: कामगमो देवराजभयप्रद: । 

इन्द्रो5न्य: सर्वदेवानां भवेदिति यतव्रता: ।। १३ ।। 

संयमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे महर्षि यह संकल्प करते थे कि 
--'सम्पूर्ण देवताओंके लिये कोई दूसरा ही इन्द्र उत्पन्न हो, जो वर्तमान देवराजके लिये 
भयदायक, इच्छानुसार पराक्रम करने-वाला और अपनी रुचिके अनुसार चलनेकी शक्ति 
रखनेवाला हो ।। १३ ।। 


इन्द्राच्छतगुण: शौर्ये वीर्ये चैव मनोजव: । 

तपसो न: फलेनाद्य दारुण: सम्भवत्विति ।। १४ ।। 

'शौर्य और वीर्यमें इन्द्रसे वह सौगुना बढ़कर हो। उसका वेग मनके समान तीव्र हो। 
हमारी तपस्याके फलसे अब ऐसा ही वीर प्रकट हो जो इन्द्रके लिये भयंकर हो” ।। १४ ।। 

तद्‌ बुद्ध्वा भृशसंतप्तो देवराज: शतक्रतुः । 

जगाम शरण तत्र कश्यपं संशितव्रतम्‌ ।। १५ ।। 

उनका यह संकल्प सुनकर सौ यज्ञोंका अनुष्ठान पूर्ण करनेवाले देवराज इन्द्रको बड़ा 
संताप हुआ और वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले कश्यपजीकी शरणमें गये ।। १५ ।। 

तच्छुत्वा देवराजस्य कश्यपो<5थ प्रजापति: । 

वालखिल्यानुपागम्य कर्मसिद्धिमपृच्छत ।। १६ ।। 

देवराज इन्द्रके मुखसे उनका संकल्प सुनकर प्रजापति कश्यप वालखिल्योंके पास गये 
और उनसे उस कर्मकी सिद्धिके सम्बन्धमें प्रश्न किया || १६ ।। 

एवमस्त्विति त॑ चापि प्रत्यूचु: सत्यवादिन: । 

तान्‌ कश्यप उवाचेदं सान्त्वपूर्व प्रजापति: ।। १७ ।। 

सत्यवादी महर्षि वालखिल्योंने “हाँ ऐसी ही बात है” कहकर अपने कर्मकी सिद्धिका 
प्रतिपादन किया। तब प्रजापति कश्यपने उन्हें सान्त्वनापूर्वक समझाते हुए कहा 
-- | १७ || 

अयमिन्द्रस्त्रिभुवने नियोगाद्‌ ब्रह्मण: कृत: । 

इन्द्रार्थे च भवन्तो5पि यत्नवन्तस्तपोधना: ।। १८ ।। 

“तपोधनो! ब्रह्माजीकी आज्ञासे ये पुरन्दर तीनों लोकोंके इन्द्र बनाये गये हैं और 
आपलोग भी दूसरे इन्द्रकी उत्पत्तिके लिये प्रयत्नशील हैं ।। १८ ।। 

न भिथ्या ब्रह्मणो वाक्यं कर्तुमर्हथ सत्तमा: | 

भवतां हि न मिथ्यायं संकल्पो वै चिकीर्षित: ।। १९ ।। 

'संत-महात्माओ! आप ब्रह्माजीका वचन मिथ्या न करें। साथ ही मैं यह भी चाहता हूँ 
कि आपके द्वारा किया हुआ यह अभीष्ट संकल्प भी मिथ्या न हो ।। १९ ।। 

भवत्वेष पतत्त्रीणामिन्द्रोडतिबलसत्त्ववान्‌ । 

प्रसाद: क्रियतामस्य देवराजस्य याचत: || २० ।। 

“अतः अत्यन्त बल और सत्त्वगुणसे सम्पन्न जो यह भावी पुत्र है, यह पक्षियोंका इन्द्र 
हो। देवराज इन्द्र आपके पास याचक बनकर आये हैं, आप इनपर अनुग्रह करें" || २० ।। 

एवमुक्ता: कश्यपेन वालखिल्यास्तपोधना: । 

प्रत्यूचुरभिसम्पूज्य मुनिश्रेष्ठ प्रजापतिम्‌ ।। २१ ।। 

महर्षि कश्यपके ऐसा कहनेपर तपस्याके धनी वालखिल्य मुनि उन मुनिश्रेष्ठ 
प्रजापतिका सत्कार करके बोले || २१ ।। 


वालखिल्या ऊचु: 


इन्द्रार्थो&यं समारम्भ: सर्वेषां न: प्रजापते । 

अपत्यार्थ समारम्भो भवतश्चायमीप्सित: ।। २२ ।। 

तदिदं सफल कर्म त्वयैव प्रतिगृह्ताम्‌ । 

तथा चैवं विधत्स्वात्र यथा श्रेयोडनुपश्यसि ।। २३ ।। 

वालखिल्योंने कहा--प्रजापते! हम सब लोगोंका यह अनुष्ठान इन्द्रके लिये हुआ था 
और आपका यह यज्ञसमारोह संतानके लिये अभीष्ट था। अत: इस फलसहित कर्मको आप 
ही स्वीकार करें और जिसमें सबकी भलाई दिखायी दे, वैसा ही करें || २२-२३ ।। 


सौतिरुवाच 


एतस्मिन्नेव काले तु देवी दाक्षायणी शुभा । 

विनता नाम कल्याणी पुत्रकामा यशस्विनी ।। २४ ।। 

तपस्तप्त्वा व्रतपरा स्नाता पुंसवने शुचि: । 

उपचक्राम भर्तारें तामुवाचाथ कश्यप: ।। २५ || 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--इसी समय शुभलक्षणा दक्षकन्या कल्याणमयी विनता देवी, 
जो उत्तम यशसे सुशोभित थी, पुत्रकी कामनासे तपस्यापूर्वक ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करने 
लगी। ऋतुकाल आनेपर जब वह स्नान करके शुद्ध हुई, तब अपने स्वामीकी सेवामें गयी। 
उस समय कश्यपजीने उससे कहा-- ॥। २४-२५ ।। 

आरम्भ: सफलो देवि भविता यस्त्वयेप्सित: । 

जनयिष्यसि पुत्री द्वौ वीरौ त्रिभुवनेश्वरी ।। २६ ।। 

“देवि! तुम्हारा यह अभीष्ट समारम्भ अवश्य सफल होगा। तुम ऐसे दो पुत्रोंको जन्म 
दोगी, जो बड़े वीर और तीनों लोकोंपर शासन करनेकी शक्ति रखनेवाले होंगे | २६ ।। 

तपसा वालखिल्यानां मम संकल्पजौ तथा । 

भविष्यतो महाभागोौ पुत्रौ त्रैलोक्यपूजितौ ।। २७ ।। 

“वालखिल्योंकी तपस्या तथा मेरे संकल्पसे तुम्हें दो परम सौभाग्यशाली पुत्र प्राप्त होंगे, 
जिनकी तीनों लोकोंमें पूजा होगी” || २७ ।। 

उवाच चैनां भगवान्‌ कश्यप: पुनरेव ह । 

धार्यतामप्रमादेन गर्भोड्यं सुमहोदय: ।। २८ ।। 

इतना कहकर भगवान्‌ कश्यपने पुनः विनतासे कहा--'देवि! यह गर्भ महान्‌ 
अभ्युदयकारी होगा, अतः इसे सावधानीसे धारण करो ।। २८ ।। 

एतौ सर्वपतत्त्रीणामिन्द्रत्वं कारयिष्यत: । 

लोकसम्भावितौ वीरी कामरूपौ विहंगमौ || २९ ।। 


“तुम्हारे ये दोनों पुत्र सम्पूर्ण पक्षियोंके इन्द्रपदका उपभोग करेंगे। स्वरूपसे पक्षी होते 
हुए भी इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ और लोक-सम्भावित वीर होंगे” || २९ ।। 

शतक्रतुमथोवाच प्रीयमाण: प्रजापति: । 

त्वत्सहायौ महावीर्यों भ्रातरौ ते भविष्यत: ।। ३० ।। 

नैताभ्यां भविता दोष: सकाशात्‌ ते पुरन्दर | 

व्येतु ते शक्र संतापस्त्वमेवेन्द्री भविष्यसि ।। ३१ ।। 

विनतासे ऐसा कहकर प्रसन्न हुए प्रजापतिने शतक्रतु इन्द्रसे कहा--'पुरन्दर! ये दोनों 
महापराक्रमी भ्राता तुम्हारे सहायक होंगे। तुम्हें इनसे कोई हानि नहीं होगी। इन्द्र! तुम्हारा 
संताप दूर हो जाना चाहिये। देवताओं के इन्द्र तुम्हीं बने रहोगे || ३०-३१ ।। 

न चाप्येवं त्वया भूय: क्षेप्तव्या ब्रह्म॒वादिन: । 

न चावमान्या दर्पात्‌ ते वाग्वज़्ा भूशकोपना: ।। ३२ ।। 

“एक बात ध्यान रखना--आजसे फिर कभी तुम घमंडमें आकर ब्रह्मवादी 
महात्माओंका उपहास और अपमान न करना; क्योंकि उनके पास वाणीरूप अमोघ वच् है 
तथा वे तीक्ष्ण कोपवाले होते हैं! || ३२ ।। 

एवमुक्तो जगामेन्द्रो निर्विशड्कस्त्रिविष्टपम्‌ 

विनता चापि सिद्धार्था बभूव मुदिता तथा ।। ३३ ।। 

कश्यपजीके ऐसा कहनेपर देवराज इन्द्र निःशंक होकर स्वर्गलोकमें चले गये। अपना 
मनोरथ सिद्ध होनेसे विनता भी बहुत प्रसन्न हुई || ३३ ।। 

जनयामास पुत्रौ द्वावरुणं गरुडं तथा । 

विकलाड्रो5रुणस्तत्र भास्करस्य पुर:सर: ।। ३४ ।। 

उसने दो पुत्र उत्पन्न किये--अरुण और गरुड। जिनके अंग कुछ अधूरे रह गये थे, वे 
अरुण कहलाते हैं, वे ही सूर्यदेवके सारथि बनकर उनके आगे-आगे चलते हैं ।। ३४ ।। 

पतत्त्रीणां च गरुडमिन्द्रत्वेनाभ्यषिज्चत । 

तस्यैतत्‌ कर्म सुमहच्छूयतां भूगुनन्दन ।। ३५ ।। 

भृगुनन्दन! दूसरे पुत्र गरुडका पक्षियोंके इन्द्र-यदपर अभिषेक किया गया। अब तुम 
गरुडका यह महान्‌ पराक्रम सुनो ।। ३५ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकत्रिंशो5ध्याय: ।। ३१ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपवर्में गरुडचरित्र विषयक इकतीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ३१ ॥ 


पम्प छा अर: अं 


द्वात्रिेशोड्थध्याय: 


गरुडका देवताओंके साथ युद्ध और देवताओंकी पराजय 


सौतिरुवाच 


ततस्तस्मिन्‌ द्विजश्रेष्ठ समुदीर्णे तथाविधे । 

गरुड: पक्षिराट्‌ तूर्ण सम्प्राप्तो विबुधान्‌ प्रति ॥। १ ।। 

त॑ दृष्टवातिबलं चैव प्राकम्पन्त सुरास्तत: । 

परस्परं च प्रत्यघ्नन्‌ सर्वप्रहरणान्युत ।। २ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--द्विजश्रेष्ठ!] देवताओंका समुदाय जब इस प्रकार भाँति-भाँतिके 
अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न हो युद्धके लिये उद्यत हो गया, उसी समय पक्षिराज गरुड तुरंत ही 
देवताओंके पास जा पहुँचे। उन अत्यन्त बलवान्‌ गरुडको देखकर सम्पूर्ण देवता काँप उठे। 
उनके सभी आयुध आपसमें ही आघात-प्रत्याघात करने लगे ।। १-२ ।। 

तत्र चासीदमेयात्मा विद्युदग्निसमप्रभ: । 

भौमन: सुमहावीर्य: सोमस्य परिरक्षिता ।। ३ ।। 

वहाँ विद्युत्‌ एवं अग्निके समान तेजस्वी और महापराक्रमी अमेयात्मा भौमन 
(विश्वकर्मा) अमृतकी रक्षा कर रहे थे || ३ ।। 

स तेन पतगेन्द्रेण पक्षतुण्डनखक्षत: । 

मुहूर्तमतुलं युद्ध कृत्वा विनिहतो युधि ।। ४ ।। 

वे पक्षिराजके साथ दो घड़ीतक अनुपम युद्ध करके उनके पंख, चोंच और नखोंसे 
घायल हो उस रणांगणमें मृतकतुल्य हो गये ।। ४ ।। 

रजश्नलोद्धूय सुमहत्‌ पक्षवातेन खेचर: । 

कृत्वा लोकान्‌ निरालोकांस्तेन देवानवाकिरत्‌ ।। ५ ।। 

तदनन्तर पक्षिराजने अपने पंखोंकी प्रचण्ड वायुसे बहुत धूल उड़ाकर समस्त लोकोंमें 
अन्धकार फैला दिया और उसी धूलसे देवताओंको ढक दिया ।। ५ ।। 

तेनावकीर्णा रजसा देवा मोहमुपागमन्‌ । 

न चैवं ददृशुश्छन्ना रजसामृतरक्षिण: ।। ६ ।। 

उस धूलसे आच्छादित होकर देवता मोहित हो गये। अमृतकी रक्षा करनेवाले देवता भी 
इसी प्रकार धूलसे ढक जानेके कारण कुछ देख नहीं पाते थे || ६ ।। 

एवं संलोडयामास गरुडस्त्रिदिवालयम्‌ । 

पक्षतुण्डप्रहारैस्तु देवान्‌ स विददार ह । ७ ।। 

इस तरह गरुडने स्वर्गलोकको व्याकुल कर दिया और पंखों तथा चोंचोंकी मारसे 
देवताओंका अंग-अंग विदीर्ण कर डाला ।। ७ || 


ततो देव: सहस्राक्षस्तूर्ण वायुमचोदयत्‌ । 

विक्षिपेमां रजोवृष्टिं तवेदं कर्म मारुत ।। ८ ।। 

तब सहस नेत्रोंवाले इन्द्रदेवने तुरंत ही वायुको आज्ञा दी--“मारुत! तुम इस धूलकी 
वृष्टिको दूर हटा दो; क्योंकि यह काम तुम्हारे ही वशका है” ।। ८ ।। 

अथ वायुरपोवाह तद्‌ रजस्तरसा बली । 

ततो वितिमिरे जाते देवा: शकुनिमार्दयन्‌ ।। ९ ।। 

तब बलवान वायुदेवने बड़े वेगसे उस धूलको दूर उड़ा दिया। इससे वहाँ फैला हुआ 
अन्धकार दूर हो गया। अब देवता अपने अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा पक्षी गरुडको पीडित करने 
लगे ।। ९ |। 

ननादोच्चै: स बलवान्‌ महामेघ इवाम्बरे | 

वध्यमान: सुरगणै: सर्वभूतानि भीषयन्‌ ।। १० ।। 

देवताओंके प्रहारको सहते हुए महाबली गरुड आकाशमें छाये हुए महामेघकी भाँति 
समस्त प्राणियोंको डराते हुए जोर-जोरसे गर्जना करने लगे ।। १० ।। 

उत्पपात महावीर्य: पक्षिराट्‌ परवीरहा । 

समुत्पत्यान्तरिक्षस्थं देवानामुपरि स्थितम्‌ ।। ११ ।। 

वर्मिणो विबुधा: सर्वे नानाशस्त्रैरवाकिरन्‌ । 

पट्टिशै: परिघै: शूलैर्गदाभिश्व सवासवा: ।। १२ || 

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पक्षिराज बड़े पराक्रमी थे। वे आकाशमें बहुत ऊँचे उड़ 
गये। उड़कर अन्तरिक्षमें देवताओंके ऊपर (ठीक सिरकी सीधमें) खड़े हो गये। उस समय 
कवच धारण किये इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उनपर पट्टिश, परिघ, शूल और गदा आदि नाना 
प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा प्रहार करने लगे || ११-१२ ।। 

क्षुरप्रैज्वलितैश्वापि चक्रैरादित्यरूपिभि: । 

नानाशस्त्रविसर्गैस्तैर्वध्यमान: समन्ततः ।। १३ ।। 

अग्निके समान प्रज्वलित क्षुरप्र, सूर्यके समान उद्धासित होनेवाले चक्र तथा नाना 
प्रकारके दूसरे-दूसरे शस्त्रोंके प्रहारद्वारा उनपर सब ओरसे मार पड़ रही थी ।। १३ ।। 

कुर्वन्‌ सुतुमुलं युद्ध पक्षिराण्न व्यकम्पत । 

निर्दह॒न्निव चाकाशे वैनतेय: प्रतापवान्‌ । 

पक्षाभ्यामुरसा चैव समन्ताद्‌ व्याक्षिपत्‌ सुरान्‌ ।। १४ ।। 

तो भी पक्षिराज गरुड देवताओंके साथ तुमुल युद्ध करते हुए तनिक भी विचलित न 
हुए। परम प्रतापी विनतानन्दन गरुडने, मानो देवताओंको दग्ध कर डालेंगे, इस प्रकार 
रोषमें भरकर आकाशमें खड़े-खड़े ही पंखों और छातीके धक्केसे उन सबको चारों ओर 
मार गिराया ।। १४ ।। 

ते विक्षिप्तास्ततो देवा दुद्र॒ुव॒र्गरुडार्दिता: । 


नखतुण्डक्षताश्वैव सुख्ुवु: शोणितं बहु ।। १५ ।। 

गरुडसे पीड़ित और दूर फेंके गये देवता इधर-उधर भागने लगे। उनके नखों और 
चोंचसे क्षत-विक्षत हो वे अपने अंगोंसे बहुत-सा रक्त बहाने लगे ।। १५ ।। 

साध्या: प्राचीं सगन्धर्वा वसवो दक्षिणां दिशम्‌ । 

प्रजग्मु: सहिता रुद्रा: पतगेन्द्रप्रधर्षिता: ।। १६ ।। 

पक्षिराजसे पराजित हो साध्य और गन्धर्व पूर्व दिशाकी ओर भाग चले। वसुओं तथा 
रुद्रोंने दक्षिण दिशाकी शरण ली ॥। १६ ।। 

दिशं प्रतीचीमादित्या नासत्यावुत्तरां दिशम्‌ । 

मुहर्मुहुः प्रेक्षमाणा युध्यमाना महौजस: ।। १७ ।। 

आदित्यगण पश्चिम दिशाकी ओर भागे तथा अश्विनीकुमारोंने उत्तर दिशाका आश्रय 
लिया। ये महा-पराक्रमी योद्धा बार-बार पीछेकी ओर देखते हुए भाग रहे थे ।। १७ ।। 

अभश्रक्रन्देन वीरेण रेणुकेन च पक्षिराट्‌ । 

क्रथनेन च शूरेण तपनेन च खेचर: ।॥। १८ ।। 

उलूकश्चसनाभ्यां च निमेषेण च पक्षिराट्‌ । 

प्ररुजेन च संग्रामं चकार पुलिनेन च ।। १९ ।। 

इसके बाद आकाशचारी पक्षिराज गरुडने वीर अभश्वक्रन्द, रेणुक, शूरवीर क्रथन, तपन, 
उलूक, श्वसन, निमेष, प्ररुज तथा पुलिन--इन नौ यक्षोंके साथ युद्ध किया ।। १८-१९ ।। 

तान्‌ पक्षनखतुण्डाग्रैरभिनद्‌ विनतासुतः । 

युगान्तकाले संक़्रुद्ध/ पिनाकीव परंतप: ।। २० ।। 

शत्रुओंका दमन करनेवाले विनताकुमारने प्रलय-कालमें कुपित हुए पिनाकधारी रुद्रकी 
भाँति क्रोधमें भरकर उन सबको पंखों, नखों और चोंचके अग्रभागसे विदीर्ण कर 
डाला || २० || 

महाबला महोत्साहास्तेन ते बहुधा क्षता: । 

रेजुर भ्रधनप्रख्या रुधिरौघप्रवर्षिण: ।। २१ ।। 

वे सभी यक्ष बड़े बलवान्‌ और अत्यन्त उत्साही थे; उस युद्धमें गरुडद्वारा बार-बार 
क्षत-विक्षत होकर वे सूनकी धारा बहाते हुए बादलोंकी भाँति शोभा पा रहे थे || २१ ।। 

तान्‌ कृत्वा पतगश्रेष्ठ: सर्वनित्क्रान्तजीवितान्‌ | 

अतिक्रान्तो$मृतस्यार्थे सर्वतो5$ग्निमपश्यत ।। २२ ।। 

पक्षिराज उन सबके प्राण लेकर जब अमृत उठानेके लिये आगे बढ़े, तब उसके चारों 
ओर उन्होंने आग जलती देखी || २२ ।। 

आवृण्वानं महाज्वालमर्चिर्भि: सर्वतो<5म्बरम्‌ । 

दहन्तमिव तीक्ष्णांशुं चण्डवायुसमीरितम्‌ ।। २३ ।। 


वह आग अपनी लपटोंसे वहाँके समस्त आकाशको आवृत किये हुए थी। उससे बड़ी 
ऊँची ज्वालाएँ उठ रही थीं। वह सूर्यमण्डलकी भाँति दाह उत्पन्न करती और प्रचण्ड वायुसे 
प्रेरित हो अधिकाधिक प्रज्वलित होती रहती थी ।। २३ ।। 
ततो नवत्या नवतीर्मुखानां 
कृत्वा महात्मा गरुडस्तरस्वी । 
नदी: समापीय मुखैस्ततस्तै: 
सुशीघ्रमागम्य पुनर्जवेन ।। २४ ।। 
ज्वलन्तमग्निं तममित्रतापन: 
समास्तरत्पत्ररथो नदीभि: | 
ततः प्रचक्रे वपुरन्यदल्पं 
प्रवेष्ठकामो 5ग्निमभिप्रशाम्य ॥। २५ ।। 
तब वेगशाली महात्मा गरुडने अपने शरीरमें आठ हजार एक सौ मुख प्रकट करके 
उनके द्वारा नदियोंका जल पी लिया और पुनः बड़े वेगसे शीघ्रतापूर्वक वहाँ आकर उस 
जलती हुई आगपर वह सब जल उड़ेल दिया। इस प्रकार शत्रुओंको ताप देनेवाले पक्षवाहन 
गरुडने नदियोंके जलसे उस आगको बुझाकर अमृतके पास पहुँचनेकी इच्छासे एक दूसरा 
बहुत छोटा रूप धारण कर लिया || २४-२५ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे द्वात्रिंशो5ध्याय: ।। ३२ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ोा भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपवरमें गरुडचरित्रविषयक बत्तीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ३२ ॥ 


अपन का बछ। | अफ्-४#-राल जा 


त्रयस्त्रिंशो5 ध्याय: 


गरुडका अमृत लेकर लौटना, मार्गमें भगवान्‌ विष्णुसे वर 
पाना एवं उनपर इन्द्रके द्वारा वज्न-प्रहार 


सौतिरुवाच 


जाम्बूनदमयो भूत्वा मरीचिनिकरोज्ज्वलः । 

प्रविवेश बलात्‌ पक्षी वारिवेग इवार्णवम्‌ ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तदनन्तर जैसे जलका वेग समुद्रमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार 
पक्षिराज गरुड सूर्यकी किरणोंके समान प्रकाशमान सुवर्णमय स्वरूप धारण करके 
बलपूर्वक जहाँ अमृत था, उस स्थानमें घुस गये ।। १ ।। 

सचक्र क्षुरपर्यन्तमपश्यदमृतान्तिके । 

परिभ्रमन्तमनिशं तीक्ष्णधारमयस्मयम्‌ ।। २ ।। 

उन्होंने देखा, अमृतके निकट एक लोहेका चक्र घूम रहा है। उसके चारों ओर छुरे लगे 
हुए हैं। वह निरन्तर चलता रहता है और उसकी धार बड़ी तीखी है ।। २ ।। 

ज्वलनार्कप्रभं घोरं छेदन॑ं सोमहारिणाम्‌ | 

घोररूपं तदत्यर्थ यन्त्र देवैः सुनिर्मितम्‌ ।। ३ ।। 

वह घोर चक्र अग्नि और सूर्यके समान जाज्वल्यमान था। देवताओंने उस अत्यन्त 
भयंकर यन्त्रका निर्माण इसलिये किया था कि वह अमृत चुरानेके लिये आये हुए चोरोंके 
टुकड़े-टुकड़े कर डाले ।। ३ ।। 

तस्यान्तरं स दृष्टवैव पर्यवर्तत खेचर: । 

अरान्तरेणाभ्यपतत संक्षिप्याडुं क्षणेन ह ।। ४ ।। 

पक्षी गरुड उसके भीतरका छिद्र--उसमें घुसनेका मार्ग देखते हुए खड़े रहे। फिर एक 
क्षणमें ही वे अपने शरीरको संकुचित करके उस चक्रके अरोंके बीचसे होकर भीतर घुस 
गये ।। ४ ।। 

अधक्षक्रस्य चैवात्र दीप्तानलसमद्युती । 

विद्युज्जिल्नौ महावीर्यों दीप्तास्यां दीप्तलोचनौ || ५ ।। 

चक्षुविषौ महाघोरौ नित्यं क्रुद्धीं तरस्विनौ । 

रक्षार्थमेवामृतस्य ददर्श भुजगोत्तमौ ।। ६ ।। 

वहाँ चक्रके नीचे अमृतकी रक्षाके लिये ही दो श्रेष्ठ सर्प नियुक्त किये गये थे। उनकी 
कान्ति प्रज्वलित अग्निके समान जान पड़ती थी। बिजलीके समान उनकी लपलपाती हुई 
जीभें, देदीप्यमान मुख और चमकती हुई आँखें थीं। वे दोनों सर्प बड़े पराक्रमी थे। उनके 


नेत्रोमें ही विष भरा था। वे बड़े भयंकर, नित्य क्रोधी और अत्यन्त वेगशाली थे। गरुडने उन 
दोनोंको देखा || ५-६ |। 

सदा संरब्धनयनौ सदा चानिमिषेक्षणौ । 

तयोरेको<पि यं पश्येत्‌ स तूर्ण भस्मसाद्‌ भवेत्‌ ।। ७ ।। 

उनके नेत्रोंमें सदा क्रोध भरा रहता था। वे निरन्तर एकटक दृष्टिसे देखा करते थे 
(उनकी आँखें कभी बंद नहीं होती थीं)। उनमेंसे एक भी जिसे देख ले, वह तत्काल भस्म 
हो सकता था ।। ७ ।। 

तयोश्चक्षूंषि रजसा सुपर्ण: सहसावृणोत्‌ । 

ताभ्यामदृष्टरूपो सौ सर्वतः समताडयत्‌ ।॥। ८ ।। 

सुंदर पंखवाले गरुडजीने सहसा धूल झोंककर उनकी आँखें बंद कर दीं और उनसे 
अदृश्य रहकर ही वे सब ओरसे उन्हें मारने और कुचलने लगे ।। ८ ।। 

तयोरज्जे समाक्रम्य वैनतेयोन्तरिक्षग: । 

आच्छिनत्‌ तरसा मध्ये सोममभ्यद्रवत्‌ ततः ।। ९ ।। 

समुत्पाट्यामृतं तत्र वैनतेयस्ततो बली । 

उत्पपात जवेनैव यन्त्रमुन्मथ्य वीर्यवान्‌ ।। १० ।। 

आकाशकमें विचरनेवाले महापराक्रमी विनता-कुमारने वेगपूर्वक आक्रमण करके उन 
दोनों सर्पोके शरीरको बीचसे काट डाला; फिर वे अमृतकी ओर झपटे और चक्रको तोड़- 
फोड़कर अमृतके पात्रको उठाकर बड़ी तेजीके साथ वहाँसे उड़ चले ।। ९-१० ।। 

अपीत्वैवामृतं पक्षी परिगृह्माशु निःसृतः । 

आगच्छदपरिश्रान्त आवार्यार्कप्रभां ततः ।। ११ ।। 

उन्होंने स्वयं अमृतको नहीं पीया, केवल उसे लेकर शीघ्रतापूर्वक वहाँसे निकल गये 
और सूर्यकी प्रभाका तिरस्कार करते हुए बिना थकावटके चले आये ।। ११ ।। 

विष्णुना च तदाकाशे वैनतेय: समेयिवान्‌ । 

तस्य नारायणस्तुष्टस्तेनालौल्येन कर्मणा ।। १२ ।। 

उस समय आकाशमें विनतानन्दन गरुड़की भगवान्‌ विष्णुसे भेंट हो गयी। भगवान्‌ 
नारायण गरुडके लोलुपतारहित पराक्रमसे बहुत संतुष्ट हुए थे || १२ ।। 

तमुवाचाव्ययो देवो वरदो5स्मीति खेचरम्‌ । 

स वत्रे तव तिछेयमुपरीत्यन्तरिक्षग: ।। १३ ।। 

अतः उन अविनाशी भगवान्‌ विष्णुने आकाशचारी गरुडसे कहा--मैं तुम्हें वर देना 
चाहता हूँ।' अन्तरिक्षमें विचरनेवाले गरुडने यह वर माँगा--'प्रभो! मैं आपके ऊपर 
(थ्वजमें) स्थित होऊँ" ।। १३ ।। 

उवाच चैनं भूयो5पि नारायणमिदं वच: । 

अजरश्नामरश्न स्थाममृतेन विनाप्यहम्‌ ।। १४ ।। 


इतना कहकर वे भगवान्‌ नारायणसे फिर यों बोले--“भगवन्‌! मैं अमृत पीये बिना ही 
अजर-अमर हो जाऊँ' ।। १४ ।। 

एवमस्त्विति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम्‌ । 

प्रतिगृह्य वरो तौ च गरुडो विष्णुमब्रवीत्‌ ।। १५ ।। 

तब भगवान्‌ विष्णुने विनतानन्दन गरुडसे कहा--'एवमस्तु/--ऐसा ही हो। वे दोनों वर 
ग्रहण करके गरुडने भगवान्‌ विष्णुसे कहा-- ।। १५ ।। 

भवते<पि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपि | 

त॑ं वव्रे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम्‌ ।। १६ ।। 

“देव! मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ। भगवान्‌ भी कोई वर माँगें।” तब श्रीहरिने 
महाबली गरुत्मानसे अपना वाहन होनेका वर माँगा ।। १६ ।। 

ध्वजं च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम्‌ | 

एवमस्त्विति तं देवमुक्त्वा नारायणं खग: ।। १७ ।। 

वव्राज तरसा वेगाद्‌ वायुं स्पर्थनू महाजव: । 

तं व्रजन्तं खगश्रेष्ठं वज्रेणेन्द्रो5भ्यताडयत्‌ ।। १८ ।। 

हरन्तममृतं रोषाद्‌ गरुडं पक्षिणां वरम्‌ | 

भगवान्‌ विष्णुने गरुडको अपना ध्वज बना लिया--उन्हें ध्वजके ऊपर स्थान दिया 
और कहा--'इस प्रकार तुम मेरे ऊपर रहोगे।' तदनन्तर उन भगवान्‌ नारायणसे “एवमस्तु' 
कहकर पक्षी गरुड वहाँसे वेग-पूर्वक चले गये। महान्‌ वेगशाली गरुड उस समय वायुसे 
होड़ लगाते चल रहे थे। पक्षियोंके सरदार उन खगश्रेष्ठ गरडको अमृतका अपहरण करके 
लिये जाते देख इन्द्रने रोषमें भरकर उनके ऊपर वज़से आघात किया ।। १७-१८ ३ ।। 

तमुवाचेन्द्रमाक्रन्दे गरूड: पततां वर: ।। १९ ।। 

प्रहसउश्लक्षणया वाचा तथा वज़्समाहत: । 

ऋषेर्मान करिष्यामि वज् यस्यास्थिसम्भवम्‌ ।। २० ।। 

वज्ञस्थ च करिष्यामि तवैव च शतक्रतो । 

एतत्‌ पत्र त्यजाम्येकं॑ यस्यान्तं नोपलप्स्यसे || २१ ।। 

विहंगप्रवर गरुडने उस युद्धमें वज्जाहत होकर भी हँसते हुए मधुर वाणीमें इन्द्रसे कहा 
--'देवराज! जिनकी हड्डीसे यह वज्र बना है, उन महर्षिका सम्मान मैं अवश्य करूँगा। 
शतक्रतो! ऋषिके साथ-साथ तुम्हारा और तुम्हारे वज़का भी आदर करूँगा; इसीलिये मैं 
अपनी एक पाँख, जिसका तुम कहीं अन्त नहीं पा सकोगे, त्याग देता हूँ || १९--२१ ।। 

न च वज्ननिपातेन रुजा मे5स्तीह काचन । 

एवमुक्‍क्त्वा ततः पत्रमुत्ससर्ज स पक्षिराट्‌ । २२ ।। 

“तुम्हारे वज्ञके प्रहारसे मेरे शरीरमें कुछ भी पीड़ा नहीं हुई है।" ऐसा कहकर पक्षिराजने 
अपना एक पंख गिरा दिया ।। २२ ।। 


तदुत्सृष्टमभिप्रेक्ष्य तस्य पर्णमनुत्तमम्‌ । 

हृष्टानि सर्वभूतानि नाम चक्रुर्गरुत्मत: ।। २३ ।। 

उस गिरे हुए परम उत्तम पंखको देखकर सब प्राणियोंको बड़ा हर्ष हुआ और उसीके 
आधारपर उन्होंने गरुडका नामकरण किया ।। २३ ।। 

सुरूप॑ पत्रमालक्ष्य सुपर्णोडयं भवत्विति । 

तद्‌ दृष्टवा महदाश्चर्य सहस्राक्ष: पुरन्दर: । 

खगो महदिदं भूतमिति मत्वाभ्यभाषत ।। २४ ।। 

वह सुन्दर पाँख देखकर लोगोंने कहा--'जिसका यह सुन्दर पर्ण (पंख) है, वह पक्षी 
सुपर्ण नामसे विख्यात हो।' (गरुडपर वज्र भी निष्फल हो गया) यह महान्‌ आश्वर्यकी बात 
देखकर सहसू नेत्रोंवाले इन्द्रने मन-ही-मन विचार किया--अहो! यह पक्षीरूपमें कोई महान्‌ 
प्राणी है, ऐसा सोचकर उन्होंने कहा ।। २४ ।। 

शक्र उवाच 


बल॑ विज्ञातुमिच्छामि यत्‌ ते परमनुत्तमम्‌ | 

सख्यं चानन्तमिच्छामि त्वया सह खगोत्तम ।। २५ ।। 

इन्द्रने कहा--विहंगप्रवर! मैं तुम्हारे सर्वोत्तम उत्कृष्ट बलको जानना चाहता हूँ और 
तुम्हारे साथ ऐसी मैत्री स्थापित करना चाहता हूँ, जिसका कभी अन्त न हो || २५ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयस्त्रिंशो5ध्याय: ।। ३३ ।॥ 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपवर्में गरुडचरित्रविषयक तैंतीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३ ॥ 


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चतुस्त्रिंशो 5 ध्याय: 


इन्द्र और गरुडकी मित्रता, कस पक लेकर नागोंके 
पास आना और विनताको दासी छुड़ाना तथा 
इन्द्रद्ारा अमृतका अपहरण 
गरुड उवाच 


सख्यं मे<स्तु त्वया देव यथेच्छसि पुरन्दर । 

बल॑ तु मम जानीहि महच्चासह[मेव च ।। १ ।। 

गरुडने कहा--देव पुरन्दर! जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार तुम्हारे साथ (मेरी) 
मित्रता स्थापित हो। मेरा बल भी जान लो, वह महान्‌ और असहा है ।। १ ।। 

काम नैतत्‌ प्रशंसन्ति सन्त: स्वबलसंस्तवम्‌ । 

गुणसंकीर्तनं चापि स्वयमेव शतक्रतो ।॥। २ ।। 

शतक्रतो! साधु पुरुष स्वेच्छासे अपने बलकी स्तुति और अपने ही मुखसे अपने 
गुणोंका बखान अच्छा नहीं मानते || २ ।। 

सखेति कृत्वा तु सखे पृष्टो वक्ष्याम्यहं त्वया | 

न हाात्मस्तवसंयुक्तं वक्तव्यमनिमित्तत: ।। ३ ।। 

किंतु सखे! तुमने मित्र मानकर पूछा है, इसलिये मैं बता रहा हूँ; क्योंकि अकारण ही 
अपनी प्रशंसासे भरी हुई बात नहीं कहनी चाहिये (किंतु किसी मित्रके पूछनेपर सच्ची बात 
कहनेमें कोई हर्ज नहीं है।) ।। ३ ।। 

सपर्वतवनामुर्वीं ससागरजलामिमाम्‌ । 

वहे पक्षेण वै शक्र त्वामप्यत्रावलम्बिनम्‌ । ४ ।। 

इन्द्र! पर्वत, वन और समुद्रके जलसहित सारी पृथ्वीको तथा इसके ऊपर रहनेवाले 
आपको भी अपने एक पंखपर उठाकर मैं बिना परिश्रमके उड़ सकता हूँ ।। ४ ।। 

सर्वान्‌ सम्पिण्डितान्‌ वापि लोकान्‌ सस्थाणुजड़मान्‌ | 

वहेयमपरिश्रान्तो विद्धीदं मे महद्‌ बलम्‌ ।। ५ ।। 

अथवा सम्पूर्ण चराचर लोकोंको एकत्र करके यदि मेरे ऊपर रख दिया जाय तो मैं 
सबको बिना परिश्रमके ढो सकता हूँ। इससे तुम मेरे महान्‌ बलको समझ लो ।। ५ |। 

सौतिर्वाच 

इत्युक्तवचनं वीरं किरीटी श्रीमतां वर: । 

आह शौनक देवेन्द्र: सर्वलोकहित: प्रभु: ।॥ ६ ।। 

एवमेव यथात्थ त्वं सर्व सम्भाव्यते त्वयि | 


संगृह्मतामिदानीं मे सख्यमत्यन्तमुत्तमम्‌ ।। ७ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! वीरवर गरुडके इस प्रकार कहनेपर श्रीमानोंमें श्रेष्ठ 
किरीटधारी सर्वलोक-हितकारी भगवान्‌ देवेन्द्रने कहा--“मित्र! तुम जैसा कहते हो, वैसी ही 
बात है। तुममें सब कुछ सम्भव है। इस समय मेरी अत्यन्त उत्तम मित्रता स्वीकार 
करो ।। ६-७ ।। 

न कार्य यदि सोमेन मम सोम: प्रदीयताम्‌ । 

अस्मांस्ते हि प्रबाधेयुरय्येभ्यो दद्याद्‌ भवानिमम्‌ ।। ८ ।। 

“यदि तुम्हें स्वयं अमृतकी आवश्यकता नहीं है तो वह मुझे वापस दे दो। तुम जिनको 
यह अमृत देना चाहते हो, वे इसे पीकर हमें कष्ट पहुँचावेंगे” || ८ ।। 

गरुड उवाच 


किंचित्‌ कारणमुद्दिश्य सोमो5यं नीयते मया । 

न दास्यामि समादातुं सोमं कस्मैचिदप्यहम्‌ ।। ९ ।। 

यत्रेमं तु सहस्राक्ष निक्षिपेयमहं स्वयम्‌ | 

त्वमादाय तततस्तूर्ण हरेथास्त्रिदिवेश्वर ।। १० ।। 

गरुडने कहा--स्वर्गके सम्राट्‌ सहस्राक्ष! किसी कारणवश मैं यह अमृत ले जाता हूँ। 
इसे किसीको भी पीनेके लिये नहीं दूँगा। मैं स्वयं जहाँ इसे रख दूँ, वहाँसे तुरंत तुम उठा ले 
जा सकते हो ।। ९-१० || 

शक्र उवाच 


वाक्येनानेन तुष्टो5हं यत्‌ त्वयोक्तमिहाण्डज । 

यमिच्छसि वरं मत्तस्तं गृहाण खगोत्तम || ११ ।। 

इन्द्र बोले--पक्षिराज! तुमने यहाँ जो बात कही है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। खगगश्रेष्ठ! 
तुम मुझसे जो चाहो, वर माँग लो || ११ ।। 

सौतिर्वाच 

इत्युक्त: प्रत्युवाचेदं कद्रपुत्राननुस्मरन्‌ । 

स्मृत्वा चैवोपधिकृतं मातुर्दास्यनिमित्तत: ।। १२ ।। 

ईशो5हमपि सर्वस्य करिष्यामि तु तेडर्थिताम्‌ । 

भवेयुर्भुजगा: शक्र मम भक्ष्या महाबला: ।। १३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--इन्द्रके ऐसा कहनेपर गरुडको कद्रुपुत्रोंकी दुष्टताका स्मरण हो 
आया। साथ ही उनके उस कपटपूर्ण बर्तावकी भी याद आ गयी, जो माताको दासी बनानेमें 
कारण था। अतः उन्होंने इन्द्रसे कहा--“इन्द्र! यद्यपि मैं सब कुछ करनेमें समर्थ हूँ, तो भी 
तुम्हारी इस याचनाको पूर्ण करूँगा कि अमृत दूसरोंको न दिया जाय। साथ ही तुम्हारे 


कथनानुसार यह वर भी माँगता हूँ कि महाबली सर्प मेरे भोजनकी सामग्री हो 
जाये! ।। १२-१३ ।। 

तथेत्युक्त्वान्वगच्छत्‌ त॑ं ततो दानवसूदन: । 

देवदेवं महात्मानं योगिनामी श्वरं हरिम्‌ ।। १४ ।। 

तब दानवशत्रु इन्द्र “तथास्तु” कहकर योगीश्वर देवाधिदेव परमात्मा श्रीहरिके पास 
गये ।। १४ ।। 

स चान्वमोदत््‌ त॑ चार्थ यथोक्तं गरुडेन वै | 

इदं भूयो वचः प्राह भगवांस्त्रिदशेश्वर: ।। १५ ।। 

हरिष्यामि विनिक्षिप्तं सोममित्यनुभाष्य तम्‌ । 

आजगाम ततत्तूर्ण सुपर्णो मातुरन्तिकम्‌ ।। १६ ।। 

श्रीहरिने भी गरुडकी कही हुई बातका अनुमोदन किया। तदनन्तर स्वर्गलोकके स्वामी 
भगवान्‌ इन्द्र पुन गरुडको सम्बोधित करके इस प्रकार बोले--'तुम जिस समय इस 
अमृतको कहीं रख दोगे उसी समय मैं इसे हर ले आऊँगा' (ऐसा कहकर इन्द्र चले गये)। 
फिर सुन्दर पंखवाले गरुड तुरंत ही अपनी माताके समीप आ पहुँचे ।। १५-१६ ।। 

अथ सर्पनिवाचेदं सर्वान्‌ परमहृष्टवत्‌ 

इदमानीतममृतं निक्षेप्स्यामि कुशेषु व: ।। १७ ।। 

सस्‍्नाता मंगलसंयुक्तास्ततः प्राश्नीत पन्नगा: । 

भवद्धिरिदमासीनैर्यदुक्त तद्बघचस्तदा || १८ ।। 

अदासी चैव मातेयमद्यप्रभृति चास्तु मे । 

यथोक्त भवतामेतद्‌ वचो मे प्रतिपादितम्‌ ।। १९ |। 

तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न-से होकर वे समस्त सर्पोंसे इस प्रकार बोले--'पन्नगो! मैंने 
तुम्हारे लिये यह अमृत ला दिया है। इसे कुशोंपर रख देता हूँ। तुम सब लोग स्नान और 
मंगल-कर्म (स्वस्ति-वाचन आदि) करके इस अमृतका पान करो। अमृतके लिये भेजते 
समय तुमने यहाँ बैठकर मुझसे जो बातें कही थीं, उनके अनुसार आजसे मेरी ये माता 
दासीपनसे मुक्त हो जाये; क्योंकि तुमने मेरे लिये जो काम बताया था, उसे मैंने पूर्ण कर 
दिया है” || १७--१९ || 

ततः स्नातुं गता: सर्पा: प्रत्युक्त्वा तं तथेत्युत । 

शक्रो5प्यमृतमाक्षिप्य जगाम त्रिदिवं पुन: ।। २० ।। 

तब सर्पगण “तथास्तु' कहकर स्नानके लिये गये। इसी बीचमें इन्द्र वह अमृत लेकर 
पुनः स्वर्गलोकको चले गये ।। २० ।। 

अथागतास्तमुददेशं सर्पा: सोमार्थिनस्तदा । 

सस्‍्नाताश्न कृतजप्याश्च प्रह्ष्ा: कृतमंगला: ।। २१ ।। 

यत्रैतदमृतं चापि स्थापितं कुशसंस्तरे । 


तद्‌ विज्ञाय हृतं सर्पा: प्रतिमायाकृतं च तत्‌ ।। २२ ।। 
इसके अनन्तर अमृत पीनेकी इच्छावाले सर्प स्नान, जप और मंगल-कार्य करके 
प्रसन्नतापूर्वक उस स्थानपर आये, जहाँ कुशके आसनपर अमृत रखा गया था। आनेपर 
उन्हें मालूम हुआ कि कोई उसे हर ले गया। तब सर्पोने यह सोचकर संतोष किया कि यह 
हमारे कपटपूर्ण बर्तावका बदला है || २१-२२ ।। 
सोमस्थानमिदं चेति दर्भास्ते लिलिहुस्तदा । 
ततो द्विधाकृता जिद्दा: सर्पाणां तेन कर्मणा ॥। २३ ।। 
फिर यह समझकर कि यहाँ अमृत रखा गया था, इसलिये सम्भव है इसमें उसका कुछ 
अंश लगा हो, सर्पोने उस समय कुशोंको चाटना शुरू किया। ऐसा करनेसे सर्पोंकी जीभके 
दो भाग हो गये ।। २३ ।। 
अभवंश्वामृतस्पर्शाद्‌ दर्भास्ते5थ पवित्रिण: । 
एवं तदमृतं तेन हृतमाह्तमेव च । 
द्विजिद्वाश्व कृता: सर्पा गरुडेन महात्मना ।। २४ ।। 
तभीसे पवित्र अमृतका स्पर्श होनेके कारण कुशोंकी “पवित्री” संज्ञा हो गयी। इस 
प्रकार महात्मा गरुडने देवलोकसे अमृतका अपहरण किया और सर्पोंके समीपतक उसे 
पहुँचाया; साथ ही सपोंको द्विजिद्द (दो जिह्वाओंसे युक्त) बना दिया || २४ ।। 
ततः सुपर्ण: परमप्रहर्षवान्‌ 
विह्ृृत्य मात्रा सह तत्र कानने | 
भुजड़भक्ष: परमार्चित: खगै- 
रहीनकीर्तिविनितामनन्दयत्‌ ।। २५ || 
उस दिनसे सुन्दर पंखवाले गरुड अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी माताके साथ रहकर वहाँ 
वनमें इच्छानुसार घूमने-फिरने लगे। वे सर्पोंको खाते और पक्षियोंसे सादर सम्मानित होकर 
अपनी उज्ज्वल कीर्ति चारों ओर फैलाते हुए माता विनताको आनन्द देने लगे | २५ ।। 
इमां कथां य: शृणुयान्नर: सदा 
पठेत वा द्विजगणमुख्यसंसदि । 
असंशयं त्रिदिवमियात्‌ स पुण्यभाक्‌ 
महात्मन: पतगपते: प्रकीर्तनात्‌ ।। २६ ।। 
जो मनुष्य इस कथाको श्रेष्ठ द्विजोंकी उत्तम गोष्ठीमें सदा पढ़ता अथवा सुनता है, वह 
पक्षिराज महात्मा गरुडके गुणोंका गान करनेसे पुण्यका भागी होकर निश्चय ही स्वर्गलोकमें 
जाता है || २६ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे चतुस्त्रिंशो 5ध्याय: || ३४ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपवर्में गरुडचरित्रविषयक चौतीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ३४ ॥ 


ऑपन--माजल छा जि 


पज्चत्रिशो< ध्याय: 
मुख्य-मुख्य नागोंके नाम 


शौनक उवाच 


भुजजड़मानां शापस्य मात्रा चैव सुतेन च । 

विनतायास्त्वया प्रोक्ते कारणं सूतनन्दन ।। १ ।। 

शौनकजीने कहा--सूतनन्दन! सर्पोको उनकी मातासे और विनता देवीको उनके 
पुत्रसे जो शाप प्राप्त हुआ था, उसका कारण आपने बता दिया ।। १ || 

वरप्रदानं भर्त्रां च कद्रूविनतयोस्तथा । 

नामनी चैव ते प्रोक्ते पक्षिणोर्वैनतेययो: ।। २ ।। 

कद्ू और विनताको उनके पति कश्यपजीसे जो वर मिले थे, वह कथा भी कह सुनायी 
तथा विनताके जो दोनों पुत्र पक्षीरूपमें प्रकट हुए थे, उनके नाम भी आपने बताये 
हैं ।। २ ।। 

पन्नगानां तु नामानि न कीर्तयसि सूतज । 

प्राधान्येनापि नामानि श्रोतुमिच्छामहे वयम्‌ ।। ३ ।। 

किंतु सूतपुत्र! आप सर्पोके नाम नहीं बता रहे हैं। यदि सबका नाम बताना सम्भव न 
हो, तो उनमें जो मुख्य-मुख्य सर्प हैं, उन्हींके नाम हम सुनना चाहते हैं ।। ३ ।। 

सौतिर्वाच 


बहुत्वान्नामधेयानि पन्नगानां तपोधन । 

न कीर्तयिष्ये सर्वेषां प्राधान्येन तु मे शृूणु || ४ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--तपोधन! सर्पोंकी संख्या बहुत है; अतः उन सबके नाम तो नहीं 
कहूँगा, किंतु उनमें जो मुख्य-मुख्य सर्प हैं, उनके नाम मुझसे सुनिये ।। ४ ।। 

शेष: प्रथमतो जातो वासुकिस्तदनन्तरम्‌ । 

ऐरावतस्तक्षकक्ष कर्कोटकधनंजयौ ।। ५ ।। 

कालियो मणिनागश्न नागश्चापूरणस्तथा । 

नागस्तथा पिज्जरक एलापत्रो5थ वामन: ।। ६ ।। 

नीलानीलौ तथा नागौ कल्माषशबलौ तथा । 

आर्यकश्षोग्रकश्नैव नागः कलशपोतक: ।। ७ ।। 

सुमनाख्यो दघधिमुखस्तथा विमलपिण्डक: । 

आप्त: कर्कोटकश्नैव शड्खो वालिशिखस्तथा ।। ८ ।। 

निष्टानको हेमगुहो नहुषः पिड्जलस्तथा । 


बाहुकर्णो हस्तिपदस्तथा मुद्गरपिण्डक: ।। ९ |। 

कम्बलाश्वतरौ चापि नाग: कालीयकस्तथा । 

वृत्तसंवर्तकौ नागौ द्वौ च पद्माविति श्रुती || १० ।। 

नाग: शड्खमुखश्नैव तथा कूष्माण्डको5पर: । 

क्षेमकश्न तथा नागो नाग: पिण्डारकस्तथा ।। १३ || 

करवीर: पुष्पदंष्टो बिल्वको बिल्वपाण्डुर: । 

मूषकाद: शड्खशिरा: पूर्णभद्रो हरिद्रक: ।। १२ ।। 

अपराजितो ज्योतिकश्न पन्नग: श्रीवहस्तथा । 

कौरव्यो धृतराष्ट्रश्न शड्खपिण्डश्न वीर्यवान्‌ ।। १३ ।। 

विरजाश्व सुबाहुश्चन शालिपिण्डश्व वीर्यवान्‌ । 

हस्तिपिण्ड: पिठरक: सुमुख: कौणपाशन: ।। १४ ।। 

कुठर: कुज्जरश्नैव तथा नाग: प्रभाकर: । 

कुमुद: कुमुदाक्षश्न तित्तिरिहलिकस्तथा ।। १५ ।। 

कर्दमश्व महानागो नागश्न बहुमूलक: । 

कर्कराकर्करौ नागौ कुण्डोदरमहोदरौ ।। १६ ।। 

नागोंमें सबसे पहले शेषजी प्रकट हुए हैं। तदनन्तर वासुकि, ऐरावत, तक्षक, कर्कोटक, 
धनंजय, कालिय, मणिनाग, आपूरण, पिंजरक, एलापत्र, वामन, नील, अनील, कल्माष, 
शबल, आर्यक, उग्रक, कलशपोतक, सुमनाख्य, दधिमुख, विमलपिण्डक, आप्त, कर्कोटक 
(द्वितीय), शंख, वालिशिख, निष्टानक, हेमगुह, नहुष, पिंगल, बाह्कर्ण, हस्तिपद, 
मुद्गरपिण्डक, कम्बल, अश्वतर, कालीयक, वृत्त, संवर्तक, पद्म (प्रथम), पद्म (द्वितीय), 
शंखमुख, कूष्माण्डक, क्षेमक, पिण्डारक, करवीर, पुष्पदंष्ट, बिल्वक, बिल्वपाण्डुर, 
मूषकाद, शंखशिरा, पूर्णभद्र, हरिद्रक, अपराजित, ज्योतिक, श्रीवह, कौरव्य, धृतराष्ट्र, 
पराक्रमी शंखपिण्ड, विरजा, सुबाहु, वीर्यवान्‌ शालिपिण्ड, हस्तिपिण्ड, पिठरक, सुमुख, 
कौणपाशन, कुठर, कुंजर, प्रभाकर, कुमुद, कुमुदाक्ष, तित्तिरे, हलिक, महानाग कर्दम, 
बहुमूलक, कर्कर, अकर्कर, कुण्डोदर और महोदर--ये नाग उत्पन्न हुए || ५--१६ ।। 

एते प्राधान्यतो नागा: कीर्तिता द्विजसत्तम । 

बहुत्वान्नामधेयानामितरे नानुकीर्तिता: ।। १७ ।। 

द्विजश्रेष्ठ! ये मुख्य-मुख्य नाग यहाँ बताये गये हैं। सर्पोंकी संख्या अधिक होनेसे उनके 
नाम भी बहुत हैं। अत: अन्य अप्रधान नागोंके नाम यहाँ नहीं कहे गये हैं || १७ ।। 

एतेषां प्रसवो यश्न प्रसवस्य च संतति: । 

असंख्येयेति मत्वा तान्‌ न ब्रवीमि तपोधन ।। १८ ।। 

तपोधन! इन नागोंकी संतान तथा उन संतानोंकी भी संतति असंख्य हैं। ऐसा 
समझकर उनके नाम मैं नहीं कहता हूँ || १८ ।। 


बहूनीह सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च । 

अशक्यान्येव संख्यातुं पन्नगानां तपोधन ।। १९ ।। 

तपस्वी शौनकजी! नागोंकी संख्या यहाँ कई हजारोंसे लेकर लाखों-अरबोंतक पहुँच 
जाती है। अत: उनकी गणना नहीं की जा सकती है ।। १९ |। 
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पनामकथने पज्चत्रिंशो5ध्याय: ।। 

३५ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पनामकथनविषयक 
पैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३५ ॥ 


अपन क्ाता बछ। अकाल 


षट्त्रिशो5ध्याय: 


शेषनागकी तपस्या, ब्रह्माजीसे वर-प्राप्ति तथा पृथ्वीको 
सिरपर धारण करना 


शौनक उवाच 


आखू॒याता भुजगास्तात वीर्यवन्तो दुरासदा: । 

शापं तं तेडभिविज्ञाय कृतवन्तः किमुत्तरम्‌ ।। १ ।। 

शौनकजीने पूछा--तात सूतनन्दन! आपने महापराक्रमी और दुर्धर्ष नागोंका वर्णन 
किया। अब यह बताइये कि माता कद्रूके उस शापकी बात मालूम हो जानेपर उन्होंने उसके 
निवारणके लिये आगे चलकर कौन-सा कार्य किया? ।। १ ॥। 


सौतिरुवाच 


तेषां तु भगवाउ्च्छेष: कद्रू त्यक्त्वा महायशा: । 

उग्र॑ तप: समातस्थे वायुभक्षो यतव्रत: ।। २ ॥। 

उग्रश्रवाजीने कहा--शौनक! उन नागोंमेंसे महा-यशस्वी भगवान्‌ शेषनागने कद्रूका 
साथ छोड़कर कठोर तपस्या प्रारम्भ की। वे केवल वायु पीकर रहते और संयमपूर्वक व्रतका 
पालन करते थे ।। २ ।। 

गन्धमादनमासाद्य बदर्या च तपोरत: । 

गोकर्णे पुष्करारण्ये तथा हिमवतस्तटे ।। ३ ।। 

तेषु तेषु च पुण्येषु तीर्थेष्वायतनेषु च । 

एकान्तशीलो नियत: सततं विजितेन्द्रिय: ॥॥ ४ ।। 

अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके सदा नियमपूर्वक रहते हुए शेषजी गन्धमादन पर्वतपर 
जाकर बदरिकाश्रम तीर्थमें तप करने लगे। तत्पश्चात्‌ गोकर्ण, पुष्कर, हिमालयके तटवर्ती 
प्रदेश तथा भिन्न-भिन्न पुण्य-तीर्थों और देवालयोंमें जा-जाकर संयम-नियमके साथ 
एकान्तवास करने लगे ।। ३-४ ।। 

तप्यमानं तपो घोरं त॑ ददर्श पितामह: । 

संशुष्कमांसत्वक्स्नायुं जटाचीरधरं मुनिम्‌ ।। ५ ।। 

तमब्रवीत्‌ सत्यधृतिं तप्यमानं पितामह: । 

किमिदं कुरुषे शेष प्रजानां स्वस्ति वै कुरु ।। ६ ।। 

ब्रह्माजीने देखा, शेषनाग घोर तप कर रहे हैं। उनके शरीरका मांस, त्वचा और नाड़ियाँ 
सूख गयी हैं। वे सिरपर जटा और शरीरपर वल्कल वस्त्र धारण किये मुनिवृत्तिसे रहते हैं। 


उनमें सच्चा धैर्य है और वे निरन्तर तपमें संलग्न हैं। यह सब देखकर ब्रह्माजी उनके पास 
आये और बोले--'शेष! तुम यह क्या कर रहे हो? समस्त प्रजाका कल्याण करो ।। ५-६ ।। 
त्वं हि तीव्रेण तपसा प्रजास्तापयसेडनघ । 
ब्रूहि कामं च मे शेष यस्ते हृदि व्यवस्थित: ।। ७ ।। 
“अनघ! इस तीव्र तपस्याके द्वारा तुम सम्पूर्ण प्रजावर्गको संतप्त कर रहे हो। शेषनाग! 
तुम्हारे हृदयमें जो कामना हो वह मुझसे कहो” ।। ७ ।। 
शेष उवाच 


सोदर्या मम सर्वे हि भ्रातरो मन्दचेतस: । 

सह तैर्नोत्सहे वस्तुं तद्‌ भवाननुमन्यताम्‌ ।। ८ ।। 

शेषनाग बोले--भगवन्‌! मेरे सब सहोदर भाई बड़े मन्दबुद्धि हैं, अतः मैं उनके साथ 
नहीं रहना चाहता। आप मेरी इस इच्छाका अनुमोदन करें ।। ८ ।। 

अभ्यसूयन्ति सततं परस्परममित्रवत्‌ । 

ततो<5हं तप आतिष्ठं नैतान्‌ पश्येयमित्युत ।। ९ ।। 

वे सदा परस्पर शत्रुकी भाँति एक-दूसरेके दोष निकाला करते हैं। इससे ऊबकर मैं 
तपस्यामें लग गया हूँ; जिससे मैं उन्हें देख न सकूँ ।। ९ ।। 

न मर्षयन्ति ससुतां सततं विनतां च ते । 

अस्माकं चापरो भ्राता वैनतेयो<न्तरिक्षग: ।। १० ।। 

वे विनता और उसके पुत्रोंसे डाह रखते हैं, इसलिये उनकी सुख-सुविधा सहन नहीं कर 
पाते। आकाशमें विचरने-वाले विनतापुत्र गरुड भी हमारे दूसरे भाई ही हैं || १० ।। 

तं च द्विषन्ति सततं स चापि बलवत्तर: । 

वरप्रदानात्‌ स पितु: कश्यपस्य महात्मन: ।। ११ ।। 

किंतु वे नाग उनसे भी सदा द्वेष रखते हैं। मेरे पिता महात्मा कश्यपजीके वरदानसे 
गरुड भी बड़े ही बलवान्‌ हैं || ११ ।। 

सो<5हं तप: समास्थाय मोक्ष्यामीदं कलेवरम्‌ | 

कथे मे प्रेत्पयभावेडपि न तैः: स्थात्‌ सह संगम: ।। १२ ।। 

इन सब कारणोंसे मैंने यही निश्चय किया है कि तपस्या करके मैं इस शरीरको त्याग 
दूँगा, जिससे मरनेके बाद भी किसी तरह उन दुष्टोंक साथ मेरा समागम न हो ।। १२ ।। 

तमेवंवादिनं शेष॑ पितामह उवाच ह । 

जानामि शेष सर्वेषां भ्रातृणां ते विचेष्टितम्‌ ।। १३ ।। 

ऐसी बातें करनेवाले शेषनागसे पितामह ब्रह्माजीने कहा--'शेष! मैं तुम्हारे सब 
भाइयोंकी कुचेष्टा जानता हूँ! ।। १३ ।। 

मातुश्नाप्यपराधाद्‌ वै भ्रातृणां ते महद्‌ भयम्‌ । 


कृतोअत्र परिहारश्न पूर्वमेव भुजड्रम ।। १४ ।। 

“माताका अपराध करनेके कारण निश्चय ही तुम्हारे उन सभी भाइयोंके लिये महान्‌ भय 
उपस्थित हो गया है; परंतु भुजंगम! इस विषयमें जो परिहार अपेक्षित है, उसकी व्यवस्था 
मैंने पहलेसे ही कर रखी है ।। १४ ।। 

भ्रातृणां तव सर्वेषां न शोकं कर्तुमरहसि । 

वृणीष्व च वरं मत्त: शेष यत्‌ तेडभिकाडुक्षितम्‌ ।। १५ ।। 

“अतः अपने सम्पूर्ण भाइयोंके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। शेष! तुम्हें जो 
अभीष्ट हो, वह वर मुझसे माँग लो ।। १५ ।। 

दास्यामि हि वर तेड्द्य प्रीतिर्मे परमा त्वयि । 

दिष्ट्या बुद्धिश्न ते धर्मे निविष्टा पन्नगोत्तम । 

भूयो भूयश्ष ते बुद्धिर्धर्मे भवतु सुस्थिरा ।। १६ ।। 

“तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम है; अतः आज मैं तुम्हें अवश्य वर दूँगा। पन्नगोत्तम! यह 
सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारी बुद्धि धर्ममें दृढ़तापूर्वक लगी हुई है। मैं भी आशीर्वाद देता हूँ 
कि तुम्हारी बुद्धि उत्तरोत्तर धर्ममें स्थिर रहे” || १६ ।। 

शेष उवाच 


एष एव वरो देव काड्क्षितो मे पितामह । 

धर्मे मे रमतां बुद्धि: शमे तपसि चेश्वर ।। १७ ।। 

शेषजीने कहा--देव! पितामह! परमेश्वर! मेरे लिये यही अभीष्ट वर है कि मेरी बुद्धि 
सदा धर्म, मनोनिग्रह तथा तपस्यामें लगी रहे || १७ ।। 


ब्रह्मोवाच 


प्रीतो5स्म्यनेन ते शेष दमेन च शमेन च । 
त्वया त्विदं वच: कार्य मन्नियोगात्‌ प्रजाहितम्‌ ।। १८ ।। 
ब्रह्माजी बोले--शेष! तुम्हारे इस इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। 
अब मेरी आज्ञासे प्रजाके हितके लिये यह कार्य, जिसे मैं बता रहा हूँ, तुम्हें करना 
चाहिये ।। १८ ।। 
इमां महीं शैलवनोपपन्नां 
ससागरग्रामविहारपत्तनाम्‌ | 
त्वं शेष सम्यक्‌ चलितां यथावत्‌ 
संगृह तिष्तस्व यथाचला स्यात्‌ ।। १९ ।। 
शेषनाग! पर्वत, वन, सागर, ग्राम, विहार और नगरोंसहित यह समूची पृथ्वी प्रायः 
हिलती-डुलती रहती है। तुम इसे भलीभाँति धारण करके इस प्रकार स्थित रहो, जिससे यह 
पूर्णतः अचल हो जाय ।। १९ |। 


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शेष उवाच 


यथाह देवो वरद: प्रजापति- 
महीपतिर्भूतपतिर्जगत्पति: । 
तथा महीं धारयितास्मि निश्चलां 
प्रयच्छतां मे शिरसि प्रजापते ।॥ २० ।। 
शेषनागने कहा--प्रजापते! आप वरदायक देवता, समस्त प्रजाके पालक, पृथ्वीके 
रक्षक, भूत-प्राणियोंके स्वामी और सम्पूर्ण जगत्‌के अधिपति हैं। आप जैसी आज्ञा देते हैं, 
उसके अनुसार मैं इस पृथ्वीको इस तरह धारण करूँगा, जिससे यह हिले-डुले नहीं। आप 
इसे मेरे सिरपर रख दें || २० ।। 
ब्रह्मोवाच 
अधो महीं गच्छ भुजड़मोत्तम 
स्वयं तवैषा विवरं प्रदास्यति । 
इमां धरां धारयता त्वया हि मे 
महत्‌ प्रियं शेष कृतं भविष्यति ।। २१ ।। 
ब्रद्माजीने कहा--नागराज शेष! तुम पृथ्वीके नीचे चले जाओ। यह स्वयं तुम्हें वहाँ 
जानेके लिये मार्ग दे देगी। इस पृथ्वीको धारण कर लेनेपर तुम्हारे द्वारा मेरा अत्यन्त प्रिय 
कार्य सम्पन्न हो जायगा ।। २१ ।। 


सौतिरुवाच 


तथैव कृत्वा विवरं प्रविश्य स 
प्रभुर्भुवो भुजगवराग्रज: स्थित: । 
बिभर्ति देवीं शिरसा महीमिमां 
समुद्रनेमिं परिगृहा सर्वतः ।। २२ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--नागराज वासुकिके बड़े भाई सर्वसमर्थ भगवान्‌ शेषने “बहुत 
अच्छा" कहकर ब्रह्माजीकी आज्ञा शिरोधार्य की और पृथ्वीके विवरमें प्रवेश करके समुद्रसे 
घिरी हुई इस वसुधा-देवीको उन्होंने सब ओरसे पकड़कर सिरपर धारण कर लिया (तभीसे 
यह पृथ्वी स्थिर हो गयी) ।। २२ ।। 
ब्रह्मोवाच 
शेषोडसि नागोत्तम धर्मदेवो 
महीमिमां धारयसे यदेक: । 
अनन्तभोगै: परिगृहा सर्वा 
यथाहमेवं बलभिद्‌ यथा वा ।। २३ |। 


तदनन्तर ब्रह्माजी बोले--नागोत्तम! तुम शेष हो, धर्म ही तुम्हारा आराध्यदेव है, तुम 
अकेले अपने अनन्त फणोंसे इस सारी पृथ्वीको पकड़कर उसी प्रकार धारण करते हो, जैसे 
मैं अथवा इन्द्र || २३ ।। 


सौतिरुवाच 


अधोभूमौ वसत्येवं नागो5नन्तः प्रतापवान्‌ । 

धारयन्‌ वसुधामेक: शासनाद्‌ ब्रह्मणो विभु: ।। २४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! इस प्रकार प्रतापी नाग भगवान्‌ अनन्त अकेले ही 
ब्रह्माजीके आदेशसे इस सारी पृथ्वीको धारण करते हुए भूमिके नीचे पाताल-लोकमें 
निवास करते हैं ।। २४ ।। 

सुपर्ण च सहायं वै भगवानमरोत्तम: । 

प्रादादनन्ताय तदा वैनतेयं पितामह: ।। २५ ।। 

तत्पश्चात्‌ देवताओंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ पितामहने शेषनागके लिये विनतानन्दन गरुडको 
सहायक बना दिया ।। २५ ।। 

(अनन्ते च प्रयाते तु वासुकि: सुमहाबल: । 

अभ्यषिच्यत नागैस्तु दैवतैरिव वासव: ।।) 

अनन्त नागके चले जानेपर नागोंने महाबली वासुकिका नागराजके पदपर उसी प्रकार 
अभिषेक किया, जैसे देवताओंने इन्द्रका देवराजके पदपर अभिषेक किया था। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि शेषवृत्तकथने षट्त्रिशो 5ध्याय: ।। 
३६ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वें शेषनागवृत्तान्त-कथनविषयक 
छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३६ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं) 


हि ही बक। हि मा मम 


सप्तत्रिशो5्ध्याय: 


माताके शापसे बचनेके लिये हक कि आदि नागोंका 
परस्पर परामश 


सौतिरुवाच 


मातु: सकाशात्‌ त॑ शापं श्रुत्वा वै पन्नगोत्तम: । 

वासुकिश्चिन्तयामास शापो5यं न भवेत्‌ कथम्‌ ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! माता कद्रूसे नागोंके लिये वह शाप प्राप्त हुआ सुनकर 
नागराज वासुकिको बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे “किस प्रकार यह शाप दूर हो सकता 
है! | १ || 

ततः स मन्त्रयामास भ्रातृभि: सह सर्वश: । 

ऐरावतप्रभृतिभि: सर्वधर्मपरायणै: ।। २ ।। 

तदनन्तर उन्होंने ऐरावत आदि सर्वधर्मपरायण बन्धुओंके साथ उस शापके विषयमें 
विचार किया ।। २ ।। 


वायुकिरुवाच 


अयं शापो यथोद्दिष्टो विदितं वस्तथानघा: । 

तस्य शापस्य मोक्षार्थ मन्त्रयित्वा यतामहे ।। ३ ।। 

सर्वेषामेव शापानां प्रतिघातो हि विद्यते । 

नतु मात्राभिशप्तानां मोक्ष: क्वचन विद्यते ।। ४ ।। 

वासुकि बोले--निष्पाप नागगण! माताने हमें जिस प्रकार यह शाप दिया है, वह सब 
आपलोगोंको विदित ही है। उस शापसे छूटनेके लिये क्या उपाय हो सकता है? इसके 
विषयमें सलाह करके हम सब लोगोंको उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। सब शापोंका 
प्रतीकार सम्भव है, परंतु जो माताके शापसे ग्रस्त हैं, उनके छूटनेका कोई उपाय नहीं 
है ।। ३-४ ।। 

अव्ययस्याप्रमेयस्य सत्यस्य च तथाग्रत: । 

शप्ता इत्येव मे श्रुत्वा जायते हृदि वेपथु: ।। ५ ।। 

अविनाशी, अप्रमेय तथा सत्यस्वरूप ब्रह्माजीके आगे माताने हमें शाप दिया है--यह 
सुनकर ही हमारे हृदयमें कम्प छा जाता है ।। ५ ।। 

नूनं सर्वविनाशो5यमस्माकं समुपागत: । 

न होतां सोडव्ययो देव: शपन्‍न्तीं प्रत्यषेधयत्‌ ।। ६ ।। 


निश्चय ही यह हमारे सर्वगाशका समय आ गया है, क्योंकि अविनाशी देव भगवान्‌ 
ब्रह्माने भी शाप देते समय माताको मना नहीं किया ।। ६ ।। 

तस्मात्‌ सम्मन्त्रयामोड्द्य भुजजड्रानामनामयम्‌ | 

यथा भवेद्धि सर्वेषां मा न: कालो5त्यगादयम्‌ ॥। ७ || 

सर्व एव हि नस्तावद्‌ बुद्धिमन्तो विचक्षणा: । 

अपि मन्त्रयमाणा हि हेतुं पश्याम मोक्षणे ।। ८ ।। 

यथा नष्ट पुरा देवा गुढमग्निं गुहागतम्‌ । 

इसलिये आज हमें अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये कि किस उपायसे हम सभी 
नाग कुशलपूर्वक रह सकते हैं। अब हमें व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिये। हमलोगोंमें प्राय: 
सब नाग बुद्धिमान्‌ और चतुर हैं। यदि हम मिल-जुलकर सलाह करें तो इस संकटसे 
छूटनेका कोई उपाय ढूँढ़ निकालेंगे; जैसे पूर्वकालमें देवताओंने गुफामें छिपे हुए अग्निको 
खोज निकाला था ।।| ७-८३ ।। 

यथा स यज्ञो न भवेद्‌ यथा वापि पराभव: । 

जनमेजयस्य सर्पाणां विनाशकरणाय वै ॥। ९ ॥। 

सर्पोके विनाशके लिये आरम्भ होनेवाला जनमेजयका यज्ञ जिस प्रकार टल जाय 
अथवा जिस तरह उसमें विघ्न पड़ जाय, वह उपाय हमें सोचना चाहिये ।। ९ |। 

सौतिरुवाच 


तथेत्युक्त्वा तत: सर्वे काद्रवेया: समागता: । 

समयं चक्रिरे तत्र मन्त्रबुद्धिविशारदा: || १० ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! वहाँ एकत्र हुए सभी कटद्रपुत्र 'बहुत अच्छा” कहकर 
एक निश्चयपर पहुँच गये, क्योंकि वे नीतिका निश्चय करनेमें निपुण थे || १० ।। 

एके तत्राब्रुवन्‌ नागा वयं भूत्वा द्विजर्षभा: । 

जनमेजयं तु भिक्षामो यज्ञस्ते न भवेदिति ।। ११ ।। 

उस समय वहाँ कुछ नागोंने कहा--“हमलोग श्रेष्ठ ब्राह्मण बनकर जनमेजयसे यह 
भिक्षा माँगें कि तुम्हारा यज्ञ न हो ' ।। ११ ।। 

अपरे त्वब्रुवन्‌ नागास्तत्र पण्डितमानिन: । 

मन्त्रिणोउस्य वयं सर्वे भविष्याम: सुसम्मता: ।। १२ ।। 

अपनेको बड़ा भारी पण्डित माननेवाले दूसरे नागोंने कहा--'हम सब लोग 
जनमेजयके विश्वासपात्र मन्त्री बन जायँगे ।। १२ ।। 

स नः प्रक्ष्यति सर्वेषु कार्येष्वर्थविनिश्चवयम्‌ । 

तत्र बुद्धि प्रदास्यामो यथा यज्ञो निवर्त्स्यति ।। १३ ।। 


'फिर वे सभी कार्योमें अभीष्ट प्रयोजनका निश्चय करनेके लिये हमसे सलाह पूढेंगे। 
उस समय हम उन्हें ऐसी बुद्धि देंगे, जिससे यज्ञ होगा ही नहीं ।। १३ ।। 

स नो बहुमतान्‌ राजा बुद्धया बुद्धिमतां वर: । 

यज्ञार्थ प्रक्ष्यति व्यक्त नेति वक्ष्यामहे वयम्‌ ।। १४ ।। 

“हम वहाँ बहुत विश्वस्त एवं सम्मानित होकर रहेंगे। अतः बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ राजा 
जनमेजय यज्ञके विषयमें हमारी सम्मति जाननेके लिये अवश्य पूछेंगे। उस समय हम स्पष्ट 
कह देंगे--'यज्ञ न करो” ।। १४ ।। 

दर्शयन्तो बहून्‌ दोषानू प्रेत्य चेह च दारुणान्‌ । 

हेतुभि: कारणैश्वैव यथा यज्ञो भवेन्न सः ।। १५ ।। 

“हम युक्तियों और कारणोंद्वारा यह दिखायेंगे कि उस यज्ञसे इहलोक और परलोकमें 
अनेक भयंकर दोष प्राप्त होंगे; इससे वह यज्ञ होगा ही नहीं ।। १५ ।। 

अथवा य उपाध्याय: क्रतोस्तस्य भविष्यति । 

सर्पसत्रविधानज्ञो राजकार्यहिते रत: ।। १६ ।। 

त॑ गत्वा दशतां कश्चिद्‌ भुजड़: स मरिष्यति । 

तस्मिन्‌ मृते यज्ञकारे क्रतु:ः स न भविष्यति ।। १७ ।। 

“अथवा जो उस यज्ञके आचार्य होंगे, जिन्हें सर्पयज्ञकी विधिका ज्ञान हो और जो 
राजाके कार्य एवं हितमें लगे रहते हों, उन्हें कोई सर्प जाकर डँस ले। फिर वे मर जायाँगे। 
यज्ञ करानेवाले आचार्यके मर जानेपर वह यज्ञ अपने-आप बंद हो जायगा ।। १६-१७ ।। 

ये चान्ये सर्पसत्रज्ञा भविष्यन्त्यस्य चर्त्विज: । 

तांश्व सर्वान्‌ दशिष्याम: कृतमेवं भविष्यति ।। १८ ।। 

“आचार्यके सिवा दूसरे जो-जो ब्राह्मण सर्पयज्ञकी विधिको जानते होंगे और 
जनमेजयके यज्ञमें ऋत्विज्‌ बननेवाले होंगे, उन सबको हम डँस लेंगे। इस प्रकार सारा काम 
बन जायगा” ।। १८ ।। 

अपरे त्वब्रुवन्‌ नागा धर्मात्मानो दयालव: । 

अबुद्धिरेषा भवतां ब्रह्महत्या न शोभनम्‌ ॥। १९ |। 

यह सुनकर दूसरे धर्मात्मा और दयालु नागोंने कहा--'ऐसा सोचना तुम्हारी मूर्खता है। 
ब्रह्म-हत्या कभी शुभकारक नहीं हो सकती ।। १९ ।। 

सम्यक्सद्धर्ममूला वै व्यसने शान्तिरुत्तमा । 

अधर्मात्तरता नाम कृत्स्नं व्यापादयेज्जगत्‌ ।। २० ।। 

'“आपत्तिकालमें शान्तिके लिये वही उपाय उत्तम माना गया है जो भलीभाँति श्रेष्ठ 
धर्मके अनुकूल किया गया हो। संकटसे बचनेके लिये उत्तरोत्तर अधर्म करनेकी प्रवृत्ति तो 
सम्पूर्ण जगत्‌का नाश कर डालेगी” || २० ।। 

अपरे त्वब्रुवन्‌ नागा: समिद्धं जातवेदसम्‌ । 


वर्षैनिवापयिष्यामो मेघा भूत्वा सविद्युत: | २१ ।। 

इसपर दूसरे नाग बोल उठे--'जिस समय सर्पयज्ञके लिये अग्नि प्रजजलित होगी, उस 
समय हम बिजलियोंसहित मेघ बनकर पानीकी वर्षद्वारा उसे बुझा देंगे || २१ ।। 

खुग्भाण्डं निशि गत्वा च अपरे भुजगोत्तमा: । 

प्रमत्तानां हरन्त्वाशु विघ्न एवं भविष्यति ॥। २२ ।। 

“दूसरे श्रेष्ठ नाग रातमें वहाँ जाकर असावधानीसे सोये हुए ऋत्विजोंके खुकू, खुवा और 
यज्ञपात्र आदि शीघ्र चुरा लावें। इस प्रकार उसमें विघ्न पड़ जायगा || २२ ।। 

यज्ञे वा भुजगास्तस्मिज्छतशो5थ सहस्त्रश: । 

जनान्‌ दशन्तु वै सर्वे नैवं त्रासो भविष्यति ।। २३ ।। 

“अथवा उस यज्ञमें सभी सर्प जाकर सैकड़ों और हजारों मनुष्योंको डँस लें; ऐसा 
करनेसे हमारे लिये भय नहीं रहेगा ।। २३ ।। 

अथवा संस्कृतं भोज्यं दूषयन्तु भुजड़मा: । 

स्वेन मूत्रपुरीषेण सर्वभोज्यविनाशिना ।॥। २४ ।। 

“अथवा सर्पगण उस यज्ञके संस्कारयुक्त भोज्य पदार्थको अपने मल-मूत्रोंद्वारा, जो सब 
प्रकारकी भोजन-सामग्रीका विनाश करनेवाले हैं, दूषित कर दें” || २४ ।। 

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र ऋत्विजो5स्य भवामहे । 

यज्ञविघ्नं करिष्यामो दीयतां दक्षिणा इति ॥। २५ ।। 

वश्यतां च गतोडसौ न: करिष्यति यथेप्सितम्‌ । 

इसके बाद अन्य सर्पोने कहा--“हम उस यज्ञमें ऋत्विज हो जायँगे और यह कहकर 
कि हमें मुँहमाँगी दक्षिणा दो” यज्ञमें विघ्न खड़ा कर देंगे। उस समय राजा हमारे वशमें 
पड़कर जैसी हमारी इच्छा होगी, वैसा करेंगे” || २५६ ।। 

अपरे त्वब्रुव॑स्तत्र जले प्रक्रीडितं नृूपम्‌ ।। २६ ।। 

गृहमानीय बध्नीम: क्रतुरेवं भवेज्न सः । 

फिर अन्य नाग बोले--“जब राजा जनमेजय जल-क्रीड़ा करते हों, उस समय उन्हें 
वहाँसे खींचकर हम अपने घर ले आवें और बाँधकर रख लें। ऐसा करनेसे वह यज्ञ होगा ही 
नहीं'-- || २६६ ।। 

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र नागा: पण्डितमानिन: ।। २७ ।। 

दशामस्तं प्रगृह्माशु कृतमेवं भविष्यति । 

छिन्न मूलमनर्थानां मृते तस्मिन्‌ भविष्यति ।। २८ ।। 

इसपर अपनेको पण्डित माननेवाले दूसरे नाग बोल उठे--“हम जनमेजयको पकड़कर 
डँस लेंगे।' ऐसा करनेसे तुरंत ही सब काम बन जायगा। उस राजाके मरनेपर हमारे लिये 
अनर्थोकी जड़ ही कट जायगी ।। २७-२८ ।। 

एषा नो नैछिकी बुद्धि: सर्वेषामीक्षणश्रव: । 


अथ यन्मन्यसे राजन टद्रुतं तत्‌ संविधीयताम्‌ ।। २९ ।। 

“नेत्रोंस सुननेवाले नागराज! हम सब लोगोंकी बुद्धि तो इसी निश्चयपर पहुँची है। अब 
आप जैसा ठीक समझते हों, वैसा शीघ्र करें! || २९ ।। 

इत्युक्त्वा समुदैक्षन्त वासुकिं पन्नगोत्तमम्‌ । 

वासुकिश्नापि संचिन्त्य तानुवाच भुजड्रमान्‌ ॥। ३० ।। 

यह कहकर वे सर्प नागराज वासुकिकी ओर देखने लगे। तब वासुकिने भी खूब सोच- 
विचारकर उन सर्पोंसे कहा-- ।। ३० |। 

नैषा वो नैछिकी बुद्धिर्मता कर्तु भुजड़मा: । 

सर्वेषामेव मे बुद्धि: पन्नगानां न रोचते ।। ३१ ।। 

“नागगण! तुम्हारी बुद्धिने जो निश्चय किया है, वह व्यवहारमें लानेयोग्य नहीं है। इसी 
प्रकार मेरा विचार भी सब सर्पोंको जँच जाय, यह सम्भव नहीं है || ३१ ।। 

कि तत्र संविधातव्यं भवतां स्याद्धितं तु यत्‌ । 

श्रेय:प्रसाधनं मन्‍्ये कश्यपस्य महात्मन: ।। ३२ ।। 

'ऐसी दशामें क्या करना चाहिये, जो तुम्हारे लिये हितकर हो। मुझे तो महात्मा 
कश्यपजीको प्रसन्न करनेमें ही अपना कल्याण जान पड़ता है ।। ३२ ।। 

ज्ञातिवर्गस्य सौहार्दादात्मनश्व भुजज्भमा: । 

न च जानाति मे बुद्धि: किंचित्‌ कर्तु वचो हि व: ।॥। ३३ ।। 

'भुजंगमो! अपने जाति-भाइयोंके और अपने हितको दृष्टिमें रखकर तुम्हारे 
कथनानुसार कोई भी कार्य करना मेरी समझमें नहीं आया ।। ३३ ।। 

मया हीद॑ विधातव्यं भवतां यद्धितं भवेत्‌ । 

अनेनाहं भृशं तप्ये गुणदोषौ मदाश्रयौ ।। ३४ ।। 

“मुझे वही काम करना है, जिसमें तुम-लोगोंका वास्तविक हित हो। इसीलिये मैं अधिक 
चिन्तित हूँ; क्योंकि तुम सबमें बड़ा होनेके कारण गुण और दोषका सारा उत्तरदायित्व 
मुझपर ही है” ।। ३४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुक्यादिमन्त्रणे सप्तत्रिंशो 5 ध्याय: 
॥| ३७ || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वायुकि आदि नागोंकी मन्त्रणा 
नामक सैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३७ ॥ 


ऑपन--माज बक। जि 


अष्टबत्रिशो& ध्याय: 


वासुकिकी बहिन जरत्कारुका जरत्कारु मुनिके साथ 
विवाह करनेका निश्चय 


सौतिरुवाच 


सर्पाणां तु वच:ः श्रुत्वा सर्वेषामिति चेति च । 

वासुकेश्न वच: श्रुत्वा एलापत्रो5ब्रवीदिदम्‌ ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! समस्त सर्पोकी भिन्न-भिन्न राय सुनकर और 
अन्तमें वासुकिके वचनोंका श्रवण कर एलापत्र नामक नागने इस प्रकार कहा-- ।। १ ।। 

नस यज्ञो न भविता न स राजा तथाविध: । 

जनमेजय: पाण्डवेयो यतो5स्माकं महद्‌ भयम्‌ ।। २ ।। 

'भाइयो! यह सम्भव नहीं कि वह यज्ञ न हो तथा पाण्डववंशी राजा जनमेजय भी, 
जिससे हमें महान्‌ भय प्राप्त हुआ है, ऐसा नहीं है कि हम उसका कुछ बिगाड़ सकें ।। २ ।। 

दैवेनोपहतो राजन्‌ यो भवेदिह पूरुष: । 

स दैवमेवाश्रयते नान्यत्‌ तत्र परायणम्‌ ॥। ३ ।। 

“राजन! इस लोकमें जो पुरुष दैवका मारा हुआ है, उसे दैवकी ही शरण लेनी चाहिये। 
वहाँ दूसरा कोई आश्रय नहीं काम देता ।। ३ ।। 

तदिदं चैवमस्माकं भयं पन्नगसत्तमा: | 

दैवमेवाश्रयामो>त्र शृणुध्वं च वचो मम ।। ४ ।। 

अहं शापे समुत्सष्टे समश्रौषं वचस्तदा । 

मातुरुत्संगमारूढो भयात्‌ पन्नगसत्तमा: ।। ५ ।। 

देवानां पन्नगश्रेष्ठास्तीक्ष्णास्ती क्ष्णा इति प्रभो । 

पितामहमुपागम्य दु:खार्तानां महाद्युते || ६ ।। 

'श्रेष्ठ नागगण! हमारे ऊपर आया हुआ यह भय भी दैवजनित ही है, अतः हमें दैवका 
ही आश्रय लेना चाहिये। उत्तम सर्पगण! इस विषयमें आपलोग मेरी बात सुनें। जब माताने 
सर्पोंको यह शाप दिया था, उस समय भयके मारे मैं माताकी गोदमें चढ़ गया था। 
पन्नगप्रवर महातेजस्वी नागराजगण! तभी दुःखसे आतुर होकर ब्रह्माजीके समीप आये हुए 
देवताओंकी यह वाणी मेरे कानोंमें पड़ी--'“अहो! स्त्रियाँ बड़ी कठोर होती हैं, बड़ी कठोर 
होती हैं! || ४--६ ।। 

देवा ऊचु 
का हि लब्ध्वा प्रियान्‌ पुत्रा्छपेदेव॑ पितामह । 


ऋते क्र तीक्षणरूपां देवदेव तवाग्रत: ।। ७ ।। 

देवता बोले--पितामह! देवदेव! तीखे स्वभाववाली इस क्रूर कद्रूको छोड़कर दूसरी 
कौन स्त्री होगी जो प्रिय पुत्रोंको पाकर उन्हें इस प्रकार शाप दे सके और वह भी आपके 
सामने || ७ ।। 

तथेति च वचस्तस्यास्त्वयाप्युक्त पितामह । 

एतदिच्छामि विज्ञातुं कारणं यन्न वारिता ।। ८ ।। 

पितामह! आपने भी “तथास्तु” कहकर कटद्रूकी बातका अनुमोदन ही किया है; उसे 
शाप देनेसे रोका नहीं है। इसका क्या कारण है, हम यह जानना चाहते हैं ।। ८ ।। 

ब्रह्मोवाच 


बहव: पन्नगास्ती क्ष्णा घोररूपा विषोल्बणा: । 

प्रजानां हितकामो5हं न च वारितवांस्तदा ।॥। ९ ।। 

ब्रह्माजीने कहा--इन दिनों भयानक रूप और प्रचण्ड विषवाले क्रूर सर्प बहुत हो गये 
हैं (जो प्रजाको कष्ट दे रहे हैं)। मैंने प्रजाजनोंके हितकी इच्छासे ही उस समय कद्रूको मना 
नहीं किया || ९ ।। 

ये दन्दशूका: क्षुद्राश्न पापाचारा विषोल्बणा: । 

तेषां विनाशो भविता न तु ये धर्मचारिण: ।। १० ।। 

जनमेजयके सर्पयज्ञमें उन्हीं सर्पोंका विनाश होगा जो प्राय: लोगोंको डँसते रहते हैं, 
क्षुद्र स्वभावके हैं और पापाचारी तथा प्रचण्ड विषवाले हैं। किंतु जो धर्मात्मा हैं, उनका नाश 
नहीं होगा ।। १० ।। 

यन्निमित्तं च भविता मोक्षस्तेषां महाभयात्‌ । 

पन्नगानां निबोधध्वं तस्मिन्‌ काले समागते ।। ११ ।। 

वह समय आनेपर सर्पोंका उस महान्‌ भयसे जिस निमित्तसे छुटकारा होगा, उसे 
बतलाता हूँ, तुम सब लोग सुनो ।। ११ ।। 

यायावरकुले धीमान्‌ भविष्यति महानृषि: । 

जरत्कारुरिति ख्यातस्तपस्वी नियतेन्द्रिय: |। १२ ।। 

यायावरकुलमें जरत्कारु नामसे विख्यात एक बुद्धिमान्‌ महर्षि होंगे। वे तपस्यामें तत्पर 
रहकर अपने मन और इन्द्रियोंकोी संयममें रखेंगे || १२ ।। 

तस्य पुत्रो जरत्कारोर्भविष्यति तपोधन: । 

आस्तीको नाम यज्ञं स प्रतिषेत्स्यति तं तदा । 

तत्र मोक्ष्यन्ति भुजगा ये भविष्यन्ति धार्मिका: ।। १३ ।। 

उन्हींके आस्तीक नामका एक महातपस्वी पुत्र उत्पन्न होगा जो उस यज्ञको बंद करा 
देगा। अतः जो सर्प धार्मिक होंगे, वे उसमें जलनेसे बच जायँगे ।। १३ ।। 


देवा ऊचु: 
स मुनिप्रवरो ब्रह्मञ्जरत्कारुर्महातपा: । 
कस्यां पुत्र महात्मानं जनयिष्यति वीर्यवान्‌ ।। १४ ।। 
देवताओंने पूछा--ब्रह्मन! वे मुनिशिरोमणि महातपस्वी शक्तिशाली जरत्कारु किसके 
गर्भसे अपने उस महात्मा पुत्रको उत्पन्न करेंगे? || १४ ।। 


ब्रह्मोवाच 


सनामायां सनामा स कन्यायां द्विजसत्तम: | 

अपत्यं वीर्यसम्पन्नं वीर्यवाउजनयिष्यति ।। १५ ।। 

ब्रद्माजीने कहा--वे शक्तिशाली द्विजश्रेष्ठ जिस “जरत्कारु” नामसे प्रसिद्ध होंगे, उसी 
नामवाली कन्याको पत्नीरूपमें प्राप्त करके उसके गर्भसे एक शक्तिसम्पन्न पुत्र उत्पन्न 
करेंगे ।। १५ ।। 

वासुके: सर्पराजस्य जरत्कारु: स्वसा किल । 

स तस्यां भविता पुत्र: शापाज्नागांश्न मोक्ष्यति ।। १६ ।। 

सर्पराज वासुकिकी बहिनका नाम जरत्कारु है। उसीके गर्भसे वह पुत्र उत्पन्न होगा, जो 
नागोंको शापसे छुड़ायेगा || १६ ।। 

एलापत्र उवाच 


एवमस्त्विति तं देवा: पितामहमथाब्रुवन्‌ 

उक्त्वैवं वचन देवान्‌ विरिज्चिस्त्रिदिवं ययौ ।। १७ ।। 

एलापत्र कहते हैं--यह सुनकर देवता ब्रह्माजीसे कहने लगे--'एवमस्तु” (ऐसा ही 
हो)। देवताओंसे ये सब बातें बताकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें चले गये || १७ ।। 

सो5हमेवं प्रपश्यामि वासुके भगिनीं तव । 

जरत्कारुरिति ख्यातां तां तस्मै प्रतिपादय ।। १८ ।। 

भैक्षवद्‌ भिक्षमाणाय नागानां भयशान्तये । 

ऋषये सुव्रतायैनामेष मोक्ष: श्रुतो मया ।। १९ ।। 

अतः नागराज वासुके! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप नागोंका भय दूर करनेके लिये 
कन्याकी भिक्षा माँगनेवाले, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि जरत्कारुको अपनी 
जरत्कारु नामवाली यह बहिन ही भिक्षारूपमें अर्पित कर दें। उस शापसे छूटनेका यही 
उपाय मैंने सुना है ।। १८-१९ |। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि एलापत्रवाक्ये अष्टत्रिंशो5ध्याय: ।। 
३८ ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें एलापत्र-वाक्यसम्बन्धी 
अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३८ ॥। 


अपना छा | >> ्र>र्ज 


एकोनचत्वारिशोड ध्याय: 


ब्रह्माजीकी आज्ञासे वासुकिका जरत्कारु मुनिके साथ 
अपनी बहिनको ब्याहनेके लिये प्रयत्नशील होना 


सौतिरुवाच 


एलापत्रवच: श्रुत्वा ते नागा द्विजसत्तम | 

सर्वे प्रह्ष्टमनस: साधु साथ्वित्यथाब्रुवन्‌ ।। १ ॥। 

ततः प्रभृति तां कन्यां वासुकि: पर्यरक्षत । 

जरत्कारुं स्वसारं वै परं हर्षमवाप च ।। २ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--द्विजश्रेष्ठती एलापत्रकी बात सुनकर नागोंका चित्त प्रसन्न हो 
गया। वे सब-के-सब एक साथ बोल उठे--“ठीक है, ठीक है।” वासुकिको भी इस बातसे 
बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उसी दिनसे अपनी बहिन जरत्कारुका बड़े चावसे पालन-पोषण करने 
लगे ।। १-२ ।। 

ततो नातिमहान्‌ काल: समतीत इवाभवत्‌ | 

अथ देवासुरा: सर्वे ममन्थुर्वरुणालयम्‌ ।। ३ ।। 

तत्र नेत्रमभून्नागो वासुकिर्बलिनां वर: । 

समाप्यैव च तत्‌ कर्म पितामहमुपागमन्‌ ।। ४ ।। 

देवा वासुकिना सार्थ पितामहमथाब्रुवन्‌ | 

भगवउ्छापभीतो<यं वासुकिस्तप्यते भूशम्‌ ।। ५ ।। 

तदनन्तर थोड़ा ही समय व्यतीत होनेपर सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंने समुद्रका 

मनन्‍्थन किया। उसमें बलवानोंमें श्रेष्ठ वासुकि नाग मन्दराचलरूप मथानीमें लपेटनेके लिये 
रस्सी बने हुए थे। समुद्र-मन्थनका कार्य पूरा करके देवता वासुकि नागके साथ पितामह 
ब्रह्माजीके पास गये और उनसे बोले--“भगवन्‌! ये वासुकि माताके शापसे भयभीत हो 
बहुत संतप्त होते रहते हैं || ३--५ ।। 

अस्यैतन्मानसं शल्यं समुद्धर्तु त्वमरहसि । 

जनन्या: शापजं देव ज्ञातीनां हितमिच्छत: ।। ६ ।। 

“देव! अपने भाई-बन्धुओंका हित चाहनेवाले इन नागराजके हृदयमें माताका शाप 
काँटा बनकर चुभा हुआ है और कसक पैदा करता है। आप इनके उस काँटेको निकाल 
दीजिये ।। ६ ।। 

हितो हायं सदास्माकं प्रियकारी च नागराट्‌ । 

प्रसादं कुरु देवेश शमयास्य मनोज्वरम्‌ ।। ७ ।। 


'देवेश्वर! नागराज वासुकि हमारे हितैषी हैं और सदा हमलोगोंके प्रिय कार्यमें लगे रहते 
हैं; अत: आप इनपर कृपा करें और इनके मनमें जो चिन्ताकी आग जल रही है, उसे बुझा 
दें! ।| ७ ।। 

ब्रह्मोवाच 


मयैव तद्‌ वितीर्ण वै वचनं मनसामरा: । 

एलापत्रेण नागेन यदस्याभिहितं पुरा ।। ८ ।। 

ब्रह्माजीने कहा--'देवताओ! एलापत्र नागने वासुकिके समक्ष पहले जो बात कही 
थी, वह मैंने ही मानसिक संकल्पद्दारा उसे दी थी (मेरी ही प्रेरणासे एलापत्रने वे बातें 
वासुकि आदि नागोंके सम्मुख कही थीं) ।। ८ ।। 

तत्‌ करोत्वेष नागेन्द्र: प्राप्तकालं वच: स्वयम्‌ । 

विनशिष्यन्ति ये पापा न तु ये धर्मचारिण: ।। ९ ।। 

ये नागराज समय आनेपर स्वयं तदनुसार ही कार्य करें। जनमेजयके यज्ञमें पापी सर्प 
ही नष्ट होंगे, किंतु जो धर्मात्मा हैं वे नहीं ।। ९ ।। 

उत्पन्न: स जरत्कारुस्तपस्युग्रे रतो द्विज: । 

तस्यैष भगिनीं काले जरत्कारुं प्रयच्छतु || १० ।। 

अब जरत्कारु ब्राह्मण उत्पन्न होकर उग्र तपस्यामें लगे हैं। अवसर देखकर ये वासुकि 
अपनी बहिन जरत्कारुको उन महर्षिकी सेवामें समर्पित कर दें || १० ।। 

एलापत्रेण यत्‌ प्रोक्ते वचनं भुजगेन ह | 

पन्नगानां हितं देवास्तत्‌ तथा न तदन्यथा ।। ११ ।। 

देवताओ! एलापत्र नागने जो बात कही है, वही सर्पोके लिये हितकर है। वही बात 
होनेवाली है। उससे विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता ।। ११ ।। 


सौतिरुवाच 


एतच्छुत्वा तु नागेन्द्र: पितामहवचस्तदा । 

संदिश्य पन्नगान्‌ सर्वान्‌ वासुकि: शापमोहित: ।। १२ ।। 

स्वसारमुद्यम्य तदा जरत्कारुमृषिं प्रति । 

सर्पान्‌ बहूञ्जरत्कारी नित्ययुक्तान्‌ समादधत्‌ ।। १३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--ब्रह्माजीकी बात सुनकर शापसे मोहित हुए नागराज वासुकिने 
सब सर्पोंको यह संदेश दे दिया कि मुझे अपनी बहिनका विवाह जरत्कारु मुनिके साथ 
करना है। फिर उन्होंने जरत्कारु मुनिकी खोजके लिये नित्य आज्ञामें रहनेवाले बहुत-से 
सर्पोंको नियुक्त कर दिया ।। १२-१३ ।। 

जरत्कारुर्यदा भायमभिच्छेद्‌ वरयितु प्रभु: । 

शीघ्रमेत्य तदाख्येयं तन्न: श्रेयो भविष्यति ॥। १४ ।। 


और यह कहा--'सामर्थ्यशाली जरत्कारु मुनि जब पत्नीका वरण करना चाहें, उस 
समय शीघ्र आकर यह बात मुझे सूचित करनी चाहिये। उसीसे हमलोगोंका कल्याण 
होगा” ।। १४ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कार्वन्वेषणे 
एकोनचत्वारिंशो5ध्याय: ।। ३९ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वर्में जरत्कारु मुनिका 
अन्वेषणविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ३९ ॥। 


3: --ऋऋ्- 


चत्वारिशो< ध्याय: 
जरत्कारुकी तपस्या, राजा परीक्षित्‌॒का उपाख्यान तथा 


राजाद्वारा मुनिके कंधेपर साँप रखनेके कारण दु:खी 
हुए कृशका १ |गीको उत्तेजित करना 
शौनक उवाच 


जरत्कारुरिति ख्यातो यस्त्वया सूतनन्दन । 

इच्छामि तदहं श्रोतुं ऋषेस्तस्य महात्मन: ।। १ ।। 

कि कारणं जरत्कारोनमितत्‌ प्रथितं भुवि | 

जरत्कारुनिरुक्तिं त्वं यथावद्‌ वक्तुमहसि ।। २ ।। 

शौनकजीने पूछा--सूतनन्दन! आपने जिन जरत्कारु ऋषिका नाम लिया है, उन 
महात्मा मुनिके सम्बन्धमें मैं यह सुनना चाहता हूँ कि पृथ्वीपर उनका जरत्कारु नाम क्‍यों 
प्रसिद्ध हुआ? जरत्कारु शब्दकी व्युत्पत्ति क्या है? यह आप ठीक-ठीक बतानेकी कृपा 
करें ।। १-२ ।। 


सौतिरुवाच 


जरेति क्षयमाहुर्वैं दारुणं कारुसंज्ञितम्‌ | 

शरीरं कारु तस्यासीत्तत्‌ स धीमाउछनै: शनै: ।। ३ ।। 

क्षपयामास तीव्रेण तपसेत्यत उच्यते । 

जरत्कारुरिति ब्रह्मन्‌ वासुकेर्भगिनी तथा ।। ४ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--शौनकजी! जरा कहते हैं क्षयको और कारु शब्द दारुणका 
वाचक है। पहले उनका शरीर कारु अर्थात्‌ खूब हट्टा-कट्टा था। उसे परम बुद्धिमान्‌ महर्षिने 
धीरे-धीरे तीव्र तपस्याद्वारा क्षीण बना दिया। ब्रह्म! इसलिये उनका नाम जरत्कारु पड़ा। 
वासुकिकी बहिनके भी जरत्कारु नाम पड़नेका यही कारण था ।। ३-४ ।। 

एवमुक्तस्तु धर्मात्मा शौनकः प्राहसत्‌ तदा । 

उग्रश्रवासमामन्त्रय उपपन्नमिति ब्रुवन्‌ ।। ५ ।। 

उम्रश्रवाजीके ऐसा कहनेपर धर्मात्मा शौनक उस समय खिलखिलाकर हँस पड़े और 
फिर उग्रश्रवाजीको सम्बोधित करके बोले--'तुम्हारी बात उचित है” ।। ५ ।। 


शौनक उवाच 
उक्त नाम यथापूर्व सर्व तच्छुमतवानहम्‌ । 
यथा तु जातो हयास्तीक एतदिच्छामि वेदितुम्‌ । 


तच्छुत्वा वचन तस्य सौति: प्रोवाच शास्त्रतः ॥। ६ ।। 

शौनकजी बोले--सूतपुत्र! आपने पहले जो जरत्कारु नामकी व्युत्पत्ति बतायी है, वह 
सब मैंने सुन ली। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि आस्तीक मुनिका जन्म किस प्रकार 
हुआ? शौनकजीका यह वचन सुनकर उग्रश्नवाजीने पुराणशास्त्रके अनुसार आस्तीकके 
जन्मका वृत्तान्त बताया ।। ६ ।। 

सौतिरु्वाच 

संदिश्य पन्नगान्‌ सर्वान्‌ वासुकि: सुसमाहित: । 

स्वसारसमुद्यम्य तदा जरत्कारुमृषिं प्रति ।। ७ ।। 

उग्रश्रवाजी बोले--नागराज वासुकिने एकाग्रचित्त हो खूब सोच-समझकर सब 
सर्पोंको यह संदेश दे दिया--“मुझे अपनी बहिनका विवाह जरत्कारु मुनिके साथ करना 
है! | ७ |। 

अथ कालस्य महत: स मुनि: संशितव्रत: । 

तपस्यभिरतो धीमान्‌ स दारान्‌ नाभ्यकाड्क्षत ।। ८ ।॥। 

तदनन्तर दीर्घकाल बीत जानेपर भी कठोर व्रतका पालन करनेवाले परम बुद्धिमान्‌ 
जरत्कारु मुनि केवल तपमें ही लगे रहे। उन्होंने स्त्रीसंग्रहकी इच्छा नहीं की ।। ८ ।। 

स तूर्थ्वरेतास्तपसि प्रसक्तः 

स्वाध्यायवान्‌ वीतभय: कृतात्मा | 
चचार सर्वा पृथिवीं महात्मा 
न चापि दारान्‌ मनसाध्यकाड्क्षत ।। ९ ।। 

वे ऊध्वरेता ब्रह्मचारी थे। तपस्यामें संलग्न रहते थे। नित्य नियमपूर्वक वेदोंका स्वाध्याय 
करते थे। उन्हें कहींसे कोई भय नहीं था। वे मन और इन्द्रियोंको सदा काबूमें रखते थे। 
महात्मा जरत्कारु सारी पृथ्वीपर घूम आये; किंतु उन्होंने मनसे कभी स्त्रीकी अभिलाषा 
नहीं की || ९ ।। 

ततो<5परस्मिन्‌ सम्प्राप्ते काले कम्मिंश्चिदेव तु । 

परिक्षिन्नाम राजासीद्‌ ब्रह्मन्‌ कौरववंशज: ।। १० ।। 

ब्रह्म! तदनन्तर किसी दूसरे समयमें इस पृथ्वीपर कौरववंशी राजा परीक्षित्‌ राज्य 
करने लगे ।। १० ।। 

यथा पाण्डुर्महाबाहुर्धनुर्धरवरो युधि । 

बभूव मृगयाशील: पुरास्य प्रपितामह: ।। ११ ।। 

युद्धमें समस्त धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ उनके प्रपितामह महाबाहु पाण्डु जिस प्रकार 
पूर्वकालमें शिकार खेलनेके शौकीन हुए थे, उसी प्रकार राजा परीक्षित्‌ भी थे ।। ११ ।। 

मृगान्‌ विध्यन्‌ वराहांश्व तरक्षून्‌ महिषांस्तथा । 


अन्‍्यांश्व विविधान्‌ वन्यांश्वचार पृथिवीपति: | १२ ।। 

महाराज परीक्षित्‌ वराह, तरक्षु (व्याप्रविशेष), महिष तथा दूसरे-दूसरे नाना प्रकारके 
वनके हिंसक पशुओंका शिकार खेलते हुए वनमें घूमते रहते थे || १२ ।। 

स कदाचिन्मृगं विद्ध्वा बाणेनानतपर्वणा । 

पृष्ठतो धनुरादाय ससार गहने वने ।। १३ ।। 

एक दिन उन्होंने गहन वनमें धनुष लेकर झुकी हुई गाँठवाले बाणसे एक हिंसक पशुको 
बींध डाला और भागनेपर बहुत दूरतक उसका पीछा किया ।। १३ ।। 

यथैव भगवान्‌ रुद्रो विद्ध्वा यज्ञमृगं दिवि । 

अन्वगच्छद्‌ धनुष्पाणि: पर्यन्वेष्टमितस्तत:ः ।। १४ ।। 

जैसे भगवान्‌ रुद्र आकाशमें मृगशिरा नक्षत्रको बींध-कर उसे खोजनेके लिये धनुष 
हाथमें लिये इधर-उधर घूमते फिरे, उसी प्रकार परीक्षित्‌ भी घूम रहे थे || १४ ।। 

न हि तेन मृगो विद्धो जीवन्‌ गच्छति वै वने । 

पूर्वरूप॑ तु तत्तूर्ण सो5गात्‌ स्वर्गगतिं प्रति । १५ ।। 

परिक्षितो नरेन्द्रस्य विद्धो यन्नष्टवान्‌ मृग: । 

दूरं चापहतस्तेन मृूगेण स महीपति: ।। १६ ।। 

उनके द्वारा घायल किया हुआ मृग कभी वनमें जीवित बचकर नहीं जाता था; परंतु 
आज जो महाराज परीक्षितका घायल किया हुआ मृग तत्काल अदृश्य हो गया था, वह 
वास्तवमें उनके स्वर्गवासका मूर्तिमान्‌ कारण था। उस मृगके साथ राजा परीक्षित्‌ बहुत 
दूरतक खिंचे चले गये ।। १५-१६ ।। 

परिश्रान्त: पिपासार्त आससाद मुनि वने । 

गवां प्रचारेष्वासीनं वत्सानां मुखनि:सृतम्‌ ।। १७ ।। 

भूयिष्ठमुपयुञ्जानं फेनमापिबतां पय: । 

तमभिद्रुत्य वेगेन स राजा संशितव्रतम्‌ ।। १८ ।। 

अपृच्छद्‌ धनुरुद्यम्य त॑ मुनि क्षुच्छूमान्वित: । 

भो भो ब्रद्वान्नहं राजा परीक्षिदभिमन्युज: ।। १९ ।। 

मया विद्धो मृगो नष्ट: कच्चित्‌ तं दृष्टवानसि । 

स मुनिस्तं तु नोवाच किंचिन्मौनव्रते स्थित: ।। २० ।। 

उन्हें बड़ी थकावट आ गयी। वे प्याससे व्याकुल हो उठे और इसी दशामें वनमें शमीक 
मुनिके पास आये। वे मुनि गौओंके रहनेके स्थानमें आसनपर बैठे थे और गौओंका दूध पीते 
समय बछड़ोंके मुखसे जो बहुत-सा फेन निकलता, उसीको खा-पीकर तपस्या करते थे। 
राजा परीक्षितने कठोर व्रतका पालन करनेवाले उन महर्षिके पास बड़े वेगसे आकर पूछा। 
पूछते समय वे भूख और थकावटसे बहुत आतुर हो रहे थे और धनुषको उन्होंने ऊपर उठा 
रखा था। वे बोले--'ब्रह्मन! मैं अभिमन्युका पुत्र राजा परीक्षित्‌ हूँ। मेरे बाणोंसे विद्ध होकर 


एक मृग कहीं भाग निकला है। क्या आपने उसे देखा है?” मुनि मौन-व्रतका पालन कर रहे 
थे, अतः उन्होंने राजाको कुछ भी उत्तर नहीं दिया || १७--२० ।। 

तस्य स्कन्धे मृतं सर्प क्रुद्धो राजा समासजत्‌ । 

समुत्क्षिप्प धनुष्कोट्या स चैनं समुपैक्षत ।। २१ ।। 

तब राजाने कुपित हो धनुषकी नोकसे एक मरे हुए साँपको उठाकर उनके कंधेपर रख 
दिया, तो भी मुनिने उनकी उपेक्षा कर दी ।। २१ ।। 

न स किंचिदुवाचैनं शुभं वा यदि वाशुभम्‌ | 

स राजा क्रोधमुत्सूज्य व्यथितस्तं तथागतम्‌ | 

दृष्टवा जगाम नगरमृषिस्त्वासीत्‌ तथैव स: ।। २२ ।। 

उन्होंने राजासे भला या बुरा कुछ भी नहीं कहा। उन्हें इस अवस्थामें देख राजा 
परीक्षितने क्रोध त्याग दिया और मन-ही-मन व्यथित हो पश्चात्ताप करते हुए वे अपनी 
राजधानीको चले गये। वे महर्षि ज्यों-कें-त्यों बैठे रहे || २२ ।। 

न हि तं राजशार्टूल॑ क्षमाशीलो महामुनि: । 

स्वधर्मनिरतं भूपं समाक्षिप्तो5प्यधर्षयत्‌ ।। २३ ।। 

राजाओंमें श्रेष्ठ भूपाल परीक्षित्‌ अपने धर्मके पालनमें तत्पर रहते थे, अत: उस समय 
उनके द्वारा तिरस्कृत होनेपर भी क्षमाशील महामुनिने उन्हें अपमानित नहीं किया ।। २३ ।। 

न हि तं राजशार्दूलस्तथा धर्मपरायणम्‌ | 

जानाति भरतमश्रेष्ठस्तत एनमधर्षयत्‌ ।। २४ ।। 

भरतवंशशिरोमणि नृपश्रेष्ठ परीक्षित्‌ उन धर्मपरायण मुनिको यथार्थरूपमें नहीं जानते 
थे; इसीलिये उन्होंने महर्षिका अपमान किया ।। २४ ।। 

तरुणस्तस्य पुत्रो$ भूत्‌ तिग्मतेजा महातपा: । 

शृज्जी नाम महाक्रोधो दुष्प्रसादो महाव्रत: ।। २५ ।। 

मुनिके शृंगी नामक एक पुत्र था, जिसकी अभी तरुणावस्था थी। वह महान्‌ तपस्वी, 
दुःसह तेजसे सम्पन्न और महान्‌ व्रतधारी था। उसमें क्रोधकी मात्रा बहुत अधिक थी; अतः 
उसे प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन था ।। २५ ।। 

स देवं परमासीन सर्वभूतहिते रतम्‌ । 

ब्रह्माणमुपतस्थे वै काले काले सुसंयत: ।। २६ ।। 

वह समय-समयपर मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें 
तत्पर रहनेवाले, उत्तम आसनपर विराजमान आचार्यदेवकी सेवामें उपस्थित हुआ करता 
था ।। २६ |। 

स तेन समनुज्ञातो ब्रह्मणा गृहमेयिवान्‌ । 

सख्योक्त: क्रीडमानेन स तत्र हसता किल ।। २७ ।। 

संरम्भात्‌ कोपनो5तीव विषकल्पो मुने: सुतः । 


उद्दिश्य पितरं तस्य यच्छुत्वा रोषमाहरत्‌ । 

ऋषिपुत्रेण धर्मार्थे कृशेन द्विजसत्तम ।। २८ ।। 

शृंगी उस दिन आचार्यकी आज्ञा लेकर घरको लौट रहा था। रास्तेमें उसका मित्र 
ऋषिकुमार कृश, जो धर्मके लिये कष्ट उठानेके कारण सदा ही कृश (दुर्बल) रहा करता था, 
खेलता मिला। उसने हँसते-हँसते शृंगी ऋषिको उसके पिताके सम्बन्धमें ऐसी बात बतायी, 
जिसे सुनते ही वह रोषमें भर गया। द्विजश्रेष्ठ! मुनिकुमार शुंगी क्रोधके आवेशमें आनेपर 
अत्यन्त तीक्ष्ण (कठोर) एवं विषके समान विनाशकारी हो जाता था ।। २७-२८ ।। 

कृश उवाच 

तेजस्विनस्तव पिता तथैव च तपस्विन: । 

शवं स्कनन्‍्धेन वहति मा शंंगिन्‌ गर्वितो भव ।। २९ |। 

कृशने कहा--शंगिन्‌! तुम बड़े तपस्वी और तेजस्वी बनते हो, किंतु तुम्हारे पिता 
अपने कंधेपर मुर्दा सर्प ढो रहे हैं। अब कभी अपनी तपस्यापर गर्व न करना ।। २९ |। 

व्याहरत्स्वृषिपुत्रेषु मा सम किंचिद्‌ वचो वद । 

अस्मद्विधेषु सिद्धिषु ब्रह्मवित्सु तपस्विषु || ३० ।। 

हम-जैसे सिद्ध, ब्रह्मवेत्ता तथा तपस्वी ऋषिपुत्र जब कभी बातें करते हों, उस समय 
तुम वहाँ कुछ न बोलना ।। ३० ।। 

क्व ते पुरुषमानित्वं क्व ते वाचस्तथाविधा: । 

दर्पजा: पितरं द्रष्टा यस्त्वं शवधरं तथा ।। ३१ ।। 

कहाँ है तुम्हारा पौरषका अभिमान, कहाँ गयीं तुम्हारी वे दर्पभरी बातें? जब तुम अपने 
पिताको मुर्दा ढोते चुपचाप देख रहे हो! ।। ३१ ।। 

पित्रा च तव तत्‌ कर्म नानुरूपमिवात्मन: । 

कृतं मुनिजनश्रेष्ठ येनाहं भूशदु:ःखित: ।। ३२ ।। 

मुनिजनशिरोमणे! तुम्हारे पिताके द्वारा कोई अनुचित कर्म नहीं बना था; इसलिये जैसे 
मेरे ही पिताका अपमान हुआ हो उस प्रकार तुम्हारे पिताके तिरस्कारसे मैं अत्यन्त दुःखी हो 
रहा हूँ ।। ३२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि परिक्षिदुपाख्याने चत्वारिंशो5ध्याय: 
॥। ४० || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें परीक्षित्‌-उपाख्यानविषयक 
चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४० ॥। 


अपन काल बा | अ-#-#कत 


एकचत्वारिशो< ध्याय: 


शृंगी ऋषिका राजा परीक्षित्‌को शाप देना और शमीकका 
अपने पुत्रको शान्त करते हुए शापको अनुचित बताना 


सौतिर्वाच 
एवमुक्त: स तेजस्वी शृज्धी कोपसमन्वित: । 
मृतधारं गुरु श्रुत्वा पर्यतप्पत मन्युना ॥। १ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! कृशके ऐसा कहनेपर तेजस्वी शृंगी ऋषिको बड़ा 
क्रोध हुआ। अपने पिताके कंधेपर मृतक (सर्प) रखे जानेकी बात सुनकर वह रोष और 
शोकसे संतप्त हो उठा ॥। १ ।। 
स तं कृशमभिप्रेक्ष्य सूनृतां वाचमुत्सूजन्‌ । 
अपृच्छत्‌ तं कथं तात: स मे5द्य मृतथारक: ।। २ ।। 
उसने कृशकी ओर देखकर मधुर वाणीमें पूछा--'भैया! बताओ तो, आज मेरे पिता 
अपने कंधेपर मृतक कैसे धारण कर रहे हैं? ।। २ ।। 
कृश उवाच 
राज्ञा परिक्षिता तात मृगयां परिधावता । 
अवसक्तः पितुस्तेड्द्य मृत: स्कन्धे भुजड्रम: ।। ३ ।। 
कृशने कहा--तात! आज राजा परीक्षित्‌ अपने शिकारके पीछे दौड़ते हुए आये थे। 
उन्होंने तुम्हारे पिताके कंधेपर मृतक साँप रख दिया है ।। ३ ।। 
शुंग्युवाच 
किं मे पित्रा कृतं तस्य राज्ञोअनिष्टं दुरात्मन: । 
ब्रूहि तत्‌ कृश तत्त्वेन पश्य मे तपसो बलम्‌ ।॥। ४ ।। 
शृंगी बोला--कृश! ठीक-ठीक बताओ. मेरे पिताने उस दुरात्मा राजाका क्या अपराध 
किया था? फिर मेरी तपस्याका बल देखना ।। ४ ।। 
कृश उवाच 
स राजा मृगयां यात: परिक्षिदभिमन्युज: । 
ससार मृगमेकाकी विद्ध्वा बाणेन शीघ्रगम्‌ ।। ५ ।। 
न चापश्यन्मृगं राजा चरंस्तस्मिन्‌ महावने । 
पितरं ते स दृष्टवैव पप्रच्छानभि भाषिणम्‌ ।। ६ ।। 


कृशने कहा--अभिमम्युपुत्र राजा परीक्षित्‌ अकेले शिकार खेलने आये थे। उन्होंने 
एक शीघ्रगामी हिंसक मृग (पशु)-को बाणसे बींध डाला; किंतु उस विशाल वनमें विचरते 
हुए राजाको वह मृग कहीं दिखायी न दिया। फिर उन्होंने तुम्हारे मौनी पिताको देखकर 
उसके विषयमें पूछा ।। ५-६ ।। 

त॑ स्थाणुभूतं तिष्ठन्तं क्षुत्पिपासाश्रमातुर: । 

पुनः पुनर्मगं नष्ट पप्रच्छ पितरं तव ।। ७ ।। 

स च मौनव्रतोपेतो नैव तं॑ प्रत्यभाषत । 

तस्य राजा धनुष्कोट्या सर्प स्कन्धे समासजत्‌ ।। ८ ।। 

राजा भूख-प्यास और थकावटसे व्याकुल थे। इधर तुम्हारे पिता काठकी भाँति 
अविचल भावसे बैठे थे। राजाने बार-बार तुम्हारे पितासे उस भागे हुए मृगके विषयमें प्रश्न 
किया, परंतु मौन-व्रतावलम्बी होनेके कारण उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। तब राजाने 
धनुषकी नोकसे एक मरा हुआ साँप उठाकर उनके कंधेपर डाल दिया ।। ७-८ ।। 

शड्विंस्तव पिता सो5पि तथैवास्ते यतव्रत: । 

सो<पि राजा स्वनगरं प्रस्थितो गजसाह्दयम्‌ ।। ९ |। 

शंंगिन! संयमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले तुम्हारे पिता अभी उसी अवस्थामें बैठे हैं 
और वे राजा परीक्षित्‌ अपनी राजधानी हस्तिनापुरको चले गये हैं ।। ९ ।। 

सौतिर्वाच 

श्र॒त्वैवमृषिपुत्रस्तु शवं कन्धे प्रतिक्ठितम्‌ 

कोपसंरक्तनयन: प्रज्वलन्निव मन्युना || १० ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! इस प्रकार अपने पिताके कंधेपर मृतक सर्पके रखे 
जानेका समाचार सुनकर ऋषिकुमार शंगी क्रोधसे जल उठा। कोपसे उसकी आँखें लाल हो 
गयीं ।। १० ।। 

आविष्ट: स हि कोपेन शशाप नृपतिं तदा । 

वार्युपस्पृश्य तेजस्वी क्रोधवेगबलात्कृत: ।। ११ ।। 

वह तेजस्वी बालक रोषके आवेशमें आकर प्रचण्ड क्रोधके वेगसे युक्त हो गया था। 
उसने जलसे आचमन करके हाथमें जल लेकर उस समय राजा परीक्षितको इस प्रकार शाप 
दिया ।। ११ ।। 

शुंग्युवाच 

योडसौ वृद्धस्य तातस्य तथा कृच्छुगतस्य ह । 

स्कन्धे मृतं समास्राक्षीत्‌ पन्नगं राजकिल्बिषी ।। १२ ।। 

त॑ं पापमतिसंक्रुद्धस्तक्षक: पन्नगेश्वर: | 

आशीविषस्तिग्मतेजा मद्धाक्यबलचोदित: ।। १३ ।। 


सप्तरात्रादितो नेता यमस्य सदन प्रति । 

द्विजानामवमन्तारं कुरूणामयशस्करम्‌ ।। १४ ।। 

शृंगी बोला--जिस पापात्मा नरेशने वैसे धर्म-संकटमें पड़े हुए मेरे बूढ़े पिताके कंधेपर 
मरा साँप रख दिया है, ब्राह्मगोंका अपमान करनेवाले उस कुरुकुलकलंक पापी परीक्षित्‌को 
आजसे सात रातके बाद प्रचण्ड तेजस्वी पन्नगोत्तम तक्षक नामक विषैला नाग अत्यन्त 
कोपमें भरकर मेरे वाक्यबलसे प्रेरित हो यमलोक पहुँचा देगा || १२--१४ ।। 


सौतिरुवाच 


इति शतप्त्वातिसंक्रुद्ध: शृंगी पितरमभ्यगात्‌ । 

आसीनं गोव्रजे तस्मिन्‌ वहन्तं शवपन्नगम्‌ ।। १५ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--इस प्रकार अत्यन्त क्रोधपूर्वक शाप देकर शृंगी अपने पिताके 
पास आया, जो उस गोष्ठमें कंधेपर मृतक सर्प धारण किये बैठे थे || १५ ।। 

स तमालक्ष्य पितरं शृूज्गी स्कन्धगतेन वै । 

शवेन भुजगेनासीद्‌ भूय: क्रोधसमाकुल: ।। १६ ।। 

कंधेपर रखे हुए मुर्दे साँपसे संयुक्त पिताको देखकर शुंगी पुनः क्रोधसे व्याकुल हो 
उठा ।। १६ || 

दुःखाच्चाश्रूणि मुमुचे पितरं चेदमब्रवीत्‌ । 

श्र॒ुत्वेमां धर्षणां तात तव तेन दुरात्मना ।। १७ ।। 

राज्ञा परिक्षिता कोपादशपं तमहं नृपम्‌ 

यथाहति स एवोग्रं शापं कुरुकुलाधम: । 

सप्तमे5हनि त॑ पापं तक्षकः पन्नगोत्तम: ।। १८ ।। 

वैवस्वतस्यथ सदनं नेता परमदारुणम्‌ | 

तमब्रवीत्‌ पिता ब्रह्मंंस्तथा कोपसमन्वितम्‌ ।। १९ ।। 

वह दुःखसे आँसू बहाने लगा। उसने पितासे कहा--“'तात! उस दुरात्मा राजा 
परीक्षितके द्वारा आपके इस अपमानकी बात सुनकर मैंने उसे क्रोधपूर्वक जैसा शाप दिया 
है, वह कुरुकुलाधम वैसे ही भयंकर शापके योग्य है। आजके सातवें दिन नागराज तक्षक 
उस पापीको अत्यन्त भयंकर यमलोकमें पहुँचा देगा।” ब्रह्मन्‌! इस प्रकार क्रोधमें भरे हुए 
पुत्रसे उसके पिता शमीकने कहा ।। १७--१९ |। 

शमीक उवाच 

न मे प्रियं कृतं तात नैष धर्मस्तपस्विनाम्‌ | 

वयं तस्य नरेनन्‍्द्रस्य विषये निवसामहे ।। २० ।। 

न्यायतो रक्षितास्तेन तस्य शापं न रोचये । 

सर्वथा वर्तमानस्य राज्ञो हास्मद्विधैः सदा ।। २१ ।। 


क्षन्तव्यं पुत्र धर्मो हि हतो हन्ति न संशय: । 

यदि राजा न संरक्षेत्‌ पीडा न: परमा भवेत्‌ ॥। २२ ।। 

शमीक बोले--वत्स! तुमने शाप देकर मेरा प्रिय कार्य नहीं किया है। यह तपस्वियोंका 
धर्म नहीं है। हमलोग उन महाराज परीक्षितके राज्यमें निवास करते हैं और उनके द्वारा 
न्यायपूर्वक हमारी रक्षा होती है। अतः उनको शाप देना मुझे पसंद नहीं है। हमारे-जैसे साधु 
पुरुषोंको तो वर्तमान राजा परीक्षितके अपराधको सब प्रकारसे क्षमा ही करना चाहिये। 
बेटा! यदि धर्मको नष्ट किया जाय तो वह मनुष्यका नाश कर देता है, इसमें संशय नहीं है। 
यदि राजा रक्षा न करे तो हमें भारी कष्ट पहुँच सकता है | २०--२२ ।। 

न शक्‍्नुयाम चरितुं धर्म पुत्र यथासुखम्‌ । 

रक्ष्यममाणा वयं तात राजभिर्धथर्मदृष्टिभि: ।। २३ ।। 

चरामो विपुलं धर्म तेषां भागो<$स्ति धर्मत: । 

सर्वथा वर्तमानस्य राज्ञ: क्षन्तव्यमेव हि ।। २४ ।। 

पुत्र! हम राजाके बिना सुखपूर्वक धर्मका अनुष्ठान नहीं कर सकते। तात! धर्मपर दृष्टि 
रखनेवाले राजाओंके द्वारा सुरक्षित होकर हम अधिक-से-अधिक धर्मका आचरण कर पाते 
हैं। अतः हमारे पुण्यकर्मोंमें धर्मतः उनका भी भाग है। इसलिये वर्तमान राजा परीक्षितके 
अपराधको तो क्षमा ही कर देना चाहिये || २३-२४ ।। 

परिक्षित्तु विशेषेण यथास्य प्रपितामह: । 

रक्षत्यस्मांस्तथा राज्ञा रक्षितव्या: प्रजा विभो ।। २५ ।। 

परीक्षित्‌ तो विशेषरूपसे अपने प्रपितामह युधिष्ठिर आदिकी भाँति हमारी रक्षा करते 
हैं। शक्तिशाली पुत्र! प्रत्येक राजाको इसी प्रकार प्रजाकी रक्षा करनी चाहिये || २५ ।। 

तेनेह क्षुधितेनाद्य श्रान्तेन च तपस्विना । 

अजानता कृतं मन्ये व्रतमेतदिदं मम || २६ ।। 

वे आज भूखे और थके-माँदे यहाँ आये थे। वे तपस्वी नरेश मेरे इस मौन-व्रतको नहीं 
जानते थे; मैं समझता हूँ इसीलिये उन्होंने मेरे साथ ऐसा बर्ताव कर दिया ।। २६ ।। 

अराजके जनपदे दोषा जायन्ति वै सदा | 

उद्वृत्तं सततं लोकं राजा दण्डेन शास्ति वै ।। २७ ।। 

जिस देशमें राजा न हो वहाँ अनेक प्रकारके दोष (चोर आदिके भय) पैदा होते हैं। 
धर्मकी मर्यादा त्यागकर उच्छुंखल बने हुए लोगोंको राजा अपने दण्डके द्वारा शिक्षा देता 
है || २७ |। 

दण्डात्‌ प्रतिभयं भूय: शान्तिरुत्पद्यते तदा । 

नोडिग्नश्वरते धर्म नोद्विग्नश्वरते क्रियामू ।। २८ ।। 

दण्डसे भय होता है, फिर भयसे तत्काल शान्ति स्थापित होती है। जो चोर आदिके 
भयसे उद्विग्न है, वह धर्मका अनुष्ठान नहीं कर सकता। वह उद्विग्न पुरुष यज्ञ, श्राद्ध आदि 


शास्त्रीय कर्मोका आचरण भी नहीं कर सकता ।। २८ |। 

राज्ञा प्रतिष्ठितो धर्मों धर्मात्‌ स्वर्ग: प्रतिष्ठित: । 

राज्ञो यज्ञक्रिया: सर्वा यज्ञाद्‌ देवा: प्रतिष्ठिता: ।। २९ ।। 

राजासे धर्मकी स्थापना होती है और धर्मसे स्वर्गलोककी प्रतिष्ठा (प्राप्ति) होती है। 
राजासे सम्पूर्ण यज्ञकर्म प्रतिष्ठित होते हैं और यज्ञसे देवताओंकी प्रतिष्ठा होती है ।। २९ ।। 

देवाद्‌ वृष्टि: प्रवर्तेत वृष्टरोषधय: स्मृता: । 

ओषधिभ्यो मनुष्याणां धारयन्‌ सततं हितम्‌ ॥। ३० ।। 

मनुष्याणां च यो धाता राजा राज्यकर: पुन: । 

दशश्रोत्रियसमो राजा इत्येवं मनुरब्रवीत्‌ ।। ३१ ।। 

देवताके प्रसन्न होनेसे वर्षा होती है, वर्षसि अन्न पैदा होता है और अन्नसे निरन्तर 
मनुष्योंके हितका पोषण करते हुए राज्यका पालन करनेवाला राजा मनुष्योंके लिये विधाता 
(धारण-पोषण करनेवाला) है। राजा दस श्रोत्रियके समान है, ऐसा मनुजीने कहा 
है || ३०-३१ ।। 

तेनेह क्षुधितेनाद्य श्रान्तेन च तपस्विना । 

अजानता कृतं मन्ये व्रतमेतदिदं मम ।। ३२ ।। 

वे तपस्वी राजा यहाँ भूखे-प्यासे और थके-माँदे आये थे। उन्हें मेरे इस मौन-व्रतका 
पता नहीं था, इसलिये मेरे न बोलनेसे रुष्ट होकर उन्होंने ऐसा किया है ।। ३२ ।। 

कस्मादिदं त्वया बाल्यात्‌ सहसा दुष्कृतं कृतम्‌ । 

न हाहति नृप: शापमस्मत्त: पुत्र सर्वथा ।। ३३ ।। 

तुमने मूर्खतावश बिना विचारे क्‍यों यह दुष्कर्म कर डाला? बेटा! राजा हमलोगोंसे शाप 
पानेके योग्य नहीं हैं ।। ३३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि परिक्षिच्छापे एकचत्वारिंशो5ध्याय: 
॥। ४१ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वनें परीक्षितू-शापविषयक 
इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४१ ॥। 


ऑपन-माज बछ। अकाल 


द्विचत्वारिशोड ध्याय: 


शमीकका अपने पुत्रको समझाना और गौरमुखको राजा 
परीक्षित्‌के पास भेजना, राजाद्वारा आत्मरक्षाकी व्यवस्था 
तथा तक्षक नाग और काश्यपकी बातचीत 


शड़युवाच 

यद्येतत्‌ साहसं तात यदि वा दुष्कृतं कृतम्‌ 

प्रियं वाप्यप्रियं वा ते वागुक्ता न मृषा भवेत्‌ । १ ।। 

शृंगी बोला--तात! यदि यह साहस है अथवा यदि मेरे द्वारा दुष्कर्म हो गया है तो हो 
जाय। आपको यह प्रिय लगे या अप्रिय, किंतु मैंने जो बात कह दी है, वह झूठी नहीं हो 
सकती ।। १ ।। 

नैवान्यथेदं भविता पितरेष ब्रवीमि ते । 

नाहं मृषा ब्रवीम्येवं स्वैरेष्वपि कुत: शपन्‌ ॥। २ ।। 

पिताजी! मैं आपसे सच कहता हूँ, अब यह शाप टल नहीं सकता। मैं हँसी-मजाकमें 
भी झूठ नहीं बोलता, फिर शाप देते समय कैसे झूठी बात कह सकता हूँ ।। २ ।। 

शमीक उवाच 


जानाम्युग्रप्रभाव॑ं त्वां तात सत्यगिरं तथा । 

नानृतं चोक्तपूर्व ते नैतन्मिथ्या भविष्यति ।। ३ ।। 

शमीकने कहा--बेटा! मैं जानता हूँ तुम्हारा प्रभाव उग्र है, तुम बड़े सत्यवादी हो, 
तुमने पहले भी कभी झूठी बात नहीं कही है; अतः यह शाप मिथ्या नहीं होगा ।। ३ ।। 

पित्रा पुत्रो वयःस्थो5पि सततं वाच्य एव तु । 

यथा स्याद्‌ गुणसंयुक्तः प्राप्तुयाच्च महद्‌ यश: ।। ४ ।। 

तथापि पिताको उचित है कि वह अपने पुत्रको बड़ी अवस्थाका हो जानेपर भी सदा 
सत्कर्मोंका उपदेश देता रहे; जिससे वह गुणवान्‌ हो और महान्‌ यश प्राप्त करे || ४ ।। 

कि पुनर्बाल एव त्वं तपसा भावित: सदा । 

वर्धते च प्रभवतां कोपो5तीव महात्मनाम्‌ ॥। ५ |। 

फिर तुम्हें उपदेश देनेकी तो बात ही क्‍या है, तुम तो अभी बालक ही हो। तुमने सदा 
तपस्याके द्वारा अपनेको दिव्य शक्तिसे सम्पन्न किया है। जो योगजनित ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं, 
ऐसे प्रभावशाली तेजस्वी पुरुषोंका भी क्रोध अधिक बढ़ जाता है; फिर तुम-जैसे बालकको 
क्रोध हो, इसमें कहना ही क्या है ।। ५ ।। 

सो<हं पश्यामि वक्तव्यं त्वयि धर्मभूतां वर । 


पुत्रत्वं बालतां चैव तवावेक्ष्य च साहसम्‌ ।। ६ ।। 

(किंतु यह क्रोध धर्मका नाशक होता है) इसलिये धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पुत्र! तुम्हारे 
बचपन और दुःसाहसपूर्ण कार्यको देखकर मैं तुम्हें कुछ कालतक उपदेश देनेकी 
आवश्यकता समझता हूँ ।। ६ ।। 

स त्वं शमपरो भूत्वा वनन्‍्यमाहारमाचरन्‌ | 

चर क्रोधमिमं हत्वा नैवं धर्म प्रहास्यसि ।। ७ ।। 

तुम मन और इन्द्रियोंके निग्रहमें तत्यर होकर जंगली कन्द, मूल, फलका आहार करते 
हुए इस क्रोधको मिटाकर उत्तम आचरण करो; ऐसा करनेसे तुम्हारे धर्मकी हानि नहीं 
होगी ।। ७ ।। 

क्रोधो हि धर्म हरति यतीनां दुःखसंचितम्‌ । 

ततो धर्मविहीनानां गतिरिष्टा न विद्यते ।। ८ ।। 

क्रोध प्रयत्तशील साधकोंके अत्यन्त दुःखसे उपार्जित धर्मका नाश कर देता है। फिर 
धर्महीन मनुष्योंको अभीष्ट गति नहीं मिलती है || ८ ।। 

शम एव यतीनां हि क्षमिणां सिद्धिकारक: । 

क्षमावतामयं लोक: परश्रैव क्षमावताम्‌ ।। ९ || 

शम (मनोनिग्रह) ही क्षमाशील साधकोंको सिद्धिकी प्राप्ति करानेवाला है। जिनमें क्षमा 
है, उन्हींके लिये यह लोक और परलोक दोनों कल्याणकारक हैं ।। ९ ।। 

तस्माच्चरेथा: सततं क्षमाशीलो जितेन्द्रिय: । 

क्षमया प्राप्स्यसे लोकान्‌ ब्रह्मण: समनन्तरान्‌ ।। १० ।। 

इसलिये तुम सदा इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए क्षमाशील बनो। क्षमासे ही ब्रह्माजीके 
निकटवर्ती लोकोंमें जा सकोगे ।। १० ।। 

मया तु शममास्थाय यच्छक्यं कर्तुमद्य वै । 

तत्‌ करिष्याम्यहं तात प्रेषयिष्ये नृपाय वै ।। ११ ।। 

मम पुत्रेण शप्तोडसि बालेन कृशबुद्धिना । 

ममेमां धर्षणां त्वत्त: प्रेक्ष्य राजन्नमर्षिणा ।। १२ ।। 

तात! मैं तो शान्ति धारण करके अब जो कुछ किया जा सकता है, वह करूँगा। 
राजाके पास यह संदेश भेज दूँगा कि “राजन! तुम्हारे द्वारा मुझे जो तिरस्कार प्राप्त हुआ है 
उसे देखकर अमर्षमें भरे हुए मेरे अल्पबुद्धि एवं मूढ़ पुत्रने तुम्हें शाप दे दिया 
है' || ११-१२ || 

सौतिर्वाच 


एवमादिश्य शिष्यं स प्रेषयामास सुव्रत: । 
परिक्षिते नृपतये दयापन्नो महातपा: ।। १३ ।। 


संदिश्य कुशलप्रश्न॑ कार्यवृत्तान्तमेव च । 

शिष्यं गौरमुखं नाम शीलवन्तं समाहितम्‌ ।। १४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दयालु एवं महातपस्वी शमीक 
मुनिने अपने गौरमुख नामवाले एकाग्रचित्त एवं शीलवान्‌ शिष्यको इस प्रकार आदेश दे 
कुशल-प्रश्न, कार्य एवं वृतान्तका संदेश देकर राजा परीक्षित्‌के पास भेजा ।। १३-१४ ।। 

सो$5भिगम्य ततः शीघ्र नरेन्द्र कुरुवर्धनम्‌ । 

विवेश भवन राज्ञ: पूर्व द्वा:स्थै्निवेदित: ।। १५ ।। 

गौरमुख वहाँसे शीघ्र कुरुकुलकी वृद्धि करनेवाले महाराज परीक्षित्‌के पास चला गया। 
राजधानीमें पहुँचनेपर द्वारपालने पहले महाराजको उसके आनेकी सूचना दी और उनकी 
आज्ञा मिलनेपर गौरमुखने राजभवनमें प्रवेश किया ।। १५ ।। 

पूजितस्तु नरेन्द्रेण द्विजो गौरमुखस्तदा । 

आचख्यौ च परिश्रान्तो राज्ञ: सर्वमशेषत: ।। १६ ।। 

शमीकवचरन घोरं यथोक्तं मन्सत्रिसन्निधौ | 

महाराज परीक्षितने उस समय गौरमुख ब्राह्मणका बड़ा सत्कार किया। जब उसने 
विश्राम कर लिया, तब शमीकके कहे हुए घोर वचनको मन्त्रियोंके समीप राजाके सामने 
पूर्णरूपसे कह सुनाया || १६३ || 

गौरयुख उवाच 

शमीको नाम राजेन्द्र वर्तते विषये तव ।। १७ ।। 

ऋषि: परमधर्मात्मा दान्त: शान्तो महातपा: । 

तस्य त्वया नरव्याघ्र सर्प: प्राणैर्वियोजित: ।। १८ ।। 

अवसक्तो धनुष्कोट्या स्कन्धे मौनान्वितस्य च । 

क्षान्तवांस्तव तत्‌ कर्म पुत्रस्तस्य न चक्षमे ।। १९ ।। 

गौरमुख बोला--महाराज! आपके राज्यमें शमीक नामवाले एक परम धर्मात्मा महर्षि 
रहते हैं। वे जितेन्द्रिय, मनको वशमें रखनेवाले और महान्‌ तपस्वी हैं। नरव्याप्र! आपने मौन 
व्रत धारण करनेवाले उन महात्माके कंधेपर धनुषकी नोकसे उठाकर एक मरा हुआ साँप 
रख दिया था। महर्षिने तो उसके लिये आपको क्षमा कर दिया था, किंतु उनके पुत्रको वह 
सहन नहीं हुआ ।। १७--१९ || 

तेन शप्तो<5सि राजेन्द्र पितुरज्ञातमद्य वै । 

तक्षक: सप्तरात्रेण मृत्युस्तव भविष्यति ।। २० ।। 

राजेन्द्र! उस ऋषिकुमारने आज अपने पिताके अनजानमें ही आपके लिये यह शाप 
दिया है कि “आजसे सात रातके बाद ही तक्षक नाग आपकी मृत्युका कारण हो 
जायगा” ।। २० |। 


तत्र रक्षां कुरुष्वेति पुन: पुनरथाब्रवीत्‌ । 

तदन्यथा न शक्‍्यं च कर्तु केनचिदप्युत || २१ ।। 

इस दशामें आप अपनी रक्षाकी व्यवस्था करें। यह मुनिने बार-बार कहा है। उस 
शापको कोई भी टाल नहीं सकता ।। २१ ।। 

न हि शक्नोति त॑ यन्तुं पुत्र कोपसमन्वितम्‌ । 

ततोऊहं प्रेषितस्तेन तव राजन्‌ हितार्थिना ।। २२ ।। 

स्वयं महर्षि भी क्रोधमें भरे हुए अपने पुत्रको शान्त नहीं कर पा रहे हैं। अतः राजन! 
आपके हितकी इच्छासे उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है || २२ ।। 

सौतिर्वाच 


इति श्रुत्वा वचो घोरं स राजा कुरुनन्दन: । 

पर्यतप्यत तत्‌ पापं कृत्वा राजा महातपा: ।। २३ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं-यह घोर वचन सुनकर कुरुनन्दन राजा परीक्षित्‌ मुनिका 
अपराध करनेके कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे ।। २३ ।। 

तं च मौनव्रतं श्रुत्वा वने मुनिवरं तदा । 

भूय एवाभवदू्‌ राजा शोकसंतप्तमानस: ।। २४ ।। 

वे श्रेष्ठ महर्षि उस समय वनमें मौन-व्रतका पालन कर रहे थे, यह सुनकर राजा 
परीक्षित्‌का मन और भी शोक एवं संतापमें डूब गया ।। २४ ।। 

अनुक्रोशात्मतां तस्य शमीकस्यावधार्य च । 

पर्यतप्यत भूयो5पि कृत्वा तत्‌ किल्बिषं मुने: ।। २५ ।। 

शमीक मुनिकी दयालुता और अपने द्वारा उनके प्रति किये हुए उस अपराधका विचार 
करके वे अधिकाधिक संतप्त होने लगे || २५ ।। 

न हि मृत्युं तथा राजा श्रुत्वा वै सोडन्वतप्यत । 

अशोचदमरप्रख्यो यथा कृत्वेह कर्म तत्‌ ।। २६ ।। 

देवतुल्य राजा परीक्षित्‌को अपनी मृत्युका शाप सुनकर वैसा संताप नहीं हुआ जैसा 
कि मुनिके प्रति किये हुए अपने उस बर्तावको याद करके वे शोकमग्न हो रहे थे || २६ ।। 

ततस्तं प्रेषयामास राजा गौरमुखं तदा । 

भूय: प्रसाद भगवान्‌ करोत्विह ममेति वै । २७ ।। 

तदनन्तर राजाने यह संदेश देकर उस समय गौरमुखको विदा किया कि “भगवान्‌ 
शमीक मुनि यहाँ पधारकर पुनः मुझपर कृपा करें” || २७ ।। 

तस्मिंश्न गतमात्रे5थ राजा गौरमुखे तदा । 

मन्त्रिभिर्मन्त्रयामास सह संविग्नमानस: ।। २८ ।। 


गौरमुखके चले जानेपर राजाने उद्विग्नचित्त हो मन्त्रियोंके साथ गुप्त मन्त्रणा 
की ।। २८ ।। 

सम्मन्त्रय मन्सत्रिभिश्वैव स तथा मन्त्रतत्त्ववित्‌ 

प्रासादं कारयामास एकस्तम्भं सुरक्षितम्‌ ।। २९ |। 

मन्त्र-तत्त्वके ज्ञाता महाराजने मन्त्रियोंसे सलाह करके एक ऊँचा महल बनवाया; 
जिसमें एक ही खंभा लगा था। वह भवन सब ओरसे सुरक्षित था ।। २९ |। 

रक्षां च विदधे तत्र भिषजश्नौषधानि च । 

ब्राह्मणान्‌ मन्त्रसिद्धांश्व॒ सर्वतो वै न्‍्ययोजयत्‌ ।। ३० ।। 

राजाने वहाँ रक्षाके लिये आवश्यक प्रबन्ध किया, उन्होंने सब प्रकारकी ओषधियाँ 
जुटा लीं और वैद्यों तथा मन्त्रसिद्ध ब्राह्मणोंको सब ओर नियुक्त कर दिया || ३० ।। 

राजकार्याणि तत्रस्थ: सर्वाण्येवाकरोच्च स: । 

मन्सत्रिभि: सह धर्मज्ञ: समन्तात्‌ परिरक्षित: ।। ३१ ।। 

वहीं रहकर वे धर्मज्ञ नरेश सब ओरसे सुरक्षित हो मन्त्रियोंक साथ सम्पूर्ण राज- 
कार्यकी व्यवस्था करने लगे || ३१ ।। 

न चैनं कश्चिदारूढं लभते राजसत्तमम्‌ | 

वातो5पि निन्षरंस्तत्र प्रवेशे विनिवार्यते |। ३२ ।। 

उस समय महलनमें बैठे हुए महाराजसे कोई भी मिलने नहीं पाता था। वायुको भी 
वहाँसे निकल जानेपर पुनः प्रवेशके समय रोका जाता था ।। ३२ ।। 

प्राप्तेच दिवसे तस्मिन्‌ सप्तमे द्विजसत्तम: | 

काश्यपो< भ्यागमद्‌ विद्वांस्तं राजानं चिकित्सितुम्‌ ।। ३३ ।। 

सातवाँ दिन आनेपर मन्त्रशास्त्रके ज्ञाता द्विजश्रेष्ठ काश्यप राजाकी चिकित्सा करनेके 
लिये आ रहे थे ।। ३३ ।। 

श्रुतं हि तेन तदभूद्‌ यथा तं राजसत्तमम्‌ | 

तक्षकः पन्नगश्रेष्ठो नेष्पते यमसादनम्‌ ।। ३४ ।। 

उन्होंने सुन रखा था कि 'भूपशिरोमणि परीक्षित्‌को आज नागोंमें श्रेष्ठ तक्षक यमलोक 
पहुँचा देगा || ३४ ।। 

त॑ दष्ट॑ पन्नगेन्द्रेण करिष्येडहमपज्वरम्‌ । 

तत्र मे<र्थश्न धर्मश्न भवितेति विचिन्तयन्‌ ।। ३५ ।। 

अतः उन्होंने सोचा कि नागराजके डँसे हुए महाराजका विष उतारकर मैं उन्हें जीवित 
कर दूँगा। ऐसा करनेसे वहाँ मुझे धन तो मिलेगा ही, लोकोपकारी राजाको जिलानेसे धर्म 
भी होगा ।। ३५ |। 

त॑ ददर्श स नागेन्द्रस्तक्षक: काश्यपं पथि । 

गच्छन्तमेकमनसं द्विजो भूत्वा वयोडतिग: ।। ३६ ।। 


तमब्रवीत्‌ पन्नगेन्द्र: काश्यपं मुनिपुड्भवम्‌ । 

क्व भवांस्त्वरितो याति कि च कार्य चिकीर्षति ॥। ३७ ।। 

मार्गमें नागराज तक्षकने काश्यपको देखा। वे एकचित्त होकर हस्तिनापुरकी ओर बढ़े 
जा रहे थे। तब नागराजने बूढ़े ब्राह्यणका वेश बनाकर मुनिवर काश्यपसे पूछा--“आप कहाँ 
बड़ी उतावलीके साथ जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं? ।। ३६-३७ ।। 


काश्यप उवाच 


नृपं कुरुकुलोत्पन्नं परिक्षितमरिन्दमम्‌ | 
तक्षक: पन्नगश्रेष्ठस्तेजसाद्य प्रधक्ष्यति ॥। ३८ ।। 
काश्यपने कहा--कुरुकुलमें उत्पन्न शत्रुदमन महाराज परीक्षित्‌को आज नागराज 
तक्षक अपनी विषाग्निसे दग्ध कर देगा ।। ३८ ।। 
त॑ दष्ट॑ पन्नगेन्द्रेण तेनाग्निसमतेजसा । 
पाण्डवानां कुलकरं राजानममितौजसम्‌ । 
गच्छामि त्वरितं सौम्य सद्य: कर्तुमपज्वरम्‌ ।। ३९ ।। 
वे राजा पाण्डवोंकी वंशपरम्पराको सुरक्षित रखने-वाले तथा अत्यन्त पराक्रमी हैं। 
अतः सौम्य! अग्निके समान तेजस्वी नागराजके डँस लेनेपर उन्हें तत्काल विषरहित करके 
जीवित कर देनेके लिये मैं जल्दी-जल्दी जा रहा हूँ ।। ३९ ।। 
तक्षक उवाच 
अहं स तक्षको ब्रह्वांस्तं धक्ष्यामि महीपतिम्‌ । 
निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम्‌ ।। ४० ।। 
तक्षक बोला--ब्रह्मन्‌! मैं ही वह तक्षक हूँ। आज राजाको भस्म कर डालूँगा। आप 
लौट जाइये। मैं जिसे डँस लूँ, उसकी चिकित्सा आप नहीं कर सकते ।। ४० ।। 
काश्यप उवाच 


अहं तं नृपतिं गत्वा त्वया दष्टमपज्वरम्‌ | 

करिष्यामीति मे बुद्धिर्विद्यावलसमन्विता ।। ४१ ।। 

काश्यपने कहा--मैं तुम्हारे डँैँसे हुए राजाको वहाँ जाकर विषसे रहित कर दूँगा। यह 
विद्याबलसे सम्पन्न मेरी बुद्धिका निश्चय है || ४१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि काश्यपागमने द्विचत्वारिंशो5 ध्याय: 
|| ४२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपवव॑के अन्तर्गत आस्तीकपवर्में काश्यपागमनविषयक 
बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४२ ॥। 


भीकम (2 अमान 


त्रिचत्वारिशो<् ध्याय: 


तक्षकका धन देकर काश्यपको लौटा देना और छलसे राजा 
परीक्षित्‌के समीप पहुँचकर उन्हें डँसना 
तक्षक उवाच 

यदि दष्टं मयेह त्वं शक्त: किंचिच्चिकित्सितुम्‌ । 

ततो वृक्ष मया दष्टमिमं जीवय काश्यप ।। १ ।। 

तक्षक बोला--काश्यप! यदि इस जगतमें मेरे डँसे हुए रोगीकी कुछ भी चिकित्सा 
करनेमें तुम समर्थ हो तो मेरे डँसे हुए इस वृक्षको जीवित कर दो ।। १ |। 

परं मन्त्रबलं यत्‌ ते तद्‌ दर्शय यतस्व च । 

न्यग्रोधमेनं धक्ष्यामि पश्यतस्ते द्विजोत्तम ।। २ ।। 

द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे पास जो उत्तम मन्त्रका बल है, उसे दिखाओ और यत्न करो। लो, 
तुम्हारे देखते-देखते इस वटवृक्षको मैं भस्म कर देता हूँ ।। २ ।। 


काश्यप उवाच 


दश नागेन्द्र वृक्ष॑ त्वं यद्येतदभिमन्यसे । 
अहमेनं त्वया दष्टं जीवयिष्ये भुजजड्रम ।। ३ ।। 
काश्यपने कहा--नागराज! यदि तुम्हें इतना अभिमान है तो इस वृक्षको डँसो। 
भुजंगम! तुम्हारे डँसे हुए इस वृक्षको मैं अभी जीवित कर दूँगा ।। ३ ।। 
सौतिर्वाच 


एवमुक्त: स नागेन्द्र: काश्यपेन महात्मना । 

अदशद्‌ वृक्षमभ्येत्य न्यग्रोध॑ं पन्नगोत्तम: ।। ४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--महात्मा काश्यपके ऐसा कहनेपर सर्पोमें श्रेष्ठ नागराज 
तक्षकने निकट जाकर बरगदके वृक्षको डँस लिया ।। ४ ।। 

स वक्षस्तेन दष्टस्तु पन्नगेन महात्मना । 

आशीविषविषोपेत: प्रजज्वाल समन्तत: ।। ५ ।। 

उस महाकाय विषधर सर्पके डँसते ही उसके विषसे व्याप्त हो वह वृक्ष सब ओरसे 
जल उठा || ५ || 

त॑ दग्ध्वा स नगं॑ नाग: काश्यपं पुनरब्रवीत्‌ । 

कुरु यत्नं द्विजश्रेष्ठ जीवयैनं वनस्पतिम्‌ ।। ६ ।। 

इस प्रकार उस वृक्षको जलाकर नागराज पुन: काश्यपसे बोला--'द्विजश्रेष्ठ] अब तुम 
यत्न करो और इस वृक्षको जिला दो” ।। ६ ।। 


सौतिरुवाच 


भस्मी भूत॑ं ततो वृक्ष पन्नगेन्द्रस्य तेजसा । 

भस्म सर्व समादह्ृत्य काश्यपो वाक्यमब्रवीत्‌ ।। ७ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! नागराजके तेजसे भस्म हुए उस वृक्षकी सारी 
भस्मराशिको एकत्र करके काश्यपने कहा-- ।। ७ ।। 

विद्याबलं पन्नगेन्द्र पश्य मेउद्य वनस्पतौ । 

अहं संजीवयाम्येनं पश्यतस्ते भुजड्रम ।। ८ ।। 

“नागराज! इस वनस्पतिपर आज मेरी विद्याका बल देखो। भुजंगम! मैं तुम्हारे देखते- 
देखते इस वृक्षको जीवित कर देता हूँ || ८ ।। 

ततः स भगवान्‌ दिद्वान्‌ काश्यपो द्विजसत्तम: । 

भस्मराशीकृतं वृक्ष विद्यया समजीवयत्‌ ।। ९ ।। 

तदनन्तर सौभाग्यशाली दिद्वान्‌ द्विजश्रेष्ठ काश्यपने भस्मराशिके रूपमें विद्यमान उस 
वृक्षको विद्याके बलसे जीवित कर दिया ।। ९ |। 

अड्कुरं कृतवांस्तत्र ततः पर्णद्वयान्वितम्‌ । 

पलाशिनं शाखिनं च तथा विटपिनं पुन: ।। १० ।। 

पहले उन्होंने उसमेंसे अंकुर निकाला, फिर उसे दो पत्तेका कर दिया। इसी प्रकार 
क्रमश: पल्‍लव, शाखा और प्रशाखाओंसे युक्त उस महान्‌ वृक्षको पुनः पूर्ववत्‌ खड़ा कर 
दिया || १० ।। 

त॑ दृष्टवा जीवितं वृक्ष काश्यपेन महात्मना । 

उवाच तक्षको ब्रह्मन्‌ नैतदत्यद्भुतं त्वयि ॥। ११ ।। 

महात्मा काश्यपद्वारा जिलाये हुए उस वृक्षको देखकर तक्षकने कहा--'ब्रह्मन! तुम- 
जैसे मन्त्रवेत्तामें ऐसे चमत्कारका होना कोई अद्भुत बात नहीं है || ११ ।। 

द्विजेन्द्र यद्‌ विषं हनया मम वा मद्विधस्य वा । 

कं त्वमर्थमभिप्रेप्सुर्यासि तत्र तपोधन ।। १२ ।। 

“तपस्याके धनी द्विजेन्द्र! जब तुम मेरे या मेरे-जैसे दूसरे सर्पके विषको अपनी विद्याके 
बलसे नष्ट कर सकते हो तो बताओ, तुम कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करनेकी इच्छासे वहाँ जा 
रहे हो || १२ ।। 

यत्‌ तेडभिलपितं प्राप्तुं फलं तस्मान्नूपोत्तमात्‌ । 

अहमेव प्रदास्यामि तत्‌ ते यद्यपि दुर्लभम्‌ ।। १३ ।। 

“उस श्रेष्ठ राजासे जो फल प्राप्त करना तुम्हें अभीष्ट है, वह अत्यन्त दुर्लभ हो तो भी मैं 
ही तुम्हें दे दूँगा | १३ ।। 

विप्रशापाभिभूते च क्षीणायुषि नराधिपे । 

घटमानस्य ते विप्र सिद्धि: संशयिता भवेत्‌ ।। १४ ।॥ 


“विप्रवर! महाराज परीक्षित्‌ ब्राह्मणके शापसे तिरस्कृत हैं और उनकी आयु भी समाप्त 
हो चली है। ऐसी दशामें उन्हें जिलानेके लिये चेष्टा करनेपर तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी, इसमें 
संदेह है ।। १४ ।। 

ततो यशः प्रदीप्तं ते त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्‌ 

निरंशुरिव घर्माशुरन्तर्धानमितो व्रजेत्‌ ।। १५ ।। 

“यदि तुम सफल न हुए तो तीनों लोकोंमें विख्यात एवं प्रकाशित तुम्हारा यश 
किरणरहित सूर्यके समान इस लोकसे अदृश्य हो जायगा” ।। १५ ।। 


काश्यप उवाच 
धनार्थी याम्यहं तत्र तन्मे देहि भुजड़म । 
ततो<हं विनिवर्तिष्ये स्वापतेयं प्रगृह्य वै । १६ ।। 
काश्यपने कहा--नागराज तक्षक! मैं तो वहाँ धनके लिये ही जाता हूँ, वह तुम्हीं मुझे 
दे दो तो उस धनको लेकर मैं घर लौट जाऊँगा ।। १६ ।। 
तक्षक उवाच 
यावद्धनं प्रार्थयसे तस्माद्‌ राज्ञस्ततो5थधिकम्‌ | 
अहमेव प्रदास्यामि निवर्तस्व द्विजोत्तम ।। १७ ।। 
तक्षक बोला--द्विजश्रेष्ठ! तुम राजा परीक्षितसे जितना धन पाना चाहते हो, उससे 
अधिक मैं ही दे दूँगा, अतः लौट जाओ ।। १७ ।। 
सौतिर्वाच 


तक्षकस्य वच: श्रुत्वा काश्यपो द्विजसत्तम: । 

प्रदध्यौ सुमहातेजा राजानं प्रति बुद्धिमान्‌ ।। १८ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तक्षककी बात सुनकर परम बुद्धिमान्‌ महातेजस्वी विप्रवर 
काश्यपने राजा परीक्षितके विषयमें कुछ देर ध्यान लगाकर सोचा ।। १८ ।। 

दिव्यज्ञान: स तेजस्वी ज्ञात्वा तं नृपतिं तदा । 

क्षीणायुषं पाण्डवेयमपावर्तत काश्यप: ।। १९ |। 

लब्ध्वा वित्त मुनिवरस्तक्षकाद्‌ यावदीप्सितम्‌ । 

निवृत्ते काश्यपे तस्मिन्‌ समयेन महात्मनि ।। २० ।। 

जगाम तक्षकस्तूर्ण नगरं नागसाह्दयम्‌ | 

अथ शुश्राव गच्छन्‌ स तक्षको जगतीपतिम्‌ ।। २१ ।। 

मन्त्रैंगदिर्विषहरै रक्ष्यमाणं प्रयत्नत: । 


तेजस्वी काश्यप दिव्य ज्ञानसे सम्पन्न थे। उस समय उन्होंने जान लिया कि पाण्डववंशी 
राजा परीक्षितकी आयु अब समाप्त हो गयी है, अतः वे मुनिश्रेष्ठ तक्षकसे अपनी रुचिके 
अनुसार धन लेकर वहाँसे लौट गये। महात्मा काश्यपके समय रहते लौट जानेपर तक्षक 
तुरंत हस्तिनापुर नगरमें जा पहुँचा। वहाँ जानेपर उसने सुना, राजा परीक्षित्‌की मन्त्रों तथा 
विष उतारनेवाली ओषधियोंद्वारा प्रयत्नपूर्वक रक्षा की जा रही है ।। १९--२१ ३ || 
सौतिर्वाच 


स चिन्तयामास तदा मायायोगेन पार्थिव: ।। २२ ।। 

मया वज्चयितव्योडसौ क उपायो भवेदिति । 

ततस्तापसरूपेण प्राहिणोत्‌ स भुजड़मान्‌ ।। २३ ।। 

फलदर्भोदकं गृह राज्ञे नागोडथ तक्षक: । 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! तब तक्षकने विचार किया, मुझे मायाका आश्रय 
लेकर राजाको ठग लेना चाहिये; किंतु इसके लिये क्या उपाय हो? तदनन्तर तक्षक नागने 
फल, दर्भ (कुशा) और जल लेकर कुछ नागोंको तपस्वीरूपमें राजाके पास जानेकी आज्ञा 
दी || २२-२३ ३ || 


तक्षक उवाच 
गच्छथ्वं यूयमव्यग्रा राजानं कार्यवत्तया ।। २४ ।। 
फलपुष्पोदकं नाम प्रतिग्राहयितुं नृपम्‌ 


तक्षकने कहा--तुमलोग कार्यकी सफलताके लिये राजाके पास जाओ, किंतु तनिक 
भी व्यग्र न होना। तुम्हारे जानेका उद्देश्य है--महाराजको फल, फूल और जल भेंट 
करना || २४६ || 
सौतिरु्वाच 


ते तक्षकसमादिष्टास्तथा चक्रुर्भुजज्रमा: ।। २५ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तक्षकके आदेश देनेपर उन नागोंने वैसा ही किया |। २५ ।। 

उपनिन्‍न्युस्तथा राज्ञे दर्भानाप: फलानि च | 

तच्च सर्व स राजेन्द्र: प्रतिजग्राह वीर्यवान्‌ । २६ ।। 

वे राजाके पास कुश, जल और फल लेकर गये। परम पराक्रमी महाराज परीक्षित्‌ने 
उनकी दी हुई वे सब वस्तुएँ ग्रहण कर लीं ।। २६ ।। 

कृत्वा तेषां च कार्याणि गम्यतामित्युवाच तान्‌ | 

गतेषु तेषु नागेषु तापसच्छझरूपिषु ।। २७ ।। 

अमात्यान्‌ सुहृदश्चैव प्रोवाच स नराधिप: । 

भक्षयन्तु भवन्तो वै स्वादूनीमानि सर्वश: ।। २८ ।। 


तापसैरुपनीतानि फलानि सहिता मया । 

ततो राजा ससचिव: फलान्यादातुमैच्छत ।। २९ ।। 

तदनन्तर उन्हें पारितोषिक देने आदिका कार्य करके कहा--“'अब आपलोग जाय॑।' 
तपस्वियोंके वेषमें छिपे हुए उन नागोंके चले जानेपर राजाने अपने मन्त्रियों और सुहृदोंसे 
कहा--'ये सब तपस्वियोंद्वारा लाये हुए बड़े स्वादिष्ठ फल हैं। इन्हें मेरे साथ आपलोग भी 
खायेँ।” ऐसा कहकर मन्सत्रियोंसहित राजाने उन फलोंको लेनेकी इच्छा की || २७--२९ ।। 

विधिना सम्प्रयुक्तो वै ऋषिवाक्येन तेन तु । 

यस्मिन्नेव फले नागस्तमेवा भक्षयत्‌ स्वयम्‌ ।। ३० ।। 

विधाताके विधान एवं महर्षिके वचनसे प्रेरित होकर राजाने वही फल स्वयं खाया, 
जिसपर तक्षक नाग बैठा था ।। ३० ।। 

ततो भक्षयतस्तस्य फलात्‌ कृमिरभूदणु: । 

हस्वक: कृष्णनयनस्ताम्रवर्णोडथ शौनक ।॥। ३१ ।। 

शौनकजी! खाते समय राजाके हाथमें जो फल था, उससे एक छोटा-सा कीट प्रकट 
हुआ। देखनेमें वह अत्यन्त लघु था, उसकी आँखें काली और शरीरका रंग ताँबेके समान 
था ।। ३१ || 

स त॑ गृहा नृपश्रेष्ठ सचिवानिदमब्रवीत्‌ । 

अस्तमभ्येति सविता विषादद्य न मे भयम्‌ ।। ३२ ।। 

नृपश्रेष्ठ परीक्षितने उस कीड़ेको हाथमें लेकर मन्त्रियोंसे इस प्रकार कहा--“अब 
सूर्यदेव अस्ताचलको जा रहे हैं; इसलिये इस समय मुझे सर्पके विषसे कोई भय नहीं 
है ।। ३२ ।। 

सत्यवागस्तु स मुनि: कृमिर्मा दशतामयम्‌ | 

तक्षको नाम भूत्वा वै तथा परिहृतं भवेत्‌ ।। ३३ ।। 

“वे मुनि सत्यवादी हों, इसके लिये यह कीट ही तक्षक नाम धारण करके मुझे डँस ले। 
ऐसा करनेसे मेरे दोषका परिहार हो जायगा ।। ३३ ।। 

ते चैनमन्ववर्तन्त मन्त्रिण: कालचोदिता: । 

एवमुकक्‍्त्वा स राजेन्द्रो ग्रीवायां संनिवेश्य ह ।। ३४ ।। 

कृमिकं प्राहसत्‌ तूर्ण मुमूर्षुर्नष्टचेतन: । 

प्रहसन्नेव भोगेन तक्षकेण त्ववेष्ट्यत ।। ३५ ।। 

तस्मात्‌ फलादू विनिष्क्रम्य यत्‌ तद्‌ राज्ञे निवेदितम्‌ । 

वेष्टयित्वा च वेगेन विनद्य च महास्वनम्‌ | 

अदशत्‌ पृथिवीपालं तक्षकः पन्नगेश्वर: ।। ३६ ।। 

कालसे प्रेरित होकर मन्त्रियोंने भी उनकी हाँ-में-हाँ मिला दी। मन्त्रियोंसे पूर्वोक्त बात 
कहकर राजाधिराज परीक्षित्‌ उस लघु कीटको कंधेपर रखकर जोर-जोरसे हँसने लगे। वे 


तत्काल ही मरनेवाले थे; अतः उनकी बुद्धि मारी गयी थी। राजा अभी हँस ही रहे थे कि 
उन्हें जो निवेदित किया गया था उस फलसे निकलकर तक्षक नागने अपने शरीरसे उनको 
जकड़ लिया। इस प्रकार वेगपूर्वक उनके शरीरमें लिपटकर नागराज तक्षकने बड़े जोरसे 
गर्जना की और भूपाल परीक्षित्‌को डँस लिया || ३४--३६ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि तक्षकदंशे त्रिचत्वारिंशो5 ध्याय: ।। 
४३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें तक्षक-दंशनविषयक 
तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४३ ॥। 


अपन का बछ। | अफड-ए क्र 


चतुश्नत्वारिशो< ध्याय: 
जनमेजयका राज्याभिषेक और विवाह 


सौतिरुवाच 


ते तथा मन्त्रिणो दृष्टवा भोगेन परिवेष्टितम्‌ । 
विषण्णवदना: सर्वे रुरुदुर्भशदु:खिता: ।। १ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! मन्त्रीगण राजा परीक्षित्‌को तक्षक नागसे जकड़ा 
हुआ देख अत्यन्त दुःखी हो गये। उनके मुखपर विषाद छा गया और वे सब-के-सब रोने 
लगे ।। १ ।। 
तं तु नादं ततः श्रुत्वा मन्त्रिणस्ते प्रदुद्र॒व॒ुः । 
अपश्यन्त तथा यान्तमाकाशे नागमद्भुतम्‌ ।। २ ।। 
सीमन्तमिव कुर्वाणं नभस: पद्मवर्चसम्‌ | 
तक्षकं पन्नगश्रेष्ठ भूशं शोकपरायणा: ।। ३ ।। 
तक्षककी फुंकारभरी गर्जना सुनकर मन्त्रीलोग भाग चले। उन्होंने देखा लाल 
कमलकी-सी कान्ति-वाला वह अद्भुत नाग आकाशकमें सिन्दूरकी रेखा-सी खींचता हुआ 
चला जा रहा है। नागोंमें श्रेष्ठ तक्षकको इस प्रकार जाते देख वे राजमन्त्री अत्यन्त शोकमें 
डूब गये ।। २-३ ।। 
ततस्तु ते तद्‌ गृहमग्निना<5<वृतं 
प्रदीप्यमानं विषजेन भोगिन: । 
भयात्‌ परित्यज्य दिश: प्रपेदिरे 
पपात राजाशनिताडितो यथा ।। ४ ।। 
वह राजमहल सर्पके विषजनित अग्निसे आवृत हो धू-धू करके जलने लगा। यह देख 
उन सब मन्त्रियोंने भयसे उस स्थानको छोड़कर भिन्न-भिन्न दिशाओंकी शरण ली तथा 
राजा परीक्षित्‌ वज्जके मारे हुएकी भाँति धरतीपर गिर पड़े ।। ४ ।। 
ततो नृपे तक्षकतेजसा हते 
प्रयुज्य सर्वा: परलोकसत्क्रिया: । 
शुचिर्द्धिजो राजपुरोहितस्तदा 
तथैव ते तस्य नृपस्य मन्त्रिण: ।। ५ ।। 
नृपं शिशुं तस्य सुतं प्रचक्रिरे 
समेत्य सर्वे पुरवासिनो जना: । 
नृपं यमाहुस्तममित्रघातिनं 


कुरुप्रवीरं जनमेजयं जना: ।। ६ ।। 
तक्षककी विषानि्निद्वारा राजा परीक्षित्‌के दग्ध हो जानेपर उनकी समस्त पारलौकिक 
क्रियाएँ करके पवित्र ब्राह्मण राजपुरोहित, उन महाराजके मन्त्री तथा समस्त पुरवासी 
मनुष्योंने मिलकर उन्हींके पुत्रको, जिसकी अवस्था अभी बहुत छोटी थी, राजा बना दिया। 
कुरुकुलका वह श्रेष्ठ वीर अपने शत्रुओंका विनाश करनेवाला था। लोग उसे राजा जनमेजय 
कहते थे ।। ५-६ ।। 
स बाल एवार्यमतिर्नपोत्तम: 
सहैव तैर्मन्त्रिपुरोहितैस्तदा । 
शशास राज्यं कुरुपुज्गभवाग्रजो 
यथास्य वीर: प्रपितामहस्तथा ।। ७ ।। 
बचपनमें ही नृपश्रेष्ठ जनमेजयकी बुद्धि श्रेष्ठ पुरुषोंके समान थी। अपने वीर प्रपितामह 
महाराज युधिष्ठिरकी भाँति कुरुश्रेष्ठ वीरोंके अग्रगण्य जनमेजय भी उस समय मन्त्री और 
पुरोहितोंके साथ धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगे ।। ७ ।। 
ततस्तु राजानममित्रतापनं 
समीक्ष्य ते तस्य नृपस्य मन्त्रिण: । 
सुवर्णवर्माणमुपेत्य काशिपं 
वपुष्टमार्थ वरयाम्प्रचक्रमु: ।। ८ ।। 
राजमन्त्रियोंने देखा, राजा जनमेजय शत्रुओंको दबानेमें समर्थ हो गये हैं, तब उन्होंने 
काशिराज सुवर्णवर्माके पास जाकर उनकी पुत्री वपुष्टमाके लिये याचना की ।। ८ ।। 
ततः स राजा प्रददौ वपुष्टमां 
कुरुप्रवीराय परीक्ष्य धर्मत: । 
स चापि तां प्राप्प मुदायुतो5भव- 
न्न चान्यनारीषु मनोदथे क्वचित्‌ ।। ९ ।। 
काशिराजने धर्मकी दृष्टिसे भलीभाँति जाँच-पड़ताल करके अपनी कन्या वपुष्टमाका 
विवाह कुरुकुलके श्रेष्ठ वीर जनमेजयके साथ कर दिया। जनमेजयने भी वपुष्टमाको पाकर 
बड़ी प्रसन्नताका अनुभव किया और दूसरी स्त्रियोंकी ओर कभी अपने मनको नहीं जाने 
दिया ।। ९ |। 
सर:सु फुल्लेषु वनेषु चैव हि 
प्रसन्नचेता विजहार वीर्यवान्‌ । 
तथा स राजन्यवरो विजद्ठिवान्‌ 
यथोर्वशीं प्राप्य पुरा पुरूरवा: ।। १० ।। 
राजाओंमें श्रेष्ठ महापराक्रमी जनमेजयने प्रसन्न-चित्त होकर सरोवरों तथा पुष्पशोभित 
उपवनोंमें रानी वपुष्टमाके साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे पूर्वकालमें उर्वशीको पाकर 


महाराज पुरूरवाने किया था ।। १० ।। 
वपुष्टमा चापि वरं पतिव्रता 
प्रतीतरूपा समवाप्य भूपतिम्‌ । 
भावेन रामा रमयाम्बभूव सा 
विहारकालेष्ववरोधसुन्दरी ।। ११ ।। 
वषुष्टमा पतिव्रता थी। उसका रूपसौन्दर्य सर्वत्र विख्यात था। वह राजाके अन्तःपुरमें 
सबसे सुन्दरी रमणी थी। राजा जनमेजयको पतिरूपमें प्राप्त करके वह विहारकालमें बड़े 
अनुरागके साथ उन्हें आनन्द प्रदान करती थी ।। ११ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जनमेजयराज्याभिषेके 
चतुश्नत्वारिंशोध्याय: ।। ४४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपव॑रमोें जनमेजयराज्याभिषेकसम्बन्धी 
चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४४ ॥। 


अपन बक। | अ्री-क्ा 


पजञज्चचत्वारिशो< ध्याय: 


जरत्कारुको अपने पितरोंका दर्शन और उनसे वार्तालाप 


सौतिरुवाच 


एतस्मिन्नेव काले तु जरत्कारुर्महातपा: । 

चचार पृथिवीं कृत्स्नां यत्रसायंगृहो मुनि: ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--इन्हीं दिनोंकी बात है, महातपस्वी जरत्कारु मुनि सम्पूर्ण 
पृथ्वीपर विचरण कर रहे थे। जहाँ सायंकाल हो जाता, वहीं वे ठहर जाते थे ।। १ ।। 

चरन्‌ दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभि: । 

तीर्थेष्वाप्लवनं कृत्वा पुण्येषु विचचार ह ।। २ ।॥। 

उन महातेजस्वी महर्षिने ऐसे कठोर नियमोंकी दीक्षा ले रखी थी, जिनका पालन करना 
दूसरे अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये सर्वथा कठिन था। वे पवित्र तीर्थोमें स्नान करते हुए विचर 
रहे थे | २ ।। 

वायुभक्षो निराहार: शुष्यन्नहरहर्मुनि: । 

स ददर्श पितृन्‌ गर्ते लम्बमानानधोमुखान्‌ ।। ३ ।। 

एकतन्त्ववशिष्टं वै वीरणस्तम्बमाश्रितान्‌ | 

त॑ तन्तुं च शनैराखुमाददानं बिलेशयम्‌ ।। ४ ।। 

वे मुनि वायु पीते और निराहार रहते थे; इसलिये दिन-पर-दिन सूखते चले जाते थे। 
एक दिन उन्होंने पितरोंको देखा, जो नीचे मुँह किये एक गड्ढेमें लटक रहे थे। उन्होंने खश 
नामक तिनकोंके समूहको पकड़ रखा था, जिसकी जड़में केवल एक तन्‍्तु बच गया था। 
उस बचे हुए तन्तुको भी वहीं बिलमें रहनेवाला एक चूहा धीरे-धीरे खा रहा था ।। ३-४ ।। 

निराहारान्‌ कृशान्‌ दीनान्‌ गर्ते स्वत्राणमिच्छत: । 

उपसृत्य स तान्‌ दीनान्‌ दीनरूपो5भ्यभाषत ।। ५ ।। 

वे पितर निराहार, दीन और दुर्बल हो गये थे और चाहते थे कि कोई हमें इस गडढेमें 
गिरनेसे बचा ले। जरत्कारु उनकी दयनीय दशा देखकर दयासे द्रवित हो स्वयं भी दीन हो 
गये और उन दीन-दुःखी पितरोंके समीप जाकर बोले-- || ५ |। 

के भवन्तो5वलम्बन्ते वीरणस्तम्बमाश्रिता: । 

दुर्बलं खादितैर्मूलैराखुना बिलवासिना ।। ६ ।। 

“आपलोग कौन हैं जो खशके गुच्छेके सहारे लटक रहे हैं? इस खशकी जड़ें यहाँ 
बिलमें रहनेवाले चूहेने खा डाली हैं, इसलिये यह बहुत कमजोर है ।। ६ ।। 

वीरणस्तम्बके मूलं यदप्येकमिह स्थितम्‌ | 

तदप्ययं शनैराखुरादत्ते दशनै: शितै: ।। ७ ।। 


“खशके इस गुच्छेमें जो मूलका एक तन्तु यहाँ बचा है, उसे भी यह चूहा अपने तीखे 
दाँतोंसे धीरे-धीरे कुतर रहा है ।। ७ ।। 

छेत्स्यतेडल्पावशिष्टत्वादेतदप्यचिरादिव । 

ततस्तु पतितारोअत्र गतें व्यक्तमधोमुखा: ।। ८ ।। 

“उसका स्वल्प भाग शेष है, वह भी बात-की-बातमें कट जायगा। फिर तो आपलोग 
नीचे मुँह किये निश्चय ही इस गड्ढेमें गिर जायँगे ।। ८ ।। 

तस्य मे दु:खमुत्पन्नं दृष्टवा युष्मानधोमुखान्‌ । 

कृच्छुमापदमापन्नान्‌ प्रियं कि करवाणि व: ।। ९ ।। 

तपसोअस्य चतुर्थेन तृतीयेनाथवा पुन: । 

अर्धेन वापि निस्तर्तुमापदं ब्रूत मा चिरम्‌ ।। १० ।। 

“आपको इस प्रकार नीचे मुँह किये लटकते देख मेरे मनमें बड़ा दुःख हो रहा है। 
आपलोग बड़ी कठिन विपत्तिमें पड़े हैं। मैं आपलोगोंका कौन प्रिय कार्य करूँ? आपलोग 
मेरी इस तपस्याके चौथे, तीसरे अथवा आधे भागके द्वारा भी इस विपत्तिसे बचाये जा सकें 
तो शीघ्र बतलावें ।। ९-१० |। 

अथवापि समग्रेण तरन्तु तपसा मम । 

भवन्त: सर्व एवेह काममेवं विधीयताम्‌ ।। ११ ।। 

“अथवा मेरी सारी तपस्याके द्वारा भी यदि आप सभी लोग यहाँ इस संकटसे पार हो 
सकें तो भले ही ऐसा कर लें” ।। ११ ।। 

पितर ऊचु. 

वृद्धों भवान्‌ ब्रह्मचारी यो नस्त्रातुमिहेच्छसि । 

नतु विप्राग्रय तपसा शक्‍्यते तद्‌ व्यपोहितुम्‌ ।। १२ ।। 

पितरोंने कहा--विप्रवर! आप बूढ़े ब्रह्मचारी हैं, जो यहाँ हमारी रक्षा करना चाहते हैं; 
किंतु हमारा संकट तपस्यासे नहीं टाला जा सकता ।। १२ ।। 

अस्ति नस्तात तपस: फल प्रवदतां वर । 

संतानप्रक्षयाद्‌ ब्रह्मनू पताम निरयेडशुचौ ।। १३ ।। 

तात! तपस्याका बल तो हमारे पास भी है। वक्ताओंमें श्रेष्ठ ब्राह्मग! हम तो 
वंशपरम्पराका विच्छेद होनेके कारण अपवित्र नरकमें गिर रहे हैं || १३ ।। 

संतानं हि परो धर्म एवमाह पितामह: । 

लम्बतामिह नस्तात न ज्ञान प्रतिभाति वै ।। १४ ।। 

ब्रद्माजीका वचन है कि संतान ही सबसे उत्कृष्ट धर्म है। तात! यहाँ लटकते हुए 
हमलोगोंकी सुध-बुध प्राय: खो गयी है, हमें कुछ ज्ञात नहीं होता ।। १४ ।। 

येन त्वा नाभिजानीमो लोके विख्यातपौरुषम्‌ । 


वृद्धो भवान्‌ महाभागो यो न: शोच्यान्‌ सुदु:ःखितान्‌ ।। १५ ।। 

शोचते चैव कारुण्याच्छूणु ये वै वयं द्विज । 

यायावरा नाम वयमृषय: संशितव्रता: ।। १६ ।। 

इसीलिये लोकमें विख्यात पौरुषवाले आप-जैसे महापुरुषको हम पहचान नहीं पा रहे 
हैं। आप कोई महान्‌ सौभाग्यशाली महापुरुष हैं, जो अत्यन्त दुःखमें पड़े हुए हम-जैसे 
शोचनीय प्राणियोंके लिये करुणावश शोक कर रहे हैं। ब्रह्म! हमलोग कौन हैं इसका 
परिचय देते हैं, सुनिये। हम अत्यन्त कठोर व्रतका पालन करनेवाले यायावर नामक महर्षि 
हैं ।। १५-१६ ।। 

लोकात्‌ पुण्यादिह भ्रष्टा: संतानप्रक्षयान्मुने । 

प्रणष्टं नस्तपस्तीव्रं न हि नस्तन्तुरस्ति वै ।। १७ ।। 

मुने! वंशपरम्पराका क्षय होनेके कारण हमें पुण्य-लोकसे भ्रष्ट होना पड़ा है। हमारी 
तीव्र तपस्या नष्ट हो गयी; क्योंकि हमारे कुलमें अब कोई संतति नहीं रह गयी है ।। १७ ।। 

अस्ति त्वेकोडद्य नस्तन्तुः सो5पि नास्ति यथा तथा । 

मन्दभाग्योडल्पभाग्यानां तप एकं समास्थित: ।। १८ ।। 

आजकल हमारी परम्परामें एक ही तन्तु या संतति शेष है, किंतु वह भी नहींके बराबर 
है। हम अल्पभाग्य हैं, इसीसे वह मन्दभाग्य संतति एकमात्र तपमें लगी हुई है ।। १८ ।। 

जरत्कारुरिति ख्यातो वेदवेदाड़पारग: । 

नियतात्मा महात्मा च सुव्रतः सुमहातपा: ।। १९ ।। 

उसका नाम है जरत्कारु। वह वेद-वेदांगोंका पारंगत विद्वान्‌ होनेके साथ ही मन और 
इन्द्रियोंकों संयममें रखनेवाला, महात्मा, उत्तम व्रतका पालक और महान्‌ तपस्वी 
है ।। १९ || 

तेन सम तपसो लोभात्‌ कृच्छुमापादिता वयम्‌ । 

न तस्य भार्या पुत्रो वा बान्धवो वास्ति कश्चन ।। २० ।। 

उसने तपस्याके लोभसे हमें संकटमें डाल दिया है। उसके न पत्नी है, न पुत्र और न 
कोई भाई-बन्धु ही है | २० ।। 

तस्माल्लम्बामहे गर्ते नष्टसंज्ञा हुनाथवत्‌ | 

स वक्तव्यस्त्वया दृष्टो हास्माकं नाथवत्तया || २३१ ।। 

इसीसे हमलोग अपनी सुध-बुध खोकर अनाथकी तरह इस गड्ढेमें लटक रहे हैं। यदि 
वह आपके देखनेमें आवे तो हम अनाथोंको सनाथ करनेके लिये उससे इस प्रकार कहियेगा 
-- || २१ || 

पितरस्ते5वलम्बन्ते गर्ते दीना अधोमुखा: । 

साधु दारान्‌ कुरुष्वेति प्रजामुत्पादयेति च ।। २२ ।। 


“जरत्कारो! तुम्हारे पितर अत्यन्त दीन हो नीचे मुँह करके गड्ढेमें लटक रहे हैं। तुम 
उत्तम रीतिसे पत्नीके साथ विवाह कर लो और उसके द्वारा संतान उत्पन्न करो || २२ ।। 

कुलतन्तुर्हि नः शिष्टस्त्वमेवैकस्तपोधन । 

यस्त्वं पश्यसि नो ब्रह्मन्‌ वीरणस्तम्बमाश्रितान्‌ ।। २३ ।। 

एषो<स्माकं कुलस्तम्ब आस्ते स्वकुलवर्धन: । 

यानि पश्यसि वै ब्रह्मन्‌ मूलानीहास्य वीरुध: ।। २४ ।। 

एते नस्तन्तवस्तात कालेन परिभक्षिता: । 

यत्त्वेतत्‌ पश्यसि ब्रह्मन्‌ मूलमस्यार्धभक्षितम्‌ ।। २५ ।। 

यत्र लम्बामहे गर्ते सो5प्येकस्तप आस्थित: । 

यमाखुं पश्यसि ब्रह्मनू काल एष महाबल: ।॥। २६ ।। 

“तपोधन! तुम्हीं अपने पूर्वजोंके कुलमें एकमात्र तन्तु बच रहे हो। ब्रह्मन्‌! आप जो हमें 
खशके गुच्छेका सहारा लेकर लटकते देख रहे हैं, यह खशका गुच्छा नहीं है, हमारे कुलका 
आश्रय है, जो अपने कुलको बढ़ानेवाला है। विप्रवर! इस खशकी जो कटी हुई जड़ें यहाँ 
आपकी दृष्टिमें आ रही हैं, ये ही हमारे वंशके वे तन्तु (संतान) हैं, जिन्हें कालरूपी चूहेने खा 
लिया है। ब्राह्णणण आप जो इस खशकी यह अधकटी जड़ देखते हैं, जिसके सहारे हम 
गड़्ढेमें लटक रहे हैं, यह वही एकमात्र संतान जरत्कारु है, जो तपस्यामें लगा है और 
ब्राह्मण देवता! जिसे आप चूहेके रूपमें देख रहे हैं, यह महाबली काल है || २३--२६ ।। 

स तं॑ तपोरतं मन्दं शनै: क्षपयते तुदन्‌ । 

जरत्कारुं तपोलब्धं मन्दात्मानमचेतसम्‌ ।। २७ ।। 

“वह उस तपस्वी एवं मूढ़ जरत्कारुको, जो तपको ही लाभ माननेवाला, मन्दात्मा 
(अदूरदर्शी) और अचेत (जड) हो रहा है, धीरे-धीरे पीड़ा देते हुए दाँतोंसे काट रहा 
है || २७ |। 

न हि नस्तत्‌ तपस्तस्य तारयिष्यति सत्तम । 

छिन्नमूलान्‌ परिभ्रष्टानू कालोपहतचेतस: ।। २८ ।। 

अध:प्रविष्टान्‌ पश्यास्मान्‌ यथा दुष्कृतिनस्तथा | 

अस्मासु पतितेष्वत्र सह सर्वे: सबान्धवै: ।। २९ ।। 

छिन्न: कालेन सो>प्यत्र गन्ता वै नरकं॑ ततः । 

तपो वाप्यथवा यज्ञो यच्चान्यत्‌ पावनं महत्‌ ।। ३० ।। 

तत्‌ सर्वमपरं तात न संतत्या सम॑ मतम्‌ । 

स तात दृष्ट्वा ब्रूयास्तं जरत्कारुं तपोधन ।। ३१ ।। 

यथा दृष्टमिदं चात्र त्वयाख्येयमशेषत: । 

यथा दारानू्‌ प्रकुर्यात्‌ स पुत्रानुत्पादयेद्‌ यथा ।। ३२ ।। 

तथा ब्रह्मंंस्त्वया वाच्य: सो5स्माकं नाथवत्तया । 


बान्धवानां हितस्येह यथा चात्मकुलं तथा ।। ३३ ।। 

कस्त्वं बन्धुमिवास्माकमनुशोचसि सत्तम | 

श्रोतुमिच्छाम सर्वेषां को भवानिह तिष्ठति ॥। ३४ ।। 

'साधुशिरोमणे! उस जरत्कारुकी तपस्या हमें इस संकटसे नहीं उबारेगी। देखिये, 
हमारी जड़ें कट गयी हैं, कालने हमारी चेतनाशक्ति नष्ट कर दी है और हम अपने स्थानसे 
भ्रष्ट होकर नीचे इस गड्ढेमें गिर रहे हैं। जैसे पापियोंकी दुर्गति होती है, वैसे ही हमारी होती 
है। हम समस्त बन्धु-बान्धवोंके साथ जब इस गड़ढेमें गिर जायँगे, तब वह जरत्कारु भी 
कालका ग्रास बनकर अवश्य इसी नरकमें आ गिरेगा। तात! तपस्या, यज्ञ अथवा अन्य जो 
महान्‌ एवं पवित्र साधन हैं, वे सब संतानके समान नहीं हैं। तात! आप तपस्याके धनी जान 
पड़ते हैं। आपको तपस्वी जरत्कारु मिल जाय तो उससे हमारा संदेश कहियेगा और आपने 
यहाँ जो कुछ देखा है, वह सब उसे बता दीजियेगा! ब्रह्मन्‌! हमें सनाथ बनानेकी दृष्टिसे 
आप जरत्कारुके साथ इस प्रकार वार्तालाप कीजियेगा, जिससे वह पत्नी-संग्रह करे और 
उसके द्वारा पुत्रोंको जन्म दे। तात! जरत्कारुके बान्धव जो हमलोग हैं, हमारे लिये अपने 
कुलकी भाँति अपने भाई-बन्धुके समान आप सोच कर रहे हैं। अतः साधुशिरोमणे! 
बताइये, आप कौन हैं? हम सब लोगोंमेंसे आप किसके क्या लगते हैं, जो यहाँ खड़े हुए हैं? 
हम आपका परिचय सुनना चाहते हैं! || २८--३४ ।। 

इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुपितृदर्शने 
पज्चचत्वारिंशो5 ध्याय: ।। ४५ |। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वरमें जरत्कारुके पितृदर्शनविषयक 
पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ४५ ॥। 


ऑपन---र< बछ। है २ >> 


षट्चत्वारिशो5 ध्याय: 


जरत्कारुका शर्तके साथ विवाहके लिये उद्यत होना और 
नागराज वासुकिका जरत्कारु नामकी कन्याको लेकर 
आना 


सौतिरुवाच 


एतच्छुत्वा जरत्कारुर्भुश॑ शोकपरायण: । 
उवाच तान्‌ पितृन्‌ दुःखाद्‌ वाष्पसंदिग्धया गिरा ।। १ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! यह सुनकर जरत्कारु अत्यन्त शोकमें मग्न हो गये 
और दु:खसे आँसू बहाते हुए गदगद वाणीमें अपने पितरोंसे बोले || १ ।। 
जरत्कारुर्वाच 


मम पूर्वे भवन्तो वै पितर: सपितामहा: । 
तद्‌ ब्रूत यन्मया कार्य भवतां प्रियकाम्यया ।। २ ।। 
अहमेव जरत्कारु: किल्बिषी भवतां सुतः । 
ते दण्डं धारयत मे दुष्कृतेरकृतात्मन: ।। ३ ।। 
जरत्कारुने कहा--आप मेरे ही पूर्वज पिता और पितामह आदि हैं। अतः बताइये 
आपका प्रिय करनेके लिये मुझे क्या करना चाहिये। मैं ही आपलोगोंका पुत्र पापी जरत्कारु 
हूँ। आप मुझ अकृतात्मा पापीको इच्छानुसार दण्ड दें || २-३ ।। 
पितर ऊचु. 
पुत्र दिष्ट्यासि सम्प्राप्त इमं देशं यदृच्छया । 
किमर्थ च त्वया ब्रह्मन्‌ न कृतो दारसंग्रह: ।॥। ४ ।। 
पितर बोले--पुत्र! बड़े सौभाग्यकी बात है जो तुम अकस्मात्‌ इस स्थानपर आ गये। 
ब्रह्मन! तुमने अबतक विवाह क्‍यों नहीं किया? ।। ४ ।। 
जरत्कारुर्वाच 


ममायं पितरो नित्य यद्यर्थ: परिवर्तते | 

ऊर्ध्वरेता: शरीर वै प्रापयेयममुत्र वै ।। ५ ।। 

जरत्कारुने कहा--पितृगण! मेरे हृदयमें यह बात निरन्तर घूमती रहती थी कि मैं 
ऊर्ध्विता (अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालक) होकर इस शरीरको परलोक ([पुष्यधाम)-में 
पहुँचाऊँ || ५ |। 

न दारान्‌ वै करिष्येडहमिति मे भावितं मन: । 


एवं दृष्टवा तु भवत: शकुन्तानिव लम्बत: ।। ६ ।। 

मया निवर्तिता बुद्धिरब्रह्मचर्यात्‌ पितामहा: । 

करिष्ये व: प्रियं काम॑ निवेक्ष्येडहहमसंशयम्‌ ।। ७ ।। 

अतः मैंने अपने मनमें यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि “मैं कभी पत्नी-परिग्रह 
(विवाह) नहीं करूँगा।” किंतु पितामहो! आपको पक्षियोंकी भाँति लटकते देख अखण्ड 
ब्रह्मचर्यके पालन-सम्बन्धी निश्चयसे मैंने अपनी बुद्धि लौटा ली है। अब मैं आपका प्रिय 
मनोरथ पूर्ण करूँगा, निश्चय ही विवाह कर लूँगा || ६-७ ।। 

सनाम्नीं यद्य॒हं कनन्‍्यामुपलप्स्ये कदाचन । 

भविष्यति च या काचिद्‌ भैक्ष्यवत्‌ स्वयमुद्यता ।। ८ ।। 

प्रतिग्रहीता तामस्मि न भरेयं च यामहम्‌ । 

एवंविधमहं कुर्या निवेशं प्राप्तुयां यदि । 

अन्यथा न करिष्ये5हं सत्यमेतत्‌ पितामहा: ।॥। ९ |। 

(परंतु इसके लिये एक शर्त होगी--) “यदि मैं कभी अपने ही जैसे नामवाली कुमारी 
कन्या पाऊँगा, उसमें भी जो भिक्षाकी भाँति बिना माँगे स्वयं ही विवाहके लिये प्रस्तुत हो 
जायगी और जिसके पालन-पोषणका भार मुझपर न होगा, उसीका मैं पाणिग्रहण 
करूँगा।” यदि ऐसा विवाह मुझे सुलभ हो जाय तो कर लूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही 
नहीं। पितामहो! यह मेरा सत्य निश्चय है ।। ८-९ ।। 

तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै । 

शाश्वताश्चाव्ययाश्वैव तिष्ठन्तु पितरो मम ।। १० ।। 

वैसे विवाहसे जो पत्नी मिलेगी, उसीके गर्भसे आपलोगोंको तारनेके लिये कोई प्राणी 
उत्पन्न होगा। मैं चाहता हूँ मेरे पितर नित्य शाश्वत लोकोंमें बने रहें, वहाँ वे अक्षय सुखके 
भागी हों ।। १० ।। 

सौतिरुवाच 

एवमुक्‍त्वा तु स के श्वचार पृथिवीं मुनि: । 

न च सम लभते भार्या वृद्धोड्यमिति शौनक ।। ११ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनकजी! इस प्रकार पितरोंसे कहकर जरत्कारु मुनि पूर्ववत्‌ 
पृथ्वीपर विचरने लगे। परंतु “यह बूढ़ा है” ऐसा समझकर किसीने कन्या नहीं दी, अतः उन्हें 
पत्नी उपलब्ध न हो सकी || ११ ।। 

यदा निर्वेदमापन्न: पितृभिश्नोदितस्तथा । 

तदारण्यं स गत्वोच्चैश्लुक्रोश भृूशदु:खित: ।। १२ ।। 

जब वे विवाहकी प्रतीक्षामें खिन्न हो गये, तब पितरोंसे प्रेरित होनेके कारण वनमें 
जाकर अत्यन्त दुःखी हो जोर-जोरसे ब्याहके लिये पुकारने लगे || १२ ।। 


स त्वरण्यगतः प्राज्ञ: पितृणां हितकाम्यया । 

उवाच कनन्‍्यां याचामि तिसत्रो वाच: शनैरिमा: ।। १३ ।। 

वनमें जानेपर विद्वान्‌ जरत्कारुने पितरोंके हितकी कामनासे तीन बार धीरे-धीरे यह 
बात कही--मैं कन्या माँगता हूँ” ।। १३ ।। 

यानि भूतानि सन्तीह स्थावराणि चराणि च । 

अन्तर्हितानि वा यानि तानि शृण्वन्तु मे वच: ।। १४ ।। 

(फिर जोरसे बोले--) “यहाँ जो स्थावर-जंगम, दृश्य या अदृश्य प्राणी हैं, वे सब मेरी 
बात सुनें--- || १४ ।। 

उग्रे तपसि वर्तन्ते पितरश्वोदयन्ति माम्‌ । 

निविशस्वेति दु:खार्ता: संतानस्य चिकीर्षया ।। १५ ।। 

“मेरे पितर भयंकर कष्टमें पड़े हैं और दुःखसे आतुर हो संतान-प्राप्तिकी इच्छा रखकर 
मुझे प्रेरित कर रहे हैं कि 'तुम विवाह कर लो” || १५ ।। 

निवेशायाखिलां भूमिं कन्याभैक्ष्यं चरामि भो: । 

दरिद्रो दःखशीलश्न पितृभि: संनियोजित: ।। १६ ।। 

“अतः विवाहके लिये मैं सारी पृथ्वीपर घूमकर कन्याकी भिक्षा चाहता हूँ। यद्यपि मैं 
दरिद्र हूँ और सुविधाओंके अभावमें दुःखी हूँ, तो भी पितरोंकी आज्ञासे विवाहके लिये उद्यत 
हूँ ।। १६ |। 

यस्य कन्यास्ति भूतस्य ये मयेह प्रकीर्तिता: । 

ते मे कन्यां प्रयच्छन्तु चरत: सर्वतोदिशम्‌ ।। १७ ।। 

“मैंने यहाँ जिनका नाम लेकर पुकारा है, उनमेंसे जिस किसी भी प्राणीके पास 
विवाहके योग्य विख्यात गुणोंवाली कन्या हो, वह सब दिशाओंमें विचरनेवाले मुझ 
ब्राह्मणगको अपनी कन्या दे || १७ ।। 

मम कन्या सनाम्नी या भैक्ष्यवच्चोदिता भवेत्‌ | 

भरेय॑ चैव यां नाहं तां मे कनन्‍्यां प्रयच्छत ।। १८ ।। 

“जो कन्या मेरे ही जैसे नामवाली हो, भिक्षाकी भाँति मुझे दी जा सकती हो और 
जिसके भरण-पोषणका भार मुझपर न हो, ऐसी कन्या कोई मुझे दे” || १८ ।। 

ततस्ते पन्नगा ये वै जरत्कारौ समाहिता: । 

तामादाय प्रवृत्ति ते वासुके: प्रत्यवेदयन्‌ ।। १९ ।। 

तब उन नागोंने जो जरत्कारु मुनिकी खोजमें लगाये गये थे, उनका यह समाचार पाकर 
उन्होंने नागराज वासुकिको सूचित किया ।। १९ |। 

तेषां श्रुत्वा स नागेन्द्रस्तां कन्‍्यां समलंकृताम्‌ । 

प्रगृह्मारण्यमगमत्‌ समीप॑ं तस्य पन्नग: ।॥ २० |। 


उनकी बात सुनकर नागराज वासुकि अपनी उस कुमारी बहिनको वस्त्राभूषणोंसे 
विभूषित करके साथ ले वनमें मुनिके समीप गये ।। २० ।। 
तत्र तां भैक्ष्यवत्‌ कन्यां प्रादात्‌ तस्मै महात्मने । 
नागेन्द्रो वासुकिर्ब्रह्मनू न स तां प्रत्यगृह्लत ।। २१ ।। 
ब्रह्मन! वहाँ नागेन्द्र वासुकिने महात्मा जरत्कारुको भिक्षाकी भाँति वह कन्या समर्पित 
की; किंतु उन्होंने सहसा उसे स्वीकार नहीं किया || २१ ।। 
असनामेति वै मत्वा भरणे चाविचारिते । 
मोक्षभावे स्थितश्नापि मन्दीभूत: परिग्रहे || २२ ।। 
ततो नाम स कन्याया: पप्रच्छ भृगुनन्दन । 
वासुकिं भरणं चास्या न कुर्यामित्युवाच ह ।। २३ ।। 
सोचा, सम्भव है। यह कन्या मेरे-जैसे नामवाली न हो। इसके भरण-पोषणका भार 
किसपर रहेगा, इस बातका निर्णय भी अभीतक नहीं हो पाया है। इसके सिवा मैं 
मोक्षभावमें स्थित हूँ, यही सोचकर उन्होंने पत्नी-परिग्रहमें शिथिलता दिखायी। भृगुनन्दन! 
इसीलिये पहले उन्होंने वासुकिसे उस कन्याका नाम पूछा और यह स्पष्ट कह दिया---मैं 
इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा” || २२-२३ || 
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिजरत्कारुसमागमे 
षट्चत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४६ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वरमें वायुकि-जरत्कारु- 
समागमसम्बन्धी छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ४६ ॥। 


अपना बछ। | अफ्-४#-काल 


सप्तचत्वारिशो<् ध्याय: 


जरत्कारु मुनिका नागकन्याके साथ विवाह, नागकन्या 
जरत्कारुद्धवारा पतिसेवा तथा पतिका उसे त्यागकर 
तपस्याके लिये गमन 


सौतिरुवाच 


वासुकिस्त्वब्रवीद्‌ वाक्‍्यं जरत्कारुमृषिं तदा | 
सनाम्नी तव कन्येयं स्वसा मे तपसान्विता ।। १ ।। 
भरिष्यामि च ते भार्या प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम | 
रक्षणं च करिष्ये5स्या: सर्वशक्त्या तपोधन । 
त्वदर्थ रक्ष्यते चैषा मया मुनिवरोत्तम ।। २ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! उस समय वासुकिने जरत्कारु मुनिसे कहा 
-- द्विजश्रेष्ठ) इस कन्याका वही नाम है, जो आपका है। यह मेरी बहिन है और आपकी ही 
भाँति तपस्विनी भी है। आप इसे ग्रहण करें। आपकी पत्नीका भरण-पोषण मैं करूँगा। 
तपोधन! अपनी सारी शक्ति लगाकर मैं इसकी रक्षा करता रहूँगा। मुनिश्रेष्ठ] अबतक 
आपहीके लिये मैंने इसकी रक्षा की है ।। १-२ ।। 
ऋषिरुवाच 
न भरिष्येडहमेतां वै एब मे समय: कृत: । 
अप्रियं च न कर्तव्यं कृते चैनां त्यजाम्यहम्‌ ।। ३ ।। 
ऋषिने कहा--नागराज! मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा, मेरी यह शर्त तो तय हो 
गयी। अब दूसरी शर्त यह है कि तुम्हारी इस बहिनको कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, 
जो मुझे अप्रिय लगे। यदि अप्रिय कार्य कर बैठेगी तो उसी समय मैं इसे त्याग दूँगा || ३ ।। 
सौतिर्वाच 


प्रतिश्रुते तु नागेन भरिष्ये भगिनीमिति । 

जरत्कारुस्तदा वेश्म भुजगस्य जगाम ह ।। ४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--नागराजने यह शर्त स्वीकार कर ली कि “मैं अपनी बहिनका 
भरण-पोषण करूँगा।” तब जरत्कारु मुनि वासुकिके भवनमें गये ।। ४ ।। 

तत्र मन्त्रविदां श्रेष्ठस्तपोवृद्धों महाव्रत: । 

जग्राह पार्णिं धर्मात्मा विधिमन्त्रपुरस्कृतम्‌ ।। ५ ।। 


वहाँ मन्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ तपोवृद्ध महाव्रती धर्मात्मा जरत्कारुने शास्त्रीय विधि और 
मन्त्रोच्चारणके साथ नागकन्याका पाणिग्रहण किया ।। ५ |। 

ततो वासगहं रम्यं पन्नगेन्द्रस्य सम्मतम्‌ । 

जगाम भार्यामादाय स्तूयमानो महर्षिभि: ।। ६ ।। 

तदनन्तर महर्षियोंसे प्रशंसित होते हुए वे नागराजके रमणीय भवनमें, जो मनके 
अनुकूल था, अपनी पत्नीको लेकर गये ।। ६ ।। 

शयनं तत्र संक्लृप्तं स्पर्थ्यास्तरणसंवृतम्‌ । 

तत्र भार्यासहायो वै जरत्कारुरुवास ह ।॥। ७ ।। 

वहाँ बहुमूल्य बिछौनोंसे सजी हुई शय्या बिछी थी। जरत्कारु मुनि अपनी पत्नीके साथ 
उसी भवनमें रहने लगे || ७ ।। 

स तत्र समयं चक्रे भार्यया सह सत्तम: । 

विप्रियं मे न कर्तव्यं न च वाच्यं कदाचन ।। ८ ।। 

उन साधुशिरोमणिने वहाँ अपनी पत्नीके सामने यह शर्त रखी--'तुम्हें ऐसा कोई काम 
नहीं करना चाहिये, जो मुझे अप्रिय लगे। साथ ही कभी अप्रिय वचन भी नहीं बोलना 
चाहिये ।। ८ ।। 

त्यजेयं विप्रिये च त्वां कृते वासं च ते गृहे । 

एतद्‌ गृहाण वचनं मया यत्‌ समुदीरितम्‌ ।। ९ ।। 

“तुमसे अप्रिय कार्य हो जानेपर मैं तुम्हें और तुम्हारे घरमें रहना छोड़ दूँगा। मैंने जो 
कुछ कहा है, मेरे इस वचनको दृढ़तापूर्वक धारण कर लो” ।। ९ ।। 

तत: परमसंविग्ना स्वसा नागपतेस्तदा । 

अतिदुःखान्विता वाक्यं तमुवाचैवमस्त्विति ।। १० ।। 

यह सुनकर नागराजकी बहिन अत्यन्त उद्विग्न हो गयी और उस समय बहुत दुःखी 
होकर बोली--'भगवन्‌! ऐसा ही होगा” || १० ।। 

तथैव सा च भर्तरें दुःखशीलमुपाचरत्‌ | 

उपायै: श्वेतकाकीयै: प्रियकामा यशस्विनी ।। १३ |। 

फिर वह यशस्विनी नागकन्या दुःखद स्वभाववाले पतिकी उसी शर्तके अनुसार सेवा 


करने लगी। वह श्वेतकाकीय- उपायोंसे सदा पतिका प्रिय करनेकी इच्छा रखकर निरन्तर 
उनकी आराधनामें लगी रहती थी ।। ११ ।। 

ऋतुकाले ततः सनाता कदाचिद्‌ वासुके: स्वसा । 

भर्तरें वै यथान्यायमुपतस्थे महामुनिम्‌ ।। १२ ।। 

तदनन्तर किसी समय ऋतुकाल आनेपर वासुकिकी बहिन स्नान करके न्यायपूर्वक 
अपने पति महामुनि जरत्कारुकी सेवामें उपस्थित हुई ।। १२ ।। 

तत्र तस्यथा: समभवद्‌ गर्भो ज्वलनसंनिभ: । 


अतीवतेजसा युक्तो वैश्वानरसमद्युति: ।। १३ ।। 

वहाँ उसे गर्भ रह गया, जो प्रज्वलित अग्निके समान अत्यन्त तेजस्वी तथा तपःशक्तिसे 
सम्पन्न था। उसकी अंगकान्ति अग्निके तुल्य थी ।। १३ ।। 

शुक्लपक्षे यथा सोमो व्यवर्धत तथैव स: । 

ततः कतिपयाहस्य जरत्कारुर्महायशा: ।। १४ ।। 

उत्सड्रेडस्या: शिर: कृत्वा सुष्वाप परिखिन्नवत्‌ । 

तस्मिंश्न सुप्ते विप्रेन्द्रे सवितास्तमियाद्‌ गिरिम्‌ ।। १५ ।। 

जैसे शुक्लपक्षमें चन्द्रमा बढ़ते हैं, उसी प्रकार वह गर्भ भी नित्य परिपुष्ट होने लगा। 
तत्पश्चात्‌ कुछ दिनोंके बाद महातपस्वी जरत्कारु कुछ खिन्न-से होकर अपनी पत्नीकी 
गोदमें सिर रखकर सो गये। उन विप्रवर जरत्कारुके सोते समय ही सूर्य अस्ताचलको जाने 
लगे ।। १४-१५ ।। 

अह्वः परिक्षये ब्रह्मूंस्तत: साचिन्तयत्‌ तदा । 

वासुकेर्भगिनी भीता धर्मलोपान्मनस्विनी ।। १६ ।। 

कि नु मे सुकृतं भूयाद्‌ भर्तुरुत्थापनं न वा । 

दुःखशीलो हि धर्मात्मा कथं नास्यापराध्नुयाम्‌ ।। १७ ।। 

ब्रह्म! दिन समाप्त होने ही वाला था। अतः वासुकिकी मनस्विनी बहिन जरत्कारु 
अपने पतिके धर्मलोपसे भयभीत हो उस समय इस प्रकार सोचने लगी--“इस समय 
पतिको जगाना मेरे लिये अच्छा (धर्मानुकूल) होगा या नहीं? मेरे धर्मात्मा पतिका स्वभाव 
बड़ा दुःखद है। मैं कैसा बर्ताव करूँ, जिससे उनकी दृष्टिमें अपराधिनी न बनूँ ।। १६-१७ ।। 

कोपो वा धर्मशीलस्य धर्मलोपो5थवा पुनः । 

धर्मलोपो गरीयान्‌ वै स्यादित्यत्राकरोन्मतिम्‌ ।। १८ ।। 

उत्थापयिष्ये यद्येन॑ ध्रुवं कोपं करिष्यति । 

धर्मलोपो भवेदस्य संध्यातिक्रमणे ध्रुवम्‌ ।। १९ ।। 

'यदि इन्हें जगाऊँगी तो निश्चय ही इन्हें मुझपर क्रोध होगा और यदि सोते-सोते 
संध्योपासनका समय बीत गया तो अवश्य इनके धर्मका लोप हो जायगा, ऐसी दशामें 
धर्मात्मा पतिका कोप स्वीकार करूँ या उनके धर्मका लोप? इन दोनोंमें धर्मका लोप ही 
भारी जान पड़ता है।” अतः जिससे उनके धर्मका लोप न हो, वही कार्य करनेका उसने 
निश्चय किया ।। १८-१९ |। 

इति निश्चित्य मनसा जरत्कारुर्भुजड़मा । 

तमृषिं दीप्ततपसं शयानमनलोपमम्‌ || २० ।। 

उवाचेदं वच: श्लक्ष्णं ततो मधुरभाषिणी । 

उत्तिष्ठ त्वं महाभाग सूर्यो5स्तमुपगच्छति ।। २१ ।। 


मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके मीठे वचन बोलनेवाली नागकन्या जरत्कारुने वहाँ सोते 
हुए अग्निके समान तेजस्वी एवं तीव्र तपस्वी महर्षिसे मधुरवाणीमें यों कहा--“महाभाग! 
उठिये, सूर्यदेव अस्ताचलको जा रहे हैं || २०-२१ ।। 

संध्यामुपास्स्व भगवन्नप: स्पृष्टवा यतव्रतः । 

प्रादुष्कृताग्निहोत्रो5यं मुहूर्तो रम्यदारुण: ।॥ २२ ।। 

संध्या प्रवर्तते चेयं पश्चिमायां दिशि प्रभो । 

“भगवन्‌! आप संयमपूर्वक आचमन करके संध्योपासन कीजिये। अब अग्निहोत्रकी 
बेला हो रही है। यह मुहूर्त धर्मका साधन होनेके कारण अत्यन्त रमणीय जान पड़ता है। 
इसमें भूत आदि प्राणी विचरते हैं, अत: भयंकर भी है। प्रभो! पश्चिम दिशामें संध्या प्रकट हो 
रही है--उधरका आकाश लाल हो रहा है” || २२६ ।। 

एवमुक्त: स भगवान्‌ जरत्कारुर्महातपा: ।। २३ ।। 

भार्य॑ प्रस्फुरमाणौष्ठ इदं वचनमत्रवीत्‌ । 

अवमान: प्रयुक्तो5यं त्वया मम भुजड़मे ।। २४ ।। 

नागकन्याके ऐसा कहनेपर महातपस्वी भगवान्‌ जरत्कारु जाग उठे। उस समय क्रोधके 
मारे उनके होठ काँपने लगे। वे इस प्रकार बोले--“नागकन्ये! तूने मेरा यह अपमान किया 
है ।। २३-२४ ।। 

समीपे ते न वत्स्यामि गमिष्यामि यथागतम्‌ | 

शक्तिरस्ति न वामोरु मयि सुप्ते विभावसो: ।। २५ ।। 

अस्तं गन्तुं यथाकालमिति मे हृदि वर्तते । 

न चाप्यवमतस्येह वासो रोचेत कस्यचित्‌ ।। २६ ।। 

कि पुनर्धर्मशीलस्य मम वा मद्विधस्य वा । 

“इसलिये अब मैं तेरे पास नहीं रहूँगा। जैसे आया हूँ, वैसे ही चला जाऊँगा। वामोरु! 
सूर्यमें इतनी शक्ति नहीं है कि मैं सोता रहूँ और वे अस्त हो जायेँ। यह मेरे हृदयमें निश्चय है। 
जिसका कहीं अपमान हो जाय ऐसे किसी भी पुरुषको वहाँ रहना अच्छा नहीं लगता। फिर 
मेरी अथवा मेरे-जैसे दूसरे धर्मशील पुरुषकी तो बात ही कया है” | २५-२६६ ।। 

एवमुक्ता जरत्कारुर्भत्रा हृदयकम्पनम्‌ ।। २७ ।। 

अब्रवीद्‌ भगिनी तत्र वासुके: संनिवेशने । 

नावमानात्‌ कृतवती तवाहं विप्र बोधनम्‌ ।। २८ ।। 

धर्मलोपो न ते विप्र स्यादित्येतन्मया कृतम्‌ । 

उवाच भायमित्युक्तो जरत्कारुर्महातपा: ।। २९ ।। 

ऋषि: कोपसमाविष्ट स्त्यक्तुकामो भुजजड़माम्‌ | 

न मे वागनृतं प्राह गमिष्ये5हं भुजड़मे ।। ३० ।। 


जब पतिने इस प्रकार हृदयमें कँपकँपी पैदा करनेवाली बात कही, तब उस घरमें स्थित 
वासुकिकी बहिन इस प्रकार बोली--'विप्रवर! मैंने अपमान करनेके लिये आपको नहीं 
जगाया था। आपके धर्मका लोप न हो जाय, यही ध्यानमें रखकर मैंने ऐसा किया है।” यह 
सुनकर क्रोधमें भरे हुए महातपस्वी ऋषि जरत्कारुने अपनी पत्नी नागकन्याको त्याग 
देनेकी इच्छा रखकर उससे कहा--“नागकन्ये! मैंने कभी झूठी बात मुँहसे नहीं निकाली है, 
अत: अवश्य जाऊँगा' ।। २७--३० |। 

समयो होपष मे पूर्व त्वया सह मिथ: कृत: । 

सुखमस्म्युषितो भद्रे ब्रूयास्त्वं भ्रातरं शुभे ।। ३१ ।। 

इतो मयि गते भीरु गत: स भगवानिति । 

त्वं चापि मयि निष्क्रान्ते न शोकं कर्तुमहसि ।। ३२ ।। 

“मैंने तुम्हारे साथ आपसमें पहले ही ऐसी शर्त कर ली थी। भठद्रे! मैं यहाँ बड़े सुखसे 
रहा हूँ। यहाँसे मेरे चले जानेके बाद अपने भाईसे कहना--“भगवान्‌ जरत्कारु चले गये।” 
शुभे! भीरु! मेरे निकल जानेपर तुम्हें भी शोक नहीं करना चाहिये” ।। ३१-३२ ।। 

इत्युक्ता सानवद्याड़ी प्रत्युवाच मुनि तदा । 

जरत्कारुं जरत्कारुश्षिन्ताशोकपरायणा ।। ३३ || 

बाष्पगद्गदया वाचा मुखेन परिशुष्यता । 

कृताञ्जलिवर्वरारोहा पर्यश्रुनयना तत: ।। ३४ ।। 

धैर्यमालम्ब्य वामोरु्दयेन प्रवेपता । 

न मामहसि धर्मज्ञ परित्यक्तुमनागसम्‌ ।। ३५ |। 

धर्मे स्थितां स्थितो धर्मे सदा प्रियहिते रताम्‌ । 

प्रदाने कारणं यच्च मम तुभ्य॑ द्विजोत्तम ।। ३६ ।। 

तदलब्धवतीं मन्दां कि मां वक्ष्यति वासुकि: । 

मातृशापाभि भूतानां ज्ञातीनां मम सत्तम ।। ३७ ।। 

अपत्यमीप्तितं त्वत्तस्तच्च तावन्न दृश्यते । 

त्वत्तो हापत्यलाभेन ज्ञातीनां मे शिवं भवेत्‌ ।। ३८ ।। 

उनके ऐसा कहनेपर अनिन्‍्द्य सुन्दरी जरत्कारु भाईके कार्यकी चिन्ता और पतिके 
वियोगजनित शोकमें डूब गयी। उसका मुँह सूख गया, नेत्रोंमें आँसू छलक आये और हृदय 
काँपने लगा। फिर किसी प्रकार धैर्य धारण करके सुन्दर जाँघों और मनोहर शरीरवाली वह 
नागकन्या हाथ जोड़ गदगद वाणीमें जरत्कारु मुनिसे बोली--'धर्मज्ञ! आप सदा धर्ममें 
स्थित रहनेवाले हैं। मैं भी पत्नी-धर्ममें स्थित तथा आप प्रियतमके हितमें लगी रहनेवाली हूँ। 
आपको मुझ निरपराध अबलाका त्याग नहीं करना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ! मेरे भाईने जिस 
उद्देश्यको लेकर आपके साथ मेरा विवाह किया था, मैं मन्दरभागिनी अबतक उसे पा न 
सकी। नागराज वासुकि मुझसे क्या कहेंगे? साधुशिरोमणे! मेरे कुटुम्बीजन माताके शापसे 


दबे हुए हैं। उन्हें मेरे द्वारा आपसे एक संतानकी प्राप्ति अभीष्ट थी, किंतु उसका भी अबतक 
दर्शन नहीं हुआ। आपसे पुत्रकी प्राप्ति हो जाय तो उसके द्वारा मेरे जाति-भाइयोंका 
कल्याण हो सकता है ॥। ३३--३८ ।। 

सम्प्रयोगो भवेन्नायं मम मोघस्त्वया द्विज । 

ज्ञातीनां हितमिच्छन्ती भगवंस्त्वां प्रसादये ।। ३९ ।। 

“ब्रह्मन] आपसे जो मेरा सम्बन्ध हुआ, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये। भगवन्‌! अपने 
बान्धवजनोंका हित चाहती हुई मैं आपसे प्रसन्न होनेकी प्रार्थना करती हूँ || ३९ ।। 

इममव्यक्तरूपं मे गर्भभाधाय सत्तम । 

कथं त्यक्त्वा महात्मा सन्‌ गन्तुमिच्छस्यनागसम्‌ ।। ४० ।। 

“महाभाग! आपने जो गर्भ स्थापित किया है, उसका स्वरूप या लक्षण अभी प्रकट 
नहीं हुआ। महात्मा होकर ऐसी दशामें आप मुझ निरपराध पत्नीको त्यागकर कैसे जाना 
चाहते हैं?” || ४० ।। 

एवमुक्तस्तु स मुनिर्भाय्या वचनमत्रवीत्‌ । 

यद्‌ युक्तमनुरूपं च जरत्कारुं तपोधन: ।। ४१ ।। 

यह सुनकर उन तपोधन महर्षिने अपनी पत्नी जरत्कारुसे उचित तथा अवसरके 
अनुरूप बात कही-- || ४१ ।। 

अस्त्ययं सुभगे गर्भस्तव वैश्वानरोपम: । 

ऋषि: परमधर्मात्मा वेदवेदाड़पारग: ।। ४२ ।। 

सुभगे! “अयं अस्ति'--तुम्हारे उदरमें गर्भ है। तुम्हारा यह गर्भस्थ बालक अग्निके 
समान तेजस्वी, परम धर्मात्मा मुनि तथा वेद-वेदांगोंका पारंगत विद्वान होगा” ।। ४२ ।। 

एवमुकक्‍्त्वा स धर्मात्मा जरत्कारुर्महानृषि: । 

उग्राय तपसे भूयो जगाम कृतनिश्चय: ।। ४३ ।। 

ऐसा कहकर धर्मात्मा महामुनि जरत्कारु, जिन्होंने जानेका दृढ़ निश्चय कर लिया था, 
फिर कठोर तपस्याके लिये वनमें चले गये ।। ४३ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुनिर्गमे 
सप्तचत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४७ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारुका तपस्याके लिये 
निष्क्रणविषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४७ ॥ 


3 5 >> 


> ब्ैतकाकका अर्थ यह है--श्वा, एत और काक; जिसका क्रमशः अर्थ है--कुत्ता, हरिण और कौआ (श्वा+एतमें 
पररूप हुआ है)। तात्पर्य यह है कि यह कुतियाकी भाँति सदा जागती और कम सोती थी, हरिणीके समान भयसे चकित 
रहती और कौएकी भाँति उनके इंगित (इशारे) समझनेके लिये सावधान रहती थी। 


अष्टचत्वारिशो<5् ध्याय: 


वासुकि नागकी चिन्ता, बहिनद्वारा उसका निवारण तथा 
आस्तीकका जन्म एवं विद्याध्ययन 


सौतिरुवाच 


गतमात्र तु भर्तारें जरत्कारुरवेदयत्‌ । 

भ्रातुः: सकाशमागत्य याथातथ्यं तपोधन ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तपोधन शौनक! पतिके निकलते ही नागकन्या जरत्कारुने 
अपने भाई वासुकिके पास जाकर उनके चले जानेका सब हाल ज्यों-का-त्यों सुना 
दिया ।। १ |। 

ततः स भुजगश्रेष्ठ: श्रुत्वा सुमहदप्रियम्‌ । 

उवाच भगिनीं दीनां तदा दीनतर: स्वयम्‌ ।। २ ।। 

यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर सर्पॉमें श्रेष्ठ वासुकि स्वयं भी बहुत दुःखी हो गये 
और दु:खमें पड़ी हुई अपनी बहिनसे बोले || २ ।। 

वायुकिरुवाच 


जानासि भद्रे यत्‌ कार्य प्रदाने कारणं च यत्‌ । 

पन्नगानां हितार्थाय पुत्रस्ते स्थात्‌ ततो यदि ॥। ३ ।। 

वासुकिने कहा--भद्रे! सर्पोंका जो महान्‌ कार्य है और मुनिके साथ तुम्हारा विवाह 
होनेमें जो उद्देश्य रहा है, उसे तो तुम जानती ही हो। यदि उनके द्वारा तुम्हारे गर्भसे कोई पुत्र 
उत्पन्न हो जाता तो उससे सर्पोंका बहुत बड़ा हित होता ।। ३ ।। 

स सर्पसत्रात्‌ किल नो मोक्षयिष्यति वीर्यवान्‌ | 

एवं पितामह: पूर्वमुक्तवांस्तु सुरै: सह ।। ४ ।। 

वह शक्तिशाली मुनिकुमार ही हमलोगोंको जनमेजयके सर्पयज्ञमें जलनेसे बचायेगा; 
यह बात पहले देवताओंके साथ भगवान्‌ ब्रह्माजीने कही थी ।। ४ ।। 

अप्यस्ति गर्भ: सुभगे तस्मात्‌ ते मुनिसत्तमात्‌ । 

न चेच्छाम्यफलं तस्य दारकर्म मनीषिण: ।। ५ ।। 

कार्य च मम न न्याययं प्रष्ठं त्वां कार्यमीदृशम्‌। 

किंतु कार्यगरीयस्त्वात्‌ ततस्त्वाहमचूचुदम्‌ ।। ६ ।। 

सुभगे! क्या उन मुनिश्रेष्ठसे तुम्हें गर्भ रह गया है? तुम्हारे साथ उन मनीषी महात्माका 
विवाह-कर्म निष्फल हो, यह मैं नहीं चाहता। मैं तुम्हारा भाई हूँ, ऐसे कार्य (पुत्रोत्पत्ति)-के 


विषयमें तुमसे कुछ पूछना मेरे लिये उचित नहीं है, परंतु कार्यके गौरवका विचार करके मैंने 
तुम्हें इस विषयमें सब बातें बतानेके लिये प्रेरित किया है ।। ५-६ ।। 

दुर्वार्यतां विदित्वा च भर्तुस्तेडतितपस्विन: । 

नैनमन्वागमिष्यामि कदाचिद्धि शपेत्‌ स माम्‌ ।। ७ ।। 

तुम्हारे महातपस्वी पतिको जानेसे रोकना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है, यह 
जानकर मैं उन्हें लौटा लानेके लिये उनके पीछे नहीं जा रहा हूँ। लौटनेका आग्रह करूँ तो 
कदाचित्‌ वे मुझे शाप भी दे सकते हैं ।। ७ ।। 

आचक्ष्व भदरे भर्तु: स्वं सर्वमेव विचेष्टितम्‌ । 

उद्धरस्व च शल्यं मे घोरं हृदि चिरस्थितम्‌ ।। ८ ।। 

अतः भठद्रे! तुम अपने पतिकी सारी चेष्टा बताओ और मेरे हृदयमें दीर्घकालसे जो 
भयंकर काँटा चुभा हुआ है, उसे निकाल दो ।। ८ ।। 

जरत्कारुस्ततो वाक्यमित्युक्ता प्रत्यभाषत । 

आश्चवासयन्ती संतप्तं वासुकि पन्नगेश्वरम्‌ ।। ९ ।। 

भाईके इस प्रकार पूछनेपर तब जरत्कारु अपने संतप्त भ्राता नागराज वासुकिको 
धीरज बँधाती हुई इस प्रकार बोली ।। ९ ।। 


जरत्कारुस्वाच 


पृष्टो मयापत्यहेतो: स महात्मा महातपा: । 

अस्तीत्युत्तरमुद्दिश्य ममेदं गतवांश्ष सः ।। १० ।। 

जरत्कारुने कहा--भाई! मैंने संतानके लिये उन महातपस्वी महात्मासे पूछा था। मेरे 
गर्भके विषयमें “अस्ति' (तुम्हारे गर्भमें पुत्र है) इतना ही कहकर वे चले गये ।। १० ।। 

स्वैरेष्वपि न तेनाहं स्मरामि वितथं वच: । 

उक्तपूर्व कुतो राजन्‌ साम्पराये स वक्ष्यति ।। ११ ।। 

न संतापस्त्वया कार्य: कार्य प्रति भुजड़मे । 

उत्पत्स्यति च ते पुत्रो ज्वलनार्कसमप्रभ: ।। १२ ।। 

इत्युक्त्वा स हि मां भ्रातर्गतो भर्ता तपोधन: । 

तस्माद्‌ व्येतु परं दुःखं तवेदं॑ मनसि स्थितम्‌ ।। १३ ।। 

राजन! उन्होंने पहले कभी विनोदमें भी झूठी बात कही हो, यह मुझे स्मरण नहीं है। 
फिर इस संकटके समय तो वे झूठ बोलेंगे ही क्यों? भैया! मेरे पति तपस्याके धनी हैं। 
उन्होंने जाते समय मुझसे यह कहा--“नागकन्ये! तुम अपनी कार्य-सिद्धिके सम्बन्धमें कोई 
चिन्ता न करना। तुम्हारे गर्भसे अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होगा।” इतना 
कहकर वे तपोवनमें चले गये। अतः भैया! तुम्हारे मनमें जो महान्‌ दुःख है, वह दूर हो जाना 
चाहिये || ११--१३ ।। 


सौतिरुवाच 


2 नागेन्द्रो वासुकि: परया मुदा | 

एवमस्त्विति तद्‌ वाक्‍्यं भगिन्या: प्रत्यगृह्लत ।। १४ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! यह सुनकर नागराज वासुकि बड़ी प्रसन्नतासे बोले 
--'एवमस्तु” (ऐसा ही हो)। इस प्रकार उन्होंने बहिनकी बातको विश्वासपूर्वक ग्रहण 
किया ।। १४ ।। 

सान्त्वमानार्थदानैश्न पूजया चानुरूपया । 

सोदर्या पूजयामास स्वसारं पन्नगोत्तम: ।। १५ ।। 

सर्पोमें श्रेष्ठ वासुकि अपनी सहोदरा बहिनको सान्त्वना, सम्मान तथा धन देकर एवं 
सुन्दररूपसे उसका स्वागत-सत्कार करके उसकी समाराधना करने लगे ।। १५ ।। 

ततः प्रववृधे गर्भो महातेजा महाप्रभ: । 

यथा सोमो द्विजश्रेष्ठ शुक्लपक्षोदितों दिवि ।। १६ ।। 

द्विजश्रेष्ठ! जैसे शुक्लपक्षमें आकाशमें उदित होनेवाला चन्द्रमा प्रतिदिन बढ़ता है, उसी 
प्रकार जरत्कारुका वह महातेजस्वी और परम कान्तिमान्‌ गर्भ बढ़ने लगा ।। १६ ।। 

अथ काले तु सा ब्रह्मन्‌ प्रजज्ञे भुजगस्वसा । 

कुमार देवगर्भाभ॑ पितृमातृभयापहम्‌ ।। १७ ।। 

ब्रह्म! तदनन्तर समय आनेपर वासुकिकी बहिनने एक दिव्य कुमारको जन्म दिया, 
जो देवताओंके बालक-सा तेजस्वी जान पड़ता था। वह पिता और माता-ोनों पक्षोंके 
भयको नष्ट करनेवाला था || १७ || 

ववृधे स तु तत्रैव नागराजनिवेशने । 

वेदांश्नाधिजगे साड्रान्‌ भार्गवाच्च्यवनान्मुने: ।। १८ ।। 

वह वहीं नागराजके भवनमें बढ़ने लगा। बड़े होनेपर उसने भृगुकुलोत्पन्न च्यवन मुनिसे 
छहों अंगोंसहित वेदोंका अध्ययन किया ।। १८ ।। 

चीर्णव्रतो बाल एव बुद्धिसत्त्वगुणान्वित: । 

नाम चास्याभवत्‌ ख्यातं लोकेष्वास्तीक इत्युत ।। १९ ।। 

वह बचपनसे ही ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाला, बुद्धिमान्‌ तथा सत्त्वगुणसम्पन्न 
हुआ। लोकमें आस्तीक नामसे उसकी ख्याति हुई ।। १९ |। 

अस्तीत्युक्त्वा गतो यस्मात्‌ पिता गर्भस्थमेव तम्‌ | 

वन॑ तस्मादिदं तस्य नामास्तीकेति विश्रुतम्‌ ।। २० ।। 

वह बालक अभी गर्भमें ही था, तभी उसके पिता “अस्ति” कहकर वनमें चले गये थे। 
इसलिये संसारमें उसका आस्तीक नाम प्रसिद्ध हुआ || २० ।। 

स बाल एव तत्रस्थश्नरन्नमितबुद्धिमान्‌ | 

गृहे पन्नगराजस्य प्रयत्नात्‌ परिरक्षित: ।। २१ ।। 


भगवानिव देवेश: शूलपाणिहिरिण्मय: । 

विवर्धमान: सर्वास्तान्‌ पन्नगानभ्यहर्षयत्‌ ।। २२ ।। 

अमित बुद्धिमान्‌ आस्तीक बाल्यावस्थामें ही वहाँ रहकर ब्रह्मचर्यका पालन एवं धर्मका 
आचरण करने लगा। नागराजके भवनमें उसका भलीभाँति यत्नपूर्वक लालन-पालन किया 
गया। सुवर्णके समान कान्तिमान्‌ शूलपाणि देवेश्वर भगवान्‌ शिवकी भाँति वह बालक 
दिनोदिन बढ़ता हुआ समस्त नागोंका आनन्द बढ़ाने लगा || २१-२२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि आस्तीकोत्पत्तौ 
अष्टचत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४८ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरवके अन्तर्गत आस्तीकपव॑र्में आस्तीककी उत्पत्तिविषयक 
अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४८ ॥ 


न 2ॉजजि:इ: 


एकोनपज्चाशत्तमो<ड्ध्याय: 


राजा परीक्षित्‌॒के धर्ममय आचार तथा उत्तम गुणोंका वर्णन, 
राजाका शिकारके लिये जाना और उनके द्वारा शमीक 
मुनिका तिरस्कार 


शौनक उवाच 


यदपृच्छत्‌ तदा राजा मन्त्रिणो जनमेजय: । 

पितुः स्वर्गगतिं तन्‍्मे विस्तरेण पुनर्वद ।। १ ।। 

शौनकजी बोले--सूतनन्दन! राजा जनमेजयने (उत्तंककी बात सुनकर) अपने पिता 
परीक्षितके स्वर्गवासके सम्बन्धमें मन्त्रियोंसे जो पूछ-ताछ की थी, उसका आप 
विस्तारपूर्वक पुनः वर्णन कीजिये ।। १ ॥। 

सौतिर्वाच 

शणु ब्रह्मन्‌ यथापृच्छन्मन्त्रिणो नृपतिस्तदा । 

यथा चाख्यातवन्तस्ते निधनं तत्‌ परीक्षित: ।। २ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--ब्रह्मन! सुनिये, उस समय राजाने मन्त्रियोंसे जो कुछ पूछा और 
उन्होंने परीक्षितकी मृत्युके सम्बन्धमें जैसी बातें बतायीं, वह सब मैं सुना रहा हूँ |। २ ।। 

जनमेजय उवाच 

जानन्ति सम भवन्तस्तदू यथा वृत्तं पितुर्मम । 

आसीदू यथा स निधन गत: काले महायशा: ।। ३ ।। 

जनमेजयने पूछा--आपलोग यह जानते होंगे कि मेरे पिताके जीवनकालमें उनका 
आचार-व्यवहार कैसा था? और अन्तकाल आनेपर वे महायशस्वी नरेश किस प्रकार 
मृत्युको प्राप्त हुए थे? ।। ३ ।। 

श्रुत्वा भवत्सकाशाद्ि पितुर्वत्तमशेषत: । 

कल्याणं प्रतिपत्स्यामि विपरीतं न जातुचित्‌ ।। ४ ।। 

आपलोगोंसे अपने पिताके सम्बन्धमें सारा वृत्तान्त सुनकर ही मुझे शान्ति प्राप्त होगी; 
अन्यथा मैं कभी शान्त न रह सकूँगा ।। ४ ।। 

सौतिर्वाच 


मन्त्रिणो5थाब्रुवन्‌ वाक्यं पृष्टास्तेन महात्मना । 
सर्वे धर्मविद: प्राज्ञा राजानं जनमेजयम्‌ ।। ५ ।। 


उग्रश्रवाजी कहते हैं--राजाके सब मन्त्री धर्मज्ञ और बुद्धिमान्‌ थे। उन महात्मा राजा 

जनमेजयके इस प्रकार पूछनेपर वे सभी उनसे यों बोले ।। ५ ।। 
मन्त्रिण ऊचु. 

शृणु पार्थिव यद्‌ ब्रूषे पितुस्तव महात्मन: । 

चरित॑ पार्थिवेन्द्रस्य यथा निष्ठां गतश्च॒ सः ।। ६ ।। 

मन्त्रियोंने कहा--भूपाल! तुम जो कुछ पूछते हो, वह सुनो। तुम्हारे महात्मा पिता 
राजराजेश्वर परीक्षितका चरित्र जैसा था और जिस प्रकार वे मृत्युको प्राप्त हुए वह सब हम 
बता रहे हैं ।। ६ ।। 

धर्मात्मा च महात्मा च प्रजापाल: पिता तव | 

आसीदिह यथावृत्त: स महात्मा शृणुष्व तत्‌ ।। ७ ।। 

महाराज! आपके पिता बड़े धर्मात्मा, महात्मा और प्रजापालक थे। वे महामना नरेश 
इस जगत्‌में जैसे आचार-व्यवहारका पालन करते थे, वह सुनो ।। ७ ।। 

चातुर्वर्ण्य स्वधर्मस्थं स कृत्वा पर्यरक्षत । 

धर्मतो धर्मविद्‌ राजा धर्मो विग्रहवानिव ।। ८ ।। 

वे चारों वर्णोको अपने-अपने धर्ममें स्थापित करके उन सबकी थधर्मपूर्वक रक्षा करते 
थे। राजा परीक्षित्‌ केवल धर्मके ज्ञाता ही नहीं थे, वे धर्मके साक्षात्‌ स्वरूप थे ।। ८ ।। 

ररक्ष पृथिवीं देवीं श्रीमानतुलविक्रम: । 

देष्टारस्तस्य नैवासन्‌ स च द्वेष्टि न कंचन ।। ९ ।। 

उनके पराक्रमकी कहीं तुलना नहीं थी। वे श्रीसम्पन्न होकर इस वसुधादेवीका पालन 
करते थे। जगतमें उनसे द्वेष रखनेवाले कोई न थे और वे भी किसीसे द्वेष नहीं रखते 
थे।।९।। 

सम: सर्वेषु भूतेषु प्रजापतिरिवा भवत्‌ । 

ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्राश्वैव स्वकर्मसु |। १० ।। 

स्थिता: सुमनसो राजंस्तेन राज्ञा स्वधिष्ठिता: । 

विधवानाथविकलान्‌ कृपणांश्व बभार स: ।। ११ ।। 

प्रजापति ब्रह्माजीके समान वे समस्त प्राणियोंके प्रति समभाव रखते थे। राजन! 
महाराज परीक्षित्‌के शासनमें रहकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सभी अपने-अपने 
वर्णाश्रमोचित कर्मोमें संलग्न और प्रसन्नचित्त रहते थे। वे महाराज विधवाओं, अनाथों, 
अंगहीनों और दीनोंका भी भरण-पोषण करते थे || १०-११ ।। 

सुदर्श: सर्वभूतानामासीत्‌ सोम इवापर: । 

तुष्टपुष्टजन: श्रीमान्‌ सत्यवाग दृढविक्रम: ।। १२ ।। 


दूसरे चन्द्रमाकी भाँति उनका दर्शन सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये सुखद एवं सुलभ था। 
उनके राज्यमें सब लोग हृष्ट-पुष्ट थे। वे लक्ष्मीवान्‌ू, सत्यवादी तथा अटल पराक्रमी 
थे।। १२ |। 

धनुर्वेदे तु शिष्यो5भून्रुप: शारद्वतस्य सः । 

गोविन्दस्य प्रियश्वञासीत्‌ पिता ते जनमेजय ।। १३ ।। 

राजा परीक्षित्‌ धरनुर्वेदमें कृपाचार्यके शिष्य थे। जनमेजय! तुम्हारे पिता भगवान्‌ 
श्रीकृष्णके भी प्रिय थे || १३ ।। 

लोकस्‍्य चैव सर्वस्य प्रिय आसीन्महायशा: । 

परिक्षीणेषु कुरुषु सोत्तरायामजीजनत्‌ ।। १४ ।। 

परीक्षिदभवत्‌ तेन सौभद्रस्यात्मजो बली । 

राजधर्मार्थकुशलो युक्त: सर्वगुणैर्वत: ।। १५ ।। 

वे महायशस्वी महाराज सम्पूर्ण जगतके प्रेमपात्र थे। जब कुरुकुल परिक्षीण (सर्वथा 
नष्ट) हो चला था, उस समय उत्तराके गर्भसे उनका जन्म हुआ। इसलिये वे महाबली 
अभिमन्युकुमार परीक्षित्‌ नामसे विख्यात हुए। राजधर्म और अर्थनीतिमें वे अत्यन्त निपुण 
थे। समस्त सदगुणोंने स्वयं उनका वरण किया था। वे सदा उनसे संयुक्त रहते 
थे।। १४-१५ ।। 

जितेन्द्रियश्षात्मवांक्ष॒ मेधावी धर्मसेविता । 

षड्वर्गजिन्महाबुद्धिर्नीतिशास्त्रविदुत्तम: ।। १६ ।। 

उन्होंने अपनी इन्द्रियोंको जीतकर मनको अपने वशमें कर रखा था। वे मेधावी तथा 
धर्मका सेवन करनेवाले थे। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य--इन छहों 
शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली थी। उनकी बुद्धि विशाल थी। वे नीतिके विद्वानोंमें सर्वश्रेष्ठ 
थे।। १६ |। 

प्रजा इमास्तव पिता षष्टिवर्षाण्यपालयत्‌ | 

ततो दिष्टान्तमापन्न: सर्वेषां दु:खमावहन्‌ ।। १७ ।। 

ततस्त्व॑ पुरुषश्रेष्ठ धर्मेण प्रतिपेदिवान्‌ । 

इदं वर्षसहस्राणि राज्यं कुरुकुलागतम्‌ । 

बाल एवाभिकषिक्तस्त्वं सर्वभूतानुपालक: ।। १८ ।। 

तुम्हारे पिताने साठ वर्षकी आयुतक इन समस्त प्रजाजनोंका पालन किया था। 
तदनन्तर हम सबको दु:ख देकर उन्होंने विदेह-कैवल्य प्राप्त किया। पुरुषश्रेष्ठ। पिताके 
देहावसानके बाद तुमने धर्मपूर्वक इस राज्यको ग्रहण किया है, जो सहस्रों वर्षोसे 
कुरुकुलके अधीन चला आ रहा है। बाल्यावस्थामें ही तुम्हारा राज्याभिषेक हुआ था। तबसे 
तुम्हीं इस राज्यके समस्त प्राणियोंका पालन करते हो ।। १७-१८ ।। 


जनमेजय उवाच 


नास्मिन्‌ कुले जातु बभूव राजा 
यो न प्रजानां प्रियकृत्‌ प्रियश्न । 
विशेषत: प्रेक्ष्य पितामहानां 
वृत्तं महद्वृत्तपरायणानाम्‌ ।। १९ ।। 
जनमेजयने पूछा--मन्त्रियो! हमारे इस कुलमें कभी कोई ऐसा राजा नहीं हुआ, जो 
प्रजाका प्रिय करनेवाला तथा सब लोगोंका प्रेमपात्र न रहा हो। विशेषतः महापुरुषोंके 
आचारमें प्रवृत्त रहनेवाले हमारे प्रपितामह पाण्डवोंके सदाचारको देखकर प्राय: सभी 
धर्मपरायण ही होंगे ।। १९ ।। 
कथं निधनमापन्न: पिता मम तथाविध: । 
आचक्षध्वं यथावन्मे श्रोतुमिच्छामि तत्त्वत: ।। २० ।। 
अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरे वैसे धर्मात्मा पिताकी मृत्यु किस प्रकार हुई? 
आपलोग मुझसे इसका यथावत्‌ वर्णन करें। मैं इस विषयमें सब बातें ठीक-ठीक सुनना 
चाहता हूँ ।। २० ।। 
सौतिर्वाच 


एवं संचोदिता राज्ञा मन्त्रिणस्ते नराधिपम्‌ | 

ऊचुः सर्वे यथावृत्तं राज्ञ: प्रियहितैषिण: ।। २१ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! राजा जनमेजयके इस प्रकार पूछनेपर उन मन्त्रियोंने 
महाराजसे सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बताया; क्योंकि वे सभी राजाका प्रिय चाहनेवाले और 
हितैषी थे || २१ ।। 

मन्त्रिण ऊचु. 

स राजा पृथिवीपाल: सर्वशस्त्रभृतां वर: । 

बभूव मृगयाशीलस्तव राजन्‌ पिता सदा ।। २२ ।। 

यथा पाण्डुर्महाबाहुर्धनुर्धरवरो युधि । 

अस्मास्वासज्य सर्वाणि राजकार्याण्यशेषत: ।। २३ ।। 

स कदाचिद्‌ वनगतो मृगं विव्याध पत्रिणा । 

विद्ध्वा चान्वसरत्‌ तूर्ण तं॑ मृगं गहने वने ।। २४ ।। 

मन्त्री बोले--राजन्‌! समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ तुम्हारे पिता भूपाल परीक्षित्‌का सदा 
महाबाहु पाण्डुकी भाँति हिंसक पशुओंको मारनेका स्वभाव था और युद्धमें वे उन्हींकी 
भाँति सम्पूर्ण धनुर्थर वीरोंमें श्रेष्ठ सिद्ध होते थे। एक दिनकी बात है, वे सम्पूर्ण राजकार्यका 
भार हमलोगोंपर रखकर वनमें शिकार खेलनेके लिये गये। वहाँ उन्होंने पंखयुक्त बाणसे 
एक हिंसक पशुको बींध डाला। बींधकर तुरंत ही गहन वनमें उसका पीछा किया || २२-- 
२४ ।। 


पदातिर्बद्धनिस्त्रिंशस्ततायुधकलापवान्‌ । 

न चाससाद गहने मृगं नष्टं पिता तव ।। २५ ।। 

वे तलवार बाँधे पैदल ही चल रहे थे। उनके पास बाणोंसे भरा हुआ विशाल तूणीर था। 
वह घायल पशु उस घने वनमें कहीं छिप गया। तुम्हारे पिता बहुत खोजनेपर भी उसे पा न 
सके ।। २५ ।। 

परिश्रान्तो वयःस्थश्न षष्टिवर्षो जरान्वित: । 

क्षुधित: स महारण्ये ददर्श मुनिसत्तमम्‌ || २६ ।। 

सतं पप्रच्छ राजेन्द्रो मुनिं मौनव्रते स्थितम्‌ । 

न च किंचिदुवाचैनं पृष्टोडपि स मुनिस्तदा ।। २७ ।। 

प्रौढ़ अवस्था, साठ वर्षकी आयु और बुढ़ापेका संयोग इन सबके कारण वे बहुत थक 
गये थे। उस विशाल वनमें उन्हें भूख सताने लगी। इसी दशामें महाराजने वहाँ मुनिश्रेष्ठ 
शमीकको देखा। राजेन्द्र परीक्षितने उनसे मृगका पता पूछा; किंतु वे मुनि उस समय 
मौनव्रतके पालनमें संलग्न थे। उनके पूछनेपर भी महर्षि शभीक उस समय कुछ न 
बोले || २६-२७ ।। 

ततो राजा क्षुच्छुमार्तस्तं मुनिं स्थाणुवत्‌ स्थितम्‌ | 

मौनव्रतधरं शान्तं सद्यो मन्युवशं गत: ।। २८ ।। 

वे काठकी भाँति चुपचाप, निश्चेष्ट एवं अविचल भावसे स्थित थे। यह देख भूख-प्यास 
और थकावटसे व्याकुल हुए राजा परीक्षित्‌को उन मौनव्रतधारी शान्त महर्षिपर तत्काल 
क्रोध आ गया ।। २८ ।। 

न बुबोध च तं राजा मौनव्रतधरं मुनिम्‌ । 

सतं क्रोधसमाविष्टो धर्षबामास ते पिता ।। २९ ।। 

राजाको यह पता नहीं था कि महर्षि मौनव्रतधारी हैं; अतः क्रोधमें भरे हुए आपके 
पिताने उनका तिरस्कार कर दिया ।। २९ |। 

मृतं सर्प धनुष्कोट्या समुत्क्षिप्प धरातलात्‌ | 

तस्य शुद्धात्मन: प्रादात्‌ स्कन्धे भरतसत्तम || ३० ।। 

भरतश्रेष्ठ! उन्होंने धनुषकी नोकसे पृथ्वीपर पड़े हुए एक मृत सर्पको उठाकर उन 
शुद्धात्मा महर्षिके कंधेपर डाल दिया ।। ३० ।। 

न चोवाच स मेधावी तमथो साध्वसाधु वा । 

तस्थौ तथैव चाक्रुद्ध: सर्प स्कन्धेन धारयन्‌ ॥। ३१ ।। 

किंतु उन मेधावी मुनिने इसके लिये उन्हें भला या बुरा कुछ नहीं कहा। वे क्रोधरहित हो 
कंधेपर मरा सर्प लिये हुए पूर्ववत्‌ शान्त-भावसे बैठे रहे || ३१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि पारीक्षितीये 
एकोनपज्चाशत्तमो5 ध्याय: ।। ४९ || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें परीक्षित्‌-चरित्रविषयक 
उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४९ ॥ 


नऔहा-<> ड-ऑ का 


पज्चाशत्तमो<्ध्याय: 
शृंगी ऋषिका परीक्षित्‌को शाप, तक्षकका काश्यपको 


लौटाकर छलसे परीक्षित्‌को डँसना और पिताकी मृत्युका 


वृत्तान्त सुनकर जनमेजयकी तक्षकसे बदला लेनेकी 
प्रतिज्ञा 


मन्त्रिण ऊचु. 
ततः स राजा राजेन्द्र स्कन्धे तस्य भुजड़मम्‌ | 
मुने: क्षुतक्षाम आसज्य स्वपुरं पुनराययौ ।। १ ।। 
मन्त्री बोले--राजेन्द्र! उस समय राजा परीक्षित्‌ भूखसे पीड़ित हो शमीक मुनिके 


कंधेपर मृतक सर्प डालकर पुनः अपनी राजधानीमें लौट आये ।। १ ।। 


था 


|] 


ऋषेस्तस्य तु पुत्रो5भूद्‌ गवि जातो महायशा: । 

शृज्जी नाम महातेजास्तिग्मवीर्योडतिकोपन: ।। २ ।। 

उन महर्षिके शृंगी नामक एक महातेजस्वी पुत्र था, जिसका जन्म गायके पेटसे हुआ 
वह महान्‌ यशस्वी, तीव्र शक्तिशाली और अत्यन्त क्रोधी था ।। २ ।। 

ब्रह्माणं समुपागम्य मुनि: पूजां चकार ह | 

सोअ&नुज्ञातस्ततस्तत्र शृद्धी शुश्राव तं तदा ।। ३ ।। 

सख्यु: सकाशात्‌ पितरं पित्रा ते धर्षितं पुरा । 

मृतं सर्प समासक्तं स्थाणुभूतस्य तस्य तम्‌ ।। ४ ।। 

वहन्तं राजशार्दूल स्कन्धेनानपकारिणम्‌ | 

तपस्विनमतीवाथ त॑ मुनिप्रवरं नूप ।। ५ ।। 

जितेन्द्रियं विशुद्धं च स्थितं कर्मण्यथाद्भुतम्‌ । 

तपसा द्योतितात्मान स्वेष्वड्रेषु यतं तदा ।। ६ ।। 

शुभाचारं शुभकथं सुस्थितं तमलोलुपम्‌ । 

अक्षुद्रमनसूयं च वृद्ध मौनव्रते स्थितम्‌ । 

शरण्यं सर्वभूतानां पित्रा विनिकृतं तव ।। ७ ।। 

एक दिन उसने आचार्यदेवके समीप जाकर पूजा की और उनकी आज्ञा ले वह घरको 


लौटा। उसी समय शृंगी ऋषिने अपने एक सहपाठी मित्रके मुखसे तुम्हारे पिताद्वारा अपने 
पिताके तिरस्कृत होनेकी बात सुनी। राजसिंह! शृंगीको यह मालूम हुआ कि मेरे पिता 
काठकी भाँति चुपचाप बैठे थे और उनके कंधेपर मृतक साँप डाल दिया गया। वे अब भी 
उस सर्पको अपने कंधेपर रखे हुए हैं। यद्यपि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था। वे 


मुनिश्रेष्ठ तपस्वी, जितेन्द्रिय, विशुद्धात्मा, कर्मनिष्ठ, अद्भुत शक्तिशाली, तपस्याद्वारा 
कान्तिमान्‌ शरीरवाले, अपने अंगोंको संयममें रखनेवाले, सदाचारी, शुभवक्ता, निश्चल 
भावसे स्थित, लोभरहित, क्षुद्रताशून्य (गम्भीर), दोषदृष्टिसे रहित, वृद्ध, मौनव्रतावलम्बी 
तथा सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय देनेवाले थे, तो भी आपके पिता परीक्षित्‌ने उनका 
तिरस्कार किया ।। ३--७ ।। 

शशापाथ महातेजा: पितरं ते रुषान्वित: । 

ऋषे: पुत्रो महातेजा बालोडपि स्थविरण्युति: ।। ८ ।। 

यह सब जानकर वह बाल्यावस्थामें भी वृद्धोंका-सा तेज धारण करनेवाला महातेजस्वी 
ऋषिकुमार क्रोधसे आगबबूला हो उठा और उसने तुम्हारे पिताको शाप दे दिया ।। ८ ।। 

स क्षिप्रमुदकं स्पृष्टवा रोषादिदमुवाच ह । 

पितरं तेडभिसंधाय तेजसा प्रज्वलन्निव ।। ९ ।। 

अनागसि गुरौ यो मे मृतं सर्पमवासृजत्‌ । 

त॑ नागस्तक्षकः क्रुद्धस्तेजसा प्रदहिष्यति || १० ।। 

आशीविषस्तिग्मतेजा मद्वाक्यबलचोदित: । 

सप्तरात्रादित: पापं पश्य मे तपसो बलम्‌ ।। ११ ।। 

शंंगी तेजसे प्रज्यलित-सा हो रहा था। उसने शीघ्र ही हाथमें जल लेकर तुम्हारे पिताको 
लक्ष्य करके रोषपूर्वक यह बात कही--'जिसने मेरे निरपराध पितापर मरा साँप डाल दिया 
है, उस पापीको आजसे सात रातके बाद मेरी वाक॒शक्तिसे प्रेरित प्रचण्ड तेजस्वी विषधर 
तक्षक नाग कुपित हो अपनी विषाग्निसे जला देगा। देखो, मेरी तपस्याका बल” || ९-- 
११ || 

इत्युक्त्वा प्रययौ तत्र पिता यत्रास्य सो5भवत्‌ | 

दृष्टवा च पितरं तस्मै तं शापं प्रत्यवेदयत्‌ ।। १२ ।। 

ऐसा कहकर वह बालक उस स्थानपर गया, जहाँ उसके पिता बैठे थे। पिताको देखकर 
उसने राजाको शाप देनेकी बात बतायी ।। १२ ।। 

स चापि मुनिशार्दूल: प्रेषषामास ते पितु: । 

शिष्यं गौरमुखं नाम शीलवन्तं गुणान्वितम्‌ ।। १३ ।। 

आचख्यौ स च विश्रान्तो राज्ञ: सर्वमशेषत: । 

शप्तोडसि मम पुत्रेण यत्तो भव महीपते ।॥। १४ ।। 

तब मुनिश्रेष्ठ शमीकने तुम्हारे पिताके पास अपने शिष्य गौरमुखको भेजा, जो सुशील 
और गुणवान्‌ था। उसने विश्राम कर लेनेपर राजासे सब बातें बतायीं और महर्षिका संदेश 
इस प्रकार सुनाया--“'भूपाल! मेरे पुत्रने तुम्हें शाप दे दिया है; अतः सावधान हो 
जाओ ।। १३-१४ ।। 

तक्षकस्त्वां महाराज तेजसासौ दहिष्यति । 


श्रुत्वा च तद्‌ वचो घोरं पिता ते जनमेजय ।। १५ ।। 

यत्तो5भवत्‌ परित्रस्तस्तक्षकात्‌ पन्नगोत्तमात्‌ | 

ततस्तस्मिंस्तु दिवसे सप्तमे समुपस्थिते ।। १६ ।। 

राज्ञ: समीप ब्रद्यर्षि: काश्यपो गन्तुमैच्छत । 

त॑ ददर्शाथ नागेन्द्रस्तक्षक: काश्यपं तदा ।। १७ ।। 

“महाराज! (सात दिनके बाद) तक्षक नाग तुम्हें अपने तेजसे जला देगा।” जनमेजय! 
यह भयंकर बात सुनकर तुम्हारे पिता नागश्रेष्ठ तक्षकसे अत्यन्त भयभीत हो सतत सावधान 
रहने लगे। तदनन्तर जब सातवाँ दिन उपस्थित हुआ, तब उस दिन ब्रह्मर्षि काश्यपने 
राजाके समीप जानेका विचार किया। मार्गमें नागराज तक्षकने उस समय काश्यपको 
देखा ।। १५--१७ |। 

तमब्रवीत्‌ पन्नगेन्द्र: काश्यपं त्वरितं द्विजम्‌ । 

क्व भवांस्त्वरितो याति कि च कार्य चिकीर्षति १८ ।। 

विप्रवर काश्यप बड़ी उतावलीसे पैर बढ़ा रहे थे। उन्हें देखकर नागराजने (ब्राह्मणका 
वेष धारण करके) इस प्रकार पूछा--'द्विजश्रेष्ठ आप कहाँ इतनी तीव्र गतिसे जा रहे हैं 
और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?” || १८ ।॥। 

काश्यप उवाच 


यत्र राजा कुरुश्रेष्ठ: परिक्षिन्नाम वै द्विज । 

तक्षकेण भुजड़्ेन धक्ष्यते किल सोउद्य वै ।। १९ ।। 

गच्छाम्यहं तं त्वरित: सद्य: कर्तुमपज्वरम्‌ । 

मयाभिपन्नं तं चापि न सर्पो धर्षयिष्यति ।। २० ।। 

काश्यपने कहा--ब्रह्मन! मैं वहाँ जाता हूँ जहाँ कुरुकुलके श्रेष्ठ राजा परीक्षित्‌ रहते 
हैं। सुना है कि आज ही तक्षक नाग उन्हें डँसेगा। अतः मैं तत्काल ही उन्हें नीरोग करनेके 
लिये जल्दी-जल्दी वहाँ जा रहा हूँ। मेरे द्वारा सुरक्षित नरेशको वह सर्प नष्ट नहीं कर 
सकेगा ।। १९-२० ।। 

तक्षक उवाच 

किमर्थ तं मया दष्टं संजीवयितुमिच्छसि । 

अहं स तक्षको ब्रह्मन्‌ पश्य मे वीर्यमद्भुतम्‌ ।। २१ ।। 

न शक्तस्त्वं मया दष्ट॑ त॑ं संजीवयितुं नृपम्‌ । 

इत्युक्त्वा तक्षकस्तत्र सोडदशद्‌ वै वनस्पतिम्‌ ।। २२ ।। 

तक्षकने कहा--ब्रह्मन! मेरे डँसे हुए मनुष्यको जिलानेकी इच्छा आप कैसे रखते हैं। 
मैं ही वह तक्षक हूँ। मेरी अद्भुत शक्ति देखिये। मेरे डँस लेनेपर उस राजाको आप जीवित 
नहीं कर सकते। ऐसा कहकर तक्षकने एक वृक्षको डँस लिया || २१-२२ |। 


स दष्टमात्रो नागेन भस्मी भूतो 5 भवन्नग: । 

काश्यपश्च ततो राजन्नजीवयत त॑ नगम्‌ ।। २३ ।। 

नागके डँसते ही वह वृक्ष जलकर भस्म हो गया। राजन! तदनन्तर काश्यपने (अपनी 
मन्त्र-विद्याके बलसे) उस वृक्षको पूर्ववत्‌ जीवित (हरा-भरा) कर दिया ।। २३ ।। 

ततस्तं लोभयामास काम ब्रूहीति तक्षक: । 

स एवमुक्तस्तं प्राह काश्यपस्तक्षकं पुन: ।। २४ ।। 

धनलिप्सुरहं तत्र यामीत्युक्तश्व तेन सः । 

तमुवाच महात्मानं तक्षक: श्लक्षणया गिरा |। २५ || 

अब तक्षक काश्यपको प्रलोभन देने लगा। उसने कहा--'तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे 
माँग लो।” तक्षकके ऐसा कहनेपर काश्यपने उससे कहा--'मैं तो वहाँ धनकी इच्छासे जा 
रहा हूँ! उनके ऐसा कहनेपर तक्षकने महात्मा काश्यपसे मधुर वाणीमें कहा 
-- || २४-२५ || 

यावद्धनं प्रार्थयसे राज्ञस्तस्मात्‌ ततो5धिकम्‌ । 

गृहाण मत्त एव त्वं संनिवर्तस्व चानघ ।। २६ ।। 

“अनघ! तुम राजासे जितना धन पाना चाहते हो, उससे भी अधिक मुझसे ही ले लो 
और लौट जाओ' ।। २६ |। 

स एवमुक्तो नागेन काश्यपो द्विपदां वर: | 

लब्ध्वा वित्त निववृते तक्षकाद्‌ यावदीप्सितम्‌ ।। २७ ।। 

तक्षक नागकी यह बात सुनकर मनुष्योंमें श्रेष्ठ काश्यप उससे इच्छानुसार धन लेकर 
लौट गये ।। २७ ।। 

तस्मिन्‌ प्रतिगते विप्रे छद्मनोपेत्य तक्षक: । 

त॑ नृपं नृपतिश्रेष्ठ पितरं धार्मिक तव ।। २८ ।। 

प्रासादस्थं यत्तमपि दग्धवान्‌ विषवद्लिना । 

ततस्त्वं पुरुषव्याप्र विजयायाभिषेचित: ।। २९ ।। 

ब्राह्मणके चले जानेपर तक्षकने छलसे भूपालोंमें श्रेष्ठ तुम्हारे धर्मात्मा पिता राजा 
परीक्षितके पास पहुँचकर, यद्यपि वे महलमें सावधानीके साथ रहते थे, तो भी उन्हें अपनी 
विषाग्निसे भस्म कर दिया। नरश्रेष्ठ] तदनन्तर विजयकी प्राप्तिके लिये तुम्हारा राजाके 
पदपर अभिषेक किया गया ।। २८-२९ ।। 

एतद्‌ दृष्ट श्रुतं चापि यथावन्नपसत्तम । 

अस्माभिननिखिलं सर्व कथितं तेडतिदारुणम्‌ ।। ३० ।। 

नृपश्रेष्ठ! यद्यपि यह प्रसंग बड़ा ही निछ्ठर और दुःखदायक है, तथापि तुम्हारे पूछनेसे 
हमने सब बातें तुमसे कही हैं। यह सब कुछ हमने अपनी आँखों देखा और कानोंसे भी 
ठीक-ठीक सुना है || ३० ।। 


श्र॒ुत्वा चैनं नरश्रेष्ठ पार्थिवस्थ पराभवम्‌ | 
अस्य चर्षेरुतंकस्य विधत्स्व यदनन्तरम्‌ ।। ३१ ।। 
महाराज! इस प्रकार तक्षकने तुम्हारे पिता राजा परीक्षित्‌का तिरस्कार किया है। इन 
महर्षि उत्तंकको भी उसने बहुत तंग किया है। यह सब तुमने सुन लिया, अब तुम जैसा 
उचित समझो, करो ।। ३१ ।। 
सौतिरु्वाच 


एतस्मिन्नेव काले तु स राजा जनमेजय: । 

उवाच मन्त्रिण: सर्वानिदं वाक्यमरिन्दम: ।। ३२ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! उस समय शत्रुओंका दमन करनेवाले राजा जनमेजय 
अपने सम्पूर्ण मन्त्रियोंसे इस प्रकार बोले ।। ३२ ।। 

जनमेजय उवाच 

अथ तत्‌ कथितं केन यद्‌ वृत्तं तद्‌ वनस्पतौ | 

आश्चर्यभूतं लोकस्य भस्मराशीकृतं तदा ।। ३३ ।। 

यद्‌ वृक्षं जीवयामास काश्यपस्तक्षकेण वै | 

नूनं मन्त्रहतविषो न प्रणश्येत काश्यपात्‌ ।। ३४ ।। 

जनमेजयने कहा--उस वृक्षके डँसे जाने और फिर हरे होनेकी बात आपलोगोंसे 
किसने कही? उस समय तक्षकके काटनेसे जो वृक्ष राखका ढेर बन गया था, उसे काश्यपने 
पुनः जिलाकर हरा-भरा कर दिया। यह सब लोगोंके लिये बड़े आश्वर्यकी बात है। यदि 
काश्यपके आ जानेसे उनके मन्त्रोंद्वारा तक्षकका विष नष्ट कर दिया जाता तो निश्चय ही मेरे 
पिताजी बच जाते ।। ३३-३४ ।। 

चिन्तयामास पापात्मा मनसा पन्नगाधम: । 

दष्टं यदि मया विप्र: पार्थिवं जीवयिष्यति ।। ३५ ।। 

तक्षकः संहतविषो लोके यास्यति हास्यताम्‌ | 

विचिन्त्यैवं कृता तेन ध्रुवं तुश्टिरद्धिजस्य वै ।। ३६ ।। 

परंतु उस पापात्मा नीच सर्पने अपने मनमें यह सोचा होगा--“यदि मेरे डँसे हुए 
राजाको ब्राह्मण जिला देंगे तो लोग कहेंगे कि तक्षकका विष भी नष्ट हो गया। इस प्रकार 
तक्षक लोकमें उपहासका पात्र बन जायगा।” अवश्य ही ऐसा सोचकर उसने ब्राह्मणको 
धनके द्वारा संतुष्ट किया था ।। ३५-३६ ।। 

480 पक यस्य दास्यामि यातनाम्‌ | 

एकं तु 4 तद्‌ वृत्तं निर्जने वने ।। ३७ ।। 

संवादं पन्नगेन्द्रस्य काश्यपस्य च कस्तदा | 

श्रुतवान्‌ दृष्टवांश्वापि भवत्सु कथमागतम्‌ | 


श्रुत्वा तस्य विधास्ये5हं पन्नगान्तकरीं मतिम्‌ || ३८ ।। 
अच्छा, भविष्यमें प्रयत्नपूर्वक कोई-न-कोई उपाय करके तक्षकको इसके लिये दण्ड 
दूँगा। परंतु एक बात मैं सुनना चाहता हूँ। नागराज तक्षक और काश्यप ब्राह्मणका वह 
संवाद तो निर्जन वनमें हुआ होगा। यह सब वृत्तान्त किसने देखा और सुना था? 
आपलोगोंतक यह बात कैसे आयी? यह सब सुनकर मैं सर्पोके नाशका विचार 
करूँगा ।। ३७-३८ ।। 
मन्त्रिण ऊचु. 
शृणु राजन्‌ यथास्माकं येन तत्‌ कथितं पुरा । 
समागतं द्विजेन्द्रस्य पन्नगेन्द्रस्य चाध्वनि ।। ३९ ।। 
तस्मिन्‌ वृक्षे नर: कश्चिदिन्धनार्थाय पार्थिव । 
विचिन्वन्‌ पूर्वमारूढ: शुष्कशाखां वनस्पतौ ।। ४० ।। 
मन्त्री बोले--राजन्‌! सुनो, विप्रवर काश्यप और नागराज तक्षकका मार्गमें एक- 
दूसरेके साथ जो समागम हुआ था, उसका समाचार जिसने और जिस प्रकार हमारे सामने 
बताया था, उसका वर्णन करते हैं। भूपाल! उस वृक्षपर पहलेसे ही कोई मनुष्य लकड़ी 
लेनेके लिये सूखी डाली खोजता हुआ चढ़ गया था || ३९-४० ।। 
न बुध्येतामुभौ तौ च नगस्थं पन्नगद्वधिजौ । 
सह तेनैव वृक्षेण भस्मी भूतो5 भवन्नूप ।। ४१ ।। 
तक्षक नाग और ब्राह्मण--दोनों ही नहीं जानते थे कि इस वृक्षपर कोई दूसरा मनुष्य 
भी है। राजन्‌! तक्षकके काटनेपर उस वृक्षके साथ ही वह मनुष्य भी जलकर भस्म हो गया 
था ।। ४१ ।। 
द्विजप्रभावादू राजेन्द्र व्यजीवत्‌ सवनस्पति: । 
तेनागम्य नरश्रेष्ठ पुंसास्मासु निवेदितम्‌ ।। ४२ ।। 
परंतु राजेन्द्र! ब्राह्मणके प्रभावसे वह भी उस वृक्षके साथ जी उठा। नरश्रेष्ठ! उसी 
मनुष्यने आकर हमलोगोंसे तक्षक और ब्राह्मणकी जो घटना थी, वह सुनायी ।। ४२ ।। 
यथावृत्त॑ तु तत्‌ सर्व तक्षकस्य द्विजस्थ च । 
एतत्‌ ते कथितं राजन्‌ यथा दृष्टं श्रुतं च यत्‌ 
श्रुत्वा च नृपशार्दूल विधत्स्व यदनन्तरम्‌ ।। ४३ ।। 
राजन! इस प्रकार हमने जो कुछ सुना और देखा है, वह सब तुम्हें कह सुनाया। 
भूपालशिरोमणे! यह सुनकर अब तुम्हें जैसा उचित जान पड़े, वह करो ।। ४३ ।। 
सौतिर्वाच 


मन्त्रिणां तु वच: श्रुव्वा स राजा जनमेजय: । 
पर्यतप्यत दुःखार्त: प्रत्यपिंषघत्‌ करं करे ।। ४४ ।। 


उग्रश्रवाजी कहते हैं--मन्त्रियोंकी बात सुनकर राजा जनमेजय दुःखसे आतुर हो 
संतप्त हो उठे और कुपित होकर हाथसे हाथ मलने लगे ।। ४४ ।। 

निः:श्वासमुष्णमसकृद्‌ दीर्घ राजीवलोचन: । 

मुमोचाश्रूणि च तदा नेत्राभ्यां प्ररुदन्‌ नृप: ।। ४५ ।। 

वे बारम्बार लम्बी और गरम साँस छोड़ने लगे। कमलके समान नेत्रोंवाले राजा 
जनमेजय उस समय नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए फ़ूट-फ़ूटकर रोने लगे || ४५ ।। 

उवाच च महीपालो दुःखशोकसमन्वित: । 

दुर्धरं वाष्पमुत्सृज्य स्पृष्टवा चापो यथाविधि ।। ४६ ।। 

मुहूर्तमिव च ध्यात्वा निश्चित्य मनसा नृप: । 

अमर्षी मन्त्रिण: सर्वानिदं वचनमब्रवीत्‌ ।। ४७ ।। 

राजाने दो घड़ीतक ध्यान करके मन-ही-मन कुछ निश्चय किया, फिर दुःख-शोक और 
अमर्षमें डूबे हुए नरेश न थमनेवाले आँसुओंकी अविच्छिन्न धारा बहाते हुए विधिपूर्वक 
जलका स्पर्श करके सम्पूर्ण मन्त्रियोंसे इस प्रकार बोले-- || ४६-४७ ।। 

जनमेजय उवाच 

श्रुत्वैतद्‌ भवतां वाक्यं पितुर्मे स्वर्गतिं प्रति । 

निश्चितेयं मम मतिर्या च तां मे निबोधत । 

अनन्तरं च मन्ये5हं तक्षकाय दुरात्मने ।। ४८ ।। 

प्रतिकर्तव्यमित्येवं येन मे हिंसित: पिता । 

शज्धिणं हेतुमात्रं यः कृत्वा दग्ध्वा च पार्थिवम्‌ ।। ४९ ।। 

जनमेजयने कहा--मन्त्रियो! मेरे पिताके स्वर्गलोकगमनके विषयमें आपलोगोंका यह 
वचन सुनकर मैंने अपनी बुद्धिद्वारा जो कर्तव्य निश्चित किया है, उसे आप सुन लें। मेरा 
विचार है, उस दुरात्मा तक्षकसे तुरंत बदला लेना चाहिये, जिसने शृंगी ऋषिको निमित्तमात्र 
बनाकर स्वयं ही मेरे पिता महाराजको अपनी विषाग्निसे दग्ध करके मारा है ।। ४८-४९ ।। 

इयं दुरात्मता तस्य काश्यपं यो न्यवर्तयत्‌ । 

यदा55गच्छेत्‌ स वै विप्रो ननु जीवेत्‌ पिता मम ।। ५० ।। 

उसकी सबसे बड़ी दुष्टता यह है कि उसने काश्यपको लौटा दिया। यदि वे ब्राह्मणदेवता 
आ जाते तो मेरे पिता निश्चय ही जीवित हो सकते थे ।। ५० ।। 

परिहीयेत कि तस्य यदि जीवेत्‌ स पार्थिव: । 

काश्यपस्य प्रसादेन मन्त्रिणां विनयेन च ।। ५१ |। 

यदि मन्त्रियोंके विनय और काश्यपके कृपाप्रसादसे महाराज जीवित हो जाते तो इसमें 
उस दुष्टकी क्‍या हानि हो जाती? ।। ५१ ।। 

स तु वारितवान्‌ मोहात्‌ काश्यपं द्विजसत्तमम्‌ | 


संजिजीवयिषुं प्राप्त राजानमपराजितम्‌ ।। ५२ ।। 

जो कहीं भी परास्त न होते थे, ऐसे मेरे पिता राजा परीक्षित्‌को जीवित करनेकी 
इच्छासे द्विजश्रेष्ठ काश्यप आ पहुँचे थे, किंतु तक्षकने मोहवश उन्हें रोक दिया ।। ५२ ।। 

महानतिक्रमो होष तक्षकस्य दुरात्मन: । 

द्विजस्य योडददद्‌ द्रव्यं मा नृपं जीवयेदिति ।। ५३ ।। 

दुरात्मा तक्षकका यह सबसे बड़ा अपराध है कि उसने ब्राह्मणदेवको इसलिये धन 
दिया कि वे महाराजको जिला न दें ।। ५३ ।। 

उत्तड़कस्य प्रियं कर्तुमात्मनश्न महत्‌ प्रियम्‌ । 

भवतां चैव सर्वेषां गच्छाम्यपचितिं पितु: ।। ५४ ।। 

इसलिये मैं महर्षि उत्तंकका, अपना तथा आप सब लोगोंका अत्यन्त प्रिय करनेके लिये 
पिताके वैरका अवश्य बदला लूँगा ।। ५४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि पारिक्षिन्मन्त्रिसंवादे 
पज्चाशत्तमोडध्याय: ।। ५० |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरववके अन्तर्गत आस्तीकपवरमें जनमेजय और सन्त्रियोंका 
संवादविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५० ॥/ 


ऑपन-- मा बछ। अि<-छऋाल 


एकपज्चाशक्तो< ध्याय: 


जनमेजयके सर्पयज्ञका उपक्रम 


सौतिरुवाच 

एवमुक्त्वा ततः श्रीमान्‌ मन्सत्रिभिश्नानुमोदित: । 

आरुरोह प्रतिज्ञां स सर्पसत्राय पार्थिव: ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! श्रीमान्‌ राजा जनमेजयने जब ऐसा कहा, तब उनके 
मन्त्रियोंने भी उस बातका समर्थन किया। तत्पश्चात्‌ राजा सर्पयज्ञ करनेकी प्रतिज्ञापर 
आरूढ़ हो गये ।। १ ।। 

ब्रह्मन्‌ भरतशार्दूलो राजा पारिक्षितस्तदा | 

पुरोहितमथाहूय ऋत्विजो वसुधाधिप: ।॥। २ ।। 

अब्रवीद्‌ वाक्यसम्पन्न: कार्यसम्पत्करं वच: | 

ब्रह्मन! सम्पूर्ण वसुधाके स्वामी भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ परीक्षितुकुमार राजा जनमेजयने 
उस समय पुरोहित तथा ऋत्विजोंकों बुलाकर कार्य सिद्ध करनेवाली बात कही-- ।। २६ 

|| 

यो मे हिंसितवांस्तातं तक्षक: स दुरात्मवान्‌ ।। ३ ।। 

प्रतिकुर्या तथा तस्य तद्‌ भवन्तो ब्रुवन्तु मे । 

अपि तत्‌ कर्म विदितं भवतां येन पन्नगम्‌ ।। ४ ।। 

तक्षकं सम्प्रदीप्तेड5ग्नौ प्रक्षिपेयं सबान्धवम्‌ । 

यथा तेन पिता महां पूर्व दग्धो विषाग्निना । 

तथाहमपि तं पापं दग्धुमिच्छामि पन्नगम्‌ ।। ५ ।। 

'ब्राह्मणो! जिस दुरात्मा तक्षकने मेरे पिताकी हत्या की है, उससे मैं उसी प्रकारका 
बदला लेना चाहता हूँ। इसके लिये मुझे क्या करना चाहिये, यह आपलोग बतावें। क्‍या 
आपलोगोंको ऐसा कोई कर्म विदित है जिसके द्वारा मैं तक्षक नागको उसके बन्धु- 
बान्धवोंसहित जलती हुई आगमें झोंक सकूँ? उसने अपनी विषाग्निसे पूर्वकालमें मेरे 
पिताको जिस प्रकार दग्ध किया था, उसी प्रकार मैं भी उस पापी सर्पको जलाकर भस्म 
कर देना चाहता हूँ! ॥| ३--५ ।। 

ऋत्विज ऊचु: 
अस्ति राजन्‌ महत्‌ सत्र त्वदर्थ देवनिर्मितम्‌ । 
सर्पसत्रमिति ख्यातं पुराणे परिपठ्यते ।। ६ ।। 


ऋत्विजोंने कहा--राजन्‌! इसके लिये एक महान्‌ यज्ञ है, जिसका देवताओंने आपके 
लिये पहलेसे ही निर्माण कर रखा है। उसका नाम है सर्पसत्र। पुराणोंमें उसका वर्णन आया 
है ।। ६ |। 

आहर्ता तस्य सत्रस्य त्वन्नान्यो5स्ति नराधिप । 

इति पौराणिका: प्राहुरस्माकं चास्ति स क्रतु: ।। ७ ।। 

नरेश्वर! उस यज्ञका अनुष्ठान करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है, ऐसा 
पौराणिक विद्दान्‌ कहते हैं। उस यज्ञका विधान हमलोगोंको मालूम है || ७ ।। 

एवमुक्तः स राजर्षिमिने दग्धं॑ हि तक्षकम्‌ | 

हुताशनमुखे दीप्ते प्रविष्टमिति सत्तम ॥। ८ ।। 

साधुशिरोमणे! ऋत्विजोंके ऐसा कहनेपर राजर्षि जनमेजयको विश्वास हो गया कि 
अब तक्षक निश्चय ही प्रज्वलित अग्निके मुखमें समाकर भस्म हो जायगा ।। ८ ।। 

ततोअ<ब्रवीन्मन्त्रविदस्तान्‌ राजा ब्राह्मुणांस्तदा । 

आहरिष्यामि तत्‌ सत्र सम्भारा: सम्प्रियन्तु मे ।। ९ ।। 

तब राजाने उस समय उन मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणोंस कहा--“'मैं उस यज्ञका अनुष्ठान 
करूँगा। आपलोग उसके लिये आवश्यक सामग्री संग्रह कीजिये” ।। ९ ।। 

ततस्ते ऋत्विजस्तस्य शास्त्रतो द्विजसत्तम । 

त॑ं देशं मापयामासुर्यज्ञायतनकारणात्‌ ।। १० ।। 

द्विजश्रेष्ठ] तब उन ऋत्विजोंने शास्त्रीय विधिके अनुसार यज्ञमण्डप बनानेके लिये 
वहाँकी भूमि नाप ली ।। १० ।। 

यथावद्‌ वेदविद्वांस: सर्वे बुद्धेः परं गता: । 

ऋद्धया परमया युक्तमिष्टं द्विजगणैर्युतम्‌ ।। ११ ।। 

प्रभूतधनधान्याब्यमृत्विग्भि: सुनिषेवितम्‌ । 

निर्माय चापि विधिवद्‌ यज्ञायतनमीप्सितम्‌ ।। १२ ।। 

राजान दीक्षयामासु: सर्पसत्राप्तये तदा । 

इदं चासीत्‌ तत्र पूर्व सर्पसत्रे भविष्यति ।। १३ ।। 

वे सभी ऋत्विज्‌ वेदोंके यथावत्‌ विद्वान्‌ तथा परम बुद्धिमान थे। उन्होंने विधिपूर्वक 
मनके अनुरूप एक यज्ञ-मण्डप बनाया, जो परम समृद्धिसे सम्पन्न, उत्तम द्विजोंके 
समुदायसे सुशोभित, प्रचुर धनधान्यसे परिपूर्ण तथा ऋत्विजोंसे सुसेवित था। उस 
यज्ञमण्डपका निर्माण कराकर ऋत्विजोंने सर्पयज्ञकी सिद्धिके लिये उस समय राजा 
जनमेजयको दीक्षा दी। इसी समय जब कि सर्पसत्र अभी प्रारम्भ होनेवाला था, वहाँ पहले 
ही यह घटना घटित हुई ।। ११--१३ ।। 

निमित्तं महदुत्पन्नं यज्ञविघ्नकरं तदा । 

यज्ञस्यायतने तस्मिन्‌ क्रियमाणे वचो<ब्रवीत्‌ ।। १४ ।। 


स्थपतिर्बुद्धिसम्पन्नो वास्तुविद्याविशारद: । 

इत्यब्रवीत्‌ सूत्रधार: सूत: पौराणिकस्तदा ।। १५ ।। 

उस यज्ञमें विघ्न डालनेवाला बहुत बड़ा कारण प्रकट हो गया। जब वह यज्ञमण्डप 
बनाया जा रहा था, उस समय वास्तुशास्त्रके पारंगत विद्वान बुद्धिमान एवं अनुभवी सूत्रधार 
शिल्पवेत्ता सूतने वहाँ आकर कहा-- || १४-१५ || 

यस्मिन्‌ देशे च काले च मापनेयं प्रवर्तिता । 

ब्राह्मणं कारणं कृत्वा नायं संस्थास्यते क्रतु: ।। १६ ।। 

“जिस स्थान और समयमें यह यज्ञमण्डप मापनेकी क्रिया प्रारम्भ हुई है, उसे देखकर 
यह मालूम होता है कि एक ब्राह्मणको निमित्त बनाकर यह यज्ञ पूर्ण न हो 
सकेगा” ।। १६ ।। 

एतच्छुत्वा तु राजासौ प्राग्दीक्षाकालमब्रवीत्‌ । 

क्षत्तारं न हि मे कश्रिदज्ञात: प्रविशेदिति ।। १७ ।। 

यह सुनकर राजा जनमेजयने दीक्षा लेनेसे पहले ही सेवकको यह आदेश दे दिया 
--'मुझे सूचित किये बिना किसी अपरिचित व्यक्तिको यज्ञमण्डपमें प्रवेश न करने दिया 
जाय' || १७ || 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पसत्रोपक्रमे 
एकपज्चाशत्तमो5ध्याय: ।। ५१ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें यर्पसत्रोपक्रमसम्बन्धी 
इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५१ ॥। 


पम्प बछ। अंक 


द्विपञज्चाशत्तमो<ड ध्याय: 


सर्पसत्रका आरम्भ और उसमें सर्पोका विनाश 


सौतिरुवाच 


ततः कर्म प्रववृते सर्पसत्रविधानत: । 

पर्यक्रामंश्व विधिवत्‌ स्वे स्वे कर्मणि याजका: ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! तदनन्तर सर्पयज्ञकी विधिसे कार्य प्रारम्भ हुआ। सब 
याजक विधिपूर्वक अपने-अपने कर्ममें संलग्न हो गये ।। १ ।। 

प्रावृत्य कृष्णवासांसि धूमसंरक्तलोचना: । 

जुहु॒वुर्मन्त्रवच्चैव समिद्धं जातवेदसम्‌ ।। २ ।। 

सबकी आँखें धूएँसे लाल हो रही थीं। वे सभी ऋत्विज्‌ काले वस्त्र पहनकर 
मन्त्रोच्चारणपूर्वक प्रज्वलित अग्निमें होम करने लगे || २ ।। 

कम्पयन्तश्न सर्वेषामुरगाणां मनांसि च | 

सर्पानाजुहुवुस्तत्र सर्वानग्निमुखे तदा ।। ३ ।। 

वे समस्त सर्पोंके हृदयमें कैँपकँपी पैदा करते हुए उनके नाम ले-लेकर उन सबका वहाँ 
आगके मुखमें होम करने लगे ।। ३ ।। 

ततः सर्पा: समापेतु: प्रदीप्ते हव्यवाहने । 

विचेष्टमाना: कृपणमाह्नयन्त: परस्परम्‌ ।। ४ ।। 

तत्पश्चात्‌ सर्पगण तड़फड़ाते और दीनस्वरमें एक-दूसरेको पुकारते हुए प्रज्वलित 
अग्निमें टपाटप गिरने लगे ।। ४ ।। 

विस्फुरन्त: श्वसन्तश्न॒ वेष्टयन्त: परस्परम्‌ । 

पुच्छे: शिरोभिश्व भृशं चित्रभानु प्रपेदिरे | ५ ।। 

वे उछलते, लम्बी साँसें लेते, पूँछ और फनोंसे एक-दूसरेको लपेटते हुए धधकती 
आगके भीतर अधिकाधिक संख्यामें गिरने लगे || ५ ।। 

श्वेता: कृष्णाश्न नीलाश्व स्थविरा: शिशवस्तथा । 

नदन्तो विविधान्‌ नादान पेतुर्दीप्ते विभावसौ ।। ६ ।। 

सफेद, काले, नीले, बूढ़े और बच्चे सभी प्रकारके सर्प विविध प्रकारसे चीत्कार करते 
हुए जलती आगमें विवश होकर गिर रहे थे ।। ६ ।। 

क्रोशयोजनमात्रा हि गोकर्णस्य प्रमाणत: । 

पतन्त्यजस्त्रं वेगेन वह्लावग्निमतां वर ।। ७ ॥। 

कोई एक कोस लम्बे थे, तो कोई चार कोस और किन्हीं-किन्हींकी लम्बाई तो केवल 
गायके कानके बराबर थी। अनिनिहोत्रियोंमें श्रेष्ठ शौनक! वे छोटे-बड़े सभी सर्प बड़े वेगसे 


आगकी ज्वालामें निरन्तर आहुति बन रहे थे || ७ ।। 

एवं शतसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च । 

अवशानि विनष्टानि पन्नगानां तु तत्र वै । ८ ।। 

इस प्रकार लाखों, करोड़ों तथा अरबों सर्प वहाँ विवश होकर नष्ट हो गये ।। ८ ।। 

तुरगा इव तत्रान्ये हस्तिहस्ता इवापरे | 

मत्ता इव च मातज्रा महाकाया महाबला: ।। ९ || 

कुछ सर्पोकी आकृति घोड़ोंके समान थी और कुछकी हाथीकी सूँड़के सदृश। कितने 
ही विशाल-काय महाबली नाग मतवाले गजराजोंको मात कर रहे थे ।। ९ ।। 

उच्चावचाक्ष बहवो नानावर्णा विषोल्बणा: । 

घोराश्न॒ परिघप्रख्या दन्‍न्दशूका महाबला: । 

प्रपेतुरग्नावुरगा मातृवाग्दण्डपीडिता: ।। १० ।। 

भयंकर विषवाले छोटे-बड़े अनेक रंगके बहु-संख्यक सर्प, जो देखनेमें भयानक, 
परिघके समान मोटे, अकारण ही डँस लेनेवाले और अत्यन्त शक्तिशाली थे, अपनी माताके 
शापसे पीड़ित होकर स्वयं ही आगमें पड़ रहे थे || १० ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पसत्रोपक्रमे 
द्विपज्चाशत्तमोडध्याय: ।। ५२ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपववके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पसत्रोपक्रमाविषयक 
बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५२ ॥ 


ऑपन-मा जल बछ। डे 


त्रिपञज्चाशत्तमो<ड्ध्याय: 


सर्पयज्ञके ऋत्विजोंकी नामावली, सर्पोंका भयंकर विनाश, 
तक्षकका इन्द्रकी शरणमें जाना तथा ७ अपनी 
बहिनसे आस्तीकको यज्ञमें भेजनेके कहना 


शौनक उवाच 


सर्पसत्रे तदा राज्ञ: पाण्डवेयस्य धीमत: । 

जनमेजयस्य के त्वासन्नृत्विज: परमर्षय: ।। १ ।॥। 

शौनकजीने पूछा--सूतनन्दन! पाण्डववंशी बुद्धिमानू राजा जनमेजयके उस 
सर्पयज्ञमें कौन-कौनसे महर्षि ऋत्विज्‌ बने थे? ।। १ ।। 

के सदस्या बभूवुश्न सर्पसत्रे सुदारुणे । 

विषादजनने>त्यर्थ पन्नगानां महाभये ।। २ ।। 

उस अत्यन्त भयंकर सर्पसत्रमें, जो सर्पोके लिये महान्‌ भयदायक और विषादजनक 
था, कौन-कौनसे मुनि सदस्य हुए थे? ।। २ ।। 

सर्व विस्तरशस्तात भवाझुछंसितुमहति । 

सर्पसत्रविधानज्ञविज्ञेया: के च सूतज ।। ३ ।। 

तात! ये सब बातें आप विस्तारपूर्वक बताइये। सूतपुत्र! यह भी सूचित कीजिये कि 
सर्पसत्रकी विधिको जाननेवाले दिद्दानोंमें श्रेष्ठ समझे जानेयोग्य कौन-कौनसे महर्षि वहाँ 
उपस्थित थे ।। ३ ।। 


सौतिरुवाच 


हन्त ते कथयिष्यामि नामानीह मनीषिणाम्‌ । 

ये ऋत्विज: सदस्याश्न तस्यासन्‌ नृपतेस्तदा ।। ४ ।। 

तत्र होता बभूवाथ ब्राह्मणश्वण्डभार्गव: | 

च्यवनस्यान्वये ख्यातो जातो वेदविदां वर: ।। ५ ।। 

उदगाता ब्राह्मणो वृद्धो विद्वान्‌ कौत्सो5थ जैमिनि: । 

ब्रह्माभवच्छार्जरवो<5थाध्वर्युश्नापि पिड़ल: ।। ६ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--शौनकजी! मैं आपको उन मनीषी महात्माओंके नाम बता रहा 
हूँ, जो उस समय राजा जनमेजयके ऋत्विज्‌ और सदस्य थे। उस यज्ञमें वेद-वेत्ताओंमें श्रेष्ठ 
ब्राह्मण चण्डभार्गव होता थे। उनका जन्म च्यवन मुनिके वंशमें हुआ था। वे उस समयके 
विख्यात कर्मकाण्डी थे। वृद्ध एवं विद्वान ब्राह्मण कौत्स उदगाता, जैमिनि ब्रह्मा तथा 
शार्जरव और पिंगल अध्वर्यु थे || ४--६ ।। 


सदस्यश्लाभवद्‌ व्यास: पुत्रशिष्यसहायवान्‌ | 

उद्दालक: प्रमतकः: श्वेतकेतुश्चव पिज्रल: ।। ७ ।। 

असितो देवलश्लैव नारद: पर्वतस्तथा । 

आत्रेय: कुण्डजठरीौ द्विज: कालघटस्तथा ।॥। ८ ।। 

वात्स्य: श्रुतश्रवा वृद्धो जपस्वाध्यायशीलवान्‌ । 

कोहलो देवशर्मा च मौद्गल्य: समसौरभ: ।। ९ || 

एते चान्ये च बहवो ब्राह्मणा वेदपारगा: । 

सदस्याश्नाभवंस्तत्र सत्रे पारीक्षितस्य ह ।। १० ।। 

इसी प्रकार पुत्र और शिष्योंसहित भगवान्‌ वेदव्यास, उददालक, प्रमतक, श्वैतकेतु, 
पिंगल, असित, देवल, नारद, पर्वत, आत्रेय, कुण्ड, जठर, द्विजश्रेष्ठ कालघट, वात्स्य, जप 
और स्वाध्यायमें लगे रहनेवाले बूढ़े श्रुतश्रवा, कोहल, देवशर्मा, मौद्गल्य तथा समसौरभ-- 
ये और अन्य बहुत-से वेदविद्याके पारंगत ब्राह्मण जनमेजयके उस सर्पयज्ञमें सदस्य बने 
थे || ७--१० || 

जुद्वत्स्वृत्विक्ष्वथ तदा सर्पसत्रे महाक्रतौ । 

अहय: प्रापतंस्तत्र घोरा: प्राणिभयावहा: ।। ११ ।। 

उस समय उस महान्‌ यज्ञ सर्पसत्रमें ज्यों-ज्यों ऋत्विजू लोग आहुतियाँ डालते, त्यों-त्यों 
प्राणिमात्रको भय देनेवाले घोर सर्प वहाँ आ-आकर गिरते थे ।। ११ ।। 

वसामेदोवहा: कुल्या नागानां सम्प्रवर्तिता: । 

ववौ गन्धश्च तुमुलो दह्तामनिशं तदा ।। १२ ।। 

नागोंकी चर्बी और मेदसे भरे हुए कितने ही नाले बह चले। निरन्तर जलनेवाले सर्पोंकी 
तीखी दुर्गन्ध चारों ओर फैल रही थी ।। १२ ।। 

पततां चैव नागानां धिषछितानां तथाम्बरे । 

अश्रूयतानिशं शब्द: पच्यतां चाग्निना भृशम्‌ ।। १३ ।। 

जो आगमें पड़ रहे थे, जो आकाशगमें ठहरे हुए थे और जो जलती हुई आगकी ज्वालामें 
पक रहे थे, उन सभी सर्पोका करुण क्रन्दन निरन्तर जोर-जोरसे सुनायी पड़ता 
था || १३ || 

तक्षकस्तु स नागेन्द्र: पुरन्दरनिवेशनम्‌ । 

गत: श्रुत्वैव राजान॑ दीक्षितं जनमेजयम्‌ ।। १४ ।। 

नागराज तक्षकने जब सुना कि राजा जनमेजयने सर्पयज्ञकी दीक्षा ली है, तब उसे 
सुनते ही वह देवराज इन्द्रके भवनमें चला गया ।। १४ ।। 

ततः सर्व यथावृत्तमाख्याय भुजगोत्तम: । 

अगच्छच्छरणं भीत आग: कृत्वा पुरन्दरम्‌ || १५ || 


वहाँ उसने सब बातें ठीक-ठीक कह सुनायीं। फिर सर्पोमें श्रेष्ठ तक्षकने अपराध 
करनेके कारण भयभीत हो इन्द्रदेवकी शरण ली ।। १५ ।। 

तमिन्द्र: प्राह सुप्रीतो न तवास्तीह तक्षक । 

भयं नागेन्द्र तस्माद्‌ वै सर्पसत्रात्‌ू कदाचन ।। १६ ।। 

तब इन्द्रने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा--“नागराज तक्षक! तुम्हें यहाँ उस सर्पयज्ञसे 
कदापि कोई भय नहीं है || १६ ।। 

प्रसादितो मया पूर्व तवार्थाय पितामह: । 

तस्मात्‌ तव भयं नास्ति व्येतु ते मानसो ज्वर: ।। १७ ।। 

तुम्हारे लिये मैंने पहलेसे ही पितामह ब्रह्माजीको प्रसन्न कर लिया है, अतः तुम्हें कुछ 
भी भय नहीं है। तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये” ।। १७ ।। 

सौतिर्वाच 


एवमाश्वासितस्तेन तत: स भुजगोत्तम: । 

उवास भवने तस्मिज्छक्रस्य मुदित: सुखी ।। १८ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--इन्द्रके इस प्रकार आश्वासन देनेपर सर्पोमें श्रेष्ठ तक्षक उस 
इन्द्रभवनमें ही सुखी एवं प्रसन्न होकर रहने लगा ।। १८ ।। 

अजसं निपतत्स्वग्नौ नागेषु भृशदु:खित: । 

अल्पशेषपरीवारो वासुकि: पर्यतप्यत ।। १९ ।। 

नाग निरन्तर उस यज्ञकी आगमें आहुति बनते जा रहे थे। सर्पोका परिवार अब बहुत 
थोड़ा बच गया था। यह देख वासुकि नाग अत्यन्त दुःखी हो मन-ही-मन संतप्त होने 
लगे ।। १९ || 

कश्मलं चाविशद्‌ घोरं वासुकिं पन्नगोत्तमम्‌ । 

स घूर्णमानहृदयो भगिनीमिदमब्रवीत्‌ ।। २० ।। 

सर्पोमें श्रेष्ठ वासुकिपर भयानक मोह-सा छा गया, उनके हृदयमें चक्कर आने लगा। 
अतः वे अपनी बहिनसे इस प्रकार बोले--- || २० ।। 

दहान्त्यड्रानि मे भद्रे न दिश: प्रतिभान्ति च । 

सीदामीव च सम्मोहात्‌ घूर्णतीव च मे मन: ।। २१ ।। 

दृष्टिभभ्राम्यति मेडतीव हृदयं दीर्यतीव च । 

पतिष्याम्यवशोड्द्याहं तस्मिन्‌ दीप्ते विभावसौ || २२ ।। 

“भद्रे! मेरे अंगोंमें जलन हो रही है। मुझे दिशाएँ नहीं सूझतीं। मैं शिथिल-सा हो रहा हूँ 
और मोहवश मेरे मस्तिष्कमें चक्‍्कर-सा आ रहा है, मेरे नेत्र घूम रहे हैं, हृदय अत्यन्त 
विदीर्ण-सा होता जा रहा है। जान पड़ता है, आज मैं भी विवश होकर उस यज्ञकी प्रज्वलित 
अग्निमें गिर पडूँगा || २१-२२ ।। 


पारिक्षितस्य यज्ञोडसौ वर्तते5स्मज्जिघांसया । 

व्यक्त मयापि गन्तव्यं प्रेतराजनिवेशनम्‌ ।। २३ ।। 

“जनमेजयका वह यज्ञ हमलोगोंकी हिंसाके लिये ही हो रहा है। निश्चय ही अब मुझे भी 
यमलोक जाना पड़ेगा ।। २३ ।। 

अयं स काल: सम्प्राप्तो यदर्थमसि मे स्वसः । 

जरत्कारौ मया दत्ता त्रायस्वास्मान्‌ सबान्धवान्‌ ।। २४ ।। 

“बहिन! जिसके लिये मैंने तुम्हारा विवाह जरत्कारु मुनिसे किया था, उसका यह 
अवसर आ गया है। तुम बान्धवोंसहित हमारी रक्षा करो || २४ ।। 

आस्तीक: किल यज्ञं तं॑ वर्तन्तं भुजगोत्तमे । 

प्रतिषेत्स्यति मां पूर्व स्वयमाह पितामह: ।। २५ ।। 

'श्रेष्ठ नागकन्ये! पूर्वकालमें साक्षात्‌ ब्रह्माजीने मुझसे कहा था--“आस्तीक उस यज्ञको 
बंद कर देगा” ।। २५ |। 

तद्‌ वत्से ब्रूहि वत्सं स्वं कुमारं वृद्धसम्मतम्‌ । 

ममाद्य त्वं सभृत्यस्य मोक्षार्थ वेदवित्तमम्‌ ।। २६ ।। 

“अतः वत्से! आज तुम बन्धु-बान्धवोंसहित मेरे जीवनको संकटसे छुड़ानेके लिये 
वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ अपने पुत्र कुमार आस्तीकसे कहो। वह बालक होनेपर भी वृद्ध पुरुषोंके 
लिये भी आदरणीय है” || २६ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पसत्रे वासुकिवाक्ये 
त्रिपड्चाशत्तमो5ध्याय: ।। ५३ || 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पसत्रके विषयमें 
वायुकिवचनसम्बन्धी तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५३ ॥। 


अपन क्ात बछ। अर: 2 


चतुष्पठ्चाशत्तमोड ध्याय: 


माताकी आज्ञासे मामाको सान्त्वना देकर आस्तीकका 
सर्पयज्ञमें जाना 


सौतिर्वाच 

तत आहूय पुत्र स्वं जरत्कारुर्भुजज्मा । 

वासुके्नागराजस्य वचनादिदमब्रवीत्‌ ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तब नागकन्या जरत्कारु नागराज वासुकिके कथनानुसार 
अपने पुत्रको बुलाकर इस प्रकार बोली-- ।। १ ।। 

अहं तव पितु: पुत्र भ्रात्रा दत्ता निमित्तत: । 

काल: स चायं सम्प्राप्तस्तत्‌ कुरुष्व यथातथम्‌ ॥। २ ।॥। 

“बेटा! मेरे भैयाने एक निमित्तको लेकर तुम्हारे पिताके साथ मेरा विवाह किया था। 
उसकी पूर्तिका यही उपयुक्त अवसर प्राप्त हुआ है। अतः तुम यथावत्‌्रूपसे उस उद्देश्यकी 
पूर्ति करो! || २ |॥। 

आस्तीक उवाच 


कि निमित्तं मम पितुर्दत्ता त्वं मातुलेन मे । 

तन्ममाचदक्ष्व तत्त्वेन श्रुत्वा कर्तास्मि तत्‌ तथा ।। ३ ।। 

आस्तीकने पूछा--माँ! मामाजीने किस निमित्तको लेकर पिताजीके साथ तुम्हारा 
विवाह किया था? वह मुझे ठीक-ठीक बताओ। उसे सुनकर मैं उसकी सिद्धिके लिये प्रयत्न 
करूँगा ।। ३ ।। 


सौतिरुवाच 


तत आचरष्ट सा तस्मै बान्धवानां हितैषिणी । 
भगिनी नागराजस्य जरत्कारुरविक्लवा ।। ४ || 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओंका हित चाहनेवाली नागराजकी 
बहिन जरत्कारु शान्तचित्त हो आस्तीकसे बोली || ४ ।। 
जरत्कारुर॒वाच 


पन्नगानामशेषाणां माता कद्रूरिति श्रुता । 

तया शप्ता रुषितया सुता यस्मान्निबोध तत्‌ ।। ५ ।। 

जरत्कारुने कहा--वत्स! सम्पूर्ण नागोंकी माता कद्भू नामसे विख्यात हैं। उन्होंने 
किसी समय रुष्ट होकर अपने पुत्रोंको शाप दे दिया था। जिस कारणसे वह शाप दिया, वह 


बताती हूँ, सुनो ।। ५ ।। 

उच्चै:श्रवा: सो5श्वराजो यन्मिथ्या न कृतो मम । 

विनतार्थाय पणिते दासी भावाय पुत्रका: ।। ६ ।। 

जनमेजयस्य वो यज्ञे धक्ष्यत्यनिलसारथि: । 

तत्र पञठ्चत्वमापन्ना: प्रेतलोक॑ गमिष्यथ || ७ ।। 

(अश्वोंका राजा जो उच्चै:श्रवा है, उसके रंगको लेकर विनताके साथ कढद्रूने बाजी 
लगायी थी। उसमें यह शर्त थी--“जो हारे वह जीतनेवालीकी दासी बने।” कद्रू उच्चै:श्रवाकी 
पूँछ काली बता चुकी थी। अतः उसने अपने पुत्रोंसे कहा--“तुमलोग छलपूर्वक उस घोड़ेकी 
पूँछ काले रंगकी कर दो।' सर्प इससे सहमत न हुए। तब उन्होंने सर्पोको शाप देते हुए कहा 
--) पुत्रों! तुमलोगोंने मेरे कहनेसे अश्वराज उच्चै:श्रवाकी पूँछका रंग न बदलकर विनताके 
साथ जो मेरी दासी होनेकी शर्त थी, उसमें--उस घोड़ेके सम्बन्धमें विनताके कथनको 
मिथ्या नहीं कर दिखाया, इसलिये जनमेजयके यज्ञमें तुमलोगोंको आग जलाकर भस्म कर 
देगी और तुम सभी मरकर प्रेतलोकको चले जाओगे” ।। ६-७ ।। 

तां च शप्तवतीं देव: साक्षाल्लोकपितामह: । 

एवमस्त्विति तद्वाक्यं प्रोवाचानुमुमोद च ।। ८ ।। 

कद्रूने जब इस प्रकार शाप दे दिया, तब साक्षात्‌ लोकपितामह भगवान्‌ ब्रह्माने 
'एवमस्तु' कहकर उनके वचनका अनुमोदन किया ।। ८ ।। 

वासुकिश्नापि तच्छुत्वा पितामहवचस्तदा । 

अमृते मथिते तात देवाञ्छरणमीयिवान्‌ ।। ९ |। 

तात! मेरे भाई वासुकिने भी उस समय पितामहकी बात सुनी थी। फिर अमृत- 

मन्थनका कार्य हो जानेपर वे देवताओंकी शरणमें गये ।। ९ ।। 

सिद्धार्थाश्च सुरा: सर्वे प्राप्पामृतमनुत्तमम्‌ । 

भ्रातरं मे पुरस्कृत्य पितामहमुपागमन्‌ ।। १० ।। 

ते त॑ प्रसादयामासु: सुरा: सर्वेडब्जसम्भवम्‌ | 

राज्ञा वासुकिना सार्थ शापोड्सौ न भवेदिति ।। ११ ।। 

देवतालोग मेरे भाईकी सहायतासे उत्तम अमृत पाकर अपना मनोरथ सिद्ध कर चुके 
थे। अतः वे मेरे भाईको आगे करके पितामह ब्रह्माजीके पास गये। वहाँ समस्त देवताओंने 
नागराज वासुकिके साथ रहकर पितामह ब्रह्माजीको प्रसन्न किया। उन्हें प्रसन्न करनेका 
उद्देश्य यह था कि माताका वह शाप लागू न हो ।। १०-११ ।। 


देवा ऊचु 
वासुकिर्नागराजो<यं दुःखितो ज्ञातिकारणात्‌ । 
अभिशाप: स मातुस्तु भगवन्‌ न भवेत्‌ कथम्‌ ।। १२ ।। 


देवता बोले--भगवन्‌! ये नागराज वासुकि अपने जाति-भाइयोंके लिये बहुत दुःखी 
हैं। कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे माताका शाप इन लोगोंपर लागू न हो ।। १२ ।। 
ब्रह्मोवाच 


जरत्कारुर्जरत्कारुं यां भार्या समवाप्स्यति । 

तत्र जातो द्विज:ः शापान्मोक्षयिष्यति पन्नगान्‌ ।। १३ |। 

ब्रह्माजीने कहा--जरत्कारु मुनि जरत्कारु नामवाली जिस पत्नीको ग्रहण करेंगे, 
उसके गर्भसे उत्पन्न ब्राह्मण सर्पोंको माताके शापसे मुक्त करेगा ।। १३ ।। 

एतच्छुत्वा तु वचनं वासुकि: पन्नगोत्तम: । 

प्रादान्माममरप्रख्य तव पित्रे महात्मने ।। १४ ।। 

प्रागेवानागते काले तस्मात्‌ त्वं मय्यजायथा: । 

अयं स काल: सम्प्राप्तो भयान्नस्त्रातुमहसि ।। १५ ।। 

भ्रातरं चापि मे तस्मात्‌ त्रातुमहसि पावकात्‌ । 

न मोघं तु कृतं तत्‌ स्यथाद्‌ यदहं तव धीमते । 

पित्रे दत्ता विमोक्षार्थ कथं वा पुत्र मन्‍्यसे ।। १६ ।। 

देवताके समान तेजस्वी पुत्र! ब्रह्माजीकी वह बात सुनकर नागश्रेष्ठ वासुकिने मुझे 
तुम्हारे महात्मा पिताकी सेवामें समर्पित कर दिया। यह अवसर आनेसे बहुत पहले इसी 
निमित्तसे मेरा विवाह किया गया। तदनन्तर उन महर्षिद्वारा मेरे गर्भसे तुम्हारा जन्म हुआ। 
जनमेजयके सर्पयज्ञका वह पूर्वनिर्दिष्ठ काल आज उपस्थित है (उस यज्ञमें निरन्तर सर्प जल 
रहे हैं)) अतः उस भयसे तुम उन सबका उद्धार करो। मेरे भाईको भी उस भयंकर अग्निसे 
बचा लो। जिस उद्देश्यको लेकर तुम्हारे बुद्धिमान्‌ पिताकी सेवामें मैं दी गयी, वह व्यर्थ नहीं 
जाना चाहिये। अथवा बेटा! सर्पोको इस संकटसे बचानेके लिये तुम क्या उचित समझते 
हो? ।। १४--१६ || 

सौतिर्वाच 


एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा सास्तीको मातरं तदा | 

अब्रवीद्‌ दुःखसंतप्तं वासुकिं जीवयन्निव ।। १७ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--माताके ऐसा कहनेपर आस्तीकने उससे कहा--'माँ! तुम्हारी 
जैसी आज्ञा है वैसा ही करूँगा।' इसके बाद वे दुःखपीड़ित वासुकिको जीवनदान देते हुए- 
से बोले-- || १७ ।। 

अहं त्वां मोक्षयिष्यामि वासुके पन्नगोत्तम । 

तस्माच्छापान्महास तत्त्व सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते || १८ ।। 

“महान्‌ शक्तिशाली नागराज वासुके! मैं आपको माताके उस शापसे छुड़ा दूँगा। यह 
आपसे सत्य कहता हूँ || १८ ।। 


भव स्वस्थमना नाग न हि ते विद्यते भयम्‌ । 

प्रयतिष्ये तथा राजन्‌ यथा श्रेयो भविष्यति ।। १९ ।। 

“नागप्रवर! आप निश्चिन्त रहें। आपके लिये कोई भय नहीं है। राजन! जैसे भी आपका 
कल्याण होगा, मैं वैसा प्रयत्न करूँगा ।। १९ ।। 

न मे वागनृतं प्राह स्वैरेष्वपि कुतोडन्यथा । 

त॑ वै नृपवरं गत्वा दीक्षितं जनमेजयम्‌ ।। २० ।। 

वाम्भि्मड्नलयुक्ताभिस्तोषयिष्येडद्य मातुल । 

यथा स यज्ञो नृपतेर्निवर्तिष्यति सत्तम ।। २१ ।। 

“मैंने कभी हँसी-मजाकमें भी झूठी बात नहीं कही है, फिर इस संकटके समय तो कह 
ही कैसे सकता हूँ। सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ मामाजी! सर्पयज्ञके लिये दीक्षित नृपश्रेष्ठ जनमेजयके 
पास जाकर अपनी मंगलमयी वाणीसे आज उन्हें ऐसा संतुष्ट करूँगा, जिससे राजाका वह 
यज्ञ बंद हो जायगा || २०-२१ ।। 

स सम्भावय नागेन्द्र मयि सर्व महामते । 

न ते मयि मनो जातु मिथ्या भवितुमहति ।। २२ ।। 

“महाबुद्धिमान्‌ नागराज! मुझमें यह सब कुछ करनेकी योग्यता है, आप इसपर विश्वास 
रखें। आपके मनमें मेरे प्रति जो आशा-भरोसा है, वह कभी मिथ्या नहीं हो 
सकता” ॥। २२ ।। 


वायुकिरुवाच 


आस्तीक परिधघूर्णामि हृदयं मे विदीर्यते । 
दिशो न प्रतिजानामि ब्रह्म॒ृदण्डनिपीडित: ॥। २३ ।। 
वासुकि बोले--आस्तीक! माताके शापरूप ब्रह्मदण्डसे पीड़ित होनेके कारण मुझे 
चक्कर आ रहा है, मेरा हृदय विदीर्ण होने लगा है और मुझे दिशाओंका ज्ञान नहीं हो रहा 
है ।। २३ ।। 
आस्तीक उवाच 


न संतापस्त्वया कार्य: कथंचित्‌ पन्नगोत्तम | 

प्रदीप्ताग्ने: समुत्पन्नं नाशयिष्यामि ते भयम्‌ ।। २४ ।। 

आस्तीकने कहा--नागप्रवर! आपको मनमें किसी प्रकार संताप नहीं करना चाहिये। 
सर्पयज्ञकी धधकती हुई आगसे जो भय आपको प्राप्त हुआ है, मैं उसका नाश कर 
दूँगा | २४ ।। 

ब्रह्मदण्डं महाघोरं कालाग्निसमतेजसम्‌ । 

नाशयिष्यामि मात्र त्वं भयं कार्षी: कथंचन || २५ ।। 


कालाग्निके समान दाहक और अत्यन्त भयंकर शापका यहाँ मैं अवश्य नाश कर 
डालूँगा। अत: आप उससे किसी तरह भय न करें ।। २५ ।। 


सौतिरुवाच 


ततः स वासुकेरघोरमपनीय मनोज्वरम्‌ । 

आधाय चात्मनोड्रेषु जगाम त्वरितो भूशम्‌ ।। २६ ।। 

जनमेजयस्य त॑ यज्ञ सर्वे: समुदितं गुणै: । 

मोक्षाय भुजगेन्द्राणामास्तीको द्विजसत्तम: ।। २७ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--तदनन्तर नागराज वासुकिके भयंकर चिन्ता-ज्वरको दूर कर 
और उसे अपने ऊपर लेकर द्विजश्रेष्ठ आस्तीक बड़ी उतावलीके साथ नागराज वासुकि 
आदिको प्राण-संकटसे छुड़ानेके लिये राजा जनमेजयके उस सर्पयज्ञमें गये, जो समस्त 
उत्तम गुणोंसे सम्पन्न था ।। २६-२७ ।। 

स गत्वापश्यदास्तीको यज्ञायतनमुत्तमम्‌ | 

वृतं सदस्यैर्बहुभि: सूर्यवल्निसमप्रभै: ।। २८ ।। 

वहाँ पहुँचकर आस्तीकने परम उत्तम यज्ञमण्डप देखा, जो सूर्य और अग्निके समान 
तेजस्वी अनेक सदस्योंसे भरा हुआ था ।। २८ ।। 

स तत्र वारितो द्वा:स्थै: प्रविशन्‌ द्विजसत्तम: । 

अभितुष्टाव त॑ यज्ञ प्रवेशार्थी परंतप: ।। २९ ।। 

द्विजश्रेष्ठ आस्तीक जब यज्ञमण्डपमें प्रवेश करने लगे, उस समय द्वारपालोंने उन्हें रोक 
दिया। तब काम-क्रोध आदि शत्रुओंको संतप्त करनेवाले आस्तीक उसमें प्रवेश करनेकी 
इच्छा रखकर उस यज्ञकी स्तुति करने लगे ।। २९ ।। 

स प्राप्य यज्ञायतनं वरिष्ठ 

द्विजोत्तम: पुण्यकृतां वरिष्ठ: । 
तुष्टाव राजानमनन्तकीर्ति- 
मृत्विक्सदस्यांश्व तथैव चाग्निम्‌ ।। ३० ।। 

इस प्रकार उस परम उत्तम यज्ञमण्डपके निकट पहुँचकर पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ विप्रवर 
आस्तीकने अक्षय कीर्तिसे सुशोभित यजमान राजा जनमेजय, ऋत्विजों, सदस्यों तथा 
अग्निदेवका स्तवन आरम्भ किया || ३० ।। 

इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पसत्रे आस्तीकागमने 
चतुष्पञ्चाशत्तमो<ध्याय: ।। ५४ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपदवर्में सर्पसत्रमें आस्तीकका 
आगमनविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५४ ॥। 


भीकम (2 अमान 


पञ्चपञज्चाशत्तमो< ध्याय: 


आस्तीकके द्वारा यजमान, यज्ञ, ऋत्विज, सदस्यगण और 
अग्निदेवकी स्तुति-प्रशंसा 


आस्तीक उवाच 


सोमस्य यज्ञों वरुणस्य यज्ञ: 
प्रजापतेर्यज्ञ आसीतू _प्रयागे । 
तथा यज्ञोडयं तव भारताग्रय 
पारिक्षित स्वस्ति नोअस्तु प्रियेभ्य: ।॥ १ ।। 
आस्तीकने कहा--भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ जनमेजय! चन्द्रमाका जैसा यज्ञ हुआ था, 
वरुणने जैसा यज्ञ किया था और प्रयागमें प्रजापति ब्रह्माजीका यज्ञ जिस प्रकार समस्त 
सदगुणोंसे सम्पन्न हुआ था, उसी प्रकार तुम्हारा यह यज्ञ भी उत्तम गुणोंसे युक्त है। हमारे 
प्रियजनोंका कल्याण हो ।। १ ।। 
शक्रस्य यज्ञ: शतसंख्य उतक्त- 
स्तथा पूरोस्तुल्यसंख्यं शतं वै । 
तथा यज्ञोडयं तव भारताग्रय 
पारिक्षित स्वस्ति नोअस्तु प्रियेभ्य: ।॥ २ ।। 
भरतकुलशिरोमणि परीक्षित्‌्कुमार! इन्द्रके यज्ञोंकी संख्या सौ बतायी गयी है, राजा 
पूरुके यज्ञोंकी संख्या भी उनके समान ही सौ है। उन सबके यज्ञोंके तुल्य ही तुम्हारा यह 
यज्ञ शोभा पा रहा है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो ।। २ ।। 
यमस्य यज्ञो हरिमेधसश्न 
यथा यज्ञो रन्तिदेवस्य राज्ञ: | 
तथा यज्ञोडयं तव भारताग्रय 
पारिक्षित स्वस्ति नोअस्तु प्रियेभ्य: ।। ३ ।। 
जनमेजय! यमराजका यज्ञ, हरिमेधाका यज्ञ तथा राजा रन्तिदेवका यज्ञ जिस प्रकार 
श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न था, वैसे ही तुम्हारा यह यज्ञ है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो ।। ३ ।। 
गयस्य यज्ञ: शशबिन्दोश्न राज्ञो 
यज्ञस्तथा वैश्रवणस्य राज्ञ: । 
तथा यज्ञोडयं तव भारताग्रय 
पारिक्षित स्वस्ति नोअस्तु प्रियेभ्य: ।॥ ४ ।। 


भरतवंशियोंमें अग्रगण्य जनमेजय! महाराज गयका यज्ञ, राजा शशबिन्दुका यज्ञ तथा 
राजाधिराज कुबेरका यज्ञ जिस प्रकार उत्तम विधि-विधानसे सम्पन्न हुआ था, वैसा ही 
तुम्हारा यह यज्ञ है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण हो ।। ४ ।। 
नृगस्य यज्ञस्त्वजमीढस्य चासीदू 
यथा यज्ञो दाशरथेश्ष राज्ञ: | 
तथा यज्ञोड्यं तव भारताग्रय 
पारिक्षित स्वस्ति नोअस्तु प्रियेभ्य: । ५ ।। 
परीक्षितकुमार! राजा नृग, राजा अजमीढ़ और महाराज दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजीने 
जिस प्रकार यज्ञ किया था, वैसा ही तुम्हारा यह यज्ञ भी है। हमारे प्रियजनोंका कल्याण 
हो ॥। ५ |। 
यज्ञ: श्रुतों दिवि देवस्य सूनो- 
युधिष्ठिरस्पाजमीढस्य राज्ञ: । 
तथा यज्ञो5यं तव भारताग्रय 
पारिक्षित स्वस्ति नोअस्तु प्रियेभ्य: ।। ६ ।। 
भरतश्रेष्ठ जनमेजय! अजमीढ़वंशी धर्मपुत्र महाराज युधिष्छिरके यज्ञकी ख्याति स्वर्गके 
श्रेष्ठ देवताओंने भी सुन रखी थी, वैसा ही तुम्हारा भी यह यज्ञ है। हमारे प्रियजनोंका 
कल्याण हो ॥। ६ |। 
कृष्णस्य यज्ञ: सत्यवत्या: सुतस्य 
स्वयं च कर्म प्रचकार यत्र । 
तथा यज्ञो5यं तव भारताग्रय 
पारिक्षित स्वस्ति नोअस्तु प्रियेभ्य: ।। ७ ।। 
भरताग्रगण्य जनमेजय! सत्यवतीनन्दन व्यासजीका यज्ञ जिसमें उन्होंने स्वयं सब कार्य 
सम्पन्न किया था, जैसा हो पाया था, वैसा ही तुम्हारा यह यज्ञ भी है। हमारे प्रियजनोंका 
कल्याण हो ।। ७ ।। 
इमे च ते सूर्यसमानवर्चस: 
समासते वृत्रहण: क्रतुं यथा । 
नैषां ज्ञातुं विद्यते ज्ञानमद्य 
दत्तं येभ्यो न प्रणश्येत्‌ कदाचित्‌ ।। ८ ।। 
तुम्हारे ये ऋत्विज सूर्यके समान तेजस्वी हैं और इन्द्रके यज्ञकी भाँति तुम्हारे इस यज्ञका 
भलीभाँति अनुष्ठान करते हैं। कोई भी ऐसी जानने योग्य वस्तु नहीं है, जिसका इन्हें ज्ञान न 
हो। इन्हें दिया हुआ दान कभी नष्ट नहीं हो सकता ।। ८ ।। 
ऋषत्विक्‌ समो नास्ति लोकेषु चैव 
दैपायनेनेति विनिकश्षितं मे । 


एतस्य शिष्या: क्षितिमाचरन्ति 
सर्वर्त्विज: कर्मसु स्वेषु दक्षा: ।। ९ ।। 
द्वैपायन व्यासजीके समान पारलौकिक साधनोंमें कुशल दूसरा कोई ऋत्विज नहीं है, 
यह मेरा निश्चित मत है। इनके शिष्य ही अपने-अपने कर्मोंमें निपुण होता, उदगाता आदि 
सभी प्रकारके ऋत्विज हैं, जो यज्ञ करानेके लिये सम्पूर्ण भूमण्डलमें विचरते रहते 
हैं ।। ९ ।। 
विभावसश्षित्र भानुर्महात्मा 
हिरण्यरेता हुतभुक्‌ कृष्णवर्त्मा । 
प्रदक्षिणावर्त शिख: प्रदीप्तो 
हव्यं तवेदं हुतभुग्‌ वष्टि देव: ।। १० ।॥। 
जो विभावसु, चित्रभानु, महात्मा, हिरण्यरेता, हविष्यभोजी तथा कृष्णवर्त्मा कहलाते 
हैं, वे अग्निदेव तुम्हारे इस यज्ञमें दक्षिणावर्त शिखाओंसे प्रज्वलित हो दी हुई आहुतिको 
भोग लगाते हुए तुम्हारे इस हविष्यकी सदा इच्छा रखते हैं ।। १० ।। 
नेह त्वदन्यो विद्यते जीवलोके 
समो नृपः पालयिता प्रजानाम्‌ । 
धृत्या च ते प्रीतमना: सदाहं 
त्वं वा वरुणो धर्मराजो यमो वा ।। ११ ।। 
इस मृत्युलोकमें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा राजा नहीं है, जो तुम्हारी भाँति प्रजाका 
पालन कर सके। तुम्हारे धैर्यसे मेरा मन सदा प्रसन्न रहता है। तुम साक्षात्‌ वरुण, धर्मराज 
एवं यमके समान प्रभावशाली हो ।। ११ ।। 
शक्र: साक्षाद्‌ वज़पाणिरयथेह 
त्राता लोकेडस्मिंस्त्वं तथेह प्रजानाम्‌ । 
मतत्त्व॑ नः पुरुषेन्द्रेह लोके 
न च त्वदन्यो भूपतिरस्ति जज्ञे ।। १२ ।। 
पुरुषोमें श्रेष्ठ जनमेजय! जैसे साक्षात्‌ वज्रपाणि इन्द्र सम्पूर्ण प्रजाकी रक्षा करते हैं, 
उसी प्रकार तुम भी इस लोकमें हम प्रजावर्गके पालक माने गये हो। संसारमें तुम्हारे सिवा 
दूसरा कोई भूपाल तुम-जैसा प्रजापालक नहीं है || १२ ।। 
खट्‌वाड्ननाभागदिलीपकल्प 
ययातिमान्धातृसमप्रभाव । 
आदित्यतेज:प्रतिमानतेजा 
भीष्मो यथा राजसि सुत्रतस्त्वम्‌ ।। १३ ।। 
राजन! तुम खट्वांग, नाभाग और दिलीपके समान प्रतापी हो। तुम्हारा प्रभाव राजा 
ययाति और मान्धाताके समान है। तुम अपने तेजसे भगवान्‌ सूर्यके प्रचण्ड तेजकी 


समानता कर रहे हो। जैसे भीष्मपितामहने उत्तम ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया था, उसी 
प्रकार तुम भी इस यज्ञमें परम उत्तम व्रतका पालन करते हुए शोभा पा रहे हो ।। १३ ।। 
वाल्मीकिवत्‌ ते निभृतं स्ववीर्य 
वसिष्ठवत्‌ ते नियतश्न कोप: । 
प्रभुत्वमिन्द्रत्वसमं मतं मे 
द्युतिश्न नारायणवद्‌ विभाति ।। १४ ।। 
महर्षि वाल्मीकिकी भाँति तुम्हारा अदभुत पराक्रम तुममें ही छिपा हुआ है। महर्षि 
वसिष्ठजीके समान तुमने अपने क्रोधको काबूमें कर रखा है। मेरी ऐसी मान्यता है कि 
तुम्हारा प्रभुत्व इन्द्रके ऐश्वर्यके तुल्य है और तुम्हारी अंगकान्ति भगवान्‌ नारायणके समान 
सुशोभित होती है ।। १४ ।। 
यमो यथा धर्मविनिश्चयज्ञ: 
कृष्णो यथा सर्वगुणोपपन्न: । 
श्रियां निवासोडसि यथा वसूनां 
निधानभूतो5सि तथा क्रतूनाम्‌ ।। १५ ।। 
तुम यमराजकी भाँति धर्मके निश्चित सिद्धान्तको जाननेवाले हो। भगवान्‌ श्रीकृष्णकी 
भाँति सर्वगुणसम्पन्न हो। वसुगणोंके पास जो सम्पत्तियाँ हैं, वैसी ही सम्पदाओंके तुम 
निवासस्थान हो तथा यज्ञोंकी तो तुम साक्षात्‌ निधि ही हो ।। १५ ।। 
दम्भोद्धवेनासि समो बलेन 
रामो यथा शास्त्रविदस्त्रविच्च । 
औवर््रिताभ्यामसि तुल्यतेजा 
दुष्प्रेक्षणीयो5सि भगीरथेन ।। १६ ।। 
राजन! तुम बलमें दम्भोद्धवके समान और अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञानमें परशुरामके सदृश हो। 
तुम्हारा तेज और्व और त्रित नामक महर्षियोंके तुल्य है। राजा भगीरथकी भाँति तुम्हारी ओर 
देखना भी कठिन है || १६ ।। 
सौतिर्वाच 
एवं स्तुता: सर्व एव प्रसन्ना 
राजा सदस्या ऋत्विजो हव्यवाहः । 
तेषां दृष्टवा भावितानीकज्ञितानि 
प्रोवाच राजा जनमेजयो5थ ।। १७ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--आस्तीकके इस प्रकार स्तुति करनेपर यजमान राजा 
जनमेजय, सदस्य, ऋत्विज्‌ और अग्निदेव सभी बड़े प्रसन्न हुए। इन सबके मनोभावों तथा 
बाह्य चेष्टाओंको लक्ष्य करके राजा जनमेजय इस प्रकार बोले ।। १७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पसत्रे आस्तीककृतराजस्तवे 
पठ्चपज्चाशत्तमो5ध्याय ।। ५५ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरववके अन्तर्गत आस्तीकपवर्में आस्तीकद्वारा सर्पसत्रमें राजा 
जनमेजयकी स्वुतिविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५५ ॥/ 


अपन प्रात बछ। अ-काज जा 


षट्पज्चाशत्तमो<5 ध्याय: 


राजाका आस्तीकको वर देनेके लिये तैयार होना, तक्षक 


नागकी व्याकुलता तथा आस्तीकका वर माँगना 
जनमेजय उवाच 
बालो>प्ययं स्थविर इवावभाषते 
नायं बाल: स्थविरो<यं मतो मे । 
इच्छाम्यहं वरमस्मै प्रदातुं 
तन्मे विप्रा: संविदध्वं यथावत्‌ ।। १ ॥। 
जनमेजयने कहा--्राह्मणो! यह बालक है तो भी वृद्ध पुरुषोंके समान बात करता 
है, इसलिये मैं इसे बालक नहीं, वृद्ध मानता हूँ और इसको वर देना चाहता हूँ। इस विषयमें 
आपलोग अच्छी तरह विचार करके अपनी सम्मति दें ।। १ |। 
सदस्या ऊचु: 
बालो<पि विप्रो मान्य एवेह राज्ञां 
विद्वान्‌ यो वै स पुनर्वे यथावत्‌ । 
सर्वान्‌ कामांस्त्वत्त एवार्हतेडद्य 
यथा च नस्तक्षक एति शीघ्रम्‌ ।। २ ।। 
सदस्योंने कहा--ब्राह्मण यदि बालक हो तो भी यहाँ राजाओंके लिये सम्माननीय ही 
है। यदि वह विद्वान हो तब तो कहना ही क्‍या है? अतः यह ब्राह्मण बालक आज आपसे 
यथोचित रीतिसे अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको पानेके योग्य है, किंतु वर देनेसे पहले तक्षक 
नाग चाहे जैसे भी शीघ्रतापूर्वक हमारे पास आ पहुँचे, वैसा उपाय करना चाहिये ।। २ ।। 
सौतिरुवाच 
व्याहर्तुकामे वरदे नृपे द्विज॑ 
वरं वृणीष्वेति ततो5भ्युवाच । 
होता वाक्‍्यं नातिदहृष्टान्तरात्मा 
कर्मण्यस्मिंस्तक्षको नैति तावत्‌ ।। ३ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! तदनन्तर वर देनेके लिये उद्यत राजा जनमेजय 
विप्रवर आस्तीकसे यह कहना ही चाहते थे कि “तुम मुहमाँगा वर माँग लो।” इतनेमें ही 
होता, जिसका मन अधिक प्रसन्न नहीं था, बोल उठा--“हमारे इस यज्ञकर्ममें तक्षक नाग तो 
अभीतक आया ही नहीं" ।। ३ ।। 


जनमेजय उवाच 
यथा चेदं कर्म समाप्यते मे 
यथा च वै तक्षक एति शीघ्रम्‌ । 
तथा भवन्‍्त: प्रयतन्तु सर्वे 
परं शक्‍्त्या स हि मे विद्विषाण: ।। ४ ।। 

जनमेजयने कहा--ब्राह्मणो! जैसे भी यह कर्म पूरा हो जाय और जिस प्रकार भी 
तक्षक नाग शीघ्र यहाँ आ जाय, आपलोग पूरी शक्ति लगाकर वैसा ही प्रयत्न कीजिये; 
क्योंकि मेरा असली शत्रु तो वही है ।। ४ ।। 

ऋत्विज ऊचु: 

यथा शास्त्राणि नः प्राहुर्यया शंसति पावक: । 

इन्द्रस्य भवने राजं॑स्तक्षको भयपीडित: ।। ५ ।। 

ऋत्विज बोले--राजन! हमारे शास्त्र जैसा कहते हैं तथा अग्निदेव जैसी बात बता रहे 
हैं, उसके अनुसार तो तक्षक नाग भयसे पीड़ित हो इन्द्रके भवनमें छिपा हुआ है ।। ५ ।। 

यथा सूतो लोहिताक्षो महात्मा 

पौराणिको वेदितवान्‌ पुरस्तात्‌ | 

स राजान प्राह पृष्टस्तदानीं 

यथाहुर्विप्रास्तद्वदेतन्देव ।। ६ ।। 

लाल नेत्रोंवाले पुराणवेत्ता महात्मा सूतजीने पहले ही यह बात सूचित कर दी थी। तब 
राजाने सूतजीसे इसके विषयमें पूछा। पूछनेपर उन्होंने राजासे कहा--“नरदेव! ब्राह्मणलोग 
जैसी बात कह रहे हैं, वह ठीक वैसी ही है ।। ६ ।। 

पुराणमागम्य ततो ब्रवीम्यहं 

दत्तं तस्मै वरमिन्द्रेण राजन | 
वसेह त्वं मत्सकाशे सुगुप्तो 
न पावकर्त्वां प्रदहिष्पतीति ।। ७ ।। 

“राजन! पुराणको जानकर मैं यह कह रहा हूँ कि इन्द्रने तक्षकको वर दिया है 
--“नागराज! तुम यहाँ मेरे समीप सुरक्षित होकर रहो। सर्पसत्रकी आग तुम्हें नहीं जला 
सकेगी” || ७ ।। 

एतच्छुत्वा दीक्षितस्तप्यमान 

आस्ते होतारं चोदयन्‌ कर्मकाले । 
होता च यत्तो5स्याजुहावा थ मन्त्रै- 

रथो महेन्द्र: स्वयमाजगाम ।॥। ८ ।। 
विमानमारुह् महानुभाव: 


सर्वर्देवै: परिसंस्तूयमान: । 
बलाहकैश्षाप्यनुगम्यमानो 
विद्याधरैरप्सरसां गणैशक्ष । ९ ।। 
यह सुनकर यज्ञकी दीक्षा ग्रहण करनेवाले यजमान राजा जनमेजय संतप्त हो उठे और 
कर्मके समय होता-को इन्द्रसहित तक्षक नागका आकर्षण करनेके लिये प्रेरित करने लगे। 
तब होताने एकाग्रचित्त होकर मन्त्रोंद्वारा इन्द्रसाहित तक्षकका आवाहन किया। तब स्वयं 
देवराज इन्द्र विमानपर बैठकर आकाशमार्गसे चल पड़े। उस समय सम्पूर्ण देवता सब 
ओरसे घेरकर उन महानुभाव इन्द्रकी स्तुति कर रहे थे। अप्सराएँ, मेघ और विद्याधर भी 
उनके पीछे-पीछे आ रहे थे ।। ८-९ ।। 
तस्योत्तरीये निहित: स नागो 
भयोद्विग्न: शर्म नैवाभ्यगच्छत्‌ । 
ततो राजा मन्त्रविदो<ब्रवीत्‌ पुनः 
क्रुद्धो वाक्‍्यं तक्षकस्यान्तमिच्छन्‌ ।। १० ।। 
तक्षक नाग उन्हींके उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टे)-में छिपा था। भयसे उद्विग्न होनेके कारण 
तक्षकको तनिक भी चैन नहीं आता था। इधर राजा जनमेजय तक्षकका नाश चाहते हुए 
कुपित होकर पुनः मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणोंसे बोले || १० ।। 
जनमेजय उवाच 
इन्द्रस्य भवने विप्रा यदि नाग: स तक्षक: । 
तमिन्द्रेणेव सहितं पातयध्वं विभावसौ ।। ११ ।। 
जनमेजयने कहा--विप्रगण! यदि तक्षक नाग इन्द्रके विमानमें छिपा हुआ है तो उसे 
इन्द्रके साथ ही अग्निमें गिरा दो || ११ ।। 


सौतिरुवाच 


जनमेजयेन राज्ञा तु नोदितस्तक्षकं प्रति | 

होता जुहाव तत्रस्थं तक्षकं पन्नगं तथा ।। १२ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--राजा जनमेजयके द्वारा इस प्रकार तक्षककी आहुतिके लिये 
प्रेरित हो होताने इन्द्रके समीपवर्ती तक्षक नागका अग्निमें आवाहन किया--उसके नामकी 
आहुति डाली || १२ ।। 

हूयमाने तथा चैव तक्षक: सपुरन्दर: | 

आकाशे ददृशे चैव क्षणेन व्यथितस्तदा ।। १३ ।। 

इस प्रकार आहुति दी जानेपर क्षणभरमें इन्द्रसहित तक्षक नाग आकाशगमें दिखायी 
दिया। उस समय उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी ।। १३ ।। 

पुरन्दरस्तु तं यज्ञं दृष्टयोरुभयमाविशत्‌ । 


हित्वा तु तक्षकं त्रस्त: स्वमेव भवन ययौ ।। १४ ।। 
उस यज्ञको देखते ही इन्द्र अत्यन्त भयभीत हो उठे और तक्षक नागको वहीं छोड़कर 
बड़ी घबराहटके साथ अपने भवनको ही चलते बने ।। १४ ।। 
इन्द्रे गते तु नागेन्द्रस्तक्षको भयमोहित: । 
मन्त्रशक्त्या पावकार्चि: समीपमवशो गत: ।। १५ ।। 
इन्द्रके चले जानेपर नागराज तक्षक भयसे मोहित हो मन्त्रशक्तिसे खिंचकर 
विवशतापूर्वक अग्निकी ज्वालाके समीप आने लगा ।। १५ ।। 
ऋत्विज ऊचु: 
वर्तते तव राजेन्द्र कर्मतद्‌ विधिवत्‌ प्रभो । 
अस्मै तु द्विजमुख्याय वरं त्वं दातुमहसि ।। १६ ।। 
ऋत्विजोंने कहा--राजेन्द्र! आपका यह यज्ञकर्म विधिपूर्वक सम्पन्न हो रहा है। अब 
आप इन विप्रवर आस्तीकको मनोवांछित वर दे सकते हैं ।। १६ ।। 
जनमेजय उवाच 
बालाभिरूपस्य तवाप्रमेय 
वरं प्रयच्छामि यथानुरूपम्‌ । 
वृणीष्व यत्‌ तेडभिमतं हृदि स्थितं 
तत्‌ ते प्रदास्याम्पपि चेददेयम्‌ ।। १७ ।। 
जनमेजयने कहा--ब्राह्मणबालक! तुम अप्रमेय हो--तुम्हारी प्रतिभाकी कोई सीमा 
नहीं है। मैं तुम-जैसे विद्वान्‌के लिये वर देना चाहता हूँ। तुम्हारे मनमें जो अभीष्ट कामना हो, 
उसे बताओ। वह देनेयोग्य न होगी, तो भी तुम्हें अवश्य दे दूँगा || १७ ।। 
ऋत्विज ऊचु: 
अयमायाति तूर्ण स तक्षकस्ते वशं नृप । 
श्रूयते5स्य महान्‌ नादो नदतो भैरवं रवम्‌ ।। १८ ।। 
ऋत्विज बोले--राजन्‌! यह तक्षक नाग अब शीघ्र ही तुम्हारे वशमें आ रहा है। वह 
बड़ी भयानक आवाज में चीत्कार कर रहा है। उसकी भारी चिल्‍्लाहट अब सुनायी देने लगी 
है ।। १८ ।। 
नूनं मुक्तो वज़भूता स नागो 
भ्रष्टो नाकान्मन्त्रविस्रस्तकाय: । 
घूर्णन्नाकाशे नष्टसंज्ञो 5 भ्युपैति 
तीव्रान्‌ निःश्वासान्‌ निः:श्वसन्‌ पन्नगेन्द्र: ।। १९ |। 


निश्चय ही इन्द्रने उस नागराज तक्षकको त्याग दिया है। उसका विशाल शरीर मन्त्रद्वारा 
आवदृष्ट होकर स्वर्गलोकसे नीचे गिर पड़ा है। वह आकाशमें चक्कर काटता अपनी सुध-बुध 
खो चुका है और बड़े वेगसे लम्बी साँसें छोड़ता हुआ अग्निकुण्डके समीप आ रहा 
है ।। १९ || 
सौतिर्वाच 


पतिष्यमाणे नागेन्द्रे तक्षके जातवेदसि । 

इदमन्तरमित्येव तदा55स्तीको5 भ्यचोदयत्‌ ।। २० ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! नागराज तक्षक अब कुछ ही क्षणोंमें आगकी 
ज्वालामें गिरनेवाला था। उस समय आस्तीकने यह सोचकर कि “यही वर माँगनेका अच्छा 
अवसर है' राजाको वर देनेके लिये प्रेरित किया ।। २० ।। 


आस्तीक उवाच 


वरं ददासि चेन्महां वृूणोमि जनमेजय । 

सत्र ते विर्मत्वेतन्न पतेयुरिहोरगा: ॥। २१ ।। 

आस्तीकने कहा--राजा जनमेजय! यदि तुम मुझे वर देना चाहते हो तो सुनो, मैं 
माँगता हूँ कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय और अब इसमें सर्प न गिरने पावें || २१ ।। 

एवमुक्तस्तदा तेन ब्रह्मन्‌ पारिक्षितस्तु सः । 

नातिदह्ृष्टमना श्षेदमास्तीकं वाक्यमब्रवीत्‌ ।। २२ ।। 

ब्रह्म! आस्तीकके ऐसा कहनेपर वे परीक्षित्‌-कुमार जनमेजय खिन्नचित्त होकर बोले 
-- || २२ || 

सुवर्ण रजतं गाश्न यच्चान्यन्मन्यसे विभो । 

तत्‌ ते दद्यां वरं विप्र न निवर्तेत्‌ क्रतुर्मम ।। २३ ।। 

“विप्रवर! आप सोना, चाँदी, गौ तथा अन्य अभीष्ट वस्तुओंको, जिन्हें आप ठीक 
समझते हों, माँग लें। प्रभो! वह मुँहमाँगा वर मैं आपको दे सकता हूँ, किंतु मेरा यह यज्ञ बंद 
नहीं होना चाहिये” ।। २३ ।। 

आस्तीक उवाच 

सुवर्ण रजतं गाश्न न त्वां राजन्‌ वृणोम्यहम्‌ । 

सत्र॑ ते विर्मत्वेतत्‌ स्वस्ति मातृकुलस्य न: ।। २४ ।। 

आस्तीकने कहा--राजन्‌! मैं तुमसे सोना, चाँदी और गौएँ नहीं माँगूगा, मेरी यही 
इच्छा है कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय, जिससे मेरी माताके कुलका कल्याण 
हो ।। २४ ।। 

सौतिर्वाच 


आस्तीकेनैवमुक्तस्तु राजा पारिक्षितस्तदा । 

पुन: पुनरुवाचेदमास्तीकं वदतां वर: ।। २५ ।। 

अन्यं वरय भद्रं ते वरं द्विजवरोत्तम । 

अयाचत न चाप्यन्यं वरं स भूगुनन्दन ।। २६ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--भूगुनन्दन शौनक! आस्तीकके ऐसा कहनेपर उस समय 
वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजा जनमेजयने उनसे बार-बार अनुरोध किया--'विप्रशिरोमणे! आपका 
कल्याण हो, कोई दूसरा वर माँगिये।' किंतु आस्तीकने दूसरा कोई वर नहीं 
माँगा || २५-२६ ।। 

ततो वेदविदस्तात सदस्या: सर्व एव तम्‌ | 

राजानमूचु: सहिता लभतां ब्राह्मणो वरम्‌ ।। २७ ।। 

तब सम्पूर्ण वेदवेत्ता सभासदोंने एक साथ संगठित होकर राजासे कहा--'ब्राह्मणको 
(स्वीकार किया हुआ) वर मिलना ही चाहिये” ।। २७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि आस्तीकवरप्रदानं नाम 
षट्पञज्चाशत्तमो<ध्याय: ।। ५६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपव॑रमें आस्तीकको वरप्रदान नामक 
छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५६ ॥ 


ऑपनआक्रात बछ। अर: 


सप्तपजञ्चाशत्तमो<ध्याय: 
सर्पयज्ञमें दग्ध हुए प्रधान-प्रधान सर्पोके नाम 


शौनक उवाच 


ये सर्पाः सर्पसत्रेडस्मिन्‌ पतिता हव्यवाहने । 
तेषां नामानि सर्वेषां श्रोतुमिच्छामि सूतज ।। १ ।॥। 
शौनकजीने पूछा--सूतनन्दन! इस सर्पसत्रकी धधकती हुई आगमें जो-जो सर्प गिरे 
थे, उन सबके नाम मैं सुनना चाहता हूँ ।। १ ।। 
सौतिर्वाच 


सहस्राणि बहून्यस्मिन्‌ प्रयुतान्यर्बुदानि च 

न शक्‍्यं परिसंख्यातुं बहुत्वाद्‌ द्विजसत्तम ।। २ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--द्विजश्रेष्ठ। इस यज्ञमें सहस्रों, लाखों एवं अरबों सर्प गिरे थे, 
उनकी संख्या बहुत होनेके कारण गणना नहीं की जा सकती ।। २ ।। 

यथास्मृति तु नामानि पन्नगानां निबोध मे । 

उच्यमानानि मुख्यानां हुतानां जातवेदसि ।। ३ ।। 

परंतु सर्पयज्ञकी अग्निमें जिन प्रधान-प्रधान नागोंकी आहुति दी गयी थी, उन सबके 
नाम अपनी स्मृतिके अनुसार बता रहा हूँ, सुनो ।। ३ ।। 

वासुके: कुलजातांस्तु प्राधान्येन निबोध मे । 

नीलरक्तान्‌ सितान्‌ घोरान्‌ महाकायान्‌ विषोल्बणान्‌ ।। ४ ।। 

पहले वासुकिके कुलमें उत्पन्न हुए मुख्य-मुख्य सर्पोके नाम सुनो--वे सब-के-सब 
नीले, लाल, सफेद और भयानक थे। उनके शरीर विशाल और विष अत्यन्त भयंकर 
थे।। ४ ।। 

अवशानू्‌ मातृवाग्दण्डपीडिताम्‌ कृपणान्‌ हुतान्‌ 

कोटिशो मानस: पूर्ण: शलः: पालो हलीमक: ॥। ५ || 

पिच्छल: कौणपकश्चुक्र: कालवेग: प्रकालन: । 

हिरण्यबाहु: शरण: कक्षक: कालदन्तक: ।। ६ ।। 

वे बेचारे सर्प माताके शापसे पीड़ित हो विवशतापूर्वक सर्पयज्ञकी आगमें होम दिये गये 
थे। उनके नाम इस प्रकार हैं--कोटिश, मानस, पूर्ण, शल, पाल, हलीमक, पिच्छल, कौणप, 
चक्र, कालवेग, प्रकालन, हिरण्यबाहु, शरण, कक्षक और कालदन्तक ।। ५-६ ।। 

एते वासुकिजा नागा: प्रविष्टा हव्यवाहने । 

अन्ये च बहवो विप्र तथा वै कुलसम्भवा: । 


प्रदीप्ताग्नौ हुता: सर्वे घोररूपा महाबला: || ७ ।। 

ये वासुकिके वंशज नाग थे, जिन्हें अग्निमें प्रवेश करना पड़ा। विप्रवर! ऐसे ही दूसरे 
भी बहुत-से महाबली और भयंकर सर्प थे, जो उसी कुलमें उत्पन्न हुए थे। वे सब-के-सब 
सर्पसत्रकी प्रज्वलित अग्निमें आहुति बन गये थे || ७ ।। 





आस्तीकने तक्षकको अग्निकुण्डमें गिरनेसे रोक दिया 


तक्षकस्य कुले जातानू्‌ प्रवक्ष्यामि निबोध तान्‌ | 

पुच्छाण्डको मण्डलक: पिण्डसेक्ता रभेणक: || ८ ।। 

उच्छिख: शरभो भड़ो बिल्वतेजा विरोहण: । 

शिली शलकरो मूक: सुकुमार: प्रवेपन: ।। ९ ।। 

मुद्गर: शिशुरोमा च सुरोमा च महाहनु: । 

एते तक्षकजा नागा: प्रविष्टा हव्यवाहनम्‌ ।। १० ।। 

अब तक्षकके कुलमें उत्पन्न नागोंका वर्णन करूँगा, उनके नाम सुनो--पुच्छाण्डक, 
मण्डलक, पिण्डसेक्ता, रभेणक, उच्छिख, शरभ, भंग, बिल्वतेजा, विरोहण, शिली, 
शलकर, मूक, सुकुमार, प्रवेपन, मुदूगर, शिशुरोमा, सुरोमा और महाहनु--ये तक्षकके 
वंशज नाग थे, जो सर्पसत्रकी आगमें समा गये || ८--१० ॥। 

पारावत: पारिजात: पाण्डरो हरिण: कृश: । 

विहड़: शरभो मेद: प्रमोद: संहतापन: ।। १३ ।। 

ऐरावतकुलादेते प्रविष्टा हव्यवाहनम्‌ । 

पारावत, पारिजात, पाण्डर, हरिण, कृश, विहंग, शरभ, मेद, प्रमोद और संहतापन--ये 
ऐरावतके कुलसे आकर आगमें आहुति बन गये थे ।। ११६ ।। 

कौरव्यकुलजान्‌ नागाउल्ूणु मे त्वं द्विजोत्तम ।। १२ ।। 

द्विजश्रेष्ठत अब तुम मुझसे कौरव्यके कुलमें उत्पन्न हुए नागोंके नाम सुनो ।। १२ ।। 

एरक: कुण्डलो वेणी वेणीस्कन्ध: कुमारक: । 

बाहुकः शंगवेरश्व धूर्तक: प्रातरातकौ ।। १३ ।। 

कौरव्यकुलजास्त्वेते प्रविष्टा हव्यवाहनम्‌ । 

एरक, कुण्डल, वेणी, वेणीस्कन्ध, कुमारक, बाहुक, शंगवेर, धूर्तक, प्रातर और आतक 
--ये कौरव्य-कुलके नाग यज्ञाग्निमें जल मरे थे || १३३ ।। 

धृतराष्ट्रकुले जाताउछूणु नागान्‌ यथातथम्‌ ।। १४ ।। 

कीर्त्यमानान्‌ मया ब्रह्म॒न्‌ वातवेगान्‌ विषोल्बणान्‌ । 

शड्कुकर्ण: पिठरक: कुठारमुखसेचकौ ।। १५ ।। 

पूर्णाड्भद: पूर्णमुख: प्रहास: शकुनिर्दरि: । 

अमाहठ: कामठक: सुषेणो मानसोडव्यय: ।। १६ ।। 

भैरवो मुण्डवेदाड़: पिशज्रश्चोद्रपारक: । 

ऋषभो वेगवान्‌ नाग: पिण्डारकमहाहनू ।। १७ ।। 

रक्ताड़: सर्वसारड्र: समृद्धपटवासकौ । 

वराहको वीरणक: सुचित्रश्नित्रवेगिक: ।। १८ ।। 

पराशरस्तरुणको मणि: स्कन्धस्तथारुणि: । 

इति नागा मया ब्रद्यन्‌ कीर्तिता: कीर्तिवर्धना: ।। १९ ।। 


प्राधान्येन बहुत्वात्‌ तु न सर्वे परिकीर्तिता: । 

एतेषां प्रसवो यश्न प्रसवस्य च संतति: ।॥ २० ।। 

न शक्‍्यं परिसंख्यातुं ये दीप्तं पावकं॑ गता: । 

त्रिशीर्षा: सप्तशीर्षाशक्षु दशशीर्षास्तथापरे ।। २३ ।। 

ब्रह्मन! अब धृतराष्ट्रके कुलमें उत्पन्न नागोंके नामोंका मुझसे यथावत्‌ वर्णन सुनो। वे 
वायुके समान वेगशाली और अत्यन्त विषैले थे। (उनके नाम इस प्रकार हैं--) शंकुकर्ण, 
पिठरक, कुठार, मुखसेचक, पूर्णांगद, पूर्णमुख, प्रहास, शकुनि, दरि, अमाहठ, कामठक, 
सुषेण, मानस, अव्यय, भैरव, मुण्डवेदांग, पिशंग, उद्रपारक, ऋषभ, वेगवान्‌ नाग, 
पिण्डारक, महाहनु, रक्तांग, सर्वसारंग, समृद्ध, पटवासक, वराहक, वीरणक, सुचित्र, 
चित्रवेगिक, पराशर, तरुणक, मणि, स्कन्‍्ध और आरुणि--([ये सभी धूृतराष्ट्रवंशी नाग 
सर्पसत्रकी आगमें जलकर भस्म हो गये थे।) ब्रह्मन! इस प्रकार मैंने अपने कुलकी कीर्ति 
बढ़ानेवाले मुख्य-मुख्य नागोंका वर्णन किया है। उनकी संख्या बहुत है, इसलिये सबका 
नामोल्लेख नहीं किया गया है। इन सबकी संतानोंकी और संतानोंकी संततिकी, जो 
प्रज्वलित अग्निमें जल मरी थीं, गणना नहीं की जा सकती। किसीके तीन सिर थे तो 
किसीके सात तथा कितने ही दस-दस सिरवाले नाग थे || १४--२१ |। 

कालानलविषा घोरा हुताः: शतसहसत्रश: । 

महाकाया महावेगा: शैलशृज्गसमुच्छुया: || २२ ।। 

उनके विष प्रलयाग्निके समान दाहक थे। वे नाग बड़े ही भयंकर थे। उनके शरीर 
विशाल और वेग महान्‌ थे। वे ऊँचे तो ऐसे थे, मानो पर्वतके शिखर हों। ऐसे नाग लाखोंकी 
संख्यामें यज्ञाग्निकी आहुति बन गये || २२ ।। 

योजनायामविस्तारा द्वियोजनसमायता: । 

कामरूपा: कामबला दीप्तानलविषोल्बणा: || २३ || 

दग्धास्तत्र महासत्रे ब्रह्मदण्डनिपीडिता: ।। २४ ।। 

उनकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक, दो-दो योजनतककी थी। वे इच्छानुसार रूप धारण 
करनेवाले तथा इच्छानुरूप बल-पराक्रमसे सम्पन्न थे। वे सब-के-सब धधकती हुई आगके 
समान भयंकर विषसे भरे थे। माताके शापरूपी ब्रह्मदण्डसे पीड़ित होनेके कारण वे उस 
महासत्रमें जलकर भस्म हो गये ।। २३-२४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पनामक थने 
सप्तपञ्चाशत्तमो<ध्याय: ।। ५७ |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पनामकथनविषयक 
सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५७ ॥/ 


ऑपन--माज बछ। अकाल 


अष्टपञ्चाशत्तमो< ध्याय: 


यज्ञकी समाप्ति एवं आस्तीकका सर्पोंसे वर प्राप्त करना 


सौतिरुवाच 


इदमत्यद्भुतं चान्यदास्तीकस्यानुशुश्रुम । 

तथा वरैश्हन्द्रामाने राज्ञा पारिक्षितेन हि ।। १ ।। 

इन्द्रहस्ताच्च्युतो नाग: ख एव यदतिष्ठत । 

ततश्चिन्तापरो राजा बभूव जनमेजय: ।। २ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! आस्तीकके सम्बन्धमें यह एक और अदभुत बात मैंने 
सुन रखी है कि जब राजा जनमेजयने उनसे पूर्वोक्त रूपसे वर माँगनेका अनुरोध किया 
और उनके वर माँगनेपर इन्द्रके हाथसे छूटकर गिरा हुआ तक्षक नाग आकाशमें ही ठहर 
गया, तब महाराज जनमेजयको बड़ी चिन्ता हुई ।। १-२ ।। 

हयमाने भृशं दीप्ते विधिवद्‌ वसुरेतसि । 

न सम स प्रापतद्‌ वह्लौ तक्षको भयपीडित:ः ।। ३ ।। 

क्योंकि अग्नि पूर्णरूपसे प्रज्वयलित थी और उसमें विधिपूर्वक आहुतियाँ दी जा रही थीं 
तो भी भयसे पीड़ित तक्षक नाग उस अग्निमें नहीं गिरा ।। ३ ।। 

शौनक उवाच 


कि सूत तेषां विप्राणां मन्त्रग्रामो मनीषिणाम्‌ | 

न प्रत्यभात्‌ तदाग्नौ यत्‌ स पपात न तक्षक: ।। ४ ।। 

शौनकजीने पूछा--सूत! उस यज्ञमें बड़े-बड़े मनीषी ब्राह्मण उपस्थित थे। क्या उन्हें 
ऐसे मन्त्र नहीं सूझे, जिनसे तक्षक शीघ्र अग्निमें आ गिरे? क्या कारण था जो तक्षक 
अग्निकुण्डमें न गिरा? ।। ४ ।। 

सौतिरु्वाच 

तमिन्द्रहस्ताद वित्रस्तं विसंज्ञं पन्नगोत्तमम्‌ । 

आस्तीकस्तिष्ठ तिछेति वाचस्तिस्रो5 भ्युदैरयत्‌ ।। ५ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--शौनक! इन्द्रके हाथसे छूटनेपर नागप्रवर तक्षक भयसे थर्रा 
उठा। उसकी चेतना लुप्त हो गयी। उस समय आस्तीकने उसे लक्ष्य करके तीन बार इस 
प्रकार कहा--*ठहर जा, ठहर जा, ठहर जा” ।। ५ ।। 

वितस्थे सो<न्तरिक्षे च हृदयेन विदूयता । 

यथा तिष्ठति वै कश्चित्‌ खं च गां चान्तरा नर: ।। ६ ।। 


तब तक्षक पीड़ित हृदयसे आकाशगमें उसी प्रकार ठहर गया, जैसे कोई मनुष्य आकाश 
और पृथ्वीके बीचमें लटक रहा हो ।। ६ ।। 

ततो राजाब्रवीद्‌ वाक्‍्यं सदस्यैश्नोदितो भृशम्‌ | 

काममेतद्‌ भवत्वेवं यथा55सत्तीकस्प भाषितम्‌ ।। ७ ।। 

तदनन्तर सभासदोंके बार-बार प्रेरित करनेपर राजा जनमेजयने यह बात कही 
--'अच्छा, आस्तीकने जैसा कहा है, वही हो || ७ ।। 

समाप्यतामिदं कर्म पन्नगा: सन्त्वनामया: । 

प्रीयतामयमास्तीक: सत्यं सूतवचो<स्तु तत्‌ ।। ८ ।। 

“यह यज्ञकर्म समाप्त किया जाय। नागगण कुशलपूर्वक रहें और ये आस्तीक प्रसन्न 
हों। साथ ही सूतजीकी कही हुई बात भी सत्य हो” ।। ८ ।। 

ततो हलहलाशब्द: प्रीतिद: समजायत । 

आस्तीकस्य वरे दत्ते तथैवोपरराम च ।। ९ ।। 

स यज्ञ: पाण्डवेयस्य राज्ञ: पारिक्षितस्य ह । 

प्रीतिमांश्षाभवद्‌ राजा भारतो जनमेजय: ।। १० ।। 

जनमेजयके द्वारा आस्तीकको यह वरदान प्राप्त होते ही सब ओर प्रसन्नता बढ़ानेवाली 
हर्षध्वनि छा गयी और पाण्डववंशी महाराज जनमेजयका वह यज्ञ बंद हो गया। ब्राह्मणको 
वर देकर भरतवंशी राजा जनमेजयको भी प्रसन्नता हुई ।। ९-१० ।। 

ऋत्विग्भ्य:ः ससदस्ये भ्यो ये तत्रासन्‌ समागता: । 

तेभ्यश्व प्रददौ वित्त शशशो5थ सहस्रश: ।। १३ ।। 

उस यज्ञमें जो ऋत्विज्‌ और सदस्य पधारे थे, उन सबको राजा जनमेजयने सैकड़ों 
और सहस्रोंकी संख्यामें धन-दान किया ।। ११ ।। 

लोहिताक्षाय सूताय तथा स्थपतये विभु: । 

येनोक्त तस्य तत्राग्रे सर्पसत्रनिवर्तने || १२ ।। 

निमित्तं ब्राह्मण इति तस्मै वित्तं ददौ बहु । 

दत्त्वा द्रव्यं यथान्यायं भोजनाच्छादनान्वितम्‌ ।। १३ ।। 

प्रीतस्तस्मै नरपतिरप्रमेयपराक्रम: । 

ततश्चवकारावभृथं विधिदृष्टेन कर्मणा ।। १४ ।। 

लोहिताक्ष, सूत तथा शिल्पीको, जिसने यज्ञके पहले ही बता दिया था कि इस 
सर्पसत्रको बंद करनेमें एक ब्राह्मण निमित्त बनेगा, प्रभावशाली राजा जनमेजयने बहुत धन 
दिया। जिनके पराक्रमकी कहीं तुलना नहीं है, उन नरेश्वर जनमेजयने प्रसन्न होकर 
यथायोग्य द्रव्य और भोजन-वस्त्र आदिका दान करनेके पश्चात्‌ शास्त्रीय विधिके अनुसार 
अवभृथ-स्नान किया ।। १२--१४ ।। 

आस्तीकं प्रेषयामास गृहानेव सुसंस्कृतम्‌ । 


राजा प्रीतमना: प्रीतं कृतकृत्यं मनीषिणम्‌ ।। १५ ।। 

पुनरागमनं कार्यमिति चैनं वचो<ब्रवीत्‌ । 

भविष्यसि सदस्यो मे वाजिमेधे महाक्रतौ ।। १६ ।। 

आस्तीक शुभ-संस्कारोंसे सम्पन्न और मनीषी विद्वान्‌ थे। अपना कर्तव्य पूर्ण कर 
लेनेके कारण वे कृतकृत्य एवं प्रसन्न थे। राजा जनमेजयने उन्हें प्रसन्नचित्त होकर घरके 
लिये विदा दी और कहा--'ब्रह्मन! मेरे भावी अश्वमेध नामक महायज्ञमें आप सदस्य हों 
और उस समय पुनः पधारनेकी कृपा करें” ।। १५-१६ ।। 

तथेत्युकत्वा प्रदुद्राव तदा55स्तीको मुदा युतः । 

कृत्वा स्वकार्यमतुलं तोषयित्वा च पार्थिवम्‌ ।। १७ ।। 

आस्तीकने प्रसन्नतापूर्वक “बहुत अच्छा” कहकर राजाकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और 
अपने अनुपम कार्यका साधन करके राजाको संतुष्ट करनेके पश्चात्‌ वहाँसे शीघ्रतापूर्वक 
प्रस्थान किया || १७ ।। 

स गत्वा परमप्रीतो मातुलं मातरं च ताम्‌ | 

अभिगम्योपसंगृहा[ तथावृत्तं न्‍यवेदयत्‌ ।। १८ ।। 

वे अत्यन्त प्रसन्न हो घर जाकर मामा और मातासे मिले और उनके चरणोंमें प्रणाम 
करके वहाँका सब समाचार सुनाया ।। १८ ।। 


सौतिरुवाच 


एतच्छुत्वा प्रीयमाणा: समेता 
ये तत्रासन्‌ पन्नगा वीतमोहा: । 
आस्तीके वै प्रीतिमन्तो बभूवु- 
रूचुश्वैनं वरमिष्टं वृणीष्व ।। १९ ।। 
उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! सर्पसत्रसे बचे हुए जो-जो नाग मोहरहित हो उस 
समय वासुकि नागके यहाँ उपस्थित थे, वे सब आस्तीकके मुखसे उस यज्ञके बंद होनेका 
समाचार सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। आस्तीकपर उनका प्रेम बहुत बढ़ गया और वे उनसे बोले 
--वत्स! तुम कोई अभीष्ट वर माँग लो' ।। १९ |। 
भूयो भूय: सर्वशस्तेब्रुवंस्तं 
किं ते प्रियं करवामाद्य विद्वन्‌ | 
प्रीता वयं मोक्षिताश्वैव सर्वे 
काम कि ते करवामाद्य वत्स ।। २० |। 
वे सब-के-सब बार-बार यह कहने लगे--“विद्वान! आज हम तुम्हारा कौन-सा प्रिय 
कार्य करें? वत्स! तुमने हमें मृत्युके मुखसे बचाया है; अत: हम सब लोग तुमसे बहुत प्रसन्न 
हैं। बोलो, तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करें?” || २० ।। 


आस्तीक उवाच 


सायं प्रातर्ये प्रसन्नात्मरूपा 
लोके विप्रा मानवा ये परेडपि । 
धमखियान ये पठेयुर्ममेद॑ 
तेषां युष्मन्नैव किंचिद्‌ भयं स्यथात्‌ ।। २१ ।। 

आस्तीकने कहा--नागगण! लोकमें जो ब्राह्मण अथवा कोई दूसरा मनुष्य प्रसन्नचित्त 
होकर मेरे इस धर्ममय उपाख्यानका पाठ करे, उसे आपलोगोंसे कोई भय न हो ।। २१ ।। 

तैश्वाप्युक्तो भागिनेय: प्रसन्नै- 

रेतत्‌ सत्यं काममेवं वरं ते । 
प्रीत्या युक्ता: कामितं सर्वशस्ते 
कर्तरि: सम प्रवणा भागिनेय ।। २२ ।। 

यह सुनकर सभी सर्प बहुत प्रसन्न हुए और अपने भानजेसे बोले--'प्रिय वत्स! तुम्हारी 
यह कामना पूर्ण हो। भगिनीपुत्र! हम बड़े प्रेम और नम्रतासे युक्त होकर सर्वथा तुम्हारे इस 
मनोरथको पूर्ण करते रहेंगे || २२ ।। 

असिते चार्तिमन्तं च सुनीथं चापि य: स्मरेत्‌ । 

दिवा वा यदि वा रात्रौ नास्य सर्पभयं भवेत्‌ ।। २३ ।। 

“जो कोई असित, आर्तिमान्‌ और सुनीथ मन्त्रका दिन अथवा रातके समय स्मरण 
करेगा, उसे सर्पोंसे कोई भय नहीं होगा ।। २३ ।। 

यो जरत्कारुणा जातो जरत्कारी महायशा: । 

आस्तीक: सर्पसत्रे वः पन्नगान्‌ यो5भ्यरक्षत । 

त॑ स्मरन्तं महाभागा न मां हिंसितुमरहथ ।। २४ ।। 

(मन्त्र और उनके भाव इस प्रकार हैं--) जरत्कारुू ऋषिसे जरत्कारु नामक 
नागकन्यासे जो आस्तीक नामक यशस्वी ऋषि उत्पन्न हुए तथा जिन्होंने सर्पसत्रमें तुम 
सर्पोंकी रक्षा की थी, उनका मैं स्मरण कर रहा हूँ। महाभाग्यवान्‌ सर्पो! तुमलोग मुझे मत 
डँसो ।। २४ ।। 

सर्पापसर्प भद्रें ते गच्छ सर्प महाविष । 

जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं समर || २५ ।। 

“महाविषधर सर्प! तुम भाग जाओ! तुम्हारा कल्याण हो! अब तुम जाओ। जनमेजयके 
यज्ञकी समाप्तिमें आस्तीकको तुमने जो वचन दिया था, उसका स्मरण करो ।। २५ ।। 

आस्तीकस्य वच: श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते । 

शतधा भियद्यते मूर्थ्नि शिंशवृक्षफलं यथा ।। २६ ।। 

“जो सर्प आस्तीकके वचनकी शपथ सुनकर भी नहीं लौटेगा, उसके फनके शीशमके 
फलके समान सैकड़ों टुकड़े हो जायँगे” || २६ ।। 


सौतिरुवाच 
स एवमुक्तस्तु तदा द्विजेन्द्र: 
समागतैस्तैर्भुजगेन्द्रमुख्यै: । 
सम्प्राप्य प्रीतिं विपुलां महात्मा 
ततो मनो गमनायाथ दश्ने । २७ ।। 

मोक्षयित्वा तु भुजगान्‌ सर्पसत्राद्‌ द्विजोत्तम: । 

जगाम काले धर्मात्मा दिष्टान्तं पुत्रपौत्रवान्‌ ।। २८ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--विप्रवर शौनक! उस समय वहाँ आये हुए प्रधान-प्रधान 
नागराजोंके इस प्रकार कहनेपर महात्मा आस्तीकको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। तदनन्तर 
उन्होंने वहाँसे चले जानेका विचार किया। इस प्रकार सर्पसत्रसे नागोंका उद्धार करके 
द्विजश्रेष्ठ धर्मात्मा आस्तीकने विवाह करके पुत्र-पौत्रादि उत्पन्न किये और समय आनेपर 
(प्रारब्ध शेष होनेसे) मोक्ष प्राप्त कर लिया || २७-२८ ।। 

इत्याख्यानं मया55स्तीकं यथावत्‌ तव कीर्तितम्‌ । 

यत्‌ कीर्तयित्वा सर्पेभ्यो न भयं विद्यते क्वचित्‌ ।। २९ ।। 

इस प्रकार मैंने आपसे आस्तीकके उपाख्यानका यथावत्‌ वर्णन किया है; जिसका पाठ 
कर लेनेपर कहीं भी सर्पोंसे भय नहीं होता ।। २९ ।। 

यथा कथिततवान ब्रह्मन्‌ प्रमति: पूर्वजस्तव । 

पुत्राय रुरवे प्रीत: पृच्छते भार्गवोत्तम ।। ३० ।। 

यद्‌ वाक्यं श्रुतवांश्षाहं तथा च कथितं मया । 

आस्तीकस्य कवेरविंप्र श्रीमच्चरितमादित: ।। ३१ ।। 

ब्रह्मन! भूगुवंशशिरोमणे! आपके पूर्वज प्रमतिने अपने पुत्र रुकुके पूछनेपर जिस प्रकार 
आस्तीकोपाख्यान कहा था और जिसे मैंने भी सुना था, उसी प्रकार विद्वान्‌ महात्मा 
आस्तीकके मंगलमय चरित्रका मैंने प्रारम्भसे ही वर्णन किया है ।। ३०-३१ ।। 

श्र॒ुत्वा धर्मिष्ठमाख्यानमास्तीकं पुण्यवर्धनम्‌ | 

यन्मां त्वं पृष्टवान्‌ ब्रह्मज्छुत्वा डुण्डुभभाषितम्‌ । 

व्येतु ते सुमहद्‌ ब्रह्मनू कौतूहलमरिन्दम ।। ३२ ।। 

आस्तीकका यह धर्ममय उपाख्यान पुण्यकी वृद्धि करनेवाला है। काम-क्रोधादि 
शत्रुओंका दमन करनेवाले ब्राह्मण! कथाप्रसंगमें डुण्डुभकी बात सुनकर आपने मुझसे 
जिसके विषयमें पूछा था, वह सब उपाख्यान मैंने कह सुनाया। इसे सुनकर आपके मनका 
महान्‌ कौतूहल अब निवृत्त हो जाना चाहिये ।। ३२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पसत्रे अष्टपञ्चाशत्तमो< ध्याय: ।। 
५८ || 


इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पसत्राविषयक अद्वावनवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ५८ ॥ 


ऑपन--माज छा जज ::अ 


(अंशावतरणपर्व) 
एकोनषष्टितमो< ध्याय: 


महाभारतका उपक्रम 


शौनक उवाच 

भगुवंशात्‌ प्रभृत्येव त्वया मे कीर्तितं महत्‌ । 

आख्यानमखिलं तात सौते प्रीतो5स्मि तेन ते ।। १ ।। 

शौनकजी बोले--तात सूतनन्दन! आपने भृगुवंशसे ही प्रारम्भ करके जो मुझे यह 
सब महान्‌ उपाख्यान सुनाया है, इससे मैं आपपर बहुत प्रसन्न हूँ |। १ ।। 

वक्ष्यामि चैव भूयस्त्वां यथावत्‌ सूतनन्दन । 

या: कथा व्याससम्पन्नास्ताश्व भूयो विचक्ष्व मे ।। २ ।। 

सूतपुत्र! अब मैं पुन: आपसे यह कहना चाहता हूँ कि भगवान्‌ व्यासने जो कथाएँ कही 
हैं, उनका मुझसे यथावत्‌ वर्णन कीजिये ।। २ ।। 

तस्मिन्‌ परमदुष्पारे सर्पसत्रे महात्मनाम्‌ | 

कर्मान्तरेषु यज्ञस्य सदस्यानां तथाध्वरे ॥। ३ ।। 

या बभूवु: कथ॒त्षित्रा येष्वर्थेषु यथातथम्‌ | 

त्वत्त इच्छामहे श्रोतुं सौते त्वं वै प्रचक्ष्व न: ।। ४ ।। 

जिसका पार होना कठिन था, ऐसे सर्पयज्ञमें आये हुए महात्माओं एवं सभासदोंको 
जब यज्ञकर्मसे अवकाश मिलता था, उस समय उनमें जिन-जिन विषयोंको लेकर जो-जो 
विचित्र कथाएँ होती थीं उन सबका आपके मुखसे हम यथार्थ वर्णन सुनना चाहते हैं। 
सूतनन्दन! आप हमसे अवश्य कहें ।। ३-४ ।। 

सौतिर्वाच 


कर्मान्तरेष्वकथयन्‌ द्विजा वेदाश्रया: कथा: । 

व्यासस्त्वकथयच्चित्रमाख्यानं भारतं महत्‌ ।। ५ ।। 

उग्रश्रवाजीने कहा--शौनक! यज्ञकर्मसे अवकाश मिलनेपर अन्य ब्राह्मण तो वेदोंकी 
कथाएँ कहते थे, परंतु व्यासदेवजी अति विचित्र महाभारतकी कथा सुनाया करते 
थे।। ५।। 


शौनक उवाच 


महाभारतमाख्यानं पाण्डवानां यशस्करम्‌ | 

जनमेजयेन पृष्ट: सन्‌ कृष्णद्वैपायनस्तदा ।। ६ ।। 

श्रावयामास विधिवत्‌ तदा कर्मान्तरे तु सः । 

तामहं विधिवत पुण्यां श्रोतुमिच्छामि वै कथाम्‌ ।। ७ ।। 

शौनकजी बोले--सूतनन्दन! महाभारत नामक इतिहास तो पाण्डवोंके यशका 
विस्तार करनेवाला है। सर्पयज्ञके विभिन्न कर्मोके बीचमें अवकाश मिलने-पर जब राजा 
जनमेजय प्रश्न करते, तब श्रीकृष्ण-द्वैपायन व्यासजी उन्हें विधिपूर्वक महाभारतकी कथा 
सुनाते थे। मैं उसी पुण्यमयी कथाको विधिपूर्वक सुनना चाहता हूँ ।। ६-७ ।। 

मन:सागरसम्भूतां महर्षेर्भावितात्मन: । 

कथयस्व सतां श्रेष्ठ सर्वरत्नमयीमिमाम्‌ ।। ८ ।। 

यह कथा पवित्र अन्तःकरणवाले महर्षि वेद-व्यासके हृदयरूपी समुद्रसे प्रकट हुए सब 
प्रकारके शुभ विचाररूपी रत्नोंसे परिपूर्ण है। साधुशिरोमणे! आप इस कथाको मुझे 
सुनाइये ।। ८ ।। 


सौतिरुवाच 


हन्त ते कथयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्‌ | 

कृष्णद्वैपायनमतं महाभारतमादित: ।। ९ |। 

उग्रश्रवाजीने कहा--शौनक! मैं बड़ी प्रसन्नताके साथ महाभारत नामक उत्तम 
उपाख्यानका आरम्भसे ही वर्णन करूँगा, जो श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यासको अभिमत 
है।। ९।। 

शृणु सर्वमशेषेण कथ्यमानं मया द्विज । 

शंसितुं तन्महान्‌ हर्षो ममापीह प्रवर्तते ।। १० ।। 

विप्रवर! मेरे द्वारा कही जानेवाली इस सम्पूर्ण महाभारत-कथाको आप पूर्णरूपसे 
सुनिये। यह कथा सुनाते समय मुझे भी महान्‌ हर्ष प्राप्त होता है ।। १० ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि कथानुबन्धे 
एकोनषष्टितमो5 ध्याय: ।। ५९ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अंशावतरणपर्वमें कथानुबन्धविषयक 
उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५९ ॥। 


षष्टितमो< ध्याय: 


जनमेजयके यज्ञमें व्यासमजीका आगमन, सत्कार तथा 
राजाकी प्रार्थनासे व्यासजीका वैशम्पायनजीसे महाभारत- 
कथा सुनानेके लिये कहना 


सौतिरुवाच 


श्र॒त्वा तु सर्पसत्राय दीक्षितं जनमेजयम्‌ । 

अभ्यगच्छदृषिर्विद्वान्‌ कृष्णद्वैपायनस्तदा ।। १ ।। 

उग्रश्रवाजी कहते हैं--शौनक! जब विद्वान महर्षि श्रीकृष्णद्वैधयायनने यह सुना कि 
राजा जनमेजय सर्पयज्ञकी दीक्षा ले चुके हैं, तब वे वहाँ आये ।। १ ।। 

जनयामास यं काली शक्ति: पुत्रात्‌ पराशरात्‌ 

कन्यैव यमुनाद्वीपे पाण्डवानां पितामहम्‌ ।। २ ।॥। 

वेदव्यासजीको सत्यवतीने कन्यावस्थामें ही शक्तिनन्दन पराशरजीसे यमुनाजीके 
द्वीपमें उत्पन्न किया था। वे पाण्डवोंके पितामह हैं ।। २ ।। 

जातमात्रश्न यः सद्य इष्ट्या देहमवीवृधत्‌ | 

वेदांश्नाधिजगे साड्रान्‌ सेतिहासान्‌ महायशा: ।। ३ ।। 

यन्नैति तपसा वक्षिन्न वेदाध्ययनेन च । 

न व्रतैनोंपवासैश्ल न प्रशान्त्या न मन्युना ।। ४ ।। 

जन्म लेते ही उन्होंने अपनी इच्छासे शरीरको बढ़ा लिया तथा उन महायशस्वी 
व्यासजीको (स्वतः: ही) अंगों और इतिहासोंसहित सम्पूर्ण वेदों और उस परमात्मतत्त्वका 
ज्ञान प्राप्त हो गया, जिसे कोई तपस्या, वेदाध्ययन, व्रत, उपवास, शम और यज्ञ आदिके 
द्वारा भी नहीं प्राप्त कर सकता ।। ३-४ ।। 

विव्यासैकं चतुर्धा यो वेदं वेदविदां वर: । 

परावरज्ञो ब्रह्मर्षि: कवि: सत्यव्रत शुचि: ।। ५ ।। 

वे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे और उन्होंने एक ही वेदको चार भागोंमें विभक्त किया था। 
ब्रह्मर्षि व्यासजी परब्रह्म और अपरब्रह्म॒के ज्ञाता, कवि (त्रिकालदर्शी), सत्यव्रतपरायण तथा 
परम पवित्र हैं || ५ ।। 

यः पाए-डुं धृतराष्ट्रं च विदुरं चाप्पजीजनत्‌ । 

शान्तनो: संततिं तन्वन्‌ पुण्यकीर्तिमहायशा: ।। ६ ।। 

उनकी कीर्ति पुण्यमयी है और वे महान्‌ यशस्वी हैं। उन्होंने ही शान्तनुकी संतान- 
परम्पराका विस्तार करनेके लिये पाण्डु, धृतराष्ट्र तथा विदुरको जन्म दिया था ।। ६ ।। 


जनमेजयस्य राजर्षे: स महात्मा सदस्तदा । 

विवेश सहित: शिष्यैवेंदवेदाड़पारगै: ।। ७ ।। 

उन महात्मा व्यासने वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान शिष्योंके साथ उस समय राजर्षि 
जनमेजयके यज्ञमण्डपमें प्रवेश किया || ७ ।। 

तत्र राजानमासीनं ददर्श जनमेजयम्‌ । 

वृतं सदस्यैर्बहुभिददेवैरिव पुरन्दरम्‌ ।। ८ ।। 

वहाँ पहुँचकर उन्होंने सिंहासनपर बैठे हुए राजा जनमेजयको देखा, जो बहुत-से 
सभासदोंद्वारा इस प्रकार घिरे हुए थे, मानो देवराज इन्द्र देवताओंसे घिरे हुए हों ।। ८ ।। 

तथा मूर्धाभिषिक्तैश्न नानाजनपदेश्वरै: । 

ऋषच्विम्भि््रह्म॒कल्पैश्व कुशलैर्यज्ञसंस्तरे || ९ ।। 

जिनके मस्तकोंपर अभिषेक किया गया था, ऐसे अनेक जनपदोंके नरेश तथा 
यज्ञानुष्ठानमें कुशल ब्रह्माजीके समान योग्यतावाले ऋत्विज्‌ भी उन्हें सब ओरसे घेरे हुए 
थे।।९।। 

जनमेजयस्तु राजर्षिदृष्टवा तमृषिमागतम्‌ । 

सगणो<थभ्युद्ययौ तूर्ण प्रीत्या भरतसत्तम: ।। १० ।। 

भरतश्रेष्ठ राजर्षि जनमेजय महर्षि व्यासको आया देख बड़ी प्रसन्नताके साथ उठकर 
खड़े हो गये और अपने सेवकगणोंके साथ तुरंत ही उनकी अगवानी करनेके लिये चल 
दिये || १० ।। 

काउ्चनं विष्टरं तस्मै सदस्यानुमत:ः प्रभु: । 

आसन कल्पयामास यथा शक्रो बृहस्पते: ।। ११ ।। 

जैसे इन्द्र बृहस्पतिजीको आसन देते हैं, उसी प्रकार राजाने सदस्योंकी अनुमति लेकर 
व्यासजीके लिये सुवर्णका विष्टर दे आसनकी व्यवस्था की || ११ ।। 

तत्रोपविष्टं वरदं देवर्षिगणपूजितम्‌ । 

पूजयामास राजेन्द्र: शास्त्रदृष्टेन कर्मणा || १२ || 

देवर्षियोंद्वारा पूजित वरदायक व्यासजी जब वहाँ बैठ गये, तब राजेन्द्र जनमेजयने 
शास्त्रीय विधिके अनुसार उनका पूजन किया ।। १२ ।। 

पाद्यमाचमनीयं च अर्घ्य गां च विधानतः । 

पितामहाय कृष्णाय तदर्हाय न्यवेदयत्‌ ।। १३ ।। 

उन्होंने अपने पितामह श्रीकृष्णद्वैपायनको विधि-विधानके साथ पाद्य, आचमनीय, 
अर्घ्य और गौ भेंट की, जो इन वस्तुओंको पानेके अधिकारी थे ।। १३ ।। 

प्रतिगृह तु तां पूजां पाण्डवाज्जनमेजयात्‌ । 

गां चैव समनुज्ञाप्य व्यास: प्रीतो5भवत्‌ तदा ।। १४ ।। 


पाण्डववंशी जनमेजयसे वह पूजा ग्रहण करके गौके सम्बन्धमें अपना आदर व्यक्त 
करते हुए व्यासजी उस समय बड़े प्रसन्न हुए ।। १४ ।। 

तथा च पूजयित्वा तं प्रणयात्‌ प्रपितामहम्‌ | 

उपोपविश्य प्रीतात्मा पर्यपृष्छठनामयम्‌ ।। १५ ।। 

पितामह व्यासजीका प्रेमपूर्वक पूजन करके जनमेजयका चित्त प्रसन्न हो गया और वे 
उनके पास बैठकर कुशल-मंगल पूछने लगे ।। १५ ।। 

भगवानपि तं॑ दृष्टवा कुशल प्रतिवेद्य च । 

सदस्यै: पूजित: सर्वे: सदस्यान्‌ प्रत्यपूजयत्‌ ।। १६ ।। 

भगवान्‌ व्यासने भी जनमेजयकी ओर देखकर अपना कुशल-समाचार बताया तथा 
अन्य सभासदोंद्वारा सम्मानित हो उनका भी सम्मान किया ॥। १६ |। 

ततस्तु सहित: सर्वे: सदस्यैर्जनमेजय: । 

इदं पश्चाद्‌ द्विजश्रेष्ठं पर्यपृच्छत्‌ कृताञज्जलि: || १७ ।। 

तदनन्तर सब सदस्योंसहित राजा जनमेजयने हाथ जोड़कर द्विजश्रेष्ठ व्यासजीसे इस 
प्रकार प्रश्न किया || १७ ।। 

जनमेजय उवाच 

कुरूणां पाण्डवानां च भवानू प्रत्यक्षदर्शिवान्‌ 

तेषां चरितमिच्छामि कथ्यमान त्वया द्विज ॥। १८ ।। 

जनमेजयने कहा--ब्रह्मम! आप कौरवों और पाण्डवोंको प्रत्यक्ष देख चुके हैं; अतः 
मैं आपके द्वारा वर्णित उनके चरित्रको सुनना चाहता हूँ ।। १८ ।। 

कथं समभवद्‌ भेदस्तेषामक्लिष्टकर्मणाम्‌ । 

तच्च युद्ध कथं वृत्तं भूतान्तकरणं महत्‌ ।। १९ ।। 

वे तो राग-द्वेष आदि दोषोंसे रहित सत्कर्म करनेवाले थे, उनमें भेद-बुद्धि कैसे उत्पन्न 
हुई? तथा प्राणियोंका अन्त करनेवाला उनका वह महायुद्ध किस प्रकार हुआ? ।। १९ ।। 

पितामहानां सर्वेषां दैवेनानिष्टचेतसाम्‌ । 

कार्त्स्न्येनितन्ममाचक्ष्व यथावृत्तं द्विजोत्तम ।। २० ।। 

द्विजश्रेष्ठट जान पड़ता है, प्रारब्धने ही प्रेरणा करके मेरे सब प्रपितामहोंके मनको 
युद्धरूपी अनिष्टमें लगा दिया था। उनके इस सम्पूर्ण वृत्तानन्‍्तका आप यथावत्‌ रूपसे वर्णन 
करें ।। २० ।। 


सौतिरुवाच 


तस्य तद्‌ वचन श्रुत्वा कृष्णद्वैधायनस्तदा । 
शशास शिष्यमासीनं वैशम्पायनमन्तिके ।। २१ ।। 


उग्रश्रवाजी कहते हैं-जनमेजयकी यह बात सुनकर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासने पास 
ही बैठे हुए अपने शिष्य वैशम्पायनको उस समय इस प्रकार आदेश दिया ।। २१ ।। 


व्यास उवाच 


कुरूणां पाण्डवानां च यथा भेदो5भवत्‌ पुरा । 

तदस्मै सर्वमाचक्ष्व यन्मत्त: श्रुववानसि ।। २२ ।। 

व्यासजी बोले--वैशम्पायन! पूर्वकालमें कौरवों और पाण्डवोंमें जिस प्रकार फूट पड़ी 
थी; जिसे तुम मुझसे सुन चुके हो, वह सब इस समय इन राजा जनमेजयको 
सुनाओ ।। २२ ।। 

गुरोर्वचनमाज्ञाय स तु विप्रर्षभस्तदा । 

आचचक्षे तत: सर्वमितिहासं पुरातनम्‌ ।। २३ ।। 

राज्ञे तस्मै सदस्येभ्य: पार्थिवेभ्यश्व सर्वश: । 

भेदं सर्वविनाशं च कुरुपाण्डवयोस्तदा ।। २४ ।। 

उस समय गुरुदेव व्यासजीकी यह आज्ञा पाकर विप्रवर वैशम्पायनने राजा जनमेजय, 
सभासदगण तथा अन्य सब भूपालोंसे कौरव-पाण्डवोंमें जिस प्रकार फूट पड़ी और उनका 
सर्वनाश हुआ, वह सब पुरातन इतिहास कहना प्रारम्भ किया || २३-२४ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि कथानुबन्धे षष्टितमो5ध्याय: ।। 
६० || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अंशावतरणपर्वमें कथानुबन्धविषयक साठवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ६० ॥ 


अपन बछ। है २ 2 


एकषेष्टितमो< ध्याय: 


कौरव-पाण्डवोंमें फूट और युद्ध होनेके वृत्तान्तका 
सूत्ररूपमें निर्देश 


वैशम्पायन उवाच 


गुरवे प्राड़नमस्कृत्य मनोबुद्धिसमाधिभि: । 

सम्पूज्य च द्विजान्‌ सर्वास्तथान्यान्‌ विदुषो जनान्‌ ।। १ ।। 

महर्षेविश्रुतस्येह सर्वलोकेषु धीमत:ः । 

प्रवक्ष्यामि मतं कृत्स्नं व्यासस्यास्य महात्मन: ।॥। २ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--राजन! मैं सबसे पहले श्रद्धा-भक्तिपूर्वक एकाग्रचित्तसे अपने 
गुरुदेव श्रीव्यासजी महाराजको साष्टांग नमस्कार करके सम्पूर्ण द्विजों तथा अन्यान्य 
विद्वानोंका समादर करते हुए यहाँ सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात महर्षि एवं महात्मा इन परम 
बुद्धिमान्‌ व्यासजीके मतका पूर्णरूपसे वर्णन करता हूँ ।। १-२ ।। 

श्रीतुं पात्र च राजंस्त्वं प्राप्पेमां भारतीं कथाम्‌ । 

गुरोर्वक्त्रपरिस्पन्दो मन: प्रोत्साहतीव मे ।। ३ ।। 

जनमेजय! तुम इस महाभारतकी कथाको सुननेके लिये उत्तम पात्र हो और मुझे यह 
कथा उपलब्ध है तथा श्रीगुरुजीके मुखारविन्दसे मुझे यह आदेश मिल गया है कि मैं तुम्हें 
कथा सुनाऊँ, इससे मेरे मनको बड़ा उत्साह प्राप्त होता है ।। ३ ।। 

शृणु राजन्‌ यथा भेद: कुरुपाण्डवयोरभूत्‌ । 

राज्यार्थे द्यूतसम्भूतो वनवासस्तथैव च ।। ४ ।। 

यथा च युद्धम भवत्‌ पृथिवीक्षयकारकम्‌ । 

तत्‌ ते5हं कथयिष्यामि पृच्छते भरतर्षभ ।। ५ ।। 

राजन्‌! जिस प्रकार कौरव और पाण्डवोंमें फ़ूट पड़ी, वह प्रसंग सुनो। राज्यके लिये 
जो जुआ खेला गया, उससे उनमें फूट हुई और उसीके कारण पाण्डवोंका वनवास हुआ। 
भरतश्रेष्ठ फिर जिस प्रकार पृथ्वीके वीरोंका विनाश करनेवाला महाभारत-युद्ध हुआ, वह 
तुम्हारे प्रश्नंके अनुसार तुमसे कहता हूँ, सुनो || ४-५ ।। 

मृते पितरि ते वीरा वनादेत्य स्वमन्दिरम्‌ । 

नचिरादेव विद्वांसो वेदे धनुषि चाभवन्‌ ।। ६ ।। 

अपने पिता महाराज पाण्डुके स्वर्गवासी हो जानेपर वे वीर पाण्डव वनसे अपने 
राजभवनमें आकर रहने लगे। वहाँ थोड़े ही दिनोंमें वे वेद तथा धरनुर्वेदके पूरे पण्डित हो 
गये ।। ६ ।। 


तांस्तथा सत्त्ववीर्यौज: सम्पन्नान्‌ पौरसम्मतान्‌ | 

नामृष्यन्‌ कुरवो दृष्टवा पाण्डवाउछीयशोभूत: ।। ७ ।। 

सत्त्व (धैर्य और उत्साह), वीर्य (पराक्रम) तथा ओज (देहबल)-से सम्पन्न होनेके कारण 
पाण्डवलोग पुरवासियोंके प्रेम और सम्मानके पात्र थे। उनके धन, सम्पत्ति और यशकी 
वृद्धि होने लगी। यह सब देखकर कौरव उनके उत्कर्षको सहन न कर सके ।। ७ ।। 

ततो दुर्योधन: क्रूर: कर्णश्ष सहसौबल: । 

तेषां निग्रहनिर्वासान्‌ विविधांस्ते समारभन्‌ ।। ८ ।। 

तब क्रूर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि तीनोंने मिलकर पाण्डवोंको वशमें करने या देशसे 
निकाल देनेके लिये नाना प्रकारके यत्न आरम्भ किये ।। ८ ।। 

ततो दुर्योधन: शूर: कुलिड्रस्य मते स्थित: । 

पाण्डवान्‌ विविधोपायै राज्यहेतोरपीडयत्‌ ।। ९ ।। 

शकुनिकी सम्मतिसे चलनेवाले शूरवीर दुर्योधनने राज्यके लिये भाँति-भाँतिके उपाय 
करके पाण्डवोंको पीड़ा दी || ९ ।। 

ददावथ विषं पापो भीमाय धृतराष्ट्रज: । 

जरयामास तद्‌ वीर: सहान्तेन वृकोदर: ।। १० ।। 

उस पापी धृतराष्ट्रपुत्ने भीमसेनको विष दे दिया, किंतु वीरवर भीमसेनने भोजनके 
साथ उस विषको भी पचा लिया ।। १० |। 

प्रमाणकोट्यां संसुप्तं पुनर्बद्ध्वा वृकोदरम्‌ । 

तोयेषु भीम॑ गंगाया: प्रक्षिप्प पुरमाव्रजत्‌ ।। ११ ।। 

फिर दुर्योधनने गंगाके प्रमाणकोटि नामक तीर्थपर सोये हुए भीमसेनको बाँधकर 
गंगाजीके गहरे जलमें डाल दिया और स्वयं चुपचाप नगरमें लौट आया ।। ११ ।। 

यदा विबुद्ध: कौन्तेयस्तदा संछिद्य बन्धनम्‌ । 

उदतिष्ठन्महाबाहुर्भीमसेनो गतव्यथ: ।। १२ ।। 

जब कुन्तीनन्दन महाबाहु भीमकी आँख खुली, तब वे सारा बन्धन तोड़कर बिना 
किसी पीड़ाके उठ खड़े हुए ।। १२ ।। 

आशीविषै: कृष्णसर्प: सुप्तं चैनमदंशयत्‌ | 

सर्वेष्वेवाड्गदेशेषु न ममार च शत्रुहा || १३ ।। 

एक दिन दुर्योधनने भीमसेनको सोते समय उनके सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगोंमें काले साँपोंसे 
डँसवा दिया, किंतु शत्रुधाती भीम मर न सके ।। १३ ।। 

तेषां तु विप्रकारेषु तेषु तेषु महामति: । 

मोक्षणे प्रतिकारे च विदुरोडवहितो5भवत्‌ ।। १४ ।। 

कौरवोंके द्वारा किये हुए उन सभी अपकारोंके समय पाण्डवोंको उनसे छुड़ाने अथवा 
उनका प्रतीकार करनेके लिये परम बुद्धिमान्‌ विदुरजी सदा सावधान रहते थे ।। १४ ।। 


स्वर्गस्थो जीवलोकस्य यथा शक्र: सुखावह: । 

पाण्डवानां तथा नित्यं विदुरोडपि सुखावह: ।। १५ ।। 

जैसे स्वर्गलोकमें निवास करनेवाले इन्द्र सम्पूर्ण जीव-जगत्‌को सुख पहुँचाते रहते हैं, 
उसी प्रकार विदुरजी भी सदा पाण्डवोंको सुख दिया करते थे ।। १५ ।। 

यदा तु विविधोपायै: संवृतैर्विवृतैरपि । 

नाशकद्‌ विनिहन्तुं तान्‌ दैवभाव्यर्थरक्षितान्‌ ।। १६ ।। 

ततः सम्मन्त्रय सचिवैर्वृषदुःशासनादिशभि: । 

धृतराष्ट्रमनुज्ञाप्य जातुषं गृहमादिशत्‌ ।। १७ ।। 

भविष्यमें जो घटना घटित होनेवाली थी, उसके लिये मानो दैव ही पाण्डवोंकी रक्षा कर 
रहा था। जब छिपकर या प्रकटरूपमें किये हुए अनेक उपायोंसे भी दुर्योधन पाण्डवोंका 
नाश न कर सका, तब उसने कर्ण और दुःशासन आदि मन्त्रियोंसे सलाह करके धृतराष्ट्रकी 
आज्ञासे वारणावत नगरमें एक लाहका घर बनानेकी आज्ञा दी ।। १६-१७ ।। 

सुतप्रियैषी तान्‌ राजा पाण्डवानम्बिकासुत: । 

ततो विवासयामास राज्यभोगबुभुक्षया ।। १८ ।। 

अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र अपने पुत्रका प्रिय चाहनेवाले थे। अतः उन्होंने राज्यभोगकी 
इच्छासे पाण्डवोंको हस्तिनापुर छोड़कर वारणावतके लाक्षागृहमें रहनेकी आज्ञा दे 
दी ।। १८ ।। 

ते प्रातिष्ठन्त सहिता नगराजन्नागसाह्दयात्‌ । 

प्रस्थाने चाभवन्मन्त्री क्षत्ता तेषां महात्मनाम्‌ ।। १९ |। 

तेन मुक्ता जतुगृहान्निशी थे प्राद्रवन्‌ वनम्‌ । 

मातासहित पाँचों पाण्डव एक साथ हस्तिनापुरसे प्रस्थित हुए। उन महात्मा पाण्डवोंके 
प्रस्थानकालमें विदुरजी सलाह देनेवाले हुए। उन्हींकी सलाह एवं सहायतासे पाण्डवलोग 
लाक्षागृहले बचकर आधीरातके समय वनमें भाग निकले थे ।। १९३ ।। 

ततः सम्प्राप्प कौन्तेया नगरं वारणावतम्‌ ।। २० ।। 

न्यवसन्त महात्मानो मात्रा सह परंतपा: । 

धृतराष्ट्रेण चाज्ञप्ता उषिता जातुषे गृहे | २१ ।। 

पुरोचनाद्‌ रक्षमाणा: संवत्सरमतन्द्रिता: । 

सुरुड़ां कारयित्वा तु विदुरेण प्रचोदिता: ।। २२ ।। 

आदीप्य जातुषं वेश्म दग्ध्वा चैव पुरोचनम्‌ 

प्राद्रवन्‌ू भयसंविग्ना मात्रा सह परंतपा: ।। २३ ।। 

धृतराष्ट्रकी आज्ञासे शत्रुओंका दमन करनेवाले कुन्तीकुमार महात्मा पाण्डव वारणावत 
नगरमें आकर लाक्षागृहमें अपनी माताके साथ रहने लगे। पुरोचनसे सुरक्षित हो सदा सजग 
रहकर उन्होंने एक वर्षतक वहाँ निवास किया। फिर विदुरकी प्रेरणा (विदुरके भेजे हुए 


आदमियों)-से पाण्डवोंने एक सुरंग खुदवायी। तत्पश्चात्‌ वे शत्रुसंतापी पाण्डव उस 
लाक्षागृहमें आग लगा पुरोचनको दग्ध करके भयसे व्याकुल हो मातासहित सुरंगद्वारा 
वहाँसे निकल भागे || २०--२३ ।। 

ददृशुर्दारुणं रक्षो हिडिम्बं वननिर्झरे । 

हत्वा च त॑ राक्षसेन्द्रे भीता: समवबोधनात्‌ ।। २४ ।। 

निशि सम्प्राद्रवन्‌ पार्था धार्तराष्ट्र भयाददिता: । 

प्राप्ता हिडिम्बा भीमेन यत्र जातो घटोत्कच: ।। २५ ।। 

तत्पश्चात्‌ वनमें एक झरनेके पास उन्होंने एक भयंकर राक्षसको देखा, जिसका नाम 
हिडिम्ब था। राक्षसराज हिडिम्बको मारकर पाण्डवलोग प्रकट होनेके भयसे रातमें ही 
वहाँसे दूर निकल गये। उस समय उन्हें धृतराष्ट्रके पुत्रोंका भय सता रहा था। हिडिम्ब-वधके 
पश्चात्‌ भीमको हिडिम्बा नामकी राक्षसी पत्नीरूपमें प्राप्त हुई, जिसके गर्भसे घटोत्कचका 
जन्म हुआ || २४-२५ || 

एकचक्रां ततो गत्वा पाण्डवा: संशितव्रता: । 

वेदाध्ययनसम्पन्नास्ते5भवन्‌ ब्रह्मचारिण: ।। २६ ।। 

तदनन्तर कठोर व्रतका पालन करनेवाले पाण्डव एकचक्रा नगरीमें जाकर 
वेदाध्ययनपरायण ब्रह्मचारी बन गये ।। २६ ।। 

ते तत्र नियता: काल कंचिदृषुर्नरर्षभा: । 

मात्रा सहैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने | २७ ।। 

उस एकचक्रा नगरीमें वे नरश्रेष्ठ पाण्डव अपनी माताके साथ एक ब्राह्मणके घरमें कुछ 
कालतक टिके रहे ।। २७ ।। 

तत्राससाद क्षुधितं पुरुषादं वृकोदर: । 

भीमसेनो महाबाहुर्बक॑ नाम महाबलम्‌ ।। २८ ।। 

उस नगरके समीप एक मनुष्यभक्षी राक्षस रहता था, जिसका नाम था बक। एक दिन 
महाबाहु भीमसेन उस क्षुधातुर महाबली राक्षस बकके समीप गये ।। २८ ।। 

त॑ चापि पुरुषव्याप्रो बाहुवीयेण पाण्डव: । 

निहत्य तरसा वीरो नागरान्‌ पर्यसान्त्वयत्‌ ।। २९ |। 

नरश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन वीरवर भीमने अपने बाहुबलसे उस राक्षसको वेगपूर्वक मारकर 
वहाँके नगरनिवासियोंको धैर्य बँधाया || २९ ।। 

ततस्ते शुश्रुव॒ु: कृष्णां पञ्चालेषु स्वयंवराम्‌ | 

श्रुत्वा चैवा भ्यगच्छन्त गत्वा चैवालभन्त ताम्‌ | ३० ।। 

ते तत्र द्रौपदी लब्ध्वा परिसंवत्सरोषिता: । 

विदिता हास्तिनपुरं प्रत्याजग्मुररिंदमा: ।। ३१ ।। 


वहीं सुननेमें आया कि पांचाल देशकी राजकुमारी कृष्णाका स्वयंवर होनेवाला है। यह 
सुनकर पाण्डव वहाँ गये और जाकर उन्होंने राजकुमारीको प्राप्त कर लिया। द्रौपदीको 
प्राप्त करनेके बाद पहचान लिये जानेपर भी वे एक वर्षतक पांचाल देशमें ही रहे। फिर वे 
शत्रुदमन पाण्डव पुन: हस्तिनापुर लौट आये ।। ३०-३१ ।। 

ते उक्ता धृतराष्ट्रेण राज्ञा शान्तनवेन च । 

भ्रातृभिविंग्रहस्तात कथं वो न भवेदिति ।। ३२ ।। 

अस्माभि: खाण्डवप्रस्थे युष्मद्वासो 5नुचिन्तित: । 

तस्माज्जनपदोपेतं सुविभक्तमहापथम्‌ ।। ३३ ।। 

वासाय खाण्डवप्रस्थं व्रजध्वं गतमत्सरा: । 

तयोस्ते वचनाज्जग्मु: सह सर्व: सुहृज्जनै: ।। ३४ ।। 

नगरं खाण्डवप्रस्थं रत्नान्यादाय सर्वश: । 

तत्र ते न्‍्यवसन्‌ पार्था: संवत्सरगणान्‌ बहून्‌ | ३५ ।। 

वशे शस्त्रप्रतापेन कुर्वन्तो5न्यान्‌ महीभूत: । 

एवं धर्मप्रधानास्ते सत्यव्रतपरायणा: ।। ३६ ।। 

अप्रमत्तोत्थिता: क्षान्ता: प्रतपन्‍्तो5हितान्‌ बहून्‌ । 

वहाँ आनेपर राजा धुृतराष्ट्र तथा शान्तनुनन्दन भीष्मजीने उनसे कहा--“तात! तुम्हें 
अपने भाई कौरवोंके साथ लड़ने-झगड़नेका अवसर न प्राप्त हो इसके लिये हमने विचार 
किया है कि तुमलोग खाण्डवप्रस्थमें रहो। वहाँ अनेक जनपद उससे जुड़े हुए हैं। वहाँ 
सुन्दर विभागपूर्वक बड़ी-बड़ी सड़कें बनी हुई हैं। अत: तुमलोग ईर्ष्याका त्याग करके 
खाण्डवप्रस्थमें रहनेके लिये जाओ।” उन दोनोंके इस प्रकार आज्ञा देनेपर सब पाण्डव 
अपने समस्त सुहृदोंके साथ सब प्रकारके रत्न लेकर खाण्डवप्रस्थको चले गये। वहाँ वे 
कुन्तीपुत्र अपने अस्त्र-शस्त्रोंके प्रतापसे अन्यान्य राजाओंको अपने वशमें करते हुए बहुत 
वर्षोतक निवास करते रहे। इस प्रकार धर्मको प्रधानता देनेवाले, सत्यव्रतके पालनमें तत्पर, 
सदा सावधान एवं सजग रहनेवाले, क्षमाशील पाण्डव वीर बहुत-से शत्रुओंको संतप्त करते 
हुए वहाँ निवास करने लगे || ३२--३६ ह ।। 

अजयदू भीमसेनस्तु दिशं प्राचीं महायशा: ।। ३७ ।। 

उदीचीमर्जुनो वीर: प्रतीचीं नकुलस्तथा । 

दक्षिणां सहदेवस्तु विजिग्ये परवीरहा ।। ३८ ।। 

महायशस्वी भीमसेनने पूर्व दिशापर विजय पायी। वीर अर्जुनने उत्तर, नकुलने पश्चिम 
और शत्रु वीरोंका संहार करनेवाले सहदेवने दक्षिण दिशापर विजय प्राप्त की || ३७-३८ ।। 

एवं चक्कुरिमां सर्वे वशे कृत्स्नां वसुन्धराम्‌ । 

पज्चभि: सूर्यसंकाशै: सूर्येण च विराजता ।। ३९ |। 

षट्सूर्येवाभवत्‌ पृथ्वी पाण्डवै: सत्यविक्रमै: । 


ततो निमित्ते कम्मिंश्षिद्‌ धर्मराजो युधिष्ठिर: ।। ४० ।। 

वन॑ प्रस्थापयामास तेजस्वी सत्यविक्रम: । 

प्राणेभ्योडपि प्रियतरं भ्रातरं सव्यसाचिनम्‌ ।। ४१ ।। 

अर्जुन पुरुषव्याप्रं स्थिरात्मानं गुणैर्युतम्‌ । 

(धैर्यात्‌ सत्याच्च धर्माच्च विजयाच्चाधिकप्रिय: । 

अर्जुनो क्रातरं ज्येष्ठ॑ नात्यवर्तत जातुचित्‌ ।।) 

स वै संवत्सरं पूर्ण मासं चैक॑ वने वसन्‌ ।। ४२ ।। 

इस तरह सब पाण्डवोंने समूची पृथ्वीको अपने वशमें कर लिया। वे पाँचों भाई सूर्यके 
समान तेजस्वी थे और आकाशकमें नित्य उदित होनेवाले सूर्य तो प्रकाशित थे ही; इस तरह 
सत्यपराक्रमी पाण्डवोंके होनेसे यह पृथ्वी मानो छः सूर्योसे प्रकाशित होनेवाली बन गयी। 
तदनन्तर कोई निमित्त बन जानेके कारण सत्यपराक्रमी तेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिरने अपने 
प्राणोंसे भी अत्यन्त प्रिय, स्थिर-बुद्धि तथा सदगुणयुक्त भाई नरश्रेष्ठ सव्यसाची अर्जुनको 
वनमें भेज दिया। अर्जुन अपने धैर्य, सत्य, धर्म और विजयशीलताके कारण भाइयोंको 
अधिक प्रिय थे। उन्होंने अपने बड़े भाईकी आज्ञाका कभी उल्लंघन नहीं किया था। वे पूरे 
बारह वर्ष और एक मासतक वनमें रहे ।। ३९--४२ ।। 

(तीर्थयात्रां च कृतवान्‌ नागकन्यामवाप्य च । 

पाण्ड्यस्य तनयां लब्ध्वा तत्र ताभ्यां सहोषित: ।।) 

ततो5गच्छद्धृषीकेशं द्वारवत्यां कदाचन । 

लब्धवांस्तत्र बी भत्सुर्भार्या राजीवलोचनाम्‌ ।। ४३ ।। 

अनुजां वासुदेवस्य सुभद्रां भद्रभाषिणीम्‌ | 

सा शचीव महेन्द्रेण श्री: कृष्णेनेव संगता ।। ४४ ।। 

सुभद्रा युयुजे प्रीत्या पाण्डवेनार्जुनेन ह । 

उसी समय उन्होंने निर्मल तीर्थोकी यात्रा की और नागकन्या उलूपीको पाकर 
पाण्ड्यदेशीय नरेश चित्रवाहनकी पुत्री चित्रांगदाको भी प्राप्त किया और उन-उन स्थानोंमें 
उन दोनोंके साथ कुछ कालतक निवास किया। तत्पश्चात्‌ वे किसी समय द्वारकामें भगवान्‌ 
श्रीकृष्णके पास गये। वहाँ अर्जुनने मंगलमय वचन बोलनेवाली कमललोचना सुभद्राको, जो 
वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णकी छोटी बहिन थी, पत्नीरूपमें प्राप्त किया। जैसे इन्द्रसे शच्ची और 
भगवान्‌ विष्णुसे लक्ष्मी संयुक्त हुई हैं, उसी प्रकार सुभद्रा बड़े प्रेमसे पाण्डुनन्दन अर्जुनसे 
मिली || ४३-४४ $ || 

अतर्पयच्च कौन्तेय: खाण्डवे हव्यवाहनम्‌ | ४५ ।। 

बीभत्सुर्वासुदेवेन सहितो नृपसत्तम । 

नातिभारो हि पार्थस्य केशवेन सहाभवत्‌ ॥। ४६ ।। 

व्यवसायसहायस्य विष्णो: शत्रुवधेष्विव । 


तत्पश्चात्‌ कुन्तीकुमार अर्जुनने खाण्डवप्रस्थमें भगवान्‌ वासुदेवके साथ रहकर 
अग्निदेवको तृप्त किया। नृपश्रेष्ठ जनमेजय! भगवान्‌ श्रीकृष्णका साथ होनेसे अर्जुनको इस 
कार्यमें ठीक उसी तरह अधिक परिश्रम या भारका अनुभव नहीं हुआ, जैसे दृढ़ निश्चयको 
सहायक बनाकर देवशत्रुओंका वध करते समय भगवान्‌ विष्णुको भार या परिश्रमकी 
प्रतीति नहीं होती है ।। ४५-४६ ६ ।। 

पार्थायानिनिर्ददी चापि गाण्डीवं धनुरुत्तमम्‌ ।। ४७ ।। 

इषुधी चाक्षयैर्बाणै रथं च कपिलक्षणम्‌ | 

मोक्षयामास बीभत्सुर्मयं यत्र महासुरम्‌ ।। ४८ ।। 

तदनन्तर अग्निदेवने संतुष्ट हो अर्जुनको उत्तम गाण्डीव धनुष, अक्षय बाणोंसे भरे हुए 
दो तूणीर और एक कपिध्वज रथ प्रदान किया। उसी समय अर्जुनने महान्‌ असुर मयको 
खाण्डव वनमें जलनेसे बचाया था || ४७-४८ ।। 

स चकार सभा दिव्यां सर्वरत्नसमाचिताम्‌ | 

तस्यां दुर्योधनो मन्दो लोभ॑ चक्रे सुदुर्मति: ।। ४९ ।। 

इससे संतुष्ट होकर उसने अर्जुनके लिये एक दिव्य सभाभवनका निर्माण किया, जो 
सब प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित था। खोटी बुद्धिवाले मूर्ख दुर्योधनके मनमें उस सभाको ले 
लेनेके लिये लोभ पैदा हुआ ।। ४९ ।। 

ततोऊक्षैर्वज्चयित्वा च सौबलेन युधिष्ठिरम्‌ । 

वन॑ प्रस्थापयामास सप्त वर्षाणि पजच च || ५० ।। 

अज्ञातमेकं राष्ट्रे च ततो वर्ष त्रयोदशम्‌ | 

ततश्षतुर्दशे वर्षे याचमाना: स्वकं वसु || ५१ ।। 

तब उसने शकुनिकी सहायतासे कपटपूर्ण जुएके द्वारा युधिष्ठिरको ठग लिया और उन्हें 
बारह वर्षतक वनमें और तेरहवें वर्ष एक राष्ट्रमें अज्ञात-रूपसे वास करनेके लिये भेज 
दिया। इसके बाद चौदहवें वर्षमें पाण्डवोंने लौटकर अपना राज्य और धन 
माँगा || ५०-५१ || 

नालभन्त महाराज ततो युद्धमवर्तत । 

ततस्ते क्षत्रमुत्साद्य हत्वा दुर्योधनं नृपम्‌ ।। ५२ ।। 

राज्यं विहतभूयिष्ठं प्रत्यपद्यन्त पाण्डवा: । 

एवमेतत्‌ पुरावृत्तं तेषामक्लिष्टकर्मणाम्‌ | 

भेदो राज्यविनाशाय जयशक्ष जयतां वर ।। ५३ || 

महाराज! जब इस प्रकार न्यायपूर्वक माँगनेपर भी उन्हें राज्य नहीं मिला, तब दोनों 
दलोंमें युद्ध छिड़ गया। फिर तो पाण्डव-वीरोंने क्षत्रियकुलका संहार करके राजा दुर्योधनको 
भी मार डाला और अपने राज्यको, जिसका अधिकांश भाग उजाड़ हो गया था, पुनः अपने 
अधिकारमें कर लिया। विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ जनममेजय! अनायास महान्‌ कर्म करनेवाले 


पाण्डवोंका यही पुरातन इतिहास है। इस प्रकार राज्यके विनाशके लिये उनमें फ़ूट पड़ी 
और युद्धके बाद उन्हें विजय प्राप्त हुई || ५२-५३ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि भारतसूत्रं नामैकषष्टितमो<5 ध्याय: 
॥॥ ६१ || 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत अंशावतरणपर्वमें भारतसूत्र नामक इकसठवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ६१ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५५ श्लोक हैं) 


द्विषष्टितमो5 ध्याय: 


महाभारतकी महत्ता 
जनमेजय उवाच 

कथितं वै समासेन त्वया सर्व द्विजोत्तम । 

महाभारतमाख्यानं कुरूणां चरितं महत्‌ ।। १ ।। 

जनमेजयने कहा--द्विजश्रेष्ठ! आपने कुरुवंशियोंके चरित्ररूप महान्‌ महाभारत 
नामक सम्पूर्ण इतिहासका बहुत संक्षेपसे वर्णन किया है ।। १ ।। 

कथां त्वनघ चित्रार्था कथयस्व तपोधन । 

विस्तरश्रवणे जातं कौतूहलमतीव मे ।। २ ।। 

निष्पाप तपोधन! अब उस विचित्र अर्थवाली कथाको विस्तारके साथ कहिये; क्योंकि 
उसे विस्तारपूर्वक सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल हो रहा है || २ ।। 

स भवान्‌ विस्तरेणेमां पुनराख्यातुम्हति । 

न हि तृप्यामि पूर्वेषां शृण्वानश्वरितं महत्‌ ।। ३ ।। 

विप्रवर! आप पुन: पूरे विस्तारके साथ यह कथा सुनावें। मैं अपने पूर्वजोंके इस महान्‌ 
चरित्रको सुनते-सुनते तृप्त नहीं हो रहा हूँ ।। ३ ।। 

न तत्‌ कारणमल्पं वै धर्मज्ञा यत्र पाण्डवा: | 

अवध्यान्‌ सर्वशो जघ्नु: प्रशस्यन्ते च मानवै: ।। ४ ।। 

सब मनुष्योंद्वारा जिनकी प्रशंसा की जाती है, उन धर्मज्ञ पाण्डवोंने जो युद्धभूमिमें 
समस्त अवध्य सैनिकोंका भी वध किया था, इसका कोई छोटा या साधारण कारण नहीं हो 
सकता ।। ४ ।। 

किमर्थ ते नरव्याप्रा: शक्ता: सन्‍्तो हनागस: । 

प्रयुज्यमानान्‌ संक्लेशान्‌ क्षान्तवन्तो दुरात्मनाम्‌ । ५ ।। 

नरश्रेष्ठ पाण्डव शक्तिशाली और निरपराध थे तो भी उन्होंने दुरात्मा कौरवोंके दिये हुए 
महान्‌ क्लेशोंको कैसे चुपचाप सहन कर लिया? ।। ५ ।। 

कथं नागायुतप्राणो बाहुशाली वृकोदर: । 

परिक्लिश्यन्नपि क्रोधं धृतवान्‌ वै द्विजोत्तम ।। ६ ।। 

द्विजोत्तम! अपनी विशाल भुजाओंसे सुशोभित होनेवाले भीमसेनमें तो दस हजार 
हाथियोंका बल था। फिर उन्होंने क्लेश उठाते हुए भी क्रोधको किसलिये रोक रखा 
था? | ६ |। 

कथं सा द्रौपदी कृष्णा क्लिश्यमाना दुरात्मभि: | 

शक्ता सती धार्तराष्ट्रानू नादहत्‌ क्रोधचक्षुषा | ७ ।। 


द्रपदकुमारी कृष्णा भी सब कुछ करनेमें समर्थ, सती-साध्वी देवी थीं। धृतराष्ट्रके 
दुरात्मा पुत्रोंद्वारा सतायी जानेपर भी उन्होंने अपनी क्रोधपूर्ण दृष्टिसि उन सबको जलाकर 
भस्म क्यों नहीं कर दिया? ।। ७ ।। 

कथं व्यसनिन द्ूुते पार्थो माद्रीसुतोौ तदा । 

अन्वयुस्ते नरव्याप्रा बाध्यमाना दुरात्मभि: || ८ ।। 

कुन्तीके दोनों पुत्र भीमसेन और अर्जुन तथा माद्री-नन्दन नकुल और सहदेव भी उस 
समय दुष्ट कौरवोंद्वारा अकारण सताये गये थे। उन चारों भाइयोंने जुएके दुर्व्यसनमें फँसे 
हुए राजा युधिष्ठिरका साथ क्यों दिया? ।। ८ ।। 

कथं धर्मभृतां श्रेष्ठ: सुतो धर्मस्य धर्मवित्‌ । 

अनर्ह: परमं क्लेशं सोढवान्‌ स युधिषछ्िर: ।। ९ |। 

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ धर्मपुत्र युधिष्ठिर धर्मके ज्ञाता थे, महान्‌ क्लेशमें पड़नेयोग्य कदापि 
नहीं थे, तो भी उन्होंने वह सब कैसे सहन कर लिया? ।। ९ ।। 

कथं च बहुला: सेना: पाण्डव: कृष्णसारथि: । 

अस्यन्नेको5नयत्‌ सर्वा: पितृलोक॑ धनंजय: ।। १० ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण जिनके सारथि थे, उन पाण्डुनन्दन अर्जुनने अकेले ही बाणोंकी वर्षा 
करके समस्त सेनाओंको, जिनकी संख्या बहुत बड़ी थी, किस प्रकार यमलोक पहुँचा 
दिया? || १० ।। 

एतदाचक्ष्व मे सर्व यथावृत्तं तपोधन । 

यद्‌ यच्च कृतवन्तस्ते तत्र तत्र महारथा: ।। ११ ।। 

तपोधन! यह सब वृत्तान्त आप ठीक-ठीक मुझे बताइये। उन महारथी वीरोंने विभिन्न 
स्थानों और अवसरोंमें जो-जो कर्म किये थे, वह सब सुनाइये ।। ११ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

क्षणं कुरु महाराज विपुलोडयमनुक्रम: । 

पुण्याख्यानस्य वक्तव्य: कृष्णद्वैपायनेरित: ।। १२ ।। 

वैशम्पायनजी बोले--महाराज! इसके लिये कुछ समय नियत कीजिये; क्योंकि इस 
पवित्र आख्यानका श्रीव्यासजीके द्वारा जो क्रमानुसार वर्णन किया गया है, वह बहुत 
विस्तृत है और वह सब आपके समक्ष कहकर सुनाना है ।। १२ ।। 

महर्षे: सर्वलोकेषु पूजितस्य महात्मन: । 

प्रवक्ष्यामि मतं कृत्स्नं व्यासस्थामिततेजस: ।। १३ ।। 

सर्वलोकपूजित अमित तेजस्वी महामना महर्षि व्यासजीके सम्पूर्ण मतका यहाँ वर्णन 
करूँगा ।। १३ ।। 

इदं शतसहस्रं हि श्लोकानां पुण्यकर्मणाम्‌ | 


सत्यवत्यात्मजेनेह व्याख्यातममितौजसा ।। १४ ।। 

असीम प्रभावशाली सत्यवतीनन्दन व्यासजीने पुण्यात्मा पाण्डवोंकी यह कथा एक 
लाख श्लोकोंमें कही है || १४ ।। 

य इदं श्रावयेद्‌ विद्वान्‌ ये चेदं शृणुयुर्नरा: । 

ते ब्रह्मण: स्थानमेत्य प्राप्रुयुर्देवतुल्यताम्‌ ।। १५ ।। 

जो विद्वान्‌ इस आख्यानको सुनाता है और जो मनुष्य सुनते हैं, वे ब्रह्मतोकमें जाकर 
देवताओंके समान हो जाते हैं ।। १५ ।। 

इदं हि वेदैः समितं पवित्रमपि चोत्तमम्‌ | 

भ्राव्याणामुत्तमं चेदं॑ पुराणमृषिसंस्तुतम्‌ । १६ ।। 

यह ऋषियोंद्वारा प्रशंसित पुरातन इतिहास श्रवण करनेयोग्य सब ग्रन्थोंमें श्रेष्ठ है। यह 
वेदोंके समान ही पवित्र तथा उत्तम है ।। १६ ।। 

अम्मिन्नर्थश्न धर्मश्ष निखिलेनोपदिश्यते । 

इतिहासे महापुण्ये बुद्धिश्व परिनैष्ठिकी ।। १७ ।। 

अक्षुद्रान्‌ दानशीलांश्व॒ सत्यशीलाननास्तिकान्‌ । 

कार्ष्ण वेदमिमं विद्वाञ्छावयित्वार्थमश्वुते | १८ ।। 

इसमें अर्थ और धर्मका भी पूर्णरूपसे उपदेश किया जाता है। इस परम पावन 
इतिहाससे मोक्षबुद्धि प्राप्त होती है। जिनका स्वभाव अथवा विचार खोटा नहीं है, जो 
दानशील, सत्यवादी और आस्तिक हैं, ऐसे लोगोंको व्यासद्वारा विरचित वेदस्वरूप इस 
महाभारतका जो श्रवण कराता है, वह विद्वान अभीष्ट अर्थको प्राप्त कर लेता 
है || १७-१८ ।। 

भ्रूणहत्याकृतं चापि पापं जह्मादसंशयम्‌ । 

इतिहासमिमं श्रुत्वा पुरुषोषपि सुदारुण: ।। १९ |। 

मुच्यते सर्वपापेभ्यो राहुणा चन्द्रमा यथा । 

जयो नामेतिहासो<यं श्रोतव्यो विजिगीषुणा ।। २० ।। 

साथ ही वह भ्रूणहत्या-जैसे पापको भी नष्ट कर देता है, इसमें संशय नहीं है। इस 
इतिहासको श्रवण करके अत्यन्त क्रूर मनुष्य भी राहुसे छूटे हुए चन्द्रमाकी भाँति सब 
पापोंसे मुक्त हो जाता है। यह “जय” नामक इतिहास विजयकी इच्छावाले पुरुषको अवश्य 
सुनना चाहिये ।। १९-२० ।। 

महीं विजयते राजा शत्रूंश्षापि पराजयेत्‌ । 

इदं पुंसवन श्रेष्ठमिदं स्वस्त्ययनं महत्‌ ।। २१ ।। 

इसका श्रवण करनेवाला राजा भूमिपर विजय पाता और सब शत्रुओंको परास्त कर 
देता है। यह पुत्रकी प्राप्ति करानेवाला और महान्‌ मंगलकारी श्रेष्ठ साधन है || २१ ।। 

महिषीयुवराजाभ्यां श्रोतव्यं बहुशस्तथा । 


वीरं जनयते पुत्र कन्यां वा राज्यभागिनीम्‌ ।। २२ ।। 

युवराज तथा रानीको बारम्बार इसका श्रवण करते रहना चाहिये, इससे वह वीर पुत्र 
अथवा राज्यसिंहासनपर बैठनेवाली कन्याको जन्म देती है ।। २२ ।। 

धर्मशास्त्रमिदं पुण्यमर्थशास्त्रमिदं परम्‌ 

मोक्षशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना ।। २३ ।। 

अमित मेधावी व्यासजीने इसे पुण्यमय धर्मशास्त्र, उत्तम अर्थशास्त्र तथा सर्वोत्तम 
मोक्षशास्त्र भी कहा है || २३ ।। 

सम्प्रत्याचक्षते चेदं तथा श्रोष्यन्ति चापरे । 

पुत्रा: शुश्रूषव: सन्ति प्रेष्याश्व॒ प्रियकारिण: ।। २४ ।। 

जो वर्तमानकालमें इसका पाठ करते हैं तथा जो भविष्यमें इसे सुनेंगे, उनके पुत्र 
सेवापरायण और सेवक स्वामीका प्रिय करनेवाले होंगे || २४ ।। 

शरीरेण कृतं पापं वाचा च मनसैव च । 

सर्व संत्यजति क्षिप्रं य इदं शृणुयात्नर: ॥। २५ ।। 

जो मानव इस महाभारतको सुनता है, वह शरीर, वाणी और मनके द्वारा किये हुए 
सम्पूर्ण पापोंको त्याग देता है || २५ ।। 

भरतानां महज्जन्म शृण्वतामनसूयताम्‌ । 

नास्ति व्याधिभयं तेषां परलोकभयं कुत: ।। २६ ।। 

जो दूसरोंके दोष न देखनेवाले भरतवंशियोंके महान्‌ जन्म-वृत्तान्तरूप महाभारतका 
श्रवण करते हैं, उन्हें इस लोकमें भी रोग-व्याधिका भय नहीं होता, फिर परलोकमें तो हो ही 
कैसे सकता है? ।। २६ ।। 

धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्य॑ं स्वर्ग्य तथैव च । 

कृष्णद्वैपायनेनेदं कृतं पुण्यचिकीर्षुणा || २७ ।। 

कीर्ति प्रथणता लोके पाण्डवानां महात्मनाम्‌ | 

अन्‍्येषां क्षत्रियाणां च भूरिद्रविणतेजसाम्‌ ।। २८ ।। 

सर्वविद्यावदातानां लोके प्रथितकर्मणाम्‌ | 

य इदं मानवो लोके पुण्यार्थे ब्राह्मणाउछुचीन्‌ ।। २९ ।। 

श्रावयेत महापुण्यं तस्य धर्म: सनातन: । 

कुरूणां प्रथितं वंशं कीर्तयन्‌ सततं शुचि: ।॥ ३० ।। 

लोकमें जिनके महान्‌ कर्म विख्यात हैं, जो सम्पूर्ण विद्याओंके ज्ञानद्वारा उद्धासित होते 
थे और जिनके धन एवं तेज महान्‌ थे, ऐसे महामना पाण्डवों तथा अन्य क्षत्रियोंकी 
उज्ज्वल कीर्तिको लोकमें फैलानेवाले और पुण्यकर्मके इच्छुक श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यासने 
इस पुण्यमय महाभारत ग्रन्थका निर्माण किया है। यह धन, यश, आयु, पुण्य तथा स्वर्गकी 
प्राप्ति करानेवाला है। जो मानव इस लोकमें पुण्यके लिये पवित्र ब्राह्मणोंको इस परम 


पुण्यमय ग्रन्थका श्रवण कराता है, उसे शाश्वत धर्मकी प्राप्ति होती है। जो सदा कौरवोंके 
इस विख्यात वंशका कीर्तन करता है, वह पवित्र हो जाता है । २७--३० ।। 

वंशमाप्रोति विपुलं लोके पूज्यतमो भवेत्‌ । 

यो<थीते भारतं पुण्यं ब्राह्मणो नियतव्रत: ।। ३१ ।। 

चतुरो वार्षिकान्‌ मासान्‌ सर्वपापै: प्रमुच्यते । 

विज्ञेय:ः स च वेदानां पारगो भारतं पठन्‌ ॥। ३२ ।। 

इसके सिवा, उसे विपुल वंशकी प्राप्ति होती है और वह लोकमें अत्यन्त पूजनीय होता 
है। जो ब्राह्मण नियमपूर्वक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए वर्षके चार महीनेतक निरन्तर 
इस पुण्यप्रद महाभारतका पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो 
महाभारतका पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण वेदोंका पारंगत विद्वान्‌ जानना 
चाहिये ।। ३१-३२ ।। 

देवा राजर्षयो ह्वात्र पुण्या ब्रह्मर्षयस्तथा । 

कीर्त्यन्ते धूतपाप्मान: कीर्त्यते केशवस्तथा ।। ३३ ।। 

इसमें देवताओं, राजर्षियों तथा पुण्यात्मा ब्रह्मर्षियोंके, जिन्होंने अपने सब पाप धो दिये 
हैं, चरित्रका वर्णन किया गया है। इसके सिवा इस ग्रन्थमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी महिमाका 
भी कीर्तन किया जाता है ।। ३३ ।। 

भगवांक्षापि देवेशो यत्र देवी च कीर्त्यते | 

अनेकजननो यत्र कार्तिकेयस्य सम्भव: ।। ३४ ।। 

देवेश्वर भगवान्‌ शिव और देवी पार्वतीका भी इसमें वर्णन है तथा अनेक माताओंसे 
उत्पन्न होनेवाले कार्तिकेय-जीके जन्मका प्रसंग भी इसमें कहा गया है || ३४ ।। 

ब्राह्मणानां गवां चैव माहात्म्य॑ यत्र कीर्त्यते । 

सर्वश्रुतिसमूहो5यं श्रोतव्यो धर्मबुद्धिभि: ।। ३५ ।। 

ब्राह्मणों तथा गौओंके माहात्म्यका निरूपण भी इस ग्रन्थमें किया गया है। इस प्रकार 
यह महाभारत सम्पूर्ण श्रुतियोंका समूह है। धर्मात्मा पुरुषोंको सदा इसका श्रवण करना 
चाहिये ।। ३५ ।। 

य इदं श्रावयेद्‌ विद्वान्‌ ब्राह्मणानिह पर्वसु । 

धूतपाप्मा जितस्वर्गो ब्रह्म गच्छति शाश्वतम्‌ ।। ३६ ।। 

जो विद्वान पर्वके दिन ब्राह्मणोंको इसका श्रवण कराता है, उसके सब पाप धुल जाते 
हैं और वह स्वर्गगलोकको जीतकर सनातन ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है || ३६ |। 

(यस्तु राजा शृूणोतीदमखिलाम श्लुते महीम्‌ । 

प्रसूते गर्भिणी पुत्र॑ कन्या चाशु प्रदीयते ।। 

वणिज: सिद्धयात्रा: स्युर्वीरा विजयमाप्नुयु: । 

आस्तिकाउलूवसयेन्नित्यं ब्राह्यगाननसूयकान्‌ ।। 


वेदविद्याव्रतस्नातान्‌ क्षत्रियाउ्जयमास्थितान्‌ । 

स्वधर्मनित्यान्‌ वैश्यांश्व श्रावयेत्‌ क्षत्रसंश्रितान्‌ ।।) 

जो राजा इस महाभारतको सुनता है, वह सारी पृथ्वीके राज्यका उपभोग करता है। 
गर्भवती स्त्री इसका श्रवण करे तो वह पुत्रको जन्म देती है। कुमारी कन्या इसे सुने तो 
उसका शीघ्र विवाह हो जाता है। व्यापारी वैश्य यदि महाभारत श्रवण करें तो उनकी 
व्यापारके लिये की हुई यात्रा सफल होती है। शूरवीर सैनिक इसे सुननेसे युद्धमें विजय पाते 
हैं। जो आस्तिक और दोषदृष्टिसे रहित हों, उन ब्राह्मणोंको नित्य इसका श्रवण कराना 
चाहिये। वेद-विद्याका अध्ययन एवं ब्रह्मचर्यव्रत पूर्ण करके जो स्नातक हो चुके हैं, उन 
विजयी क्षत्रियोंको और क्षत्रियोंके अधीन रहनेवाले स्वधर्म-परायण वैश्योंको भी महाभारत 
श्रवण कराना चाहिये। 

(एष धर्म: पुरा दृष्ट: सर्वधर्मेषु भारत | 

ब्राह्मणाच्छुवणं राजन्‌ विशेषेण विधीयते ।। 

भूयो वा य: पठेन्नित्यं स गच्छेत्‌ परमां गतिम्‌ । 

श्लोकं वाप्यनु गृह्नीत तथार्धश्लोकमेव वा ।। 

अपि पादं पठेन्नित्यं न च निर्भारतो भवेत्‌ ।) 

भारत! सब धर्मोमें यह महाभारत-श्रवणरूप श्रेष्ठ धर्म पूर्वकालसे ही देखा गया है। 
राजन! विशेषतः ब्राह्मणके मुखसे इसे सुननेका विधान है। जो बारम्बार अथवा प्रतिदिन 
इसका पाठ करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। प्रतिदिन चाहे एक श्लोक या आधे 
श्लोक अथवा श्लोकके एक चरणका ही पाठ कर ले, किंतु महाभारतके अध्ययनसे शून्य 
कभी नहीं रहना चाहिये। 

(इह नैकाश्रयं जन्म राजर्षीणां महात्मनाम्‌ ।। 

इह मन्त्रपदं युक्त धर्म चानेकदर्शनम्‌ । 

इह युद्धानि चित्राणि राज्ञां वृद्धिरिहैव च ।। 

ऋषीणां च कथास्तात इह गन्धर्वरक्षसाम्‌ | 

इह तत्‌ तत्‌ समासाद्य विहितो वाक्यविस्तर: ।। 

तीर्थानां नाम पुण्यानां देशानां चेह कीर्तनम्‌ । 

वनानां पर्वतानां च नदीनां सागरस्य च ।।) 

इस महाभारतमें महात्मा राजर्षियोंके विभिन्न प्रकारके जन्म-वृत्तान्तोंका वर्णन है। 
इसमें मन्त्र-पदोंका प्रयोग है। अनेक दृष्टियों (मतों)-के अनुसार धर्मके स्वरूपका विवेचन 
किया गया है। इस ग्रन्थमें विचित्र युद्धोंका वर्णन तथा राजाओंके अभ्युदयकी कथा है। 
तात! इस महाभारतमें ऋषियों तथा गन्धर्वों एवं राक्षसोंकी भी कथाएँ हैं। इसमें विभिन्न 
प्रसंगोंको लेकर विस्तारपूर्वक वाक्यरचना की गयी है। इसमें पुण्यतीर्थों, पवित्र देशों, वनों, 
पर्वतों, नदियों और समुद्रके भी माहात्म्यका प्रतिपादन किया गया है। 


(देशानां चैव पुण्यानां पुराणां चैव कीर्तनम्‌ 

उपचारस्तथैवाग्रयो वीर्यमप्पतिमानुषम्‌ ।। 

इह सत्कारयोगश्न भारते परमर्षिणा । 

रथाश्ववारणेन्द्राणां कल्पना युद्धकौशलम्‌ ।। 

वाक्यजातिरनेका च सर्वमस्मिन्‌ समर्पितम्‌ ।) 

पुण्यप्रदेशों तथा नगरोंका भी वर्णन किया गया है। श्रेष्ठ उपचार और अलौकिक 
पराक्रमका भी वर्णन है। इस महाभारतमें महर्षि व्यासने सत्कार-योग (स्वागत-सत्कारके 
विविध प्रकार)-का निरूपण किया है तथा रथसेना, अश्वसेना और गजसेनाकी व्यूहरचना 
तथा युद्धकौशलका वर्णन किया है। इसमें अनेक शैलीकी वाक्ययोजना--कथोपकथनका 
समावेश हुआ है। सारांश यह कि इस ग्रन्थमें सभी विषयोंका वर्णन है। 

श्रावयेद्‌ ब्राह्मणाञ्छाद्धे यश्चलेमं पादमन्ततः । 

अक्षय्यं तस्य तच्छाद्धमुपावर्तेत्‌ पितृनिह ।। ३७ ।। 

जो श्राद्ध करते समय अन्तमें ब्राह्मणोंको महाभारतके श्लोकका एक चतुर्थाश भी सुना 
देता है, उसका किया हुआ वह श्राद्ध अक्षय होकर पितरोंको अवश्य प्राप्त हो जाता 
है ।। ३७ |। 

अह्वा यदेन: क्रियते इन्द्रियर्मनसापि वा । 

ज्ञानादज्ञानतो वापि प्रकरोति नरश्न यत्‌ ।। ३८ ।। 

तन्महाभारताख्यान श्रुत्वैव प्रविलीयते । 

भरतानां महज्जन्म महाभारतमुच्यते ।। ३९ ।। 

दिनमें इन्द्रियों अथवा मनके द्वारा जो पाप बन जाता है अथवा मनुष्य जानकर या 
अनजानमें जो पाप कर बैठता है, वह सब महाभारतकी कथा सुनते ही नष्ट हो जाता है। 
इसमें भरतवंशियोंके महान्‌ जन्म-वृत्तान्तका वर्णन है, इसलिये इसको “महाभारत” कहते 
हैं || ३८-३९ ।। 

निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापै: प्रमुच्यते । 

भरतानां यतश्नायमितिहासो महाद्भुत: ।। ४० ।। 

महतो होनसो मर्त्यान्‌ मोचयेदनुकीर्तित: । 

त्रिभिर्वर्षलब्धकाम: कृष्णद्वैपायनो मुनि: ।। ४१ ।। 

नित्योत्थित: शुचि: शक्तो महाभारतमादित: । 

तपो नियममास्थाय कृतमेतन्महर्षिणा ।। ४२ ।। 

तस्मान्नियमसंयुक्तै: श्रोतव्य॑ ब्राह्मणैरिदम्‌ । 

कृष्णप्रोक्तामिमां पुण्यां भारतीमुत्तमां कथाम्‌ ।। ४३ ।। 

श्रावयिष्यन्ति ये विप्रा ये च श्रोष्यन्ति मानवा: । 

सर्वथा वर्तमाना वै न ते शोच्या: कृताकृतैः ॥। ४४ ।। 


जो महाभारत नामका यह निरुक्त (व्युत्पत्तियुक्त अर्थ) जानता है, वह सब पापोंसे मुक्त 
हो जाता है। यह भरतवंशी क्षत्रियोंका महान्‌ और अद्भुत इतिहास है। अतः निरन्तर पाठ 
करनेपर मनुष्योंको बड़े-से-बड़े पापसे छुड़ा देता है। शक्तिशाली आप्तकाम मुनिवर 
श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर स्नान-संध्या आदिसे शुद्ध हो आदिसे 
ही महाभारतकी रचना करते थे। महर्षिने तपस्या और नियमका आश्रय लेकर तीन वर्षोमें 
इस ग्रन्थको पूरा किया है। इसलिये ब्राह्मणोंको भी नियममें स्थित होकर ही इस कथाका 
श्रवण करना चाहिये। जो ब्राह्मण श्रीव्यासजीकी कही हुई इस पुण्यदायिनी उत्तम भारती 
कथाका श्रवण करायेंगे और जो मनुष्य इसे सुनेंगे, वे सब प्रकारकी चेष्टा करते हुए भी इस 
बातके लिये शोक करने योग्य नहीं हैं कि उन्होंने अमुक कर्म क्यों किया और अमुक कर्म 
क्यों नहीं किया || ४०--४४ ।। 

नरेण धर्मकामेन सर्व: श्रोतव्य इत्यपि । 

निखिलेनेतिहासो5यं ततः सिद्धिमवाप्रुयात्‌ ।। ४५ ।। 

धर्मकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यके द्वारा यह सारा महाभारत इतिहास पूर्णरूपसे श्रवण 
करनेयोग्य है। ऐसा करनेसे मनुष्य सिद्धिको प्राप्त कर लेता है ।। ४५ ।। 

नतां स्वर्गगतिं प्राप्य तुष्टिं प्राप्रोति मानव: । 

यां श्रुत्वैव महापुण्यमितिहासमुपा श्वुते || ४६ ।। 

इस महान्‌ पुण्यदायक इतिहासको सुननेमात्रसे ही मनुष्यको जो संतोष प्राप्त होता है, 
वह स्वर्गलोक प्राप्त कर लेनेसे भी नहीं मिलता ।। ४६ ।। 

शृण्वज्छाद्ध: पुण्यशील: श्रावयंश्वेदमद्भुतम्‌ । 

नर: फलमवाप्रोति राजसूयाश्ब॒मेधयो: ।। ४७ ।। 

जो पुण्यात्मा मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस अद्भुत इतिहासको सुनता और सुनाता है, वह 
राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञका फल पाता है ।। ४७ ।। 

यथा समुद्रो भगवान्‌ यथा मेरुमहागिरि: | 

उभौ ख्यातौ रत्ननिधी तथा भारतमुच्यते ।। ४८ ।। 

जैसे ऐश्वर्यपूर्ण समुद्र और महान्‌ पर्वत मेरु दोनों रत्नोंकी खान कहे गये हैं, वैसे ही 
महाभारत रत्नस्वरूप कथाओं और उपदेशोंका भण्डार कहा जाता है || ४८ ।। 

इदं हि वेद: समितं पवित्रमपि चोत्तमम्‌ | 

श्रव्यं श्रुतिसुखं चैव पावनं शीलवर्धनम्‌ ।। ४९ ।। 

यह महाभारत वेदोंके समान पवित्र और उत्तम है। यह सुननेयोग्य तो है ही, सुनते 
समय कानोंको सुख देनेवाला भी है। इसके श्रवणसे अन्तःकरण पवित्र होता और उत्तम 
शील-स्वभावकी वृद्धि होती है ।। ४९ ।। 

य इदं भारतं राजन्‌ वाचकाय प्रयच्छति । 

तेन सर्वा मही दत्ता भवेत्‌ सागरमेखला ।। ५० ।। 


राजन्‌! जो वाचकको यह महाभारत दान करता है, उसके द्वारा समुद्रसे घिरी हुई 
सम्पूर्ण पृथ्वीका दान सम्पन्न हो जाता है || ५० ।। 

पारिक्षितकथां दिव्यां पुण्याय विजयाय च । 

कथ्यमानां मया कृत्स्नां शृणु हर्षकरीमिमाम्‌ । ५१ ।। 

जनमेजय! मेरे द्वारा कही हुई इस आनन्ददायिनी दिव्य कथाको तुम पुण्य और 
विजयकी प्राप्तिके लिये पूर्णरूपसे सुनो || ५१ ।। 

त्रिभिववर्ष: सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनो मुनि: । 

महाभारतमाख्यानं कृतवानिदमद्धुतम्‌ ।। ५२ ।। 

प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर इस ग्रन्थका निर्माण करनेवाले महामुनि श्रीकृष्णद्वैपायनने 
महाभारत नामक इस अदभुत इतिहासको तीन वर्षोमें पूर्ण किया है || ५२ ।। 

धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ । 

यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्‌ क्वचित्‌ ।। ५३ ।। 

भरतश्रेष्ठ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके सम्बन्धमें जो बात इस ग्रन्थमें है, वही अन्यत्र 
भी है। जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है || ५३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि महाभारतप्रशंसायां 
द्विषष्टितमो5 ध्याय: ।। ६२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अंशावतरणपर्वमें महाभारतप्रशंसाविषयक 
बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ६२ ।। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ११३ श्लोक मिलाकर कुल ६४ ३ “लोक हैं) 


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त्रेषष्टितमोड्ध्याय: 


राजा उपरिचरका चरित्र तथा सत्यवती, व्यासादि प्रमुख 
पात्रोंकी संक्षिप्त जन्‍न्मकथा 


वैशम्पायन उवाच 


राजोपरिचरो नाम धर्मनित्यो महीपति: । 

बभूव मृगयां गन्तुं सदा किल धृतव्रत: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पहले उपरिचर नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये 
हैं, जो नित्य-निरन्तर धर्ममें ही लगे रहते थे। साथ ही सदा हिंसक पशुओंके शिकारके लिये 
वनमें जानेका उनका नियम था ।। १ ।। 

स चेदिविषयं रम्यं वसु: पौरवनन्दन: । 

इन्द्रोपदेशाज्जग्राह रमणीयं महीपति: ।। २ ।। 

पौरवनन्दन राजा उपरिचर वसुने इन्द्रके कहनेसे अत्यन्त रमणीय चेदिदेशका राज्य 
स्वीकार किया था || २ ॥। 

तमाश्रमे न्यस्तशस्त्र निवसन्तं तपोनिधिम्‌ । 

देवा: शक्रपुरोगा वै राजानमुपतस्थिरे ।। ३ ।। 

इन्द्रत्वमहों राजायं तपसेत्यनुचिन्त्य वै । 

त॑ सान्त्वेन नृपं साक्षात्‌ तपस: संन्यवर्तयन्‌ ।। ४ ।। 

एक समयकी बात है, राजा वसु अस्त्र-शस्त्रोंका त्याग करके आश्रममें निवास करने 
लगे। उन्होंने बड़ा भारी तप किया, जिससे वे तपोनिधि माने जाने लगे। उस समय इन्द्र 
आदि देवता यह सोचकर कि यह राजा तपसयाके द्वारा इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है, 
उनके समीप गये। देवताओंने राजाको प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें शान्तिपूर्वक समझाया और 
तपस्यासे निवृत्त कर दिया ।। ३-४ ।। 

देवा ऊचु: 

न संकीर्येत धर्मो5यं पृथिव्यां पृथिवीपते । 

त्वया हि धर्मो विधृतः कृत्स्नं धारयते जगत्‌ ।। ५ ।। 

देवता बोले--पृथ्वीपते! तुम्हें ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये जिससे इस भूमिपर 
वर्णसंकरता न फैलने पावे (तुम्हारे न रहनेसे अराजकता फैलनेका भय है, जिससे प्रजा 
स्वधर्ममें स्थित नहीं रह सकेगी। अतः तुम्हें तपस्या न करके इस वसुधाका संरक्षण करना 
चाहिये)। राजन! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित धर्म ही सम्पूर्ण जगत्‌को धारण कर रहा है ।। ५ ।। 

इन्द्र वाच 


लोके धर्म पालय त्वं नित्ययुक्तः समाहित: । 

धर्मयुक्तस्ततो लोकान्‌ पुण्यान्‌ प्राप्स्यसि शाश्वतान्‌ ।। ६ ।। 

इन्द्रने कहा--राजन्‌! तुम इस लोकमें सदा सावधान और प्रयत्नशील रहकर धर्मका 
पालन करो। धर्मयुक्त रहनेपर तुम सनातन पुण्यलोकोंको प्राप्त कर सकोगे ।। ६ ।। 

दिविष्ठस्य भुविष्ठस्त्वं सखाभूतो मम प्रिय: । 

रम्य: पृथिव्यां यो देशस्तमावस नराधिप ।। ७ ।। 

यद्यपि मैं स्वर्गमें रहता हूँ और तुम भूमिपर; तथापि आजसे तुम मेरे प्रिय सखा हो गये। 
नरेश्वर! इस पृथ्वीपर जो सबसे सुन्दर एवं रमणीय देश हो, उसीमें तुम निवास करो ।। ७ ।। 

पशव्यश्रैव पुण्यश्च प्रभूतधनधान्यवान्‌ । 

स्वारक्ष्यश्चैव सौम्यश्न भोग्यैर्भूमिगुणैर्युत: ।॥ ८ ।। 

अर्थवानेष देशो हि धनरत्नादिभिय्युत: । 

वसुपूर्णा च वसुधा वस चेदिषु चेदिप ॥। ९ ।। 

धर्मशीला जनपदा: सुसंतोषाश्न साधव: । 

न च मिथ्याप्रलापो>त्र स्वैरेष्वपि कुतोडन्यथा ।। १० ।। 

न च पित्रा विभज्यन्ते पुत्रा गुरुहिते रता: । 

युज्जते धुरि नो गाश्न कृशान्‌ संधुक्षयन्ति च ।। ११ ।। 

सर्वे वर्णा: स्वधर्मस्था: सदा चेदिषु मानद । 

न ते>स्त्यविदितं किंचित्‌ त्रिषु लोकेषु यद्‌ भवेत्‌ ।। १२ ।। 

इस समय चेदिदेश पशुओंके लिये हितकर, पुण्यजनक, प्रचुर धन-धान्यसे सम्पन्न, 
स्वर्गके समान सुखद होनेके कारण रक्षणीय, सौम्य तथा भोग्य पदार्थों और भूमिसम्बन्धी 
उत्तम गुणोंसे युक्त है। यह देश अनेक पदार्थोंसे युक्त और धन-रत्न आदिसे सम्पन्न है। 
यहाँकी वसुधा वास्तवमें वसु (धन-सम्पत्ति)-से भरी-पूरी है। अतः तुम चेदिदेशके पालक 
होकर उसीमें निवास करो। यहाँके जनपद धर्मशील, संतोषी और साधु हैं। यहाँ हास- 
परिहासमें भी कोई झूठ नहीं बोलता, फिर अन्य अवसरोंपर तो बोल ही कैसे सकता है। पुत्र 
सदा गुरुजनोंके हितमें लगे रहते हैं, पिता अपने जीते-जी उनका बाँटवारा नहीं करते। यहाँके 
लोग बैलोंको भार ढोनेमें नहीं लगाते और दीनों एवं अनाथोंका पोषण करते हैं। मानद! 
चेदिदेशमें सब वर्णोंके लोग सदा अपने-अपने धर्ममें स्थित रहते हैं। तीनों लोकोंमें जो कोई 
घटना होगी, वह सब यहाँ रहते हुए भी तुमसे छिपी न रहेगी--तुम सर्वज्ञ बने रहोगे || ८-- 
१२ || 

देवोपभोग्यं दिव्यं त्वामाकाशे स्फाटिक॑ महत्‌ । 

आकाशांगं त्वां मद्दत्तं विमानमुपपत्स्यते || १३ ।। 

जो देवताओंके उपभोगमें आने योग्य है, ऐसा स्फटिक मणिका बना हुआ एक दिव्य, 
आकाशचारी एवं विशाल विमान मैंने तुम्हें भेंट किया है। वह आकाशमें तुम्हारी सेवाके लिये 


सदा उपस्थित रहेगा ।। १३ ।। 

त्वमेकः सर्वमर्त्येषु विमानवरमास्थित: । 

चरिष्यस्युपरिस्थो हि देवो विग्रहवानिव ।। १४ ।। 

सम्पूर्ण मनुष्योंमें एक तुम्हीं इस श्रेष्ठ विमानपर बैठकर मूर्तिमान्‌ देवताकी भाँति सबके 
ऊपर-ऊपर विचरोगे ।। १४ ।। 

ददामि ते वैजयन्तीं मालामम्लानपंकजाम्‌ । 

धारयिष्यति संग्रामे या त्वां शस्त्रैरविक्षतम्‌ ।। १५ ।। 

मैं तुम्हें यह वैजयन्ती माला देता हूँ, जिसमें पिरोये हुए कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं। 
इसे धारण कर लेनेपर यह माला संग्राममें तुम्हें अस्त्र-शस्त्रोंक आधातसे बचायेगी || १५ ।। 

लक्षणं चैतदेवेह भविता ते नराधिप । 

इन्द्रमालेति विख्यातं धन्यमप्रतिमं महत्‌ ।। १६ ।। 

नरेश्वर! यह माला ही इन्द्रमालाके नामसे विख्यात होकर इस जगत्में तुम्हारी पहचान 
करानेके लिये परम धन्य एवं अनुपम चिह्न होगी ।। १६ ।। 

यष्टिं च वैणवीं तस्मै ददौ वृत्रनिषूदन: । 

इष्टप्रदानमुद्दिश्य शिष्टानां प्रतिपालिनीम्‌ ।। १७ ।। 

ऐसा कहकर वृत्रासुरका नाश करनेवाले इन्द्रने राजाको प्रेमोपहारस्वरूप बाँसकी एक 
छड़ी दी, जो शिष्ट पुरुषोंकी रक्षा करनेवाली थी || १७ ।। 

तस्या: शक्रस्य पूजार्थ भूमौ भूमिपतिस्तदा । 

प्रवेशं कारयामास गते संवत्सरे तदा ।। १८ ।। 

तदनन्तर एक वर्ष बीतनेपर भूपाल वसुने इन्द्रकी पूजाके लिये उस छड़ीको भूमिमें 
गाड़ दिया ।। १८ ।। 

ततः प्रभृति चाद्यापि यष्टे: क्षितिपसत्तमै: । 

प्रवेश: क्रियते राजन्‌ यथा तेन प्रवर्तित: ।। १९ ।। 

राजन्‌! तबसे लेकर आजतक श्रेष्ठ राजाओंद्वारा छड़ी धरतीमें गाड़ी जाती है। वसुने 
जो प्रथा चला दी, वह अबतक चली आती है ।। १९ ।। 

अपरेद्युस्ततस्तस्या: क्रियते<त्युच्छूयो नृपैः । 

अलंकृताया: पिटकैर्गन्धमाल्यैश्न भूषणै: ॥। २० ।। 

माल्यदामपरिक्षिप्ता विधिवत्‌ क्रियतेडपि च । 

भगवान्‌ पूज्यते चात्र हंसरूपेण चेश्वर: ।। २१ ।। 

दूसरे दिन अर्थात्‌ नवीन संवत्सरके प्रथम दिन प्रति-पदाको वह छड़ी वहाँसे 
निकालकर बहुत ऊँचे स्थानमें रखी जाती है; फिर कपड़ेकी पेटी, चन्दन, माला और 
आभूषणोंसे उसको सजाया जाता है। उसमें विधिपूर्वक फूलोंके हार और सूत लपेटे जाते 


हैं। तत्पश्चात्‌ उसी छड़ीपर देवेश्वर भगवान्‌ इन्द्रका हंसरूपसे पूजन किया जाता 
है | २०-२१ ।। 

स्वयमेव गृहीतेन वसो: प्रीत्या महात्मन: । 

सतां पूजां महेन्द्रस्तु दृष्टवा देव: कृतां शुभाम्‌ ।। २२ ।। 

वसुना राजमुख्येन प्रीतिमानब्रवीत्‌ प्रभु: । 

ये पूजयिष्यन्ति नरा राजानश्न महं मम ।। २३ ।। 

कारयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नुटप: । 

तेषां श्रीरविजयश्रैव सराष्ट्राणां भविष्यति ।। २४ ।। 

इन्द्रने महात्मा वसुके प्रेमवश स्वयं हंसका रूप धारण करके वह पूजा ग्रहण की। 
नृपश्रेष्ठ वसुके द्वारा की हुई उस शुभ पूजाको देखकर प्रभावशाली भगवान्‌ महेन्द्र प्रसन्न हो 
गये और इस प्रकार बोले--“चेदिदेशके अधिपति उपरिचर वसु जिस प्रकार मेरी पूजा करते 
हैं, उसी तरह जो मनुष्य तथा राजा मेरी पूजा करेंगे और मेरे इस उत्सवको रचायेंगे, उनको 
और उनके समूचे राष्ट्रको लक्ष्मी एवं विजयकी प्राप्ति होगी | २२--२४ ।। 

तथा स्फीतो जनपदो मुदितश्च भविष्यति | 

एवं महात्मना तेन महेन्द्रेण नराधिप ।॥ २५ ।। 

वसु: प्रीत्या मघवता महाराजो5भिसत्कृत: । 

उत्सवं कारयिष्यन्ति सदा शक्रस्य ये नरा: ।। २६ ।। 

भूमिरत्नादिभिदनिस्तथा पूज्या भवन्ति ते । 

वरदानमहायज्ञैस्तथा शक्रोत्सवेन च ।। २७ ।। 

“इतना ही नहीं, उनका सारा जनपद ही उत्तरोत्तर उन्नतिशील और प्रसन्न होगा।' 
राजन! इस प्रकार महात्मा महेन्द्रने, जिन्हें मघवा भी कहते हैं, प्रेमपूर्वक महाराज वसुका 
भलीभाँति सत्कार किया। जो मनुष्य भूमि तथा रत्न आदिका दान करते हुए सदा देवराज 
इन्द्रका उत्सव रचायेंगे, वे इन्द्रोत्सवद्वारा इन्द्रका वरदान पाकर उसी उत्तम गतिको पा 
जायँगे, जिसे भूमिदान आदिके पुण्योंसे युक्त मानव प्राप्त करते हैं | २५--२७ ।। 

सम्पूजितो मघवता वसुश्नैदी श्वरो नृप: । 

पालयामास धर्मेण चेदिस्थ: पृथिवीमिमाम्‌ ।। २८ ।। 

इन्द्रके द्वारा उपर्युक्त रूपसे सम्मानित चेदिराज वसुने चेदिदेशमें ही रहकर इस 
पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया ।। २८ ।। 

इन्द्रप्रीत्या चेदिपतिश्नकारेन्द्रमहं वसु: । 

पुत्राश्नास्य महावीर्या: पज्चासन्नमितौजस: ।। २९ |। 

इन्द्रकी प्रसन्नताके लिये चेदिराज वसु प्रतिवर्ष इन्द्रोत्तव मनाया करते थे। उनके अनन्त 
बलशाली महापराक्रमी पाँच पुत्र थे || २९ ।। 

नानाराज्येषु च सुतान्‌ स सम्राडभ्यषेचयत्‌ । 


महारथो मागधानां विश्रुतो यो बृहद्रथ: ।॥ ३० ।। 

सम्राट्‌ वसुने विभिन्न राज्योंपर अपने पुत्रोंको अभिषिक्त कर दिया। उनमें महारथी 
बृहद्रथ मगध देशका विख्यात राजा हुआ ।। ३० ।। 

प्रत्यग्रह: कुशाम्बश्व यमाहुर्मणिवाहनम्‌ । 

मावेल्लश्न यदुश्चैव राजन्यश्वापराजित: ।। ३१ ।। 

दूसरे पुत्रका नाम प्रत्यग्रह था, तीसरा कुशाम्ब था, जिसे मणिवाहन भी कहते हैं। चौथा 
मावेलल था। पाँचवाँ राजकुमार यदु था, जो युद्धमें किसीसे पराजित नहीं होता 
था ।। ३१ |। 

एते तस्य सुता राजनू्‌ राजर्षेर्भूरितेजस: । 

न्‍्यवासयन्‌ नामभ्रि: स्वैस्ते देशांश्ष पुराणि च ।। ३२ ।। 

राजा जनमेजय! महातेजस्वी राजर्षि वसुके इन पुत्रोंने अपने-अपने नामसे देश और 
नगर बसाये ।। ३२ ।। 

वासवा: पड्च राजानः पृथग्वंशाश्व शाश्वता: | 

वसन्तमिन्द्रप्रासादे आकाशे स्फाटिके च तम्‌ ।। ३३ ।। 

उपतस्थुर्महात्मानं गन्धर्वाप्सरसो नृपम्‌ । 

राजोपरिचरेत्येवं नाम तस्याथ विश्रुतम्‌ ।। ३४ ।। 

पाँचों वसुपुत्र भिन्न-भिन्न देशोंके राजा थे और उन्होंने पृथक्‌ू-पृथक्‌ अपनी सनातन 
वंशपरम्परा चलायी। चेदिराज वसु इन्द्रके दिये हुए स्फटिक मणिमय विमानमें रहते हुए 
आकाशमें ही निवास करते थे। उस समय उन महात्मा नरेशकी सेवामें गन्धर्व और 
अप्सराएँ उपस्थित होती थीं। सदा ऊपर-ही-ऊपर चलनेके कारण उनका नाम “राजा 
उपरिचर' के रूपमें विख्यात हो गया || ३३-३४ ।। 

पुरोपवाहिनीं तस्य नदीं शुक्तिमतीं गिरि: । 

अरौत्सीच्चेतनायुक्त: कामात्‌ कोलाहल: किल ॥। ३५ ।। 

उनकी राजधानीके समीप शुक्तिमती नदी बहती थी। एक समय कोलाहल नामक 
सचेतन पर्वतने कामवश उस दिव्यरूपधारिणी नदीको रोक लिया ।। ३५ |। 

गिरिं कोलाहलं तं तु पदा वसुरताडयत्‌ । 

निश्षक्राम ततस्तेन प्रहारविवरेण सा ।। ३६ ।। 

उसके रोकनेसे नदीकी धारा रुक गयी। यह देख उपरिचर वसुने कोलाहल पर्वतपर 
अपने पैरसे प्रहार किया। प्रहार करते ही पर्वतमें दरार पड़ गयी, जिससे निकलकर वह नदी 
पहलेके समान बहने लगी ।। ३६ ।। 

तस्यां नद्यामजनयन्मिथुनं पर्वत: स्वयम्‌ । 

तस्माद्‌ विमोक्षणात्‌ प्रीता नदी राज्ञे न्‍्यवेदयत्‌ ।। ३७ ।। 


पर्वतने उस नदीके गर्भसे एक पुत्र और एक कन्या, जुड़वीं संतान उत्पन्न की थी। 
उसके अवरोधसे मुक्त करनेके कारण प्रसन्न हुई नदीने राजा उपरिचरको अपनी दोनों 
संतानें समर्पित कर दीं || ३७ ।। 

यः पुमानभवत् तत्र तं स राजर्षिसत्तम: | 

वसुर्वसुप्रदश्चक्रे सेनापतिमरिन्दम: ।। ३८ ।। 

उनमें जो पुरुष था, उसे शत्रुओंका दमन करनेवाले धनदाता राजर्षिप्रवर वसुने अपना 
सेनापति बना लिया ।। ३८ ।। 

चकार पत्नीं कन्यां तु तथा तां गिरिकां नृपः । 

वसो: पत्नी तु गिरिका कामकालं न्यवेदयत्‌ ।। ३९ ।। 

ऋतुकालमनुप्राप्ता सनाता पुंसवने शुचि: । 

तदह: पितरश्वैनमूचुर्जहि मृगानिति ।। ४० ।। 

त॑ राजसत्तमं प्रीतास्तदा मतिमतां वर | 

स पितृणां नियोगं तमनतिक्रम्य पार्थिव: ।। ४१ ।। 

चकार मृगयां कामी गिरिकामेव संस्मरन्‌ | 

अतीवरूपसम्पन्नां साक्षाच्छियमिवापराम्‌ ।। ४२ ।। 

और जो कन्या थी उसे राजाने अपनी पत्नी बना लिया। उसका नाम था गिरिका। 
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जनममेजय! एक दिन ऋतुकालको प्राप्त हो स्नानके पश्चात्‌ शुद्ध हुई 
वसुपत्नी गिरिकाने पुत्र उत्पन्न होने योग्य समयमें राजासे समागमकी इच्छा प्रकट की। उसी 
दिन पितरोंने राजाओंमें श्रेष्ठ वसुपर प्रसन्न हो उन्हें आज्ञा दी--'तुम हिंसक पशुओंका वध 
करो।' तब राजा पितरोंकी आज्ञाका उल्लंघन न करके कामनावश साक्षात्‌ दूसरी लक्ष्मीके 
समान अत्यन्त रूप और सौन्दर्यके वैभवसे सम्पन्न गिरिकाका ही चिन्तन करते हुए हिंसक 
पशुओंको मारनेके लिये वनमें गये || ३९--४२ ।। 

अशोकैश्नम्पकैश्वूतैरनेकैरतिमुक्तकै: । 

पुन्नागै: कर्णिकारैश्व वकुलैर्दिव्यपाटलै: ।। ४३ ।। 

पाटलैनरिकेलैश्व चन्दनैश्नार्जुनैस्तथा । 

एतै रम्यैर्महावक्षै: पुण्यै: स्वादुफलैर्युतम्‌ ।। ४४ ।। 

कोकिलाकुलसंनादं मत्तभ्रमरनादितम्‌ । 

वसन्तकाले तत्‌ तस्य वन चैत्ररथोपमम्‌ ।। ४५ ।। 

राजाका वह वन देवताओंके चैत्ररथ नामक वनके समान शोभा पा रहा था। वसन्तका 
समय था; अशोक, चम्पा, आम, अतिमुक्तक (माधवीलता), पुन्नाग (नागकेसर), कनेर, 
मौलसिरी, दिव्य पाटल, पाटल, नारियल, चन्दन तथा अर्जुन--से स्वादिष्ट फलोंसे युक्त, 
रमणीय तथा पवित्र महावृक्ष उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे। कोकिलाओंके कल-कूजनसे 
समस्त वन गूँज उठा था। चारों ओर मतवाले भौंरे कल-कल नाद कर रहे थे || ४३--४५ ।। 


मन्मथाभिपरीतात्मा नापश्यद्‌ गिरिकां तदा । 

अपश्यन्‌ कामसंतप्तश्नरमाणो यदृच्छया ।। ४६ ।। 

यह उद्दीपन-सामग्री पाकर राजाका हृदय कामवेदनासे पीड़ित हो उठा। उस समय 
उन्हें अपनी रानी गिरिकाका दर्शन नहीं हुआ। उसे न देखकर कामाग्निसे संतप्त हो वे 
इच्छानुसार इधर-उधर घूमने लगे ।। ४६ ।। 

पुष्पसंछन्नशाखाग्रं पललवैरुपशोभितम्‌ । 

अशोकं स्तबकैश्छन्न॑ं रमणीयमपश्यत ।। ४७ ।। 

घूमते-घूमते उन्होंने एक रमणीय अशोकका वृक्ष देखा, जो पल्‍लवोंसे सुशोभित और 
पुष्पके गुच्छोंसे आच्छादित था। उसकी शाखाओंके अग्रभाग फूलोंसे ढके हुए थे || ४७ ।। 

अधस्तात्‌ तस्य छायायां सुखासीनो नराधिप: । 

मधुगन्धैश्न संयुक्त पुष्पगन्धथमनोहरम्‌ ।। ४८ ।। 

राजा उसी वृक्षके नीचे उसकी छायामें सुखपूर्वक बैठ गये। वह वृक्ष मकरन्द और 
सुगन्धसे भरा था। फूलोंकी गन्धसे वह बरबस मनको मोह लेता था ।। ४८ ।। 

वायुना प्रेर्यमाणस्तु धूम्राय मुदमन्वगात्‌ । 

तस्य रेत: प्रचस्कन्द चरतो गहने वने ।। ४९ ।। 

उस समय कामोददीपक वायुसे प्रेरित हो राजाके मनमें रतिके लिये स्त्रीविषयक प्रीति 
उत्पन्न हुई। इस प्रकार वनमें विचरनेवाले राजा उपरिचरका वीर्य स्खलित हो गया ।। ४९ |। 

स्कन्नमात्रं च तद्‌ रेतो वृक्षपत्रेण भूमिप: । 

प्रतिजग्राह मिथ्या मे न पतेद्‌ रेत इत्युत ।। ५० ।। 

उसके स्खलित होते ही राजाने यह सोचकर कि मेरा वीर्य व्यर्थ न जाय, उसे वृक्षके 
पत्तेपर उठा लिया ।। ५० ।। 

इदं मिथ्या परिस्कन्नं रेतो मे न भवेदिति । 

ऋतुश्न तस्या: पत्न्या मे न मोघः स्यादिति प्रभु: ।। ५१ ।। 

संचिन्त्यैवं तदा राजा विचार्य च पुन: पुनः । 

अमोघत्वं च विज्ञाय रेतसो राजसत्तम: ।। ५२ ।। 

उन्होंने विचार किया, “मेरा यह स्खलित वीर्य व्यर्थ न हो, साथ ही मेरी पत्नी 
गिरिकाका ऋतुकाल भी व्यर्थ न जाय” इस प्रकार बारम्बार विचारकर राजाओंमें श्रेष्ठ वसुने 
उस वीर्यको अमोघ बनानेका ही निश्चय किया ।। ५१-५२ ।। 

शुक्रप्रस्थापने काल॑ महिष्या: प्रसमीक्ष्य वै 

अभिमन्त्रयाथ तच्छुक्रमारात्‌ तिष्ठन्तमाशुगम्‌ ।। ५३ ।। 

सूक्ष्मधर्मार्थतत्त्वज्ञो गत्वा श्येनं ततोडब्रवीत्‌ । 

मत्प्रियार्थमिदं सौम्य शुक्रे मम गृहं नय ।। ५४ ।। 

गिरिकाया: प्रयच्छाशु तस्या हागर्तवमद्य वै । 


गृहीत्वा तत्‌ तदा श्येनस्तूर्णमुत्पत्य वेगवान्‌ ।। ५५ ।। 

तदनन्तर रानीके पास अपना वीर्य भेजनेका उपयुक्त अवसर देख उन्होंने उस वीर्यको 
पुत्रोत्पत्तिकारक मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित किया। राजा वसु धर्म और अर्थके सूक्ष्मतत्त्वको 
जाननेवाले थे। उन्होंने अपने विमानके समीप ही बैठे हुए शीघ्रगामी श्येन पक्षी (बाज)-के 
पास जाकर कहा--'सौम्य! तुम मेरा प्रिय करनेके लिये यह वीर्य मेरे घर ले जाओ और 
महारानी गिरिकाको शीघ्र दे दो; क्योंकि आज ही उनका ऋतुकाल है।” बाज वह वीर्य लेकर 
बड़े वेगके साथ तुरंत वहाँसे उड़ गया || ५३--५५ ।। 

जवं परममास्थाय प्रदुद्राव विहंगम: । 

तमपश्यदथायान्तं श्येनं श्येनस्तथापर: ।। ५६ ।। 

वह आकाशबचारी पक्षी सर्वोत्तम वेगका आश्रय ले उड़ा जा रहा था, इतनेहीमें एक दूसरे 
बाजने उसे आते देखा ।। ५६ ।। 

अभ्यद्रवच्च तं सद्यो दृष्टवैवामिषशड्कया । 

तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ सम्प्रचक्रतु: ॥। ५७ ।। 

उस बाजको देखते ही उसके पास मांस होनेकी आशंकासे दूसरा बाज तत्काल उसपर 
टूट पड़ा। फिर वे दोनों पक्षी आकाशमें एक-दूसरेको चोंचोंसे मारते हुए युद्ध करने 
लगे || ५७ ।। 

युध्यतोरपतदू रेतस्तच्चापि यमुनाम्भसि । 

तत्राद्विकेति विख्याता ब्रह्मशापाद्‌ वराप्सरा: || ५८ ।। 

मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी । 

श्येनपादपरि भ्रष्ट तद्‌ वीर्यमथ वासवम्‌ ॥। ५९ ।। 

जग्राह तरसोपेत्य साद्रिका मत्स्यरूपिणी । 

कदाचिदपि मत्सीं तां बबन्धुर्मत्स्यजीविन: ।। ६० ।। 

मासे च दशमे प्राप्तेतदा भरतसत्तम । 

उज्जहुरुदरात्‌ तस्याः स्त्री पुमांसं च मानुषम्‌ ।। ६१ ।। 

उन दोनोंके युद्ध करते समय वह वीर्य यमुनाजीके जलमें गिर पड़ा। अद्रिका नामसे 
विख्यात एक सुन्दरी अप्सरा ब्रह्माजीके शापसे मछली होकर वहीं यमुनाजीके जलमें रहती 
थी। बाजके पंजेसे छूटकर गिरे हुए वसुसम्बन्धी उस वीर्यको मत्स्यरूपधारिणी अद्विकाने 
वेगपूर्वक आकर निगल लिया। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात्‌ दसवाँ मास आनेपर मत्स्यजीवी 
मल्लाहोंने उस मछलीको जालमें बाँध लिया और उसके उदरको चीरकर एक कन्या और 
एक पुरुष निकाला || ५८--६१ ।। 

आश्चर्यभूतं तद्‌ गत्वा राज्ञेडथ प्रत्यवेदयन्‌ 

काये मत्स्या इमौ राजन्‌ सम्भूतौ मानुषाविति ।। ६२ ।। 


यह आश्चर्यजनक घटना देखकर मछेरोंने राजाके पास जाकर निवेदन किया 
--“महाराज! मछलीके पेटसे ये दो मनुष्य बालक उत्पन्न हुए हैं! | ६२ ।। 

तयो: पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा । 

स मत्स्यो नाम राजासीदू धार्मिक: सत्यसंगर: || ६३ ।। 

मछेरोंकी बात सुनकर राजा उपरिचरने उस समय उन दोनों बालकोंमेंसे जो पुरुष था, 
उसे स्वयं ग्रहण कर लिया। वही मत्स्य नामक धर्मात्मा एवं सत्यप्रतिज्ञ राजा हुआ ।। ६३ ।। 

साप्सरा मुक्तशापा च क्षणेन समपद्यत । 

या पुरोक्ता भगवता तिर्यग्योनिगता शुभा ॥। ६४ ।। 

मानुषौ जनयित्वा त्वं शापमोक्षमवाप्स्यसि । 

ततः सा जनयित्वा तौ विशस्ता मत्स्यघातिना ॥। ६५ ।। 

संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च । 

सिद्धर्षिचारणपथं जगामाथ वराप्सरा: || ६६ ।। 

इधर वह शुभलक्षणा अप्सरा अद्विका क्षणभरमें शापमुक्त हो गयी। भगवान्‌ ब्रह्माजीने 
पहले ही उससे कह दिया था कि 'तिर्यगू-योनिमें पड़ी हुई तुम दो मानव-संतानोंको जन्म 
देकर शापसे छूट जाओगी।” अतः मछली मारनेवाले मललाहने जब उसे काटा तो वह 
मानव-बालकोंको जन्म देकर मछलीका रूप छोड़ दिव्य रूपको प्राप्त हो गयी। इस प्रकार 
वह सुन्दरी अप्सरा सिद्ध महर्षि और चारणोंके पथसे स्वर्गलोकमें चली गयी || ६४-- 
६६ || 

सा कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यसगन्धिनी । 

राज्ञा दत्ता च दाशाय कन्येयं ते भवत्विति ।। ६७ ।। 

उन जुड़वी संतानोंमें जो कन्या थी, मछलीकी पुत्री होनेसे उसके शरीरसे मछलीकी 
गन्ध आती थी। अतः राजाने उसे मल्‍लाहको सौंप दिया और कहा--“यह तेरी पुत्री होकर 
रहे! || ६७ ।। 

रूपसत्त्वसमायुक्ता सर्वे: समुदिता गुणै: । 

सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात्‌ ।। ६८ ।। 

आसीत्‌ सा मत्स्यगन्धैव कंचित्‌ काल शुचिस्मिता । 

शुश्रूषार्थ पितुर्नावं वाहयन्तीं जले च ताम्‌ ।। ६९ ।। 

तीर्थयात्रां परिक्रामन्नपश्यद्‌ वै पराशर: । 

अतीवरूपसम्पन्नां सिद्धानामपि काड्क्षिताम्‌ ।। ७० ।। 

वह रूप और सत्त्व (सत्य)-से संयुक्त तथा समस्त सदगुणोंसे सम्पन्न होनेके कारण 
'सत्यवती” नामसे प्रसिद्ध हुई। मछेरोंके आश्रयमें रहनेके कारण वह पवित्र मुसकानवाली 
कन्या कुछ कालतक मत्स्यगन्धा नामसे ही विख्यात रही। वह पिताकी सेवाके लिये 
यमुनाजीके जलमें नाव चलाया करती थी। एक दिन तीर्थयात्राके उद्देश्स्से सब ओर 


विचरनेवाले महर्षि पराशरने उसे देखा। वह अतिशय रूप-सौन्दर्यसे सुशोभित थी। सिद्धोंके 
हृदयमें भी उसे पानेकी अभिलाषा जाग उठती थी || ६८--७० ।। 

दृष्टवैव स च तां धीमांश्नकमे चारुहासिनीम्‌ । 

दिव्यां तां वासवीं कन्यां रम्भोरुं मुनिपुड़व: ।। ७१ |। 

उसकी हँसी बड़ी मोहक थी, उसकी जाँघें कदलीकी-सी शोभा धारण करती थीं। उस 
दिव्य वसुकुमारीको देखकर परम बुद्धिमान्‌ मुनिवर पराशरने उसके साथ समागमकी इच्छा 
प्रकट की || ७१ ।। 

संगमं मम कल्याणि कुरुष्वेत्यभ्यभाषत । 

साब्रवीत्‌ पश्य भगवन्‌ पारावारे स्थितानूषीन्‌ ।। ७२ ।। 

और कहा--'कल्याणी! मेरे साथ संगम करो।” वह बोली--“भगवन्‌! देखिये, नदीके 
आर-पार दोनों तटोंपर बहुत-से ऋषि खड़े हैं || ७२ ।। 

आवयोर्दष्टयोरेभि: कथं तु स्थात्‌ समागम: । 

एवं तयोक्तो भगवान्‌ नीहारमसूजत्‌ प्रभु: ॥। ७३ ।। 

“और हम दोनोंको देख रहे हैं। ऐसी दशामें हमारा समागम कैसे हो सकता है?” उसके 
ऐसा कहनेपर शक्तिशाली भगवान्‌ पराशरने कुहरेकी सृष्टि की || ७३ ।। 

येन देश: स सर्वस्तु तमोभूत इवाभवत्‌ । 

दृष्टवा सृष्ट तु नीहारं ततस्तं परमर्षिणा ।। ७४ ।। 

विस्मिता साभवत्‌ कन्या व्रीडिता च तपस्विनी । 

जिससे वहाँका सारा प्रदेश अन्धकारसे आच्छादित-सा हो गया। महर्षिद्वारा कुहरेकी 
सृष्टि देखकर वह तपस्विनी कन्या आश्वर्यचकित एवं लज्जित हो गयी || ७४ ३ || 

सत्यवत्युवाच 

विद्धि मां भगवन्‌ कनन्‍्यां सदा पितृवशानुगाम्‌ ।। ७५ ।। 

सत्यवतीने कहा--भगवन्‌! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं सदा अपने पिताके 
अधीन रहनेवाली कुमारी कन्या हूँ || ७५ ।। 

त्वत्संयोगाच्च दुष्येत कन्‍्याभावो ममानघ । 

कन्यात्वे दूषिते वापि कथं शक्ष्ये द्विजोत्तम ।। ७६ ।। 

गृहं गन्तुमृषे चाहं धीमन्‌ न स्थातुमुत्सहे । 

एतत्‌ संचिन्त्य भगवन्‌ विधत्स्व यदनन्तरम्‌ ।। ७७ || 

निष्पाप महर्ष!! आपके संयोगसे मेरा कनन्‍्याभाव (कुमारीपन) दूषित हो जायगा। 
द्विजश्रेष्ठ) कन्याभाव दूषित हो जानेपर मैं कैसे अपने घर जा सकती हूँ। बुद्धिमान्‌ मुनी श्वर! 
अपने कन्यापनके कलंकित हो जानेपर मैं जीवित रहना नहीं चाहती। भगवन्‌! इस बातपर 
भलीभाँति विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिये || ७६-७७ ।। 


एवमुक्तवतीं तां तु प्रीतिमानृषिसत्तम: । 

उवाच मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यसि ।। ७८ ।। 

वृणीष्व च वरं भीरु यं त्वमिच्छसि भामिनि | 

वृथा हि न प्रसादो मे भूतपूर्व: शुचिस्मिते ।। ७९ ।। 

सत्यवतीके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ पराशर प्रसन्न होकर बोले--“भीरु! मेरा प्रिय कार्य 
करके भी तुम कन्या ही रहोगी। भामिनि! तुम जो चाहो, वह मुझसे वर माँग लो। 
शुचिस्मिते! आजसे पहले कभी भी मेरा अनुग्रह व्यर्थ नहीं गया है” || ७८-७९ ।। 

एवमुक्ता वरं वव्रे गात्रसौगन्ध्यमुत्तमम्‌ । 

स चास्यै भगवान्‌ प्रादान्मनस:काडूक्षितं भुवि ।। ८० ।। 

महर्षिके ऐसा कहनेपर सत्यवतीने अपने शरीरमें उत्तम सुमन होनेका वरदान माँगा। 
भगवान्‌ पराशरने इस भूतलपर उसे वह मनोवांछित वर दे दिया ।। ८० ।। 

ततो लब्धवरा प्रीता स्त्रीभावगुण भूषिता । 

जगाम सह संसर्गमृषिणाद्भधुतकर्मणा ।। ८१ ।। 

तेन गन्धवतीत्येवं नामास्या: प्रथितं भुवि | 

तस्यास्तु योजनाद्‌ गन्धमाजिध्रन्त नरा भुवि ॥। ८२ ।। 

तस्या योजनगन्धेति ततो नामापरं स्मृतम्‌ । 

तदनन्तर वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्यवती नारीपनके समागमोचित गुण (सद्यः 
ऋतुस्नान आदि)-से विभूषित हो गयी और उसने अद्धुतकर्मा महर्षि पराशरके साथ 
समागम किया। उसके शरीरसे उत्तम गन्ध फैलनेके कारण पृथ्वीपर उसका गन्धवती नाम 
विख्यात हो गया। इस पृथ्वीपर एक योजन दूरके मनुष्य भी उसकी दिव्य सुगन्धका 
अनुभव करते थे। इस कारण उसका दूसरा नाम योजनगन्धा हो गया ।। ८१-८२ ६ ।। 

इति सत्यवती हृष्टा लब्ध्वा वरमनुत्तमम्‌ ।। ८३ ।। 

पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भ सुषाव सा । 

जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्य: स वीर्यवान्‌ ।। ८४ ।। 

इस प्रकार परम उत्तम वर पाकर हर्षोल्लाससे भरी हुई सत्यवतीने महर्षि पराशरका 
संयोग प्राप्त किया और तत्काल ही एक शिशुको जन्म दिया। यमुनाके द्वीपमें अत्यन्त 
शक्तिशाली पराशरनन्दन व्यास प्रकट हुए ।। ८३-८४ ।। 

स मातरमनुज्ञाप्य तपस्येव मनो दधे | 

स्मृतो<5हं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोडब्रवीत्‌ ।। ८५ ।। 

उन्होंने मातासे यह कहा--“आवश्यकता पड़नेपर तुम मेरा स्मरण करना। मैं अवश्य 
दर्शन दूँगा।/ इतना कहकर माताकी आज्ञा ले व्यासजीने तपस्यामें ही मन लगाया ।। ८५ ।। 

एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्‌ | 

न्यस्तो द्वीपे स यद्‌ बालस्तस्माद्‌ द्वैपायन: स्मृत: ।। ८६ ।। 


इस प्रकार महर्षि पराशरद्वारा सत्यवतीके गर्भसे द्वैपायन व्यासजीका जन्म हुआ। वे 
बाल्यावस्थामें ही यमुनाके द्वीपमें छोड़ दिये गये, इसलिये “द्वैपायन' नामसे प्रसिद्ध 
हुए || ८६ |। 

(ततः सत्यवती हृष्टा जगाम स्वं निवेशनम्‌ । 

तस्यास्त्वायोजनाद्‌ गन्धमाजिध्रन्ति नरा भुवि ।। 

दाशराजस्तु तद्गन्धमाजिप्रन्‌ प्रीतिमावहत्‌ ।) 

तदनन्तर सत्यवती प्रसन्नतापूर्वक अपने घरपर गयी। उस दिनसे भूमण्डलके मनुष्य 
एक योजन दूरसे ही उसकी दिव्य गन्धका अनुभव करने लगे। उसका पिता दाशराज भी 
उसकी गन्ध सूँघकर बहुत प्रसन्न हुआ। 

दाश उवाच 

(त्वामाहुर्मत्स्यगन्धेति कथं बाले सुगन्धता । 

अपास्य मत्स्यगन्धत्वं केन दत्ता सुगन्धता ।।) 

दाशराजने पूछा--बेटी! तेरे शरीरसे मछलीकी-सी दुर्गन्ध आनेके कारण लोग तुझे 
“मत्स्यगन्धा" कहा करते थे, फिर तुझमें यह सुगन्ध कहाँसे आ गयी? किसने यह मछलीकी 
दुर्गन्‍्ध दूर कर तेरे शरीरको सुगन्ध प्रदान की है? 

सत्यवत्युवाच 


(शक्ति: पुत्रो महाप्राज्ञ: पराशर इति स्मृत: ।। 

नावं वाहयमानाया मम दृष्टवा सुगर्हितम्‌ । 

अपास्य मत्स्यगन्धत्वं योजनाद्‌ गन्धतां ददौ ।। 

ऋषे: प्रसाद दृष्टवा तु जना: प्रीतिमुपागमन्‌ ।) 

सत्यवती बोली--पिताजी! महर्षि शक्तिके पुत्र महाज्ञानी पराशर हैं, (वे यमुनाजीके 
तटपर आये थे; उस समय) मैं नाव खे रही थी। उन्होंने मेरी दुर्गग्धताकी ओर लक्ष्य करके 
मुझपर कृपा की और मेरे शरीरसे मछलीकी गन्ध दूर करके ऐसी सुगन्ध दे दी, जो एक 
योजन दूरतक अपना प्रभाव रखती है। महर्षिका यह कृपाप्रसाद देखकर सब लोग बड़े 
प्रसन्न हुए। 

पादापसारिणं धर्म स तु विद्वान युगे युगे । 

आयु: शक्ति च मर्त्यानां युगावस्थामवेक्ष्य च ।। ८७ ।। 

ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुग्रहकाड्क्षया । 

विव्यास वेदान्‌ यस्मात्‌ स तस्माद्‌ व्यास इति स्मृत: ।। ८८ ।। 

विद्वान्‌ द्वैपायनजीने देखा कि प्रत्येक युगमें धर्मका एक-एक पाद लुप्त होता जा रहा 
है। मनुष्योंकी आयु और शक्ति क्षीण हो चली है और युगकी ऐसी दुरवस्था हो गयी है। यह 


सब देख-सुनकर उन्होंने वेद और ब्राह्मणोंपर अनुग्रह करनेकी इच्छासे वेदोंका व्यास 
(विस्तार) किया। इसलिये वे व्यास नामसे विख्यात हुए || ८७-८८ ।। 

वेदानध्यापयामास महाभारतपज्चमान्‌ | 

सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम्‌ ।। ८९ ।। 

प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशम्पायनमेव च । 

संहितास्तै: पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिता: ।। ९० ।। 

सर्वश्रेष्ठ वरदायक भगवान्‌ व्यासने चारों वेदों तथा पाँचवें वेद महाभारतका अध्ययन 
सुमन्तु, जैमिनि, पैल, अपने पुत्र शुकदेव तथा मुझ वैशम्पायनको कराया। फिर उन सबने 
पृथक्‌-पृथक्‌ महाभारतकी संहिताएँ प्रकाशित की ।। ८९-९० ।। 

तथा भीष्म: शान्तनवो गड़ायाममितद्युति: | 

वसुवीर्यात्‌ समभवन्महावीर्यो महायशा: ।। ९१ ।। 

अमिततेजस्वी शान्तनुनन्दन भीष्म आठवें वसुके अंशसे तथा गंगाजीके गर्भसे उत्पन्न 
हुए। वे महान्‌ पराक्रमी और अत्यन्त यशस्वी थे ।। ९१ ।। 

वेदार्थविच्च भगवानृषिर्विप्रो महायशा: । 

शूले प्रोत: पुराणर्षिरचौरश्लनौरशड्कया ।। ९२ ।। 

अणीमाण्डव्य इत्येवं विख्यात: स महायशा: । 

स धर्ममाहूय पुरा महर्षिरिदमुक्तवान्‌ ।। ९३ ।। 

पूर्वकालकी बात है वेदार्थोंके ज्ञाता, महान्‌ यशस्वी, पुरातन मुनि, ब्रह्मर्षि भगवान्‌ 
अणीमाण्डव्य चोर न होते हुए भी चोरके संदेहसे शूलीपर चढ़ा दिये गये। परलोकमें जानेपर 
उन महायशस्वी महर्षिने पहले धर्मको बुलाकर इस प्रकार कहा-- ।। ९२-९३ ।। 

इषीकया मया बाल्याद्‌ विद्धा होका शकुन्तिका । 

तत्‌ किल्बिषं स्मरे धर्म नान्यत्‌ पापमहं स्मरे ।। ९४ ।। 

'धर्मराज! पहले कभी मैंने बाल्यावस्थाके कारण सींकसे एक चिड़ियेके बच्चेको छेद 
दिया था। वही एक पाप मुझे याद आ रहा है। अपने दूसरे किसी पापका मुझे स्मरण नहीं 
है || ९४ || 

तन्मे सहस्रममितं कस्मान्नेहाजयत्‌ तपः । 

गरीयान्‌ ब्राह्णवध: सर्वभूतवधाद्‌ यत: ।। ९५ ।। 

“मैंने अगणित सहस्रगुना तप किया है। फिर उस तपने मेरे छोटे-से पापको क्‍यों नहीं 
नष्ट कर दिया। ब्राह्मणका वध समस्त प्राणियोंके वधसे बड़ा है ।। ९५ |। 

तस्मात्‌ त्वं किल्बिषी धर्म शूद्रयोनौ जनिष्यसि । 

तेन शापेन धर्मोडपि शूद्रयोनावजायत ।। ९६ ।। 

(तुमने मुझे शूलीपर चढ़वाकर वही पाप किया है) इसलिये तुम पापी हो। अतः 
पृथ्वीपर शूद्रकी योनिमें तुम्हें जन्म लेना पड़ेगा।/ अणीमाण्डव्यके उस शापसे धर्म भी 


शूद्रकी योनिमें उत्पन्न हुए ।। ९६ ।। 

विद्वान्‌ विदुररूपेण धार्मी तनुरकिल्बिषी । 

संजयो मुनिकल्पस्तु जज्ञे सूतो गवल्गणात्‌ ।। ९७ ।। 

पापरहित विद्वान्‌ विदुरके रूपमें धर्मराजका शरीर ही प्रकट हुआ था। उसी समय 
गवल्गणसे संजय नामक सूतका जन्म हुआ, जो मुनियोंके समान ज्ञानी और धर्मात्मा 
थे।। ९७ |। 

सूर्याच्च कुन्तिकन्याया जज्ञे कर्णो महाबल: । 

सहजं कवचं बिश्रत्‌ कुण्डलो द्योतितानन: ॥। ९८ ।। 

राजा कुन्तिभोजकी कन्या कुन्तीके गर्भसे सूर्यके अंशसे महाबली कर्णकी उत्पत्ति हुई। 
वह बालक जन्मके साथ ही कवचधारी था। उसका मुख शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए 
कुण्डलकी प्रभासे प्रकाशित होता था || ९८ ।। 

अनुग्रहार्थ लोकानां विष्णुलोकनमस्कृत: । 

वसुदेवात्‌ तु देवक्यां प्रादुर्भूतोी महायशा: ।। ९९ ।। 

उन्हीं दिनों विश्ववन्दित महायशस्वी भगवान्‌ विष्णु जगत्‌के जीवोंपर अनुग्रह करनेके 
लिये वसुदेवजीके द्वारा देवकीके गर्भसे प्रकट हुए ।। ९९ ।। 

अनादिनिधनो देव: स कर्ता जगत: प्रभु: । 

अव्यक्तमक्षरं ब्रह्म प्रधानं त्रिगुणात्मकम्‌ ।। १०० ।। 

वे भगवान्‌ आदि-अन्तसे रहित, द्युतिमान, सम्पूर्ण जगतके कर्ता तथा प्रभु हैं। उन्हींको 
अव्यक्त अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म और त्रिगुणमय प्रधान कहते हैं || १०० ।। 

आत्मानमव्ययं चैव प्रकृतिं प्रभवं प्रभुम्‌ । 

पुरुष विश्वकर्माणं सत्त्वयोगं ध्रुवाक्षरम्‌ ।। १०१ ।। 

अनन्तमचलं देवं हंसं नारायणं प्रभुम्‌ । 

धातारमजमव्यक्तं यमाहु: परमव्ययम्‌ ।। १०२ ।। 

कैवल्यं निर्गुणं विश्वमनादिमजमव्ययम्‌ | 

पुरुष: स विभु: कर्ता सर्वभूतपितामह: ।। १०३ ।। 

आत्मा, अव्यय, प्रकृति (उपादान), प्रभव (उत्पत्ति-कारण), प्रभु (अधिष्ठाता), पुरुष 
(अन्तर्यामी), विश्वकर्मा, सत्त्वगुणसे प्राप्त होने योग्य तथा प्रणवाक्षर भी वे ही हैं; उन्हींको 
अनन्त, अचल, देव, हंस, नारायण, प्रभु, धाता, अजन्मा, अव्यक्त, पर, अव्यय, कैवल्य, 
निर्मुण, विश्वरूप, अनादि, जन्मरहित और अविकारी कहा गया है। वे सर्वव्यापी, परम 
पुरुष परमात्मा, सबके कर्ता और सम्पूर्ण भूतोंके पितामह हैं || १०१--१०३ ।। 

धर्मसंवर्धनार्थाय प्रजज्ञेडन्धकवृष्णिषु । 

अस्त्रज्ञौ तु महावीर्यों सर्वशास्त्रविशारदौ || १०४ ।। 


उन्होंने ही धर्मकी वृद्धिके लिये अन्धक और वृष्णिकुलमें बलराम और श्रीकृष्णरूपमें 
अवतार लिया था। वे दोनों भाई सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता, महापराक्रमी और समस्त 
शास्त्रोंके ज्ञानमें परम प्रवीण थे || १०४ ।। 

सात्यकि: कृतवर्मा च नारायणमनुव्रतौ । 

सत्यकाद्‌ हृदिकाच्चैव जज्ञाते<स्त्रविशारदौ || १०५ || 

सत्यकसे सात्यकि और हृदिकसे कृतवर्माका जन्म हुआ था। वे दोनों अस्त्रविद्यामें 
अत्यन्त निपुण और भगवान्‌ श्रीकृष्णके अनुगामी थे || १०५ ।। 

भरद्वाजस्य च स्कन्न॑ द्रोण्यां शुक्रमवर्धत । 

महर्षेरुग्रतपसस्तस्माद्‌ द्रोणो व्यजायत ।। १०६ ।। 

एक समय उग्रतपस्वी महर्षि भरद्वाजका वीर्य किसी द्रोणी (पर्वतकी गुफा)-में स्खलित 
होकर धीरे-धीरे पुष्ट होने लगा। उसीसे द्रोणका जन्म हुआ ।। १०६ ।। 

गौतमान्मिथुनं जज्ञे शरस्तम्बाच्छरद्वत: | 

अश्वत्थाम्नश्न॒ जननी कृपश्चैव महाबल: ।। १०७ |। 

किसी समय गौतमगोत्रीय शरद्वानका वीर्य सरकंडेके समूहपर गिरा और दो भागोंमें 
बँट गया। उसीसे एक कन्या और एक पुत्रका जन्म हुआ। कन्याका नाम कृपी था, जो 
अश्वत्थामाकी जननी हुई। पुत्र महाबली कृपके नामसे विख्यात हुआ ।। १०७ ।। 

अभश्रृत्थामा ततो जज्ञे द्रोणादेव महाबल: । 

तथैव धृष्टद्युम्नोडपि साक्षादग्निसमद्युति: || १०८ ।। 

वैताने कर्मणि तत: पावकात्‌ समजायत । 

वीरो द्रोणविनाशाय धनुरादाय वीर्यवान्‌ ।। १०९ ।। 

तदनन्तर द्रोणाचार्यसे महाबली अश्वत्थामाका जन्म हुआ। इसी प्रकार यज्ञकर्मका 
अनुष्ठान होते समय प्रज्वलित अग्निसे धृष्टद्युम्नका प्रादुर्भाव हुआ, जो साक्षात्‌ अग्निदेवके 
समान तेजस्वी था। पराक्रमी वीर धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्यका विनाश करनेके लिये धनुष लेकर 
प्रकट हुआ था ।। १०८-१०९ |। 

तत्रैव वेद्यां कृष्णापि जज्ञे तेजस्विनी शुभा । 

विभ्राजमाना वपुषा बिश्रती रूपमुत्तमम्‌ ।। ११० ।। 

उसी यज्ञकी वेदीसे शुभस्वरूपा तेजस्विनी द्रौपदी उत्पन्न हुई, जो परम उत्तम रूप 
धारण करके अपने सुन्दर शरीरसे अत्यन्त शोभा पा रही थी ।। ११० ।। 

प्रह्मदशिष्यो नग्नजित्‌ सुबलश्चाभवत्‌ ततः । 

तस्य प्रजा धर्महन्त्री जज्ञे देवप्रकोपनात्‌ || १११ ।। 

गान्धारराजपुत्रो 5 भूच्छकुनि: सौबलस्तथा । 

दुर्योधनस्य जननी जज्ञातेडर्थविशारदौ ।। ११२ ।। 


प्रहादका शिष्य नग्नजित्‌ राजा सुबलके रूपमें प्रकट हुआ। देवताओंके कोपसे उसकी 
संतति (शकुनि) धर्मका नाश करनेवाली हुई। गान्धारराज सुबलका पुत्र शकुनि एवं सौबल 
नामसे विख्यात हुआ तथा उनकी पुत्री गान्धारी दुर्योधनकी माता थी। ये दोनों भाई-बहिन 
अर्थशास्त्रके ज्ञानमें निपुण थे || १११-११२ ।। 

कृष्णद्वैपायनाज्जज्ञे धृतराष्ट्रो जनेश्वर: । 

क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य पाण्डुश्वैव महाबल: ।। ११३ ।। 

धर्मार्थकुशलो धीमान्‌ मेधावी धूतकल्मष: । 

विदुर: शूद्रयोनौ तु जज्ञे द्रैपायनादपि ।। ११४ ।। 

पाण्डोस्तु जज्ञिरे पज्च पुत्रा देवसमा: पृथक्‌ । 

द्वयो: स्त्रियोर्गुणज्येष्ठस्तेषामासीद्‌ युधिष्ठिर: ।। ११५ ।। 

राजा विचित्रवीर्यकी क्षेत्रभूता अम्बिका और अम्बालिकाके गर्भसे कृष्णद्वैपायन 
व्यासद्वारा राजा धृतराष्ट्र और महाबली पाण्डुका जन्म हुआ। द्वैपायन व्याससे ही 
शूद्रजातीय स्त्रीके गर्भसे विदुरजीका भी जन्म हुआ था। वे धर्म और अर्थके ज्ञानमें निपुण, 
बुद्धिमान, मेधावी और निष्पाप थे। पाण्डुसे दो स्त्रियोंके द्वारा पृथक्‌-पृथक्‌ पाँच पुत्र उत्पन्न 
हुए, जो सब-के-सब देवताओंके समान थे। उन सबमें बड़े युधिष्ठिर थे। वे उत्तम गुणोंमें भी 
सबसे बढ़-चढ़कर थे || ११३--११५ |। 

धर्माद्‌ युधिष्ठिरो जज्ञे मारुताच्च वृकोदर: । 

इन्द्रादू धनंजय: श्रीमान्‌ सर्वशस्त्रभृतां वर: ।। ११६ ।। 

जज्ञाते रूपसम्पन्नावश्चिभ्यां च यमावपि । 

नकुल: सहदेवश्व गुरुशुश्रूषणे रतो ।। ११७ ।। 

युधिष्ठिर धर्मसे, भीमसेन वायुदेवतासे, सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीमान्‌ अर्जुन 
इन्द्रदेवसे तथा सुन्दर रूपवाले नकुल और सहदेव अभश्विनीकुमारोंसे उत्पन्न हुए थे। वे जुड़वें 
पैदा हुए थे। नकुल और सहदेव सदा गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर रहते थे ।। ११६-११७ ।। 

तथा पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमत: । 

दुर्योधनप्रभूतयो युयुत्सु: करणस्तथा ।। ११८ ।। 

परम बुद्धिमान्‌ राजा धृतराष्ट्रके दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए। इनके अतिरिक्त युयुत्सु भी 
उन्हींका पुत्र था। वह वैश्यजातीय मातासे उत्पन्न होनेके कारण “करण-” कहलाता 
था ।। ११८ || 

ततो दुःशासनश्वैव दुःसहश्लापि भारत | 

दुर्मर्षणो विकर्णश्व॒ चित्रसेनो विविंशति: ।। ११९ ।। 

जय: सत्यव्रतश्नैव पुरुमित्रश्न भारत । 

वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्नव एकादश महारथा: ।। १२० ।। 


भरतवंशी जनमेजय! धृतराष्ट्रके पुत्रोंमें दुर्योधन, दुःशासन, दुःसह, दुर्मर्षण, विकर्ण, 
चित्रसेन, विविंशति, जय, सत्यव्रत, पुरुमित्र तथा वैश्यापुत्र युयुत्सु--ये ग्यारह महारथी 
थे ।। ११९-१२० ।। 

अभिमन्यु: सुभद्रायामर्जुनादभ्यजायत । 

स्वस्त्रीयो वासुदेवस्य पौत्र: पाण्डोर्महात्मन: || १२१ ।। 

अर्जुनद्वारा सुभद्राके गर्भसे अभिमन्युका जन्म हुआ। वह महात्मा पाण्डुका पौत्र और 
भगवान्‌ श्रीकृष्णका भानजा था || १२१ || 

पाण्डवेभ्यो हि पाज्चाल्यां द्रौपद्यां पच जज्ञिरे । 

कुमारा रूपसम्पन्ना: सर्वशास्त्रविशारदा: ।। १२२ ।। 

पाण्डवोंद्वारा द्रौपदीके गर्भसे पाँच पुत्र उत्पन्न हुए थे, जो बड़े ही सुन्दर और सब 
शास्त्रोंमें निपुण थे || १२२ ।। 

प्रतिविन्ध्यो युधिष्ठिरात्‌ सुतसोमो वृकोदरात्‌ । 

अर्जुनाच्छुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलि: ।। १२३ ।। 

तथैव सहदेवाच्च श्रुतसेन: प्रतापवान्‌ | 

हिडिम्बायां च भीमेन वने जज्ञे घटोत्कच: ।। १२४ ।। 

युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसेनसे सुतसोम, अर्जुनसे श्रुतकीर्ति, नकुलसे शतानीक 
तथा सहदेवसे प्रतापी श्रुतसेनका जन्म हुआ था। भीमसेनके द्वारा हिडिम्बासे वनमें 
घटोत्कच नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ।। १२३-१२४ ।। 

शिखण्डी द्रुपदाज्जज्ञे कन्या पुत्रत्वमागता । 

यां यक्ष: पुरुषं चक्रे स्थूण: प्रियचिकीर्षया || १२५ ।। 

राजा ट्रपदसे शिखण्डी नामकी एक कन्या हुई, जो आगे चलकर पुत्ररूपमें परिणत हो 
गयी। स्थूणाकर्ण नामक यक्षने उसका प्रिय करनेकी इच्छासे उसे पुरुष बना दिया 
था ।। १२५ || 

कुरूणां विग्रहे तस्मिन्‌ समागच्छन्‌ बहून्‌ यथा । 

राज्ञां शतसहस्राणि योत्स्यमानानि संयुगे || १२६ ।। 

तेषामपरिमेयानां नामथेयानि सर्वश: । 

न शकक्‍्यानि समाख्यातुं वर्षाणामयुतैरपि । 

एते तु कीर्तिता मुख्या यैराख्यानमिदं ततम्‌ ।। १२७ ।। 

कौरवोंके उस महासमरमें युद्ध करनेके लिये राजाओंके कई लाख योद्धा आये थे। दस 
हजार वर्षोतक गिनती की जाय तो भी उन असंख्य योद्धाओंके नाम पूर्णतः नहीं बताये जा 
सकते। यहाँ कुछ मुख्य-मुख्य राजाओंके नाम बताये गये हैं, जिनके चरित्रोंसे इस 
महाभारत-कथाका विस्तार हुआ है ।। १२६-१२७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि व्यासुद्ुत्पत्तौ त्रिषष्टितमो5 ध्याय: 
॥| ६३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपव॑के अन्तर्गत अंशावतरणपर्वमें व्यास आदिकी उत्पत्तिये 
सम्बन्ध रखनेवाला तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६३ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ ६ श्लोक मिलाकर कुल १३१६ “लोक हैं) 


चतु:षष्टितमो<5 ध्याय: 


ब्राह्मणोंद्वारा क्षत्रियवंशकी उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस 
समयके धार्मिक राज्यका वर्णन; असुरोंका जन्म और 
उनके भारसे पीड़ित पृथ्वीका ब्रह्माजीकी शरणमें जाना 
तथा ब्रह्माजीका देवताओंको अपने अंशसे पृथ्वीपर जन्म 


लेनेका आदेश 
जनमेजय उवाच 
य एते कीर्तिता ब्रद्मन्‌ ये चान्ये नानुकीर्तिता: । 
सम्यक्‌ ताउ्छोतुमिच्छामि राज्ञश्चान्यानू सहस्रशः ।। १ ।। 
जनमेजय बोले--ब्रह्म! आपने यहाँ जिन राजाओंके नाम बताये हैं और जिन दूसरे 
नरेशोंके नाम यहाँ नहीं लिये हैं, उन सब सहस्रों राजाओंका मैं भलीभाँति परिचय सुनना 
चाहता हूँ ।। १ ।। 
यदर्थमिह सम्भूता देवकल्पा महारथा: । 
भुवि तन्मे महाभाग सम्यगाख्यातुमरहसि ।। २ ।। 
महाभाग! वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वीपर जिस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये उत्पन्न हुए 
थे, उसका यथावत्‌ वर्णन कीजिये ।। २ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


रहस्यं खल्विदं राजन्‌ देवानामिति न: श्रुतम्‌ । 

तत्तु ते कथयिष्यामि नमस्कृत्य स्वयम्भुवे ।। ३ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! यह देवताओंका रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है। 
स्वयम्भू ब्रह्माजीको नमस्कार करके आज उसी रहस्यका तुमसे वर्णन करूँगा ।। ३ ।। 

त्रि:सप्तकृत्व: पृथिवीं कृत्वा नि:क्षत्रियां पुरा । 

जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे || ४ ।। 

तदा निः:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति । 

ब्राह्मणान्‌ क्षत्रिया राजन्‌ सुतार्थिन्योडभिचक्रमु: ।। ५ ।। 

पूर्वकालमें जमदग्निनन्दन परशुरामने इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियरहित करके उत्तम 
पर्वत महेन्द्रपर तपस्या की थी। उस समय जब भृगुनन्दनने इस लोकको क्षत्रियशून्य कर 
दिया था, क्षत्रिय-नारियोंने पुत्रकी अभिलाषासे ब्राह्मणोंकी शरण ग्रहण की थी || ४-५ ।। 

ताभि: सह समापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता: । 


ऋतावृतौ नरव्यात्र न कामान्नानृती तथा ।॥। ६ ।। 

नररत्न! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकालमें ही उनके साथ मिलते थे; न तो 
कामवश और न बिना ऋतुकालके ही ।। ६ ।। 

तेभ्यश्न लेभिरे गर्भ क्षत्रियास्ता: सहस्रश: । 

ततः सुषुविरे राजन क्षत्रियान्‌ वीर्यवत्तरान्‌ ।। ७ ।। 

कुमारांश्व कुमारीश्व पुन: क्षत्राभिवृद्धये । 

एवं तद्‌ ब्राह्माणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि: ।। ८ ।। 

जात॑ वृद्ध च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्‌ । 

चत्वारो5पि ततो वर्णा बभूवुर््रल्मिणोत्तरा: ॥ ९ ।। 

राजन्‌! उन सहसों क्षत्राणियोंने ब्राह्मणोंसे गर्भ धारण किया और पुन: क्षत्रियकुलकी 
वृद्धिके लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों तथा कुमारियोंको जन्म दिया। इस प्रकार 
तपस्वी ब्राह्मणोंद्वारा क्षत्राणियोंके गर्भसे धर्मपूर्वक क्षत्रिय-संतानकी उत्पत्ति और वृद्धि हुई। 
वे सब संतानें दीर्घायु होती थीं। तदनन्तर जगतमें पुनः ब्राह्मणप्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित 
हुए | ७--९ || 

अभ्यगच्छन्नृतौ नारीं न कामान्नानृतो तथा । 

तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि ।। १० ।। 

ऋतौ दारांश्ष गच्छन्ति तत्‌ तथा भरतर्षभ | 

ततो<वर्धन्त धर्मेण सहस्र्शतजीविन: ।। ११ ।। 

उस समय सब लोग ऋतुकालमें ही पत्नीसमागम करते थे; केवल कामनावश या 
ऋतुकालके बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदिकी योनिमें पड़े हुए जीव भी 
ऋतुकालमें ही अपनी स्त्रियोंसे संयोग करते थे। भरतश्रेष्ठ] उस समय धर्मका आश्रय लेनेसे 
सब लोग सहस्र एवं शत वर्षोतक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते 
थे।। १०-११ || 

ता: प्रजा: पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणा: । 

आधिभिव्यचिभिश्वैव विमुक्ता: सर्वशो नरा: ।। १२ ।। 

भूपाल! उस समयकी प्रजा धर्म एवं व्रतके पालनमें तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग 
रोगों तथा मानसिक चिन्ताओंसे मुक्त रहते थे ।। १२ ।। 

अथेमां सागरापाडज़ीं गां गजेन्द्रगताखिलाम्‌ । 

अध्यतिष्ठत्‌ पुन: क्षत्रं सशैलवनपत्तनाम्‌ ।। १३ ।। 

गजराजके समान गमन करनेवाले राजा जनमेजय! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्रसे घिरी 
हुई पर्वत, वन और नगरोंसहित इस सम्पूर्ण पृथ्वीपर पुन: क्षत्रियजातिका ही अधिकार हो 
गया ।। १३ |। 

प्रशासति पुन: क्षत्रे धर्मेणेमां वसुन्धराम्‌ । 


ब्राह्म॒णाद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम्‌ ।। १४ ।। 

जब पुन: क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि 
वर्णोको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई || १४ ।। 

कामक्रोधोद्धवान्‌ दोषान्‌ निरस्य च नराधिपा: । 

धर्मेण दण्डं दण्ड्येषु प्रणयन्‍्तोडन्‍्वपालयन्‌ ।। १५ ।। 

उन दिनों राजालोग काम और क्रोधजनित दोषोंको दूर करके दण्डनीय अपराधियोंको 
धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वीका पालन करते थे ।। १५ ।। 

तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्ष: शतक्रतुः । 

स्वादु देशे च काले च वर्षेणापालयत्‌ प्रजा: || १६ ।। 

इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियोंके शासनमें सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने 
लगा। उस समय सहसनेत्रोंवाले देवराज इन्द्र समयपर वर्षा करके प्रजाओंका पालन करते 
थे।। १६ |। 

न बाल एव ग्रियते तदा कश्चिज्जनाधिप । 

न च स्त्रियं प्रजानाति कक्षिदप्राप्तयौवन: ।। १७ ।। 

राजन! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्थामें नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था 
प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुखका अनुभव नहीं करता था ।। १७ |। 

एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ । 

इयं सागरपर्यन्ता समापूर्यत मेदिनी ।। १८ ।। 

भरतश्रेष्ठ! ऐसी व्यवस्था हो जानेसे समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकालतक जीवित 
रहनेवाली प्रजाओंसे भर गयी ।। १८ ।। 

ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणै: । 

साज़्रोपनिषदान वेदान्‌ विप्राश्नाधीयते तदा ।। १९ ।। 

क्षत्रियलोग बहुत-सी दक्षिणावाले बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और 
उपनिषदोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करते थे ।। १९ ।। 

नच विक्रीणते ब्रह्म ब्राह्मणाश्न॒ तदा नूप । 

न च शूद्रसमभ्याशे वेदानुच्चारयन्त्युत ।। २० ।। 

राजन्‌! उस समय ब्राह्मण न तो वेदका विक्रय करते और न शूद्रोंके निकट वेदमन्त्रोंका 
उच्चारण ही करते थे ।। २० ।। 

कारयन्त: कृषिं गोभिस्तथा वैश्या: क्षिताविह । 

युज्जते धुरि नो गाश्न कृशाज्रांशज्षाप्पजीवयन्‌ ।। २१ ।। 

वैश्यगण बैलोंद्वारा इस पृथ्वीपर दूसरोंसे खेती कराते हुए भी स्वयं उनके कंधेपर जुआ 
नहीं रखते थे--उन्हें बोझ ढोनेमें नहीं लगाते थे और दुर्बल अंगोंवाले निकम्मे पशुओंको भी 
दाना-घास देकर उनके जीवनकी रक्षा करते थे || २१ ।। 


फेनपांश्व तथा वत्सान्‌ न दुहन्ति सम मानवा: | 

न कूटमानैर्वणिज: पाण्यं विक्रीणते तदा ।। २२ ।। 

जबतक बछड़े केवल दूधपर रहते, घास नहीं चरते, तबतक मनुष्य गौओंका दूध नहीं 
दुहते थे। व्यापारीलोग बेचने योग्य वस्तुओंका झूठे माप-तौलद्दवारा विक्रय नहीं करते 
थे ।। २२ ।। 

कर्माणि च नरव्याप्र धर्मोपेतानि मानवा: । 

धर्ममेवानुपश्यन्तश्नक्रुर्धर्मपरायणा: ।। २३ ।। 

नरश्रेष्ठ) सब मनुष्य धर्मकी ही ओर दृष्टि रखकर धर्ममें ही तत्पर हो धर्मयुक्त कर्मोंका 
ही अनुष्ठान करते थे || २३ ।। 

स्वकर्मनिरताश्नासन्‌ सर्वे वर्णा नराधिप । 

एवं तदा नरव्यात्र धर्मो न हसते क्वचित्‌ ।। २४ ।। 

राजन्‌! उस समय सब वर्णोके लोग अपने-अपने कर्मके पालनमें लगे रहते थे। नरश्रेष्ठ! 
इस प्रकार उस समय कहीं भी धर्मका हास नहीं होता था ।। २४ || 

काले गाव: प्रसूयन्ते नार्यश्व भरतर्षभ । 

भव्न्त्यृतुषु वृक्षाणां पुष्पाणि च फलानि च ।। २५ ।। 

भरतश्रेष्ठ! गौएँ तथा स्त्रियाँ भी ठीक समयपर ही संतान उत्पन्न करती थीं। ऋतु 
आनेपर ही वृक्षोंमें फूल और फल लगते थे || २५ ।। 

एवं कृतयुगे सम्यग्‌ वर्तमाने तदा नूप । 

आपूर्यत मही कृत्स्ना प्राणिभिर्बहुभिर्भूशम्‌ ।। २६ ।। 

नरेश्वर! इस तरह उस समय सब ओर सत्ययुग छा रहा था। सारी पृथ्वी नाना प्रकारके 
प्राणियोंसे खूब भरी-पूरी रहती थी ।। २६ ।। 

एवं समुदिते लोके मानुषे भरतर्षभ । 

असुरा वक्त क्षेत्रे राज्ञां तु मनुजेश्वर ।। २७ ।। 

भरतश्रेष्ठ) इस प्रकार सम्पूर्ण मानव-जगत्‌ बहुत प्रसन्न था। मनुजेश्वर! इसी समय 
असुरलोग राजपतल्नियोंके गर्भसे जन्म लेने लगे || २७ ।। 

आदित्यैहि तदा दैत्या बहुशो निर्जिता युधि । 

ऐश्वर्याद्‌ भ्रंशिता: स्वर्गात्‌ सम्बभूवु: क्षिताविह ॥। २८ ।। 

उन दिनों अदितिके पुत्रों (देवताओं)-द्वारा दैत्यगण अनेक बार युद्धमें पराजित हो चुके 
थे। स्वर्गके ऐश्वर्यसे भ्रष्ट होनेपर वे इस पृथ्वीपर ही जन्म लेने लगे || २८ ।। 

इह देवत्वमिच्छन्तो मानुषेषु मनस्विन: । 

जज्षिरे भुवि भूतेषु तेषु तेष्वसुरा विभो ॥। २९ |। 

प्रभो! यहीं रहकर देवत्व प्राप्त करनेकी इच्छासे वे मनस्वी असुर भूतलपर मनुष्यों तथा 
भिन्न-भिन्न प्राणियोंमें जन्म लेने लगे || २९ ।। 


गोष्वश्वेषु च राजेन्द्र खरोष्ट्रमहिषेषु च । 

क्रव्यात्सु चैव भूतेषु गजेषु च मृगेषु च ।। ३० ।। 

जातैरिह महीपाल जायमानैश्न तैर्मही । 

न शशाकात्मना55त्मानमियं धारयितुं धरा ॥। ३१ ।। 

राजेन्द्र! गौओं, घोड़ों, गदहों, ऊँटों, भैसों, कच्चे मांस खानेवाले पशुओं, हाथियों और 
मृगोंकी योनिमें भी यहाँ असुरोंने जन्म लिया और अभीतक वे जन्म धारण करते जा रहे थे। 
उन सबसे यह पृथ्वी इस प्रकार भर गयी कि अपने-आपको भी धारण करनेमें समर्थ न हो 
सकी || ३०-३१ ।। 

अथ जाता महीपाला: केचिद्‌ बहुमदान्विता: । 

दिते: पुत्रा दनोश्वैव तदा लोक इह च्युता: ।। ३२ ।। 

वीर्यवन्तो5वलिप्तास्ते नानारूपधरा महीम्‌ । 

इमां सागरपर्यन्तां परीयुररिमर्दना: ।। ३३ ।। 

स्वर्गसे इस लोकमें गिरे हुए तथा राजाओंके रूपमें उत्पन्न हुए कितने ही दैत्य और 
दानव अत्यन्त मदसे उन्मत्त रहते थे। वे पराक्रमी होनेके साथ ही अहंकारी भी थे। अनेक 
प्रकारके रूप धारण कर अपने शत्रुओंका मान-मर्दन करते हुए समुद्रपर्यज सारी पृथ्वीपर 
विचरते रहते थे || ३२-३३ ।। 

ब्राह्मणान्‌ क्षत्रियान्‌ वैश्याउछूद्रांश्नैवाप्पपीडयन्‌ । 

अन्यानि चैव सत्त्वानि पीडयामासुरोजसा ।। ३४ ।। 

वे ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रोंकी भी सताया करते थे। अन्यान्य जीवोंको भी 
अपने बल और पराक्रमसे पीड़ा देते थे || ३४ ।। 

त्रासयन्तो5भिनिध्नन्तः सर्वभूतगणांश्न ते । 

विचेरु: सर्वशो राजन्‌ महीं शतसहसत्रश: ।। ३५ ।। 

राजन! वे असुर लाखोंकी संख्यामें उत्पन्न हुए थे और समस्त प्राणियोंको डराते- 
धमकाते तथा उनकी हिंसा करते हुए भूमण्डलमें सब ओर घूमते रहते थे ।। ३५ ।। 

आश्रमस्थान्‌ महर्षीश्न धर्षयन्तस्ततस्तत: । 

अब्रद्याण्या वीर्यमदा मत्ता मदबलेन च ।। ३६ || 

वे वेद और ब्राह्मणके विरोधी, पराक्रमके नशेमें चूर तथा अहंकार और बलसे मतवाले 
होकर इधर-उधर आश्रमवासी महर्षियोंका भी तिरस्कार करने लगे || ३६ ।। 

एवं वीर्यबलोल्सिक्ति भूरियत्नैर्महासुरै: । 

पीड्यमाना मही राजन्‌ ब्रह्माणमुपचक्रमे ।। ३७ ।। 

राजन्‌! जब इस प्रकार बल और पराक्रमके मदसे उन्मत्त महादैत्य विशेष यत्नपूर्वक 
इस पृथ्वीको पीड़ा देने लगे, तब यह ब्रह्माजीकी शरणमें जानेको उद्यत हुई ।। ३७ ।। 

न हामी भूतसत्त्वौधा: पन्नगा: सनगां महीम्‌ | 


तदा धारयितुं शेकुः संक्रान्तां दानवैर्बलातू ।। ३८ ।। 

ततो मही महीपाल भारार्ता भयपीडिता । 

जगाम शरण देव॑ सर्वभूतपितामहम्‌ ।। ३९ ।। 

सा संवृतं महाभागैर्देवद्धिजमहर्षिभि: । 

ददर्श देवं ब्रह्माणं लोककर्तारमव्ययम्‌ ।। ४० ।। 

दानवोंने बलपूर्वक जिसपर अधिकार कर लिया था, पर्वतों और वृक्षोंसहित उस 
पृथ्वीको उस समय कच्छप और दिग्गज आदिकी संगठित शक्तियाँ तथा शेषनाग भी धारण 
करनेमें समर्थ न हो सके। महीपाल! तब असुरोंके भारसे आतुर तथा भयसे पीड़ित हुई 
पृथ्वी सम्पूर्ण भूतोंक पितामह भगवान्‌ ब्रह्माजीकी शरणमें उपस्थित हुई। ब्रह्मलोकमें 
जाकर पृथ्वीने उन लोकस्रष्टा अविनाशी देव भगवान्‌ ब्रह्माजीका दर्शन किया, जिन्हें 
महाभाग देवता, द्विज और महर्षि घेरे हुए थे || ३८--४० ।। 

गन्धर्वैरप्सतेभिश्व दैवकर्मसु निछितै: । 

वन्द्यमानं मुदोपेतैर्ववन्दे चैनमेत्य सा ।। ४१ ।। 

देवकर्ममें संलग्न रहनेवाले अप्सराएँ और गन्धर्व उन्हें प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम करते थे। 
पृथ्वीने उनके निकट जाकर प्रणाम किया ।। ४१ ।। 

अथ विज्ञापयामास भूमिस्तं शरणार्थिनी । 

संनिधौ लोकपालानां सर्वेषामेव भारत ।। ४२ ।। 

तत्‌ प्रधानात्मनस्तस्य भूमे: कृत्यं स्वयम्भुवः । 

पूर्वमेवाभवद्‌ राजन्‌ विदितं परमेछ्िन: ।। ४३ ।। 

भारत! तदनन्तर शरण चाहनेवाली भूमिने समस्त लोकपालोंके समीप अपना सारा 
दुःख ब्रह्माजीसे निवेदन किया। राजन! स्वयम्भू ब्रह्मा सबके कारणरूप हैं, अतः पृथ्वीका 
जो आवश्यक कार्य था वह उन्हें पहलेसे ही ज्ञात हो गया था || ४२-४३ ।। 

स्रष्टा हि जगत: कस्मान्न सम्बुध्येत भारत । 

ससुरासुरलोकानामशेषेण मनोगतम्‌ ।। ४४ ।। 

भारत! भला जो जगतके स्रष्टा हैं, वे देवताओं और असुरोंसहित समस्त जगत्‌का 
सम्पूर्ण मनोगत भाव क्‍यों न समझ लें ।। ४४ ।। 

तामुवाच महाराज भूमिं भूमिपति: प्रभु: । 

प्रभव: सर्वभूतानामीश: शम्भु: प्रजापति: || ४५ ।। 

महाराज! जो इस भूमिके पालक और प्रभु हैं, सबकी उत्पत्तिके कारण तथा समस्त 
प्राणियोंके अधीश्वर हैं, वे कल्याणमय प्रजापति ब्रह्माजी उस समय भूमिसे इस प्रकार 
बोले || ४५ || 


ब्रह्मोवाच 


यदर्थमभिसम्प्राप्ता मत्सकाशं वसुन्धरे । 
तदर्थ संनियोक्ष्यामि सर्वानेव दिवौकस: || ४६ ।। 
ब्रह्माजीने कहा--वसुन्धरे! तुम जिस उद्देश्यसे मेरे पास आयी हो, उसकी सिद्धिके 
लिये मैं सम्पूर्ण देवताओंको नियुक्त कर रहा हूँ ।। ४६ ।। 
वैशग्पायन उवाच 


इत्युक्त्वा स महीं देवो ब्रह्मा राजन्‌ विसृज्य च । 

आदिदेश तदा सर्वान्‌ विबुधान्‌ भूतकृत्‌ स्वयम्‌ ।। ४७ ।। 

अस्या भूमेर्निरसितुं भारं भागै: पृथक्‌ पृथक्‌ । 

अस्यामेव प्रसूयध्वं विरोधायेति चाब्रवीत्‌ ।। ४८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करनेवाले भगवान्‌ ब्रह्माजीने 
ऐसा कहकर उस समय पृथ्वीको तो विदा कर दिया और समस्त देवताओंको यह आदेश 
दिया--'देवताओ! तुम इस पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने-अपने अंशसे पृथ्वीके 
विभिन्न भागोंमें पृथक्‌ू-पृथक्‌ जन्म ग्रहण करो। वहाँ असुरोंसे विरोध करके अभीष्ट 
उद्देश्यकी सिद्धि करनी होगी” ।। ४७-४८ ।। 

तथैव स समानीय गन्धर्वाप्सरसां गणान्‌ | 

उवाच भगवान्‌ सर्वानिदं वचनमर्थवत्‌ ।। ४९ ।। 

इसी प्रकार भगवान्‌ ब्रह्माने सम्पूर्ण गन्धरवों और अप्सराओंको भी बुलाकर यह 
अर्थसाधक वचन कहा ।। ४९ || 

ब्रह्मोवाच 

स्वै: स्वैरंशै: प्रसूयध्व॑ यथेष्टं मानुषेषु च । 

अथ शक्रादय: सर्वे श्रुत्वा सुरगुरोर्वच: । 

तव्यमर्थ्य च पथ्यं च तस्य ते जगृहुस्तदा || ५० ।। 

ब्रह्माजी बोले--तुम सब लोग अपने-अपने अंशसे मनुष्योंमें इच्छानुसार जन्म ग्रहण 
करो। तदनन्तर इन्द्र आदि सब देवताओंने देवगुरु ब्रह्माजीकी सत्य, अर्थलाधक और 
हितकर बात सुनकर उस समय उसे शिरोधार्य कर लिया || ५० ।। 

अथ ते सर्वशों5शै: स्वैर्गन्तुं भूमिं कृतक्षणा: । 

नारायणममित्रघ्नं वैकुण्ठमुपचक्रमुः ।। ५१ ।। 

अब वे अपने-अपने अंशोंसे भूलोकमें सब ओर जानेका निश्चय करके शत्रुओंका नाश 
करनेवाले भगवान्‌ नारायणके समीप वैकुण्ठधाममें जानेको उद्यत हुए ।। ५१ ।। 

य:ः स चक्रगदापाणि: पीतवासा: शितिप्रभ: । 

पद्मनाभ: सुरारिघ्न: पृथुचार्वज्चितेक्षण: ।। ५२ |। 


जो अपने हाथोंमें चक्र और गदा धारण करते हैं, पीताम्बर पहनते हैं, जिनके अंगोंकी 
कान्ति श्याम रंगकी है, जिनकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव हुआ है, जो देव-शत्रुओंके 
नाशक तथा विशाल और मनोहर नेत्रोंसे युक्त हैं | ५२ ।। 

प्रजापतिपतिर्देव: सुरनाथो महाबल: । 

श्रीवत्साड्को हृषीकेश: सर्वदैवतपूजित: ।। ५३ ।। 

जो प्रजापतियोंके भी पति, दिव्यस्वरूप, देवताओंके रक्षक, महाबली, श्रीवत्सचिह्नसे 
सुशोभित, इन्द्रियोंके अधिष्ठाता तथा सम्पूर्ण देवताओंद्वारा पूजित हैं ।। ५३ ।। 

तं॑ भुवः शोधनायेन्द्र उवाच पुरुषोत्तमम्‌ । 

अंशेनावतरेत्येवं तथेत्याह च तं हरि: ।। ५४ ।। 

उन भगवान्‌ पुरुषोत्तमके पास जाकर इन्द्रने उनसे कहा--'प्रभो! आप पृथ्वीका 
शोधन (भार-हरण) करनेके लिये अपने अंशसे अवतार ग्रहण करें।” तब श्रीहरिने “तथास्तु' 
कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली || ५४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अंशावतरणपर्वणि चतु:षष्टितमो5ध्याय: ।। ६४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अंशावतरणपर्वमें चौंसठवाँ अध्याय पूरा 
हुआ ॥ ६४ ॥। 


- “वैश्यायां क्षत्रियाज्जात: करण: परिकीर्तितः ।” (वैश्य माता और क्षत्रिय पितासे उत्पन्न पुत्र 'करण' कहलाता है) इस 
धर्मशास्त्रीय वचनके अनुसार युयुत्सुकी “करण' संज्ञा बतायी गयी है। 


(सम्भवपर्व) 
पञ्चषष्टितमो < ध्याय: 


मरीचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्षकन्याओंके 
वंशका विवरण 


वैशमग्पायन उवाच 


अथ नारायणेनेन्द्रश्नबकार सह संविदम्‌ । 

अवतर्तु महीं स्वर्गादंशत: सहित: सुरै: ।। १ ।॥। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! देवताओंसहित इन्द्रने भगवान्‌ विष्णुके साथ स्वर्ग 
एवं वैकुण्ठसे पृथ्वीपर अंशत: अवतार ग्रहण करनेके सम्बन्धमें कुछ सलाह की ।। १ ।। 

आदिश्य च स्वयं शक्र: सर्वानिव दिवौकस: । 

निर्जगाम पुनस्तस्मात्‌ क्षयान्नारायणस्य ह ॥। २ ।। 

तत्पश्चात्‌ सभी देवताओंको तदनुसार कार्य करनेके लिये आदेश देकर वे भगवान्‌ 
नारायणके निवासस्थान वैकुण्ठधामसे पुन: चले आये ।। २ ।। 

ते5मरारिविनाशाय सर्वलोकहिताय च । 

अवतेरु: क्रमेणैव महीं स्वर्गाद्‌ दिवौकस: ।। ३ ।। 

तब देवतालोग सम्पूर्ण लोकोंके हित तथा राक्षसोंके विनाशके लिये स्वर्गसे पृथ्वीपर 
आकर क्रमश: अवतीर्ण होने लगे ।। ३ ।। 

ततो ब्रद्मर्षिवंशेषु पार्थिवर्षिकुलेषु च । 

जज्ञिरे राजशार्दूल यथाकामं दिवौकस: ।। ४ ।। 

नृपश्रेष्ठ) वे देवगण अपनी इच्छाके अनुसार ब्रह्मर्षियों अथवा राजर्षियोंके वंशमें उत्पन्न 
हुए | ४ ।। 

दानवान्‌ राक्षसांश्चैव गन्धर्वान्‌ पन्नगांस्तथा । 

पुरुषादानि चान्यानि जघ्नु: सत्त्वान्यनेकश: | ५ || 

दानवा राक्षसाश्रैव गन्धर्वा: पन्नगास्तथा । 

न तान्‌ बलस्थान्‌ बाल्ये5पि जघ्नुर्भरतसत्तम || ६ ।। 

वे दानव, राक्षस, दुष्ट गन्धर्व, सर्प तथा अन्यान्य मनुष्यभक्षी जीवोंका बारम्बार संहार 
करने लगे। भरतश्रेष्ठ) वे बचपनमें भी इतने बलवान्‌ थे कि दानव, राक्षस, गन्धर्व तथा सर्प 
उनका बाल बाँका तक नहीं कर पाते थे ।। ५-६ ।। 


जनमेजय उवाच 

देवदानवसड्घानां गन्धर्वाप्सरसां तथा । 

मानवानां च सर्वेषां तथा वै यक्षरक्षसाम्‌ ।। ७ ।। 

श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन सम्भवं कृत्स्नमादित: । 

प्राणिनां चैव सर्वेषां सम्भवं वक्तुमहसि ।। ८ ।। 

जनमेजय बोले--भगवन्‌! मैं देवता, दानवसमुदाय, गन्धर्व, अप्सरा, मनुष्य, यक्ष, 
राक्षस तथा सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ। आप कृपा करके 
आरम्भसे ही इन सबकी उत्पत्तिका यथावत्‌ वर्णन कीजिये ।। ७-८ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


हन्त ते कथयिष्यामि नमस्कृत्य स्वयम्भुवे । 

सुरादीनामहं सम्यग लोकानां प्रभवाप्ययम्‌ ॥। ९ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--अच्छा, मैं स्वयम्भू भगवान्‌ ब्रह्मा एवं नारायणको नमस्कार 
करके तुमसे देवता आदि सम्पूर्ण लोगोंकी उत्पत्ति और नाशका यथावत्‌ वर्णन करता 
हूँ ।। ९ |। 

ब्रह्मणो मानसा: पुत्रा विदिता: षण्महर्षय: । 

मरीचिरुत्यड्िरिसौ पुलस्त्य: पुलह: क्रतु: । १० ।। 

ब्रह्माजीके मानस पुत्र छः महर्षि विख्यात हैं--मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह 
और क्रतु ।। १० ।। 

मरीचे: कश्यप: पुत्र: कश्यपात्‌ तु इमा: प्रजा: । 

प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्त्रयोदश || ११ ।। 

मरीचिके पुत्र कश्यप थे और कश्यपसे ही ये समस्त प्रजाएँ उत्पन्न हुई हैं। (ब्रह्माजीके 
एक पुत्र दक्ष भी हैं) प्रजापति दक्षके परम सौभाग्यशालिनी तेरह कन्याएँ थीं ।। ११ ।। 

अदितिर्दितिर्दनु: काला दनायु: सिंहिका तथा । 

क्रोधा प्राधा च विश्वा च विनता कपिला मुनि: ।। १२ ।। 

कद्रश्न मनुजव्यात्र दक्षकन्यैव भारत । 

एतासां वीर्यसम्पन्नं पुत्रपौत्रमनन्‍्तकम्‌ ।। १३ ।। 

नरश्रेष्ठ! उनके नाम इस प्रकार हैं--अदिति, दिति, दनु, काला, दनायु, सिंहिका, क्रोधा 
(क्रूरा), प्राधा, विश्वा, विनता, कपिला, मुनि और कट्रू। भारत! ये सभी दक्षकी कन्याएँ हैं। 
इनके बल-पराक्रमसम्पन्न पुत्र-पौत्रोंकी संख्या अनन्त है ।। १२-१३ ।। 

अदित्यां द्वादशादित्या: सम्भूता भुवने श्वरा: । 

ये राजन्‌ नामतत्तांस्ते कीर्तयिष्यामि भारत ।। १४ ।। 


अदितिके पुत्र बारह आदित्य हुए, जो लोकेश्वर हैं। भरतवंशी नरेश! उन सबके नाम 
तुम्हें बता रहा हूँ--- || १४ ।। 

धाता मित्रो<र्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च | 

भगो विवस्वान्‌ पूषा च सविता दशमस्तथा ।। १५ ।। 

एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरुच्यते । 

जघन्यजस्तु सर्वेषामादित्यानां गुणाधिक: ।। १६ ।। 

धाता, मित्र, अर्यमा, इन्द्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्‌, पूषा, दसवें सविता, ग्यारहवें 
त्वष्टा और बारहवें विष्णु कहे जाते हैं। इन सब आदित्योंमें विष्णु छोटे हैं; किंतु गुणोंमें वे 
सबसे बढ़कर हैं ।। १५-१६ ।। 

एक एव दिते: पुत्रो हिरण्यकशिपु: स्मृतः । 

नाम्ना ख्यातास्तु तस्येमे पठ्च पुत्रा महात्मन: ।। १७ ।। 

दितिका एक ही पुत्र हिरण्यकशिपु अपने नामसे विख्यात हुआ। उस महामना दैत्यके 
पाँच पुत्र थे || १७ ।। 

प्रह्माद: पूर्वजस्तेषां संह्वादस्तदनन्तरम्‌ । 

अनुह्वादस्तृतीयो5भूत्‌ तस्माच्च शिविबाष्कलौ ।। १८ ।। 

उन पाँचोंमें प्रथणका नाम प्रहाद है। उससे छोटेको संह्ाद कहते हैं। तीसरेका नाम 
अनुह्ाद है। उसके बाद चौथे शिबि और पाँचवें बाष्कल हैं ।। १८ ।। 

प्रह्मादस्य त्रय: पुत्रा: ख्याता: सर्वत्र भारत । 

विरोचनश्न कुम्भश्न निकुम्भश्नेति भारत ।। १९ |। 

भारत! प्रह्मदके तीन पुत्र हुए, जो सर्वत्र विख्यात हैं। उनके नाम ये हैं--विरोचन, कुम्भ 
और निकुम्भ ।। १९ |। 

विरोचनस्य पुत्रो5 भूद्‌ बलिरेक: प्रतापवान्‌ | 

बलेश्व प्रथित: पुत्रो बाणो नाम महासुर: ।। २० ।। 

विरोचनके एक ही पुत्र हुआ, जो महाप्रतापी बलिके नामसे प्रसिद्ध है। बलिका 
विश्वविख्यात पुत्र बाण नामक महान्‌ असुर है || २० ।। 

रुद्रस्यानुचर: श्रीमान्‌ महाकालेति यं विदु: । 

चतुस्त्रिंशद्‌ दनो: पुत्रा: ख्याता: सर्वत्र भारत || २३१ ।। 

जिसे सब लोग भगवान्‌ शंकरके पार्षद श्रीमान्‌ महाकालके नामसे जानते हैं। भारत! 
दनुके चौंतीस पुत्र हुए, जो सर्वत्र विख्यात हैं | २१ ।। 

तेषां प्रथमजो राजा विप्रचित्तिमहायशा: । 

शम्बरो नमुचिश्वैव पुलोमा चेति विश्रुत: ।। २२ ।। 

असिलोमा च केशी च दुर्जयश्वैव दानव: । 

अयःशिरा अश्वशिरा अश्वशंकुश्न वीर्यवान्‌ ।। २३ ।। 


तथा गगनमूर्धा च वेगवान्‌ केतुमांश्न॒ सः । 

स्वर्भानुरश्वो5श्चपतिर्वृषपर्वाजकस्तथा ।। २४ ।। 

अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्न तुहुण्डश्व महाबल: । 

इषुपादेकचक्रश्न विरूपाक्षो हराहरी ।। २५ ।। 

निचन्द्रश्न निकुम्भश्न कुपट: कपटस्तथा । 

शरभ: शलभश्चैव सूर्याचन्द्रमसौ तथा । 

एते ख्याता दनोरव॑शे दानवा: परिकीर्तिता: ।। २६ ।। 

उनमें महायशस्वी राजा विप्रचित्ति सबसे बड़ा था। उसके बाद शम्बर, नमुचि, पुलोमा, 
असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरा, अश्वशिरा, पराक्रमी अश्वशंकु, गगनमूर्धा, वेगवान्‌, 
केतुमान्‌, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, वृषपर्वा, अजक, अभश्वग्रीव, सूक्ष्म, महाबली तुहुण्ड, 
इषुपाद, एकचक्र, विरूपाक्ष, हर, अहर, निचन्द्र, निकुम्भ, कुपट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य 
और चन्द्रमा हैं। ये दनुके वंशमें विख्यात दानव बताये गये हैं | २२--२६ ।। 

अन्यौ तु खलु देवानां सूर्याचन्द्रमसौ स्मृतौ । 

अन्यौ दानवमुख्यानां सूर्याचन्द्रमसौ तथा ।। २७ ।। 

देवताओंमें जो सूर्य और चन्द्रमा माने गये हैं, वे दूसरे हैं और प्रधान दानवोंमें सूर्य तथा 
चन्द्रमा दूसरे हैं || २७ ।। 

इमे च वंशा: प्रथिता: सत्त्ववन्तो महाबला: । 

दनुपुत्रा महाराज दश दानववंशजा: ।। २८ ।। 

महाराज! ये विख्यात दानववंश कहे गये हैं, जो बड़े धैर्यवान्‌ और महाबलवान्‌ हुए हैं। 
दनुके पुत्रोंमें निम्नाँकित दानवोंके दस कुल बहुत प्रसिद्ध हैं-- || २८ ।। 

एकाक्षो मृतपा वीर: प्रलम्बनरकावपि । 

वातापी शत्रुतपन: शठश्वैव महासुर: ।। २९ |। 

गविष्ठश्न॒ वनायुश्न दीर्घजिद्दश्व॒ दानव: । 

असंख्येया: स्मृतास्तेषां पुत्रा: पौत्राश्न भारत ।। ३० ।। 

एकाक्ष, वीर मृतपा, प्रलम्ब, नरक, वातापी, शत्रुतपन, महान्‌ असुर शठ, गविष्ठ, वनायु 
तथा दानव दीर्घजिह्न। भारत! इन सबके पुत्र-पौत्र असंख्य बताये गये हैं || २९-३० ।। 

सिंहिका सुषुवे पुत्र॑ राहुं चन्द्रार्कमर्टनम्‌ । 

सुचन्द्रं चन्द्रहर्तारं तथा चन्द्रप्रमर्दनम्‌ ।। ३१ ।। 

सिंहिकाने राहु नामक पुत्रको उत्पन्न किया, जो चन्द्रमा और सूर्यका मान-मर्दन 
करनेवाला है। इसके सिवा सुचन्द्र, चन्द्रहर्ता तथा चन्द्रप्रमर्दनको भी उसीने जन्म 
दिया ।। ३१ ।। 

क्रूरस्वभावं क्रूराया: पुत्रपौत्रमनन्तकम्‌ | 

गण: क्रोधवशो नाम क्रूरकर्मारिमर्दन: ।। ३२ ।। 


क्रूरा (क्रोधा)-के क्रूर स्वभाववाले असंख्य पुत्र-पौत्र उत्पन्न हुए। शत्रुओंका नाश 
करनेवाला क्रूरकर्मा क्रोधवश नामक गण भी क्रूराकी ही संतान हैं || ३२ ।। 

दनायुष: पुनः पुत्राश्नत्वारो5सुरपुड्रवा: | 

विक्षरो बलवीरौ च वृत्रश्नैव महासुर: ।। ३३ ।। 

दनायुके असुरोंमें श्रेष्ठ चार पुत्र हुए--विक्षर, बल, वीर और महान्‌ असुर वृत्र ।। ३३ || 

कालाया: प्रथिता: पुत्रा: कालकल्पा: प्रहारिण: | 

प्रविख्याता महावीर्या दानवेषु परंतपा: ।। ३४ ।। 

कालाके विख्यात पुत्र अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करनेमें कुशल और साक्षात्‌ कालके समान 
भयंकर थे। दानवोंमें उनकी बड़ी ख्याति थी। वे महान्‌ पराक्रमी और शत्रुओंको संताप 
देनेवाले थे || ३४ ।। 

विनाशनकश्ष क्रोधक्ष क्रोधहन्ता तथैव च | 

क्रोधशत्रुस्तथैवान्ये कालकेया इति श्रुता: ।। ३५ ।। 

उनके नाम इस प्रकार हैं--विनाशन, क्रोध, क्रोधहन्ता तथा क्रोधशत्रु। कालकेय नामसे 
विख्यात दूसरे-दूसरे असुर भी कालाके ही पुत्र थे || ३५ ।। 

असुराणामुपाध्याय: शुक्रस्त्वृषिसुतो 5भवत्‌ | 

ख्याताश्लोशनस: पुत्रा क्षत्वारो$सुरयाजका: ।। ३६ ।। 

असुरोंके उपाध्याय (अध्यापक एवं पुरोहित) शुक्राचार्य महर्षि भृगुके पुत्र थे। उन्हें 
उशना भी कहते हैं। उशनाके चार पुत्र हुए, जो असुरोंके पुरोहित थे || ३६ ।। 

त्वष्टाधरस्तथातन्रिक्ष द्वावन्यौ रौद्रकर्मिणौ । 

तेजसा सूर्यसंकाशा ब्रह्मलोकपरायणा: ।। ३७ ।। 

इनके अतिरिक्त त्वष्टाधर तथा अत्रि ये दो पुत्र और हुए, जो रौद्र कर्म करने और 
करानेवाले थे। उशनाके सभी पुत्र सूर्यके समान तेजस्वी तथा ब्रह्मलोकको ही परम आश्रय 
माननेवाले थे || ३७ ।। 

इत्येष वंशप्रभव: कथितस्ते तरस्विनाम्‌ | 

असुराणां सुराणां च पुराणे संश्रुतो मया ।। ३८ ।। 

राजन! मैंने पुराणमें जैसा सुन रखा है, उसके अनुसार तुमसे यह वेगशाली असुरों और 
देवताओंके वंशकी उत्पत्तिका वृत्तान्त बताया है ।। ३८ ।। 

एतेषां यदपत्यं तु न शक्‍्यं तदशेषत: । 

प्रसंख्यातुं महीपाल गुणभूतमनन्तकम्‌ ।। ३९ ।। 

तार्क्ष्यक्षारिष्टनेमिश्व॒ तथैव गरुडह़ारुणौ । 

आरुणिवररिणिश्रैव वैनतेया: प्रकीर्तिता: ।। ४० ।। 

महीपाल! इनकी जो संतानें हैं, उन सबकी पूर्णरूपसे गणना नहीं की जा सकती; 
क्योंकि वे सब अनन्त गुने हैं। ताक्ष्य, अरिष्टनेमि, गरुड, अरुण, आरुणि तथा वारुणि--ये 


विनताके पुत्र कहे गये हैं || ३९-४० ।। 

शेषो5नन्तो वासुकिश्न तक्षकश्न भुजड्भम: । 

कूर्मश्न॒ कुलिकश्नैव काद्रवेया: प्रकीर्तिता: ।। ४१ ।। 

शेष, अनन्त, वासुकि, तक्षक, कूर्म और कुलिक आदि नागगण कढ्रूके पुत्र कहलाते 
हैं ।। ४१ ।। 

भीमसेनोग्रसेनौ च सुपर्णो वरुणस्तथा । 

गोपतिर्धतराष्ट्रश्न सूर्यवर्चाश्न सप्तम: ।। ४२ ।। 

सत्यवागर्कपर्णश्व प्रयुतश्चापि विश्रुत: । 

भीमश्रित्ररथश्वैव विख्यात: सर्वविद्‌ वशी ।। ४३ ।। 

तथा शालिशिरा राजन पर्जन्यश्व चतुर्दश: । 

कलि: पञ्चदशस्तेषां नारदश्षैव षोडश: । 

इत्येते देवगन्धर्वा मौनेया: परिकीर्तिता: ।। ४४ ।॥ 

राजन! भीमसेन, उग्रसेन, सुपर्ण, वरुण, गोपति, धुृतराष्ट्र, सातवें सूर्यवर्चा, सत्यवाक्‌, 
अर्करर्ण, विख्यात प्रयुत, भीम, सर्वज्ञ और जितेन्द्रिय चित्ररथ, शालिशिरा, चौदहवें पर्जन्य, 
पंद्रहवें कलि और सोलहवें नारद--से सब देवगन्धर्व जातिवाले सोलह पुत्र मुनिके गर्भसे 
उत्पन्न कहे गये हैं || ४२--४४ ।। 

अथ प्रभूतान्यन्यानि कीर्तयिष्यामि भारत । 

अनवद्यां मनुं वंशामसुरां मार्गणप्रियाम्‌ ।। ४५ ।। 

अरूपां सुभगां भासीमिति प्राधा व्यजायत । 

सिद्धः पूर्णश्न बर्लिश्न पूर्णायुश्ष महायशा: ।। ४६ ।। 

ब्रह्मचारी रतिगुण: सुपर्णश्वेव सप्तम: । 

विश्वावसुश्च भानुश्च सुचन्द्रो दशमस्तथा ।। ४७ ।। 

इत्येते देवगन्धर्वा: प्राधेया: परिकीर्तिता: । 

इमं॑ त्वप्सरसां वंशं विदितं पुण्यलक्षणम्‌ ।। ४८ ।। 

प्राधासूत महाभागा देवी देवर्षित: पुरा । 

अलनम्बुषा मिश्रकेशी विद्युत्पर्णा तिलोत्तमा ।। ४९ ।। 

अरुणा रक्षिता चैव रम्भा तद्धन्मनोरमा | 

केशिनी च सुबाहुश्च सुरता सुरजा तथा ॥। ५० ।। 

सुप्रिया चातिबाहुश्न विख्यातौ च हाहा हूहू: । 

तुम्बुरुश्नेति चत्वार: स्मृता गन्धर्वसत्तमा: ।। ५१ ।। 

भारत! इसके अतिरिक्त अन्य बहुत-से वंशोंकी उत्पत्तिका वर्णन करता हूँ। प्राधा 
नामवाली दक्षकन्याने अनवद्या, मनु, वंशा, असुरा, मार्गणप्रिया, अरूपा, सुभगा और भासी 
इन कन्याओंको उत्पन्न किया। सिद्ध, पूर्ण, बारहि, महायशस्वी पूर्णायु, ब्रह्मचारी, रतिगुण, 


सातवें सुपर्ण, विश्वावसु, भानु और दसवें सुचन्द्र--से दस देव-गन्धर्व भी प्राधाके ही पुत्र 
बताये गये हैं। इनके सिवा महाभागा देवी प्राधाने पहले देवर्षि (कश्यप)-के समागमसे इन 
प्रसिद्ध अप्सराओंके शुभ लक्षणवाले समुदायको उत्पन्न किया था। उनके नाम ये हैं-- 
अलम्बुषा, मिश्रकेशी, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अरुणा, रक्षिता, रम्भा, मनोरमा, केशिनी, 
सुबाहु, सुरता, सुरजा और सुप्रिया। अतिबाहु, सुप्रसिद्ध हाहा और हूहू तथा तुम्बुरु--ये चार 
श्रेष्ठ गन्धर्व भी प्राधाके ही पुत्र माने गये हैं || ४५--५१ ।। 

अमृतं ब्राह्मणा गावो गन्धर्वाप्सरसस्तथा | 

अपत्यं कपिलायास्तु पुराणे परिकीर्तितम्‌ ।। ५२ ।। 

अमृत, ब्राह्मण, गौएँ, गन्धर्व तथा अप्सराएँ--ये सब पुराणमें कपिलाकी संतानें बतायी 
गयी हैं || ५२ ।। 

इति ते सर्वभूतानां सम्भव: कथितो मया । 

यथावत्‌ सम्परिख्यातो गन्धर्वाप्सरसां तथा ॥। ५३ ।। 

भुजज़ानां सुपर्णानां रुद्राणां मरुतां तथा । 

गवां च ब्राह्मणानां च श्रीमतां पुण्यकर्मणाम्‌ ।। ५४ ।। 

राजन! इस प्रकार मैंने तुम्हें सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्तिका वृत्तान्त बताया है। इसी तरह 
गन्धर्वों, अप्सराओं, नागों, सुपर्णों, रुद्रों, मरुद्गणों, गौओं तथा श्रीसम्पन्न पुण्यकर्मा 
ब्राह्मणोंके जन्मकी कथा भी भलीभाँति कही है || ५३-५४ ।। 

आयुष्यश्चैव पुण्यश्न धन्य: श्रुतिसुखावह: । 

श्रोतव्यश्वैव सततं श्राव्यश्वैवानसूयता ।। ५५ || 

यह प्रसंग आयु देनेवाला, पुण्यमय, प्रशंसनीय तथा सुननेमें सुखद है। मनुष्यको 
चाहिये कि वह दोषदृष्टि न रखकर सदा इसे सुने और सुनावे ।। ५५ ।। 

इमं तु वंशं नियमेन यः पठेत्‌ 

महात्मनां ब्राह्मणदेवसंनिधौ । 
अपत्यलाभं॑ लभते स पुष्कलं 
श्रियं यश: प्रेत्य च शो भनां गतिम्‌ ।। ५६ ।। 

जो ब्राह्मण और देवताओंके समीप महात्माओंकी इस वंशावलीका नियमपूर्वक पाठ 
करता है, वह प्रचुर संतान, सम्पत्ति और यश प्राप्त करता है तथा मृत्युके पश्चात्‌ उत्तम गति 
पाता है || ५६ |। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि आदित्यादिवंशकथने 
पज्चषष्टितमो< ध्याय: ।। ६५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें आदित्यादिवंशकथनविषयक 
पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६५ ॥। 


भीकम (2 अमान 


षट्षष्टितमो<5 ध्याय: 


महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियोंकी संतान-परम्पराका 
वर्णन 


वैशम्पायन उवाच 


ब्रह्मणो मानसा: पुत्रा विदिता: षण्महर्षय: । 

एकादश सुता: स्थाणो: ख्याता: परमतेजस: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! ब्रह्माके मानस पुत्र छः महर्षियोंके नाम 
तुम्हें ज्ञात हो चुके हैं। उनके सातवें पुत्र थे स्थाणु। स्थाणुके परम तेजस्वी ग्यारह 
पुत्र विख्यात हैं || १ ।। 

मृगव्याधश्च सर्पश्न निर्क्रतिश्न महायशा: । 

अजैकपादहिर्बुध्न्य: पिनाकी च परंतप: ॥। २ ।। 

दहनोथथेश्वरश्वैव कपाली च महाद्युति: । 

स्थाणुर्भवश्व भगवान्‌ रुद्रा एकादश स्मृता: ।। ३ ।। 

मृगव्याध, सर्प, महायशस्वी निर्क्रति, अजैकपाद, अहिर्डुध्न्य, शत्रुसंतापन 
पिनाकी, दहन, ईश्वर, परम कान्तिमान्‌ कपाली, स्थाणु और भगवान्‌ भव-ये 
ग्यारह रुद्र माने गये हैं || २-३ ।। 

मरीचिरड्रिरा अत्रि: पुलस्त्य: पुलहः क्रतुः । 

षडेते ब्रह्मण: पुत्रा वीर्यवन्तो महर्षय: ।। ४ ।। 

मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु--ये ब्रह्माजीके छः पुत्र बड़े 
शक्तिशाली महर्षि हैं || ४ ।। 

त्रयस्त्वज्धिरस: पुत्रा लोके सर्वत्र विश्लुता: । 

बृहस्पतिरुतथ्यश्न संवर्तश्व॒ धृतव्रता: ।। ५ ।। 

अत्रेस्तु बहव: पुत्रा: श्रूयन्ते मनुजाधिप । 

सर्वे वेदविद: सिद्धा: शान्तात्मानो महर्षय: ।। ६ ।। 

अंगिराके तीन पुत्र हुए, जो लोकमें सर्वत्र विख्यात हैं। उनके नाम ये हैं-- 
बृहस्पति, उतथ्य और संवर्त। ये तीनों ही उत्तम व्रत धारण करनेवाले हैं। 
मनुजेश्वर! अत्रिके बहुत-से पुत्र सुने जाते हैं। वे सब-के-सब वेदवेत्ता, सिद्ध और 
शान्तचित्त महर्षि हैं || ५-६ ।। 

राक्षसाश्च पुलस्त्यस्य वानरा: किन्नरास्तथा | 

यक्षाश्न मनुजव्यात्र पुत्रास्तस्य च धीमत: ।। ७ ।। 


नरश्रेष्ठ! बुद्धिमान्‌ पुलस्त्य मुनिके पुत्र राक्षस, वानर, किन्नर तथा यक्ष 
हैं ।। ७ ।। 

पुलहस्य सुता राजज्छरभाश्न प्रकीर्तिता: । 

सिंहा: किम्पुरुषा व्याप्रा ऋक्षा ईहामृगास्तथा ।। ८ ।। 

राजन! पुलहके शरभ, सिंह, किम्पुरुष, व्याप्र, रीछ, और ईहामृग (भेड़िया) 
जातिके पुत्र हुए ।। ८ ।। 

क्रतो: क्रतुसमा: पुत्रा: पतड़सहचारिण: । 

विश्रुतास्त्रिषु लोकेषु सत्यव्रतपरायणा: ।। ९ ।। 

क्रतु (यज्ञ)-के पुत्र क्रतुके ही समान पवित्र, तीनों लोकोंमें विख्यात, 
सत्यवादी, व्रतपरायण तथा भगवान्‌ सूर्यके आगे चलनेवाले साठ हजार 
वालखिल्य ऋषि हुए ।। ९ ।। 

दक्षस्त्वजायताड्गुष्ठाद्‌ दक्षिणाद्‌ भगवानृषि: । 

ब्रह्मण: पृथिवीपाल शान्तात्मा सुमहातपा: ।। १० ।। 

भूमिपाल! ब्रह्माजीके दाहिने अँगूठेसे महातपस्वी शान्तचित्त महर्षि भगवान्‌ 
दक्ष उत्पन्न हुए || १० ।। 

वामादजायताड्गुष्ठादू भार्या तस्य महात्मन: । 

तस्यां पञ्चाशतं कन्या: स एवाजनयन्मुनि: ।। ११ ।। 

इसी प्रकार उन महात्माके बायें अँगूठेसे उनकी पत्नीका प्रादुर्भाव हुआ। 
महर्षिने उसके गर्भसे पचास कन्याएँ उत्पन्न की ।। ११ ।। 

ता: सर्वास्त्वनवद्याड्य: कन्या: कमललोचना: । 

पुत्रिका: स्थापयामास नष्ट पुत्र: प्रजापति: ।। १२ ।। 

वे सभी कन्याएँ परम सुन्दर अंगोंवाली तथा विकसित कमलके सदृश 
विशाल लोचनोंसे सुशोभित थीं। प्रजापति दक्षके पुत्र जब नष्ट हो गये, तब 
उन्होंने अपनी उन कन्याओंको पुत्रिका बनाकर रखा (और उनका विवाह 
पुत्रिकाधर्मके अनुसार ही किया) ।। १२ ।। 

ददौ स दश धर्माय सप्तविंशतिमिन्दवे । 

दिव्येन विधिना राजन्‌ कश्यपाय त्रयोदश ।। १३ ।। 

राजन! दक्षने दस कन्याएँ धर्मको, सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको और तेरह 
कन्याएँ महर्षि कश्यपको दिव्य विधिके अनुसार समर्पित कर दीं ।। १३ ।। 

नामतो धर्मपत्न्यस्ता: कीर्त्यमाना निबोध मे । 

कीर्तिलिक्ष्मीर्धतिर्मेधा पुष्टि: श्रद्धा क्रिया तथा ।। १४ ।। 

बुद्धिर्लज्जा मतिश्वैव पत्न्यो धर्मस्य ता दश | 

द्वाराण्येतानि धर्मस्य विहितानि स्वयम्भुवा || १५ ।। 


अब मैं धर्मकी पत्नियोंके नाम बता रहा हूँ, सुनो-कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, 
मेथा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा और मति--ये धर्मकी दस पत्रियाँ हैं। 
स्वयम्भू ब्रह्माजीने इन सबको धर्मका द्वार निश्चित किया है अर्थात्‌ इनके द्वारा 
धर्ममें प्रवेश होता है । १४-१५ ।। 

सप्तविंशति: सोमस्य पत्न्यो लोकस्य विश्रुता: । 

कालस्य नयने युक्ता: सोमपत्न्य: शुचिव्रता: ।। १६ ।। 

चन्द्रमाकी सत्ताईस स्त्रियाँ समस्त लोकोंमें विख्यात हैं। वे पवित्र व्रत धारण 
करनेवाली सोमपत्नियाँ काल-विभागका ज्ञापन करनेमें नियुक्त हैं || १६ ।। 

सर्वा नक्षत्रयोगिन्यो लोकयात्राविधानतः । 

पैतामहो मुनिर्देवस्तस्य पुत्र: प्रजापति: । 

तस्याष्टौ वसव: पुत्रास्तेषां वक्ष्यामि विस्तरम्‌ ।। १७ ।। 

धरो ध्रुवश्च सोमश्न अहश्चैवानिलोडनल: । 

प्रत्यूषश्न प्रभासश्ष॒ वसवोडष्टौ प्रकीर्तिता: ।। १८ ।। 

लोक-व्यवहारका निर्वाह करनेके लिये वे सब-की-सब नक्षत्र-वाचक नामोंसे 
युक्त हैं। पितामह ब्रह्माजीके स्तनसे उत्पन्न होनेके कारण मुनिवर धर्मदेव उनके 
पुत्र माने गये हैं। प्रजापति दक्ष भी ब्रह्माजीके ही पुत्र हैं। दक्षकी कन्याओंके 
गर्भसे धर्मके आठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिन्हें वसुगण कहते हैं। अब मैं वसुओंका 
विस्तारपूर्वक परिचय देता हूँ। धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्यूष और 
प्रभास--ये आठ वसु कहे गये हैं || १७-१८ ।। 

धूम्रायास्तु धर: पुत्रो ब्रह्मुविद्यो ध्रुवस्तथा । 

चन्द्रमास्तु मनस्विन्या: श्वासाया: श्वसनस्तथा ।। १९ ।। 

रतायाश्चाप्यह: पुत्र: शाण्डिल्याश्व॒ हुताशन: । 

प्रत्यूषश्च प्रभासश्न प्रभाताया: सुतौ स्मृतो ।। २० ।। 

धर और ब्रह्नवेत्ता ध्रुव धूम्राके पुत्र हैं। चन्द्रमा मनस्विनीके और अनिल 
श्वासाके पुत्र हैं। अह रताके और अनल शाण्डिलीके पुत्र हैं तथा प्रत्यूष और 
प्रभास ये दोनों प्रभाताके पुत्र बताये गये हैं || १९-२० ।। 

धरस्य पुत्रो द्रविणो हुतहव्यवहस्तथा । 

ध्रुवस्य पुत्रो भगवान्‌ कालो लोकप्रकालन: ।। २१ ।। 

धरके दो पुत्र हुए--द्रविण तथा हुतहव्यवह। सब लोकोंको अपना ग्रास 
बनानेवाले भगवान्‌ काल ध्रुवके पुत्र हैं ।। २१ ।। 

सोमस्य तु सुतो वर्चा वर्चस्वी येन जायते । 

मनोहराया: शिशिर: प्राणोडइथ रमणस्तथा ।। २२ || 


सोमके मनोहरा नामक स्टत्रीके गर्भसे प्रथम तो वर्चा नामक पुत्र हुआ, 
जिससे लोग वर्चस्वी (तेज, कान्ति और पराक्रमसे सम्पन्न) होते हैं, फिर शिशिर, 
प्राण तथा रमण नामक पुत्र उत्पन्न हुए || २२ ।। 
अह्वः सुतस्तथा ज्योति: शम: शान्तस्तथा मुनि: । 
अग्ने: पुत्र: कुमारस्तु श्रीमाञउछरवणालय: ।। २३ ।। 
अहके चार पुत्र हुए--ज्योति, शम, शान्त तथा मुनि। अनलके पुत्र श्रीमान्‌ 
कुमार (स्कन्द) हुए, जिनका जन्मकालमें सरकंडोंके वनमें निवास था || २३ ।। 
तस्य शाखो विशाखश्न नैगमेयश्व पृष्ठज: । 
कृत्तिकाभ्युपपत्तेश्न॒ कार्तिकेय इति स्मृत: । २४ ।। 
शाख, विशाख और नैगमेय---ये तीनों कुमारके छोटे भाई हैं। छः 
कृत्तिकाओंको मातारूपमें स्वीकार कर लेनेके कारण कुमारका दूसरा नाम 
कार्तिकेय भी है || २४ ।। 
अनिलस्य शिवा भार्या तस्या: पुत्रो मनोजव: । 
अविज्ञातगतिश्चैव द्वौ पुत्रावनिलस्य तु | २५ ।। 
अनिलकी भार्याका नाम शिवा है। उसके दो पुत्र हैं--मनोजव तथा 
अविज्ञातगति। इस प्रकार अनिलके दो पुत्र कहे गये हैं | २५ ।। 
प्रत्यूषस्य विदु: पुत्रमृषिं नाम्नाथ देवलम्‌ | 
दौ पुत्रौ देवलस्यापि क्षमावन्ती मनीषिणौ | 
बृहस्पतेस्तु भगिनी वरस्त्री ब्रह्मवादिनी ।। २६ ।। 
योगसक्ता जगत्‌ कृत्स्नमसक्ता विचचार ह । 
प्रभासस्य तु भार्या सा वसूनामष्टमस्य ह ।। २७ ।। 
देवल नामक सुप्रसिद्ध मुनिको प्रत्यूषका पुत्र माना जाता है। देवलके भी दो 
पुत्र हुए। वे दोनों ही क्षमावान्‌ और मनीषी थे। बृहस्पतिकी बहिन स्त्रियोंमें श्रेष्ठ 
एवं ब्रह्मवादिनी थीं। वे योगमें तत्पर हो सम्पूर्ण जगत्‌में अनासक्त भावसे 
विचरती रहीं। वे ही वसुओंमें आठवें वसु प्रभासकी धर्मपत्नी थीं ।। २६-२७ ।। 
विश्वकर्मा महाभागो जज्ञे शिल्पप्रजापति: । 
कर्ता शिल्पसहस्राणां त्रिदशानां च वर्धिकि: ।। २८ ।। 
शिल्पकर्मके ब्रह्मा महाभाग विश्वकर्मा उन्हींसे उत्पन्न हुए हैं। वे सहस्तरों 
शिल्पोंके निर्माता तथा देवताओंके बढ़ई कहे जाते हैं || २८ ।। 
भूषणानां च सर्वेषां कर्ता शिल्पवतां वर: । 
यो दिव्यानि विमानानि त्रिदशानां चकार ह ।। २९ ।। 
वे सब प्रकारके भूषणोंको बनानेवाले और शिल्पियोंमें श्रेष्ठ हैं। उन्होंने 
देवताओंके असंख्य दिव्य विमान बनाये हैं ।। २९ ।। 


मनुष्याश्नोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मन: । 

पूजयन्ति च यं नित्यं विश्वकर्माणमव्ययम्‌ ।। ३० ।। 

मनुष्य भी महात्मा विश्वकर्माके शिल्पका आश्रय ले जीवननिर्वाह करते हैं 
और सदा उन अविनाशी विश्वकर्माकी पूजा करते रहते हैं || ३० ।। 

स्तनं तु दक्षिणं भिनत्त्वा ब्रह्मणो नरविग्रह: । 

नि:सृतो भगवान्‌ धर्म: सर्वलोकसुखावह: ।। ३१ ।। 

ब्रह्माजीके दाहिने स्तनको विदीर्ण करके मनुष्यरूपमें भगवान्‌ धर्म प्रकट 
हुए, जो सम्पूर्ण लोकोंको सुख देनेवाले हैं || ३१ ।। 

त्रयस्तस्य वरा: पुत्रा: सर्वभूतमनोहरा: । 

शम: कामश्न हर्षश्ष तेजसा लोकधारिण: || ३२ ।। 

उनके तीन श्रेष्ठ पुत्र हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके मनको हर लेते हैं। उनके नाम 
हैं--शम, काम और हर्ष। वे अपने तेजसे सम्पूर्ण जगत्‌को धारण करनेवाले 
हैं । ३२ ।। 

कामस्य तु रतिर्भार्या शमस्य प्राप्तिरड्नना | 

नन्दा तु भार्या हर्षस्थ यासु लोका: प्रतिछ्तिता: ।। ३३ ।। 

कामकी पत्नीका नाम रति है। शमकी भार्या प्राप्ति है। हर्षकी पत्नी नन्‍्दा 
है। इन्हींमें सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं || ३३ ।। 

मरीचे: कश्यप: पुत्र: कश्यपस्य सुरासुरा: । 

जज्षिरे नृपशार्दूल लोकानां प्रभवस्तु सः ।। ३४ ।। 

मरीचिके पुत्र कश्यप और कश्यपके सम्पूर्ण देवता तथा असुर उत्पन्न हुए। 
नृपश्रेष्ठ) इस प्रकार कश्यप सम्पूर्ण लोकोंके आदि कारण हैं ।। ३४ ।। 

त्वाष्टी तु सवितुर्भार्या वडवारूपधारिणी । 

असूयत महाभागा सान्तरिक्षे5श्विनावुभौ ।। ३५ ।। 

द्वादशैवादिते: पुत्रा: शक्रमुख्या नराधिप । 

तेषामवरजो विष्णुर्यत्र लोका: प्रतिष्ठिता: ।। ३६ ।। 

त्वष्टाकी पुत्री संज्ञा भगवान्‌ सूर्यकी धर्मपत्नी हैं। वे परम सौभाग्यवती हैं। 
उन्होंने अश्विनी (घोड़ी).का रूप धारण करके अन्तरिक्षमें दोनों 
अश्विनीकुमारोंको जन्म दिया। राजन्‌! अदितिके इन्द्र आदि बारह पुत्र ही हैं। 
उनमें भगवान्‌ विष्णु सबसे छोटे हैं, जिनमें ये सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित 
हैं || ३५-३६ ।। 

त्रयस्त्रिंशत इत्येते देवास्तेषामहं तव । 

अन्वयं सम्प्रवक्ष्यामि पक्षैश्ष॒ कुलतो गणान्‌ ।। ३७ ।। 


इस प्रकार आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य तथा प्रजापति और 
वषट्कार--ये तैंतीस मुख्य देवता हैं। अब मैं तुम्हें इनके पक्ष और कुल आदिके 
उल्लेखपूर्वक वंश और गण आदिका परिचय देता हूँ ।। ३७ ।। 

रुद्राणामपर: पक्ष: साध्यानां मरुतां तथा । 

वसूनां भार्गव विद्याद्‌ विश्वेदेवांस्तथैव च ।। ३८ ।। 

रुद्रोंका एक अलग पक्ष या गण है, साध्य, मरुत्‌ तथा वसुओंका भी पृथक्‌- 
पृथक्‌ गण है। इसी प्रकार भार्गव तथा विश्वेदेवणणको भी जानना 
चाहिये ।। ३८ ।। 

वैनतेयस्तु गरुडो बलवानरुणस्तथा । 

बृहस्पतिश्व भगवानादित्येष्वेव गण्यते ।। ३९ ।। 

विनतानन्दन गरुड, बलवान्‌ अरुण तथा भगवान्‌ बृहस्पतिकी गणना 
आदित्योंमें ही की जाती है ।। ३९ ।। 

अश्रिनौ गुहाकान्‌ विद्धि सर्वोषध्यस्तथा पशून्‌ | 

एते देवगणा राजन कीर्तितास्ते<नुपूर्वश: ।। ४० ।। 

अश्विनीकुमार, सर्वोषधि तथा पशु--इन सबको गुह्मकसमुदायके भीतर 
समझो। राजन! ये देवगण तुम्हें क्रमश: बताये गये हैं || ४० ।। 

यान्‌ कीर्तयित्वा मनुज: सर्वपापै: प्रमुच्यते । 

ब्रह्मणो हृदयं भित्त्वा नि:सृतो भगवान्‌ भूगु: ।। ४१ ।। 

मनुष्य इन सबका कीर्तन करके सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। भगवान्‌ भृगु 
ब्रह्माजीके हृदयका भेदन करके प्रकट हुए थे ।। ४१ ।। 

भूगो: पुत्र: कविर्विद्वाउछुक्र: कविसुतो ग्रह: । 

त्रैलोक्यप्राणयात्रार्थ वर्षावर्षे भयाभये । 

स्वयम्भुवा नियुक्त: सन्‌ भुवनं परिधावति ।। ४२ ।। 

भगुके विद्वान्‌ पुत्र कवि हुए और कविके पुत्र शुक्राचार्य हुए, जो ग्रह होकर 
तीनों लोकोंके जीवनकी रक्षाके लिये वृष्टि, अनावृष्टि तथा भय और अभय 
उत्पन्न करते हैं। स्वयम्भू ब्रह्माजीकी प्रेरणासे वे समस्त लोकोंका चक्कर लगाते 
रहते हैं ।। ४२ ।। 

योगाचार्यो महाबुद्धिर्देत्यानाम भवद्‌ गुरु: । 

सुराणां चापि मेधावी ब्रह्मबचारी यतव्रत: ।। ४३ ।। 

महाबुद्धिमान्‌ शुक्र ही योगके आचार्य और दैत्योंके गुरु हुए। वे ही योगबलसे 
मेधावी, ब्रह्मचारी एवं व्रतपरायण बृहस्पतिके रूपमें प्रकट हो देवताओंके भी 
गुरु होते हैं || ४३ ।। 

तस्मिन्‌ नियुक्ते विधिना योगक्षेमाय भार्गवे । 


अन्यमुत्पादयामास पुत्र भूगुरनिन्दितम्‌ ।। ४४ ।। 

ब्रह्माजीने जब भृगुपुत्र शुक्रको जगत्‌के योगक्षेमके कार्यमें नियुक्त कर 
दिया, तब महर्षि भृगुने एक दूसरे निर्दोष पुत्रको जन्म दिया || ४४ ।। 

च्यवनं दीप्ततपसं धर्मात्मानं यशस्विनम्‌ । 

यः स रोषाच्च्युतो गर्भान्मातुर्मोक्षाय भारत ।। ४५ ।। 

जिसका नाम था च्यवन। महर्षि च्यवनकी तपस्या सदा उद्दीप्त रहती है। वे 
धर्मात्मा और यशस्वी हैं। भारत! वे अपनी माताको संकटसे बचानेके लिये 
रोषपूर्वक गर्भसे च्युत हो गये थे (इसीलिये च्यवन कहलाये) ।। ४५ ।। 

आरुषी तु मनो: कन्या तस्य पत्नी मनीषिण: । 

और्वस्तस्यथां समभवदूरं भित्त्वा महायशा: ।। ४६ ।। 

मनुकी पुत्री आरुषी मनीषी च्यवन मुनिकी पत्नी थी। उससे महायशस्वी 
और्व मुनिका जन्म हुआ। वे अपनी माताकी ऊरु (जाँघ) फाड़कर प्रकट हुए थे; 
इसलिये और्व कहलाये ।। ४६ ।। 

महातेजा महावीरयों बाल एव गुणैर्युत: । 

ऋचीकस्तस्य पुत्रस्तु जमदग्निस्ततो5भवत्‌ ।। ४७ ।। 

वे महान्‌ तेजस्वी और अत्यन्त शक्तिशाली थे। बचपनमें ही अनेक सदगुण 
उनकी शोभा बढ़ाने लगे। और्वके पुत्र ऋचीक तथा ऋचीकके पुत्र जमदग्नि 
हुए ।। ४७ |। 

जमदम्नेस्तु चत्वार आसन पुत्रा महात्मन: । 

रामस्तेषां जघन्यो5भूदजघन्यैर्गुणैर्युत: । 

सर्वशस्त्रेषु कुशल: क्षत्रियान्तकरो वशी ।। ४८ ।। 

महात्मा जमदग्निके चार पुत्र थे, जिनमें परशुरामजी सबसे छोटे थे; किंतु 
उनके गुण छोटे नहीं थे। वे श्रेष्ठ सदगुणोंसे विभूषित थे, सम्पूर्ण शस्त्रविद्यामें 
कुशल, क्षत्रिय-कुलका संहार करनेवाले तथा जितेन्द्रिय थे || ४८ ।। 

ऑर्वस्यासीत्‌ पुत्रशतं जमदग्निपुरोगमम्‌ | 

तेषां पुत्रसहस्राणि बभूवुर्भुवि विस्तर: ।। ४९ ।। 

और्व मुनिके जमदग्नि आदि सौ पुत्र थे। फिर उनके भी सहसौं पुत्र हुए। इस 
प्रकार इस पृथ्वीपर भृगुवंशका विस्तार हुआ ।। ४९ ।। 

दौ पुत्री ब्रह्मणस्त्वन्यौ ययोस्तिष्ठति लक्षणम्‌ । 

लोके धाता विधाता च यौ स्थितौ मनुना सह ।। ५० ।। 

ब्रह्माजीके दो पुत्र और थे, जिनका धारण-पोषण और सृष्टिरूप लक्षण 
लोकमें सदा ही उपलब्ध होता है। उनके नाम हैं धाता और विधाता। ये मनुके 
साथ रहते हैं || ५० ।। 


तयोरेव स्वसा देवी लक्ष्मी: पद्मगृहा शुभा । 

तस्यास्तु मानसा: पुत्रास्तुरगा व्योमचारिण: ।। ५१ ।। 

वरुणस्य भार्या या ज्येष्ठा शुक्राद्‌ देवी व्यजायत । 

तस्या: पुत्र बल॑ विद्धि सुरां च सुरनन्दिनीम्‌ । ५२ ।। 

कमलोंमें निवास करनेवाली शुभस्वरूपा लक्ष्मीदेवी उन दोनोंकी बहिन हैं। 
आकाशमें विचरनेवाले अश्व लक्ष्मीदेवीके मानस पुत्र हैं। राजन! वरुणके बीजसे 
उनकी ज्येष्ठ पत्नी देवीने एक पुत्र और एक पुत्रीको जन्म दिया। उसके पुत्रको 
तो बल और देवनन्दिनी पुत्रीको सुरा समझो ।। ५१-५२ ।। 

प्रजानामन्नकामानामन्योन्यपरिभक्षणात्‌ | 

अधर्मस्तत्र संजात: सर्वभूतविनाशक: ।। ५३ ।। 

तदनन्तर एक समय ऐसा आया, जब प्रजा भूखसे पीड़ित हो भोजनकी 
इच्छासे एक-दूसरेको मारकर खाने लगी, उस समय वहाँ अधर्म प्रकट हुआ, जो 
समस्त प्राणियोंका नाश करनेवाला है ।। ५३ ।। 

तस्यापि निर्क्रतिर्भार्या नैर््रता येन राक्षसा: । 

घोरास्तस्यास्त्रय: पुत्रा: पापकर्मरता: सदा ।। ५४ ।। 

अधर्मकी स्त्री निर्क्रति हुई, जिससे नै#ऋत नामवाले तीन भयंकर राक्षस पुत्र 
उत्पन्न हुए, जो सदा पापकर्ममें ही लगे रहनेवाले हैं ।। ५४ ।। 

भयो महाभयश्चैव मृत्युर्भूतान्तकस्तथा । 

न तस्य भार्या पुत्रो वा कश्चिदस्त्यन्तको हि सः ।। ५५ || 

उनके नाम इस प्रकार हैं--भय, महाभय और मृत्यु। उनमें मृत्यु समस्त 
प्राणियोंका अन्त करनेवाला है। उसके पत्नी या पुत्र कोई नहीं है, क्योंकि वह 
सबका अन्त करनेवाला है || ५५ ।। 

काकीं श्येनीं तथा भासीं धृतराष्ट्री तथा शुकीम्‌ | 

ताम्रा तु सुषुवे देवी पठ्चैता लोकविश्रुता: ।। ५६ ।। 

देवी तामग्राने काकी, श्येनी, भासी, धृतराष्ट्री तथा शुकी--इन पाँच 
लोकविख्यात कन्याओंको उत्पन्न किया || ५६ ।। 

उलूकान्‌ सुषुवे काकी श्येनी श्येनान्‌ व्यजायत । 

भासी भासानजनयद्‌ गृध्रांश्रैव जनाधिप ।। ५७ ।। 

जनेश्वर! काकीने उल्‍लुओं और श्येनीने बाजोंको जन्म दिया; भासीने मुर्गों 
तथा गीधोंको उत्पन्न किया ।। ५७ ।। 

धृतराष्ट्री तु हंसांश्व कलहंसांश्व॒ सर्वश: । 

चक्रवाकांश्व भद्रा तु जनयामास सैव तु ।। ५८ ।। 

शुकी च जनयामास शुकानेव यशस्विनी । 


कल्याणगुणसम्पन्ना सर्वलक्षणपूजिता ।। ५९ ।। 

कल्याणमयी धूृतराष्ट्रीने सब प्रकारके हंसों, कल-हंसों तथा चक्रवाकोंको 
जन्म दिया। कल्याणमय गुणोंसे सम्पन्न तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त 
यशस्विनी शुकीने शुकों (तोतों)-को ही उत्पन्न किया || ५८-५९ |। 

नव क्रोधवशा नारी: प्रजज्ञे क्रोधसम्भवा: । 

मृगी च मृगमन्दा च हरी भद्रमना अपि ।। ६० ।। 

मातज्ी त्वथ शार्दूली श्वेता सुरभिरेव च । 

सर्वलक्षणसम्पन्ना सुरसा चैव भामिनी ।। ६१ ।। 

क्रोधवशाने नौ प्रकारकी क्रोधजनित कन्याओंको जन्म दिया। उनके नाम ये 
हैं--मृगी, मृगमन्दा, हरी, भद्गमना, मातंगी, शार्दूली, श्वेता, सुरभि तथा सम्पूर्ण 
शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न सुन्दरी सुरसा || ६०-६१ ।। 

अपत्यं तु मृगा: सर्वे मृग्या नरवरोत्तम | 

ऋक्षाश्व मृगमन्दाया: सूमराश्न॒ परंतप ॥। ६२ ।। 

ततस्त्वैसवतं नागं जज्ञे भद्रमना: सुतम्‌ । 

ऐरावत: सुतस्तस्या देवनागो महागज: ।। ६३ ।। 

नरश्रेष्ठी समस्त मृग मृगीकी संतानें हैं। परंतप! मृगमन्दासे रीछ तथा सृमर 
(छोटी जातिके मृग) उत्पन्न हुए। भद्रमनाने ऐरावत हाथीको अपने पुत्ररूपमें 
उत्पन्न किया। देवताओंका हाथी महान्‌ गजराज ऐरावत भद्रमनाका ही पुत्र 
है ।। ६२-६३ ।। 

हर्याश्ष हरयो5पत्यं वानराश्न तरस्विन: । 

गोलांगूलांश्व भद्रं ते हर्या: पुत्रान्‌ प्रचक्षते || ६४ ।। 

प्रजज्ञे त्वथ शार्दूली सिंहान्‌ व्याप्राननेकश: । 

दीपिनश्न महासत्त्वानू सवनिव न संशय: ।। ६५ || 

राजन! तुम्हारा कल्याण हो, वेगवान्‌ घोड़े और वानर हरीके पुत्र हैं। गायके 
समान पूँछवाले लंगूरोंको भी हरीका ही पुत्र बताया जाता है। शार्दूलीने सिंहों 
अनेक प्रकारके बाघों और महान्‌ बलशाली सभी प्रकारके चीतोंको भी जन्म 
दिया, इसमें संशय नहीं है || ६४-६५ ।। 

मातड्रयपि च मातड्रानपत्यानि नराधिप । 

दिशां गजं तु श्वेताख्यं श्वेताजनयदाशुगम्‌ ।। ६६ ।। 

तथा दुहितरौ राजन्‌ सुरभिर्वँ व्यजायत । 

रोहिणी चैव भद्रं ते गन्धर्वी तु यशस्विनी ।। ६७ ।। 

नरेश्वर! मातंगीने मतवाले हाथियोंको संतानके रूपमें उत्पन्न किया। श्वेताने 
शीघ्रगामी दिग्गज श्वेतको जन्म दिया। राजन! तुम्हारा भला हो, सुरभिने दो 


कन्याओंको उत्पन्न किया। उनमेंसे एकका नाम रोहिणी था और दूसरीका 
गन्धर्वी। गन्धर्वी बड़ी यशस्विनी थी ।। ६६-६७ ।। 

विमलामपि भद्रें ते अनलामपि भारत । 

रोहिण्यां जज्ञिरे गावो गन्धर्व्या वाजिन: सुता: । 

सप्त पिण्डफलान्‌ वृक्षाननलापि व्यजायत ।। ६८ ।। 

भारत! तत्पश्चात्‌ रोहिणीने विमला और अनला नामवाली दो कन्याएँ और 
उत्पन्न कीं। रोहिणीसे गाय-बैल और गन्धर्वीसे घोड़े ही पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए। 
अनलाने सात प्रकारके वृक्षोंको- उत्पन्न किया, जिनमें पिण्डाकार फल लगते 
हैं ।। ६८ ।। 

अनलाया: शुकी पुत्री कड़कस्तु सुरसासुत: । 

अरुणस्य भार्या श्येनी तु वीर्यवन्ती महाबलौ || ६९ ।। 

सम्पातिं जनयामास वीर्यवन्तं जटायुषम्‌ । 

सुरसाजनयजन्नागान्‌ कद्रू: पुत्रांस्तु पन्नगान्‌ ।। ७० ।। 

द्वौ पुत्री विनतायास्तु विख्यातौ गरुडहारुणौ | 

अनलाके शुकी नामकी एक कन्या भी हुई। कंक पक्षी सुरसाका पुत्र है। 
अरुणकी पत्नी श्येनीने दो महाबली और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न किये। एकका 
नाम था सम्पाती और दूसरेका जटायु। जटायु बड़ा शक्तिशाली था। सुरसा और 
कद्भूने नाग एवं पन्नग जातिके पुत्रोंको उत्पन्न किया। विनताके दो ही पुत्र 
विख्यात हैं, गरुड और अरुण || ६९-७० $ || 

(सुरसाजनयत्‌ सपज्छितमेकशिरो धरान्‌ । 

सुरसाकन्यका जातास्तिस्र: कमललोचना: ।। 

वनस्पतीनां वृक्षाणां वीरुधां चैव मातर: । 

अनला रुहा चढ़े प्रोक्ते वीरुधां चैव ता: स्मृता: ।। 

गृह्नन्ति ये विना पुष्पं फलानि तरव: पृथक्‌ । 

अनलासुतास्ते विज्ञेया: तानेवाहुर्वनस्पतीन्‌ ।। 

पुष्पै: फलग्रहान्‌ वृक्षान्‌ रुहाया: प्रसवान्‌ विभो । 

लतागुल्मानि वल्यश्व त्वक्सारतृणजातय: ।। 

वीरुधाया: प्रजास्ता: स्युरत्रवंश: समाप्यते ।) 

सुरसाने एक सौ एक सिरवाले सर्पोंको जन्म दिया था। सुरसासे तीन 
कमलनयनी कन्याएँ उत्पन्न हुईं, जो वनस्पतियों, वृक्षों और लता-गुल्मोंकी 
जननी हुईं। उनके नाम इस प्रकार हैं--अनला, रुहा और वीरुधा। जो वृक्ष बिना 
फ़ूलके ही फल ग्रहण करते हैं उन सबको अनलाका पुत्र जानना चाहिये; वे ही 


वनस्पति कहलाते हैं। प्रभो! जो फूलसे फल ग्रहण करते हैं उन वृक्षोंको रुहाकी 
संतान समझो। लता, गुल्म, वल्‍ली, बाँस और तिनकोंकी जितनी जातियाँ हैं उन 
सबकी उत्पत्ति वीरुधासे हुई है। यहाँ वंशवर्णन समाप्त होता है। 

इत्येष सर्वभूतानां महतां मनुजाधिप । 

प्रभव: कीर्तित: सम्यड्मया मतिमतां वर || ७१ ।। 

य॑ श्रुत्वा पुरुष: सम्यड्मुक्तो भवति पाप्मन: । 

सर्वज्ञतां च लभते गतिमग्रयां च विन्दति || ७२ ।। 

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ रुजा जनमेजय! इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण महाभूतोंकी 
उत्पत्तिका भलीभाँति वर्णन किया है। जिसे अच्छी तरह सुनकर मनुष्य सब 
पापोंसे पूर्णतः मुक्त हो जाता है और सर्वज्ञता तथा उत्तम गति प्राप्त कर लेता 
है || ७१-७२ || 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि षट्षष्टितमो5ध्याय: ।। ६६ 
|| 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपववके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें अंशावतरणविषयक 
छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६६ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ ३ श्लोक मिलाकर कुल ७६३ “लोक हैं) 


#फशलारल (0) अन्‍अान- 


> मनुस्मृतिमें प्रजापति दक्षको ही पुत्रिका-विधिका प्रवर्तक बताकर उसका लक्षण इस प्रकार दिया है-- 

अपुत्रो&नेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम्‌ । यदपत्यं भवेदस्यां तन्‍्मम स्यात्‌ स्वधाकरम्‌ ।। (९।१२७) 

जिसके पुत्र न हों वह निम्नांकित विधिसे अपनी कन्याको पुत्रिका बना ले--यह संकल्प कर ले कि इस 
कन्याके गर्भसे जो बालक उत्पन्न हो, वह मेरा श्राद्धादि कर्म करनेवाला पुत्ररूप हो। 


> किसी-किसीके मतमें शाख, विशाख और नैगमेय--ये तीनों नाम कुमार कार्तिकेयके ही हैं। किन्हींके 
मतमें कुमार कार्तिकेयके पुत्रोंकी संज्ञा शाख, विशाख और नैगमेय है। कल्पभेदसे सभी ठीक हो सकते हैं। 

> खर्जूरं तालहिन्तालौ ताली खर्जूरिका तथा । गुणका नारिकेलश्न सप्त पिण्डफला द्रुमा: ।। (खजूर, 
ताल, हिन्ताल, ताली, छोटे खजूर, सोपारी और नारियल--ये सात पिण्डाकार फलवाले वृक्ष हैं।) 


सप्तषष्टितमो< ध्याय: 
देवता और दैत्य आदिके अंशावतारोंका दिग्दर्शन 


जनमेजय उवाच 

देवानां दानवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम्‌ । 

सिंहव्याप्रमृदगाणां च पन्नगानां पतत्त्रिणाम्‌ ।। १ ।। 

सर्वेषां चैव भूतानां सम्भवं भगवन्नहम्‌ । 

श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन मानुषेषु महात्मनाम्‌ । 

जन्म कर्म च भूतानामेतेषामनुपूर्वश: ।। २ ।। 

जनमेजयने कहा--भगवन्‌! मैं मनुष्य-योनिमें अंशतः उत्पन्न हुए देवता, दानव, 
गन्धर्व, नाग, राक्षस, सिंह, व्याप्र, हरिण, सर्प, पक्षी एवं सम्पूर्ण भूतोंके जन्मका वृत्तान्त 
यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ। मनुष्योंमें जो महात्मा पुरुष हैं, उनके तथा इन सभी 
प्राणियोंके जन्म-कर्मका क्रमश: वर्णन सुनना चाहता हूँ ।। १२ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

मानुषेषु मनुष्येन्द्र सम्भूता ये दिवौकस: । 

प्रथमं दानवांश्वैव तांस्‍्ते वक्ष्यामि सर्वश: ।। ३ ।। 

विप्रचित्तिरिति ख्यातो य आसीद्‌ दानवर्षभ: । 

जरासन्ध इति ख्यात: स आसीन्मनुजर्षभ: ।। ४ ।। 

दिते: पुत्रस्तु यो राजन्‌ हिरण्यकशिपु: स्मृतः । 

स जज्ञे मानुषे लोके शिशुपालो नरर्षभ: ।॥। ५ || 

वैशम्पायनजी बोले--नरेन्द्र! मनुष्योंमें जो देवता और दानव प्रकट हुए थे, उन सबके 
जन्मका ही पहले तुम्हें परिचय दे रहा हूँ। विप्रचित्ति नामसे विख्यात जो दानवोंका राजा था, 
वही मनुष्योंमें श्रेष्ठ जरासन्ध नामसे विख्यात हुआ। राजन! हिरण्यकशिपु नामसे प्रसिद्ध 
जो दितिका पुत्र था, वही मनुष्यलोकमें नरश्रेष्ठ शिशुपालके रूपमें उत्पन्न हुआ ।। ३-५ ।। 

संह्ाद इति विख्यात: प्रह्मादस्यानुजस्तु यः । 

स शल्य इति विख्यातो जज्ञे बाह्लीकपुज्रव: ।। ६ ।। 

अनुह्वादस्तु तेजस्वी यो5भूत्‌ ख्यातो जघन्यज: । 

धृष्टकेतुरिति ख्यात: स बभूव नरेश्वर: ।। ७ ।। 

प्रहादका छोटा भाई जो संह्ादके नामसे विख्यात था, वही बाह्लीक देशका सुप्रसिद्ध 
राजा शल्य हुआ। प्रह्मदका ही दूसरा छोटा भाई जिसका नाम अनुह्ाद था, धृष्टकेतु नामक 
राजा हुआ || ६-७ || 


यस्तु राजज्छिबिरनाम दैतेय:ः परिकीर्तित: । 

द्रुम इत्यभिविख्यात: स आसीदू भुवि पार्थिव: ॥। ८ ।॥। 

राजन्‌! जो शिबि नामका दैत्य कहा गया है, वही इस पृथ्वीपर ट्रुम नामसे विख्यात 
राजा हुआ || ८ ।। 

बाष्कलो नाम यस्तेषामासीदसुरसत्तम: । 

भगदत्त इति ख्यात: स जज्ञे पुरुषर्षभ: ।। ९ ।। 

असुरोंमें श्रेष्ठ जो बाष्कल था, वही नरश्रेष्ठ भगदत्तके नामसे उत्पन्न हुआ ।। ९ |। 

अयःशिरा अश्वशिरा अय:शड्कुश्च वीर्यवान्‌ 

तथा गगनमूर्धा च वेगवांश्षात्र पजचम: ।। १० ।। 

पज्चैते जज्ञिरे राजन्‌ वीर्यवन्तो महासुरा: । 

केकयेषु महात्मान: पार्थिवर्षभसत्तमा: | 

केतुमानिति विख्यातो यस्ततो<न्य: प्रतापवान्‌ ॥। ११ ।। 

अमितौजा इति ख्यात: सोग्रकर्मा नराधिप: । 

स्वर्भानुरिति विख्यात: श्रीमान्‌ यस्तु महासुर: ।। १२ ।। 

उग्रसेन इति ख्यात उग्रकर्मा नराधिप: । 

यस्त्वश्व इति विख्यात: श्रीमानासीन्महासुर: ।। १३ ।। 

अशोको नाम राजाभूनन्‍्महावीर्योडपराजित: । 

तस्मादवरजो यस्तु राजन्नश्वपति: स्मृत: । १४ ।। 

दैतेय: सो5भवद्‌ राजा हार्दिक्यो मनुजर्षभ: । 

वृषपर्वेति विख्यात: श्रीमान्‌ यस्तु महासुर: ।। १५ ।। 

दीर्घप्रज्ञ इति ख्यात: पृथिव्यां सोडभवन्नूप: । 

अजक स्त्ववरो राजन्‌ य आसीद्‌ वृषपर्वण: ॥। १६ ।। 

स शाल्व इति विख्यात: पृथिव्यामभवन्नूप: । 

अश्वग्रीव इति ख्यातः सत्त्ववान्‌ यो महासुर: ।। १७ ।। 

रोचमान इति ख्यात:ः पृथिव्यां सो5भवन्नूष: । 

सूक्ष्मस्तु मतिमान्‌ राजन्‌ कीर्तिमान्‌ यः प्रकीर्तित: ।। १८ ।। 

बृहद्रथ इति ख्यात: क्षितावासीत्‌ स पार्थिव: । 

तुहुण्ड इति विख्यातो य आसीदसुरोत्तम: ।। १९ || 

सेनाबिन्दुरिति ख्यात: स बभूव नराधिप: । 

इषुपान्नाम यस्तेषामसुराणां बलाधिक: ।। २० ।। 

नग्नजिन्नाम राजासीद्‌ भुवि विख्यातविक्रम: । 

एकचक्र इति ख्यात आसीद्‌ू यस्तु महासुर: ।। २१ ।। 

प्रतिविन्ध्य इति ख्यातो बभूव प्रथित: क्षितौ । 


विरूपाक्षस्तु दैतेयश्चित्रयोधी महासुर: ।॥ २२ ।। 
चित्रधर्मेति विख्यात: क्षितावासीत्‌ स पार्थिव: । 
हरस्त्वरिहरो वीर आसीद्‌ू यो दानवोत्तम: ।॥। २३ ।। 
सुबाहुरिति विख्यात: श्रीमानासीत्‌ स पार्थिव: । 
अहरस्तु महातेजा: शत्रुपक्षक्षयंकर: ।। २४ ।। 
बाह्लीको नाम राजा स बभूव प्रथित: क्षितौ । 
निचन्द्रश्नन्द्रवक्‍्त्रस्तु य आसीदसुरोत्तम: || २५ || 
मुञ्जकेश इति ख्यात: श्रीमानासीत्‌ स पार्थिव: । 
निकुम्भस्त्वजित: संख्ये महामतिरजायत ।। २६ ।। 
भूमौ भूमिपति: क्षेष्ठो देवाधिप इति स्मृतः । 

शरभो नाम यस्तेषां दैतेयानां महासुर: ।। २७ ।। 
पौरवो नाम राजर्षि: स बभूव नरोत्तम: । 

कुपटस्तु महावीर्य: श्रीमान्‌ राजन्‌ महासुर: ।। २८ ।। 
सुपार्श्व इति विख्यात: क्षितौ जज्ञे महीपति: । 
क्रथस्तु राजन्‌ राजर्षि: क्षितौ जज्ञे महासुर: ।। २९ ।। 
पार्वतेय इति ख्यात: काउज्चनाचलसंनिभ: । 

द्वितीय: शलभस्तेषामसुराणां बभूव ह ।। ३० ।। 
प्रह्दो नाम बाह्लीक: स बभूव नराधिप: । 

चन्द्रस्तु दितिजश्रेष्ठो लोके ताराधिपोपम: ।। ३१ ।। 
चन्द्रवर्मेति विख्यात: काम्बोजानां नराधिप: । 

अर्क इत्यभिविख्यातो यस्तु दानवपुड्रव: ।। ३२ ।। 
ऋषिको नाम राजर्षिबभूव नृपसत्तम: । 

मृतपा इति विख्यातो य आसीदसुरोत्तम: ।। ३३ ।। 
पश्चिमानूपकं विद्धि तं नूपं नृपसत्तम | 

गविष्ठस्तु महातेजा य: प्रख्यातो महासुर: ।। ३४ ।। 
ट्रुमसेन इति ख्यातः पृथिव्यां सो5भवन्नूष: । 

मयूर इति विख्यात: श्रीमान्‌ यस्तु महासुर: ।। ३५ ।। 
स विश्व इति विख्यातो बभूव पृथिवीपति: । 

सुपर्ण इति विख्यातस्तस्मादवरजस्तु य: ।। ३६ ।। 
कालकीर्तिरिति ख्यात: पृथिव्यां सो5भवन्नूप: । 
चन्द्रहन्तेति यस्तेषां कीर्तित: प्रवरोडसुर: ।॥ ३७ ।। 
शुनको नाम राजर्षि: स बभूव नराधिप: । 
विनाशनस्तु चन्द्रस्य य आख्यातो महासुर: ।। ३८ ।। 


जानकिरननम विख्यात: सो5भवन्मनुजाधिप: । 

दीर्घजिद्वस्तु कौरव्य य उक्तो दानवर्षभ: ।। ३९ |। 

काशिराज: स विख्यात: पृथिव्यां पृथिवीपते । 

ग्रहं तु सुषुवे यं तु सिंहिकार्केन्दुमर्दनम्‌ । 

स क्राथ इति विख्यातो बभूव मनुजाधिप: ।। ४० ।। 

अयःशिरा, अश्वशिरा, वीर्यवान्‌ अयः:शंकु, गगनमूर्धा और वेगवान--राजन्‌! ये पाँच 
पराक्रमी महादैत्य केकय देशके प्रधान-प्रधान महात्मा राजाओंके रूपमें उत्पन्न हुए। उनसे 
भिन्न केतुमान्‌ नामसे प्रसिद्ध प्रतापी महान्‌ असुर अमितौजा नामसे विख्यात राजा हुआ, 
जो भयानक कर्म करनेवाला था। स्वर्भानु नामवाला जो श्रीसम्पन्न महान्‌ असुर था, वही 
भयंकर कर्म करनेवाला राजा उग्रसेन कहलाया। अश्व नामसे विख्यात जो श्रीसम्पन्न महान्‌ 
असुर था, वही किसीसे परास्त न होनेवाला महापराक्रमी राजा अशोक हुआ। राजन! 
उसका छोटा भाई जो अश्वपति नामक दैत्य था, वही मनुष्योंमें श्रेष्ठ हार्दिक्य नामवाला राजा 
हुआ। वृषपर्वा नामसे प्रसिद्ध जो श्रीमान्‌ महादैत्य था, वह पृथ्वीपर दीर्घप्रज्ञ नामक राजा 
हुआ। राजन! वृषपर्वाका छोटा भाई जो अजक था, वही इस भूमण्डलमें शाल्व नामसे 
प्रसिद्ध राजा हुआ। अश्वग्रीव नामवाला जो धैर्यवान्‌ महादैत्य था, वह पृथ्वीपर रोचमान 
नामसे विख्यात राजा हुआ। राजन! बुद्धिमान्‌ और यशस्वी सूक्ष्म नामसे प्रसिद्ध जो दैत्य 
कहा गया है, वह इस पृथ्वीपर बृहद्रथ नामसे विख्यात राजा हुआ है। असूुरोंमें श्रेष्ठ जो 
तुहुण्ड नामक दैत्य था, वही यहाँ सेनाबिन्दु नामसे विख्यात राजा हुआ। असुरोंके समाजमें 
जो सबसे अधिक बलवान था, वह इषुपाद नामक दैत्य इस पृथ्वीपर विख्यात पराक्रमी 
नग्नजित्‌ नामक राजा हुआ। एकचक्र नामसे प्रसिद्ध जो महान्‌ असुर था, वही इस पृथ्वीपर 
प्रतिविन्ध्य नामसे विख्यात राजा हुआ। विचित्र युद्ध करनेवाला महादैत्य विरूपाक्ष इस 
पृथ्वीपर चित्रधर्मा नामसे प्रसिद्ध राजा हुआ। शत्रुओंका संहार करनेवाला जो वीर दानवश्रेष्ठ 
हर था, वही सुबाहु नामक श्रीसम्पन्न राजा हुआ। शत्रुपक्षका विनाश करनेवाला महातेजस्वी 
अहर इस भूमण्डलमें बाह्लिक नामसे विख्यात राजा हुआ। चन्द्रमाके समान सुन्दर 
मुखवाला जो असुरश्रेष्ठ निचन्द्र था, वही मुंजकेश नामसे विख्यात श्रीसम्पन्न राजा हुआ। 
परम बुद्धिमान्‌ निकुम्भ जो युद्धमें अजेय था, वह इस भूमिपर भूपालोंमें श्रेष्ठ देवाधिप 
कहलाया। दैत्योंमें जो शरभ नामसे प्रसिद्ध महान्‌ असुर था, वही मनुष्योंमें श्रेष्ठ राजर्षि 
पौरव हुआ। राजन! महापराक्रमी महान्‌ असुर कुपट ही इस पृथ्वीपर राजा सुपार्श्वके रूपमें 
उत्पन्न हुआ। महाराज! महादैत्य क्रथ इस पृथ्वीपर राजर्षि पार्वतेयके नामसे उत्पन्न हुआ, 
उसका शरीर मेरु पर्वतके समान विशाल था। असुरोंमें शलभ नामसे प्रसिद्ध जो दूसरा दैत्य 
था, वह बाह्लीकवंशी राजा प्रह्मद हुआ। दैत्यश्रेष्ठ चन्द्र इस लोकमें चन्द्रमाके समान सुन्दर 
और चन्द्रवर्मा नामसे विख्यात काम्बोज देशका राजा हुआ। अर्क नामसे विख्यात जो 
दानवोंका सरदार था, वही नरपतियोंमें श्रेष्ठ राजर्षि ऋषिक हुआ। नृपशिरोमणे! मृतपा 


नामसे प्रसिद्ध जो श्रेष्ठ असुर था, उसे पश्चिम अनूप देशका राजा समझो। गविष्ठ नामसे 
प्रसिद्ध जो महातेजस्वी असुर था, वही इस पृथ्वीपर द्रुमसेन नामक राजा हुआ। मयूर 
नामसे प्रसिद्ध जो श्रीमान्‌ एवं महान्‌ असुर था, वही विश्व नामसे विख्यात राजा हुआ। 
मयूरका छोटा भाई सुपर्ण ही भूमण्डलमें कालकीर्ति नामसे प्रसिद्ध राजा हुआ। दैत्योंमें जो 
चन्द्रहन्ता नामसे प्रसिद्ध श्रेष्ठ असुर कहा गया है, वही मनुष्योंका स्वामी राजर्षि शुनक 
हुआ। इसी प्रकार जो चन्द्रविनाशन नामक महान्‌ असुर बताया गया है, वही जानकि नामसे 
प्रसिद्ध राजा हुआ। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! दीर्घजिह्न नामसे प्रसिद्ध दानवराज ही इस पृथ्वीपर 
काशिराजके नामसे विख्यात था। सिंहिकाने सूर्य और चन्द्रमाका मान मर्दन करनेवाले जिस 
राहु नामक ग्रहको जन्म दिया था, वही यहाँ क्राथ नामसे प्रसिद्ध राजा हुआ || १०-४० ।। 

दनायुषस्तु पुत्राणां चतुर्णा प्रवरो5सुर: । 

विक्षरो नाम तेजस्वी वसुमित्रो नृप: स्मृत: ।। ४१ ।। 

दनायुके चार पुत्रोंमें जो सबसे बड़ा है, वह विक्षर नामक तेजस्वी असुर यहाँ राजा 
वसुमित्र बताया गया है ।। ४१ ।। 

द्वितीयो विक्षराद्‌ यस्तु नराधिप महासुर: । 

पाण्ड्यराष्ट्राधिप इति विख्यात: सो5भवन्नूप: ।। ४२ ।। 

नराधिप! विक्षरसे छोटा उसका दूसरा भाई बल, जो असुरोंका राजा था, पाण्ड्य 
देशका सुविख्यात राजा हुआ ।। ४२ || 

बली वीर इति ख्यातो यस्त्वासीदसुरोत्तम: । 

पौण्ड्रमात्स्यक इत्येवं बभूव स नराधिप: ।। ४३ ।। 

महाबली वीर नामसे विख्यात जो श्रेष्ठ असुर (विक्षरका तीसरा भाई) था, 
पौण्ड्रमात्स्यक नामसे प्रसिद्ध राजा हुआ ।। ४३ ।। 

वृत्र इत्यभिविख्यातो यस्तु राजन्‌ महासुर: । 

मणिमाजन्नाम राजर्षि: स बभूव नराधिप: ।। ४४ ।। 

राजन! जो वृत्र नामसे विख्यात (और विक्षरका चौथा भाई) महान्‌ असुर था, वही 
पृथ्वीपर राजर्षि मणिमानके नामसे प्रसिद्ध भूपाल हुआ ।। ४४ ।। 

क्रोधहन्तेति यस्तस्य बभूवावरजो5सुर: । 

दण्ड इत्यभिविख्यात: स आसीन्नूपति: क्षितौ ।। ४५ ।। 

क्रोधहन्ता नामक असुर जो उसका छोटा भाई (कालाके पुत्रोंमें तीसरा) था, वह इस 
पृथ्वीपर दण्ड नामसे विख्यात नरेश हुआ ।। ४५ ।। 

क्रोधवर्धन इत्येवं यस्त्वन्य: परिकीर्तित: । 

दण्डधार इति ख्यात: सो5भवन्मनुजर्षभ: ।। ४६ ।। 

क्रोधवर्धन नामक जो दूसरा दैत्य कहा गया है, वह मनुष्योंमें श्रेष्ठ दण्डधार नामसे 
विख्यात हुआ || ४६ ।। 


कालेयानां तु ये पुत्रास्तेषामष्टी नराधिपा: । 

जज्ञिरे राजशार्दूल शार्टूलसमविक्रमा: ।। ४७ ।। 

नृपश्रेष्ठत कालेय नामक दैत्योंके जो पुत्र थे, उनमेंसे आठ इस पृथ्वीपर सिंहके समान 
पराक्रमी राजा हुए ।। ४७ ।। 

मगधेषु जयत्सेनस्तेषामासीत्‌ स पार्थिव: । 

अष्टानां प्रवरस्तेषां कालेयानां महासुरः || ४८ ।। 

उन आठों कालेयोंमें श्रेष्ठ जो महान्‌ असुर था, वही मगध देशमें जयत्सेन नामक राजा 
हुआ ।। ४८ ।। 

द्वितीयस्तु ततस्तेषां श्रीमान्‌ हरिहयोपमः । 

अपराजित इत्येवं स बभूव नराधिप: ।। ४९ ।। 

उन कालेयोंमेंसे जो दूसरा इन्द्रके समान श्रीसम्पन्न था, वही अपराजित नामक राजा 
हुआ ।। ४९ || 

तृतीयस्तु महातेजा महामायो महासुर: । 

निषादाधिपतिर्जज्ञे भुवि भीमपराक्रम: ।। ५० ।। 

तीसरा जो महान्‌ तेजस्वी और महामायावी महादैत्य था, वह इस पृथ्वीपर भयंकर 
पराक्रमी निषादनरेशके रूपमें उत्पन्न हुआ || ५० ।। 

तेषामन्यतमो यस्तु चतुर्थ: परिकीर्तित: । 

श्रेणिमानिति विख्यात: क्षितौ राजर्षिसत्तम: ।। ५१ |। 

कालेयोंमेंसे ही एक जो चौथा बताया गया है, वह इस भूमण्डलमें राजर्षिप्रवर 
श्रेणिमान्‌के नामसे विख्यात हुआ ।। ५१ ।। 

पजञ्चमस्त्वभवत्‌ तेषां प्रवरो यो महासुर: । 

महौजा इति विख्यातो बभूवेह परंतप: ।। ५२ ।। 

कालेयोंमें जो पाँचवाँ श्रेष्ठ महादैत्य था, वही इस लोकमें शत्रुतापन महौजाके नामसे 
विख्यात हुआ || ५२ ।। 

षष्ठस्तु मतिमान्‌ यो वै तेषामासीन्महासुर: । 

अभीरुरिति विख्यात: क्षितौ राजर्षिसत्तम: || ५३ || 

उन कालेयोंमें जो छठा महान्‌ असुर था, वह भूमण्डलमें राजर्षिशिरोमणि अभीरुके 
नामसे प्रसिद्ध हुआ ।। ५३ ।। 

समुद्रसेनस्तु नृपस्तेषामेवाभवद्‌ गणात्‌ । 

विश्रुत: सागरान्तायां क्षितौ धर्मार्थतत्त्ववित्‌ ।। ५४ ।। 

उन्हींमेंसे सातवाँ असुर राजा समुद्रसेन हुआ, जो समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर सब ओर 
विख्यात और धर्म एवं अर्थतत्त्वका ज्ञाता था ।। ५४ ।। 

बृहन्नामाष्टमस्तेषां कालेयानां नराधिप । 


बभूव राजा धर्मात्मा सर्वभूतहिते रत: ।। ५५ ।। 

राजन! कालेयोंमें जो आठवाँ था, वह बृहत्‌ नामसे प्रसिद्ध सर्वभूतहितकारी धर्मात्मा 
राजा हुआ ।। ५५ || 

कुक्षिस्तु राजन्‌ विख्यातो दानवानां महाबल: । 

पार्वतीय इति ख्यात: काउज्चनाचलसंनिभ: ।। ५६ ।। 

महाराज! दानवोंमें कुक्षि नामसे प्रसिद्ध जो महाबली राजा था, वह पार्वतीय नामक 
राजा हुआ; जो मेरुगिरिके समान तेजस्वी एवं विशाल था ।। ५६ ।। 

क्रथनश्न महावीर्य: श्रीमान्‌ राजा महासुर: । 

सूर्याक्ष इति विख्यात: क्षितौ जज्ञे महीपति: ।। ५७ ।। 

महापराक्रमी क्रथन नामक जो श्रीसम्पन्न महान्‌ असुर था, वह भूमण्डलमें पृथ्वीपति 
राजा सूर्याक्ष नामसे उत्पन्न हुआ ।। ५७ || 

असुराणां तु यः सूर्य: श्रीमांश्नैव महासुर: । 

दरदो नाम बाह्लीको वर: सर्वमहीक्षिताम्‌ ।। ५८ ।। 

असुरोंमें जो सूर्य नामक श्रीसम्पन्न महान्‌ असुर था, वही पृथ्वीपर सब राजाओंमें श्रेष्ठ 
दरद नामक बाह्लीकराज हुआ ।। ५८ |। 

गण: क्रोधवशो नाम यस्ते राजन्‌ प्रकीर्तित: । 

तत: संजज्षिरे वीरा: क्षिताविह नराधिपा: ।। ५९ || 

राजन! क्रोधवश नामक जिन असुरगणोंका तुम्हें परिचय दिया है, उन्हींमेंसे कुछ लोग 
इस पृथ्वीपर निम्नांकित वीर राजाओंके रूपमें उत्पन्न हुए ।। ५९ ।। 

मद्रक: कण्विष्टश्ष॒ सिद्धार्थ: कीटकस्तथा । 

सुवीरश्न सुबाहुश्च महावीरो5थ बाह्विक: ।। ६० ।। 

क्रथो विचित्र: सुरथ: श्रीमान्‌ नीलश्न भूमिप: । 

चीरवासाश्न कौरव्य भूमिपालश्न नामत: ।। ६१ ।। 

दन्तवक्त्रश्न नामासीद्‌ दुर्जयश्वैव दानव: । 

रुक्मी च नृपशार्दूलो राजा च जनमेजय: ।। ६२ ।। 

आषाढो वायुवेगश्च भूरितेजास्तथैव च । 

एकलव्य: सुमित्रश्न वाटधानो5थ गोमुख: ।। ६३ ।। 

कारूषकाश्न राजान: क्षेमधूर्तिस्तथैव च । 

श्रुतायुरुद्वहश्चैव बृहत्सेनस्तथैव च ।। ६४ ।। 

क्षेमोग्रतीर्थ: कुहर: कलिज्ेषु नराधिप: । 

मतिमांश्व मनुष्येन्द्र ईश्वरश्वेति विश्वुत:ः ।। ६५ ।। 

मद्रक, क्णवेष्ट, सिद्धार्थ, कीटक, सुवीर, सुबाहु, महावीर, बाह्लिक, क्रथ, विचित्र, 
सुरथ, श्रीमान्‌ नील नरेश, चीरवासा, भूमिपाल, दन्तवक्त्र, दानव दुर्जय, नृपश्रेष्ठ रुक्मी, 


राजा जनमेजय, आषाढ, वायुवेग, भूरितेजा, एकलव्य, सुमित्र, वाटधान, गोमुख, 
करूषदेशके अनेक राजा, क्षेमधूर्ति, श्रुतायु, उद्वह, बृहत्सेन, क्षेम, उग्रतीर्थ, कलिंग-नरेश 
कुहर तथा परम बुद्धिमान्‌ मनुष्योंका राजा ईश्वर || ६०--६५ ।। 

गणात्‌ क्रोधवशादेष राजपूगो5भवत्‌ क्षितौ | 

जात: पुरा महाभागो महाकीर्तिमहाबल: ।। ६६ ।। 

इतने राजाओंका समुदाय पहले इस पृथ्वीपर क्रोधवश नामक दैत्यगणसे उत्पन्न हुआ 
था। ये सब राजा परम सौभाग्यशाली, महान्‌ यशस्वी और अत्यन्त बलशाली थे ।। ६६ ।। 

कालनेमिरिति ख्यातो दानवानां महाबल: । 

स कंस इति विख्यात उग्रसेनसुतो बली ।। ६७ ।। 

दानवोंमें जो महाबली कालनेमि था, वही राजा उग्रसेनके पुत्र बलवान्‌ कंसके नामसे 
विख्यात हुआ || ६७ ।। 

यस्त्वासीद्‌ देवको नाम देवराजसमझ्युति: । 

स गन्धर्वपतिर्मुख्य: क्षितौ जज्ञे नराधिप: ।। ६८ ।। 

इन्द्रके समान कान्तिमान्‌ राजा देवकके रूपमें इस पृथ्वीपर श्रेष्ठ गन्धर्वराज ही उत्पन्न 
हुआ था ।। ६८ ।। 

बृहस्पतेर्बृहत्कीरतेंदिवर्षेविद्धि भारत । 

अंशाद्‌ द्रोणं समुत्पन्नं भारद्वाजमयोनिजम्‌ ।। ६९ ।। 

भारत! महान्‌ कीर्तिशाली देवर्षि बृहस्पतिके अंशसे अयोनिज भरद्वाजनन्दन द्रोण 
उत्पन्न हुए, यह जान लो ।। ६९ |। 

धन्विनां नृपशार्दूल यः सर्वस्त्रिविदुत्तम: । 

महाकीर्तिमिहातेजा: स जज्ञे मनुजेश्वर ।। ७० ।। 

नृपश्रेष्ठ राजा जनमेजय! आचार्य द्रोण समस्त धनुर्धर वीरोंमें उत्तम और सम्पूर्ण 
अस्त्रोंके ज्ञाता थे। उनकी कीर्ति बहुत दूरतक फैली हुई थी। वे महान्‌ तेजस्वी थे || ७० ।। 

धनुर्वेदे च वेदे च यं त॑ वेदविदो विदु: । 

वरिष्ठ चित्रकर्माणं द्रोणं स्वकुलवर्धनम्‌ ।। ७१ ।। 

वेदवेत्ता विद्वान्‌ द्रोणको धनुर्वेद और वेद दोनोंमें सर्वश्रेष्ठ मानते थे। वे विचित्र कर्म 
करनेवाले तथा अपने कुलकी मर्यादाको बढ़ानेवाले थे || ७१ ।। 

महादेवान्तकाभ्यां च कामात्‌ क्रोधाच्च भारत । 

एकत्वमुपपन्नानां जज्ञे शूर: परंतप: ॥। ७२ ।। 

अश्वत्थामा महावीर्य: शत्रुपक्षभयावह: । 

वीर: कमलपत्राक्ष: क्षितावासीन्नराधिप ।। ७३ ।। 

भारत! उनके यहाँ महादेव, यम, काम और क्रोधके सम्मिलित अंशसे शत्रुसंतापी 
शूरवीर अश्वत्थामाका जन्म हुआ, जो इस पृथ्वीपर महापराक्रमी और शत्रुपक्षका संहार 


करनेवाला वीर था। राजन! उसके नेत्र कमलदलके समान विशाल थे ।। ७२-७३ ।। 

जज्ञिरे वसवस्त्वष्टौ गज़ायां शान्तनो: सुता: | 

वसिष्ठस्य च शापेन नियोगाद्‌ वासवस्य च ।। ७४ ।। 

महर्षि वसिष्ठके शाप और इन्द्रके आदेशसे आठों वसु गंगाजीके गर्भसे राजा शान्तनुके 
पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए || ७४ ।। 

तेषामवरजो भीष्म: कुरूणामभयंकर: । 

मतिमान्‌ वेदविद्‌ वाग्मी शत्रुपक्षक्षयंकर: ॥। ७५ ।। 

उनमें सबसे छोटे भीष्म थे, जिन्होंने कौरववंशको निर्भय बना दिया था। वे परम 
बुद्धिमान, वेदवेत्ता, वक्ता तथा शत्रुपक्षका संहार करनेवाले थे || ७५ ।। 

जामदग्न्येन रामेण सर्वास्त्रिविदुषां वर: । 

योब्युध्यत महातेजा भार्गवेण महात्मना ।। ७६ ।। 

सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके दिद्वानोंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी भीष्मने भृगुवंशी महात्मा 
जमदग्निनन्दन परशुरामजीके साथ युद्ध किया था ।। ७६ ।। 

यस्तु राजन्‌ कृपो नाम ब्रह्मूर्षिरभवत्‌ क्षितौ । 

रुद्राणां तु गणाद्‌ विद्धि सम्भूतमतिपौरुषम्‌ ।। ७७ ।। 

महाराज! जो कृप नामसे प्रसिद्ध ब्रह्मर्षि इस पृथ्वीपर प्रकट हुए थे, उनका पुरुषार्थ 
असीम था। उन्हें रुद्रणणके अंशसे उत्पन्न हुआ समझो ।। ७७ ।। 

शकुनिर्नाम यस्त्वासीद्‌ राजा लोके महारथ: । 

द्वापरं विद्धि तं राजन्‌ सम्भूतमरिमर्दनम्‌ ।। ७८ ।। 

राजन्‌! जो इस जगत्‌में महारथी राजा शकुनिके नामसे विख्यात था, उसे तुम द्वापरके 
अंशसे उत्पन्न हुआ मानो। वह शत्रुओंका मान-मर्दन करनेवाला था || ७८ ।। 

सात्यकि: सत्यसन्धश्न योडसौ वृष्णिकुलोद्वह: । 

पक्षात्‌ स जज्ञे मरुतां देवानामरिमर्दन: ।। ७९ |। 

वृष्णिवंशका भार वहन करनेवाले जो सत्यप्रतिज्ञ शत्रुमर्दन सात्यकि थे, वे मरुत्‌- 
देवताओंके अंशसे उत्पन्न हुए थे || ७९ ।। 

द्रुपदश्चैव राजर्षिसतत एवाभवद्‌ गणात्‌ | 

मानुषे नृप लोकेडस्मिन्‌ सर्वशस्त्रभूृतां वर: ।। ८० ।। 

राजा जनमेजय! सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ राजर्षि द्रपद भी इस मनुष्यलोकमें उस 
मरुदगणसे ही उत्पन्न हुए थे || ८० ।। 

ततश्न कृतवर्माणं विद्धि राजज्जनाधिपम्‌ । 

तमप्रतिमकर्माणि क्षत्रियर्षभसत्तमम्‌ ।। ८१ ।। 

महाराज! अनुपम कर्म करनेवाले, क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ राजा कृतवर्माको भी तुम मरुदगणोंसे 
ही उत्पन्न मानो || ८१ ।। 


मरुतां तु गणाद्‌ विद्धि संजातमरिमर्दनम्‌ | 

विराट नाम राजानं परराष्ट्प्रतापनम्‌ ।। ८२ ।। 

शत्रुराष्ट्रको संताप देनेवाले शत्रुमर्दन राजा विराटको भी मरुदगणोंसे ही उत्पन्न 
समझो ।। ८२ ।। 

अरिष्ायास्तु यः पुत्रो हंस इत्यभिविश्रुत: । 

स गन्धर्वपतिर्जज्ञे कुरुवंशविवर्धन: ।। ८३ ।। 

धृतराष्ट्र इति ख्यात: कृष्णद्वैपायनात्मज: । 

दीर्घबाहुर्महातेजा: प्रज्ञाचक्षुर्नराधिप: ।॥ ८४ ।। 

मातुर्दोषादृषे: कोपादनन्‍्ध एव व्यजायत | 

अरिष्टाका पुत्र जो हंस नामसे विख्यात गन्धर्वराज था, वही कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले 
व्यासनन्दन धृतराष्ट्रके नामसे प्रसिद्ध हुआ। धृतराष्ट्रकी बाँहें बहुत बड़ी थीं। वे महातेजस्वी 
नरेश प्रज्ञाचक्षु (अन्धे) थे। वे माताके दोष और महर्षिके क्रोधसे अन्धे ही उत्पन्न 
हुए ।। ८३-८४ $।। 

तस्यैवावरजो भ्राता महासत्त्वो महाबल: ।। ८५ ।। 

स पाण्डुरिति विख्यात: सत्यधर्मरत: शुचि: । 

अत्रेस्तु- सुमहाभागं पुत्र पुत्रवतां वरम्‌ । 

विदुरं विद्धि तं लोके जात॑ बुद्धिमतां वरम्‌ ।। ८६ ।। 

उन्हींके छोटे भाई महान्‌ शक्तिशाली महाबली पाण्डुके नामसे विख्यात हुए। वे सत्य- 
धर्ममें तत्पर और पवित्र थे। पुत्रवानोंमें श्रेष्ठ और बुद्धिमानोंमें उत्तम परम सौभाग्यशाली 
विदुरको तुम इस लोकमें सूर्यपुत्र धर्मके अंशसे उत्पन्न हुआ समझो || ८५-८६ ।। 

कलेरंशस्तु संजज्ञे भुवि दुर्योधनो नृप: । 

दुर्बृद्धिर्दुर्मतिश्वैव कुरूणामयशस्कर: || ८७ ।। 

खोटी बुद्धि और दूषित विचारवाले कुरुकुलकलंक राजा दुर्योधनके रूपमें इस पृथ्वीपर 
कलिका अंश ही उत्पन्न हुआ था || ८७ |। 

जगतो यस्तु सर्वस्य विद्विष्ट: कलिपूरुष: । 

य: सर्वा घातयामास पृथिवीं पृथिवीपते ।। ८८ ।। 

राजन्‌! वह कलिस्वरूप पुरुष सबका द्वेषपात्र था। उसने सारी पृथ्वीके वीरोंको 
लड़ाकर मरवा दिया था ।। ८८ ।। 

उद्दीपितं येन वैरं भूतान्तकरणं महत्‌ | 

पौलस्त्या भ्रातरश्नास्य जज्ञिरे मनुजेष्विह ।। ८९ ।। 

उसके द्वारा प्रजजलित की हुई वैरकी भारी आग असंख्य प्राणियोंके विनाशका कारण 
बन गयी। पुलस्त्य-कुलके राक्षस भी मनुष्योंमें दुर्योधनके भाइयोंके रूपमें उत्पन्न हुए 


थे।। ८९ |। 

शतं दुःशासनादीनां सर्वेषां क्रूरकर्मणाम्‌ । 

दुर्मुखो दुःसहश्नैव ये चान्ये नानुकीर्तिता: । ९० ।। 

दुर्योधनसहायास्ते पौलस्त्या भरतर्षभ । 

वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्न धार्तराष्ट्र: शताधिक: ।। ९१ ।। 

उसके दुःशासन आदि सौ भाई थे। वे सभी क्रूरतापूर्ण कर्म किया करते थे। दुर्मुख, 
दुःसह तथा अन्य कौरव जिनका नाम यहाँ नहीं लिया गया है, दुर्योधनके सहायक थे। 
भरतश्रेष्ठ! धृतराष्ट्रके वे सब पुत्र पूर्वजन्मके राक्षस थे। धृतराष्ट्रपुत्र युयुत्सु वैश्य-जातीय 
सत्रीसे उत्पन्न हुआ था। वह दुर्योधन आदि सौ भाइयोंके अतिरिक्त था || ९०-९१ ।। 

जनमेजय उवाच 

ज्येष्ठानुज्येष्ठतामेषां नामधेयानि वा विभो । 

धृतराष्ट्रस्य पुत्राणामानुपूर्व्येण कीर्तय ।। ९२ ।। 

जनमेजयने कहा--प्रभो! धृतराष्ट्रके जो सौ पुत्र थे, उनके नाम मुझे बड़े-छोटेके 
क्रमसे एक-एक करके बताइये ।। ९२ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

दुर्योधनो युयुत्सुश्न राजन्‌ दुःशासनस्तथा । 

दुःसहो दुःशलश्चैव दुर्मुखश्च॒ तथापर: ।। ९३ ।। 

विविंशतिर्विकर्णश्व जलसन्ध: सुलोचन: । 

विन्दानुविन्दी दुर्धर्ष: सुबाहुर्दुष्प्रधर्षण: ।। ९४ ।। 

दुर्मर्षणो दुर्मुखश्न दुष्कर्ण: कर्ण एव च । 

चित्रोपचित्रौ चित्राक्षक्षारुक्षित्राड्रदश्ष ह ।। ९५ ।। 

दुर्मदो दुष्प्रधर्षश्व विवित्सुर्विकट: सम: । 

ऊर्णनाभ: पद्मनाभस्तथा नन्दोपनन्दकौ ।। ९६ ।। 

सेनापति: सुषेणश्न॒ कुण्डोदरमहोदरौ । 

चित्रबाहुश्नित्रवर्मा सुवर्मा दुर्विरोचन: ।। ९७ ।। 

अयोबाहुर्महाबाहुश्रित्रचापसुकुण्डलौ । 

भीमवेगो भीमबलो बलाकी भीमविक्रमौ ।। ९८ ।। 

उग्रायुधो भीमशर: कनकायुर्दढायुध: । 

दृढवर्मा दृढक्षत्र: सोमकीर्तिरनूदर: ।। ९९ ।। 

जरासन्धो दृढसन्ध: सत्यसन्ध: सहस्रवाक्‌ । 

उग्रश्नवा उग्रसेन: क्षेममूर्तिस्तथैव च || १०० ।। 

अपराजित: पण्डितको विशालाक्षो दुराधन: ।। १०१ ।। 


दृढ्हस्त: सुहस्तश्न॒ वातवेगसुवर्चसौ । 

आदित्यकेतुर्बह्वाशी नागदत्तानुयायिनौ ।। १०२ ।। 

कवची निषज्जी दण्डी दण्डधारो धरनुग्रहः । 

उग्रो भीमरथो वीरो वीरबाहुरलोलुप: ।। १०३ ।। 

अभयो रौद्रकर्मा च तथा दृढरथश्न यः । 

अनाधृष्य: कुण्डभेदी विरावी दीर्घलोचन: || १०४ ।। 

दीर्घबाहुर्महाबाहुर्व्यूडोरु: कनकाज्भद: । 

कुण्डजश्ित्रकश्चैव द:ःशला च शताधिका ।। १०५ || 

वैशम्पायनजी बोले--राजन्‌! सुनो--१ दुर्योधन, २ युयुत्सु, ३ दुःशासन, ४ दुःसह, ५ 
दुःशल, ६ दुर्मुख, ७ विविंशति, ८ विकर्ण, ९ जलसन्ध, १० सुलोचन, ११ विन्द, १२ 
अनुविन्द, १३ दुर्धर्ष, १४ सुबाहु, १५ दुष्प्रधर्षण, १६ दुर्मर्षण, १७ दुर्मुख, १८ दुष्कर्ण, १९ 
कर्ण, २० चित्र, २१ उपचित्र, २२ चित्राक्ष, २३ चारु, २४ चित्रांगद, २५ दुर्मद, २६ दुष्प्रधर्ष, 
२७ विवित्सु, २८ विकट, २९ सम, ३० ऊर्णनाभ, ३१ पद्मानाभ, ३२ नन्द, ३३ उपनन्द, ३४ 
सेनापति, ३५ सुषेण, ३६ कुण्डोदर, ३७ महोदर, ३८ चित्रबाहु, ३९ चित्रवर्मा, ४० सुवर्मा, 
४१ दुर्विरोचन, ४२ अयोबाहु, ४३ महाबाहु, ४४ चित्रचाप, ४५ सुकुण्डल, ४६ भीमवेग, ४७ 
भीमबल, ४८ बलाकी, ४९ भीम, ५० विक्रम, ५१ उम्रायुध, ५२ भीमशर, ५३ कनकायु, ५४ 
दृढायुध, ५५ दृढवर्मा, ५६ दृढक्षत्र, ५७ सोमकीर्ति, ५८ अनूदर, ५९ जरासन्ध, ६० दृढ्सन्ध, 
६१ सत्यसन्ध, ६२ सहस्रवाक्‌, ६३ उग्रश्नवा, ६४ उग्रसेन, ६५ क्षेममूर्ति, ६६ अपराजित, ६७ 
पण्डितक, ६८ विशालाक्ष, ६९ दुराधन, ७० दृढ्हस्त, ७१ सुहस्त, ७२ वातवेग, ७३ सुवर्चा, 
७४ आदित्यकेतु, ७५ बह्चाशी, ७६ नागदत्त, ७७ अनुयायी, ७८ कवची, ७९ निषंगी, ८० 
दण्डी, ८१ दण्डधार, ८२ थधरनुग्रह, ८३ उग्र, ८४ भीमरथ, ८५ वीर, ८६ वीरबाहु, ८७ 
अलोलुप, ८८ अभय, ८९ रौद्रकर्मा, ९० दृढरथ, ९१ अनाधृष्य, ९२ कुण्डभेदी, ९३ विरावी, 
९४ दीर्घलोचन, ९५ दीर्घबाहु, ९६ महाबाहु, ९७ व्यूढोरु, ९८ कनकांगद, ९९ कुण्डज और 
१०० चित्रक--ये धृतराष्ट्रके सौ पुत्र थे। इनके सिवा दुःशला नामकी एक कन्या थी ॥। ९३ 
१०५ || 

वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्न धार्तराष्ट्र: शताधिक: । 

एतदेकशतं राजन्‌ कन्या चैका प्रकीर्तिता ।। १०६ ।। 

धृतराष्ट्रका वह पुत्र जिसका नाम युयुत्सु था, वैश्याके गर्भसे उत्पन्न हुआ था। वह 
दुर्योधन आदि सौ पुत्रोंसे अतिरिक्त था। राजन! इस प्रकार धृतराष्ट्रके एक सौ एक पुत्र तथा 
एक कन्या बतायी गयी है ।। १०६ ।। 

नामथधेयानुपूर्व्या च ज्येष्ठानुज्जेष्ठतां विदु: । 

सर्वे त्वतिरथा: शूरा: सर्वे युद्धविशारदा: ।। १०७ ।। 


इनके नामोंका जो क्रम दिया गया है, उसीके अनुसार विद्वान्‌ पुरुष इन्हें जेठा और 
छोटा समझते हैं। धृतराष्ट्रके सभी पुत्र उत्कृष्ट रथी, शूरवीर और युद्धकी कलामें कुशल 
थे ।। १०७ || 

सर्वे वेदविदश्नैव राजच्छास्त्रे च पारगा: । 

सर्वे संग्रामविद्यासु विद्याभिजनशोभिन: ।। १०८ ।। 

राजन! वे सब-के-सब वेददवेत्ता, शास्त्रोंके पारंगत विद्वान, संग्राम-विद्यामें प्रवीण तथा 
उत्तम विद्या और उत्तम कुलसे सुशोभित थे || १०८ ।। 

सर्वेषामनुरूपाश्न कृता दारा महीपते । 

दुःशलां समये राजन्‌ सिन्धुराजाय कौरव: ।। १०९ ।। 

जयद्रथाय प्रददौ सौबलानुमते तदा । 

धर्मस्यांशं तु राजानं विद्धि राजन्‌ युधिष्ठिरम्‌ । ११० ।। 

भूपाल! उन सबका सुयोग्य स्त्रियोंक साथ विवाह हुआ था। महाराज! कुरुराज 
दुर्योधनने समय आनेपर शकुनिकी सलाहसे अपनी बहिन दुःशलाका विवाह सिन्धुदेशके 
राजा जयद्रथके साथ कर दिया। जनमेजय! राजा युधिष्ठिरको तो तुम धर्मका अंश 
जानो || १०९-११० || 

भीमसेनं तु वातस्य देवराजस्य चार्जुनम्‌ । 

अश्रिनोस्तु तथैवांशौ रूपेणाप्रतिमौ भुवि | १११ ।। 

नकुल: सहदेवश्व सर्वभूतमनोहरौ । 

यस्तु वर्चा इति ख्यात: सोमपुत्र: प्रतापवान्‌ ।। ११२ ।। 

सोअभिमन्युर्बृहत्कीर्तिर्जुनस्य सुतो5भवत्‌ । 

यस्यावतरणे राजन्‌ सुरान्‌ सोमो5ब्रवीदिदम्‌ ।। ११३ ।। 

भीमसेनको वायुका और अर्जुनको देवराज इन्द्रका अंश जानो। रूप-सौन्दर्यकी दृष्टिसे 
इस पृथ्वीपर जिनकी समानता करनेवाला कोई नहीं था, वे समस्त प्राणियोंका मन मोह 
लेनेवाले नकुल और सहदेव अश्विनीकुमारोंके अंशसे उत्पन्न हुए थे। वर्चा नामसे विख्यात 
जो चन्द्रमाका प्रतापी पुत्र था, वही महायशस्वी अर्जुनकुमार अभिमन्यु हुआ। जनमेजय! 
उसके अवतार-कालनमें चन्द्रमाने देवताओंसे इस प्रकार कहा-- ।। १११--११३ ।। 

नाहं दद्यां प्रियं पुत्र मम प्राणैर्गरीयसम्‌ । 

समय: क्रियतामेष न शक्‍्यमतिवर्तितुम्‌ ।। ११४ ।। 

“मेरा पुत्र मुझे अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है, अतः मैं इसे अधिक दिनोंके लिये नहीं 
दे सकता। इसलिये मृत्युलोकमें इसके रहनेकी कोई अवधि निश्चित कर दी जाय। फिर उस 
अवधिका उल्लंघन नहीं किया जा सकता ।। ११४ ।। 

सुरकार्य हि नः कार्यमसुराणां क्षितौ वध: । 

तत्र यास्यत्ययं वर्चा न च स्थास्यति वै चिरम्‌ ।। ११५ ।। 


'पृथ्वीपर असुरोंका वध करना देवताओंका कार्य है और वह हम सबके लिये 
करनेयोग्य है। अतः उस कार्यकी सिद्धिके लिये यह वर्चा भी वहाँ अवश्य जायगा। परंतु 
दीर्घकालतक वहाँ नहीं रह सकेगा || ११५ ।। 

ऐन्द्रिनरस्तु भविता यस्य नारायण: सखा । 

सोर्ड्जुनेत्यभिविख्यात: पाण्डो: पुत्र: प्रतापवान्‌ ।। ११६ ।। 

“भगवान्‌ नर, जिनके सखा भगवान्‌ नारायण हैं, इन्द्रके अंशसे भूतलमें अवतीर्ण होंगे। 
वहाँ उनका नाम अर्जुन होगा और वे पाण्डुके प्रतापी पुत्र माने जायँगे | ११६ ।। 

तस्यायं भविता पुत्रो बालो भुवि महारथ: । 

ततः: षोडश वर्षाणि स्थास्यत्यमरसत्तमा: ।। ११७ ।। 

'श्रेष्ठ देवगण! पृथ्वीपर यह वर्चा उन्हीं अर्जुनका पुत्र होगा, जो बाल्यावस्थामें ही 
महारथी माना जायगा। जन्म लेनेके बाद सोलह वर्षकी अवस्थातक यह वहाँ 
रहेगा || ११७ || 

अस्य षोडशवर्षस्य स संग्रामो भविष्यति । 

यत्रांशा व: करिष्यन्ति कर्म वीरनिषूदनम्‌ ।। ११८ ।। 

“इसके सोलहवें वर्षमें वह महाभारत-युद्ध होगा, जिसमें आपलोगोंके अंशसे उत्पन्न हुए 
वीर-पुरुष शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला अद्भुत पराक्रम कर दिखायेंगे |। ११८ ।। 

नरनारायणाभ्यां तु स संग्रामो विना कृत: । 

चक्रव्यूहं समास्थाय योधयिष्यन्ति व: सुरा: ।। ११९ ।। 

विमुखाउ्छात्रवान्‌ सर्वान्‌ कारयिष्यति मे सुत: । 

बाल: प्रविश्य च व्यूहमभेद्यं विचरिष्यति ।। १२० ।। 

“देवताओ! एक दिन जब कि उस युद्धमें नर और नारायण (अर्जुन और श्रीकृष्ण) 
उपस्थित न रहेंगे, उस समय शत्रुपक्षके लोग चक्रव्यूहकी रचना करके आप-लोगोंके साथ 
युद्ध करेंगे। उस युद्धमें मेरा यह पुत्र समस्त शत्रु-सैनिकोंको युद्धसे मार भगायेगा और 
बालक होनेपर भी उस अभेद्य व्यूहमें घुसकर निर्भय विचरण करेगा ।। ११९-१२० || 

महारथानां वीराणां कदनं च करिष्यति । 

सर्वेषामेव शत्रूणां चतुर्थाशं नयिष्यति ।। १२१ ।। 

दिनार्थेन महाबाहु: प्रेतराजपुरं प्रति । 

ततो महारथैवीरि: समेत्य बहुशो रणे || १२२ ।। 

दिनक्षये महाबाहुर्मया भूय: समेष्यति । 

एकं वंशकरं पुत्र वीर॑ वै जनयिष्यति ।। १२३ ।। 

प्रणष्टं भारतं वंशं स भूयो धारयिष्यति । 

एतत्‌ सोमवच: श्रुत्वा तथास्त्विति दिवौकस: ।। १२४ ।। 

प्रत्यूचु: सहिता: सर्वे ताराधिपमपूजयन्‌ । 


एवं ते कथितं राजंस्तव जन्म पितु: पितु: ।। १२५ ।। 

“तथा बड़े-बड़े महारथी वीरोंका संहार कर डालेगा। आधे दिनमें ही महाबाहु अभिमन्यु 
समस्त शत्रुओंके एक चौथाई भागको यमलोक पहुँचा देगा। तदनन्तर बहुत-से महारथी एक 
साथ ही उसपर टूट पड़ेंगे और वह महाबाहु उन सबका सामना करते हुए संध्या होते-होते 
पुनः मुझसे आ मिलेगा। वह एक ही वंशप्रवर्तक वीर पुत्रको जन्म देगा, जो नष्ट हुए 
भरतकुलको पुनः धारण करेगा।” सोमका यह वचन सुनकर समस्त देवताओंने “तथास्तु/ 
कहकर उनकी बात मान ली और सबने चन्द्रमाका पूजन किया। राजा जनमेजय! इस 
प्रकार मैंने तुम्हारे पिताके पिताका जन्म-रहस्य बताया है || १२१--१२५ ।। 

अन्नेर्भागं तु विद्धि त्वं धृष्टद्युम्न॑ं महारथम्‌ । 

शिखण्डिनमथो राजन स्त्रीपूर्व विद्धि राक्षमम्‌ ।। १२६ ।। 

महाराज! महारथी धृष्टद्युम्नको तुम अग्निका भाग समझो। शिखण्डी राक्षसके अंशसे 
उत्पन्न हुआ था। वह पहले कन्यारूपमें उत्पन्न होकर पुनः पुरुष हो गया था ।। १२६ ।। 

द्रौपदेयाश्व ये पडच बभूवुर्भरतर्षभ । 

विश्वान्‌ देवगणान्‌ विद्धि संजातान्‌ भरतर्षभ ।। १२७ ।। 

भरतर्षभ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि द्रौपदीके जो पाँच पुत्र थे, उनके रूपमें पाँच 
विश्वेदेवगण ही प्रकट हुए थे || १२७ ।। 

प्रतिविन्ध्य: सुतसोम: श्रुतकीर्तिस्तथापर: । 

नाकुलिस्तु शतानीक: श्रुतसेनश्न वीर्यवान्‌ ।। १२८ ।। 

उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं--प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, नकुलनन्दन 
शतानीक तथा पराक्रमी श्रुतसेन || १२८ ।। 

शूरो नाम यदुश्रेष्ठो वसुदेवपिताभवत्‌ । 

तस्य कन्या पृथा नाम रूपेणासदृशी भुवि ॥। १२९ ।। 

वसुदेवजीके पिताका नाम था शूरसेन। वे यदुवंशके एक श्रेष्ठ पुरुष थे। उनके पृथा 
नामवाली एक कन्या हुई, जिसके समान रूपवती स्त्री इस पृथ्वीपर दूसरी नहीं 
थी ।। १२९ ।। 

पितुः स्वस्नीयपुत्राय सो5नपत्याय वीर्यवान्‌ । 

अग्रमग्रे प्रतिज्ञाय स्वस्यापत्यस्य वै तदा || १३० ।। 

उग्रसेनके फुफेरे भाई कुन्तिभोज संतानहीन थे। पराक्रमी शूरसेनने पहले कभी उनके 
सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि “मैं अपनी पहली संतान आपको दे दूँगा” ।। १३० ।। 

अग्रजातेति तां कन्यां शूरो<नुग्रहकाड्क्षया । 

अददात्‌ कुन्तिभोजाय स तां दुहितरं तदा ।। १३१ ।। 

तदनन्तर सबसे पहले उनके यहाँ कन्या ही उत्पन्न हुई। शूरसेनने अनुग्रहकी इच्छासे 
राजा कुन्तिभोजको अपनी वह पुत्री पृथा प्रथम संतान होनेके कारण गोद दे दी || १३१ ।। 


सा नियुक्ता पितुर्गेहे ब्राह्मणातिथिपूजने । 

उग्र॑ पर्यचरद्‌ घोरें ब्राह्मणं संशितव्रतम्‌ ।। १३२ ।। 

निगूढनिश्चयं धर्मे यं तं दुर्वाससं विदु: । 

तमुग्रं शंसितात्मानं सर्वयत्नैरतोषयत्‌ ।। १३३ ।। 

पिताके घरपर रहते समय पृथाको ब्राह्मणों और अतिथियोंके स्वागत-सत्कारका कार्य 
सौंपा गया था। एक दिन उसने कठोर व्रतका पालन करनेवाले भयंकर क्रोधी तथा उग्र 
प्रकृतिवाले एक ब्राह्मण महर्षिकी, जो धर्मके विषयमें अपने निश्चयको छिपाये रखते थे और 
लोग जिन्हें दुर्वासाके नामसे जानते हैं, सेवा की। वे ऊपरसे तो उग्र स्वभावके थे, परंतु 
उनका हृदय महान्‌ होनेके कारण सबके द्वारा प्रशंसित था। पृथाने पूरा प्रयत्न करके अपनी 
सेवाओंद्वारा मुनिको संतुष्ट किया ।। १३२-१३३ ।। 

तुष्टोडभिचारसंयुक्तमाचचक्षे यथाविधि । 

उवाच चैनां भगवान्‌ प्रीतो5स्मि सुभगे तव ।। १३४ ।। 

भगवान्‌ दुर्वासाने संतुष्ट होकर पृथाको प्रयोग-विधिसहित एक मन्त्रका विधिपूर्वक 
उपदेश किया और कहा--'सुभगे! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ || १३४ ।। 

य॑ य॑ देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि । 

तस्य तस्य प्रसादात्‌ त्वं देवि पुत्राउजनिष्यसि ।। १३५ ।। 

'देवि! तुम इस मन्त्रद्वारा जिस-जिस देवताका आवाहन करोगी, उसी-उसीके 
कृपाप्रसादसे पुत्र उत्पन्न करोगी” ।। १३५ ।। 

एवमुक्ता च सा बाला तदा कौतूहलान्विता । 

कन्या सती देवमर्कमाजुहाव यशस्विनी ।। १३६ ।। 

दुर्वासाके ऐसा कहनेपर वह सती-साध्वी यशस्विनी बाला यद्यपि अभी कुमारी कन्या 
थी, तो भी कौतूहलवश उसने भगवान्‌ सूर्यका आवाहन किया ।। १३६ ।। 

प्रकाशकर्ता भगवांस्तस्यां गर्भ दधौ तदा । 

अजीजनत्‌ सुतं चास्यां सर्वशस्त्रभृतां वरम्‌ ।। १३७ ।। 

तब सम्पूर्ण जगतमें प्रकाश फैलानेवाले भगवान्‌ सूर्यने कुन्तीके उदरमें गर्भ स्थापित 
किया और उस गर्भसे एक ऐसे पुत्रको जन्म दिया, जो समस्त श्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ 
था ।। १३७ || 

सकुण्डलं सकवचं देवगर्भश्रियान्वितम्‌ । 

दिवाकरसमं दीप्त्या चारुसर्वाजड़भूषितम्‌ ।। १३८ ।। 

वह कुण्डल और कवचके साथ ही प्रकट हुआ था। देवताओंके बालकोंमें जो सहज 
कान्ति होती है, उसीसे वह सुशोभित था। अपने तेजसे वह सूर्यके समान जान पड़ता था। 
उसके सभी अंग मनोहर थे, जो उसके सम्पूर्ण शरीरकी शोभा बढ़ा रहे थे | १३८ ।। 

निगूहमाना जात वै बन्धुपक्षभयात्‌ तदा | 


उत्ससर्ज जले कुन्ती तं कुमारं यशस्विनम्‌ ।। १३९ ।। 

उस समय कुन्तीने पिता-माता आदि बान्धव-पक्षके भयसे उस यशस्वी कुमारको 
छिपाकर एक पेटीमें रखकर जलमें छोड़ दिया || १३९ ।। 

तमुत्सूष्टं जले गर्भ राधाभर्ता महायशा: । 

राधाया: कल्पयामास पुत्रं सोडधिरथस्तदा ।। १४० ।। 

जलमें छोड़े हुए उस बालकको राधाके पति महायशस्वी अधिरथ सूतने लेकर राधाकी 
गोदमें दे दिया और उसे राधाका पुत्र बना लिया ।। १४० ।। 

चक्रतुर्नामधेयं च तस्य बालस्य तावुभौ । 

दम्पती वसुषेणेति दिक्षु सर्वासु विश्वुतम्‌ ।। १४१ ।। 

उन दोनों दम्पतिने उस बालकका नाम वसुषेण रखा। वह सम्पूर्ण दिशाओंमें भलीभाँति 
विख्यात था ।। १४१ ।। 

संवर्धमानो बलवान्‌ स्वस्त्रिषूत्तमो5भवत्‌ | 

वेदाड़ानि च सर्वाणि जजाप जयतां वर: ।। १४२ |। 

बड़ा होनेपर वह बलवान्‌ बालक सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकोी चलानेकी कलामें उत्तम हुआ। 
उस विजयी वीरने सम्पूर्ण वेदांगोंका अध्ययन कर लिया ।। १४२ ।। 

यस्मिन्‌ काले जपन्नास्ते धीमान्‌ सत्यपराक्रम: । 

नादेयं ब्राह्मणेष्वासीत्‌ तस्मिन्‌ काले महात्मन: ।। १४३ ।। 

वसुषेण (कर्ण) बड़ा बुद्धिमान्‌ और सत्यपराक्रमी था। जिस समय वह जपमें लगा 
होता, उस समय उस महात्माके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जिसे वह ब्राह्मणोंके 
माँगनेपर न दे डाले ।। १४३ ।। 

तमिन्द्रो ब्राह्मणो भूत्वा पुत्रार्थे भूतभावन: । 

ययाचे कुण्डले वीर॑ कवचं च सहाड्गजजम्‌ ।। १४४ ।। 

भूतभावन इन्द्रने अपने पुत्र अर्जुनके हितके लिये ब्राह्मणका रूप धारण करके वीर 
कर्णसे दोनों कुण्डल तथा उसके शरीरके साथ ही उत्पन्न हुआ कवच माँगा ।। १४४ ।। 

उत्कृत्य कर्णो ह्ददात्‌ कवचं कुण्डले तथा । 

शक्ति शक्रो ददौ तस्मै विस्मितश्नलेदमब्रवीत्‌ ।। १४५ ।। 

देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्‌ । 

यस्मिन्‌ क्षेप्स्यसि दुर्धर्ष स एको न भविष्यति ।। १४६ ।। 

कर्णने अपने शरीरमें चिपके हुए कवच और कुण्डलोंको उधेड़कर दे दिया। इन्द्रने 
विस्मित होकर कर्णको एक शक्ति प्रदान की और कहा--दुर्धर्ष वीर! तुम देवता, असुर, 
मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंमेंसे जिसपर भी इस शक्तिको चलाओगे, वह एक व्यक्ति 
निश्चय ही अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठेगा” || १४५-१४६ ।। 

पुरा नाम च तस्यासीद्‌ वसुषेण इति क्षितौ । 


ततो वैकर्तन: कर्ण: कर्मणा तेन सो5भवत्‌ ।। १४७ ।। 

पहले कर्णका नाम इस पृथ्वीपर वसुषेण था। फिर कवच और कुण्डल काटनेके कारण 
वह वैकर्तन नामसे प्रसिद्ध हुआ ।। १४७ ।। 

आमुक्तकवचो वीरो यस्तु जज्ञे महायशा: । 

स कर्ण इति विख्यात: पृथाया: प्रथम: सुतः ।। १४८ ।। 

जो महायशस्वी वीर कवच धारण किये हुए ही उत्पन्न हुआ, वह पृथाका प्रथम पुत्र 
कर्ण नामसे ही सर्वत्र विख्यात था | १४८ ।। 

स तु सूतकुले वीरो ववृधे राजसत्तम | 

कर्ण नरवरश्रेष्ठ सर्वशस्त्रभूृतां वरम्‌ ।। १४९ ।। 

महाराज! वह वीर सूतकुलमें पाला-पोसा जाकर बड़ा हुआ था। नरश्रेष्ठ कर्ण सम्पूर्ण 
शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ था ।। १४९ ।। 

दुर्योधनस्यथ सचिवं मित्र शत्रुविनाशनम्‌ | 

दिवाकरस्य त॑ विद्धि राजन्नंशमनुत्तमम्‌ ।। १५० ।। 

वह दुर्योधनका मन्त्री और मित्र होनेके साथ ही उसके शत्रुओंका नाश करनेवाला था। 
राजन! तुम कर्णको साक्षात्‌ सूर्यदेवका सर्वोत्तम अंश जानो ।। १५० ।। 

यस्तु नारायणो नाम देवदेव: सनातन: । 

तस्यांशो मानुषेष्वासीद्‌ वासुदेव: प्रतापवान्‌ ।। १५१ ।। 

देवताओंके भी देवता जो सनातन पुरुष भगवान्‌ नारायण हैं, उन्हींके अंशस्वरूप 
प्रतापी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण मनुष्योंमें अवतीर्ण हुए थे | १५१ ।। 

शेषस्यांशश्ष नागस्य बलदेवो महाबल: । 

सनत्कुमार प्रद्युम्न॑ विद्धि राजन्‌ महौजसम्‌ ।। १५२ ।। 

महाबली बलदेवजी शेषनागके अंश थे। राजन! महातेजस्वी प्रद्युम्मनको तुम 
सनत्कुमारका अंश जानो || १५२ ।। 

एवमन्ये मनुष्येन्द्रा बहवों5शा दिवौकसाम्‌ | 

जज्ञिरे वसुदेवस्य कुले कुलविवर्धना: ।। १५३ ।। 

इस प्रकार वसुदेवजीके कुलमें बहुत-से दूसरे-दूसरे नरेन्द्र उत्पन्न हुए, जो देवताओंके 
अंश थे। वे सभी अपने कुलकी वृद्धि करनेवाले थे || १५३ ।। 

गणस्त्वप्सरसां यो वै मया राजन प्रकीर्तित: । 

तस्य भाग: क्षितौ जज्ञे नियोगाद्‌ वासवस्य ह ।। १५४ ।। 

महाराज! मैंने अप्सराओोंके जिस समुदायका वर्णन किया है, उसका अंश भी इन्द्रके 
आदेशसे इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ था ।। १५४ ।। 

तानि षोडश देवीनां सहस्राणि नराधिप । 

बभूवुर्मानुषे लोके वासुदेवपरिग्रह: || १५५ ।। 


नरेश्वर! वे अप्सराएँ मनुष्यलोकमें सोलह हजार देवियोंके रूपमें उत्पन्न हुई थीं, जो 
सब-की-सब भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पत्नियाँ हुईं || १५५ ।। 

श्रियस्तु भाग: संजज्ञे रत्यर्थ पृथिवीतले । 

भीष्मकस्य कुले साध्वी रुक्मिणी नाम नामत: ।। १५६ ।। 

नारायणस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णको आनन्द प्रदान करनेके लिये भूतलपर विदर्भराज 
भीष्मकके कुलमें सती-साध्वी रुक्मिणीदेवीके नामसे लक्ष्मीजीका ही अंश प्रकट हुआ 
था ।। १५६ || 

द्रौपदी त्वथ संजज्ञे शचीभागादनिन्दिता । 

द्रुपदस्य कुले कन्या वेदिमध्यादनिन्दिता ।। १५७ ।। 

सती-साध्वी द्रौपदी शचीके अंशसे उत्पन्न हुई थी। वह राजा द्रुपदके कुलमें यज्ञकी 
वेदीके मध्यभागसे एक अनिन्द्य सुन्दरी कुमारी कन्याके रूपमें प्रकट हुई थी ।। १५७ ।। 

नातिहस्वा न महती नीलोत्पलसुगन्धिनी । 

पद्मायताक्षी सुश्रोणी स्वसिताज्चितमूर्थजा ।। १५८ ।। 

वह न तो बहुत छोटी थी और न बहुत बड़ी ही। उसके अंगोंसे नीलकमलकी सुगन्ध 
फैलती रहती थी। उसके नेत्र कमलदलके समान सुन्दर और विशाल थे, नितम्बभाग बड़ा 
ही मनोहर था और उसके काले-काले घूँघराले बालोंका सौन्दर्य भी अद्भुत था ।। १५८ ।। 

सर्वलक्षणसम्पूर्णा वैदूर्यमणिसंनिभा । 

पज्चानां पुरुषेन्द्राणां चित्तप्रमथनी रह: ।। १५९ ।। 

वह समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा वैदूर्य मणिके समान कान्तिमती थी। एकान्तमें 
रहकर वह पाँचों पुरुषप्रवर पाण्डवोंके मनको मुग्ध किये रहती थी ।। १५९ ।। 

सिद्धिर्धतिश्व ये देव्यौ पज्चानां मातरौ तु ते । 

कुन्ती माद्री च जज्ञाते मतिस्तु सुबलात्मजा ।। १६० ।। 

सिद्धि और धृति नामवाली जो दो देवियाँ हैं, वे ही पाँचों पाण्डवोंकी दोनों माताओं-- 
कुन्ती और माद्रीके रूपमें उत्पन्न हुई थीं। सुबल-नरेशकी पुत्री गान्धारीके रूपमें साक्षात्‌ 
मतिदेवी ही प्रकट हुई थीं || १६० ।। 

इति देवासुराणां ते गन्धर्वाप्सरसां तथा । 

अंशावतरणं राजन्‌ राक्षसानां च कीर्तितम्‌ ।। १६१ ।। 

ये पृथिव्यां समुद्भूता राजानो युद्ध दुर्मदा: । 

महात्मानो यदूनां च ये जाता विपुले कुले ।। १६२ ।। 

ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या मया ते परिकीर्तिता: । 

धन्यं यशस्यं पुत्रीयमायुष्यं विजयावहम्‌ । 

इदमंशावतरणं श्रोतव्यमनसूयता ।। १६३ ।। 


राजन! इस प्रकार तुम्हें देवताओं, असुरों, गन्धर्वों, अप्सराओं तथा राक्षसोंके अंशोंका 
अवतरण बताया गया। युद्धमें उन्‍्मत्त रहनेवाले जो-जो राजा इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे 
और जो-जो महात्मा क्षत्रिय यादवोंके विशाल कुलमें प्रकट हुए थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय 
अथवा वैश्य जो भी रहे हैं, उन सबके स्वरूपका परिचय मैंने तुम्हें दे दिया है। मनुष्यको 
चाहिये कि वह दोष-दृष्टिका त्याग करके इस अंशावतरणके प्रसंगको सुने। यह धन, यश, 
पुत्र, आयु तथा विजयकी प्राप्ति करानेवाला है ।। १६१--१६३ ।। 

अंशावतरणं श्रुत्वा देवगन्धर्वरक्षसाम्‌ । 

प्रभवाप्ययवित्‌ प्राज्ञो न कृच्छेष्ववसीदति ।। १६४ ।। 

देवता, गन्धर्व तथा राक्षसोंके इस अंशावतरणको सुनकर विश्वकी उत्पत्ति और प्रलयके 
अधिष्ठान परमात्माके स्वरूपको जाननेवाला प्राज्ञ पुरुष बड़ी-बड़ी विपत्तियोंमें भी दुःखी 
नहीं होता ।। १६४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि अंशावतरणसमाप्तौ 
सप्तषष्टितमो5ध्याय: ।। ६७ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें अंशावतरणयमाप्तिविषयक 
सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६७ ॥/ 


है अर छा | अर-क्रा् 


- “अत्रि” शब्दसे यहाँ सूर्यको ग्रहण किया गया है। नीलकण्ठने भी यही अर्थ लिया है। 


अष्टषष्टितमो< ध्याय: 


राजा दुष्यन्तकी अद्भुत शक्ति तथा राज्यशासनकी 


क्षमताका वर्णन 
जनमेजय उवाच 
त्वत्त: श्रुतमिदं ब्रह्मन्‌ देवदानवरक्षसाम्‌ । 
अंशावतरणं सम्यग गन्धर्वाप्सरसां तथा ।। १ ।। 
जनमेजय बोले--ब्रह्मन! मैंने आपके मुखसे देवता, दानव, राक्षस, गन्धर्व तथा 
अप्सराओंके अंशावतरणका वर्णन अच्छी तरह सुन लिया ।। १ ।। 
इमं तु भूय इच्छामि कुरूणां वंशमादित: । 
कथ्यमानं त्वया विप्र विप्र्षिगणसंनिधौ ।। २ ।। 
विप्रवर! अब इन ब्रह्मर्षियोंक समीप आपके द्वारा वर्णित कुरुवंशका वृत्तान्त पुनः 
आदिसे ही सुनना चाहता हूँ ।। २ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


पौरवाणां वंशकरो दुष्यन्तो नाम वीर्यवान्‌ । 

पृथिव्याश्षतुरन्‍्ताया गोप्ता भरतसत्तम ।। ३ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--भरतवंशशिरोमणे! पूरुवंशका विस्तार करनेवाले एक राजा 
हो गये हैं, जिनका नाम था दुष्यन्त। वे महान्‌ पराक्रमी तथा चारों समुद्रोंसे घिरी हुई समूची 
पृथ्वीके पालक थे ।। ३ ।। 

चतुर्भागं भुवः कृत्स्नं यो भुडक्ते मनुजेश्वर: । 

समुद्रावरणांश्वापि देशान्‌ू स समितिंजय: ।। ४ ।। 

आम्लेच्छावधिकान्‌ सर्वान्‌ स भुड्क्ते रिपुमर्दन: । 

रत्नाकरसमुद्रान्तां श्चातुर्वण्यजनावृतान्‌ ।। ५ ।। 

राजा दुष्यन्त पृथ्वीके चारों भागोंका तथा समुद्रसे आवृत सम्पूर्ण देशोंका भी पूर्णरूपसे 
पालन करते थे। उन्होंने अनेक युद्धोंमें विजय पायी थी। रत्नाकर समुद्रतक फैले हुए, चारों 
वर्णके लोगोंसे भरे-पूरे तथा म्लेच्छ देशकी सीमासे मिले-जुले सम्पूर्ण भूभागोंका वे 
शत्रुमर्दन नरेश अकेले ही शासन तथा संरक्षण करते थे ।। ४-५ ।। 

न वर्णसंकरकरो न कृष्याकरकृज्जन: । 

न पापकृत्‌ कश्चिदासीत्‌ तस्मिन्‌ राजनि शासति ।॥। ६ ।। 

उस राजाके शासनकालनमें कोई मनुष्य वर्णसंकर संतान उत्पन्न नहीं करता था; पृथ्वी 
बिना जोते-बोये ही अनाज पैदा करती थी और सारी भूमि ही रत्नोंकी खान बनी हुई थी, 


इसलिये कोई भी खेती करने या रत्नोंकी खानका पता लगानेकी चेष्टा नहीं करता था। पाप 
करनेवाला तो उस राज्यमें कोई था ही नहीं ।। ६ ।। 

धर्मे रतिं सेवमाना धर्मार्थावभिपेदिरे । 

तदा नरा नरव्याप्र तस्मिउ्जनपदेश्वरे ।॥ ७ ।। 

नासीच्चौरभयं तात न क्षुधाभयमण्वपि । 

नासीद्‌ व्याधिभयं चापि तस्मिञज्जनपदेश्वरे ।। ८ ।। 

नरश्रेष्ठ] सभी लोग धर्ममें अनुराग रखते और उसीका सेवन करते थे। अतः धर्म और 
अर्थ दोनों ही उन्हें स्वतः प्राप्त हो जाते थे। तात! राजा दुष्यन्त जब इस देशके शासक थे, 
उस समय कहीं चोरोंका भय नहीं था। भूखका भय तो नाममात्रको भी नहीं था। इस देशपर 
दुष्यन्तके शासनकालमें रोग-व्याधिका डर तो बिलकुल ही नहीं रह गया था ।। ७-८ ।। 

स्वथर्मे रेमिरे वर्णा दैवे कर्मणि निःस्पृहा: । 

तमाश्रित्य महीपालमासंश्रैवाकुतो भया: ।। ९ ।। 

सब वर्णोंके लोग अपने-अपने धर्मके पालनमें रत रहते थे। देवाराधन आदि कर्मोंको 
निष्कामभावसे ही करते थे। राजा दुष्यन्तका आश्रय लेकर समस्त प्रजा निर्भय हो गयी 
थी।।९।। 

कालवर्षी च पर्जन्य: सस्यानि रसवन्ति च । 

सर्वरत्नसमृद्धा च मही पशुमती तथा ।॥। १० ।। 

मेघ समयपर पानी बरसाता और अनाज रसयुक्त होते थे। पृथ्वी सब प्रकारके रत्नोंसे 
सम्पन्न तथा पशु-धनसे परिपूर्ण थी ।। १० ।। 

स्वकर्मनिरता विप्रा नानृतं तेषु विद्यते । 

स चाद्भुतमहावीर्यों वज़संहननो युवा ।। ११ ।। 

ब्राह्मण अपने वर्णाश्रमोचित कर्मोमें तत्पर थे। उनमें झूठ एवं छल-कपट आदिका 
अभाव था। राजा दुष्यन्त स्वयं भी नवयुवक थे। उनका शरीर वज्रके सदृश दृढ था। वे 
अदभुत एवं महान्‌ पराक्रमसे सम्पन्न थे || ११ ।। 

उद्यम्य मन्दरं दोर्भ्या वहेत्‌ू सवनकाननम्‌ | 

चतुष्पथगदायुद्धे सर्वप्रहरणेषु च ।। १२ ।। 

नागपृष्े<श्चपृष्ठे च बभूव परिनिष्ठित: । 

बले विष्णुसमश्वासीत्‌ तेजसा भास्करोपम: ।। १३ ।। 

वे अपने दोनों हाथोंद्वारा उपवनों और काननोंसहित मन्दराचलको उठाकर ले जानेकी 
शक्ति रखते थे। गदायुद्धके प्रक्षेप5, विक्षेप*, परिक्षेपट, और अभिक्षेप*---इन चारों प्रकारोंमें 
कुशल तथा सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्यामें अत्यन्त निपुण थे। घोड़े और हाथीकी पीठपर 
बैठनेकी कलामें वे अत्यन्त प्रवीण थे। बलमें भगवान्‌ विष्णुके समान और तेजमें भगवान्‌ 
सूर्यके सदृश थे || १२-१३ ।। 


अक्षोभ्यत्वेडर्णवबसम: सहिष्णुत्वे धरासम: । 

सम्मतः स महीपाल: प्रसन्नपुरराष्ट्रवान्‌ । १४ ।। 

भूयो धर्मपरैभविर्मुदितं जनमादिशत्‌ ।। १५ ।। 

वे समुद्रके समान अक्षोभ्य और पृथ्वीके समान सहनशील थे। महाराज दुष्यन्तका 
सर्वत्र सम्मान था। उनके नगर तथा राष्ट्रके लोग सदा प्रसन्न रहते थे। वे अत्यन्त धर्मयुक्त 
भावनासे सदा प्रसन्न रहनेवाली प्रजाका शासन करते थे ।। १४-१५ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने 
अष्टषष्टितमो<5 ध्याय: ।। ६८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक 
अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६८ ॥। 


अपन बक। है २ >> 


$. दूरवर्ती शत्रुपर गदा फेंकना 'प्रक्षे' कहलाता है। २. समीपवर्ती शत्रुपर गदाकी कोटिसे प्रहार करना “विक्षेप” कहा 
गया है। ३. जब शत्रु बहुत हों तो सब ओर गदाको घुमाते हुए शत्रुओंपर उसका प्रहार करना “परिक्षेप” है। ४. गदाके 
अग्रभागसे मारना “अभिक्षेप” कहलाता है। 


एकोनसप्ततितमो<ध्याय: 


दुष्पन्तका शिकारके लिये वनमें जाना और विविध हिंसक 


वन-जन्तुओंका वध करना 
जनमेजय उवाच 
सम्भवं भरतस्याहं चरितं च महामते: । 
शकुन्तलाय श्रोत्पत्तिं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।। १ ।। 
जनमेजय बोले--ब्रह्मन! मैं परम बुद्धिमान्‌ भरतकी उत्पत्ति और चरित्रको तथा 
शकुन्तलाकी उत्पत्तिके प्रसंगको भी यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। १ ।। 
दुष्यन्तेन च वीरेण यथा प्राप्ता शकुन्तला | 
त॑ वै पुरुषसिंहस्य भगवन्‌ विस्तरं त्वहम्‌ ।। २ ।॥। 
श्रोतुमिच्छामि तत्त्वज्ञ सर्व मतिमतां वर । 
भगवन! वीरवर दुष्यन्तने शकुन्तलाको कैसे प्राप्त किया? मैं पुरुषसिंह दुष्यन्तके उस 
चरित्रको विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। तत्त्वज्ञ मुने! आप बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं। अतः ये 
सब बातें बताइये || २३ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


स कदाचिन्महाबाहु: प्रभूतनलवाहन: ।। ३ ।। 

वनं जगाम गहनं हयनागशतैर्वृत: । 

बलेन चतुरज्जेण वृत: परमवल्गुना ।। ४ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--एक समयकी बात है, महाबाहु राजा दुष्यन्त बहुत-से सैनिक 
और सवारियोंको साथ लिये सैकड़ों हाथी-घोड़ोंसे घिरकर परम सुन्दर चतुरंगिणी सेनाके 
साथ एक गहन वनकी ओर चले ।। ३-४ ।। 

खड्गशक्तिधरैवीरिर्गदामुसलपाणिभि: । 

प्रासतोमरहस्तैश्व ययौ योधशतैर्वृत: ।। ५ ।। 

जब राजाने यात्रा की, उस समय खड्ग, शक्ति, गदा, मुसल, प्रास और तोमर हाथमें 
लिये सैकड़ों योद्धा उन्हें घेरे हुए थे | ५ ।। 

सिंहनादैश्व योधानां शड्खदुन्दुभिनि:स्वनै: । 

रथनेमिस्वनैश्वैव सनागवरबूंहितैः ।। ६ ।। 

नानायुधधरैश्वापि नानावेषधरैस्तथा । 

ह्षितस्वनमिश्रैश्न क्षेगेडितास्फोटितस्वनै: ।। ७ | 

आसीत्‌ किलकिलाशब्दस्तस्मिन्‌ गच्छति पार्थिवे । 


प्रासादवरशृज्गभस्था: परया नृपशो भया ।। ८ ।। 

ददृशुस्तं स्त्रियस्तत्र शूरमात्मयशस्करम्‌ | 

शक्रोपमममित्रघ्नं परवारणवारणम्‌ ।। ९ ।। 

महाराज दुष्यन्तके यात्रा करते समय योद्धाओंके सिंहनाद, शंख और नगाड़ोंकी 
आवाज, रथके पहियोंकी घरघराहट, बड़े-बड़े गजराजोंकी चिग्घाड़, घोड़ोंकी हिनहिनाहट, 
नाना प्रकारके आयुध तथा भाँति-भाँतिके वेष धारण करनेवाले योद्धाओंद्वारा की हुई 
गर्जना और ताल ठोंकनेकी आवाजोंसे चारों ओर भारी कोलाहल मच गया था। महलके 
श्रेष्ठ शिखरपर बैठी हुई स्त्रियाँ उत्तम राजोचित शोभासे सम्पन्न शूरवीर दुष्यन्तको देख रही 
थीं। वे अपने यशको बढ़ानेवाले, इन्द्रके समान पराक्रमी और शत्रुओंका नाश करनेवाले थे। 
शत्रुरूपी मतवाले हाथीको रोकनेके लिये उनमें सिंहके समान शक्ति थी || ६--९ ।। 

पश्यन्तः स्त्रीगणास्तत्र वज्रपाणिं सम मेनिरे । 

अयं स पुरुषव्यात्रो रणे वसुपराक्रम: ।। १० ।। 

यस्य बाहुबलं प्राप्प न भवन्त्यसुहृदूगणा: । 

वहाँ देखती हुई स्त्रियोंने उन्हें वज्रपाणि इन्द्रके समान समझा और आपसमें वे इस 
प्रकार बातें करने लगीं--“सखियो! देखो तो सही, ये ही वे पुरुषसिंह महाराज दुष्यन्त हैं, 
जो संग्रामभूमिमें वसुओंके समान पराक्रम दिखाते हैं, जिनके बाहुबलमें पड़कर शत्रुओंका 
अस्तित्व मिट जाता है” || १०३ ।। 

इति वाचो ब्रुवन्त्यस्ता: स्त्रिय: प्रेमणा नराधिपम्‌ ।। ११ ।। 

तुष्ठवुः पुष्पवृष्टी क्ष ससृजुस्तस्य मूर्थनि । 

तत्र तत्र च विप्रेन्द्रै: स्‍्तूयमान: समन्‍्ततः ।। १२ |। 

ऐसी बातें करती हुई वे स्त्रियाँ बड़े प्रेमसे महाराज दुष्यन्तकी स्तुति करतीं और उनके 
मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करती थीं। यत्र-तत्र खड़े हुए श्रेष्ठ ब्राह्मण सब ओर उनकी स्तुति- 
प्रशंसा करते थे || ११-१२ ।। 

निर्ययौ परमप्रीत्या वनं मृगजिघांसया । 

त॑ं देवराजप्रतिमं मत्तवारणधूर्गतम्‌ ।। १३ ।। 

द्विजक्षत्रियविट्शूद्रा निर्यान्तमनुजग्मिरे । 

ददृशुर्वर्धभानास्ते आशीर्भिश्च॒ जयेन च ।। १४ ।। 

इस प्रकार महाराज वनमें हिंसक पशुओंका शिकार खेलनेके लिये बड़ी प्रसन्नताके 
साथ नगरसे बाहर निकले। वे देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी थे। मतवाले हाथीकी पीठपर 
बैठकर यात्रा करनेवाले उन महाराज दुष्यन्तके पीछे-पीछे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र 
सभी वर्णोके लोग गये और सब आशीर्वाद एवं विजयसूचक वचनोंद्वारा उनके अभ्युदयकी 
कामना करते हुए उनकी ओर देखते रहे ।। १३-१४ ।। 

सुदूरमनुजग्मुस्तं पौरजानपदास्तथा । 


न्यवर्तन्त ततः पश्चादनुज्ञाता नृपेण ह ।। १५ ।। 

नगर और जनपदके लोग बहुत दूरतक उनके पीछे-पीछे गये। फिर महाराजकी आज्ञा 
होनेपर लौट आये ।। १५ ।। 

सुपर्णप्रतिमेनाथ रथेन वसुधाधिप: । 

महीमापूरयामास घोषेण त्रिदिवं तथा ।। १६ ।। 

स गच्छन्‌ ददृशे धीमान्‌ नन्दनप्रतिमं वनम्‌ । 

बिल्वार्कखदिराकीर्ण कपित्थधवसंकुलम्‌ ।। १७ ।। 

उनका रथ गरुडके समान वेगशाली था। उसके द्वारा यात्रा करनेवाले नरेशने 
घरघराहटकी आवाजसे पृथ्वी और आकाशको गुँँजा दिया। जाते-जाते बुद्धिमान्‌ दुष्यन्तने 
एक नन्दनवनके समान मनोहर वन देखा, जो बेल, आक, खैर, कैथ और धव (बाकली) 
आदि वृक्षोंसे भरपूर था ।। १६-१७ ।। 

विषमं पर्वतस्रस्तैरश्मभिश्व समावृतम्‌ । 

निर्जलं निर्मनुष्यं च बहुयोजनमायतम्‌ ।। १८ ।। 

पर्वतकी चोटीसे गिरे हुए बहुत-से शिला-खण्ड वहाँ इधर-उधर पड़े थे। ऊँची-नीची 
भूमिके कारण वह वन बड़ा दुर्गग जान पड़ता था। अनेक योजनतक फैले हुए उस वनमें 
कहीं जल या मनुष्यका पता नहीं चलता था ।। १८ ।। 

मृगसिंहैर्व॒तं घोरैरन्यैश्वापि वनेचरै: । 

तद्‌ वन॑ मनुजव्याघ्र: सभृत्ययलवाहन: ।। १९ |। 

लोडयामास दुष्यन्त: सूदयन्‌ विविधान्‌ मृगान्‌ । 

बाणगोचरसपम्प्राप्तांस्तत्र व्याप्रगणान्‌ बहूनू ।। २० ।। 

पातयामास दुष्यन्तो निर्बिभेद च सायकै: । 

दूरस्थान्‌ सायकै: कांश्चिदभिनत्‌ स नराधिप: || २१ ।। 

अभ्याशमागतांश्वान्यान्‌ खड्गेन निरकृन्तत । 

कांश्चिदेणान्‌ समाजघ्ने शक्‍्त्या शक्तिमतां वर: ।। २२ ।। 

वह सब ओर मृग और सिंह आदि भयंकर जन्तुओं तथा अन्य वनवासी जीवोंसे भरा 
हुआ था। नरश्रेष्ठ राजा दुष्यन्तने सेवक, सैनिक और सवारियोंके साथ नाना प्रकारके 
हिंसक पशुओंका शिकार करते हुए उस वनको रौंद डाला। वहाँ बाणोंके लक्ष्यमें आये हुए 
बहुत-से व्याप्रोंको महाराज दुष्यन्तने मार गिराया और कितनोंको सायकोंसे बींध डाला। 
शक्तिशाली पुरुषोंमें श्रेष्ठ नरेशने कितने ही दूरवर्ती हिंसक पशुओंको बाणोंद्वारा घायल 
किया। जो निकट आ गये, उन्हें तलवारसे काट डाला और कितने ही एण जातिके 
पशुओंको शक्ति नामक शस्त्रद्वारा मौतके घाट उतार दिया ।। १९--२२ |। 

गदामण्डलतत्त्वज्ञक्ष॒चारामितविक्रम: । 

तोमरैरसिभिश्वापि गदामुसलकम्पनै: ।। २३ ।। 


चचार स विनिष्नन्‌ वै स्वैरचारान्‌ वनद्विपान्‌ । 

राज्ञा चाद्भुतवीर्येण योधेश्व समरप्रियै: ।। २४ ।। 

लोड्यमानं महारण्यं तत्यजु: सम मृगाधिपा: । 

तत्र विद्रुतयूथानि हतयूथपतीनि च | २५ ।। 

मृगयूथान्यथौत्सुक्याच्छब्दं चक्रुस्ततस्तत: । 

शुष्काश्चापि नदीर्गत्वा जलनैराश्यकर्शिता: ।। २६ ।। 

व्यायामक्लान्तह्ृदया: पतन्ति सम विचेतस: । 

क्षुत्पिपासापरीताश्र श्रान्ताश्न॒ पतिता भुवि ।। २७ ।। 

असीम पराक्रमवाले राजा गदा घुमानेकी कलामें अत्यन्त प्रवीण थे। अतः वे तोमर, 
तलवार, गदा तथा मुसलोंकी मारसे स्वेच्छापूर्वक विचरनेवाले जंगली हाथियोंका वध करते 
हुए वहाँ सब ओर विचरने लगे। अदभुत पराक्रमी नरेश और उनके युद्ध-प्रेमी सैनिकोंने उस 
विशाल वनका कोना-कोना छान डाला। अतः सिंह और बाघ उस वनको छोड़कर भाग 
गये। पशुओंके कितने ही झुंड, जिनके यूथपति मारे गये थे, व्यग्र होकर भागे जा रहे थे और 
कितने ही यूथ इधर-उधर आर्तनाद करते थे। वे प्याससे पीड़ित हो सूखी नदियोंमें जाकर 
जब जल नहीं पाते, तब निराशासे अत्यन्त खिन्न हो दौड़नेके परिश्रमसे क्लान्तचित्त होनेके 
कारण मूर्च्छित होकर गिर पड़ते थे। भूख, प्यास और थकावटसे चूर-चूर हो बहुत-से पशु 
धरतीपर गिर पड़े || २३--२७ ।। 

केचित्‌ तत्र नरव्याप्रैरभक्ष्यन्त बुभुक्षितै: । 

केचिदग्निमथोत्पाद्य संसाध्य च वनेचरा: ।। २८ ।। 

भक्षयन्ति सम मांसानि प्रकुट्य विधिवत्‌ तदा । 

तत्र केचिद्‌ गजा मत्ता बलिन: शस्त्रविक्षता: | २९ |। 

संकोच्याग्रकरान्‌ भीता: प्रद्रवन्ति सम वेगिता: । 

शकृन्मूत्रं सृजन्तश्च क्षरन्तः शोणितं बहु ।। ३० ।। 

वहाँ कितने ही व्याप्र-स्वभावके नृशंस जंगली मनुष्य भूखे होनेके कारण कुछ मृगोंको 
कच्चे ही चबा गये। कितने ही वनमें विचरनेवाले व्याध वहाँ आग जलाकर मांस पकानेकी 
अपनी रीतिके अनुसार मांसको कूट-कूटकर राँधने और खाने लगे। उस वनमें कितने ही 
बलवान्‌ और मतवाले हाथी अस्त्र-शस्त्रोंके आघातसे क्षत-विक्षत होकर सूँड़को समेटे हुए 
भयके मारे वेगपूर्वक भाग रहे थे। उस समय उनके घावोंसे बहुत-सा रक्त बह रहा था और 
वे मल-मूत्र करते जाते थे || २८--३० ।। 

वन्या गजवरास्तत्र ममृदुर्मनुजान्‌ बहून्‌ । 

तद्‌ वनं बलमेघेन शरधारेण संवृतम्‌ | 

व्यरोचत मृगाकीर्ण राज्ञा हतमृगाधिपम्‌ ।। ३१ ।। 


बड़े-बड़े जंगली हाथियोंने भी वहाँ भागते समय बहुत-से मनुष्योंको कुचल डाला। वहाँ 
बाणरूपी जलकी धारा बरसानेवाले सैन्यरूपी बादलोंने उस वनरूपी व्योमको सब ओरसे 
घेर लिया था। महाराज दुष्यन्तने जहाँके सिंहोंको मार डाला था, वह हिंसक पशुओंसे भरा 
हुआ वन बड़ी शोभा पा रहा था ।। ३१ ।। 
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने 
एकोनसप्ततितमो< ध्याय: ।। ६९ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक 
उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६९ ॥। 


अपन का छा | अफड-ए क्र 


सप्ततितमो< ध्याय: 


तपोवन और कण्वके आश्रमका वर्णन तथा राजा 
दुष्पन्तका उस आश्रममें प्रवेश 


वैशम्पायन उवाच 


ततो मृगसहस्राणि हत्वा सबलवाहन: । 

राजा मृगप्रसड्रेन वनमन्यद्‌ विवेश ह ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर सेना और सवारियोंके साथ राजा 
दुष्यन्तने सहस्रों हिंसक पशुओंका वध करके एक हिंसक पशुका ही पीछा करते हुए दूसरे 
वनमें प्रवेश किया ।। १ ।। 

एक एवोत्तमबल: क्षुत्पिपासाश्रमान्वित: । 

स वनस्यान्तमासाद्य महच्छून्यं समासदत्‌ ।। २ ।। 

उस समय उत्तम बलसे युक्त महाराज दुष्यन्त अकेले ही थे तथा भूख, प्यास और 
थकावटसे शिथिल हो रहे थे। उस वनके दूसरे छोरमें पहुँचनेपर उन्हें एक बहुत बड़ा ऊसर 
मैदान मिला, जहाँ वृक्ष आदि नहीं थे || २ ।। 

तच्चाप्यतीत्य नृपतिरुत्तमाश्रमसंयुतम्‌ । 

मन: प्रह्लादजननं दृष्टिकान्तमतीव च ।। ३ ।। 

शीतमारुतसंयुक्तं जगामान्यन्महद्‌ वनम्‌ । 

पुष्पितै: पादपै: कीर्णमतीव सुखशाद्धलम्‌ ।। ४ ।। 

उस वृक्षशून्य ऊसर भूमिको लाँचकर महाराज दुष्यन्त दूसरे विशालवनमें जा पहुँचे, जो 
अनेक उत्तम आश्रमोंसे सुशोभित था। देखनेमें अत्यन्त सुन्दर होनेके साथ ही वह मनमें 
अद्भुत आनन्दोललासकी सृष्टि कर रहा था। उस वनमें शीतल वायु चल रही थी। वहाँके 
वृक्ष फूलोंसे भरे थे और वनमें सब ओर व्याप्त हो उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ अत्यन्त 
सुखद हरी-हरी कोमल घास उगी हुई थी ।। ३-४ ।। 

विपुलं मधुरारावैर्नादितं विहगैस्तथा । 

पुंस्कोकिलनिनादैश्व झिललीकगणनादितम्‌ ।। ५ ।। 

वह वन बहुत बड़ा था और मीठी बोली बोलनेवाले विविध विहंगमोंके कलरवोंसे गूँज 
रहा था। उसमें कहीं कोकिलोंकी कुहू-कुह्ूू सुन पड़ती थी तो कहीं झींगुरोंकी झीनी झनकार 
गूँज रही थी ।। ५ ।। 

प्रवृद्धविटपैर्वृक्षै: सुखच्छायै: समावृतम्‌ । 

षट्पदाघ॒ूर्णिततलं लक्ष्म्या परमया युतम्‌ । ६ ।। 


वहाँ सब ओर बड़ी-बड़ी शाखाओंवाले विशाल वृक्ष अपनी सुखद शीतल छाया किये 
हुए थे और उन वृक्षोंके नीचे सब ओर भ्रमर मँड़रा रहे थे। इस प्रकार वहाँ सर्वत्र बड़ी भारी 
शोभा छा रही थी ।। ६ ।। 

नापुष्प: पादप: वक्रिन्नाफलो नापि कण्टकी । 

षट्पदैर्नाप्पपाकीर्णस्तस्मिन्‌ वै कानने5भवत्‌ ।। ७ ।। 

उस वनमें एक भी वृक्ष ऐसा नहीं था, जिसमें फूल और फल न लगे हों तथा भौरे न बैठे 
हों। काँटेदार वृक्ष तो वहाँ ढूँढ़नेपर भी नहीं मिलता था ।। ७ ।। 

विहगैनदितं पुष्पैरलंकृतमतीव च । 

सर्वर्तुकुसुमैर्वक्षै: सुखच्छायै: समावृतम्‌ ।। ८ ।। 

सब ओर अनेकानेक पक्षी चहक रहे थे। भाँति-भाँतिके पुष्प उस वनकी अत्यन्त शोभा 
बढ़ा रहे थे। सभी ऋतुओंमें फ़ूल देनेवाले सुखद छायायुक्त वृक्ष वहाँ चारों ओर फैले हुए 
थे।। ८ ।। 

मनोरमं महेष्वासो विवेश वनमुत्तमम्‌ । 

मारुताकलितास्तत्र द्रुमा: कुसुमशाखिन: ।। ९ ।। 

पुष्पवृष्टिं विचित्रां तु व्यसृजंस्ते पुन: पुनः । 

दिवःस्पृशो5थ संघुष्टा: पक्षिभिर्मधुरस्वनै: ।॥ १० ।। 

महान्‌ धनुर्थर राजा दुष्यन्तने इस प्रकार मनको मोह लेनेवाले उस उत्तम वनमें प्रवेश 
किया। उस समय फूलोंसे भरी हुई डालियोंवाले वृक्ष वायुके झकोरोंसे हिल-हिलकर उनके 
ऊपर बार-बार अदभुत पुष्प-वर्षा करने लगे। वे वृक्ष इतने ऊँचे थे, मानो आकाशको छू 
लेंगे। उनपर बैठे हुए मीठी बोली बोलनेवाले पक्षियोंके मधुर शब्द वहाँ गूँज रहे थे || ९-- 
१० || 

विरेजु: पादपास्तत्र विचित्रकुसुमाम्बरा: । 

तेषां तत्र प्रवालेषु पुष्पभारावनामिषु || ११ ।। 

रुवन्ति रावान्‌ मधुरान्‌ षट्पदा मधुलिप्सव: । 

तत्र प्रदेशांश्व बहून्‌ कुसुमोत्करमण्डितान्‌ ।। १२ ।। 

लतागृहपरिक्षिप्तान्‌ मनस: प्रीतिवर्धनान्‌ । 

सम्पश्यन्‌ सुमहातेजा बभूव मुदितस्तदा ।। १३ ।। 

उस वनमें पुष्परूपी विचित्र वस्त्र धारण करनेवाले वृक्ष अद्भुत शोभा पा रहे थे। 
फूलोंके भारसे झुके हुए उनके कोमल पल्‍्लवोंपर बैठे हुए मधुलोभी भ्रमर मधुर गुंजार कर 
रहे थे। राजा दुष्यन्तने वहाँ बहुत-से ऐसे रमणीय प्रदेश देखे जो फूलोंके ढेरसे सुशोभित 
तथा लतामण्डपोंसे अलंकृत थे। मनकी प्रसन्नताको बढ़ानेवाले उन मनोहर प्रदेशोंका 
अवलोकन करके उस समय महातेजस्वी राजाको बड़ा हर्ष हुआ || ११--१३ |। 

परस्पराश्लिष्टशाखै: पादपै: कुसुमान्वितै: । 


अशोभत वन तत्‌ तु महेन्द्रध्वजसंनिभै: ।। १४ ।। 

फूलोंसे लदे हुए वृक्ष एक-दूसरेसे अपनी डालियोंको सटाकर मानो गले मिल रहे थे। वे 
गगनचुम्बी वृक्ष इन्द्रकी ध्वजाके समान जान पड़ते थे और उनके कारण उस वनकी बड़ी 
शोभा हो रही थी ।। १४ ।। 

सिद्धचारणसंघैश्न गन्धर्वाप्सरसां गणै: । 

सेवितं वनमत्यर्थ मत्तवानरकिन्नरम्‌ ।। १५ |। 

सिद्ध-चारणसमुदाय तथा गन्धर्व और अप्सराओंके समूह भी उस वनका अत्यन्त 
सेवन करते थे। वहाँ मतवाले वानर और किन्नर निवास करते थे || १५ ।। 

सुख: शीत: सुगन्धी च पुष्परेणुवहो5निल: । 

परिक्रामन्‌ वने वृक्षानुपैतीव रिरंसया ।। १६ ।। 

उस वनमें शीतल, सुगन्ध, सुखदायिनी मन्द वायु फ़ूलोंके पराग वहन करती हुई मानो 
रमणकी इच्छासे बार-बार वृक्षोंक समीप आती थी ।। १६ ।। 

एवंगुणसमायुक्तं ददर्श स वन॑ नृप: । 

नदीकच्छोद्धवं कान्तमुच्छितध्वजसंनिभम्‌ ।। १७ ।। 

वह वन मालिनी नदीके कछारमें फैला हुआ था और ऊँची ध्वजाओंके समान ऊँचे 
वृक्षोंसे भरा होनेके कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ता था। राजाने इस प्रकार उत्तम गुणोंसे 
युक्त उस वनका भलीभाँति अवलोकन किया ।। १७ |। 

प्रेक्षमाणो वन॑ तत्‌ तु सुप्रहृष्टविहड्रमम्‌ । 

आश्रमप्रवरं रम्यं ददर्श च मनोरमम्‌ ।। १८ ।। 

इस प्रकार राजा अभी वनकी शोभा देख ही रहे थे कि उनकी दृष्टि एक उत्तम 
आश्रमपर पड़ी, जो अत्यन्त रमणीय और मनोरम था। वहाँ बहुत-से पक्षी हर्षोल्लासमें 
भरकर चहक रहे थे ॥। १८ ।। 

नानावृक्षसमाकीर्ण सम्प्रज्वलितपावकम्‌ । 

त॑ तदाप्रतिमं श्रीमानाश्रमं प्रत्यपूजयत्‌ ।। १९ ।। 

नाना प्रकारके वृक्षोंसे भरपूर उस वनमें स्थान-स्थानपर अग्निहोत्रकी आग प्रज्वलित 
हो रही थी। इस प्रकार उस अनुपम आश्रमका श्रीमान्‌ दुष्यन्त नरेशने मन-ही-मन बड़ा 
सम्मान किया || १९ |। 

यतिभिर्वालखिल्यैश्न वृतं मुनिगणान्वितम्‌ । 

अग्न्यगारैश्न बहुभि: पुष्पसंस्तरसंस्तृतम्‌ ।। २० ।। 

वहाँ बहुत-से त्यागी विरागी यति, बालखिल्य ऋषि तथा अन्य मुनिगण निवास करते 
थे। अनेकानेक अग्निहोत्रगृह उस आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ इतने फूल झड़कर गिरे 
थे कि उनके बिछौने-से बिछ गये थे || २० ।। 

महाकच्छैर्बृहद्धिश्व विभ्राजितमतीव च । 


मालिनीमभितो राजन्‌ नदीं पुण्यां सुखोदकाम्‌ ।। २१ ।। 

बड़े-बड़े तूनके वृक्षोंसे उस आश्रमकी शोभा बहुत बढ़ गयी थी। राजन! बीचमें 
पुण्यसलिला मालिनी नदी बहती थी, जिसका जल बड़ा ही सुखद एवं स्वादिष्ट था। उसके 
दोनों तटोंपर वह आश्रम फैला हुआ था ।। २१ ।। 

नैकपक्षिगणाकीर्णा तपोवनमनोरमाम्‌ | 

तत्र व्यालमृगान्‌ सौम्यान्‌ पश्यन्‌ प्रीतिमवाप सः ।। २२ ।। 

मालिनीमें अनेक प्रकारके जलपक्षी निवास करते थे तथा तटवर्ती तपोवनके कारण 
उसकी मनोहरता और बढ़ गयी थी। वहाँ विषधर सर्प और हिंसक वनजन्तु भी सौम्यभाव 
(हिंसाशून्य कोमलवृत्ति)-से रहते थे। यह सब देखकर राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई || २२ ।। 

त॑ चाप्रतिरथ: श्रीमानाश्रमं प्रत्यपद्यत । 

देवलोकप्रतीकाशं सर्वतः सुमनोहरम्‌ ।। २३ ।। 

श्रीमान्‌ दुष्यन्त नरेश अप्रतिरथ वीर थे--उस समय उनकी समानता करनेवाला 
भूमण्डलमें दूसरा कोई रथी योद्धा नहीं था। वे उक्त आश्रमके समीप जा पहुँचे, जो 
देवताओंके लोक-सा प्रतीत होता था। वह आश्रम सब ओरसे अत्यन्त मनोहर था ।। २३ ।। 

नदीं चाश्रमसंश्लिष्टां पुण्यतोयां ददर्श सः । 

सर्वप्राणभूतां तत्र जननीमिव घिछिताम्‌ ।। २४ ।। 

राजाने आश्रमसे सटकर बहनेवाली पुण्यसलिला मालिनी नदीकी ओर भी दृष्टिपात 
किया; जो वहाँ समस्त प्राणियोंकी जननी-सी विराज रही थी ।। २४ ।। 

सचक्रवाकपुलिनां पुष्पफेनप्रवाहिनीम्‌ । 

सकिन्नरगणावासां वानरफक्षनिषेविताम्‌ ।। २५ ।। 

उसके तटपर चकवा-चकई किलोल कर रहे थे। नदीके जलमें बहुत-से फूल इस प्रकार 
बह रहे थे, मानो फेन हों। उसके तटप्रान्तमें किन्नरोंके निवास-स्थान थे। वानर और रीछ भी 
उस नदीका सेवन करते थे ।। २५ ।। 

पुण्यस्वाध्यायसंघुष्टां पुलिनैरुपशोभिताम्‌ । 

मत्तवारणशार्दूलभुजगेन्द्रनिषेविताम्‌ ।। २६ ।। 

अनेक सुन्दर पुलिन मालिनीकी शोभा बढ़ा रहे थे। वेद-शास्त्रोंके पवित्र स्वाध्यायकी 
ध्वनिसे उस सरिताका निकटवर्ती प्रदेश गूँज रहा था। मतवाले हाथी, सिंह और बड़े-बड़े 
सर्प भी मालिनीके तटका आश्रय लेकर रहते थे || २६ ।। 

तस्यास्तीरे भगवत: काश्यपस्य महात्मन: । 

आश्रमप्रवरं रम्यं महर्षिगणसेवितम्‌ ।। २७ ।। 

उसके तटपर ही कश्यपगोत्रीय महात्मा कण्वका वह उत्तम एवं रमणीय आश्रम था। 
वहाँ महर्षियोंके समुदाय निवास करते थे || २७ ।। 

नदीमाश्रमसम्बद्धां दृष्टवा55श्रमपदं तथा । 


चकाराभिप्रवेशाय मतिं स नृपतिस्तदा ।। २८ ।। 

उस मनोहर आश्रम और आश्रमसे सटी हुई नदीको देखकर राजाने उस समय उसमें 
प्रवेश करनेका विचार किया ।। २८ ।। 

अलंकृतं द्वीपवत्या मालिन्या रम्यतीरया । 

नरनारायणस्थानं गड़येवोपशोभितम्‌ ।। २९ |। 

टापुओंसे युक्त तथा सुरम्य तटवाली मालिनी नदीसे सुशोभित वह आश्रम गंगा नदीसे 
शोभायमान भगवान्‌ नर-नारायणके आश्रम-सा जान पड़ता था ॥। २९ |। 

मत्तबर्हिणसंघुष्ट प्रविवेश महद्‌ वनम्‌ | 

तत्‌ स चैत्ररथप्रख्यं समुपेत्य नरर्षभ: ।। ३० ।। 

अतीवगुणसम्पन्नमनिर्देश्यं च वर्चसा | 

महर्षि काश्यपं द्रष्टमथ कण्वं तपोधनम्‌ ।। ३१ ।। 

ध्वजिनीमश्वसम्बाधां पदातिगजसंकुलाम्‌ । 

अवस्थाप्य वनद्वारि सेनामिदमुवाच स: ।। ३२ || 

तदनन्तर नरश्रेष्ठ दुष्यन्तने अत्यन्त उत्तम गुणोंसे सम्पन्न कश्यपगोत्रीय महर्षि तपोधन 
कण्वका, जिनके तेजका वाणीद्दारा वर्णन नहीं किया जा सकता था, दर्शन करनेके लिये 
कुबेरके चैत्ररथवनके समान मनोहर उस महान्‌ वनमें प्रवेश किया, जहाँ मतवाले मयूर 
अपनी केकाध्वनि फैला रहे थे। वहाँ पहुँचकर नरेशने रथ, घोड़े, हाथी और पैदलोंसे भरी 
हुई अपनी चतुरंगिणी सेनाको उस तपोवनके किनारे ठहरा दिया और कहा-- ॥| ३०-- 
३२ || 

मुनि विरजसं द्रष्ट गमिष्यामि तपोधनम्‌ । 

काश्यपं स्थीयतामत्र यावदागमनं मम ।। ३३ ।। 

'सेनापति! और सैनिको! मैं रजोगुणरहित तपस्वी महर्षि कश्यपनन्दन कण्वका दर्शन 
करनेके लिये उनके आश्रममें जाऊँगा। जबतक मैं वहाँसे लौट न आऊँ, तबतक तुमलोग 
यहीं ठहरो' ।। ३३ ।। 

तद्‌ वन॑ नन्दनप्रख्यमासाद्य मनुजेश्वर: । 

क्षुत्पिपासे जहौ राजा मुर्दे चावाप पुष्कलाम्‌ ॥। ३४ ।। 

इस प्रकार आदेश दे नरेश्वर दुष्यन्तने नन्दनवनके समान सुशोभित उस तपोवनमें 
पहुँचकर भूख-प्यासको भुला दिया। वहाँ उन्हें बड़ा आनन्द मिला ।। ३४ ।। 

सामात्यो राजलिड्रानि सो5पनीय नराधिप: । 

पुरोहितसहायश्च जगामाश्रममुत्तमम्‌ ।। ३५ |। 

वे नरेश मुकुट आदि राजचिह्लोंको हटाकर साधारण वेश-भूषामें मन्त्रियों और 
पुरोहितके साथ उस उत्तम आश्रमके भीतर गये ।। ३५ ।। 

दिदृक्षुस्तत्र तमृषिं तपोराशिमथाव्ययम्‌ । 


ब्रह्मलोकप्रतीकाशमाश्रमं सोडभिवीक्ष्य ह । 

षट्पदोदगीतसंघुष्टं नानाद्धविजगणायुतम्‌ ।। ३६ ।। 

वहाँ ये तपस्याके भण्डार अविकारी महर्षि कण्वका दर्शन करना चाहते थे। राजाने उस 
आश्रमको देखा, मानो दूसरा ब्रह्मलोक हो। नाना प्रकारके पक्षी वहाँ कलरव कर रहे थे। 
भ्रमरोंके गुंजनसे सारा आश्रम गूँज रहा था ।। ३६ |। 

ऋचो बह्नचमुख्यैश्न प्रेयमाणा: पदक्रमैः । 

शुश्राव मनुजव्याप्रो विततेष्विह कर्मसु || ३७ ।। 

श्रेष्ठ ऋग्वेदी ब्राह्मण पद और क्रमपूर्वक ऋचाओंका पाठ कर रहे थे। नरश्रेष्ठ दुष्यन्तने 
अनेक प्रकारके यज्ञसम्बन्धी कर्मोमें पढ़ी जाती हुई वैदिक ऋचाओंको सुना || ३७ ।। 

यज्ञविद्याड्भविद्धिश्व यजुर्विद्धिश्चन शोभितम्‌ । 

मधुरै: सामगीतैश्व ऋषिभिननियतव्रतै: ।। ३८ ।। 

भारुण्डसामगीताभिरथर्वशिरसोदगतै: । 

यतात्मभि: सुनियतै: शुशुभे स तदाश्रम: ।। ३९ ।। 

यज्ञविद्या और उसके अंगोंकी जानकारी रखनेवाले यजुर्वेदी विद्वान्‌ भी आश्रमकी 
शोभा बढ़ा रहे थे। नियमपूर्वक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले सामवेदी महर्षियोंद्वारा वहाँ 
मधुरस्वरसे सामवेदका गान किया जा रहा था। मनको संयममें रखकर नियमपूर्वक उत्तम 
व्रतका पालन करनेवाले सामवेदी और अथर्ववेदी महर्षि भारुण्डसंज्ञक साममन्त्रोंके गीत 
गाते और अथर्ववेदके मन्त्रोंका उच्चारण करते थे; जिससे उस आश्रमकी बड़ी शोभा होती 
थी ।। ३८-३९ ।। 

अथर्ववेदप्रवरा: पूगयज्ञियसामगा: । 

संहितामीरयन्ति सम पदक्रमयुतां तु ते ।। ४० ।। 

श्रेष्ठ अथर्ववेदीय विद्वान्‌ तथा पूगयज्ञिय नामक सामके गायक सामवेदी महर्षि पद 
और क्रमसहित अपनी-अपनी संहिताका पाठ करते थे ।। ४० ॥। 

शब्दसंस्कारसंयुक्तिर््रुवद्धिश्चापरैर्द्धिजै: । 

नादितः स बभौ श्रीमान्‌ ब्रह्मलोक इवापर: ।। ४१ ।। 

दूसरे द्विजबालक शब्द-संस्कारसे सम्पन्न थे--वे स्थान, करण और प्रयत्नका ध्यान 
रखते हुए संस्कृतवाक्योंका उच्चारण कर रहे थे। इन सबके तुमुल शब्दोंसे गूँजता हुआ वह 
सुन्दर आश्रम द्वितीय ब्रह्मलोकके समान सुशोभित होता था ।। ४१ ।। 

यज्ञसंस्तरविद्धिश्न क्रमशिक्षाविशारदै: । 

न्यायतत्त्वात्मविज्ञानसम्पन्नैवेंदपारगै: ।। ४२ ।। 

नानावाक्यसमाहारसमवायविशारदै: । 

विशेषकार्यविद्धिश्न मोक्षधर्मपरायणै: ।। ४३ ।। 

स्थापनाक्षेपसिद्धान्तपरमर्थज्ञतां गतै: । 


शब्दच्छन्दोनिरुक्तज्ै: कालज्ञानविशारदै: ॥। ४४ ।। 

द्रव्यकर्मगुणज्ैश्व॒ कार्यकारणवेदिभि: । 

पक्षिवानररुतज्जैक्ष व्यासग्रन्थसमाश्रितै: ।। ४५ ।। 

नानाशाम्त्रेषु मुख्यैश्न शुश्राव स्वनमीरितम्‌ । 

लोकायतिकमुख्यैश्न समनन्‍्तादनुनादितम्‌ ।। ४६ ।। 

यज्ञवेदीकी रचनाके ज्ञाता, क्रम और शिक्षामें कुशल, न्यायके तत्त्व और आत्मानुभवसे 
सम्पन्न, वेदोंके पारंगत, परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक वाक्योंकी एकवाक्यता 
करनेमें कुशल तथा विभिन्न शाखाओंकी गुणविधियोंका एक शाखामें उपसंहार करनेकी 
कलामें निपुण, उपासना आदि विशेषकार्योंके ज्ञाता, मोक्षधर्ममें तत्पर, अपने सिद्धान्तकी 
स्थापना करके उसमें शंका उठाकर उसके परिहारपूर्वक उस सिद्धान्तके समर्थनमें परम 
प्रवीण, व्याकरण, छन्‍्द, निरुक्त, ज्योतिष तथा शिक्षा और कल्प--वेदके इन छहों अंगोंके 
विद्वान, पदार्थ, शुभाशुभ कर्म, सत्त्व, रज, तम आदि गुणोंको जाननेवाले तथा कार्य 
(दृश्यवर्ग) और कारण (मूल प्रकृति)-के ज्ञाता, पशु-पक्षियोंकी बोली समझनेवाले, 
व्यासग्रन्थका आश्रय लेकर मन्त्रोंकी व्याख्या करनेवाले तथा विभिन्न शास्त्रोंके प्रमुख 
विद्वान्‌ वहाँ रहकर जो शब्दोच्चारण कर रहे थे, उन सबको राजा दुष्यन्तने सुना। कुछ 
लोकरंजन करनेवाले लोगोंकी बातें भी उस आश्रममें चारों ओर सुनायी पड़ती थीं || ४२-- 
४६ || 

तत्र तत्र च विप्रेन्द्रानु नियतान्‌ संशितव्रतान्‌ | 

जपहोमपरान्‌ विप्रान्‌ ददर्श परवीरहा || ४७ ।। 

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले दुष्यन्तने स्थान-स्थानपर नियमपूर्वक उत्तम एवं कठोर 
व्रतका पालन करनेवाले श्रेष्ठ एवं बुद्धिमान्‌ ब्राह्मगोंको जप और होममें लगे हुए 
देखा || ४७ ।। 

आसनानि विचित्राणि रुचिराणि महीपति: । 

प्रयत्नोपहितानि सम दृष्टवा विस्मयमागमत्‌ ।। ४८ ।। 

वहाँ प्रयत्नपूर्वक तैयार किये हुए बहुत सुन्दर एवं विचित्र आसन देखकर राजाको बड़ा 
आश्चर्य हुआ || ४८ ।। 

देवतायतनानां च प्रेक्ष्य पूजां कृतां द्विजै: । 

ब्रह्मलोकस्थमात्मानं मेने स नृपसत्तम: ।। ४९ ।। 

द्विजोंद्वारा की हुई देवालयोंकी पूजा-पद्धति देखकर नृपश्रेष्ठ दुष्यन्तने ऐसा समझा कि 
मैं ब्रह्मलोकमें आ पहुँचा हूँ || ४९ ।। 

स काश्यपतपोगुप्तमाश्रमप्रवरं शुभम्‌ | 

नातृप्यत्‌ प्रेक्षमाणो वै तपोवनगुणैर्युतम्‌ ।। ५० ।। 


वह श्रेष्ठ एवं शुभ आश्रम कश्यपनन्दन महर्षि कण्वकी तपस्यासे सुरक्षित तथा 
तपोवनके उत्तम गुणोंसे संयुक्त था। राजा उसे देखकर तृप्त नहीं होते थे || ५० ।। 
स काश्यपस्यायतन महाव्रतै- 
वतं समन्तादृषिभिस्तपो धनै: । 
विवेश सामात्यपुरोहितो5रिहा 
विविक्तमत्यर्थमनोहरं शुभम्‌ ।। ५१ ।। 
महर्षि कण्वका वह आश्रम, जिसमें वे स्वयं रहते थे, सब ओरसे महान्‌ व्रतका पालन 
करनेवाले तपस्वी महर्षियोंद्वारा घिरा हुआ था। वह अत्यन्त मनोहर, मंगलमय और एकान्त 
स्थान था। शत्रुनाशक राजा दुष्यन्तने मन्त्री और पुरोहितके साथ उसकी सीमामें प्रवेश 
किया ।। ५१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने सप्ततितमो< ध्याय: 
॥॥ ७० |। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपववके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक 
सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ७० ॥। 


नी डॉ ितण इज: 


एकसप्ततितमो<् ध्याय: 


राजा दुष्यन्तका शकुन्तलाके साथ वार्तालाप, शकुन्तलाके 
द्वारा अपने जन्मका कारण बतलाना तथा उसी प्रसंगमें 
विश्वामित्रकी तपस्यासे इन्द्रका चिन्तित होकर मेनकाको 
मुनिका तपोभंग करनेके लिये भेजना 


वैशम्पायन उवाच 


ततो<गच्छन्महाबाहुरेको<मात्यान्‌ विसृज्य तान्‌ | 

नापश्यच्चाश्रमे तस्मिंस्तमृषिं संशितव्रतम्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर महाबाहु राजा दुष्यन्त साथ आये हुए 
अपने उन मन्त्रियोंको भी बाहर छोड़कर अकेले ही उस आश्रममें गये, किंतु वहाँ कठोर 
व्रतका पालन करनेवाले महर्षि नहीं दिखायी दिये || १ ।। 

सो<पश्यमानस्तमृषिं शून्यं दृष्टवा तथा55श्रमम्‌ | 

उवाच क इहेत्युच्चैर्वनं संनादयन्निव ।। २ ।। 

महर्षि कण्वको न देखकर और आश्रमको सूना पाकर राजाने सम्पूर्ण वनको 
प्रतिध्वनित करते हुए-से पूछा--“यहाँ कौन है?” ।। २ ।। 

श्रुत्वाथ तस्य तं शब्दं कन्या श्रीरिव रूपिणी । 

निश्चक्रामाश्रमात्‌ तस्मात्‌ तापसीवेषधारिणी ।। ३ ।। 

दुष्यन्तके उस शब्दको सुनकर एक मूर्तिमती लक्ष्मी-सी सुन्दरी कन्या तापसीका वेष 
धारण किये आश्रमके भीतरसे निकली ।। ३ ।। 

सातं दृष्टवैव राजानं दुष्यन्तमसितेक्षणा । 

(सुव्रताभ्यागतं त॑ तु पूज्य॑ प्राप्तमथेश्वरम्‌ । 

रूपयौवनसम्पन्ना शीलाचारवती शुभा । 

सा तमायतपझाशक्षं व्यूढोरस्क॑ सुसंहतम्‌ ।। 

सिंहस्कन्धं दीर्घबाहुं सर्वलक्षणपूजितम्‌ । 

विस्पष्टं मधुरां वाचं साब्रवीज्जनमेजय ।) 

स्वागतं त इति क्षिप्रमुवाच प्रतिपूज्य च ।। ४ ।। 

जनमेजय! उत्तम व्रतका पालन करनेवाली वह सुन्दरी कन्या रूप, यौवन, शील और 
सदाचारसे सम्पन्न थी। राजा दुष्यन्तके विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान सुशोभित 
थे। उनकी छाती चौड़ी, शरीरकी गठन सुन्दर, कंधे सिंहके सदूश और भुजाएँ लंबी थीं। वे 
समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्मानित थे। श्याम नेत्रोंवाली उस शुभलक्षणा कन्याने सम्मान्य 


राजा दुष्यन्तको देखते ही मधुर वाणीमें उनके प्रति सम्मानका भाव प्रदर्शित करते हुए 
शीघ्रतापूर्वक स्पष्ट शब्दोंमें कहा--“अतिथिदेव! आपका स्वागत है” ।। ४ ।। 
आसनेनार्चयित्वा च पाद्येनाघ्येंण चैव हि | 

पप्रच्छानामयं राजन्‌ कुशलं च नराधिपम्‌ ।। ५ ।। 

महाराज! फिर आसन, पाद्य और अर्घ्य अर्पण करके उनका समादर करनेके पश्चात्‌ 
उसने राजासे पूछा--“आपका शरीर नीरोग है न? घरपर कुशल तो है?” ।। ५ ।। 

यथावदर्चयित्वाथ पृष्टवा चानामयं तदा । 

उवाच स्मयमानेव किं कार्य क्रियतामिति ।। ६ ।। 

उस समय विधिपूर्वक आदर-सत्कार करके आरोग्य और कुशल पूछकर वह तपस्विनी 
कन्या मुसकराती हुई-सी बोली--“कहिये आपकी क्या सेवा की जाय?” ।। ६ ।। 

(आश्रमस्याभिगमने कि त्वं कार्य चिकीर्षसि । 

कस्त्वमद्येह सम्प्राप्तो महर्षेराश्रमं शुभम्‌ ।।) 

“आपके आश्रमकी ओर पधारनेका क्‍या कारण है? आप यहाँ कौन-सा कार्य सिद्ध 
करना चाहते हैं? आपका परिचय क्या है? आप कौन हैं? और आज यहाँ महर्षिके इस शुभ 
आश्रमपर (किस उद्देश्यसे) आये हैं? 

तामब्रवीत्‌ ततो राजा कन्यां मधुरभाषिणीम्‌ | 

दृष्टवा चैवानवद्याजीं यथावत्‌ प्रतिपूजित: ।। ७ ।। 

उसके द्वारा विधिवत्‌ किये हुए आतिथ्य सत्कारको ग्रहण करके राजाने उस 
सर्वांगसुन्दरी एवं मधुरभाषिणी कन्‍्याकी ओर देखकर कहा || ७ ।। 


(दृष्यन्त उवाच 


राजर्षेरस्मि पुत्रो5हमिलिलस्य महात्मन: । 

दुष्यन्त इति मे नाम सत्यं पुष्करलोचने ।।) 

आगतोऊहं महाभागमृषिं कण्वमुपासितुम्‌ । 

क्व गतो भगवान्‌ भद्रे तन्‍्ममाचक्ष्व शोभने ।। ८ ।। 

दुष्यन्त बोले--कमललोचने! मैं राजर्षि महात्मा इलिल- का पुत्र हूँ और मेरा नाम 
दुष्यन्त है। मैं यह सत्य कहता हूँ। भद्रे! मैं परम भाग्यशाली महर्षि कण्वकी उपासना करने 
--उनके सत्संगका लाभ लेनेके लिये आया हूँ। शोभने! बताओ तो, भगवान्‌ कण्व कहाँ 
गये हैं? ।। ८ ।। 


शकुन्तलोवाच 


गत: पिता मे भगवान्‌ फलान्याहर्तुमाश्रमात्‌ । 
मुहूर्त सम्प्रतीक्षस्व द्रष्टास्येनमुपागतम्‌ ।। ९ ।। 


शकुन्तला बोली--अभ्यागत! मेरे पूज्य पिताजी फल लानेके लिये आश्रमसे बाहर 
गये हैं। अतः दो घड़ी प्रतीक्षा कीजिये। लौटनेपर उनसे मिलियेगा ।। ९ |। 


वैशम्पायन उवाच 


अपश्यमानस्तमृषिं तथा चोक्तस्तया च सः । 

तां दृष्टवा च वरारोहां श्रीमतीं चारुहासिनीम्‌ ।। १० ।। 

विभ्राजमानां वपुषा तपसा च दमेन च | 

रूपयौवनसम्पन्नामित्युवाच महीपति: ।। ११ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा दुष्यन्तने देखा--महर्षि कण्व आश्रमपर 
नहीं हैं और वह तापसी कन्या उन्हें वहाँ ठहरनेके लिये कह रही है; साथ ही उनकी दृष्टि इस 
बातकी ओर भी गयी कि यह कन्या सर्वागसुन्दरी, अपूर्व शोभासे सम्पन्न तथा मनोहर 
मुसकानसे सुशोभित है। इसका शरीर सौन्दर्यकी प्रभासे प्रकाशित हो रहा है, तपस्या तथा 
मन-इन्द्रियोंके संयमने इसमें अपूर्व तेज भर दिया है। यह अनुपम रूप और नयी जवानीसे 
उद्धासित हो रही है, यह सब सोचकर राजाने पूछा-- || १०-११ |। 

का त्वं कस्यासि सुश्रोणि किमर्थ चागता वनम्‌ । 

एवंरूपगुणोपेता कुतस्त्वमसि शोभने ।॥। १२ ।। 

“मनोहर कटिप्रदेशसे सुशोभित सुन्दरी! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? और 
किसलिये इस वनमें आयी हो? शोभने! तुममें ऐसे अद्भुत रूप और गुणोंका विकास कैसे 
हुआ है? ॥| १२ ।। 

दर्शनादेव हि शुभे त्वया मेडपहतं मन: । 

इच्छामि त्वामहं ज्ञातुं तन्ममाचक्ष्य शोभने ।। १३ ।। 

'शुभे! तुमने दर्शनमात्रसे मेरे मनको हर लिया है। कल्याणि! मैं तुम्हारा परिचय जानना 
चाहता हूँ, अतः मुझे सब कुछ ठीक-ठीक बताओ ।। १३ ।। 

(शृणु मे नागनासोरु वचन मत्तकाशिनि ।। 

राजर्षेरन्वये जात: पूरोरस्मि विशेषतः । 

वृणे त्वामद्य सुश्रोणि दुष्यन्तो वरवर्णिनि ।। 

न मेअन्यत्र क्षत्रियायां मनो जातु प्रवर्तते । 

ऋषिपुत्रीषु चान्यासु नावर्णासु परासु वा ।। 

तस्मात्‌ प्रणिहितात्मानं विद्धि मां कलभाषिणि । 

तस्य मे त्वयि भावोस्ति क्षत्रिया हुसि का वद ।। 

न हि मे भीरु विप्रायांमन: प्रसहते गतिम्‌ । 

भजे त्वामायतापाज्ञि भक्त भजितुमर्हसि ।। 

भुड्क्ष्व राज्यं विशालाक्षि बुद्धि मा त्वन्यथा कृथा: ।) 


हाथीकी सूँड़के समान जाँघोंवाली मतवाली सुन्दरी! मेरी बात सुनो; मैं राजर्षि पूरुके 
वंशमें उत्पन्न राजा दुष्यन्त हूँ। आज मैं अपनी पत्नी बनानेके लिये तुम्हारा वरण करता हूँ। 
क्षत्रिय-कन्याके सिवा दूसरी किसी स्त्रीकी ओर मेरा मन कभी नहीं जाता। अन्यान्य 
ऋष्पुत्रियों, अपनेसे भिन्न वर्णकी कुमारियों तथा परायी स्त्रियोंकी ओर भी मेरे मनकी गति 
नहीं होती। मधुरभाषिणि! तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि मैं अपने मनको पूर्णतः संयममें 
रखता हूँ। ऐसा होनेपर भी तुमपर मेरा अनुराग हो रहा है, अतः तुम क्षत्रिय-कन्या ही हो। 
बताओ, तुम कौन हो? भीरु! ब्राह्मण-कन्याकी ओर आकृष्ट होना मेरे मनको कदापि सहा 
नहीं है। विशाल नेत्रोंवाली सुन्दरी! मैं तुम्हारा भक्त हूँ; तुम्हारी सेवा चाहता हूँ; तुम मुझे 
स्वीकार करो। विशाललोचने! मेरा राज्य भोगो। मेरे प्रति अन्यथा विचार न करो, मुझे 
पराया न समझो”। 

एवमुक्ता तु सा कन्या तेन राज्ञा तमाश्रमे । 

उवाच हसती वाक्यमिदं सुमधुराक्षरम्‌ ।। १४ ।। 

उस आश्रममें राजाके इस प्रकार पूछनेपर वह कन्या हँसती हुई मिठासभरे वचनोंमें 
उनसे इस प्रकार बोली-- ।। १४ ।। 

कण्वस्याहं भगवतो दुष्यन्त दुहिता मता | 

तपस्विनो धृतिमतो धर्मज्ञस्य महात्मन: || १५ |। 

“महाराज दुष्यन्त! मैं तपस्वी, धृतिमान्‌, धर्मज्ञ तथा महात्मा भगवान्‌ कण्वकी पुत्री 
मानी जाती हूँ ।। १५ ।। 

(अस्वतन्त्रास्मि राजेन्द्र काश्यपो मे गुरु: पिता । 

तमेव प्रार्थय स्वार्थ नायुक्तं कर्तुमहसि ।।) 

राजेन्द्र! मैं परतन्त्र हूँ। कश्यपनन्दन महर्षि कण्व मेरे गुरु और पिता हैं। उन्हींसे आप 
अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिये प्रार्थना करें। आपको अनुचित कार्य नहीं करना चाहिये'। 

दुष्यन्त उवाच 


ऊर्ध्वरेता महाभागे भगवॉल्लोकपूजित: । 

चलेद्धि वृत्ताद्‌ धर्मोडपि न चलेत्‌ संशितव्रत: ।। १६ ।। 

दुष्यन्त बोले--महाभागे! विश्ववन्द्य कण्व तो नैछ्ठिक ब्रह्मचारी हैं। वे बड़े कठोर 
व्रतका पालन करते हैं। साक्षात्‌ धर्मराज भी अपने सदाचारसे विचलित हो सकते हैं, परंतु 
महर्षि कण्व नहीं ।। १६ ।। 

कथं त्वं तस्य दुहिता सम्भूता वरवर्णिनी । 

संशयो मे महानत्र तन्मे छेत्तुमिहाहसि ।। १७ ।। 

ऐसी दशामें तुम-जैसी सुन्दरी देवी उनकी पुत्री कैसे हो सकती है? इस विषयमें मुझे 
बड़ा भारी संदेह हो रहा है। मेरे इस संदेहका निवारण तुम्हीं कर सकती हो ।। १७ ।। 


शकुन्तलोवाच 


यथायमागमो मह्ाां यथा चेदम भूत्‌ पुरा । 

शृणु राजन्‌ यथातत्त्वं यथास्मि दुहिता मुने: ।। १८ ।। 

शकुन्तलाने कहा--राजन्‌! ये सब बातें मुझे जिस प्रकार ज्ञात हुई हैं, मेरा यह जन्म 
आदि पूर्वकालमें जिस प्रकार हुआ है और मैं जिस प्रकार कण्व मुनिकी पुत्री हूँ, वह सब 
वृत्तान्त ठीक-ठीक बता रही हूँ; सुनिये || १८ ।। 

(अन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा सत्सु भाषते | 

स पापेनावृतो मूर्ख: स्तेन आत्मापहारकः ।।) 

जिसका स्वरूप तो अन्य प्रकारका है, किंतु जो सत्पुरुषोंक सामने उसका अन्य 
प्रकारसे ही परिचय देता है, अर्थात्‌ जो पापात्मा होते हुए भी अपनेको धर्मात्मा कहता है, 
वह मूर्ख, पापसे आवृत, चोर एवं आत्मवंचक है। 

ऋषि: कश्चिदिहागम्य मम जन्माभ्यचोदयत्‌ | 

(ऊर्ध्वरेता यथासि त्वं कुतस्त्येयं शकुन्तला । 

पुत्री त्वत्त: कथं जाता सत्य मे ब्रूहि काश्यप ।।) 

तस्मै प्रोवाच भगवान्‌ यथा तच्छूणु पार्थिव ।। १९ ।। 

पृथ्वीपते! एक दिन किसी ऋषिने यहाँ आकर मेरे जन्मके सम्बन्धमें मुनिसे पूछा 
--'कश्यपनन्दन! आप तो ऊथ्वरेता ब्रह्मचारी हैं, फिर यह शकुन्तला कहाँसे आयी? 
आपसे पुत्रीका जन्म कैसे हुआ? यह मुझे सच-सच बताइये।” उस समय भगवान्‌ कण्वने 
उससे जो बात बतायी, वही कहती हूँ, सुनिये || १९ ।। 

कण्व उवाच 


तप्यमान: किल पुरा विश्वामित्रो महत्‌ तप: । 

सुभृशं तापयामास शक्रं सुरगणेश्चरम्‌ ।। २० ।। 

कण्व बोले--पहलेकी बात है, महर्षि विश्वामित्र बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे। उन्होंने 
देवताओंके स्वामी इन्द्रको अपनी तपस्यासे अत्यन्त संतापमें डाल दिया ।। २० ।। 

तपसा दीप्तवीर्यो<यं स्थानान्मां च्यावयेदिति । 

भीतः पुरंदरस्तस्मान्मेनकामिदमब्रवीत्‌ || २१ ।। 

इन्द्रको यह भय हो गया कि तपस्यासे अधिक शक्तिशाली होकर ये विश्वामित्र मुझे 
अपने स्थानसे भ्रष्ट कर देंगे, अतः उन्होंने मेनकासे इस प्रकार कहा-- ।। २१ ।। 

गुणैरप्सरसां दिव्यैर्मेनके त्वं विशिष्यसे । 

श्रेयो मे कुरु कल्याणि यत्‌ त्वां वक्ष्यामि तच्छुणु | २२ ।। 

असावादित्यसंकाशो विश्वामित्रो महातपा: । 

तप्यमानस्तपो घोरं मम कम्पयते मन: ।। २३ ।। 


“मेनके! अप्सराओंके जो दिव्य गुण हैं, वे तुममें सबसे अधिक हैं। कल्याणि! तुम मेरा 
भला करो और मैं तुमसे जो बात कहता हूँ, सुनो। वे सूर्यके समान तेजस्वी, महातपस्वी 
विश्वामित्र घोर तपस्यामें संलग्न हो मेरे मनको कम्पित कर रहे हैं || २२-२३ ।। 

मेनके तव भारो<यं विश्वामित्र: सुमध्यमे | 

शंसितात्मा सुदुर्धर्ष उग्रे तपसि वर्तते ॥। २४ ।। 

'सुन्दरी मेनके! उन्हें तपस्यासे विचलित करनेका यह महान भार मैं तुम्हारे ऊपर 
छोड़ता हूँ। विश्वामित्रका अन्तःकरण शुद्ध है। उन्हें पराजित करना अत्यन्त कठिन है और वे 
इस समय घोर तपस्यामें लगे हैं || २४ ।। 

समां न च्यावयेत्‌ स्थानात्‌ त॑ वै गत्वा प्रलोभय । 

चर तस्य तपोविषध्नं कुरु मेडविधघ्नमुत्तमम्‌ ।। २५ ।। 

“अतः ऐसा करो, जिससे वे मुझे अपने स्थानसे भ्रष्ट न कर सकें। तुम उनके पास 
जाकर उन्हें लुभाओ, उनकी तपस्यामें विघ्न डाल दो और इस प्रकार मेरे विघ्नके 
निवारणका उत्तम साधन प्रस्तुत करो || २५ ।। 

रूपयौवनमाधुर्यचेष्टितस्मित भाषणै: । 

लोभयित्वा वरारोहे तपसस्तं निवर्तय ।। २६ ।। 

“वरारोहे! अपने रूप, जवानी, मधुर स्वभाव, हाव-भाव, मन्‍न्द मुसकान और सरस 
वार्तालाप आदिके द्वारा मुनिको लुभाकर उन्हें तपस्यासे निवृत्त कर दो” || २६ ।। 


मेनकोवाच 


महातेजा: स भगवांस्तथैव च महातपा: । 

कोपनश्न तथा होनं जानाति भगवानपि || २७ || 

मेनका बोली--देवराज! भगवान्‌ विश्वामित्र बड़े भारी तेजस्वी और महान्‌ तपस्वी हैं। 
वे क्रोधी भी बहुत हैं। उनके इस स्वभावको आप भी जानते हैं || २७ ।। 

तेजसस्तपसश्रैव कोपस्य च महात्मन: । 

त्वमप्युद्धिजसे यस्य नोद्विजेयमहं कथम्‌ ।। २८ ।। 

जिन महात्माके तेज, तप और क्रोधसे आप भी उद्विग्न हो उठते हैं, उनसे मैं कैसे नहीं 
डरूँगी? || २८ ।। 

महाभागं वसिष्ठं य: पुत्रैरिष्टै्ययोजयत्‌ । 

क्षत्रजातश्न यः पूर्वमभवद्‌ ब्राह्मणो बलातू । २९ ।। 

शौचार्थ यो नदीं चक्रे दुर्गमां बहुभिर्जलै: । 

यां तां पुण्यतमां लोके कौशिकीति विदुर्जना: ।। ३० ।। 

विश्वामित्र ऋषि वे ही हैं, जिन्होंने महाभाग महर्षि वसिष्ठका उनके प्यारे पुत्रोंसे सदाके 
लिये वियोग करा दिया; जो पहले क्षत्रियकुलमें उत्पन्न होकर भी तपस्याके बलसे ब्राह्मण 


बन गये; जिन्होंने अपने शौच-स्नानकी सुविधाके लिये अगाध जलसे भरी हुई उस दुर्गम 
नदीका निर्माण किया, जिसे लोकमें सब मनुष्य अत्यन्त पुण्यमयी कौशिकी नदीके नामसे 
जानते हैं || २९-३० ।। 

बभार यत्रास्य पुरा काले दुर्गे महात्मन: । 

दारान्मतड़ो धर्मात्मा राजर्षिव्याधतां गत: ।। ३१ ।। 

विश्वामित्र महर्षि वे ही हैं, जिनकी पत्नीका पूर्वकालमें संकटके समय शापवश व्याध 
बने हुए धर्मात्मा राजर्षि मतंगने भरण-पोषण किया था ।। ३१ ।। 

अतीतकाले दुर्भिक्षे अभ्येत्य पुनराश्रमम्‌ । 

मुनि: पारेति नद्या वै नाम चक्रे तदा प्रभु: ।॥ ३२ ।॥। 

दुर्भिक्ष बीत जानेपर उन शक्तिशाली मुनिने पुन: आश्रमपर आकर उस नदीका नाम 
“पारा” रख दिया था ।। ३२ ।। 

मतड़ं याजयाज्चक्रे यत्र प्रीतमना: स्वयम्‌ । 

त्वं च सोमं भयाद्‌ यस्य गतः पातु सुरेश्वर ।। ३३ ।। 

सुरेश्वर! उन्होंने मतंग मुनिके किये हुए उपकारसे प्रसन्न होकर स्वयं पुरोहित बनकर 
उनका यज्ञ कराया; जिसमें उनके भयसे आप भी सोमपान करनेके लिये पधारे थे || ३३ ।। 

चकारान्यं च लोक वै क्रुद्धो नक्षत्रसम्पदा । 

प्रतिश्रवणपूर्वाणि नक्षत्राणि चकार य: । 

गुरुशापहतस्यापि त्रिशडुको: शरणं ददौ ।। ३४ ।। 

उन्होंने ही कुपित होकर दूसरे लोककी सृष्टि की और नक्षत्र-सम्पत्तिसे रूठकर 
प्रतिश्रवण आदि नूतन नक्षत्रोंका निर्माण किया था। ये वे ही महात्मा हैं, जिन्होंने गुरुके 
शापसे हीनावस्थामें पड़े हुए राजा त्रिशंकुको भी शरण दी थी || ३४ ।। 

(ब्रह्मर्षिशापं राजर्षि: कथं मोक्ष्यति कौशिक: । 

अवमत्य तदा देवैर्यज्ञाड़ं तद्‌ विनाशितम्‌ ।। 

अन्यानि च महातेजा यज्ञाज़ान्यसृजत्‌ प्रभु: । 

निनाय च तदा स्वर्ग त्रिशंकुं स महातपा: ।।) 

उस समय यह सोचकर कि <विश्वामित्र ब्रह्मर्षि वसिष्ठके शापको कैसे छूुड़ा देंगे? 
देवताओंने उनकी अवहेलना करके त्रिशंकुके यज्ञकी वह सारी सामग्री नष्ट कर दी। परंतु 
महातेजस्वी शक्तिशाली विश्वामित्रने दूसरी यज्ञ-सामग्रियोंकी सृष्टि कर ली तथा उन 
महातपस्वीने त्रिशंकुको स्वर्गलोकमें पहुँचा ही दिया। 

एतानि यस्य कर्माणि तस्याहं भृशमुद्धिजे | 

यथासौ न दहेत्‌ क्रुद्धस्तथा55ज्ञापय मां विभो ।। ३५ ।। 

जिनके ऐसे-ऐसे अद्भुत कर्म हैं, उन महात्मासे मैं बहुत डरती हूँ। प्रभो! जिससे वे 
कुपित हो मुझे भस्म न कर दें, ऐसे कार्यके लिये मुझे आज्ञा दीजिये || ३५ ।। 


तेजसा निर्दहेल्लोकान्‌ कम्पयेद्‌ धरणीं पदा । 
संक्षिपेच्च महामेरुं तूर्णमावर्तयेद्‌ दिश: ।। ३६ ।। 
वे अपने तेजसे सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर सकते हैं, पैरके आघातसे पृथ्वीको कँपा 
सकते हैं, विशाल मेरुपर्वतको छोटा बना सकते हैं और सम्पूर्ण दिशाओंमें तुरंत उलट-फेर 
कर सकते हैं ।। ३६ ।। 
तादृशं तपसा युक्त प्रदीप्तमिव पावकम्‌ । 
कथमस्मद्विधा नारी जितेन्द्रियमभिस्पृशेत्‌ | ३७ ।। 
ऐसे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी, तपस्वी और जितेन्द्रिय महात्माका मुझ-जैसी 
नारी कैसे स्पर्श कर सकती है? ।। ३७ ।। 
हुताशनमुखं दीप्त॑ सूर्यचन्द्राक्षितारकम्‌ । 
कालजिद्ठल सुरश्रेष्ठ कथमस्मद्विधा स्पृशेत्‌ ।। ३८ ।। 
सुरश्रेष्ठ! अग्नि जिनका मुख है, सूर्य और चन्द्रमा जिनकी आँखोंके तारे हैं और काल 
जिनकी जिह्ठा है, उन तेजस्वी महर्षिको मेरी-जैसी स्त्री कैसे छू सकती है? ।। ३८ ।। 
यमश्न सोमश्न महर्षयश्न 
साध्या विश्वे वालखिल्याश्षु सर्वे | 
एते<पि यस्योद्धिजन्ते प्रभावात्‌ 
तस्मात्‌ कस्मान्मादृशी नोद्विजेत ।। ३९ ।। 
यमराज, चन्द्रमा, महर्षिगण, साध्यगण, विश्वेदेव और सम्पूर्ण बालखिल्य ऋषि--ये भी 
जिनके प्रभावसे उद्विग्न रहते हैं, उन विश्वामित्र मुनिसे मेरी-जैसी स्त्री कैसे नहीं 
डरेगी? ।। ३९ |। 
त्वयैवमुक्ता च कथं समीप- 
मृषेर्न गच्छेयमहं सुरेन्द्र । 
रक्षां तु मे चिन्तय देवराज 
यथा त्वदर्थ रक्षिताहं चरेयम्‌ ।। ४० ।। 
सुरेन्द्र! आपके इस प्रकार वहाँ जानेका आदेश देनेपर मैं उन महर्षिके समीप कैसे नहीं 
जाऊँगी? किंतु देवराज! पहले मेरी रक्षाका कोई उपाय सोचिये; जिससे सुरक्षित रहकर मैं 
आपके कार्यकी सिद्धिके लिये चेष्टा कर सकूँ || ४० ।। 
काम तु मे मारुतस्तत्र वास: 
प्रक्रीडिताया विवृणोतु देव । 
भवेच्च मे मन्मथस्तत्र कार्ये 
सहायभूतस्तु तव प्रसादात्‌ || ४१ ।। 
देव! मैं वहाँ जाकर जब क्रीड़ामें निमग्न हो जाऊँ, उस समय वायुदेव आवश्यकता 
समझकर मेरा वस्त्र उड़ा दें और इस कार्यमें आपके प्रसादसे कामदेव भी मेरे सहायक 


हों ।। ४१ ।। 
वनाच्च वायु: सुरभि: प्रवायात्‌ 
तस्मिन्‌ काले तमृषिं लोभयन्त्या: । 
तथेत्युक्त्वा विहिते चैव तस्मिं- 
स्ततो ययौ सा55श्रमं कौशिकस्य ।। ४२ ।। 
जब मैं ऋषिको लुभाने लगूँ, उस समय वनसे सुगन्धभरी वायु चलनी चाहिये। 
“तथास्तु” कहकर इन्द्रने जब इस प्रकारकी व्यवस्था कर दी, तब मेनका विश्वामित्र मुनिके 
आश्रमपर गयी ।। ४२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने 
एकसप्ततितमो<ध्याय: ।। ७३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक 
इकद्तत्तवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७१ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १५ श्लोक मिलाकर कुल ५७ श्लोक हैं) 


अपना छा सं: 


- दुष्यन्तके पिताके 'इलिल' और “ईलिन' दोनों ही नाम मिलते हैं। 


द्विसप्ततितमो< ध्याय: 


मेनका-विश्वामित्र-मिलन, कन्‍्याकी उत्पत्ति, शकुन्त 
पक्षियोंके द्वारा उसकी रक्षा और कण्वका उसे अपने 
आश्रमपर लाकर शकुन्तला नाम रखकर पालन करना 


कण्व उवाच 


एवमुक्तस्तया शक्र: संदिदेश सदागतिम्‌ । 

प्रातिष्ठत तदा काले मेनका वायुना सह ।। १ ।। 

(शकुन्तला दुष्यन्तसे कहती है--) महर्षि कण्वने (पूर्वोक्त ऋषिसे शेष वृत्तान्त 
इस प्रकार) कहा--मैनकाके ऐसा कहनेपर इन्द्रदेवने वायुको उसके साथ जानेका आदेश 
दिया। तब मेनका वायुदेवके साथ समयानुसार वहाँसे प्रस्थित हुई ।। १ ।। 

अथापश्यद्‌ वरारोहा तपसा दग्धकिल्बिषम्‌ | 

विश्वामित्रं तप्यमानं मेनका भीरुराश्रमे ।। २ ।। 

वनमें पहुँचकर भीरु स्वभाववाली सुन्दरी मेनकाने एक आश्रममें विश्वामित्र मुनिको तप 
करते देखा। वे तपस्याद्वारा अपने समस्त पाप दग्ध कर चुके थे || २ ।। 

अभिवाद्य ततः सा त॑ प्राक्रीडदृषिसंनिधौ । 

अपोवाह च वासो<स्या मारुत: शशिसंनिभम्‌ ।। ३ ।। 

उस समय महर्षिको प्रणाम करके वह अप्सरा उनके समीपवर्ती स्थानमें ही भाँति- 
भाँतिकी क्रीड़ाएँ करने लगी। इतनेमें ही वायुने मेनकाका चन्द्रमाके समान उज्ज्वल वस्त्र 
उसके शरीरसे हटा दिया ।। ३ ।। 

सागच्छत्‌ त्वरिता भूमिं वासस्तदभिलिप्सती । 

स्मयमानेव सव्रीड मारुतं वरवर्णिनी ।। ४ ।। 

यह देख सुन्दरी मेनका लजाकर वायुदेवको कोसती एवं मुसकराती हुई-सी वह वस्त्र 
लेनेकी इच्छासे तुरंत ही उस स्थानकी ओर दौड़ी गयी, जहाँ वह गिरा था ।। ४ ।। 

पश्यतस्तस्य तत्रर्षेरप्पयग्निसमतेजस: । 

विश्वामित्रस्ततस्तां तु विषमस्थामनिन्दिताम्‌ ।। ५ ।। 

गृद्धां वाससि सम्भ्रान्तां मेनकां मुनिसत्तम: । 

अनिर्देश्यवयोरूपामपश्यद्‌ विवृतां तदा ।। ६ ।। 

अग्निके समान तेजस्वी महर्षि विश्वामित्रके देखते-देखते वहाँ यह घटना घटित हुई। वह 
अनिन्द्य सुन्दरी विषम परिस्थितिमें पड़ गयी थी और घबराकर वस्त्र लेनेकी इच्छा कर रही 


थी। उसका रूप-सौन्दर्य अवर्णनीय था। तरुणावस्था भी अद्भुत थी। उस सुन्दरी 
अप्सराको मुनिवर विश्वामित्रने वहाँ नंगी देख लिया ।। ५६ ।। 

तस्या रूपगुणान्‌ दृष्टवा स तु विप्रर्षभस्तदा । 

चकार भावं संसर्गात्‌ तया कामवशं गत: ॥। ७ ।। 

उसके रूप और गुणोंको देखते ही विप्रवर विश्वामित्र कामके अधीन हो गये। सम्पर्कमें 
आनेके कारण मेनकामें उनका अनुराग हो गया ।। ७ ।। 

न्यमन्त्रयत चाप्येनां सा चाप्यैच्छदनिन्दिता । 

तौ तत्र सुचिरं कालमुभौ व्यहरतां तदा ॥। ८ ।। 

रममाणौ यथाकामं यथैकदिवसं तथा । 

(कामक्रोधावजितवान मुनिर्नित्यं क्षमान्वित: । 

चिरार्जितस्य तपस: क्षयं स कृतवानृषि: ।। 

तपस: संक्षयादेव मुनिर्मोहं समाविशत्‌ | 

कामरागाभिभूतस्य मुने: पार्श्व जगाम सा ।।) 

जनयामास स मुनिर्मेनकायां शकुन्तलाम्‌ ।। ९ ।। 

प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनीमभितो नदीम्‌ | 

जाततमुत्सृज्य तं गर्भ मेनका मालिनीमनु ।। १० ।। 

कृतकार्या ततस्तूर्णमगच्छच्छक्रसंसदम्‌ | 

त॑ं वने विजने गर्भ सिंहव्याप्रसमाकुले ।। ११ ।। 

दृष्टवा शयानं शकुना: समन्तात्‌ पर्यवारयन्‌ | 

नेमां हिंस्युर्वने बालां क्रव्यादा मांसगृद्धिन: ।। १२ ।। 

उन्होंने मेनकाको अपने निकट आनेका निमन्त्रण दिया। अनिन्द्य सुन्दरी मेनका तो यह 
चाहती ही थी, उनसे सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये वह राजी हो गयी। तदनन्तर वे दोनों 
वहाँ सुदीर्घध कालतक इच्छानुसार विहार तथा रमण करते रहे। वह महान्‌ काल उन्हें एक 
दिनके समान प्रतीत हुआ। काम और क्रोधपर विजय न पा सकनेवाले उन सदा क्षमाशील 
महर्षिने दीर्घकालसे उपार्जित की हुई तपस्याको नष्ट कर दिया। तपस्याका क्षय होनेसे 
मुनिके मनपर मोह छा गया। तब मेनका काम तथा रागके वशीभूत हुए मुनिके पास गयी। 
ब्रह्मन! फिर मुनिने मेनकाके गर्भसे हिमालयके रमणीय शिखरपर मालिनी नदीके किनारे 
शकुन्तलाको जन्म दिया। मेनकाका काम पूरा हो चुका था; वह उस नवजात गर्भको 
मालिनीके तटपर छोड़कर तुरंत इन्द्र-लोकको चली गयी। सिंह और व्याप्रोंसे भरे हुए निर्जन 
वनमें उस शिशुको सोते देख शकुन्तों (पक्षियों)-ने उसे सब ओरसे पाँखोंद्वारा ढक लिया; 
जिससे कच्चे मांस खानेवाले गीध आदि जीव वनमें इस कन्याकी हिंसा न कर सकें ।। ८-- 
१२ || 

पर्यरक्षन्त तां तत्र शकुन्ता मेनकात्मजाम्‌ | 


उपस्प्रष्ठं गतश्चाहमपश्यं शयितामिमाम्‌ ।। १३ ।। 

निर्जने विपिने रम्ये शकुन्तै: परिवारिताम्‌ । 

(मां दृष्टवैवान्वपद्यन्त पादयो: पतिता द्विजा: । 

अब्रुवज्छकुना: सर्वे कल॑ मधुरभाषिण: ।। 

इस प्रकार वहाँ शकुन्त ही मेनकाकुमारीकी रक्षा कर रहे थे। उसी समय आचमन 
करनेके लिये जब मैं मालिनीतटपर गया तो देखा--यह रमणीय निर्जन वनमें पक्षियोंसे 
घिरी हुई सो रही है। मुझे देखते ही वे सब मधुरभाषी पक्षी मेरे पैरोंपर गिर गये और सुन्दर 
वाणीमें इस प्रकार कहने लगे ।। १३३ ।। 

द्विजा ऊचु: 

विश्वामित्रसुतां ब्रह्मन्‌ न्यास भूतां भरस्व वै । 

कामक्रोधावजितवान्‌ सखा ते कौशिकीं गत: ।। 

तस्मात्‌ पोषय तत्पुत्रीं दयावानिति ते<ब्रुवन्‌ । 

पक्षी बोले-ब्रह्मन! यह विश्वामित्रकी कन्या आपके यहाँ धरोहरके रूपमें आयी है। 
आप इसका पालन-पोषण कीजिये। कौशिकीके तटपर गये हुए आपके सखा विज्वामित्र 
काम और क्रोधको नहीं जीत सके थे। आप दयालु हैं; इसलिये उनकी पुत्रीका पालन 
कीजिये। इस प्रकार पक्षियोंने कहा। 


कण्व उवाच 


सर्वभूतरुतज्ञो5हं दयावान्‌ सर्वजन्तुषु । 

निर्जने5पि महारण्ये शकुनै: परिवारिताम्‌ ।।) 

आनयित्वा ततश्चैनां दुहितृत्वे न्यवेशयम्‌ ।। १४ ।। 

कण्व मुनि कहते हैं--ब्रह्मन! मैं समस्त प्राणियोंकी बोली समझता हूँ और सब 
जीवोंके प्रति दयाभाव रखता हूँ। अतः उस निर्जन महावनमें पक्षियोंसे घिरी हुई इस 
कन्याको वहाँसे लाकर मैंने इसे अपनी पुत्रीके पदपर प्रतिष्ठित किया || १४ ।। 

शरीरकृत्‌ प्राणदाता यस्य चान्नानि भुज्जते । 

क्रमेणैते त्रयो<प्युक्ता: पितरो धर्मशासने ।। १५ ।। 

जो गर्भाधानके द्वारा शरीरका निर्माण करता है, जो अभयदान देकर प्राणोंकी रक्षा 
करता है और जिसका अन्न भोजन किया जाता है, धर्मशास्त्रमें क्रमश: ये तीनों पुरुष पिता 
कहे गये हैं ।। १५ ।। 

निर्जने तु वने यस्माच्छकुन्तै: परिवारिता । 

शकुन्तलेति नामास्या: कृतं चापि ततो मया ।। १६ ।। 

निर्जन वनमें इसे शकुन्तोंने घेर रखा था, इसलिये “शकुन्तान्‌ लाति रक्षकत्वेन गृह्नाति' 
इस व्युत्पत्तिक अनुसार इस कन्याका नाम मैंने 'शकुन्तला” रख दिया ।। १६ ।। 


एवं दुहितरं विद्धि मम विप्र शकुन्तलाम्‌ | 

शकुन्तला च पितरं मन्यते मामनिन्दिता ।। १७ ।। 

ब्रह्म! इस प्रकार शकुन्तला मेरी बेटी हुई, आप यह जान लें। प्रशंसनीय शील- 
स्वभाववाली शकुन्तला भी मुझे अपना पिता मानती है ।। १७ ।। 

शकुन्तलोवाच 

एतदाचष्ट पृष्ट: सन्‌ मम जन्म महर्षये | 

सुतां कण्वस्य मामेवं विद्धि त्वं मनुजाधिप ।। १८ ।। 

कण्वं हि पितरं मन्ये पितरं स्वमजानती । 

इति ते कथितं राजन्‌ यथावृत्तं श्रुतं मया ।। १९ ।। 

शकुन्तला कहती है--राजन्‌! उन महर्षिके पूछनेपर पिता कण्वने मेरे जन्मका यह 
वृत्तान्त उन्हें बताया था। इस तरह आप मुझे कण्वकी ही पुत्री समझिये। मैं अपने जन्मदाता 
पिताको तो जानती नहीं, कण्वको ही पिता मानती हूँ। महाराज! इस प्रकार जो वृत्तान्त मैंने 
सुन रखा था, वह सब आपको बता दिया ।। १८-१९ |। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने 
द्विसप्ततितमो<ध्याय: ।। ७२ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक 
बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७२ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५६ श्लोक मिलाकर कुल २४३ “लोक हैं) 


त्रिसप्ततितमो< ध्याय: 


शकुन्तला हा की ष्यन्तका गान्धर्व विवाह और महर्षि 
द्वारा उसका अनुमोदन 


दुष्यन्त उवाच 


सुव्यक्तं राजपुत्री त्वं यथा कल्याणि भाषसे । 

भार्या मे भव सुश्रोणि ब्रूहि कि करवाणि ते ।। १ ।। 

दुष्यन्त बोले--कल्याणि! तुम जैसी बातें कह चुकी हो, उनसे भलीभाँति स्पष्ट हो गया 
कि तुम क्षत्रिय-कन्या हो (क्योंकि विश्वामित्र मुनि जन्मसे तो क्षत्रिय ही हैं)। सुश्रोणि! मेरी 
पत्नी बन जाओ। बोलो, मैं तुम्हारी प्रसन्नताके लिये क्या करूँ ।। १ ।। 

सुवर्णमालां वासांसि कुण्डले परिहाटके । 

नानापत्तनजे शुभ्रे मणिरत्ने च शोभने ।। २ ।। 

आहरामि तवाद्याहं निष्कादीन्यजिनानि च । 

सर्व राज्यं तवाद्यास्तु भार्या मे भव शोभने ।। ३ ।। 

सोनेके हार, सुन्दर वस्त्र, तपाये हुए सुवर्णके दो कुण्डल, विभिन्न नगरोंके बने हुए 
सुन्दर और चमकीले मणिरत्ननिर्मित आभूषण, स्वर्णपदक और कोमल मृगचर्म आदि 
वस्तुएँ तुम्हारे लिये मैं अभी लाये देता हूँ। शोभने! अधिक क्‍या कहूँ, मेरा सारा राज्य 
आजलसे तुम्हारा हो जाय, तुम मेरी महारानी बन जाओ ।। २-३ ।। 

गान्धर्वेण च मां भीरु विवाहेनैहि सुन्दरि । 

विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्व: श्रेष्ठ उच्यते ।। ४ ।। 

भीरु! सुन्दरि! गान्धर्व विवाहके द्वारा मुझे अंगीकार करो। रम्भोरु! विवाहोंमें गान्धर्व 
विवाह श्रेष्ठ कहलाता है ।। ४ ।। 

शकुन्तलोवाच 


फलाहारो गतो राजन्‌ पिता मे इत आश्रमात्‌ | 

मुहूर्त सम्प्रतीक्षस्व स मां तुभ्यं प्रदास्यति ।। ५ ।। 

शकुन्तलाने कहा--राजन! मेरे पिता कण्व फल लानेके लिये इस आश्रमसे बाहर गये 
हैं। दो घड़ी प्रतीक्षा कीजिये। वे ही मुझे आपकी सेवामें समर्पित करेंगे |। ५ ।। 

(पिता हि मे प्रभुर्नित्यं दैवतं परमं मतम्‌ । 

यस्य वा दास्यति पिता स मे भर्ता भविष्यति ।। 

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने । 

पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति ।। 


अमन्यमाना राजेन्द्र पितरं मे तपस्विनम्‌ । 

अधर्मेण हि धर्मिषछ्ठ कथं वरमुपास्महे ।। 

महाराज! पिता ही मेरे प्रभु हैं। उन्हें ही मैं सदा अपना सर्वोत्कृष्ट देवता मानती हूँ। 
पिताजी मुझे जिसको सौंप देंगे, वही मेरा पति होगा। कुमारावस्थामें पिता, जवानीमें पति 
और बुढ़ापेमें पुत्र रक्षा करता है। अतः स्त्रीको कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिये। धर्मिष्ठ 
राजेन्द्र! मैं अपने तपस्वी पिताकी अवहेलना करके अधर्मपूर्वक पतिका वरण कैसे कर 
सकती हूँ? 

दुष्यन्त उवाच 


मा मैवं वद सुश्रोणि तपोराशिं दयात्मकम्‌ | 
दुष्यन्त बोले--सुन्दरी! ऐसा न कहो। तपोराशि महात्मा कण्व बड़े ही दयालु हैं। 


शकुन्तलोवाच 


मत्युप्रहरणा विप्रा न विप्रा: शस्त्रपाणय: ।। 

अनिनिर्दहति तेजोभि: सूर्यो दहति रश्मिभि: । 

राजा दहति दण्डेन ब्राह्मणो मन्युना दहेत्‌ ।। 

क्रोधितो मन्युना हन्ति वज़्पाणिरिवासुरान्‌ ।) 

शकुन्तलाने कहा--राजन! ब्राह्मण क्रोथके द्वारा ही प्रहार करते हैं। वे हाथमें लोहेका 
हथियार नहीं धारण करते। अग्नि अपने तेजसे, सूर्य अपनी किरणोंसे, राजा दण्डसे और 
ब्राह्मण क्रोधसे दग्ध करते हैं। कुपित ब्राह्मण अपने क्रोधसे अपराधीको वैसे ही नष्ट कर 
देता है, जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरोंको। 


दुष्यन्त उवाच 


इच्छामि त्वां वरारोहे भजमानामनिन्दिते । 

त्वदर्थ मां स्थितं विद्धि त्वद्गतं हि मनो मम ।। ६ ।। 

दुष्यन्त बोले--वरारोहे! तुम्हारा शील और स्वभाव प्रशंसाके योग्य है। मैं चाहता हूँ, 
तुम मुझे स्वेच्छासे स्वीकार करो। मैं तुम्हारे लिये ही यहाँ ठहरा हूँ। मेरा मन तुममें ही लगा 
हुआ है ।। ६ ।। 

आत्मनो बन्धुरात्मैव गतिरात्मैव चात्मन: । 

आत्मनो मित्रमात्मैव तथा55त्मा चात्मन: पिता | 

आत्मनैवात्मनो दानं कर्तुमरहसि धर्मत: ।। ७ ।। 

आत्मा ही अपना बन्धु है। आत्मा ही अपना आश्रय है। आत्मा ही अपना मित्र है और 
वही अपना पिता है, अतः तुम स्वयं ही धर्मपूर्वक आत्मसमर्पण करनेयोग्य हो || ७ ।। 

अष्टावेव समासेन विवाहा धर्मत:ः स्मृता: । 


ब्राह्मो दैवस्तथैवार्ष: प्राजापत्यस्तथासुर: ।। ८ ।। 

गान्धर्वो राक्षसश्वैव पैशाचश्चाष्टम: स्मृत: । 

तेषां धर्म्यान्‌ यथापूर्व मनु: स्वायम्भुवोडब्रवीत्‌ ।। ९ ।। 

धर्मशास्त्रकी दृष्टिसे संक्षेपसे आठ प्रकारके ही विवाह माने गये हैं--ब्राह्म, दैव, आर्ष, 
प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा आठवाँ पैशाच।- स्वायम्भुव मनुका कथन है कि 
इनमें बादवालोंकी अपेक्षा पहलेवाले विवाह धर्मानुकूल हैं ।। ८-९ ।। 

प्रशस्तां श्वतुर: पूर्वान्‌ ब्राह्मणस्योपधारय । 

षडानुपूर्व्या क्षत्रस्य विद्धि धर्म्याननिन्दिते । १० ।। 

पूर्वकथित जो चार विवाह--ब्राह्म, दैव, आर्ष तथा प्राजापात्य हैं, उन्हें ब्राह्मणके लिये 
उत्तम समझो। अनिन्दिते! ब्राह्मसे लेकर गान्धर्वतक क्रमशः छः: विवाह क्षत्रियके लिये 
धर्मानुकूल जानो ।। १० ।। 

रज्ञां तु राक्षसो<प्युक्तो विट्शूट्रेष्वासुर: स्मृत: । 

पज्चानां तु त्रयो धर्म्या अधर्म्यौं द्वौ स्‍्मृताविह ।। ११ ।। 

राजाओंके लिये तो राक्षस विवाहका भी विधान है। वैश्यों और शूद्रोंमें आसुर विवाह 
ग्राह्म माना गया है। अन्तिम पाँच विवाहोंमें तीन तो धर्मसम्मत हैं और दो अधर्मरूप माने 
गये हैं ।। ११ ।। 

पैशाच आसुरश्चैव न कर्तव्यौ कदाचन । 

अनेन विधिना कार्यो धर्मस्यैषा गति: स्मृता || १२ ।। 

पैशाच और आसुर विवाह कदापि करनेयोग्य नहीं हैं। इस विधिके अनुसार विवाह 
करना चाहिये। यह धर्मका मार्ग बताया गया है || १२ ।। 

गान्धर्वराक्षसौ क्षत्रे धर्म्यों तो मा विशड्किथा: । 

पृथग्‌ वा यदि वा मिश्रौ कर्तव्यौ नात्र संशय: ।। १३ ।। 

गान्धर्व और राक्षस--दोनों विवाह क्षत्रियजातिके लिये धर्मानुकूल ही हैं। अत: उनके 
विषयमें तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिये। वे दोनों विवाह परस्पर मिले हों या पृथक्‌-पृथक्‌ हों, 
क्षत्रियके लिये करनेयोग्य ही हैं, इसमें संशय नहीं है ।। १३ ।। 

सा त्वं मम सकामस्य सकामा वरवर्णिनि । 

गान्धर्वेण विवाहेन भार्या भवितुमहसि ।। १४ ।। 

अतः सुन्दरी! मैं तुम्हें पानेके लिये इच्छुक हूँ। तुम भी मुझे पानेकी इच्छा रखकर 
गान्धर्व विवाहके द्वारा मेरी पत्नी बन जाओ ।। १४ ॥। 

शकुन्तलोवाच 


यदि धर्मपथस्त्वेष यदि चात्मा प्रभुर्मम । 
प्रदाने पौरवश्रेष्ठ शृणु मे समयं प्रभो ।। १५ ।। 


शकुन्तलाने कहा--पौरवश्रेष्ठ! यदि यह गान्धर्व विवाह धर्मका मार्ग है, यदि आत्मा 
स्वयं ही अपना दान करनेमें समर्थ है तो इसके लिये मैं तैयार हूँ; किंतु प्रभो! मेरी एक शर्त 
है, उसे सुन लीजिये ।। १५ ।। 

सत्यं मे प्रतिजानीहि यथा वक्ष्याम्यहं रह: । 

मयि जायेत य: पुत्र: स भवेत्‌ त्वदनन्तर: ।। १६ ।। 

युवराजो महाराज सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते । 

यद्येतदेवं दुष्पन्त अस्तु मे सड़मस्त्वया ।। १७ ।। 

और उसका पालन करनेके लिये मुझसे सच्ची प्रतिज्ञा कीजिये। वह शर्त क्या है, यह मैं 
एकान्तमें आपसे कह रही हूँ--महाराज दुष्यन्त! मेरे गर्भसे आपके द्वारा जो पुत्र उत्पन्न हो, 
वही आपके बाद युवराज हो, ऐसी मेरी इच्छा है। यह मैं आपसे सत्य कहती हूँ। यदि यह 
शर्त इसी रूपमें आपको स्वीकार हो तो आपके साथ मेरा समागम हो सकता 
है | १६-१७ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमस्त्विति तां राजा प्रत्युवाचाविचारयन्‌ । 

अपि च वत्वां हि नेष्यामि नगरं स्वं शुचिस्मिते ।। १८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! शकुन्तलाकी यह बात सुनकर राजा दुष्यन्तने 
बिना कुछ सोचे-विचारे यह उत्तर दे दिया कि 'ऐसा ही होगा।” वे शकुन्तलासे बोले 
--शुचिस्मिते! मैं शीघ्र तुम्हें अपने नगरमें ले चलूँगा |। १८ ।। 

यथा त्वमर्हा सुश्रोणि सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते । 

एवमुक्त्वा स राजर्षिस्तामनिन्दितगामिनीम्‌ ।। १९ |। 

जग्राह विधिवत्‌ पाणायुवास च तया सह । 

विश्वास्य चैनां स प्रायादब्रवीच्च पुन: पुन: ।। २० ।। 

प्रेषयिष्ये तवार्थाय वाहिनी चतुरद्धिणीम्‌ । 

तया त्वानाययिष्यामि निवासं स्व शुचिस्मिते || २१ ।। 

'सुश्रोणि! तुम राजभवनमें ही रहनेयोग्य हो। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ।” ऐसा 
कहकर राजर्षि दुष्यन्तने अनिन्द्यगामिनी शकुन्तलाका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया और 
उसके साथ एकान्तवास किया। फिर उसे विश्वास दिलाकर वहाँसे विदा हुए। जाते समय 
उन्होंने बार-बार कहा--'पवित्र मुसकानवाली सुन्दरी! मैं तुम्हारे लिये चतुरंगिणी सेना 
भेजूगा और उसीके साथ अपने राजभवनमें बुलवाऊँगा' || १९--२१ ।। 

(एवमुक्त्वा स राजर्षिस्तामनिन्दितगामिनीम्‌ । 

सम्परिष्वज्य बाहुभ्यां स्मितपूर्वमुदैक्षत ।। 

प्रदक्षिणीकृतां देवीं राजा सम्परिषस्वजे । 


शकुन्तला हाश्रुमुखी पपात नृपपादयो: ।। 

तां देवीं पुनरुत्थाप्य मा शुचेति पुन: पुनः । 

शपेयं सुकृतेनैव प्रापयिष्ये नृपात्मजे ।।) 

अनिन्द्यगामिनी शकुन्तलासे ऐसा कहकर राजर्षि दुष्यन्तने उसे अपनी भुजाओंमें भर 
लिया और उसकी ओर मुसकराते हुए देखा। देवी शकुन्तला राजाकी परिक्रमा करके खड़ी 
थी। उस समय उन्होंने उसे हृदयसे लगा लिया। शकुन्तलाके मुखपर आँसुओंकी धारा बह 
चली और वह नरेशके चरणोंमें गिर पड़ी। राजाने देवी शकुन्तलाको फिर उठाकर बार-बार 
कहा--'राजकुमारी! चिन्ता न करो। मैं अपने पुण्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हें अवश्य 
बुला लूँगा।' 

वैशम्पायन उवाच 

इति तस्या: प्रतिश्रुत्य स नृूपो जनमेजय । 

मनसा चिन्तयन्‌ प्रायात्‌ काश्यपं प्रति पार्थिव: ।। २२ ।। 

भगवांस्तपसा युक्त: श्रुत्वा कि नु करिष्यति । 

एवं स चिन्तयन्नेव प्रविवेश स्वकं पुरम्‌ ।। २३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार शकुन्तलासे प्रतिज्ञा करके नरेश्वर 
राजा दुष्यन्त आश्रमसे चल दिये। उनके मनमें महर्षि कण्वकी ओरसे बड़ी चिन्ता थी कि 
तपस्वी भगवान्‌ कण्व यह सब सुनकर न जाने क्या कर बैठेंगे? इस तरह चिन्ता करते हुए 
ही राजाने अपने नगरमें प्रवेश किया || २२-२३ ।। 

मुहूर्तयाते तस्मिंस्तु कण्वो5प्याश्रममागमत्‌ | 

शकुन्तला च पितरं द्विया नोपजगाम तम्‌ ।। २४ ।। 

उनके गये दो ही घड़ी बीती थी कि महर्षि कण्व भी आश्रमपर आ गये; परंतु शकुन्तला 
लज्जावश पहलेके समान पिताके समीप नहीं गयी ।। २४ ।। 

(शड्कितैव च विप्रर्षिमुपचक्राम सा शनै: । 

ततो<स्य राजग्जग्राह आसनं चाप्यकल्पयत्‌ ।। 

शकुन्तला च सव्रीडा तमृषिं नाभ्यभाषत । 

तस्मात्‌ स्वधर्मात्‌ स्खलिता भीता सा भरतर्षभ ।। 

अभवदू दोषदर्शित्वाद्‌ ब्रह्मचारिण्ययन्त्रिता । 

स तदा व्रीडितां दृष्टवा ऋषिस्तां प्रत्यभाषत ।। 

तत्पश्चात्‌ वह डरती हुई ब्रह्मर्षिके निकट धीरे-धीरे गयी। फिर उसने उनके लिये आसन 
लेकर बिछाया। शकुन्तला इतनी लज्जित हो गयी थी कि महर्षिसे कोई बाततक न कर 
सकी। भरतश्रेष्ठ! वह अपने धर्मसे गिर जानेके कारण भयभीत हो रही थी। जो कुछ समय 


पहलेतक स्वाधीन ब्रह्मचारिणी थी, वही उस समय अपना दोष देखनेके कारण घबरा गयी 
थी। शकुन्तलाको लज्जामें डूबी हुई देख महर्षि कण्वने उससे कहा। 
कण्व उवाच 


सव्रीडैव च दीर्घायु: पुरेव भविता न च । 
वृत्तं कथय रम्भोरु मा त्रासं च प्रकल्पय ।। 
कण्व बोले--बेटी! तू सलज्ज रहकर ही दीर्घायु होगी। अब पहले जैसी चपल न रह 
सकेगी। शुभे! सारी बातें स्पष्ट बता; भय न कर। 
वैशम्पायन उवाच 


ततः कृच्छादतिशुभा सव्रीडा श्रीमती तदा । 
सगद्गदमुवाचेदं काश्यपं सा शुचिस्मिता ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! पवित्र मुसकान-वाली वह सुन्दरी अत्यन्त 
सदाचारिणी थी; तो भी अपने व्यवहारसे लज्जाका अनुभव करती हुई महर्षि कण्वसे बड़ी 
कठिनाईके साथ गद्गदकण्ठ होकर बोली। 
शकुन्तलोवाच 


राजा ताताजगामेह दुष्यन्त इलिलात्मज: । 

मया पतिर्वृतों योडसौ दैवयोगादिहागत: ।। 

तस्य तात प्रसीदस्व भर्ता मे सुमहायशा: । 

अतः सर्व तु यद्‌ वृत्तं दिव्यज्ञानेन पश्यसि । 

अभरयं क्षत्रियकुले प्रसाद कर्तुमहसि ।।) 

शकुन्तला बोली--तात! इलिलकुमार महाराज दुष्यन्त इस वनमें आये थे। दैवयोगसे 
इस आश्रमपर भी उनका आगमन हुआ और मैंने उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया। 
पिताजी! आप उनपर प्रसन्न हों। वे महायशस्वी नरेश अब मेरे स्वामी हैं। इसके बादका 
सारा वृत्तान्त आप दिव्य ज्ञानदृष्टिसे देख सकते हैं। क्षत्रियकुलको अभयदान देकर उनपर 
कृपादृष्टि करें। 

विज्ञायाथ च तां कण्वो दिव्यज्ञानो महातपा: । 

उवाच भगवान्‌ प्रीत: पश्यन्‌ दिव्येन चक्षुषा || २५ ।। 

महातपस्वी भगवान्‌ कण्व दिव्यज्ञानसे सम्पन्न थे। वे दिव्य दृष्टिसे देखकर शकुन्तलाकी 
तात्कालिक अवस्थाको जान गये; अतः प्रसन्न होकर बोले-- || २५ ।। 

त्वयाद्य भद्रे रहसि मामनादृत्य यः कृत: । 

पुंसा सह समायोगो न स धर्मोपघातक: ।। २६ ।। 


'भद्रे! आज तुमने मेरी अवहेलना करके जो एकान्तमें किसी पुरुषके साथ सम्बन्ध 
स्थापित किया है, वह तुम्हारे धर्मका नाशक नहीं है || २६ ।। 

क्षत्रियस्य हि गान्धर्वो विवाह: श्रेष्ठ उच्चते । 

सकामाया: सकामेन निर्मन्त्रो रहसि स्मृत: ।। २७ ।। 

'क्षत्रियके लिये गान्धर्व विवाह श्रेष्ठ कहा गया है। स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरेको 
चाहते हों, उस दशामें उन दोनोंका एकान्तमें जो मन्त्रहीन सम्बन्ध स्थापित होता है, उसे 
गान्धर्व विवाह कहा गया है || २७ ।। 

धर्मात्मा च महात्मा च दुष्यन्तः पुरुषोत्तम: । 

अध्यगच्छ: पतिं यत्‌ त्वं भजमानं शकुन्तले ।। २८ ।। 

महात्मा जनिता लोके पुत्रस्तव महाबल: | 

य इमां सागरापाज़ीं कृत्स्नां भोक्ष्यति मेदिनीम्‌ ।। २९ ।। 

“शकुन्तले! महामना दुष्यन्त धर्मात्मा और श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे तुम्हें चाहते थे। तुमने योग्य 
पतिके साथ सम्बन्ध स्थापित किया है; इसलिये लोकमें तुम्हारे गर्भसे एक महाबली और 
महात्मा पुत्र उत्पन्न होगा, जो समुद्रसे घिरी हुई इस समूची पृथ्वीका उपभोग 
करेगा ।। २८-२९ |। 

परं चाभिप्रयातस्य चक्र तस्य महात्मन: । 

भविष्यत्यप्रतिहतं सततं चक्रवर्तिन: ।। ३० |। 

'शत्रुओंपर आक्रमण करनेवाले उस महामना चक्रवर्ती नरेशकी सेना सदा अप्रतिहत 
होगी। उसकी गतिको कोई रोक नहीं सकेगा” ।। ३० ।। 

ततः प्रक्षाल्य पादौ सा विश्रान्तं मुनिमब्रवीत्‌ । 

विनिधाय ततो भार संनिधाय फलानि च ।। ३१ ।। 

तदनन्तर शकुन्तलाने उनके लाये हुए फलके भारको लेकर यथास्थान रख दिया। फिर 
उनके दोनों पैर धोये तथा जब वे भोजन और विश्राम कर चुके, तब वह मुनिसे इस प्रकार 
बोली ।। ३१ ।। 


शकुन्तलोवाच 


मया पतिर्वतो राजा दुष्यन्त: पुरुषोत्तम: | 
तस्मै ससचिवाय त्वं प्रसादं कर्तुमहसि ।। ३२ ।। 
शकुन्तलाने कहा--भगवन! मैंने पुरुषोंमें श्रेष्ठ राजा दुष्यन्तका पतिरूपमें वरण किया 
है। अतः मन्त्रियोंसहित उन नरेशपर आपको कृपा करनी चाहिये ।। ३२ ।। 
कण्व उवाच 


प्रसन्न एव तस्याहं त्वत्कृते वरवर्णिनि । 
(ऋतवो बहवस्ते वै गता व्यर्था: शुचिस्मिते । 


सार्थक॑ साम्प्रतं होतन्न च पापो5स्ति तेडनघे ।।) 
गृहाण च वर मत्तस्त्वं शुभे यदभीप्सितम्‌ ।। ३३ ।। 
कण्व बोले--उत्तम वर्णवाली पुत्री! मैं तुम्हारे भलेके लिये राजा दुष्यन्तपर भी प्रसन्न 
ही हूँ। शुचिस्मिते! अबतक तेरे बहुत-से ऋतु व्यर्थ बीत गये हैं। इस बार यह सार्थक हुआ 
है। अनघे! तुम्हें पाप नहीं लगेगा। शुभे! तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर मुझसे माँग 
लो || ३३ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


ततो धर्मिष्ठतां वव्रे राज्याच्चास्खलनं तथा । 

शकुन्तला पौरवाणां दुष्पन्तहितकाम्यया ।। ३४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब शकुन्तलाने दुष्यन्तके हितकी इच्छासे यह 
वर माँगा कि पुरुवंशी नरेश सदा धर्ममें स्थिर रहें और वे कभी राज्यसे भ्रष्ट न हों || ३४ ।। 

(एवमस्त्विति तां प्राह कण्वो धर्मभृतां वर: । 

पस्पर्श चापि पाणिभ्यां सुतां श्रीमिव रूपिणीम्‌ ।। 

उस समय धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ कण्वने उससे कहा--'एवमस्तु” (ऐसा ही हो)। यह 
कहकर उन्होंने मूर्तिमती लक्ष्मी-सी पुत्री शकुन्तलाका दोनों हाथोंसे स्पर्श किया और कहा। 

कण्व उवाच 


अद्यप्रभृति देवी त्वं दुष्पन्तस्य महात्मन: । 

पतिव्रतानां या वृत्तिस्तां वृत्तिमनुपालय ।।) 

कण्व बोले--बेटी! आजसे तू महात्मा राजा दुष्यन्तकी महारानी है। अतः पतिव्रता 
स्त्रियोंका जो बर्ताव तथा सदाचार है, उसका निरन्तर पालन कर। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने 
त्रिसप्ततितमोध्याय: ।। ७३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक 
तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७३ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १९६ श्लोक मिलाकर कुल ५३३ श्लोक हैं) 


- कन्याको वस्त्र और आभूषणोंसे अलंकृत करके सजातीय योग्य वरके हाथमें देना 'ब्राह्म विवाह कहलाता है। अपने 
घरपर देवयज्ञ करके यज्ञान्तमें ऋत्विजुको अपनी कन्याका दान करना “दैव” विवाह कहा गया है। वरसे एक गाय और 
एक बैल शुल्कके रूपमें लेकर कन्यादान करना 'आर्ष” विवाह बताया गया है। वर और कन्या दोनों साथ रहकर धर्माचरण 
करें, इस बुद्धिसे कन्यादान करना “प्राजापत्य” विवाह माना गया है। वरसे मूल्यके रूपमें बहुत-सा धन लेकर कन्या देना 
“आसुर' विवाह माना गया है। वर और वधू दोनों एक-दूसरेको स्वेच्छासे स्वीकार कर लें, यह “गान्धर्व” विवाह है। युद्ध 


करके मार-काट मचाकर रोती हुई कनन्‍्याको उसके रोते हुए भाई-बन्धुओंसे छीन लाना 'राक्षस” विवाह माना गया है। जब 
घरके लोग सोये हों अथवा असावधान हों, उस दशामें कन्याको चुरा लेना “पैशाच” विवाह है। 


चतु:सप्ततितमो< ध्याय: 
शकुन्तलाके पुत्रका जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित 


शकुन्तलाका दुष्यन्तके 3282 जाना, -शकुन्तला- 
संवाद, आकाशवाणीद्धारा १ शुद्धिका समर्थन 
और भरतका राज्याभिषेक 
वैशग्पायन उवाच 


प्रतिज्ञाय तु दुष्यन्ते प्रतियाते शकुन्तलाम्‌ । 

(गर्भश्न ववृधे तस्यां राजपुत्र्यां महात्मन: । 

शकुन्तला चिन्तयन्ती राजानं कार्यगौरवात्‌ ।। 

दिवारात्रमनिद्रैव स्नानभोजनवर्जिता ।। 

राजप्रेषणिका विप्राश्नतुरज़्बलै: सह | 

अद्य श्वो वा परश्वो वा समायान्तीति निश्चिता ।। 

दिवसान्‌ पक्षानृतून्‌ मासानयनानि च सर्वश: । 

गण्यमानेषु सर्वेषु व्यतीयुस्त्रीणि भारत ।।) 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! जब शकुन्तलासे पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करके राजा 
दुष्यन्त चले गये, तब क्षत्रियकन्या शकुन्तलाके उदरमें उन महात्मा दुष्यन्तके द्वारा स्थापित 
किया हुआ गर्भ धीरे-धीरे बढ़ने और पुष्ट होने लगा। शकुन्तला कार्यकी गुरुतापर दृष्टि 
रखकर निरन्तर राजा दुष्यन्तका ही चिन्तन करती रहती थी। उसे न तो दिनमें नींद आती 
थी और न रातमें ही। उसका स्नान और भोजन छूट गया था। उसे यह दृढ़ विश्वास था कि 
राजाके भेजे हुए ब्राह्मण चतुरंगिणी सेनाके साथ आज, कल या परसोंतक मुझे लेनेके लिये 
अवश्य आ जायँगे। भरतनन्दन! शकुन्तलाको दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन तथा वर्ष--इन 
सबकी गणना करते-करते तीन वर्ष बीत गये। 

गर्भ सुषाव वामोरू: कुमारममितौजसम्‌ ।। १ ।। 

त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु दीप्तानलसमपद्युतिम्‌ 

रूपौदार्यगुणोपेतं दौष्पन्तिं जनमेजय ।। २ ।। 

जनमेजय! तदनन्तर पूरे तीन वर्ष व्यतीत होनेके बाद सुन्दर जाँघोंवाली शकुन्तलाने 
अपने गर्भसे प्रजजलित अग्निके समान तेजस्वी, रूप और उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न, 
अमित पराक्रमी कुमारको जन्म दिया, जो दुष्यन्तके वीर्यसे उत्पन्न हुआ था ।। १-२ ।। 

(तस्मै तदान्तरिक्षात्‌ तु पुष्पवृष्टि: पपात ह | 

देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणा: ।। 


गायन्त्यो मधुरं तत्र देवैः शक्रो5भ्युवाच ह । 
उस समय आकाशसे उस बालकके लिये फूलोंकी वर्षा हुई, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज 
उठीं और अप्सराएँ मधुर स्वरमें गाती हुई नृत्य करने लगीं। उस अवसरपर वहाँ 
देवताओंसहित इन्द्रने आकर कहा। 
शक्र उवाच 


शकुन्तले तव सुतश्नक्रवर्ती भविष्यति ।। 

बल॑ तेजश्न रूपं च न सम॑ भुवि केनचित्‌ | 

आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरव: ।। 

अनेकानि सहस्राणि राजसूयादिभिर्मखै: । 

स्वार्थ ब्राह्मणसात्‌ कृत्वा दक्षिणाममितां ददात्‌ ।। 

इन्द्र बोले--शकुन्तले! तुम्हारा यह पुत्र चक्रवर्ती सम्राट्‌ होगा। पृथ्वीपर कोई भी इसके 
बल, तेज तथा रूपकी समानता नहीं कर सकता। यह पूरुवंशका रत्न सौ अश्वमेध यज्ञोंका 
अनुष्ठान करेगा। राजसूय आदि यज्ञोंद्वारा सहस्रों बार अपना सारा धन ब्राह्मणोंके अधीन 
करके उन्हें अपरिमित दक्षिणा देगा। 


वैशम्पायन उवाच 


देवतानां वच: श्रुत्वा कण्वाश्रमनिवासिन: । 

सभाजयन्त कण्वस्य सुतां सर्वे महर्षय: ।। 

शकुन्तला च ६ त्वा परं हर्षमवाप सा । 

द्विजानाहूय : सत्कृत्य च महायशा: ।।) 

जातकर्मादिसंस्कारं कण्व: पुण्यकृतां वर: । 

विधिवत्‌ कारयामास वर्धमानस्य धीमतः ।। ३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--इन्द्रादि देवताओंका यह वचन सुनकर कण्वके आश्रममें 
रहनेवाले सभी महर्षि कण्वकन्या शकुन्तलाके सौभाग्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। यह 
सब सुनकर शकुन्तलाको भी बड़ा हर्ष हुआ। पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ महायशस्वी कण्वने मुनियोंसे 
ब्राह्मगोंको बुलाकर उनका पूर्ण सत्कार करके बालकका विधिपूर्वक जातकर्म आदि 
संस्कार कराया। वह बुद्धिमान्‌ बालक प्रतिदिन बढ़ने लगा ।। ३ ।। 

दन्तै: शुक्लै: शिखरिभि: सिंहसंहननो महान्‌ | 

चक्राडकितकर: श्रीमान्‌ महामूर्था महाबल: ।। ४ ।। 

वह सफेद और नुकीले दाँतोंसे शोभा पा रहा था। उसके शरीरका गठन सिंहके समान 
था। वह ऊँचे कदका था। उसके हाथोंमें चक्रके चिह्न थे। वह अदभुत शोभासे सम्पन्न, 
विशाल मस्तकवाला और महान्‌ बलवान था ।। ४ ।। 

कुमारो देवगर्भाभ: स तत्राशु व्यवर्धत । 


षड्वर्ष एव बाल: स कण्वाश्रमपदं प्रति ।। ५ ।। 

सिंहव्याप्रान्‌ वराहांश्न महिषांश्न॒ गजांस्तथा । 

बबन्ध वृक्षे बलवानाश्रमस्य समीपत: ।। ६ ।। 

देवताओंके बालक-सा प्रतीत होनेवाला वह तेजस्वी कुमार वहाँ शीघ्रतापूर्वक बढ़ने 
लगा। छ: वर्षकी अवस्थामें ही वह बलवान्‌ बालक कण्वके आश्रममें सिंहों, व्याप्रों, वराहों, 
भैंसों और हाथियोंको पकड़कर खींच लाता और आश्रमके समीपवर्ती वृक्षोंमें बाँध देता 
था || ५-६ || 

आरोहन्‌ दमयंश्लैव क्रीडंश्न॒ परिधावति । 

(ततश्न राक्षसान्‌ सर्वान्‌ पिशाचांश्व रिपून्‌ रणे । 

मुष्टियुद्धेन ताजञ्जित्वा ऋषीनाराधयत्‌ तदा ।। 

कश्चिद्‌ दितिसुतस्तं तु हन्तुकामो महाबल: । 

वध्यमानांस्तु दैतेयानमर्षी त॑ं समभ्ययात्‌ ।। 

तमागतं प्रहस्यैव बाहुभ्यां परिगृह्‌ च । 

दृढे चाब॒ध्य बाहुभ्यां पीडयामास त॑ तदा ।। 

मर्दितो न शशाकास्य मोचितुं बलवत्तया | 

प्राक्रोशद्‌ भैरवं तत्र द्वारेभ्यो नि:सृतं त्वसूक्‌ ।। 

तेन शब्देन वित्रस्ता मृगा: सिंहादयो गणा: । 

सुखुवुश्च शकृन्मूत्रमा श्रमस्थाश्न सुखुवु: ।। 

निरसुं जानुभि: कृत्वा विससर्ज च सो5पतत्‌ । 

त॑ दृष्टवा विस्मयं चक्कु: कुमारस्य विचेष्टितम्‌ ।। 

नित्यकालं वध्यमाना दैतेया राक्षसै: सह । 

कुमारस्य भयादेव नैव जग्मुस्तदाश्रमम्‌ ।।) 

ततोसस्‍्य नाम चक्रुस्ते कण्वाश्रमनिवासिन: ।। ७ ।। 

फिर वह सबका दमन करते हुए उनकी पीठपर चढ़ जाता और क्रीड़ा करते हुए उन्हें 
सब ओर दौड़ाता हुआ दौड़ता था। वहाँ सब राक्षस और पिशाच आदि शत्रुओंको युद्धमें 
मुष्टिप्रहारके द्वारा परास्त करके वह राजकुमार ऋषि-मुनियोंकी आराधनामें लगा रहता था। 
एक दिन कोई महाबली दैत्य उसे मार डालनेकी इच्छासे उस वनमें आया। वह उसके द्वारा 
प्रतिदिन सताये जाते हुए दूसरे दैत्योंकी दशा देखकर अमर्षमें भरा हुआ था। उसके आते ही 
राजकुमारने हँसकर उसे दोनों हाथोंसे पकड़ लिया और अपनी बाँहोंमें दृढ़तापूर्वक कसकर 
दबाया। वह बहुत जोर लगानेपर भी अपनेको उस बालकके चंगुलसे छुड़ा न सका, अतः 
भयंकर स्वरसे चीत्कार करने लगा। उस समय दबावके कारण उसकी इन्द्रियोंसे रक्त बह 
चला। उसकी चीत्कारसे भयभीत हो मृग और सिंह आदि जंगली जीव मल-मूत्र करने लगे 
तथा आश्रमपर रहनेवाले प्राणियोंकी भी यही दशा हुई। दुष्यन्तकुमारने घुटनोंसे मार- 


मारकर उस दैत्यके प्राण ले लिये; तत्पश्चात्‌ उसे छोड़ दिया। उसके हाथसे छूटते ही वह 
दैत्य गिर पड़ा। उस बालकका यह पराक्रम देखकर सब लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ। कितने 
ही दैत्य और राक्षस प्रतिदिन उस दुष्यन्तकुमारके हाथों मारे जाते थे। कुमारके भयसे ही 
उन्होंने कण्वके आश्रमपर जाना छोड़ दिया। यह देख कण्वके आश्रममें रहनेवाले ऋषियों ने 
उसका नया नामकरण किया-- ।। ७ || 

अस्त्वयं सर्वदमन: सर्व हि दमयत्यसौ । 

स सर्वदमनो नाम कुमार: समपद्यत | ८ ।। 

विक्रमेणौजसा चैव बलेन च समन्वित: । 

“यह सब जीवोंका दमन करता है, इसलिये “सर्वदमन” नामसे प्रसिद्ध हो।' तबसे उस 
कुमारका नाम सर्वदमन हो गया। वह पराक्रम, तेज और बलसे सम्पन्न था ।। ८६ ।। 

(अप्रेषयति दुष्यन्ते महिष्यास्तनयस्य च । 

पाण्डुभावपरीताजुीं चिन्तया समभिप्लुताम्‌ ।। 

लम्बालकां कृशां दीनां तथा मलिनवाससम्‌ | 

शकुन्तलां च सम्प्रेक्ष्य प्रदध्यौ स मुनिस्तदा ।। 

शास्त्राणि सर्ववेदाश्च द्वादशाब्दस्य चाभवन्‌ ।।) 

राजा दुष्यन्तने अपनी रानी और पुत्रको बुलानेके लिये जब किसी भी मनुष्यको नहीं 
भेजा, तब शकुन्तला चिन्तामग्न हो गयी। उसके सारे अंग सफेद पड़ने लगे। उसके खुले 
हुए लंबे केश लटक रहे थे, वस्त्र मैले हो गये थे, वह अत्यन्त दुर्बल और दीन दिखायी देती 
थी। शकुन्तलाको इस दयनीय दशामें देखकर कण्व मुनिने कुमार सर्वदमनके लिये विद्याका 
चिन्तन किया। इससे उस बारह वर्षके ही बालकके हृदयमें समस्त शास्त्रों और सम्पूर्ण 
वेदोंका ज्ञान प्रकाशित हो गया। 

त॑ कुमारमृषिर्दुष्टवा कर्म चास्यातिमानुषम्‌ ।। ९ ।। 

समयो यौवराज्यायेत्यब्रवीच्च शकुन्तलाम्‌ | 

महर्षि कण्वने उस कुमार और उसके लोकोत्तर कर्मको देखकर शकुन्तलासे कहा 
--“अब इसके युवराज-पदपर अभिषिक्त होनेका समय आया है ।। ९६ || 

(शृणु भद्रे मम सुते मम वाक्‍्यं शुचिस्मिते । 

पतिव्रतानां नारीणां विशिष्टमिति चोच्यते ।। 

“मेरी कल्याणमयी पुत्री! मेरा यह वचन सुनो। पवित्र मुसकानवाली शकुन्तले! पतिव्रता 
स्त्रियोंके लिये यह विशेष ध्यान देनेयोग्य बात है; इसलिये बता रहा हूँ। 

पतिशुश्रूषणं पूर्व मनोवाक्कायचेष्टितै: । 

अनुज्ञाता मया पूर्व पूजयैतद्‌ व्रतं तव ।। 

एतेनैव च वृत्तेन विशिष्टां लप्स्यसे श्रियम्‌ । 


'सती स्त्रियोंके लिये सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि वे मन, वाणी, शरीर और चेष्टाओंद्वारा 
निरन्तर पतिकी सेवा करती रहें। मैंने पहले भी तुम्हें इसके लिये आदेश दिया है। तुम अपने 
इस व्रतका पालन करो। इस पतिव्रतोचित आचार-व्यवहारसे ही विशिष्ट शोभा प्राप्त कर 
सकोगी। 

तस्माद्‌ भद्रे प्रयातव्यं समीपं पौरवस्थ ह ।। 

स्वयं नायाति मत्वा ते गतं काल॑ शुचिस्मिते । 

गत्वा55राधय राजान दुष्यन्तं हितकाम्यया ।। 

“भद्रे! तुम्हें पूरनन्दन दुष्यन्तके पास जाना चाहिये। वे स्वयं नहीं आ रहे हैं, ऐसा 
सोचकर तुमने बहुत-सा समय उनकी सेवासे दूर रहकर बिता दिया। शुचिस्मिते! अब तुम 
अपने हितकी इच्छासे स्वयं जाकर राजा दुष्यन्तकी आराधना करो। 

दौष्यन्तिं यौवराज्यस्थं दृष्टवा प्रीतिमवाप्स्यसि । 

देवतानां गुरूणां च क्षत्रियाणां च भामिनि । 

भर्तृणां च विशेषेण हितं संगमनं सताम्‌ ।। 

तस्मात्‌ पुत्रि कुमारेण गन्तव्यं मत्प्रियेप्सया । 

प्रतिवाक्यं न दद्यास्त्वं शापिता मम पादयो: ।। 

“वहाँ दुष्यन्तकुमार सर्वदमनको युवराज-पदपर प्रतिष्ठित देख तुम्हें बड़ी प्रसन्नता 
होगी। देवता, गुरु, क्षत्रिय, स्वामी तथा साधु पुरुष--इनका संग विशेष हितकर है। अतः 
बेटी! तुम्हें मेरा प्रिय करनेकी इच्छासे कुमारके साथ अवश्य अपने पतिके यहाँ जाना 
चाहिये। मैं अपने चरणोंकी शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम मुझे मेरी इस आज्ञाके विपरीत 
कोई उत्तर न देना'। 

वैशम्पायन उवाच 


एवमुकक्‍्त्वा सुतां तत्र पौत्रं कण्वो5भ्यभाषत । 

परिष्वज्य च बाहुभ्यां मूर्ध््युपाप्राय पौरवम्‌ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--पुत्रीसे ऐसा कहकर महर्षि कण्वने उसके पुत्र भरतको दोनों 
बाँहोंसे पकड़कर अंकमें भर लिया और उसका मस्तक सूँघकर कहा। 


कण्व उवाच 


सोमवंशोद्धवो राजा दुष्यन्तो नाम विश्लुत: । 
तस्याग्रमहिषी चैषा तव माता शुचिव्रता ।। 
गन्तुकामा भर्त्‌वशं त्वया सह सुमध्यमा । 
गत्वाभिवाद्य राजानं यौवराज्यमवाप्स्यसि ।। 
स पिता तव राजेन्द्रस्तस्थ त्वं वशगो भव । 
पितृपैतामहं राज्यमनुतिष्ठस्व भावत: ।। 


कण्व बोले--वत्स! चन्द्रवंशमें दुष्यन्त नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं। पवित्र व्रतका 
पालन करनेवाली यह तुम्हारी माता उन्हींकी महारानी है। यह सुन्दरी तुम्हें साथ लेकर अब 
पतिकी सेवामें जाना चाहती है। तुम वहाँ जाकर राजाको प्रणाम करके युवराज-पद प्राप्त 
करोगे। वे महाराज दुष्यन्त ही तुम्हारे पिता हैं। तुम सदा उनकी आज्ञाके अधीन रहना और 
बाप-दादेके राज्यका प्रेमपूर्वक पालन करना। 

शकुन्तले शृणुष्वेदं हितं पथ्यं च भामिनि । 

पतिव्रताभावगुणान्‌ हित्वा साध्यं न किउ्चन ।। 

पतिव्रतानां देवा वै तुष्टा: सर्ववरप्रदा: । 

प्रसाद॑ च करिष्यन्ति ह्वापदर्थे च भामिनि ।। 

पतिप्रसादात्‌ पुण्यगतिं प्राप्रुवन्ति न चाशुभम्‌ । 

तस्माद्‌ गत्वा तु राजानमाराधय शुचिस्मिते ।।) 

(फिर कण्व शकुन्तलासे बोले--) 'भामिनि! शकुन्तले! यह मेरी हितकर एवं लाभप्रद 
बात सुनो। पतिव्रताभाव-सम्बन्धी गुणोंको छोड़कर तुम्हारे लिये और कोई वस्तु साध्य नहीं 
है। पतिव्रताओंपर सम्पूर्ण वरोंको देनेवाले देवतालोग भी संतुष्ट रहते हैं। भामिनि! वे 
आपफत्तिके निवारणके लिये अपने कृपा-प्रसादका भी परिचय देंगे। शुचिस्मिते! पतिव्रता 
देवियाँ पतिके प्रसादसे पुण्यगतिको ही प्राप्त होती हैं; अशुभ गतिको नहीं। अतः तुम 
जाकर राजाकी आराधना करो!। 

तस्य तद्‌ बलमाज्ञाय कण्वः शिष्यानुवाच ह ।। १० ।। 

शकुन्तलामिमां शीघ्रं सहपुत्रामितो गृहात्‌ । 

भर्तु: प्रापयतागारं सर्वलक्षणपूजिताम्‌ ।। ११ ।। 

फिर उस बालकके बलको समझकर कण्वने अपने शिष्योंसे कहा--“तुमलोग समस्त 
शुभ लक्षणोंसे सम्मानित मेरी पुत्री शकुन्तला और इसके पुत्रको शीघ्र ही इस घरसे ले 
जाकर पतिके घरमें पहुँचा दो || १०-११ ।। 

नारीणां चिरवासो हि बान्धवेषु न रोचते । 

कीर्तिचारित्रधर्मघ्नस्तस्मान्नयत मा चिरम्‌ ।। १२ ।। 

'स्त्रियोंका अपने भाई-बन्धुओंके यहाँ अधिक दिनोंतक रहना अच्छा नहीं होता। वह 
उनकी कीर्ति, शील तथा पातिव्रत्य धर्मका नाश करनेवाला होता है। अतः इसे अविलम्ब 
पतिके घरमें पहुँचा दो” || १२ ।। 


(वैशग्पायन उवाच 


धर्माभिपूजितं पुत्र॑ काश्यपेन निशाम्य तु । 
काश्यपात्‌ प्राप्य चानुज्ञां मुमुदे च शकुन्तला ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कश्यपनन्दन कण्वने धर्मानुसार मेरे पुत्रका बड़ा 
आदर किया है, यह देखकर तथा उनकी ओरसे पतिके घर जानेकी आज्ञा पाकर शकुन्तला 
मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई। 

कण्वस्य वचन श्रुत्वा प्रतिगच्छेति चासकृत्‌ । 

तथेत्युक्त्वा तु कण्वं च मातरं पौरवो5ब्रवीत्‌ ।। 

कि चिरायसि मातस्त्वं गमिष्यामो नृपालयम्‌ । 

कण्वके मुखसे बारंबार 'जाओ-जाओ” यह आदेश सुनकर पूरुनन्दन सर्वदमनने 
'तथास्तु” कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और मातासे कहा--'माँ! तुम क्‍यों विलम्ब 
करती हो, चलो राजमहल चलें'। 

एवमुक्‍त्वा तु तां देवीं दुष्पन्तस्य महात्मन: ।। 

अभिवाद्य मुने: पादौ गन्तुमैच्छत्‌ स पौरव: । 

देवी शकुन्तलासे ऐसा कहकर पौरवराजकुमारने मुनिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर 
महात्मा राजा दुष्यन्तके यहाँ जानेका विचार किया। 

शकुन्तला च पितरमभिवाद्य कृताञज्जलि: ।। 

प्रदक्षिणीकृत्य तदा पितरं वाक्यमब्रवीत्‌ | 

अज्ञानान्मे पिता चेति दुरुक्त वापि चानृतम्‌ ।। 

अकार्य वाप्यनिष्ट॑ वा क्षन्तुमहति काश्यप । 

शकुन्तलाने भी हाथ जोड़कर पिताको प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके उस 
समय यह बात कही--“'भगवन्‌! काश्यप! आप मेरे पिता हैं, यह समझकर मैंने अज्ञानवश 
यदि कोई कठोर या असत्य बात कह दी हो अथवा न करनेयोग्य या अप्रिय कार्य कर डाला 
हो, तो उसे आप क्षमा कर देंगे'। 

एवमुक्तो नतशिरा मुनिर्नोवाच किउ्चन ।। 

मनुष्यभावात्‌ कण्वो5पि मुनिरश्रूण्यवर्तयत्‌ । 

शकुन्तलाके ऐसा कहनेपर सिर झुकाकर बैठे हुए कण्व मुनि कुछ बोल न सके; 
मानव-स्वभावके अनुसार करुणाका उदय हो जानेसे नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे। 

अब्भक्षान्‌ वायुभक्षांश्व शीर्णपर्णाशनान्‌ मुनीन्‌ ।। 

फलमूलाशिनो दान्तान्‌ कृशान्‌ धमनिसंततान्‌ | 

व्रतिनो जटिलान्‌ मुण्डान्‌ वल्कलाजिनसंवृतान्‌ ।। 

उनके आश्रममें बहुत-से ऐसे मुनि रहते थे, जो जल पीकर, वायु पीकर अथवा सूखे 
पत्ते खाकर तपस्या करते थे। फल-मूल खाकर रहनेवाले भी बहुत थे। वे सब-के-सब 
जितेन्द्रिय एवं दुर्बल शरीरवाले थे। उनके शरीरकी नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं। 
उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले उन महर्षियोंमेंसे कितने ही सिरपर जटा धारण करते थे 


और कितने ही सिर मुड़ाये रहते थे। कोई वल्कल धारण करते थे और कोई मृगचर्म लपेटे 
रहते थे। 

समाहूय मुनीन्‌ कण्व: कारुण्यादिदमब्रवीत्‌ ।। 

मया तु लालिता नित्यं मम पुत्री यशस्विनी । 

वने जाता विवृद्धा च न च जानाति किड्चन ।। 

अश्रमेण पथा सर्वर्नीयतां क्षत्रियालयम्‌ ।) 

महर्षि कण्वने उन मुनियोंकों बुलाकर करुण भावसे कहा--“महर्षियो! यह मेरी 
यशस्विनी पुत्री वनमें उत्पन्न हुई और यहीं पलकर इतनी बड़ी हुई है। मैंने सदा इसे लाड़- 
प्यार किया है। यह कुछ नहीं जानती है। विप्रगण! तुम सब लोग इसे ऐसे मार्गसे राजा 
दुष्यन्तके घर ले जाओ जिसमें अधिक श्रम न हो'। 

तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे प्रातिष्ठन्‍त महौजस: । 

शकुन्तलां पुरस्कृत्य दुष्यन्तस्य पुरं प्रति ॥ १३ ।। 

“बहुत अच्छा" कहकर वे सभी महातेजस्वी शिष्य (पुत्रसहित) शकुन्तलाको आगे 
करके दुष्यन्तके नगरकी ओर चले ।। १३ ।। 

गृहीत्वामरगर्भाम॑ पुत्र कमललोचनम्‌ । 

आजगाम ततः: सुभ्ूर्दुष्यन्तं विदिताद्‌ वनात्‌ ।। १४ ।। 

तदनन्तर सुन्दर भौंहोंवाली शकुन्तला कमलके समान नेत्रोंवाले देववालकके सदृश 
तेजस्वी पुत्रको साथ ले अपने परिचित तपोवनसे चलकर महाराज दुष्यन्तके यहाँ 
आयी ।। १४ ।। 

अभिसृत्य च राजानं विदिता च प्रवेशिता । 

सह तेनैव पुत्रेण बालार्कसमतेजसा ।। १५ |। 

राजाके यहाँ पहुँचकर अपने आगमनकी सूचना दे अनुमति लेकर वह उसी बालसूर्यके 
समान तेजस्वी पुत्रके साथ राजसभामें प्रविष्ट हुई || १५ ।। 

निवेदयित्वा ते सर्वे आश्रमं पुनरागता: । 

पूजयित्वा यथान्यायमब्रवीच्च शकुन्तला ।। १६ ।। 

सब शिष्यगण राजाको महर्षिका संदेश सुनाकर पुनः आश्रमको लौट आये और 
शकुन्तला न्यायपूर्वक महाराजके प्रति सम्मानका भाव प्रकट करती हुई पुत्रसे बोली 
-- || १६ || 

(अभिवादय राजानं पितरं ते दृढ्व्रतम्‌ 

एवमुक्‍्त्वा तु पुत्र सा लज्जानतमुखी स्थिता ।। 

स्तम्भमालिड्ग्य राजानं प्रसीदस्वेत्युवाच सा । 

शाकुन्तलो5पि राजानमभिवाद्य कृताञज्जलि: ।। 

हर्षेणोत्फुल्लनयनो राजानं चान्ववैक्षत । 


दुष्यन्तो धर्मबुद्धया तु चिन्तयन्नेव सो<ब्रवीत्‌ ।। 

“बेटा! दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ये महाराज तुम्हारे पिता हैं; इन्हें 
प्रणाम करो।' पुत्रसे ऐसा कहकर शकुन्तला लज्जासे मुख नीचा किये एक खंभेका सहारा 
लेकर खड़ी हो गयी और महाराजसे बोली--*देव! प्रसन्न हों। शकुन्तलाका पुत्र भी हाथ 
जोड़कर राजाको प्रणाम करके उन्हींकी ओर देखने लगा। उसके नेत्र हर्षसे खिल उठे थे। 
राजा दुष्यन्तने उस समय धर्मबुद्धिसे कुछ विचार करते हुए ही कहा। 

दुष्यन्त उवाच 


किमागमनकार्य ते ब्रूहि त्वं वरवर्णिनि । 

करिष्यामि न संदेह: सपुत्राया विशेषतः ।। 

दुष्यन्त बोले--सुन्दरि! यहाँ तुम्हारे आगमनका क्‍या उद्देश्य है? बताओ। विशेषत: 
उस दशामें, जबकि तुम पुत्रके साथ आयी हो, मैं तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध करूँगा; इसमें 
संदेह नहीं। 

शकुन्तलोवाच 

प्रसीदस्व महाराज वक्ष्यामि पुरुषोत्तम ।।) 

शकुन्तलाने कहा--महाराज! आप प्रसन्न हों। पुरुषोत्तम! मैं अपने आगमनका 
उद्देश्य बताती हूँ, सुनिये। 

अयं पुत्रस्त्वया राजन्‌ यौवराज्येडभिषिच्यताम्‌ । 

त्वया हायं सुतो राजन्‌ मय्युत्पन्न: सुरोपम: । 

यथासमयमेतस्मिन्‌ वर्तस्व पुरुषोत्तम || १७ ।। 

राजन्‌! यह आपका पुत्र है। इसे आप युवराज-पदपर अभिषिक्त कीजिये। महाराज! 
यह देवोषपम कुमार आपके द्वारा मेरे गर्भसे उत्पन्न हुआ है। पुरुषोत्तम! इसके लिये आपने 
मेरे साथ जो शर्त कर रखी है, उसका पालन कीजिये ।। १७ ।। 

यथा मत्सड़मे पूर्व यः कृत: समयस्त्वया । 

त॑ स्मरस्व महाभाग कण्वाश्रमपदं प्रति ।। १८ ।। 

महाभाग! आपने कण्वके आश्रमपर मेरे साथ समागमके समय पहले जो प्रतिज्ञा की 
थी, उसका इस समय स्मरण कीजिये ।। १८ ।। 

सो<थ श्रुत्वैव तद्‌ वाक्‍्यं तस्या राजा स्मरन्नपि । 

अब्रवीन्न स्मरामीति कस्य त्वं दुष्टतापसि ।। १९ ।। 

राजा दुष्यन्तने शकुन्तलाका यह वचन सुनकर सब बातोंको याद रखते हुए भी उससे 
इस प्रकार कहा--दुष्ट तपस्विनि! मुझे कुछ भी याद नहीं है। तुम किसकी स्त्री 
हो? ।। १९ |। 

धर्मकामार्थसम्बन्धं न स्मरामि त्वया सह । 


गच्छ वा तिष्ठ वा कामं॑ यद्‌ वापीच्छसि तत्‌ कुरु || २० ।। 

“तुम्हारे साथ मेरा धर्म, काम अथवा अर्थको लेकर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हुआ है, 
इस बातका मुझे तनिक भी स्मरण नहीं है। तुम इच्छानुसार जाओ या रहो अथवा जैसी 
तुम्हारी रुचि हो, वैसा करो” || २० ।। 

सैवमुक्ता वरारोहा व्रीडितेव तपस्विनी । 

निःसंज्ञेव च दुःखेन तस्थौ स्थूणेव निश्चला ।। २१ ।। 

सुन्दर अंगवाली तपस्विनी शकुन्तला दुष्यन्तके ऐसा कहनेपर लज्जित हो दुःखसे 
बेहोश-सी हो गयी और खंभेकी तरह निश्चलभावसे खड़ी रह गयी ।। २१ ।। 

संरम्भामर्षताम्राक्षी स्फुरमाणौष्ठसम्पुटा । 

कटाक्षनिर्दिहन्तीव तिर्यगू राजानमैक्षत ।। २२ ।। 

क्रोध और अमर्षसे उसकी आँखें लाल हो गयीं, ओठ फड़कने लगे और मानो जला 
देगी, इस भावसे टेढ़ी चितवनद्वारा राजाकी ओर देखने लगी || २२ ।। 

आकारं गूहमाना च मन्युना च समीरिता । 

तपसा सम्भूृतं तेजो धारयामास वै तदा ॥। २३ ।। 

क्रोध उसे उत्तेजित कर रहा था, फिर भी उसने अपने आकारको छिपाये रखा और 
तपस्याद्वारा संचित किये हुए अपने तेजको वह अपने भीतर ही धारण किये रही ।। २३ ।। 

सा मुहूर्तमिव ध्यात्वा दुःखामर्षसमन्विता । 

भर्तारमभिसप्प्रेक्ष्य क्ुद्धा वचनमब्रवीत्‌ ।। २४ ।। 

जानन्नपि महाराज कस्मादेवं प्रभाषसे । 

न जानामीति नि:शड्कं यथान्य: प्राकृतो जन: ।। २५ ।। 

वह दो घड़ीतक कुछ सोच-विचार-सा करती रही, फिर दुःख और अमर्षमें भरकर 
पतिकी ओर देखती हुई क्रोधपूर्वक बोली--“महाराज! आप जान-बूझकर भी दूसरे-दूसरे 
निम्न कोटिके मनुष्योंकी भाँति निःशंक होकर ऐसी बात क्‍यों कहते हैं कि “मैं नहीं 
जानता” ।। २४-२५ || 

अन्न ते हृदयं वेद सत्यस्यैवानृतस्य च । 

कल्याणं वद साक्ष्येण मा55त्मानमवमन्यथा: ।। २६ ।। 

“इस विषयमें यहाँ क्या झूठ है और क्या सच, इस बातको आपका हृदय ही जानता 
होगा। उसीको साक्षी बनाकर--हृदयपर हाथ रखकर सही-सही बात कहिये, जिससे 
आपका कल्याण हो। आप अपने आत्माकी अवहेलना न कीजिये ।। २६ ।। 

योडन्यथा सन्‍्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते । 

कि तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा ।। २७ ।। 

“(आपका स्वरूप तो कुछ और है” परंतु आप बन कुछ और रहे हैं।। जो अपने असली 
स्वरूपको छिपाकर अपनेको कुछ-का-कुछ दिखाता है, अपने आत्माका अपहरण 


करनेवाले उस चोरने कौन-सा पाप नहीं किया? ।। २७ ।। 
एको5हमस्मीति च मन्यसे त्वं॑ 
न हृच्छयं वेत्सि मुनि पुराणम्‌ । 
यो वेदिता कर्मण: पापकस्य 
तस्यान्तिके त्वं वृजिनं करोषि ।। २८ ।। 

“आप समझ रहे हैं कि उस समय मैं अकेला था (कोई देखनेवाला नहीं था), परंतु 
आपको पता नहीं कि वह सनातन मुनि (परमात्मा) सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे 
विद्यमान है। वह सबके पाप-पुण्यको जानता है और आप उसीके निकट रहकर पाप कर 
रहे हैं || २८ ।। 

(धर्म एव हि साधूनां सर्वेषां हितकारणम्‌ | 

नित्यं मिथ्याविहीनानां न च दुःखावहो भवेत्‌ ।।) 

मन्यते पापकं कृत्वा न कश्रिद्‌ वेत्ति मामिति । 

विदन्ति चैनं देवाश्न यश्चैवान्तरपूरुष: ।। २९ |। 

“जो सदा असत्यसे दूर रहनेवाले हैं, उन समस्त साधु पुरुषोंकी दृष्टिमें केवल धर्म ही 
हितकारक है। धर्म कभी दुःखदायक नहीं होता। मनुष्य पाप करके यह समझता है कि मुझे 
कोई नहीं जानता, किंतु उसका यह समझना भारी भूल है; क्योंकि सब देवता और 
अन्तर्यामी परमात्मा भी मनुष्यके उस पाप-पुण्यको देखते और जानते हैं ।। २९ ।। 

आदित्यचन्द्रावनिलानलौ च 

द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्न । 
अहमभ्न रात्रिश्ष॒ उभे च संध्ये 
धर्मश्न जानाति नरस्य वृत्तम्‌ ।। ३० ।। 

'सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, जल, हृदय, यमराज, दिन, रात, दोनों 
संध्याएँ और धर्म--ये सभी मनुष्यके भले-बुरे आचार-व्यवहारको जानते हैं ।। ३० ।। 

यमो वैवस्वतस्तस्य निर्यातयति दुष्कृतम्‌ । 

हृदि स्थित: कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञो यस्य तुष्यति ॥ ३१ ।। 

“जिसपर हृदयस्थित कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञ परमात्मा संतुष्ट रहते हैं, सूर्यपुत्र यमराज उसके 
सभी पापोंको स्वयं नष्ट कर देते हैं || ३१ ।। 

न तु तुष्यति यस्यैष पुरुषस्य दुरात्मन: | 

त॑ यम: पापकर्माणं वियातयति दुष्कृतम्‌ । ३२ ।। 

'परंतु जिस दुरात्मापर अन्तर्यामी संतुष्ट नहीं होते, यमराज उस पापीको उसके 
पापोंका स्वयं ही दण्ड देते हैं ।। ३२ ।। 

योडवमन्यात्मना55त्मानमन्यथा प्रतिपद्यते । 

न तस्य देवा: श्रेयांसो यस्यात्मापि न कारणम्‌ ॥। ३३ ।। 


स्वयं प्राप्तेति मामेवं॑ मावमंस्था: पतिव्रताम्‌ । 

अर्चाह नार्चयसि मां स्वयं भार्यामुपस्थिताम्‌ ।। ३४ ।। 

'जो स्वयं अपने आत्माका तिरस्कार करके कुछ-का-कुछ समझता और करता है, 
देवता भी उसका भला नहीं कर सकते और उसका आत्मा भी उसके हितका साधन नहीं 
कर सकता। मैं स्वयं आपके पास आयी हूँ, ऐसा समझकर मुझ पतिव्रता पत्नीका तिरस्कार 
न कीजिये। मैं आपके द्वारा आदर पानेयोग्य हूँ और स्वयं आपके निकट आयी हुई 
आपहीकी पत्नी हूँ, तथापि आप मेरा आदर नहीं करते हैं || ३३-३४ ।। 

किमर्थ मां प्राकृतवदुपप्रेक्षसि संसदि । 

न खल्वहमिदं शून्ये रौमि कि न शृणोषि मे ।। ३५ ।। 

“आप किसलिये नीच पुरुषकी भाँति भरी सभामें मुझे अपमानित कर रहे हैं? मैं सूने 
जंगलमें तो नहीं रो रही हूँ? फिर आप मेरी बात क्‍यों नहीं सुनते? ।। ३५ ।। 

यदि मे याचमानाया वचन न करिष्यसि । 

दुष्यन्त शतधा मूर्धा ततस्तेडद्य स्फुटिष्यति ।। ३६ ।। 

“महाराज दुष्यन्त! यदि मेरे उचित याचना करनेपर भी आप मेरी बात नहीं मानेंगे, तो 
आज आपके सिरके सैकड़ों टुकड़े हो जायँगे ।। ३६ ।। 

भार्या पति: सम्प्रविश्य स यस्माज्जायते पुन: । 

जायायास्तद्धि जायात्वं पौराणा: कवयो विदु: ।। ३७ ।। 

“पति ही पत्नीके भीतर गर्भरूपसे प्रवेश करके पुत्ररूपमें जन्म लेता है। यही जाया 
(जन्म देनेवाली स्त्री)-का जायात्व है, जिसे पुराणवेत्ता विद्वान्‌ जानते हैं | ३७ ।। 

यदागमवत: पुंसस्तदपत्यं प्रजायते । 

तत्‌ तारयति संतत्या पूर्वप्रेतानू पितामहान्‌ ।। ३८ ।। 

'शास्त्रके ज्ञाता पुरुषके इस प्रकार जो संतान उत्पन्न होती है, वह संततिकी 
परम्पराद्वारा अपने पहलेके मरे हुए पितामहोंका उद्धार कर देती है || ३८ ।। 

पुन्नाम्नो नरकाद्‌ यस्मात्‌ पितरं त्रायते सुतः । 

तस्मात्‌ पुत्र इति प्रोक्त: स्वयमेव स्वयम्भुवा ।। ३९ |। 

“पुत्र” “पुत” नामक नरकसे पिताका त्राण करता है, इसलिये साक्षात्‌ ब्रह्माजीने उसे 
“पुत्र” कहा है ।। ३९ |। 

(पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्चुते । 

अथ पौत्रस्य पुत्रेण मोदन्ते प्रपितामहा: ।।) 

“मनुष्य पुत्रसे पुण्यलोकोंपर विजय पाता है, पौत्रसे अक्षय सुखका भागी होता है तथा 
पौत्रके पुत्रसे प्रपितामहगण आनन्दके भागी होते हैं। 

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती । 

सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता ।। ४० ।। 


“वही भार्या है, जो घरके काम-काजमें कुशल हो। वही भार्या है, जो संतानवती हो। 
वही भार्या है, जो अपने पतिको प्राणोंके समान प्रिय मानती हो और वही भार्या है, जो 
पतिव्रता हो || ४० ।। 

अर्ध भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतम: सखा । 

भार्या मूल॑ त्रिवर्गस्य भार्या मूल तरिष्यत: ।। ४१ ।। 

'भार्या पुरुषका आधा अंग है। भार्या उसका सबसे उत्तम मित्र है। भार्या धर्म, अर्थ और 
कामका मूल है और संसार-सागरसे तरनेकी इच्छावाले पुरुषके लिये भार्या ही प्रमुख साधन 
है || ४१ ।। 

भार्यावन्त: क्रियावन्त: सभार्या गृहमेधिन: । 

भार्यावन्त:ः प्रमोदन्ते भार्यावन्त: श्रियान्विता: ।। ४२ ।। 

“जिनके पत्नी है, वे ही यज्ञ आदि कर्म कर सकते हैं। सपत्नीक पुरुष ही सच्चे गृहस्थ 
हैं। पत्नीवाले पुरुष सुखी और प्रसन्न रहते हैं तथा जो पत्नीसे युक्त हैं, वे मानो लक्ष्मीसे 
सम्पन्न हैं (क्योंकि पत्नी ही घरकी लक्ष्मी है) || ४२ ।। 

सखाय: प्रविविक्तेषु भवन्त्येता: प्रियंवदा: । 

पितरो धर्मकार्येषु भवन्त्यार्तस्य मातर: ।। ४३ ।। 

'पत्नी ही एकान्तमें प्रिय वचन बोलनेवाली संगिनी या मित्र है। धर्मकार्योंमें ये स्त्रियाँ 
पिताकी भाँति पतिकी हितैषिणी होती हैं और संकटके समय माताकी भाँति दुः:खमें हाथ 
बँटाती तथा कष्ट-निवारणकी चेष्टा करती हैं || ४३ ।। 

कान्तारेष्वपि विश्रामो जनस्यथाध्वनिकस्य वै | 

यः सदार: स विश्वास्यस्तस्माद्‌ दारा: परा गति: ।। ४४ ।। 

“परदेशमें यात्रा करनेवाले पुरुषके साथ यदि उसकी स्त्री हो तो वह घोर-से-घोर 
जंगलमें भी विश्राम पा सकता है--सुखसे रह सकता है। लोक-व्यवहारमें भी जिसके स्त्री 
है, उसीपर सब विश्वास करते हैं। इसलिये स्त्री ही पुरुषकी श्रेष्ठ गति है ।। ४४ ।। 

संसरन्तमपि प्रेतं विषमेष्वेकपातिनम्‌ । 

भार्यवान्वेति भर्तारें सततं या पतिव्रता ।। ४५ ।। 

“पति संसारमें हो या मर गया हो अथवा अकेले ही नरकमें पड़ा हो; पतिव्रता स्त्री ही 
सदा उसका अनुगमन करती है ।। ४५ ।। 

प्रथम संस्थिता भार्या पतिं प्रेत्य प्रतीक्षते । 

पूर्व मृतं च भर्तारें पश्चात्‌ साध्व्यनुगच्छति ।। ४६ ।। 

'साध्वी स्त्री यदि पहले मर गयी हो तो परलोकमें जाकर वह पतिकी प्रतीक्षा करती है 
और यदि पहले पति मर गया हो तो सती स्त्री पीछेसे उसका अनुसरण करती है ।। ४६ ।। 

एतस्मात्‌ कारणादू राजन्‌ पाणिग्रहणमिष्यते । 

यदाप्रोति पतिर्भार्यामिहलोके परत्र च ।। ४७ ।। 


“राजन! इसीलिये सुशीला स्त्रीका पाणिग्रहण करना सबके लिये अभीष्ट होता है; 
क्योंकि पति अपनी पतिव्रता स्त्रीको इहलोकमें तो पाता ही है, परलोकमें भी प्राप्त करता 
है || ४७ |। 

आत्मा55त्मनैव जनित: पुत्र इत्युच्यते बुधैः । 

तस्माद्‌ भार्या नर: पश्येन्मातृवत्‌ पुत्रमातरम्‌ ।। ४८ ।। 

'पत्नीके गर्भसे अपने द्वारा उत्पन्न किये हुए आत्माको ही विद्वान्‌ पुरुष पुत्र कहते हैं, 
इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपनी उस धर्मपत्नीको जो पुत्रकी माता बन चुकी है, 
माताके ही समान देखे ।। ४८ ।। 

(अन्तरात्मैव सर्वस्य पुत्रनाम्नोच्यते सदा । 

गती रूपं च चेष्टा च आवर्ता लक्षणानि च॒ ।। 

पितृणां यानि दृश्यन्ते पुत्राणां सन्ति तानि च | 

तेषां शीलाचारगुणास्तत्सम्पर्काच्छुभाशुभा: ।।) 

“सबका अन्तरात्मा ही सदा पुत्र नामसे प्रतिपादित होता है। पिताकी जैसी चाल होती 
है, जैसे रूप, चेष्टा, आवर्त (भँवर) और लक्षण आदि होते हैं, पुत्रमें भी वैसी ही चाल और 
वैसे ही रूप-लक्षण आदि देखे जाते हैं। पिताके सम्पर्कसे ही पुत्रोंमें शुभ-अशुभ शील, गुण 
एवं आचार आदि आते हैं। 

भार्यायां जनित॑ पुत्रमादर्शेष्विव चाननम्‌ | 

ह्वादते जनिता प्रेक्ष्य स्वर्ग प्राप्पेव पुण्यकृत्‌ ।। ४९ ।। 

'जैसे दर्पणमें अपना मुँह देखा जाता है, उसी प्रकार पत्नीके गर्भसे उत्पन्न हुए अपने 
आत्माको ही पुत्ररूपमें देखकर पिताको वैसा ही आनन्द होता है, जैसा पुण्यात्मा पुरुषको 
स्वर्गलोककी प्राप्ति हो जानेपर होता है ।। ४९ ।। 

दहामाना मनोदु:खैव्यधिकभ्रि श्षातुरा नरा: | 

ह्वादन्ते स्वेषु दारेषु घर्मार्ता: सलिलेष्विव || ५० ।। 

'जैसे धूपसे तपे हुए जीव जलमें स्नान कर लेनेपर शान्तिका अनुभव करते हैं, उसी 
प्रकार जो मानसिक दुःख और चिन्ताओंकी आगमें जल रहे हैं तथा जो नाना प्रकारके 
रोगोंसे पीड़ित हैं, वे मानव अपनी पत्नीके समीप होनेपर आनन्दका अनुभव करते 
हैं ।। ५० ।। 

(विप्रवासकृशा दीना नरा मलिनवासस: । 

तेडपि स्वदारांस्तुष्यन्ति दरिद्रा धनलाभवत्‌ ।।) 

“जो परदेशमें रहकर अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं, जो दीन और मलिन वस्त्र धारण 
करनेवाले हैं, वे दरिद्र मनुष्य भी अपनी पत्नीको पाकर ऐसे संतुष्ट होते हैं, मानो उन्हें कोई 
धन मिल गया हो। 

सुसंरब्धो5पि रामाणां न कुर्यादप्रियं नर: । 


रतिं प्रीतिं च धर्म च तास्वायत्तमवेक्ष्य हि ।। ५१ ।। 

“रति, प्रीति तथा धर्म पत्नीके ही अधीन हैं, ऐसा सोचकर पुरुषको चाहिये कि वह 
कुपित होनेपर भी पत्नीके साथ कोई अप्रिय बर्ताव न करे ।। ५१ ।। 

(आत्मनो<र्थमिति श्रौतं सा रक्षति धन प्रजा: । 

शरीरं लोकयात्रां वै धर्म स्वर्गमृषीन्‌ पितृन्‌ ।।) 

“पत्नी अपना आधा अंग है, यह श्रुतिका वचन है। वह धन, प्रजा, शरीर, लोकयात्रा, 
धर्म, स्वर्ग, ऋषि तथा पितर--इन सबकी रक्षा करती है। 

आत्मनो जन्मन: क्षेत्रं पुण्यं रामा: सनातनम्‌ | 

ऋषीणामपि का शक्ति: स््रष्ठुं रामामृते प्रजाम्‌ ।। ५२ ।। 

'स्त्रियाँ पतिके आत्माके जन्म लेनेका सनातन पुण्य क्षेत्र हैं। ऋषियोंमें भी क्या शक्ति 
है कि बिना स्त्रीके संतान उत्पन्न कर सकें ।। ५२ ।। 

प्रतिपद्य यदा सूनुर्धरणीरेणुगुण्ठित: । 

पितुराश्लिष्यते5ड्रानि किमस्त्यभ्यधिकं तत: ।। ५३ ।। 

“जब पुत्र धरतीकी धूलमें सना हुआ पास आता और पिताके अंगोंसे लिपट जाता है, 
उस समय जो सुख मिलता है, उससे बढ़कर और क्या हो सकता है? ।। ५३ ।। 

स त्वं स्वयमभिप्राप्तं साभिलाषमिमं सुतम्‌ | 

प्रेक्षमाणं कटाक्षेण किमर्थमवमन्यसे ।। ५४ ।। 

अण्डानि बिश्रति स्वानि न भिन्दन्ति पिपीलिका: । 

न भरेथा: कथं नु त्वं धर्मज्ञ: सन्‌ स्वमात्मजम्‌ ।। ५५ || 

“देखिये, आपका यह पुत्र स्वयं आपके पास आया है और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवनसे 
आपकी ओर देखता हुआ आपकी गोदमें बैठनेके लिये उत्सुक है; फिर आप किसलिये 
इसका तिरस्कार करते हैं। चींटियाँ भी अपने अण्डोंका पालन ही करती हैं; उन्हें फोड़तीं 
नहीं। फिर आप धर्मज्ञ होकर भी अपने पुत्रका भरण-पोषण क्यों नहीं करते? ।। ५४-५५ ।। 

(ममाण्डानीति वर्धन्ते कोकिलानपि वायसा: । 

किं पुनस्त्वं न मन्येथा: सर्वज्ञ: पुत्रमीदूशम्‌ ।। 

मलयाच्चन्दनं जातमतिशीतं वदन्ति वै । 

शिशोरालिड्ग्यमानस्य चन्दनादधिकं भवेत्‌ ।।) 

'ये मेरे अपने ही अण्डे हैं' ऐसा समझकर कौए कोयलके अण्डोंका भी पालन-पोषण 
करते हैं; फिर आप सर्वज्ञ होकर अपनेसे ही उत्पन्न हुए ऐसे सुयोग्य पुत्रका सम्मान क्‍यों 
नहीं करते? लोग मलयगिरिके चन्दनको अत्यन्त शीतल बताते हैं, परंतु गोदमें सटाये हुए 
शिशुका स्पर्श चन्दससे भी अधिक शीतल एवं सुखद होता है। 

न वाससां न रामाणां नापां स्पर्शस्तथाविध: । 

शिशोरालिड्ग्यमानस्य स्पर्श: सूनोर्यथा सुख: ।। ५६ ।। 


“अपने शिशु पुत्रको हृदयसे लगा लेनेपर उसका स्पर्श जितना सुखदायक जान पड़ता 
है, वैसा सुखद स्पर्श न तो कोमल वस्त्रोंका है, न रमणीय सुन्दरियोंका है और न शीतल 
जलका ही है ।। ५६ || 

ब्राह्मणों द्विपदां श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्‌ । 

गुरुर्गरीयसां श्रेष्ठ: पुत्र: स्पर्शवतां वर: ।। ५७ || 

“मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ है, चतुष्पदों (चौपायों)-में गौ श्रेष्ठठम है, गौरवशाली व्यक्तियोंमें 
गुरु श्रेष्ठ है और स्पर्श करनेयोग्य वस्तुओंमें पुत्र ही सबसे श्रेष्ठ है ।। ५७ ।। 

स्पृशतु त्वां समाश्शलिष्य पुत्रो5यं प्रियदर्शन: । 

पुत्रस्पर्शात्‌ सुखतर: स्पर्शो लोके न विद्यते ।। ५८ ।। 

“आपका यह पुत्र देखनेमें कितना प्यारा है। यह आपके अंगोंसे लिपटकर आपका 
स्पर्श करे। संसारमें पुत्रके स्पर्शसे बढ़कर सुखदायक स्पर्श और किसीका नहीं है ।। ५८ ।। 

त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु प्रजाताहमरिंदम । 

इमं कुमार राजेन्द्र तव शोकविनाशनम्‌ ॥। ५९ ।। 

आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरव । 

इति वागन्तरिक्षे मां सूतके5 भ्यवदत्‌ पुरा || ६० ।। 

'शत्रुओंका दमन करनेवाले सम्राट! मैंने पूरे तीन वर्षोतक अपने गर्भमें धारण करनेके 
पश्चात्‌ आपके इस पुत्रको जन्म दिया है। यह आपके शोकका विनाश करनेवाला होगा। 
पौरव! पहले जब मैं सौरमें थी, उस समय आकाशवाणीने मुझसे कहा था कि यह बालक 
सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला होगा ।। ५९-६० ।। 

ननु नामाड्कमारोप्य स्नेहाद्‌ ग्रामान्तरं गता: | 

मूर्श्नि पुत्रानुपाप्राय प्रतिनन्दन्ति मानवा: ।। ६१ ।। 

“प्रायः देखा जाता है कि दूसरे गाँवकी यात्रा करके लौटे हुए मनुष्य घर आनेपर बड़े 
स्नेहसे पुत्रोंको गोदमें उठा लेते हैं और उनके मस्तक सूँघकर आनन्दित होते हैं | ६१ ।। 

वेदेष्वपि वदन्तीमें मन्त्रग्रामं द्विजातय: । 

जातकर्मणि पुत्राणां तवापि विदितं तथा ।। ६२ ।। 

'पुत्रोंके जातकर्म संस्कारके समय वेदज्ञ ब्राह्मण जिस वैदिक मन्त्रसमुदायका उच्चारण 
करते हैं, उसे आप भी जानते हैं ।। ६२ ।। 

अड्भादज़ात्‌ सम्भवसि हृदयादधिजायसे । 

आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरद: शतम्‌ ।। ६३ ।। 

“(उस मन्त्रसमुदायका भाव इस प्रकार है--) हे बालक! तुम मेरे अंग-अंगसे प्रकट हुए 
हो; हृदयसे उत्पन्न हुए हो। तुम पुत्र नामसे प्रसिद्ध मेरे आत्मा ही हो, अतः वत्स! तुम सौ 
वर्षोतक जीवित रहो ।। ६३ ।। 

जीवितं त्वदधीनं मे संतानमपि चाक्षयम्‌ | 


तस्मात्‌ त्वं जीव मे पुत्र सुसुखी शरदां शतम्‌ ॥। ६४ ।। 

“मेरा जीवन तथा अक्षय संतान-परम्परा भी तुम्हारे ही अधीन है, अतः पुत्र! तुम 
अत्यन्त सुखी होकर सौ वर्षोतक जीवन धारण करो ।। ६४ ।। 

त्ववज्भेभ्य: प्रसूतो5यं पुरुषात्‌ पुरुषो5पर: । 

सरसीवामले&5त्मानं द्वितीयं पश्य वै सुतम्‌ ।। ६५ ।। 

“यह बालक आपके अंगोंसे उत्पन्न हुआ है; मानो एक पुरुषसे दूसरा पुरुष प्रकट हुआ 
है। निर्मल सरोवरमें दिखायी देनेवाले प्रतिबिम्बकी भाँति अपने द्वितीय आत्मारूप इस 
पुत्रको देखिये || ६५ ।। 

यथा हवाहवनीयोड<ग्निर्गा्हपत्यात्‌ प्रणीयते । 

तथा त्वत्त: प्रसूतो5यं त्वमेक: सन्‌ द्विधा कृत: ।। ६६ ।। 

मृगावकृष्टेन पुरा मृगयां परिधावता । 

अहमासादिता राजन्‌ कुमारी पितुराश्रमे || ६७ ।। 

जैसे गार्हपत्य अग्निसे आहवनीय अग्निका प्रणयन (प्राकट्य) होता है, उसी प्रकार 
यह बालक आपसे उत्पन्न हुआ है, मानो आप एक होकर भी अब दो रूपोंमें प्रकट हो गये 
हैं। राजन! आजसे कुछ वर्ष पहले आप शिकार खेलने वनमें गये थे। वहाँ एक हिंसक 
पशुके पीछे आकृष्ट हो आप दौड़ते हुए मेरे पिताजीके आश्रमपर पहुँच गये, जहाँ मुझ 
कुमारी कन्याको आपने गान्धर्व विवाहद्वारा पत्नीरूपमें प्राप्त किया || ६६-६७ ।। 

उर्वशी पूर्वचित्तिश्न॒ सहजन्या च मेनका । 

विश्वाची च घृताची च षडेवाप्सरसां वरा: ।। ६८ ।। 

“उर्वशी, पूर्वचित्ति, सहजन्या, मेनका, विश्वाची और घृताची--ये छ: अप्सराएँ ही अन्य 
सब अप्सराओंसे श्रेष्ठ हैं ।। ६८ ।। 

तासां सा मेनका नाम ब्रह्मायोनिर्वराप्सरा: । 

दिव: सम्प्राप्य जगतीं विश्वामित्रादजीजनत्‌ ।। ६९ ।। 

“उन सबमें भी मेनका नामवाली अप्सरा श्रेष्ठ है, क्योंकि वह साक्षात्‌ ब्रह्माजीसे उत्पन्न 
हुई है। उसीने स्वर्गलोकसे भूतलपर आकर विश्वामित्रजीके सम्पर्कसे मुझे उत्पन्न किया 
था || ६९ || 

(श्रीमानृषिर्धर्मपरो वैश्वानर इवापर: । 

ब्रह्मयोनि: कुशो नाम विश्वामित्रपितामह: ।। 

कुशस्य पुत्रो बलवान्‌ कुशनाभश्न धार्मिक: । 

गाधिस्तस्य सुतो राजन विश्वामित्रस्तु गाधिज: ।। 

एवंविध: पिता राजन्‌ मेनका जननी वरा ।॥) 

“महाराज! पूर्वकालमें कुश नामसे प्रसिद्ध एक धर्मपरायण तेजस्वी महर्षि हो गये हैं, 
जो दूसरे अग्निदेवके समान प्रतापी थे। उनकी उत्पत्ति ब्रह्माजीसे हुई थी। वे महर्षि 


विश्वामित्रके प्रपितामह थे। कुशके बलवान्‌ पुत्रका नाम कुशनाभ था। वे बड़े धर्मात्मा थे। 
राजन! कुशनाभके पुत्र गाधि हुए और गाधिसे विश्वामित्रका जन्म हुआ। ऐसे कुलीन महर्षि 
मेरे पिता हैं और मेनका मेरी श्रेष्ठ माता है। 

सा मां हिमवतः प्रस्थे सुषुवे मेनकाप्सरा: । 

अवकीर्य च मां याता परात्मजमिवासती ।। ७० ।। 

“उस मेनका अप्सराने हिमालयके शिखरपर मुझे जन्म दिया; किंतु वह असद्‌ व्यवहार 
करनेवाली अप्सरा मुझे परायी संतानकी तरह वहीं छोड़कर चली गयी || ७० ।। 

(पक्षिण: पुण्यवन्तस्ते सहिता धर्मतस्तदा । 

पक्षैस्तैरभिगुप्ता च तस्मादस्मि शकुन्तला ।। 

ततो5हमृषिणा दृष्टा काश्यपेन महात्मना । 

जलार्थमन्निहोत्रस्य गतं दृष्टवा तु पक्षिण: ।। 

न्यासभूतामिव मुने: प्रददुर्मा दयावत: । 

स मारणिमिवादाय स्वमाश्रममुपागमत्‌ ।। 

सा वै सम्भाविता राजन्ननुक्रोशान्महर्षिणा । 

तेनैव स्वसुतेवाहं राजन्‌ वै परमर्षिणा ।। 

विश्वामित्रसुता चाहं वर्धिता मुनिना नूप । 

यौवने वर्तमानां च दृष्टवानसि मां नूप ।। 

आश्रमे पर्णशालायां कुमारी विजने वने | 

धात्रा प्रचोदितां शून्ये पित्रा विरहितां मिथ: ।। 

वाम्भिस्त्वं सूनृताभिमामपत्यार्थमचूचुद: । 

अकार्षास्त्वाश्रमे वासं धर्मकामार्थनिश्चितम्‌ ।। 

गान्धर्वेण विवाहेन विधिना पाणिमग्रही: । 

साहं कुलं च शीलं च सत्यवादित्वमात्मन: ।। 

स्वधर्म च पुरस्कृत्य त्वामद्य शरणं गता । 

तस्मान्नाहसि संश्रुत्य तथेति वितर्थं वच: ।। 

स्वधर्म पृष्ठतः कृत्वा परित्यक्तुमुपस्थिताम्‌ । 

त्वज्नाथां लोकनाथस्त्व॑ नाहसि त्वमनागसम्‌ ।।) 

वे पक्षी भी पुण्यवान्‌ हैं, जिन्होंनेएक साथ आकर उस समय धर्मपूर्वक अपने पंखोंसे 
मेरी रक्षा की। शकुन्तों (पक्षियों)-ने मेरी रक्षा की, इसलिये मेरा नाम शकुन्तला हो गया। 
तदनन्तर महात्मा कश्यपनन्दन कण्वकी दृष्टि मुझपर पड़ी। वे अग्निहोत्रके लिये जल 
लानेके हेतु उधर गये हुए थे। उन्हें देखकर पक्षियोंने उन दयालु महर्षिको मुझे धरोहरकी 
भाँति सौंप दिया। वे मुझे अरणी (शमी)-की भाँति लेकर अपने आश्रमपर आये। राजन! 
महर्षिने कृपापूर्वक अपनी पुत्रीके समान मेरा पालन-पोषण किया। नरेश्वर! इस प्रकार मैं 


विश्वामित्र मुनिकी पुत्री हूँ और महात्मा कण्वने मुझे पाल-पोसकर बड़ी किया है। आपने 
युवावस्थामें मुझे देखा था। निर्जन वनमें आश्रमकी पर्णकुटीके भीतर सूने स्थानमें, जबकि 
मेरे पिता उपस्थित नहीं थे, विधाताकी प्रेरणासे प्रभावित मुझ कुमारी कनन्‍्याको आपने 
अपने मीठे वचनोंद्वारा संतानोत्पादनके निमित्त सहवासके लिये प्रेरित किया। धर्म, अर्थ एवं 
कामकी ओर दृष्टि रखकर मेरे साथ आश्रममें निवास किया। गान्धर्व विवाहकी विधिसे 
आपने मेरा पाणिग्रहण किया है। वही मैं आज अपने कुल, शील, सत्यवादिता और धर्मको 
आगे रखकर आपकी शरणमें आयी हूँ। इसलिये पूर्वकालमें वैसी प्रतिज्ञा करके अब उसे 
असत्य न कीजिये। आप जगतके रक्षक हैं, मेरे प्राणनाथ हैं। मैं सर्वथा निरपराध हूँ और 
स्वयं आपकी सेवामें उपस्थित हूँ, अतः अपने धर्मको पीछे करके मेरा परित्याग न कीजिये। 
कि नु कर्माशुभं पूर्व कृतवत्यन्यजन्मनि । 

यदहं बान्धवैस्त्यक्ता बाल्ये सम्प्रति च त्वया ।। ७१ ।। 

“मैंने पूर्व जन्मान्तरोंमें कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिससे बाल्यावस्थामें तो मेरे 
बान्धवोंने मुझे त्याग दिया और इस समय आप पतिदेवताके द्वारा भी मैं त्याग दी 
गयी || ७१ ।। 

काम त्वया परित्यक्ता गमिष्यामि स्वमाश्रमम्‌ । 

इमं तु बाल संत्यक्तुं नार्हस्थात्मजमात्मन: ।। ७२ ।। 

“महाराज! आपके द्वारा स्वेच्छासे त्याग दी जानेपर मैं पुनः: अपने आश्रमको लौट 
जाऊँगी, किंतु अपने इस नन्‍्हे-से पुत्रका त्याग आपको नहीं करना चाहिये” ।। ७२ ।। 

दुष्यन्त उवाच 


न पुत्रमभिजानामि त्वयि जात॑ं शकुन्तले । 

असत्यवचना नार्य: कस्ते श्रद्धास्यते वच: ।। ७३ ।। 

मेनका निरनुक्रोशा बन्धकी जननी तव । 

यया हिमवत: पृष्ठे निर्माल्यमिव चोज्झिता ।। ७४ ।। 

दुष्यन्त बोले--शकुन्तले! मैं तुम्हारे गर्भसे उत्पन्न इस पुत्रको नहीं जानता। स्त्रियाँ 
प्रायः झूठ बोलनेवाली होती हैं। तुम्हारी बातपर कौन श्रद्धा करेगा? तुम्हारी माता वेश्या 
मेनका बड़ी क्रूरहदया है, जिसने तुम्हें हिमालयके शिखरपर निर्माल्यकी तरह उतार फेंका 
है || ७३-७४ || 

स चापि निरनुक्रोश: क्षत्रयोनि: पिता तव | 

विश्वामित्रो ब्राह्मणत्वे लुब्ध: कामवशं गत: ।। ७५ ।। 

और तुम्हारे क्षत्रियजातीय पिता विश्वामित्र भी, जो ब्राह्मण बननेके लिये लालायित थे 
और मेनकाको देखते ही कामके अधीन हो गये थे, बड़े निर्दयी जान पड़ते हैं || ७५ ।। 

मेनकाप्सरसां श्रेष्ठा महर्षीणां पिता च ते । 


तयोरपत्यं कस्मात्‌ त्वं पुंश्नलीव प्रभाषसे || ७६ ।। 

मेनका अप्सराओंमें श्रेष्ठ बतायी जाती है और तुम्हारे पिता विश्वामित्र भी महर्षियोंमें 
उत्तम समझे जाते हैं। तुम उन्हीं दोनोंकी संतान होकर व्यभिचारिणी स्त्रीके समान क्‍यों 
झूठी बातें बना रही हो || ७६ ।। 

अश्रद्धेयमिदं वाक्यं कथयन्ती न लज्जसे । 

विशेषतो मत्सकाशे दुष्टतापसि गम्यताम्‌ ।। ७७ ।। 

तुम्हारी यह बात श्रद्धा करनेके योग्य नहीं है। इसे कहते समय तुम्हें लज्जा नहीं 
आती? विशेषतः मेरे समीप ऐसी बातें कहनेमें तुम्हें संकोच होना चाहिये। दुष्ट तपस्विनि! 
तुम चली जाओ यहाँसे || ७७ ।। 

क्व महर्षि: स चैवाग्रय: साप्सरा: क्व च मेनका । 

क्व च त्वमेवं कृपणा तापसीवेषधारिणी ।। ७८ ।। 

कहाँ वे मुनिशिरोमणि महर्षि विश्वामित्र, कहाँ अप्सराओंमें श्रेष्ठ मेनका और कहाँ तुम- 
जैसी तापसीका वेष धारण करनेवाली दीन-हीन नारी? || ७८ ।। 

अतिकायश्ष ते पुत्रो बालोडइतिबलवानयम्‌ | 

कथमल्पेन कालेन शालस्तम्भ इवोद्गत: ।। ७९ |। 

तुम्हारे इस पुत्रका शरीर बहुत बड़ा है। बाल्यावस्थामें ही यह अत्यन्त बलवान्‌ जान 
पड़ता है। इतने थोड़े समयमें यह साखूके खंभे-जैसा लम्बा कैसे हो गया? || ७९ |। 

सुनिकृष्टा च ते योनि: पुंश्वलीव प्रभाषसे । 

यदृच्छया कामरागाज्जाता मेनकया हासि ।॥। ८० ।। 

तुम्हारी जाति नीच है। तुम कुलटा-जैसी बातें करती हो। जान पड़ता है, मेनकाने 
अकस्मात्‌ भोगासक्तिके वशीभूत होकर तुम्हें जन्म दिया है || ८० ।। 

सर्वमेतत्‌ परोक्ष॑ मे यत्‌ त्वं वदसि तापसि । 

नाहं त्वामभिजानामि यथेष्टं गम्यतां त्वया ।। ८३ ।। 

तुम जो कुछ कहती हो, वह सब मेरी आँखोंके सामने नहीं हुआ है। तापसी! मैं तुम्हें 
नहीं पहचानता। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, वहीं चली जाओ ।। ८१ ।। 

शकुन्तलोवाच 


राजन्‌ सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यसि । 

आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसि ।। ८२ ।। 

शकुन्तलाने कहा--राजन्‌! आप दूसरोंके सरसों बराबर दोषोंको तो देखते रहते हैं, 
किंतु अपने बेलके समान बड़े-बड़े दोषोंको देखकर भी नहीं देखते || ८२ ।। 

मेनका त्रिदशेष्वेव त्रिदशाश्वानु मेनकाम्‌ | 

ममैवोद्रिच्यते जन्म दुष्पन्त तव जन्मन: ।। ८३ ।। 


मेनका देवताओंमें रहती है और देवता मेनकाके पीछे चलते हैं--उसका आदर करते हैं 
(उसी मेनकासे मेरा जन्म हुआ है); अतः महाराज दुष्यन्त! आपके जन्म और कुलसे मेरा 
जन्म और कुल बढ़कर है || ८३ ।। 

क्षितावटसि राजेन्द्र अन्तरिक्षे चराम्यहम्‌ 

आवयोरन्तरं पश्य मेरुसर्षपयोरिव ।। ८४ ।। 

राजेन्द्र! आप केवल पृथ्वीपर घूमते हैं, किंतु मैं आकाशमें भी चल सकती हूँ। तनिक 
ध्यानसे देखिये, मुझमें और आपमें सुमेरु पर्वत और सरसोंका-सा अन्तर है || ८४ ।। 

महेन्द्रस्य कुबेरस्थ यमस्य वरुणस्य च । 

भवनान्यनुसंयामि प्रभाव पश्य मे नूप || ८५ ।। 

नरेश्वर! मेरे प्रभावको देख लो। मैं इन्द्र, कुबेर, यम और वरुण--सभीके लोकोंमें 
निरन्तर आने-जानेकी शक्ति रखती हूँ || ८५ ।। 

सत्यक्षापि प्रवादो<यं यं॑ प्रवक्ष्यामि तेडनघ । 

निदर्शनार्थ न द्वेषाच्छुत्वा त॑ क्षन्तुमहसि ।। ८६ ।। 

अनघ! लोकमें एक कहावत प्रसिद्ध है और वह सत्य भी है, जिसे मैं दृष्टान्तके तौरपर 
आपसे कहूँगी; द्वेषफे कारण नहीं। अतः: उसे सुनकर क्षमा कीजियेगा ।। ८६ ।। 

विरूपो यावदादर्शे नात्मन: पश्यते मुखम्‌ । 

मन्यते तावदात्मानमन्येभ्यो रूपवत्तरम्‌ ।। ८७ ।। 

कुरूप मनुष्य जबतक आइनेमें अपना मुँह नहीं देख लेता, तबतक वह अपनेको 
दूसरोंसे अधिक रूपवान्‌ समझता है ।। ८७ ।। 

यदा स्वमुखमादर्शे विकृतं सो$भिवीक्षते । 

तदान्तरं विजानीते आत्मानं चेतरं जनम्‌ ।। ८८ ।। 

किंतु जब कभी आइनेमें वह अपने विकृत मुखका दर्शन कर लेता है, तब अपने और 
दूसरोंमें क्या अन्तर है, यह उसकी समझमें आ जाता है || ८८ ।। 

अतीवरूपसम्पन्नो न कंचिदवमन्यते । 

अतीव जल्पन्‌ दुर्वाचो भवतीह विहेठक: ।। ८९ |। 

जो अत्यन्त रूपवान्‌ है, वह किसी दूसरेका अपमान नहीं करता; परंतु जो रूपवान्‌ न 
होकर भी अपने रूपकी प्रशंसामें अधिक बातें बनाता है, वह मुखसे खोटे वचन कहता और 
दूसरोंको पीड़ित करता है ।। ८९ |। 

मूर्खो हि जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाच: शुभाशुभा: | 

अशुभ वाक्यमादत्ते पुरीषमिव सूकर: ।। ९० ।। 

मूर्ख मनुष्य परस्पर वार्तालाप करनेवाले दूसरे लोगोंकी भली-बुरी बातें सुनकर उनमेंसे 
बुरी बातोंको ही ग्रहण करता है; ठीक वैसे ही, जैसे सूअर अन्य वस्तुओंके रहते हुए भी 
विष्ठाको ही अपना भोजन बनाता है ॥। ९० ।। 


प्राज्ञस्तु जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाच: शुभाशुभा: । 

गुणवद्‌ वाक्यमादत्ते हंस: क्षीरमिवाम्भस: || ९१ || 

परंतु विद्वान्‌ पुरुष दूसरे वक्ताओंके शुभाशुभ वचनको सुनकर उनमेंसे गुणयुक्त 
बातोंको ही अपनाता है, ठीक उसी तरह, जैसे हंस पानीको छोड़कर केवल दूध ग्रहण कर 
लेता है ।। ९१ ।। 

अन्यान्‌ परिवदन्‌ साधुर्यथा हि परितप्यते । 

तथा परिवदन्नन्यांस्तुष्टो भवति दुर्जन: ।। ९२ ।। 

साधु पुरुष दूसरोंकी निन्दाका अवसर आनेपर जैसे अत्यन्त संतप्त हो उठता है, ठीक 
उसी प्रकार दुष्ट मनुष्य दूसरोंकी निन्दाका अवसर मिलनेपर बहुत संतुष्ट होता है ।। ९२ ।। 

अभिवाद्य यथा वृद्धान्‌ सन्‍तो गच्छन्ति निर्वतिम्‌ । 

एवं सज्जनमाक्रुश्य मूर्खो भवति निर्व॒त:ः ।। ९३ ।। 

सुखं जीवन्त्यदोषज्ञा मूर्खा दोषानुदर्शिन: । 

यत्र वाच्या: परैः सन्त: परानाहुस्तथाविधान्‌ ॥। ९४ ।। 

जैसे साधु पुरुष बड़े-बूढ़ोंको प्रणाम करके बड़े प्रसन्न होते हैं, वैसे ही मूर्ख मानव साधु 
पुरुषोंकी निन्दा करके संतोषका अनुभव करते हैं। साधु पुरुष दूसरोंके दोष न देखते हुए 
सुखसे जीवन बिताते हैं, किंतु मूर्ख मनुष्य सदा दूसरोंके दोष ही देखा करते हैं। जिन 
दोषोंके कारण दुष्टात्मा मनुष्य साधु पुरुषोंद्वारा निन्दाके योग्य समझे जाते हैं, दुष्टलोग वैसे 
ही दोषोंका साधु पुरुषोंपर आरोप करके उनकी निन्दा करते हैं || ९३-९४ ।। 

अतो हास्यतरं लोके किंचिदन्यन्न विद्यते | 

यत्र दुर्जनमित्याह दुर्जन: सज्जनं स्वयम्‌ ।। ९५ || 

संसारमें इससे बढ़कर हँसीकी दूसरी कोई बात नहीं हो सकती कि जो दुर्जन हैं, वे 
स्वयं ही सज्जन पुरुषोंको दुर्जन कहते हैं ।। ९५ ।। 

सत्यधर्मच्युतात्‌ पुंस: क्रुद्धादाशीविषादिव । 

अनास्तिको<प्युद्धिजते जन: कि पुनरास्तिक: ।। ९६ ।। 

जो सत्यरूपी धर्मसे भ्रष्ट है, वह पुरुष क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पके समान भयंकर है। 
उससे नास्तिक भी भय खाता है; फिर आस्तिक मनुष्यके लिये तो कहना ही क्‍या 
है ।। ९६ ।। 

स्वयमुत्पाद्य वै पुत्र॑ं सदृशं यो न मन्यते । 

तस्य देवा: श्रियं घ्नन्ति न च लोकानुपाश्चते ।। ९७ ।। 

जो स्वयं ही अपने तुल्य पुत्र उत्पन्न करके उसका सम्मान नहीं करता, उसकी 
सम्पत्तिको देवता नष्ट कर देते हैं और वह उत्तम लोकोंमें नहीं जाता || ९७ ।। 

कुलवंशप्रतिष्ठां हि पितर: पुत्रमब्रुवन्‌ । 

उत्तमं सर्वधर्माणां तस्मात्‌ पुत्र न संत्यजेत्‌ ।। ९८ ।। 


पितरोंने पुत्रको कुल और वंशकी प्रतिष्ठा बताया है, अतः पुत्र सब धर्मामें उत्तम है। 
इसलिये पुत्रका त्याग नहीं करना चाहिये ।। ९८ ।। 

स्वपत्नीप्रभवान्‌ पड्च लब्धान्‌ क्रीतान्‌ विवर्धितान्‌ । 

कृतानन्यासु चोत्पन्नान्‌ पुत्रान्‌ वै मनुरब्रवीत्‌ ।। ९९ ।। 

अपनी पत्नीसे उत्पन्न एक और अन्य स्त्रियोंसे उत्पन्न लब्ध, क्रीत, पोषित तथा 
उपनयनादिसे संस्कृत--ये चार मिलाकर कुल पाँच प्रकारके पुत्र मनुजीने बताये 
हैं ।। ९९ || 

धर्मकीर्त्यावहा नृणां मनस: प्रीतिवर्धना: । 

त्रायन्ते नरकाज्जाता: पुत्रा धर्मप्लवा: पितृन्‌ ।। १०० ।। 

ये सभी पुत्र मनुष्योंको धर्म और कीर्तिकी प्राप्ति करानेवाले तथा मनकी प्रसन्नताको 
बढ़ानेवाले होते हैं। पुत्र धर्मरूपी नौकाका आश्रय ले अपने पितरोंका नरकसे उद्धार कर देते 
हैं || १०० ।। 

स त्वं नृपतिशार्दूल पुत्र न त्यक्तुमहसि । 

आत्मानं सत्यधर्मा च पालयन्‌ पृथिवीपते । 

नरेन्द्रसिंह कपटं न वोढुं त्वमिहाहसि ।। १०१ ।। 

अतः नृपश्रेष्ठ आप अपने पुत्रका परित्याग न करें। पृथ्वीपते! नरेन्द्रप्रवर! आप अपने 
आत्मा, सत्य और धर्मका पालन करते हुए अपने सिरपर कपटका बोझ न 
उठावें || १०१ ।। 

वरं कूपशताद्‌ वापी वरं वापीशतात्‌ क्रतुः । 

वरं क्रतुशतात्‌ पुत्र: सत्यं पुत्रशतादू वरम्‌ | १०२ ।। 

सौ कुएँ खोदवानेकी अपेक्षा एक बावड़ी बनवाना उत्तम है। सौ बावड़ियोंकी अपेक्षा 
एक यज्ञ कर लेना उत्तम है। सौ यज्ञ करनेकी अपेक्षा एक पुत्रको जन्म देना उत्तम है और 
सौ पुत्रोंकी अपेक्षा भी सत्यका पालन श्रेष्ठ है ।। १०२ ।। 

अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्‌ । 

अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते || १०३ ।। 

एक हजार अश्वमेध यज्ञ एक ओर तथा सत्यभाषणका पुण्य दूसरी ओर यदि तराजूपर 
रखा जाय, तो हजार अश्वमेध यज्ञोंकी अपेक्षा सत्यका पलड़ा ही भारी होता है || १०३ ।। 

सर्ववेदाधिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम्‌ । 

सत्यं च वचन राजन्‌ सम॑ वा स्यान्न वा समम्‌ ।। १०४ ।। 

राजन! सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन और समस्त तीर्थोंका स्नान भी सत्य वचनकी 
समानता कर सकेगा या नहीं, इसमें संदेह ही है (क्योंकि सत्य उनसे भी श्रेष्ठ है) || १०४ ।। 

नास्ति सत्यसमो धर्मो न सत्याद्‌ विद्यते परम्‌ 

न हि तीव्रतरं किंचिदनृतादिह विद्यते | १०५ ।। 


सत्यके समान कोई धर्म नहीं है। सत्यसे उत्तम कुछ भी नहीं है और झूठसे बढ़कर 
तीव्रतर पाप इस जगत्‌में दूसरा कोई नहीं है ।। १०५ ।। 

राजन सत्य परं ब्रह्म सत्यं च समय: पर: । 

मा त्याक्षी: समयं राजन्‌ सत्यं संगतमस्तु ते || १०६ ।। 

राजन! सत्य परब्रह्म परमात्माका स्वरूप है। सत्य सबसे बड़ा नियम है। अतः 
महाराज! आप अपनी सत्य प्रतिज्ञाको न छोड़िये। सत्य आपका जीवनसंगी हो || १०६ ।। 

अनुते चेत्‌ प्रसड्रस्ते श्रद्धधासि न चेत्‌ स्वयम्‌ । 

आत्मना हन्त गच्छामि त्वादृशे नास्ति संगतम्‌ ।। १०७ ।। 

यदि आपकी झूठमें ही आसक्ति है और मेरी बातपर श्रद्धा नहीं करते हैं तो मैं स्वयं ही 
चली जाती हूँ। आप-जैसेके साथ रहना मुझे उचित नहीं है || १०७ ।। 

(पुत्रत्वे शड्कमानस्य बुद्धिरज्ञापकदीपना । 

गति: स्वर: स्मृति: सत्त्वं शीलविज्ञानविक्रमा: ।। 

धृष्णुप्रकृतिभावी च आवर्ता रोमराजय: । 

समा यस्य यतः स्युस्ते तस्य पुत्रो न संशय: ।। 

सादृश्येनोद्धृतं बिम्बं तव देहाद्‌ विशाम्पते । 

तातेति भाषमाणं वै मा सम राजन्‌ वृथा कृथा: ।।) 

यह मेरा पुत्र है या नहीं, ऐसा संदेह होनेपर बुद्धि ही इसका निर्णय करनेवाली अथवा 
इस रहस्यपर प्रकाश डालनेवाली है। चाल-ढाल, स्वर, स्मरणशक्ति, उत्साह, शील-स्वभाव, 
विज्ञान, पराक्रम, साहस, प्रकृतिभाव, आवर्त (भँवर) तथा रोमावली--जिसकी ये सब 
वस्तुएँ जिससे सर्वथा मिलती-जुलती हों, वह उसीका पुत्र है, इसमें संशय नहीं है। राजन! 
आपके शरीरसे पूर्ण समानता लेकर यह बिम्बकी भाँति प्रकट हुआ है और आपको “तात' 
कहकर पुकार रहा है। आप इसकी आशा न तोड़ें। 

त्वामृते5पि हि दुष्पन्त शैलराजावतंसकाम्‌ | 

चतुरन्तामिमामुर्वी पुत्रो मे पालयिष्यति ।। १०८ ।। 

महाराज दुष्यन्त! मैं एक बात कहे देती हूँ, आपके सहयोगके बिना भी मेरा यह पुत्र 
चारों समुद्रोंसे घिरी हुई गिरिराज हिमालयरूपी मुकुटसे सुशोभित समूची पृथ्वीका शासन 
करेगा ।। १०८ ।। 

(शकुन्तले तव सुतश्नक्रवर्ती भविष्यति । 

एवमुक्तो महेन्द्रेण भविष्यति न चान्यथा ।। 

साक्षित्वे बहवो<प्युक्ता देवदूतादयो मता: । 

न ब्रुवन्ति यथा सत्यमुताहो5प्यनृतं किल ।। 

असाक्षिणी मन्दभाग्या गमिष्यामि यथा55गतम्‌ ।) 


देवराज इन्द्रका वचन है--“शकुन्तले! तुम्हारा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट्‌ होगा।! यह कभी 
मिथ्या नहीं हो सकता। यद्यपि देवदूत आदि बहुत-से साक्षी बताये गये हैं, तथापि इस समय 
वे क्या सत्य है और क्‍या असत्य--इसके विषयमें कुछ नहीं कह रहे हैं। अतः साक्षीके 
अभावमें यह भाग्यहीन शकुन्तला जैसे आयी है, वैसे ही लौट जायगी। 
वैशम्पायन उवाच 


एतावदुक्‍त्वा राजानं प्रातिष्तत शकुन्तला । 

अथान्तरिक्षाद्‌ दुष्यन्तं वागुवाचाशरीरिणी || १०९ ।। 

ऋषत्विक्पुरोहिताचार्यमन्त्रिभिश्व वृतं तदा | 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा दुष्यन्तसे इतनी बातें कहकर शकुन्तला 
वहाँसे चलनेको उद्यत हुई। इतनेमें ही ऋत्विजू, पुरोहित, आचार्य और मन्त्रियोंसे घिरे हुए 
दुष्यन्तको सम्बोधित करते हुए आकाशवाणी हुई ।। १०९३ ।। 

भस्त्रा माता पितु: पुत्रो येन जात: स एव सः ।। ११० ।। 

भरस्व पुत्र दुष्यन्त मावमंस्था: शकुन्तलाम्‌ | 

(सर्वेभ्यो हाड़मड्लेभ्य: साक्षादुत्पद्यते सुत: | 

आत्मा चैष सुतो नाम तथैव तव पौरव ।। 

आहित॑ हात्मना55त्मानं परिरक्ष इमं सुतम्‌ 

अनन्यां स्वां प्रतीक्षस्व मावमंस्था: शकुन्तलाम्‌ ।। 

स्त्रिय: पवित्रमतुलमेतद्‌ दुष्यन्त धर्मत: । 

मासि मासि रजो ह्ासां दुष्कृतान्यपकर्षति ।।) 

रेतोधा: पुत्र उन्नयति नरदेव यमक्षयात्‌ ।। १११ ।। 

त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला । 

जाया जनयते पुत्रमात्मनोड्ुं द्विधा कृतम्‌ ।। ११२ ।। 

“दुष्यन्त! माता तो केवल भाथी (धौंकनी)-के समान है। पुत्र पिताका ही होता है; 
क्योंकि जो जिसके द्वारा उत्पन्न होता है, वह उसीका स्वरूप है--इस न्यायसे पिता ही 
पुत्ररूपमें उत्पन्न होता है, अतः दुष्यन्त! तुम पुत्रका पालन करो। शकुन्तलाका अनादर मत 
करो। पौरव! पुत्र साक्षात्‌ अपना ही शरीर है। वह पिताके सम्पूर्ण अंगोंसे उत्पन्न होता है। 
वास्तवमें वह पुत्र नामसे प्रसिद्ध अपना आत्मा ही है। ऐसा ही यह तुम्हारा पुत्र भी है। अपने 
द्वारा ही गर्भमें स्थापित किये हुए आत्मस्वरूप इस पुत्रकी तुम रक्षा करो। शकुन्तला तुम्हारे 
प्रति अनन्य अनुराग रखनेवाली धर्म-पत्नी है। इसे इसी दृष्टिसे देखो! उसका अनादर मत 
करो। दुष्यन्त! स्त्रियाँ अनुपम पवित्र वस्तु हैं, यह धर्मतः स्वीकार किया गया है। प्रत्येक 
मासमें इनके जो रज:स्राव होता है, वह इनके सारे दोषोंको दूर कर देता है। नरदेव! वीर्यका 
आधान करनेवाला पिता ही पुत्र बनता है और वह यमलोकसे अपने पितृगणका उद्धार 


करता है। तुमने ही इस गर्भका आधान किया था। शकुन्तला सत्य कहती है। जाया (पत्नी) 
दो भागोंमें विभक्त हुए पतिके अपने ही शरीरको पुत्ररूपमें उत्पन्न करती है || ११०-- 
११२ || 

तस्माद्‌ भरस्व दुष्यन्त पुत्र शाकुन्तलं नूप । 

अभूतिरेषा यत्‌ त्यक्त्वा जीवेज्जीवन्तमात्मजम्‌ ।। ११३ ।। 

“इसलिये राजा दुष्यन्त! तुम शकुन्तलासे उत्पन्न हुए अपने पुत्रका पालन-पोषण करो। 
अपने जीवित पुत्रको त्यागकर जीवन धारण करना बड़े दुर्भाग्यकी बात है ।। ११३ ।। 

शाकुन्तलं महात्मानं दौष्यन्तिं भर पौरव । 

भर्तव्यो5यं त्वया यस्मादस्माकं वचनादपि ।। ११४ ।। 

तस्माद्‌ भवत्वयं नाम्ना भरतो नाम ते सुतः । 

“पौरव! यह महामना बालक शकुन्तला और दृष्यन्त दोनोंका पुत्र है। हम देवताओंके 
कहनेसे तुम इसका भरण-पोषण करोगे, इसलिये तुम्हारा यह पुत्र भरतके नामसे विख्यात 
होगा” || ११४३ || 

(एवमुक्त्वा ततो देवा ऋषयश्न तपोधना: । 

पतिव्रतेति संहृष्टा: पुष्पवृष्टिं ववर्षिरे ।।) 

तच्छुत्वा पौरवो राजा व्याह्वतं त्रेदिवौकसाम्‌ ।। ११५ ।। 

पुरोहितममात्यां श्व सम्प्रहृष्टो <ब्रवीदिदम्‌ । 

शृण्वन्त्वेतद्‌ भवन्तो<5स्य देवदूतस्य भाषितम्‌ ।। ११६ ।। 

(वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन!) ऐसा कहकर देवता तथा तपस्वी ऋषि 
शकुन्तलाको पतिव्रता बतलाते हुए उसपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। पूरुवंशी राजा दुष्यन्त 
देवताओंकी यह बात सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और पुरोहित तथा मन्त्रियोंसे इस प्रकार बोले 
--“आपलोग इस देवदूतका कथन भलीभाँति सुन लें || ११५-११६ ।। 

अहं चाप्येवमेवैनं जानामि स्वयमात्मजम्‌ | 

यद्यहं वचनादस्या गृह्लीयामि ममात्मजम्‌ ।। ११७ ।। 

भवेद्धि शड्क्यो लोकस्य नैव शुद्धों भवेदयम्‌ | 

“मैं भी अपने इस पुत्रको इसी रूपमें जानता हूँ। यदि केवल शकुन्तलाके कहनेसे मैं 
इसे ग्रहण कर लेता, तो सब लोग इसपर संदेह करते और यह बालक विशुद्ध नहीं माना 
जाता” || ११७३ || 

वैशम्पायन उवाच 


तं विशोध्य तदा राजा देवदूतेन भारत । 
हृष्ट: प्रमुदितश्चापि प्रतिजग्राह तं सुतम्‌ ।। ११८ ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--भारत! इस प्रकार देवदूतके वचनसे उस बालककी शुद्धता 
प्रमाणित करके राजा दुष्यन्तने हर्ष और आनन्दमें मग्न हो उस समय अपने उस पुत्रको 
ग्रहण किया ।। ११८ ।। 

ततस्तस्य तदा राजा पितृकर्माणि सर्वश: । 

कारयामास मुदित: प्रीतिमानात्मजस्य ह ।। ११९ ।। 

तदनन्तर महाराज दुष्यन्तने पिताको जो-जो कार्य करने चाहिये, वे सब उपनयन आदि 
संस्कार बड़े आनन्द और प्रेमके साथ अपने उस पुत्रके लिये (शास्त्र और कुलकी मर्यादाके 
अनुसार) कराये ।। ११९ ।। 

मूर्थ्नि चैनमुपाप्राय सस्नेहं परिषस्वजे । 

सभाज्यमानो विप्रैश्न स्तूयमानश्न वन्दिभि: । 

स मुद्दे परमां लेभे पुत्रसंस्पर्शजां नृप: ।। १२० ।। 

और उसका मस्तक सूँघकर अत्यन्त स्नेहपूर्वक उसे हृदयसे लगा लिया। उस समय 
ब्राह्मणोंने उन्हें आशीर्वाद दिया और वन्दीजनोंने उनके गुण गाये। महाराजने पुत्र- 
स्पर्शजनित परम आनन्दका अनुभव किया ।। १२० ।। 

तां चैव भार्या दुष्यन्त: पूजयामास धर्मतः । 

अब्रवीच्चैव तां राजा सान्त्वपूर्वमिदं वच: ।। १२१ ।। 

दुष्यन्तने अपनी पत्नी शकुन्तलाका भी धर्मपूर्वक आदर-सत्कार किया और उसे 
समझाते हुए कहा-- || १२१ ।। 

कृतो लोकपरोक्षो<यं सम्बन्धो वै त्वया सह । 

तस्मादेतन्मया देवि त्वच्छुद्धयर्थ विचारितम्‌ ।। १२२ ।। 

*देवि! मैंने तुम्हारे साथ जो विवाह-सम्बन्ध स्थापित किया था, उसे साधारण जनता 
नहीं जानती थी। अतः तुम्हारी शुद्धिके लिये ही मैंने यह उपाय सोचा था ।। १२२ ।। 

(ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्राश्वैव पृथग्विधा: । 

त्वां देवि पूजयिष्यन्ति निर्विशड्कं पतिव्रताम्‌ ।।) 

“देवि! तुम नि:संदेह पतिव्रता हो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र--ये सभी पृथक्‌- 
पृथक्‌ तुम्हारा पूजन (समादर) करेंगे। 

मन्यते चैव लोकस्ते स्त्रीभावान्मयि संगतम्‌ | 

पुत्रश्नचायं वृतो राज्ये मया तस्माद्‌ विचारितम्‌ ।। १२३ ।। 

“यदि इस प्रकार तुम्हारी शुद्धि न होती तो लोग यही समझते कि तुमने स्त्री-स्वभावके 
कारण कामवश मुझसे सम्बन्ध स्थापित कर लिया और मैंने भी कामके अधीन होकर ही 
तुम्हारे पुत्रको राज्यपर बिठानेकी प्रतिज्ञा कर ली। हम दोनोंके धार्मिक सम्बन्धपर किसीका 
विश्वास नहीं होता; इसीलिये यह उपाय सोचा गया था ।। १२३ ।। 

यच्च कोपितयात्यर्थ त्वयोक्तो<स्म्यप्रियं प्रिये । 


प्रणयिन्या विशालाक्षि तत्‌ क्षान्तं ते मया शुभे ।। १२४ ।। 

'प्रिये!श विशाललोचने! तुमने भी कुपित होकर जो मेरे लिये अत्यन्त अप्रिय वचन कहे 
हैं, वे सब मेरे प्रति तुम्हारा अत्यन्त प्रेम होनेके कारण ही कहे गये हैं। अतः शुभे! मैंने वह 
सब अपराध क्षमा कर दिया है || १२४ ।। 

(अनृतं वाप्यनिष्टं वा दुरुक्त वापि दुष्कृतम्‌ । 

त्वयाप्येवं विशालाक्षि क्षन्तव्यं मम दुर्वच: ।। 

क्षान्त्या पतिकृते नार्य: पातिव्रत्यं ब्रजन्ति ता: ।) 

“विशाल नेत्रोंवाली देवि! इसी प्रकार तुम्हें भी मेरे कहे हुए असत्य, अप्रिय, कट एवं 
पापपूर्ण दुर्वचनोंके लिये मुझे क्षमा कर देना चाहिये। पतिके लिये क्षमाभाव धारण करनेसे 
स्त्रियाँ पातिव्रत्य-धर्मको प्राप्त होती हैं'। 

तामेवमुकक्‍्त्वा राजर्षिर्दिष्यन्तो महिषीं प्रियाम्‌ । 

वासोभिरन्नपानैश्व पूजयामास भारत ॥। १२५ ।। 

जनमेजय! अपनी प्यारी रानीसे ऐसी बात कहकर राजर्षि दुष्यन्तने अन्न, पान और 
वस्त्र आदिके द्वारा उसका आदर-सत्कार किया || १२५ || 

(स मातरमुपस्थाय रथन्तर्यामभाषत । 

मम पुत्रो वने जातस्तव शोकप्रणाशन: ।। 

ऋणादद्य विमुक्तो5हमस्मि पौत्रेण ते शुभे । 

विश्वामित्रसुता चेयं कण्वेन च विवर्धिता ।। 

स्‍्नुषा तव महाभागे प्रसीदस्व शकुन्तलाम्‌ | 

पुत्रस्य वचन श्रुत्वा पौत्रं सा परिषस्वजे ।। 

पादयो: पतितां तत्र रथन्तर्या शकुन्तलाम्‌ | 

परिष्वज्य च बाहुभ्यां हषादश्रूण्यवर्तयत्‌ ।। 

उवाच वचन सत्य॑ लक्षयँल्लक्षणानि च | 

तव पुत्रो विशालाक्षि चक्रवर्ती भविष्यति ।। 

तव भर्ता विशालाक्षि त्रैलोक्यविजयी भवेत्‌ | 

दिव्यान्‌ भोगाननुप्राप्ता भव त्वं वरवर्णिनि ।। 

एवमुक्ता रथन्तर्या परं हर्षमवाप सा । 

शकुन्तलां तदा राजा शाम्त्रोक्तेनैव कर्मणा ।। 

ततोअग्रमहिषीं कृत्वा सर्वाभरणभूषिताम्‌ । 

ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा सैनिकानां च भूपति: ।।) 

तदनन्तर वे अपनी माता रथन्तर्याके पास जाकर बोले--'माँ! यह मेरा पुत्र है, जो 
वनमें उत्पन्न हुआ है। यह तुम्हारे शोकका नाश करनेवाला होगा। शुभे! तुम्हारे इस पौत्रको 
पाकर आज मैं पितृ-ऋणसे मुक्त हो गया। महाभागे! यह तुम्हारी पुत्र-वधू है। महर्षि 


विश्वामित्रने इसे जन्म दिया और महात्मा कण्वने पाला है। तुम शकुन्तलापर कृपादृष्टि 
रखो।' पुत्रकी यह बात सुनकर राजमाता रथन्तर्याने पौत्रको हृदयसे लगा लिया और अपने 
चरणोंमें पड़ी हुई शकुन्तलाको दोनों भुजाओंमें भरकर वे हर्षके आँसू बहाने लगीं। साथ ही 
पौत्रके शुभ लक्षणोंकी ओर संकेत करती हुई बोलीं--“विशालाश्षि! तेरा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट्‌ 
होगा। तेरे पतिको तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त हो। सुन्दरि! तुम्हें सदा दिव्य भोग प्राप्त होते 
रहें।। यह कहकर राजमाता रथन्तर्या अत्यन्त हर्षसे विभोर हो उठीं। उस समय राजाने 
शास्त्रोक्त विधिके अनुसार समस्त आभूषणोंसे विभूषित शकुन्तलाको पटरानीके पदपर 
अभिषिक्त करके ब्राह्मणों तथा सैनिकोंको बहुत धन अर्पित किया। 

दुष्यन्तस्तु तदा राजा पुत्र शाकुन्तलं तदा । 

भरतं नामत: कृत्वा यौवराज्ये5 भ्यषेचयत्‌ ।। १२६ ।। 

तदनन्तर महाराज दुष्यन्तने शकुन्तलाकुमारका नाम भरत रखकर उसे युवराजके 
पदपर अभिषिक्त कर दिया || १२६ || 

(भरते भारमावेश्य कृतकृत्यो5भवन्नूप: । 

ततो वर्षशतं पूर्ण राज्यं कृत्वा नराधिप: ।। 

कृत्वा दानानि दुष्यन्तः स्वर्गलोकमुपेयिवान्‌ ।) 

फिर भरतको राज्यका भार सौंपकर महाराज दुष्यन्त कृतकृत्य हो गये। वे पूरे सौ 
वर्षोतक राज्य भोगकर विविध प्रकारके दान दे अन्तमें स्वर्गलोक सिधारे । 

तस्य तत्‌ प्रथितं चक्र प्रावर्तत महात्मन: । 

भास्वरं दिव्यमजितं लोकसंनादनं महत्‌ ।। १२७ ।। 

महात्मा राजा भरतका विख्यात चक्र" सब ओर घूमने लगा। वह अत्यन्त प्रकाशमान, 
दिव्य और अजेय था। वह महान्‌ चक्र अपनी भारी आवाजसे सम्पूर्ण जगतको प्रतिध्वनित 
करता चलता था ।। १२७ ।। 

स विजित्य महीपालांक्ष॒कार वशवर्तिन: । 

चचार च सतां धर्म प्राप चानुत्तमं यश: | १२८ ।। 

उन्होंने सब राजाओंको जीतकर अपने अधीन कर लिया तथा सत्पुरुषोंके धर्मका 
पालन और उत्तम यशका उपार्जन किया ।। १२८ ।। 

स राजा चक्रवर्त्यासीत्‌ सार्वभौम: प्रतापवान्‌ । 

ईजे च बहुभिर्यज्ञैर्यथा शक्रो मरुत्पति: ।। १२९ ।। 

महाराज भरत समस्त भूमण्डलमें विख्यात, प्रतापी एवं चक्रवर्ती सम्राट्‌ थे। उन्होंने 
देवराज इन्द्रकी भाँति बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान किया ।। १२९ ।। 

याजयामास तं कण्वो विधिवद्‌ भूरिदक्षिणम्‌ । 

श्रीमान्‌ गोविततं नाम वाजिमेधमवाप स: । 

यस्मिन्‌ सहस्नं पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ || १३० ।। 


महर्षि कण्वने आचार्य होकर भरतसे प्रचुर दक्षिणाओंसे युक्त 'गोवितत” नामक 
अश्वमेध यज्ञका विधिपूर्वक अनुष्ठान करवाया। श्रीमान्‌ भरतने उस यज्ञका पूरा फल प्राप्त 
किया। उसमें महाराज भरतने आचार्य कण्वको एक सहस्र पद्म स्वर्णमुद्राएँ दक्षिणारूपमें 
दीं || १३० |। 

भरतादू भारती कीर्तियेनेदं भारतं कुलम्‌ । 

अपरे ये च पूर्वे वै भारता इति विश्रुता: ।। १३१ ।। 

भरतसे ही इस भूखण्डका नाम भारत (अथवा भूमिका नाम भारती) हुआ। उन्हींसे यह 
कौरववंश भरतवंशके नामसे प्रसिद्ध हुआ। उनके बाद उस कुलमें पहले तथा आज भी जो 
राजा हो गये हैं, वे भारत (भरतवंशी) कहे जाते हैं ।। १३१ ।। 

भरतस्यान्ववाये हि देवकल्पा महौजस: । 

बभूवुर्ब्रह्म कल्पा श्व बहवो राजसत्तमा: ।। १३२ ।। 

येषामपरिमेयानि नामधेयानि सर्वश: । 

तेषां तु ते यथामुख्यं कीर्तयिष्यामि भारत । 

महाभागान्‌ देवकल्पान्‌ सत्यार्जवपरायणान्‌ ॥। १३३ ।। 

भरतके कुलमें देवताओंके समान महापराक्रमी तथा ब्रह्माजीके समान तेजस्वी बहुत- 
से राजर्षि हो गये हैं; जिनके सम्पूर्ण नामोंकी गणना असम्भव है। जनमेजय! इनमें जो 
मुख्य हैं, उन्हींके नामोंका तुमसे वर्णन करूँगा। वे सभी महाभाग नरेश देवताओंके समान 
तेजस्वी तथा सत्य, सरलता आदि धर्मामें तत्पर रहनेवाले थे || १३२-१३३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शकुन्तलोपाख्याने 
चतु:सप्ततितमो5ध्याय: ।। ७४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शकुन्तलोपाख्यानविषयक 
चौद्त्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ७४ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८९६३ श्लोक मिलाकर कुल २२२६ श्लोक हैं) 


भी्न्म+ज () समन 


- चक्रके विशेषणोंसे यहाँ यही अनुमान होता है कि भरतके पास सुदर्शन चक्रके समान ही कोई चक्र था। 


पञ्चसप्ततितमोब ध्याय: 


दक्ष, वैवस्चत मनु तथा 583 की उत्पत्ति; पुरूरवा, 
नहुष और ययातिके चरित्रोंका संक्षेपसे वर्णन 


वैशम्पायन उवाच 


प्रजापतेस्तु दक्षस्य मनोर्वैवस्वतस्य च । 

भरतस्य कुरो: पूरोराजमीढस्य चानघ ।। १ ।। 

यादवानामिमं वंशं कौरवाणां च सर्वशः । 

तथैव भरतानां च पुण्यं स्वस्त्ययनं महत्‌ ।। २ ।। 

धन्यं यशस्यमायुष्यं कीर्तयिष्यामि तेडनघ । 

वैशम्पायनजी कहते हैं--निष्पाप जनमेजय! अब मैं दक्ष प्रजापति, वैवस्वत मनु, 
भरत, कुरु, पूर, अजमीढ, यादव, कौरव तथा भरतवंशियोंकी कुल-परम्पराका तुमसे वर्णन 
करूँगा। उनका कुल परम पवित्र, महान्‌ मंगलकारी तथा धन, यश और आयुकी प्राप्ति 
करानेवाला है ।। १-२३ ।। 

तेजोभिरुदिता: सर्वे महर्षिसमतेजस: ।। ३ ।। 

दश प्राचेतस: पुत्रा: सन्त: पुण्यजना: स्मृता: । 

मुखजेनाग्निना यैस्ते पूर्व दग्थधा महीरुहा: ।। ४ ।। 

प्रचेताके दस पुत्र थे, जो अपने तेजके द्वारा सदा प्रकाशित होते थे। वे सब-के-सब 
महर्षियोंके समान तेजस्वी, सत्पुरुष और पुण्यकर्मा माने गये हैं। उन्होंने पूर्वकालमें अपने 
मुखसे प्रकट की हुई अग्निद्वारा उन बड़े-बड़े वृक्षोंको जलाकर भस्म कर दिया था (जो 
प्राणियोंको पीड़ा दे रहे थे) ।। ३-४ ।। 

तेभ्य: प्राचेतसो जज्ञे दक्षो दक्षादिमा: प्रजा: । 

सम्भूता: पुरुषव्याप्र स हि लोकपितामह: ।। ५ ।। 

उक्त दस प्रचेताओंद्वारा (मारिषाके गर्भसे) प्राचेतस दक्षका जन्म हुआ तथा दक्षसे ये 
समस्त प्रजाएँ उत्पन्न हुई हैं। नरश्रेष्ठ! वे सम्पूर्ण जगत्‌के पितामह हैं ।। ५ ।। 

वीरिण्या सह संगम्य दक्ष: प्राचेतसो मुनि: । 

आत्मतुल्यानजनयत्‌ सहस््र॑ संशितव्रतान्‌ ।। ६ ।। 

प्राचेतस मुनि दक्षने वीरिणीसे समागम करके अपने ही समान गुण-शीलवाले एक 
हजार पुत्र उत्पन्न किये। वे सब-के-सब अत्यन्त कठोर व्रतका पालन करनेवाले थे ।। ६ ।। 

सहस्रसंख्यान्‌ सम्भूतान्‌ दक्षपुत्रांश्ष नारद: । 

मोक्षमध्यापयामास सांख्यज्ञानमनुत्तमम्‌ ।। ७ ।। 


एक सहस्रकी संख्यामें प्रकट हुए उन दक्ष-पुत्रोंकों देवर्षि नारदजीने मोक्ष-शास्त्रका 
अध्ययन कराया। परम उत्तम सांख्य-ज्ञानका उपदेश किया ।। ७ ।। 

ततः पड्चाशतं कन्या: पुत्रिका अभिसंदधे । 

प्रजापति: प्रजा दक्ष: सिसृक्षुर्जनमेजय ।। ८ ।। 

जनमेजय! जब वे सभी विरक्त होकर घरसे निकल गये, तब प्रजाकी सृष्टि करनेकी 
इच्छासे प्रजापति दक्षने पुत्रिकाके द्वारा पुत्र (दौहित्र) होनेपर उस पुत्रिकाको ही पुत्र मानकर 
पचास कन्याएँ उत्पन्न की ।। ८ ।। 

ददौ दश स धर्माय कश्यपाय त्रयोदश । 

कालस्य नय:ने युक्ता: सप्तविंशतिमिन्दवे ।। ९ ।। 

उन्होंने दस कन्याएँ धर्मको, तेरह कश्यपको और कालका संचालन करनेमें नियुक्त 
नक्षत्रस्वरूपा सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको ब्याह दीं ।। ९ ।। 

त्रयोदशानां पत्नीनां या तु दाक्षायणी वरा । 

मारीच: कश्यपस्त्वस्यामादित्यानू समजीजनत्‌ ।। १० | 

इन्द्रादीन्‌ वीर्यसम्पन्नान्‌ विवस्वन्तमथापि च । 

विवस्वत: सुतो जज्ञे यमो वैवस्वत: प्रभु: ।। ११ ।। 

मरीचिनन्दन कश्यपने अपनी तेरह पत्नियोंमेंसे जो सबसे बड़ी दक्ष-कन्या अदिति थीं, 
उनके गर्भसे इन्द्र आदि बारह आदित्योंको जन्म दिया, जो बड़े पराक्रमी थे। तदनन्तर 
उन्होंने अदितिसे ही विवस्वान्‌को उत्पन्न किया। विवस्वानके पुत्र यम हुए, जो वैवस्वत 
कहलाते हैं। वे समस्त प्राणियोंके नियन्ता हैं || १०-११ ।। 

मार्तण्डस्य मनुर्धीमानजायत सुतः प्रभु: । 

यमश्नापि सुतो जज्ञे ख्यातस्तस्यानुज: प्रभु: ।। १२ ।। 

विवस्वानके ही पुत्र परम बुद्धिमान्‌ मनु हुए, जो बड़े प्रभावशाली हैं। मनुके बाद उनसे 
यम नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई, जो सर्वत्र विख्यात हैं। यमराज मनुके छोटे भाई तथा 
प्राणियोंका नियमन करनेमें समर्थ हैं || १२ ।। 

धर्मात्मा स मनुर्धीमान्‌ यत्र वंश: प्रतिष्ठित: । 

मनोर्वशो मानवानां ततो<यं प्रथितो5भवत्‌ ।। १३ ।। 

बुद्धिमान्‌ मनु बड़े धर्मात्मा थे, जिनपर सूर्यवंशकी प्रतिष्ठा हुई। मानवोंसे सम्बन्ध 
रखनेवाला यह मनुवंश उन्हींसे विख्यात हुआ ।। १३ ।। 

ब्रह्मक्षत्रादयस्तस्मान्मनोर्जातास्तु मानवा: । 

ततो5भवन्‍न्महाराज ब्रद्ा क्षत्रेण संगतम्‌ । १४ ।। 

उन्हीं मनुसे ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सब मानव उत्पन्न हुए हैं। महाराज! तभीसे 
ब्राह्मणकुल क्षत्रियसे सम्बद्ध हुआ ।। १४ ।। 

ब्राह्मणा मानवास्तेषां साड़ं वेदमधारयन्‌ । 


वेन॑ धृष्णुं नरिष्यन्तं नाभागेक्ष्वाकुमेव च ।। १५ ।। 

कारूषमथ शर्यातिं तथा चैवाष्टमीमिलाम्‌ | 

पृषथ्र॑ नवम॑ प्राहु: क्षत्रधर्मपरायणम्‌ ।। १६ ।। 

नाभागारिष्टदशमान्‌ मनो: पुत्रान्‌ प्रचक्षते । 

पज्चाशत्‌ तु मनो: पुत्रास्तथैवान्ये5भवन्‌ क्षितौ ।। १७ ।। 

उनमेंसे ब्राह्मणजातीय मानवोंने छहों अंगोंसहित वेदोंको धारण किया। वेन, धृष्णु, 
नरिष्यन्त, नाभाग, इक्ष्वाकु, कारूष, शर्याति, आठवीं इला, नवें क्षत्रिय-धर्मपरायण पृषपध्र 
तथा दसवें नाभागारिष्ट--इन दसोंको मनुपुत्र कहा जाता है। मनुके इस पृथ्वीपर पचास पुत्र 
और हुए ।। १५-१७ |। 

अन्योन्यभेदात्‌ ते सर्वे विनेशुरिति नः श्रुतम्‌ 

पुरूरवास्ततो विद्वानिलायां समपद्यत ।। १८ ।। 

परंतु आपसकी फूटके कारण वे सब-के-सब नष्ट हो गये, ऐसा हमने सुना है। तदनन्तर 
इलाके गर्भसे विद्वान पुरूरवाका जन्म हुआ || १८ ।। 

सा वै तस्याभवन्माता पिता चैवेति नः श्रुतम्‌ । 

त्रयोदश समुद्रस्य द्वीपानश्नन्‌ पुरूरवा: ।। १९ ।। 


सुना जाता है, इला पुरूरवाकी माता भी थी और पिता भी-। राजा पुरूरवा समुद्रके 
तेरह द्वीपोंका शासन और उपभोग करते थे ।। १९ ।। 

अमानुषैर्वृतः सत्त्वैर्मानुष: सन्‌ महायशा: । 

विप्रै: स विग्रहं चक्रे वीर्योन्मत्त: पुरूरवा: | २० ।। 

जहार च स वित्राणां रत्नान्युत्क्रोशतामपि । 

महायशस्वी पुरूरवा मनुष्य होकर भी मानवेतर प्राणियोंसे घिरे रहते थे। वे अपने बल- 
पराक्रमसे उन्मत्त हो ब्राह्मणोंके साथ विवाद करने लगे। बेचारे ब्राह्मण चीखते-चिल्लाते 
रहते थे तो भी वे उनका सारा धन-रत्न छीन लेते थे || २०६ ।। 

सनत्कुमारस्तं राजन्‌ ब्रह्मलोकादुपेत्य ह ।। २१ ।। 

अनुदर्श ततश्रक्रे प्रत्यगृह्नान्न चाप्पसौ | 

ततो महर्षिश्रि: क्रुद्ध: सद्य: शप्तो व्यनश्यत ।। २२ ।। 

जनमेजय! ब्रह्मतोकसे सनत्कुमारजीने आकर उन्हें बहुत समझाया और ब्राह्मणोंपर 
अत्याचार न करनेका उपदेश दिया, किंतु वे उनकी शिक्षा ग्रहण न कर सके। तब क्रोधमें 
भरे हुए महर्षियोंने तत्काल उन्हें शाप दे दिया, जिससे वे नष्ट हो गये || २१-२२ ।। 

लोभान्वितो बलमदान्नष्टसंज्ञो नराधिप: । 

स हि गन्धर्वलोकस्थानुर्वश्या सहितो विराट्‌ । २३ ।। 

आनिनाय क्रियार्थेजग्नीन्‌ यथावत्‌ विहितांस्त्रिधा । 


षट्‌ सुता जज्ञिरे चैलादायुर्थीमानमावसु: ।। २४ ।। 

दृढायुश्न वनायुश्न शतायुश्नोर्वशीसुता: । 

नहुषं वृद्धशर्माणं रजिं गयमनेनसम्‌ ।। २५ ।। 

स्वर्भानवीसुतानेतानायो: पुत्रान्‌ प्रचक्षते । 

आयुषो नहुष: पुत्रो धीमान्‌ सत्यपराक्रम: || २६ ।। 

राजा पुरूरवा लोभसे अभिभूत थे और बलके घमंडमें आकर अपनी विवेक-शक्ति खो 
बैठे थे। वे शोभाशाली नरेश ही गन्धर्वलोकमें स्थित और विधिपूर्वक स्थापित त्रिविध 
अग्नियोंको उर्वशीके साथ इस धरातलपर लाये थे। इलानन्दन पुरूरवाके छ: पुत्र उत्पन्न 
हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं--आयु, धीमान्‌ू, अमावसु, दृढायु, वनायु और शतायु। ये 
सभी उर्वशीके पुत्र हैं। उनमेंसे आयुके स्वर्भानुकुमारीके गर्भसे उत्पन्न पाँच पुत्र बताये जाते 
हैं--नहुष, वृद्धशर्मा, रजि, गय तथा अनेना। आयुर्नन्दन नहुष बड़े बुद्धिमान्‌ और सत्य- 
पराक्रमी थे || २३-२६ ।। 

राज्यं शशास सुमहद्‌ धर्मेण पृथिवीपते । 

पितृन्‌ देवानृषीन्‌ विप्रान्‌ गन्धर्वोरगराक्षसान्‌ ।। २७ ।। 

नहुष: पालयामास ब्रद्यक्षत्रमथो विश: । 

स हत्वा दस्युसंघातानृषीन्‌ करमदापयत्‌ ।। २८ ।। 

पृथ्वीपते! उन्होंने अपने विशाल राज्यका धर्मपूर्वक शासन किया। पितरों, देवताओं, 
ऋषियों, ब्राह्मणों, गन्धरवों, नागों, राक्षसों तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका भी पालन 
किया। राजा नहुषने झुंड-के-झुंड डाकुओं और लुटेरोंका वध करके ऋषियोंको भी कर 
देनेके लिये विवश किया || २७-२८ ।। 

पशुवच्चैव तान्‌ पृष्ठे वाहयामास वीर्यवान्‌ । 

कारयामास चेन्द्रत्वमभिभूय दिवौकस: ।। २९ || 

तेजसा तपसा चैव विक्रमेणौजसा तथा । 

यतिं ययातिं संयातिमायातिमयतिं ध्रुवम्‌ ।। ३० ।। 

नहुषो जनयामास षटू्‌ सुतान्‌ प्रियवादिन: । 

यतिस्तु योगमास्थाय ब्रह्मभूतो5भवन्मुनि: ।। ३१ ।। 

अपने इन्द्रत्वकालमें पराक्रमी नहुषने महर्षियोंको पशुकी तरह वाहन बनाकर उनकी 
पीठपर सवारी की थी। उन्होंने तेज, तप, ओज और पराक्रमद्वारा समस्त देवताओंको 
तिरस्कृत करके इन्द्रपदका उपभोग किया था। राजा नहुषने छ: प्रियवादी पुत्रोंको जन्म 
दिया, जिनके नाम इस प्रकार हैं--यति, ययाति, संयाति, आयाति, अयति और ध्रुव। इनमें 
यति योगका आश्रय लेकर ब्रह्मभूत मुनि हो गये थे || २९--३१ ।। 

ययातिनहहुषः सम्राडासीत्‌ सत्यपराक्रम: । 

स पालयामास महीमीजे च बहुभिमखै: ।। ३२ ।। 


तब नहुषके दूसरे पुत्र सत्यपराक्रमी ययाति सम्राट्‌ हुए। उन्होंने इस पृथ्वीका पालन 
तथा बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान किया ।। ३२ ।। 

अतिभतकत्या पितृनर्चन्‌ देवांश्व॒ प्रयतः सदा । 

अन्वगृह्लवात्‌ प्रजा: सर्वा ययातिरपराजित: ।। ३३ ।। 

तस्य पुत्रा महेष्वासा: सर्वे: समुदिता गुणै: । 

देवयान्यां महाराज शर्मिष्ठायां च जज्ञिरे || ३४ ।। 

महाराज ययाति किसीसे परास्त होनेवाले नहीं थे। वे सदा मन और इन्द्रियोंको संयममें 
रखकर बड़े भक्ति-भावसे देवताओं तथा पितरोंका पूजन करते और समस्त प्रजापर अनुग्रह 
रखते थे। महाराज जनमेजय! राजा ययातिके देवयानी और शर्मिष्ठाके गर्भसे महान धनुर्धर 
पुत्र उत्पन्न हुए। वे सभी समस्त सदगुणोंके भण्डार थे || ३३-३४ ।। 

देवयान्यामजायेतां यदुस्तुर्वसुरेव च । 

द्रह्मुश्चानुश्न पूरुश्ष शर्मिष्ठायां च जज्ञिरे || ३५ ।। 

यदु और तुर्वसु--ये दो देवयानीके पुत्र थे और द्रुह्यु, अनु तथा पूरु--ये तीन शर्मिष्ठाके 
गर्भसे उत्पन्न हुए थे || ३५ ।। 

स शाश्वती: समा राजन्‌ प्रजा धर्मेण पालयन्‌ | 

जरामार्च्छन्महाघोरां नाहुषो रूपनाशिनीम्‌ ।। ३६ ।। 

राजन! वे सर्वदा धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते थे। एक समय नहुषपुत्र ययातिको 
अत्यन्त भयानक वृद्धावस्था प्राप्त हुई, जो रूप और सौन्दर्यका नाश करनेवाली 
है ।। ३६ || 

जराभिभूत: पुत्रान्‌ स राजा वचनमब्रवीत्‌ | 

यदु पूरुं तुर्वसुं च द्रुह्-ुं चानुं च भारत ।। ३७ ।। 

जनमेजय! वृद्धावस्थासे आक्रान्त होनेपर राजा ययातिने अपने समस्त पुत्रों यदु, पूरु, 
तुर्वसु, ट्रहयु तथा अनुसे कहा-- || ३७ ।। 

यौवनेन चरन्‌ कामान्‌ युवा युवतिभि: सह । 

विहर्तुमहमिच्छामि साहां कुरुत पुत्रका: ।। ३८ ।। 

'पुत्रो! मैं युवावस्थासे सम्पन्न हो जवानीके द्वारा कामोपभोग करते हुए युवतियोंके 
साथ विहार करना चाहता हूँ। तुम मेरी सहायता करो” || ३८ ।। 

त॑ पुत्रो दैवयानेय: पूर्वजो वाक्यमब्रवीत्‌ | 

कि कार्य भवत: कार्यमस्माकं यौवनेन ते ॥। ३९ ।। 

यह सुनकर देवयानीके ज्येष्ठ पुत्र यदुने पूछा--“भगवन्‌! हमारी जवानी लेकर उसके 
द्वारा आपको कौन-सा कार्य करना है” ॥| ३९ |। 

ययातिरब्रवीत्‌ तं वै जरा मे प्रतिगृह्मताम्‌ । 

यौवनेन त्वदीयेन चरेयं विषपानहम्‌ ।। ४० ।। 


तब ययातिने उससे कहा--तुम मेरा बुढ़ापा ले लो और मैं तुम्हारी जवानीसे 
विषयोपभोग करूँगा ।। ४० ।। 

यजतो दीर्घ॑सत्रैमें शापाच्चोशनसो मुने: । 

कामार्थ: परिहीणो<यं तप्येयं तेन पुत्रका: || ४१ ।। 

'पुत्रो) अबतक तो मैं दीर्घकालीन यज्ञोंके अनुष्ठानमें लगा रहा और अब मुनिवर 
शुक्राचार्यके शापसे बुढ़ापेने मुझे धर दबाया है, जिससे मेरा कामरूप पुरुषार्थ छिन गया। 
इसीसे मैं संतप्त हो रहा हूँ ।। ४१ ।। 

मामकेन शरीरेण राज्यमेक: प्रशास्तु वः । 

अहं तन्वाभिनवया युवा काममवाप्लुयाम्‌ ।। ४२ ।। 

“तुममेंसे कोई एक व्यक्ति मेरा वृद्ध शरीर लेकर उसके द्वारा राज्यशासन करे। मैं नूतन 
शरीर पाकर युवावस्थासे सम्पन्न हो विषयोंका उपभोग करूँगा” || ४२ ।। 

ते न तस्य प्रत्यगृह्नन्‌ यदुप्रभूतयो जराम्‌ । 

तमब्रवीत्‌ ततः पूरु: कनीयान्‌ सत्यविक्रम: ।। ४३ ।। 

राजंक्षराभिनवया तन्‍वा यौवनगोचर: । 

अहं जरां समादाय राज्ये स्थास्यामि ते55ज्ञया ।। ४४ ।। 

राजाके ऐसा कहनेपर भी वे यदु आदि चार पुत्र उनकी वृद्धावस्था न ले सके। तब 
सबसे छोटे पुत्र सत्यपराक्रमी पूरने कहा--'राजन्‌! आप मेरे नूतन शरीरसे नौजवान होकर 
विषयोंका उपभोग कीजिये। मैं आपकी आज्ञासे बुढ़ापा लेकर राज्यसिंहासनपर 
बैदूँगा' || ४३-४४ ।। 

एवमुक्त: स राजर्षिस्तपोवीर्यसमाश्रयात्‌ । 

संचारयामास जरां तदा पुत्रे महात्मनि ।। ४५ ।। 

पुरुके ऐसा कहनेपर राजर्षि ययातिने तप और वीर्यके आश्रयसे अपनी वृद्धावस्थाका 
अपने महात्मा पुत्र पूरुमें संचार कर दिया || ४५ ।। 

पौरवेणाथ वयसा राजा यौवनमास्थित: । 

यायातेनापि वयसा राज्यं पूरुरकारयत्‌ ।। ४६ ।। 

ययाति स्वयं पूरूकी नयी अवस्था लेकर नौजवान बन गये। इधर पूरु भी राजा 
ययातिकी अवस्था लेकर उसके द्वारा राज्यका पालन करने लगे ।। ४६ ।। 

ततो वर्षसहस्राणि ययातिरपराजित: । 

स्थित: स नृपशार्दूल: शार्टूल्समविक्रम: || ४७ ।। 

तदनन्तर किसीसे परास्त न होनेवाले और सिंहके समान पराक्रमी नृपश्रेष्ठ ययाति एक 
सहस्र वर्षतक युवावस्थामें स्थित रहे || ४७ ।। 

ययातिरपि पत्नीभ्यां दीर्घकालं विहृत्य च | 

विश्वाच्या सहितो रेमे पुनश्चैत्ररथे वने || ४८ ।। 


उन्होंने अपनी दोनों पत्नियोंके साथ दीर्घकालतक विहार करके चैत्ररथ वनमें जाकर 
विश्वाची अप्सराके साथ रमण किया ।। ४८ ।। 

नाध्यगच्छत्‌ तदा तृप्तिं कामानां स महायशा: । 

अवेत्य मनसा राजन्निमां गाथां तदा जगौ ।। ४९ ।। 

परंतु उस समय भी महायशस्वी ययाति काम-भोगसे तृप्त न हो सके। राजन! उन्होंने 
मनसे विचारकर यह निश्चय कर लिया कि विषयोंके भोगनेसे भोगेच्छा कभी शान्त नहीं हो 
सकती। तब राजाने (संसारके हितके लिये) यह गाथा गायी-- ।। ४९ ।। 

न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति । 

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। ५० ।। 

“विषय-भोगकी इच्छा विषयोंका उपभोग करनेसे कभी शान्त नहीं हो सकती। घीकी 
आहुति डालनेसे अधिक प्रज्वलित होनेवाली आगकी भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती 
है! | ५० ।। 

पृथिवी रत्नसम्पूर्णा हिरण्यं पशव: स्त्रिय: । 

नालमेकस्य तत्‌ सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत्‌ ।। ५१ ।। 

'रत्नोंसे भरी हुई सारी पृथ्वी, संसारका सारा सुवर्ण, सारे पशु और सुन्दरी स्त्रियाँ 
किसी एक पुरुषको मिल जायँ, तो भी वे सब-के-सब उसके लिये पर्याप्त नहीं होंगे। वह 
और भी पाना चाहेगा। ऐसा समझकर शान्ति धारण करे--भोगेच्छाको दबा दे || ५१ ।। 

यदा न कुरुते पापं सर्वभूतेषु कहिचित्‌ । 

कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।। ५२ ।। 

“जब मनुष्य मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी किसी भी प्राणीके प्रति बुरा भाव नहीं 
करता, तब वह ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है” || ५२ ।। 

यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति | 

यदा नेच्छति न डेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।। ५३ || 

“जब सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि होनेके कारण यह पुरुष किसीसे नहीं डरता और जब उससे भी 
दूसरे प्राणी नहीं डरते तथा जब वह न तो किसीकी इच्छा करता है और न किसीसे द्वेष ही 
रखता है, उस समय वह ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है” || ५३ ।। 

इत्यवेक्ष्य महाप्राज्ञ: कामानां फल्गुतां नृप । 

समाधाय मनो बुद्धया प्रत्यगृह्नाज्जरां सुतात्‌ ।। ५४ ।। 

जनमेजय! परम बुद्धिमान महाराज ययातिने इस प्रकार भोगोंकी नि:सारताका विचार 
करके बुद्धिके द्वारा मनको एकाग्र किया और पुत्रसे अपना बुढ़ापा वापस ले लिया ।। 

दत्त्वा च यौवन राजा पूरुं राज्येडभिषिच्य च | 

अतृप्त एव कामानां पूरुं पुत्रमुवाच ह ।। ५५ |। 


पूरुको उसकी जवानी लौटाकर राजाने उसे राज्यपर अभिषिक्त कर दिया और भोगोंसे 
अतृप्त रहकर ही अपने पुत्र पूरसे कहा-- ।। ५५ || 
त्वया दायादवानस्मि त्वं मे वंशकर: सुतः । 
पौरवो वंश इति ते ख्यातिं लोके गमिष्यति ।। ५६ ।। 
“बेटा! तुम्हारे-जैसे पुत्रसे ही मैं पुत्रवान्‌ हूँ। तुम्हीं मेरे वंश-प्रवर्तक पुत्र हो। तुम्हारा वंश 
इस जगत्‌में पौरव वंशके नामसे विख्यात होगा' ।। ५६ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


ततः स नृपशार्दूल पूरुं राज्येडभिषिच्य च । 

ततः: सुचरितं कृत्वा भृगुतुज़े महातपा: ।। ५७ ।। 

कालेन महता पश्चात्‌ कालधर्ममुपेयिवान्‌ | 

कारयित्वा त्वनशनं सदार: स्वर्गमाप्तवान्‌ ।। ५८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--नृपश्रेष्ठ) तदनन्तर पूरुका राज्याभिषेक करनेके पश्चात्‌ 
राजा ययातिने अपनी पत्नियोंके साथ भृगुतुंग पर्वतपर जाकर सत्कर्मोंका अनुष्ठान करते 
हुए वहाँ बड़ी भारी तपस्या की। इस प्रकार दीर्घकाल व्यतीत होनेके बाद स्त्रियोंसहित 
निराहार व्रत करके उन्होंने स्वर्गलोक प्राप्त किया || ५७-५८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने 
पज्चसप्ततितमो<ध्याय: || ७५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक 
पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ७५ ॥। 


ऑपन-- माल बछ। डे 


- वास्तवमें इला माता ही थी। जन्मदाता पिता चन्द्रमाके पुत्र बुध थे, परंतु इला जब पुरुषरूपमें परिणत हुई तो उसका 
नाम सुद्युम्न हुआ। सुद्युम्नने ही पुरूरवाको राज्य दिया था, इसलिये वे पिता भी कहे जाते हैं। 


षट्सप्ततितमो< ध्याय: 


कचका शिष्य भावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें 
संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्‌ मृतसंजीवनी 


विद्या प्राप्त करना 
जनमेजय उवाच 
ययाति: पूर्वजो5स्माकं दशमो य: प्रजापते: । 
कथं स शुक्रतनयां लेभे परमदुर्लभाम्‌ ।। १ ।। 
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण तपोधन । 
आनुपूर्व्या च मे शंस राज्ञो वंशकरान्‌ पृथक्‌ ।। २ ।। 
जनमेजयने पूछा--तपोधन! हमारे पूर्वज महाराज ययातिने, जो प्रजापतिसे दसवीं 
पीढ़ीमें उत्पन्न हुए थे, शुक्राचार्यकी अत्यन्त दुर्लभ पुत्री देवयानीको पत्नीरूपमें कैसे प्राप्त 
किया? मैं इस वृत्तान्तको विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। आप मुझसे सभी वंश-प्रवर्तक 
राजाओंका क्रमश: पृथक्‌-पृथक्‌ वर्णन कीजिये ।। १-२ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


ययातिरासीन्नूपतिर्देवराजसमग्युति: । 

त॑ शुक्रवृषपर्वाणौ वत्राते वै यथा पुरा ॥। ३ ।। 

तत्‌ ते5हं सम्प्रवक्ष्यामि पृच्छते जनमेजय । 

देवयान्याश्व संयोगं ययाते्नाहुषस्यथ च ।। ४ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--जनमेजय! राजा ययाति देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी थे। 
पूर्वकालमें शुक्राचार्य और वृषपर्वाने ययातिका अपनी-अपनी कन्याके पतिके रूपमें जिस 
प्रकार वरण किया, वह सब प्रसंग तुम्हारे पूछनेपर मैं तुमसे कहूँगा। साथ ही यह भी 
बताऊँगा कि नहुषनन्दन ययाति तथा देवयानीका संयोग किस प्रकार हुआ ।। ३-४ ।। 

सुराणामसुराणां च समजायत वै मिथ: । 

ऐश्वर्य प्रति संघर्षस्त्रलोक्ये सचराचरे ।। ५ ।। 

एक समय चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीके ऐश्वर्यके लिये देवताओं और 
असुरोंमें परस्पर बड़ा भारी संघर्ष हुआ || ५ ।। 

जिगीषया ततो देवा वव्रिरे55ड्विरसं मुनिम्‌ 

पौरोहित्येन याज्यार्थे काव्यं तूशनसं परे ।। ६ ।। 

ब्राह्मणी तावुभौ नित्यमन्योन्यस्पर्थिनौ भृशम्‌ । 

तत्र देवा निजघ्नुर्यान्‌ दानवान्‌ युधि संगतान्‌ ॥। ७ ।। 


तान्‌ पु]नर्जीवयामास काव्यो विद्याबलाश्रयात्‌ | 

ततस्ते पुनरुत्थाय योधयांचक्रिरे सुरान्‌ ।। ८ ।। 

उसमें विजय पानेकी इच्छासे देवताओंने अंगिरा मुनिके पुत्र बृहस्पतिका पुरोहितके 
पदपर वरण किया और दैत्योंने शुक्राचार्यको पुरोहित बनाया। वे दोनों ब्राह्मण सदा 
आपसमें बहुत लाग-डाट रखते थे। देवताओंने उस युद्धमें आये हुए जिन दानवोंको मारा 
था, उन्हें शुक्राचार्यने अपनी संजीवनी विद्याके बलसे पुनः जीवित कर दिया। अतः वे पुनः 
उठकर देवताओंसे युद्ध करने लगे || ६--८ ।। 

असुरास्तु निजघ्नुर्यान्‌ सुरान्‌ समरमूर्थनि । 

न तान्‌ संजीवयामास बृहस्पतिरुदारधी: ।। ९ ।। 

परंतु असुरोंने युद्धके मुहानेपर जिन देवताओंको मारा था, उन्हें उदारबुद्धि बृहस्पति 
जीवित न कर सके ।। ९ ।। 

नहि वेद सतां विद्यां यां काव्यो वेत्ति वीर्यवान्‌ । 

संजीविनीं ततो देवा विषादमगमन्‌ परम्‌ ॥। १० ।। 

क्योंकि शक्तिशाली शुक्राचार्य जिस संजीवनी विद्याको जानते थे, उसका ज्ञान 
बृहस्पतिको नहीं था। इससे देवताओंको बड़ा विषाद हुआ ।। १० ।। 

ते तु देवा भयोद्विग्ना: काव्यादुशनसस्तदा । 

ऊचु: कचमुपागम्य ज्येष्ठं पुत्रं बृहस्पते: ।। ११ ।। 

इससे देवता शुक्राचार्यके भयसे उद्विग्ग हो उस समय बृहस्पतिके ज्येष्ठ पुत्र कचके 
पास जाकर बोले-- ।। ११ ।। 

भजमानान्‌ भज स्वास्मान्‌ कुरु नः साहामुत्तमम्‌ । 

या सा विद्या निवसति ब्राह्म॒णेडमिततेजसि ।। १२ ।। 

शुक्रे तामाहर क्षिप्रं भागभाड़ नो भविष्यसि । 

वृषपर्वसमीपे हि शकयो द्रष्टूं त्वया द्विज: ।। १३ ।। 

“ब्रह्म! हम आपके सेवक हैं। आप हमें अपनाइये और हमारी उत्तम सहायता 
कीजिये। अमिततेजस्वी ब्राह्मण शुक्राचार्यके पास जो मृतसंजीवनी विद्या है, उसे शीघ्र 
सीखकर यहाँ ले आइये। इससे आप हम देवताओंके साथ यज्ञमें भाग प्राप्त कर सकेंगे। 
राजा वृषपर्वाके समीप आपको विप्रवर शुक्राचार्यका दर्शन हो सकता है” || १२-१३ ।। 

रक्षते दानवांस्तत्र न स रक्षत्यदानवान्‌ | 

तमाराधयितुं शक्तो भवान्‌ पूर्ववया: कविम्‌ ।। १४ ।। 

“वहाँ रहकर वे दानवोंकी रक्षा करते हैं। जो दानव नहीं हैं, उनकी रक्षा नहीं करते। 
आपकी अभी नयी अवस्था है, अतः आप शुक्राचार्युकी आराधना (करके उन्हें प्रसन्न) 
करनेमें समर्थ हैं" || १४ ।। 

देवयानीं च दयितां सुतां तस्य महात्मन: । 


त्वमाराधयितुं शक्तो नान्य: कश्नन विद्यते ।। १५ ।। 

“उन महात्माकी प्यारी पुत्रीका नाम देवयानी है, उसे अपनी सेवाओंद्वारा आप ही 
प्रसन्न कर सकते हैं। दूसरा कोई इसमें समर्थ नहीं है! || १५ ।। 

शीलदाक्षिण्यमाधुर्यराचारेण दमेन च । 

देवयान्यां हि तुष्टायां विद्यां तां प्राप्स्यसि ध्रुवम्‌ ।। १६ ।। 

“अपने शील-स्वभाव, उदारता, मधुर व्यवहार, सदाचार तथा इन्द्रियसंयमद्वारा 
देवयानीको संतुष्ट कर लेनेपर आप निश्चय ही उस विद्याको प्राप्त कर लेंगे” || १६ ।। 

तथेत्युक्त्वा तत: प्रायाद्‌ बृहस्पतिसुत: कच: । 

तदाभिपूजितो देवै: समीपे वृषपर्वण: ।। १७ ।। 

तब “बहुत अच्छा” कहकर बृहस्पतिपुत्र कच देवताओंसे सम्मानित हो वहाँसे 
वृषपर्वाके समीप गये ।। १७ ।। 

स गत्वा त्वरितो राजन देवै: सम्प्रेषित: कच: । 

असुरेन्द्रपुरे शुक्र दृष्टवा वाक्यमुवाच ह ।। १८ ।। 

राजन! देवताओंके भेजे हुए कच तुरंत दानवराज वृषपर्वाके नगरमें जाकर शुक्राचार्यसे 
मिले और इस प्रकार बोले-- ।। १८ ।। 

ऋषेरज्ञलिरस: पौत्रं पुत्र साक्षाद्‌ बृहस्पते: । 

नाम्ना कचमिति ख्यातं शिष्यं गृह्नातु मां भवान्‌ । १९ ।। 

“भगवन्‌! मैं अंगिरा ऋषिका पौत्र तथा साक्षात्‌ बृहस्पतिका पुत्र हूँ। मेरा नाम कच है। 
आप मुझे अपने शिष्यके रूपमें ग्रहण करें ।। १९ ।। 

ब्रह्मचर्य चरिष्यामि त्वय्यहं परमं गुरौ । 

अनुमन्यस्व मां ब्रह्मनू सहस्नं परिवत्सरान्‌ ।। २० ।। 

'ब्रह्मन! आप मेरे गुरु हैं। मैं आपके समीप रहकर एक हजार वर्षोतक उत्तम 
ब्रह्मचर्यका पालन करूँगा। इसके लिये आप मुझे अनुमति दें” || २० ।। 

शुक्र उवाच 

कच सुस्वागतं तेअस्तु प्रतिगृह्लामि ते वच: । 

अर्चयिष्ये5हमर्च्य त्वामर्चितो<स्तु बृहस्पति: ।। २१ ।। 

शुक्राचार्यने कहा--कच! तुम्हारा भलीभाँति स्वागत है; मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार 
करता हूँ। तुम मेरे लिये आदरके पात्र हो, अतः मैं तुम्हारा सम्मान एवं सत्कार करूँगा। 
तुम्हारे आदर-सत्कारसे मेरे द्वारा बृहस्पतिका आदर-सत्कार होगा ।। २१ ।। 


वैशम्पायन उवाच 
कचस्तु त॑ तथेत्युक्त्वा प्रतिजग्राह तद्‌ व्रतम्‌ 
आदिटष्ट॑ कविपुत्रेण शुक्रेणोशनसा स्वयम्‌ ।। २२ ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--तब कचने “बहुत अच्छा” कहकर महाकान्तिमान्‌ कविपुत्र 
शुक्राचार्यके आदेशके अनुसार स्वयं ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया ।। २२ ।। 

व्रतस्य प्राप्तकालं स यथोत्तं प्रत्यगृह्नत । 

आराधयचन्नुपाध्यायं देवयानीं च भारत ।। २३ ।। 

नित्यमाराधयिष्यंस्तौ युवा यौवनगोचरे । 

गायन नृत्यन्‌ वादयंश्व देवयानीमतोषयत्‌ ।। २४ ।। 

जनमेजय! नियत समयतकके लिये व्रतकी दीक्षा लेनेवाले कचको शुक्राचार्यने 
भलीभाँति अपना लिया। कच आचार्य शुक्र तथा उनकी पुत्री देवयानी दोनोंकी नित्य 
आराधना करने लगे। वे नवयुवक थे और जवानीमें प्रिय लगनेवाले कार्य--गायन और नृत्य 
करके तथा भाँति-भाँतिके बाजे बजाकर देवयानीको संतुष्ट रखते थे | २३-२४ ।। 

स शीलयन्‌ देवयानीं कन्यां सम्प्राप्तयौवनाम्‌ । 

पुष्प: फलै: प्रेषणैश्न तोषयामास भारत ।। २५ || 

भारत! आचार्यकन्या देवयानी भी युवावस्थामें पदार्पण कर चुकी थी। कच उसके लिये 
फूल और फल ले आते तथा उसकी आज्ञाके अनुसार कार्य करते थे। इस प्रकार उसकी 
सेवामें संलग्न रहकर वे सदा उसे प्रसन्न रखते थे || २५ ।। 

देवयान्यपि तं विप्रं नियमव्रतधारणम्‌ । 

गायन्ती च ललन्ती च रह: पर्यचरत्‌ तथा ।। २६ ।। 

देवयानी भी नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य धारण करनेवाले कचके ही समीप रहकर गाती और 
आमोद-प्रमोद करती हुई एकान्तमें उनकी सेवा करती थी || २६ ।। 

पज्चवर्षशतान्येवं कचस्य चरतो व्रतम्‌ । 

तत्रातीयुरथो बुद्ध्वा दानवास्तं ततः कचम्‌ ।। २७ ।। 

गा रक्षन्तं वने दृष्टवा रहस्येकममर्षिता: । 

जघ्नुर्बृहस्पतेद्?ैषाद्‌ विद्यारक्षार्थमेव च ।। २८ ।। 

इस प्रकार वहाँ रहकर ब्रह्मचर्य त्रतका पालन करते हुए कचके पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो 
गये। तब दानवोंको यह बात मालूम हुई। तदनन्तर कचको वनके एकान्त प्रदेशमें अकेले 
गौएँ चराते देख बृहस्पतिके द्वेषसे और संजीवनी विद्याकी रक्षाके लिये क्रोधमें भरे हुए 
दानवोंने कचको मार डाला || २७-२८ ।। 

हत्वा शालावृकेभ्यश्व प्रायच्छेललवश: कृतम्‌ । 

ततो गावो निवृत्तास्ता अगोपा: स्वं निवेशनम्‌ ॥। २९ ।। 

उन्होंने मारनेके बाद उनके शरीरको टुकड़े-टुकड़े कर कुत्तों और सियारोंको बाँट दिया। 
उस दिन गौएँ बिना रक्षकके ही अपने स्थानपर लौटीं || २९ |। 

सा दृष्टवा रहिता गाश्न॒ कचेनाभ्यागता वनात्‌ । 

उवाच वचन काले देवयान्यथ भारत ।। ३० ।। 


जनमेजय! जब देवयानीने देखा, गौएँ तो वनसे लौट आयीं पर उनके साथ कच नहीं हैं, 
तब उसने उस समय अपने पितासे इस प्रकार कहा ।। ३० ।। 


देवयान्युवाच 
आहुतं चाम्निहोत्रं ते सूर्यश्चास्तं गत: प्रभो । 
अगोपाश्चागता गाव: कचस्तात न दृश्यते ।। ३१ ।। 





शुक्राचार्य और कच 


देवयानी बोली--प्रभो! आपने अग्निहोत्र कर लिया और सूर्यदेव भी अस्ताचलको 
चले गये। गौएँ भी आज बिना रक्षकके ही लौट आयी हैं। तात! तो भी कच नहीं दिखायी 
देते हैं ।। ३१ ।। 

व्यक्त हतो मृतो वापि कचस्तात भविष्यति । 

तं विना न च जीवेयमिति सत्यं ब्रवीमि ते ।। ३२ ।। 

पिताजी! अवश्य ही कच या तो मारे गये हैं या मर गये हैं। मैं आपसे सच कहती हूँ, 
उनके बिना जीवित नहीं रह सकूँगी ।। ३२ ।। 

शुक्र उवाच 

अयमेहीति संशब्द्य मृतं संजीवयाम्यहम्‌ । 

ततः संजीविनीं विद्यां प्रयुज्य कचमाह्नयत्‌ ।। ३३ ।। 

शुक्राचार्यने कहा--(बेटी! चिन्ता न करो।) मैं अभी “आओ” इस प्रकार बुलाकर मरे 
हुए कचको जीवित किये देता हूँ। 

ऐसा कहकर उन्होंने संजीवनी विद्याका प्रयोग किया और कचको पुकारा ।। ३३ ।। 

भित्त्वा भित्त्वा शरीराणि वृकाणां स विनिर्गत: । 

आहूत: प्रादुरभवत्‌ कचो हृष्टोडथ विद्यया ।। ३४ ।। 

फिर तो गुरुके पुकारनेपर कच विद्याके प्रभावसे हृष्ट-पुष्ट हो कुत्तोंक शरीर फाड़- 
फाड़कर निकल आये और वहाँ प्रकट हो गये ।। ३४ ।। 

कस्माच्चिरायितो$सीति पृष्टस्तामाह भार्गवीम्‌ । 

समिथधश्च कुशादीनि काष्ठ भारं च भामिनि ।। ३५ ।। 

गृहीत्वा श्रमभारार्तों वटवृक्ष॑ं समाश्रित: । 

गावश्व सहिता: सर्वा वृक्षच्छायामुपाश्रिता: ।। ३६ ।। 

उन्हें देखते ही देवयानीने पूछा--/आज आपने लौटनेमें विलम्ब क्यों किया?” इस 
प्रकार पूछनेपर कचने शुक्राचार्यकी कनन्‍्यासे कहा--“भामिनि! मैं समिधा, कुश आदि और 
काष्ठका भार लेकर आ रहा था। रास्तेमें थकावट और भारसे पीड़ित हो एक वटवृक्षके नीचे 
ठहर गया। साथ ही सारी गौएँ भी उसी वृक्षकी छायामें आकर विश्राम करने 
लगीं ।। ३५-३६ ।। 

असुरास्तत्र मां दृष्टवा कस्त्वमित्यभ्यचोदयन्‌ | 

बृहस्पतिसुतश्चाहं कच इत्यभिविश्रुत: ।। ३७ ।। 

“वहाँ मुझे देखकर असुरोंने पूछा--“तुम कौन हो?” मैंने कहा--मेरा नाम कच है, मैं 
बृहस्पतिका पुत्र हूँ || ३७ ।। 

इत्युक्तमात्रे मां हत्वा पेषीकृत्वा तु दानवा: | 

दत्त्वा शालावृकेभ्यस्तु सुखं जग्मु:ः स्‍्वमालयम्‌ ॥। ३८ ।। 


“मेरे इतना कहते ही दानवोंने मुझे मार डाला और मेरे शरीरको चूर्ण करके कुत्ते- 
सियारोंको बाँट दिया। फिर वे सुखपूर्वक अपने घर चले गये ।। ३८ ।। 

आहूतो विद्यया भद्ठे भार्गवेण महात्मना । 

त्वत्सममीपमिहायात: कथंचित्‌ समजीवित: ।। ३९ ।। 

“भद्रे! फिर महात्मा भार्गवने जब विद्याका प्रयोग करके मुझे बुलाया है, तब किसी 
प्रकारसे पूर्ण जीवन लाभ करके यहाँ तुम्हारे पास आ सका हूँ ।। ३९ ।। 

हतो5हमिति चाचख्यौ पृष्टो ब्राह्मणकन्यया । 

स पुनर्देवयान्योक्त: पुष्पाहारो यदृच्छया ।। ४० ।। 

इस प्रकार ब्राह्मणकन्याके पूछनेपर कचने उससे अपने मारे जानेकी बात बतायी। 
तदनन्तर पुन: देवयानीने एक दिन अकस्मात्‌ कचको फूल लानेके लिये कहा ।। ४० ।। 

वन॑ ययौ कचो वित्रो ददृशुर्दानवाश्न तम्‌ 

पुनस्तं पेषयित्वा तु समुद्राम्भस्यमिश्रयन्‌ ।। ४१ ।। 

विप्रवर कच इसके लिये वनमें गये। वहाँ दानवोंने उन्हें देख लिया और फिर उन्हें 
पीसकर समुद्रके जलमें घोल दिया || ४१ ।। 

चिरं गतं पुनः कन्या पित्रे त॑ं संन्यवेदयत्‌ । 

विप्रेण पुनराहूतो विद्यया गुरुदेहज: । 

पुनरावृत्य तद्‌ वृत्तं न्‍्यवेदयत तद्‌ यथा ।। ४२ ।। 

जब उसके लौटनेमें विलम्ब हुआ, तब आचार्यकन्याने पितासे पुनः यह बात बतायी। 
विप्रवर शुक्राचार्यने कचका पुनः संजीवनी विद्याद्वारा आवाहन किया। इससे बृहस्पतिपूुत्र 
कच पुनः वहाँ आ पहुँचे और उनके साथ असुरोंने जो बर्ताव किया था, वह 
बताया ।। ४२ || 

ततस्तृतीयं हत्वा त॑ दग्ध्वा कृत्वा च चूर्णश: । 

प्रायच्छन्‌ ब्राह्मणायैव सुरायामसुरास्तदा ।। ४३ || 

तत्पश्चात्‌ असुरोंने तीसरी बार कचको मारकर आगमें जलाया और उनकी जली हुई 
लाशका चूर्ण बनाकर मदिरामें मिला दिया तथा उसे ब्राह्मण शुक्राचार्यको ही पिला 
दिया ।। ४३ ।। 

देवयान्यथ भूयो5पि पितरं वाक्यमब्रवीत्‌ 

पुष्पाहार: प्रेषणकृत्‌ कचस्तात न दृश्यते ।। ४४ ।। 

अब देवयानी पुनः अपने पितासे यह बात बोली--'पिताजी! कच मेरे कहनेपर प्रत्येक 
कार्य पूर्ण कर दिया करते हैं। आज मैंने उन्हें फ़ूल लानेके लिये भेजा था, परंतु अभीतक वे 
दिखायी नहीं दिये || ४४ ।। 

व्यक्त हतो मृतो वापि कचस्तात भविष्यति । 

तं विना न च जीवेयं कचं सत्यं ब्रवीमि ते || ४५ ।। 


“तात! जान पड़ता है वे मार दिये गये या मर गये। मैं आपसे सच कहती हूँ, मैं उनके 
बिना जीवित नहीं रह सकती हूँ! ।। ४५ ।। 
शुक्र उवाच 
बृहस्पते: सुतः पुत्रि कचः प्रेतगतिं गतः । 
विद्यया जीवितो<प्येवं हन्यते करवाणि किम्‌ ।। ४६ ।। 
मैवं शुचो मा रुद देवयानि 
न त्वादृशी मर्त्यमनुप्रशोचते । 
यस्यास्तव ब्रह्म च ब्राह्मणाश्न 
सेन्द्रा देवा वसवो5थाश्विनौ च ।। ४७ ।। 
सुरद्विषश्चैव जगच्च सर्व- 
मुपस्थाने संनमन्ति प्रभावात्‌ | 
अशक्योडसौ जीवयितु द्विजाति: 
संजीवितो बध्यते चैव भूय: ।। ४८ ।। 
शुक्राचार्यने कहा--बेटी! बृहस्पतिके पुत्र कच मर गये। मैंने विद्यासे उन्हें कई बार 
जिलाया, तो भी वे इस प्रकार मार दिये जाते हैं, अब मैं क्या करूँ। देवयानी! तुम इस 
प्रकार शोक न करो, रोओ मत। तुम-जैसी शक्तिशालिनी स्त्री किसी मरनेवालेके लिये शोक 
नहीं करती। तुम्हें तो वेद, ब्राह्मण, इन्द्रसहित सब देवता, वसुगण, अश्विनीकुमार, दैत्य तथा 
सम्पूर्ण जगतके प्राणी मेरे प्रभावसे तीनों संध्याओंके समय मस्तक झुकाकर प्रणाम करते 
हैं। अब उस ब्राह्मणको जिलाना असम्भव है। यदि जीवित हो जाय, तो फिर दैत्योंद्वारा मार 
डाला जायगा (अत: उसे जिलानेसे कोई लाभ नहीं है) || ४६--४८ ।। 
देवयान्युवाच 
यस्याड्रिरा वृद्धतम: पितामहो 
बृहस्पतिश्चापि पिता तपोनिधि: । 
ऋषे: पुत्र तमथो वापि पौत्र 
कथं न शोचेयमहं न रुद्याम्‌ ।। ४९ ।। 
देवयानी बोली--पिताजी! अत्यन्त वृद्ध महर्षि अंगिरा जिनके पितामह हैं, तपस्याके 
भण्डार बृहस्पति जिनके पिता हैं, जो ऋषिके पुत्र और ऋषिके ही पौत्र हैं; उन ब्रह्मचारी 
कचके लिये मैं कैसे शोक न करूँ और कैसे न रोऊँ ।। ४९ ।। 
स ब्रह्मचारी च तपोधनश्न 
सदोत्थित: कर्मसु चैव दक्ष: । 
कचस्य मार्ग प्रतिपत्स्ये न भोक्ष्ये 
प्रियो हि मे तात कचो5डभिरूप: || ५० || 


तात! वे ब्रह्मचर्यपालनमें रत थे, तपस्या ही उनका धन था। वे सदा ही सजग रहनेवाले 
और कार्य करनेमें कुशल थे। इसलिये कच मुझे बहुत प्रिय थे। वे सदा मेरे मनके अनुरूप 
चलते थे। अब मैं भोजनका त्याग कर दूँगी और कच जिस मार्गपर गये हैं, वहीं मैं भी चली 
जाऊँगी || ५० ।। 
वैशम्पायन उवाच 


स पीडितो देवयान्या महर्षि: 

समाह्दयत्‌ संरम्भाच्चैव काव्य: । 
असंशयं मामसुरा द्विषन्ति 

ये मे शिष्यानागतान्‌ सूदयन्ति ।। ५१ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! देवयानीके कहनेसे उसके दुःखसे दुःखी हुए 
महर्षि शुक्राचार्यने कचको पुकारा और दैत्योंके प्रति कुृपित होकर बोले--“इसमें तनिक भी 
संशय नहीं है कि असुरलोग मुझसे द्वेष करते हैं। तभी तो यहाँ आये हुए मेरे शिष्योंको ये 
लोग मार डालते हैं ।। ५१ ।। 

अब्राद्मणं कर्तुमिच्छन्ति रौद्रा- 

स्‍्ते मां यथा व्यभिचरन्ति नित्यम्‌ | 
अप्यस्य पापस्य भवेदिहान्तः 
कं ब्रह्महत्या न दहेदपीन्द्रमू ।। ५२ ।। 

“ये भयंकर स्वभाववाले दैत्य मुझे ब्राह्मणत्वसे गिराना चाहते हैं। इसीलिये प्रतिदिन मेरे 
विरुद्ध आचरण कर रहे हैं। इस पापका परिणाम यहाँ अवश्य प्रकट होगा। ब्रह्महत्या किसे 
नहीं जला देगी, चाहे वह इन्द्र ही क्यों न हो? ।। ५२ ।। 

गुरोहि भीतो विद्यया चोपहूत: 

शनैर्वाक्यं जठरे व्याजहार । 

जब गुरुने विद्याका प्रयोग करके बुलाया, तब उनके पेटमें बैठे हुए कच भयभीत हो 
धीरेसे बोले। 

(कच उवाच 

प्रसीद भगवन्‌ महां कचो5हमभिवादये । 

यथा बहुमत: पुत्रस्तथा मन्यतु मां भवान्‌ ।।) 

कचने कहा--भगवन्‌! आप मुझपर प्रसन्न हों, मैं कच हूँ और आपके चरणोंमें प्रणाम 
करता हूँ। जैसे पुत्रपर पिताका बहुत प्यार होता है, उसी प्रकार आप मुझे भी अपना 
स्नेहभाजन समझें। 

वैशम्पायन उवाच 


तमब्रवीत्‌ केन पथोपनीत- 
स्त्वं चोदरे तिष्ठसि ब्रूहि विप्र ।। ५३ ।॥ 
वैशम्पायनजी कहते हैं--उनकी आवाज सुनकर शुक्राचार्यने पूछा--“विप्र! किस 
मार्गसे जाकर तुम मेरे उदरमें स्थित हो गये? ठीक-ठीक बताओ” ।। ५३ ।। 
कच उवाच 


तव प्रसादान्न जहाति मां स्मृति: 
स्मरामि सर्व यच्च यथा च वृत्तम्‌ । 
न त्वेवं स्यात्‌ तपस: संक्षयो मे 
ततः क्लेशं घोरमिमं सहामि || ५४ ।। 
कचने कहा--गुरुदेव! आपके प्रसादसे मेरी स्मरणशक्तिने साथ नहीं छोड़ा है। जो 
बात जैसे हुई है, वह सब मुझे याद है। इस प्रकार पेट फाड़कर निकल आनेसे मेरी 
तपस्याका नाश होगा। वह न हो, इसीलिये मैं यहाँ घोर क्लेश सहन करता हूँ ।। ५४ ।। 
असुरै: सुरायां भवतो5स्मि दत्तो 
हत्वा गग्ध्वा चूर्णयित्वा च काव्य । 
ब्राह्मीं मायां चासुरीं विप्र मायां 
त्वयि स्थिते कथमेवातिवर्तेत्‌ । ५५ ।। 
आचार्यपाद! असुरोंने मुझे मारकर मेरे शरीरको जलाया और चूर्ण बना दिया। फिर उसे 
मदिरामें मिलाकर आपको पिला दिया! विप्रवर! आप ब्राह्मी, आसुरी और दैवी तीनों 
प्रकारकी मायाओंको जानते हैं। आपके होते हुए कोई इन मायाओंका उल्लंघन कैसे कर 
सकता है? ।। ५५ || 


शुक्र उवाच 
किं ते प्रियं करवाण्यद्य वत्से 
वधेन मे जीवितं स्थात्‌ कचस्य । 
नान्यत्र कुक्षेमम भेदनेन 


दृश्येत्‌ कचो मद्गतो देवयानि ।। ५६ ।। 
शुक्राचार्य बोले--बेटी देवयानी! अब तुम्हारे लिये कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? मेरे 
वधसे ही कचका जीवित होना सम्भव है। मेरे उदरको विदीर्ण करनेके सिवा और कोई ऐसा 
उपाय नहीं है, जिससे मेरे शरीरमें बैठा हुआ कच बाहर दिखायी दे ।। ५६ ।। 
देवयान्युवाच 
द्ौ मां शोकावग्निकल्पौ दहेतां 
कचस्य नाशस्तव चैवोपघात: । 


कचस्य नाशे मम नास्ति शर्म 
तवोपघाते जीवितुं नास्मि शक्ता ।। ५७ ।। 
देवयानीने कहा--पिताजी! कचका नाश और आपका वध--ये दोनों ही शोक 
अग्निके समान मुझे जला देंगे। कचके नष्ट होनेपर मुझे शान्ति नहीं मिलेगी और आपका 
वध हो जानेपर मैं जीवित नहीं रह सकूँगी ।। ५७ ।। 
शुक्र उवाच 
संसिद्धरूपो5सि बृहस्पते: सुत 
यत्‌ त्वां भक्त भजते देवयानी । 
विद्यामिमां प्राप्तुहि जीविनीं त्वं 
न चेदिन्द्र: कचरूपी त्वमद्य ।। ५८ ।। 
शुक्राचार्य बोले--बृहस्पतिके पुत्र कच! अब तुम सिद्ध हो गये, क्योंकि तुम 
देवयानीके भक्त हो और वह तुम्हें चाहती है। यदि कचके रूपमें तुम इन्द्र नहीं हो, तो मुझसे 
मृतसंजीवनी विद्या ग्रहण करो ।। ५८ ।। 
न निवर्तेत्‌ पुनर्जीवन्‌ कश्चिदन्यो ममोदरात्‌ । 
ब्राह्मणं वर्जयित्वैंकं तस्माद्‌ विद्यामवाप्रुहि ।। ५९ |। 
केवल एक ब्राह्णको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे पेटसे पुनः जीवित 
निकल सके। इसलिये तुम विद्या ग्रहण करो || ५९ ।। 
पुत्रो भूत्वा भावय भावितो मा- 
मस्मद्देहादुपनिष्क्रम्य तात । 
समीक्षेथा धर्मवतीमवेक्षां 
गुरो: सकाशातृ्‌ प्राप्य विद्यां सविद्य: ।। ६० ।। 
तात! मेरे इस शरीरसे जीवित निकलकर मेरे लिये पुत्रके तुल्य हो मुझे पुन: जिला 
देना। मुझ गुरुसे विद्या प्राप्त करके विद्वान्‌ हो जानेपर भी मेरे प्रति धर्मयुक्त दृष्टिसे ही 
देखना || ६० ।। 


वैशम्पायन उवाच 


गुरो: सकाशात्‌ समवाप्य विद्यां 
भित्त्वा कुक्षिं निर्विचक्राम विप्र: । 
कचो<$भिरूपस्ततक्षणाद्‌ ब्राह्मणस्य 
शुक्लात्यये पौर्णमास्यामिवेन्दु: ।। ६१ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! गुरुसे संजीवनी विद्या प्राप्त करके सुन्दर 
रूपवाले विप्रवर कच तत्काल ही महर्षि शुक्राचार्यका पेट फाड़कर ठीक उसी तरह बाहर 
निकल आये, जैसे दिन बीतनेपर पूर्णिमाकी संध्याको चन्द्रमा प्रकट हो जाते हैं ।। ६१ ।। 


दृष्टवा च त॑ पतितं ब्रह्मराशि- 

मुत्थापयामास मृतं कचो<डपि । 
विद्यां सिद्धां तामवाप्याभिवाद्य 
ततः कचस्तं गुरुमित्युवाच ।। ६२ ।। 

मूर्तिमान्‌ वेदराशिके तुल्य शुक्राचार्यको भूमिपर पड़ा देख कचने भी अपने मरे हुए 
गुरुको विद्याके बलसे जिलाकर उठा दिया और उस सिद्ध विद्याको प्राप्त कर लेनेपर गुरुको 
प्रणाम करके वे इस प्रकार बोले-- ।। ६२ ।। 

यः श्रोत्रयोरमृतं संनिषिड्चेद्‌ 

विद्यामविद्यस्थ यथा ममायम्‌ | 
त॑ मन्ये5हं पितरं मातरं च 
तस्मै न द्रहोत्‌ कृतमस्य जानन्‌ ।॥। ६३ ।। 

“मैं विद्यासे शून्य था, उस दशामें मेरे इन पूजनीय आचार्य जैसे मेरे दोनों कानोंमें 
मृतसंजीवनी विद्यारूप अमृतकी धारा डाली है, इसी प्रकार जो कोई दूसरे ज्ञानी महात्मा 
मेरे कानोंमें ज्ञानरूप अमृतका अभिषेक करेंगे, उन्हें भी मैं अपना माता-पिता मानूँगा (जैसे 
गुरुदेव शुक्राचार्यको मानता हूँ)। गुरुदेवके द्वारा किये हुए उपकारको स्मरण रखते हुए 
शिष्यको उचित है कि वह उनसे कभी द्रोह न करे ।। ६३ ।। 

ऋतस्य दातारमनुत्तमस्य 

निर्धि निधीनामपि लब्धविद्या: | 
ये नाद्रियन्ते गुरुमर्चनीयं 
पापॉल्लोकांस्ते व्रजन्त्यप्रतिष्ठा: ।। ६४ ।। 

“जो लोग सम्पूर्ण वेदके सर्वोत्तम ज्ञानको देने-वाले तथा समस्त विद्याओंके आश्रयभूत 
पूजनीय गुरुदेवका उनसे विद्या प्राप्त करके भी आदर नहीं करते, वे प्रतिष्ठारहित होकर 
पापपूर्ण लोकों--नरकोंमें जाते हैं! || ६४ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


सुरापानाद्‌ वज्चनां प्राप्य विद्वान्‌ 
संज्ञानाशं चैव महातिघोरम्‌ | 
दृष्टवा कचं चापि तथाभिरूपं 
पीत॑ तदा सुरया मोहितेन ।। ६५ ।। 
समन्युरुत्थाय महानुभाव- 
स्तदोशना विप्रहितं चिकीर्ष: । 
सुरापानं प्रति संजातमन्यु: 
काव्य: स्वयं वाक्यमिदं जगाद ।। ६६ ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! विद्वान्‌ शुक्राचार्य मदिरापानसे ठगे गये थे और 
उस अत्यन्त भयानक परिस्थितिको पहुँच गये थे, जिसमें तनिक भी चेत नहीं रह जाता। 
मदिरासे मोहित होनेके कारण ही वे उस समय अपने मनके अनुकूल चलनेवाले प्रिय शिष्य 
ब्राह्मगकुमार कचको भी पी गये थे। यह सब देख और सोचकर वे महानुभाव कविपुत्र शुक्र 
कुपित हो उठे। मदिरापानके प्रति उनके मनमें क्रोध और घृणाका भाव जाग उठा और 
उन्होंने ब्राह्मणोंका हित करनेकी इच्छासे स्वयं इस प्रकार घोषणा की-- ।। ६५-६६ ।। 

यो ब्राह्मणोअ्द्यप्रभूतीह कश्रनि- 

न्मोहात्‌ सुरां पास्यति मन्दबुद्धि: । 
अपेतधर्मा ब्रह्म॒हा चैव स स्या- 
दस्मिंल्लोके गर्लहितः स्यात्‌ परे च ।। ६७ ।। 

“आजसे इस जगत्‌का जो कोई भी मन्दबुद्धि ब्राह्मण अज्ञानसे भी मदिरापान करेगा, 
वह धर्मसे भ्रष्ट हो ब्रह्महत्याके पापका भागी होगा तथा इस लोक और परलोक दोनोंमें वह 
निन्दित होगा" ।। ६७ || 

मया चैतां विप्रधर्मोक्तिसीमां 

मर्यादां वै स्थापितां सर्वलोके । 
सन्‍्तो विप्रा: शुश्रुवांसो गुरूणां 
देवा लोकाश्लोपशृण्वन्तु सर्वे ।। ६८ ।। 

“धर्मशास्त्रोंमें ब्राह्मण-धर्मकी जो सीमा निर्धारित की गयी है, उसीमें मेरे द्वारा स्थापित 
की हुई यह मर्यादा भी रहे और यह सम्पूर्ण लोकमें मान्य हो। साधु पुरुष, ब्राह्मण, गुरुओंके 
समीप अध्ययन करनेवाले शिष्य, देवता और समस्त जगतके मनुष्य, मेरी बाँधी हुई इस 
मर्यादाको अच्छी तरह सुन लें” ।। ६८ ।। 

इतीदमुक्त्वा स महानुभाव- 

स्तपोनिधीनां निधिरप्रमेय: । 
तान्‌ दानवान्‌ दैवविमूढबुद्धी - 
निदं समाहूय वचो<भ्युवाच ।। ६९ |। 

ऐसा कहकर तपस्याकी निधियोंकी निधि, अप्रमेय शक्तिशाली महानुभाव शुक्राचार्यने 
दैवने जिनकी बुद्धिको मोहित कर दिया था उन दानवोंको बुलाया और इस प्रकार कहा 
-- || ६९ || 

आचक्षे वो दानवा बालिशा: स्थ 

सिद्ध: कचो वत्स्यति मत्सकाशे । 
संजीविनीं प्राप्य विद्यां महात्मा 

तुल्यप्रभावो ब्राह्मणो ब्रह्मभूत: ।। ७० ।। 
(यो5कार्षीद्‌ दुष्करं कर्म देवानां कारणात्‌ कच: । 


न तत्कीर्तिर्जरां गच्छेद्‌ यज्ञियश्न भविष्यति ।।) 

एतावदुकक्‍्त्वा वचनं विरराम स भार्गव: । 

दानवा विस्मयाविष्टा: प्रययु: स्वं निवेशनम्‌ ।। ७१ ।। 

“जिन महात्मा कचने देवताओंके लिये वह दुष्कर कार्य किया है, उनकी कीर्ति कभी 
नष्ट नहीं हो सकती और वे यज्ञभागके अधिकारी होंगे।” ऐसा कहकर शुक्राचार्यजी चुप हो 
गये और दानव आश्चवर्यचकित होकर अपने-अपने घर चले गये ।। ७१ ।। 

गुरोरुष्प सकाशे तु दशवर्षशतानि स: । 

अनुज्ञात: कचो गन्तुमियेष त्रिदशालयम्‌ ।। ७२ ।। 

कचने एक हजार वर्षोतक गुरुके समीप रहकर अपना व्रत पूरा कर लिया। तब घर 
जानेकी अनुमति मिल जानेपर कचने देवलोकमें जानेका विचार किया || ७२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने षट्सप्ततितमो<ध्याय: 
॥| ७६ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक 
छिह्तत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ७६ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ७४ श्लोक हैं) 


ऑपन--माज बछ। अकाल 


सप्तसप्ततितमो<ध्याय: 


देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी 
अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना 


वैशम्पायन उवाच 

समावृतद्रतं तं तु विसृष्टं गुरुणा तदा । 

प्रस्थितं त्रिदशावासं देवयान्यब्रवीदिदम्‌ ।। १ ।। 

ऋषेरड्लिरस: पौत्र वृत्तेनाभिजनेन च । 

भ्राजसे विद्यया चैव तपसा च दमेन च ।। २ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जब कचका व्रत समाप्त हो गया और गुरुने उन्हें जानेकी 
आज्ञा दे दी, तब वे देवलोकको प्रस्थित हुए। उस समय देवयानीने उनसे इस प्रकार कहा 
--“महर्षि अंगिराके पौत्र! आप सदाचार, उत्तम कुल, विद्या, तपस्या तथा इन्द्रियसंयम 
आदिसे बड़ी शोभा पा रहे हैं ।। १-२ ।। 

ऋषिर्य थाड्रिरा मान्य: पितुर्मम महायशा: । 

तथा मान्यश्न पूज्यश्चन मम भूयो बृहस्पति: ।। ३ ।। 

“महायशस्वी महर्षि अंगिरा जिस प्रकार मेरे पिताजीके लिये माननीय हैं, उसी प्रकार 
आपके पिता बृहस्पतिजी मेरे लिये आदरणीय तथा पूज्य हैं ।। ३ ।। 

एवं ज्ञात्वा विजानीहि यद्‌ ब्रवीमि तपोधन । 

व्रतस्थे नियमोपेते यथा वर्ताम्यहं त्वयि ।। ४ ।। 

“तपोधन! ऐसा जानकर मैं जो कहती हूँ उसपर विचार करें। आप जब व्रत और 
नियमोंके पालनमें लगे थे, उन दिनों मैंने आपके साथ जो बर्ताव किया है, उसे आप भूले 
नहीं होंगे ।। ४ ।। 

स समावृतविद्यो मां भक्तां भजितुम्सि । 

गृहाण पार्णिं विधिवन्मम मन्त्रपुरस्कृतम्‌ ।। ५ ।। 

“अब आप व्रत समाप्त करके अपनी अभीष्ट विद्या प्राप्त कर चुके हैं। मैं आपसे प्रेम 
करती हूँ, आप मुझे स्वीकार करें; वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक विधिवत्‌ मेरा पाणिग्रहण 
कीजिये” ।। ५ ।। 

कच उवाच 


पूज्यो मान्यश्न भगवान्‌ यथा तव पिता मम । 
तथा त्वमनवद्याड़ि पूजनीयतरा मम ।॥। ६ ।। 


कचने कहा--निर्दोष अंगोंवाली देवयानी! जैसे तुम्हारे पिता भगवान्‌ शुक्राचार्य मेरे 
लिये पूजनीय और माननीय हैं, वैसे ही तुम हो; बल्कि उनसे भी बढ़कर मेरी पूजनीया 
हो ।। ६ |। 

प्राणेभ्यो5पि प्रियतरा भार्गवस्य महात्मन: । 

त्वं भद्रे धर्मतः पूज्या गुरुपुत्री सदा मम ।। ७ ।। 

भद्रे! महात्मा भार्गवको तुम प्राणोंसे भी अधिक प्यारी हो, गुरुपुत्री होनेके कारण 
धर्मकी दृष्टिसे सदा मेरी पूजनीया हो ।। ७ ।। 

यथा मम गुरुर्नित्यं मान्य: शुक्र: पिता तव । 

देवयानि तथैव त्वं नैवं मां वक्तुमहसि ।। ८ ।॥। 

देवयानी! जैसे मेरे गुरुदेव तुम्हारे पिता शुक्राचार्य सदा मेरे माननीय हैं, उसी प्रकार तुम 
हो; अतः तुम्हें मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ।। ८ ।। 

देवयान्युवाच 

गुरुपुत्रस्य पुत्रो वै न त्वं पुत्रश्न मे पितु: । 

तस्मात्‌ पूज्यश्च मान्यश्न ममापि त्वं द्विजोत्तम ।। ९ ।। 

असुरेहन्यमाने च कच त्वयि पुन: पुनः । 

तदा प्रभृति या प्रीतिस्तां त्वमद्य स्मरस्व मे || १० ।। 

देवयानी बोली--द्विजोत्तम! आप मेरे पिताके गुरुपुत्रके पुत्र हैं, मेरे पिताके नहीं; 
अतः मेरे लिये भी आप पूजनीय और माननीय हैं। कच! जब असुर आपको बार-बार मार 
डालते थे, तबसे लेकर आजतक आपके प्रति मेरा जो प्रेम रहा है, उसे आज याद 
कीजिये ।। ९-१० ।। 

सौहारदे चानुरागे च वेत्थ मे भक्तिमुत्तमाम्‌ । 

न मामहसि धर्मज्ञ त्यक्तुं भक्तामनागसम्‌ ।। ११ ।। 

सौहार्द और अनुरागके अवसरपर मेरी उत्तम भक्तिका परिचय आपको मिल चुका है। 
आप धर्मके ज्ञाता हैं। मैं आपके प्रति भक्ति रखनेवाली निरपराध अबला हूँ। आपको मेरा 
त्याग करना उचित नहीं है ।। ११ ।। 


कच उवाच 


अनियोज्ये नियोगे मां नियुनड्क्षि शुभव्रते । 

प्रसीद सुभ्रु त्वं महां गुरोर्गुरुतरा शुभे ।। १२ ।। 
यत्रोषितं विशालाक्षि त्वया चन्द्रनिभानने । 
तत्राहमुषितो भद्रे कुक्षौ काव्यस्थ भामिनि ॥। १३ ।। 
भगिनी धर्मतो मे त्वं मैवं वोच: सुमध्यमे | 
सुखमस्म्युषितो भद्रे न मन्युर्विद्यते मम ।। १४ ।। 


कचने कहा--उत्तम व्रतका आचरण करनेवाली सुन्दरी! तुम मुझे ऐसे कार्यमें लगा 
रही हो, जिसमें लगाना कदापि उचित नहीं है। शुभे! तुम मेरे ऊपर प्रसन्न होओ। तुम मेरे 
लिये गुरुसे भी बढ़कर गुरुतर हो। विशाल नेत्र तथा चन्द्रमाके समान मुखवाली भागमिनि! 
शुक्राचार्यके जिस उदरमें तुम रह चुकी हो, उसीमें मैं भी रहा हूँ। इसलिये भटद्रे! धर्मकी 
दृष्टिसे तुम मेरी बहिन हो। अतः सुमध्यमे! मुझसे ऐसी बात न कहो। कल्याणी। मैं तुम्हारे 
यहाँ बड़े सुखसे रहा हूँ। तुम्हारे प्रति मेरे मनमें तनिक भी रोष नहीं है ।। १२--१४ ।। 

आपूृच्छे त्वां गमिष्यामि शिवमाशंस मे पथि । 

अविरोधेन धर्मस्य स्मर्तव्यो5स्मि कथान्तरे । 

अप्रमत्तोत्थिता नित्यमाराधय गुरुं मम ।। १५ ।। 

अब मैं जाऊँगा, इसलिये तुमसे पूछता हूँ--तुम्हारी आज्ञा चाहता हूँ, आशीर्वाद दो कि 
मार्गमें मेरा मंगल हो। धर्मकी अनुकूलता रखते हुए बातचीतके प्रसंगमें कभी मेरा भी स्मरण 
कर लेना और सदा सावधान एवं सजग रहकर मेरे गुरुदेवकी सेवामें लगी रहना ।। १५ ।। 


देवयान्युवाच 


यदि मां धर्मकामार्थे प्रत्याख्यास्यसि याचित: । 

ततः कच न ते विद्या सिद्धिमेषा गमिष्यति ।। १६ ।। 

देवयानी बोली--कच! मैंने धर्मानुकूल कामके लिये आपसे प्रार्थना की है। यदि आप 
मुझे ठुकरा देंगे, तो आपकी यह संजीवनी विद्या सिद्ध नहीं हो सकेगी ।। १६ ।। 


कच उवाच 


गुरुपुत्रीति कृत्वाहं प्रत्याचक्षे न दोषत: । 

गुरुणा चाननुज्ञात: काममेवं शपस्व माम्‌ ।। १७ ।। 

कचने कहा--देवयानी! गुरुपुत्री समझकर ही मैंने तुम्हारे अनुरोधको टाल दिया है; 
तुममें कोई दोष देखकर नहीं। गुरुजीने भी इसके विषयमें मुझे कोई आज्ञा नहीं दी है। 
तुम्हारी जैसी इच्छा हो, मुझे शाप दे दो || १७ ।। 

आर्ष धर्म ब्रुवाणो5हं देवयानि यथा त्वया । 

शप्तो नाहोंडस्मि शापस्य कामतोडद्य न धर्मत: ।। १८ ।। 

तस्माद्‌ भवत्या यः: कामो न तथा स भविष्यति | 

ऋषिपुत्रो न ते कश्चिज्जातु पार्णिं ग्रहीष्यति ।। १९ ।। 

बहिन! मैं आर्ष धर्मकी बात बता रहा था। इस दशामें तुम्हारे द्वारा शाप पानेके योग्य 
नहीं था। तुमने मुझे धर्मके अनुसार नहीं, कामके वशीभूत होकर आज शाप दिया है, 
इसलिये तुम्हारे मनमें जो कामना है, वह पूरी नहीं होगी। कोई भी ऋषिपुत्र (ब्राह्मणकुमार) 
कभी तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं करेगा ।। १८-१९ ।। 

फलिष्यति न ते विद्या यत्‌ त्वं मामात्थ तत्‌ तथा | 


अध्यापयिष्यामि तु यं तस्य विद्या फलिष्यति ।। २० ।। 
तुमने जो मुझे यह कहा कि तुम्हारी विद्या सफल नहीं होगी, सो ठीक है; किंतु मैं जिसे 
यह विद्या पढ़ा दूँगा, उसकी विद्या तो सफल होगी ही ।। २० ।। 
वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्‍त्वा द्विजश्रेष्ठो देवयानीं कचस्तदा । 

त्रिदशेशालयं शीघ्र॑ं जगाम द्विजसत्तम: ।। २३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! द्विजश्रेष्ठ कच देवयानीसे ऐसा कहकर तत्काल 
बड़ी उतावलीके साथ इन्द्रलोकको चले गये ।। २१ ।। 

तमागतमभिप्रेक्ष्य देवा इन्द्रपुरोगमा: । 

बृहस्पतिं सभाज्येदं कचं वचनमन्रुवन्‌ || २२ ।। 

उन्हें आया देख इन्द्रादि देवता बृहस्पतिजीकी सेवामें उपस्थित हो कचसे यह वचन 
बोले ।। २२ ।। 

देवा ऊचु: 

यत्‌ त्वयास्मद्धितं कर्म कृतं वै परमाद्भुतम्‌ । 

न ते यश: प्रणशिता भागभाक्‌ च भविष्यसि ।। २३ ।। 

देवता बोले--ब्रह्मन! तुमने हमारे हितके लिये यह बड़ा अदभुत कार्य किया है, अतः 
तुम्हारा यशका कभी लोप नहीं होगा और तुम यज्ञमें भाग पानेके अधिकारी 
होओगे ।। २३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने 
सप्तसप्ततितमो<ध्याय: ॥। ७७ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक 
सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ७७ ॥ 


ऑपन-माजल बछ। डे 


अष्टसप्ततितमोब< ध्याय: 


देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुएँमें गिरायी 
गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका 
शुक्राचार्यजीके साथ वार्तालाप 


वैशम्पायन उवाच 


कृतविद्ये कचे प्राप्ते हृष्टरूपा दिवौकस: । 

कचादधीत्य तां विद्यां कृतार्था भरतर्षभ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब कच मृतसंजीवनी विद्या सीखकर आ गये, 
तब देवताओंको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे कचसे उस विद्याको पढ़कर कृतार्थ हो गये ।। १ ।। 

सर्व एव समागम्य शतक्रतुमथाब्रुवन्‌ । 

कालस्ते विक्रमस्याद्य जहि शत्रून्‌ पुरन्दर || २ ।। 

फिर सबने मिलकर इन्द्रसे कहा--'पुरन्दर! अब आपके लिये पराक्रम करनेका समय 
आ गया है, अपने शत्रुओंका संहार कीजिये” || २ ।। 

एवमुक्तस्तु सहितैस्त्रिदशैर्मघवांस्तदा । 

तथेत्युक्त्वा प्रचक्राम सोडपश्यत वने स्त्रिय: ।। ३ ।। 

संगठित होकर आये हुए देवताओंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर इन्द्र “बहुत अच्छा' 
कहकर भूलोकमें आये। वहाँ एक वनमें उन्होंने बहुत-सी स्त्रियोंको देखा ।। ३ ।। 

क्रीडन्तीनां तु कन्यानां वने चैत्ररथोपमे । 

वायुभूत: स वस्त्राणि सर्वाण्येव व्यमिश्रयत्‌ ।। ४ ।। 

वह वन चैत्ररथ नामक देवोद्यानके समान मनोहर था। उसमें वे कन्याएँ जलक्रीड़ा कर 
रही थीं। इन्द्रने वायुका रूप धारण करके उनके सारे कपड़े परस्पर मिला दिये || ४ ।। 

ततो जलात्‌ समुत्तीर्य कन्यास्ता: सहितास्तदा । 

वस्त्राणि जगृहुस्तानि यथासन्नान्यनेकश: ।। ५ ।। 

तत्र वासो देवयान्या: शर्मिष्ठा जगृहे तदा । 

व्यतिमिश्रमजानन्ती दुहिता वृषपर्वण: ।। ६ ।। 

तब वे सभी कनन्‍्याएँ एक साथ जलसे निकलकर अपने-अपने अनेक प्रकारके वस्त्र, 
जो निकट ही रखे हुए थे; लेने लगीं। उस सम्मिश्रणमें शर्मिष्ठाने देवयानीका वस्त्र ले लिया। 
शर्मिष्ठा वृषपर्वाकी पुत्री थी; दोनोंके वस्त्र मिल गये हैं, इस बातका उसे पता नहीं 
था || ५-६ || 

ततस्तयोर्मिथस्तत्र विरोध: समजायत । 


देवयान्याश् राजेन्द्र शर्मिष्ठाया श्ष॒ तत्कृते || ७ ।। 
राजेन्द्र! उस समय वस्त्रोंकी अदला-बदलीको लेकर देवयानी और शर्मिष्ठा दोनोंमें वहाँ 
परस्पर बड़ा भारी विरोध खड़ा हो गया ।। ७ ।। 


देवयान्युवाच 


कस्माद गृह्नासि मे वस्त्र शिष्या भूत्वा ममासुरि | 
समुदाचारहीनाया न ते साधु भविष्यति ।। ८ ।। 
देवयानी बोली--अरी दानवकी बेटी! मेरी शिष्या होकर तू मेरा वस्त्र कैसे ले रही है? 
तू सज्जनोंके उत्तम आचारसे शून्य है, अतः तेरा भला न होगा ।॥। ८ ।। 
शर्मिष्टोवाच 


आसीनं च शयानं च पिता ते पितरं मम । 

स्तौति वन्दीव चाभीक्ष्णं नीचे: स्थित्वा विनीतवत्‌ ।। ९ ।। 

शर्मिष्ठाने कहा--अरी! मेरे पिता बैठे हों या सो रहे हों, उस समय तेरा पिता 
विनयशील सेवकके समान नीचे खड़ा होकर बार-बार वन्दीजनोंकी भाँति उनकी स्तुति 
करता है || ९ ।। 

याचतत्त्वं हि दुहिता स्तुवतः प्रतिगृह्नतः । 

सुताहं स्तूयमानस्य ददतो<प्रतिगृह्नतः ।॥ १० ।। 

आदुन्वस्व विदुन्वस्व द्रह्म कुप्पस्व याचकि । 

अनायुधा सायुधाया रिक्ता क्षुभ्यसि भिक्षुकि । 

लप्स्यसे प्रतियोद्धारं न हि त्वां गणयाम्पयहम्‌ ।। ११ ।। 

तू भिखमंगेकी बेटी है, तेरा बाप स्तुति करता और दान लेता है। मैं उनकी बेटी हूँ, 
जिनकी स्तुति की जाती है, जो दूसरोंको दान देते हैं और स्वयं किसीसे कुछ भी नहीं लेते 
हैं। अरी भिक्षुकि! तू छाती पीट-पीटकर रो अथवा धूलमें लोट-लोटकर कष्ट भोग। मुझसे 
द्रोह रख या क्रोध कर (इसकी परवा नहीं है)। भिखमंगिन! तू खाली हाथ है, तेरे पास कोई 
अस्त्र-शस्त्र भी नहीं है और देख ले, मेरे पास हथियार है। इसलिये तू मेरे ऊपर व्यर्थ ही 
क्रोध कर रही है। यदि लड़ना ही चाहती है, तो इधरसे भी डटकर सामना करनेवाला मुझ- 
जैसा योद्धा तुझे मिल जायगा। मैं तुझे कुछ भी नहीं गिनती ।। १०-११ ।। 

(प्रतिकूलं वदसि चेदितः प्रभृति याचकि । 

आकृष्य मम दासीक्िि: प्रस्थाप्यसि बहिर्बहि: ।।) 

भिक्षुकी! अबसे यदि मेरे विरुद्ध कोई बात कहेगी, तो अपनी दासियोंसे घसीटवाकर 
तुझे यहाँसे बाहर निकलवा दूँगी। 

वैशम्पायन उवाच 


समुच्छूयं देवयानीं गतां सक्तां च वाससि ।। १२ ।। 

शर्मिष्ठा प्राक्षिपत्‌ कूपे ततः स्वपुरमागमत्‌ | 

हतेयमिति विज्ञाय शर्मिष्ठा पापनिश्षया ।। १३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! देवयानीने सच्ची बातें कहकर अपनी उच्चता 
और महत्ता सिद्ध कर दी और शर्मिष्ठाके शरीरसे अपने वस्त्रको खींचने लगी। यह देख 
शर्मिष्ठाने उसे कुएँमें ढकेल दिया और अब यह मर गयी होगी, ऐसा समझकर पापमय 
विचारवाली शर्मिष्ठा नगरको लौट आयी ।। १२-१३ ।। 

अनवेक्ष्य ययौ वेश्म क्रोधवेगपरायणा । 

अथ तं देशमभ्यागाद्‌ ययातिर्नहुषात्मज: ।। १४ ।। 

वह क्रोधके आवेशमें थी, अतः देवयानीकी ओर देखे बिना ही घर लौट गयी। तदनन्तर 
नहुषपुत्र ययाति उस स्थानपर आये ।। १४ ।। 

श्रान्तयुग्य: श्रान्तहयो मृगलिप्सु: पिपासित: । 

स नाहुष: प्रेक्षमाण उदपानं गतोदकम्‌ ।॥। १५ ।। 

उनके रथके वाहन तथा अन्य घोड़े भी थक गये थे। वे एक हिंसक पशुको पकड़नेके 
लिये उसके पीछे-पीछे आये थे और प्याससे कष्ट पा रहे थे। ययाति उस जलशून्य कूपको 
देखने लगे ।। १५ ।। 

ददर्श राजा तां तत्र कन्यामग्निशिखामिव । 

तामपृच्छत्‌ स दृष्टवैव कन्याममरवर्णिनीम्‌ ।। १६ ।। 

वहाँ उन्हें अग्नि-शिखाके समान तेजस्विनी एक कन्या दिखायी दी, जो देवांगनाके 
समान सुन्दरी थी। उसपर दृष्टि पड़ते ही राजाने उससे पूछा ।। १६ ।। 

सान्त्वयित्वा नृपश्रेष्ठ: साम्ना परमवल्गुना । 

का त्वं ताम्रनखी श्यामा सुमृष्टमणिकुण्डला ।। १७ ।। 

नृपश्रेष्ठ ययातिने पहले परम मधुर वचनोंद्वारा शान्तभावसे उसे आश्वासन दिया और 
कहा--“तुम कौन हो? तुम्हारे नख लाल-लाल हैं। तुम षोडशी जान पड़ती हो। तुम्हारे 
कानोंके मणिमय कुण्डल अत्यन्त सुन्दर और चमकीले हैं ।। १७ ।। 

दीर्घ ध्यायसि चात्यर्थ कस्माच्छोचसि चातुरा । 

कथं च पतितास्यस्मिन्‌ कूपे वीरुत्तणावृते ।। १८ ।। 

दुहिता चैव कस्य त्वं वद सत्यं सुमध्यमे । 

“तुम किसी अत्यन्त घोर चिन्तामें पड़ी हो। आतुर होकर शोक क्यों कर रही हो? तृण 
और लताओंसे ढके हुए इस कुएँमें कैसे गिर पड़ी? तुम किसकी पुत्री हो? सुमध्यमे! ठीक- 
ठीक बताओ' || १८३ || 

देवयान्युवाच 


योअसौ देवै्हतान्‌ दैत्यानुत्थापयति विद्यया ।। १९ ।। 

तस्य शुक्रस्य कन्याहं स मां नूनं न बुध्यते । 

देवयानी बोली--जो देवताओंद्वारा मारे गये दैत्योंको अपनी विद्याके बलसे जिलाया 
करते हैं, उन्हीं शुक्राचार्यकी मैं पुत्री हूँ। निश्चय ही उन्हें इस बातका पता नहीं होगा कि मैं 
इस दुरवस्थामें पड़ी हूँ ।। १९६ ।। 

(पृच्छसे मां कस्त्वमसि रूपवीर्यबलान्वित: । 

ब्रूह्मत्रागमनं किं वा श्रोतुमिच्छामि तत्त्वत: ।। 

रूप, वीर्य और बलसे सम्पन्न तुम कौन हो, जो मेरा परिचय पूछते हो। यहाँ तुम्हारे 
आगमनका क्‍या कारण है, बताओ। मैं यह सब ठीक-ठीक सुनना चाहती हूँ। 

ययातिरुवाच 


ययातिनईहिषोःहं तु श्रान्तोडद्य मृगलिप्सया । 

कूपे तृणावृते भद्ठे दृष्टवानस्मि त्वामिह ।।) 

ययातिने कहा--भद्रे! मैं राजा नहुषका पुत्र ययाति हूँ। एक हिंसक पशुको मारनेकी 
इच्छासे इधर आ निकला। थका-माँदा प्यास बुझानेके लिये यहाँ आया और तिनकोंसे ढके 
हुए इस कूपमें गिरी हुई तुमपर मेरी दृष्टि पड़ गयी। 

एष मे दक्षिणो राजन्‌ पाणिस्ताम्रनखाड्गुलि: ।। २० ।। 

समुद्धर गृहीत्वा मां कुलीनस्त्वं हि मे मतः । 

जानामि त्वां हि संशान्तं वीर्यवन्तं यशस्विनम्‌ ।। २१ ।। 

तस्मान्मां पतितामस्मात्‌ कूपादुद्धर्तुमहसि । 

(देवयानी बोली--) महाराज! लाल नख और अंगुलियोंसे युक्त यह मेरा दाहिना हाथ 
है। इसे पकड़कर आप इस कुएँसे मेरा उद्धार कीजिये। मैं जानती हूँ, आप उत्तम कुलमें 
उत्पन्न हुए नरेश हैं। मुझे यह भी मालूम है कि आप परम शान्त स्वभाववाले, पराक्रमी तथा 
यशस्वी वीर हैं। इसलिये इस कुएँमें गिरी हुई मुझ अबलाका आप यहाँसे उद्धार 
कीजिये || २०-२१ $ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


तामथो ब्राह्मणीं राजा विज्ञाय नहुषात्मज: ।। २२ ।। 
गृहीत्वा दक्षिणे पाणावुज्जहार ततोडवटात्‌ । 
उद्धृत्य चैनां तरसा तस्मात्‌ कूपान्नराधिप: ।। २३ ।। 
(गच्छ भद्रे यथाकामं न भयं विद्यते तव । 
इत्युच्यमाना नृपतिं देवयानी तमुत्तरम्‌ ।। 

उवाच मां त्वमादाय गच्छ शीतघ्र॑ प्रियो हि मे । 
गृहीताहं त्वया पाणौ तस्माद्‌ भर्त्ता भविष्यसि ।। 


इत्येवमुक्तो नृपतिराह क्षत्रकुलोद्धव: । 

त्वं भद्दे ब्राह्मणी तस्मान्मया नाहसि सड़मम्‌ ।। 

सर्वलोकगुरु: काव्यस्त्वं तस्य दुहितासि वै | 

तस्मादपि भयं मेडद्य तस्मात्‌ कल्याणि नाहसि ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर नहुषपुत्र राजा ययातिने देवयानीको 
ब्राह्मगकन्या जानकर उसका दाहिना हाथ अपने हाथमें ले उसे उस कुएँसे बाहर निकाला। 
वेगपूर्वक कुएँसे बाहर करके राजा ययाति उससे बोले--“भद्रे! अब जहाँ इच्छा हो जाओ। 
तुम्हें कोई भय नहीं है।" राजा ययातिके ऐसा कहनेपर देवयानीने उन्हें उत्तर देते हुए कहा 
--तुम मुझे शीघ्र अपने साथ ले चलो; क्योंकि तुम मेरे प्रियतम हो। तुमने मेरा हाथ पकड़ा 
है, अतः तुम्हीं मेरे पति होओगे।” देवयानीके ऐसा कहनेपर राजा बोले--“भद्रे! मैं 
क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुआ हूँ और तुम ब्राह्मणकन्या हो। अतः मेरे साथ तुम्हारा समागम नहीं 
होना चाहिये। कल्याणी! भगवान्‌ शुक्राचार्य सम्पूर्ण जगत्‌के गुरु हैं और तुम उनकी पुत्री 
हो, अतः मुझे उनसे भी डर लगता है। तुम मुझ-जैसे तुच्छ पुरुषके योग्य कदापि नहीं हो'। 

देवयान्युवाच 


यदि मद्गचनादद्य मां नेच्छसि नराधिप । 

त्वामेव वरये पित्रा पश्चाज्ज्ञास्यसि गच्छसि ।।) 

देवयानी बोली--नरेश्वर! यदि तुम मेरे कहनेसे आज मुझे साथ ले जाना नहीं चाहते, 
तो मैं पिताजीके द्वारा भी तुम्हारा ही वरण करूँगी। फिर तुम मुझे अपने योग्य मानोगे और 
साथ ले चलोगे। 

आमन्त्रयित्वा सुश्रोणी ययाति: स्वपुरं ययौ । 

गते तु नाहुषे तस्मिन्‌ देवयान्यप्यनिन्दिता ।। २४ ।। 

(क्वचिदार्ता च रुदती वृक्षमाश्रित्य तिष्ठति । 

ततश्चिरायमाणायां दुहितर्याह भार्गव: ।। 

धात्रि त्वमानय क्षिप्रं देवयानीं शुचिस्मिताम्‌ । 

इत्युक्तमात्रे सा धात्री त्वरिता55ह्वयितुं गता ।। 

यत्र यत्र सखीभि: सा गता पदममार्गत । 

सा ददर्श तथा दीनां श्रमार्ता रुदतीं स्थिताम्‌ ।। 

(वैशम्पायनजी कहते हैं--) तदनन्तर सुन्दरी देवयानीकी अनुमति लेकर राजा ययाति 
अपने नगरको चले गये। नहुषनन्दन ययातिके चले जानेपर सती-साध्वी देवयानी आर्त- 
भावसे रोती हुई कहीं किसी वृक्षका सहारा लेकर खड़ी रही। जब पुत्रीके घर लौटनेमें 
विलम्ब हुआ, तब शुक्राचार्यने धायसे कहा--'धाय! तू पवित्र हास्यवाली मेरी बेटी 
देवयानीको शीघ्र यहाँ बुला ला।” उनके इतना कहते ही धाय तुरंत उसे बुलाने चली गयी। 


जहाँ-जहाँ देवयानी सखियोंके साथ गयी थी, वहाँ-वहाँ उसका पदचिह्न खोजती हुई धाय 
गयी और उसने पूर्वोक्त रूपसे श्रमपीड़ित एवं दीन होकर रोती हुई देवयानीको देखा। 
धात्रयुवाच 

वृत्तं ते किमिदं भद्रे शीघ्रं वद पिता55ह्वयत्‌ । 

धात्रीमाह समाहूय शर्मिष्ठावृजिनं कृतम्‌ ।।) 

उवाच शोकसंतप्ता घूर्णिकामागतां पुर: । 

तब धायने पूछा--भटद्रे! यह तुम्हारा क्या हाल है? शीघ्र बताओ। तुम्हारे पिताजीने 
तुम्हें बुलाया है। इसपर देवयानीने धायको अपने निकट बुलाकर शर्मिष्ठाद्वारा किये हुए 
अपराधको बताया। वह शोकसे संतप्त हो अपने सामने आयी हुई धाय घूर्णिकासे बोली। 


देवयान्युवाच 
त्वरितं घूर्णिके गच्छ शीघ्रमाचक्ष्व मे पितु: ।। २५ ।। 
नेदानीं सम्प्रवेक्ष्यामि नगरं वृषपर्वण: । 
देवयानीने कहा--घूर्णिके! तुम वेगपूर्वक जाओ और शीघ्र मेरे पिताजीसे कह दो 
--“अब मैं वृषपर्वाके नगरमें पैर नहीं रखूँगी' || २२-२५३ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


सा तत्र त्वरितं गत्वा घूर्णिकासुरमन्दिरम्‌ ।। २६ ।। 

दृष्टवा काव्यमुवाचेदं सम्भ्रमाविष्टचेतना । 

आचचक्षे महाप्राज्ञं देवयानीं वने हताम्‌ ।। २७ ।। 

शर्मिष्ठया महाभाग दुद्ित्रा वृषपर्वण: । 

श्र॒त्वा दुहितरं काव्यस्तत्र शर्मिछ्ठया हताम्‌ ।। २८ ।। 

त्वरया निर्ययौ दुःखान्मार्गमाण: सुतां वने | 

दृष्टवा दुहितरं काव्यो देवयानीं ततो वने ।। २९ ।। 

बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य दु:खितो वाक्यमब्रवीत्‌ | 

आत्मदोषैर्नियच्छन्ति सर्वे दु:खसुखे जना: || ३० ।। 

मन्ये दुश्चरितं ते5स्ति यस्येयं निष्कृति: कृता । 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! देवयानीकी बात सुनकर घूर्णिका तुरंत 
असुरराजके महलमें गयी और वहाँ शुक्राचार्यको देखकर सम्भ्रमपूर्ण चित्तसे वह बात 
बतला दी। महाभाग! उसने महाप्राज्ञ शुक्राचार्यको यह बताया कि “*वृषपर्वाकी पुत्री 
शर्मिष्ठाके द्वारा देवयानी वनमें मृततुल्य कर दी गयी है।' अपनी पुत्रीको शर्मिष्ठा-द्वारा 
मृततुल्य की गयी सुनकर शुक्राचार्य बड़ी उतावलीके साथ निकले और दुःखी होकर उसे 
वनमें ढूँढ़ने लगे। तदनन्तर वनमें अपनी बेटी देवयानीको देखकर शुक्राचार्यने दोनों 


भुजाओंसे उठाकर उसे हृदयसे लगा लिया और दुःखी होकर कहा--“बेटी! सब लोग अपने 

ही दोष और गुणोंसे--अशुभ या शुभ कर्मोसे दुःख एवं सुखमें पड़ते हैं। मालूम होता है, 

तुमसे कोई बुरा कर्म बन गया था, जिसका बदला तुम्हें इस रूपमें मिला है” || २६-३० ई ।। 
देवयान्युवाच 


निष्कृतिमें<स्तु वा मास्तु शृणुष्वावहितो मम ।। ३१ ।। 

देवयानी बोली--पिताजी! मुझे अपने कर्मोंका फल मिले या न मिले, आप मेरी बात 
ध्यान देकर सुनिये || ३१ ।। 

शर्मिष्ठया यदुक्तास्मि दुह्तित्रा वृषपर्वण: । 

सत्यं किलैतत्‌ सा प्राह दैत्यानामसि गायन: ।। ३२ |। 

वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने आज मुझसे जो कुछ कहा है, क्या यह सच है? वह कहती है 
--आप भाटोंकी तरह दैत्योंके गुण गाया करते हैं ।। ३२ ।। 

एवं हि मे कथयति शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी । 

वचन तीक्षणपरुषं क्रोधरक्तेक्षणा भृशम्‌ ।। ३३ ।। 

वृषपर्वाकी लाड़िली शर्मिष्ठा क्रोध8े लाल आँखें करके आज मुझसे इस प्रकार अत्यन्त 
तीखे और कठोर वचन कह रही थी-- ।। ३३ ।। 

स्तुवतो दुहिता नित्यं याचत: प्रतिगृह्नत: । 

अहं तु स्तूयमानस्य ददतो<प्रतिगृह्नतः ।। ३४ ।। 

“देवयानी! तू स्तुति करनेवाले, नित्य भीख माँगनेवाले और दान लेनेवालेकी बेटी है 
और मैं तो उन महाराजकी पुत्री हूँ, जिनकी तुम्हारे पिता स्तुति करते हैं, जो स्वयं दान देते हैं 
और लेते एक धेला भी नहीं हैं! || ३४ ।। 

इदं मामाह शर्मिष्ठा दुहिता वृषपर्वण: । 

क्रोधसंरक्तनयना दर्पपूर्णा पुनः पुन: ।। ३५ ।। 

वृषपर्वाकी बेटी शर्मिष्ठाने आज मुझसे ऐसी बात कही है। कहते समय उसकी आँखें 
क्रोधसे लाल हो रही थीं। वह भारी घमंडसे भरी हुई थी और उसने एक बार ही नहीं, अपितु 
बार-बार उपर्युक्त बातें दुहरायी हैं || ३५ ।। 

यद्यहं स्तुवतस्तात दुहिता प्रतिगृह्नतः । 

प्रसादयिष्ये शर्मिष्ठामित्युक्ता तु सखी मया | ३६ ।। 

तात! यदि सचमुच मैं स्तुति करनेवाले और दान लेनेवालेकी बेटी हूँ, तो मैं शर्मिष्ठाको 
अपनी सेवाओंद्वारा प्रसन्न करूँगी। यह बात मैंने अपनी सखीसे कह दी थी ।। ३६ ।। 

(उक्ताप्येवं भृशं क्रुद्धा मां गृह विजने वने । 

कूपे प्रक्षेपयामास प्रक्षिप्यैव गृहं ययौ ।।) 


मेरे ऐसा कहनेपर भी अत्यन्त क्रोधमें भरी हुई शर्मिष्ठाने उस निर्जन वनमें मुझे 

पकड़कर कुएँमें ढकेल दिया, उसके बाद वह अपने घर चली गयी। 
शुक्र उवाच 

स्तुवतो दुहिता न त्वं याचत: प्रतिगृह्नतः । 

अस्तोतुः स्तूयमानस्य दुहिता देवयान्यसि ।। ३७ ।। 

शुक्राचार्यने कहा--देवयानी! तू स्तुति करनेवाले, भीख माँगनेवाले या दान 
लेनेवालेकी बेटी नहीं है। तू उस पवित्र ब्राह्मणकी पुत्री है, जो किसीकी स्तुति नहीं करता 
और जिसकी सब लोग स्तुति करते हैं ।। ३७ ।। 

वृषपर्वैव तद्‌ वेद शक्रो राजा च नाहुष: । 

अचिन्त्य ब्रह्म निर्टन्ड्मैश्वरं हि बल॑ मम ।। ३८ ।। 

इस बातको वृषपर्वा, देवराज इन्द्र तथा राजा ययाति जानते हैं। निर्दधन्द्र अचिन्त्य ब्रह्म 
ही मेरा ऐश्वर्ययुक्त बल है || ३८ ।। 

यच्च किंचित्‌ सर्वगतं भूमौ वा यदि वा दिवि | 

तस्याहमीश्वरो नित्य तुष्टेनोक्त: स्वयम्भुवा ।। ३९ ।। 

ब्रह्माजीने संतुष्ट होकर मुझे वरदान दिया है; उसके अनुसार इस भूतलपर, देवलोकमें 
अथवा सब प्राणियोंमें जो कुछ भी है, उन सबका मैं सदा-सर्वदा स्वामी हूँ || ३९ ।। 

अहं जलं विमुज्चामि प्रजानां हितकाम्यया । 

पुष्णाम्योषधय: सर्वा इति सत्यं ब्रवीमि ते ।। ४० ।। 

मैं ही प्रजाओंके हितके लिये पानी बरसाता हूँ और मैं ही सम्पूर्ण ओषधियोंका पोषण 
करता हूँ, यह तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ || ४० ।। 

वैशम्पायन उवाच 


एवं विषादमापचन्नां मन्युना सम्प्रपीडिताम्‌ । 

वरचनैर्मधुरै: श्लक्षणै: सान्त्वयामास तां पिता ।। ४१ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! देवयानी इस प्रकार विषादमें ड्ूबकर क्रोध और 
ग्लानिसे अत्यन्त कष्ट पा रही थी, उस समय पिताने सुन्दर मधुर वचनोंद्वारा उसे 
समझाया ।। ४१ |। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने5ष्टसप्ततितमो 5 ध्याय: 
॥| ७८ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक 
अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७८ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १३ श्लोक मिलाकर कुल ५४ श्लोक हैं) 


भीकम (2 अमान 


एकोनाशीतितमो< ध्याय: 


शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका 
असंतोष 
शुक्र उवाच 

(मम विद्या हि निर्दधन्धा ऐश्वर्य हि फलं मम । 

दैन्यं शाठ्यं च जैह्म्यं च नास्ति मे यदधर्मत: ।।) 

यः परेषां नरो नित्यमतिवादांस्तितिक्षते । 

देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम्‌ ॥। १ ।। 

यः समुत्पतितं क्रोधं निगृह्लाति हयं यथा । 

स यन्तेत्युच्यते सद्धिर्न यो रश्मिषु लम्बते ॥। २ ।। 

शुक्राचार्यने कहा--बेटी! मेरी विद्या द्वन्द्धरहित है। मेरा ऐश्वर्य ही उसका फल है। 
मुझमें दीनता, शठता, कुटिलता और अधर्मपूर्ण बर्ताव नहीं है। देवयानी! जो मनुष्य सदा 
दूसरोंके कठोर वचन (दूसरोंद्वारा की हुई अपनी निन्दा)-को सह लेता है, उसने इस सम्पूर्ण 
जगतपर विजय प्राप्त कर ली, ऐसा समझो। जो उभरे हुए क्रोधको घोड़ेके समान वशमें 
कर लेता है, वही सत्पुरुषोंद्वारा सच्चा सारथि कहा गया है। किंतु जो केवल बागडोर या 
लगाम पकड़कर लटकता रहता है, वह नहीं ।। १-२ ।। 

यः समुत्पतितं क्रोधमक्रोधेन निरस्यति । 

देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम्‌ ।। ३ ।। 

देवयानी! जो उत्पन्न हुए क्रोधको अक्रोध (क्षमाभाव)-के द्वारा मनसे निकाल देता है, 
समझ लो, उसने सम्पूर्ण जगत्‌को जीत लिया ।। ३ ।। 

यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमयेह निरस्यति । 

यथोरगस्त्वचं जीर्णा स वै पुरुष उच्यते ॥। ४ ।। 

जैसे साँप पुरानी केंचुल छोड़ता है, उसी प्रकार जो मनुष्य उभड़नेवाले क्रोधको यहाँ 
क्षमाद्वारा त्याग देता है, वही श्रेष्ठ पुरुष कहा गया है ।। ४ ।। 

यः संधारयते मन्युं योतिवादांस्तितिक्षते । 

यश्न तप्तो न तपति दृढं सो<र्थस्य भाजनम्‌ ।। ५ ।। 

जो क्रोधको रोक लेता है, निन्दा सह लेता है और दूसरेके सतानेपर भी दुःखी नहीं 
होता, वही सब पुरुषार्थोका सुदृढ़ पात्र है ।। ५ ।। 

यो यजेदपरिश्रान्तो मासि मासि शतं समा: । 

नक़्ुद्धेयद्‌ यश्न सर्वस्य तयोरक्रोधनोडधिकः ।। ६ ।। 


जो मनुष्य सौ वर्षोतक प्रत्येक मासमें बिना किसी थकावटके निरन्तर यज्ञ करता रहता 
है और दूसरा जो किसीपर भी क्रोध नहीं करता, उन दोनोंमें क्रोध न करनेवाला ही श्रेष्ठ 
है ।। ६ |। 

(क्ुद्धस्य निष्फलान्येव दानयज्ञतपांसि च | 

तस्मादक्रोधने यज्ञस्तपो दानं महाफलम्‌ ।। 

न पूतो न तपस्वी च न यज्वा न च कर्मवित्‌ । 

क्रोधस्य यो वशं गच्छेत्‌ तस्य लोकद्वयं न च ।। 

पुत्रभृत्यसुहन्मित्रभार्या धर्मश्च सत्यता । 

तस्यैतान्यपयास्यन्ति क्रोधशीलस्य निश्चितम्‌ ।।) 

यत्‌ कुमारा: कुमार्यश्न वैरं कुर्युरचेतस: । 

न तत्‌ प्राज्ञोडनुकुर्वीत न विदुस्ते बलाबलम्‌ ॥। ७ ।। 

क्रोधीके यज्ञ, दान और तप--सभी निष्फल होते हैं। अतः जो क्रोध नहीं करता, उसी 
पुरुषके यज्ञ, तप और दान महान्‌ फल देनेवाले होते हैं। जो क्रोधके वशीभूत हो जाता है, 
वह कभी पवित्र नहीं होता तथा तपस्या भी नहीं कर सकता। उसके द्वारा यज्ञका अनुष्ठान 
भी सम्भव नहीं है और वह कर्मके रहस्यको भी नहीं जानता। इतना ही नहीं, उसके लोक 
और परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। जो स्वभावसे ही क्रोधी है, उसके पुत्र, भृत्स, सुहृद्‌, 
मित्र, पत्नी, धर्म और सत्य--ये सभी निश्चय ही उसे छोड़कर दूर चले जायँगे। अबोध 
बालक और बालिकाएँ अज्ञानवश आपसमें जो वैर-विरोध करते हैं, उसका अनुकरण 
समझदार मनुष्योंको नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे नादान बालक दूसरोंके बलाबलको नहीं 
जानते ।। ७ ।। 


देवयान्युवाच 


वेदाहं तात बालापि धर्माणां यदिहान्तरम्‌ । 

अक्रोधे चातिवादे च वेद चापि बलाबलम्‌ ।। ८ ।। 

देवयानीने कहा--पिताजी! यद्यपि मैं अभी बालिका हूँ फिर भी धर्म-अधर्मका अन्तर 
समझती हूँ। क्षमा और निन्दाकी सबलता और निर्बलताका भी मुझे ज्ञान है ।। ८ ।। 

शिष्यस्याशिष्यवृत्तेस्तु न क्षन्तव्यं बुभूषता । 

तस्मात्‌ संकीर्णवृत्तेषु वासो मम न रोचते ।। ९ ।। 

परंतु जो शिष्य होकर भी शिष्योचित बर्ताव नहीं करता, अपना हित चाहनेवाले गुरुको 
उसकी धृष्टता क्षमा नहीं करनी चाहिये। इसलिये इन संकीर्ण आचार-विचारवाले दानवोंके 
बीच निवास करना अब मुझे अच्छा नहीं लगता ।॥। ९ |। 

पुमांसो ये हि निन्दन्ति वृत्तेनाभिजनेन च । 

न तेषु निवसेत्‌ प्राज्ञ: श्रेयोडर्थी पापबुद्धिषु ।। १० ।॥। 


जो पुरुष दूसरोंके सदाचार और कुलकी निन्दा करते हैं, उन पापपूर्ण विचारवाले 
मनुष्योंमें कल्याणकी इच्छावाले विद्वान्‌ पुरुषको नहीं रहना चाहिये || १० ।। 

ये त्वेममभिजानन्ति वृत्तेनाभिजनेन वा | 

तेषु साधुषु वस्तव्यं स वास: श्रेष्ठ उच्पते || ११ ।। 

जो लोग आचार, व्यवहार अथवा कुलीनताकी प्रशंसा करते हों, उन साधु पुरुषोंमें ही 
निवास करना चाहिये और वही निवास श्रेष्ठ कहा जाता है ।। ११ ।। 

(सुयन्त्रिता वरा नित्यं विहीनाश्न धनैर्नरा: । 

दुर्वत्ता: पापकर्माणश्वाण्डाला धनिनो5पि वा ।। 

अकारणाद ये द्विषन्ति परिवादं वदन्ति च । 

न तत्रास्य निवासो<स्ति पाप्मभि: पापतां व्रजेत्‌ ।। 

सुकृते दुष्कृते वापि यत्र सज्जति यो नर: । 

ध्रुवं रतिर्भवेत्‌ तत्र तस्माद्‌ दोषं न रोचयेत्‌ ।।) 

वाग्‌ दुरुक्त महाघोरें दुहितुर्वषपर्वण: । 

मम मथ्नाति हृदयमग्निकाम इवारणिम्‌ ।। १२ ।। 

धनहीन मनुष्य भी यदि सदा अपने मनपर संयम रखें तो वे श्रेष्ठ हैं और धनवान्‌ भी 
यदि दुराचारी तथा पापकर्मी हों, तो वे चाण्डालके समान हैं। जो अकारण किसीके साथ 
द्वेष करते हैं और दूसरोंकी निन्‍दा करते रहते हैं, उनके बीचमें सत्पुरुषका निवास नहीं होना 
चाहिये; क्योंकि पापियोंके संगसे मनुष्य पापात्मा हो जाता है। मनुष्य पाप अथवा पुण्य 
जिसमें भी आसक्त होता है, उसीमें उसकी दृढ़ प्रीति हो जाती है, इसलिये पापकर्ममें प्रीति 
नहीं करनी चाहिये। तात! वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने जो अत्यन्त भयंकर दुर्वचन कहा है, 
वह मेरे हृदयको मथ रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे अग्नि प्रकट करनेकी इच्छावाला पुरुष 
अरणीकाष्ठका मन्थन करता है ।। १२ ।। 

न हातो दुष्करतरं मन्ये लोकेष्वपि त्रिषु । 

(नि:संशयो विशेषेण परुषं मर्मकृन्तनम्‌ । 

सुहन्मित्रजनास्तेषु सौहदं न च कुर्वते ।।) 

य: सपत्नश्रियं दीप्तां हीनश्री: पर्युपासते । 

मरणं शोभनं तस्य इति विद्वधज्जना विदु: ॥। १३ ।। 

इससे बढ़कर महान्‌ दुःखकी बात मैं अपने लिये तीनों लोकोंमें और कुछ नहीं मानती 
हूँ। इसमें संदेह नहीं कि कटुवचन मर्मस्थलोंको विदीर्ण करनेवाला होता है। कटुवादी 
मनुष्योंसे उनके सगे-सम्बन्धी और मित्र भी प्रेम नहीं करते हैं। जो श्रीहीन होकर शत्रुओंकी 
चमकती हुई लक्ष्मीकी उपासना करता है, उस मनुष्यका तो मर जाना ही अच्छा है; ऐसा 
विद्वान्‌ पुरुष अनुभव करते हैं ।। १३ ।। 

(अवमानमवाप्रोति शनैर्नीचेषु सड़त: । 


वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति 
यैराहत: शोचति रात्र्यहानि । 
शनैर्दु:खं शस्त्रविषाग्निजातं 
तान्‌ पण्डितो नावसजेत्‌ परेषु ।। 
संरोहति शरैरविद्धं वनं परशुना हतम्‌ | 
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्‌ ।।) 
नीच पुरुषोंके संगसे मनुष्य धीरे-धीरे अपमानित हो जाता है। मुखसे जो कटुवचनरूपी 
बाण छूटते हैं, उनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोकमें डूबा रहता है। शस्त्र, विष और 
अग्निसे प्राप्त होनेवाला दुःख शनै:-शनै: अनुभवमें आता है (परंतु कट॒ुवचन तत्काल ही 
अत्यन्त कष्ट देने लगता है)। अतः विद्वान्‌ पुरुषको चाहिये कि वह दूसरोंपर वाग्वाण न 
छोड़े। बाणसे बिंधा हुआ वृक्ष और फरसेसे काटा हुआ जंगल फिर पनप जाता है, परंतु 
वाणीद्वारा जो भयानक कटु वचन निकलता है, उससे घायल हुए हृदयका घाव फिर नहीं 
भरता। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने 
एकोनाशीतितमो<ध्याय: ।। ७९ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक 
उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७९ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १०६३ श्लोक मिलाकर कुल २३३६ *लोक हैं) 


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अशीतितमोब<्ध्याय: 


शुक्राचार्यका वृषपर्वाको फटकारना तथा उसे छोड़कर 
जानेके लिये उद्यत होना और वृषपर्वाके आदेशसे 
शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा 
देवयानीको संतुष्ट करना 


वैशम्पायन उवाच 

ततः काव्यो भृगुश्रेष्ठ; समन्युरुपगम्य ह । 

वृषपर्वाणमासीनमित्युवाचाविचारयन्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! देवयानीकी बात सुनकर भृगुश्रेष्ठ शुक्राचार्य बड़े 
क्रोधमें भरकर वृषपर्वाके समीप गये। वह राजसिंहासनपर बैठा हुआ था। शुक्राचार्यजीने 
बिना कुछ सोचे-विचारे उससे इस प्रकार कहना आरम्भ किया-- ।। १ ।। 

नाधर्मश्नरितो राजन्‌ सद्यः फलति गौरिव । 

शनैरावर्त्यमानो हि कर्तुर्मूलानि कृन्तति ॥। २ ।। 

“राजन! जो अधर्म किया जाता है, उसका फल तुरंत नहीं मिलता। जैसे गायकी सेवा 
करनेपर धीरे-धीरे कुछ कालके बाद वह ब्याती और दूध देती है अथवा धरतीको जोत- 
बोकर बीज डालनेसे कुछ कालके बाद पौधा उगता और यथासमय फल देता है, उसी 
प्रकार किया जानेवाला अधर्म धीरे-धीरे कर्ताकी जड़ काट देता है ।। २ ।। 

पुत्रेषु वा नप्तृषु वा न चेदात्मनि पश्यति । 

फलत्येव ध्रुवं पापं गुरु भुक्तमिवोदरे ।। ३ ।। 

“यदि वह (पापसे उपार्जित द्रव्यका) दुष्परिणाम अपने ऊपर नहीं दिखायी देता तो उस 
अन्‍्यायोपार्जित द्रव्यका उपभोग करनेके कारण पुत्रों अथवा नाती-पोतोंपर अवश्य प्रकट 
होता है। जैसे खाया हुआ गरिष्ठ अन्न तुरंत नहीं तो कुछ देर बाद अवश्य ही पेटमें उपद्रव 
करता है, उसी प्रकार किया हुआ पाप भी निश्चय ही अपना फल देता है” ।। ३ ।। 

(अधीयान हित राजन्‌ क्षमावन्तं जितेन्द्रियम्‌ ।) 

यदघातयिथा विप्रं कचमाड्रिरसं तदा । 

अपापशीलं  धर्मज्ञ शुश्रूषुं मदगृहे रतम्‌ ।। ४ ।। 

“राजन! अंगिराके पौत्र कच विशुद्ध ब्राह्मण हैं। वे स्वाध्याय-परायण, हितैषी, क्षमावान्‌ 
और जितेन्द्रिय हैं, स्वभावसे ही निष्पाप और धर्मज्ञ हैं तथा उन दिनों मेरे घरमें रहकर 
निरन्तर मेरी सेवामें संलग्न थे, परंतु तुमने उनका बार-बार वध करवाया था ।। ४ ।। 

वधादनर्हतस्तस्य वधाच्च दुहितुर्मम । 


वृषपर्वन्‌ निबोधेदं त्यक्ष्यामि त्वां सबान्धवम्‌ । 

स्थातुं त्वद्विषये राजन्‌ न शक्ष्यामि त्ववा सह ।। ५ ।। 

*वृषपर्वन्‌! ध्यान देकर मेरी यह बात सुन लो, तुम्हारे द्वारा पहले वधके अयोग्य 
ब्राह्यणका वध किया गया है और अब मेरी पुत्री देवयानीका भी वध करनेके लिये उसे 
कुएँमें ढकेला गया है। इन दोनों हत्याओंके कारण मैं तुमको और तुम्हारे भाई-बन्धुओंको 
त्याग दूँगा। राजन! तुम्हारे राज्यमें और तुम्हारे साथ मैं एक क्षण भी नहीं ठहर 
सकूँगा ।। ५ ।। 

अहो मामभिजानासि दैत्य मिथ्याप्रलापिनम्‌ | 

यथेममात्मनो दोष॑ न नियच्छस्युपेक्षसे || ६ ।। 

'दैत्यराज! बड़े आश्वर्यकी बात है कि तुमने मुझे मिथ्यावादी समझ लिया। तभी तो तुम 
अपने इस दोषको दूर नहीं करते और लापरवाही दिखाते हो” ।। ६ ।। 

वृषपर्वोवाच 


(यदि ब्रह्मनू घातयामि यदि वा55क्रोशयाम्यहम्‌ । 

शर्मिष्ठया देवयानीं तेन गच्छाम्पयसद्गतिम्‌ ।।) 

वृषपर्वा बोले--ब्रह्मन! यदि मैं शर्मिष्ठासे देवयानीको पिटवाता या तिरस्कृत करवाता 
होऊँ तो इस पापसे मुझे सद्गति न मिले। 

नाधर्म न मृषावादं त्वयि जानामि भार्गव । 

त्वयि धर्मश्च सत्यं च तत्‌ प्रसीदतु नो भवान्‌ ।। ७ ।। 

यद्यस्मानपहाय त्वमितो गच्छसि भार्गव । 

समुद्र सम्प्रवेक्ष्यामो नान्‍्यदस्ति परायणम्‌ ॥। ८ ।। 

भुगुनन्दन! आपपर अधर्म अथवा मिथ्याभाषणका दोष मैंने कभी लगाया हो, यह मैं 
नहीं जानता। आपमें तो सदा धर्म और सत्य प्रतिष्ठित हैं। अतः आप हमलोगोंपर कृपा 
करके प्रसन्न होइये। भार्गव! यदि आप हमें छोड़कर चले जाते हैं तो हम सब लोग समुद्रमें 
समा जायूँगे; हमारे लिये दूसरी कोई गति नहीं है || ७-८ ।। 

(यद्येव देवान्‌ गच्छेस्त्वं मां च त्यक्त्वा ग्रहाधिप । 

सर्वत्यागं ततः कृत्वा प्रविशामि हुताशनम्‌ ।।) 

ग्रहेश्वरर यदि आप मुझे छोड़कर देवताओंके पक्षमें चले जायँगे तो मैं भी सर्वस्व त्याग 
कर जलती आगममें कूद पड़ूँगा। 

शुक्र उवाच 
समुद्र प्रविशध्वं वा दिशो वा द्रवतासुरा: । 
दुहितुर्नाप्रियं सोढुं शक्तो5हं दयिता हि मे ।। ९ ।। 


शुक्राचार्यने कहा--असुरो! तुमलोग समुद्रमें घुस जाओ अथवा चारों दिशाओंमें भाग 
जाओ; मैं अपनी पुत्रीके प्रति किया गया अप्रिय बर्ताव नहीं सह सकता; क्योंकि वह मुझे 
अत्यन्त प्रिय है ।। ९ ।। 
प्रसाद्यतां देवयानी जीवितं यत्र मे स्थितम्‌ । 
योगक्षेमकरस्ते5हमिन्द्रस्पेव बृहस्पति: ।। १० ।। 
तुम देवयानीको प्रसन्न करो, क्योंकि उसीमें मेरे प्राण बसते हैं। उसके प्रसन्न हो जानेपर 
इन्द्रके पुरोहित बृहस्पतिकी भाँति मैं तुम्हारे योगक्षेमका वहन करता रहूँगा || १० ।। 
वृषपर्वोवाच 
यत्‌ किंचिदसुरेन्द्राणां विद्यते वसु भार्गव । 
भुवि हस्तिगवाश्वं च तस्य त्वं मम चेश्वर: ।। ११ ।। 
वृषपर्वा बोले--भृगुनन्दन! असुरेश्वरोंक पास इस भूतलपर जो कुछ भी सम्पत्ति तथा 
हाथी-घोड़े और गाय आदि पशुधन है, उसके और मेरे भी आप ही स्वामी हैं ।। ११ ।। 
शुक्र उवाच 
यत्‌ किंचिदस्ति द्रविणं दैत्येन्द्राणां महासुर । 
तस्येश्वरो5स्मि यद्येषा देवयानी प्रसाद्यताम्‌ ।। १२ ।। 
शुक्राचार्यने कहा--महान्‌ असुर! दैत्यराजोंका जो कुछ भी धन-वैभव है, यदि उसका 
स्वामी मैं ही हूँ तो उसके द्वारा इस देवयानीको प्रसन्न करो || १२ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्तस्तथेत्याह वृषपर्वा महाकवि: । 

देवयान्यन्तिकं गत्वा तमर्थ प्राह भार्गव: ।। १३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! शुक्राचार्यके ऐसा कहनेपर वृषपर्वाने “तथास्तु' 
कहकर उनकी आज्ञा मान ली। तदनन्तर दोनों देवयानीके पास गये और महाकवि 
शुक्राचार्यने वृषपर्वाकी कही हुई सारी बात कह सुनायी ।। १३ ।। 


देवयान्युवाच 


यदि त्वमीश्वरस्तात राज्ञो वित्तस्य भार्गव | 
नाभिजानामि तत्‌ ते5हं राजा तु वदतु स्वयम्‌ ।। १४ ।। 
तब देवयानीने कहा--तात! यदि आप राजाके धनके स्वामी हैं तो आपके कहनेसे मैं 
इस बातको नहीं मानूँगी। राजा स्वयं कहें, तो मुझे विश्वास होगा ।। १४ ।। 
वृषपर्वोवाच 
यं काममभिकामासि देवयानि शुचिस्मिते । 


तत्‌ ते5हं सम्प्रदास्यामि यदि वापि हि दुर्लभम्‌ ॥। १५ ।। 
वृषपर्वा बोले--पवित्र मुसकानवाली देवयानी! तुम जिस वस्तुको पाना चाहती हो, 
वह यदि दुर्लभ हो तो भी तुम्हें अवश्य दूँगा ।। १५ ।। 
देवयान्युवाच 


दासीं कन्यासहस्त्रेण शर्मिष्ठामभिकामये । 
अनु मां तत्र गच्छेत्‌ सा यत्र दद्याच्च मे पिता ।। १६ ।। 
देवयानीने कहा--मैं चाहती हूँ, शर्मिष्ठा एक हजार कन्याओंके साथ मेरी दासी होकर 
रहे और पिताजी जहाँ मेरा विवाह करें, वहाँ भी वह मेरे साथ जाय ।। १६ ।। 
वृषपर्वोवाच 


उत्तिष्ठ त्वं गच्छ धात्रि शर्मिष्ठां शीघ्रमानय । 

यं च कामयते काम॑ देवयानी करोतु तम्‌ ।। १७ ।। 

यह सुनकर वृषपर्वाने धायसे कहा--धात्री! तुम उठो, जाओ और शर्मिष्ठाको शीघ्र 
बुला लाओ एवं देवयानीकी जो कामना हो, उसे वह पूर्ण करे || १७ ।। 

(त्यजेदेक॑ कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्‌ 

ग्रामं जनपदस्यार्थ आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्‌ ।।) 

कुलके हितके लिये एक मनुष्यको त्याग दे। गाँवके भलेके लिये एक कुलको छोड़ दे। 
जनपदके लिये एक गाँवकी उपेक्षा कर दे और आत्मकल्याणके लिये सारी पृथ्वीको त्याग 
दे। 


वैशम्पायन उवाच 


ततो धात्री तत्र गत्वा शर्मिष्ठां वाक्यमब्रवीत्‌ । 

उत्तिष्ठ भद्दे शर्मिछे ज्ञातीनां सुखमावह ।। १८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--तब धायने शर्मिष्ठाके पास जाकर कहा--'भट्रे शर्मिष्ठे! उठो 
और अपने जाति-भाइयोंको सुख पहुँचाओ ।। १८ ।। 

त्यजति ब्राह्मण: शिष्यान्‌ देवयान्या प्रचोदित: । 

सा यं कामयते काम॑ स कार्योड्द्य त्वयानघे ।। १९ ।। 

“पापरहित राजकुमारी! आज बाबा शुक्राचार्य देवयानीके कहनेसे अपने शिष्यों-- 
यजमानोंको त्याग रहे हैं। अतः देवयानीकी जो कामना हो, वह तुम्हें पूर्ण करनी 
चाहिये” || १९ ।। 

शर्मिष्टोवाच 


यं सा कामयते काम॑ करवाण्यहमद्य तम्‌ । 
यद्येवमाह्नयेच्छुक्रो देवयानीकृते हि माम्‌ 


मद्दोषान्मा गमच्छुक्रो देवयानी च मत्कृते ।। २० ।। 
शर्मिष्ठा बोली--यदि इस प्रकार देवयानीके लिये ही शुक्राचार्यजी मुझे बुला रहे हैं तो 
देवयानी जो कुछ चाहती है, वह सब आजसे मैं करूँगी। मेरे अपराधसे शुक्राचार्यजी न 
जायूँ और देवयानी भी मेरे कारण अन्यत्र जानेका विचार न करे || २० ।। 
वैशम्पायन उवाच 


ततः कन्यासहस्त्रेण वृता शिबिकया तदा । 

पितुर्नियोगात्‌ त्वरिता निश्चक्राम पुरोत्तमात्‌ ।। २१ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर पिताकी आज्ञासे राजकुमारी शर्मिष्ठा 
शिबिकापर आरूढ़ हो तुरंत राजधानीसे बाहर निकली। उस समय वह एक सहस्र 
कन्याओंसे घिरी हुई थी ।। २१ ।। 


शर्मिष्ठोवाच 


अहं दासीसहस्त्रेण दासी ते परिचारिका । 

अनु त्वां तत्र यास्यामि यत्र दास्यति ते पिता ॥। २२ ।। 

शर्मिष्ठा बोली--देवयानी! मैं एक सहस्र दासियोंके साथ तुम्हारी दासी बनकर सेवा 
करूँगी और तुम्हारे पिता जहाँ भी तुम्हारा ब्याह करेंगे, वहाँ तुम्हारे साथ चलूँगी || २२ ।। 

देवयान्युवाच 

स्तुवतो दुहिताहं ते याचत: प्रतिगृह्नतः । 

स्तूयमानस्य दुहिता कथं दासी भविष्यसि ।। २३ ।। 

देवयानीने कहा--अरी! मैं तो स्तुति करनेवाले और दान लेनेवाले भिक्षुककी पुत्री हूँ 
और तुम उस बड़े बापकी बेटी हो, जिसकी मेरे पिता स्तुति करते हैं; फिर मेरी दासी बनकर 
कैसे रहोगी || २३ ।। 


शर्मिष्ठोवाच 


येन केनचिदार्तानां ज्ञातीनां सुखमावहेत्‌ । 
अतत्त्वामनुयास्यामि यत्र दास्यति ते पिता ।। २४ ।। 
शर्मिष्ठा बोली--जिस किसी उपायसे भी सम्भव हो, अपने विपदग्रस्त जाति- 
भाइयोंको सुख पहुँचाना चाहिये। अतः तुम्हारे पिता जहाँ तुम्हें देंगे, वहाँ भी मैं तुम्हारे साथ 
चलूँगी || २४ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


प्रतिश्रुते दासभावे दुह्तित्रा वृषपर्वण: । 
देवयानी नृपश्रेष्ठ पितरं वाक्यमब्रवीत्‌ | २५ ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--नृपश्रेष्ठ! जब वृषपर्वाकी पुत्रीने दासी होनेकी प्रतिज्ञा कर 

ली, तब देवयानीने अपने पितासे कहा ।। २५ |। 
देवयान्युवाच 

प्रविशामि पुरं तात तुष्टास्मि द्विजसत्तम । 

अमोघं तव विज्ञानमस्ति विद्याबलं च ते ।। २६ ।। 

देवयानी बोली--पिताजी! अब मैं नगरमें प्रवेश करूँगी। द्विजश्रेष्ठ। अब मुझे विश्वास 
हो गया कि आपका विज्ञान और आपकी विद्याका बल अमोघ है ।। २६ ।। 

वैशग्पायन उवाच 

एवमुक्तो दुहित्रा स द्विजश्रेष्ठी महायशा: । 

प्रविवेश पुरं हृष्ट: पूजित: सर्वदानवै: ॥। २७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! अपनी पुत्री देवयानीके ऐसा कहनेपर 


महायशस्वी द्विजश्रेष्ठ शुक्राचार्यने समस्त दानवोंसे पूजित एवं प्रसन्न होकर नगरमें प्रवेश 
किया ।। २७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्यानेड5शीतितमो<ध्याय: ।। 
८० || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक अस्सीवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८० ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५६ श्लोक मिलाकर कुल ३२३ “लोक हैं) 


नफमशा (0) अमन न 


एकाशीतितमो< ध्याय: 


सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वन-विहार, राजा 
ययातिका आगमन, देवयानीकी उनके साथ बातचीत तथा 
विवाह 


वैशम्पायन उवाच 


अथ दीर्घस्य कालस्य देवयानी नृपोत्तम । 

वन॑ तदेव निर्याता क्रीडार्थ वरवर्णिनी ।। १ ।॥। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात्‌ उत्तम वर्णवाली 
देवयानी फिर उसी वनमें विहारके लिये गयी ।। १ ।। 

तेन दासीसहस््रेण सार्थ शर्मिछ्ठया तदा । 

तमेव देशं सम्प्राप्ता यथाकामं चचार सा ॥ २ ।। 

ताभि: सखीभि: सहिता सर्वाभिमुदिता भृशम्‌ । 

क्रीडन्त्योडभिरता: सर्वा: पिबन्त्यो मधुमाधवीम्‌ ।। ३ ।। 

खादन्त्यो विविधान्‌ भक्ष्यान्‌ विदशन्त्य: फलानि च । 

पुनश्च नाहुषो राजा मृगलिप्सुर्यदृच्छया ।। ४ ।। 

तमेव देशं सम्प्राप्तो जलार्थी श्रमकर्शित: । 

ददृशे देवयानीं स शर्मिष्ठां ताश्न॒ योषित: ।। ५ ।। 

उस समय उसके साथ एक हजार दासियोंसहित शर्मिष्ठा भी सेवामें उपस्थित थी। 
वनके उसी प्रदेशमें जाकर वह उन समस्त सखियोंके साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक 
इच्छानुसार विचरने लगी। वे सभी किशोरियाँ वहाँ भाँति-भाँतिके खेल खेलती हुई आनन्दमें 
मग्न हो गयीं। वे कभी वासन्तिक पुष्पोंके मकरन्दका पान करतीं, कभी नाना प्रकारके 
भोज्य पदार्थोंका स्वाद लेतीं और कभी फल खाती थीं। इसी समय नहुषपुत्र राजा ययाति 
पुनः शिकार खेलनेके लिये दैवेच्छासे उसी स्थानपर आ गये। वे परिश्रम करनेके कारण 
अधिक थक गये थे और जल पीना चाहते थे। उन्होंने देवयानी, शर्मिष्ठा तथा अन्य 
युवतियोंकों भी देखा || २--५ ।। 

पिबन्तीर्ललमानाश्व दिव्याभरणभूषिता: । 

(आसने प्रवरे दिव्ये सर्वाभरण भूषिते ।) 

उपविष्टां च ददृशे देवयानीं शुचिस्मिताम्‌ ।। ६ ।। 

वे सभी दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो पीनेयोग्य रसका पान और भाँति-भाँतिकी 
क्रीड़ाएँ कर रही थीं। राजाने पवित्र मुसकानवाली देवयानीको वहाँ समस्त आभूषणोंसे 


विभूषित परम सुन्दर दिव्य आसनपर बैठी हुई देखा ।। ६ ।। 
रूपेणाप्रतिमां तासां स्त्रीणां मध्ये वराड़नाम्‌ । 
शर्मिष्ठया सेव्यमानां पादसंवाहनादिभि: ।। ७ |। 
उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। वह सुन्दरी उन स्त्रियोंके मध्यमें बैठी हुई थी और 
शर्मिष्ठाद्वारा उसकी चरणसेवा की जा रही थी ।। ७ ।। 
ययातिरुवाच 


द्वाभ्यां कन्‍न्यासहस्राभ्यां द्वे कन्‍्ये परिवारिते । 
गोत्रे च नामनी चैव द्वयो: पृच्छाम्यहं शुभे ॥ ८ ।। 
ययातिने पूछा--दो हजार- कुमारी सखियोंसे घिरी हुई कन्‍्याओ! मैं आप दोनोंके 
गोत्र और नाम पूछ रहा हूँ। शुभे! आप दोनों अपना परिचय दें ।। ८ ।। 
देवयान्युवाच 


आख्यास्याम्यहमादत्स्व वचन मे नराधिप । 

शुक्रो नामासुरगुरु: सुतां जानीहि तस्य माम्‌ ।। ९ ।। 

देवयानी बोली--महाराज! मैं स्वयं परिचय देती हूँ, आप मेरी बात सुनें। असुरोंके जो 
सुप्रसिद्ध गुरु शुक्राचार्य हैं, मुझे उन्हींकी पुत्री जानिये || ९ ।। 

इयं च मे सखी दासी यत्राहं तत्र गामिनी । 

दुहिता दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा वृषपर्वण: ।। १० ।। 

यह दानवराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा मेरी सखी और दासी है। मैं विवाह होनेपर जहाँ 
जाऊँगी, वहाँ यह भी जायगी ।। १० ।। 

ययातिरुवाच 


कथं तु ते सखी दासी कन्येयं वरवर्णिनी । 

असुरेन्द्रसुता सुभ्रू: परं कौतूहलं हि मे ।। ११ ।। 

ययाति बोले--सुन्दरी! यह असुरराजकी रूपवती कन्या सुन्दर भौंहोंवाली शर्मिष्ठा 
आपकी सखी और दासी किस प्रकार हुई? यह बताइये। इसे सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी 
उत्कण्ठा है ।। ११ ।। 


देवयान्युवाच 


सर्व एव नरश्रेष्ठ विधानमनुवर्तते । 

विधानविदितं मत्वा मा विचित्रा: कथा: कृथा: ।। १२ ।। 

देवयानी बोली--नरश्रेष्ठी सब लोग दैवके विधानका ही अनुसरण करते हैं। इसे भी 
भाग्यका विधान मानकर संतोष कीजिये। इस विषयकी विचित्र घटनाओंको न 
पूछिये ।। १२ ।। 


राजवद्‌ रूपवेषौ ते ब्राह्मीं वाच॑ं बिभर्षि च | 
को नाम त्वं कुतश्चासि कस्य पुत्रश्न शंस मे । १३ ।। 
आपके रूप और वेष राजाके समान हैं और आप ब्राह्मी वाणी (विशुद्ध संस्कृत भाषा) 
बोल रहे हैं। मुझे बताइये; आपका क्‍या नाम है, कहाँसे आये हैं और किसके पुत्र 
हैं? ।। १३ ।। 
ययातिरुवाच 
ब्रह्मचर्येण वेदो मे कृत्स्न: श्रुतिपर्थ गत: । 
राजाहूं राजपुत्रश्न ययातिरिति विश्रुत: ।। १४ ।। 
ययातिने कहा--ैंने ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक सम्पूर्ण वेदका अध्ययन किया है। मैं राजा 
नहुषका पुत्र हूँ और इस समय स्वयं राजा हूँ। मेरा नाम ययाति है ।। १४ ।। 
देवयान्युवाच 
केनास्यर्थेन नृपते इमं देशमुपागत: । 
जिधघृक्षुर्वारिजं किंचिदथवा मृगलिप्सया ।। १५ ।। 
देवयानीने पूछा--महाराज! आप किस कार्यसे वनके इस प्रदेशमें आये हैं? आप 
जल अथवा कमल लेना चाहते हैं या शिकारकी इच्छासे ही आये हैं? || १५ ।। 
ययातिरुवाच 
मृगलिप्सुरहं भद्रे पानीयार्थमुपागत: । 
बहुधाप्यनुयुक्तो5स्मि तदनुज्ञातुमहसि ।। १६ ।। 
ययातिने कहा--भटद्रे! मैं एक हिंसक पशुको मारनेके लिये उसका पीछा कर रहा था, 
इससे बहुत थक गया हूँ और पानी पीनेके लिये यहाँ आया हूँ। अत: अब मुझे आज्ञा 
दीजिये || १६ ।। 
देवयान्युवाच 


द्वाभ्यां कन्‍न्यासहस्राभ्यां दास्या शर्मिछ्ठया सह । 

त्वदधीनास्मि भद्रें ते सखा भर्ता च मे भव ।। १७ || 

देवयानीने कहा--राजन! आपका कल्याण हो। मैं दो हजार कन्‍्याओं तथा अपनी 
सेविका शर्मिष्ठाके साथ आपके अधीन होती हूँ। आप मेरे सखा और पति हो 
जायेँ ।। १७ ।। 


ययातिरु्वाच 


विद्धयौशनसि भद्र॑ ते न त्वामहोंडस्मि भाविनि । 
अविवाह्दा हि राजानो देवयानि पितुस्तव ।। १८ ।। 


ययाति बोले--शुक्रनन्दिनी देवयानी! आपका भला हो। भाविनि! मैं आपके योग्य 
नहीं हूँ। क्षत्रियलोग आपके पितासे कन्यादान लेनेके अधिकारी नहीं हैं ।। १८ ।। 
देवयान्युवाच 
संसृष्टं ब्रह्मणा क्षत्रं क्षत्रेण ब्रह्म संहितम्‌ । 
ऋषिश्चाप्यृषिपुत्रश्च नाहुषाड़ वहस्व माम्‌ ।। १९ ।। 
देवयानीने कहा--नहुषनन्दन! ब्राह्मणसे क्षत्रिय जाति और क्षत्रियसे ब्राह्मण जाति 
मिली हुई है। आप राजर्षिके पुत्र हैं और स्वयं भी राजर्षि हैं। अतः मुझसे विवाह 
कीजिये ।। १९ ।। 
ययातिरुवाच 


एकदवेहोद्धवा वर्णश्षृत्वारोडपि वराड़ने । 
पृथग्धर्मा: पृथक्छौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वर: ।। २० ।। 
ययाति बोले--वरांगने! एक ही परमेश्वरके शरीरसे चारों वर्णोंकी उत्पत्ति हुई है; परंतु 
सबके धर्म और शौचाचार अलग-अलग हैं। ब्राह्मण उन सब वर्णोमें श्रेष्ठ हैं ।। २० ।। 
देवयान्युवाच 


पाणिधर्मो नाहुषायं न पुम्भि: सेवित: पुरा । 

त॑ मे त्वमग्रहीरग्रे वृणोमि त्वामहं तत: ।। २१ ।। 

देवयानीने कहा--नहुषकुमार! नारीके लिये पाणिग्रहण एक धर्म है। पहले किसी भी 
पुरुषने मेरा हाथ नहीं पकड़ा था। सबसे पहले आपहीने मेरा हाथ पकड़ा था। इसलिये 
आपटहीका मैं पतिरूपमें वरण करती हूँ || २१ ।। 

कथं नु मे मनस्विन्या: पाणिमन्य: पुमान्‌ स्पृशेत्‌ 

गृहीतमृषिपुत्रेण स्वयं वाप्यूषिणा त्वया || २२ ।। 

मैं मनको वशमें रखनेवाली स्त्री हूँ। आप-जैसे राजर्षिकुमार अथवा राजर्षिद्वारा पकड़े 
गये मेरे हाथका स्पर्श अब दूसरा पुरुष कैसे कर सकता है ।। २२ ।। 


ययातिरुवाच 


क्रुद्धादाशीविषात्‌ सर्पाज्ज्वलनात्‌ सर्वतोमुखात्‌ । 

दुराधर्षतरो विप्रो ज्ञेयः पुंसा विजानता ।। २३ ।। 

ययाति बोले--देवि! विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह ब्राह्मणको क्रोधमें भरे हुए विषधर 
सर्प तथा सब ओरसे प्रज्वलित अग्निसे भी अधिक दुर्धर्ष एवं भयंकर समझे ।। २३ ।। 


देवयान्युवाच 
कथमाशीविषात्‌ सर्पाज्ज्वलनात्‌ सर्वतोमुखात्‌ | 


दुराधर्षतरो विप्र इत्यात्थ पुरुषर्षभ ।। २४ ।। 
देवयानीने कहा--पुरुषप्रवर! ब्राह्मण विषधर सर्प और सब ओरसे प्रज्वलित 
होनेवाली अग्निसे भी दुर्धर्ष एवं भयंकर है, यह बात आपने कैसे कही? ।। २४ ।। 


ययातिरुवाच 


एकमाशीविषो हन्ति शस्त्रेणैकश्ष वध्यते । 

हन्ति विप्र: सराष्ट्राणि पुराण्यपि हि कोपित: ।। २५ ।। 

दुराधर्षतरो विप्रस्तस्माद्‌ भीरु मतो मम । 

अतोउतदत्तां च पित्रा त्वां भद्रे न विवहाम्यहम्‌ ।। २६ ।। 

ययाति बोले--भटद्रे! सर्प एकको ही मारता है, शस्त्रसे भी एक ही व्यक्तिका वध होता 
है; परंतु क्रोधमें भरा हुआ ब्राह्मण समस्त राष्ट्र और नगरका भी नाश कर देता है। भीरु! 
इसलिये मैं ब्राह्मणको अधिक दुर्धर्ष मानता हूँ। अतः जबतक आपके पिता आपको मेरे 
हवाले न कर दें, तबतक मैं आपसे विवाह नहीं करूँगा ।। २५-२६ ।। 


देवयान्युवाच 


दत्तां वहस्व तन्मा त्वं पित्रा राजन्‌ वृतो मया । 

अयाचतो भयं नास्ति दत्तां च प्रतिगृह्नतः ॥। २७ ।। 

(तिष्ठ राजन मुहूर्त तु प्रेषयिष्याम्यहं पितु: । 

देवयानीने कहा--राजन्‌! मैंने आपका वरण कर लिया है, अब आप मेरे पिताके 
देनेपर ही मुझसे विवाह करें। आप स्वयं तो उनसे याचना करते नहीं हैं; उनके देनेपर ही 
मुझे स्वीकार करेंगे। अतः आपको उनके कोपका भय नहीं है। राजन! दो घड़ी ठहर जाइये। 
मैं अभी पिताके पास संदेश भेजती हूँ ।। २७ ।। 

गच्छ त्वं धात्रिके शीघ्र ब्रह्म कल्पमिहानय ।। 

स्वयंवरे वृतं शीघ्रं निवेदय च नाहुषम्‌ ।।) 

धाय! शीघ्र जाओ और मेरे ब्रह्मतुल्य पिताको यहाँ बुला ले आओ। उनसे यह भी कह 
देना कि देवयानीने स्वयंवरकी विधिसे नहुषनन्दन राजा ययातिका पतिरूपमें वरण किया 
है। 

वैशम्पायन उवाच 


त्वरितं देवयान्याथ संदिष्टं पितुरात्मन: । 

सर्व निवेदयामास धात्री तस्मै यथातथम्‌ ।। २८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार देवयानीने तुरंत धायको भेजकर अपने 
पिताको संदेश दिया। धायने जाकर शुक्राचार्यसे सब बातें ठीक-ठीक बता दीं ।। २८ ।। 

श्रुत्वैव च स राजानं दर्शयामास भार्गव: | 


दृष्टवैव चागतं शुक्रे ययाति: पृथिवीपति: । 

वन्‍न्‍्दे ब्राह्मणं काव्यं प्राउजलि: प्रणत: स्थित: ।। २९ ।। 

सब समाचार सुनते ही शुक्राचार्यने वहाँ आकर राजाको दर्शन दिया। विप्रवर 
शुक्राचार्यको आया देख राजा ययातिने उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनम्रभावसे 
खड़े हो गये ।। २९ ।। 


देवयान्युवाच 


राजायं नाहुषस्तात दुर्गमे पाणिमग्रहीत्‌ । 
नमस्ते देहि मामस्मै लोके नान्यं पतिं वृणे | ३० ।। 
देवयानी बोली--तात! ये नहुषपुत्र राजा ययाति हैं। इन्होंने संकटके समय मेरा हाथ 
पकड़ा था। आपको नमस्कार है। आप मुझे इन्हींकी सेवामें समर्पित कर दें। मैं इस जगतमें 
इनके सिवा दूसरे किसी पतिका वरण नहीं करूँगी || ३० ।। 
शुक्र उवाच 
वृतोडनया पतिर्वीर सुतया त्वं ममेष्टया । 
गृहाणेमां मया दत्तां महिषीं नहुषात्मज ।। ३१ ।। 
शुक्राचार्यने कहा--वीर नहुषनन्दन! मेरी इस लाड़ली पुत्रीने तुम्हें पतिरूपमें वरण 
किया है; अतः मेरी दी हुई इस कन्याको तुम अपनी पटरानीके रूपमें ग्रहण करो ।। ३१ ।। 
ययातिरुवाच 


अधर्मो न स्पृशेदेष महान्‌ मामिह भार्गव | 

वर्णसंकरजो ब्रद्वान्निति त्वां प्रवृणोम्पहम्‌ ।। ३२ ।। 

ययाति बोले--भार्गव ब्रह्मन! मैं आपसे यह वर माँगता हूँ कि इस विवाहमें यह प्रत्यक्ष 
दीखनेवाला वर्णसंकरजनित महान्‌ अधर्म मेरा स्पर्श न करे || ३२ ।। 

शुक्र उवाच 

अधर्मात्‌ त्वां विमुज्चामि वृणु त्वं वरमीप्सितम्‌ | 

अस्मिन्‌ विवाहे मा म्लासीरहं पापं नुदामि ते | ३३ ।। 

शुक्राचार्यने कहा--राजन! मैं तुम्हें अधर्मसे मुक्त करता हूँ; तुम्हारी जो इच्छा हो वर 
माँग लो। इस विवाहको लेकर तुम्हारे मनमें ग्लानि नहीं होनी चाहिये। मैं तुम्हारे सारे पापको 
दूर करता हूँ ।। ३३ ।। 

वहस्व भार्या धर्मेण देवयानीं सुमध्यमाम्‌ | 

अनया सह सम्प्रीतिमतुलां समवाप्लुहि ।। ३४ ।। 

तुम सुन्दरी देवयानीको धर्मपूर्वक अपनी पत्नी बनाओ और इसके साथ रहकर अतुल 
सुख एवं प्रसन्नता प्राप्त करो ।। ३४ ।। 


इयं चापि कुमारी ते शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी । 

सम्पूज्या सततं राजन्‌ मा चैनां शयने ह्वये: ।। ३५ ।। 

महाराज! वृषपर्वाकी पुत्री यह कुमारी शर्मिष्ठा भी तुम्हें समर्पित है। इसका सदा आदर 
करना, किंतु इसे अपनी सेजपर कभी न बुलाना ।। ३५ |। 

(रहस्थेनां समाहूय न वर्दे्न च संस्पृशे: । 

वहस्व भार्या भद्रें ते यथाकाममवाप्स्यसि ।।) 

तुम्हारा कल्याण हो। इस शर्मिष्ठाको एकान्तमें बुलाकर न तो इससे बात करना और न 
इसके शरीरका स्पर्श ही करना। अब तुम विवाह करके इसे अपनी पत्नी बनाओ। इससे 
तुम्हें इच्छानुसार फलकी प्राप्ति होगी। 

वैशम्पायन उवाच 

एवमुक्तो ययातिस्तु शुक्र कृत्वा प्रदक्षिणम्‌ । 

शास्त्रोक्तविधिना राजा विवाहमकरोच्छुभम्‌ ।। ३६ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! शुक्राचार्यके ऐसा कहनेपर राजा ययातिने 
उनकी परिक्रमा की और शास्त्रोक्त विधिसे मंगलमय विवाह-कार्य सम्पन्न किया ।। ३६ ।। 

लब्ध्वा शुक्रान्महद्‌ वित्तं देवयानीं तदोत्तमाम्‌ | 

द्विसहस्रेण कन्यानां तथा शर्मिष्ठया सह ।। ३७ ।। 

सम्पूजितश्न शुक्रेण दैत्यैश्न नृपसत्तम: । 

जगाम स्वपुरं हृष्टोडनुज्ञातो5थ महात्मना ॥। ३८ ।। 

शुक्राचार्यसे देवयानी-जैसी उत्तम कन्या, शर्मिष्ठा और दो हजार अन्य कन्याओं तथा 
महान्‌ वैभवको पाकर दैत्यों एवं शुक्राचार्यसे पूजित हो, उन महात्माकी आज्ञा ले नृपश्रेष्ठ 
ययाति बड़े हर्षके साथ अपनी राजधानीको गये ।। ३७-३८ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने एकाशीतितमो<ध्याय: 
॥॥ ८१ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत ययात्युपाख्यानविषयक इक्यासीवाँ अध्याय 
पूरा हुआ ॥/ ८१ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ४१ श्लोक हैं) 


ऑपन-आक्राा बछ। अर: 


- किन्हीं श्लोकोंमें दो हजार और किन्हींमें एक हजार सखियोंका वर्णन आता है। यथावसर दोनों ठीक हैं। 


द्रयशीतितमो< ध्याय: 


ययातिसे देवयानीको पुत्र-प्राप्ति; ययाति और शर्मिष्ठाका 
एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म 


वैशम्पायन उवाच 

ययातिः: स्वपुरं प्राप्य महेन्द्रपुरसंनि भम्‌ । 

प्रविश्यान्त:पुरं तत्र देवयानीं न्‍्यवेशयत्‌ ।। १ ।। 

देवयान्याश्चानुमते सुतां तां वृषपर्वण: । 

अशोकवनिकाशभ्याशे गृहं कृत्वा न्यवेशयत्‌ ।। २ ।। 

वृतां दासीसहस्रेण शर्मिष्ठां वार्षपर्वणीम्‌ । 

वासोभिरन्नपानैश्न संविभज्य सुसत्कृताम्‌ ।। ३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ययातिकी राजधानी महेन्द्रपुरी (अमरावती)-के 
समान थी। उन्होंने वहाँ आकर देवयानीको तो अन्तःपुरमें स्थान दिया और उसीकी 
अनुमतिसे अशोकवाटिकाके समीप एक महल बनवाकर उसमें वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाको 
उसकी एक हजार दासियोंके साथ ठहराया और उन सबके लिये अन्न, वस्त्र तथा पेय 
आदिकी अलग-अलग व्यवस्था करके शर्मिष्ठाका समुचित सत्कार किया ।। १--३ ।। 

(अशोकवनिकाम ध्ये देवयानी समागता । 

शर्मिष्ठया सा क्रीडित्वा रमणीये मनोरमे ।। 

तत्रैव तां तु निर्दिश्य राज्ञा सह ययौ गृहम्‌ । 

एवमेव सह प्रीत्या मुमुदे बहुकालतः ।।) 

देवयानी ययातिके साथ परम रमणीय एवं मनोरम अशोकवाटिकामें आती और 
शर्मिष्ठाके साथ वन-विहार करके उसे वहीं छोड़कर स्वयं राजाके साथ महलमें चली जाती 
थी। इस तरह वह बहुत समयतक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द भोगती रही। 

देवयान्या तु सहित: स नृपो नहुषात्मज: । 

विजहार बहूनब्दान्‌ देववन्मुदित: सुखी ।। ४ ।। 

नहुषकुमार राजा ययातिने देवयानीके साथ बहुत वर्षोंतक देवताओंकी भाँति विहार 
किया। वे उसके साथ बहुत प्रसन्न और सुखी थे ।। ४ ।। 

ऋतुकाले तु सम्प्राप्ते देवयानी वराड़ना । 

लेभे गर्भ प्रथमत: कुमारं च व्यजायत ।॥। ५ ।। 

ऋतुकाल आनेपर सुन्दरी देवयानीने गर्भ धारण किया और समयानुसार प्रथम पुत्रको 
जन्म दिया || ५ ।। 


गते वर्षसहस्रे तु शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी । 

ददर्श यौवन प्राप्ता ऋतुं सा चान्वचिन्तयत्‌ ।। ६ ।। 

इस प्रकार एक हजार वर्ष व्यतीत हो जानेपर युवावस्थाको प्राप्त हुई वृषपर्वाकी पुत्री 
शर्मिष्ठाने अपनेको रजस्वलावस्थामें देखा और चिन्तामग्न हो गयी ।। ६ ।। 

(शुद्धा स्नाता तु शर्मिष्ठा सर्वालंकारभूषिता । 

अशोकशाखामालम्ब्य सुफुल्लै: स्तबकैर्व॑ताम्‌ ।। 

आदर्शे मुखमुद्वीक्ष्य भर्तृदर्शनलालसा । 

शोकमोहसमाविष्टा वचनं चेदमब्रवीत्‌ ।। 

अशोक शोकापनुद शोकोपहतचेतसाम्‌ । 

त्वज्नामानं कुरु क्षिप्रं प्रियसंदर्शनाद्धि माम्‌ ।। 

एवमुक्तवती सा तु शर्मिष्ठा पुनरब्रवीत्‌ ।।) 

स्नान करके शुद्ध हो समस्त आभूषणोंसे विभूषित हुई शर्मिष्ठा सुन्दर पुष्पोंके गुच्छोंसे 
भरी अशोक-शाखाका आश्रय लिये खड़ी थी। दर्पणमें अपना मुँह देखकर उसके मनमें 
पतिके दर्शनकी लालसा जाग उठी और वह शोक एवं मोहसे युक्त हो इस प्रकार बोली-- हे 
अशोक वृक्ष! जिनका हृदय शोकमें डूबा हुआ है, उन सबके शोकको तुम दूर करनेवाले हो। 
इस समय मुझे प्रियतमका दर्शन कराकर अपने ही जैसे नामवाली बना दो' ऐसा कहकर 
शर्मिष्ठा फिर बोली-- । 

ऋतुकालश्व सम्प्राप्तो न च मे5स्ति पतिर्वृत: । 

किं प्राप्तं कि नु कर्तव्यं कि वा कृत्वा कृतं भवेत्‌ ।॥ ७ ।। 

“मुझे ऋतुकाल प्राप्त हो गया; किंतु अभीतक मैंने पतिका वरण नहीं किया है। यह 
कैसी परिस्थिति आ गयी। अब क्या करना चाहिये अथवा क्‍या करनेसे सुकृत (पुण्य) 
होगा ।। ७ ।। 

देवयानी प्रजातासौ वृथाहं प्राप्तयौवना । 

यथा तया वृतो भर्ता तथैवाहं वृणोमि तम्‌ ॥। ८ ।। 

“देवयानी तो पुत्रवती हो गयी; किंतु मुझे जो जवानी मिली है, वह व्यर्थ जा रही है। 
जिस प्रकार उसने पतिका वरण किया है, उसी तरह मैं भी उन्हीं महाराजका क्यों न पतिके 
रूपमें वरण कर लूँ ।। ८ ।। 

राज्ञा पुत्रफलं देयमिति मे निश्चिता मतिः । 

अपीदानीं स धर्मात्मा इयान्मे दर्शनं रह: ।। ९ ।। 

“मेरे याचना करनेपर राजा मुझे पुत्ररूप फल दे सकते हैं, इस बातका मुझे पूरा विश्वास 
है; परंतु कया वे धर्मात्मा नरेश इस समय मुझे एकान्तमें दर्शन देंगे?” ।। ९ ।। 

अथ निष्क्रम्य राजासौ तस्मिन्‌ काले यदृच्छया । 

अशोकवनिकाशभ्याशे शर्मिष्षां प्रेक्ष्य विछ्ठित: ।। १० ।। 


शर्मिष्ठा इस प्रकार विचार कर ही रही थी कि राजा ययाति उसी समय दैववश महलसे 
बाहर निकले और अशोकवाटिकाके निकट शर्मिष्ठाको देखकर ठहर गये ।। १० ।। 

तमेकं रहिते दृष्टवा शर्मिष्ठा चारुहासिनी । 

प्रत्युदगम्याञ्जलिं कृत्वा राजानं वाक्यमब्रवीत्‌ ।। ११ ।। 

मनोहर हासवाली शर्मिष्ठाने उन्हें एकान्तमें अकेला देख आगे बढ़कर उनकी अगवानी 
की तथा हाथ जोड़कर राजासे यह बात कही ।॥। ११ |। 


शर्मिष्ोवाच 


सोमस्येन्द्रस्य विष्णोर्वा यमस्य वरुणस्य च । 

तव वा नाहुष गृहे कः स्त्रियं द्रष्टमहति ।। १२ ।। 

रूपाभिजनशीलिै हि त्वं राजन्‌ वेत्थ मां सदा । 

सात्वां याचे प्रसाद्याहमृतुं देहि नराधिप ।। १३ ।। 

शर्मिष्ठाने कहा--नहुषनन्दन! चन्द्रमा, इन्द्र, विष्णु, यम, वरुण अथवा आपके महलमें 
कौन किसी स्त्रीकी ओर दृष्टि डाल सकता है? (अतएव यहाँ मैं सर्वथा सुरक्षित हूँ) 
महाराज! मेरे रूप, कुल और शील कैसे हैं, यह तो आप सदासे ही जानते हैं। मैं आज 
आपको प्रसन्न करके यह प्रार्थना करती हूँ कि मुझे ऋतुदान दीजिये--मेरे ऋतुकालको 
सफल बनाइये ।। १२-१३ ।। 


ययातिरुवाच 


वेझि त्वां शीलसम्पन्नां दैत्यकन्यामनिन्दिताम्‌ । 

रूपं च ते न पश्यामि सूच्यग्रमपि निन्दितम्‌ । १४ ।। 

ययातिने कहा--शर्मिष्ठे! तुम दैत्यायाजकी सुशील और निर्दोष कन्या हो। मैं तुम्हें 
अच्छी तरह जानता हूँ। तुम्हारे शरीर अथवा रूपमें सूईकी नोक बराबर भी ऐसा स्थान नहीं 
है, जो निन्दाके योग्य हो ।। १४ ।। 

अब्रवीदुशना काव्यो देवयानीं यदावहम्‌ | 

नेयमाह्नयितव्या ते शयने वार्षपर्वणी ।। १५ ।। 

परंतु क्या करूँ; जब मैंने देवयानीके साथ विवाह किया था, उस समय कपविपुत्र 
शुक्राचार्यने मुझसे स्पष्ट कहा था कि *वृषपर्वाकी पुत्री इस शर्मिष्ठाकों अपनी सेजपर न 
बुलाना' | १५ || 


शर्मिष्टोवाच 
न नर्मयुक्ते वचनं हिनस्ति 
न स्त्रीषु राजन्‌ न विवाहकाले | 
प्राणात्यये सर्वधनापहारे 


पज्चानृतान्याहुरपातकानि ।। १६ ।। 
शर्मिष्ठाने कहा--राजन्‌! परिहासयुक्त वचन असत्य हो तो भी वह हानिकारक नहीं 
होता। अपनी स्त्रियोंके प्रति, विवाहके समय, प्राणसंकटके समय तथा सर्वस्वका अपहरण 
होते समय यदि कभी विवश होकर असत्य भाषण करना पड़े तो वह दोषकारक नहीं होता। 
ये पाँच प्रकारके असत्य पापशून्य बताये गये हैं ।। १६ ।। 
पृष्टं तु साक्ष्ये प्रवदन्तमन्य था 
वदन्ति मिथ्या पतितं नरेन्द्र । 
एकार्थतायां तु समाहितायां 
मिथ्या वदन्तं त्वनृतं हिनस्ति ।। १७ ।। 
महाराज! किसी निर्दोष प्राणीका प्राण बचानेके लिये गवाही देते समय किसीके 
पूछनेपर अन्यथा (असत्य) भाषण करनेवालेको यदि कोई पतित कहता है तो उसका कथन 
मिथ्या है। परंतु जहाँ अपने और दूसरे दोनोंके ही प्राण बचानेका प्रसंग उपस्थित हो, वहाँ 
केवल अपने प्राण बचानेके लिये मिथ्या बोलनेवालेका असत्यभाषण उसका नाश कर देता 
है ।। १७ || 
ययातिरुवाच 


राजा प्रमाणं भूतानां स नश्येत मृषा वदन्‌ | 
अर्थकृच्छुमपि प्राप्य न मिथ्या कर्तुमुत्सहे ।। १८ ।। 
ययाति बोले--देवि! सब प्राणियोंके लिये राजा ही प्रमाण है। वह यदि झूठ बोलने 
लगे तो उसका नाश हो जाता है। अत: अर्थ-संकटमें पड़नेपर भी मैं झूठा काम नहीं कर 
सकता ।। १८ ।। 
शर्मिष्टोवाच 


समावेतौ मतौ राजन्‌ पति: सख्याश्न यः पति: । 

सम॑ विवाहमित्याहु: सख्या मेडसि वृत: पति: ।। १९ ।। 

शर्मिष्ठाने कहा--राजन्‌! अपना पति और सखीका पति दोनों बराबर माने गये हैं। 
सखीके साथ ही उसकी सेवामें रहनेवाली दूसरी कन्याओंका भी विवाह हो जाता है। मेरी 
सखीने आपको अपना पति बनाया है, अतः मैंने भी बना लिया ।। १९ |। 

(सह दत्तास्मि काव्येन देवयान्या महर्षिणा । 

पूज्या पोषयितव्येति न मृषा कर्तुमहसि ।। 

सुवर्णमणिरत्नानि वस्त्राण्याभरणानि च । 

याचितृणां ददासि त्वं गोभूम्यादीनि यानि च ।। 

वाहिकं दानमित्युक्त न शरीराश्रितं नृप । 

दुष्करं पुत्रदानं च आत्मदानं च दुष्करम्‌ ।। 


शरीरदानातू तत्‌ सर्व दत्त भवति नाहुष । 

यस्य यस्य यथा कामस्तस्य तस्य ददाम्यहम्‌ ।। 

इत्युक्त्वा नगरे राजंस्त्रिकालं घोषितं त्वया ।। 

अनुृतं तत्तु राजेन्द्र वृथा घोषितमेव च । 

तत्‌ सत्यं कुरु राजेन्द्र यथा वैश्रवणस्तथा ।।) 

राजन! महर्षि शुक्राचार्यने देवयानीके साथ मुझे भी यह कहकर आपको समर्पित 
किया है कि तुम इसका भी पालन-पोषण और आदर करना। आप उनके वचनको मिथ्या न 
करें। महाराज! आप प्रतिदिन याचकोंको जो सुवर्ण, मणि, रत्न, वस्त्र, आभूषण, गौ और 
भूमि आदि दान करते हैं, वह बाह्य दान कहा गया है। वह शरीरके आश्रित नहीं है। पुत्रदान 
और शरीरदान अत्यन्त कठिन है। नहुषनन्दन! शरीरदानसे उपर्युक्त सब दान सम्पन्न हो 
जाता है। राजन्‌! “जिसकी जैसी इच्छा होगी उस-उस मनुष्यको मैं मुँहमाँगी वस्तु दूँगा” ऐसा 
कहकर आपने नगरमें जो तीनों समय दानकी घोषणा करायी है, वह मेरी प्रार्थना ठुकरा 
देनेपर झूठी सिद्ध होगी। वह सारी घोषणा ही व्यर्थ समझी जायगी। राजेन्द्र! आप कुबेरकी 
भाँति अपनी उस घोषणाको सत्य कीजिये। 


ययातिरुवाच 


दातव्यं याचमाने भ्य इति मे व्रतमाहितम्‌ । 
त्वं च याचसि मां काम॑ ब्रूहि कि करवाणि ते ।। २० ।। 
ययाति बोले--याचकोंको उनकी अभीष्ट वस्तुएँ दी जाय, ऐसा मेरा व्रत है। तुम भी 
मुझसे अपने मनोरथकी याचना करती हो; अतः बताओ मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य 
करूँ? || २० ।। 
शर्मिष्टोवाच 


अधर्मात्‌ पाहि मां राजन्‌ धर्म च प्रतिपादय । 

त्वत्तो5पत्यवती लोके चरेयं धर्ममुत्तमम्‌ ॥। २१ ।। 

शर्मिष्ठाने कहा--राजन्‌! मुझे अधर्मसे बचाइये और धर्मका पालन कराइये। मैं चाहती 
हूँ, आपसे संतानवती होकर इस लोकमें उत्तम धर्मका आचरण करूँ || २१ ।। 

त्रय एवाधना राजन्‌ भार्या दासस्तथा सुतः । 

यत्‌ ते समधिगच्छन्ति यस्यैते तस्य तद्‌ धनम्‌ ।। २२ ।। 

महाराज! तीन व्यक्ति धनके अधिकारी नहीं हैं--पत्नी, दास और पुत्र। ये जो धन 
प्राप्त करते हैं वह उसीका होता है जिसके अधिकारमें ये हैं। अर्थात्‌ पत्नीके धनपर पतिका, 
सेवकके धनपर स्वामीका और पुत्रके धनपर पिताका अधिकार होता है || २२ ।। 

देवयान्या भुजिष्यास्मि वश्या च तव भार्गवी । 

सा चाहं च त्वया राजन्‌ भजनीये भजस्व माम्‌ ॥। २३ ।। 


मैं देवयानीकी सेविका हूँ और वह आपके अधीन है; अतः राजन! वह और मैं दोनों ही 
आपके सेवन करनेयोग्य हैं। अत: मेरा सेवन कीजिये ।। २३ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्तस्तु राजा स तथ्यमित्यभिजज्ञिवान्‌ 

पूजयामास शर्मिष्ठां धर्म च प्रत्यपादयत्‌ ।। २४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--शर्मिष्ठके ऐसा कहनेपर राजाने उसकी बातोंको ठीक 
समझा। उन्होंने शर्मिष्ठाका सत्कार किया और धर्मानुसार उसे अपनी भार्या 
बनाया ।। २४ ।। 

स समागम्य शर्मिष्ठां यथाकाममवाप्य च | 

अन्योन्यं चाभिसम्पूज्य जग्मतुस्तीौ यथागतम्‌ ।। २५ ।। 

फिर शर्मिष्ठाके साथ समागम किया और इच्छानुसार कामोपभोग करके एक-दूसरेका 
आदर-सत्कार करनेके पश्चात्‌ दोनों जैसे आये थे वैसे ही अपने-अपने स्थानपर चले 
गये ।। २५ ।। 

तस्मिन्‌ समागमे सुभू: शर्मिष्ठा चारुहासिनी । 

लेभे गर्भ प्रथमतस्तस्मान्नपतिसत्तमात्‌ ।। २६ ।। 

सुन्दर भौंह तथा मनोहर मुसकानवाली शर्मिष्ठाने उस समागममें नृपश्रेष्ठ ययातिसे 
पहले-पहल गर्भ धारण किया ।। २६ ।। 

प्रजज्ञे च ततः काले राजन्‌ राजीवलोचना । 

कुमारं देवगर्भाभं राजीवनिभलोचनम्‌ ।। २७ ।। 

जनमेजय! तदनन्तर समय आनेपर कमलके समान नेत्रोंवाली शर्मिष्ठाने देवबालक- 
जैसे सुन्दर एक कमलनयन कुमारको उत्पन्न किया ।। २७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने द्यशीतितमो< ध्याय: 
॥॥ ८२ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वनें ययात्युपाख्यानविषयक 
बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८२ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ११ श्लोक मिलाकर कुल ३८ श्लोक हैं) 


ऑपन-आ प्रात बछ। अर: 2 


तग्रय्शीतितमो<ध्याय: 


देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र 
होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठकर पिताके पास 
जाना, शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना 


वैशम्पायन उवाच 


श्रुत्वा कुमारं जातं तु देवयानी शुचिस्मिता । 

चिन्तयामास दु:खार्ता शर्मिष्ठां प्रति भारत ।। १ ।। 

अभिगम्य च शर्मिष्ठां देवयान्यब्रवीदिदम्‌ । 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पवित्र मुसकानवाली देवयानीने जब सुना कि 
शर्मिष्ठाके पुत्र हुआ है, तब वह दुःखसे पीड़ित हो शर्मिष्ठाके व्यवहारको लेकर बड़ी चिन्ता 
करने लगी। वह शर्मिष्ठाके पास गयी और इस प्रकार बोली ।। १६ ।। 


देवयान्युवाच 


किमिदं वृजिनं सुभ्रु कृतं वै कामलुब्धया ।। २ ।। 
देवयानीने कहा--सुन्दर भौंहोंवाली शर्मिष्ठे! तुमने कामलोलुप होकर यह कैसा पाप 
कर डाला? ।। २ || 


शर्मिष्ोवाच 


ऋषिरभ्यागत: कश्रिद्‌ धर्मात्मा वेदपारग: । 

स मया वरद: काम याचितो धर्मसंहितम्‌ ।। ३ ।। 

शर्मिष्ठा बोली--सखी! कोई धर्मात्मा ऋषि आये थे, जो वेदोंके पारंगत विद्वान्‌ थे। 
मैंने उन वरदायक ऋषिसे धर्मानुसार कामकी याचना की ।। ३ ।। 

नाहमन्यायत: काममाचरामि शुचिस्मिते । 

तस्मादृषेर्ममापत्यमिति सत्यं ब्रवीमि ते ।। ४ ।। 

शुचिस्मिते! मैं न्यायविरुद्ध कामका आचरण नहीं करती। उन ऋषिसे ही मुझे संतान 
पैदा हुई है, यह तुमसे सत्य कहती हूँ ।। ४ ।। 

देवयान्युवाच 


शोभनं भीरु यद्येवमथ स ज्ञायते द्विज: । 

गोत्रनामाभिजनतो वेत्तुमिच्छामि तं॑ द्विजम्‌ ।। ५ ।। 

देवयानीने कहा--भीरु! यदि ऐसी बात है तो बहुत अच्छा हुआ। क्या उन द्विजके 
गोत्र, नाम और कुलका कुछ परिचय मिला है? मैं उनको जानना चाहती हूँ ।। ५ ।। 


शर्मिष्शोवाच 


तपसा तेजसा चैव दीप्यमानं यथा रविम्‌ | 
त॑ दृष्टवा मम सम्प्रष्टं शक्तिनासीच्छुचिस्मिते ।। ६ ।। 
शर्मिष्ठा बोली--शुचिस्मिते! वे अपने तप और तेजसे सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहे 
थे। उन्हें देखकर मुझे कुछ पूछनेका साहस ही नहीं हुआ ।। ६ ।। 
देवयान्युवाच 


यद्येतदेवं शर्मिछे न मन्युर्विद्यते मम । 

अपत्यं यदि ते लब्धं ज्येष्ठाच्छेष्ठाच्च वै द्विजात्‌ ।। ७ ।। 

देवयानीने कहा--शर्मिष्ठे! यदि ऐसी बात है; यदि तुमने ज्येष्ठ और श्रेष्ठ द्विजसे संतान 
प्राप्त की है तो तुम्हारे ऊपर मेरा क्रोध नहीं रहा ।। ७ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


अन्योन्यमेवमुक्‍त्वा तु सम्प्रहस्य च ते मिथ: । 

जगाम भार्गवी वेश्म तथ्यमित्यवजग्मुषी ।। ८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! वे दोनों आपसमें इस प्रकार बातें करके हँस 
पड़ीं। देवयानीको प्रतीत हुआ कि शर्मिष्ठा ठीक कहती है; अत: वह चुपचाप महलमें चली 
गयी ।। ८ ।। 

ययातिर्देवयान्यां तु पुत्रावजनयन्नूप: । 

यदुं च तुर्वसुं चैव शक्रविष्णू इवापरौ ।। ९ ।। 

राजा ययातिने देवयानीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम थे यदु और तुर्वसु। 
वे दोनों दूसरे इन्द्र और विष्णुकी भाँति प्रतीत होते थे ।। ९ ।। 

तस्मादेव तु राजर्षे: शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी । 

| चानुं च पूरुं च त्रीन्‌ कुमारानजीजनत्‌ ।। १० ।। 
उन्ही राजर्षिसे वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने तीन पुत्रोंको जन्म दिया, जिनके नाम थे द्रुह्मु, 

अनु और पूरु ।। १० ।। 

ततः काले तु कम्मिंश्चिद्‌ देवयानी शुचिस्मिता । 

ययातिसहिता राजञ्जगाम रहित॑ वनम्‌ ।। ११ ।। 

राजन्‌! तदनन्तर किसी समय पवित्र मुसकानवाली देवयानी ययातिके साथ एकान्त 
वनमें गयी ।। ११ ।। 

ददर्श च तदा तत्र कुमारान्‌ देवरूपिण: । 

क्रीडमानान्‌ सुविश्रब्धान्‌ विस्मिता चेदमब्रवीत्‌ ।। १२ ।। 

वहाँ उसने देवताओंके समान सुन्दर रूपवाले कुछ बालकोंको निर्भय होकर क्रीड़ा 
करते देखा। उन्हें देखकर आश्वर्यचकित हो वह इस प्रकार बोली ।। १२ ।। 


देवयान्युवाच 
कस्यैते दारका राजन देवपुत्रोपमा: शुभा: । 
वर्चसा रूपतश्वैव सदृशा मे मतास्तव ।। १३ ।। 
देवयानीने पूछा--राजन! ये देवबालकोंके तुल्य शुभ लक्षणसम्पन्न कुमार किसके हैं? 
तेज और रूपमें तो ये मुझे आपहीके समान जान पड़ते हैं || १३ ।। 
वैशम्पायन उवाच 
एवं पृष्टवा तु राजानं कुमारान्‌ पर्यपृच्छत । 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजासे इस प्रकार पूछकर उसने उन कुमारोंसे 
प्रश्न किया || १३६ ।। 
देवयान्युवाच 
कि नामधेयं वंशो व: पुत्रका: कश्न वः पिता । 
प्रत्रूत मे यथातथ्यं श्रोतुमिच्छामि त॑ हाहम्‌ ।। १४ ।। 
देवयानीने पूछा--बच्चो! तुम्हारे कुलका कया नाम है? तुम्हारे पिता कौन हैं? यह मुझे 
ठीक-ठीक बताओ मैं तुम्हारे पिताका नाम सुनना चाहती हूँ ।। १४ ।। 
(एवमुक्ता: कुमारास्ते देवयान्या सुमध्यमा ।) 
तेडदर्शयन्‌ प्रदेशिन्या तमेव नृपसत्तमम्‌ | 
शर्मिष्ठां मातरं चैव तथा5<चख्युश्न॒ दारका: ।। १५ || 
सुन्दरी देवयानीके इस प्रकार पूछनेपर उन बालकोंने पिताका परिचय देते हुए तर्जनी 
अँगुलीसे उन्हीं नृपश्रेष्ठ ययातिको दिखा दिया और शर्मिष्ठाको अपनी माता 
बताया ।। १५ || 
वैशम्पायन उवाच 
इत्युक्त्वा सहितास्ते तु राजानमुपचक्रमु: । 
नाभ्यनन्दत तान्‌ राजा देवयान्यास्तदान्तिके ।। १६ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--ऐसा कहकर वे सब बालक एक साथ राजाके समीप आ 
गये; परंतु उस समय देवयानीके निकट राजाने उनका अभिनन्दन नहीं किया--उन्हें गोदमें 
नहीं उठाया ।। १६ ।। 





रुदन्तस्ते5थ शर्मिष्ठामभ्ययुर्बालकास्तत: । 

श्र॒ुत्वा तु तेषां बालानं सब्रीड इव पार्थिव: ।। १७ ।। 

तब वे बालक रोते हुए शर्मिष्ठाके पास चले गये। उनकी बातें सुनकर राजा ययाति 
लज्जित-से हो गये ।। १७ ।। 

दृष्टवा तु तेषां बालानां प्रणयं पार्थिवं प्रति । 

बुद्ध्वा च तत्त्वं सा देवी शर्मिष्ठामिदमब्रवीत्‌ ।। १८ ।। 

उन बालकोंका राजाके प्रति विशेष प्रेम देखकर देवयानी सारा रहस्य समझ गयी और 
शर्मिष्ठासे इस प्रकार बोली ।। १८ ।। 


देवयान्युवाच 


(अभ्यागच्छति मां कश्रिदृषिरित्येवमब्रवी: | 

ययातिमेव नूनं॑ त्वं प्रोत्माहयसि भामिनि ।। 

पूर्वमेव मया प्रोक्तं त्वया तु वृजिनं कृतम्‌ ।) 

मदधीना सती कस्मादकार्षीविप्रियं मम । 

तमेवासुरधर्म त्वमास्थिता न बिभेषि मे ।। १९ ।। 

देवयानी बोली--भामिनि! तुम तो कहती थीं कि मेरे पास कोई ऋषि आया करते हैं। 
यह बहाना लेकर तुम राजा ययातिको ही अपने पास आनेके लिये प्रोत्साहन देती रहीं। मैंने 


पहले ही कह दिया था कि तुमने कोई पाप किया है। शर्मिष्ठे! तुमने मेरे अधीन होकर भी 
मुझे अप्रिय लगनेवाला बर्ताव क्‍यों किया? तुम फिर उसी असुर-धर्मपर उतर आयीं। मुझसे 
डरती भी नहीं हो? ।। १९ ।। 

शर्मिष्टोवाच 


यदुक्तमृषिरित्येव तत्‌ सत्यं चारुहासिनि । 

न्यायतो धर्मतश्चैव चरन्ती न बिभेमि ते ।। २० ।। 

शर्मिष्ठा बोली--मनोहर मुसकानवाली सखी! मैंने जो ऋषि कहकर अपने स्वामीका 
परिचय दिया था, सो सत्य ही है। मैं न्याय और धर्मके अनुकूल आचरण करती हूँ, अतः 
तुमसे नहीं डरती || २० ।। 

यदा त्वया वृतो भर्ता वृत एव तदा मया । 

सखीभर्ता हि धर्मेण भर्ता भवति शोभने ।। २१ ।। 

पूज्यासि मम मान्या च ज्येष्ठा च ब्राह्मणी हासि । 

त्वत्तोडपि मे पूज्यतमो राजर्षि: कि न वेत्थ तत्‌ ।। २२ ।। 

(त्वत्पित्रा गुरुणा मे च सह दत्ते उभे शुभे । 

तव भर्ता च पूज्यश्न पोष्यां पोषयतीह माम्‌ ।।) 

जब तुमने पतिका वरण किया था, उसी समय मैंने भी कर लिया। शोभने! जो सखीका 
स्वामी होता है, वही उसके अधीन रहनेवाली अन्य अविवाहिता सखियोंका भी धर्मतः पति 
होता है। तुम ज्येष्ठ हो, ब्राह्मणकी पुत्री हो, अतः मेरे लिये माननीय एवं पूजनीय हो; परंतु ये 
राजर्षि मेरे लिये तुमसे भी अधिक पूजनीय हैं। क्‍या यह बात तुम नहीं 
जानतीं? ।। २१-२२ ।। 

शुभे! तुम्हारे पिता और मेरे गुरु (शुक्राचार्यजी)-ने हम दोनोंको एक ही साथ 
महाराजकी सेवामें समर्पित किया है। तुम्हारे पति और पूजनीय महाराज ययाति भी मुझे 
पालन करनेयोग्य मानकर मेरा पोषण करते हैं। 


वैशम्पायन उवाच 


श्रुत्वा तस्यास्ततो वाक्यं देवयान्यब्रवीदिदम्‌ 

राजन्‌ नाद्येह वत्स्यामि विप्रियं मे कृतं त्वया ।। २३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--शर्मिष्ठाका यह वचन सुनकर देवयानीने कहा--“राजन! 
अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी। आपने मेरा अत्यन्त अप्रिय किया है” || २३ ।। 

सहसोत्पतितां श्यामां दृष्टवा तां साश्रुलोचनाम्‌ | 

तूर्ण सकाशं काव्यस्य प्रस्थितां व्यथितस्तदा ।। २४ ।। 

ऐसा कहकर तरुणी देवयानी आँखोंमें आँसू भरकर सहसा उठी और तुरंत ही 
शुक्राचार्यजीके पास जानेके लिये वहाँसे चल दी। यह देख उस समय राजा ययाति व्यथित 


हो गये ।। २४ ।। 

अनुवदव्राज सम्भ्रान्त: पृष्ठतः सान्त्वयन्‌ नृपः । 

न्यवर्तत न चैव सम क्रोधसंरक्तलोचना ।। २५ ।। 

वे व्याकुल हो देवयानीको समझाते हुए उसके पीछे-पीछे गये, किंतु वह नहीं लौटी। 
उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं ।। २५ ।। 

अविब्रुवन्ती किंचित्‌ सा राजानं साश्रुलोचना । 

अचिरादेव सम्प्राप्ता काव्यस्योशनसो$5न्तिकम्‌ ।। २६ ।। 

वह राजासे कुछ न बोलकर केवल नेत्रोंसे आँसू बहाये जाती थी। कुछ ही देरमें वह 
कविपुत्र शुक्राचार्यके पास जा पहुँची || २६ ।। 

सातु दृष्टवैव पितरमभिवाद्याग्रतः स्थिता । 

अनन्तरं ययातिस्तु पूजयामास भार्गवम्‌ ।। २७ ।। 

पिताको देखते ही वह प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हो गयी। तदनन्तर राजा 
ययातिने भी शुक्राचार्यकी वन्दना की || २७ ।। 


देवयान्युवाच 


अधर्मेण जितो धर्म: प्रवृत्तमधरोत्तरम्‌ । 

शर्मिष्ठयातिवृत्तास्मि दुहतित्रा वृषपर्वण: ।। २८ ।। 

देवयानीने कहा--पिताजी! अधर्मने धर्मको जीत लिया। नीचकी उन्नति हुई और 
उच्चकी अवनति। वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा मुझे लाँघचकर आगे बढ़ गयी ।। २८ ।। 

त्रयो5स्यां जनिता: पुत्रा राज्ञानेन ययातिना | 

दुर्भगाया मम द्वौ तु पुत्रौ तात ब्रवीमि ते ।। २९ ।। 

इन महाराज ययातिसे ही उसके तीन पुत्र हुए हैं, किंतु तात! मुझ भाग्यहीनाके दो ही 
पुत्र हुए हैं। यह मैं आपसे ठीक बता रही हूँ || २९ ।। 

धर्मज्ञ इति विख्यात एष राजा भृगूद्वह । 

अकिक्रान्तश्न मर्यादां काव्यैतत्‌ कथयामि ते ।। ३० ।। 

भुगुश्रेष्ठ ये महाराज धर्मज्ञके रूपमें प्रसिद्ध हैं; किंतु इन्होंने ही मर्यादाका उल्लंघन 
किया है। कविनन्दन! यह आपसे यथार्थ कह रही हूँ || ३० ।। 

शुक्र उवाच 

धर्मज्ञ: सन्‌ महाराज यो<धर्ममकृथा: प्रियम्‌ । 

तस्माज्जरा त्वामचिराद्‌ धर्षयिष्यति दुर्जया ।। ३१ ।। 

शुक्राचार्यने कहा--महाराज! तुमने धर्मज्ञ होकर भी अधर्मको प्रिय मानकर उसका 
आचरण किया है। इसलिये जिसको जीतना कठिन है, वह वृद्धावस्था तुम्हें शीघ्र ही धर 
दबायेगी ।। ३१ ।। 


पाए शेख 





ययातिरुवाच 


ऋतुं वै याचमानाया भगवन्‌ नान्यचेतसा । 

दुहितुर्दानवेन्द्रस्य धर्म्यमेतत्‌ कृत॑ं मया ।। ३२ ।। 

ऋतुं वै याचमानाया न ददाति पुमानृतुम्‌ । 

भ्रूणहेत्युच्यते ब्रह्मन्‌ स इह ब्रह्म॒वादिभि: ।। ३३ ।। 

अभिकामा स्त्रियं यश्न गम्यां रहसि याचित: । 

नोपैति स च धर्मेषु भ्रूणहेत्युच्यते बुध: ।॥ ३४ ।। 

ययाति बोले--भगवन्‌! दानवराजकी पुत्री मुझसे ऋतुदान माँग रही थी; अतः मैंने 
धर्म-सम्मत मानकर यह कार्य किया, किसी दूसरे विचारसे नहीं। ब्रह्मन! जो पुरुष न्याययुक्त 
ऋतुकी याचना करनेवाली स्त्रीको ऋतुदान नहीं देता, वह ब्रह्मवादी दविद्वानोंद्वारा भ्रूणहत्या 
करनेवाला कहा जाता है। जो न्यायसम्मत कामनासे युक्त गम्या स्त्रीके द्वारा एकान्तमें 
प्रार्थना करनेपर उसके साथ समागम नहीं करता, वह धर्म-शास्त्रमें विद्वानोंद्वारा गर्भकी 
हत्या करनेवाला बताया जाता है || ३२--३४ ।। 

(यद्‌ यद्‌ याचति मां कश्चित्‌ तत्‌ तद्‌ देयमिति व्रतम्‌ । 

त्वया च सापि दत्ता मे नान्‍्यं नाथमिहेच्छति ।। 

मत्वैतन्मे धर्म इति कृतं ब्रह्मन्‌ क्षमस्व माम्‌ ।) 


इत्येतानि समीक्ष्याहं कारणानि भृगूद्वह । 

अधर्मभयसंविग्न: शर्मिष्ठामुपजग्मिवान्‌ ।। ३५ ।। 

ब्रह्मन! मेरा यह व्रत है कि मुझसे कोई जो भी वस्तु माँगे, उसे वह अवश्य दे दूँगा। 
आपके ही द्वारा मुझे सौंपी हुई शर्मिष्ठा इस जगत्‌में दूसरे किसी पुरुषको अपना पति बनाना 
नहीं चाहती थी। अत: उसकी इच्छा पूर्ण करना धर्म समझकर मैंने वैसा किया है। आप 
इसके लिये मुझे क्षमा करें। भृगुश्रेष्ठ) इन्हीं सब कारणोंका विचार करके अधर्मके भयसे 
उद्विग्न हो मैं शर्मिष्ठाके पास गया था ।। ३५ ।। 

शुक्र उवाच 

नन्वहं प्रत्यवेक्ष्यस्ते मदधीनो 5सि पार्थिव । 

मिथ्याचारस्य धर्मेषु चौर्य भवति नाहुष ।। ३६ ।। 

शुक्राचार्यने कहा--राजन्‌! तुम्हें इस विषयमें मेरे आदेशकी भी प्रतीक्षा करनी चाहिये 
थी; क्‍योंकि तुम मेरे अधीन हो। नहुषनन्दन! धर्ममें मिथ्या आचरण करनेवाले पुरुषको 
चोरीका पाप लगता है ।। ३६ |। 

वैशम्पायन उवाच 


क्रुद्धनोशनसा शप्तो ययातिनहुषस्तदा । 
पूर्व वय: परित्यज्य जरां सद्योडन्वपद्यत ।। ३७ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--क्रोधमें भरे हुए शुक्राचार्यके शाप देनेपर नहुषपुत्र राजा 
ययाति उसी समय पूर्वावस्था (यौवन)-का परित्याग करके तत्काल बूढ़े हो गये || ३७ ।। 
ययातिरुवाच 
अतृप्तो यौवनस्याहं देवयान्यां भृगूद्वह । 
प्रसाद कुरु मे ब्रह्म॒ज्जरेयं न विशेच्च माम्‌ । ३८ ।। 
ययाति बोले--भृगुश्रेष्ठ! मैं देवयानीके साथ युवावस्थामें रहकर तृप्त नहीं हो सका हूँ; 
अतः ब्रह्मन! मुझपर ऐसी कृपा कीजिये, जिससे यह बुकढ़ापा मेरे शरीरमें प्रवेश न 
करे ।। ३८ ।। 
शुक्र उवाच 
नाहं मृषा ब्रवीम्येतज्जरां प्राप्तोड्सि भूमिप | 
जरां त्वेतां त्वमन्यस्मिन्‌ संक्रामय यदीच्छसि ।। ३९ ।। 
शुक्राचार्यजीने कहा--भूमिपाल! मैं झूठ नहीं बोलता; बूढ़े तो तुम हो ही गये; किंतु 
तुम्हें इतनी सुविधा देता हूँ कि यदि चाहो तो किसी दूसरेसे जवानी लेकर इस बुढ़ापाको 
उसके शरीरमें डाल सकते हो ।। ३९ ।। 


ययातिरुवाच 


राज्यभाक्‌ स भवेद्‌ ब्रद्मन्‌ पुण्यभाक्‌ कीर्तिभाक्‌ तथा | 

यो मे दद्यात्‌ वय: पुत्रस्तद्‌ भवाननुमन्यताम्‌ ।। ४० ।। 

ययाति बोले--ब्रह्मन्‌! मेरा जो पुत्र अपनी युवावस्था मुझे दे, वही पुण्य और कीर्तिका 
भागी होनेके साथ ही मेरे राज्यका भी भागी हो। आप इसका अनुमोदन करें || ४० ।। 

शुक्र उवाच 

संक्रामयिष्यसि जरां यथेष्टं नहुषात्मज । 

मामनुध्याय भावेन न च पापमवाप्स्यसि ।। ४१ ।। 

वयो दास्यति ते पुत्रो यः स राजा भविष्यति । 

आयुष्मान्‌ कीर्तिमांश्वैव बह्वपत्यस्तथैव च ।। ४२ ।। 

शुक्राचार्यने कहा--नहुषनन्दन! तुम भक्तिभावसे मेरा चिन्तन करके अपनी 
वृद्धावस्थाका इच्छानुसार दूसरेके शरीरमें संचार कर सकोगे। उस दशामें तुम्हें पाप भी नहीं 
लगेगा। जो पुत्र तुम्हें (प्रसन्नतापूर्वक) अपनी युवावस्था देगा, वही राजा होगा, साथ ही 
दीर्घायु, यशस्वी तथा अनेक संतानोंसे युक्त होगा || ४१-४२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने -यशीतितमो< ध्याय: 
॥| ८३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वें ययात्युपाख्यानविषयक 
तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८३ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ ३ श्लोक मिलाकर कुल ४६३ “लोक हैं) 


#२-:237#:22 श््नु 32 


चतुरशीतितमो< ध्याय: 


ययातिका अपने पुत्र यदु, तुर्वसु, द्रहूु और अनुसे अपनी 
युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेक लिये आग्रह और उनके 
अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर अपने पुत्र पूरुको 
जरावस्था देकर उनकी युवावस्था लेना तथा उन्हें वर प्रदान 
करना 


वैशम्पायन उवाच 


जरां प्राप्प ययातिस्तु स्वपुरं प्राप्य चैव हि । 

पुत्रं ज्येष्ठ वरिष्ठ च यदुमित्यब्रवीद्‌ वच: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजा ययाति बुढ़ापा लेकर वहाँसे अपने नगरमें आये और 
अपने ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ पुत्र यदुसे इस प्रकार बोले ।। १ ।। 


ययातिरुवाच 


जरा वली च मां तात पलितानि च पर्यगुः । 

काव्यस्योशनस: शापान्न च तृप्तोडस्मि यौवने ।। २ ।। 

ययातिने कहा--तात! कविपुत्र शुक्राचार्यके शापसे मुझे बुढ़ापेने घेर लिया; मेरे 
शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयीं और बाल सफेद हो गये; किंतु मैं अभी जवानीके भोगोंसे तृप्त नहीं 
हुआ हूँ || २ ।। 

त्वं यदो प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह । 

यौवनेन त्वदीयेन चरेयं विषयानहम्‌ ।। ३ ।। 

पूर्णे वर्षमहस्रे तु पुनस्ते यौवनं त्वहम्‌ । 

दत्त्वा स्वं प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह ।। ४ ।। 

यदो! तुम बुढ़ापेके साथ मेरे दोषको ले लो और मैं तुम्हारी जवानीके द्वारा विषयोंका 
उपभोग करूँ। एक हजार वर्ष पूरे होनेपर मैं पुनः तुम्हारी जवानी देकर बुढ़ापेके साथ 
अपना दोष वापस ले लूँगा ।। ३-४ ।। 

यदुरुवाच 


जरायां बहवो दोषा: पानभोजनकारिता: । 

तस्माज्जरां न ते राजन ग्रहीष्य इति मे मति: ।। ५ ।। 

यदु बोले--राजन! बुढ़ापेमें खाने-पीनेसे अनेक दोष प्रकट होते हैं; अतः मैं आपकी 
वृद्धावस्था नहीं लूँगा, यही मेरा निश्चित विचार है || ५ ।। 


सितश्मश्रुर्निरानन्दो जरया शिथिलीकृत: । 

वलीसंगतगाज्रस्तु दुर्दर्शो दुर्बल: कृशः ।। ६ ।। 

महाराज! मैं उस बुढ़ापेको लेनेकी इच्छा नहीं करता, जिसके आनेपर दाढ़ी-मूँछके 
बाल सफेद हो जाते हैं; जीवनका आनन्द चला जाता है। वृद्धावस्था एकदम शिथिल कर 
देती है। सारे शरीरमें झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और मनुष्य इतना दुर्बल तथा कृशकाय हो जाता 
है कि उसकी ओर देखते नहीं बनता ।। ६ ।। 

अशक्तः कार्यकरणे परिभूत: स यौवतै: । 

सहोपजीविभिशश्लैव तां जरां नाभिकामये ।। ७ ।। 

बुढ़ापेमें काम-काज करनेकी शक्ति नहीं रहती, युवतियाँ तथा जीविका पानेवाले सेवक 
भी तिरस्कार करते हैं; अतः मैं वृद्धावस्था नहीं लेना चाहता ।। ७ ।। 

सन्ति ते बहव:ः पुत्रा मत्त: प्रियतरा नूप । 

जरां ग्रहीतुं धर्मज्ञ तस्मादन्यं वृणीष्व वै ।। ८ ।। 

धर्मज्ञ नरेश्वरर आपके बहुत-से पुत्र हैं, जो आपको मुझसे भी अधिक प्रिय हैं; अतः 
बुढ़ापा लेनेके लिये किसी दूसरे पुत्रको चुन लीजिये ।। ८ ।। 

ययातिरुवाच 


यत्‌ त्वं मे हृदयाज्जातो वय: स्व॑ न प्रयच्छसि । 

तस्मादराज्यभाक्‌ तात प्रजा तव भविष्यति ।। ९ ।। 

ययातिने कहा--तात! तुम मेरे हृदयसे उत्पन्न (औरस पुत्र) होकर भी मुझे अपनी 
युवावस्था नहीं देते; इसलिये तुम्हारी संतान राज्यकी अधिकारिणी नहीं होगी ।। ९ ।। 

तुर्वसो प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह । 

यौवनेन चरेयं वै विषयांस्तव पुत्रक ।। १० ।। 

(अब उन्होंने तुर्वसुको बुलाकर कहा--) तुर्वसो! बुढ़ापेके साथ मेरा दोष ले लो। बेटा! 
मैं तुम्हारी जवानीसे विषयोंका उपभोग करूँगा ।। १० ।। 

पूर्णे वर्षमहस्रे तु पुनर्दास्थामि यौवनम्‌ । 

स्वं चैव प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह ।। ११ ।। 

एक हजार वर्ष पूर्ण होनेपर मैं तुम्हें जवानी लौटा दूँगा और बुढ़ापेसहित अपने दोषको 
वापस ले लूँगा || ११ ।। 


वुर्वयुरुवाच 
न कामये जरां तात कामभोगप्रणाशिनीम्‌ । 
बलरूपान्तकरणी बुद्धिप्राणप्रणाशिनीम्‌ ।। १२ ।। 
तुर्वसु बोले--तात! काम-भोगका नाश करनेवाली वृद्धावस्था मुझे नहीं चाहिये। वह 
बल तथा रूपका अन्त कर देती है और बुद्धि एवं प्राणशक्तिका भी नाश करनेवाली 


है ।। १२ |। 
ययातिर्वाच 


यत्‌ त्वं मे हृदयाज्जातो वय: स्व॑ न प्रयच्छसि । 

तस्मात्‌ प्रजा समुच्छेदं तुर्वलो तव यास्यति ।। १३ ।। 

ययातिने कहा--तुर्वसो! तू मेरे हृदयसे उत्पन्न होकर भी मुझे अपनी युवावस्था नहीं 
देता है, इसलिये तेरी संतति नष्ट हो जायगी ।। १३ ।। 

संकीर्णाचारधर्मेषु प्रतिलोमचरेषु च । 

पिशिताशिषु चान्त्येषु मूढ राजा भविष्यसि ।। १४ ।। 

मूढ़! जिनके आचार और धर्म वर्णसंकरोंके समान हैं, जो प्रतिलोमसंकर जातियोंमें 
गिने जाते हैं तथा जो कच्चा मांस खानेवाले एवं चाण्डाल आदिकी श्रेणीमें हैं, ऐसे लोगोंका 
तू राजा होगा ।। १४ ।। 

गुरुदारप्रसक्तेषु तिर्यग्योनिगतेषु च | 

पशुधर्मेषु पापेषु म्लेच्छेषु त्वं भविष्यसि ।। १५ ।। 

जो गुरु-पत्नियोंमें आसक्त हैं, जो पशु-पक्षी आदिका-सा आचरण करनेवाले हैं तथा 
जिनके सारे आचार-विचार भी पशुओंके समान हैं, तू उन पापात्मा म्लेच्छोंका राजा 
होगा ।। १५ || 

वैशम्पायन उवाच 


एवं स तुर्वसुं शप्त्वा ययाति: सुतमात्मन: । 

शर्मिष्ठाया: सुतं द्रुह्मुमिदं वचनमत्रवीत्‌ ।। १६ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा ययातिने इस प्रकार अपने पुत्र तुर्वसुको 
शाप देकर शर्मिष्ठाके पुत्र द्रह्यसे यह बात कही ।। १६ ।। 


ययातिरुवाच 


द्रह्मो त्वं प्रतिपद्यस्व वर्णरूपविनाशिनीम्‌ । 

जरां वर्षसहसतरं मे यौवनं स्वं ददस्व च ।। १७ ।। 

ययातिने कहा--द्रुह्ञे! कान्ति तथा रूपका नाश करनेवाली यह वृद्धावस्था तुम ले 
लो और एक हजार वर्षोंके लिये अपनी जवानी मुझे दे दो || १७ ।। 

पूर्णे वर्षमहस्रे तु पुनर्दास्थामि यौवनम्‌ । 

स्वं चादास्यामि भूयो5हं पाप्मानं जरया सह ।॥। १८ ।। 

हजार वर्ष पूर्ण हो जानेपर मैं पुनः तुम्हारी जवानी तुम्हें दे दूँगा और बुढ़ापेके साथ 
अपना दोष फिर ले लूँगा || १८ ।। 


दु्लुस्वाच 


नगजं न रथं नाश्वं जीर्णो भुड्धक्ते न च स्त्रियम्‌ । 
वाक्सड्रश्नास्य भवति तां जरां नाभिकामये ।। १९ ।। 
द्रह्मु बोले--पिताजी! बूढ़ा मनुष्य हाथी, घोड़े और रथपर नहीं चढ़ सकता; स्त्रीका भी 
उपभोग नहीं कर सकता। उसकी वाणी भी लड़खड़ाने लगती है; अतः मैं वृद्धावस्था नहीं 
लेना चाहता ।। १९ |। 
ययातिरुवाच 


यत्‌ त्वं मे हृदयाज्जातो वयः स्व॑ न प्रयच्छसि । 

तस्माद्‌ द्रुह्मो प्रियः कामो न ते सम्पत्स्यते क्वचित्‌ ।। २० ।। 

ययाति बोले--ट्रह्मो! तू मेरे हृदयसे उत्पन्न होकर भी अपनी जवानी मुझे नहीं दे रहा 
है; इसलिये तेरा प्रिय मनोरथ कभी सिद्ध नहीं होगा ।। २० ।। 

यत्राश्वरथमुख्यानामश्चानां स्थाद्‌ गतं न च | 

हस्तिनां पीठकानां च गर्दभानां तथैव च ।। २३ ।। 

बस्तानां च गवां चैव शिबिकायास्तथैव च । 

उड्डपप्लवसंतारो यत्र नित्यं भविष्यति | 

अराजा भोजशब्दं त्वं तत्र प्राप्स्पसि सान्वय: ।। २२ || 

जहाँ घोड़े जुते हुए उत्तम रथों, घोड़ों, हाथियों, पीठकों (पालकियों), गदहों, बकरों, 
बैलों और शिबिका आदिकी भी गति नहीं है, जहाँ प्रतिदिन नावपर बैठकर ही घूमना 
फिरना होगा, ऐसे प्रदेशमें तू अपनी संतानोंके साथ चला जायगा और वहाँ तेरे वंशके लोग 
राजा नहीं, भोज कहलायेंगे || २१-२२ ।। 

ययातिरुवाच 


अनो त्व॑ं प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह । 

एकं वर्षसहसत्रं तु चरेयं यौवनेन ते | २३ ।। 

तदनन्तर ययातिने [अनुसे] कहा--अनो! तुम बुढ़ापेके साथ मेरा दोष ले लो और मैं 
तुम्हारी जवानीके द्वारा एक हजार वर्षतक सुख भोगूँगा ।। २३ ।। 

अनुरुवाच 

जीर्ण: शिशुवदादत्तेडकाले5न्नमशुचिर्यथा | 

न जुहोति च कालेडग्निं तां जरां नाभिकामये ।। २४ ।। 

अनु बोले--पिताजी! बूढ़ा मनुष्य बच्चोंकी तरह असमयमें भोजन करता है, अपवित्र 
रहता है तथा समयपर अग्निहोत्र नहीं करता, अतः ऐसी वृद्धावस्थाको मैं नहीं लेना 
चाहता || २४ ।। 

ययातिरुवाच 


यत्‌ त्वं मे हृदयाज्जातो वय: स्व॑ न प्रयच्छसि । 

जरादोष्स्त्वया प्रोक्तस्तस्मात्‌ त्वं प्रतिपत्स्यसे || २५ ।। 

प्रजाश्न॒ यौवनप्राप्ता विनशिष्यन्त्यनो तव । 

अग्निप्रस्कन्दनपरस्त्वं चाप्येवं भविष्यसि ।। २६ ।। 

ययातिने कहा--अनो! तू मेरे हृदयसे उत्पन्न होकर भी अपनी युवावस्था मुझे नहीं दे 
रहा है और बुढ़ापेके दोष बतला रहा है, अतः तू वृद्धावस्थाके समस्त दोषोंको प्राप्त करेगा 
और तेरी संतान जवान होते ही मर जायगी तथा तू भी बूढ़े-जैसा होकर अग्निहोत्रका त्याग 
कर देगा ।। २५-२६ || 

ययातिरुवाच 


पूरो त्वं मे प्रिय: पुत्रस्त्वं वरीयान्‌ भविष्यसि । 

जरा वली च मां तात पलितानि च पर्यगु: ।। २७ ।। 

ययातिने [पूरुसे] कहा--पूरो! तुम मेरे प्रिय पुत्र हो। गुणोंमें तुम श्रेष्ठ होओगे। तात! 
मुझे बुढ़ापेने घेर लिया; सब अंगोंमें झुर्रियाँ पड़ गयीं और सिरके बाल सफेद हो गये। 
बुढ़ापाके ये सारे चिह्न मुझे एक ही साथ प्राप्त हुए हैं || २७ ।। 

काव्यस्योशनस: शापान्न च तृप्तोडस्मि यौवने । 

पूरो त्वं प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह । 

कंचित्‌ काल॑ चरेयं वै विषयान्‌ वयसा तव ॥। २८ ।। 

पूर्णे वर्षमहस्रे तु पुनर्दास्थामि यौवनम्‌ । 

स्वं चैव प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह ।। २९ ।। 

कविपुत्र शुक्राचार्यके शापसे मेरी यह दशा हुई है; किंतु मैं जवानीके भोगोंसे अभी तृप्त 
नहीं हुआ हूँ। पूरो! तुम बुढ़ापेके साथ मेरे दोषको ले लो और मैं तुम्हारी युवावस्था लेकर 
उसके द्वारा कुछ कालतक विषयभोग करूँगा। एक हजार वर्ष पूरे होनेपर मैं तुम्हें पुनः 
तुम्हारी जवानी दे दूँगा और बुढ़ापेके साथ अपना दोष ले लूँगा || २८-२९ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

एवमुक्त: प्रत्युवाच पूरु: पितरमञ्जसा । 

यथा<55त्थ मां महाराज तत्‌ करिष्यामि ते वच: ।। ३० ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--ययातिके ऐसा कहनेपर पूरुने अपने पितासे विनयपूर्वक 
कहा--“महाराज! आप मुझे जैसा आदेश दे रहे हैं, आपके उस वचनका मैं पालन 
करूँगा ।। ३० ।। 

(गुरोर्वे वचन पुण्यं स्वर्ग्यमायुष्करं नृणाम्‌ | 

गुरुप्रसादात्‌ त्रैलोक्यमन्वशासच्छतक्रतुः ।। 

गुरोरनुमतिं प्राप्य सर्वान्‌ कामानवाप्लुयात्‌ ।) 


“गुरुजनोंकी आज्ञाका पालन मनुष्योंके लिये पुण्य, स्वर्ग तथा आयु प्रदान करनेवाला 
है। गुरुके ही प्रसादसे इन्द्रने तीनों लोकोंका शासन किया है। गुरुस्वरूप पिताकी अनुमति 
प्राप्त करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको पा लेता है। 

प्रतिपत्स्पामि ते राजन्‌ पाप्मानं जरया सह । 

गृहाण यौवन मत्तश्चर कामान्‌ यथेप्सितान्‌ ।। ३१ ।। 

“राजन! मैं बुढ़ापेके साथ आपका दोष ग्रहण कर लूँगा। आप मुझसे जवानी ले लें और 
इच्छानुसार विषयोंका उपभोग करें ।। ३१ ।। 

जरयाहं प्रतिच्छन्नो वयोरूपधरस्तव । 

यौवनं भवते दत्त्वा चरिष्यामि यथा55त्थ माम्‌ ।। ३२ ।। 

“मैं वृद्धावस्थासे आच्छादित हो आपकी आयु एवं रूप धारण करके रहूँगा और 
आपको जवानी देकर आप मेरे लिये जो आज्ञा देंगे, उसका पालन करूँगा” ।। ३२ ।। 

ययातिरुवाच 


पूरो प्रीतो5स्मि ते वत्स प्रीतश्चेदं ददामि ते । 

सर्वकामसमृद्धा ते प्रजा राज्ये भविष्यति ।। ३३ ।। 

ययाति बोले--वत्स! पूरो! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ और प्रसन्न होकर तुम्हें यह वर देता हूँ 
-- तुम्हारे राज्यमें सारी प्रजा समस्त कामनाओंसे सम्पन्न होगी” || ३३ ।। 

एवमुक्‍त्वा ययातिस्तु स्मृत्वा काव्यं महातपा: । 

संक्रामयामास जरां तदा पूरो महात्मनि ।॥। ३४ ।। 

ऐसा कहकर महातपस्वी ययातिने शुक्राचार्यका स्मरण किया और अपनी वृद्धावस्था 
महात्मा पूरुको देकर उनकी युवावस्था ले ली ।। ३४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने चतुरशीतितमो<ध्याय: 
॥। ८४ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानविषयक 
चौरासीवाँ अध्याय प्रा हुआ ॥/ ८४ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६३ “लोक मिलाकर कुल ३५३ लोक हैं) 


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पञ्चाशीतितमोब<् ध्याय: 


राजा ययातिका विषय-सेवन और वैराग्य तथा पूरुका 
राज्याभिषेक करके वनमें जाना 


वैशम्पायन उवाच 


पौरवेणाथ वयसा ययातिर्नहुषात्मज: । 

प्रीतियुक्तो नृपश्रेष्ठक्षचार विषयान्‌ प्रियान्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! नहुषके पुत्र नृपश्रेष्ठ ययातिने पूरुकी 
युवावस्थासे अत्यन्त प्रसन्न होकर अभीष्ट विषयभोगोंका सेवन आरम्भ किया ।। १ ।। 

यथाकामं यथोत्साहं यथाकालं यथासुखम्‌ । 

धर्माविरुद्धं राजेन्द्र यथाहति स एव हि ।। २ ।। 

राजेन्द्र! उनकी जैसी कामना होती, जैसा उत्साह होता और जैसा समय होता, उसके 
अनुसार वे सुखपूर्वक धर्मानुकूल भोगोंका उपभोग करते थे। वास्तवमें उसके योग्य वे ही 
थे।।२।। 

देवानतर्पयद्‌ यज्ञ: श्राद्धैस्तद्धत्‌ू पितृनपि । 

दीनाननुग्रहैरिष्टै: कामैश्न द्विजसत्तमान्‌ ।। ३ ।॥। 

उन्होंने यज्ञोंद्वारा देवताओंको, श्राद्धोंसे पितरोंको, इच्छाके अनुसार अनुग्रह करके 
दीन-दुःखियोंको और मुहमाँगी भोग्य वस्तुएँ देकर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको तृप्त किया ।। ३ ।। 

अतिथीनन्नपानैश्न विशश्व परिपालनै: । 

आनृशंस्येन शूद्रांश्व दस्यून्‌ संनिग्रहेण च ।। ४ ।। 

धर्मेण च प्रजा: सर्वा यथावदनुरञ्जयन्‌ । 

ययाति: पालयामास साक्षादिन्द्र इवापर: ।। ५ || 

वे अतिथियोंको अन्न और जल देकर, वैश्योंको उनके धन-वैभवकी रक्षा करके, 
शूद्रोंको दयाभावसे, लुटेरोंको कैद करके तथा सम्पूर्ण प्रजाको धर्मपूर्वक संरक्षणद्वारा प्रसन्न 
रखते थे। इस प्रकार साक्षात्‌ दूसरे इन्द्रके समान राजा ययातिने समस्त प्रजाका पालन 
किया ।। ४-५ |। 

स राजा सिंहविक्रान्तो युवा विषयगोचर: । 

अविरोधेन धर्मस्य चचार सुखमुत्तमम्‌ ।। ६ ।। 

वे राजा सिंहके समान पराक्रमी और नवयुवक थे। सम्पूर्ण विषय उनके अधीन थे और 
वे धर्मका विरोध न करते हुए उत्तम सुखका उपभोग करते थे ।। ६ ।। 

स सम्प्राप्य शुभान्‌ कामांस्तृप्त: खिन्नश्न पार्थिव: । 


काल वर्षसहस्रान्तं सस्मार मनुजाधिप: ।। ७ ।। 

परिसंख्याय कालज्ञ: कला: काष्छाश्न वीर्यवान्‌ | 

यौवन प्राप्य राजर्षि: सहस्रपरिवत्सरान्‌ । ८ ।। 

विश्वाच्या सहितो रेमे व्यभ्राजन्नन्दने वने | 

अलकायां स काल तु मेरुशज़े तथोत्तरे ।। ९ ।। 

यदा स पश्यते काल धर्मात्मा त॑ं महीपति: । 

पूर्ण मत्वा तत: काल  पूरुं पुत्रमुवाच ह ।। १० ।। 

वे नरेश शुभ भोगोंको प्राप्त करके पहले तो तृप्त एवं आनन्दित होते थे; परंतु जब यह 
बात ध्यानमें आती कि ये हजार वर्ष भी पूरे हो जायँगे, तब उन्हें बड़ा खेद होता था। 
कालतत्त्वको जाननेवाले पराक्रमी राजा ययाति एक-एक कला और काष्ठाकी गिनती करके 
एक हजार वर्षके समयकी अवधिका स्मरण रखते थे। राजर्षि ययाति हजार वर्षोकी जवानी 
पाकर नन्दनवनमें विश्वाची अप्सराके साथ रमण करते और प्रकाशित होते थे। वे 
अलकापुरीमें तथा उत्तर दिशावर्ती मेरशिखरपर भी इच्छानुसार विहार करते थे। धर्मात्मा 
नरेशने जब देखा कि समय अब पूरा हो गया, तब वे अपने पुत्र पुरुके पास आकर बोले 
-- || ७--१० || 

यथाकामं यथोत्साहं यथाकालमरिंदम । 

सेविता विषया: पुत्र यौवनेन मया तव ।। ११ ।। 

शत्रुदमन पुत्र! मैंने तुम्हारी जवानीके द्वारा अपनी रुचि, उत्साह और समयके अनुसार 
विषयोंका सेवन किया है || ११ ।। 

न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति । 

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। १२ ।। 

“परंतु विषयोंकी कामना उन विषयोंके उपभोगसे कभी शान्त नहीं होती; अपितु घीकी 
आहुति पड़नेसे अग्निकी भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है || १२ ।। 

यत्‌ पृथिव्यां ब्रीहियवं हिरण्यं पशव: स्त्रिय: । 

एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात्‌ तृष्णां परित्यजेत्‌ ।। १३ ।। 

“इस पृथ्वीपर जितने भी धान, जौ, स्वर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब एक मनुष्यके 
लिये भी पर्याप्त नहीं हैं। अतः तृष्णाका त्याग कर देना चाहिये ।। १३ ।। 

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्य॑ति जीर्यत: । 

योडसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजत: सुखम्‌ ।। १४ ।। 

“खोटी बुद्धिवाले लोगोंके लिये जिसका त्याग करना अत्यन्त कठिन है, जो मनुष्यके 
बूढ़े होनेपर भी स्वयं बूढ़ी नहीं होती तथा जो एक प्राणान्तक रोग है, उस तृष्णाको त्याग 
देनेवाले पुरुषको ही सुख मिलता है ।। १४ ।। 

पूर्ण वर्षमहस्नं मे विषयासक्तचेतस: । 


तथाप्यनुदिनं तृष्णा ममैतेष्वभिजायते ।। १५ ।। 

“देखो, विषयभोगमें आसक्तचित्त हुए मेरे एक हजार वर्ष बीत गये, तो भी प्रतिदिन उन 
विषयोंके लिये ही तृष्णा पैदा होती है ।। १५ ।। 

तस्मादेनामहं त्यक्त्वा ब्रह्म॒ण्याधाय मानसम्‌ । 

निर्दन्दो निर्ममो भूत्वा चरिष्यामि मृगै:ः सह ।। १६ ।। 

“अतः मैं इस तृष्णाको छोड़कर परब्रह्म परमात्मामें मन लगा द्वन्ध और ममतासे रहित 
हो वनमें मृगोंके साथ विचरूँगा ।। १६ ।। 

पूरो प्रीतो5स्मि भद्रं ते गृहाणेदं स्‍्वयौवनम्‌ । 

राज्यं चेदं गृहाण त्वं त्वं हि मे प्रियकृत्‌ सुत: ।। १७ ।। 

'पूरो! तुम्हारा भला हो, मैं प्रसन्न हूँ। अपनी यह जवानी ले लो। साथ ही यह राज्य भी 
अपने अधिकारमें कर लो; क्योंकि तुम मेरा प्रिय करनेवाले पुत्र हो” || १७ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


प्रतिपेदे जरां राजा ययातिर्नाहुषस्तदा । 

यौवन प्रतिपेदे च पूरु: स्वं पुनरात्मन: ।। १८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस समय नहुषनन्दन राजा ययातिने अपनी 
वृद्धावस्था वापस ले ली और पूरुने पुन: अपनी युवावस्था प्राप्त कर ली || १८ ।। 

अभिषेक्तुकामं नृपतिं पूरुं पुत्र कनीयसम्‌ । 

ब्राह्मणप्रमुखा वर्णा इदं वचनमनब्लुवन्‌ ।। १९ ।। 

जब ब्राह्मण आदि वर्णोने देखा कि महाराज ययाति अपने छोटे पुत्र पूरको राजाके 
पदपर अभिषिक्त करना चाहते हैं, तब उनके पास आकर इस प्रकार बोले-- ।। १९ ।। 

कथं शुक्रस्य नप्तारं देवयान्या: सुतं प्रभो । 

ज्येष्ठ यदुमतिक्रम्य राज्यं पूरो: प्रयच्छसि ।। २० ।। 

'प्रभो! शुक्राचार्यके नाती और देवयानीके ज्येष्ठ पुत्र यदुके होते हुए उन्हें लाँघकर आप 
पूरुको राज्य क्‍यों देते हैं? |। २० ।। 

यदुर्ज्येष्ठस्तव सुतो जातस्तमनु तुर्वसु: । 

शर्मिष्ठाया: सुतो द्रह्मुस्ततो5नु: पूरुरेव च ।। २१ ।। 

“यदु आपके उज्येष्ठ पुत्र हैं। उनके बाद तुर्वसु उत्पन्न हुए हैं। तदनन्तर शर्मिष्ठाके पुत्र 
क्रमशः ट्रह्यु, अनु और पूरु हैं || २१ ।। 

कथं ज्येष्ठानतिक्रम्प कनीयान्‌ राज्यमर्हति । 

एतत्‌ सम्बोधयामस्त्वां धर्म त्वं प्रतिपालय ।॥ २२ ।। 

'ज्येष्ठ पुत्रोंका उल्लंघन करके छोटा पुत्र राज्यका अधिकारी कैसे हो सकता है? हम 
आपको इस बातका स्मरण दिला रहे हैं। आप धर्मका पालन कीजिये” ।। २२ ।। 


ययातिरुवाच 

ब्राह्मणप्रमुखा वर्णा: सर्वे शृण्वन्तु मे वच: । 

ज्येष्ठं प्रति यथा राज्यं न देयं मे कथंचन ।। २३ ।। 

ययातिने कहा--ब्राह्मण आदि सब वर्णके लोग मेरी बात सुनें, मुझे ज्येष्ठ पुत्रको 
किसी तरह राज्य नहीं देना है || २३ ।। 

मम ज्येछेन यदुना नियोगो नानुपालित: । 

प्रतिकूल: पितुर्यश्ष न स पुत्र: सतां मत: ।। २४ ।। 

मेरे ज्येष्ठ पुत्र यदुने मेरी आज्ञाका पालन नहीं किया है। जो पिताके प्रतिकूल हो, वह 
सत्पुरुषोंकी दृष्टिमें पुत्र नहीं माना गया है ।। २४ ।। 

मातापित्रोर्वचनकृद्धित: पथ्यश्च यः सुतः । 

स पुत्र: पुत्रवद्‌ यश्न वर्तते पितृमातृषु || २५ ।। 

जो माता और पिताकी आज्ञा मानता है, उनका हित चाहता है, उनके अनुकूल चलता 
है तथा माता-पिताके प्रति पुत्रोचित बर्ताव करता है, वही वास्तवमें पुत्र है ।। २५ ।। 

(पुदिति नरकस्याख्या दु:ःखं हि नरकं विदु: । 

पुतस्त्राणात्‌ ततः पुत्त्रमिहेच्छन्ति परत्र च ।। 

आत्मन: सदृशः पुत्र: पितृदेवर्षिपूजने । 

यो बहूनां गुणकर: स पुत्रो ज्येष्ठ उच्यते ।। 

ज्येष्ठांशभाक्‌ स गुणकृदिह लोके परत्र च | 

श्रेयान्‌ पुत्रो गुणोपेत:ः स पुत्रो नेतरो वृथा ।। 

वदन्ति धर्म धर्मज्ञा: पितृणां पुत्रकारणात्‌ ।) 

'पुत' यह नरकका नाम है। नरकको दुःखरूप ही मानते हैं पुत नामक नरकसे त्राण 
(रक्षा) करनेके कारण ही लोग इहलोक और परलोकमें पुत्रकी इच्छा करते हैं। अपने 
अनुरूप पुत्र देवताओं, ऋषियों और पितरोंके पूजनका अधिकारी होता है। जो बहुत-से 
मनुष्योंके लिये गुणकारक (लाभदायक) हो, उसीको ज्येष्ठ पुत्र कहते हैं। वह गुणकारक पुत्र 
ही इहलोक और परलोकमें ज्येष्ठके अंशका भागी होता है। जो उत्तम गुणोंसे सम्पन्न है, वही 
पुत्र श्रेष्ठ माना गया है, दूसरा नहीं। गुणहीन पुत्र व्यर्थ कहा गया है। धर्मज्ञ पुरुष पुत्रके ही 
कारण पितरोंके धर्मका बखान करते हैं। 

यदुनाहमवज्ञातस्तथा तुर्वसुनापि च । 

न चानुना चैव मय्यवज्ञा कृता भृशम्‌ ।। २६ ।। 

बाद मेरी अवहेलना की है; तुर्वसु, द्रह्मु तथा अनुने भी मेरा बड़ा तिरस्कार किया 
है ।। २६ || 

पूरुणा तु कृतं वाक्यं मानितं च विशेषत:ः । 

कनीयान्‌ मम दायादो धृता येन जरा मम ॥। २७ ।। 


पूरने मेरी आज्ञाका पालन किया; मेरी बातको अधिक आदर दिया है, इसीने मेरा 
बुढ़ापा ले रखा था। अतः मेरा यह छोटा पुत्र ही वास्तवमें मेरे राज्य और धनको पानेका 
अधिकारी है ।। २७ ।। 

मम काम: स च कृत: पूरुणा मित्ररूपिणा | 

शुक्रेण च वरो दत्त: काव्येनोशनसा स्वयम्‌ ॥। २८ ।। 

पुत्रो यस्त्वानुवर्तेत स राजा पृथिवीपति: । 

भवतो<नुनयाम्येवं पूरू राज्येडभिषिच्यताम्‌ ।। २९ |। 

पूरने मित्ररूप होकर मेरी कामनाएँ पूर्ण की हैं। स्वयं शुक्राचार्यने मुझे वर दिया है कि 
'जो पुत्र तुम्हारा अनुसरण करे, वही राजा एवं समस्त भूमण्डलका पालक हो”। अतः मैं 
आपलोगोंसे विनयपूर्ण आग्रह करता हूँ कि पूरुको ही राज्यपर अभिषिक्त 
करें ।। २८-२९ ।। 

प्रकृतय ऊचु: 

यः पुत्रो गुणसम्पन्नो मातापित्रोर्हित: सदा । 

सर्वमरहति कल्याणं कनीयानपि सत्तम: ।। ३० ।। 

प्रजावर्गके लोग बोले--जो पुत्र गुणवान्‌ और सदा माता-पिताका हितैषी हो, वह 
छोटा होनेपर भी श्रेष्ठतम है। वही सम्पूर्ण कल्याणका भागी होनेयोग्य है || ३० ।। 

अर्ह: पूरुरिदं राज्यं यः सुत: प्रियकृत्‌ तव । 

वरदानेन शुक्रस्प न शक्‍्यं वक्तुमुत्तरम्‌ ।। ३१ ।। 

पूरु आपका प्रिय करनेवाले पुत्र हैं, अत: शुक्राचार्यके वरदानके अनुसार ये ही इस 
राज्यको पानेके अधिकारी हैं। इस निश्चयके विरुद्ध कुछ भी उत्तर नहीं दिया जा 
सकता || ३१ || 

वैशम्पायन उवाच 


पौरजानपदैस्तुष्टरित्युक्तो नाहुषस्तदा । 

अभ्यषिज्चत्‌ तत: पूरुं राज्ये स्वे सुतमात्मन: || ३२ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--नगर और राज्यके लोगोंने संतुष्ट होकर जब इस प्रकार 
कहा, तब नहुषनन्दन ययातिने अपने पुत्र पूरको ही अपने राज्यपर अभिषिक्त 
किया ।। ३२ || 

दत्त्वा च पूरवे राज्यं वनवासाय दीक्षित: । 

पुरात्‌ स निर्ययौ राजा ब्राह्मणैस्तापसै: सह ।। ३३ ।। 

इस प्रकार पूरुको राज्य दे वनवासकी दीक्षा लेकर राजा ययाति तपस्वी ब्राह्मणोंके 
साथ नगरसे बाहर निकल गये ।। ३३ ॥। 

यदोस्तु यादवा जातास्तुर्वसोर्यवना: स्मृता: । 


द्रह्मो: सुतास्तु वै भोजा अनोस्तु म्लेच्छजातय: ।। ३४ ।। 

यदुसे यादव क्षत्रिय उत्पन्न हुए, तुर्वसुकी संतान यवन कहलायी, द्रुह्मुके पुत्र भोज 
नामसे प्रसिद्ध हुए और अनुसे म्लेच्छजातियाँ उत्पन्न हुईं || ३४ ।। 

पूरोस्तु पौरवो वंशो यत्र जातो5सि पार्थिव | 

इदं वर्षसहस््राणि राज्यं कारयितुं वशी ।। ३५ ।। 

राजा जनमेजय! पूरुसे पौरव वंश चला; जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो। तुम्हें इन्द्रिय- 
संयमपूर्वक एक हजार वर्षोतक यह राज्य करना है ।। ३५ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने पूर्वयायातसमाप्तौ 
पज्चाशीतितमो<ध्याय: ।। ८५ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ययात्युपाख्यानके प्रसंगमें 
पूर्ववायातसमाप्तिविषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ८५ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ ३ “लोक मिलाकर कुल ३८३ लोक हैं) 


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षडशीतितमो<्ध्याय: 


वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी 
प्राप्ति 


वैशम्पायन उवाच 


एवं स नाहुषो राजा ययाति: पुत्रमीप्सितम्‌ । 

राज्येडभिषिच्य मुदितो वानप्रस्थो5भवन्मुनि: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार नहुषनन्दन राजा ययाति अपने प्रिय 
पुत्र पूरका राज्याभिषेक करके प्रसन्नतापूर्वक वानप्रस्थ मुनि हो गये ।। १ ।। 

उषित्वा च वने वासं ब्राह्मणै: संशितव्रत: । 

फलमूलाशनो दान्तस्तत: स्वर्गमितो गत: ।। २ ।। 

वे वनमें ब्राह्मणोंके साथ रहकर कठोर व्रतका पालन करते हुए फल-मूलका आहार 
तथा मन और इन्द्रियोंका संयम करते थे, इससे वे स्वर्गलोकमें गये ।। २ ।। 

स गत: स्वर्निवासं तं॑ निवसन्‌ मुदितः सुखी । 

कालेन चातिमहता पुन: शक्रेण पातितः ।। ३ ।। 

निपतन प्रच्युत: स्वर्गादप्राप्तो मेदिनीतलम्‌ । 

स्थित आसीदन्तरिक्षे स तदेति श्रुतं मया ।। ४ ।। 

स्वर्गलोकमें जाकर वे बड़ी प्रसन्नताके साथ सुखपूर्वक रहने लगे और बहुत कालके 
बाद इन्द्रद्वारा वे पुनः स्वर्गसे नीचे गिरा दिये गये। स्वर्गसे भ्रष्ट हो पृथ्वीपर गिरते समय वे 
भूतलतक नहीं पहुँचे, आकाशमें ही स्थिर हो गये, ऐसा मैंने सुना है ।। ३-४ ।। 

तत एव पुनश्चापि गतः स्वर्गमिति श्रुतम्‌ 

राज्ञा वसुमता सार्थमष्टकेन च वीर्यवान्‌ ।। ५ ।। 

प्रतर्दनेन शिबिना समेत्य किल संसदि । 

फिर यह भी सुननेमें आया है कि वे पराक्रमी राजा ययाति मुनिसमाजमें राजा वसुमान्‌, 
अष्टक, प्रतर्दन और शिबिसे मिलकर पुनः वहींसे साधु पुरुषोंके संगके प्रभावसे स्वर्गलोकमें 
चले गये ।। ५३ ।। 

जनमेजय उवाच 

कर्मणा केन स दिवं पुन: प्राप्तो महीपति: । ६ ।। 

जनमेजयने पूछा--मुने! किस कर्मसे वे भूपाल पुनः स्वर्गमें पहुँचे थे? ।। ६ ।। 

सर्वमेतदशेषेण श्रोतुमिच्छामि तत्त्वत: । 

कथ्यमानं त्वया विप्र विप्र्षिगणसंनिधौ ।। ७ ।। 


विप्रवर! मैं ये सारी बातें पूर्णरूपसे यथावत्‌ सुनना चाहता हूँ। इन ब्रह्मर्षियोंके समीप 
आप इस प्रसंगका वर्णन करें || ७ ।। 

देवराजसमो हासीद्‌ ययाति: पृथिवीपति: । 

वर्धन: कुरुवंशस्य विभावसुसमद्युति: ।। ८ ।। 

कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले, अग्निके समान तेजस्वी राजा ययाति देवराज इन्द्रके 
समान थे | ८ ।। 

तस्य विस्तीर्णयशस: सत्यकीर्तेर्महात्मन: । 

चरितं श्रोतुमिच्छामि दिवि चेह च सर्वश: ।। ९ ।। 

उनका यश चारों ओर फैला था। मैं उन सत्यकीर्ति महात्मा ययातिका चरित्र, जो 
इहलोक और स्वर्गलोकमें सर्वत्र प्रसिद्ध है, सुनना चाहता हूँ ।। ९ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


हन्त ते कथयिष्यामि ययातेरुत्तमां कथाम्‌ | 

दिवि चेह च पुण्यार्था सर्वपापप्रणाशिनीम्‌ । १० ।। 

वैशम्पायनजी बोले--जनमेजय! ययातिकी उत्तम कथा इहलोक और स्वर्गलोकमें 
भी पुण्यदायक है। वह सब पापोंका नाश करनेवाली है, मैं तुमसे उसका वर्णन करता 
हूँ ।। १० ।। 

ययातिर्नाहुषो राजा पूरुं पुत्र कनीयसम्‌ | 

राज्येडभिषिच्य मुदित: प्रवव्राज वनं तदा ।। ११ ।। 

अन्त्येषु स विनिक्षिप्य पुत्रान्‌ यदुपुरोगमान्‌ । 

फलमूलाशनो राजा वने संन्यवसच्चिरम्‌ ।। १२ ।। 

नहुषपुत्र महाराज ययातिने अपने छोटे पुत्र पूरको राज्यपर अभिषिक्त करके यदु आदि 
अन्य पुत्रोंको सीमान्त (किनारेके देशों)-में रख दिया। फिर बड़ी प्रसन्नताके साथ वे वनमें 
गये। वहाँ फल-मूलका आहार करते हुए उन्होंने दीर्घकालतक वनमें निवास 
किया ।। ११-१२ || 

शंसितात्मा जितक्रोधस्तर्पयन्‌ पितृदेवता: । 

अग्नींश्व विधिवज्जुद्धन्‌ वानप्रस्थविधानत: ।। १३ ।। 

उन्होंने अपने मनको शुद्ध करके क्रोधपर विजय पायी और प्रतिदिन देवताओं तथा 
पितरोंका तर्पण करते हुए वानप्रस्थाश्रमकी विधिसे शास्त्रीय विधानके अनुसार अग्निहोत्र 
प्रारम्भ किया || १३ ।। 

अतिथीन्‌ पूजयामास वन्येन हविषा विभु: । 

शिलोज्छवृत्तिमास्थाय शेषान्नकृतभोजन: ।। १४ ।। 


वे राजा शिलोज्छवृत्तिका आश्रय ले यज्ञशेष अन्नका भोजन करते थे। भोजनसे पूर्व 
वनमें उपलब्ध होनेवाले फल, मूल आदि हविष्यके द्वारा अतिथियोंका आदर-सत्कार करते 
थे।। १४ ।। 
पूर्ण वर्षसहस्रं च एवंवृत्तिरभून्नप: । 
अब्भक्ष: शरदस्त्रिंशदासीज्नियतवामड्मना: ।। १५ ।। 
राजाको इसी वृत्तिसे रहते हुए पूरे एक हजार वर्ष बीत गये। उन्होंने मन और वाणीपर 
संयम करके तीस वर्षोतक केवल जलका आहार किया ।। १५ |। 
ततश्न वायुभक्षो5भूत्‌ संवत्सरमतन्द्रित: । 
तथा पज्चाग्निमध्ये च तपस्तेपे च वत्सरम्‌ ।। १६ ।। 
तत्पश्चात्‌ वे आलस्यरहित हो एक वर्षतक केवल वायु पीकर रहे। फिर एक वर्षतक 
पाँच अग्नियोंके बीचमें बैठकर तपस्या की ।। १६ ।। 
एकपाद: स्थितश्चासीत्‌ षण्मासाननिलाशन: । 
पुण्यकीर्तिस्तत: स्वर्गे जगामावृत्य रोदसी ।। १७ ।। 
इसके बाद छः महीनोंतक हवा पीकर वे एक पैरसे खड़े रहे। तदनन्तर पुण्यकीर्ति 
महाराज ययाति पृथ्वी और आकाशमें अपना यश फैलाकर स्वर्गलोकमें चले गये || १७ ।। 
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते षडशीतितमो<ध्याय: ।। 
८६ || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक छियासीवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८६ ॥ 


अपन का बछ। | अप्-४#-#रल 


सप्ताशीतितमोब ध्याय: 


इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पूरुको दिये हुए 
उपदेशकी चर्चा करना 


वैशम्पायन उवाच 


स्वर्गतः स तु राजेन्द्रो निवसन्‌ देववेश्मनि । 

पूजितस्त्रिदशै: साध्यर्मरुद्धिर्वसुभिस्तथा ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! स्वर्गलोकमें जाकर महाराज ययाति देवभवनमें 
निवास करने लगे। वहाँ देवताओं, साध्यगणों, मरुदगणों तथा वसुओंने उनका बड़ा स्वागत- 
सत्कार किया ।। १ ।। 

देवलोकं ब्रह्मलोक॑ संचरन्‌ पुण्यकृद्‌ वशी । 

अवसत्‌ पृथिवीपालो दीर्घकालमिति श्रुति: ।। २ ।। 

सुना जाता है कि पुण्यात्मा तथा जितेन्द्रिय राजा ययाति देवलोक और ब्रह्मलोकमें 
भ्रमण करते हुए वहाँ दीर्घकालतक रहे ।। २ ।। 

स कदाचिन्नूपश्रेष्ठो ययाति: शक्रमागमत्‌ | 

कथान्ते तत्र शक्रेण स पृष्ट: पृथिवीपति: ।। ३ ।॥ 

एक दिन नृपश्रेष्ठ ययाति देवराज इन्द्रके पास आये। दोनोंमें वार्तालाप हुआ और 
अन्तमें इन्द्रने राजा ययातिसे पूछा ।। ३ ।। 


शक्र उवाच 


यदा स पूरुस्तव रूपेण राजन्‌ 
जरां गृहीत्वा प्रचचार भूमौ | 
तदा च राज्यं सम्प्रदायैव तस्मै 
त्वया किमुक्तः कथयेह सत्यम्‌ ।। ४ ।। 
इन्द्रने पूछा--राजन्‌! जब पूरु तुमसे वृद्धावस्था लेकर तुम्हारे स्वरूपसे इस पृथ्वीपर 
विचरण करने लगा, तुम सत्य कहो, उस समय राज्य देकर तुमने उसको क्या आदेश दिया 
था? ।। ४ ।। 
ययातिरुवाच 
गड़ायमुनयोर्म ध्ये कृत्स्नो5यं विषयस्तव । 
मध्ये पृथिव्यास्त्वं राजा भ्रातरो<न्त्याधिपास्तव ।। ५ ।। 
ययातिने कहा--(देवराज! मैंने अपने पुत्र पूरसे कहा था कि) बेटा! गंगा और 
यमुनाके बीचका यह सारा प्रदेश तुम्हारे अधिकारमें रहेगा। यह पृथ्वीका मध्य भाग है, 


इसके तुम राजा होओगे और तुम्हारे भाई सीमान्त देशोंके अधिपति होंगे || ५ ।। 
(न च कुर्यन्निरो दैन्यं शाठ्यं क्रोधं तथैव च । 
जैह्म्यं च मत्सरं वैरं सर्वत्रैव न कारयेत्‌ ।। 
मातरं पितरं चैव विद्वांसं च तपोधनम्‌ । 
क्षमावन्तं च देवेन्द्र नावमन्येत बुद्धिमान्‌ ।। 
शक्तस्तु क्षमते नित्यमशक्तः: क्रुध्यते नर: । 
दुर्जन: सुजन द्वेष्टि दुर्बलो बलवत्तरम्‌ ।। 
रूपवन्तमरूपी च धनवन्तं च निर्धन: । 
अकर्मी कर्मिण द्वेष्टि धार्मिक च न धार्मिक: ।। 
निर्गुणो गुणवन्तं च शक्रैतत्‌ कलिलक्षणम्‌ ।) 
देवेन्द्र! (इसके बाद मैंने यह आदेश दिया कि) मनुष्य दीनता, शठता और क्रोध न करे। 
कुटिलता, मात्सर्य और वैर कहीं न करे। माता-पिता, विद्वान, तपस्वी तथा क्षमाशील 
पुरुषका बुद्धिमान्‌ मनुष्य कभी अपमान न करे। शक्तिशाली पुरुष सदा क्षमा करता है। 
शक्तिहीन मनुष्य सदा क्रोध करता है। दुष्ट मानव साधु पुरुषसे और दुर्बल अधिक बलवान्‌से 
द्वेष करता है। कुरूप मनुष्य रूपवानसे, निर्धन धनवानसे, अकर्मण्य कर्मनिष्ठसे और 
अधार्मिक धर्मात्मासे द्वेष करता है। इसी प्रकार गुणहीन मनुष्य गुणवानसे डाह रखता है। 
इन्द्र! यह कलिका लक्षण है। 
अक्रोधन: क्रोधने भ्यो विशिष्ट- 
स्तथा तितिक्षुरतितिक्षोविशिष्ट: । 
अमानुषेभ्यो मानुषाश्च प्रधाना 
विद्वांस्तथैवाविदुष: प्रधान: ।। ६ ।। 
क्रोध करनेवालोंसे वह पुरुष श्रेष्ठ है, जो कभी क्रोध नहीं करता। इसी प्रकार 
असहनशीलसे सहनशील उत्तम है, मनुष्येतर प्राणियोंसे मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मूर्खोंसे विद्वान्‌ 
उत्तम है || ६ |। 
आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षत: । 
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥। ७ ।। 
यदि कोई किसीकी निन्‍्दा करता या उसे गाली देता हो तो वह भी बदलेमें निन्‍्दा या 
गाली-गलौज न करे; क्योंकि जो गाली या निन्दा सह लेता है, उस पुरुषका आन्तरिक दुःख 
ही गाली देनेवाले या अपमान करनेवालेको जला डालता है। साथ ही उसके पुण्यको भी 
वह ले लेता है | ७ ।। 
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी 
न हीनत: परमभ्याददीत । 
ययास्य वाचा पर उद्विजेत 


नतां वदेदुषतीं पापलोक्याम्‌ ।। ८ ।। 

क्रोधवश किसीके मर्म-स्थानमें चोट न पहुँचाये (ऐसा बर्ताव न करे, जिससे किसीको 
मार्मिक पीड़ा हो)। किसीके प्रति कठोर बात भी मुँहसे न निकाले। अनुचित उपायसे शत्रुको 
भी वशमें न करे। जो जीको जलानेवाली हो, जिससे दूसरेको उद्वेग होता हो, ऐसी बात 
मुँहसे न बोले; क्योंकि पापीलोग ही ऐसी बातें बोला करते हैं || ८ ।। 

अरुन्तुरदं परुषं तीक्षणवाचं 

वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान्‌ । 
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां 
मुखे निबद्धां निर्क्रतिं वहन्तम्‌ ।। ९ ।। 

जो स्वभावका कठोर हो, दूसरोंके मर्ममें चोट पहुँचाता हो, तीखी बातें बोलता हो और 
कठोर वचनरूपी काँटोंसे दूसरे मनुष्यको पीड़ा देता हो, उसे अत्यन्त लक्ष्मीहीन (दरिद्र या 
अभागा) समझे। (उसको देखना भी बुरा है; क्योंकि) वह कड़वी बोलीके रूपमें अपने 
मुँहमें बँधी हुई एक पिशाचिनीको ढो रहा है ।। ९ ।। 

सद्धिः पुरस्तादभिपूजित: स्यात्‌ 

सद्धिस्तथा पृष्ठतो रक्षित: स्यात्‌ 
सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत्‌ 
सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्त: ।। १० ।। 

(अपना बर्ताव और व्यवहार ऐसा रखे, जिससे) साधु पुरुष सामने तो सत्कार करें ही, 
पीठ-पीछे भी उनके द्वारा अपनी रक्षा हो। दुष्ट लोगोंकी कही हुई अनुचित बातें सदा सह 
लेनी चाहिये तथा श्रेष्ठ पुरुषोंके सदाचारका आश्रय लेकर साधु पुरुषोंके व्यवहारको ही 
अपनाना चाहिये ।। १० ।॥। 

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति 

यैराहत: शोचति रात्र्यहानि । 
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति 
तान्‌ पण्डितो नावसूजेत्‌ परेषु ।। ११ ।। 

दुष्ट मनुष्योंक मुखसे कटु वचनरूपी बाण सदा छूटते रहते हैं, जिनसे आहत होकर 
मनुष्य रात-दिन शोक और चिन्तामें डूबा रहता है। वे वाग्बाण दूसरोंके मर्मस्थानोंपर ही 
चोट करते हैं। अतः विद्वान पुरुष दूसरेके प्रति ऐसी कठोर वाणीका प्रयोग न करे ।। ११ ।। 

न हीदृशं संवनन त्रिषु लोकेषु विद्यते । 

दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक्‌ ।। १२ ।। 

सभी प्राणियोंके प्रति दया और मैत्रीका बर्ताव, दान और सबके प्रति मधुर वाणीका 
प्रयोग--तीनों लोकोंमें इनके समान कोई वशीकरण नहीं है ।। १२ ।। 

तस्मात्‌ सान्त्वं सदा वाच्यं न वाच्यं परुषं क्वचित्‌ | 


पूज्यान्‌ सम्पूजयेद्‌ दद्यान्न च याचेत्‌ कदाचन ।। १३ ।। 

इसलिये कभी कठोर वचन न बोले। सदा सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन ही बोले। पूजनीय 

पुरुषोंका पूजन (आदर-सत्कार) करे। दूसरोंको दान दे और स्वयं कभी किसीसे कुछ न 
माँगे || १३ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते सप्ताशीतितमो< ध्याय: ।। 

८७ |।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक सत्तासीवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८७ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ ३ श्लोक मिलाकर कुल १७३ “लोक हैं) 


नशा (0) अत न 


अष्टाशीतितमो< ध्याय: 
ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना 


इन्द्र रवाच 
सर्वाणि कर्माणि समाप्य राजन्‌ 
गृहं परित्यज्य वनं गतो$सि । 
तत्‌ त्वां पृच्छामि नहुषस्य पुत्र 
केनासि तुल्यस्तपसा ययाते ।। १ ।। 
इन्द्रने कहा--राजन्‌! तुम सम्पूर्ण कर्मोंको समाप्त करके घर छोड़कर वनमें चले गये 
थे। अतः नहुषपुत्र ययाते! मैं तुमसे पूछता हूँ कि तुम तपस्यामें किसके समान हो ।। १ ।। 
ययातिरुवाच 
नाहं देवमनुष्येषु गन्धर्वेषु महर्षिषु । 
आत्मनस्तपसा तुल्यं कंचित्‌ पश्यामि वासव ॥। २ ।। 
ययातिने कहा--इन्द्र! मैं देवताओं, मनुष्यों, गन्धर्वों और महर्षियोंमेंसे किसीको भी 
तपस्यामें अपनी बराबरी करनेवाला नहीं देखता हूँ ।। २ ।। 
इन्द्र रवाच 


यदावमंस्था: सदृश: श्रेयसश्न 
अल्पीयसश्षाविदितप्रभाव: । 
तस्माल्लोकास्त्वन्तवन्तस्तवेमे 
क्षीणे पुण्ये पतितास्यद्य राजन्‌ ॥। ३ ।। 
इन्द्र बोले--राजन्‌! तुमने अपने समान, अपनेसे बड़े और छोटे लोगोंका प्रभाव न 
जानकर सबका तिरस्कार किया है, अतः तुम्हारे इन पुण्यलोकोंमें रहनेकी अवधि समाप्त 
हो गयी; क्योंकि (दूसरोंकी निन्‍दा करनेके कारण) तुम्हारा पुण्य क्षीण हो गया, इसलिये अब 
तुम यहाँसे नीचे गिरोगे || ३ ।। 
ययातिरुवाच 


सुरर्िगन्धर्वनरावमानात्‌ 

क्षयं गता मे यदि शक्र लोका: । 
इच्छाम्यहं सुरलोकाद्‌ विहीन: 

सतां मध्ये पतितुं देवराज ।। ४ ।। 


ययातिने कहा--देवराज इन्द्र! देवता, ऋषि, गन्धर्व और मनुष्य आदिका अपमान 
करनेके कारण यदि मेरे पुण्यलोक क्षीण हो गये हैं तो इन्द्रलोकसे भ्रष्ट होकर मैं साधु 
पुरुषोंके बीचमें गिरनेकी इच्छा करता हूँ ।। ४ ।। 


इन्द्र उवाच 
सतां सकाशे पतितासि राजं- 
क्ष्युतः प्रतिष्ठां यत्र लब्धासि भूय: । 
एतद्‌ विदित्वा च पुनर्ययाते 


त्वं मावमंस्था: सदृश: श्रेयसश्ल॒ ।। ५ ।। 
इन्द्र बोले--राजा ययाति! तुम यहाँसे च्युत होकर साधु पुरुषोंके समीप गिरोगे और 
वहाँ अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त कर लोगे। यह सब जानकर तुम फिर कभी अपने 
बराबर तथा अपनेसे बड़े लोगोंका अपमान न करना ।। ५ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


ततः प्रहायामरराजजुष्टान्‌ 
पुण्याँलल्‍लोकान्‌ पतमानं ययातिम्‌ | 
सम्प्रेक्ष्य राजर्षिवरो5ष्टकस्त- 
मुवाच सद्धर्मविधानगोप्ता ।। ६ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर देवराज इन्द्रके सेवन करनेयोग्य 
पुण्यलोकोंका परित्याग करके राजा ययाति नीचे गिरने लगे। उस समय राजर्षियोंमें श्रेष्ठ 
अष्टकने उन्हें गिरते देखा। वे उत्तम धर्म-विधिके पालक थे। उन्होंने ययातिसे कहा ।। ६ ।। 


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ययातिका पतन 





अट्क उवाच 


कस्त्वं युवा वासवतुल्यरूप: 
स्वतेजसा दीप्यमानो यथाग्नि: । 
पतसस्‍्युदीर्णाम्बुधरान्धकारात्‌ 
खात्‌ खेचराणां प्रवरो यथार्क: ।। ७ ।। 
अष्टकने पूछा--इन्द्रके समान सुन्दर रूपवाले तरुण पुरुष तुम कौन हो? तुम अपने 
तेजसे अग्निकी भाँति देदीप्यमान हो रहे हो। मेघरूपी घने अन्धकारवाले आकाशसे 
आकाशचरी ग्रहोंमें श्रेष्ठ सूर्यवके समान तुम कैसे गिर रहे हो? ।। ७ ।। 
दृष्टवा च त्वां सूर्यपथात्‌ पतन्तं 
वैश्वानरार्कद्युतिमप्रमेयम्‌ । 
कि नु स्विदेतत्‌ पततीति सर्वे 
वितर्कयन्त: परिमोहिता: सम: ।। ८ ।। 
तुम्हारा तेज सूर्य और अग्निके सदृश है। तुम अप्रमेय शक्तिशाली जान पड़ते हो। तुम्हें 
सूर्यके मार्गसे गिरते देख हम सब लोग मोहित होकर इस तर्क-वितर्कमें पड़े हैं कि 'यह क्या 
गिर रहा है?” ।। ८ ।। 


दृष्टवा च त्वां धिछितं देवमार्गे 
शक्रार्कविष्णुप्रतिमप्रभावम्‌ । 
अभ्युद्गतास्त्वां वयमद्य सर्वे 
तत्त्वं प्रपाते तव जिज्ञासमाना: ।॥। ९ ।। 
तुम इन्द्र, सूर्य और विष्णुके समान प्रभावशाली हो। तुम्हें आकाशमें स्थित देखकर हम 
सब लोग अब यह जाननेके लिये तुम्हारे निकट आये हैं कि तुम्हारे पतनका यथार्थ कारण 
क्या है? ।। ९ ।। 
नचापि त्वां धृष्णुम: प्रष्टमग्रे 
न च त्वमस्मान्‌ पृच्छसि ये वयं सम: । 
तत्‌ त्वां पृच्छामि स्पृहणीयरूप 
कस्य त्वं वा किंनिमित्तं त्वमागा: ।। १० ।। 
हम पहले तुमसे कुछ पूछनेका साहस नहीं कर सकते और तुम भी हमसे हमारा 
परिचय नहीं पूछते हो; कि हम कौन हैं? इसलिये मैं ही तुमसे पूछता हूँ। मनोरम रूपवाले 
महापुरुष! तुम किसके पुत्र हो? और किसलिये यहाँ आये हो? ।। १० ।॥। 
भयं तु ते व्येतु विषादमोहौ 
त्यजाशु चैवेन्द्रसमप्र भाव । 
त्वां वर्तमानं हि सतां सकाशे 
नालं प्रसोढुं बलहापि शक्र: ।। ११ ।। 
इन्द्रके तुल्य शक्तिशाली पुरुष! तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। अब तुम्हें विषाद 
और मोहको भी तुरंत त्याग देना चाहिये। इस समय तुम संतोंके समीप विद्यमान हो। बल 
दानवका नाश करनेवाले इन्द्र भी अब तुम्हारा तेज सहन करनेमें असमर्थ हैं || ११ ।। 
सन्त: प्रतिष्ठा हि सुखच्युतानां 
सतां सदैवामरराजकल्प । 
ते संगता: स्थावरजड्रमेशा: 
प्रतिष्ठितस्त्वं सदृशेषु सत्सु || १२ ।। 
देवेश्वर इन्द्रके समान तेजस्वी महानुभाव! सुखसे वंचित होनेवाले साधु पुरुषोंके लिये 
सदा संत ही परम आश्रय हैं। वे स्थावर और जंगम सब प्राणियोंपर शासन करनेवाले 
सत्पुरुष यहाँ एकत्र हुए हैं। तुम अपने समान पुण्यात्मा संतोंके बीचमें स्थित हो || १२ ।। 
प्रभुरग्नि: प्रतपने भूमिरावपने प्रभु: । 
प्रभु: सूर्य: प्रकाशित्वे सतां चाभ्यागत: प्रभु: ।॥ १३ ।। 
जैसे तपनेकी शक्ति अग्निमें है, बोये हुए बीजको धारण करनेकी शक्ति पृथ्वीमें है, 
प्रकाशित होनेकी शक्ति सूर्यमें है, इसी प्रकार संतोंपर शासन करनेकी शक्ति केवल 
अतिथिगमें है ।। १३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते अष्टाशीतितमो<ध्याय: ।। 
८८ ॥। 
इस प्रकार श्रीमयहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक अद्ठासीवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८८ ॥ 


ऑपनआ कराता बछ। अर: 


एकोननवतितमो<ध्याय: 
ययाति और अष्टकका संवाद 


ययातिरुवाच 
अहं ययातिर्नहुषस्य पुत्र: 
पूरो: पिता सर्वभूतावमानात्‌ | 
प्रभ्रंशित: सुरसिद्धर्षिलोकात्‌ 
परिच्युत: प्रपताम्यल्पपुण्य: ।। १ ।। 
ययातिने कहा--महात्मन्‌! मैं नहुषका पुत्र और पूरुका पिता ययाति हूँ। समस्त 
प्राणियोंका अपमान करनेसे मेरा पुण्य क्षीण हो जानेके कारण मैं देवताओं, सिद्धों तथा 
महर्षियोंके लोकसे च्युत होकर नीचे गिर रहा हूँ ।। १ ।। 
अहं हि पूर्वो वयसा भवदभ्य- 
स्तेनाभिवादं भवतां न प्रयुञ्जे । 
यो विद्यया तपसा जन्मना वा 
वृद्ध: स पूज्यो भवति द्विजानाम्‌ ॥। २ ॥। 
मैं आपलोगोंसे अवस्थामें बड़ा हूँ, अतः आपलोगोंको प्रणाम नहीं कर रहा हूँ। 
द्विजातियोंमें जो विद्या, तप और अवस्थामें बड़ा होता है, वह पूजनीय माना जाता 
है।। २ ।। 


जटद्टक उवाच 


अवादीस्त्वं वयसा य: प्रवृद्ध: 
स वै राजन नाभ्यधिक: कथ्यते च | 
यो विद्यया तपसा सम्प्रवृद्ध: 
स एव पूज्यो भवति द्विजानाम्‌ ॥। ३ ।। 
अष्टक बोले--राजन्‌! आपने कहा है कि जो अवस्थामें बड़ा हो, वही अधिक 
सम्माननीय कहा जाता है। परंतु द्विजोंमें तो जो विद्या और तपस्यामें बढ़ा-चढ़ा हो, वही 
पूज्य होता है ।। ३ ।। 
ययातिरुवाच 
प्रतिकूल कर्मणां पापमाहु- 
स्तद्‌ वर्तते5प्रवणे पापलोक्यम्‌ । 
सनन्‍्तो<सतां नानुवर्तन्ति चैतद्‌ 
यथा चैषामनुकूलास्तथा55सन्‌ ।। ४ ।। 


ययातिने कहा--पापको पुण्यकर्मोका नाशक बताया जाता है, वह नरककी प्राप्ति 
करानेवाला है और वह उद्दण्ड पुरुषोंमें ही देखा जाता है। दुराचारी पुरुषोंके दुराचारका श्रेष्ठ 
पुरुष अनुसरण नहीं करते हैं। पहलेके साधु पुरुष भी उन श्रेष्ठ पुरुषोंक ही अनुकूल 
आचरण करते थे ।। ४ ।। 
अभूद्‌ धनं मे विपुलं गतं तद्‌ 
विचेष्टमानो नाधिगन्ता तदस्मि । 
एवं प्रधार्यात्महिते निविष्टो 
यो वर्तते स विजानाति धीर: ।। ५ ।। 
मेरे पास पुण्यरूपी बहुत धन था; किंतु दूसरोंकी निन्दा करनेके कारण वह सब नष्ट हो 
गया। अब मैं चेष्टा करके भी उसे नहीं पा सकता। मेरी इस दुरवस्थाको समझ-बूझकर जो 
आत्मकल्याणमें संलग्न रहता है, वही ज्ञानी और वही धीर है ।। ५ ।। 
महाधनो यो यजते सुयज्ञै- 
र्य: सर्वविद्यासु विनीतबुद्धि: । 
वेदानधीत्य तपसा<5<योज्य देहं 
दिव॑ समायात्‌ पुरुषो वीतमोह: ।। ६ ।। 
जो मनुष्य बहुत धनी होकर उत्तम यज्ञोंद्वारा भगवानूकी आराधना करता है, सम्पूर्ण 
विद्याओंको पाकर जिसकी बुद्धि विनययुक्त है तथा जो वेदोंको पढ़कर अपने शरीरको 
तपस्यामें लगा देता है, वह पुरुष मोहरहित होकर स्वर्गमें जाता है ।। ६ ।। 
न जातु हृष्येन्महता धनेन 
वेदानधीयीतानहंकृतः स्यात्‌ | 
नानाभावा बहवो जीवलोके 
दैवाधीना नष्टचेष्टाधिकारा: । 
तत्‌ तत्‌ प्राप्य न विहन्येत धीरो 
दिष्टं बलीय इति मत्वा55त्मबुद्धा ।। ७ ।। 
महान्‌ धन पाकर कभी हर्षसे उललसित न हो, वेदोंका अध्ययन करे, किंतु अहंकारी न 
बने। इस जीव-जगत्‌में भिन्न-भिन्न स्वभाववाले बहुत-से प्राणी हैं, वे सभी प्रारब्धके अधीन 
हैं, अतः उनके धनादि पदार्थोंके लिये किये हुए उद्योग और अधिकार सभी व्यर्थ हो जाते 
हैं। इसलिये धीर पुरुषको चाहिये कि वह अपनी बुद्धिसे “प्रारब्ध ही बलवान्‌ है” यह 
जानकर दुःख या सुख जो भी मिले, उसमें विकारको प्राप्त न हो || ७ ।। 
सुखं हि जन्तुर्यदि वापि दु:खं 
दैवाधीनं विन्दते नात्मशक्त्या । 
तस्माद्‌ दिष्टं बलवन्मन्यमानो 
न संज्वरेन्नापि हृष्येत्‌ कथंचित्‌ ।। ८ ।। 


जीव जो सुख अथवा दु:ख पाता है, वह प्रारब्धसे ही प्राप्त होता है, अपनी शक्तिसे 
नहीं। अतः प्रारब्धको ही बलवान्‌ मानकर मनुष्य किसी प्रकार भी हर्ष अथवा शोक न 
करे ।। ८ ।। 
दुःखैर्न तप्येन्न सुखै: प्रहष्येत्‌ 
समेन वर्तेत सदैव धीर: । 
दिष्टं बलीय इति मन्यमानो 
न संज्वरेन्नापि हृष्येत्‌ कथंचित्‌ ।। ९ ।। 
दुःखोंसे संतप्त न हो और सुखोंसे हर्षित न हो। धीर पुरुष सदा समभावसे ही रहे और 
भाग्यको ही प्रबल मानकर किसी प्रकार चिन्ता एवं हर्षके वशीभूत न हो ।। ९ ।। 
भये न मुहाम्यष्टकाहं कदाचित्‌ 
संतापो मे मानसो नास्ति कश्षित्‌ । 
धाता यथा मां विदधीत लोके 
ध्रुवं तथाहं भवितेति मत्वा ।। १० ।। 
अष्टक! मैं कभी भयमें पड़कर मोहित नहीं होता, मुझे कोई मानसिक संताप भी नहीं 
होता; क्‍योंकि मैं समझता हूँ कि विधाता इस संसारमें मुझे जैसे रखेगा, वैसे ही 
रहूँगा ।। १० ।। 
संस्वेदजा अण्डजाश्षोद्धिदश्न 
सरीसृपा: कृमयो<थाप्सु मत्स्या: । 
तथाश्मानस्तृणकाष्ठ॑ च सर्वे 
दिष्टक्षये स्वां प्रकृति भजन्ति ।। ११ ।। 
स्वेदज, अण्डज, उद्धिज्ज, सरीसूप, कृमि, जलमें रहनेवाले मत्स्य आदि जीव तथा 
पर्वत, तृण और काष्ठ--ये सभी प्रारब्ध-भोगका सर्वथा क्षय हो जानेपर अपनी प्रकृतिको 
प्राप्त हो जाते हैं ।। ११ ।। 
अनित्यतां सुखदु:खस्य बुद्ध्वा 
कस्मात्‌ संतापमष्टकाहं भजेयम्‌ | 
कि कुर्या वै कि च कृत्वा न तप्ये 
तस्मात्‌ संतापं वर्जयाम्यप्रमत्त: ।। १२ ।। 
अष्टक! मैं सुख तथा दुःख दोनोंकी अनित्यताको जानता हूँ, फिर मुझे संताप हो तो 
कैसे? मैं क्या करूँ: और क्या करके संतप्त न होऊँ, इन बातोंकी चिन्ता छोड़ चुका हूँ। अतः 
सावधान रहकर शोक-संतापको अपनेसे दूर रखता हूँ || १२ ।। 
(दुःखे न खिद्येन्न सुखेन माद्येत्‌ 
समेन वर्तेत स धीरधर्मा । 
दिष्टं बलीय: समवेक्ष्य बुद्ध्या 


न सज्जते चात्र भृशं मनुष्य: ।।) 
जो दुःखमें खिन्न नहीं होता, सुखसे मतवाला नहीं हो उठता और सबके साथ समान 
भावसे बर्ताव करता है, वह धीर कहा गया है। विज्ञ मनुष्य बुद्धिसे प्रारब्धको अत्यन्त 
बलवान्‌ समझकर यहाँ किसी भी विषयमें अधिक आसक्त नहीं होता। 


वैशम्पायन उवाच 
एवं ब्रुवाणं नृपतिं ययाति- 
मथाष्टक: पुनरेवान्वपृच्छत्‌ । 
मातामहं सर्वगुणोपपन्नं 


तत्र स्थितं स्वर्गलोके यथावत्‌ ।। १३ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा ययाति समस्त सदगुणोंसे सम्पन्न थे और 
नातेमें अष्टकके नाना लगते थे। वे अन्तरिक्षमें वैसे ही ठहरे हुए थे, मानो स्वर्गलोकमें हों। 
जब उन्होंने उपर्युक्त बातें कहीं, तब अष्टकने उनसे पुनः प्रश्न किया || १३ ।। 
अष्टक उवाच 


ये ये लोकाः पार्थिवेन्द्र प्रधाना- 
स्त्वया भुक्ता यं च काल॑ यथावत्‌ | 
तान्‌ मे राजन ब्रूहि सर्वान्‌ यथावत्‌ 
क्षेत्रज्मवद्‌ भाषसे त्वं हि धर्मान्‌ ।। १४ ।। 
अष्टक बोले--महाराज! आपने जिन-जिन प्रधान लोकोंमें रहकर जितने समयतक 
वहाँके सुखोंका भलीभाँति उपभोग किया है, उन सबका मुझे यथार्थ परिचय दीजिये। 
राजन्‌! आप तो महात्माओंकी भाँति धर्मोका उपदेश कर रहे हैं |। १४ ।। 


ययातिरुवाच 
राजाहमासमिह सार्वभौम- 
स्ततो लोकान्‌ महतश्चलाजयं वै | 
तत्रावसं वर्षसहस्रमात्र 


ततो लोकं परमस्म्यभ्युपेत: ।। १५ ।। 
ययातिने कहा--अष्टक! मैं पहले समस्त भूमण्डलमें प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजा था। 
तदनन्तर सत्कर्मोद्वारा बड़े-बड़े लोकोंपर मैंने विजय प्राप्त की और उनमें एक हजार 
वर्षोतक निवास किया। इसके बाद उनसे भी उच्चतम लोकमें जा पहुँचा || १५ ।। 
ततः पुरी पुरुहृतस्य रम्यां 
सहस्रद्वारां शतयोजनायताम्‌ । 
अध्यावसं वर्षसहसतमात्र 


ततो लोकं परमस्म्यभ्युपेत: ।। १६ ।। 
वहाँ सौ योजन विस्तृत और एक हजार दरवाजोंसे युक्त इन्द्रकी रमणीय पुरी प्राप्त हुई। 
उसमें मैंने केवल एक हजार वर्षोतक निवास किया और उसके बाद उससे भी ऊँचे लोकमें 
गया ।। १६ || 
ततो दिव्यमजंर प्राप्प लोक॑ 
प्रजापतेलॉकपतेर्दुरापम्‌ । 
तत्रावसं वर्षसहसमात्रं 
ततो लोकं परमस्म्यभ्युपेत: ।। १७ ।। 
तदनन्तर लोकपालोंके लिये भी दुर्लभ प्रजापतिके उस दिव्य लोकमें जा पहुँचा, जहाँ 
जरावस्थाका प्रवेश नहीं है। वहाँ एक हजार वर्षतक रहा, फिर उससे भी उत्तम लोकमें चला 
गया || १७ ।। 
स देवदेवस्य निवेशने च 
विहृत्य लोकानवसं यथेष्टम्‌ । 
सम्पूज्यमानस्त्रिदशै: समस्तै- 
स्तुल्यप्रभावद्युतिरी श्वराणाम्‌ ।। १८ ।। 
वह देवाधिदेव ब्रह्माजीका धाम था। वहाँ मैं अपनी इच्छाके अनुसार भिन्न-भिन्न 
लोकोंमें विहार करता हुआ सम्पूर्ण देवताओंसे सम्मानित होकर रहा। उस समय मेरा प्रभाव 
और तेज देवेश्वरोंके समान था ।। १८ ।। 
तथावसं नन्दने कामरूपी 
संवत्सराणामयुतं शतानाम्‌ | 
सहाप्सरोभिविंहरन्‌ पुण्यगन्धान्‌ 
पश्यन्‌ नगान्‌ पुष्यितांश्चवारुरूपान्‌ ।। १९ ।। 
इसी प्रकार मैं नन्‍्दनवनमें इच्छानुसार रूप धारण करके अप्सराओंके साथ विहार 
करता हुआ दस लाख वर्षोतक रहा। वहाँ मुझे पवित्र गन्ध और मनोहर रूपवाले वृक्ष 
देखनेको मिले, जो फूलोंसे लदे हुए थे || १९ ।। 
तत्र स्थितं मां देवसुखेषु सक्तं 
काले5तीते महति ततो&5तिमात्रम्‌ | 
दूतो देवानामत्रवीदुग्ररूपो 
ध्वंसेत्युच्चैस्त्रि: प्लुतेन स्वरेण ॥। २० ।। 
वहाँ रहकर मैं देवलोकके सुखोंमें आसक्त हो गया। तदनन्तर बहुत अधिक समय बीत 
जानेपर एक भयंकर रूपधारी देवदूत आकर मुझसे ऊँची आवाजमें तीन बार बोला--“गिर 
जाओ, गिर जाओ, गिर जाओ' || २० ।। 
एतावन्मे विदितं राजसिंह 


ततो भ्रष्टो5हं नन्दनात्‌ क्षीणपुण्य: । 
वाचो<5श्रौष॑ चान्तरिक्षे सुराणां 
सानुक्रोशा: शोचतां मां नरेन्द्र || २१ ।। 

राजशिरोमणे! मुझे इतना ही ज्ञात हो सका है। तदनन्तर पुण्य क्षीण हो जानेके कारण 
मैं नन्दनवनसे नीचे गिर पड़ा। नरेन्द्र! उस समय मेरे लिये शोक करनेवाले देवताओंकी 
अन्तरिक्षमें यह दयाभरी वाणी सुनायी पड़ी-- ।। २१ ।। 

अहो कष्ट क्षीणपुण्यो ययाति: 

पतत्यसौ पुण्यकृत्‌ पुण्यकीर्ति: । 
तानब्रुवं पतमानस्ततोऊहं 
सतां मध्ये निपतेयं कथं नु । २२ ।। 

“अहो! बड़े कष्टकी बात है कि पवित्र कीर्तिवाले ये पुण्यकर्मा महाराज ययाति पुण्य 
क्षीण होनेके कारण नीचे गिर रहे हैं।” तब नीचे गिरते हुए मैंने उनसे पूछा--'देवताओ! मैं 
साधु पुरुषोंके बीच गिर, इसका क्या उपाय है!” ।। २२ ।। 

तैराख्याता भवतां यज्ञभूमि: 

समीक्ष्य चेमां त्वरितमुपागतो5स्मि । 
हविर्गन्ध॑ देशिकं यज्ञभूमे- 
र्धूमापाड़ं प्रतिगृह प्रतीत: ।। २३ ।। 

तब देवताओंने मुझे आपकी यज्ञभूमिका परिचय दिया। मैं इसीको देखता हुआ तुरंत 
यहाँ आ पहुँचा हूँ। यज्ञभूमिका परिचय देनेवाली हविष्यकी सुगन्धका अनुभव तथा 
धूमप्रानन्‍्तका अवलोकन करके मुझे बड़ी प्रसन्नता और सान्त्वना मिली है || २३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते एकोननवतितमो< ध्याय: 
॥ ८९ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक नवासीवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८९ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं) 


अप बछ। है २ >> 


नवतितमो< ध्याय: 
अष्टक और ययातिका संवाद 


अद्टक उवाच 


यदावसो नन्दने कामरूपी 
संवत्सराणामयुतं शतानाम्‌ | 
कि कारण कार्तयुगप्रधान 
हित्वा च त्वं वसुधामन्वपद्य: ।। १ ।। 
अष्टकने पूछा--सत्ययुगके निष्पाप राजाओंमें प्रधान नरेश! जब आप इच्छानुसार 
रूप धारण करके दस लाख वर्षोतक नन्दनवनमें निवास कर चुके हैं, तब क्या कारण है कि 
आप उसे छोड़कर भूतलपर चले आये? ।। १ ।। 
ययातिरुवाच 


ज्ञातिः सुह्त्‌ स्‍्वजनो वा यथेह 
क्षीणे वित्ते त्यज्यते मानवैर्हि । 
तथा तत्र क्षीणपुण्य॑ मनुष्य 
त्यजन्ति सद्यः सेश्वरा देवसड्घा: ।। २ ।। 
ययाति बोले--जैसे इस लोकमें जाति-भाई, सुह्ृद्‌ अथवा स्वजन कोई भी क्‍यों न हो, 
धन नष्ट हो जानेपर उसे सब मनुष्य त्याग देते हैं; उसी प्रकार परलोकमें जिसका पुण्य 
समाप्त हो गया है, उस मनुष्यको देवराज इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता तुरंत त्याग देते 
हैं ।। २ ।। 
अष्टक उवाच 
तस्मिन्‌ कथं क्षीणपुण्या भवन्ति 
सम्मुहाते मे5त्र मनो5तिमात्रम्‌ | 
कि वा विशिष्टा: कस्य धामोपयान्ति 
तद्‌ वै ब्रृहि क्षेत्रवित्‌ त्वं मतो मे ।। ३ ।। 
अष्टकने पूछा--देवलोकमें मनुष्योंके पुण्य कैसे क्षीण होते हैं? इस विषयमें मेरा मन 
अत्यन्त मोहित हो रहा है। प्रजापतिका वह कौन-सा धाम है, जिसमें विशिष्ट 
(अपुनरावृत्तिकी योग्यतावाले) पुरुष जाते हैं? यह बताइये; क्योंकि आप मुझे क्षेत्रज्ञ 
(आत्मज्ञानी) जान पड़ते हैं ।। ३ ।। 
ययातिरुवाच 


इमं भौम॑ नरकं ते पतन्ति 
लालप्यमाना नरदेव सर्वे । 
ते कड़्कगोमायुबलाशनार्थ- 
क्षीणा विवृद्धिं बहुधा व्रजन्ति ।। ४ ।। 
ययाति बोले--नरदेव! जो अपने मुखसे अपने पुण्य-कर्मोंका बखान करते हैं, वे सभी 
इस भौम नरकमें आ गिरते हैं। यहाँ वे गीधों, गीदड़ों और कौओं आदिके खानेयोग्य इस 
शरीरके लिये बड़ा भारी परिश्रम करके क्षीण होते और पुत्र-पौत्रादिरूपसे बहुधा विस्तारको 
प्राप्त होते हैं ।। ४ ।। 
तस्मादेतद्‌ वर्जनीयं नरेन्द्र 
दुष्ट लोके गर्हणीयं च कर्म । 
आखा्यात॑ ते पार्थिव सर्वमेव 
भूयश्वेदानीं वद कि ते वदामि ।। ५ || 
इसलिये नरेन्द्र! इस लोकमें जो दुष्ट और निन्दनीय कर्म हो उसको सर्वथा त्याग देना 
चाहिये। भूपाल! मैंने तुमसे सब कुछ कह दिया, बोलो, अब और तुम्हें क्या 
बताऊँ? ।। ५ ।। 
अष्टक उवाच 
यदा तु तान्‌ वितुदन्ते वयांसि 
तथा गृथ्रा: शितिकण्ठा: पतज्जभा: । 
कथं भवन्ति कथमाभवन्ति 
न भौममन्यं नरकं॑ शृणोमि ॥। ६ ।। 
अष्टकने पूछा--जब मनुष्योंको मृत्युके पश्चात्‌ पक्षी, गीध, नीलकण्ठ और पतंग ये 
नोच-नोचकर खा लेते हैं, तब वे कैसे और किस रूपमें उत्पन्न होते हैं? मैंने अबतक भौम 
नामक किसी दूसरे नरकका नाम नहीं सुना था || ६ |। 
ययातिरुवाच 
ऊर्ध्व॑ देहात्‌ कर्मणा जृम्भमाणाद्‌ 
व्यक्त पृथिव्यामनुसंचरन्ति । 
इमं भौम॑ नरकं ते पतन्ति 
नावेक्षन्ते वर्षपूगाननेकान्‌ ।। ७ ।। 
ययाति बोले--कर्मसे उत्पन्न होने और बढ़नेवाले शरीरको पाकर गर्भसे निकलनेके 
पश्चात्‌ जीव सबके समक्ष इस पृथ्वीपर (विषयोंमें) विचरते हैं। उनका यह विचरण ही भौम 
नरक कहा गया है। इसीमें वे पड़ते हैं। इसमें पड़नेपर वे व्यर्थ बीतनेवाले अनेक 
वर्षसमूहोंकी ओर दृष्टिपात नहीं करते ।। ७ ।। 


षष्टिं सहस्राणि पतन्ति व्योम्नि 
तथा अशीतिं परिवत्सराणि । 
तान्‌ वै तुदन्ति पतत:ः प्रपातं 
भीमा भौमा राक्षसास्तीक्षणदंष्टा: ।। ८ ।॥। 
कितने ही प्राणी आकाश (स्वर्गादि)-में साठ हजार वर्ष रहते हैं। कुछ अस्सी हजार 
वर्षोतक वहाँ निवास करते हैं। इसके बाद वे भूमिपर गिरते हैं। यहाँ उन गिरनेवाले जीवोंको 
तीखी दाढ़ोंवाले पृथ्वीके भयानक राक्षस (दुष्ट प्राणी) अत्यन्त पीड़ा देते हैं ।। ८ ।। 


अष्टक उवाच 
यदेनसस्ते पततस्तुदन्ति 

भीमा भौमा राक्षसास्तीक्ष्णदंष्टा: । 
कथं भवन्ति कथमाभवन्ति 


कथंभूता गर्भभूता भवन्ति ।। ९ ।। 
अष्टकने पूछा--तीखी दाढ़ोंवाले पृथ्वीके वे भयंकर राक्षस पापवश आकाशसे गिरते 
हुए जिन जीवोंको सताते हैं, वे गिरकर कैसे जीवित रहते हैं? किस प्रकार इन्द्रिय आदिसे 
युक्त होते हैं? और कैसे गर्भमें आते हैं? ।। ९ ।। 
ययातिरुवाच 
अस॑र॑ रेत: पुष्पफलानुपृक्त- 
मन्वेति तद्‌ वै पुरुषेण सृष्टम्‌ । 
स वै तस्या रज आपसद्यते वै 
स गर्भभूत: समुपैति तत्र ।। १० ।। 
ययाति बोले--अन्तरिक्षसे गिरा हुआ प्राणी अस्र (जल) होता है। फिर वही क्रमश: 
नूतन शरीरका बीजभूत वीर्य बन जाता है। वह वीर्य फूल और फलरूपी शेष कर्मोंसे संयुक्त 
होकर तदनुरूप योनिका अनुसरण करता है। गर्भाधान करनेवाले पुरुषके द्वारा स्त्रीसंसर्ग 
होनेपर वह वीर्यमें आविष्ट हुआ जीव उस स्त्रीके रजसे मिल जाता है। तदनन्तर वही 
गर्भरूपमें परिणत हो जाता है || १० ।। 
वनस्पतीनोषधीक्षाविशन्ति 
अपो वायु पृथिवीं चान्तरिक्षम्‌ 
चतुष्पदं द्विपदं चापि सर्व- 
मेवम्भूता गर्भभूता भवन्ति ।। ११ ।। 
जीव जलरूपसे गिरकर वनस्पतियों और ओषधियोंमें प्रवेश करते हैं। जल, वायु, पृथ्वी 
और अन्तरिक्ष आदिमें प्रवेश करते हुए कर्मानुसार पशु अथवा मनुष्य सब कुछ होते हैं। इस 
प्रकार भूमिपर आकर फिर पूर्वोक्त क्रमके अनुसार गर्भभावको प्राप्त होते हैं ।। ११ ।। 


अष्टक उवाच 
अन्यद्‌ वरपुर्विद्धातीह गर्भ- 
मुताहोस्वित्‌ स्वेन कायेन याति । 
आपसद्यमानो नरयोनिमेता- 
माचक्ष्व मे संशयात्‌ प्रब्रवीमि ॥। १२ ।। 
अष्टकने पूछा--राजन्‌! इस मनुष्ययोनिमें आनेवाला जीव अपने इसी शरीरसे गर्भमें 
आता है या दूसरा शरीर धारण करता है। आप यह रहस्य मुझे बताइये। मैं संशय होनेके 
कारण पूछता हूँ ।। १२ ।। 
शरीरभेदाभिसमुच्छूयं च 
चक्षु:श्रोत्रे लभते केन संज्ञाम्‌ 
एतत तत्त्वं सर्वमाचक्ष्व पृष्ट: 
क्षेत्रज्ञ त्वां तात मन्याम सर्वे ।। १३ ।। 
गर्भमें आनेपर वह भिन्न-भिन्न शरीररूपी आश्रयको, आँख और कान आदि इन्द्रियोंको 
तथा चेतनाको भी कैसे उपलब्ध करता है? मेरे पूछनेपर ये सब बातें आप बताइये। तात! 
हम सब लोग आपको क्षेत्रज्ञ (आत्मज्ञानी) मानते हैं ।। १३ ।। 
ययातिरुवाच 
वायु: समुत्कर्षति गर्भयोनि- 
मृतौ रेत: पुष्परसानुपृक्तम्‌ | 
स तत्र तन्मात्रकृताधिकार: 
क्रमेण संवर्धयतीह गर्भम्‌ ।। १४ ।। 
ययाति बोले--ऋतुकालनमें पुष्परससे संयुक्त वीर्यको वायु गर्भाशयमें खींच लाता है। 
वहाँ गर्भाशयमें सूक्ष्मभूत उसपर अधिकार कर लेते हैं और वह क्रमश: गर्भकी वृद्धि करता 
रहता है ।। १४ ।। 
स जायमानो विगृहीतमात्र: 
संज्ञामधिष्ठाय ततो मनुष्य: । 
स श्रोत्राभ्यां वेदयतीह शब्दं 
सवै रूप॑ पश्यति चक्षुषा च ।। १५ ।। 
वह गर्भ बढ़कर जब सम्पूर्ण अवयवोंसे सम्पन्न हो जाता है, तब चेतनताका आश्रय ले 
योनिसे बाहर निकलकर मनुष्य कहलाता है। वह कानोंसे शब्द सुनता है, आँखोंसे रूप 
देखता है | १५ ।। 
प्राणेन गन्धं जिह्लयाथो रसं च 
त्वचा स्पर्श मनसा वेद भावम्‌ | 


इत्यष्टकेहोपदहितं हि विद्धि 
महात्मनां प्राणभृतां शरीरे ।। १६ ।। 
नासिकासे सुगन्ध लेता है। जिह्लासे रसका आस्वादन करता है। त्वचासे स्पर्श और 
मनसे आन्तरिक भावोंका अनुभव करता है। अष्टक! इस प्रकार महात्मा प्राणधारियोंके 
शरीरमें जीवकी स्थापना होती है ।। १६ ।। 
अष्टक उवाच 
यः संस्थित: पुरुषो दहांते वा 
निखन्यते वापि निकृष्यते वा । 
अभावभूत: स विनाशगमेत्य 
केनात्मना चेतयते परस्तात्‌ ।। १७ ।। 
अष्टकने पूछा--जो मनुष्य मर जाता है, वह जलाया जाता है या गाड़ दिया जाता है 
अथवा जलनमें बहा दिया जाता है। इस प्रकार विनाश होकर स्थूल शरीरका अभाव हो जाता 
है। फिर वह चेतन जीवात्मा किस शरीरके आधारपर रहकर चैतन्ययुक्त व्यवहार करता 
है? ।। १७ |। 
ययातिरुवाच 
हित्वा सो$सून्‌ सुप्तवन्निष्टनित्वा 
पुरोधाय सुकृतं दुष्कृतं वा । 
अन्‍्यां योनिं पवनाग्रानुसारी 
हित्वा देह भजते राजसिंह ।। १८ ।। 
ययाति बोले--राजसिंह! जैसे मनुष्य श्वास लेते हुए प्राणयुक्त स्थूल शरीरको छोड़कर 
स्वप्रमें विचरण करता है, वैसे ही यह चेतन जीवात्मा अस्फुट शब्दोच्चारणके साथ इस 
मृतक स्थूल शरीरको त्यागकर सूक्ष्म शरीरसे संयुक्त होता है और फिर पुण्य अथवा पापको 
आगे रखकर वायुके समान वेगसे चलता हुआ अन्य योनिको प्राप्त होता है || १८ ।। 
पुण्यां योनिं पुण्यकृतो व्रजन्ति 
पापां योनिं पापकृतो व्रजन्ति । 
कीटा: पतज्जाश्ष भवन्ति पापा 
न मे विवक्षास्ति महानुभाव ।। १९ |। 
चतुष्पदा द्विपदा: षट्पदाश्न 
तथाभूता गर्भभूता भवन्ति । 
आखूयातमेतन्निखिलेन सर्व 
भूयस्तु कि पृच्छसि राजसिंह ।। २० ।। 


पुण्य करनेवाले मनुष्य पुण्य-योनियोंमें जाते हैं और पाप करनेवाले मनुष्य पाप-योनिमें 

जाते हैं। इस प्रकार पापी जीव कीट-पतंग आदि होते हैं। महानुभाव! इन सब विषयोंको 

विस्तारके साथ कहनेकी इच्छा नहीं होती। नृपश्रेष्ठ) इसी प्रकार जीव गर्भमें आकर चार 

पैर, छः पैर और दो पैरवाले प्राणियोंके रूपमें उत्पन्न होते हैं। यह सब मैंने पूरा-पूरा बता 
दिया। अब और क्या पूछना चाहते हो? ।। १९-२० ।। 
अष्टक उवाच 


किंस्वित्‌ कृत्वा लभते तात लोकान्‌ 
मर्त्य: श्रेष्ठांस्तपसा विद्यया वा | 
तन्मे पृष्ट: शंस सर्व यथाव- 
च्छुभाललोकान्‌ येन गच्छेत्‌ क्रमेण ।। २१ ।। 
अष्टकने पूछा--तात! मनुष्य कौन-सा कर्म करके उत्तम लोक प्राप्त करता है? वे 
लोक तपसे प्राप्त होते हैं या विद्यासे? मैं यही पूछता हूँ। जिस कर्मके द्वारा क्रमशः श्रेष्ठ 
लोकोंकी प्राप्ति हो सके, वह सब यथार्थरूपसे बताइये || २१ ।। 


ययातिरुवाच 


तपश्न दान॑ च शमो दमश्न 
ह्वीरार्जवं सर्वभूतानुकम्पा । 
स्वर्गस्थ लोकस्य वदन्ति सन्‍्तो 
द्वाराणि सप्तैव महान्ति पुंसाम्‌ । 
नश्यन्ति मानेन तमो5भिभूता: 
पुंस: सदैवेति वदन्ति सन्त: ।। २२ ।। 
ययाति बोले--राजन्‌! साधु पुरुष स्वर्गलोकके सात महान्‌ दरवाजे बतलाते हैं, जिनसे 
प्राणी उसमें प्रवेश करते हैं। उनके नाम ये हैं--तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता और 
समस्त प्राणियोंके प्रति दया। वे तप आदि द्वार सदा ही पुरुषके अभिमानरूप तमसे 
आच्छादित होनेपर नष्ट हो जाते हैं, यह संत पुरुषोंका कथन है ।। २२ ।। 
अधीयान: पण्डितं मन्यमानो 
यो विद्यया हन्ति यश: परेषाम्‌ | 
तस्यान्तवन्तश्ष भवन्ति लोका 
न चास्य तद्‌ ब्रह्म फलं ददाति ।। २३ ।। 
जो वेदोंका अध्ययन करके अपनेको सबसे बड़ा पण्डित मानता और अपनी विद्याद्वारा 
दूसरोंके यशका नाश करता है, उसके पुण्यलोक अन्तवान्‌ (विनाशशील) होते हैं और 
उसका पढ़ा हुआ वेद भी उसे फल नहीं देता ।। २३ ।। 
चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि 


भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि । 
मानाग्निहोत्रमुत मानमौनं 
मानेनाधीतमुत मानयज्ञ: || २४ ।। 
अग्निहोत्र, मौन, अध्ययन और यज्ञ--ये चार कर्म मनुष्यको भयसे मुक्त करनेवाले हैं; 
परंतु वे ही ठीकसे न किये जाये, अभिमानपूर्वक उनका अनुष्ठान किया जाय तो वे उलटे 
भय प्रदान करते हैं | २४ ।। 
न मानमान्यो मुदमाददीत 
न संतापं प्राप्तुयाच्चावमानात्‌ । 
सनन्‍्तः सतः पूजयन्तीह लोके 
नासाधव: साधुबुद्धिं लभन्ते || २५ ।। 
विद्वान पुरुष सम्मानित होनेपर अधिक आनन्दित न हो और अपमानित होनेपर संतप्त 
न हो। इस लोकमें संत पुरुष ही सत्पुरुषोंका आदर करते हैं। दुष्ट पुरुषोंको “यह सत्पुरुष है' 
ऐसी बुद्धि प्राप्त ही नहीं होती || २५ ।। 
इति दद्यामिति यज इत्यधीय इति व्रतम्‌ । 
इत्येतानि भयान्याहुस्तानि वर्ज्यानि सर्वश: ।। २६ ।। 
मैं यह दे सकता हूँ, इस प्रकार यजन करता हूँ, इस तरह स्वाध्यायमें लगा रहता हूँ और 
यह मेरा व्रत है; इस प्रकार जो अहंकारपूर्वक वचन हैं, उन्हें भयरूप कहा गया है। ऐसे 
वचनोंको सर्वथा त्याग देना चाहिये || २६ ।। 
ये चाश्रयं वेदयन्ते पुराणं 
मनीषिणो मानसमार्गरुद्धम्‌ । 
तद्वः श्रेयस्तेन संयोगमेत्य 
परां शान्तिं प्राप्तुयु: प्रेत्य चेह || २७ ।। 
जो सबका आश्रय है, पुराण (कूटस्थ) है तथा जहाँ मनकी गति भी रुक जाती है वह 
(परब्रह्म परमात्मा) तुम सब लोगोंके लिये कल्याणकारी हो। जो विद्वान्‌ उसे जानते हैं, वे 
उस परब्रह्म परमात्मासे संयुक्त होकर इहलोक और परलोकमें परम शान्तिको प्राप्त होते 
हैं || २७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते नवतितमो<ध्याय: ।। ९० 
|| 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक नब्बेवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९० ॥ 


अपना बछ। | अपड-४#-रू- 


- “बल' शब्दका अर्थ यहाँ कौआ किया गया है; जो 'स्थौल्यसामर्थ्यसैन्येषु बलं ना काकसीरिणो:' अमरकोषके इस 
वाक्यसे समर्थित होता है। 


एकनवतितमो<ध्याय: 
ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद 


अद्टक उवाच 


चरन्‌ गृहस्थ: कथमेति धर्मान्‌ 
कथं भिक्षु: कथमाचार्यकर्मा | 
वानप्रस्थ: सत्पथे संनिविष्टो 
बहून्यस्मिन्‌ सम्प्रति वेदयन्ति ॥। १ ।। 
अष्टकने पूछा--महाराज! वेदज्ञ विद्वान्‌ इस धर्मके अन्तर्गत बहुत-से कर्मोंको उत्तम 
लोकोंकी प्राप्तिका द्वार बताते हैं; अतः मैं पूछता हूँ, आचार्यकी सेवा करनेवाला ब्रह्मचारी, 
गृहस्थ, सन्मार्गमें स्थित वानप्रस्थ और संन्यासी किस प्रकार धर्माचरण करके उत्तम लोकमें 
जाता है? ।। १ ।। 


ययातिरुवाच 


आहूताध्यायी गुरुकर्मस्वचोद्य: 
पूर्वोत्थायी चरमं चोपशायी । 
मृदुर्दान्तो धृतिमानप्रमत्तः 
स्वाध्यायशील: सिध्यति ब्रह्म॒चारी ॥। २ ।। 
ययाति बोले--शिष्यको उचित है कि गुरुके बुलानेपर उसके समीप जाकर पढ़े। 
गुरुकी सेवामें बिना कहे लगा रहे, रातमें गुरुजीके सो जानेके बाद सोये और सबेरे उनसे 
पहले ही उठ जाय। वह मृदुल (विनम्र), जितेन्द्रिय, धैर्यवानू, सावधान और स्वाध्यायशील 
हो। इस नियमसे रहनेवाला ब्रह्मचारी सिद्धिको पाता है ।। २ ।। 
धर्मागतं प्राप्प धनं यजेत 
दद्यात्‌ सदैवातिथीन्‌ भोजयेच्च । 
अनाददानश्च परैरदत्तं 
सैषा गृहस्थोपनिषत्‌ पुराणी ।। ३ ।। 
गृहस्थ पुरुष न्यायसे प्राप्त हुए धनको पाकर उससे यज्ञ करे, दान दे और सदा 
अतिथियोंको भोजन करावे। दूसरोंकी वस्तु उनके दिये बिना ग्रहण नहीं करे। यह गृहस्थ- 
धर्मका प्राचीन एवं रहस्यमय स्वरूप है ।। ३ ।। 
स्ववीर्यजीवी वृजिनान्निवृत्तो 
दाता परेभ्यो न परोपतापी । 
तादृड़मुनि: सिद्धिमुपैति मुख्यां 


वसन्नरण्ये नियताहारचेष्ट: ।। ४ ।। 
वानप्रस्थ मुनि वनमें निवास करे। आहार और विहारको नियमित रखे। अपने ही 
पराक्रम एवं परिश्रमसे जीवन-निर्वाह करे, पापसे दूर रहे। दूसरोंको दान दे और किसीको 
कष्ट न पहुँचावे। ऐसा मुनि परम मोक्षको प्राप्त होता है ।। ४ ।। 
अशिल्पजीवी गुणवांश्वैव नित्यं 
जितेन्द्रिय: सर्वतो विप्रयुक्त: । 
अनोकशायी लघुरल्पप्रचार- 
श्वरन्‌ देशानेकचर: स भिक्षु: ।। ५ ।। 
संन्यासी शिल्पकलासे जीवन-निर्वाह न करे। शम, दम आदि श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न हो। 
सदा अपनी इन्द्रियोंको काबूमें रखे। सबसे अलग रहे। गृहस्थके घरमें न सोये। परिग्रहका 
भार न लेकर अपनेको हलका रखे। थोड़ा थोड़ा चले। अकेला ही अनेक स्थानोंमें भ्रमण 
करता रहे। ऐसा संन्यासी ही वास्तवमें भिक्षु कहलानेयोग्य है ।। ५ ।। 
रात्र्या यया वाभिजिताक्ष लोका 
भवन्ति कामाभिजिता: सुखाश्न । 
तामेव रात्रि प्रयतेत विद्वा- 
नरण्यसंस्थो भवितुं यतात्मा ।। ६ ।। 
जिस समय रूप, रस आदि विषय तुच्छ प्रतीत होने लगें, इच्छानुसार जीत लिये जायाँ 
तथा उनके परित्यागमें ही सुख जान पड़े, उसी समय विद्वान्‌ पुरुष मनको वशमें करके 
समस्त संग्रहोंका त्याग कर वनवासी होनेका प्रयत्न करे || ६ ।। 
दशैव पूर्वान्‌ दश चापरांश्व 
ज्ञातीनथात्मानमथैकविंशम्‌ । 
अरण्यवासी सुकृते दधाति 
विमुच्यारण्ये स्वशरीरधातून्‌ ।। ७ ।। 
जो वनवासी मुनि वनमें ही अपने पंचभूतात्मक शरीरका परित्याग करता है, वह दस 
पीढ़ी पूर्वके॑ और दस पीढ़ी बादके जाति-भाइयोंको तथा इक्कीसवें अपनेको भी 
पुण्यलोकोंमें पहुँचा देता है || ७ ।। 
अष्टक उवाच 


कतिस्विदेव मुनयः कति मौनानि चाप्युत । 
भवन्तीति तदाचक्ष्व श्रोतुमिच्छामहे वयम्‌ ।। ८ ।। 
अष्टकने पूछा--राजन्‌! मुनि कितने हैं? और मौन कितने प्रकारके हैं? यह बताइये, 
हम इसे सुनना चाहते हैं ।। ८ ।। 
ययातिरुवाच 


अरण्ये वसतो यस्य ग्रामो भवति पृष्ठत: । 

ग्रामे वा वसतो5रण्यं स मुनि: स्थाज्जनाधिप ॥। ९ ।। 

ययातिने कहा--जनेश्वर! अरण्यमें निवास करते समय जिसके लिये ग्राम पीछे होता 
है और ग्राममें वास करते समय जिसके लिये अरण्य पीछे होता है, वह मुनि कहलाता 
है ।। ९ |। 


अद्टक उवाच 


कथंस्विद्‌ वसतो<रण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः । 

ग्रामे वा वसतो5रण्यं कथं भवति पृष्ठतः ।। १० ।। 

अष्टकने पूछा--अरण्यमें निवास करनेवालेके लिये ग्राम और ग्राममें निवास 
करनेवालेके लिये अरण्य पीछे कैसे है? || १० ।। 


ययातिरुवाच 


न ग्राम्यमुपयुञज्जीत य आरण्यो मुनिर्भवेत्‌ । 

तथास्य वसतो<रण्ये ग्रामो भवति पृष्ठत: ।। ११ ।। 

ययातिने कहा--जो मुनि वनमें निवास करता है और गाँवोंमें प्राप्त होनेवाली 
वस्तुओंका उपयोग नहीं करता, इस प्रकार वनमें निवास करनेवाले उस (वानप्रस्थ) मुनिके 
लिये गाँव पीछे समझा जाता है || ११ ।। 

अनग्निरनिकेतश्चाप्यगोत्रचरणो मुनि: । 

कौपीनाच्छादनं यावत्‌ तावदिच्छेच्च चीवरम्‌ ।। १२ ।। 

यावत्‌ प्राणाभिसंधानं तावदिच्छेच्च भोजनम्‌ । 

तथास्य वसतो ग्रामे5रण्यं भवति पृष्ठत: ।। १३ ।। 

जो अग्नि और गृहको त्याग चुका है, जिसका गोत्र और चरण (वेदकी शाखा एवं 
जाति)-से भी सम्बन्ध नहीं रह गया है, जो मौन रहता है और उतने ही वस्त्रकी इच्छा रखता 
है जितनेसे लंगोटी और ओढ़नेका काम चल जाय; इसी प्रकार जितनेसे प्राणोंकी रक्षा हो 
सके उतना ही भोजन चाहता है; इस नियमसे गाँवमें निवास करनेवाले उस (संन्यासी) 
मुनिके लिये अरण्य पीछे समझा जाता है ।। १२-१३ ।। 

यस्तु कामान्‌ परित्यज्य त्यक्तकर्मा जितेन्द्रिय: । 

आतिषछेच्च मुनिर्मेनं स लोके सिद्धिमाप्रुयात्‌ ।। १४ ।। 

जो मुनि सम्पूर्ण कामनाओंको छोड़कर कर्मोंको त्याग चुका है और इन्द्रिय-संयमपूर्वक 
सदा मौनमें स्थित है, ऐसा संन्यासी लोकमें परम सिद्धिको प्राप्त होता है ।। १४ ।। 

धौतदन्तं कृत्तनखं सदा स्नातमलंकृतम्‌ । 

असितं सितकर्माणं कस्तमर्हति नार्चितुम्‌ ।। १५ ।। 


जिसके दाँत शुद्ध और साफ हैं, जिसके नख (और केश) कटे हुए हैं, जो सदा स्नान 
करता है तथा यम-नियमादिसे अलंकृत (है, उन्हें धारण किये हुए) है, शीतोष्णको सहनेसे 
जिसका शरीर श्याम पड़ गया है, जिसके आचरण उत्तम हैं--ऐसा संनन्‍्यासी किसके लिये 
पूजनीय नहीं है? ।। १५ ।। 

तपसा कर्शित: क्षाम: क्षीणमांसास्थिशोणित: । 

स च लोकमिमं जित्वा लोक॑ विजयते परम्‌ ।। १६ ।। 

तपस्यासे मांस, हड्डी तथा रक्तके क्षीण हो जानेपर जिसका शरीर कृश और दुर्बल हो 
गया है, वह (वानप्रस्थ) मुनि इस लोकको जीतकर परलोकपर भी विजय पाता है ।। १६ ।। 

यदा भवति निर्दन्द्धो मुनिर्मॉनं समास्थित: । 

अथ लोकमिमं जित्वा लोक॑ विजयते परम्‌ ॥। १७ ।। 

जब ([वानप्रस्थ) मुनि सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि द्वद्धोंसे रहित एवं भलीभाँति 
मौनावलम्बी हो जाता है, तब वह इस लोकको जीतकर परलोकपर भी विजय पाता 
है ।। १७ || 

आस्येन तु यदाहारं गोवन्मृगयते मुनि: । 

अथास्य लोक: सर्वो5यं सो5मृतत्वाय कल्पते ।। १८ ।। 

जब संन्यासी मुनि गाय-बैलोंकी तरह मुखसे ही आहार ग्रहण करता है, हाथ आदिका 
भी सहारा नहीं लेता, तब उसके द्वारा ये सब लोक जीत लिये गये समझे जाते हैं और वह 
मोक्षकी प्राप्तिके लिये समर्थ समझा जाता है ।। १८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते एकनवतितमो<ध्याय: ।। 
९१३१ || 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत यम्थवपर्वमें उत्तरयायातविषयक इक्यानबेवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९१ ॥ 


अपन काल बछ। | अत-#-#क+ 


द्विनवतितमो<ध्याय: 


अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए 
पुण्यदानको अस्वीकार करना 


जटद्टक उवाच 


कतरस्त्वनयो: पूर्व देवानामेति सात्मताम्‌ | 

उभयोर्धावतो राजन्‌ सूर्याचन्द्रमसोरिव ।। १ ।। 

अष्टकने पूछा--राजन्‌! सूर्य और चन्द्रमाकी तरह अपने-अपने लक्ष्यकी ओर दौड़ते 
हुए वानप्रस्थ और संन्यासी इन दोनोंमेंसे पहले कौन-सा देवताओंके आत्मभाव (ब्रह्म)-को 
प्राप्त होता है? ।। १ ।। 

ययातिरुवाच 

अनिकेतो गृहस्थेषु कामवृत्तेषु संयत: । 

ग्राम एव वसनू्‌ भिक्षुस्तयो: पूर्वतरं गत: ।॥। २ ।। 

ययाति बोले--कामवृत्तिवाले गृहस्थोंके बीच ग्राममें ही वास करते हुए भी जो 
जितेन्द्रिय और गृहरहित संन्यासी है, वही उन दोनों प्रकारके मुनियोंमें पहले ब्रह्मभावको 
प्राप्त होता है ।। २ ।। 

अवाप्य दीर्घमायुस्तु यः प्राप्तो विकृतिं चरेत्‌ 

तप्यते यदि तत्‌ कृत्वा चरेत्‌ सो5न्यत्‌ तपस्तत: ।। ३ ।। 

जो वानप्रस्थ बड़ी आयु पाकर भी विषयोंके प्राप्त होनेपर उनसे विकृत हो उन्हींमें 
विचरने लगता है, उसे यदि विषयोपभोगके अनन्तर पश्चात्ताप होता है तो उसे मोक्षके लिये 
पुन: तपका अनुष्ठान करना चाहिये ।। ३ ।। 

पापानां कर्मणां नित्यं बिभियाद्‌ यस्तु मानव: । 

सुखमप्याचरन्‌ नित्यं सो>त्यन्तं सुखमेधते ।। ४ ।। 

किंतु जो वानप्रस्थ मनुष्य पापकर्मोंसे नित्य भय करता है और सदा अपने धर्मका 
आचरण करता है, वह अत्यन्त सुखरूप मोक्षको अनायास ही प्राप्त कर लेता है ।। ४ ।। 

तद्‌ वै नृशंसं तदसत्यमाहु- 

्य: सेवते<धर्ममनर्थबुद्धि: । 
अर्थोउप्यनीशस्य तथैव राजं- 
स्तदार्जवं स समाधिस्तदार्यम्‌ ।। ५ ।। 

राजन! जो पापबुद्धिवाला मनुष्य अधर्मका आचरण करता है, उसका वह आचरण 

नृशंस (पापमय) और असत्य कहा गया है एवं उस अजितेन्द्रियका धन भी वैसा ही पापमय 


और अस्त्य है। परंतु वानप्रस्थ मुनिका जो धर्मपालन है, वही सरलता है, वही समाधि है 
और वही श्रेष्ठ आचरण है ।। ५ ।। 
अष्टक उवाच 


केनासि हूतः प्रहितोडसि राजन्‌ 
युवा ख्रग्वी दर्शनीय: सुवर्चा: । 
कुत आयात: कतरस्यां दिशि त्व- 
मुताहोस्वित्‌ पार्थिवं स्थानमस्ति ।। ६ ।। 
अष्टकने पूछा--राजन्‌! आपको यहाँ किसने बुलाया? किसने भेजा है? आप 
अवस्थामें तरुण, फूलोंकी मालासे सुशोभित, दर्शनीय तथा उत्तम तेजसे उद्धासित जान 
पड़ते हैं। आप कहाँसे आये हैं? किस दिशामें भेजे गये हैं? अथवा क्या आपके लिये इस 
पृथ्वीपर कोई उत्तम स्थान है? ।। ६ ।। 
ययातिरुवाच 
इमं भौम॑ नरकं क्षीणपुण्य: 
प्रवेष्टमुर्वी गगनाद्‌ विप्रहीण: । 
उतक्त्वाहं व: प्रपतिष्याम्यनन्तरं 
त्वरन्ति मां लोकपा ब्रह्मणो ये ।। ७ ।। 
ययातिने कहा--मैं अपने पुण्यका क्षय होनेसे भौम नरकमें प्रवेश करनेके लिये 
आकाशसे गिर रहा हूँ। ब्रह्माजीके जो लोकपाल हैं, वे मुझे गिरनेके लिये जल्दी मचा रहे हैं; 
अतः आपलोगोंसे पूछकर विदा लेकर इस पृथ्वीपर गिरूँगा ।। ७ ।। 
सतां सकाशे तु वृतः प्रपात- 
स्ते संगता गुणवन्तस्तु सर्वे । 
शक्राच्च लब्धो हि वरो मयैष 
पतिष्यता भूमितल नरेन्द्र || ८ ।। 
नरेन्द्र! मैं जब इस पृथ्वीतलपर गिरनेवाला था, उस समय मैंने इन्द्रसे यह वर माँगा था 
कि मैं साधु पुरुषोंके समीप गिरूँ। वह वर मुझे मिला, जिसके कारण आप सब सदगुणी 
संतोंका संग प्राप्त हुआ ।। ८ ।। 
अष्टक उवाच 


पृच्छामि त्वां मा प्रपत प्रपात॑ 

यदि लोकाः: पार्थिव सन्ति मेअत्र । 
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि स्थिता: 

क्षेत्रज्ञ त्वां तस्य धर्मस्य मनन्‍्ये ।। ९ ।। 


अष्टक बोले--महाराज! मेरा विश्वास है कि आप पारलौकिक धर्मके ज्ञाता हैं। मैं 
आपसे एक बात पूछता हूँ--क्या अन्तरिक्ष या स्वर्गलोकमें मुझे प्राप्त होनेवाले पुण्यलोक 
भी हैं? यदि हों तो (उनके प्रभावसे) आप नीचे न गिरें, आपका पतन न हो ।। ९ |। 
ययातिरुवाच 
यावत्‌ पृथिव्यां विहित॑ं गवाश्र॑ 
सहारण्यै: पशुभि: पार्वतैश्न । 
तावल्लोका दिवि ते संस्थिता वै 
तथा विजानीहि नरेन्द्रसिंह ।। १० ।। 
ययातिने कहा--नरेन्द्रसिंह! इस पृथ्वीपर जंगली और पर्वतीय पशुओंके साथ जितने 
गाय, घोड़े आदि पशु रहते हैं, स्वर्गमें तुम्हारे लिये उतने ही लोक विद्यमान हैं। तुम इसे 
निश्चय जानो ।। १० ।। 
अष्टक उवाच 


तांस्ते ददामि मा प्रपत प्रपात॑ 
ये मे लोका दिवि राजेन्द्र सन्ति । 
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता- 
स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोह: ।। ११ ।। 
अष्टक बोले--राजेन्द्र! स्वर्गमें मेरे लिये जो लोक विद्यमान हैं, वे सब आपको देता हूँ; 
परंतु आपका पतन न हो। अन्तरिक्ष या द्युलोकमें मेरे लिये जो स्थान हैं, उनमें आप शीघ्र ही 
मोहरहित होकर चले जाया ।। ११ ।। 
ययातिरुवाच 


नास्मद्विधो ब्राह्मणो ब्रह्मविच्च 
प्रतिग्रहे वर्तते राजमुख्य । 
यथा प्रदेयं सतत द्विजेभ्य- 
स्तथाददं पूर्वमहं नरेन्द्र || १२ ।। 
ययातिने कहा--नृपश्रेष्ठ! ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण ही प्रतिग्रह लेता है। मेरे-जैसा क्षत्रिय 
कदापि नहीं। नरेन्द्र! जैसे दान करना चाहिये, उस विधिसे पहले मैंने भी सदा उत्तम 
ब्राह्मणोंको बहुत दान दिये हैं || १२ ।। 
नाब्राह्मण: कृपणो जातु जीवेद्‌ 
याच्ञापि स्याद्‌ ब्राह्मणी वीरपत्नी । 
सो<हं नैवाकृतपूर्व चरेय॑ 
विधित्समान: किमु तत्र साधु ।। १३ ।। 


जो ब्राह्मण नहीं है, उसे दीन याचक बनकर कभी जीवन नहीं बिताना चाहिये। याचना 
तो विद्यासे दिग्विजय करनेवाले विद्वान ब्राह्मणकी पत्नी है अर्थात ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणको ही 
याचना करनेका अधिकार है। मुझे उत्तम सत्कर्म करनेकी इच्छा है; अतः ऐसा कोई कार्य 
कैसे कर सकता हूँ, जो पहले कभी नहीं किया हो ।। १३ ।। 


प्रतर्दन उवाच 


पृच्छामि त्वां स्पृहणीयरूप 
प्रतर्दनो5हं यदि मे सन्ति लोका: । 
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता: 
क्षेत्रज्ञ त्वां तस्य धर्मस्य मन्‍्ये || १४ ।। 
प्रतर्दन बोले--वांछनीय रूपवाले श्रेष्ठ पुरुष! मैं प्रतर्दन हूँ और आपसे पूछता हूँ, यदि 
अन्तरिक्ष अथवा स्वर्गमें मेरे भी लोक हों तो बताइये। मैं आपको पारलौकिक धर्मका ज्ञाता 
मानता हूँ ।। १४ ।। 


ययातिरुवाच 
सन्ति लोका बहवस्ते नरेन्द्र 
अप्येकैक: सप्तसप्ताप्यहानि । 
मधुच्युतो घृतपृक्ता विशोका- 


स्ते नानतवन्त: प्रतिपालयन्ति ।। १५ ।। 
ययातिने कहा--नरेन्द्र! आपके तो बहुत लोक हैं, यदि एक-एक लोकमें सात-सात 
दिन रहा जाय तो भी उनका अन्त नहीं है। वे सब-के-सब अमृतके झरने बहाते हैं एवं घृत 
(तेज)-से युक्त हैं। उनमें शोकका सर्वथा अभाव है। वे सभी लोक आपकी प्रतीक्षा कर रहे 
हैं ।। १५ ।। 
प्रतर्दन उवाच 


तांस्ते ददानि मा प्रपत प्रपात॑ 
ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु | 
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता- 
स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोह: ।। १६ ।। 
प्रतर्दन बोले--महाराज! वे सभी लोक मैं आपको देता हूँ, आप नीचे न गिरें। जो मेरे 
लोक हैं वे सब आपके हो जायाँ। वे अन्तरिक्षमें हों या स्वर्गमें, आप शीघ्र मोहरहित होकर 
उनमें चले जाइये ।। १६ ।। 
ययातिरुवाच 


न तुल्यतेजा: सुकृतं कामयेत 


योगक्षेम॑ पार्थिव पार्थिव: सन्‌ | 
दैवादेशादापदं प्राप्य विद्वां- 
श्वरेन्रृशंसं न हि जातु राजा ।। १७ ।। 
ययातिने कहा--राजन्‌! कोई भी राजा समान तेजस्वी होकर दूसरेसे पुण्य तथा योग- 
क्षेमकी इच्छा न करे। विद्वान राजा दैववश भारी आपत्तिमें पड़ जानेपर भी कोई पापमय 
कार्य न करे ।। १७ ।। 
धर्म्य मार्ग यतमानो यशस्यं 
कुर्यान्नपो धर्ममवेक्षमाण: । 
न मद्विधो धर्मबुद्धि: प्रजानन्‌ 
कुयदिवं कृपणं मां यथा55तथ ।। १८ ।। 
धर्मपर दृष्टि रखनेवाले राजाको उचित है कि वह प्रयत्नपूर्वक धर्म और यशके मार्गपर 
ही चले। जिसकी बुद्धि धर्ममें लगी हो उस मेरे-जैसे मनुष्यको जान-बूझकर ऐसा दीनतापूर्ण 
कार्य नहीं करना चाहिये, जिसके लिये आप मुझसे कह रहे हैं ।। १८ ।। 
कुर्यादपूर्व न कृतं यदन्यै- 
विंधित्समान: किमु तत्र साधु । 
(धर्माधर्मो सुविनिश्चित्य सम्यक्‌ 
कार्याकार्येष्वप्रमत्तश्नरेद्‌ यः । 
स वै धीमान्‌ सत्यसन्ध: कृतात्मा 
राजा भवेल्लोकपालो महिम्ना ।। 
यदा भवेत्‌ संशयो धर्मकार्ये 
कामार्थे वा यत्र विन्दन्ति सम्यक्‌ । 
कार्य तत्र प्रथमं धर्मकार्य 
न तौ कुर्यादर्थकामौ स धर्म: ।।) 
ब्रुवाणमेनं नृपतिं ययातिं 
नृपोत्तमो वसुमानब्रवीत्‌ तम्‌ ।। १९ ।। 
जो शुभ कर्म करनेकी इच्छा रखता है, वह ऐसा काम नहीं कर सकता, जिसे अन्य 
राजाओंने नहीं किया हो। जो धर्म और अधर्मका भलीभाँति निश्चय करके कर्तव्य और 
अकर्तव्यके विषयमें सावधान होकर विचरता है, वही राजा बुद्धिमान, सत्यप्रतिज्ञ और 
मनस्वी है। वह अपनी महिमासे लोकपाल होता है। जब धर्मकार्यमें संशय हो अथवा जहाँ 
न्यायत: काम और अर्थ दोनों आकर प्राप्त हों, वहाँ पहले धर्मकार्यका ही सम्पादन करना 
चाहिये, अर्थ और कामका नहीं। यही धर्म है। इस प्रकारकी बातें कहनेवाले राजा ययातिसे 
नृपश्रेष्ठ वसुमान्‌ बोले ।। १९ |। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायाते द्विनवतितमो< ध्याय: ।। 
९२ || 
इस प्रकार श्रीमह्योा भारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयायातविषयक बानबेवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९२ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २१ श्लोक हैं) 


त्रिनवतितमो<ध्याय: 


राजा ययातिका वसुमान्‌ और शिबिके प्रतिग्रहको 
अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ 
स्वर्गमें जाना 


वसुमानुवाच 
पृच्छामि त्वां वसुमानौषदद्रि- 
यद्यस्ति लोको दिवि मे नरेन्द्र | 
यद्यन्तरिक्षे प्रथितो महात्मन्‌ 
क्षेत्रज्ञ त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ।। १ ।। 
वसुमानने कहा--नरेन्द! मैं उषदश्वका पुत्र वसुमान्‌ हूँ और आपसे पूछ रहा हूँ। यदि 
स्वर्ग या अन्तरिक्षमें मेरे लिये भी कोई विख्यात लोक हों तो बताइये। महात्मन्‌! मैं आपको 
पारलौकिक धर्मका ज्ञाता मानता हूँ ।। १ ।। 


ययातिरुवाच 


यदन्तरिक्षं पृथिवी दिशश्व 
यत्तेजसा तपते भानुमांश्व । 
लोकास्तावन्‍न्तो दिवि संस्थिता वै 
ते नान्तवन्तः प्रतिपालयन्ति ॥। २ ।। 
ययातिने कहा--राजन्‌! पृथ्वी, आकाश और दिशाओंके जितने प्रदेशको सूर्यदेव 
अपनी किरणोंसे तपाते और प्रकाशित करते हैं; उतने लोक तुम्हारे लिये स्वर्गमें स्थित हैं। वे 
अन्तवान्‌ न होकर चिरस्थायी हैं और आपकी प्रतीक्षा करते हैं ।। २ ।। 
वसुमानुवाच 
तांस्‍्ते ददानि मा प्रपत प्रपात॑ 
ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु | 
क्रीणीष्वैतांस्तृणकेनापि राजन्‌ 
प्रतिग्रहस्ते यदि धीमन्‌ प्रदुष्ट: ॥। ३ ।। 
वसुमान्‌ बोले--राजन्‌! वे सभी लोक मैं आपके लिये देता हूँ, आप नीचे न गिरें। मेरे 
लिये जितने पुण्यलोक हैं, वे सब आपके हो जायँ। धीमन्‌! यदि आपको प्रतिग्रह लेनेमें दोष 
दिखायी देता हो तो एक मुट्ठी तिनका मुझे मूल्यके रूपमें देकर मेरे इन सभी लोकोंको 
खरीद लें ।। ३ ।। 


ययातिरु्वाच 


न भिथ्याहं विक्रयं वै स्मरामि 
वृथा गृहीतं शिशुकाच्छडकमान: । 
कुर्या न चैवाकृतपूर्वमन्यै- 
विधित्समान: किमु तत्र साधु ।। ४ ।। 
ययातिने कहा--मैंने इस प्रकार कभी झूठ-मूठकी खरीद-बिक्री की हो अथवा 
छलपूर्वक व्यर्थ कोई वस्तु ली हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है। मैं कालचक्रसे शंकित रहता 
हूँ। जिसे पूर्ववर्ती अन्य महापुरुषोंने नहीं किया वह कार्य मैं भी नहीं कर सकता हूँ; क्योंकि 
मैं सत्कर्म करना चाहता हूँ ।। ४ ।। 
वसुमानुवाच 
तांस्त्वं लोकान्‌ प्रतिपद्यस्व राजन्‌ 
मया दत्तान्‌ यदि नेष्ट: क्रयस्ते । 
अहं न तान्‌ वै प्रतिगन्ता नरेन्द्र 
सर्वे लोकास्तव ते वै भवन्तु ।। ५ ।। 
वसुमान्‌ बोले--राजन्‌! यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्वतः अर्पण 
किये हुए पुण्यलोकोंको ग्रहण कीजिये। नरेन्द्र! निश्चय जानिये, मैं उन लोकोंमें नहीं 
जाऊँगा। वे सब आपके ही अधिकारमें रहें || ५ ।। 
शिबिरुवाच 


पृच्छामि त्वां शिबिरौशीनरोडहं 
ममापि लोका यदि सन्‍्तीह तात । 
यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता: 
क्षेत्रज्ञ त्वां तस्य धर्मस्य मनन्‍्ये ।। ६ ।। 
शिबिने कहा--तात! मैं उशीनरका पुत्र शिबि आपसे पूछता हूँ। यदि अन्तरिक्ष या 
स्वर्गमें मेरे भी पुण्यलोक हों, तो बताइये; क्योंकि मैं आपको उक्त धर्मका ज्ञाता मानता 
हूँ ।। ६ ।। 
ययातिरुवाच 
यत्‌ त्वं वाचा हृदयेनापि साधून्‌ 
परीप्समानान्‌ नावमंस्था नरेन्द्र । 
तेनानन्ता दिवि लोका: श्रितास्ते 
विद्युद्रपा: स्वनवन्तो महान्त: ।। ७ ।। 


ययाति बोले--नरेन्द्र! जो-जो साधु पुरुष तुमसे कुछ माँगनेके लिये आये, उनका 
तुमने वाणीसे कौन कहे, मनसे भी अपमान नहीं किया। इस कारण स्वर्गमें तुम्हारे लिये 
अनन्त लोक विद्यमान हैं, जो विद्युतके समान तेजोमय, भाँति-भाँतिके सुमधुर शब्दोंसे युक्त 
तथा महान्‌ हैं ।। ७ ।। 
शिबिरुवाच 


तांस्त्वं लोकान्‌ प्रतिपद्यस्व राजन्‌ 
मया दत्तान्‌ यदि नेष्ट: क्रयस्ते । 
नचाहं तान्‌ प्रतिपत्स्ये ह दत्त्वा 
यत्र गत्वा नानुशोचन्ति धीरा: ॥। ८ ।॥। 
शिबिने कहा--महाराज! यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्वयं अर्पण 
किये हुए पुण्यलोकोंको ग्रहण कीजिये। उन सबको देकर निश्चय ही मैं उन लोकोंमें नहीं 
जाऊँगा। वे लोक ऐसे हैं, जहाँ जाकर धीर पुरुष कभी शोक नहीं करते ।। ८ ।। 
ययातिरुवाच 


यथा त्वमिन्द्रप्रतिमप्रभाव- 
स्ते चाप्यनन्ता नरदेव लोका: । 
तथाद्य लोके न रमे<न्यदत्ते 
तस्माच्छिबे नाभिनन्दामि देयम्‌ ।। ९ ।। 
ययाति बोले--नरदेव शिबि! जिस प्रकार तुम इन्द्रके समान प्रभावशाली हो, उसी 
प्रकार तुम्हारे वे लोक भी अनन्त हैं; तथापि दूसरेके दिये हुए लोकमें मैं विहार नहीं कर 
सकता, इसीलिये तुम्हारे दिये हुएका अभिनन्दन नहीं करता ।। ९ |। 
अष्टक उवाच 


न चेदेकैकशो राजल्‍लोकान्‌ नः प्रतिनन्दसि । 

सर्वे प्रदाय भवते गन्तारो नरकं वयम्‌ ।। १० ।। 

अष्टकने कहा--राजन! यदि आप हममेंसे एक-एकके दिये हुए लोकोंको 
प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण नहीं करते तो हम सब लोग अपने पुण्यलोक आपकी सेवामें अर्पित 
करके नरक (भूलोक)-में जानेको तैयार हैं || १० ।। 

ययातिरुवाच 

यदर्हों5हं तद्‌ यतध्व॑ं सन्त: सत्याभिनन्दिन: । 

अहं तन्नाभिजानामि यत्‌ कृतं न मया पुरा ।। ११ ।। 

ययाति बोले--मैं जिसके योग्य हूँ, उसीके लिये यत्न करो; क्योंकि साधु पुरुष 
सत्यका ही अभिनन्दन करते हैं। मैंने पूर्वकालमें जो कर्म नहीं किया, उसे अब भी 


करनेयोग्य नहीं समझता ।। ११ ।। 
अष्टक उवाच 


कस्यैते प्रतिदृश्यन्ते रथा: पठच हिरण्मया: । 

यानारुह्मु नरो लोकानभिवाऊ्छति शाश्वतान्‌ ॥। १२ ।। 

अष्टकने कहा--आकाशमें ये किसके पाँच सुवर्णमय रथ दिखायी देते हैं, जिनपर 
आरूढ़ होकर मनुष्य सनातन लोकोंमें जानेकी इच्छा करता है ।। १२ ।। 


ययातिरुवाच 


युष्मानेते वहिष्यन्ति रथा: पञ्च हिरण्मया: । 
उच्चै: सन्त: प्रकाशन्ते ज्वलन्तो5ग्निशिखा इव ।। १३ ।। 
ययाति बोले--ऊपर आकाशमें स्थित प्रज्वलित अग्निकी लपटोंके समान जो पाँच 
सुवर्णमय रथ प्रकाशित हो रहे हैं, ये आपलोगोंको ही स्वर्गमें ले जायँगे ।। १३ ।। 
(वैशग्पायन उवाच) 


(एतस्मिन्नन्तरे चैव माधवी तु तपोधना । 

मृगचर्मपरीताड़्ी परिणामे मृगव्रतम्‌ ।। 

मृगै: सह चरन्ती सा मृगाहारविचेष्टिता । 

यज्ञवाट्टं मृगगणै: प्रविश्य भृशविस्मिता ।। 

आध्रायन्ती धूमगन्धं मृगैरैव चचार सा । 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! इसी समय तपस्विनी माधवी उधर आ निकली। 
उसने मृगचर्मसे अपने सब अंगोंको ढक रखा था। वृद्धावस्था प्राप्त होनेपर वह मृगोंके साथ 
विचरती हुई मृगव्रतका पालन कर रही थी। उसकी भोजन-सामग्री और चेष्टा मृगोंके ही 
तुल्य थी। वह मृगोंके झुंडके साथ यज्ञमण्डपमें प्रवेश करके अत्यन्त विस्मित हुई और 
यज्ञीय धूमकी सुगन्ध लेती हुई मृगोंके साथ वहाँ विचरने लगी। 

यज्ञवाटमटन्ती सा पुत्रांस्तानपराजितान्‌ ।। 

पश्यन्ती यज्ञमाहात्म्यं मुदं लेभे च माधवी । 

यज्ञशालामें घूम-घूमकर अपने अपराजित पुत्रोंकोी देखती और यज्ञकी महिमाका 
अनुभव करती हुई माधवी बहुत प्रसन्न हुई। 

असंस्पृशन्तं वसुधां ययातिं नाहुषं तदा ।। 

दिविष्ठं प्राप्तमाज्ञाय ववन्दे पितरं तदा । 

ततो वसुमना:- पृच्छन्‌ मातरं वै तपस्विनीम्‌ ।। 

उसने देखा, स्वर्गवासी नहुषनन्दन महाराज ययाति आये हैं, परंतु पृथ्वीका स्पर्श नहीं 
कर रहे हैं (आकाशमें ही स्थित हैं)। अपने पिताको पहचानकर माधवीने उन्हें प्रणाम किया। 


तब वसुमनाने अपनी तपस्विनी मातासे प्रश्न करते हुए कहा। 
वसुमना उवाच 


भवत्या यत्‌ कृतमिदं वन्दनं वरवर्णिनि । 

को<यं देवो5थवा राजा यदि जानासि मे वद ।। 

वसुमना बोले--माँ! तुम श्रेष्ठ वर्णकी देवी हो। तुमने इन महापुरुषको प्रणाम किया 
है। ये कौन हैं? कोई देवता हैं या राजा? यदि जानती हो तो मुझे बताओ। 

माधव्युवाच 

शृणुध्वं सहिता: पुत्रा नाहुषो5यं पिता मम | 

ययातिर्मम पुत्राणां मातामह इति श्रुतः ।। 

पूरुं मे भ्रातरं राज्ये समावेश्य दिवं गत: । 

केन वा कारणेनैव इह प्राप्तो महायशा: ।। 

माधवीने कहा--पुत्रो! तुम सब लोग एक साथ सुन लो--'ये मेरे पिता नहुषनन्दन 
महाराज ययाति हैं। मेरे पुत्रोंके सुविख्यात मातामह (नाना) ये ही हैं। इन्होंने मेरे भाई पूरुको 
राज्यपर अभिषिक्त करके स्वर्गलोककी यात्रा की थी; परंतु न जाने किस कारणसे ये 
महायशस्वी महाराज पुनः यहाँ आये हैं'। 

वैशम्पायन उवाच 


तस्यास्तदू वचन श्रुत्वा स्थान भ्रष्टेति चाब्रवीत्‌ | 

सा पुत्रस्य वच: श्रुत्वा सम्भ्रमाविष्टचेतना ।। 

माधवी पितरं प्राह दौहित्रपरिवारितम्‌ । 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! माताकी यह बात सुनकर वसुमनाने कहा--माँ! ये 
अपने स्थानसे भ्रष्ट हो गये हैं। पुत्रका यह वचन सुनकर माधवी भ्रान्तचित्त हो उठी और 
दौहित्रोंसे घिरे हुए अपने पितासे इस प्रकार बोली। 

माधव्युवाच 

तपसा निर्जिताल्लोकान्‌ प्रतिगृह्नीष्व मामकान्‌ । 

पुत्राणामिव पौत्राणां धर्मादधिगतं धनम्‌ ।। 

स्वार्थमेव वदन्‍्तीह ऋषयो वेदपारगा: । 

तस्माद्‌ दानेन तपसा अस्माकं दिवमाव्रज ।। 

माधवीने कहा--पिताजी! मैंने तपस्याद्वारा जिन लोकोंपर अधिकार प्राप्त किया है, 
उन्हें आप ग्रहण करें। पुत्रों और पौत्रोंकी भाँति पुत्री और दौहित्रोंका धर्माचरणसे प्राप्त 
किया हुआ धन भी अपने ही लिये है, यह वेदवेत्ता ऋषि कहते हैं; अतः आप हमलोगोंके 
दान एवं तपस्याजनित पुण्यसे स्वर्गलोकमें जाइये। 


ययातिरुवाच 


यदि धर्मफलं होतच्छोभनं भविता तथा । 

दुहित्रा चैव दौहित्रैस्तारितो5हं महात्मभि: ।। 

ययाति बोले--यदि यह धर्मजनित फल है, तब तो इसका शुभ परिणाम अवश्यम्भावी 
है। आज मुझे मेरी पुत्री तथा महात्मा दौहित्रोंने तारा है। 

तस्मात्‌ पवित्र दौहित्रमद्यप्रभृति पैतृके । 

भविष्यति न संदेह: 828, | प्रीतिवर्धनम्‌ ।। 

इसलिये आजसे पितृ-कर्म (श्राद्ध)-में दौहित्र परम पवित्र समझा जायगा। इसमें संशय 
नहीं कि वह पितरोंका हर्ष बढ़ानेवाला होगा। 

त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्र: कुतपस्तिला: । 

त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति शौचमक्रोधमत्वराम्‌ ।। 

भोक्तार: परिवेष्टार: श्रावितार: पवित्रका: । 

श्राद्धमें तीन वस्तुएँ पवित्र मानी जायँगी--दौहित्र, कुतप और तिल। साथ ही इसमें 
तीन गुण भी प्रशंसित होंगे--पवित्रता, अक्रोध और अत्वरा (उतावलेपनका अभाव)। तथा 
श्राद्धमों भोजन करनेवाले, परोसनेवाले और (वैदिक या पौराणिक मन्त्रोंका पाठ) 
सुनानेवाले--ये तीन प्रकारके मनुष्य भी पवित्र माने जायूँगे। 

दिवसस्याष्टमे भागे मन्दी भवति भास्करे | 

स काल: कुतपो नाम पितृणां दत्तमक्षयम्‌ ।। 

दिनके आठवें भागमें जब सूर्यका ताप घटने लगता है, उस समयका नाम कुतप है। 
उसमें पितरोंके लिये दिया हुआ दान अक्षय होता है। 

तिला: पिशाचाद्‌ रक्षन्ति दर्भा रक्षन्ति राक्षसात्‌ । 

रक्षन्ति श्रोत्रिया: पद्धक्ति यतिभिर्भुक्तमक्षयम्‌ ।। 

तिल पिशाचोंसे श्राद्धकी रक्षा करते हैं, कुश राक्षसोंसे बचाते हैं, श्रोत्रिय ब्राह्मण 
पंक्तिकी रक्षा करते हैं और यदि यतिगण श्राद्धमें भोजन कर लें तो वह अक्षय हो जाता है। 

लब्ध्वा पात्र तु दिद्वांसं श्रोत्रियं सुव्रतं शुचिम्‌ । 

स काल: कालतो दत्त नान्यथा काल इष्यते ।। 

उत्तम व्रतका आचरण करनेवाला पवित्र श्रोत्रिय ब्राह्मण श्राद्धका उत्तम पात्र है। वह 
जब प्राप्त हो जाय, वही श्राद्धका उत्तम काल समझना चाहिये। उसको दिया हुआ दान 
उत्तम कालका दान है। इसके सिवा और कोई उपयुक्त काल नहीं है। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्त्वा ययातिस्तु पुनः प्रोवाच बुद्धिमान । 
सर्वे ह्वभूथस्नातास्त्वरध्वं कार्यगौरवात्‌ ।।) 


वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! बुद्धिमान्‌ ययाति उपर्युक्त बात कहकर पुनः अपने 
दौहित्रोंसे बोले--“तुम सब लोग अवभूथस्नान कर चुके हो। अब महत्त्वपूर्ण कार्यकी 
सिद्धिके लिये शीघ्र तैयार हो जाओ'। 
अष्टक उवाच 


आतिष्ठस्व रथान्‌ राजन्‌ विक्रमस्व विहायसम्‌ । 

वयमप्यनुयास्यथामो यदा कालो भविष्यति ।। १४ ।। 

अष्टक बोले--राजन्‌! आप इन रथोंमें बैठिये और आकाशमें ऊपरकी ओर बढ़िये। 
जब समय होगा, तब हम भी आपका अनुसरण करेंगे ।। १४ ।। 

ययातिरुवाच 

सर्वैरिदानीं गन्तव्यं सह स्वर्गजितो वयम्‌ | 

एष नो विरजा: पन्था दृश्यते देवसझन: ।। १५ ।। 

ययाति बोले--हम सब लोगोंने साथ-साथ स्वर्गपर विजय पायी है, इसलिये इस समय 
सबको वहाँ चलना चाहिये। देवलोकका यह रजोहीन सात्त्विक मार्ग हमें स्पष्ट दिखायी दे 
रहा है || १५ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


तेडधिरुहय रथान्‌ सर्वे प्रयाता नृपसत्तमा: । 
आक्रमन्तो दिवं भाभिर्धमेणावृत्य रोदसी ।। १६ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर वे सभी नृपश्रेष्ठ उन दिव्य रथोंपर आरूढ़ 
हो धर्मके बलसे स्वर्गमें पहुँचनेके लिये चल दिये। उस समय पृथ्वी और आकाशमें उनकी 
प्रभा व्याप्त हो रही थी ।। १६ ।। 
(अष्टकश्न शिबिश्वैव काशिराज: प्रतर्दन: । 
ऐक्ष्वाकवो वसुमनाश्षत्वारो भूमिपाश्च ह ।। 
सर्वे ह्रवभूथस्नाता: स्वर्गता: साधव: सह ।) 
अष्टक, शिबि, काशिराज प्रतर्दन तथा इक्ष्वाक॒वंशी वसुमना--ये चारों साधु नरेश 
यज्ञान्त-स्नान करके एक साथ स्वर्गमें गये। 
अष्टक उवाच 
अहं मन्ये पूर्वमेको 5स्मि गन्ता 
सखा चेन्द्र: सर्वथा मे महात्मा । 
कस्मादेवं शिबिरौशीनरो5य- 
मेको>त्यगात्‌ सर्ववेगेन वाहान्‌ ।। १७ ।। 


अष्टक बोले--राजन्‌! महात्मा इन्द्र मेरे बड़े मित्र हैं, अतः मैं तो समझता था कि 
अकेला मैं ही सबसे पहले उनके पास पहुँचूँगा। परंतु ये उशीनरपुत्र शिबि अकेले सम्पूर्ण 
वेगसे हम सबके वाहनोंको लाँधकर आगे बढ़ गये हैं, ऐसा कैसे हुआ? ।। १७ ।। 
ययातिरुवाच 


अददद्‌ देवयानाय यावद्‌ वित्तमविन्दत । 
उशीनरस्य पुत्रो5यं तस्माच्छेष्ठो हि व: शिबि: | १८ ।। 
ययातिने कहा--राजन्‌! उशीनरके पुत्र शिबिने ब्रह्मलोकके मार्गकी प्राप्तिके लिये 
अपना सर्वस्व दान कर दिया था, इसीलिये ये तुम सब लोगोंमें श्रेष्ठ हैं ।। १८ ।। 
दानं तपः सत्यमथापि धर्मो 
ह्वी: श्री: क्षमा सौम्यमथो विधित्सा । 
राजन्नेतान्यप्रमेयाणि राज्ञ: 
शिबे: स्थितान्यप्रतिमस्य बुद्धा ।। १९ ।। 
नरेश्वर! दान, तपस्या, सत्य, धर्म, ही, श्री, क्षमा, सौम्यभाव और व्रत-पालनकी 
अभिलाषा--राजा शिबिमें ये सभी गुण अनुपम हैं तथा बुद्धिमें भी उनकी समता करनेवाला 
कोई नहीं है ।। १९ || 
एवंवृत्तो ह्वीनिषेवश्च॒ यस्मात्‌ 
तस्माच्छिबिरत्यगाद्‌ वै रथेन । 
राजा शिबि ऐसे सदाचारसम्पन्न और लज्जाशील हैं! (इनमें अभिमानकी मात्रा छू भी 
नहीं गयी है।) इसीलिये शिबि हम सबसे आगे बढ़ गये हैं। 
वैशम्पायन उवाच 


अथाष्टक: पुनरेवान्वपृच्छ- 
न्मातामहं कौतुकेनेन्द्रकल्पम्‌ ।। २० ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर अष्टकने कौतूहलवश इन्द्रके तुल्य 
अपने नाना राजा ययातिसे पुनः प्रश्न किया | २० ।। 
पृच्छामि त्वां नृपते ब्रूहि सत्यं 
कुतश्च कश्नचासि सुतश्न॒ कस्य । 
कृतं॑ त्वया यद्धि न तस्य कर्ता 
लोके त्वदन्य: क्षत्रियो ब्राह्मणों वा ।। २१ ।। 
महाराज! मैं आपसे एक बात पूछता हूँ। आप उसे सच-सच बताइये। आप कहाँसे 
आये हैं, कौन हैं और किसके पुत्र हैं? आपने जो कुछ किया है, उसे करनेवाला आपके 
सिवा दूसरा कोई क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण इस संसारमें नहीं है || २१ ।। 
ययातिरुवाच 


ययातिरस्मि नहुषस्य पुत्र: 
पूरो: पिता सार्वभौमस्त्विहासम्‌ । 
गुहां चार्थ मामकेभ्यो ब्रवीमि 
मातामहो<हं भवतां प्रकाशम्‌ ।। २२ ।। 
ययातिने कहा--मैं नहुषका पुत्र और पूरुका पिता राजा ययाति हूँ। इस लोकमें मैं 
चक्रवर्ती नरेश था। आप सब लोग मेरे अपने हैं; अत: आपसे गुप्त बात भी खोलकर 
बतलाये देता हूँ। मैं आपलोगोंका नाना हूँ। (यद्यपि पहले भी यह बात बता चुका हूँ, तथापि 
पुनः स्पष्ट कर देता हूँ) || २२ ।। 
सर्वामिमां पृथिवीं निर्जिगाय 
प्रादामहं छादन ब्राह्मणेभ्य: । 
मेध्यानश्वानेकशतान्‌ सुरूपां- 
स्तदा देवा: पुण्यभाजो भवन्ति ।। २३ ।। 
मैंने इस सारी पृथ्वीको जीत लिया था। मैं ब्राह्मणोंको अन्न-वस्त्र दिया करता था। 
मनुष्य जब एक सौ सुन्दर पवित्र अश्वोंका दान करते हैं, तब वे पुण्यात्मा देवता होते 
हैं ।। २३ ।। 
अदामहं पृथिवी ब्राह्मणे भ्य: 
पूर्णामिमामखिलां वाहनेन । 
गोभि: सुवर्णेन धनैश्व मुख्यै- 
स्‍्तदाददं गा: शतमर्बुदानि ।। २४ ।। 
मैंने तो सवारी, गौ, सुवर्ण तथा उत्तम धनसे परिपूर्ण यह सारी पृथ्वी ब्राह्मणोंको दान 
कर दी थी एवं सौ अर्बुद (दस अरब) गौओंका दान भी किया था ।। २४ ।। 
सत्येन वै द्यौश्व वसुन्धरा च 
तथैवाग्निज्वलते मानुषेषु । 
न मे वृथा व्याहृतमेव वाक्‍्यं 
सत्यं हि सन्त: प्रतिपूजयन्ति ।। २५ ।। 
सत्यसे ही पृथ्वी और आकाश टिके हुए हैं। इसी प्रकार सत्यसे ही मनुष्य-लोकमें अग्नि 
प्रज्वलित होती है। मैंने कभी व्यर्थ बात मुँहसे नहीं निकाली है; क्योंकि साधु पुरुष सदा 
सत्यका ही आदर करते हैं ।। २५ ।। 
यदष्टक प्रब्रवीमीह सत्यं 
प्रतर्दन॑ चौषदर्शिंव तथैव । 
सर्वे च लोका मुनयश्न देवा: 
सत्येन पूज्या इति मे मनोगतम्‌ ।। २६ ।। 


अष्टक! मैं तुमसे, प्रतर्दनसे और उषदश्चके पुत्र वसुमानसे भी यहाँ जो कुछ कहता हूँ; 
वह सब सत्य ही है। मेरे मनका यह विश्वास है कि समस्त लोक, मुनि और देवता सत्यसे ही 
पूजनीय होते हैं || २६ ।। 
यो नः स्वर्गजित: सर्वान्‌ यथा वृत्तं निवेदयेत्‌ 
अनसूयुर्दधिजाग्र्ये भ्य: स लभेन्न: सलोकताम्‌ ।। २७ ।। 
जो मनुष्य हृदयमें ईर्ष्या न रखकर स्वर्गपर अधिकार करनेवाले हम सब लोगोंके इस 
वृत्तान्तको यथार्थरूपसे श्रेष्ठ द्विजोंके सामने सुनायेगा, वह हमारे ही समान पुण्यलोकोंको 
प्राप्त कर लेगा || २७ ।। 
वैशम्पायन उवाच 
एवं राजा स महात्मा हाृतीव 
स्वैर्दौह्वित्रैस्तारितो$मित्रसाह: । 
त्यक्त्वा महीं परमोदारकर्मा 
स्वर्ग गत: कर्मभिव्याप्य पृथ्वीम्‌ ।। २८ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा ययाति बड़े महात्मा थे। शत्रुओंके लिये 
अजेय और उनके कर्म अत्यन्त उदार थे। उनके दौहित्रोंने उनका उद्धार किया और वे अपने 
सत्कर्मोद्वारा सम्पूर्ण भूमण्डलको व्याप्त करके पृथ्वी छड़कर स्वर्गलोकमें चले 
गये ।। २८ ।॥। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि उत्तरयायातसमाप्तौ 
त्रिनवतितमो<ध्याय: ।। ९३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें उत्तरयगायातसमाप्तिविषयक 
तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ९३ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २०३ श्लोक मिलाकर कुल ४८ ३ “लोक हैं) 


नमन () अजआत+- 


- ये वसुमान्‌ नामसे भी प्रसिद्ध थे। 


चतुर्नवतितमो< ध्याय: 


पूरुवंशका वर्णन 
जनमेजय उवाच 
भगवज्छोतुमिच्छामि पूरोर्वशकरान्‌ नृपान्‌ । 
यद्वीर्यान्‌ यादृशांश्वापि यावतो यत्पराक्रमान्‌ ।। १ ।। 
जनमेजय बोले--भगवन! अब मैं पूरुके वंशका विस्तार करनेवाले राजाओंका 
परिचय सुनना चाहता हूँ। उनका बल और पराक्रम कैसा था? वे कैसे और कितने 
थे? ।। १ ।। 
न हास्मिन्‌ शीलहीनो वा निर्वीर्यो वा नराधिप: । 
प्रजाविरहितो वापि भूतपूर्व: कथंचन ।। २ ।। 
मेरा विश्वास है कि इस वंशमें पहले कभी किसी प्रकार भी कोई ऐसा राजा नहीं हुआ 
है, जो शीलरहित, बल-पराक्रमसे शून्य अथवा संतानहीन रहा हो ।। २ ।। 
तेषां प्रथितवृत्तानां राज्ञां विज्ञानशालिनाम्‌ । 
चरितं श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण तपोधन ।। ३ ।। 
तपोधन! जो अपने सदाचारके लिये प्रसिद्ध और विवेकसम्पन्न थे, उन सभी पूरुवंशी 
राजाओंके चरित्रको मुझे विस्तारपूर्वक सुननेकी इच्छा है ।। ३ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


हन्त ते कथयिष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि । 

पूरोर्वशधरान्‌ वीराछ्छक्रप्रतिमतेजस: । 

भूरिद्रविणविक्रान्तान्‌ सर्वलक्षणपूजितान्‌ ।। ४ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--जनमेजय! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब मैं तुम्हें 
बताऊँगा। पूरुके वंशमें उत्पन्न हुए वीर नरेश इन्द्रके समान तेजस्वी, अत्यन्त धनवान, परम 
पराक्रमी तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्मानित थे (उन सबका परिचय देता हूँ) ।। ४ ।। 

प्रवीरेश्चररौद्राश्चास्त्रय: पुत्रा महारथा: । 

पूरो: पौष्ट्यामजायन्त प्रवीरो वंशकृत्‌ ततः ।। ५ ।। 

पूरुके पौष्टी नामक पत्नीके गर्भसे प्रवीर, ईश्वर तथा रौद्राश्व नामक तीन महारथी पुत्र 
हुए। इनमेंसे प्रवीर अपनी वंश-परम्पराको आगे बढ़ानेवाले हुए ।। ५ ।। 

मनस्युरभवत्‌ तस्माच्छूरसेनीसुत: प्रभु: । 

पृथिव्याश्षतुरन्ताया गोप्ता राजीवलोचन: ।। ६ ।। 


प्रवीरके पुत्रका नाम मनस्यु था, जो शूरसेनीके पुत्र और शक्तिशाली थे। कमलके 
समान नेत्रवाले मनस्युने चारों समुद्रोंसे घिरी हुई समस्त पृथ्वीका पालन किया ।। ६ ।। 

शक्त: संहननो वाग्मी सौवीरीतनयास्त्रय: । 

मनस्योरभवन्‌ पुत्रा: शूरा: सर्वे महारथा: ।। ७ ।। 

मनस्युके सौवीरीके गर्भसे तीन पुत्र हुए--शक्त, संहनन और वाग्मी। वे सभी शूरवीर 
और महारथी थे ।। ७ ।। 

अन्वग्भानुप्रभृतयो मिश्रकेश्यां मनस्विन: । 

रोद्राश्व॒स्य महेष्वासा दशाप्सरसि सूनव: ।। ८ ।। 

यज्वानो जज्ञिरे शूरा: प्रजावन्तो बहुश्रुता: । 

सर्वे सर्वास्त्रिविद्वांस: सर्वे धर्मपरायणा: ।। ९ ।। 

पूरुके तीसरे पुत्र मनस्वी रौद्राश्वके मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे अन्वग्भानु आदि दस 
महाथनुर्धर पुत्र हुए, जो सभी यज्ञकर्ता, शूरवीर, संतानवान, अनेक शास्‍्त्रोंके विद्वान, 
सम्पूर्ण अस्त्रविद्याके ज्ञाता तथा धर्मपरायण थे ।। ८-९ ।। 

ऋषेयुरथ कक्षेयु: कृकणेयुश्न वीर्यवान्‌ । 

स्थण्डिलेयुर्वनेयुश्व जलेयुश्व महायशा: ।। १० ।। 

तेजेयुर्बलवान्‌ धीमान्‌ सत्येयुश्रैन्द्रविक्रम: । 

धर्मेयु: संनतेयुश्व दशमो देवविक्रम: ।। ११ ।। 

(उन सबके नाम इस प्रकार हैं--) ऋचेयु-, कक्षेयु, पराक्रमी कृकणेयु, स्थण्डिलेयु, 
वनेयु, महायशस्वी जलेयु, बलवान्‌ और बुद्धिमान तेजेयु, इन्द्रके समान पराक्रमी सत्येयु, 
धर्मेयु तथा दसवें देवतुल्य पराक्रमी संनतेयु || १०-११ ।। 

अनाधृष्टिरभूत्‌ तेषां विद्वान्‌ भुवि तथैकराटू । 

ऋषचेयुरथ विक्रान्तो देवानामिव वासव: ।। १२ ।। 

ऋचेयु जिनका एक नाम अनाधृष्टि भी है, अपने सब भाइयोंमें वैसे ही विद्वान्‌ और 
पराक्रमी हुए, जैसे देवताओंमें इन्द्र। वे भूमण्डलके चक्रवर्ती राजा थे ।। १२ ।। 

अनाधृष्टिसुतस्त्वासीद्‌ राजसूयाश्वमेधकृत्‌ । 

मतिनार इति ख्यातो राजा परमधार्मिक: ।। १३ ।। 

अनाधृष्टिके पुत्रका नाम मतिनार था। राजा मतिनार राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ 
करनेवाले एवं परम धर्मात्मा थे ।। १३ ।। 

मतिनारसुता राजं॑श्नृत्वारो$मितविक्रमा: । 

तंसुर्महानतिरथो द्रह्मुश्चाप्रतिमद्युति: ।। १४ ।। 

राजन! मतिनारके चार पुत्र हुए, जो अत्यन्त पराक्रमी थे। उनके नाम ये हैं--तंसु, 
महान, अतिरथ और अनुपम तेजस्वी ट्रह्मु || १४ ।। 

तेषां तंसुर्महावीर्य: पौरवं वंशमुद्रहन्‌ 


आजहार यशो दीप्तं जिगाय च वसुन्धराम्‌ ।। १५ ।। 

इनमें महापराक्रमी तंसुने पौरव वंशका भार वहन करते हुए उज्ज्वल यशका उपार्जन 
किया और सारी पृथ्वीको जीत लिया ।। १५ ।। 

ईलिन तु सुतं तंसुर्जनयामास वीर्यवान्‌ । 

सो<पि कृत्स्नामिमां भूमिं विजिग्ये जयतां वर: ।। १६ ।। 

पराक्रमी तंसुने ईलिन नामक पुत्र उत्पन्न किया, जो विजयी पुरुषोंमें श्रेष्ठ था। उसने भी 
सारी पृथ्वी जीत ली थी ।। १६ ।। 

रथन्तर्या सुतान्‌ पज्च पञज्चभूतोपमांस्तत: । 

ईलिनो जनयामास दुष्यन्तप्रभूृतीन्‌ नृूपान्‌ ।। १७ ।। 

ईलिनने रथन्तरी नामवाली अपनी पत्नीके गर्भसे पंच महाभूतोंके समान दुष्यन्त आदि 
पाँच राजपुत्रोंको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया || १७ ।। 

दुष्यन्तं शूरभीमौ च प्रवसुं वसुमेव च । 

तेषां श्रेष्ठो5भवद्‌ राजा दुष्यन्तो जनमेजय ।। १८ ।। 

(उनके नाम ये हैं--) दुष्यन्त, शूर, भीम, प्रवसु तथा वसु। जनमेजय! इनमें सबसे बड़े 
होनेके कारण दुष्यन्त राजा हुए ।। १८ ।। 

दुष्यन्ताद्‌ भरतो जज्ञे विद्वाञउ्छाकुन्तलो नृप: । 

तस्माद्‌ भरतवंशस्य विप्रतस्थे महद्‌ यश: ।। १९ ।। 

दुष्यन्तसे विद्वान्‌ राजा भरतका जन्म हुआ, जो शकुन्तलाके पुत्र थे। उन्हींसे 
भरतवंशका महान्‌ यश फैला ।। १९ |। 

भरतस्तिसृषु स्त्रीषु नव पुत्रानजीजनत्‌ । 

नाभ्यनन्दत तान्‌ राजा नानुरूपा ममेत्युत ॥। २० ।। 

भरतने अपनी तीन रानियोंसे नौ पुत्र उत्पन्न किये। किंतु “ये मेरे अनुरूप नहीं हैं' ऐसा 
कहकर राजाने उन शिशुओंका अभिनन्दन नहीं किया ।। २० ।। 

ततस्तान्‌ मातर: क्रुद्धाः पुत्रान्‌ निन्युर्यमक्षयम्‌ । 

ततस्तस्य नरेन्द्रस्य वितथं पुत्रजन्म तत्‌ ।। २१ ।। 

तब उन शिशुओंकी माताओंने कुपित होकर उनको मार डाला। इससे महाराज 
भरतका वह पुत्रोत्पादन व्यर्थ हो गया | २१ ।। 

ततो महद्धिः क्रतु भिरीजानो भरतस्तदा । 

लेभे पुत्र भरद्वाजाद्‌ भुमन्युं नाम भारत ।। २२ ।। 

भारत! तब महाराज भरतने बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान किया और महर्षि भरद्वाजकी 
कृपासे एक पुत्र प्राप्त किया, जिसका नाम भुमन्यु था || २२ ।। 

ततः पुत्रिणमात्मान ज्ञात्वा पौरवनन्दन: । 

भुमन्युं भरतश्रेष्ठ यौवराज्ये5भ्यषेचयत्‌ ।। २३ ।। 


भरतश्रेष्ठ) तदनन्तर पौरवकुलका आनन्द बढ़ानेवाले भरतने अपनेको पुत्रवान्‌ 
समझकर भुमन्युको युवराजके पदपर अभिषिक्त किया ।। २३ ।। 

ततो दिविरथो नाम भुमन्योरभवत्‌ सुतः । 

सुहोत्रश्न सुहोता च सुहवि: सुयजुस्तथा ।। २४ ।। 

पुष्करिण्यामृचीकश्न भुमन्योरभवन्‌ सुता: । 

तेषां ज्येष्ठ: सुहोत्रस्तु राज्यमाप महीक्षिताम्‌ ।। २५ ।। 

भुमन्युके दिविरथ नामक पुत्र हुआ। उसके सिवा सुहोत्र, सुहोता, सुहवि, सुयजु तथा 
ऋचीक भी भुमन्युके ही पुत्र थे। ये सब पुष्करिणीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इन सब क्षत्रियोंमें 
सुहोत्र ही ज्येष्ठ थे। अत: उन्हींको राज्य मिला || २४-२५ ।। 

राजसूयाश्चदमेधाद्यै: सोडयजद्‌ बहुभि: सवैः । 

सुहोत्र: पृथिवीं कृत्स्नां बुभुजे सागराम्बराम्‌ ।। २६ ।। 

पूर्णा हस्तिगजा श्वैश्व बहुरत्नसमाकुलाम्‌ । 

ममज्जेव मही तस्य भूरिभारावपीडिता ।। २७ ।। 

हस्त्यश्वरथसम्पूर्णा मनुष्यकलिला भृशम्‌ । 

सुहोत्रे राजनि तदा धर्मत: शासति प्रजा: ॥। २८ ।। 

राजा सुहोत्रने राजसूय तथा अश्वमेध आदि अनेक यज्ञोंद्वारा यजन किया और 
समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वीका, जो हाथी-घोड़ोंसे परिपूर्ण तथा अनेक प्रकारके रत्नोंसे सम्पन्न 
थी, उपभोग किया। जब राजा सुहोत्र धर्मपूर्वक प्रजाका शासन कर रहे थे, उस समय सारी 
पृथ्वी हाथी, घोड़ों, रथ और मनुष्योंसे खचाखच भरी थी। उन पशु आदिके भारी भारसे 
पीड़ित होकर राजा सुहोत्रके शासनकालकी पृथ्वी मानो नीचे धँसी जाती थी ॥। २६-- 
२८ ।। 

चैत्ययूपाड्किता चासीद्‌ भूमि: शतसहख्रशः । 

प्रवृद्धजनसस्या च सर्वदैव व्यरोचत ।। २९ |।। 

उनके राज्यकी भूमि लाखों चैत्यों (देव-मन्दिरों) और यज्ञयूपोंसे चिह्नित दिखायी देती 
थी। सब लोग हृष्ट-पुष्ट होते थे। खेतीकी उपज अधिक हुआ करती थी। इस प्रकार उस 
राज्यकी पृथ्वी सदा ही अपने वैभवसे सुशोभित होती थी ।। २९ ।। 

ऐक्ष्वाकी जनयामास सुहोत्रात्‌ पृथिवीपते: । 

अजमीढं सुमीढं च पुरुमीढं च भारत ।। ३० ।। 

भारत! राजा सुहोत्रसे ऐक्ष्वाकीने अजमीढ, सुमीढ तथा पुरुमीढ नामक तीन पुत्रोंकी 
जन्म दिया || ३० |। 

अजमीढो वरस्तेषां तस्मिन्‌ वंश: प्रतिष्ठित: । 

षट्‌ पुत्रान्‌ सो5प्यजनयत्‌ तिसूृषु स्त्रीषु भारत ।। ३१ ।। 


उनमें अजमीढ ज्येष्ठ थे। उन्हींपर वंशकी मर्यादा टिकी हुई थी। जनमेजय! उन्होंने भी 
तीन स्त्रियोंके गर्भसे छः पुत्रोंकों उत्पन्न किया || ३१ ।। 

ऋक्ष॑ धूमिन्यथो नीली दुष्यन्तपरमेष्ठिनौ । 

केशिन्यजनयज्जह्ुं सुतौ व्रजनरूपिणौ ।। ३२ ।। 

उनकी धूमिनी नामवाली स्त्रीने ऋक्षको, नीलीने दुष्यन्‍्त और परमेष्ठीको तथा केशिनीने 
जहु, व्रजन तथा रूपिण इन तीन पुत्रोंको जन्म दिया || ३२ |। 

तथेमे सर्वपञ्चाला दुष्यन्तपरमेष्िनो: । 

अन्वया: कुशिका राजन्‌ जल्लोरमिततेजस: ।। ३३ ।। 

इनमें दुष्यन्त और परमेष्ठीके सभी पुत्र पांचाल कहलाये। राजन्‌! अमिततेजस्वी जह्लुके 
वंशज कुशिक नामसे प्रसिद्ध हुए ।। ३३ ।। 

व्रजनरूपिणयोर्ज्येष्ठमृक्षमाहुर्जनाधिपम्‌ । 

ऋक्षात्‌ संवरणो जज्ञे राजन्‌ वंशकर: सुतः ।। ३४ ।। 

व्रजन तथा रूपिणके ज्येष्ठ भाई ऋक्षको राजा कहा गया है। ऋक्षसे संवरणका जन्म 
हुआ। राजन! वे वंशकी वृद्धि करनेवाले पुत्र थे || ३४ ।। 

आरक्षे संवरणे राजन्‌ प्रशासति वसुंधराम्‌ । 

संक्षय: सुमहानासीत्‌ प्रजानामिति न: श्रुतम्‌ ।। ३५ ।। 

जनमेजय! ऋक्षपुत्र संवरण जब इस पृथ्वीका शासन कर रहे थे, उस समय प्रजाका 
बहुत बड़ा संहार हुआ था, ऐसा हमने सुना है || ३५ ।। 

व्यशीर्यत ततो राष्ट्र क्षयर्नानाविधैस्तदा । 

क्षुन्मृत्युभ्यामनावृष्ट्या व्याधिभिश्व॒ समाहतम्‌ ।। ३६ ।। 

इस तरह नाना प्रकारसे क्षय होनेके कारण वह सारा राज्य नष्ट-सा हो गया। सबको 
भूख, मृत्यु, अनावृष्टि और व्याधि आदिके कष्ट सताने लगे || ३६ || 

अभ्यघ्नन्‌ भारतांश्रैव सपत्नानां बलानि च | 

चालयन्‌ वसुधां चेमां बलेन चतुरद्धिणा ।। ३७ ।। 

अभ्ययात्‌ तं च पाज्चाल्यो विजित्य तरसा महीम्‌ | 

अक्षौहिणीभिदर्दशभि: स एनं समरेडजयत्‌ ।। ३८ ।। 

शत्रुओंकी सेनाएँ भरतवंशी योद्धाओंका नाश करने लगीं। पांचालनरेशने इस पृथ्वीको 
कम्पित करते हुए चतुरंगिणी सेनाके साथ संवरणपर आक्रमण किया और उनकी सारी 
भूमि वेगपूर्वक जीतकर दस अक्षौहिणी सेनाओंद्वारा संवरणको भी युद्धमें परास्त कर 
दिया ।। ३७-३८ ।। 

ततः सदार: सामात्य: सपुत्र: ससुहृज्जन: । 

राजा संवरणस्तस्मात्‌ पलायत महाभयात्‌ ।। ३९ ।। 


तदनन्तर स्त्री, पुत्र, सुहृद्‌ और मन्त्रियोंक साथ राजा संवरण महान्‌ भयके कारण 
वहाँसे भाग चले ।। ३९ |। 

सिन्धोर्नदस्य महतो निकुण्जे न्यवसत्‌ तदा | 

नदीविषयपर्यन्ते पर्वतस्य समीपत: ।। ४० ।। 

उस समय उन्होंने सिंधु नामक महानदके तटवर्ती निकुंजमें, जो एक पर्वतके समीपसे 
लेकर नदीके तटतक फैला हुआ था, निवास किया ।। ४० ।। 

तत्रावसन्‌ बहून्‌ कालान्‌ भारता दुर्गमाश्रिता: । 

तेषां निवसतां तत्र सहस्रं परिवत्सरान्‌ ।। ४१ ।। 

वहाँ उस दुर्गका आश्रय लेकर भरतवंशी क्षत्रिय बहुत वर्षोतक टिके रहे। उन सबको 
वहाँ रहते हुए एक हजार वर्ष बीत गये ।। ४१ ।। 

अथाभ्यगच्छद्‌ भरतान्‌ वसिष्ठो भगवानृषि: । 

तमागतं प्रयत्नेन प्रत्युदूगम्याभिवाद्य च ।। ४२ ।। 

अर्घ्यमशभ्याहरंस्तस्मै ते सर्वे भारतास्तदा । 

निवेद्य सर्वमृषये सत्कारेण सुवर्चसे ।। ४३ ।। 

तमासने चोपविष्टं राजा वव्रे स्वयं तदा । 

पुरोहितो भवान्‌ नोडस्तु राज्याय प्रयतेमहि ।। ४४ ।। 

इसी समय उनके पास भगवान्‌ महर्षि वसिष्ठ आये। उन्हें आया देख भरतवंशियोंने 
प्रयत्नपूर्वक उनकी अगवानी की और प्रणाम करके सबने उनके लिये अर्घ्य अर्पण किया। 
फिर उन तेजस्वी महर्षिको सत्कारपूर्वक अपना सर्वस्व समर्पण करके उत्तम आसनपर 
बिठाकर राजाने स्वयं उनका वरण करते हुए कहा--“भगवन्‌! हम पुनः राज्यके लिये 
प्रयत्न कर रहे हैं। आप हमारे पुरोहित हो जाइये' || ४२--४४ ।। 

ओमित्येवं वसिष्ठोडपि भारतान्‌ प्रत्यपद्यत । 

अथाशभ्यषिज्चत्‌ साम्राज्ये सर्वक्षत्रस्य पौरवम्‌ ।। ४५ ।। 

विषाण भूत॑ सर्वस्यां पृथिव्यामिति न: श्रुतम्‌ । 

भरताध्युषितं पूर्व सो5ध्यतिष्ठत्‌ पुरोत्तमम्‌ ।। ४६ ।। 

तब “बहुत अच्छा” कहकर वसिष्ठजीने भी भरतवंशियोंकों अपनाया और समस्त 
भूमण्डलमें उत्कृष्ट पूरवंशी संवरणको समस्त क्षत्रियोंके सम्राट-पदपर अभिषिक्त कर दिया, 
ऐसा हमारे सुननेमें आया है। तत्पश्चात्‌ महाराज संवरण, जहाँ प्राचीन भरतवंशी राजा रहते 
थे, उस श्रेष्ठ नगरमें निवास करने लगे || ४५-४६ ।। 

पुनर्बलिभृतश्चैव चक्रे सर्वमहीक्षित: । 

ततः स पृथिवीं प्राप्प पुनरीजे महाबल: ।। ४७ ।। 

आजमीढो महायज्ैर्बहुभिर्भूरिदक्षिणै: । 

तत: संवरणात्‌ सौरी तपती सुषुवे कुरुम्‌ | ४८ ।। 


फिर उन्होंने सब राजाओंको जीतकर उन्हें करद बना लिया। तदनन्तर वे महाबली 
नरेश अजमीढवंशी संवरण पुनः पृथ्वीका राज्य पाकर बहुत दक्षिणावाले बहुसंख्यक 
महायज्ञोंद्वारा भगवान्का यजन करने लगे। कुछ कालके पश्चात्‌ सूर्यकन्या तपतीने 
संवरणके वीर्यसे कुरु नामक पुत्रको जन्म दिया || ४७-४८ ।। 

राजल्वे तं प्रजा: सर्वा धर्मज्ञ इति वव्रिरे । 

तस्य नाम्नाभिविख्यातं॑ पृथिव्यां कुरुजाज्लम्‌ ।। ४९ ।। 

कुरुको धर्मज्ञ मानकर सम्पूर्ण प्रजावर्गके लोगोंने स्वयं उनका राजाके पदपर वरण 
किया। उन्हींके नामसे पृथ्वीपर कुरुजांगलदेश प्रसिद्ध हुआ ।। ४९ ।। 

कुरुक्षेत्र स तपसा पुण्यं चक्रे महातपा: । 

अश्ववन्तमभिष्यन्तं तथा चैत्ररथं मुनिम्‌ ।। ५० ।। 

जनमेजयं च विख्यात॑ पुत्रांश्चास्यानुशुश्रुम । 

पज्चैतान्‌ वाहिनी पुत्रान्‌ व्यजायत मनस्विनी ।। ५१ ।। 

उन महातपस्वी कुरुने अपनी तपस्याके बलसे कुरक्षेत्रको पवित्र बना दिया। उनके 
पाँच पुत्र सुने गये हैं--अश्ववान्‌, अभिष्यन्त, चैत्ररथ, मुनि तथा सुप्रसिद्ध जनमेजय। इन 
पाँचों पुत्रोंकी उनकी मनस्विनी पत्नी वाहिनीने जन्म दिया था | ५०-५१ ।। 

अविक्षित: परिक्षित्‌ तु शबलाश्रस्तु वीर्यवान्‌ । 

आदिराजो विराजश्न शाल्मलिक्ष महाबल: || ५२ || 

उच्चै:श्रवा भड़कारो जितारिश्वाष्टम: स्मृत: । 

एतेषामन्ववाये तु ख्यातास्ते कर्मजैर्गुणै: । 

जनमेजयादय: सप्त तथैवान्ये महारथा: ।। ५३ ।। 

अश्ववानका दूसरा नाम अविक्षित्‌ था। उसके आठ पुत्र हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं 
--परिक्षित्‌, पराक्रमी शबलाश्व, आदिराज, विराज, महाबली शाल्मलि, उच्चै:श्रवा, भंगकार 
तथा आठवाँ जितारि। इनके वंशमें जनमेजय आदि अन्य सात महारथी भी हुए, जो अपने 
कर्मजनित गुणोंसे प्रसिद्ध हैं | ५२-५३ ।। 

परिक्षितो5भवन्‌_पुत्रा: सर्वे धर्मार्थकोविदा: । 

कक्षसेनोग्रसेनौ तु चित्रसेनश्व वीर्यवान्‌ ।। ५४ ।। 

इन्द्रसेन: सुषेणश्ष भीमसेनश्व॒ नामतः । 

जनमेजयस्य तनया भुवि ख्याता महाबला: ।। ५५ ।। 

धृतराष्ट्र: प्रथमज: पाण्डु्बाह्लीक एव च । 

निषधश्च महातेजास्तथा जाम्बूनदो बली ॥। ५६ ।। 

कुण्डोदर: पदातिश्न वसातिद्चाष्टम: स्मृत: । 

सर्वे धर्मार्थकुशला: सर्वभूतहिते रता: ।। ५७ ।। 


परिक्षितके सभी पुत्र धर्म और अर्थके ज्ञाता थे; जिनके नाम इस प्रकार हैं--कक्षसेन, 
उमग्रसेन, पराक्रमी, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण और भीमसेन। जनमेजयके महाबली पुत्र 
भूमण्डलमें विख्यात थे। उनमें प्रथम पुत्रका नाम धृतराष्ट्र था। उनसे छोटे क्रमश: पाण्डु, 
बाह्नलीक, महातेजस्वी निषध, बलवान जाम्बूनद, कुण्डोदर, पदाति तथा वसाति थे। इनमें 
वसाति आठवाँ था। ये सभी धर्म और अर्थमें कुशल तथा समस्त प्राणियोंके हितमें संलग्न 
रहनेवाले थे || ५४--५७ ।। 

धृतराष्ट्रो5थ राजा55सीत्‌ तस्य पुत्रो5थ कुण्डिक: । 

हस्ती वितर्क: क्राथश्व कुण्डिनश्वापि पडचम: ।। ५८ ।। 

हवि:श्रवास्तथेन्द्रा भो भुमन्युश्चापराजित: । 

धृतराष्ट्रसुतानां तु त्रीनेतान्‌ प्रथितान्‌ भुवि ।। ५९ ।। 

प्रतीपं धर्मनेत्रं च सुनेत्रं चापि भारत । 

प्रतीप: प्रथितस्तेषां बभूवाप्रतिमो भुवि ।। ६० ।। 

इनमें धृतराष्ट्र राजा हुए। उनके पुत्र कुण्डिक, हस्ती, वितर्क, क्राथ, कुण्डिन, हवि:श्रवा, 
इन्द्राभ, भुमन्‍्यु और अपराजित थे। भारत! इनके सिवा प्रतीप, धर्मनेत्र और सुनेत्र--ये तीन 
पुत्र और थे। धुृतराष्ट्रके पुत्रोंमें ये ही तीन इस भूतलपर अधिक विख्यात थे। इनमें भी 
प्रतीपकी प्रसिद्धि अधिक थी। भूमण्डलमें उनकी समानता करनेवाला कोई नहीं था ।। ५८ 
--5० || 

प्रतीपस्य त्रय: पुत्रा जज्ञिरे भरतर्षभ । 

देवापि: शान्तनुश्चैव बाह्नलीकश्चन महारथ: ।। ६१ ।। 

देवापिश्न प्रवव्राज तेषां धर्महितेप्सया । 

शान्तनुश्न महीं लेभे बाह्लीकश्न महारथ: ।। ६२ ।। 

भरतश्रेष्ठ! प्रतीपके तीन पुत्र हुए--देवापि, शान्तनु और महारथी बाह्नलीक। इनमेंसे 
देवापि धर्माचरणद्वारा कल्याण-प्राप्तिकी इच्छासे वनको चले गये, इसलिये शान्तनु एवं 
महारथी बाह्लीकने इस पृथ्वीका राज्य प्राप्त किया || ६१-६२ ।। 

भरतस्यान्वये जाता: सच्त्ववन्तो नराधिपा: । 

देवर्षिकल्पा नूपते बहवो राजसत्तमा: ।। ६३ ।। 

राजन! भरतके वंशमें सभी नरेश धैर्यवान्‌ एवं शक्तिशाली थे। उस वंशमें बहुत-से श्रेष्ठ 
नृपतिगण देवर्षियोंके समान थे || ६३ ।। 

एवंविधाश्षाप्यपरे देवकल्पा महारथा: । 

जाता मनोरन्ववाये ऐलवंशविवर्धना: ।॥। ६४ ।। 

ऐसे ही और भी कितने ही देवतुल्य महारथी मनुवंशमें उत्पन्न हुए थे, जो महाराज 
पुरूरवाके वंशकी वृद्धि करनेवाले थे ।। ६४ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पूरुवंशानुकीर्तने चतुर्नवतितमो 5 ध्याय: 
॥। ९४ || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें प्रुवंशवर्णनविषयक चौरानबेवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९४ ॥ 


अपना बछ। | अफ-एक्रा्छ 


- ऋचेयु, अन्वग्भानु और अनाधृष्टि एक ही व्यक्तिके नाम हैं। 


पञ्चनवतितमो< ध्याय: 


दक्ष प्रजापतिसे लेकर पूरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंशकी 


परम्पराका वर्णन 
जनमेजय उवाच 

श्रुतस्त्वत्तो मया ब्रह्मन्‌ पूर्वेषां सम्भवो महान्‌ । 

उदाराश्षापि वंशे5स्मिन्‌ राजानो मे परिश्रुता: ।। १ ।। 

जनमेजय बोले--ब्रह्मन! मैंने आपके मुखसे पूर्ववर्ती राजाओंकी उत्पत्तिका महान्‌ 
वृत्तान्त सुना। इस पूरुवंशमें उत्पन्न हुए उदार राजाओंके नाम भी मैंने भलीभाँति सुन 
लिये ॥। १ ।। 

किंतु लघ्वर्थसंयुक्त प्रियाख्यानं न मामति । 

प्रीणात्यतो भवान्‌ भूयो विस्तरेण ब्रवीतु मे । २ ॥। 

एतामेव कथां दिव्यामाप्रजापतितो मनो: । 

तेषामाजनन पुण्यं कस्य न प्रीतिमावहेत्‌ ।। ३ ।। 

परंतु संक्षेपसे कहा हुआ यह प्रिय आख्यान सुनकर मुझे पूर्णतः तृप्ति नहीं हो रही है। 
अत: आप पुनः विस्तारपूर्वक मुझसे इसी दिव्य कथाका वर्णन कीजिये। दक्ष प्रजापति और 
मनुसे लेकर उन सब राजाओंका पवित्र जन्म-प्रसंग किसको प्रसन्न नहीं करेगा? ।। २-३ ।। 

सद्धर्मगुणमाहात्म्यैरभिवर्धितमुत्तमम्‌ । 

विष्ट भ्य लोकांस्त्रीनेषां यश: स्फीतमवस्थितम्‌ ।। ४ ।। 

उत्तम धर्म और गुणोंके माहात्म्यसे अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त हुआ इन राजाओंका श्रेष्ठ 
और उज्ज्वल यश तीनों लोकोंमें व्याप्त हो रहा है ।। ४ ।। 

गुणप्रभाववीर्यौज:सत्त्वोत्साहवतामहम्‌ । 

न तृप्यामि कथां शृण्वन्नमृतास्वादसम्मिताम्‌ ।। ५ ।। 

ये सभी नरेश उत्तम गुण, प्रभाव, बल-पराक्रम, ओज, सत्त्व (धैर्य) और उत्साहसे 
सम्पन्न थे। इनकी कथा अमृतके समान मधुर है, उसे सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं हो रही 
है ।। ५ |। 

वैशम्पायन उवाच 

शृणु राजन्‌ पुरा सम्यड्मया द्वैपायनाच्छुतम्‌ । 

प्रोच्यमानमिदं कृत्स्नं स्ववंशजननं शुभम्‌ ।। ६ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! पूर्वकालमें मैंने महर्षि कृष्णद्वैपायनके मुखसे 
जिसका भलीभाँति श्रवण किया था, वह सम्पूर्ण प्रसंग तुम्हें सुनाता हूँ। अपने वंशकी 


उत्पत्तिका वह शुभ वृत्तान्त सुनो || ६ ।। 

दक्षाददितिरदितेविंवस्वान्‌ विवस्वतो मनुर्मनो-रिला इलाया: पुरूरवा: पुरूरवस 
आयुरायुषो नहुषो नहुषाद ययाति:; ययाते्द्धे भारयें बभूवतु: ।। ७ ।। 

उशनसो दुहिता देवयानी; वृषपर्वणश्न दुहिता शर्मिष्ठा नाम ।। ८ ।। 

दक्षसे अदिति, अदितिसे विवस्वान्‌ (सूर्य), विवस्वानसे मनु, मनुसे इला, इलासे 
पुरूरवा, पुरूरवासे आयु, आयुसे नहुष और नहुषसे ययातिका जन्म हुआ। ययातिकी दो 
पत्नियाँ थीं पहली शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी तथा दूसरी वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा ।। ८ ।। 
अत्रानुवंशशलोको भवति-- 

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत । 

ट्रह्ूं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।। ९ ।। 

यहाँ उनके वंशका परिचय देनेवाला यह श्लोक कहा जाता है-- 

देवयानीने यदु और तुर्वसु नामवाले दो पुत्रोंको जन्म दिया और वृषपर्वाकी पुत्री 
शर्मिष्ठाने 2 अव अनु तथा पूरु--ये तीन पुत्र उत्पन्न किये ।। ९ ।। 

तत्र :; पूरो: पौरवा: ।। १० ।। 

इनमें यदुसे यादव और पूरुसे पौरव हुए ।। १० ।। 

पूरोस्तु भार्या कौसलया नाम । तस्यामस्य जज्ञे जनमेजयो नाम; 
यस्त्रीनश्वमेधानाजहार, विश्वजिता चेष्टवा वनं विवेश ।। ११ ।। 

पूरुकी पत्नीका नाम कौसल्या था (उसीको पौष्टी भी कहते हैं)। उसके गर्भसे पूरुके 
जनमेजय नामक पुत्र हुआ (इसीका दूसरा नाम प्रवीर है); जिसने तीन अश्वमेध यज्ञोंका 
अनुष्ठान किया था और विश्वजित्‌ यज्ञ करके वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया था ।। ११ ।। 

जनमेजय: खल्‍ल्वनन्तां नामोपयेमे माधवीम्‌ । तस्यामस्य जज्ञे प्राचिन्चान; यः 
प्राचीं दिशं जिगाय यावत्‌ सूर्योदयात्‌, ततस्तस्य प्राचिन्वत्त्वम्‌ ।। १२ ।। 

जनमेजयने मधुवंशकी कन्या अनन्ताके साथ विवाह किया था। उसके गर्भसे उनके 
प्राचिन्वान्‌ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसने उदयाचलसे लेकर सारी प्राची दिशाको एक ही 
दिनमें जीत लिया था; इसीलिये उसका नाम प्राचिन्वान्‌ हुआ ।। १२ ।। 

प्राचिन्वान्‌ खल्वश्मकीमुपयेमे यादवीम्‌ । तस्थामस्य जज्ञे संयाति: ।। १३ ।। 

प्राचिन्वानने यदुकुलकी कन्या अश्मकीको अपनी पत्नी बनाया। उसके गर्भसे उन्हें 
संयाति नामक पुत्र प्राप्त हुआ ।। १३ ।। 

संयाति: खलु दृषद्धतो दुहितरं वराड़ीं नामोपयेमे । तस्यामस्य जज्ञे अहंयाति: ।। 
१४ ।। 

संयातिने दृषद्वान्‌की पुत्री वरांगीसे विवाह किया। उसके गर्भसे उन्हें अहंयाति नामक 
पुत्र हुआ || १४ ।। 


अहंयाति: खलु कृतवीर्यदुहितरमुपयेमे भानुमतीं नाम । तस्यामस्य जज्ञे 
सार्वभौम: । १५ ।। 

अहंयातिने कृतवीर्यकुमारी भानुमतीको अपनी पत्नी बनाया। उसके गर्भसे अहंयातिके 
सार्वभौम नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ।। १५ || 

सार्वभौम: खलु जित्वा जहार कैकेयीं सुनन्दां नाम | तामुपयेमे । तस्यामस्य जज्ञे 
जयत्सेनो नाम ।। १६ ।। 

सार्वभौमने युद्धमें जीतकर केकयकुमारी सुनन्दाका अपहरण किया और उसीको 
अपनी पत्नी बनाया। उससे उनको जयत्सेन नामक पुत्र प्राप्त हुआ ।। १६ ।। 

जयत्सेनो खलु वैदर्भीमुपयेमे सुश्रवां नाम । तस्यामस्य जज्ञे अवाचीन: ॥। १७ ।। 

जयत्सेनने विदर्भराजकुमारी सुश्रवासे विवाह किया। उसके गर्भसे उनके अवाचीन 
नामक पुत्र हुआ || १७ || 

अवाचीनोऊ<पि वैदर्भीमपरामेवोपयेमे मर्यादां नाम | तस्यामस्य जज्ञे अरिह: ।। 
१८ ।। 

अवाचीनने भी विदर्भराजकुमारी मर्यादाके साथ विवाह किया, जो आगे बतायी 
जानेवाली देवातिथिकी पत्नीसे भिन्न थी। उसके गर्भसे उन्हें “अरिह” नामक पुत्र 
हुआ ।। १८ ।। 

अरिह: खल्वाज्जीमुपयेमे । तस्यामस्य जज्ञे महाभौम: ।। १९ |। 

अरिहने अंगदेशकी राजकुमारीसे विवाह किया और उसके गर्भसे उन्हें महाभौम नामक 
पुत्र प्राप्त हुआ ।। १९ |। 

महाभौम: खलु प्रासेनजितीमुपयेमे सुयज्ञा नाम | तस्यामस्य जज्ञे अयुतनायी; 
यः पुरुषमेधानामयुतमानयत्‌, तेनास्यायुतनायित्वम्‌ ।। २० ।। 

महाभौमने प्रसेनजितकी पुत्री सुयज्ञासे विवाह किया। उसके गर्भसे उन्हें अयुतनायी 
नामक पुत्र प्राप्त हुआ; जिसने दस हजार पुरुषमेध “यज्ञ' किये। अयुत यज्ञोंका आनयन 
(अनुष्ठान) करनेके कारण ही उनका नाम अयुतनायी हुआ ।। २० ।। 

अयुतनायी खलु पृथुश्रवसो दुहितरमुपयेमे कामां नाम । तस्यामस्य जज्ञे 
अक्रोधन: ॥। २१ ।। 

अयुतनायीने पृथुश्रवाकी पुत्री कामासे विवाह किया, जिसके गर्भसे अक्रोधनका जन्म 
हुआ || २१ |। 

स खलु कालिड्रीं करम्भां नामोपयेमे | तस्यामस्य जज्ञे देवातिथि: ॥। २२ ।। 

अक्रोधनने कलिंगदेशकी राजकुमारी करम्भासे विवाह किया। जिसके गर्भसे उनके 
देवातिथि नामक पुत्रका जन्म हुआ ।। २२ ।। 

देवातिथि: खलु वैदेहीमुपयेमे मर्यादां नाम | तस्यामस्य जज्ञे अरिहो नाम ।॥। २३ 
|| 


देवातिथिने विदेहराजकुमारी मर्यादासे विवाह किया, जिसके गर्भसे अरिह नामक पुत्र 
उत्पन्न हुआ || २३ ।। 

अरिह: खल्वाड्रेयीमुपयेमे सुदेवां नाम । तस्यां पुत्रमजीजनदृक्षम्‌ ।। २४ ।। 

अरिहने अंगराजकुमारी सुदेवाके साथ विवाह किया और उसके गर्भसे ऋक्ष नामक 
पुत्रको जन्म दिया ।। २४ ।। 

ऋक्ष: खलु तक्षकदुहितरमुपयेमे ज्वालां नाम । तस्‍यां पुत्र॑ मतिनारं 
नामोत्पादयामास || २५ ।। 

ऋक्षने तक्षककी पुत्री ज्वालाके साथ विवाह किया और उसके गर्भसे मतिनार नामक 
पुत्रको उत्पन्न किया || २५ ।। 

मतिनार: खलु सरस्वत्यां गुणसमन्वितं द्वादशवार्षिकं सत्रमाहरत्‌ | समाप्ते च 
सत्रे सरस्वत्य-भिगम्य तं भर्तारें वरयामास । तस्यां पुत्रमजीजनत्‌ तंसुं नाम ।। २६ ।। 

मतिनारने सरस्वतीके तटपर उत्तम गुणोंसे युक्त द्वादशवार्षिक यज्ञका अनुष्ठान किया। 
उसके समाप्त होनेपर सरस्वतीने उनके पास आकर उन्हें पतिरूपमें वरण किया। मतिनारने 
उसके गर्भसे तंसु नामक पुत्र उत्पन्न किया || २६ ।। 
अत्रानुवंशशलोको भवति-- 

तंसुं सरस्वती पुत्र मतिनारादजीजनत्‌ | 

ईलिनं जनयामास कालिंग्यां तंसुरात्मजम्‌ ।। २७ ।। 

यहाँ वंशपरम्पराका सूचक श्लोक इस प्रकार है-- 

सरस्वतीने मतिनारसे तंसु नामक पुत्र उत्पन्न किया और तंसुने कलिंगराजकुमारीके 
गर्भसे ईलिन नामक पुत्रको जन्म दिया || २७ ।। 

ईलिनस्तु रथन्तर्या दुष्यन्ताद्यान्‌ पञज्च पुत्रानजीजनत्‌ ।। २८ ।। 

ईलिनने रथन्तरीके गर्भसे दुष्यन्त आदि पाँच पुत्र उत्पन्न किये || २८ ।। 

दुष्यन्त: खलु विश्वामित्रदुहितरं शकुन्तलां नामोपयेमे | तस्यामस्य जज्ञे भरत: ।। 
२९ || 

दुष्यन्तने विश्वामित्रकी पुत्री शकुन्तलाके साथ विवाह किया; जिसके गर्भसे उनके पुत्र 
भरतका जन्म हुआ ॥।| २९ || 
अत्रानुवंशशलोकौ भवत:-- 

भस्त्रा माता पितु: पुत्रो येन जात: स एव सः । 

भरस्व पुत्र दुष्पन्त मावमंस्था: शकुन्तलाम्‌ ।। ३० ।। 

यहाँ वंशपरम्पराके सूचक दो श्लोक हैं-- 

“माता तो भाथी (धौंकनी)-के समान है। वास्तवमें पुत्र पिताका ही होता है; जिससे 
उसका जन्म होता है, वही उस बालकके रूपमें प्रकट होता है। दुष्यन्त! तुम अपने पुत्रका 
भरण-पोषण करो; शकुन्तलाका अपमान न करो ।। ३० ।। 


रेतोधा: पुत्र उन्नयति नरदेव यमक्षयात्‌ | 

त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ।। ३१ ।। 

'गर्भाधान करनेवाला पिता ही पुत्ररूपमें उत्पन्न होता है। नरदेव! पुत्र यमलोकसे 
पिताका उद्धार कर देता है। तुम्हीं इस गर्भके आधान करनेवाले हो। शकुन्तलाका कथन 
सत्य है” || ३१ ।। 

ततो5स्य भरतत्वम्‌ । भरत: खलु काशेयीमुपयेमे सार्वसेनीं सुनन्दां नाम । 
तस्यामस्य जज्ञे भुमन्यु: ।। ३२ ।। 

आकाशवाणीने भरण-पोषणके लिये कहा था, इसलिये उस बालकका नाम भरत 
हुआ। भरतने राजा सर्वसेनकी पुत्री सुनन्दासे विवाह किया। वह काशीकी राजकुमारी थी। 
उसके गर्भसे भरतके भुमन्यु नामक पुत्र हुआ ।। ३२ ।। 

भुमन्यु: खलु दाशाहीमुपयेमे विजयां नाम । तस्यामस्य जज्ञे सुहोत्र: ॥। ३३ ।। 

भुमन्युने दशार्हकन्या विजयासे विवाह किया; जिसके गर्भसे सुहोत्रका जन्म 
हुआ ।। ३३ ।। 

सुहोत्र: खल्विक्ष्वाकुकन्यामुपयेमे सुवर्णा नाम | तस्यामस्य जज्ञे हस्ती; य इदं 
हास्तिनपुरं स्थापयामास । एतदस्य हास्तिनपुरत्वम्‌ ।। ३४ ।। 

सुहोत्रने इक्ष्वाकुकुलकी कन्या सुवर्णासे विवाह किया। उसके गर्भसे उन्हें हस्ती नामक 
पुत्र हुआ; जिसने यह हस्तिनापुर नामक नगर बसाया था। हस्तीके बसानेसे ही यह नगर 
'हास्तिनपुर” कहलाया ।। ३४ ।। 

हस्ती खलु त्रैगर्तीमुपयेमे यशोधरां नाम | तस्यामस्य जज्ञे विकुण्ठनो नाम ।। ३५ 
|| 

हस्तीने त्रिगर्तराजकी पुत्री यशोधराके साथ विवाह किया और उसके गर्भसे विकुण्ठन 
नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ।। ३५ |।। 

विकुण्ठन: खलु दाशाहीमुपयेमे सुदेवां नाम | तस्यामस्य जज्ञे अजमीढो नाम ।। 
३६ || 

विकुण्ठनने दशाहकुलकी कन्या सुदेवासे विवाह किया और उसके गर्भसे उन्हें 
अजमीढ नामक पुत्र प्राप्त हुआ ।। ३६ ।। 

अजमीढस्य चतुर्विशं पुत्रशतं बभूव कैकेय्यां गान्धार्या विशालायामक्षायां चेति । 
पृथक्‌ पृथक्‌ वंशधरा नृपतय: । तत्र वंशकर: संवरण: ।। ३७ ।। 

अजमीढके कैकेयी, गान्धारी, विशाला तथा ऋक्षासे एक सौ चौबीस पुत्र हुए। वे सब 
पृथक्‌-पृथक्‌ वंशप्रवर्तक राजा हुए। इनमें राजा संवरण कुरुवंशके प्रवर्तक हुए ।। ३७ ।। 

संवरण: खलु वैवस्वतीं तपतीं नामोपयेमे । तस्यामस्य जज्ञे कुरु: ।। ३८ ।। 

संवरणने सूर्यकन्या तपतीसे विवाह किया; जिसके गर्भसे कुरुका जन्म हुआ ।। ३८ ।। 
कुरु: खलु दाशाहीमुपयेमे शुभाड़ीं नाम । तस्यामस्य जज्ञे विदूर: ।। ३९ ।। 


कुरुने दशारहकुलकी कन्या शुभांगीसे विवाह किया। उसके गर्भसे विदूर नामक पुत्र 
हुआ ।। ३९ |। 

विदूरस्तु माधवीमुपयेमे सम्प्रियां नाम । तस्या-मस्य जज्ञे अनश्वा नाम || ४० ।। 

विदूरने मधुवंशकी कन्या सम्प्रियासे विवाह किया; जिसके गर्भसे अनश्वा नामक पुत्र 
प्राप्त हुआ || ४० ।। 

अनश्वा खलु मागधीमुपयेमे अमृतां नाम | तस्यामस्य जज्ञे परिक्षित्‌ ।। ४१ ।। 

अनश्वाने मगधराजकुमारी अमृताको अपनी पत्नी बनाया। उसके गर्भसे परिक्षित्‌ 
नामक पुत्र उत्पन्न हुआ || ४१ ।। 

परिक्षित्‌ खलु बाहुदामुपयेमे सुयशां नाम | तस्यामस्य जज्ञे भीमसेन: ।। ४२ ।। 

परिक्षितने बाहुदराजकी पुत्री सुयशाके साथ विवाह किया; जिसके गर्भसे भीमसेन 
नामक पुत्र हुआ || ४२ ।। 

भीमसेन: खलु कैकेयीमुपयेमे कुमारी नाम | तस्यामस्य जज्ञे प्रतिश्रवा नाम ।। 
४३ ।। 

भीमसेनने केकयदेशकी राजकुमारी कुमारीको अपनी पत्नी बनाया; जिसके गर्भसे 
प्रतिश्रवाका जन्म हुआ ।। ४३ ।। 

प्रतिश्रवस: प्रतीप: खलु । शैब्यामुपयेमे सुनन्दां नाम । तस्यां पुत्रानुत्पादयामास 
देवापिं शान्तनुं बाह्लीकं चेति || ४४ ।। 

प्रतिश्रवासे प्रतीप उत्पन्न हुआ। उसने शिबि-देशकी राजकन्या सुनन्दासे विवाह किया 
और उसके गर्भसे देवापि, शान्तनु तथा बाह्नीक--इन तीन पुत्रोंको जन्म दिया || ४४ ।। 

देवापि: खलु बाल एवारण्यं विवेश । शान्तनुस्तु महीपालो बभूव ।। ४५ ।। 

देवापि बाल्यावस्थामें ही वनको चले गये, अत: शान्तनु राजा हुए ।। ४५ ।। 
अत्रानुवंशशलोको भवति-- 

य॑ यं कराभ्यां स्पृशति जीर्ण स सुखमश्ुते ॥ पुनर्युवा च भवति तस्मात्‌ त॑ शान्तनुं 
विदु:ः ॥। इति तदस्य शान्तनुत्वम्‌ ।। ४६ ।। 

शान्तनुके विषयमें यह अनुवंशश्लोक उपलब्ध होता है-- 

वे जिस-जिस बूढ़ेको अपने दोनों हाथोंसे छू देते थे, वह बड़े सुख और शान्तिका 
अनुभव करता था तथा पुनः नौजवान हो जाता था। इसीलिये लोग उन्हें शान्तनुके रूपमें 
जानने लगे। यही उनके शान्तनु नाम पड़नेका कारण हुआ ।। ४६ || 

शान्तनु: खलु गड्ां भागीरथीमुपयेमे । तस्यामस्यथ जज्ञे देववब्रतो नाम: 
यमाहुर्भीष्ममिति ।। ४७ ।। 

शान्तनुने भागीरथी गंगाको अपनी पत्नी बनाया; जिसके गर्भसे उन्हें देवव्रत नामक 
पुत्र प्राप्त हुआ, जिसे लोग “भीष्म' कहते हैं || ४७ ।। 


भीष्फ:ः खलु॒ पितु:ः प्रियचिकीर्षया सत्यवतीं मातरमुदवाहयत्‌; 
यामाहुर्गन्धकालीति ।। ४८ ।। 

भीष्मने अपने पिताका प्रिय करनेकी इच्छासे उनके साथ माता सत्यवतीका विवाह 
कराया; जिसे गन्धकाली भी कहते हैं ।। ४८ ।। 

तस्यां पूर्व कानीनो गर्भ: पराशराद्‌ द्वैधायनो5$भवत्‌ । तस्यामेव शान्तनोरन्यौ द्वौ 
पुत्रौो बभूवतु: ।। ४९ ।। 

सत्यवतीके गर्भसे पहले कन्यावस्थामें महर्षि पराशरसे द्वैपायन व्यास उत्पन्न हुए थे। 
फिर उसी सत्यवतीके राजा शान्तनुद्वारा दो पुत्र और हुए ।। ४९ ।। 

विचित्रवीर्यक्षित्राडदक्ष॒ । तयोरप्राप्तपयौवन एव चित्राड़दो गन्धर्वेण हत:; 
विचित्रवीर्यस्तु राजा5डसीत्‌ ।। ५० ।। 

जिनका नाम था, विचित्रवीर्य और चित्रांगद। उनमेंसे चित्रांगद युवावस्थामें पदार्पण 
करनेसे पहले ही एक गन्धर्वके द्वारा मारे गये; परंतु विचित्रवीर्य राजा हुए || ५० ।। 

विचित्रवीर्य: खलु कौसल्यात्मजे अम्बिकाम्बालिके काशिराजदुहितरावुपयेमे ।। 
५१ || 

विचित्रवीर्यने अम्बिका और अम्बालिकासे विवाह किया। वे दोनों काशिराजकी पुत्रियाँ 
थीं और उनकी माताका नाम कौसल्या था ।। ५१ ।। 

विचित्रवीर्यस्त्वनपत्य एव विदेहत्वं प्राप्त: | ततः: सत्यवत्यचिन्तयन्मा दौष्यन्तो 
वंश उच्छेदं व्रजेदिति ।। ५२ ।। 

विचित्रवीर्यके अभी कोई संतान नहीं हुई थी, तभी उनका देहावसान हो गया। तब 
सत्यवतीको यह चिन्ता हुई कि *राजा दुष्यन्तका यह वंश नष्ट न हो जाय” ।। ५२ ।। 

सा द्वैपायनमृषिं मनसा चिन्तयामास । स तस्या: पुरत: स्थित:, कि करवाणीति 
[॥ ५३ || 

उसने मन-ही-मन द्वैपायन महर्षि व्यासका चिन्तन किया। फिर तो व्यासजी उसके 
आगे प्रकट हो गये और बोले--'क्या आज्ञा है?” ।। ५३ ।। 

सा तमुवाच--भ्राता तवानपत्य एव स्वर्यातों विचित्रवीर्य: । साध्वपत्यं 
तस्योत्पादयेति ।। ५४ ।। 

सत्यवतीने उनसे कहा--“बेटा! तुम्हारे भाई विचित्रवीर्य संतानहीन अवस्थामें ही 
स्वर्गवासी हो गये। अतः उनके वंशकी रक्षाके लिये उत्तम संतान उत्पन्न करो” || ५४ ।। 

स तथेत्युक्त्वा त्रीन्‌ पुत्रानुत्पादयामास; धृतराष्ट्रं पाण्डुं विदुरं चेति ।। ५५ ।। 

उन्होंने “तथास्तु”/ कहकर धुृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर--इन तीन पुत्रोंको उत्पन्न 
किया ।। ५५ |। 

तत्र धृतराष्ट्रस्य राज्ञ: पुत्रशतं बभूव गान्धार्या वरदानाद्‌ द्वैधायनस्थ ।। ५६ ।। 


उनमेंसे राजा धृतराष्ट्रके गान्धारीके गर्भसे व्यासजीके दिये हुए वरदानके प्रभावसे सौ 
पुत्र हुए | ५६ ।। 

तेषां धृतराष्ट्रस्य पुत्राणां चत्वार: प्रधाना बभूवु:; दुर्योधनो दुःशासनो 
विकर्णश्षित्रसेनक्षेति ।। ५७ ।। 

धृतराष्ट्रके उन सौ पुत्रोंमें चार प्रधान थे-दुर्योधन, दुःशासन, विकर्ण और 
चित्रसेन ।। ५७ ।। 

पाण्डोस्तु द्वे भार्ये बभूवतु: कुन्ती पृथा नाम माद्री च इत्युभे स्त्रीरत्ने ।। ५८ ।। 

पाण्डुकी दो पत्नियाँ थीं; कुन्तिभोजकी कन्या पृथा और माद्री। ये दोनों ही स्त्रियोंमें 
रत्नस्वरूपा थीं ।। ५८ ।। 

अथ पाणए्डुमुगययां चरन्‌ मैथुनगतमृषिमपश्यन्मृग्यां वर्तमानम्‌ू । 
तथैवाद्भुतमनासादितकामरसमतृप्तं च बाणेनाजघान ।। ५९ |। 

एक दिन राजा पाण्डुने शिकार खेलते समय एक मृगरूपधारी ऋषिको 
मृगीरूपधारिणी अपनी पत्नीके साथ मैथुन करते देखा। वह अद्भुत मृग अभी काम-रसका 
आस्वादन नहीं कर सका था। उसे अतृप्त अवस्थामें ही राजाने बाणसे मार दिया ।। ५९ ।। 

स बाणविद्ध उवाच पाण्डम--चरता धर्ममिमं॑ येन त्वयाभिकज्ञेन 
कामरसस्याहमनवाप्तकामरसो निहतस्तस्मात्‌ 
त्वमप्येतामवस्थामासाद्यानवाप्तकामरस: पज्चत्वमाप्स्यसि क्षिप्रमेवेति । स 
विवर्णरूपस्तथा पाण्डु:ः शापं परिहरमाणो नोपासर्पत भार्ये | वाक्‍्यं चोवाच 
-- ॥। ६० || 

बाणसे घायल होकर उस मुनिने पाण्डुसे कहा--'राजन्‌! तुम भी इस मैथुन धर्मका 
आचरण करनेवाले तथा काम-रसके ज्ञाता हो, तो भी तुमने मुझे उस दशामें मारा है, जब 
कि मैं काम-रससे तृप्त नहीं हुआ था। इस कारण इसी अवस्थामें पहुँचकर काम-रसका 
आस्वादन करनेसे पहले ही शीघ्र मृत्युको प्राप्त हो जाओगे।” यह सुनकर राजा पाण्डु 
उदास हो गये और शापका परिहार करते हुए पत्नियोंके सहवाससे दूर रहने लगे। उन्होंने 
कहा-- ।। ६० || 

स्वचापल्यादिदं प्राप्तवानहं शृूणोमि च नानपत्यस्य लोका: सन्‍्तीति । सा त्वं 
मदर्थ पुत्रानुत्पादयेति कुन्तीमुवाच । सा तथोक्ता पुत्रानुत्पादयामास । धर्माद्‌ युधिष्ठिरं 
मारुताद्‌ भीमसेन॑ शक्रादर्जुनमिति ।। ६१ ।। 

देवियो! अपनी चपलताके कारण मुझे यह शाप मिला है। सुनता हूँ, संतानहीनको 
पुण्यलोक नहीं प्राप्त होते हैं। अतः तुम मेरे लिये पुत्र उत्पन्न करो।” यह बात उन्होंने कुन्तीसे 
कही। उनके ऐसा कहनेपर कुन्तीने तीन पुत्र उत्पन्न किये--धर्मराजसे युधिष्ठिरको 
वायुदेवसे भीमसेनको और इन्द्रसे अर्जुनको जन्म दिया ।। ६१ ।। 

तां संहृष्ट: पाण्डुरुवाच-- 


इयं ते सपत्न्यनपत्या; साध्वस्या अपत्यमुत्पाद्यतामिति । एवमस्त्विति कुन्ती तां 
विद्यां माद्रया: प्रायच्छत्‌ ।। ६२ ।। 

इससे पाण्डुको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कुन्तीसे कहा--“यह तुम्हारी सौत माद्री तो 
संतानहीन ही रह गयी, इसके गर्भसे भी सुन्दर संतान उत्पन्न होनेकी व्यवस्था करो।” 'ऐसा 
ही हो" कहकर कुन्तीने अपनी वह विद्या (जिससे देवता आकृष्ट होकर चले आते थे) 
माद्रीको भी दे दी ।। ६२ ।। 

माद्रयामश्चिभ्यां नकुलसहदेवावुत्पादितौ ।। ६३ ।। 

माद्रीके गर्भसे अश्विनीकुमारोंने नकुल और सहदेवको उत्पन्न किया ।। ६३ ।। 

माद्रीं खल्वलंकृतां दृष्टवा पाण्डुर्भावं चक्रे च तां स्पृष्टवैव विदेहत्वं 
प्राप्त: ।। ६४ ।। 

तत्रैनं चिताग्निस्थं माद्री समन्वारुरोह उवाच कुन्तीम; यमयोरप्रमत्तया त्वया 
भवितव्यमिति ।। ६५ ।। 

एक दिन माद्रीको शृंगार किये देख पाण्डु उसके प्रति आसक्त हो गये और उसका स्पर्श 
होते ही उनका शरीर छूट गया। तदनन्तर वहाँ चिताकी आगमें स्थित पतिके शवके साथ 
माद्री चितापर आरूढ़ हो गयी और कुन्तीसे बोली--“बहिन! मेरे जुड़वें बच्चोंके भी लालन- 
पालनमें तुम सदा सावधान रहना” || ६४-६५ ।। 

ततस्ते पाण्डवा: कुन्त्या सहिता हास्तिनपुर-मानीय तापसैर्भीष्मस्य च विदुरस्य 
च निवेदिता: । सर्ववर्णानां च निवेद्यान्तर्हितास्तापसा बभूवु: प्रेक्ष्य-माणानां 
तेषाम्‌ ।। ६६ ।। 

इसके बाद तपस्वी मुनियोंने कुन्तीसहित पाण्डवोंको वनसे हस्तिनापुरमें लाकर भीष्म 
तथा विदुरजीको सौंप दिया। साथ ही समस्त प्रजावर्गके लोगोंको भी सारे समाचार बताकर 
वे तपस्वी उन सबके देखते-देखते वहाँसे अन्तर्धान हो गये || ६६ ।। 

तच्च वाक्यमुपश्रुत्य भगवतामन्तरिक्षात्‌ पुष्पवृष्टि: पपात; देवदुन्दुभयश्च प्रणेदु: 
॥॥ ६७ || 

उन ऐश्वर्यशशाली मुनियोंकी बात सुनकर आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी और 
देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं ।। ६७ ।। 

प्रतिगृहीताश्च पाण्डवा: पितुर्निधनमावेदयन्‌ तस्यौर्ध्वदेहिकं न्यायतश्न कृतवन्तः । 
तांस्तत्र निवसतः पाण्डवान्‌ बाल्यात्‌ प्रभृति दुर्योधनो नामर्षयत्‌ ।। ६८ ।। 

भीष्म और धृतराष्ट्रके द्वारा अपना लिये जानेपर पाण्डवोंने उनसे अपने पिताकी 
मृत्युका समाचार बताया, तत्पश्चात्‌ पिताकी और्ध्वदेहिक क्रियाको विधिपूर्वक सम्पन्न करके 
पाण्डव वहीं रहने लगे। दुर्योधनको बाल्यावस्थासे ही पाण्डवोंका साथ रहना सहन नहीं 
हुआ || ६८ ।। 


पापाचारो राक्षसीं बुद्धिमश्रितोडनेकैरुपायैरुद्धतुं च व्यवसित:; 
भावित्वाच्चार्थस्य न शकितास्ते समुद्धर्तुम्‌ । ६९ ।। 

पापाचारी दुर्योधन राक्षसी बुद्धिका आश्रय ले अनेक उपायोंसे पाण्डवोंकी जड़ 
उखाड़नेका प्रयत्न करता रहता था। परंतु जो होनेवाली बात है, वह होकर ही रहती है; 
इसलिये दुर्योधन आदि पाण्डवोंको नष्ट करनेमें सफल न हो सके ।। ६९ ।। 

ततश्न धृतराष्ट्रेण व्याजेन वारणावतमनुप्रेषिता गमनमरोचयन्‌ ।। ७० ।। 

इसके बाद धृतराष्ट्रने किसी बहानेसे पाण्डवोंको जब वारणावत नगरमें जानेके लिये 
प्रेरित किया, तब उन्होंने वहाँसे जाना स्वीकार कर लिया ।। ७० ।। 

तत्रापि जतुगृहे दग्धुं समारब्धा न शकिता विदुरमन्त्रितेनेति | ७१ ।। 

वहाँ भी उन्हें लाक्षागृहमें जला डालनेका प्रयत्न किया गया; किंतु पाण्डवोंके 
विदुरजीकी सलाहके अनुसार काम करनेके कारण विरोधीलोग उनको दग्ध करनेमें समर्थ 
न हो सके || ७१ ।। 

तस्माच्च हिडिम्बमन्तरा हत्वा एकचक्रां गता: ॥। ७२ || 

पाण्डव वारणावतसे अपनेको छिपाते हुए चल पड़े और मार्ममें हिडिम्ब राक्षसका वध 
करके वे एकचक्रा नगरीमें जा पहुँचे || ७२ ।। 

तस्यामप्येकचक्रायां बक॑ नाम राक्षसं हत्वा पाउचालनगरमधिगता: ।। ७३ |। 

एकचक्रामें भी बक नामवाले राक्षसका संहार करके वे पांचाल नगरमें चले 
गये ।। ७३ ।। 

तत्र द्रौपदी भार्यामविन्दन्‌, स्वविषयं चाभिजग्मु: ।। ७४ ।। 

वहाँ पाण्डवोंने द्रौपदीको पत्नीरूपमें प्राप्त किया और फिर अपनी राजधानी 
हस्तिनापुरमें लौट आये || ७४ ।। 

कुशलिन:ः पुत्रांश्ोत्पादयामासु: । प्रतिविन्ध्यं युधिष्ठिर,, सुतसोमं वृकोदर:, 
श्रुतकीर्तिमर्जुन,, शतानीकं॑ नकुल:, श्रुतकर्माणं सहदेव इति ।। ७५ |। 

वहाँ कुशलपूर्वक रहते हुए उन्होंने द्रौपदीसे पाँच पुत्र उत्पन्न किये। युधिष्ठिरने 
प्रतिविन्ध्यको, भीमसेनने सुतसोमको, अर्जुनने श्रुतकीर्तिको, नकुलने शतानीकको और 
सहदेवने श्रुतकर्माको जन्म दिया || ७५ ।। 

युधिष्ठटिरस्तु गोवासनस्य शैब्यस्य देविकां नाम कनन्‍्यां स्वयंवरे लेभे । तस्यां पुत्र 
जनयामास यौधेयं नाम ।। ७६ ।। 

भीमसेनो<डपि काश्यां बलन्धरां नामोपयेमे वीर्य-शुल्काम्‌ । तसयां पुत्र सर्वगं 
नामोत्पादयामास || ७७ ।। 

युधिष्ठिरने शिबिदेशके राजा गोवासनकी पुत्री देविकाको स्वयंवरमें प्राप्त किया और 
उसके गर्भसे एक पुत्रको जन्म दिया; जिसका नाम यौधेय था। भीमसेनने भी काशिराजकी 
कन्या बलन्धराके साथ विवाह किया; उसे प्राप्त करनेके लिये बल एवं पराक्रमका शुल्क 


रखा गया था अर्थात्‌ यह शर्त थी कि जो अधिक बलवान्‌ हो, वही उसके साथ विवाह कर 
सकता है। भीमसेनने उसके गर्भसे एक पुत्र उत्पन्न किया, जिसका नाम सर्वग 
था || ७६-७७ || 

अर्जुन: खलु द्वारवतीं गत्वा भगिनीं वासुदेवस्थ सुभद्रां भद्रभाषिणीं 
भार्यामुदावहत्‌ । स्वविषयं चाभ्याजगाम कुशली । तस्‍यां पुत्रमभिमन्युमतीव 
गुणसम्पन्नं दयितं वासुदेवस्थाजनयत्‌ ।। ७८ ।। 

अर्जुनने द्वारकामें जाकर मंगलमय वचन बोलनेवाली वासुदेवकी बहिन सुभद्राको 
पत्नीरूपमें प्राप्त किया और उसे लेकर कुशलपूर्वक अपनी राजधानीमें चले आये वहाँ 
उसके गर्भसे अत्यन्त गुणसम्पन्न अभिमन्यु नामक पुत्रको उत्पन्न किया; जो वसुदेवनन्दन 
भगवान्‌ श्रीकृष्णको बहुत प्रिय था || ७८ ।। 

नकुलस्तु चैद्यां करेणुमतीं नाम भार्यामुदावहत्‌ । तस्यां पुत्र निरमित्रं नामाजनयत्‌ 
॥॥ ७९ || 

नकुलने चेदिनरेशकी पुत्री करेणुमतीको पत्नीरूपमें प्राप्त किया और उसके गर्भसे 
निरमित्र नामक पुत्रको जन्म दिया ।। ७९ |। 

सहदेवो5पि माद्रीमेव स्वयंवरे विजयां नामोपयेमे मद्गराजस्य झ्युतिमतो 
दुहितरम्‌ । तस्यां पुत्रमजनयत्‌ सुहोत्रं नाम ।। ८० ।। 

सहदेवने भी मद्रदेशकी राजकुमारी विजयाको स्वयंवरमें प्राप्त किया। वह मद्रराज 
द्युतिमानकी पुत्री थी। उसके गर्भसे उन्होंने सुहोत्र नामक पुत्रको जन्म दिया ।। ८० ।। 

भीमसेनस्तु पूर्वमेव हिडिम्बायां राक्षसं घटोत्कचं पुत्रमुत्पादयामास ।। ८१ ।। 

भीमसेनने पहले ही हिडिम्बाके गर्भसे घटोत्कच नामक राक्षसजातीय पुत्रको उत्पन्न 
किया ।। ८१ ।। 

इत्येत एकादश पाण्डवानां पुत्रा: ॥ तेषां वंशकरो5भिमन्यु: ।। ८२ ।। 

इस प्रकार ये पाण्डवोंके ग्यारह पुत्र हुए। इनमेंसे अभिमन्युका ही वंश चला ।। ८२ ।। 

स विराटस्य दुहितरमुपयेमे उत्तरां नाम । तस्यामस्य परासुर्गभोडभवत्‌ । 
तमुत्सड्गेन प्रतिजग्राह पृथा नियोगात्‌ पुरुषोत्तमस्य वासुदेवस्य, षाण्मासिकं 
गर्भमहमेनं जीवयिष्यामीति ।। ८३ ।। 

अभिमन्युने विराटकी पुत्री उत्तराके साथ विवाह किया था। उसके गर्भसे अभिमन्युके 
एक पुत्र हुआ; जो मरा हुआ था। पुरुषोतम भगवान्‌ श्रीकृष्णके आदेशसे कुन्तीने उसे 
अपनी गोदमें ले लिया। उन्होंने यह आश्वासन दिया कि छः: महीनेके इस मरे हुए बालकको 
मैं जीवित कर दूँगा ।। ८३ ।। 

स भगवता वासुदेवेनासंजातबलवीर्य-पराक्रमो&5कालजातो<स्त्राग्निना 
दग्धस्तेजसा स्वेन संजीवित: । जीवयित्वा चैनमुवाच--परिक्षीणे कुले जातो भवत्वयं 
परिक्षिन्नामेति । ८४ ।। 


परिक्षित्‌ खलु माद्रवरती नामोपयेमे त्वन्मातरम्‌ | तस्यां भवान्‌ जनमेजय: ॥। ८५ 
|| 

अश्वत्थामाके अस्त्रकी अग्निसे झुलसकर वह असमयमें (समयसे पहले) ही पैदा हो 
गया था। उसमें बल, वीर्य और पराक्रम नहीं था। परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसे अपने तेजसे 
जीवित कर दिया। इसको जीवित करके वे इस प्रकार बोले--“इस कुलके परिक्षीण (नष्ट) 
होनेपर इसका जन्म हुआ है; अतः यह बालक परिक्षित्‌ नामसे विख्यात हो”। परिक्षितने 
तुम्हारी माता माद्रवतीके साथ विवाह किया, जिसके गर्भसे तुम जनमेजय नामक पुत्र 
उत्पन्न हुए || ८४-८५ ।। 

भवतो वषुष्टमायां द्वौ पुत्रौ जज्ञाते; शतानीक: शड्कुकर्णश्र । शतानीकस्य 
वैदेह्ां पुत्र उत्पन्नो5श्व-मेधदत्त इति ।। ८६ ।। 

तुम्हारी पत्नी वषुष्टमाके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न हुए हैं--शतानीक और शंकुकर्ण। 
शतानीककी पत्नी विदेहराजकुमारीके गर्भसे उत्पन्न हुए पुत्रका नाम है 
अश्वमेधदत्त ।। ८६ ।। 

एष पूरोर्वश: पाण्डवानां च कीर्तितः; धन्य: पुण्य: परमपवित्र: सततं श्रोतव्यो 
ब्राह्मणैर्नियम-वद्धिरनन्तरं क्षत्रियैः स्वधर्मनिरतैः प्रजापालन-तत्परैरवैश्यैरपि च 
श्रोतव्योडधिगम्यश्न तथा शूद्रैरपि त्रिवर्णशुश्रूषुभि: श्रद्दधानैरिति ॥। ८७ ।। 

यह पूरु तथा पाण्डवोंके वंशका वर्णन किया गया; जो धन और पुण्यकी प्राप्ति 
करानेवाला एवं परम पवित्र है, नियमपरायण ब्राह्मणों, अपने धर्ममें स्थित प्रजापालक 
क्षत्रियों, वैश्यों तथा तीनों वर्णोंकी सेवा करनेवाले श्रद्धालु शूद्रोंकी भी सदा इसका श्रवण 
एवं स्वाध्याय करना चाहिये ।। ८७ ।। 

इतिहासमिमं पुण्यमशेषत: श्रावयिष्यन्ति ये नरा: श्रोष्यन्ति वा नियतात्मानो 
विमत्सरा मैत्रा वेद-परास्तेडपि स्वर्गजित: पुण्यलोका भवन्ति सततं 
देवब्राह्मणमनुष्याणां मान्या: सम्पूज्याश्व॒ ।। ८८ ।। 

जो पुण्यात्मा मनुष्य मनको वशमें करके ईर्ष्या छोड़कर सबके प्रति मैत्रीभावको रखते 
हुए वेदपरायण हो इस सम्पूर्ण पुण्यमय इतिहासको सुनावेंगे अथवा सुनेंगे वे स्वर्गलोकके 
अधिकारी होंगे और देवता, ब्राह्मण तथा मनुष्योंके लिये सदैव आदरणीय तथा पूजनीय 
होंगे ।। ८८ ।। 

पर हीद॑ भारतं भगवता व्यासेन प्रोक्ते पावन ये ब्राह्मणादयो वर्णा: श्रद्दधाना 
अमत्सरा मैत्रा वेदसम्पन्ना: श्रोष्यन्ति, तेडपि स्वर्गजित: सुकृतिनो5शोच्या: कृताकृते 
भवन्ति ।। ८९ ।। 

जो ब्राह्मण आदि वर्णोके लोग मात्सर्यरहित, मैत्रीभावसे संयुक्त और वेदाध्ययनसे 
सम्पन्न हो श्रद्धापूर्वक भगवान्‌ व्यासके द्वारा कहे हुए इस परम पावन महाभारत ग्रन्थको 


सुनेंगे, वे भी स्वर्गके अधिकारी और पुण्यात्मा होंगे तथा उनके लिये इस बातका शोक नहीं 
रह जायगा कि उन्होंने अमुक कर्म क्यों किया और अमुक कर्म क्‍यों नहीं किया ।। ८९ ।। 
भवति चात्र श्लोक:-- 

इदं हि वेदैः समितं पवित्रमपि चोत्तमम्‌ | 

धन्यं यशस्यमायुष्यं श्रोतव्यं नियतात्मभि: ।। ९० ।। 

इस विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है-- 

“यह महाभारत वेदोंके समान पवित्र, उत्तम तथा धन, यश और आयुकी प्राप्ति 
करानेवाला है। मनको वशमें रखनेवाले साधु पुरुषोंको सदैव इसका श्रवण करना 
चाहिये” || ९० ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पूरुवंशानुकीर्तने 
पञ्चनवतितमो<ध्याय: ।। ९५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें प्रुवंशानुवर्णनविषयक 
पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ९५ ॥। 


अपन काल बछ। | अत--#कत 


षण्णवतितमोब< ध्याय: 


महाभिषको ब्रह्माजीका शाप तथा शापग्रस्त वसु ओंके 
साथ गंगाकी बातचीत 


वैशम्पायन उवाच 


इक्ष्वाकुवंशप्रभवो राजा55सीत्‌ पृथिवीपति: । 

महाभिष इति ख्यातः सत्यवाक्‌ सत्यविक्रम: ।। १ ।। 

सो<श्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च । 

तोषयामास देवेशं स्वर्ग लेभे ततः प्रभु: ।॥ २ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! इश्वाकु-वंशमें उत्पन्न महाभिष नामसे प्रसिद्ध 
एक राजा हो गये हैं, जो सत्यवादी होनेके साथ ही सत्यपराक्रमी भी थे। उन्होंने एक हजार 
अश्वमेध और एक सौ राजसूय यज्ञोंद्वारा देवेश्वर इन्द्रको संतुष्ट किया और उन यज्ञोंके 
पुण्यसे उन शक्तिशाली नरेशने स्वर्गलोग प्राप्त कर लिया ।। १-२ ।। 

ततः कदाचिद्‌ ब्रह्माणमुपासांचक्रिरे सुरा: । 

तत्र राजर्षयो ह्ासन्‌ स च राजा महाभिष: ।। ३ ।। 

तदनन्तर एक समय सब देवता ब्रह्माजीकी सेवामें उनके समीप बैठे हुए थे। वहाँ 
बहुत-से राजर्षि तथा पूर्वोक्त राजा महाभिष भी उपस्थित थे ।। ३ ।। 

अथ गज्ज सरिच्छेष्ठा समुपायात्‌ पितामहम्‌ | 

तस्या वास: समुद्धूतं मारुतेन शशिप्रभम्‌ ।। ४ ।। 

इसी समय सरिताआओंमें श्रेष्ठ गंगा ब्रह्माजीके समीप आयी। उस समय वायुके झोंकेसे 
उसके शरीरका चाँदनीके समान उज्ज्वल वस्त्र सहसा ऊपरकी ओर उठ गया ।। ४ ।। 

ततो5भवन्‌ सुरगणा: सहसावाड्मुखास्तदा | 

महाभिषस्तु राजर्षिरशड्को दृष्टवान्‌ नदीम्‌ ।। ५ ।। 

यह देख सब देवताओंने तुरंत अपना मुँह नीचेकी ओर कर लिया; किंतु राजर्षि 
महाभिष नि:शंक होकर देवनदीकी ओर देखते ही रह गये ।। ५ ।। 

सो<5पध्यातो भगवता ब्रह्मणा तु महाभिष: । 

उक्तश्न जातो मर्त्येषु पुनलोकानवाप्स्यसि ।। ६ ।। 

यया55हृतमनाश्चासि गड़या त्वं हि दुर्मते । 

साते वै मानुषे लोके विप्रियाण्याचरिष्यति ।। ७ ।। 

तब भगवान्‌ ब्रह्माने महाभिषको शाप देते हुए कहा--दुर्मते! तुम मनुष्योंमें जन्म 
लेकर फिर पुण्यलोकोंमें आओगे। जिस गंगाने तुम्हारे चित्तको चुरा लिया है, वही 


मनुष्यलोकमें तुम्हारे प्रतिकूल आचरण करेगी ।। ६-७ ।। 
यदा ते भविता मन्युस्तदा शापादू विमोक्ष्यसे । 
“जब तुम्हें गंगापर क्रोध आ जायगा, तब तुम भी शापसे छूट जाओगे।” 
वैशम्पायन उवाच 


स चिन्तयित्वा नृपतिर्न॒पानन्यांस्तपोधनान्‌ ।। ८ ।। 

प्रतीपं रोचयामास पितरं भूरितेजसम्‌ । 

महाभिषं तु त॑ दृष्टवा नदी धैर्याच्च्युतं नृपम्‌ । ९ ।। 

तमेव मनसा ध्यायन्त्युपावर्तत्‌ सरिद्वरा । 

सा तु विध्वस्तवपुष: कश्मलाभिहतान्‌ नृप ।। १० ।। 

ददर्श पथि गच्छन्ती वसून्‌ देवान्‌ दिवौकस: । 

तथारूपांश्व तान्‌ दृष्टवा पप्रच्छ सरितां वरा ।। ११ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब राजा महाभिषने अन्य बहुत-से तपस्वी 
राजाओंका चिन्तन करके महातेजस्वी राजा प्रतीपको ही अपना पिता बनानेके योग्य चुना 
--उन्‍्हींको पसंद किया। महानदी गंगा राजा महाभिषको धैर्य खोते देख मन-ही-मन 
उन्हींका चिन्तन करती हुई लौटी। मार्गसे जाती हुई गंगाने वसुदेवताओंको देखा। उनका 
शरीर स्वर्गसे नीचे गिर रहा था। वे मोहाच्छन्न एवं मलिन दिखायी दे रहे थे। उन्हें इस रूपमें 
देखकर नदियोंमें श्रेष्ठ गंगाने पूछा-- || ८--११ ।। 

किमिदं नष्टरूपा: स्थ कच्चित्‌ क्षेमं दिवौकसाम्‌ | 

तामूचुर्वसवो देवा: शप्ता: स्मो वै महानदि ।। १२ ।। 

अल्पे5पराधे संरम्भाद्‌ वसिष्ठेन महात्मना । 

विमूढा हि वयं सर्वे प्रच्छन्नमूषिसत्तमम्‌ ।। १३ ।। 

संध्यां वसिष्ठमासीनं तमत्यभिसूता: पुरा । 

तेन कोपाद्‌ वयं शप्ता योनौ सम्भवतेति ह ।। १४ ।। 

तुमलोगोंका दिव्य रूप नष्ट कैसे हो गया? देवता सकुशल तो हैं न? तब वसुदेवताओंने 
गंगासे कहा--“महानदी! महात्मा वसिष्ठने थोड़े-से अपराधपर क्रोधमें आकर हमें शाप दे 
दिया है। पहलेकी बात है एक दिन जब वसिष्ठजी पेड़ोंकी आड़में संध्योपासना कर रहे थे, 
हम सब मोहवश उनका उल्लंघन करके चले गये (और उनकी धेनुका अपहरण कर लिया)। 
इससे कुपित होकर उन्होंने हमें शाप दिया कि “तुमलोग मनुष्ययोनिमें जन्म लो” || १२-- 
१४ || 

न निवर्तयितुं शक्‍्यं यदुक्तं ब्रह्मवादिना । 

त्वमस्मान्‌ मानुषी भूत्वा सृज पुत्रान-वसून्‌ भुवि ॥। १५ ।। 


“उन ब्रह्मवादी महर्षिने जो बात कह दी है, वह टाली नहीं जा सकती; अतः हमारी 
प्रार्थना है कि तुम पृथ्वीपर मानवपत्नी होकर हम वसुओंको अपने पुत्ररूपसे उत्पन्न 
करो || १५ ।। 

न मानुषीणां जठरं प्रविशेम वयं शुभे । 

इत्युक्ता तैश्न वसुभिस्तथेत्युक्त्वाब्रवीदिदम्‌ ।। १६ ।। 

'शुभे! हमें मानुषी स्त्रियोंके उदरमें प्रवेश न करना पड़े, इसीलिये हमने यह अनुरोध 
किया है।” वसुओंके ऐसा कहनेपर गंगाजी “तथास्तु” कहकर यों बोलीं ।। १६ ।। 

गजड़ोवाच 

मर्त्येषु पुरुषश्रेष्ठ: को वः कर्ता भविष्यति । 

गंगाजीने कहा--वसुओ! मर्त्यलोकमें ऐसे श्रेष्ठ पुरुष कौन हैं; जो तुमलोगोंके पिता 
होंगे। 

वसव ऊचु. 

प्रतीपस्य सुतो राजा शान्तनुलोंकविश्रुत: । 

भविता मानुषे लोके स न: कर्ता भविष्यति ॥। १७ ।। 

वसुगण बोले--प्रतीपके पुत्र राजा शान्तनु लोकविख्यात साधु पुरुष होंगे। 
मनुष्यलोकमें वे ही मारे जनक होंगे ।। १७ ।। 

गज़ोवाच 

ममाप्येवं मतं देवा यथा मां वदतानघा: । 

प्रियं तस्य करिष्यामि युष्माकं॑ चैतदीप्सितम्‌ ।। १८ ।। 

गंगाजीने कहा--निष्पाप देवताओ! तुमलोग जैसा कहते हो, वैसा ही मेरा भी विचार 
है। मैं राजा शान्तनुका प्रिय करूँगी और तुम्हारे इस अभीष्ट कार्यको भी सिद्ध 
करूँगी ।। १८ ।। 

वसव ऊचु. 

जातान्‌ कुमारान्‌ स्वानप्सु प्रक्षेप्तुं वै त्वमहसि । 

यथा न चिरकाल नो निष्कृतिः स्यात्‌ त्रिलोकगे ।। १९ |। 

वसुगण बोले--तीनों लोकोंमें प्रवाहित होनेवाली गंगे! हमलोग जब तुम्हारे गर्भसे 
जन्म लें, तब तुम पैदा होते ही हमें अपने जलमें फेंक देना; जिससे शीघ्र ही हमारा 
मर्त्यलोकसे छुटकारा हो जाय ।। १९ |। 

गजड़ोवाच 
एवमेतत्‌ करिष्यामि पुत्रस्तस्य विधीयताम्‌ । 


नास्य मोघ: संगम: स्यात्‌ पुत्रहेतोर्मया सह ।। २० ।। 

गंगाजीने कहा--ठीक है, मैं ऐसा ही करूँगी; परंतु उस राजाका मेरे साथ पुत्रके लिये 
किया हुआ सम्बन्ध व्यर्थ न हो जाय, इसलिये उनके लिये एक पुत्रकी भी व्यवस्था होनी 
चाहिये ।। २० ।। 

वसव ऊचु. 

तुरीयार्ध प्रदास्पामो वीर्यस्यैकैकशो वयम्‌ | 

तेन वीर्येण पुत्रस्ते भविता तस्य चेप्सित: ।। २१ ।। 

वसुगण बोले--हम सब लोग अपने तेजका एक-एक अष्टमांश देंगे। उस तेजसे जो 
तुम्हारा एक पुत्र होगा, वह उस राजाकी इच्छाके अनुरूप होगा ।। २१ ।। 

न सम्पत्स्यति मर्त्येषु पुनस्तस्य तु संततिः । 

तस्मादतपुत्र: पुत्रस्ते भविष्यति स वीर्यवान्‌ । २२ ।। 

किंतु मर्त्पलोकमें उसकी कोई संतान न होगी। अतः तुम्हारा वह पुत्र संतानहीन होनेके 
साथ ही अत्यन्त पराक्रमी होगा || २२ ।। 

एवं ते समयं कृत्वा गड़या वसव: सह । 

जग्मु: संहृष्टममसो यथासंकल्पमणञ्जसा ।। २३ ।। 

इस प्रकार गंगाजीके साथ शर्त करके वसुगण प्रसन्नतापूर्वक अपनी इच्छाके अनुसार 
चले गये ।। २३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि महाभिषोपाख्याने 
षण्णवतितमो<ध्याय: ।। ९६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपववके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें महाभथिषोपाख्यानविषयक 
छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ९६ ॥। 


अपना बछ। | अफड-्-क+ >> 


सप्तनवतितमो< ध्याय: 


राजा प्रतीपका गंगाको पुत्रवधूके रूपमें स्वीकार करना 
और शान्तनुका जन्म, राज्याभिषेक तथा गंगासे मिलना 


वैशम्पायन उवाच 


ततः प्रतीपो राजा55सीत्‌ सर्वभूतहित:ः सदा । 

निषसाद समा बद्दीर्गज्राद्वारगतो जपन्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--तदनन्तर इस पृथ्वीपर राजा प्रतीप राज्य करने लगे। वे 
सदा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्न रहते थे। एक समय महाराज प्रतीप गंगाद्वार 
(हरिद्वार)-में गये और बहुत वर्षोतक जप करते हुए एक आसनपर बैठे रहे ।। १ ।। 

तस्य रूपगुणोपेता गड्जा स्त्रीरूपधारिणी | 

उत्तीर्य सलिलात्‌ तस्माललोभनीयतमाकृति: ।। २ ।। 

अधीयानस्य राजर्षेर्दिव्यरूपा मनस्विनी । 

दक्षिणं शालसंकाशमूरु भेजे शुभानना ।। ३ ।। 

उस समय मनस्विनी गंगा सुन्दर रूप और उत्तम गुणोंसे युक्त युवती स्त्रीका रूप धारण 
करके जलसे निकलीं और स्वाध्यायमें लगे हुए राजर्षि प्रतीपके शाल-जैसे विशाल दाहिने 
ऊरु (जाँघ)-पर जा बैठीं। उस समय उनकी आकृति बड़ी लुभावनी थी; रूप देवांगनाओंके 
समान था और मुख अत्यन्त मनोहर था ।। २-३ ।। 

प्रतीपस्तु महीपालस्तामुवाच यशस्विनीम्‌ | 

करोमि कि ते कल्याणि प्रियं यत्‌ तेडभिकाड्क्षितम्‌ ।। ४ ।। 

अपनी जाँघपर बैठी हुई उस यशस्विनी नारीसे राजा प्रतीपने पूछा--“कल्याणि! मैं 
तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? तुम्हारी क्या इच्छा है?” ।। ४ ।। 

रूयुवाच 

त्वामहं कामये राजन्‌ भजमानां भजस्व माम्‌ | 

त्याग: कामवतीनां हि स्त्रीणां सद्धिर्विगर्हित: ।। ५ ।। 

स्‍त्री बोली--राजन्‌! मैं आपको ही चाहती हूँ। आपके प्रति मेरा अनुराग है, अतः आप 
मुझे स्वीकार करें; क्योंकि कामके अधीन होकर अपने पास आयी हुई स्त्रियोंका परित्याग 
साधु पुरुषोंने निन्दित माना है || ५ ।। 

प्रतीप उवाच 
नाहं परस्त्रियं कामाद्‌ गच्छेयं वरवर्णिनि । 
न चासवर्णा कल्याणि धर्म्यमेतद्धि मे व्रतम्‌ ।। ६ ।। 


प्रतीपने कहा--सुन्दरी! मैं कामवश परायी स्त्रीके साथ समागम नहीं कर सकता। जो 
अपने वर्णकी न हो, उससे भी मैं सम्बन्ध नहीं रख सकता। कल्याणि! यह मेरा धर्मानुकूल 
व्रत है ।। ६ ।। 


रूयुवाच 
नाश्रेयस्यस्मि नागम्या न वक्तव्या च कहिचित्‌ । 
भजन्तीं भज मां राजन्‌ दिव्यां कन्यां वरस्त्रियम्‌ ।। ७ ।। 
स्‍त्री बोली--राजन! मैं अशुभ या अमंगल करनेवाली नहीं हूँ, समागमके अयोग्य भी 
नहीं हूँ और ऐसी भी नहीं हूँ कि कभी कोई मुझपर कलंक लगावे। मैं आपके प्रति अनुरक्त 
होकर आयी हुई दिव्य कन्या एवं सुन्दरी स्त्री हूँ। अत: आप मुझे स्वीकार करें ।। ७ ।। 
प्रतीप उवाच 


त्वया निवृत्तमेतत्‌ तु यन्मां चोदयसि प्रियम्‌ । 

अन्यथा प्रतिपन्न॑ मां नाशयेद्‌ धर्मविप्लव: ।। ८ ।। 

प्रतीपने कहा--सुन्दरी! तुम जिस प्रिय मनोरथकी पूर्तिके लिये मुझे प्रेरित कर रही 
हो, उसका निराकरण भी तुम्हारे द्वारा ही हो गया। यदि मैं धर्मके विपरीत तुम्हारा यह 
प्रस्ताव स्वीकार कर लूँ तो धर्मका यह विनाश मेरा भी नाश कर डालेगा ।। ८ ।। 

प्राप्प दक्षिणमूरुं मे त्वमाश्लिष्टा वराड़ने । 

अपत्यानां स्नुषाणां च भीरु विद्धोतदासनम्‌ ।। ९ |। 

वरांगने! तुम मेरी दाहिनी जाँघपर आकर बैठी हो। भीरु! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि 
यह पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधूका आसन है ।। ९ |। 

सव्योरु: कामिनीभोग्यस्त्वया स च विवर्जित: । 

तस्मादहं नाचरिष्ये त्वयि काम॑ वराड़ने ।। १० ।। 

पुरुषकी बायीं जाँघच ही कामिनीके उपभोगके योग्य है; किंतु तुमने उसका त्याग कर 
दिया है। अतः वरांगने! मैं तुम्हारे प्रति कामयुक्त आचरण नहीं करूँगा || १० ।। 

स्‍्नुषा मे भव सुश्रोणि पुत्रार्थ त्वां वृणोम्यहम्‌ । 

स्नुषापक्षं हि वामोरु त्वमागम्य समाश्रिता ।। ११ ।। 

सुश्रोणि! तुम मेरी पुत्रवधू हो जाओ। मैं अपने पुत्रके लिये तुम्हारा वरण करता हूँ; 
क्योंकि वामोरु! तुमने यहाँ आकर मेरी उसी जाँघका आश्रय लिया है, जो पुत्रवधूके पक्षकी 
है ।। ११ || 

रूयुवाच 
एवमप्यस्तु धर्मज्ञ संयुज्येयं सुतेन ते । 
त्वद्धक्त्या तु भजिष्यामि प्रख्यातं भारतं कुलम्‌ ।। १२ ।। 


स्‍त्री बोली--धर्मज्ञ नरेश! आप जैसा कहते हैं, वैसा भी हो सकता है। मैं आपके 
पुत्रके साथ संयुक्त होऊँगी। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, उसके कारण मैं विख्यात 
भरतवंशका सेवन करूँगी ।। १२ ।। 

पृथिव्यां पार्थिवा ये च तेषां यूयं परायणम्‌ । 

गुणा न हि मया शकया वक्तुं वर्षशतैरपि ।। १३ ।। 

पृथ्वीपर जितने राजा हैं, उन सबके आपलोग उत्तम आश्रय हैं। सौ वर्षोमें भी 
आपलोगोंके गुणोंका वर्णन मैं नहीं कर सकती ।। १३ ।। 

कुलस्य ये व: प्रथितास्तत्साधुत्वमथोत्तमम्‌ | 

समयेनेह धर्मज्ञ आचरेयं च यद्‌ विभो ॥। १४ ।। 

तत्‌ सर्वमेव पुत्रस्ते न मीमांसेत कर्हिचित्‌ | 

एवं वसन्ती पुत्रे ते वर्धयिष्याम्यहं रतिम्‌ ।। १५ ।। 

पुत्रै: पुण्यै: प्रियैश्वैव स्वर्ग प्राप्स्पति ते सुतः । 

आपके कुलमें जो विख्यात राजा हो गये हैं, उनकी साधुता सर्वोपरि है। धर्मज्ञ! मैं एक 
शर्तके साथ आपके पुत्रसे विवाह करूँगी। प्रभो! मैं जो कुछ भी आचरण करूँ, वह सब 
आपके पुत्रको स्वीकार होना चाहिये। वे उसके विषयमें कभी कुछ विचार न करें। इस 
शर्तपर रहती हुई मैं आपके पुत्रके प्रति अपना प्रेम बढ़ाऊँगी। मुझसे जो पुण्यात्मा एवं प्रिय 
पुत्र उत्पन्न होंगे, उनके द्वारा आपके पुत्रको स्वर्गलोककी प्राप्ति होगी || १४-१५ ६ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


तथेत्युक्ता तु सा राजंस्तत्रैवान्तरधीयत ।। १६ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा प्रतीपने “तथास्तु” कहकर उसकी शर्त 
स्वीकार कर ली। तत्पश्चात्‌ वह वहीं अन्तर्धान हो गयी ।। १६ ।। 

पुत्रजन्म प्रतीक्षन्‌ वै स राजा तदधारयत्‌ | 

एतस्मिन्नेव काले तु प्रतीप: क्षत्रियर्षभ: ।। १७ ।। 

तपस्तेपे सुतस्यार्थे सभार्य: कुरुनन्दन । 

इसके बाद पुत्रके जन्मकी प्रतीक्षा करते हुए राजा प्रतीपने उसकी बात याद रखी। 
कुरुनन्दन! इन्हीं दिनों क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ प्रतीप अपनी पत्नीको साथ लेकर पुत्रके लिये तपस्या 
करने लगे ।। १७३ ।। 

(प्रतीपस्य तु भारयायां गर्भ: श्रीमानवर्धत । 

श्रिया परमया युक्त: शरच्छुक्ले यथा शशी ।। 

ततस्तु दशमे मासि प्राजायत रविप्रभम्‌ । 

कुमार देवगर्भाभ॑ प्रतीपमहिषी तदा ।।) 

तयो: समभवत्‌ पुत्रो वृद्धयो: स महाभिष: ।। १८ ।। 


प्रतीपकी पत्नीकी कुक्षिमें एक तेजस्वी गर्भका आविर्भाव हुआ, जो शरद-ऋतुके 
शुक्ल पक्षमें परम कान्तिमान्‌ चन्द्रमाकी भाँति प्रतिदिन बढ़ने लगा। तदनन्तर दसवाँ मास 
प्राप्त होनेपर प्रतीपकी महारानीने एक देवोषम पुत्रको जन्म दिया, जो सूर्यके समान 
प्रकाशमान था। उन बूढ़े राजदम्पतिके यहाँ पूर्वोक्त राजा महाभिष ही पुत्ररूपमें उत्पन्न 
हुए ।। १८ ।। 

शान्तस्य जज्ञे संतानस्तस्मादासीत्‌ स शान्तनु: । 

शान्त पिताकी संतान होनेसे वे शान्तनु कहलाये। 

(तस्य जातस्य कृत्यानि प्रतीपो5कारयत्‌ प्रभु: । 

जातकर्मादि विप्रेण वेदोक्तै: कर्मभिस्तदा ।। 

शक्तिशाली राजा प्रतीपने उस बालकके आवश्यक कृत्य (संस्कार) करवाये। ब्राह्मण 
पुरोहितने वेदोक्त क्रियाओंद्वारा उसके जात-कर्म आदि सम्पन्न किये। 

नामकर्म च वितप्रास्तु चक्र: परमसत्कृतम्‌ । 

शान्तनोरवनीपाल वेदोक्तै: कर्मभिस्तदा ।। 

जनमेजय! तदनन्तर बहुत-से ब्राह्मणोंने मिलकर वेदोक्त विधियोंके अनुसार शान्तनुका 
नामकरण-संस्कार भी किया। 

ततः संवर्धितो राजा शान्तनुलोकपालक: । 

स तु लेभे परां निष्ठां प्राप्य धर्मविदां वर: ।। 

धनुर्वेदे च वेदे च गतिं स परमां गत: । 

यौवन चापि सम्प्राप्त: कुमारो वदतां वर: ।।) 

तत्पश्चात्‌ बड़े होनेपर राजकुमार शान्तनु लोकरक्षाका कार्य करने लगे। वे धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ 
थे। उन्होंने धनुर्वेदमें उत्तम योग्यता प्राप्त करके वेदाध्ययनमें भी ऊँची स्थिति प्राप्त की। 
वक्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ वे राजकुमार धीरे-धीरे युवावस्थामें पहुँच गये। 

संस्मरंश्षाक्षयाँललोकान्‌ विजातान्‌ स्वेन कर्मणा ।। १९ ।। 

पुण्यकर्मकृदेवासीच्छान्तनु: कुरुसत्तम: । 

प्रतीप: शान्तनु पुत्रं यौवनस्थं ततो5न्वशात्‌ ।। २० ।। 

अपने सत्कर्मोद्वारा उपार्जित अक्षय पुण्यलोकोंका स्मरण करके कुरुश्रेष्ठ शान्तनु सदा 
पुण्यकर्मोंके अनुष्ठानमें ही लगे रहते थे। युवावस्थामें पहुँचे हुए राजकुमार शान्तनुको राजा 
प्रतीपने आदेश दिया-- || १९-२० ।। 

पुरा स्त्री मां समभ्यागाच्छान्तनो भूतये तव । 

त्वामाव्रजेद्‌ यदि रह: सा पुत्र वरवर्णिनी ।। २१ ।। 

कामयानाभिरूपाद्या दिव्या स्त्री पुत्रकाम्यया । 

सा त्वया नानुयोक्तव्या कासि कस्यासि चाड़ने ।। २२ ।। 


'शान्तनो! पूर्वकालमें मेरे समीप एक दिव्य नारी आयी थी। उसका आगमन तुम्हारे 
कल्याणके लिये ही हुआ था। बेटा! यदि वह सुन्दरी कभी एकान्तमें तुम्हारे पास आवे, 
तुम्हारे प्रति कामभावसे युक्त हो और तुमसे पुत्र पानेकी इच्छा रखती हो, तो तुम उत्तम 
रूपसे सुशोभित उस दिव्य नारीसे “अंगने! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? इत्यादि प्रश्न न 
करना ।। २१-२२ ।। 

यच्च कुर्यान्न तत्‌ कर्म सा प्रष्टव्या त्वयानघ । 

मन्नियोगाद्‌ भजन्तीं तां भजेथा इत्युवाच तम्‌ ॥। २३ ।। 

“अनघ! वह जो कार्य करे, उसके विषयमें भी तुम्हें कुछ पूछताछ नहीं करनी चाहिये। 
यदि वह तुम्हें चाहे, तो मेरी आज्ञासे उसे अपनी पत्नी बना लेना।' ये बातें राजा प्रतीपने 
अपने पुत्रसे कहीं || २३ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवं संदिश्य तनयं प्रतीप: शान्तनुं तदा । 

स्वे च राज्येडभिषिच्यैनं वन॑ राजा विवेश ह ॥। २४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--अपने पुत्र शान्तनुको ऐसा आदेश देकर राजा प्रतीपने उसी 
समय उन्हें अपने राज्यपर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं वनमें प्रवेश किया || २४ ।। 

स राजा शानन्‍्तनुर्धीमान्‌ देवराजसमप्युति: । 

बभूव मृगयाशील: शान्तनुर्वनगोचर: ।। २५ ।। 

बुद्धिमान्‌ राजा शान्तनु देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी थे। वे हिंसक पशुओंको मारनेके 
उद्देश्यसे वनमें घूमते रहते थे || २५ ।। 

स मृगान्‌ महिषांश्वैव विनिघध्नन्‌ राजसत्तम: । 

गड्जामनुचचारैक: सिद्धचारणसेविताम्‌ | २६ ।। 

राजाओंमें श्रेष्ठ शान्तनु हिंसक पशुओं और जंगली भैंसोंको मारते हुए सिद्ध एवं 
चारणोंसे सेवित गंगाजीके तटपर अकेले ही विचरण करते थे || २६ ।। 

स कदाचिन्महाराज ददर्श परमां स्त्रियम्‌ । 

जाज्वल्यमानां वपुषा साक्षाच्छियमिवापराम्‌ ।। २७ ।। 

महाराज जनमेजय! एक दिन उन्होंने एक परम सुन्दरी नारी देखी, जो अपने तेजस्वी 
शरीरसे ऐसी प्रकाशित हो रही थी, मानो साक्षात्‌ लक्ष्मी ही दूसरा शरीर धारण करके आ 
गयी हो ।। २७ ।। 

सर्वानिवद्यां सुदतीं दिव्याभरण भूषिताम्‌ । 

सूक्ष्माम्बरधरामेकां पद्मोदरसमप्रभाम्‌ । २८ ।। 

उसके सारे अंग परम सुन्दर और निर्दोष थे। दाँत तो और भी सुन्दर थे। वह दिव्य 
आभूषणोंसे विभूषित थी। उसके शरीरपर महीन साड़ी शोभा पा रही थी और कमलके 


भीतरी भागके समान उसकी कान्ति थी, वह अकेली थी ।। २८ ।। 

तां दृष्टवा हृष्टरोमा भूद्‌ विस्मितो रूपसम्पदा । 

पिबन्निव च नेत्राभ्यां नातृष्पत नराधिप: ।। २९ |। 

उसे देखते ही राजा शान्तनुके शरीरमें रोमांच हो आया, वे उसकी रूप-सम्पत्तिसे 
आश्चर्यवकित हो उठे और दोनों नेत्रोंद्वारा उसकी सौन्दर्य-सुधाका पान करते हुए-से तृप्त 
नहीं होते थे || २९ ।। 

सा च दृष्टवैव राजानं विचरन्तं महाद्युतिम्‌ 

स्नेहादागतसौहार्दा नातृप्पत विलासिनी ॥। ३० ।। 

वह भी वहाँ विचरते हुए महातेजस्वी राजा शान्तनुको देखते ही मुग्ध हो गयी। स्नेहवश 
उसके हृदयमें सौहार्दका उदय हो आया। वह विलासिनी राजाको देखते-देखते तृप्त नहीं 
होती थी || ३० ।। 

तामुवाच ततो राजा सान्त्वयज्शलक्ष्णया गिरा | 

देवी वा दानवी वा त्वं गन्धर्वी चाथ वाप्सरा: ।। ३१ ।। 

यक्षी वा पन्नगी वापि मानुषी वा सुमध्यमे । 

याचे त्वां सुरगर्भाभे भार्या मे भव शोभने ।। ३२ ।। 

तब राजा शान्तनु उसे सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें बोले--'सुमध्यमे! तुम देवी, 
दानवी, गन्धर्वी, अप्सरा, यक्षी, नागकन्या अथवा मानवी, कुछ भी क्‍यों न होओ; 
देवकन्याके समान सुशोभित होनेवाली सुन्दरी! मैं तुमसे याचना करता हूँ कि मेरी पत्नी हो 
जाओ' ।। ३१-३२ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि शान्तनूपाख्याने सप्तनवतितमो< ध्याय: 
॥॥ ९७ || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें शान्तनूपाख्यानविषयक 
सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ९७ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ६ श्लोक मिलाकर कुल ३८ श्लोक हैं) 


अपने-आप बछ। अर: 


अष्टनवतितमोब् ध्याय: 


शान्तनु और 8884: फे छ शर्तोके साथ सम्बन्ध, वसुओंका 
जन्म और ५ उद्धार तथा भीष्मकी उत्पत्ति 


वैशम्पायन उवाच 

एतच्छूत्वा वचो राज्ञ: सस्मितं मृदु वल्गु च । 

(यशस्विनी च सा55गच्छच्छान्तनो भूतये तदा । 

सा च दृष्टवा नृपश्रेष्ठ चरन्तं तीरमाश्रितम्‌ ।।) 

वसूनां समयं स्मृत्वाथाभ्यगच्छदनिन्दिता ।। १ ।। 

(प्रजार्थिनी राजपुत्रं शान्तनुं पृथिवीपतिम्‌ । 

प्रतीपवचनं चापि संस्मृत्यैव स्वयं नूप ।। 

कालो<5यमिति मत्वा सा वसूनां शापचोदिता ।) 

उवाच चैव राज्ञ: सा ह्वादयन्ती मनो गिरा । 

भविष्यामि महीपाल महिषी ते वशानुगा ।। २ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा शान्तनुका मधुर मुसकानयुक्त मनोहर 
वचन सुनकर यशस्विनी गंगा उनकी एऐश्वर्य-वृद्धिके लिये उनके पास आयीं। तटपर विचरते 
हुए उन नृपश्रेष्ठको देखकर सती साध्वी गंगाको वसुओंको दिये हुए वचनका स्मरण हो 
आया। साथ ही राजा प्रतीपकी बात भी याद आ गयी। तब यही उपयुक्त समय है, ऐसा 
मानकर वसुओंको मिले हुए शापसे प्रेरित हो वे स्वयं संतानोत्पादनकी इच्छासे पृथ्वीपति 
महाराज शान्तनुके समीप चली आयीं और अपनी मधुर वाणीसे महाराजके मनको आनन्द 
प्रदान करती हुई बोलीं--'भूपाल! मैं आपकी महारानी बनूँगी एवं आपके अधीन 
रहूँगी ।। १-२ ।। 

यत्‌ तु कुर्यामहं राजज्छुभं वा यदि वाशुभम्‌ | 

न तद्‌ वारयितव्यास्मि न वक्तव्या तथाप्रियम्‌ ।। ३ ।। 

(परंतु एक शर्त है--) राजन! मैं भला या बुरा जो कुछ भी करूँ, उसके लिये आपको 
मुझे नहीं रोकना चाहिये और मुझसे कभी अप्रिय वचन भी नहीं कहना चाहिये ।। ३ ।। 

एवं हि वर्तमाने<हं त्वयि वत्स्यामि पार्थिव । 

वारिता विप्रियं चोक्ता त्यजेयं त्वामसंशयम्‌ ।। ४ ।। 

'पृथ्वीपते! ऐसा बर्ताव करनेपर ही मैं आपके समीप रहूँगी। यदि आपने कभी मुझे 
किसी कार्यसे रोका या अप्रिय वचन कहा तो मैं निश्चय ही आपका साथ छोड़ दूँगी' ।। ४ ।। 

तथेति सा यदा तूक्ता तदा भरतसत्तम | 


प्रहर्षमतुलं लेभे प्राप्य तं पार्थिवोत्तमम्‌ ।। ५ ।। 

भरतश्रेष्ठ] उस समय बहुत अच्छा कहकर राजाने जब उसकी शर्त मान ली, तब उन 
नृपश्रेष्ठको पतिरूपमें प्राप्त करके उस देवीको अनुपम आनन्द मिला ।। ५ |। 

(रथमारोप्य तां देवीं जगाम स तया सह । 

सा च शान्तनुमभ्यागात्‌ साक्षाल्लक्ष्मीरिवापरा ।।) 

तब राजा शान्तनु देवी गंगाको रथपर बिठाकर उनके साथ अपनी राजधानीको चले 
गये। साक्षात्‌ दूसरी लक्ष्मीके समान सुशोभित होनेवाली गंगादेवी शान्तनुके साथ गयीं। 

आसाद्य शान्तनुस्तां च बुभुजे कामतो वशी । 

न प्रष्टव्येति मन्वानो नस तां किंचिदूचिवान्‌ ॥। ६ ।। 

इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले राजा शान्तनु उस देवीको पाकर उसका इच्छानुसार 
उपभोग करने लगे। पिताका यह आदेश था कि उससे कुछ पूछना मत; अत: उनकी आज्ञा 
मानकर राजाने उससे कोई बात नहीं पूछी ।। ६ ।। 

स तस्या: शीलवृत्तेन रूपौदार्यगुणेन च । 

उपचारेण च रहस्तुतोष जगतीपति: ।। ७ ।। 

उसके उत्तम शील-स्वभाव, सदाचार, रूप, उदारता, सदगुण तथा एकान्त सेवासे 
महाराज शान्तनु बहुत संतुष्ट रहते थे || ७ ।। 

दिव्यरूपा हि सा देवी गड़ा त्रिपथगामिनी । 

मानुषं विग्रहं कृत्वा श्रीमन्तं वरवर्णिनी ।। ८ ।। 

भाग्योपनतकामस्य भार्या चोपनताभवत्‌ | 

शान्तनोर्न॒प्सिंहस्य देवराजसमझूुते: ।। ९ ।। 

त्रिपथगामिनी दिव्यरूपिणी देवी गंगा ही अत्यन्त सुन्दर मनुष्य-देह धारण करके 
देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी नृूपशिरोमणि महाराज शान्तनुको, जिन्हें भाग्यसे इच्छानुसार 
सुख अपने-आप मिल रहा था, सुन्दरी पत्नीके रूपमें प्राप्त हुई थीं ।। ८-९ ।। 

सम्भोगस्नेहचातुर्यर्हावभावसमन्वितै: । 

राजानं रमयामास यथा रेमे तथैव स: ।। १० ।। 

गंगादेवी हाव-भावसे युक्त सम्भोग-चातुरी और प्रणय-चातुरीसे राजाको जैसे-जैसे 
रमातीं, उसी-उसी प्रकार वे उनके साथ रमण करते थे || १० ।। 

स राजा रतिससक्तव्वादुत्तमस्त्रीगुणै्त: । 

संवत्सरानृतून्‌ मासान्‌ बुबुधे न बहून्‌ गतान्‌ ।। ११ ।। 

उस दिव्य नारीके उत्तम गुणोंने उनके चित्तको चुरा लिया था; अतः वे राजा उसके साथ 
रति-भोगमें आसक्त हो गये। कितने ही वर्ष, ऋतु और मास व्यतीत हो गये, किंतु उसमें 
आसक्त होनेके कारण राजाको कुछ पता न चला ।। ११ ।। 

रममाणस्तया सार्ध यथाकामं नरेश्वर: | 


अष्टावजनयत्‌ पुत्रांस्तस्थाममरसंनि भान्‌ ।। १२ ।। 

उसके साथ इच्छानुसार रमण करते हुए महाराज शान्तनुने उसके गर्भसे देवताओंके 
समान तेजस्वी आठ पुत्र उत्पन्न किये || १२ ।। 

जात॑ जातं च सा पुत्र क्षिपत्यम्भसि भारत । 

प्रीणाम्यहं त्वामित्युक्त्वा गड़ा स्रोतस्यमज्जयत्‌ ।। १३ ।। 

भारत! जो-जो पुत्र उत्पन्न होता, उसे वह गंगाजीके जलमें फेंक देती और कहती 
--“(वत्स! इस प्रकार शापसे मुक्त करके) मैं तुम्हें प्रसन्न कर रही हूँ।” ऐसा कहकर गंगा 
प्रत्येक बालकको धारामें डुबो देती थी ।। १३ ।। 

तस्य तन्न प्रियं राज्ञ: शान्तनोरभवत्‌ तदा । 

न च तां किंचनोवाच त्यागाद्‌ भीतो महीपति: ।। १४ ।। 

पत्नीका यह व्यवहार राजा शान्तनुको अच्छा नहीं लगता था, तो भी वे उस समय 
उससे कुछ नहीं कहते थे। राजाको यह डर बना हुआ था कि कहीं यह मुझे छोड़कर चली 
न जाय ।। १४ || 

अथैनामष्ट मे पुत्रे जाते प्रहसतीमिव । 

उवाच राजा दु:खार्त: परीप्सन्‌ पुत्रमात्मन: ।। १५ ।। 

तदनन्तर जब आठवाँ पुत्र उत्पन्न हुआ, तब हँसती हुई-सी अपनी स्त्रीसे राजाने अपने 
पुत्रका प्राण बचानेकी इच्छासे दुःखातुर होकर कहा-- || १५ ।। 

मा वधी: कस्य कासीति कि हिनत्सि सुतानिति । 

पुत्रध्नि सुमहत्‌ पापं सम्प्राप्तं ते सुगर्हितम्‌ ।। १६ ।। 

“अरी! इस बालकका वध न कर, तू किसकी कन्या है? कौन है? क्यों अपने ही बेटोंको 
मारे डालती है। पुत्रधातिनि! तुझे पुत्रहत्याका यह अत्यन्त निन्दित और भारी पाप लगा 
है! | १६ |। 

रूयुवाच 

पुत्रकाम न ते हन्मि पुत्र पुत्रवतां वर । 

जीर्णस्तु मम वासो5यं यथा स समय: कृत: ।। १७ ।। 

स्‍त्री बोली--पुत्रकी इच्छा रखनेवाले नरेश! तुम पुत्रवानोंमें श्रेष्ठ हो। मैं तुम्हारे इस 
पुत्रको नहीं मारूँगी; परंतु यहाँ मेरे रहनेका समय अब समाप्त हो गया; जैसी कि पहले ही 
शर्त हो चुकी है ।। १७ ।। 

अहं गड्जा जह्ुसुता महर्षिगणसेविता । 

देवकार्यार्थसिद्धार्थमुषिताहं त्वया सह ।। १८ ।। 

मैं जह्ुकी पुत्री और महर्षियोंद्वारा सेवित गंगा हूँ। देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके 
लिये तुम्हारे साथ रह रही थी || १८ ।। 


इमे5ष्टौ वसवो देवा महाभागा महौजस: । 

वसिष्ठशापदोषेण मानुषत्वमुपागता: ।। १९ ।। 

ये तुम्हारे आठ पुत्र महातेजस्वी महाभाग वसु देवता हैं। वसिष्ठजीके शाप-दोषसे ये 
मनुष्य-योनिमें आये थे || १९ ।। 

तेषां जनयिता नान्यस्त्वदृते भुवि विद्यते । 

मद्विधा मानुषी धात्री लोके नास्तीह काचन || २० ।। 

तुम्हारे सिवा दूसरा कोई राजा इस पृथ्वीपर ऐसा नहीं था, जो उन वसुओंका जनक हो 
सके। इसी प्रकार इस जगतमें मेरी-जैसी दूसरी कोई मानवी नहीं है, जो उन्हें गर्भमें धारण 
कर सके ।। २० ।। 

तस्मात्‌ तज्जननीहेतोमनिषत्वमुपागता । 

जनयित्वा वसूनष्टौ जिता लोकास्त्वयाक्षया: ।। २१ ।। 

अतः इन वसुओंकी जननी होनेके लिये मैं मानवशरीर धारण करके आयी थी। राजन! 
तुमने आठ वसुओंको जन्म देकर अक्षय लोक जीत लिये हैं ।। २१ ।। 

देवानां समयस्त्वेष वसूनां संश्रुतो मया । 

जात॑ जात॑ मोक्षयिष्ये जन्मतो मानुषादिति ।। २२ ।। 

वसु देवताओंकी यह शर्त थी और मैंने उसे पूर्ण करनेकी प्रतिज्ञा कर ली थी कि जो-जो 
वसु जन्म लेगा, उसे मैं जन्मते ही मनुष्य-योनिसे छुटकारा दिला दूँगी || २२ ।। 

तत्‌ ते शापाद्‌ विनिर्मुक्ता आपवस्य महात्मन: । 

स्वस्ति ते<स्तु गमिष्यामि पुत्र पाहि महाव्रतम्‌ ।। २३ ।। 

इसलिये अब वे वसु महात्मा आपव (वसिष्ठ)-के शापसे मुक्त हो चुके हैं। तुम्हारा 
कल्याण हो, अब मैं जाऊँगी। तुम इस महान्‌ व्रतधारी पुत्रका पालन करो ।। २३ ।। 

(अयं तव सुतस्तेषां वीर्येण कुलनन्दन: । 

सम्भूतो5ति जनानन्यान्‌ भविष्यति न संशय: ।।) 

यह तुम्हारा पुत्र सब वसुओंके पराक्रमसे सम्पन्न होकर अपने कुलका आनन्द बढ़ानेके 
लिये प्रकट हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि यह बालक बल और पराक्रममें दूसरे सब लोगोंसे 
बढ़कर होगा। 

एष पर्यायवासो मे वसूनां संनिधौ कृत: । 

मत्प्रसूतिं विजानीहि गड्भादत्तमिमं सुतम्‌ ।। २४ ।। 

यह बालक वसुओंमेंसे प्रत्येफके एक-एक अंशका आश्रय है--सम्पूर्ण वसुओंके अंशसे 
इसकी उत्पत्ति हुई है। मैंने तुम्हारे लिये वसुओंके समीप प्रार्थना की थी कि 'राजाका एक 
पुत्र जीवित रहे'। इसे मेरा बालक समझना और इसका नाम “गंगादत्त” रखना || २४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीष्मोत्पत्तावष्टननवतितमो< ध्याय: ।। 
९८ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें भीष्मोत्पत्तिविषयक अद्ठानबेवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९८ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ ३ श्लोक मिलाकर कुल २८३ लोक हैं) 


नवनवतितमो< ध्याय: 
महर्षि वसिष्ठद्वारा वसुओंको शाप प्राप्त होनेकी कथा 


शान्तनुरुवाच 


आपतवो नाम को न्वेष वसूनां कि च दुष्कृतम्‌ । 

यस्याभिशापात्‌ ते सर्वे मानुषी योनिमागता: ।। १ ।। 

शान्तनुने पूछा--देवि! ये आपव नामके महात्मा कौन हैं? और वसुओंका क्‍या 
अपराध था, जिससे आपवके शापसे उन सबको मनुष्य-योनिमें आना पड़ा ।। १ ।। 

अनेन च कुमारेण त्वया दत्तेन कि कृतम्‌ । 

यस्य चैव कृतेनायं मानुषेषु निवत्स्यति || २ ।। 

और तुम्हारे दिये हुए इस पुत्रने कौन-सा कर्म किया है, जिसके कारण यह 
मनुष्यलोकमें निवास करेगा ।। २ ।। 

ईशा वै सर्वलोकस्य वसवस्ते च वै कथम्‌ | 

मानुषेषूदपद्यन्त तन्‍्ममाचक्ष्व जाहल्नवि ।। ३ ।। 

जाह्नवि! वसु तो समस्त लोकोंके अधीश्वर हैं, वे कैसे मनुष्यलोकमें उत्पन्न हुए? यह 
सब बात मुझे बताओ ।। ३ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्ता तदा गड़ा राजानमिदमतब्रवीत्‌ | 

भर्तरें जाह्नवी देवी शान्तनुं पुरुषर्षभ ।। ४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--नरश्रेष्ठ जनमेजय! अपने पति राजा शान्तनुके इस प्रकार 
पूछनेपर जह्लुपुत्री गंगादेवीने उनसे इस प्रकार कहा ।। ४ ।। 

गजड़ोवाच 

यं लेभे वरुण: पुत्र पुरा भरतसत्तम । 

वसिष्ठनामा स मुनि: ख्यात आपव इत्युत ।। ५ ।। 

गंगा बोलीं--भरतश्रेष्ठ! पूर्वकालमें वरुणने जिन्हें पुत्ररूपमें प्राप्त किया था, वे वसिष्ठ 
नामक मुनि ही “आपव'” नामसे विख्यात हैं ।। ५ ।। 

तस्याश्रमपदं पुण्यं मृगपक्षिसमन्वितम्‌ । 

मेरो: पाश्वे नगेन्द्रस्य सर्वर्तुकुसुमावृतम्‌ ।। ६ ।। 

गिरिराज मेरुके पार्श्वभागमें उनका पवित्र आश्रम है; जो मृग और पक्षियोंसे भरा रहता 
है। सभी ऋतुओंमें विकसित होनेवाले फ़ूल उस आश्रमकी शोभा बढ़ाते हैं || ६ ।। 

स वारुणिस्तपस्तेपे तस्मिन्‌ भरतसत्तम | 


वने पुण्यकृतां श्रेष्ठ: स्वादुमूलफलोदके ।। ७ ।। 

भरतवंशशिरोमणे! उस वनमें स्वादिष्ट फल, मूल और जलकी सुविधा थी, पुण्यवानोंमें 
श्रेष्ठ वरुणनन्दन महर्षि वसिष्ठ उसीमें तपस्या करते थे ।। ७ ।। 

दक्षस्य दुहिता या तु सुरभीत्यभिशब्दिता | 

गां प्रजाता तु सा देवी कश्यपाद्‌ भरतर्षभ ।॥। ८ ।। 

महाराज! दक्ष प्रजापतिकी पुत्रीने, जो देवी सुरभि नामसे विख्यात है, कश्यपजीके 
सहवाससे एक गौको जन्म दिया ।। ८ ।। 

अनुग्रहार्थ जगत: सर्वकामदुहां वरा । 

तां लेभे गां तु धर्मात्मा होमधेनुं स वारुणि: ।। ९ ।। 

वह गौ सम्पूर्ण जगतपर अनुग्रह करनेके लिये प्रकट हुई थी तथा समस्त कामनाओंको 
देनेवालोंमें श्रेष्ठ थी। वरुणपुत्र धर्मात्मा वसिष्ठने उस गौको अपनी होमधेनुके रूपमें प्राप्त 
किया ।। ९ |। 

सा तस्मिंस्तापसारण्ये वसन्ती मुनिसेविते । 

चचार पुण्ये रम्ये च गौरपेतभया तदा ।। १० ।। 

वह गौ मुनियोंद्वारा सेवित उस पवित्र एवं रमणीय तापसवनमें रहती हुई सब ओर 
निर्भय होकर चरती थी ।। १० ।। 

अथ तद्‌ वनमाजग्मु: कदाचिद्‌ भरतर्षभ । 

पृथ्वाद्या वसव: सर्वे देवा देवर्षिसेवितम्‌ ।। ११ ।। 

भरतश्रेष्ठी) एक दिन उस देवर्षिसेवित वनमें पृथु आदि वसु तथा सम्पूर्ण देवता 
पधारे || ११ ।। 

ते सदारा वनं तच्च व्यचरन्त समन्तत:ः । 

रेमिरे रमणीयेषु पर्वतेषु वनेषु च ।। १२ ।। 

वे अपनी स्त्रियोंक साथ उस वनमें चारों ओर विचरने तथा रमणीय पर्वतों और वनोंमें 
रमण करने लगे ।। १२ ।। 

तत्रैकस्थाथ भार्या तु वसोर्वासवविक्रम । 

संचरन्ती वने तस्मिन्‌ गां ददर्श सुमध्यमा ।। १३ ।। 

इन्द्रके समान पराक्रमी महीपाल! उन वसुओंमेंसे एककी सुन्दरी पत्नीने उस वनमें 
घूमते समय उस गौको देखा ।। १३ ।। 

नन्दिनीं नाम राजेन्द्र सर्वकामधुगुत्तमाम्‌ । 

सा विस्मयसमाविष्टा शीलद्रविणसम्पदा ।। १४ ।। 

राजेन्द्र! सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवालोंमें उत्तम नन्दिनी नामवाली उस गायको देखकर 
उसकी शीलसम्पत्तिसे वह वसुपत्नी आश्वर्यचकित हो उठी ।। १४ ।। 

द्यवे वै दर्शयामास तां गां गोवृषभेक्षण । 


आपीनां च सुदोग्ध्रीं च सुवालधिखुरां शुभाम्‌ ।। १५ ।। 

उपपन्नां गुणै: सर्वे: शीलेनानुत्तमेन च । 

एवंगुणसमायुक्तां वसवे वसुनन्दिनी ।। १६ ।। 

दर्शयामास राजेन्द्र पुरा पौरवनन्दन । 

द्यौस्तदा तां तु दृष्टवैव गां गजेन्द्रेन्द्रविक्रम ।। १७ ।। 

उवाच राजंस्तां देवीं तस्या रूपगुणान्‌ वदन्‌ | 

एषा गौरुत्तमा देवी वारुणेरसितेक्षणा ।। १८ ।। 

ऋषेस्तस्य वरारोहे यस्येदं वनमुत्तमम्‌ | 

अस्या: क्षीरं पिबेन्मर्त्य: स्वादु यो वै सुमध्यमे ।। १९ ।। 

दशवर्षसहस््त्राणि स जीवेत्‌ स्थिरयौवन: । 

एतच्छुत्वा तु सा देवी नृपोत्तम सुमध्यमा || २० ।। 

तमुवाचानवद्याड्री भर्तारं दीप्ततेजसम्‌ | 

अस्ति मे मानुषे लोके नरदेवात्मजा सखी ।। २१ ।। 

वृषभके समान विशाल नेत्रोंवाले महाराज! उस देवीने द्यो नामक वसुको वह शुभ गाय 
दिखायी, जो भलीभाँति हृष्ट-पुष्ट थी। दूधसे भरे हुए उसके थन बड़े सुन्दर थे, पूँछ और खुर 
भी बहुत अच्छे थे। वह सुन्दर गाय सभी सदगुणोंसे सम्पन्न और सर्वोत्तम शील-स्वभावसे 
युक्त थी। पूरवंशका आनन्द बढ़ानेवाली सम्राट! इस प्रकार पूर्वकालमें वसुका आनन्द 
बढ़ानेवाली देवीने अपने पति वसुको ऐसे सदगुणोंवाली गौका दर्शन कराया। गजराजके 
समान पराक्रमी महाराज! द्योने उस गायको देखते ही उसके रूप और गुणोंका वर्णन करते 
हुए अपनी पत्नीसे कहा--'यह कजरारे नेत्रोंवाली उत्तम गौ दिव्य है। वरारोहे! यह उन 
वरुणनन्दन महर्षि वसिष्ठकी गाय है, जिनका यह उत्तम तपोवन है। सुमध्यमे! जो मनुष्य 
इसका स्वादिष्ट दूध पी लेगा, वह दस हजार वर्षोतक जीवित रहेगा और उतने समयतक 
उसकी युवावस्था स्थिर रहेगी।' नृपश्रेष्ठ! सुन्दर कटि-प्रदेश और निर्दोष अंगोंवाली वह देवी 
यह बात सुनकर अपने तेजस्वी पतिसे बोली--'प्राणनाथ! मनुष्यलोकमें एक राजकुमारी 
मेरी सखी है” || १५--२१ ।। 

नाम्ना जितवती नाम रूपयौवनशालिनी । 

उशीनरस्य राजर्षे: सत्यसंधस्य धीमत: ।। २२ ।। 

दुहिता प्रथिता लोके मानुषे रूपसम्पदा । 

तस्या हेतोर्महाभाग सवत्सां गां ममेप्सिताम्‌ ।। २३ ।। 

“उसका नाम है जितवती। वह सुन्दर रूप और युवावस्थासे सुशोभित है। सत्यप्रतिज्ञ 
बुद्धिमान्‌ राजर्षि उशीनरकी पुत्री है। रूपसम्पत्तिकी दृष्टिसे मनुष्यलोकमें उसकी बड़ी 
ख्याति है। महाभाग! उसीके लिये बछड़ेसहित यह गाय लेनेकी मेरी बड़ी इच्छा 
है || २२-२३ ।। 


आनयस्वामरश्रेष्ठ त्वरितं पुण्यवर्धन । 

यावदस्या: पय: पीत्वा सा सखी मम मानद ।। २४ ।। 

मानुषेषु भवत्वेका जरारोगविवर्जिता । 

एतन्मम महाभाग कर्तुमर्हस्यनिन्दित ।। २५ ।। 

'सुरश्रेष्ठ आप पुण्यकी वृद्धि करनेवाले हैं। इस गायको शीघ्र ले आइये। मानद! 
जिससे इसका दूध पीकर मेरी वह सखी मनुष्यलोकमें अकेली ही जरावस्था एवं रोग- 
व्याधिसे बची रहे। महाभाग! आप निन्दारहित हैं; मेरे इस मनोरथको पूर्ण 
कीजिये ।। २४-२५ ।। 

प्रियं प्रियतरं हास्मान्नास्ति मेडन्यत्‌ कथंचन । 

एतच्छुत्वा वचस्तस्या देव्या: प्रियचिकीर्षया || २६ ।। 

पृथ्वद्यैर्भातृभि: सार्थ द्यौस्तदा तां जहार गाम्‌ 

तया कमलतपत्राक्ष्या नियुक्तो द्यौस्तदा नृप ॥। २७ ।। 

ऋषेस्तस्य तपस्तीव्रं न शशाक निरीक्षितुम्‌ 

ह्ृता गौ: सा सदा तेन प्रपातस्तु न तर्कित: ।। २८ ।। 

“मेरे लिये किसी तरह भी इससे बढ़कर प्रिय अथवा प्रियतर वस्तु दूसरी नहीं है।' 

उस देवीका यह वचन सुनकर उसका प्रिय करनेकी इच्छासे द्यो नामक वसुने पृथु 
आदि अपने भाइयोंकी सहायतासे उस गौका अपहरण कर लिया। राजन! कमलदलके 
समान विशाल नेत्रोंवाली पत्नीसे प्रेरित होकर द्योने गौका अपहरण तो कर लिया; परंतु उस 
समय उन महर्षि वसिष्ठकी तीव्र तपस्याके प्रभावकी ओर वे दृष्टिपात नहीं कर सके और न 
यही सोच सके कि ऋषिके कोपसे मेरा स्वर्गसे पतन हो जायगा || २६--२८ ।। 

अथाश्रमपदं प्राप्त: फलान्यादाय वारुणि: । 

न चापश्यत्‌ स गां तत्र सवत्सां काननोत्तमे ।। २९ ।। 

कुछ समयके बाद वरुणनन्दन वसिष्ठजी फल-मूल लेकर आश्रमपर आये; परंतु उस 
सुन्दर काननमें उन्हें बछड़ेसहित अपनी गाय नहीं दिखायी दी || २९ ।। 

ततः स मृगयामास वने तस्मिंस्तपोधन: । 

नाध्यगच्छच्च मृगयंस्तां गां मुनिरुदारधी: ।। ३० ।। 

तब तपोधन वसिष्ठजी उस वनमें गायकी खोज करने लगे; परंतु खोजनेपर भी वे 
उदारबुद्धि महर्षि उस गायको न पा सके ।। ३० ।। 

ज्ञात्वा तथापनीतां तां वसुभिर्दिव्यदर्शन: । 

ययौ क्रोधवशं सद्यः शशाप च वसूंस्तदा ।। ३१ ।। 

तब उन्होंने दिव्य दृष्टिसे देखा और यह जान गये कि वसुओंने उसका अपहरण किया 
है। फिर तो वे क्रोधके वशीभूत हो गये और तत्काल वसुओंको शाप दे दिया-- ।। ३१ ।। 

यस्मान्मे वसवो जह्र्गा वै दोग्ध्रीं सुवालधिम्‌ । 


तस्मात्‌ सर्वे जनिष्यन्ति मानुषेषु न संशय: ।। ३२ ।। 

“वसुओंने सुन्दर पूँछवाली मेरी कामधेनु गायका अपहरण किया है, इसलिये वे सब- 
के-सब मनुष्य-योनिमें जन्म लेंगे, इसमें संशय नहीं है” || ३२ ।। 

एवं शशाप भगवान्‌ वसूंस्तान्‌ भरतर्षभ । 

वशं क्रोधस्य सम्प्राप्त आपवो मुनिसत्तम: ।। ३३ ।। 

भरतर्षभ! इस प्रकार मुनिवर भगवान्‌ वसिष्ठने क्रोधके आवेशमें आकर उन वसुओंको 
शाप दिया ।। ३३ ।। 

शप्त्वा च तान्‌ महाभागस्तपस्येव मनो दधे । 

एवं स शप्तवान्‌ राजन्‌ वसूनष्टी तपोधन: ।। ३४ ।। 

महाप्रभावो ब्रद्य॒र्षिदेवान्‌ क्रोधसमन्वित: । 

अथाश्रमपदं प्राप्तास्ते वै भूयो महात्मन: ।। ३५ ।। 

शप्ता: सम इति जानन्त ऋषिं तमुपचक्रमु: । 

प्रसादयन्तस्तमृषिं वसव: पार्थिवर्षभ ।। ३६ ।। 

लेभिरे न च तस्मात्‌ ते प्रसादमृषिसत्तमात्‌ । 

आपपवात्‌ पुरुषव्याप्र सर्वधर्मविशारदात्‌ ।। ३७ ।। 

उन्हें शाप देकर उन महाभाग महर्षिने फिर तपस्यामें ही मन लगाया। राजन! तपस्याके 
धनी ब्रह्मर्षि वसिष्ठका प्रभाव बहुत बड़ा है। इसीलिये उन्होंने क्रोधमें भरकर देवता होनेपर 
भी उन आठों वसुओंको शाप दे दिया। तदनन्तर हमें शाप मिला है, यह जानकर वे वसु 
पुनः महामना वसिष्ठके आश्रमपर आये और उन महर्षिको प्रसन्न करनेकी चेष्टा करने लगे। 
नृपश्रेष्ठी महर्षि आपव समस्त धर्मोके ज्ञानमें निपुण थे। महाराज! उनको प्रसन्न करनेकी 
पूरी चेष्टा करने-पर भी वे वसु उन मुनिश्रेष्ठसे उनका कृपाप्रसाद न पा सके || ३४--३७ ।। 

उवाच च स धर्मात्मा शप्ता यूयं धरादय: । 

अनुसंवत्सरात्‌ सर्वे शापमोक्षमवाप्स्थथ ।। ३८ ।। 

उस समय धर्मात्मा वसिष्ठने उनसे कहा--“मैंने धर आदि तुम सभी वसुओंको शाप दे 
दिया है; परंतु तुमलोग तो प्रति वर्ष एक-एक करके सब-के-सब शापसे मुक्त हो 
जाओगे ।। ३८ ।। 

अयं तु यत्कृते यूयं मया शप्ता: स वत्स्यति । 

द्यौस्तदा मानुषे लोके दीर्घकालं स्वकर्मणा ।। ३९ ।। 

'किंतु यह द्यो, जिसके कारण तुम सबको शाप मिला है, मनुष्यलोकमें अपने 
कर्मानुसार दीर्घकालतक निवास करेगा ।। ३९ ।। 

नानृतं तच्चिकीर्षामि क्रुद्धो युष्मान्‌ यदब्रुवम्‌ । 

न प्रजास्यति चाप्येष मानुषेषु महामना: ।। ४० ।। 


“मैंने क्रोधमें आकर तुमलोगोंसे जो कुछ कहा है, उसे असत्य करना नहीं चाहता। ये 
महामना द्यो मनुष्यलोकमें संतानकी उत्पत्ति नहीं करेंगे || ४० ।। 

भविष्यति च धर्मात्मा सर्वशास्त्रविशारद: । 

पितुः प्रियहिते युक्त: स्त्री भोगान्‌ वर्जयिष्यति ।। ४१ ।। 

“और धर्मात्मा तथा सब शाम्त्रोंमें निपुण विद्वान्‌ होंगे; पिताके प्रिय एवं हितमें तत्पर 
रहकर स्त्री-सम्बन्धी भोगोंका परित्याग कर देंगे” ।। ४१ ।। 

एवमुक्‍क्त्वा वसून्‌ सर्वान्‌ स जगाम महानृषि: । 

ततो मामुपजग्मुस्ते समेता वसवस्तदा || ४२ ।। 

उन सब वसुओंसे ऐसी बात कहकर वे महर्षि वहाँसे चल दिये। तब वे सब वसु एकत्र 
होकर मेरे पास आये ।। ४२ ।। 

अयाचन्त च मां राजन्‌ वरं तच्च मया कृतम्‌ । 

जाताउ्जातानू प्रक्षिपास्मान्‌ स्वयं गड़े त्वमम्भसि ।। ४३ ।। 

राजन्‌! उस समय उन्होंने मुझसे याचना की और मैंने उसे पूर्ण किया। उनकी याचना 
इस प्रकार थी--“गंगे! हम ज्यों-ज्यों जन्म लें, तुम स्वयं हमें अपने जलमें डाल 
देना' || ४३ ।। 

एवं तेषामहं सम्यक्‌ शप्तानां राजसत्तम | 

मोक्षार्थ मानुषाल्लोकादू यथावत्‌ कृतवत्यहम्‌ ।। ४४ ।। 

राजशिरोमणे! इस प्रकार उन शापग्रस्त वसुओंको इस मनुष्यलोकसे मुक्त करनेके 
लिये मैंने यथावत्‌ प्रयत्न किया है || ४४ ।। 

अयं शापादृषेस्तस्य एक एव नृपोत्तम | 

द्यौ राजन मानुषे लोके चिरं वत्स्यति भारत ।। ४५ ।। 

भारत! नृपश्रेष्ठ) यह एकमात्र द्यो ही महर्षिके शापसे दीर्घकालतक मनुष्यलोकमें 
निवास करेगा ।। ४५ ।। 

(अयं देवब्रतश्वैव गड्भादत्तश्न मे सुतः | 

द्विनामा शान्तनो: पुत्र: शान्तनोरधिको गुणै: ।। 

अयं कुमार: पुत्रस्ते विवृद्धः पुनरेष्यति । 

अहं च ते भविष्यामि आदह्वानोपगता नृप ।।) 

राजन! मेरा यह पुत्र देवव्रत और गंगादत्त--दो नामोंसे विख्यात होगा। आपका बालक 
गुणोंमें आपसे भी बढ़कर होगा। (अच्छा, अब जाती हूँ) आपका यह पुत्र अभी शिशु- 
अवस्थामें है। बड़ा होनेपर फिर आपके पास आ जायगा और आप जब मुझे बुलायेंगे तभी 
मैं आपके सामने उपस्थित हो जाऊँगी। 


वैशम्पायन उवाच 


एतदाख्याय सा देवी तत्रैवान्तरधीयत । 

आदाय च कुमारं तं जगामाथ यथेप्सितम्‌ ।। ४६ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! ये सब बातें बताकर गंगादेवी उस नवजात 
शिशुको साथ ले वहीं अन्तर्धान हो गयीं और अपने अभीष्ट स्थानको चली गयीं ।। ४६ ।। 

स तु देवब्रतो नाम गाड़ेय इति चाभवत्‌ | 

द्युनामा शान्तनो: पुत्र: शान्तनोरधिको गुणै: ।। ४७ ।। 


उस बालकका नाम हुआ देवव्रत। कुछ लोग गांगेय भी कहते थे। द्यु- नामवाले वसु 
शान्तनुके पुत्र होकर गुणोंमें उनसे भी बढ़ गये || ४७ ।। 

शान्तनुश्वापि शोकार्तो जगाम स्वपुरं तत:ः । 

तस्याहं कीर्तयिष्यामि शान्तनोरधिकान्‌ गुणान्‌ ।। ४८ ।। 

इधर शान्तनु शोकसे आतुर हो पुनः अपने नगरको लौट गये। शान्तनुके उत्तम गुणोंका 
मैं आगे चलकर वर्णन करूँगा ।। ४८ ।। 

महाभाग्यं च नृपतेर्भारतस्य महात्मन: । 

यस्येतिहासो द्युतिमान्‌ महाभारतमुच्यते ।। ४९ ।। 

उन भरतवंशी महात्मा नरेशके महान्‌ सौभाग्यका भी मैं वर्णन करूँगा, जिनका 
उज्ज्वल इतिहास “महाभारत” नामसे विख्यात है ।। ४९ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि आपवोपाख्याने नवनवतितमो< ध्याय: 
॥| ९९ || 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत यम्भवपववनमें आपवोपाख्यानविषयक 
निन्‍्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९९ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं) 


अपन का छा | अकाल 


- द्यु” का ही नाम 'द्यो' है, जैसा कि पहले कई बार आ चुका है। 


शततमो< ध्याय: 


साधक गुण और सदाचारकी प्रशंसा, गंगाजीके 
द्वारा शैक्षित' पुत्रकी प्राप्ति तथा देवव्रतकी भीष्म-प्रतिज्ञा 


वैशम्पायन उवाच 


स राजा शान्तनुर्धीमान्‌ देवराजर्षिसत्कृत: । 

धर्मात्मा सर्वलोकेषु सत्यवागिति विश्रुत: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा शान्तनु बड़े बुद्धिमान्‌ थे; देवता तथा 
राजर्षि भी उनका सत्कार करते थे। वे धर्मात्मा नरेश सम्पूर्ण जगतमें सत्यवादीके रूपमें 
विख्यात थे ।। १ ।। 

दमो दान क्षमा बुद्धिह्लीर्धतिस्तेज उत्तमम्‌ । 

नित्यान्यासन्‌ महासत्त्वे शान्तनौ पुरुषर्षभे ।। २ ।। 

उन महाबली नरश्रेष्ठ शान्तनुमें इन्द्रियसंयम, दान, क्षमा, बुद्धि, लज्जा, धैर्य तथा उत्तम 
तेज आदि सदगुण सदा विद्यमान थे || २ ।। 

एवं स गुणसम्पन्नो धर्मार्थकुशलो नृप: । 

आसीदू भरतवंशस्य गोप्ता सर्वजनस्य च ।। ३ ।। 

इस प्रकार उत्तम गुणोंसे सम्पन्न एवं धर्म और अर्थके साधनमें कुशल राजा शान्तनु 
भरतवंशका पालन तथा सम्पूर्ण प्रजाकी रक्षा करते थे ।। ३ ।। 

कम्बुग्रीव: पृथुव्यंसो मत्तवारणविक्रम: । 

अन्वित: परिपूर्णार्थ: सर्वे्नुपतिलक्षणै: ।। ४ ।। 

उनकी ग्रीवा शंखके समान शोभा पाती थी। कंधे विशाल थे। वे मतवाले हाथीके समान 
पराक्रमी थे। उनमें सभी राजोचित शुभ लक्षण पूर्ण सार्थक होकर निवास करते थे ।। ४ ।। 

तस्य कीर्तिमतो वृत्तमवेक्ष्म सततं नरा: । 

धर्म एव पर: कामादर्थाच्चेति व्यवस्थिता: ।। ५ ।। 

उन यशस्वी महाराजके धर्मपूर्ण सदाचारको देखकर सब मनुष्य सदा इसी निश्चयपर 
पहुँचे थे कि काम और अर्थसे धर्म ही श्रेष्ठ है ।। ५ ।। 

एतान्यासन्‌ महासत्त्वे शान्तनौ पुरुषर्षभे । 

न चास्य सदृशः कश्रिद्‌ धर्मतः पार्थिवो5भवत्‌ ।। ६ ।। 

महान्‌ शक्तिशाली पुरुषश्रेष्ठ शान्तनुमें ये सभी सदगुण विद्यमान थे। उनके समान 
धर्मपूर्वक शासन करनेवाला दूसरा कोई राजा नहीं था ।। ६ ।। 

वर्तमान हि धर्मेषु सर्वधर्मभूतां वरम्‌ । 


त॑ महीपा महीपालं राजराज्ये5भ्यषेचयन्‌ ।। ७ ।। 

वे धर्ममें सदा स्थिर रहनेवाले और सम्पूर्ण धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ थे; अतः समस्त 
राजाओंने मिलकर राजा शान्तनुको राजराजेश्वर (सम्राट)-के पदपर अभिषिक्त कर 
दिया || ७ ।। 

वीतशोकभयाबाधा: सुखस्वप्ननिबोधना: । 

पति भारत गोप्तारं समपद्यन्त भूमिपा: ।। ८ ।। 

जनमेजय! जब सब राजाओंने शान्तनुको अपना स्वामी तथा रक्षक बना लिया, तब 
किसीको शोक, भय और मानसिक संताप नहीं रहा। सब लोग सुखसे सोने और जागने 
लगे ।। ८ ।। 

तेन कीर्तिमता शिष्टा: शक्रप्रतिमतेजसा । 

यज्ञदानक्रियाशीला: समपद्यन्त भूमिपा: ।। ९ ।। 

इन्द्रके समान तेजस्वी और कीर्तिशाली शान्तनुके शासनमें रहकर अन्य राजालोग भी 
दान और यज्ञ कर्मोमें स्वभावतः प्रवृत्त होने लगे ।। ९ ।। 

शान्तनुप्रमुखैर्गुप्ते लोके नृपतिभिस्तदा । 

नियमात्‌ सर्ववर्णानां धर्मोत्तरमवर्तत ।। १० ।। 

उस समय शान्तनुप्रधान राजाओंद्वारा सुरक्षित जगत्‌में सभी वर्णोके लोग नियमपूर्वक 
प्रत्येक बर्तावमें धर्मको ही प्रधानता देने लगे || १० ।। 

ब्रह्म पर्यचरत्‌ क्षत्रं विश: क्षत्रमनुव्रता: । 

ब्र्मक्षत्रानुरक्ताश्न शूद्रा: पर्यचरन्‌ विश: ।। ११ ।। 

क्षत्रियलोग ब्राह्मणोंकी सेवा करते, वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रियोंमें अनुरक्त रहते तथा शूद्र 
ब्राह्मण और क्षत्रियोंमें अनुराग रखते हुए वैश्योंकी सेवामें तत्पर रहते थे || ११ ।। 

स हास्तिनपुरे रम्ये कुरूणां पुटभेदने । 

वसन्‌ सागरफपर्यन्तामन्वशासद्‌ वसुन्धराम्‌ | १२ ।। 

महाराज शान्तनु कुर॒ुवंशकी रमणीय राजधानी हस्तिनापुरमें निवास करते हुए 
समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका शासन और पालन करते थे ।। १२ ।। 

स देवराजसदृशो धर्मज्ञ: सत्यवागृजु: । 

दानधर्मतपोयोगाच्छ़िया परमया युतः ।। १३ ।। 

वे देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी, धर्मज्ञ, सत्यवादी तथा सरल थे। दान, धर्म और 
तपस्या तीनोंके योगसे उनमें दिव्य कान्तिकी वृद्धि हो रही थी ।। १३ ।। 

अरागद्वेषसंयुक्त: सोमवत्‌ प्रियदर्शन: । 

तेजसा सूर्यकल्पो5 भूद्‌ वायुवेगसमो जवे । 

अन्तकप्रतिम: कोपे क्षमया पृथिवीसम: ।। १४ ।। 


उनमें न राग था न द्वेष। चन्द्रमाकी भाँति उनका दर्शन सबको प्यारा लगता था। वे 
तेजमें सूर्य और वेगमें वायुके समान जान पड़ते थे; क्रोधमें यमराज और क्षमामें पृथ्वीकी 
समानता करते थे ।। १४ ।। 

वध: पशुवराहाणां तथैव मृगपक्षिणाम्‌ । 

शान्तनौ पृथिवीपाले नावर्तत तथा नृूप ॥। १५ ।। 

जनमेजय! महाराज शान्तनुके इस पृथ्वीका पालन करते समय पशुओं, वराहों, मृगों 
तथा पक्षियोंका वध नहीं होता था ।। १५ ।। 

ब्रह्मधर्मोत्तरे राज्ये शान्तनुर्विनयात्मवान्‌ । 

सम॑ शशास भूतानि कामरागविवर्जित: || १६ ।। 

उनके राज्यमें ब्रह्म और धर्मकी प्रधानता थी। महाराज शान्तनु बड़े विनयशील तथा 
काम-राग आदि दोषोंसे दूर रहनेवाले थे। वे सब प्राणियोंका समानभावसे शासन करते 
थे।। १६ |। 

देवर्षिपितृयज्ञार्थमार भ्यन्त तदा क्रिया: । 

न चाधर्मेण केषांचित्‌ प्राणिनामभवद्‌ वध: ।। १७ ।। 

उन दिनों देवयज्ञ, ऋषियज्ञ तथा पितृयज्ञके लिये कर्मोंका आरम्भ होता था। अधर्मका 
भय होनेके कारण किसी भी प्राणीका वध नहीं किया जाता था || १७ ।। 

असुखानामनाथानां तिर्यग्योनिषु वर्तताम्‌ । 

स एव राजा सर्वेषां भूतानामभवत्‌ पिता ॥। १८ ।। 

दुःखी, अनाथ एवं पशु-पक्षीकी योनिमें पड़े हुए जीव--इन सब प्राणियोंका वे राजा 
शान्तनु ही पिताके समान पालन करते थे ।। १८ ।। 

तस्मिन्‌ कुरुपतिश्रेष्ठे राजराजेश्वरे सति । 

श्रिता वागभवत्‌ सत्यं दानधर्माश्रितं मन: ।। १९ ।। 

कुरुवंशी नरेशोंमें श्रेष्ठ राजराजेश्वर शान्तनुके शासन-कालमें सबकी वाणी सत्यके 
आश्रित थी--सभी सत्य बोलते थे और सबका मन दान एवं धर्ममें लगता था ।। १९ ।। 

स समा: षोडशाष्टौ च चतस्रोषष्टौ तथापरा: । 

रतिमप्राप्रुवन्‌ स्त्रीषु बभूव वनगोचर: | २० ।। 

राजा शान्तनु सोलह, आठ, चार और आठ कुल छत्तीस वर्षोतक स्त्रीविषयक 
अनुरागका अनुभव न करते हुए वनमें रहे || २० ।। 

तथारूपस्तथाचारस्तथावृत्तस्तथाश्रुत: । 

गाड़ेयस्तस्य पुत्रो5 भून्नाम्ना देवव्रतो वसु: ॥। २१ ।। 

वसुके अवतारभूत गांगेय उनके पुत्र हुए, जिनका नाम देवव्रत था। वे पिताके समान ही 
रूप, आचार, व्यवहार तथा विद्यासे सम्पन्न थे || २१ ।। 

सवस्त्रिषु स निष्णात: पार्थिवेष्वितरेषु च । 


महाबलो महासत्त्वो महावीरयों महारथ: ।। २२ ।। 

लौकिक और अलौकिक सब प्रकारके अस्त्रशस्त्रोंकी कलामें वे पारंगत थे। उनके बल, 
सत्त्व (वैर्य) तथा वीर्य (पराक्रम) महान्‌ थे। वे महारथी वीर थे ।। २२ ।। 

स कदाचिन्मृगं विद्ध्वा गड्जामनुसरन्‌ नदीम्‌ । 

भागीरथीमल्पजलां शान्‍्लनुर्दृष्टवान्‌ नृप: ।। २३ ।। 

एक समय किसी हिंसक पशुको बाणोंसे बीधकर राजा शान्तनु उसका पीछा करते हुए 
भागीरथी गंगाके तटपर आये। उन्होंने देखा कि गंगाजीमें बहुत थोड़ा जल रह गया 
है || २३ ।। 

तां दृष्टवा चिन्तयामास शान्तनुः पुरुषर्षभ: । 

स्वन्दते कि त्वियं नाद्य सरिच्छेष्ठा यथा पुरा || २४ ।। 

उसे देखकर पुरुषोंमें श्रेष्ठ महाराज शान्तनु इस चिन्तामें पड़ गये कि यह सरिताओंमें 
श्रेष्ठ देवनदी आज पहलेकी तरह क्यों नहीं बह रही है ।। २४ ।। 

ततो निमित्तमन्विच्छन्‌ ददर्श स महामना: । 

कुमारं रूपसम्पन्नं बृहन्तं चारुदर्शनम्‌ ।। २५ ।। 

दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणं यथा देव॑ पुरन्दरम्‌ । 

कृत्स्नां गड़ां समावृत्य शरैस्तीक्ष्णमरवस्थितम्‌ ।। २६ ।। 

तदनन्तर उन महामना नरेशने इसके कारणका पता लगाते हुए जब आगे बढ़कर देखा, 
तब मालूम हुआ कि एक परम सुन्दर मनोहर रूपसे सम्पन्न विशालकाय कुमार देवराज 
इन्द्रके समान दिव्यास्त्रका अभ्यास कर रहा है और अपने तीखे बाणोंसे समूची गंगाकी 
धाराको रोककर खड़ा है || २५-२६ |। 

तां शरैराचितां दृष्टवा नदीं गड़ां तदन्तिके । 

अभवद्‌ विस्मितो राजा दृष्टवा कर्मातिमानुषम्‌ ।। २७ ।। 

राजाने उसके निकटकी गंगा नदीको उसके बाणोंसे व्याप्त देखा। उस बालकका यह 
अलौकिक कर्म देखकर उन्हें बड़ा आश्वर्य हुआ || २७ ।। 

जातमात्र पुरा दृष्टवा त॑ पुत्र शान्तनुस्तदा । 

नोपलेभे स्मृतिं धीमानभिज्ञातुं तमात्मजम्‌ ।। २८ ।। 

शान्तनुने अपने पुत्रको पहले पैदा होनेके समय ही देखा था; अतः उन बुद्धिमान्‌ 
नरेशको उस समय उसकी याद नहीं आयी; इसीलिये वे अपने ही पुत्रको पहचान न 
सके ।। २८ ।। 

सतुतंपितरं दृष्टवा मोहयामास मायया | 

सम्मोहा तु ततः क्षिप्रं तत्रैवान्तरधीयत ।। २९ ।। 

बालकने अपने पिताको देखकर उन्हें मायासे मोहित कर दिया और मोहित कर दिया 
और मोहित करके शीघ्र वहीं अन्तर्धान हो गया ।। २९ |। 


तदद्भुतं ततो दृष्टवा तत्र राजा स शान्तनुः । 

शड्कमान: सुतं गड्भगमब्रवीद्‌ दर्शयेति ह ।। ३० ।। 

यह अद्भुत बात देखकर राजा शान्तनुको कुछ संदेह हुआ और उन्होंने गंगासे अपने 
पुत्रको दिखानेकी कहा || ३० ।। 

दर्शयामास तं गड्ढा बिभ्रती रूपमुत्तमम्‌ । 

गृहीत्वा दक्षिणे पाणौ त॑ कुमारमलंकृतम्‌ ।। ३१ ।। 

तब गंगाजी परम सुन्दर रूप धारण करके अपने पुत्रका दाहिना हाथ पकड़े सामने 
आयीं और दिव्य वस्त्राभूषणोंसे विभूषित कुमार देवव्रतको दिखाया ।। ३१ ।। 

अलंकृतामाभरणैर्विरजो<म्बरसंवृताम्‌ । 

दृष्टपूर्वामपि स तां नाभ्यजानात्‌ स शान्तनु: ।। ३२ ।। 

गंगा दिव्य आभूषणोंसे अलंकृत हो स्वच्छ सुन्दर साड़ी पहने हुई थीं। इससे उनका 
अनुपम सौन्दर्य इतना बढ़ गया था कि पहलेकी देखी होनेपर भी राजा शान्तनु उन्हें पहचान 
न सके || ३२ ।। 

गजड़ोवाच 

य॑ पुत्रमष्टमं राजंस्त्वं पुरा मय्यविन्दथा: । 

स चायं पुरुषव्यात्र सर्वास्त्रविदनुत्तम: || ३३ ।। 

गंगाजीने कहा--महाराज! पूर्वकालमें आपने अपने जिस आठवें पुत्रको मेरे गर्भसे 
प्राप्त किया था, यह वही है। पुरुषसिंह! यह सम्पूर्ण अस्त्रवेत्ताओंमें अत्यन्त उत्तम 
है ।। ३३ ।। 





गृहाणेमं महाराज मया संवर्धितं सुतम्‌ । 

आदाय पुरुषव्याप्र नयस्वैनं गृहं विभो ।। ३४ ।। 

राजन! मैंने इसे पाल-पोसकर बड़ा कर दिया है। अब आप अपने इस पुत्रको ग्रहण 
कीजिये। नरश्रेष्ठ! स्वामिन! इसे घर ले जाइये ।। ३४ ।। 

वेदानधिजगे साजड्न्‌ वसिष्ठादेष वीर्यवान्‌ । 

कृतास्त्र: परमेष्वासो देवराजसमो युधि ।। ३५ ।। 

आपका यह बलवान पुत्र महर्षि वसिष्ठसे छहों अंगोंसहित समस्त वेदोंका अध्ययन कर 
चुका है। यह अस्त्र-विद्याका भी पण्डित है, महान्‌ धनुर्धर है और युद्धमें देवराज इन्द्रके 
समान पराक्रमी है || ३५ ।। 

सुराणां सम्मतो नित्यमसुराणां च भारत । 

उशना वेद यच्छास्त्रमयं तद्‌ वेद सर्वश: ।। ३६ ।। 

भारत! देवता और असुर भी इसका सदा सम्मान करते हैं। शुक्राचार्य जिस (नीति) 
शास्त्रको जानते हैं, उसका यह भी पूर्णरूपसे जानकार है ।। ३६ ।। 

तथैवाज्धिरस: पुत्र: सुरासुरनमस्कृत: । 

यद्‌ वेद शास्त्र तच्चापि कृत्स्नमस्मिन्‌ प्रतिष्ठितम्‌ ।। ३७ ।। 

तव पुत्रे महाबाहौ साड्रोपाड़ं महात्मनि । 


ऋषि: परैरनाधृष्यो जामदग्न्य: प्रतापवान्‌ ।। ३८ ।। 

यदस्त्रं वेद रामश्न तदेतस्मिन्‌ प्रतिष्ठितम्‌ । 

महेष्वासमिमं राजन्‌ राजधर्मार्थकोविदम्‌ ॥। ३९ || 

मया दत्तं निजं पुत्र वीरं वीर गृहं नय । 

इसी प्रकार अंगिराके पुत्र देव-दानव-वन्दित बृहस्पति जिस शास्त्रको जानते हैं, वह भी 
आपके इस महाबाहु महात्मा पुत्रमें अंग और उपांगोंसहित पूर्णरूपसे प्रतिष्ठित है। जो 
दूसरोंसे परास्त नहीं होते, वे प्रतापी महर्षि जमदग्निनन्दन परशुराम जिस अस्त्र-विद्याको 
जानते हैं, वह भी मेरे इस पुत्रमें प्रतिष्ठित है। वीरवर महाराज! यह कुमार राजधर्म तथा 
अर्थशास्त्रका महान्‌ पण्डित है। मेरे दिये हुए इस महाथनुर्धर वीर पुत्रको आप घर ले 
जाइये || ३७--३९६ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


(इत्युक्त्वा सा महाभागा तत्रैवान्तरधीयत ।) 

तयैवं समनुज्ञात: पुत्रमादाय शान्तनु: ।। ४० ।। 

भ्राजमानं यथादित्यमाययौ स्वपुरं प्रति । 

पौरवस्तु पुरी गत्वा पुरन्दरपुरोपमाम्‌ ।। ४१ ।। 

सर्वकामसमृद्धार्थ मेने सो55त्मानमात्मना । 

पौरवेषु ततः पुत्र राज्यार्थमभयप्रदम्‌ ।। ४२ ।। 

गुणवन्तं महात्मानं यौवराज्ये5भ्यषेचयत्‌ । 

पौरवाउ्छान्तनो: पुत्र: पितरं च महायशा: ।। ४३ ।। 

राष्ट्र च रज्जयामास वृत्तेन भरतर्षभ | 

स तथा सह पुत्रेण रममाणो महीपति: ।। ४४ ।। 

वर्तयामास वर्षाणि चत्वार्यमितविक्रम: । 

स कदाचिद्‌ वन॑ यातो यमुनामभितो नदीम्‌ ।। ४५ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--ऐसा कहकर महाभागा गंगादेवी वहीं अन्तर्धान हो गयीं। 
गंगाजीके इस प्रकार आज्ञा देनेपर महाराज शान्तनु सूर्यके समान प्रकाशित होनेवाले अपने 
पुत्रको लेकर राजधानीमें आये। उनका हस्तिनापुर इन्द्रनगगरी अमरावतीके समान सुन्दर था। 
पूरुवंशी राजा शान्तनु पुत्रसहित उसमें जाकर अपने-आपको सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न 
एवं सफलमनोरथ मानने लगे। तदनन्तर उन्होंने सबको अभय देनेवाले महात्मा एवं गुणवान्‌ 
पुत्रको राजकाजमें सहयोग करनेके लिये समस्त पौरवोंके बीचमें युवराज-पदपर अभिषिक्त 
कर दिया। जनमेजय! शान्तनुके उस महायशस्वी पुत्रने अपने आचार-व्यवहारसे पिताको, 
पौरवसमाजको तथा समूचे राष्ट्रको प्रसन्न कर लिया। अमितपराक्रमी राजा शान्तनुने वैसे 


गुणवान्‌ पुत्रके साथ आनन्दपूर्वक रहते हुए चार वर्ष व्यतीत किये। एक दिन वे यमुना 
नदीके निकटवर्ती वनमें गये || ४०--४५ ।। 

महीपतिरनिर्देश्यमाजिघ्रद्‌ गन्धमुत्तमम्‌ । 

तस्य प्रभवमन्विच्छन्‌ विचचार समन्तत: ।। ४६ ।। 

वहाँ राजाको अवर्णनीय एवं परम उत्तम सुगन्धका अनुभव हुआ। वे उसके 
उद्गमस्थानका पता लगाते हुए सब ओर विचरने लगे ।। ४६ ।। 

स ददर्श तदा कनन्‍्यां दाशानां देवरूपिणीम्‌ | 

तामपृच्छत्‌ स दृष्टवैव कन्‍्यामसितलोचनाम्‌ ।। ४७ ।। 

घूमते-घूमते उन्होंने मल्‍लाहोंकी एक कन्या देखी, जो देवांगनाओंके समान रूपवती 
थी। श्याम नेत्रोंवाली उस कन्याको देखते ही राजाने पूछा--- ।। ४७ ।। 

कस्य त्वमसि का चासि कि च भीरु चिकीर्षसि । 

साब्रवीद्‌ दाशकन्यास्मि धर्मार्थ वाहये तरिम्‌ ।। ४८ ।। 

पितुर्नियोगाद्‌ भद्गं ते दाशराज्ञों महात्मन: । 

रूपमाधुर्यगन्धैस्तां संयुक्तां देवरूपिणीम्‌ ।। ४९ ।। 

समीक्ष्य राजा दाशेयीं कामयामास शान्तनु: । 

स गत्वा पितरं तस्या वरयामास तां तदा ।। ५० ।। 

'भीरु! तू कौन है, किसकी पुत्री है और क्या करना चाहती है?” वह बोली--'राजन! 
आपका कल्याण हो। मैं निषादकन्या हूँ और अपने पिता महामना निषादराजकी आज्ञासे 
धर्मार्थ नाव चलाती हूँ।' राजा शान्तनुने रूप, माधुर्य तथा सुगन्धसे युक्त देवांगनाके तुल्य 
उस निषादकन्याको देखकर उसे प्राप्त करनेकी इच्छा की। तदनन्तर उसके पिताके समीप 
जाकर उन्होंने उसका वरण किया || ४८--५० ।। 

पर्यपूच्छत्‌ ततस्तस्या: पितरं सो55त्मकारणात्‌ | 

सचतं प्रत्युवाचेदं दाशराजो महीपतिम्‌ ।। ५१ ।। 

उन्होंने उसके पितासे पूछा--“मैं अपने लिये तुम्हारी कन्या चाहता हूँ।' यह सुनकर 
निषादराजने राजा शान्तनुको यह उत्तर दिया-- ।। ५१ ।। 

जातमात्रैव मे देया वराय वरवर्णिनी । 

ह्ृदि कामस्तु मे कश्नचित्‌ त॑ं निबोध जनेश्वर ।। ५२ ।। 

'जनेश्वर! जबसे इस सुन्दरी कनन्‍्याका जन्म हुआ है, तभीसे मेरे मनमें यह चिन्ता है कि 
इसका किसी श्रेष्ठ वरके साथ विवाह करना चाहिये; किंतु मेरे हृदयमें एक अभिलाषा है, 
उसे सुन लीजिये ।। ५२ ।। 

यदीमां धर्मपत्नीं त्वं मत्तः प्रार्थयसेडनघ । 

सत्यवागसि सत्येन समयं कुरु मे ततः ।। ५३ ।। 


“पापरहित नरेश! यदि इस कन्याको अपनी धर्मपत्नी बनानेके लिये आप मुझसे माँग 
रहे हैं, तो सत्यको सामने रखकर मेरी इच्छा पूर्ण करनेकी प्रतिज्ञा कीजिये; क्योंकि आप 
सत्यवादी हैं || ५३ ।। 

समयेन प्रदद्यां ते कन्‍्यामहमिमां नृप । 

न हि मे त्वत्सम: कश्चिद्‌ वरो जातु भविष्यति ।। ५४ ।। 

“राजन! मैं इस कनन्‍्याको एक शर्तके साथ आपकी सेवामें दूँगा। मुझे आपके समान 
दूसरा कोई श्रेष्ठ वर कभी नहीं मिलेगा” ।। ५४ ।। 





थान्तनुरु॒वाच 


श्रुत्वा तव वरं दाश व्यवस्येयमहं तव । 

दातव्यं चेत्‌ प्रदास्यामि न त्वदेयं कथंचन ।। ५५ ।। 

शान्तनुने कहा--निषाद! पहले तुम्हारे अभीष्ट वरको सुन लेनेपर मैं उसके विषयमें 
कुछ निश्चय कर सकता हूँ। यदि देनेयोग्य होगा, तो दूँगा और देनेयोग्य नहीं होगा, तो 
कदापि नहीं दे सकता ।। ५५ ।। 


दाश उवाच 
अस्यां जायेत य: पुत्र: स राजा पृथिवीपते । 


त्वदूर्ध्वमभिषेक्तव्यो नान्य: कश्नन पार्थिव ।। ५६ ।। 
निषाद बोला--पृथ्वीपते! इसके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हो, आपके बाद उसीका 
राजाके पदपर अभिषेक किया जाय, अन्य किसी राजकुमारका नहीं ।। ५६ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


नाकामयत त॑ दातुं वरं दाशाय शान्तनु: । 

शरीरजेन तीव्रेण दह्ममानोडपि भारत ।। ५७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा शान्तनु प्रचण्ड कामाग्निसे जल रहे थे, तो 
भी उनके मनमें निषादको वह वर देनेकी इच्छा नहीं हुई ।। ५७ ।। 

स चिन्तयन्नेव तदा दाशकन्यां महीपति: । 

प्रत्ययाद्धास्तिनपुरं कामोपहतचेतन: ।। ५८ ।। 

कामकी वेदनासे उनका चित्त चंचल था। वे उस निषादकन्याका ही चिन्तन करते हुए 
उस समय हस्तिनापुरको लौट गये ।। ५८ ।। 

ततः कदाचिच्छोचन्तं शान्तनुं ध्यानमास्थितम्‌ । 

पुत्रो देवव्रतो5भ्येत्य पितरं वाक्यमब्रवीत्‌ ।। ५९ ।। 

तदनन्तर एक दिन राजा शान्तनु ध्यानस्थ होकर कुछ सोच रहे थे--चिन्तामें पड़े थे। 
इसी समय उनके पुत्र देवव्रत अपने पिताके पास आये और इस प्रकार बोले-- ।। ५९ |। 

सर्वतो भवतः: क्षेमं विधेया: सर्वपार्थिवा: । 

तत्‌ किमर्थमिहाभी क्ष्णं परिशोचसि दु:खित: ।। ६० ।। 

“पिताजी! आपका तो सब ओरसे कुशल-मंगल है, भू-मण्डलके सभी नरेश आपकी 
आज्ञाके अधीन हैं; फिर किसलिये आप निरन्तर दुःखी होकर शोक और चिन्तामें डूबे रहते 
हैं ।। ६० ।। 

ध्यायन्निव च मां राजन्नाभिभाषसि किंचन । 

नचाश्वेन विनिर्यासि विवर्णो हरिण: कृश: ।। ६१ ।। 

“राजन! आप इस तरह मौन बैठे रहते हैं, मानो किसीका ध्यान कर रहे हों; मुझसे कोई 
बातचीततक नहीं करते। घोड़ेपर सवार हो कहीं बाहर भी नहीं निकलते। आपकी कान्ति 
मलिन होती जा रही है। आप पीले और दुबले हो गये हैं ।। ६१ ।। 

व्याधिमिच्छामि ते ज्ञातुं प्रतिकुर्या हि तत्र वै । 

एवमुक्त: स पुत्रेण शान्तनु: प्रत्यभाषत ।। ६२ ।। 

“आपको कौन-सा रोग लग गया है, यह मैं जानना चाहता हूँ, जिससे मैं उसका 
प्रतीकार कर सकूँ।' पुत्रके ऐसा कहनेपर शान्तनुने उत्तर दिया-- ।। ६२ ।। 

असंशयं ध्यानपरो यथा वत्स तथा शृणु । 

अपत्यं नस्त्वमेवैक: कुले महति भारत ।। ६३ ।। 


“बेटा! इसमें संदेह नहीं कि मैं चिन्तामें डूबा रहता हूँ। वह चिन्ता कैसी है, सो बताता हूँ, 
सुनो। भारत! तुम इस विशाल वंशमें मेरे एक ही पुत्र हो ।। ६३ ।। 

शस्त्रनित्यश्व॒ सततं पौरुषे पर्यवस्थित: । 

अनित्यतां च लोकानामनुशोचामि पुत्रक ।। ६४ ।। 

“तुम भी सदा अस्त्र-शस्त्रोंके अभ्यासमें लगे रहते हो और पुरुषार्थके लिये सदैव उद्यत 
रहते हो। बेटा! मैं इस जगत्‌की अनित्यताको लेकर निरन्तर शोकग्रस्त एवं चिन्तित रहता 
हूँ ।। ६४ ।। 

कथंचित्‌ तव गाड़ेय विपत्ता नास्ति न: कुलम्‌ । 

असंशयं त्वमेवैक: शतादपि वर: सुत: ।। ६५ ।। 

“गंगानन्दन! यदि किसी प्रकार तुमपर कोई विपत्ति आयी, तो उसी दिन हमारा यह वंश 
समाप्त हो जायगा। इसमें संदेह नहीं कि तुम अकेले ही मेरे लिये सौ पुत्रोंसे भी बढ़कर 
हो ।। ६५ || 

न चाप्यहं वृथा भूयो दारान्‌ कर्तुमिहोत्सहे । 

संतानस्यथाविनाशाय कामये भद्रमस्तु ते ।। ६६ ।। 

“मैं पुनः व्यर्थ विवाह नहीं करना चाहता; किंतु हमारी वंशपरम्पराका लोप न हो, 
इसीके लिये मुझे पुनः पत्नीकी कामना हुई है। तुम्हारा कल्याण हो ।। ६६ ।। 

अनपत्यतैकपुत्रत्वमित्याहुर्धर्मवादिन: । 

(चक्षुरेकं च पुत्रश्न अस्ति नास्ति च भारत । 

चक्षुर्नाशे तनोरनाश: पुत्रनाशे कुलक्षय: ।।) 

अन्निहोत्रं त्रयीविद्यासंतानमपि चाक्षयम्‌ ।। ६७ ।। 

सर्वाण्येतान्यपत्यस्य कलां नाहन्ति षोडशीम्‌ । 

“धर्मवादी विद्वान्‌ कहते हैं कि एक पुत्रका होना संतानहीनताके ही तुल्य है। भारत! 
एक आँख अथवा एक पुत्र यदि है, तो वह भी नहींके बराबर है। नेत्रका नाश होनेपर मानो 
शरीरका ही नाश हो जाता है, इसी प्रकार पुत्रके नष्ट होनेपर कुलपरम्परा ही नष्ट हो जाती 
है। अग्निहोत्र, तीनों वेद तथा शिष्य-प्रशिष्यके क्रमसे चलनेवाले विद्याजनित वंशकी अक्षय 
परम्परा--ये सब मिलकर भी जन्मसे होनेवाली संतानकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं 
है || ६७६ || 

एवमेतन्मनुष्येषु तच्च सर्वप्रजास्विति ।। ६८ ।। 

“इस प्रकार संतानका महत्त्व जैसा मनुष्योंमें मान्य है, उसी प्रकार अन्य सब प्राणियोंमें 
भी है ।। ६८ ।। 

यदपत्यं महाप्राज्ञ तत्र मे नास्ति संशय: । 

एषा त्रयीपुराणानां देवतानां च शाश्वती ।। ६९ ।। 

(अपत्यं कर्म विद्या च त्रीणि ज्योतींषि भारत । 


यदिदं कारणं तात सर्वमाख्यातमञ्जसा ।।) 

“भारत! महाप्राज्ञ! इस बातमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि संतान, कर्म और विद्या 
--ये तीन ज्योतियाँ हैं; इनमें भी जो संतान है, उसका महत्त्व सबसे अधिक है। यही वेदत्रयी 
पुराण तथा देवताओंका भी सनातन मत है। तात! मेरी चिन्ताका जो कारण है, वह सब 
तुम्हें स्पष्ट बता दिया ।। ६९ ।। 

त्वं च शूर: सदामर्षी शस्त्रनित्यश्व भारत | 

नान्यत्र युद्धात्‌ तस्मात्‌ ते निधनं विद्यते क्वचित्‌ ।। ७० ।। 

“भारत! तुम शूरवीर हो। तुम कभी किसीकी बात सहन नहीं कर सकते और सदा 
अस्त्र-शस्त्रोंके अभ्यासमें ही लगे रहते हो; अतः युद्धके सिवा और किसी कारणसे कभी 
तुम्हारी मृत्यु होनेकी सम्भावना नहीं है || ७० ।। 

सो5स्मि संशयमापन्नस्त्वयि शान्ते कथं भवेत्‌ | 

इति ते कारणं तात दुःखस्योक्तमशेषत: ।। ७१ ।। 

“इसीलिये मैं इस संदेहमें पड़ा हूँ कि तुम्हारे शान्त हो जानेपर इस वंशपरम्पराका 
निर्वाह कैसे होगा? तात! यही मेरे दुःखका कारण है; वह सब-का-सब तुम्हें बता 
दिया” || ७१ |। 

वैशम्पायन उवाच 


ततस्तत्कारणं राज्ञो ज्ञात्वा सर्वमशेषत: । 

देवव्रतो महाबुद्धि: प्रज्ञया चान्वचिन्तयत्‌ ।। ७२ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजाके दुःखका वह सारा कारण जानकर परम 
बुद्धिमान देवव्रतने अपनी बुद्धिसे भी उसपर विचार किया ।। ७२ ।। 

अभ्यगच्छत्‌ तदैवाशु वृद्धामात्यं पितुर्हितम्‌ । 

तमपृच्छत्‌ तदाभ्येत्य पितुस्तच्छोककारणम्‌ ।। ७३ ।। 

तदनन्तर वे उसी समय तुरंत अपने पिताके हितैषी बूढ़े मन्त्रीके पास गये और पिताके 
शोकका वास्तविक कारण क्या है, इसके विषयमें उनसे पूछताछ की ।। ७३ ।। 

तस्मै स कुरुमुख्याय यथावत्‌ परिपृच्छते । 

वरं शशंस कन्यां तामुद्दिश्य भरतर्षभ ।। ७४ ।। 

भरतश्रेष्ठ! कुरुवंशके श्रेष्ठ पुरुष देवव्रतके भलीभाँति पूछनेपर वृद्ध मन्त्रीने बताया कि 
महाराज एक कन्यासे विवाह करना चाहते हैं || ७४ ।। 

(सूतं भूयो5पि संतप्त आह्वयामास वै पितु: ।। 

सूतस्तु कुरुमुख्यस्थ उपयातस्तदाज्ञया । 

तमुवाच महाप्राज्ञो भीष्मो वै सारथिं पितु: ।। 


उसके बाद भी दु:खसे दुःखी देवव्रतने पिताके सारथिको बुलाया। राजकुमारकी आज्ञा 
पाकर कुरुराज शान्तनुका सारथि उनके पास आया। तब महाप्राज्ञ भीष्मने पिताके 
सारथिसे पूछा। 


भीष्म उवाच 


त्वं सारथे पितुर्महां सखासि रथयुग्‌ यतः । 

अपि जानासि यदि वै कस्यां भावो नृपस्य तु ।। 

यथा वक्ष्यसि मे पृष्ट: करिष्ये न तदन्यथा । 

भीष्म बोले--सारथे! तुम मेरे पिताके सखा हो, क्योंकि उनका रथ जोतनेवाले हो। 
क्या तुम जानते हो कि महाराजका अनुराग किस स्त्रीमें है? मेरे पूछनेपर तुम जैसा कहोगे, 
वैसा ही करूँगा, उसके विपरीत नहीं करूँगा। 

यूत उवाच 

दाशकन्या नरश्रेष्ठ तत्र भाव: पितुर्गतः । 

वृतः स नरदेवेन तदा वचनमत्रवीत्‌ ।। 

योअस्यां पुमान्‌ भवेद्‌ गर्भ: स राजा त्वदनन्तरम्‌ | 

नाकामयत त॑ दातुं पिता तव वरं तदा ।। 

स चापि निश्चयस्तस्य न च दद्यामतोडन्यथा । 

एवं ते कथितं वीर कुरुष्व यदनन्तरम्‌ ।।) 

सूत बोला--नरश्रेष्ठ] एक धीवरकी कन्या है, उसीके प्रति आपके पिताका अनुराग हो 
गया है। महाराजने धीवरसे उस कन्याको माँगा भी था, परंतु उस समय उसने यह शर्त रखी 
कि “इसके गर्भसे जो पुत्र हो, वही आपके बाद राजा होना चाहिये।” आपके पिताजीके 
मनमें धीवरको ऐसा वर देनेकी इच्छा नहीं हुई। इधर उसका भी पक्का निश्चय है कि यह 
शर्त स्वीकार किये बिना मैं अपनी कन्या नहीं दूँगा। वीर! यही वृत्तान्त है, जो मैंने आपसे 
निवेदन कर दिया। इसके बाद आप जैसा उचित समझें, वैसा करें। 

ततो देवव्तो वृद्धै: क्षत्रियै:ः सहितस्तदा | 

अभिगम्य दाशराजं कन्यां वत्रे पितु: स्वयम्‌ । ७५ ।। 

यह सुनकर कुमार देवव्रतने उस समय बूढ़े क्षत्रियोंक साथ निषादराजके पास जाकर 
स्वयं अपने पिताके लिये उसकी कन्या माँगी || ७५ ।। 

तं दाश: प्रतिजग्राह विधिवत्‌ प्रतिपूज्य च । 

अब्रवीच्चैनमासीनं राजसंसदि भारत ।। ७६ ।। 

भारत! उस समय निषादने उनका बड़ा सत्कार किया और विधिपूर्वक पूजा करके 
आसनपर बैठनेके पश्चात्‌ साथ आये हुए क्षत्रियोंकी मण्डलीमें दाशराजने उनसे 
कहा ।। ७६ |। 


दाश उवाच 


(राज्यशुल्का प्रदातव्या कन्येयं याचतां वर | 

अपत्यं यद्‌ भवेत्‌ तस्या: स राजास्तु पितु: परम्‌ ।।) 

दाशराज बोला--याचकोंमें श्रेष्ठ राजकुमार! इस कन्याको देनेमें मैंने राज्यको ही 
शुल्क रखा है। इसके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हो, वही पिताके बाद राजा हो। 

त्वमेव नाथ: पर्याप्त: शान्तनोर्भरतर्षभ | 

पुत्र: शस्त्र भूतां श्रेष्ठ: कि तु वक्ष्यामि ते वच: ।। ७७ ।। 

भरतर्षभ! राजा शानन्‍्तनुके पुत्र अकेले आप ही सबकी रक्षाके लिये पर्याप्त हैं। 
शस्त्रधारियोंमें आप सबसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं; परंतु तो भी मैं अपनी बात आपके सामने 
रखूँगा || ७७ ।। 

को हि सम्बन्धकं शलाध्यमीप्सितं यौनमीदृशम्‌ । 

अतिक्रामन्न तप्येत साक्षादपि शतक्रतु: ।। ७८ ।। 

ऐसे मनो$नुकूल और स्पृहणीय उत्तम विवाह-सम्बन्धको ठुकराकर कौन ऐसा मनुष्य 
होगा जिसके मनमें संताप न हो? भले ही वह साक्षात्‌ इन्द्र ही क्यों न हो || ७८ ।। 

अपत्यं चैतदार्यस्य यो युष्माकं॑ समो गुणै: । 

यस्य शुक्रात्‌ सत्यवती सम्भूता वरवर्णिनी ।। ७९ ।। 

यह कन्या एक आर्य पुरुषकी संतान है, जो गुणोंमें आपलोगोंके ही समान हैं और 
जिनके वीर्यसे इस सुन्दरी सत्यवतीका जन्म हुआ है ।। ७९ |। 

तेन मे बहुशस्तात पिता ते परिकीर्तित:ः । 

अर्ह: सत्यवतीं बोढुं धर्मज्ञ: स नराधिप: ।। ८० ।। 

तात! उन्होंने अनेक बार मुझसे आपके पिताके विषयमें चर्चा की थी। वे कहते थे, 
सत्यवतीको ब्याहनेयोग्य तो केवल धर्मज्ञ राजा शान्तनु ही हैं || ८० ।। 

अर्थितश्नापि राजर्षि: प्रत्याख्यात: पुरा मया । 

स चाप्यासीत्‌ सत्यवत्या भृशमर्थी महायशा: ।। ८१ ।। 

कन्यापितृत्वात्‌ किंचित्‌ तु वक्ष्यामि त्वां नराधिप । 

बलवत्सपत्नतामत्र दोष पश्यामि केवलम्‌ ॥| ८२ ।। 

महान्‌ कीर्तिवाले राजर्षि शान्तनु सत्यवतीको पहले भी बहुत आग्रहपूर्वक माँग चुके हैं; 
किंतु उनके माँगनेपर भी मैंने उनकी बात अस्वीकार कर दी थी। युवराज! मैं कन्याका पिता 
होनेके कारण कुछ आपसे भी कहूँगा ही। आपके यहाँ जो सम्बन्ध हो रहा है, उसमें मुझे 
केवल एक दोष दिखायी देता है, बलवानके साथ शत्रुता || ८१-८२ ।। 

यस्य हि त्वं सपत्न: स्या गन्धर्वस्यासुरस्य वा । 

नसजातु चिरं जीवेत्‌ त्वयि क्रुद्धे परंतप ।। ८३ ।। 


परंतप! आप जिसके शत्रु होंगे, वह गन्धर्व हो या असुर, आपके कुपित होनेपर कभी 
चिरजीवी नहीं हो सकता ।। ८३ ।। 

एतावानत्र दोषो हि नान्य: कश्चन्‌ पार्थिव । 

एतज्जानीहि भद्रं ते दानादाने परंतप ।। ८४ ।। 

पृथ्वीनाथ! बस, इस विवाहमें इतना ही दोष है, दूसरा कोई नहीं। परंतप! आपका 
कल्याण हो, कन्याको देने या न देनेमें केवल यही दोष विचारणीय है; इस बातको आप 
अच्छी तरह समझ लें || ८४ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

एवमुक्तस्तु गाड़्रेयस्तद्युक्त प्रत्यभाषत । 

शृण्वतां भूमिपालानां पितुरर्थाय भारत ॥। ८५ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! निषादके ऐसा कहनेपर गंगानन्दन देवद्रतने 
पिताके मनोरथको पूर्ण करनेके लिये सब राजाओंके सुनते-सुनते यह उचित उत्तर दिया 
-- ८५ ॥। 

इदं मे व्रतमादत्स्व सत्यं सत्यवतां वर । 

नैव जातो न वाजात ईदृशं वक्तुमुत्सहेत्‌ ।। ८६ ।। 

'सत्यवानोंमें श्रेष्ठ निघादराज! मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा सुनो और ग्रहण करो। ऐसी बात 
कह सकनेवाला कोई मनुष्य न अबतक पैदा हुआ है और न आगे पैदा होगा ।। ८६ ।। 

एवमेतत्‌ करिष्यामि यथा त्वमनुभाषसे । 

योअस्यां जनिष्यते पुत्र: स नो राजा भविष्यति ।। ८७ ।। 

“लो, तुम जो कुछ चाहते या कहते हो, वैसा ही करूँगा। इस सत्यवतीके गर्भसे जो पुत्र 
पैदा होगा, वही हमारा राजा बनेगा” ।। ८७ ।। 





इत्युक्त: पुनरेवाथ तं दाश: प्रत्यभाषत । 

चिकीर्षुर्दुष्करं कर्म राज्यार्थे भरतर्षभ ।। ८८ ।। 

भरतवंशावतंस जनमेजय! देवव्रतके ऐसा कहनेपर निषाद उनसे फिर बोला। वह 
राज्यके लिये उनसे कोई दुष्कर प्रतिज्ञा कराना चाहता था ।। ८८ ।। 

त्वमेव नाथ: सम्प्राप्त: शान्तनोरमितद़ुते । 

कन्यायाश्वैव धर्मात्मन्‌ प्रभुर्दानाय चेश्वर: ।। ८९ ।। 

उसने कहा--“अमित तेजस्वी युवराज! आप ही महाराज शान्तनुकी ओरसे मालिक 
बनकर यहाँ आये हैं। धर्मात्मन्‌! इस कन्यापर भी आपका पूरा अधिकार है। आप जिसे 
चाहें, इसे दे सकते हैं। आप सब कुछ करनेमें समर्थ हैं ।। ८९ ।। 

इदं तु वचन सौम्य कार्य चैव निबोध मे । 

कौमारिकाणां शीलेन वक्ष्याम्पहमरिन्दम || ९० || 

'परंतु सौम्य! इस विषयमें मुझे आपसे कुछ और कहना है और वह आवश्यक कार्य है; 
अतः आप मेरे इस कथनको सुनिये। शत्रुदमन! कन्याओंके प्रति स्नेह रखनेवाले सगे- 
सम्बन्धियोंका जैसा स्वभाव होता है, उसीसे प्रेरित होकर मैं आपसे कुछ निवेदन 
करूँगा ।। ९० ।। 

यत्‌ त्वया सत्यवत्यर्थे सत्यधर्मपरायण । 

राजमध्ये प्रतिज्ञातमनुरूपं तवैव तत्‌ ।। ९१ ।। 


'सत्यधर्मपरायण राजकुमार! आपने सत्यवतीके हितके लिये इन राजाओंके बीचमें जो 
प्रतिज्ञा की है, वह आपके ही योग्य है ।। ९१ ।। 

नान्यथा तन्महाबाहो संशयोत्र न कश्नन । 

तवापत्यं भवेद्‌ यत्‌ तु तत्र न: संशयो महान्‌ ।। ९२ ।। 

“महाबाहो! वह टल नहीं सकती; उसके विषयमें मुझे कोई संदेह नहीं है, परंतु आपका 
जो पुत्र होगा, वह शायद इस प्रतिज्ञापर दृढ़ न रहे, यही हमारे मनमें बड़ा भारी संशय 
है! ॥| ९२ |। 

वैशम्पायन उवाच 


तस्यैतन्मतमाज्ञाय सत्यधर्मपरायण: । 

प्रत्यजानात्‌ तदा राजन्‌ पितु: प्रियचिकीर्षया || ९३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! निषादराजके इस अभिप्रायको समझकर 
सत्यधर्ममें तत्पर रहनेवाले कुमार देवव्रतने उस समय पिताका प्रिय करनेकी इच्छासे यह 
कठोर प्रतिज्ञा की ।। ९३ ।। 

गाड़ेय उवाच 

दाशराज निबोधेदं वचन मे नरोत्तम । 

(ऋषयो वाथवा देवा भूतान्यन्तर्हितानि च । 

यानि यानीह शृण्वन्तु नास्ति वक्ता हि मत्सम: ।। 

इदं वचनमादत्स्व सत्येन मम जल्पत: ।) 

शृण्वतां भूमिपालानां यद्‌ ब्रवीमि पितु: कृते ।। ९४ ।। 

भीष्मने कहा--नरश्रेष्ठ निषादराज! मेरी यह बात सुनो। जो-जो ऋषि, देवता एवं 
अन्तरिक्षके प्राणी यहाँ हों, वे सब भी सुनें। मेरे समान वचन देनेवाला दूसरा नहीं है। 
निषाद! मैं सत्य कहता हूँ, पिताके हितके लिये सब भूमिपालोंके सुनते हुए मैं जो कुछ 
कहता हूँ, मेरी इस बातको समझो ।। ९४ ।। 

राज्यं तावत्‌ पूर्वमेव मया त्यक्तं नराधिपा: । 

अपत्यहेतोरपि च करिष्येड्द्य विनिश्चयम्‌ ।। ९५ ।। 

राजाओ! राज्य तो मैंने पहले ही छोड़ दिया है; अब संतानके लिये भी अटल निश्चय 
कर रहा हूँ ।। ९५ ।। 

अद्यप्रभृति मे दाश ब्रह्मचर्य भविष्यति । 

अपुत्रस्यापि मे लोका भविष्यन्त्यक्षया दिवि ।। ९६ ।। 

निषादराज! आजसे मेरा आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत चलता रहेगा। मेरे पुत्र न 
होनेपर भी स्वर्गमें मुझे अक्षय लोक प्राप्त होंगे | ९६ ।। 

(न हि जन्मप्रभृत्युक्ते मम किंचिदिहानूतम्‌ । 


यावत्‌ प्राणा प्रियन्ते वै मम देहं समाश्रिता: ।। 

तावन्न जनयिष्यामि पित्रे कन्यां प्रयच्छ मे । 

परित्यजाम्बहं राज्यं मैथुनं चापि सर्वश: ।। 

ऊर्ध्वरेता भविष्यामि दाश सत्यं ब्रवीमि ते ।) 

मैंने जन्मसे लेकर अबतक कोई झूठ बात नहीं कही है। जबतक मेरे शरीरमें प्राण 
रहेंगे, तबतक मैं संतान नहीं उत्पन्न करूँगा। तुम पिताजीके लिये अपनी कन्या दे दो। दाश! 
मैं राज्य तथा मैथुनका सर्वथा परित्याग करूँगा और ऊध्वरेता (नैप्ठिक ब्रह्मचारी) होकर 
रहूँगा--यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। 

वैशम्पायन उवाच 

तस्य तदू वचन श्रुत्वा सम्प्रहृष्टतनूरुह: । 

ददानीत्येव तं दाशो धर्मात्मा प्रत्यभाषत ।। ९७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--देवव्रतका यह वचन सुनकर धर्मात्मा निषादराजके रोंगटे 
खड़े हो गये। उसने तुरंत उत्तर दिया--“मैं यह कन्या आपके पिताके लिये अवश्य देता 
हूँ" ।। ९७ |। 

ततोडन्तरिक्षेडप्सरसो देवा: सर्षिगणास्तदा । 

अभ्यवर्षन्त कुसुमैर्भीष्मो5यमिति चाब्रुवन्‌ ।। ९८ ।। 

उस समय अन्तरिक्षमें अप्सरा, देवता तथा ऋषिगण फूलोंकी वर्षा करने लगे और बोल 
उठे--'ये भयंकर प्रतिज्ञा करनेवाले राजकुमार भीष्म हैं (अर्थात्‌ भीष्मके नामसे इनकी 
ख्याति होगी)” ।। ९८ ।। 

ततः स पितुरर्थाय तामुवाच यशस्विनीम्‌ । 

अधिरोह रथं मातर्गच्छाव: स्वगृहानिति ।। ९९ ।। 

तत्पश्चात्‌ भीष्म पिताके मनोरथकी सिद्धिके लिये उस यशस्विनी निषादकन्यासे बोले 
--“माताजी! इस रथपर बैठिये। अब हमलोग अपने घर चलें” ।। ९९ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुकक्‍्त्वा तु भीष्मस्तां रथमारोप्य भाविनीम्‌ | 

आगम्य हास्तिनपुरं शान्तनो: संन्यवेदयत्‌ ।। १०० ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! ऐसा कहकर भीष्मने उस भामिनीको रथपर 
बैठा लिया और हस्तिनापुर आकर उसे महाराज शान्तनुको सौंप दिया || १०० ।। 

तस्य तद्‌ दुष्करं कर्म प्रशशंसुर्नराधिपा: । 

समेताश्न पृथक्‌ चैव भीष्मोड्यमिति चाब्रुवन्‌ ।। १०१ ।। 

उनके इस दुष्कर कर्मकी सब राजालोग एकत्र होकर और अलग-अलग भी प्रशंसा 
करने लगे। सबने एक स्वरसे कहा, “यह राजकुमार वास्तवमें भीष्म है” || १०१ ।। 


नच्छुत्वा दुष्करं कर्म कृतं भीष्मेण शान्तनुः । 

स्वच्छन्दमरणं तुष्टो ददौ तस्मै महात्मने || १०२ ।। 

भीष्मके द्वारा किये हुए उस दुष्कर कर्मकी बात सुनकर राजा शान्तनु बहुत संतुष्ट हुए 
और उन्होंने उन महात्मा भीष्मको स्वच्छन्द मृत्युका वरदान दिया || १०२ ।। 





देवव्रत (भीष्म)-की भीषण प्रतिज्ञा 


न ते मृत्यु: प्रभविता यावज्जीवितुमिच्छसि । 

त्वत्तो हानुज्ञां सम्प्राप्य मृत्यु: प्रभवितानधघ ।। १०३ ।। 

वे बोले--'मेरे निष्पाप पुत्र! तुम जबतक यहाँ जीवित रहना चाहोगे, तबतक मृत्यु 
तुम्हारे ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। तुमसे आज्ञा लेकर ही मृत्यु तुमपर अपना 
प्रभाव प्रकट कर सकती है” ।। १०३ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि सत्यवतीला भोपाख्याने 
शततमो<ध्याय: ॥॥ १०० |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें सत्यवतीलाभोपाख्यानविषयक 
सौवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०० ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १३ ३ “लोक मिलाकर कुल ११६ ६ “लोक हैं) 


एकाधिकशततमो< ध्याय: 


सत्यवतीके गर्भसे चित्रांगद और विचित्रवीर्यकी उत्पत्ति, 
शान्तनु और चित्रांगदका निधन तथा विचित्रवीर्यका 
राज्याभिषेक 


वैशम्पायन उवाच 


(चेदिराजसुतां ज्ञात्वा दाशराजेन वर्धिताम्‌ । 

विवाहं कारयामास शास्त्रदृष्टेन कर्मणा ।।) 

ततो विवाहे निर्वत्ते स राजा शान्तनुर्नुप: । 

तां कन्‍्यां रूपसम्पन्नां स्वगृहे संन्यवेशयत्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--सत्यवती चेदिराज वसुकी पुत्री है और निषादराजने इसका 
पालन-पोषण किया है--यह जानकर राजा शान्तनुने उसके साथ शास्त्रीय विधिसे विवाह 
किया। तदनन्तर विवाह सम्पन्न हो जानेपर राजा शान्तनुने उस रूपवती कन्याको अपने 
महलमें रखा ।। १ |। 

ततः: शान्तनवो धीमान्‌ सत्यवत्यामजायत । 

वीरश्षित्राज़दो नाम वीर्यवान्‌ पुरुषेश्वर: ।। २ ॥। 

कुछ कालके पश्चात्‌ सत्यवतीके गर्भसे शान्तनुका बुद्धिमान्‌ पुत्र वीर चित्रांगद उत्पन्न 
हुआ, जो बड़ा ही पराक्रमी तथा समस्त पुरुषोंमें श्रेष्ठ था || २ ।। 

अथापरं महेष्वासं सत्यवत्यां सुतं प्रभु: । 

विचित्रवीर्य राजानं जनयामास वीर्यवान्‌ ।। ३ ।। 

इसके बाद महापराक्रमी और शक्तिशाली राजा शान्तनुने दूसरे पुत्र महान्‌ धनुर्धर राजा 
विचित्रवीर्यको जन्म दिया || ३ ।। 

अप्राप्तवति तस्मिंस्तु यौवन पुरुषर्षभे । 

स राजा शान्तनुर्धीमान्‌ कालधर्ममुपेयिवान्‌ ।। ४ ।। 

नरश्रेष्ठ विचित्रवीर्य अभी यौवनको प्राप्त भी नहीं हुए थे कि बुद्धिमान्‌ महाराज 
शान्तनुकी मृत्यु हो गयी ।। ४ ।। 

स्वर्गते शान्तनौ भीष्मश्रित्राड्भदमरिंदमम्‌ । 

स्थापयामास वै राज्ये सत्यवत्या मते स्थित: ।। ५ ।। 

शान्तनुके स्वर्गवासी हो जानेपर भीष्मने सत्यवतीकी सम्मतिसे शत्रुओंका दमन 
करनेवाले वीर चित्रांगदको राज्यपर बिठाया ।। ५ ।। 

सतु चित्राड्भदः शौर्यात्‌ सर्वाक्षिक्षेप पार्थिवान्‌ । 


मनुष्यं न हि मेने स कज्चित्‌ सदृशमात्मन: ।। ६ ।। 

चित्रांगद अपने शौर्यके घमंडमें आकर सब राजाओंका तिरस्कार करने लगे। वे किसी 
भी मनुष्यको अपने समान नहीं मानते थे ।। ६ ।। 

त॑ क्षिपन्तं सुरांश्षैव मनुष्यानसुरांस्तथा । 

गन्धर्वराजो बलवांस्तुल्यनामाभ्ययात्‌ तदा ।। ७ ।। 

मनुष्योंपर ही नहीं, वे देवताओं तथा असुरोंपर भी आक्षेप करते थे। तब एक दिन 
उन्हींके समान नामवाला महाबली गन्धर्वराज चित्रांगद उनके पास आया ।। ७ ।। 

(गन्धर्व उवाच 

त्वं वै सदृशनामासि युद्ध देहि नृपात्मज । 

नाम चान्यत्‌ प्रगृणीष्व यदि युद्ध न दास्यसि ।। 

त्वयाहं युद्धमिच्छामि त्वत्सकाशात्‌ तु नामतः । 

आगतोऊस्मि वृथाभाष्यो न गच्छेन्नामतो यथा ।।) 

गन्धर्वने कहा--राजकुमार! तुम मेरे सदृश नाम धारण करते हो, अतः मुझे युद्धका 
अवसर दो और यदि यह न कर सको तो अपना दूसरा नाम रख लो। मैं तुमसे युद्ध करना 
चाहता हूँ। नामकी एकताके कारण ही मैं तुम्हारे निकट आया हूँ। मेरे नामद्वारा व्यर्थ पुकारा 
जानेवाला मनुष्य मेरे सामनेसे सकुशल नहीं जा सकता। 

तेनास्य सुमहद्‌ युद्ध कुरुक्षेत्रे बभूव ह । 

तयोर्बलवतोस्तत्र गन्धर्वकुरुमुख्ययो: । 

नद्यास्तीरे सरस्वत्या: समास्तिस्रो&भवद्‌ रण: ।। ८ ।। 

तस्मिन्‌ विमर्दे तुमुले शस्त्रवर्षममाकुले । 

मायाधिको<वधीदू वीरं गन्धर्व: कुरुसत्तमम्‌ ।। ९ ।। 

तदनन्तर उसके साथ कुरक्षेत्रमें राजा चित्रांगदका बड़ा भारी युद्ध हुआ। गन्धर्वराज 
और कुरुराज दोनों ही बड़े बलवान थे। उनमें सरस्वती नदीके तटपर तीन वर्षोतक युद्ध 
होता रहा। अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षासे व्याप्त उस घमासान युद्धमें मायामें बढ़े-चढ़े हुए गन्धर्वने 
कुरुश्रेष्ठ वीर चित्रांगगका वध कर डाला ।। ८-९ ।। 

स हत्वा तु नरश्रेष्ठं चित्राड्बदमरिंदमम्‌ । 

अन्ताय कृत्वा गन्धर्वो दिवमाचक्रमे तत: ।। १० ।। 

शत्रुओंका दमन करनेवाले नरश्रेष्ठ चित्रांगवको मारकर युद्ध समाप्त करके वह गन्धर्व 
स्वर्गलोकमें चला गया ।। १० ।। 

तस्मिन्‌ पुरुषशार्दूले निहते भूरितेजसि । 

भीष्म: शान्तनवो राजा प्रेतकार्याण्यकारयत्‌ ।। ११ ।। 


उन महान्‌ तेजस्वी पुरुषसिंह चित्रांगदके मारे जानेपर शान्तनुनन्दन भीष्मने उनके 
प्रेतकर्म करवाये || ११ ।। 

विचित्रवीर्य च तदा बालमप्राप्तपयौवनम्‌ | 

कुरुराज्ये महाबाहुरभ्यषिज्चदनन्तरम्‌ ।। १२ ।। 

विचित्रवीर्य अभी बालक थे, युवावस्थामें नहीं पहुँचे थे तो भी महाबाहु भीष्मने उन्हें 
कुरुदेशके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया ।। १२ ।। 

विचित्रवीर्य: स तदा भीष्मस्य वचने स्थित: । 

अन्वशासन्महाराज पितृपैतामहं पदम्‌ ।। १३ ।। 

महाराज जनमेजय! तब विचित्रवीर्य भीष्मजीकी आज्ञाके अधीन रहकर अपने बाप- 
दादोंके राज्यका शासन करने लगे ।। १३ ।। 

स धर्मशास्त्रकुशलं भीष्म शान्तनवं नृप: । 

पूजयामास धर्मेण स चैनं प्रत्यपालयत्‌ ।। १४ ।। 

शान्तनुनन्दन भीष्म धर्म एवं राजनीति आदि शास्त्रोंमें कुशल थे; अतः राजा 
विचित्रवीर्य धर्मपूर्वक उनका सम्मान करते थे और भीष्मजी भी इन अल्पवयस्क नरेशकी 
सब प्रकारसे रक्षा करते थे ।। १४ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि चित्राड़दोपाख्याने 
एकाधिकशततमो<ध्याय: ।। १०१३१ |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपवके अन्तर्गत सम्भवपर्वमनें चित्रांगदोीपाख्यानविषयक एक 
सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०९ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल १७ श्लोक हैं) 


प्यास बक। अफि्-"कऋा 


द्र्याधेकशततमो< ध्याय: 


भीष्मके द्वारा स्वयंवरसे काशिराजकी कन्याओंका हरण, 
युद्धमें सब राजाओं तथा शाल्वकी पराजय, अम्बिका और 
अम्बालिकाके साथ विचित्रवीर्यका विवाह तथा निधन 


वैशम्पायन उवाच 


हते चित्राड़दे भीष्मो बाले भ्रातरि कौरव । 

पालयामास तद्‌ राज्यं सत्यवत्या मते स्थित: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! चित्रांगदके मारे जानेपर दूसरे भाई विचित्रवीर्य 
अभी बहुत छोटे थे, अतः सत्यवतीकी रायसे भीष्मजीने ही उस राज्यका पालन 
किया ।। १ |। 

सम्प्राप्तयौवनं दृष्टवा भ्रातरं धीमतां वर: । 

भीष्मो विचित्रवीर्यस्य विवाहायाकरोन्मतिम्‌ ।। २ ।। 

जब विचित्रवीर्य धीरे-धीरे युवावस्थामें पहुँचे, तब बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ भीष्मजीने उनकी 
वह अवस्था देख विचित्रवीर्यके विवाहका विचार किया ।। २ ।। 

अथ काशिपतेर्भीष्म: कन्यास्तिस््रो5प्सरोपमा: | 

शुश्राव सहिता राजन्‌ वृण्वाना वै स्वयंवरम्‌ ।। ३ ।। 

राजन! उन दिनों काशिराजकी तीन कन्याएँ थीं, जो अप्सराओंके समान सुन्दर थीं। 
भीष्मजीने सुना, वे तीनों कन्याएँ साथ ही स्वयंवर-सभामें पतिका वरण करनेवाली 
हैं ।। ३ ।। 

ततः स रथियनां श्रेष्ठो रथेनैकेन शत्रुजित्‌ । 

जगामानुमते मातु: पुरीं वाराणसीं प्रभु: ।। ४ ।। 

तब माता सत्यवतीकी आज्ञा ले रथियोंमें श्रेष्ठ शत्रुविजयी भीष्म एकमात्र रथके साथ 
वाराणसीपुरीको गये ।। ४ ।। 

तत्र राज्ञ: समुदितान्‌ सर्वतः समुपागतान्‌ | 

ददर्श कन्यास्ताश्नैव भीष्म: शान्तनुनन्दन: ।। ५ ।। 

वहाँ शान्तनुनन्दन भीष्मने देखा, सब ओरसे आये हुए राजाओंका समुदाय स्वयंवर- 
सभामें जुटा हुआ है और वे कन्याएँ भी स्वयंवरमें उपस्थित हैं || ५ ।। 

कीर्त्यमानेषु राज्ञां तु तदा नामसु सर्वश:ः । 

एकाकिन तदा भीष्म॑ वृद्ध शान्तनुनन्दनम्‌ ।। ६ ।। 

सोद्वेगा इव तं॑ दृष्टवा कन्या: परमशोभना: । 


अपाक्रामन्त ता: सर्वा वृद्ध इत्येव चिन्तया ।। ७ ।। 

उस समय सब ओर राजाओंके नाम ले-लेकर उन सबका परिचय दिया जा रहा था। 
इतनेमें ही शान्तनुनन्दन भीष्म, जो अब वृद्ध हो चले थे, वहाँ अकेले ही आ पहुँचे। उन्हें 
देखकर वे सब परम सुन्दरी कन्याएँ उद्विग्न-सी होकर, ये बूढ़े हैं, ऐसा सोचती हुई वहाँसे दूर 
भाग गयीं ।। ६-७ ।। 

वृद्ध: परमधर्मात्मा वलीपलितधारण: । 

कि कारणमिहायातो निर्लज्जो भरतर्षभ: || ८ ॥। 

मिथ्याप्रतिज्ञो लोकेषु कि वदिष्यति भारत | 

ब्रह्मचारीति भीष्मो हि वृथैव प्रथितो भुवि ।। ९ ।। 

इत्येवं प्रब्र॒ुवन्तस्ते हसन्ति सम नृपाधमा: । 

वहाँ जो नीच स्वभावके नरेश एकत्र थे, वे आपसमें ये बातें कहते हुए उनकी हँसी 
उड़ाने लगे--“भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ भीष्म तो बड़े धर्मात्मा सुने जाते थे। ये बूढ़े हो गये हैं, 
शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, सिरके बाल सफेद हो चुके हैं; फिर क्या कारण है कि यहाँ आये 
हैं? ये तो बड़े निर्लज्ज जान पड़ते हैं। अपनी प्रतिज्ञा झूठी करके ये लोगोंमें क्या कहेंगे-- 
कैसे मुँह दिखायेंगे? भूमण्डलमें व्यर्थ ही यह बात फैल गयी है कि भीष्मजी ब्रह्मचारी 
हैं! || ८-९३ ।। 


वैशम्पायन उवाच 
क्षत्रियाणां वच: श्र॒त्वा हम भारत ॥। १० ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं-- ! क्षत्रियोंकी ये बातें सुनकर भीष्म अत्यन्त कुपित 
हो उठे ।। १० ।। 


भीष्मस्तदा स्वयं कन्या वरयामास ता: प्रभु: । 

उवाच च महीपालान्‌ राजज्जलदनि:स्वन: ।। ११ ।। 

रथमारोप्य ता: कन्या भीष्म: प्रहरतां वर: । 

आहूय दान कन्यानां गुणवद्भ्य: स्मृतं बुध: ।। १२ ।। 

अलंकृत्य यथाशक्ति प्रदाय च धनान्यपि । 

प्रयच्छन्त्यपरे कन्या मिथुनेन गवामपि ।। १३ ।। 

राजन! वे शक्तिशाली तो थे ही, उन्होंने उस समय स्वयं ही समस्त कनन्‍्याओंका वरण 
किया। इतना ही नहीं, प्रहार करनेवालोंमें श्रेष्ठ वीरवर भीष्मने उन कन्‍्याओंको उठाकर 
रथपर चढ़ा लिया और समस्त राजाओंको ललकारते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा 
--दिद्वानोंने कन्याको यथाशक्ति वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके गुणवान्‌ वरको बुलाकर 
उसे कुछ धन देनेके साथ ही कन्यादान करना उत्तम (ब्राह्म विवाह) बताया है। कुछ लोग 
एक जोड़ा गाय और बैल लेकर कन्यादान करते हैं (यह आर्ष विवाह है) || ११--१३ ॥। 


वित्तेन कथितेनान्ये बलेनान्येडनुमान्य च । 

प्रमत्तामुपयन्त्यन्ये स्वयमन्ये च विन्दते ।। १४ ।। 

“कितने ही मनुष्य नियत धन लेकर कन्यादान करते हैं (यह आसुर विवाह है)। कुछ 
लोग बलसे कन्याका हरण करते हैं (यह राक्षस विवाह है)। दूसरे लोग वर और कन्याकी 
परस्पर अनुमति होनेपर विवाह करते हैं (यह गान्धर्व विवाह है)। कुछ लोग अचेत 
अवस्थामें पड़ी हुई कनन्‍्याको उठा ले जाते हैं (यह पैशाच विवाह है)। कुछ लोग वर और 
कन्याको एकत्र करके स्वयं ही उनसे प्रतिज्ञा कराते हैं कि हम दोनों गार्हस्थ्य धर्मका पालन 
करेंगे; फिर कन्यापिता दोनोंकी पूजा करके अलंकारयुक्त कन्याका वरके लिये दान करता 
है; इस प्रकार विवाहित होनेवाले (प्राजापत्य विवाहकी रीतिसे) पत्नीकी उपलब्धि करते 
हैं ।। १४ ।। 

आर्ष विधि पुरस्कृत्य दारान्‌ विन्दन्ति चापरे । 

अष्टमं तमथो वित्त विवाहं कविभिर्वृतम्‌ ।। १५ ।। 

“कुछ लोग आर्ष विधि (यज्ञ) करके ऋत्विजको कन्या देते हैं। इस प्रकार विवाहित 
होनेवाले (दैव विवाहकी रीतिसे) पत्नी प्राप्त करते हैं। इस तरह विद्दवानोंने यह विवाहका 
आठवाँ प्रकार माना है। इन सबको तुमलोग समझो ।। १५ ।। 

स्वयंवरं तु राजन्या: प्रशंसन्त्युपयान्ति च | 

प्रमथ्य तु हृतामाहुज्यायसीं धर्मवादिन: || १६ ।। 

"क्षत्रिय स्वयंवरकी प्रशंसा करते और उसमें जाते हैं; परंतु उसमें भी समस्त राजाओंको 
परास्त करके जिस कन्याका अपहरण किया जाता है, धर्मवादी दिद्वान क्षत्रियके लिये उसे 
सबसे श्रेष्ठ मानते हैं ।। १६ ।। 

ता इमा: पृथिवीपाला जिहीषामि बलादित: । 

ते यतथ्वं परं शक्‍त्या विजयायेतराय वा ।। १७ ।। 

“अतः भूमिपालो! मैं इन कन्याओंको यहाँसे बलपूर्वक हर ले जाना चाहता हूँ। तुमलोग 
अपनी सारी शक्ति लगाकर विजय अथवा पराजयके लिये मुझे रोकनेका प्रयत्न 
करो ।। १७ ।। 

स्थितो<हं पृथिवीपाला युद्धाय कृतनिश्चय: । 

एवमुक्त्वा महीपालान्‌ काशिराजं च वीर्यवान्‌ ।। १८ ।। 

सर्वा: कन्या: स कौरव्यो रथमारोप्य च स्वकम्‌ | 

आमन्त्रय च स तान्‌ प्रायाच्छीघ्रं कन्या: प्रगृह् ता: ।। १९ ।। 

'“राजाओ! मैं युद्धके लिये दृढ़ निश्चय करके यहाँ डटा हुआ हूँ।” परम पराक्रमी 
कुरुकुलश्रेष्ठ भीष्मजी उन महीपालों तथा काशिराजसे उपर्युक्त बातें कहकर उन समस्त 
कन्याओंको, जिन्हें वे उठाकर अपने रथपर बिठा चुके थे, साथ लेकर सबको ललकारते हुए 
वहाँसे शीघ्रतापूर्वक चल दिये || १८-१९ |। 





ततस्ते पार्थिवा: सर्वे समुत्पेतुरमर्षिता: । 

संस्पृशन्तः स्वकान्‌ बाहून्‌ दशन्तो दशनच्छदान्‌ ।। २० ।। 

फिर तो समस्त राजा इस अपमानको न सह सके; वे अपनी भुजाओंका स्पर्श करते 
(ताल ठोकते) और दाँतोंसे ओठ चबाते हुए अपनी जगहसे उछल पड़े || २० ।। 

तेषामाभरणान्याशु त्वरितानां विमुडज्चताम्‌ । 

आमुज्चतां च वर्माणि सम्भ्रम: सुमहानभूत्‌ ।। २१ ।। 

सब लोग जल्दी-जल्दी अपने आभूषण उतारकर कवच पहनने लगे। उस समय बड़ा 
भारी कोलाहल मच गया ।। २१ ।। 

ताराणामिव सम्पातो बभूव जनमेजय । 

भूषणानां च सर्वेषां कवचानां च सर्वश: ।। २२ ।। 

सवर्मभिर्भूणैश्व प्रकीर्यद्धिरितस्तत: । 

सक्रोधामर्षजिद्य भ्रूकूषायीकृतलोचना: ।। २३ ।। 

सूतोपक्लृप्तान्‌ रुचिरान्‌ सदश्वैरुपकल्पितान्‌ | 

रथानास्थाय ते वीरा: सर्वप्रहरणान्विता: ।। २४ ।। 

प्रयान्‍्तमथ कौरव्यमनुसखुरुदायुधा: । 

ततः समभवद्‌ युद्ध तेषां तस्य च भारत । 


एकस्य च बहूनां च तुमुलं लोमहर्षणम्‌ ।। २५ ।। 

जनमेजय! जल्दबाजीके कारण उन सबके आभूषण और कवच इधर-उधर गिर पड़ते 
थे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाशमण्डलसे तारे टूट-टूटकर गिर रहे हों। 
कितने ही योद्धाओंके कवच और गहने इधर-उधर बिखर गये। क्रोध और अमर्षके कारण 
उनकी भौंहें टेढ़ी और आँखें लाल हो गयी थीं। सारथियोंने सुन्दर रथ सजाकर उनमें सुन्दर 
अश्व जोत दिये थे। उन रथोंपर बैठकर सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न हो हथियार 
उठाये हुए उन वीरोंने जाते हुए कुरुनन्दन भीष्मजीका पीछा किया। जनमेजय! तदनन्तर 
उन राजाओं और भीष्मजीका घोर संग्राम हुआ। भीष्मजी अकेले थे और राजालोग बहुत। 
उनमें रोंगटे खड़े कर देनेवाला भयंकर संग्राम छिड़ गया || २२--२५ ।। 

ते त्विषून्‌ साहस्रांस्तस्मिन्‌ युगपदाक्षिपन्‌ | 

अप्राप्तांश्नैव तानाशु भीष्म: सर्वास्तथान्तरा || २६ ।। 

अच्छिनच्छरवर्षेण महता लोमवाहिना । 

ततस्ते पार्थिवा: सर्वे सर्वतः परिवार्य तम्‌ । २७ ।। 

ववृषु: शरवर्षेण वर्षेणेवाद्रिमम्बुदा: । 

स तं बाणमयं वर्ष शरैरावार्य सर्वतः ।। २८ ।। 

ततः सर्वान्‌ महीपालान्‌ पर्यविध्यात्‌ त्रिभिस्त्रिभि: । 

एकैकस्तु ततो भीष्म राजन्‌ विव्याध पञ्चभि: ।। २९ |। 

राजन! उन नरेशोंने भीष्मजीपर एक ही साथ दस हजार बाण चलाये; परंतु भीष्मजीने 
उन सबको अपने ऊपर आनेसे पहले बीचमें ही विशाल पंखयुक्त बाणोंकी बौछार करके 
शीघ्रतापूर्वक काट गिराया। तब वे सब राजा उन्हें चारों ओरसे घेरकर उनके ऊपर उसी 
प्रकार बाणोंकी झड़ी लगाने लगे, जैसे बादल पर्वतपर पानीकी धारा बरसाते हैं। भीष्मजीने 
सब ओरसे उस बाण-वर्षाको रोककर उन सभी राजाओंको तीन-तीन बाणोंसे घायल कर 
दिया। तब उनमेंसे प्रत्येकने भीष्मजीको पाँच-पाँच बाण मारे || २६--२९ ।। 

सच तान्‌ प्रतिविव्याध द्वाभ्यां द्वाभ्यां पराक्रमन्‌ | 

तद्‌ युद्धमासीत्‌ तुमुलं घोरं देवासुरोपमम्‌ ।। ३० ।। 

पश्यतां लोकवीराणां शरशक्तिसमाकुलम्‌ | 

स धनूषि ध्वजाग्राणि वर्माणि च शिरांसि च ।। ३१ ।। 

चिच्छेद समरे भीष्म: शतशो5थ सहस््रश: । 

तस्याति पुरुषानन्याँललाघवं रथचारिण: ।। ३२ ।। 

रक्षणं चात्मन: संख्ये शत्रवो5प्यभ्यपूजयन्‌ । 

तान्‌ विनिर्जित्य तु रणे सर्वशस्त्रभूृतां वर: ।। ३३ ।। 

कन्याभि: सहित: प्रायाद्‌ भारतो भारतानू्‌ प्रति । 

ततस्तं पृष्ठतो राजज्छाल्वराजो महारथ: ।। ३४ ।। 


अभ्यगच्छदमेयात्मा भीष्म शान्तनवं रणे | 

वारणं जघने भिन्दन्‌ दन्ताभ्यामपरो यथा ।। ३५ ।। 

वासितामनुसम्प्राप्तो यूथपो बलिनां वर: । 

स्त्रीकामस्तिष्ठ तिछेति भीष्ममाह स पार्थिव: ।। ३६ ।। 

शाल्वराजो महाबाहुरमर्षेण प्रचोदित: । 

ततः सः पुरुषव्याप्रो भीष्म: परबलार्दन: ।। ३७ || 

तद्वाक्याकुलित: क्रोधाद्‌ विधूमो5ग्निरिव ज्वलन्‌ । 

विततेषुधनुष्याणिविकुज्चितललाटभृत्‌ ।। ३८ ।। 

फिर भीष्मजीने भी अपना पराक्रम प्रकट करते हुए प्रत्येक योद्धाको दो-दो बाणोंसे 
बींध डाला। बाणों और शक्तियोंसे व्याप्त उनका वह तुमुल युद्ध देवासुर-संग्रामके समान 
भयंकर जान पड़ता था। उस समरांगणमें भीष्मने लोकविख्यात वीरोंके देखते-देखते उनके 
धनुष, ध्वजाके अग्रभाग, कवच और मस्तक सैकड़ों और हजारोंकी संख्यामें काट गिराये। 
युद्धमें रथसे विचरनेवाले भीष्मजीकी दूसरे वीरोंसे बढ़कर हाथकी फुर्ती और आत्मरक्षा 
आदिकी शत्रुओंने भी सराहना की। सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ भरतकुलभूषण भीष्मजीने 
उन सब योद्धाओंको जीतकर कन्याओंको साथ ले भरतवंशियोंकी राजधानी हस्तिनापुरको 
प्रस्थान किया। राजन्‌! तब महारथी शाल्वराजने पीछेसे आकर युद्धके लिये शान्तनुनन्दन 
भीष्मपर आक्रमण किया। शाल्वके शारीरिक बलकी कोई सीमा नहीं थी। जैसे हथिनीके 
पीछे लगे हुए एक गजराजके पृष्ठभागमें उसीका पीछा करनेवाला दूसरा यूथपति दाँतोंसे 
प्रहार करके उसे विदीर्ण करना चाहता है, उसी प्रकार बलवानोंमें श्रेष्ठ महाबाहु शाल्वराज 
सत्रीको पानेकी इच्छासे ईर्ष्या और क्रोधके वशीभूत हो भीष्मका पीछा करते हुए उनसे 
बोला--“अरे ओ! खड़ा रह, खड़ा रह।” तब शत्रुसेनाका संहार करनेवाले पुरुषसिंह भीष्म 
उसके वचनोंको सुनकर क्रोधसे व्याकुल हो धूमरहित अग्निके समान जलने लगे और 
हाथमें धनुष-बाण लेकर खड़े हो गये। उनके ललाटमें सिकुड़न आ गयी || ३०--३८ ॥। 

क्षत्रधर्म समास्थाय व्यपेतभयसम्भ्रम: । 

निवर्तयामास रथं शाल्वं प्रति महारथ: ।। ३९ ।। 

महारथी भीष्मने क्षत्रिय-धर्मका आश्रय ले भय और घबराहट छोड़कर शाल्वकी ओर 
अपना रथ लौटाया ।। ३९ |। 

निवर्तमान त॑ दृष्टवा राजान: सर्व एव ते । 

प्रेक्षका: समपद्यन्त भीष्मशाल्वसमागमे ।। ४० ।। 

उन्हें लौटते देख सब राजा भीष्म और शाल्वके युद्धमें कुछ भाग न लेकर केवल दर्शक 
बन गये ।। ४० ।। 

तौ वृषाविव नर्दन्तौ बलिनौ वासितान्तरे । 

अन्योन्यमभ्यवर्तेतां बलविक्रमशालिनौ ।। ४१ ।। 


ये दोनों बलवान्‌ वीर मैथुनकी इच्छावाली गौके लिये आपसमें लड़नेवाले दो साँड़ोंकी 
तरह हुंकार करते हुए एक-दूसरेसे भिड़ गये। दोनों ही बल और पराक्रमसे सुशोभित 
थे ।। ४१ ।। 

ततो भीष्म शान्तनवं शरै: शतसहस््रश: । 

शाल्वराजो नरश्रेष्ठ; समवाकिरदाशुगै: || ४२ ।। 

तदनन्तर मनुष्योंमें श्रेष्ठ राजा शाल्व शान्तनुनन्दन भीष्मपर सैकड़ों और हजारों 
शीघ्रगामी बाणोंकी बौछार करने लगा ।। ४२ ।। 

पूर्वमभ्यर्दितं दृष्टवा भीष्मं शाल्वेन ते नृपा: । 

विस्मिता: समपद्यन्त साधु साध्विति चाब्रुवन्‌ ।। ४३ ।। 

शाल्वने पहले ही भीष्मको पीड़ित कर दिया। यह देखकर सभी राजा आश्चर्यचकित हो 
गये और “वाह-वाह' करने लगे ।। ४३ ।। 

लाघवं तस्‍्य ते दृष्टवा समरे सर्वपार्थिवा: । 

अपूजयन्त संद्वष्टा वाग्भि: शाल्वं नराधिपम्‌ ।। ४४ ।। 

युद्धमें उसकी फुर्ती देख सब राजा बड़े प्रसन्न हुए और अपनी वाणीद्वारा शाल्वनरेशकी 
प्रशंसा करने लगे || ४४ ।। 

क्षत्रियाणां ततो वाच: ध्रुत्वा परपुरंजय: । 

क्रुद्ध: शान्तनवो भीष्मस्तिष्ठ तिछेत्यभाषत ।। ४५ ।। 

शत्रुओंकी राजधानीको जीतनेवाले शान्तनुनन्दन भीष्मने क्षत्रियोंकी वे बातें सुनकर 
कुपित हो शाल्वसे कहा--'खड़ा रह, खड़ा रह” ।। ४५ ।। 

सारथिं चाब्रवीत्‌ क्रुद्धों याहि यत्रैष पार्थिव: । 

यावदेनं निहन्म्यद्य भुजड़मिव पक्षिराट्‌ ।। ४६ ।। 

फिर सारथिसे कहा--“जहाँ यह राजा शाल्व है, उधर ही रथ ले चलो। जैसे पशक्षिराज 
गरुड सर्पको दबोच लेते हैं, उसी प्रकार मैं इसे अभी मार डालता हूँ ।। ४६ ।। 

ततोअस्त्रं वारुणं सम्यग्‌ योजयामास कौरव: । 

तेनाश्चांश्वतुरो5मृद्नाच्छाल्वराजस्य भूपते ।। ४७ ।। 

जनमेजय! तदनन्तर कुरुनन्दन भीष्मने धनुषपर उचित रीतिसे वारुणास्त्रका संधान 
किया और उसके द्वारा शाल्वराजके चारों घोड़ोंको रौंद डाला ।। ४७ |। 

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य शाल्वराजस्य कौरव: । 

भीष्मो नृपतिशार्दूल न्‍न्यवधीत्‌ तस्य सारथिम्‌ ।। ४८ ।। 

नृपश्रेष्ठ फिर अपने अस्त्रोंसे राजा शाल्वके अस्त्रोंका निवारण करके कुरुवंशी भीष्मने 
उसके सारथिको भी मार डाला || ४८ ।। 

अस्त्रेण चास्याथैन्द्रेण न्‍्यवधीत्‌ तुरगोत्तमान्‌ | 

कन्याहेतोर्नरश्रेष्ठ भीष्म: शान्तनवस्तदा ।। ४९ || 


जित्वा विसर्जयामास जीवन्तं नृपसत्तमम्‌ | 

ततः शाल्व: स्वनगरं प्रययौं भरतर्षभ ।। ५० ।। 

स्वराज्यमन्वशाच्चैव धर्मेण नृपतिस्तदा । 

राजानो ये च तत्रासन्‌ स्वयंवरदिदृक्षव: ।। ५१ || 

स्वान्येव ते5पि राष्ट्राणि जग्मु: परपुरंजया: । 

एवं विजित्य ता: कन्या भीष्म: प्रहरतां वर: ।। ५२ ।। 

प्रययौ हास्तिनपुरं यत्र राजा स कौरव: । 

विचित्रवीर्यों धर्मात्मा प्रशास्ति वसुधामिमाम्‌ ।। ५३ ।। 

तत्पश्चात्‌ ऐन्द्रास्त्रद्वारा उसके उत्तम अश्वोंको यमलोक पहुँचा दिया। नरश्रेष्ठ] उस समय 
शान्तनुनन्दन भीष्मने कनन्‍्याओंके लिये युद्ध करके शाल्वको जीत लिया और नुृपश्रेष्ठ 
शाल्वका भी केवल प्राणमात्र छोड़ दिया। जनमेजय! उस समय शाल्व अपनी राजधानीको 
लौट गया और धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगा। इसी प्रकार शत्रुनगरीपर विजय 
पानेवाले जो-जो राजा वहाँ स्वयंवर देखनेकी इच्छासे आये थे, वे भी अपने-अपने देशको 
चले गये। प्रहार करनेवाले योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीष्म उन कन्याओंको जीतकर हस्तिनापुरको 
चल दिये; जहाँ रहकर धर्मात्मा कुरुवंशी राजा विचित्रवीर्य इस पृथ्वीका शासन करते 
थे || ४९--५३ ।। 

यथा पितास्य कौरव्य: शान्तनुर्न॒पसत्तम: । 

सो<चिरेणैव कालेन अत्यक्रामन्नराधिप ।। ५४ ।। 

वनानि सरितश्रैव शैलांश्व विविधान्‌ द्रुमान्‌ । 

अक्षत: क्षपयित्वारीन्‌ संख्येडसंख्येयविक्रम: ।। ५५ ।। 

उनके पिता कुरुश्रेष्ठ नृपशिरोमणि शान्तनु जिस प्रकार राज्य करते थे, वैसा ही वे भी 
करते थे। जनमेजय! भीष्मजी थोड़े ही समयमें वन, नदी, पर्वतोंको लाँघते और नाना 
प्रकारके वृक्षोंको लाँचघते और पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ गये। युद्धमें उनका पराक्रम 
अवर्णनीय था। उन्होंने स्वयं अक्षत रहकर शत्रुओंको ही क्षति पहुँचायी थी | ५४-५५ ।। 

आनयामास काश्यस्य सुता: सागरगासुत: । 

सस्‍्नुषा इव स धर्मात्मा भगिनीरिव चानुजा: ।। ५६ ।। 

यथा दुहितरश्वैव परिगृह ययौ कुरून्‌ । 

आनिन्‍्ये स महाबाहुर्भ्रातु: प्रियचिकीर्षया || ५७ ।। 

धर्मात्मा गंगानन्दन भीष्म काशिराजकी कन्याओंको पुत्रवधू, छोटी बहिन एवं पुत्रीकी 
भाँति साथ रखकर कुरुदेशमें ले आये। वे महाबाहु अपने भाई विचित्रवीर्यका प्रिय करनेकी 
इच्छासे उन सबको लाये थे ।। ५६-५७ ।। 

ता: सर्वगुणसम्पन्ना भ्राता भ्रात्रे यवीयसे । 

भीष्मो विचित्रवीर्याय प्रददौ विक्रमाहता: ।। ५८ ।। 


भाई भीष्मने अपने पराक्रमद्वारा हरकर लायी हुई उन सर्वसदगुणसम्पन्न कन्‍्याओंको 
अपने छोटे भाई विचित्रवीर्यके हाथमें दे दिया || ५८ ।। 

एवं धर्मेण धर्मज्ञ: कृत्वा कर्मातिमानुषम्‌ | 

भ्रातुर्विचित्रवीर्यस्य विवाहायोपचक्रमे ।। ५९ ।। 

सत्यवत्या सह मिथ: कृत्वा निश्चयमात्मवान्‌ | 

विवाहं कारयिष्यन्तं भीष्म॑ं काशिपते: सुता | 

ज्येष्ठा तासामिदं वाक्यमब्रवीद्धसलती तदा ॥। ६० || 

धर्मज्ञ एवं जितात्मा भीष्मजी इस प्रकार धर्मपूर्वक अलौकिक पराक्रम करके माता 
सत्यवतीसे सलाह ले एक निश्चयपर पहुँचकर भाई विचित्रवीर्यके विवाहकी तैयारी करने 
लगे। काशिराजकी उन कन्याओंमें जो सबसे बड़ी थी, वह बड़ी सती-साध्वी थी। उसने जब 
सुना कि भीष्मजी मेरा विवाह अपने छोटे भाईके साथ करेंगे, तब वह उनसे हँसती हुई इस 
प्रकार बोली-- || ५९-६० || 

मया सौभपति): पूर्व मनसा हि वृत: पति: । 

तेन चास्मि वृता पूर्वमेष कामश्न मे पितु: ।॥ ६१ ।। 

“धर्मात्मन! मैंने पहलेसे ही मन-ही-मन सौभ नामक विमानके अधिपति राजा 
शाल्वको पतिरूपमें वरण कर लिया था। उन्होंने भी पूर्वकालमें मेरा वरण किया था। मेरे 
पिताजीकी भी यही इच्छा थी कि मेरा विवाह शाल्वके साथ हो ।। ६१ ।। 

मया वरयितव्यो<भूच्छाल्वस्तस्मिन्‌ स्वयंवरे । 

एतदू विज्ञाय धर्मज्ञ धर्मतत्त्वं समाचर || ६२ ।। 

“उस स्वयंवरमें मुझे राजा शाल्वका ही वरण करना था। धर्मज्ञ! इन सब बातोंको सोच- 
समझकर जो धर्मका सार प्रतीत हो, वही कार्य कीजिये! || ६२ ।। 

एवमुक्तस्तया भीष्म: कन्यया विप्रसंसदि । 

चिन्तामभ्यगमद्‌ वीरो युक्तां तस्यैव कर्मण: ।। ६३ ।। 

जब उस कन्याने ब्राह्मणमण्डलीके बीच वीरवर भीष्मजीसे इस प्रकार कहा, तब वे 
उस वैवाहिक कर्मके विषयमें युक्तियुक्त विचार करने लगे ।। ६३ ।। 

विनिश्ित्य स धर्मज्ञो ब्राह्मणैवेंदपारगै: । 

अनुजने तदा ज्येष्ठामम्बां काशिपते: सुताम्‌ ।। ६४ ।। 

वे स्वयं भी धर्मके ज्ञाता थे, फिर भी वेदोंके पारंगत विद्वान ब्राह्मणोंक साथ भलीभाँति 
विचार करके उन्होंने काशिराजकी ज्येष्ठ पुत्री अम्बाको उस समय शाल्वके यहाँ जानेकी 
अनुमति दे दी ।। ६४ ।। 

अम्बिकाम्बालिके भारयें प्रादाद्‌ भ्रात्रे यवीयसे । 

भीष्मो विचित्रवीर्याय विधिदृष्टेन कर्मणा ।। ६५ ।। 


शेष दो कन्याओंका नाम अम्बिका और अम्बालिका था। उन्हें भीष्मजीने शास्त्रोक्त 
विधिके अनुसार छोटे भाई विचित्रवीर्यको पत्नीरूपमें प्रदान किया ।। ६५ ।। 

तयो: पाणी गृहीत्वा तु रूपयौवनदर्पित: । 

विचित्रवीर्यो धर्मात्मा कामात्मा समपद्यत ।। ६६ ।। 

उन दोनोंका पाणिग्रहण करके रूप और यौवनके अभिमानसे भरे हुए धर्मात्मा 
विचित्रवीर्य कामात्मा बन गये ।। ६६ ।। 

ते चापि बृहती श्यामे नीलकुज्चितमूर्थजे । 

रक्ततुज्ननखोपेते पीनश्रोणिपयोधरे ।। ६७ ।। 

उनकी वे दोनों पत्नियाँ सयानी थीं। उनकी अवस्था सोलह वर्षकी हो चुकी थी। उनके 
केश नीले और घुँघराले थे; हाथ-पैरोंके नख लाल और ऊँचे थे; नितम्ब और उरोज स्थूल 
और उभरे हुए थे ।। ६७ ।। 

आत्मन: प्रतिरूपो5सौ लब्ध: पतिरिति स्थिते । 

विचित्रवीर्य कल्याण्यौ पूजयामासतु: शुभे ।। ६८ ।। 

वे यह जानकर संतुष्ट थीं कि हम दोनोंको अपने अनुरूप पति मिले हैं; अतः वे दोनों 
कल्याणमयी देवियाँ विचित्रवीर्यकी बड़ी सेवा-पूजा करने लगीं ।। ६८ ।। 

सचाश्रचिरूपसदृशो देवतुल्यपराक्रम: । 

सर्वासामेव नारीणां चित्तप्रमथनो रह: ।। ६९ ।। 

विचित्रवीर्यका रूप अश्विनीकुमारोंक समान था। वे देवताओंके समान पराक्रमी थे। 
एकान्तमें वे सभी नारियोंके मनको मोह लेनेकी शक्ति रखते थे ।। ६९ ।। 

ताभ्यां सह समा: सप्त विहरन्‌ पृथिवीपति: । 

विचित्रवीर्यस्तरुणो यक्ष्मणा समगृहत ।। ७० ।। 

राजा विचित्रवीर्यने उन दोनों पत्नियोंके साथ सात वर्षोतक निरन्तर विहार किया; अतः 
उस असंयमके परिणामस्वरूप वे युवावस्थामें ही राजयक्ष्माके शिकार हो गये || ७० ।। 

सुहृदां यतमानानामाप्तै: सह चिकित्सकै: । 

जगामास्तमिवादित्य: कौरव्यो यमसादनम्‌ ।। ७१ ।। 

उनके हितैषी सगे-सम्बन्धियोंने नामी और विश्वसनीय चिकित्सकोंके साथ उनके रोग- 
निवारणकी पूरी चेष्टा की, तो भी जैसे सूर्य अस्ताचलको चले जाते हैं, उसी प्रकार वे 
कौरवनरेश यमलोकको चले गये ।। ७१ ।। 

धर्मात्मा स तु गाड़ेयश्चिन्ताशोकपरायण: । 

प्रेतकार्याणि सर्वाणि तस्य सम्यगकारयत्‌ ।। ७२ ।। 

राज्ञो विचित्रवीर्यस्य सत्यवत्या मते स्थित: । 

ऋषच्विग्भि: सहितो भीष्म: सर्वैश्व कुरुपुड़वै: ।। ७३ ।। 


धर्मात्मा गंगानन्दन भीष्मजी भाईकी मृत्युसे चिन्ता और शोकमें डूब गये। फिर माता 
सत्यवतीकी आज्ञाके अनुसार चलनेवाले उन भीष्मजीने ऋत्विजों तथा कुरुकुलके समस्त 
श्रेष्ठ पुरुषोंके साथ राजा विचित्रवीर्यके सभी प्रेतकार्य अच्छी तरह कराये || ७२-७३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि विचित्रवीर्योपरमे 
दयथधिकशततमो<्ध्याय: ।। १०२ |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरववके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें विचित्रवीर्यका निधनविषयक 
एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०२ ॥ 


अपर बछ। हक २ 


तग्रयधिकशततमो< ध्याय: 


सत्यवतीका भीष्मसे राज्यग्रहण और संतानोत्पादनके लिये 
आग्रह तथा भीष्मके द्वारा अपनी प्रतिज्ञा बतलाते हुए 
उसकी अस्वीकृति 


वैशम्पायन उवाच 


तत: सत्यवती दीना कृपणा पुत्रगृद्धिनी । 

पुत्रस्य कृत्वा कार्याणि स्नुषाभ्यां सह भारत ।। १ ।। 

समाश्चास्य स्नुषे ते च भीष्मं शस्त्रभूतां वरम्‌ 

धर्म च पितृवंशं च मातृवंशं च भाविनी । 

प्रसमीक्ष्य महाभागा गाड़्ेयं वाक्यमब्रवीत्‌ ।। २ ॥। 

शान्तनोर्धर्मनित्यस्य कौरव्यस्य यशस्विन: । 

त्वयि पिण्डश्न कीर्तिश्व संतानं च प्रतिष्ठितम्‌ ।। ३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर पुत्रकी इच्छा रखनेवाली सत्यवती 
अपने पुत्रके वियोगसे अत्यन्त दीन और कृपण हो गयी। उसने पुत्रवधुओंके साथ पुत्रके 
प्रेतकार्य करके अपनी दोनों बहुओं तथा शबस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ भीष्मजीको धीरज बँधाया। 
फिर उस महाभागा मंगलमयी देवीने धर्म, पितृूकूुल तथा मातृकुलकी ओर देखकर 
गंगानन्दन भीष्मसे कहा--“बेटा! सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाले परम यशस्वी कुरुनन्दन 
महाराज शान्तनुके पिण्ड, कीर्ति और वंश ये सब अब तुम्हींपर अवलम्बित हैं || १--३ ।। 

यथा कर्म शुभं॑ कृत्वा स्वर्गोपगमन ध्रुवम्‌ । 

यथा चायुर्धुवं सत्ये त्वयि धर्मस्तथा ध्रुव: ।। ४ ।। 

'जैसे शुभ कर्म करके स्वर्गलोकमें जाना निश्चित है, जैसे सत्य बोलनेसे आयुका बढ़ना 
अवश्यम्भावी है, वैसे ही तुममें धर्मका होना भी निश्चित है ।। ४ ।। 

वेत्थ धर्माक्ष धर्मज्ञ समासेनेतरेण च । 

विविधास्त्वं श्रुतीर्वेत्थ वेदाड़ानि च सर्वश: ।। ५ ।। 

“धर्मज्ञ! तुम सब धर्मोंको संक्षेप और विस्तारसे जानते हो। नाना प्रकारकी श्रुतियों और 
समस्त वेदांगोंका भी तुम्हें पूर्ण ज्ञान है ।। ५ ।। 

व्यवस्थानं च ते धर्मे कुलाचारं च लक्षये । 

प्रतिपत्तिं च कृच्छेषु शुक्रा्धिरसयोरिव ।। ६ ।। 

“मैं तुम्हारी धर्मनिष्ठा और कुलोचित सदाचारको भी देखती हूँ। संकटके समय 
शुक्राचार्य और बृहस्पतिकी भाँति तुम्हारी बुद्धि उपयुक्त कर्तव्यका निर्णय करनेमें समर्थ 


है।। ६ |। 

तस्मात्‌ सुभृशमाश्चस्य त्वयि धर्मभूतां वर | 

कार्य त्वां विनियोक्ष्यामि तच्छुत्वा कर्तुमहसि ।। ७ ।। 

“अतः धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भीष्म! तुमपर अत्यन्त विश्वास रखकर ही मैं तुम्हें एक 
आवश्यक कार्यमें लगाना चाहती हूँ। तुम पहले उसे सुन लो; फिर उसका पालन करनेकी 
चेष्टा करो || ७ ।। 

मम पुत्रस्तव भ्राता वीर्यवान्‌ सुप्रियश्च ते । 

बाल एव गत: स्वर्गमपुत्र: पुरुषर्षभ ।। ८ ।। 

इमे महिष्यौ भ्रातुस्ते काशिराजसुते शुभे । 

रूपयौवनसम्पन्ने पुत्रकामे च भारत ।। ९ ।। 

तयोरुत्पादयापत्यं संतानाय कुलस्यथ न: । 

मन्नियोगान्महाबाहो धर्म कर्तुमिहाहसि ।। १० ।। 

“मेरा पुत्र और तुम्हारा भाई विचित्रवीर्य जो पराक्रमी होनेके साथ ही तुम्हें अत्यन्त प्रिय 
था, छोटी अवस्थामें ही स्वर्गवासी हो गया। नरश्रेष्ठ] उसके कोई पुत्र नहीं हुआ था। तुम्हारे 
भाईकी ये दोनों सुन्दरी रानियाँ, जो काशिराजकी कन्याएँ हैं, मनोहर रूप और युवावस्थासे 
सम्पन्न हैं। इनके ह्ृदयमें पुत्र पानेकी अभिलाषा है। भारत! तुम हमारे कुलकी 
संतानपरम्पराको सुरक्षित रखनेके लिये स्वयं ही इन दोनोंके गर्भसे पुत्र उत्पन्न करो। 
महाबाहो! मेरी आज्ञासे यह धर्मकार्य तुम अवश्य करो || ८--१० ।। 

राज्ये चैवाभिषिच्यस्व भारताननुशाधि च । 

दारांश्ष॒ कुरु धर्मेण मा निमज्जी: पितामहान्‌ ।। ११ ।। 

“राज्यपर अपना अभिषेक करो और भारतीय प्रजाका पालन करते रहो। धर्मके 
अनुसार विवाह कर लो; पितरोंकोी नरकमें न गिरने दो” ।। ११ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


तथोच्यमानो मात्रा स सुहृद्धिश्व॒ परंतप: । 

इत्युवाचाथ धर्मात्मा धर्म्यमेवोत्तरं वच: ।। १२ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! माता और सुहृदोंके ऐसा कहनेपर शत्रुदमन 
धर्मात्मा भीष्मने यह धर्मानुकूल उत्तर दिया-- ।। १२ || 

असंशयं परो धर्मस्त्वया मातरुदाहृत: । 

राज्यार्थे नाभिषिज्चेयं नोपेयां जातु मैथुनम्‌ 

त्वमपत्यं प्रति च मे प्रतिज्ञां वेत्थ वै पराम्‌ ।। १३ ।। 

जानासि च यथावृत्तं शुल्कहेतोस्त्वदन्तरे । 

स सत्यवति सत्यं ते प्रतिजानाम्यहं पुन: ।। १४ ।। 


“माता! तुमने जो कुछ कहा है, वह धर्मयुक्त है, इसमें संशय नहीं; परंतु मैं राज्यके 
लोभसे न तो अपना अभिषेक कराऊँगा और न स्त्रीसहवास ही करूँगा। संतानोत्पादन और 
राज्य ग्रहण न करनेके विषयमें जो मेरी कठोर प्रतिज्ञा है, उसे तो तुम जानती ही हो। 
सत्यवती! तुम्हारे लिये शुल्क देनेके हेतु जो-जो बातें हुई थीं, वे सब तुम्हें ज्ञात हैं। उन 
प्रतिज्ञाओंको पुनः: सच्ची करनेके लिये मैं अपना दृढ़ निश्चय बताता हूँ ।। १३-१४ ।। 

परित्यजेयं त्रैलोक्यं राज्यं देवेषु वा पुन: । 

यद्‌ वाप्यधिकमेताभ्यां न तु सत्यं कथंचन ।। १५ ।। 

“मैं तीनों लोकोंका राज्य, देवताओंका साम्राज्य अथवा इन दोनोंसे भी अधिक 
महत्त्वकी वस्तुको भी एकदम त्याग सकता हूँ, परंतु सत्यको किसी प्रकार नहीं छोड़ 
सकता || १५ || 

त्यजेच्च पृथ्वी गन्धमापश्च रसमात्मन: । 

ज्योतिस्तथा त्यजेद्‌ रूप॑ वायु: स्पर्शगुणं त्यजेत्‌ ।। १६ ।। 

“पृथ्वी अपनी गंध छोड़ दे, जल अपने रसका परित्याग कर दे, तेज रूपका और वायु 
स्पर्श नामक स्वाभाविक गुणका त्याग कर दे ।। १६ ।। 

प्रभां समुत्सृजेदर्को धूमकेतुस्तथोष्मताम्‌ | 

त्यजेच्छब्दं तथा55काशं॑ सोम: शीतांशुतां त्यजेत्‌ ।। १७ ।। 

'सूर्य प्रभा और अग्नि अपनी उष्णताको छोड़ दे, आकाश शब्दका और चन्द्रमा अपनी 
शीतलताका परित्याग कर दे || १७ ।। 

विक्रमं वृत्रहा जह्ाद्‌ धर्म जह्याच्च धर्मराट्‌ । 

न त्वहं सत्यमुत्स्रष्ठं व्यवसेयं कथंचन ।। १८ ।। 

“इन्द्र पराक्रमको छोड़ दें और धर्मराज धर्मकी उपेक्षा कर दें; परंतु मैं किसी प्रकार 
सत्यको छोड़नेका विचार भी नहीं कर सकता ।। १८ ।। 

(तन्न जात्वन्यथा कुर्या लोकानामपि संक्षये । 

अमरत्वस्य वा हेतोस्त्रैलोक्यसदनस्य वा ।। 

एवमुक्ता तु पुत्रेण भूरिद्रविणतेजसा ।) 

माता सत्यवती भीष्ममुवाच तदनन्तरम्‌ ।। १९ ।। 

जानामि ते स्थितिं सत्ये परां सत्यपराक्रम । 

इच्छन्‌ सृजेथास्त्रीललोकानन्यांस्त्वं स्वेन तेजसा ।। २० ।। 

जानामि चैवं सत्यं तन्मदर्थे यच्च भाषितम्‌ । 

आपद्धर्म त्वमावेक्ष्य वह पैतामहीं धुरम्‌ ।। २१ ।। 

“सारे संसारका नाश हो जाय, मुझे अमरत्व मिलता हो या त्रिलोकीका राज्य प्राप्त हो, 
तो भी मैं अपने किये हुए प्रणको नहीं तोड़ सकता।” महान्‌ तेजोरूप धनसे सम्पन्न अपने 
पुत्र भीष्मके ऐसा कहनेपर माता सत्यवती इस प्रकार बोली--“बेटा! तुम सत्यपराक्रमी हो। 


मैं जानती हूँ, सत्यमें तुम्हारी दृढ़ निष्ठा है। तुम चाहो तो अपने ही तेजसे नयी त्रिलोकीकी 
रचना कर सकते हो। मैं उस सत्यको भी नहीं भूल सकी हूँ, जिसकी तुमने मेरे लिये घोषणा 
की थी। फिर भी मेरा आग्रह है कि तुम आपद्धर्मका विचार करके बाप-दादोंके दिये हुए इस 
राज्यभारको वहन करो ।। १९--२१ ।। 

यथा ते कुलतन्तुश्न धर्मश्व न पराभवेत्‌ । 

सुहृदश्न प्रह्ृष्येरंस्तथा कुरु परंतप ।। २२ ।। 

“परंतप! जिस उपायसे तुम्हारे वंशकी परम्परा नष्ट न हो, धर्मकी भी अवहेलना न होने 
पावे और प्रेमी सुहृद्‌ भी संतुष्ट हो जाये, वही करो” ।। २२ ।। 

लालप्यमानां तामेवं कृपणां पुत्रगृद्धिनीम्‌ 

धर्मादपेतं ब्रुवतीं भीष्मो भूयो5ब्रवीदिदम्‌ ।। २३ ।। 

पुत्रकी कामनासे दीन वचन बोलनेवाली और मुखसे धर्मरहित बात कहनेवाली 
सत्यवतीसे भीष्मने फिर यह बात कही-- ।। २३ || 

राज्ञि धर्मानवेक्षस्व मा नः सर्वान्‌ व्यनीनश: । 

सत्याच्च्युति: क्षत्रियस्य न धर्मेषु प्रशस्यते || २४ ।। 

“राजमाता! धर्मकी ओर दृष्टि डालो, हम सबका नाश न करो। क्षत्रियका सत्यसे 
विचलित होना किसी भी धर्ममें अच्छा नहीं माना गया है || २४ ।। 

शान्तनोरपि संतान यथा स्यादक्षयं भुवि | 

तत्‌ ते धर्म प्रवक्ष्यामि क्षात्रं राज्ञि सनातनम्‌ ।। २५ ।। 

“राजमाता! महाराज शान्तनुकी संतानपरम्परा भी जिस उपायसे इस भूतलपर अक्षय 
बनी रहे, वह धर्मयुक्त उपाय मैं तुम्हें बतलाऊँगा। वह सनातन क्षत्रियधर्म है ।। २५ ।। 

श्र॒त्वा तं प्रतिपद्यस्व प्राज्जै: सह पुरोहितै: । 

आपद्धर्मार्थकुशलैलोकतलन्त्रमवेक्ष्य च | २६ ।। 

उसे आपद्धर्मके निर्णयमें कुशल विद्वान्‌ पुरोहितोंसे सुनकर और लोकतन्‍्त्रकी ओर भी 
देखकर निश्चय करो ।। २६ ।। 

इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीष्मसत्यवतीसंवादे 
त्रयधिकशततमो<ध्याय: ।। १०३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें भीष्म-सत्यवती-संवादविषयक 
एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०३ ॥। 


ऑपन--माजल छा अकाल 


चतुर्राधिकशततमो< ध्याय: 


भीष्मकी सम्मतिसे सत्यवतीद्वारा व्यासका 

आवाहन और व्यासजीका माताकी आज्ञासे 
कुरुवंश-की वृद्धिके लिये विचित्रवीर्यकी पत्नियोंके 

गर्भसे संतानोत्पादन करनेकी स्वीकृति देना 


भीष्म उवाच 

पुनर्भरतवंशस्य हेतुं संतानवृद्धये । 

वक्ष्यामि नियतं मातस्तन्मे निगदत: शूणु ।। १ ।। 

ब्राह्मणो गुणवान्‌ कश्चिद्‌ धनेनोपनिमन्त्रयताम्‌ । 

विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु यः समुत्पादयेत्‌ प्रजा: ।। २ ।॥। 

भीष्मजी कहते हैं--मात:! भरतवंशकी संतानपरम्पराको बढ़ाने और 
सुरक्षित रखनेके लिये जो नियत उपाय है, उसे मैं बता रहा हूँ; सुनो। किसी 
गुणवान्‌- ब्राह्मणको धन देकर बुलाओ, जो विचित्रवीर्यकी स्त्रियोंके गर्भसे 
संतान उत्पन्न कर सके ।। १-२ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


ततः सत्यवती भीष्मं वाचा संसज्जमानया । 

विहसन्तीव सत्रीडमिदं वचनमब्रवीत्‌ ।। ३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब सत्यवती कुछ हँसती और साथ 
ही लजाती हुई भीष्मजीसे इस प्रकार बोली। बोलते समय उसकी वाणी 
संकोचसे कुछ अस्पष्ट-सी हो जाती थी ।। ३ ।। 

सत्यमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत । 

विश्वासात्‌ ते प्रवक्ष्यामि संतानाय कुलस्य न: ।। ४ ।। 

उसने कहा--“महाबाहु भीष्म! तुम जैसा कहते हो वही ठीक है। तुमपर 
विश्वास होनेसे अपने कुलकी संततिकी रक्षाके लिये तुम्हें मैं एक बात बतलाती 
हूँ ।। ४ ।। 

न ते शक्‍्यमनाख्यातुमापद्धर्म तथाविधम्‌ । 

त्वमेव नः कुले धर्मस्त्वं सत्यं त्वं परा गति: ।। ५ ।। 

'ऐसे आपद्धर्मको देखकर वह बात तुम्हें बताये बिना मैं नहीं रह सकती। 
तुम्हीं हमारे कुलमें मूर्तिमान्‌ धर्म हो, तुम्हीं सत्य हो और तुम्हीं परम गति 


हो ॥। ५ |। 

तस्मान्निशम्य सत्यं मे कुरुष्व यदनन्तरम्‌ । 

(यस्तु राजा वसुर्नाम श्रुतस्ते भरतर्षभ । 

तस्य शुक्रादहं मत्स्याद्‌ धृता कुक्षौ पुरा किल ।। 

मातरं मे जलाद्धृत्वा दाश: परमधर्मवित्‌ | 

मां तु स्वगृहमानीय दुहितृत्वे हुकल्पयत्‌ ।।) 

धर्मयुक्तस्य धर्मार्थ पितुरासीत्‌ तरी मम ।। ६ ।। 

“अतः मेरी सच्ची बात सुनकर उसके बाद जो कर्तव्य हो, उसे करो। 

“भरतश्रेष्ठ! तुमने महाराज वसुका नाम सुना होगा। पूर्वकालमें मैं उन्हींके 
वीर्यसे उत्पन्न हुई थी। मुझे एक मछलीने अपने पेटमें धारण किया था। एक 
परम धर्मज्ञ मल्‍लाहने जलमेंसे मेरी माताको पकड़ा, उसके पेटसे मुझे निकाला 
और अपने घर लाकर अपनी पुत्री बनाकर रखा। मेरे उन धर्मपरायण पिताके 
पास एक नौका थी, जो (धनके लिये नहीं) धर्मार्थ चलायी जाती थी ।। ६ ।। 

सा कदाचिदहं तत्र गता प्रथमयौवनम्‌ । 

अथ धर्मविदां श्रेष्ठ: परमर्षि: पराशर: ।। ७ ।। 

आजगाम तरीं धीमांस्तरिष्यन्‌ यमुनां नदीम्‌ । 

स तार्यमाणो यमुनां मामुपेत्याब्रवीत्‌ तदा ॥। ८ ।। 

सान्त्वपूर्व मुनिश्रेष्ठ: कामार्तो मधुरं वच: । 

उक्त जन्म कुलं महामस्मि दाशसुतेत्यहम्‌ ।। ९ ।। 

“एक दिन मैं उसी नावपर गयी हुई थी। उन दिनों मेरे यौवनका प्रारम्भ था। 
उसी समय थधर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ बुद्धिमान्‌ महर्षि पराशर यमुना नदी पार करनेके लिये 
मेरी नावपर आये। मैं उन्हें पार ले जा रही थी, तबतक वे मुनिश्रेष्ठ काम-पीड़ित 
हो मेरे पास आ मुझे समझाते हुए मधुर वाणीमें बोले और उन्होंने मुझसे अपने 
जन्म और कुलका परिचय दिया। इसपर मैंने कहा--'भगवन्‌! मैं तो निषादकी 
पुत्री हूँ" || ७--९ ।। 

तमहं शापभीता च पितुर्भीता च भारत । 

वरैरसुलभैरुक्ता न प्रत्याख्यातुमुत्सहे || १० ।। 

“भारत! एक ओर मैं पिताजीसे डरती थी और दूसरी ओर मुझे मुनिके 
शापका भी डर था। उस समय महर्षिने मुझे दुर्लभ वर देकर उत्साहित किया, 
जिससे मैं उनके अनुरोधको टाल न सकी ।। १० ।। 

अभिभूय स मां बालां तेजसा वशमानयत्‌ । 

तमसा लोकमावृत्य नौगतामेव भारत ।। १३१ ।। 

मत्स्यगन्धो महानासीत्‌ पुरा मम जुगुप्सित: । 


तमपास्य शुभं गन्धमिमं प्रादात्‌ स मे मुनि: ।। १२ ।। 

“यद्यपि मैं चाहती नहीं थी, तो भी उन्होंने मुझ अबलाको अपने तेजसे 
तिरस्कृत करके नौकापर ही मुझे अपने वशमें कर लिया। उस समय उन्होंने 
कुहरा उत्पन्न करके सम्पूर्ण लोकको अन्धकारसे आवृत कर दिया था। भारत! 
पहले मेरे शरीरसे अत्यन्त घृणित मछलीकी-सी बड़ी तीव्र दुर्गन्ध आती थी। 
उसको मिटाकर मुनिने मुझे यह उत्तम गन्ध प्रदान की थी ।। ११-१२ ।। 

ततो मामाह स मुनिर्गर्भमुत्सूज्य मामकम्‌ । 

द्वीपेडस्या एव सरित: कन्यैव त्वं भविष्यसि ।। १३ ।। 

“तदनन्तर मुनिने मुझसे कहा--'तुम इस यमुनाके ही द्वीपमें मेरे द्वारा 
स्थापित इस गर्भको त्यागकर फिर कन्या ही हो जाओगी” ।। १३ ।। 

पाराशर्यों महायोगी स बभूव महानृषि: । 

कन्यापुत्रो मम पुरा द्वैपायन इति श्रुत: ॥। १४ ।। 

“उस गर्भसे पराशरजीके पुत्र महान्‌ योगी महर्षि व्यास प्रकट हुए। वे ही 
द्वैपायन नामसे विख्यात हैं। वे मेरे कन्यावस्थाके पुत्र हैं || १४ ।। 

यो व्यस्य वेदांश्षतुरस्तपसा भगवानृषि: । 

लोके व्यासत्वमापेदे कार्ष्ण्यात्‌ कृष्णत्वमेव च ।। १५ ।। 

“वे भगवान्‌ द्वैपायन मुनि अपने तपोबलसे चारों वेदोंका पृथक्‌ू-पृथक्‌ 
विस्तार करके लोकमें “व्यास” पदवीको प्राप्त हुए हैं। शरीरका रंग साँवला 
होनेसे उन्हें लोग “कृष्ण” भी कहते हैं || १५ ।। 

सत्यवादी शमपरस्तपस्वी दग्धकिल्बिष: । 

समुत्पन्न: स तु महान्‌ सह पित्रा ततो गतः ।। १६ ।। 

“वे सत्यवादी, शान्त, तपस्वी और पापशान्य हैं। वे उत्पन्न होते ही बड़े होकर 
उस द्वीपसे अपने पिताके साथ चले गये थे ।। १६ ।। 

स नियुक्तो मया व्यक्त त्वया चाप्रतिमद्युति: । 

भ्रातुः क्षेत्रेषु कल्याणमपत्यं जनयिष्यति ।। १७ ।। 

“मेरे और तुम्हारे आग्रह करनेपर वे अनुपम तेजस्वी व्यास अवश्य ही अपने 
भाईके क्षेत्रमें कल्याणकारी संतान उत्पन्न करेंगे || १७ ।। 

स हि मामुक्तवांस्तत्र स्मरे: कृच्छेषु मामिति । 

त॑ स्मरिष्ये महाबाहो यदि भीष्म त्वमिच्छसि ।। १८ ।। 

उन्होंने जाते समय मुझसे कहा था कि संकटके समय मुझे याद करना। 
महाबाहु भीष्म! यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं उन्हींका स्मरण करूँ || १८ ।। 

तव हानुमते भीष्म नियतं स महातपा: । 

विचित्रवीर्य क्षेत्रेषु पुत्रानुत्पादयिष्यति ।। १९ ।। 


'भीष्म! तुम्हारी अनुमति मिल जाय, तो महा-तपस्वी व्यास निश्चय ही 
विचित्रवीर्यकी स्त्रियोंसे पुत्रोंको उत्पन्न करेंगे” || १९ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


महर्षे: कीर्तने तस्य भीष्म: प्राउजलिरब्रवीत्‌ । 

धर्ममर्थ च काम॑ च त्रीनेतान्‌ यो5नुपश्यति ।। २० ।। 

अर्थमर्थनुबन्धं च धर्म धर्मानुबन्धनम्‌ | 

काम कामानुबन्धं च विपरीतान्‌ पृथक्‌ पृथक्‌ ।। २१ ।। 

यो विचिन्त्य धिया धीरो व्यवस्यति स बुद्धिमान । 

तदिदं धर्मयुक्त च हितं चैव कुलस्य न: ।। २२ ।। 

उक्त भवत्या यच्छेयस्तन्महां रोचते भृशम्‌ । 

वैशम्पायनजी कहते हैं--महर्षि व्यासका नाम लेते ही भीष्मजी हाथ 
जोड़कर बोले--“माताजी! जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम--इन तीनोंका 
बारंबार विचार करता है तथा यह भी जानता है कि किस प्रकार अर्थसे अर्थ, 
धर्मसे धर्म और कामसे कामरूप फलकी प्राप्ति होती है और वह परिणाममें 
कैसे सुखद होता है तथा किस प्रकार अर्थादिके सेवनसे विपरीत फल (अर्थनाश 
आदि) प्रकट होते हैं, इन बातोंपर पृथक्‌ू-पृथक्‌ भलीभाँति विचार करके जो धीर 
पुरुष अपनी बुद्धिके द्वारा कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करता है, वही बुद्धिमान है। 
तुमने जो बात कही है, वह धर्मयुक्त तो है ही, हमारे कुलके लिये भी हितकर 
और कल्याणकारी है; इसलिये मुझे बहुत अच्छी लगी है” || २०--२२ ३ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


ततस्तस्मिन्‌ प्रतिज्ञाते भीष्मेण कुरुनन्दन ।। २३ ।। 

कृष्णद्वैपायनं काली चिन्तयामास वै मुनिम्‌ | 

स वेदान्‌ विन्रुवन्‌ धीमान्‌ मातुर्विज्ञाय चिन्तितम्‌ ।। २४ ।। 

प्रादुर्बभूवाविदित: क्षणेन कुरुनन्दन । 

तस्मै पूजां ततः कृत्वा सुताय विधिपूर्वकम्‌ ।। २५ ।। 

परिष्वज्य च बाहुभ्यां प्रस्नरवैरभ्यषिज्चत । 

मुमोच बाष्प॑ दाशेयी पुत्र दृष्टवा चिरस्य तु ।। २६ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--कुरुनन्दन! उस समय भीष्मजीके इस प्रकार 
अपनी सम्मति देनेपर काली (सत्यवती)-ने मुनिवर कृष्णद्वैपायनका चिन्तन 
किया। जनमेजय! माताने मेरा स्मरण किया है, यह जानकर परम बुद्धिमान्‌ 
व्यासजी वेदमन्त्रोंका पाठ करते हुए क्षणभरमें वहाँ प्रकट हो गये। वे कब 
किधरसे आ गये, इसका पता किसीको न चला। सत्यवतीने अपने पुत्रका 


भलीभाँति सत्कार किया और दोनों भुजाओंसे उनका आलिंगन करके अपने 
स्तनोंके झरते हुए दूधसे उनका अभिषेक किया। अपने पुत्रको दीर्घकालके बाद 
देखकर सत्यवतीकी आँखोंसे स्नेह और आनन्दके आँसू बहने लगे || २३-- 
२६ || 

तामद्धिः परिषिच्यार्ता महर्षिरभिवाद्य च । 

मातरं पूर्वज: पुत्रो व्यासो वचनमब्रवीत्‌ ।। २७ ।। 

तदनन्तर सत्यवतीके प्रथम पुत्र महर्षि व्यासने अपने कमण्डलुके पवित्र 
जलसे दुःखिनी माताका अभिषेक किया और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार 
कहा-- || २७ ।। 

भवत्या यदभिप्रेतं तदहं कर्तुमागतः । 

शाधि मां धर्मतत्त्वज्ञे करवाणि प्रियं तव ।। २८ ।। 

“धर्मके तत्त्वको जाननेवाली माताजी! आपकी जो हार्दिक इच्छा हो, उसके 
अनुसार कार्य करनेके लिये मैं यहाँ आया हूँ। आज्ञा दीजिये, मैं आपकी कौन-सी 
प्रिय सेवा करूँ || २८ ।। 

तस्मै पूजां ततो$कार्षीत्‌ पुरोधा: परमर्षये । 

सचतां प्रतिजग्राह विधिवन्मन्त्रपूर्वकम्‌ ।। २९ ।। 

तत्पश्चात्‌ पुरोहितने महर्षिका विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारणके साथ पूजन किया 
और महर्षिने उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया ।। २९ ।। 

पूजितो मन्त्रपूर्व तु विधिवत्‌ प्रीतिमाप सः । 

तमासनगतं माता पृष्टवा कुशलमव्ययम्‌ ।। ३० ।। 

सत्यवत्यथ वीक्ष्यैनमुवाचेदमनन्तरम्‌ । 

विधि और मन्त्रोच्चारणपूर्वक की हुई उस पूजासे व्यासजी बहुत प्रसन्न हुए। 
जब वे आसनपर बैठ गये, तब माता सत्यवतीने उनका कुशल-क्षेम पूछा और 
उनकी ओर देखकर इस प्रकार कहा-- || ३०३ ।। 

मातापित्रो: प्रजायन्ते पुत्रा: साधारणा: कवे ।। ३१ ।। 

तेषां पिता यथा स्वामी तथा माता न संशय: । 

विधानविहित: सत्यं यथा मे प्रथम: सुतः ।। ३२ ।। 

विचित्रवीर्यों ब्रह्मर्षे तथा मेडवरज: सुत: । 

यथैव पितृतो भीष्मस्तथा त्वमपि मातृत: ।। ३३ ।। 

भ्राता विचित्रवीर्यस्य यथा वा पुत्र मन्यसे । 

अयं शान्तनव: सत्यं पालयन्‌ सत्यविक्रम: ।। ३४ ।। 

“विद्वन! माता और पिता दोनोंसे पुत्रोंका जन्म होता है, अत: उनपर 
दोनोंका समान अधिकार है। जैसे पिता पुत्रोंका स्वामी है, उसी प्रकार माता भी 


है। इसमें संदेह नहीं है। ब्रह्मर्ष! विधाताके विधान या मेरे पूर्वजन्मोंके पुण्यसे 
जिस प्रकार तुम मेरे प्रथम पुत्र हो, उसी प्रकार विचित्रवीर्य मेरा सबसे छोटा पुत्र 
था। जैसे एक पिताके नाते भीष्म उसके भाई हैं, उसी प्रकार एक माताके नाते 
तुम भी विचित्रवीर्यके भाई ही हो। बेटा! मेरी तो ऐसी ही मान्यता है; फिर तुम 
जैसा समझो। ये सत्यपराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म सत्यका पालन कर रहे 
हैं || ३१--३४ ।। 

बुद्धि न कुरुतेडपत्ये तथा राज्यानुशासने । 

सत्वं व्यपेक्षया भ्रातु:ः संतानाय कुलस्य च ।। ३५ ।। 

भीष्मस्य चास्य वचनान्नियोगाच्च ममानघ । 

अनुक्रोशाच्च भूतानां सर्वेषां रक्षणाय च ।। ३६ ।। 

आनृशंस्याच्च यद्‌ ब्रूयां तच्छुत्वा कर्तुमहसि । 

यवीयसस्तव क्रातुर्भार्ये सुरसुतोपमे || ३७ ।। 

रूपयौवनसम्पन्ने पुत्रकामे च धर्मत: । 

तयोरुत्पादयापत्यं समर्थों हूसि पुत्रक ।। ३८ ।। 

अनुरूप॑ं कुलस्यास्य संतत्या: प्रसवस्य च । 

“अनघ! संतानोत्पादन तथा राज्य-शासन करनेका इनका विचार नहीं है; 
अतः तुम अपने भाईके पारलौकिक हितका विचार करके तथा कुलकी 
संतानपरम्पराकी रक्षाके लिये भीष्मके अनुरोध और मेरी आज्ञासे सब 
प्राणियोंपर दया करके उनकी रक्षा करनेके उद्देश्य्से और अपने अन्त:करणकी 
कोमल वृत्तिको देखते हुए मैं जो कुछ कहूँ, उसे सुनकर उसका पालन करो। 
तुम्हारे छोटे भाईकी पत्नियाँ देवकन्याओंके समान सुन्दर रूप तथा युवावस्थासे 
सम्पन्न हैं। उनके मनमें धर्मतः पुत्र पानेकी कामना है। पुत्र! तुम इसके लिये 
समर्थ हो, अत: उन दोनोंके गर्भसे ऐसी संतानोंको जन्म दो, जो इस 
कुलपरम्पराकी रक्षा तथा वृद्धिके लिये सर्वथा सुयोग्य हों! ।। ३५--३८ ह ।। 

व्यास उवाच 


वेत्थ धर्म सत्यवति परं चापरमेव च ।॥। ३९ |।। 
तथा तव महाप्राज्ञे धर्मे प्रणिहिता मति: । 
तस्मादहं त्वन्नियोगाद्‌ धर्ममुद्दिश्य कारणम्‌ ।। ४० ।। 
ईप्सितं ते करिष्यामि दृष्टं होतत्‌ सनातनम्‌ । 
भ्रातुः पुत्रान्‌ प्रदास्यामि मित्रावरुणयो: समान्‌ ।। ४१ |। 
व्यासजीने कहा--माता सत्यवती! आप पर और अपर दोनों प्रकारके 
धर्मोंको जानती हैं। महाप्राज्ञे! आपकी बुद्धि सदा धर्ममें लगी रहती है। अतः मैं 


आपकी अज्ञासे धर्मको ही दृष्टिमें रखकर (कामके वश न होकर ही) आपकी 
इच्छाके अनुरूप कार्य करूँगा। यह सनातन मार्ग शास्त्रोंमें देखा गया है। मैं 
अपने भाईके लिये मित्र और वरुणके समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करूँगा ।। ३९ 
“४१ ।। 

व्रतं चरेतां ते देव्यौ निर्दिष्टमिह यन्मया । 

संवत्सरं यथान्यायं ततः शुद्धे भविष्यत: ।। ४२ ।। 

न हि मामव्रतोपेता उपेयात्‌ काचिदड़ना । 

विचित्रवीर्यकी स्त्रियोंको मेरे बताये अनुसार एक वर्षतक विधिपूर्वक व्रत 
(जितेन्द्रिय होकर केवल संतानार्थ साधन) करना होगा, तभी वे शुद्ध होंगी। 
जिसने व्रतका पालन नहीं किया है, ऐसी कोई भी स्त्री मेरे समीप नहीं आ 
सकती || ४२६ || 


सत्यवत्युवाच 


सद्यो यथा प्रपद्येते देव्यौ गर्भ तथा कुरु || ४३ ।। 

सत्यवतीने कहा--बेटा! ये दोनों रानियाँ जिस प्रकार शीघ्र गर्भ धारण करें, 
वह उपाय करो ।। ४३ ।। 

अराजकेषु राष्ट्रेषु प्रजानाथा विनश्यति । 

नश्यन्ति च क्रिया: सर्वा नास्ति वृष्टिन देवता ।। ४४ ।। 

राज्यमें इस समय कोई राजा नहीं है। बिना राजाके राज्यकी प्रजा अनाथ 
होकर नष्ट हो जाती है। यज्ञ-दान आदि क्रियाएँ भी लुप्त हो जाती हैं। उस 
राज्यमें न वर्षा होती है, न देवता वास करते हैं ।। ४४ ।। 

कथं चाराजंक राष्ट्र शक्‍्यं धारयितु प्रभो । 

तस्माद्‌ गर्भ समाधत्स्व भीष्म: संवर्धयिष्यति ।। ४५ ।। 

प्रभो! तुम्हीं सोचो, बिना राजाका राज्य कैसे सुरक्षित और अनुशासित रह 
सकता है। इसलिये शीघ्र गर्भाधान करो। भीष्म बालकको पाल-पोसकर बड़ा 
कर लेंगे ।। ४५ ।। 


व्यास उवाच 


यदि पुत्र: प्रदातव्यो मया भ्रातुरकालिक: । 

विरूपतां मे सहतां तयोरेतत्‌ परं व्रतम्‌ ।। ४६ ।। 

व्यासजी बोले--माँ! यदि मुझे समयका नियम न रखकर शीघ्र ही अपने 
भाईके लिये पुत्र प्रदान करना है, तो उन देवियोंके लिये यह उत्तम व्रत आवश्यक 
है कि वे मेरे असुन्दर रूपको देखकर शान्त रहें, डरे नहीं || ४६ ।। 

यदि मे सहते गन्ध॑ रूप॑ वेषं तथा वपु: । 


अद्यैव गर्भ कौसल्या विशिष्ट प्रतिपद्यताम्‌ ।। ४७ ।। 
यदि कौसल्या (अम्बिका) मेरे गन्ध, रूप, वेष और शरीरको सहन कर ले तो 
वह आज ही एक उत्तम बालकको अपने गर्भमें पा सकती है || ४७ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्‍क्त्वा महातेजा व्यास: सत्यवतीं तदा | 

शयने सा च कौसल्या शुचिवस्त्रा हालंकृता ॥। ४८ ।। 

समागमनमाकाड्क्षेदिति सो<न्तर्हितो मुनि: । 

ततो5भिगम्य सा देवी स्नुषां रहसि संगताम्‌ ।। ४९ ।। 

धर्म्यमर्थसमायुक्तमुवाच वचन हितम्‌ | 

कौसल्ये धर्मतन्त्र॑ त्वां यद्‌ ब्रवीमि निबोध तत्‌ ।। ५० ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! ऐसा कहनेके बाद महातेजस्वी 
मुनिश्रेष्ठ व्यासजी सत्यवतीसे फिर “अच्छा तो कौसल्या (ऋतु-स्नानके पश्चात) 
शुद्ध वस्त्र और शृंगार धारण करके शय्यापर मिलनकी प्रतीक्षा करे” यों कहकर 
अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर देवी सत्यवतीने एकान्तमें आयी हुई अपनी पुत्रवधू 
अम्बिकाके पास जाकर उससे (आपद्‌) धर्म और अर्थसे युक्त हितकारक वचन 
कहा--“कौसल्ये! मैं तुमसे जो धर्मसंगत बात कह रही हूँ, उसे ध्यान देकर 
सुनो || ४८--५० || 

भरतानां समुच्छेदो व्यक्त मद्धाग्यसंक्षयात्‌ 

व्यथितां मां च सम्प्रेक्ष्य पितृवंशं च पीडितम्‌ ।। ५१ ।। 

भीष्मो बुद्धिमदान्महाां कुलस्यास्य विवृद्धये । 

साच बुद्धिस्त्वय्यधीना पुत्रि प्रापपय मां तथा ।। ५२ ।। 

“मेरे भाग्यका नाश हो जानेसे अब भरतवंशका उच्छेद हो चला है, यह स्पष्ट 
दिखायी दे रहा है। इसके कारण मुझे व्यथित और पितृकुलको पीड़ित देख 
भीष्मने इस कुलकी वृद्धिके लिये मुझे एक सम्मति दी है। बेटी! उस सम्मतिकी 
सार्थकता तुम्हारे अधीन है। तुम भीष्मके बताये अनुसार मुझे उस अवस्थामें 
पहुँचाओ, जिससे मैं अपने अभीष्टकी सिद्धि देख सकूँ ।। ५१-५२ ।। 

नष्टं च भारतं वंशं पुनरेव समुद्धर । 

पुत्र जनय सुश्रोणि देवराजसमप्र भम्‌ ।। ५३ ।। 

स हि राज्यथुरं गुर्वीमुद्रक्ष्यति कुलस्य न: । 

'सुश्रोणि! इस नष्ट होते हुए भरतवंशका पुनः उद्धार करो। तुम देवराज 
इन्द्रके समान एक तेजस्वी पुत्रको जन्म दो। वही हमारे कुलके इस महान्‌ 
राज्यभारको वहन करेगा” ।। ५३३ ।। 


सा धर्मतो<नुनीयैनां कथंचिद्‌ धर्मचारिणीम्‌ | 

भोजयामास वितष्रांश्र देवर्षीनतिथींस्तथा ।। ५४ ।। 

कौसल्या धर्मका आचरण करनेवाली थी। सत्यवतीने धर्मको सामने रखकर 
ही उसे किसी प्रकार समझा-बुझाकर (बड़ी कठिनतासे) इस कार्यके लिये तैयार 
किया। उसके बाद ब्राह्मणों, देवर्षियों तथा अतिथियोंको भोजन 
कराया ।। ५४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि सत्यवत्युपदेशे 
चतुरधिकशततमो<ध्याय: ।। १०४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वर्में सत्यवती- 
उपदेशविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०४ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५६ श्लोक हैं) 


#फशा न () आफ अत+- 


> यहाँ गुणवानका अर्थ है--नियोगकी विधिको जाननेवाला संयमी पुरुष। मनु महाराजने स्त्रियोंके 
आपद्धर्मके प्रसंगमें लिखा है-- 
विधवायां नियुक्तस्तु घृताक्तो वाग्यतो निशि । एकमुत्पादयेत्‌ पुत्रं न द्वितीयं कथंचन ।। 
(मनुस्मृति ९।६१) 
विधवा स्त्रीके साथ सहवासके लिये (पतिपक्षके गुरुजनोंद्वारा) नियुक्त पुरुष अपने सारे शरीरपर घी 
चुपड़कर (सौन्दर्य बिगाड़कर), वाणीको संयममें रखकर (चुपचाप रहकर) रात्रिमें सहवास करे। इस प्रकार 
वह एक ही पुत्र उत्पन्न करे, दूसरा कभी न करे। 
विधवायां नियोगार्थे निर्वुत्ते तु यथाविधि । गुरुवच्च स्नुषावच्च वर्तेयातां परस्परम्‌ |। 
(मनुस्मृति ९।६३) 
विधवामें नियोगके लिये विधिके अनुसार (अर्थात्‌ कामवश न होकर कर्तव्य बुद्धिसे) चित्तको संयमित 
और इन्द्रियोंको अनासक्त रखते हुए नियोगका प्रयोजन सिद्ध हो जानेपर दोनों परस्पर पिता और पुत्रवधूके 
समान बर्ताव करें (अर्थात्‌ स्त्री उसको पिताके समान समझकर बरते और पुरुष उसे पुत्रवधूके समान 
मानकर बर्ताव करे)। 
कलियुगमें मनुष्योंक असंयमी और कामी होनेके कारण नियोग वर्जित है। 


पञ्चाधिकशततमोब< ध्याय: 


व्यासजीके द्वारा विचित्रवीर्यके क्षेत्रसे धृतराष्ट्र, पाण्डु और 
विदुरकी उत्पत्ति 


वैशम्पायन उवाच 


ततः सत्यवती काले वधू स्नातामृतौ तदा । 

संवेशयन्ती शयने शनैर्वचनमब्रवीत्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तदनन्तर सत्यवती ठीक समयपर अपनी 
ऋतुस्नाता पुत्रवधूको शय्यापर बैठाती हुई धीरेसे बोली-- ।। १ ।। 

कौसल्ये देवरस्ते5स्ति सोडउ्द्य त्वानुप्रवेक्ष्यति । 

अप्रमत्ता प्रतीक्षेनं निशीथे ह्वागमिष्यति ।। २ ।। 

“कौसल्पे! तुम्हारे एक देवर हैं, वे ही आज तुम्हारे पास गर्भाधानके लिये आयेंगे। तुम 
सावधान होकर उनकी प्रतीक्षा करो। वे ठीक आधी रातके समय यहाँ पधारेंगे” ।। २ ।। 

श्वश्वास्तद्‌ वचन श्रुत्वा शयाना शयने शुभे । 

साचिन्तयत्‌ तदा भीष्ममन्यांश्व॒ कुरुपुड्रवान्‌ ॥। ३ ।॥। 

सासकी यह बात सुनकर कौसल्या पवित्र शय्यापर शयन करके उस समय मन-ही-मन 
भीष्म तथा अन्य श्रेष्ठ कुरुवंशियोंका चिन्तन करने लगी ।। ३ ।। 

ततोअम्बिकायां प्रथमं नियुक्त: सत्यवागृषि: । 

दीप्यमानेषु दीपेषु शरणं प्रविवेश ह ।। ४ ।। 

उस समय नियोगविधिके अनुसार सत्यवादी महर्षि व्यासने अम्बिकाके महलमें 
(शरीरपर घी चुपड़े हुए, संयतचित्त, कुत्सित रूपमें) प्रवेश किया। उस समय बहुत-से 
दीपक वहाँ प्रकाशित हो रहे थे ।। ४ ।। 

तस्य कृष्णस्य कपिलां जटां दीप्ते च लोचने । 

बशभ्ूणि चैव श्मश्रूणि दृष्टवा देवी न्यमीलयत्‌ ।। ५ ।। 

व्यासजीके शरीरका रंग काला था, उनकी जटाएँ पिंगलवर्णकी और आँखें चमक रही 
थीं तथा दाढ़ी-मूँछ भूरे रंगकी दिखायी देती थी। उन्हें देखकर देवी कौसल्याने (भयके मारे) 
अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये ।। ५ ।। 

सम्बभूव तया सार्ध मातु: प्रियचिकीर्षया । 

भयात्‌ काशिसुता तं॑ तु नाशक्नोदभिवीक्षितुम्‌ ।। ६ ।। 

माताका प्रिय करनेकी इच्छासे व्यासजीने उसके साथ समागम किया; परंतु 
काशिराजकी कन्या भयके मारे उनकी ओर अच्छी तरह देख न सकी || ६ |। 


ततो निष्क्रान्तमागम्य माता पुत्रमुवाच ह | 

अप्यस्या गुणवान्‌ पुत्र राजपुत्रो भविष्यति ।। ७ ।। 

जब व्यासजी उसके महलसे बाहर निकले, तब माता सत्यवतीने आकर उनसे पूछा 
--<बेटा! क्या अम्बिकाके गर्भसे कोई गुणवान्‌ राजकुमार उत्पन्न होगा?” ।। ७ |। 

निशम्य तद्‌ वचो मातुर्व्यास: सत्यवतीसुतः । 

नागायुतसमप्राणो विद्वान्‌ राजर्षिसत्तम: ।। ८ ।। 

महाभागो महावीर्यों महाबुद्धिर्भविष्यति । 

तस्य चापि शत पुत्रा भविष्यन्ति महात्मन: ।। ९ ।। 

माताका यह वचन सुनकर सत्यवतीनन्दन व्यासजी बोले--'माँ! वह दस हजार 
हाथियोंके समान बलवान, विद्वान, राजर्षियोंमें श्रेष्ठ परम सौभाग्यशाली, महापराक्रमी तथा 
अत्यन्त बुद्धिमान्‌ होगा। उस महामनाके भी सौ पुत्र होंगे || ८-९ ।। 

कि तु मातुः स वैगुण्यादन्ध एव भविष्यति । 

तस्य तद्‌ वचन श्रुत्वा माता पुत्रमथाब्रवीत्‌ ।। १० ।। 

नान्ध: कुरूणां नृपतिरनुरूपस्तपोधन । 

ज्ञातिवंशस्य गोप्तारं पितृणां वंशवर्धनम्‌ ।। ११ ।। 

द्वितीयं कुरुवंशस्य राजानं दातुमहसि । 

“किंतु माताके दोषसे वह बालक अन्धा ही होगा।” व्यासजीकी यह बात सुनकर 
माताने कहा--“तपोधन! कुरुवंशका राजा अन्धा हो यह उचित नहीं है। अतः कुरुवंशके 
लिये दूसरा राजा दो, जो जातिभाइयों तथा समस्त कुलका संरक्षक और पिताका वंश 
बढ़ानेवाला हो” || १०-११ $ || 

स तथेति प्रतिज्ञाय निश्चक्राम महायशा: ।। १२ || 

महायशस्वी व्यासजी “तथास्तु” कहकर वहाँसे निकल गये ।। १२ ।। 

सापि कालेन कौसल्या सुषुवे<न्ध॑ तमात्मजम्‌ । 

पुनरेव तु सा देवी परिभाष्य स्नुषां ततः ।। १३ ।। 

ऋषिमावाहयत्‌ सत्या यथा पूर्वमरिंदम । 

ततस्तेनैव विधिना महर्षिस्तामपद्यत ।। १४ ।। 

अम्बालिकामथाभ्यागादृषिं दृष्टवा च सापि तम्‌ । 

विवर्णा पाण्ड्संकाशा समपद्यत भारत | १५ ।। 

प्रसवका समय आनेपर कौसल्याने उसी अन्धे पुत्रको जन्म दिया। जनमेजय! 
तत्पश्चात्‌ देवी सत्यवतीने अपनी दूसरी पुत्रवधूको समझा-बुझाकर गर्भाधानके लिये तैयार 
किया और इसके लिये पूर्ववत्‌ महर्षि व्यासका आवाहन किया। फिर महर्षिने उसी 
(नियोगकी संयमपूर्ण) विधिसे देवी अम्बालिकाके साथ समागम किया। भारत! महर्षि 
व्यासको देखकर वह भी कान्तिहीन तथा पाण्डुवर्णकी-सी हो गयी || १३--१५ ।। 


तां भीतां पाण्डुसंकाशां विषण्णां प्रेक्ष्य भारत । 

व्यास: सत्यवतीपुत्र इदं वचनमत्रवीत्‌ ।। १६ ।। 

जनमेजय! उसे भयभीत, विषादग्रस्त तथा पाण्डु-वर्णकी-सी देख सत्यवतीनन्दन 
व्यासने यों कहा-- || १६ ।। 

यस्मात्‌ पाण्डुत्वमापन्ना विरूपं॑ प्रेक्ष्य मामिह । 

तस्मादेष सुतस्ते वै पाण्डुरेव भविष्यति ।। १७ ।। 

“अम्बालिके! तुम मुझे विरूप देखकर पाण्डुवर्णकीसी हो गयी थीं, इसलिये तुम्हारा 
यह पुत्र पाण्डु रंगका ही होगा ।। १७ ।। 

नाम चास्यैतदेवेह भविष्यति शुभानने । 

इत्युक्त्वा स निरक्रामद्‌ भगवानृषिसत्तम: ।। १८ ।। 

'शुभानने! इस बालकका नाम भी संसारमें 'पाण्ड” ही होगा।” ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ 
भगवान्‌ व्यास वहाँसे निकल गये ।। १८ ।। 

ततो निष्क्रान्तमालोक्य सत्या पुत्रमथाब्रवीत्‌ । 

शशंस स पुनर्मात्रि तस्य बालस्य पाण्डुताम्‌ ।। १९ ।। 

उस महलसे निकलनेपर सत्यवतीने अपने पुत्रसे उसके विषयमें पूछा। तब व्यासजीने 
मातासे भी उस बालकके पाण्डुवर्ण होनेकी बात बता दी || १९ ।। 

त॑ माता पुनरेवान्यमेकं पुत्रमयाचत । 

तथेति च महर्षिस्तां मातरं प्रत्यभाषत || २० ।। 

उसके बाद सत्यवतीने पुनः एक दूसरे पुत्रके लिये उनसे याचना की। महर्षिने “बहुत 
अच्छा” कहकर माताकी आज्ञा स्वीकार कर ली || २० ।। 

ततः कुमारं सा देवी प्राप्तकालमजीजनत्‌ । 

पाण्डुं लक्षणसम्पन्नं दीप्यमानमिव श्रिया ।। २१ ।। 

तदनन्तर देवी अम्बालिकाने समय आनेपर एक पाण्डुवर्णके पुत्रको जन्म दिया। वह 
अपनी दिव्य कान्तिसे उद्धासित हो रहा था ।। २१ ।। 

यस्य पुत्रा महेष्वासा जज्ञिरे पज्च पाण्डवा: | 

ऋतुकाले ततो ज्येष्ठां वधूं तस्मै न्ययोजयत्‌ ।। २२ ।। 

यह वही बालक था, जिसके पुत्र महाधनुर्धारी पाँच पाण्डव हुए। इसके बाद ऋतुकाल 
आनेपर सत्यवतीने अपनी बड़ी बहू अम्बिकाको पुनः व्यासजीसे मिलनेके लिये नियुक्त 
किया ।। २२ ।। 

सा तु रूपं च गन्धं च महर्षे: प्रविचिन्त्य तम्‌ । 

नाकरोदू वचन देव्या भयात्‌ सुरसुतोपमा ।। २३ ।। 

परंतु देवकन्याके समान सुन्दरी अम्बिकाने महर्षिके उस कुत्सित रूप और गन्धका 
चिन्तन करके भयके मारे देवी सत्यवतीकी आज्ञा नहीं मानी ।। २३ ।। 


ततः स्वैर्भूषणैर्दासीं भूषयित्वाप्सरोपमाम्‌ | 

प्रेषयामास कृष्णाय तत: काशिपते: सुता ।। २४ ।। 

काशिराजकी पुत्री अम्बिकाने अप्सराके समान सुन्दरी अपनी एक दासीको अपने ही 
आभूषणोंसे विभूषित करके काले-कलूटे महर्षि व्यासके पास भेज दिया ।। २४ ।। 

सा तमृषिमनुप्राप्तं प्रत्युद्‌गम्पाभिवाद्य च । 

संविवेशाभ्यनुज्ञाता सत्कृत्योपचचार ह ।। २५ ।। 

महर्षिके आनेपर उस दासीने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और उन्हें प्रणाम 
करके उनकी आज्ञा मिलनेपर वह शय्यापर बैठी और सत्कारपूर्वक उनकी सेवा-पूजा करने 
लगी ।। २५ || 

कामोपभोगेन रहस्तस्यां तुष्टिमगादृषि: । 

तया सहोषितो राजन्‌ महर्षि: संशितव्रत: ॥। २६ ।। 

उत्तिष्ठन्नब्रवीदेनाम भुजिष्या भविष्यसि । 

अयं च ते शुभे गर्भ: श्रेयानुदरमागत: । 

धर्मात्मा भविता लोके सर्वबुद्धिमतां वर: ।। २७ ।। 

एकान्तमें मिलकर उसपर महर्षि व्यास बहुत संतुष्ट हुए। राजन्‌! कठोर व्रतका पालन 
करनेवाले महर्षि जब उसके साथ शयन करके उठे, तब इस प्रकार बोले--'शुभे! अब तू 
दासी नहीं रहेगी। तेरे उदरमें एक अत्यन्त श्रेष्ठ बालक आया है। वह लोकमें धर्मात्मा तथा 
समस्त बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ होगा" || २६-२७ ।। 





स जज्ञे विदुरो नाम कृष्णद्वैपायनात्मज: । 

धृतराष्ट्रस्य वै भ्राता पाण्डोश्वैव महात्मन: ।। २८ ।। 

वही बालक विदुर हुआ, जो श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासका पुत्र था। एक पिताका होनेके 
कारण वह राजा धृतराष्ट्र और महात्मा पाण्डुका भाई था ।। २८ ।। 

धर्मो विदुररूपेण शापात्‌ तस्य महात्मन: । 

माण्डव्यस्यार्थतत्त्वज्ञ: कामक्रोधविवर्जित: ।। २९ ।। 

महात्मा माण्डव्यके शापसे साक्षात्‌ धर्मराज ही विदुररूपमें उत्पन्न हुए थे। वे 
अर्थतत्त्वके ज्ञाता और काम-क्रोधसे रहित थे ।। २९ ।। 

कृष्णद्वैपायनो5प्येतत्‌ सत्यवत्यै न्‍्यवेदयत्‌ । 

प्रलम्भमात्मनश्वैव शूद्राया: पुत्रजन्म च ।। ३० ।। 

श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासने सत्यवतीको भी सब बातें बता दीं। उन्होंने यह रहस्य प्रकट 
कर दिया कि अम्बिकाने अपनी दासीको भेजकर मेरे साथ छल किया है, अतः शूद्रा 
दासीके गर्भसे ही पुत्र उत्पन्न होगा || ३० ।। 

स धर्मस्यानृणो भूत्वा पुनर्मात्रा समेत्य च । 

तस्यै गर्भ समावेद्य तत्रैवान्तरधीयत ।। ३१ ।। 


इस तरह व्यासजी (मातृ-आज्ञापालनरूप) धर्मसे उऋ्कण होकर फिर अपनी माता 
सत्यवतीसे मिले और उन्हें गर्भका समाचार बताकर वहीं अन्तर्धान हो गये || ३१ ।। 

एते विचित्रवीर्यस्य क्षेत्रे द्ैपयायनादपि । 

जज्षिरे देवगर्भाभा: कुरुवंशविवर्धना: ।। ३२ ।। 

विचित्रवीर्यके क्षेत्रमें ्यासजीसे ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो देवकुमारोंके समान तेजस्वी 
और कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले थे || ३२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि विचित्रवीर्यसुतोत्पत्तौ 
पञ्चाधिकशततमो<ध्याय: ।। १०५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें विचित्रवीरयके पुत्रोंकी 
उत्पत्तिविषयक एक सौ पॉचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १०५ ॥। 


अपन ह< बक। है २ >> 


षर्डाधिकशततमोब< ध्याय: 


महर्षि माण्डव्यका शूलीपर चढ़ाया जाना 
जनमेजय उवाच 
कि कृतं कर्म धर्मेण येन शापमुपेयिवान्‌ । 
कस्य शापाच्च ब्रह्म॒र्षे: शूद्रयोनावजायत ।। १ ।। 


जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन्‌! धर्मराजने ऐसा कौन-सा कर्म किया था, जिससे उन्हें शाप 

प्राप्त हुआ? किस ब्रह्मर्षिके शापसे वे शूद्रयोनिमें उत्पन्न हुए ।। १ ।। 
वैशम्पायन उवाच 

बभूव ब्राह्मण: कश्रिन्माण्डव्य इति विश्रुत: । 

धृतिमान्‌ सर्वधर्मज्ञ: सत्ये तपसि च स्थित: ।। २ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! पूर्वकालमें माण्डव्य नामसे विख्यात एक ब्राह्मण थे, 
जो धैर्यवान्‌ू, सब धर्मोके ज्ञाता, सत्यनिष्ठ एवं तपस्वी थे ।। २ ।। 

स आश्रमपदद्धारि वृक्षमूले महातपा: । 

ऊर्ध्वबाहुर्महायोगी तस्थौ मौनव्रतान्वित: ।। ३ ।। 

वे अपने आश्रमके द्वारपर एक वृक्षके नीचे दोनों बाँहें ऊपरको उठाये हुए मौनव्रत 
धारण करके खड़े रहकर बड़ी भारी तपस्या करते थे। माण्डव्यजी बहुत बड़े योगी 
थे।। ३ ।। 

तस्य कालेन महता तस्मिंस्तपसि वर्ततः । 

तमाश्रममनुप्राप्ता दस्यवो लोप्न्रहारिण: ।। ४ ।। 

उस कठोर तपस्यामें लगे हुए महर्षिके बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक दिन उनके 
आश्रमपर चोरीका माल लिये हुए बहुत-से लुटेरे आये ।। ४ ।। 

अनुसार्यमाणा बहुभी रक्षिभिर्भरतर्षभ । 

ते तस्यावसथे लोप्नं दस्यथव: कुरुसत्तम ।। ५ ।। 

निधाय च भयाल्लीनास्तत्रैवानागते बले | 

तेषु लीनेष्वथो शीघ्र ततस्तद्‌ रक्षिणां बलम्‌ ।। ६ ।। 

आजगाम ततोड<पश्यंस्तमृषिं तस्करानुगा: । 

तमपृच्छंस्ततो राजंस्तथावृत्तं तपोधनम्‌ ।। ७ ।। 

कतमेन पथा याता दस्यवो द्विजसत्तम | 

तेन गच्छामहे ब्रह्मन्‌ यथा शीघ्रतरं वयम्‌ ।। ८ ।। 


जनमेजय! उन चोरोंका बहुत-से सैनिक पीछा कर रहे थे। कुरुश्रेष्ठी! वे दस्यु वह 
चोरीका माल महर्षिके आश्रममें रखकर भयके मारे प्रजा-रक्षक सेनाके आनेके पहले वहीं 
कहीं छिप गये। उनके छिप जानेपर रक्षकोंकी सेना शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँची। राजन! 
चोरोंका पीछा करनेवाले लोगोंने इस प्रकार तपस्यामें लगे हुए उन महर्षिको जब वहाँ देखा, 
तो पूछा कि “द्विजश्रेष्ठ। बताइये, चोर किस रास्तेसे भगे हैं? जिससे वही मार्ग पकड़कर हम 
तीव्र गतिसे उनका पीछा करें” || ५--८ ॥। 

तथा तु रक्षिणां तेषां ब्रुवतां स तपोधन: । 

न किंचिद्‌ वचन राजन्नब्रवीत्‌ साध्वसाधु वा ।। ९ ।। 

राजन! उन रक्षकोंके इस प्रकार पूछनेपर तपस्याके धनी उन महर्षिने भला-बुरा कुछ 
भी नहीं कहा ।। ९ ।। 

ततस्ते राजपुरुषा विचिन्वानास्तमाश्रमम्‌ | 

ददृशुस्तत्र लीनांस्तांश्लौरांस्तद्‌ द्रव्यमेव च ।। १० ।। 

तब उन राजपुरुषोंने उस आश्रममें ही चोरोंको खोजना आरम्भ किया और वहीं छिपे 
हुए चोरों तथा चोरीके मालको भी देख लिया ।। १० ।। 

ततः शड्का समभवद्‌ू रक्षिणां त॑ मुनि प्रति । 

संयम्यैनं ततो राज्ञे दस्यूंश्वैव न्‍्यवेदयन्‌ ।। ११ ।। 

फिर तो रक्षकोंको मुनिके प्रति मनमें संदेह उत्पन्न हो गया और वे उन्हें बाँधकर राजाके 
पास ले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने राजासे सब बातें बतायीं और उन चोरोंको भी राजाके 
हवाले कर दिया || ११ ।। 

तं॑ राजा सह तैश्लौरैरन्वशाद्‌ वध्यतामिति । 

स रक्षिभिस्तैरज्ञात: शूले प्रोतो महातपा: ।। १२ ।। 

राजाने उन चोरोंके साथ महर्षिको भी प्राणदण्डकी आज्ञा दे दी। रक्षकोंने उन 
महातपस्वी मुनिको नहीं पहचाना और उन्हें शूलीपर चढ़ा दिया ।। १२ ।। 

ततस्ते शूलमारोप्य त॑ मुनि रक्षिणस्तदा | 

प्रतिजग्मुर्महीपालं धनान्यादाय तान्यथ ।। १३ ।। 

इस प्रकार वे रक्षक माण्डव्य मुनिको शूलीपर चढ़ाकर वह सारा धन साथ ले राजाके 
पास लौट गये ।। १३ ।। 

शूलस्थ: स तु धर्मात्मा कालेन महता ततः । 

निराहारो<पि विप्रर्षिमरणं नाभ्यपद्यत ।। १४ ।। 

धर्मात्मा ब्रह्मर्षि माण्डव्य दीर्घकालतक उस शूलके अग्रभागपर बैठे रहे। वहाँ भोजन न 
मिलनेपर भी उनकी मृत्यु नहीं हुई ।। १४ ।। 

धारयामास च प्राणानृषींश्व॒ समुपानयत्‌ । 

शूलाग्रे तप्यमानेन तपस्तेन महात्मना ।। १५ ।। 


संतापं परमं जग्मुर्मुन॒यस्तपसान्विता: । 

ते रात्रौ शकुना भूत्वा संनिपत्य तु भारत । 

दर्शयन्तो यथाशक्ति तमपृच्छन्‌ द्विजोत्तमम्‌ ।। १६ ।। 

वे प्राण धारण किये रहे और स्मरणमात्र करके ऋषियोंको अपने पास बुलाने लगे। 
शूलीकी नोकपर तपस्या करनेवाले उन महात्मासे प्रभावित होकर सभी तपस्वी मुनियोंको 
बड़ा संताप हुआ। वे रातमें पक्षियोंका रूप धारण करके वहाँ उड़ते हुए आये और अपनी 
शक्तिके अनुसार स्वरूपको प्रकाशित करते हुए उन विप्रवर माण्डव्य मुनिसे पूछने लगे 
- | १५-१६ || 

श्रोतुमिच्छामहे ब्रह्मन्‌ कि पापं कृतवानसि । 

येनेह समनुप्राप्तं शूले दुःखभयं महत्‌ ।। १७ ।। 

“ब्रह्म! हम सुनना चाहते हैं कि आपने कौन-सा पाप किया है, जिससे यहाँ शूलपर 
बैठनेका यह महान्‌ कष्ट आपको प्राप्त हुआ है?” ।। १७ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि अणीमाण्डव्योपाख्याने 
षडधिकशततमो<ध्याय: ।। १०६ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें अणीमाण्डव्योपाख्यानविषयक 
एक सौ छठा अध्याय पूरा हुआ ॥/ १०६ ॥/ 


अपन क्रात छा अ---क्ाज 


सप्ताधिकशततमो< ध्याय: 
माण्डव्यका धर्मराजको शाप देना 


वैशम्पायन उवाच 


ततः स मुनिशार्दूलस्तानुवाच तपोधनान्‌ । 

दोषत: कं गमिष्यामि न हि मेडन्यो5पराध्यति ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! तब उन मुनिश्रेष्ठने उन तपस्वी मुनियोंसे कहा--*मैं 
किसपर दोष लगाऊँ; दूसरे किसीने मेरा अपराध नहीं किया है” ।। १ ।। 

त॑ दृष्टवा रक्षिणस्तत्र तथा बहुतिथेडहनि । 

न्यवेदयंस्तथा राज्ञे यथावृत्तं नराधिप ।। २ ॥। 

महाराज! रक्षकोंने बहुत दिनोंतक उन्हें शूलपर बैठे देख राजाके पास जा वह सब 
समाचार ज्यों-का-त्यों निवेदन किया ।। २ ।। 

श्रुत्वा च वचन तेषां निश्चित्य सह मन्सत्रिभि: । 

प्रसादयामास तथा शूलस्थमृषिसत्तमम्‌ ।। ३ ।। 

उनकी बात सुनकर मन्त्रियोंके साथ परामर्श करके राजाने शूलीपर बैठे हुए उन 
मुनिश्रेष्ठको प्रसन्न करनेका प्रयत्न किया ।। ३ ।। 


धर्मराज और अणीमाण्डव्य 





अणीमाण्डव्य ऋषि शूलीपर 


राजोवाच 


यन्मयापकृतं मोहादज्ञानादृषिसत्तम | 

प्रसादये त्वां तत्राहं न मे त्वं क्रोद्धुमहसि ।। ४ ।। 

राजाने कहा--मुनिवर! मैंने मोह अथवा अज्ञानवश जो अपराध किया है, उसके लिये 
आप मुझपर क्रोध न करें। मैं आपसे प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करता हूँ ।। ४ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्तस्ततो राज्ञा प्रसादमकरोन्मुनि: । 

कृतप्रसादं राजा तं तत: समवतारयत्‌ ।। ५ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजाके यों कहनेपर मुनि उनपर प्रसन्न हो गये। 
राजाने उन्हें प्रसन्न जानकर शूलीसे उतार दिया ।। ५ ।। 

अवतार्य च शूलाग्रात्‌ तच्छूलं निश्चकर्ष ह | 

अशबनुवंश्न निष्क्रष्टं शूलं मूले स चिच्छिदे ।। ६ ।। 

नीचे उतारकर उन्होंने शूलके अग्रभागके सहारे उनके शरीरके भीतरसे शूलको 
निकालनेके लिये खींचा। खींचकर निकालनेमें असफल होनेपर उन्होंने उस शूलको 
मूलभागमें काट दिया ।। ६ |। 

स तथान्तर्गतेनैव शूलेन व्यचरन्मुनि: । 

तेनातितपसा लोकान्‌ विजिग्ये दुर्लभान्‌ परै: ।। ७ ।। 

तबसे वे मुनि शूलाग्रभागको अपने शरीरके भीतर लिये हुए ही विचरने लगे। उस 
अत्यन्त घोर तपस्याके द्वारा महर्षिने ऐसे पुण्यलोकोंपर विजय पायी, जो दूसरोंके लिये 
दुर्लभ हैं | ७ ।। 

अणीमाण्डव्य इति च ततो लोकेषु गीयते । 

स गत्वा सदन विप्रो धर्मस्य परमात्मवित्‌ ॥। ८ ।। 

आसनस्थं ततो धर्म दृष्टवोपालभत प्रभु: । 

कि नु तद्‌ दुष्कृतं कर्म मया कृतमजानता ।। ९ ।। 

यस्येयं फलनिर्वत्तिरीदृश्यासादिता मया । 

शीघ्रमाचक्ष्व मे तत्त्वं पश्य मे तपसो बलम्‌ ।। १० ।। 

अणी कहते हैं शूलके अग्रभागको, उससे युक्त होनेके कारण वे मुनि तभीसे सभी 
लोकोंमें “अणी-माण्डव्य” कहलाने लगे। एक समय परमात्मतत्त्वके ज्ञाता विप्रवर 
माण्डव्यने धर्मराजके भवनमें जाकर उन्हें दिव्य आसनपर बैठे देखा। उस समय उन 
शक्तिशाली महर्षिने उन्हें उलाहना देते हुए पूछा--“मैंने अनजानमें कौन-सा ऐसा पाप किया 
था, जिसके फलका भोग मुझे इस रूपमें प्राप्त हुआ? मुझे शीघ्र इसका रहस्य बताओ। 
फिर मेरी तपस्याका बल देखो” || ८--१० ।। 


धर्म उवाच 


पतज्िकानां पुच्छेषु त्वयेषीका प्रवेशिता । 

कर्मणस्तस्य ते प्राप्त फलमेतत्‌ तपोधन ।। ११ ।। 

धर्मराज बोले--तपोधन! तुमने फतिंगोंके पुच्छ-भागमें सींक घुसेड़ दी थी। उसी 
कर्मका यह फल तुम्हें प्राप्त हुआ है ।। ११ ।। 

स्वल्पमेव यथा दत्तं दानं बहुगुणं भवेत्‌ 

अधर्म एवं विप्रर्षे बहुदुः:खफलप्रद: ।। १२ ।। 

विप्रर्षे! जैसे थोड़ा-सा भी किया हुआ दान कई गुना फल देनेवाला होता है, वैसे ही 
अधर्म भी बहुत दुःखरूपी फल देनेवाला होता है || १२ ।। 


अणीमाण्डव्य उवाच 


कस्मिन्‌ काले मया तत्‌ तु कृत॑ ब्रूहि यथातथम्‌ । 

तेनोक्तो धर्मराजेन बालभावे त्वया कृतम्‌ ।। १३ ।। 

अणीमाण्डव्यने पूछा--अच्छा, तो ठीक-ठीक बताओ, मैंने किस समय--किस 
आयुमें वह पाप किया था? 

धर्मराजने उत्तर दिया--'बाल्यावस्थामें तुम्हारे द्वारा यह पाप हुआ था” ।। १३ ।॥। 


फस्ताफण चर जपत्ताउच 
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अणीमाण्डग्य उवाच 


बालो हि द्वादशाद्‌ वर्षाज्जन्मतो यत्‌ करिष्यति । 

न भविष्यत्यधर्मोउत्र न प्रज्ञास्यन्ति वै दिश: ।। १४ ।। 

अणीमाण्डव्यने कहा--धर्मशास्त्रके अनुसार जन्मसे लेकर बारह वर्षकी आयुतक 
बालक जो कुछ भी करेगा, उसमें अधर्म नहीं होगा; क्योंकि उस समयतक बालकको 
धर्मशास्त्रके आदेशका ज्ञान नहीं हो सकेगा ।। 

अल्पे5पराधेडपि महान्‌ मम दण्डस्त्वया कृत: । 

गरीयान्‌ ब्राह्मणवध: सर्वभूतवधादपि ।। १५ ।। 

धर्मराज! तुमने थोड़े-से अपराधके लिये मुझे बहुत बड़ा दण्ड दिया है। ब्राह्मणका वध 
सम्पूर्ण प्राणियोंके वधसे भी अधिक भयंकर है ।। १५ ।। 

शूद्रयोनावतो धर्म मानुष: सम्भविष्यसि । 

मर्यादां स्थापयाम्यद्य लोके धर्मफलोदयाम्‌ ।। १६ ।। 

अतः धर्म! तुम मनुष्य होकर शूद्रयोनिमें जन्म लोगे। आजसे संसारमें मैं धर्मके फलको 
प्रकट करनेवाली मर्यादा स्थापित करता हूँ ।। १६ ।। 

आ चतुर्दशकाद्‌ वर्षान्न भविष्यति पातकम्‌ | 

परत: कुर्वतामेवं दोष एव भविष्यति ।। १७ ।। 

चौदह वर्षकी उम्रतक किसीको पाप नहीं लगेगा। उससे अधिककी आयुमें पाप 
करनेवालोंको ही दोष लगेगा ।। १७ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एतेन त्वपराधेन शापात्‌ तस्य महात्मन: । 

धर्मो विदुररूपेण शूद्रयोनावजायत ।। १८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! इसी अपराधके कारण महात्मा माण्डव्यके शापसे 
साक्षात्‌ धर्म ही विदुररूपसे शूद्रयोनिमें उत्पन्न हुए ।। १८ ।। 

धर्मे चार्थे च कुशलो लोभक्रोधविवर्जित: । 

दीर्घदर्शी शमपर: कुरूणां च हिते रत: ।। १९ ।। 

वे धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्रके पण्डित, लोभ और क्रोधसे रहित, दीर्घदर्शी, 
शान्तिपरायण तथा कौरवोंके हितमें तत्पर रहनेवाले थे ।। १९ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि अणीमाण्डव्योपाख्याने 
सप्ताधिकशततमो<ध्याय: ।। १०७ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें अणीमाण्डव्योपाख्यानविषयक 
एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०७ ॥ 


भीकम (2 अमान 


अष्टाधिकशततमोब< ध्याय: 


धृतराष्ट्र आदिके जन्म तथा भीष्मजीके धर्मपूर्ण शासनसे 
कुरुदेशकी सर्वांगीण उन्नतिका दिग्दर्शन 


वैशम्पायन उवाच 


(धृतराष्ट्रे च पाण्डौ च विदुरे च महात्मनि ।) 

तेषु त्रिषु कुमारेषु जातेषु कुरुजाड्लम्‌ । 

कुरवो5थ कुरुक्षेत्र त्रयमेतदवर्धत ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धृतराष्ट्र, पाण्डु और महात्मा विदुर--इन तीनों 
कुमारोंके जन्मसे कुरुवंश, कुरुजांगल देश और कुरुक्षेत्र--इन तीनोंकी बड़ी उन्नति 
हुई ।। १ ।। 

ऊर्ध्वसस्या भवद्‌ भूमि: सस्यानि रसवन्ति च । 

यर्थर्तुवर्षी पर्जन्यो बहुपुष्पफला द्रुमा: ।। २ ।। 

पृथ्वीपर खेतीकी उपज बहुत बढ़ गयी, सभी अन्न सरस होने लगे, बादल ठीक 
समयपर वर्षा करते थे, वृक्षोंमें बहुत-से फल और फूल लगने लगे ।। २ ।। 

वाहनानि प्रहृष्टानि मुदिता मृगपक्षिण: । 

गन्धवन्ति च माल्यानि रसवन्ति फलानि च ।॥। ३ ।। 

घोड़े-हाथी आदि वाहन हृष्ट-पुष्ट रहते थे, मृग और पक्षी बड़े आनन्दसे दिन बिताते थे, 
फूलों और मालाओंमें अनुपम सुगन्ध होती थी और फलोंमें अनोखा रस होता था ।। ३ ।। 

वणिमभ्भिक्षान्वकीर्यन्त नगराण्यथ शिल्पिभि: । 

शूराश्न कृतविद्याश्व सन्‍्तश्न सुखिनो&5भवन्‌ ।। ४ ।। 

सभी नगर व्यापार-कुशल वैश्यों तथा शिल्पकलामें निपुण कारीगरोंसे भरे रहते थे। 
शूर-वीर, विद्वान्‌ और संत सुखी हो गये ।। ४ ।। 

नाभवन्‌ दस्यव: केचिन्नाधर्मरुचयो जना: । 

प्रदेशेष्वपि राष्ट्राणां कृतं युगमवर्तत ।। ५ ।। 

कोई भी मनुष्य डाकू नहीं था। पापमें रुचि रखनेवाले लोगोंका सर्वथा अभाव था। 
राष्ट्रके विभिन्न प्रान्तोंमें सत्ययुग छा रहा था ।। ५ ।। 

धर्मक्रिया यज्ञशीला: सत्यव्रतपरायणा: । 

अन्योन्यप्रीतिसंयुक्ता व्यवर्थन्त प्रजास्तदा ।। ६ ।। 

उस समयकी प्रजा सत्य-व्रतके पालनमें तत्पर हो स्वभावतः यज्ञ-कर्ममें लगी रहती 
और धर्मानुकूल कर्मोमें संलग्न रहकर एक-दूसरेको प्रसन्न रखती हुई सदा उन्नतिके पथपर 


बढ़ती जाती थी ।। ६ ।। 

मानक्रोधविहीनाश्न नरा लोभविवर्जिता: । 

अन्योन्यमभ्यनन्दन्त धर्मोत्तरमवर्तत ।। ७ ।। 

सब लोग अभिमान और क्रोधसे रहित तथा लोभसे दूर रहनेवाले थे; सभी एक- 
दूसरेको प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे। लोगोंके आचार-व्यवहारमें धर्मकी ही प्रधानता 
थी ।। ७।। 

तन्महोदधिवत्‌ पूर्ण नगरं वै व्यरोचत । 

द्वारतोरणनिर्यूहैर्युक्तम भ्रचयोपमै: ।। ८ ।। 

समुद्रकी भाँति सब प्रकारसे भरा-पूरा कौरवनगर मेघसमूहोंके समान बड़े-बड़े 
दरवाजों, फाटकों और गोपुरोंसे सुशोभित था ।। ८ ।। 

प्रासादशतसम्बाध॑ महेन्द्रपुरसंनिभम्‌ । 

नदीषु वनखण्डेषु वापीपल्वलसानुषु । 

काननेषु च रम्येषु विजहुर्मुदिता जना: ।। ९ ।। 

सैकड़ों महलोंसे संयुक्त वह पुरी देवराज इन्द्रकी अमरावतीके समान शोभा पाती थी। 
वहाँके लोग नदियों, वनखण्डों, बावलियों, छोटे-छोटे जलाशयों, पर्वतशिखरों तथा रमणीय 
काननोंमें प्रसन्नतापूर्वक विहार करते थे ।। ९ ।। 

उत्तरै: कुरुभि: सार्ध दक्षिणा: कुरवस्तथा । 

विस्पर्थमाना व्यचरंस्तथा देवर्षिचारणै: ।। १० ।। 

उस समय दक्षिणकुरु देशके निवासी उत्तरकुरुमें रहनेवाले लोगों, देवताओं, ऋषियों 
तथा चारणोंके साथ होड़-सी लगाते हुए स्वच्छन्द विचरण करते थे ।। १० ।॥। 

नाभवत्‌ कृपण: ककश्रिन्नाभवन्‌ विधवा: स्त्रिय: । 

तस्मिञज्जनपदे रम्ये कुरुभिबहुलीकृते || ११ ।। 

कौरवोंद्वारा बढ़ाये हुए उस रमणीय जनपदमें न तो कोई कंजूस था और न विधवा 
स्त्रियाँ देखी जाती थीं ।। ११ ।। 

कूपारामसभावाप्यो ब्राह्म॒णावसथास्तथा । 

बभूवु: सर्वर्द्धियुतास्तस्मिन्‌ राष्ट्र सदोत्सवा: ।। १२ ।। 

उस राष्ट्रके कुओं, बगीचों, सभाभवनों, बावलियों तथा ब्राह्मणोंके घरोंमें सब प्रकारकी 
समृद्धियाँ भरी रहती थीं और वहाँ नित्य-नूतन उत्सव हुआ करते थे ।। १२ ।। 

भीष्मेण धर्मतो राजन्‌ सर्वतः परिरक्षिते | 

बभूव रमणीयश्व चैत्ययूपशताड्कित: ।। १३ ।। 

जनमेजय! भीष्मजीके द्वारा सब ओससे धर्मपूर्वक सुरक्षित भूमण्डलमें वह कुरुदेश 
सैकड़ों देवस्थानों और यज्ञस्तम्भोंसे चिह्नित होनेके कारण बड़ी शोभा पाता था ॥। १३ ।। 

स देश: परराष्ट्राणि विमृज्याभिप्रवर्धित: । 


भीष्मेण विहितं राष्ट्रे धर्मचक्रमवर्तत ।। १४ ।। 

वह देश दूसरे राष्ट्रोंका भी शोधन करके निरन्तर उन्नतिके पथपर अग्रसर हो रहा था। 
राष्ट्रमें सब ओर भीष्मजीके द्वारा चलाया हुआ धर्मका शासन चल रहा था ।। १४ ।। 

क्रियमाणेषु कृत्येषु कुमाराणां महात्मनाम्‌ | 

पौरजानपदा: सर्वे बभूवु: सततोत्सवा: ।। १५ || 

उन महात्मा कुमारोंके यज्ञोपवीतादि संस्कार किये जानेके समय नगर और देशके सभी 
लोग निरन्तर उत्सव मनाते थे || १५ ।। 

गृहेषु कुरुमुख्यानां पौराणां च नराधिप । 

दीयतां भुज्यतां चेति वाचो<श्रूयन्त सर्वश: ।। १६ ।। 

जनमेजय! कुरुकुलके प्रधान-प्रधान पुरुषों तथा अन्य नगरनिवासियोंके घरोंमें सदा 
सब ओर यही बात सुनायी देती थी कि “दान दो और अतिथियोंको भोजन 
कराओ' || १६ |। 

धृतराष्ट्रश्न पाण्डुश्व विदुरश्ष महामति: । 

जन्मप्रभृति भीष्मेण पुत्रवत्‌ परिपालिता: ।। १७ ।। 

धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा परम बुद्धिमान्‌ विदुर--इन तीनों भाइयोंका भीष्मजीने जन्मसे ही 
पुत्रकी भाँति पालन किया ।। १७ ।। 

संस्कारै: संस्कृतास्ते तु व्रताध्ययनसंयुता: । 

श्रमव्यायामकुशला: समपद्यन्त यौवनम्‌ ।। १८ ।। 

उन्होंने ही उनके सब संस्कार कराये। फिर वे ब्रह्मचर्यव्रतके पालन और वेदोंके 
स्वाध्यायमें तत्पर हो गये। परिश्रम और व्यायाममें भी उन्होंने बड़ी कुशलता प्राप्त की। फिर 
धीरे-धीरे वे युवावस्थाको प्राप्त हुए || १८ ।। 

धनुर्वेदे5श्वपृष्ठे च गदायुद्धेडसिचर्मणि । 

तथैव गजशिक्षायां नीतिशास्त्रेषु पारगा: । १९ ।। 

धनुर्वेद, घोड़ेकी सवारी, गदायुद्ध, ढाल-तलवारके प्रयोग, गजशिक्षा तथा नीतिशास्त्रमें 
वे तीनों भाई पारंगत हो गये ।। १९ ।। 

इतिहासपुराणेषु नानाशिक्षासु बोधिता: । 

वेदवेदाड्तत्त्वज्ञा: सर्वत्र कृतनिश्चया: ।। २० ।। 

उन्हें इतिहास, पुराण तथा नाना प्रकारके शिष्टाचारोंका भी ज्ञान कराया गया। वे वेद- 
वेदांगोंके तत्त्वज्ञ तथा सर्वत्र एक निश्चित सिद्धान्तके माननेवाले थे || २० ।। 

पाण्डुर्थनुषि विक्रान्तो नरेष्वभ्यधिको5भवत्‌ | 

अन्येभ्यो बलवानासीद्‌ू धृतराष्ट्री महीपति: || २१ ।। 

पाण्डु धर्नुर्विद्यामें उस समयके मनुष्योंमें सबसे बढ़-चढ़कर पराक्रमी थे। इसी प्रकार 
राजा धृतराष्ट्र दूसरे लोगोंकी अपेक्षा शारीरिक बलमें बहुत बढ़कर थे || २१ ।। 


त्रिषु लोकेषु न त्वासीत्‌ कश्चिद्‌ विदुरसम्मित: । 

धर्मनित्यस्तथा राजन्‌ धर्मे च परमं गत: ।। २२ ।। 

राजन! तीनों लोकोंमें विदुरजीके समान दूसरा कोई भी मनुष्य धर्मपरायण तथा धर्ममें 
ऊँची अवस्थाको प्राप्त (आत्मद्रष्टा)- नहीं था ।। २२ ।। 

प्रणष्टं शन्तनोर्वशं समीक्ष्य पुनरुद्धृतम्‌ । 

ततो निर्वचनं लोके सर्वराष्ट्रेष्ववर्तत ।। २३ ।। 

नष्ट हुए शान्तनुके वंशका पुनः उद्धार हुआ देखकर समस्त राष्ट्रके लोग परस्पर कहने 
लगे-- ॥। २३ ।। 

वीरसूनां काशिसुते देशानां कुरुजाड्लम्‌ | 

सर्वधर्मविदां भीष्म: पुराणां गजसाह्नयम्‌ ।। २४ ।। 

धृतराष्ट्रस्त्वचक्षुष्टवाद्‌ राज्यं न प्रत्यपद्यत | 

पारसवत्वाद्‌ विदुरो राजा पाण्डु्बभूव ह ।। २५ ।। 

“वीर पुत्रोंको जन्म देनेवाली स्त्रियोंमें काशिराजकी दोनों पुत्रियाँ सबसे श्रेष्ठ हैं, देशोंमें 
कुरुजांगल देश सबसे उत्तम है, सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें भीष्मजीका स्थान सबसे ऊँचा है तथा 
नगरोंमें हस्तिनापुर सर्वोत्तम है।” धृतराष्ट्र अंधे होनेके कारण और विदुरजी पारशव (शूट्राके 
गर्भसे ब्राह्मणद्वारा उत्पन्न) होनेसे राज्य न पा सके; अतः सबसे छोटे पाण्डु ही राजा 
हुए || २४-२५ |। 

कदाचिदयथ गाड़ेय: सर्वनीतिमतां वर: | 

विदुरं धर्मतत्त्वज्ञं वाक्यमाह यथोचितम्‌ ॥। २६ ।। 

एक समयकी बात है, सम्पूर्ण नीतिज्ञ पुरुषोंमें श्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्मजी धर्मके तत्त्वको 
जाननेवाले विदुरजीसे इस प्रकार न्यायोचित वचन बोले || २६ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि 
पाण्डुराज्याभिषेकेडष्टाधिकशततमो<ध्याय: ।। १०८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डुराज्याभिषेकाविषयक एक 
सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०८ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका $ “लोक मिलाकर कुल २६३ श्लोक हैं) 


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-“अयं तु परमो धर्मो यद्‌ योगेनात्मदर्शनम्‌' याज्ञवल्क्यस्मृतिके इस कथनके अनुसार आत्मदर्शन ही सबसे उत्त्ृष्ट धर्म 
है। 


नवाधिकशततमो<्ध्याय: 
राजा धृतराष्ट्रका विवाह 


भीष्म उवाच 

गुणै: समुदितं सम्यगिदं न: प्रथितं कुलम्‌ 

अत्यन्यान्‌ पृथिवीपालान्‌ पृथिव्यामधिराज्यभाक्‌ ।। १ || 

भीष्मजीने कहा--बेटा विदुर! हमारा यह कुल अनेक सदगुणोंसे सम्पन्न होकर इस 
जगत्‌में विख्यात हो रहा है। यह अन्य भूपालोंको जीतकर इस भूमण्डलके साम्राज्यका 
अधिकारी हुआ है ।। १ ।। 

रक्षितं राजभि: पूर्व धर्मविद्धिर्महात्मभि: । 

नोत्सादमगमच्चेदं कदाचिदिह न: कुलम्‌ ।। २ ।। 

पहलेके धर्मज्ञ एवं महात्मा राजाओंने इसकी रक्षा की थी; अतः हमारा यह कुल इस 
भूतलपर कभी उच्छिन्न नहीं हुआ ।। २ ।। 

मया च सत्यवत्या च कृष्णेन च महात्मना । 

समवस्थापितं भूयो युष्मासु कुलतन्तुषु ।। ३ ।। 

(बीचमें संकटकाल उपस्थित हुआ था किंतु) मैंने, माता सत्यवतीने तथा महात्मा 
श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीने मिलकर पुन: इस कुलको स्थापित किया है। तुम तीनों भाई इस 
कुलके तंतु हो और तुम्हींपर अब इसकी प्रतिष्ठा है ।। ३ ।। 

तच्चैतद्‌ वर्धते भूय: कुलं सागरवद्‌ यथा । 

तथा मया विधातव्यं त्वया चैव न संशय: ।। ४ ।। 

वत्स! यह हमारा वही कुल आगे भी जिस प्रकार समुद्रकी भाँति बढ़ता रहे, नि:संदेह 
वही उपाय मुझे और तुम्हें भी करना चाहिये ।। ४ ।। 

श्रूयते यादवी कन्या स्वनुरूपा कुलस्य नः । 

सुबलस्यात्मजा चैव तथा मद्रेश्वरस्प च ।। ५ ।। 

सुना जाता है, यदुवंशी शूरसेनकी कन्या पृथा (जो अब राजा कुन्तिभोजकी गोद ली 
हुई पुत्री है) भलीभाँति हमारे कुलके अनुरूप है। इसी प्रकार गान्धारराज सुबल और 
मद्रनरेशके यहाँ भी एक-एक कन्या सुनी जाती है ।। ५ ।। 

कुलीना रूपवत्यश्व ता: कन्या: पुत्र सर्वश: । 

उचिताश्रवैव सम्बन्धे ते>स्माकं क्षत्रियर्षभा: ।। ६ ।। 

बेटा! वे सब कन्याएँ बड़ी सुन्दरी तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न हैं। वे श्रेष्ठ क्षत्रियगण हमारे 
साथ विवाह-सम्बन्धकरनेके सर्वथा योग्य हैं ।। ६ ।। 

मन्ये वरयितव्यास्ता इत्यहं धीमतां वर । 


संतानार्थ कुलस्यास्य यद्‌ वा विदुर मन्यसे ।। ७ ।। 

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ विदुर! मेरी राय है कि इस कुलकी संतानपरम्पराको बढ़ानेके लिये 
उक्त कन्याओंका वरण करना चाहिये अथवा जैसी तुम्हारी सम्मति हो, वैसा किया 
जाय ।॥। ७ || 

विदुर उवाच 

भवान्‌ पिता भवान्‌ माता भवान्‌ नः परमो गुरु: । 

तस्मात्‌ स्वयं कुलस्यास्य विचार्य कुरु यद्धितम्‌ ।। ८ ।। 

विदुर बोले--प्रभो! आप हमारे पिता हैं, आप ही माता हैं और आप ही परम गुरु हैं; 
अतः: स्वयं विचार करके जिस बातमें इस कुलका हित हो, वह कीजिये ।। ८ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


अथ शुश्राव विप्रेभ्यो गान्धारीं सुबलात्मजाम्‌ | 

आराध्य वरदं देवं भगनेत्रहरं हरम्‌ ।। ९ ।। 

गान्धारी किल पुत्राणां शतं लेभे वरं शुभा । 

इति शुश्राव तत्त्वेन भीष्म: कुरुपितामह: ।। १० ।। 

ततो गान्धारराजस्य प्रेषयामास भारत । 

अचक्षुरिति तत्रासीत्‌ सुबलस्य विचारणा ।। ११ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इसके बाद भीष्मजीने ब्राह्मणोंसे गान्धारराज 
सुबलकी पुत्री शुभलक्षणा गान्धारीके विषयमें सुना कि वह भगदेवताके नेत्रोंका नाश 
करनेवाले वरदायक भगवान्‌ शंकरकी आराधना करके अपने लिये सौ पुत्र होनेका वरदान 
प्राप्त कर चुकी है। भारत! जब इस बातका ठीक-ठीक पता लग गया, तब कुरुपितामह 
भीष्मने गान्धारराजके पास अपना दूत भेजा। धृतराष्ट्र अंधे हैं, इस बातको लेकर सुबलके 
मनमें बड़ा विचार हुआ || ९--११ ।। 

कुलं॑ ख्यातिं च वृत्तं च बुद्धया तु प्रसमीक्ष्य सः । 

ददौ तां धृतराष्ट्राय गान्धारीं धर्मचारिणीम्‌ ।। १२ ।। 

परंतु उनके कुल, प्रसिद्धि और आचार आदिके विषयमें बुद्धिपूर्वक विचार करके उसने 
धर्मपरायणा गान्धारीका धृतराष्ट्रके लिये वाग्दान कर दिया ।। १२ ।। 

गान्धारी त्वथ शुश्राव धृतराष्ट्रमचक्षुषम्‌ । 

आत्मानं दित्सितं चास्मै पित्रा मात्रा च भारत ।। १३ ।। 

ततः सा पट्टमादाय कृत्वा बहुगुणं तदा । 

बबन्ध नेत्रे स्वे राजन्‌ पतिव्रतपरायणा ।। १४ ।। 

नाभ्यसूयां पतिमहमित्येवं कृतनिश्चया । 

ततो गान्धारराजस्य पुत्र: शकुनिरभ्ययात्‌ ।। १५ ।। 


स्वसारं वयसा लक्ष्म्या युक्तामादाय कौरवान्‌ | 

तां तदा धृतराष्ट्राय ददौ परमसत्कृताम्‌ । 

भीष्मस्यानुमते चैव विवाहं समकारयत्‌ ।। १६ ।। 

जनमेजय! गान्धारीने जब सुना कि धूृतराष्ट्र अंधे हैं और पिता-माता मेरा विवाह 
उन्हींके साथ करना चाहते हैं, तब उन्होंने रेशमी वस्त्र लेकर उसके कई तह करके उसीसे 
अपनी आँखें बाँध लीं। राजन! गान्धारी बड़ी पतिव्रता थीं। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि 
मैं (सदा पतिके अनुकूल रहूँगी,, उनके दोष नहीं देखूँगी। तदनन्तर एक दिन 
गान्धारराजकुमार शकुनि युवावस्था तथा लक्ष्मीके समान मनोहर शोभासे युक्त अपनी 
बहिन गान्धारीको साथ लेकर कौरवोंके यहाँ गये और उन्होंने बड़े आदर-सत्कारके साथ 
धृतराष्ट्रको अपनी बहिन सौंप दी। शकुनिने भीष्मजीकी सम्मतिके अनुसार विवाह-कार्य 
सम्पन्न किया || १३--१६ ।। 

दत्त्वा स भगिनीं वीरो यथा च परिच्छदम्‌ । 

पुनरायात्‌ स्वनगरं भीष्मेण प्रतिपूजित: ।। १७ ।। 

वीरवर शकुनिने अपनी बहिनका विवाह करके यथायोग्य दहेज दिया। बदलेमें 
भीष्मजीने भी उनका बड़ा सम्मान किया। तत्पश्चात्‌ वे अपनी राजधानीको लौट 
आये ।। १७ || 

गान्धार्यपि वरारोहा शीलाचारविचेष्टितै: । 

तुष्टिं कुरूणां सर्वेषां जनयामास भारत ।। १८ ।। 

भारत! सुन्दर शरीरवाली गान्धारीने अपने उत्तम स्वभाव, सदाचार तथा सदव्यवहारोंसे 
समस्त कौरवोंको प्रसन्न कर लिया ।। १८ ।। 

वृत्तेनाराध्य तान्‌ सर्वान्‌ गुरून्‌ू पतिपरायणा । 

वाचापि पुरुषानन्यान्‌ सुव्रता नान्यकीर्तयत्‌ ।। १९ ।। 

इस प्रकार सुन्दर बर्तावसे समस्त गुरुजनोंकी प्रसन्नता प्राप्त करके उत्तम व्रतका पालन 
करनेवाली पतिपरायणा गान्धारीने कभी दूसरे पुरुषोंका नामतक नहीं लिया ।। १९ |। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि धृतराष्ट्रविवाहे 
नवाधिकशततमोड<ध्याय: ।। १०९ || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वनें धृतराष्ट्रविवाहविषयक एक सौ 
नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०९ ॥। 


है 7 >> छा अि>-छऋाज 


दशाधिकशततमोब<् ध्याय: 


कुन्तीको दुर्वासासे मन्त्रकी प्राप्ति, सूर्यदेवका आवाहन 
तथा उनके संयोगसे कर्णका जन्म एवं कर्णके द्वारा इन्द्रको 
कवच और कुण्डलोंका दान 


वैशम्पायन उवाच 


शूरो नाम यदुश्रेष्ठो वसुदेवपिताभवत्‌ | 

तस्य कन्या पृथा नाम रूपेणाप्रतिमा भुवि ॥। १ ॥। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! यदुवंशियोंमें श्रेष्ठ शूरसेन हो गये हैं, जो 
वसुदेवजीके पिता थे। उन्हें एक कन्या हुई, जिसका नाम पृथा रखा गया। इस भूमण्डलमें 
उसके रूपकी तुलनामें दूसरी कोई स्त्री नहीं थी ।। १ ।। 

पितृष्वस्रीयाय स तामनपत्याय भारत । 

अग्रयमग्रे प्रतिज्ञाय स्वस्यापत्यं स सत्यवाक्‌ ।। २ ।॥। 

भारत! सत्यवादी शूरसेनने अपने फुफेरे भाई संतानहीन कुन्तिभोजसे पहले ही यह 
प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मैं तुम्हें अपनी पहली संतान भेंट कर दूँगा ।। २ ।। 

अग्रजामथ तां कन्‍्यां शूरो<नुग्रहकाड्क्षिणे | 

प्रददौ कुन्तिभोजाय सखा सख्ये महात्मने ।। ३ ।। 

उन्हें पहले कन्या ही उत्पन्न हुई। अतः कृपाकांक्षी महात्मा सखा राजा कुन्तिभोजको 
उनके मित्र शूरसेनने वह कन्या दे दी || ३ ।। 

सा नियुक्ता पितुर्गेहि देवता5तिथिपूजने । 

उग्र पर्यचरत्‌ तत्र ब्राह्मणं संशितव्रतम्‌ ।। ४ ।। 

निगूढनिश्चयं धर्मे यं तं दुर्वाससं विदु: । 

तमुग्रं संशितात्मानं सर्वयत्नैरतोषयत्‌ ।। ५ ।। 

पिता कुन्तिभोजके घरपर पृथाकों देवताओंके पूजन और अतिथियोंके सत्कारका 
कार्य सौंपा गया था। एक समय वहाँ कठोर व्रतका पालन करनेवाले तथा धर्मके विषयमें 
अपने निश्चयको सदा गुप्त रखनेवाले एक ब्राह्मण महर्षि आये, जिन्हें लोग दुर्वासाके नामसे 
जानते हैं। पृथा उनकी सेवा करने लगी। वे बड़े उग्र स्वभावके थे। उनका हृदय बड़ा कठोर 
था; फिर भी राजकुमारी पृथाने सब प्रकारके यत्नोंसे उन्हें पूर्ण संतुष्ट कर लिया ।। ४-५ ।। 

तस्यै स प्रददौ मन्त्रमापद्धर्मान्ववेक्षया । 

अभिचाराभिसंयुक्तमब्रवीच्चैव तां मुनि: ।। ६ ।। 


दुर्वासाजीने पृथापर आनेवाले भावी संकटका विचार करके उनके धर्मकी रक्षाके लिये 
उसे एक वशीकरणमन्त्र दिया और उसके प्रयोगकी विधि भी बता दी। तत्पश्चात्‌ वे मुनि 
उससे बोले-- || ६ |। 

य॑ य॑ देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि । 

तस्य तस्य प्रसादेन पुत्रस्तव भविष्यति ।। ७ ।। 

'शुभे! तुम इस मन्त्रद्वारा जिस-जिस देवताका आवाहन करोगी, उसी-उसीके 
अनुग्रहसे तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा" || ७ ।। 

तथोक्ता सा तु विप्रेण कुन्ती कौतूहलान्विता । 

कन्या सती देवमर्कमाजुहाव यशस्विनी ।। ८ ।। 

ब्रह्मर्षि दुर्वासाके यों कहनेपर कुन्तीके मनमें बड़ा कौतूहल हुआ। वह यशस्विनी 
राजकन्या यद्यपि अभी कुमारी थी, तो भी उसने मन्त्रकी परीक्षाके लिये सूर्यदेवका आवाहन 
किया ।। ८ ।। 

सा ददर्श तमायान्तं भास्करं लोकभावनम्‌ । 

विस्मिता चानवद्याज्ञी दृष्टवा तन्‍्महद्भुतम्‌ ।। ९ ।। 

आवाहन करते ही उसने देखा, सम्पूर्ण जगत्‌की उत्पत्ति और पालन करनेवाले भगवान्‌ 
भास्कर आ रहे हैं। यह महान्‌ आश्वर्यकी बात देखकर निर्दोष अंगोंवाली कुन्ती चकित हो 
उठी ।। ९ ।। 

तां समासाद्य देवस्तु विवस्वानिदमब्रवीत्‌ | 

अयमस्म्यसितापाड़ि ब्रूहि किं करवाणि ते ।। १० ।। 

इधर भगवान्‌ सूर्य उसके पास आकर इस प्रकार बोले--'श्याम नेत्रोंवाली कुन्ती! यह 
मैं आ गया। बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? ।। १० ।। 

(आहूतोपस्थितं भद्रे ऋषिमन्त्रेण चोदितम्‌ । 

विद्धि मां पुत्रलाभाय देवमर्क शुचिस्मिते ।।) 

भदठे! मैं दुर्वासा ऋषिके दिये हुए मन्त्रसे प्रेरित हो तुम्हारे बुलाते ही तुम्हें पुत्रकी प्राप्ति 
करानेके लिये उपस्थित हुआ हूँ। पवित्र मुसकानवाली कुन्ती! तुम मुझे सूर्यदेव समझो।' 


कुन्त्युवाच 

वश्चिन्मे ब्राह्मण: प्रादाद्‌ वरं विद्यां च शत्रुहन्‌ 

तद्विजिज्ञासया55द्वानं कृतवत्यस्मि ते विभो ।। ११ ।। 

कुन्तीने कहा--शत्रुओंका नाश करनेवाले प्रभो! एक ब्राह्मणने मुझे वरदानके रूपमें 
देवताओंके आवाहनका मन्त्र प्रदान किया है। उसीकी परीक्षाके लिये मैंने आपका आवाहन 
किया था ।। ११ |। 

एतस्मिन्नपराधे त्वां शिरसाहं प्रसादये । 


योषितो हि सदा रक्ष्या: स्वापराद्धापि नित्यश: ।। १२ ।। 

यद्यपि मुझसे यह अपराध हुआ है, तो भी इसके लिये आपके चरणोंमें मस्तक रखकर 
मैं यह प्रार्थना करती हूँ कि आप क्षमापूर्वक प्रसन्न हो जाइये। स्त्रियोंसे अपना अपराध हो 
जाय, तो भी श्रेष्ठ पुरुषोंको सदा उनकी रक्षा ही करनी चाहिये || १२ ।। 

सूर्य उवाच 

वेदाहं सर्वमेवैतद्‌ यद्‌ दुर्वासा वरं ददौ । 

संत्यज्य भयमेवेह क्रियतां संगमो मम ।। १३ ।। 

सूर्यदेव बोले--शुभे! मैं यह सब जानता हूँ कि दुर्वासाने तुम्हें वर दिया है। तुम भय 
छोड़कर यहाँ मेरे साथ समागम करो ।। १३ ।। 

अमोघं दर्शन महामाहूतश्वास्मि ते शुभे । 

वथाद्वाने5पि ते भीरु दोष: स्वान्नात्र संशय: ।। १४ ।। 

शुभे! मेरा दर्शन अमोघ है और तुमने मेरा आवाहन किया है। भीरु! यदि यह आवाहन 
व्यर्थ हुआ, तो भी निःसंदेह तुम्हें बड़ा दोष लगेगा ।। १४ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

एवमुक्ता बहुविध॑ सान्त्वपूर्व विवस्व॒ता । 

सा तु नैच्छद्‌ वरारोहा कन्याहमिति भारत ।। १५ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--भारत! भगवान्‌ सूर्यने कुन्तीको समझाते हुए इस तरहकी 
बहुत-सी बातें कहीं; किंतु मैं अभी कुमारी कन्या हूँ, यह सोचकर सुन्दरी कुन्तीने उनसे 
समागमकी इच्छा नहीं की || १५ ।। 

बन्धुपक्ष भयाद्‌ भीता लज्जया च यशस्विनी । 

तामर्कः पुनरेवेदमब्रवीद्‌ भरतर्षभ ।। १६ ।। 

यशस्विनी कुन्ती भाई-बन्धुओंमें बदनामी फैलनेके डरसे भी डरी हुई थी और 
नारीसुलभ लज्जासे भी वह विवश थी। भरतश्रेष्ठ) उस समय सूर्यदेवने पुनः: उससे कहा 
-- || १६ || 

(पुत्रस्ते निर्मित: सुभ्रु शूणु यादृक्छुभानने ।। 

आदित्ये कुण्डले बिभ्रत्‌ कवचं चैव मामकम्‌ | 

शस्त्रास्त्राणामभेद्यं च भविष्यति शुचिस्मिते ।। 

न न किंचन देयं तु ब्राह्मणेभ्यो भविष्यति । 

चोद्यमानो मया चापि नाक्षमं चिन्तयिष्यति । 

दास्यत्येव हि विप्रेभ्यो मानी चैव भविष्यति ।।) 

'सुन्दर मुख एवं सुन्दर भौंहोंवाली राजकुमारी! तुम्हारे लिये जैसे पुत्रका निर्माण होगा, 
वह सुनो--शुचिस्मिते! वह माता अदितिके दिये हुए दिव्य कुण्डलों और मेरे कवचको 


धारण किये हुए उत्पन्न होगा। उसका वह कवच किन्हीं अस्त्र-शस्त्रोंसे टूट न सकेगा। उसके 
पास कोई भी वस्तु ब्राह्मणोंके लिये अदेय न होगी। मेरे कहनेपर भी वह कभी अयोग्य कार्य 
या विचारको अपने मनमें स्थान न देगा। ब्राह्मणोंके याचना करनेपर वह उन्हें सब प्रकारकी 
वस्तुएँ देगा ही। साथ ही वह बड़ा स्वाभिमानी होगा। 

मत्प्रसादान्न ते राज्ञि भविता दोष इत्युत । 

एवमुक्त्वा स भगवान्‌ कुन्तिराजसुतां तदा ।। १७ ।। 

प्रकाशकर्ता तपन: सम्बभूव तया सह । 

तत्र वीर: समभवत्‌ सर्वशस्त्रभृतां वर: । 

आमुक्तकवच: श्रीमान्‌ देवगर्भ: श्रियान्वित: ।। १८ ।। 

“रानी! मेरी कृपासे तुम्हें दोष भी नहीं लगेगा।” कुन्तिराजकुमारी कुन्तीसे यों कहकर 
प्रकाश और गरमी उत्पन्न करनेवाले भगवान्‌ सूर्यने उसके साथ समागम किया। इससे उसी 
समय एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ था। उसने जन्मसे ही कवच 
पहन रखा था और वह देवकुमारके समान तेजस्वी तथा शोभासम्पन्न था ।। १७-१८ ।। 

सहजं कवचं बिश्रत्‌ कुण्डलो द्योतितानन: । 

अजायत सुत: कर्ण: सर्वलोकेषु विश्रुत: ।। १९ ।। 

जन्मके साथ ही कवच धारण किये उस बालकका मुख जन्मजात कुण्डलोंसे 
प्रकाशित हो रहा था। इस प्रकार कर्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सब लोकोंमें विख्यात 
है ।। १९ || 

प्रादाच्च तस्यै कन्यात्वं पुन: स परमद्युति: । 

दत्त्वा च तपतां श्रेष्ठो दिवमाचक्रमे तत: ।। २० ।। 

उत्तम प्रकाशवाले भगवान्‌ सूर्यने कुलीको पुनः: कन्यात्व प्रदान किया। तत्पश्चात्‌ 
तपनेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ सूर्य देवलोकमें चले गये || २० ।। 

दृष्टवा कुमारं जात॑ सा वार्ष्णेयी दीनमानसा । 

एकाग्रं चिन्तयामास कि कृत्वा सुकृतं भवेत्‌ ।। २३१ ।। 

उस नवजात कुमारको देखकर वृष्णिवंशकी कन्या कुलीके हृदयमें बड़ा दुःख हुआ। 
उसने एकाग्रचितसे विचार किया कि अब क्‍या करनेसे अच्छा परिणाम निकलेगा ।। २१ ।। 

गूहमानापचारं सा बन्धुपक्षभयात्‌ तदा । 

उत्ससर्ज कुमारं तं जले कुन्ती महाबलम्‌ ।॥। २२ ।। 

उस समय कुट॒म्बीजनोंके भयसे अपने उस अनुचित कृत्यको छिपाती हुई कुन्तीने 
महाबली कुमार कर्णको जलमें छोड़ दिया || २२ ।। 

तमुत्सृष्टं जले गर्भ राधाभर्ता महायशा: । 

पुत्रत्वे कल्पयामास सभार्य: सूतनन्दन: ।। २३ ।। 


जलमें छोड़े हुए उस नवजात शिशुको महायशस्वी सूतपुत्र अधिरथने, जिसकी 
पत्नीका नाम राधा था, ले लिया। उसने और उसकी पत्नीने उस बालकको अपना पुत्र बना 
लिया ।। २३ ।। 

नामधेयं च चक्राते तस्य बालस्य तायुभौ | 

वसुना सह जातो<यं वसुषेणो भवत्विति ॥। २४ ।। 

उन दम्पतिने उस बालकका नामकरण इस प्रकार किया; यह वसु (कवच-कुण्डलादि 
धन)-के साथ उत्पन्न हुआ है, इसलिये वसुषेण नामसे प्रसिद्ध हो ।। २४ ।। 

स वर्थमानो बलवान्‌ सर्वास्त्रिपूद्यतो 5भवत्‌ | 

आ पृष्ठतापादादित्यमुपातिष्ठत वीर्यवान्‌ ।। २५ ।। 

वह बलवान बालक बड़े होनेके साथ ही सब प्रकारकी अस्त्रविद्यामें निपुण हुआ। 
पराक्रमी कर्ण प्रातःकालसे लेकर जबतक सूर्य पृष्ठभागकी ओर न चले जाते, सूर्योपस्थान 
करता रहता था ।। २५ ।। 

तस्मिन्‌ काले तु जपतस्तस्य वीरस्य धीमत: । 

नादेयं ब्राह्मणेष्वासीत्‌ किंचिद्‌ वसु महीतले ।। २६ ।। 

उस समय मन्त्र-जपमें लगे हुए बुद्धिमान-वीर कर्णके लिये इस पृथ्वीपर कोई ऐसी 
वस्तु नहीं थी, जिसे वह ब्राह्मणोंके माँगनेपर न दे सके || २६ ।। 

(ततः काले तु कम्मिंश्चिचत्‌ स्वप्रान्ते कर्णमब्रवीत्‌ । 

आदित्यो ब्राह्मणो भूत्वा शूणु वीर वचो मम ।। 

प्रभातायां रजन्यां त्वामागमिष्यति वासव: । 

न तस्य भिक्षा दातव्या विप्ररूपी भविष्यति ।। 

निश्चयो<स्यापहर्तु ते कवचं कुण्डले तथा । 

अतत्त्वां बोधयाम्येष स्मर्तासि वचनं मम ।। 

किसी समयकी बात है, सूर्यदेवने ब्राह्मणका रूप धारण करके कर्णको स्वप्रमें दर्शन 
दिया और इस प्रकार कहा--“वीर! मेरी बात सुनो--आजकी रात बीत जानेपर सबेरा होते 
ही इन्द्र तुम्हारे पास आयेंगे। उस समय वे ब्राह्मण-वेषमें होंगे। यहाँ आकर इन्द्र यदि तुमसे 
भिक्षा माँगें तो उन्हें देना मत। उन्होंने तुम्हारे कवच और कुण्डलोंका अपहरण करनेका 
निश्चय किया है। अतः मैं तुम्हें सचेत किये देता हूँ। तुम मेरी बात याद रखना।/ 

कर्ण उवाच 


शक्रो मां विप्ररूपेण यदि वै याचते द्विज । 

कथं चास्मै न दास्यामि यथा चास्म्यवबोधित: ।। 
विप्रा: पूज्यास्तु देवानां सततं प्रियमिच्छताम्‌ । 
त॑ देवदेव॑ जानन्‌ वै न शकनोम्यवमन्त्रणे ।। 


कर्णने कहा--ब्रह्मन! इन्द्र यदि ब्राह्मणका रूप धारण करके सचमुच मुझसे याचना 
करेंगे, तो मैं आपकी चेतावनीके अनुसार कैसे उन्हें वह वस्तु नहीं दूँगा। ब्राह्मण तो सदा 
अपना प्रिय चाहनेवाले देवताओंके लिये भी पूजनीय हैं। देवाधिदेव इन्द्र ही ब्राह्मणरूपमें 
आये हैं, यह जान लेनेपर भी मैं उनकी अवहेलना नहीं कर सकूँगा । 

सूर्य उवाच 

यद्येवं शृूणु मे वीर वरं ते सो$पि दास्यति । 

शक्ति त्वमपि याचेथा: सर्वशस्त्रविबाधिनीम्‌ ।। 

सूर्य बोले--वीर! यदि ऐसी बात है तो सुनो, बदलेमें इन्द्र भी तुम्हें वर देंगे। उस समय 
तुम उनसे सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका निराकरण करनेवाली बरछी माँग लेना। 

वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्‍त्वा द्विज: स्वप्ते तत्रैवान्तरधीयत । 

कर्ण: प्रबुद्धस्तं स्वप्नं चिन्तयानो5भवत्‌ तदा ।।) 

वैशम्पायनजी कहते हैं--स्वप्नमें यों कहकर ब्राह्मण-वेषधारी सूर्य वहीं अन्तर्धान हो 
गये। तब कर्ण जाग गया और स्वप्नकी बातोंका चिन्तन करने लगा। 

तमिन्द्रो ब्राह्मणो भूत्वा भिक्षार्थी समुपागमत्‌ । 

कुण्डले प्रार्थयामास कवचं च महाद्मयुति: ।। २७ ।। 

तत्पश्चात्‌ एक दिन महातेजस्वी देवराज इन्द्र ब्राह्मण बनकर भिक्षाके लिये कर्णके पास 
आये और उससे उन्होंने कवच और कुण्डलोंको माँगा ।। २७ ।। 

स्वशरीरात्‌ समुत्कृत्य कवचं स्वं निसर्गजम्‌ । 

कर्णस्तु कुण्डले छित्त्वा प्रायच्छत्‌ कृताञ्जलि: ।। २८ ।। 

तब कर्णने हाथ जोड़कर देवराज इन्द्रको अपने शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए कवचको 
शरीरसे उधेड़कर एवं दोनों कुण्डलोंको भी काटकर दे दिया ।। २८ ।। 

प्रतिग्रह तु देवेशस्तुष्टस्तेनास्य कर्मणा । 

(अहो साहसमित्येवं मनसा वासवो हसन्‌ । 

देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्‌ ।। 

न तं पश्यामि को होतत्‌ कर्म कर्ता भविष्यति । 

प्रीतो5स्मि कर्मणा तेन वरं वृणु यमिच्छसि ।। 

कवच और कुण्डलोंको लेकर उसके इस कर्मसे संतुष्ट हो इन्द्रने मन-ही-मन हँसते हुए 
कहा--'अहो! यह तो बड़े साहसका काम है। देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग और राक्षस 
--इनमेंसे किसीको भी मैं ऐसा साहसी नहीं देखता। भला, कौन ऐसा कार्य कर सकता है।' 
यों कहकर वे स्पष्ट वाणीमें बोले--“वीर! मैं तुम्हारे इस कर्मसे प्रसन्न हूँ, इसलिये तुम जो 
चाहो, वही वर मुझसे माँग लो।' 


कर्ण उवाच 
इच्छामि भगवहत्तां शक्तिं शत्रुनिबर्हणीम्‌ ।) 
कर्णने कहा--भगवन्‌! मैं आपकी दी हुई वह अमोघ बरछी चाहता हूँ, जो शत्रुओंका 
संहार करनेवाली है। 
वैशग्पायन उवाच 


ददौ शक्ति सुरपतिर्वाक्यं चेदमुवाच ह ।। २९ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--तब देवराज इन्द्रने बदलेमें उसे अपनी ओरसे एक बरछी 
प्रदान की और कहा-- ।॥। २९ |। 

देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्‌ । 

यमेकं जेतुमिच्छेथा: सोडनया न भविष्यति ।। ३० ।। 

“वीरवर! तुम देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग तथा राक्षसोंमेंसे जिस एकको जीतना 
चाहोगे, वही इस शक्तिके प्रहारसे नष्ट हो जायगा” || ३० ।। 

प्राड़ नाम तस्य कथितं वसुषेण इति क्षितौ । 

कर्णो वैकर्तनश्वैव कर्मणा तेन सो5भवत्‌ ।। ३१ ।। 

पहले इस पृथ्वीपर उसका नाम वसुषेण कहा जाता था। तत्पश्चात्‌ अपने शरीरसे 
कवचको कतर डालनेके कारण वह कर्ण और वैकर्तन नामसे भी प्रसिद्ध हुआ ।। ३१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि कर्णसम्भवे दशाधिकशततमो< ध्याय: 
॥। ११० || 
इस प्रकार श्रीमह्यझा भारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें कर्णकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध 
रखनेवाला एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११० ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १३ ३ श्लोक मिलाकर कुल ४४ ६ “लोक हैं) 


न्च्स्स्त्ािस्सि (9) £:ानप्ट् 


एकादशाधिकशततमोड< ध्याय: 


कुन्तीद्वारा स्वयंवरमें पाण्डुका वरण और उनके साथ 
विवाह 


वैशम्पायन उवाच 


सत्त्वरूपगुणोपेता धर्मारामा महाव्रता । 

दुहिता कुन्तिभोजस्य पृथा पृुथुललोचना ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा कुन्तिभोजकी पुत्री विशाल नेत्रोंवाली 
पृथा धर्म, सुन्दर रूप तथा उत्तम गुणोंसे सम्पन्न थी। वह एकमात्र धर्ममें ही रत रहनेवाली 
और महान्‌ व्रतोंका पालन करनेवाली थी ।। १ ।। 

तां तु तेजस्विनीं कन्यां रूपयौवनशालिनीम्‌ । 

व्यवृण्वन्‌ पार्थिवा: केचिदतीव स्त्रीगुणैर्युताम्‌ ।। २ ।। 

सत्रीजनोचित सर्वोत्तम गुण अधिक मात्रामें प्रकट होकर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। 
मनोहर रूप तथा युवावस्थासे सुशोभित उस तेजस्विनी राजकन्याके लिये कई राजाओंने 
महाराज कुन्तिभोजसे याचना की ।। २ ।। 

ततः सा कुन्तिभोजेन राज्ञा55हूय नराधिपान्‌ । 

पित्रा स्वयंवरे दत्ता दुहिता राजसत्तम ।। ३ ।। 

राजेन्द्र! तब कन्याके पिता राजा कुन्तिभोजने उन सब राजाओंको बुलाकर अपनी 
पुत्री पृथाको स्वयंवरमें उपस्थित किया ।। ३ ।। 

ततः सा रड्भरमध्यस्थं तेषां राज्ञां मनस्विनी । 

ददर्श राजशार्दूलं पाण्डु भरतसत्तमम्‌ ।। ४ ।। 

मनस्विनी कुन्तीने सब राजाओंके बीच रंगमंचपर बैठे हुए भरतवंशशिरोमणि नृपश्रेष्ठ 
पाएको देखा ।। ४ ।। 

सिंहदर्प महोरस्कं वृषभाक्षं महाबलम्‌ | 

आदित्यमिव सर्वेषां राज्ञां प्रच्छाद्य वै प्रभा: ।। ५ ।। 

उनमें सिंहके समान अभिमान जाग रहा था। उनकी छाती बहुत चौड़ी थी। उनके नेत्र 
बैलकी आँखोंके समान बड़े-बड़े थे। उनका बल महान्‌ था। वे सब राजाओंकी प्रभाको 
अपने तेजसे आच्छादित करके भगवान्‌ सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहे थे ।। ५ ।। 

तिष्ठन्तं राजसमितौ पुरन्दरमिवापरम्‌ | 

त॑ दृष्टवा सानवद्याज्ी कुन्तिभोजसुता शुभा ।। ६ ।। 

पाण्डुं नरवरं रड्जे हृदयेनाकुलाभवत्‌ । 


ततः कामपरीताज्ी सकृत्‌ प्रचलमानसा ।। ७ ।। 

उस राजसमाजमें वे द्वितीय इन्द्रके समान विराजमान थे। निर्दोष अंगोंवाली 
कुन्तिभोजकुमारी शुभलक्षणा कुन्ती स्वयंवरकी रंगभूमिमें नरश्रेष्ठ पाण्डुको देखकर मन- 
ही-मन उन्हें पानेके लिये व्याकुल हो उठी। उसके सब अंग कामसे व्याप्त हो गये और चित्त 
एकबारगी चंचल हो उठा || ६-७ ।। 

व्रीडमाना स््र॒जं कुन्ती राज्ञ: स्कन्धे समासजत्‌ । 

त॑ निशम्य वृतं पाण्डुं कुन्त्या सर्वे नराधिपा: ।। ८ ।। 

यथागतं समाजम्मुर्गजैरश्चै रथैस्तथा । 

ततस्तस्या: पिता राजन विवाहमकरोत्‌ प्रभु: ।। ९ ।। 





कुन्तीने लजाते-लजाते राजा पाण्डुके गलेमें जयमाला डाल दी। सब राजाओंने जब 
सुना कि कुन्तीने महाराज पाण्डुका वरण कर लिया, तब वे हाथी, घोड़े एवं रथों आदि 
वाहनोंद्वारा जैसे आये थे, वैसे ही अपने अपने स्थानको लौट गये। राजन! तब उसके 
पिताने (पाण्डुके साथ शास्त्रविधिके अनुसार) कुन्तीका विवाह कर दिया ।। ८-९ ।। 

स तया कुन्तिभोजस्य दुहित्रा कुरुनन्दन: । 

युयुजेडमितसौभाग्य: पौलोम्या मघवानिव ।। १० ।। 


अनन्त सौभाग्यशाली कुरुनन्दन पाए कुन्तिभोज-कुमारी कुन्तीसे संयुक्त हो शचीके 
साथ इन्द्रकी भाँति सुशोभित हुए ।। १० ।॥। 

कुन्त्या: पाण्डोश्व राजेन्द्र कुन्तिभोजो महीपति: । 

कृत्वोद्वाहं तदा तं तु नानावसुभिरचिंतम्‌ । 

स्वपुरं प्रेषयामास स राजा कुरुसत्तम || ११ ।। 

ततो बलेन महता नानाथ्वजपताकिना । 

स्तूयमान: स चाशीर्भित्रिद्यिणैश्व महर्षिभि: ।। १२ ।। 

सम्प्राप्य नगर राजा पाण्डु: कौरवनन्दन: । 

न्यवेशयत तां भार्या कुन्तीं स्वभवने प्रभु: ।॥ १३ ।। 

राजेन्द्र! महाराज कुन्तिभोजने कुन्ती और पाण्डुका विवाहसंस्कार सम्पन्न करके उस 
समय उन्हें नाना प्रकारके धन और रत्नोंद्वारा सम्मानित किया। तत्पश्चात्‌ पाण्डुको उनकी 
राजधानीमें भेज दिया। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! तब कौरवनन्दन राजा पाण्डु नाना प्रकारकी 
ध्वजापताकाओंसे सुशोभित विशाल सेनाके साथ चले। उस समय बहुत-से ब्राह्मण एवं 
महर्षि आशीर्वाद देते हुए उनकी स्तुति करवाते थे। हस्तिनापुरमें आकर उन शक्तिशाली 
नरेशने अपनी प्यारी पत्नी कुन्तीको राजमहलमें पहुँचा दिया || ११-१३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि कुन्तीविवाहे 
एकादशाधिकशततमो<ध्याय: ।। १११ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें कुन्तीविवाहविषयक एक सौ 
ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १११ ॥। 


ऑपनआक्रात बछ। अंक 


द्ादर्शाधिकशततमो< ध्याय: 


माद्रीके साथ पाण्डुका विवाह तथा राजा पाण्डुकी 
दिग्विजय 


वैशम्पायन उवाच 


ततः शान्तनवो भीष्यमो राज्ञ: पाण्डोर्यशस्विन: । 

विवाहस्यापरस्यार्थे चकार मतिमान्‌ मतिम्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तदनन्तर शान्तनुनन्दन परम बुद्धिमान्‌ 
भीष्मजीने यशस्वी राजा पाण्डुके द्वितीय विवाहके लिये विचार किया ।। १ ।। 

सोअमात्यै: स्थविरे: सार्ध ब्राह्मणैश्न महर्षिभि: | 

बलेन चतुरज्जेण ययौ मद्रपते: पुरम ।। २ ।। 

वे बूढ़े मन्त्रियों, ब्राह्मणों, महर्षियों तथा चतुरंगिणी सेनाके साथ मद्रराजकी राजधानीमें 
गये ।। २ ।। 

तमागतमभिशश्रुत्य भीष्म॑ बाह्लीकपुड्भव: । 

प्रत्युद्गम्यार्चयित्वा च पुरं प्रावेशयन्नूप: ।॥ ३ ।। 

बाह्लीकशिरोमणि राजा शल्य भीष्मजीका आगमन सुनकर उनकी अगवानीके लिये 
नगरसे बाहर आये और यथोचित स्वागत-सत्कार करके उन्हें राजधानीके भीतर ले 
गये ।। ३ ।। 

दत्त्वा तस्यासन शुभ्र॑ पाद्यमर्घ्य तथैव च | 

मधुपर्क च महेश: पप्रच्छागमने<र्थिताम्‌ ।। ४ ।। 

वहाँ उनके लिये सुन्दर आसन, पाद्य, अर्घ्य तथा मधुपर्क अर्पण करके मद्रराजने 
भीष्मजीसे उनके आगमनका प्रयोजन पूछा ।। ४ ।। 

त॑ भीष्म: प्रत्युवाचेदं मद्रराजं कुरूद्गह: । 

आगतं मां विजानीहि कन्यार्थिनमरिन्दम ।। ५ ।। 

तब कुरुकुलका भार वहन करनेवाले भीष्मजीने मद्रराजसे इस प्रकार कहा 
--“शत्रुदमन! तुम मुझे कनन्‍्याके लिये आया हुआ समझो ।। ५ ।। 

श्रूयते भवतः साध्वी स्वसा माद्री यशस्विनी । 

तामहं वरयिष्यामि पाण्डोरथ्थें यशस्विनीम्‌ ।। ६ ।। 

'सुना है, तुम्हारी एक यशस्विनी बहिन है, जो बड़े साधु स्वभावकी है; उसका नाम 
माद्री है। मैं उस यशस्विनी माद्रीका अपने पाण्डुके लिये वरण करता हूँ ।। ६ ।। 

युक्तरूपो हि सम्बन्धे त्वं नो राजन्‌ वयं तव । 


एतत्‌ संचिन्त्य मद्रेश गृहाणास्मान्‌ यथाविधि ।। ७ ।। 

“राजन! तुम हमारे यहाँ सम्बन्ध करनेके सर्वथा योग्य हो और हम भी तुम्हारे योग्य हैं। 
मद्रेश्वर! यों विचारकर तुम हमें विधिपूर्वक अपनाओ” ।। ७ ।। 

तमेवंवादिनं भीष्म॑ प्रत्यभाषत मद्रप: । 

न हि मे<न्यो वरस्त्वत्त: श्रेयानिति मतिर्मम ।। ८ || 

भीष्मजीके यों कहनेपर मद्रराजने उत्तर दिया--'मेरा विश्वास है कि आपलोगोंसे श्रेष्ठ 
वर मुझे दूँढ़नेसे भी नहीं मिलेगा” || ८ ।। 

पूर्व: प्रवर्तितं किंचित्‌ कुले5स्मिन्‌ नृपसत्तमै: । 

साधु वा यदि वासाधु तन्नातिक्रान्तुमुत्सहे ।। ९ ।। 

'परंतु इस कुलमें पहलेके श्रेष्ठ राजाओंने कुछ शुल्क लेनेका नियम चला दिया है। वह 
अच्छा हो या बुरा, मैं उसका उल्लंघन नहीं कर सकता ।। ९ ।। 

व्यक्त तद्‌ भवतश्चापि विदितं नात्र संशय: । 

न च युक्त तथा वक्तुं भवान्‌ देहीति सत्तम ।। १० ।। 

“यह बात सबपर प्रकट है, निःसंदेह आप भी इसे जानते होंगे। साधुशिरोमणे! इस 
दशामें आपके लिये यह कहना उचित नहीं है कि मुझे कन्या दे दो” || १० ।। 

कुलधर्म: स नो वीर प्रमाणं परमं च तत्‌ | 

तेन त्वां न ब्रवीम्येतदसंदिग्ध॑ वचोडरिहन्‌ ।। ११ ।। 

“वीर! वह हमारा कुलधर्म है और हमारे लिये वही परम प्रमाण है। शत्रुदमन! इसीलिये 
मैं आपसे निश्चितरूपसे यह नहीं कह पाता कि कन्या दे दूँगा” ।। ११ ।। 

त॑ भीष्म: प्रत्युवाचेदं मद्रराज॑ं जनाधिप: । 

धर्म एष परो राजन्‌ स्वयमुक्त: स्वयम्भुवा || १२ ।। 

यह सुनकर जनेश्वर भीष्मजीने मद्रराजको इस प्रकार उत्तर दिया--'राजन्‌! यह उत्तम 
धर्म है। स्वयं स्वयम्भू ब्रह्माजीने इसे धर्म कहा है” || १२ ।। 

नात्र कश्नन दोषो<स्ति पूर्वधिरयं कृत: । 

विदितेय च ते शल्य मर्यादा साधुसम्मता ।। १३ ।। 

“यदि तुम्हारे पूर्वजोंने इस विधिको स्वीकार कर लिया है तो इसमें कोई दोष नहीं है। 
शल्य! साधु पुरुषोंद्वारा सम्मानित तुम्हारी यह कुलमर्यादा हम सबको विदित है” ।। १३ ।। 

इत्युक्त्वा स महातेजा: शातकुम्भं कृताकृतम्‌ 

रत्नानि च विचित्राणि शल्यायादात्‌ सहस्रश: ।। १४ ।। 

गजानश्चान्‌ रथांश्वैव वासांस्यथाभरणानि च । 

मणिमुक्ताप्रवालं च गाड़ेयो व्यसृजच्छूभम्‌ ।। १५ ।। 

यह कहकर महातेजस्वी भीष्मजीने राजा शल्यको सोना और उसके बने हुए आभूषण 
तथा सहस्ौ्रों विचित्र प्रकारके रत्न भेंट किये। बहुत-से हाथी, घोड़े, रथ, वस्त्र, अलंकार तथा 


मणि-मोती और मूँगे भी दिये || १४-१५ ।। 

तत्‌ प्रगृह्म धनं सर्व शल्य: सम्प्रीतमानस: । 

ददौ तां समलंकृत्य स्वसारं कौरवर्षभे ।। १६ ।। 

वह सारा धन लेकर शल्यका चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने अपनी बहिनको 
वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके राजा पाण्डुके लिये कुरुश्रेष्ठ भीष्मजीको सौंप 
दिया ।। १६ ।। 

सतां माद्रीमुपादाय भीष्म: सागरगासुतः । 

आजगाम पुरीं धीमान्‌ प्रविष्टो गजसाह्वयम्‌ ।। १७ ।। 

परम बुद्धिमान्‌ गंगानन्दन भीष्म माद्रीको लेकर हस्तिनापुरमें आये ।। १७ ।। 

तत इष्टेडहनि प्राप्ते मुहूर्ते साधुसम्मते । 

जग्राह विधिवत पार्णिं माद्रया: पाण्डु्नराधिप: ।। १८ ।। 

तदनन्तर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा अनुमोदित शुभ दिन और सुन्दर मुहूर्त आनेपर राजा 
पाण्डुने माद्रीका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।। १८ ।। 

ततो विवाहे निर्वत्ते स राजा कुरुनन्दन: । 

स्थापयामास तां भार्या शुभे वेश्मनि भाविनीम्‌ ।। १९ ।। 

इस प्रकार विवाह-कार्य सम्पन्न हो जानेपर कुरुनन्दन राजा पाण्डुने अपनी 
कल्याणमयी भार्याको सुन्दर महलमें ठहराया ।। १९ ।। 

स ताभ्यां व्यचरत्‌ सार्ध भारयशभ्यां राजसत्तम: | 

कुन्त्या माद्रया च राजेन्द्रो यथाकामं यथासुखम्‌ ।। २० ।। 

राजाओंमें श्रेष्ठ महाराज पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों कुन्ती और माद्रीके साथ 
आनन्दपूर्वक यथेष्ट विहार करने लगे || २० ।। 

तत:ः स कौरवो राजा विद्ृत्य त्रिदशा निशा: । 

जिगीषया महीं पाण्डुर्निरिक्रामत्‌ पुरात्‌ प्रभो ।। २१ ।। 

जनमेजय! कुरुवंशी राजा पाण्डु तीस रात्रियोंतक विहार करके समूची पृथ्वीपर विजय 
प्राप्त करनेकी इच्छा लेकर राजधानीसे बाहर निकले ।। २१ ।। 

स भीष्मप्रमुखान्‌ वृद्धानभिवाद्य प्रणम्य च । 

धृतराष्ट्रं च कौरव्यं तथान्यान्‌ कुरुसत्तमान्‌ | 

आमन्त्र्य प्रययौ राजा तैश्वैवाप्यनुमोदित: ।। २२ ।। 

मड़लाचारयुक्ताभिराशीर्भिरभिनन्दित: । 

गजवाजिरथीघेन बलेन महतागमत्‌ ।। २३ ।। 

उन्होंने भीष्म आदि बड़े-बूढ़ोंके चरणोंमें मस्तक झुकाया। कुशनन्दन धृतराष्ट्र तथा 
अन्य श्रेष्ठ कुशवंशियोंको प्रणाम करके उन सबकी आज्ञा ली और उनका अनुमोदन 


मिलनेपर मंगलाचारयुत्ह आशीर्वादोंसे अभिनन्दित हो हाथी, घोड़ों तथा रथसमुदायसे युक्त 
विशाल सेनाके साथ प्रस्थान किया || २२-२३ ।। 

स राजा देवगर्भाभो विजिगीषुर्वसुंधराम्‌ । 

हृष्टपुष्टबलै: प्रायात्‌ पाण्डु: शत्रूननेकश: ।। २४ ।। 

राजा पाण्डु देवकुमारके समान तेजस्वी थे। उन्होंने इस पृथ्वीपर विजय पानेकी 
इच्छासे हृष्ट-पुष्ट सैनिकोंके साथ अनेक शत्रुओंपर धावा किया ।। २४ ।। 

पूर्वमागस्कृतो गत्वा दशार्णा: समरे जिता: । 

पाण्डुना नरसिंहेन कौरवाणां यशोभूता ।। २५ ।। 

कौरवकुलके सुयशको बढ़ानेवाले, मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी राजा पाण्डुने 
सबसे पहले पूर्वके अपराधी दशार्णोंपर- धावा करके उन्हें युद्धमें परास्त किया || २५ ।। 

ततः सेनामुपादाय पाण्डु्नानाविधध्वजाम्‌ | 

प्रभूतहस्त्यश्वयुतां पदातिरथसंकुलाम्‌ ।। २६ ।। 

आगमस्कारी महीपानां बहूनां बलदर्पित: । 

गोप्ता मगधराष्ट्रस्य दीर्घो राजगृहे हत: ।। २७ ।। 

तत्पश्चात्‌ वे नाना प्रकारकी ध्वजा-पताकाओंसे युक्त और बहुसंख्यक हाथी, घोड़े, रथ 
एवं पैदलोंसे भरी हुई भारी सेना लेकर मगधदेशमें गये। वहाँ राजगृहमें अनेक राजाओंका 
अपराधी बलाभिमानी मगधराज दीर्घ उनके हाथसे मारा गया || २६-२७ || 

ततः कोशं समादाय वाहनानि च भूरिश: । 

पाण्डुना मिथिलां गत्वा विदेहा: समरे जिता: ॥। २८ ।। 

उसके बाद भारी खजाना और वाहन आदि लेकर पाण्डुने मिथिलापर चढ़ाई की और 
विदेहवंशी क्षत्रियोंको युद्धमें परास्त किया || २८ ।। 

तथा काशिषु सुद्मोषु पुण्ड्रेषु च नरर्षभ । 

स्वबाहुबलवीर्येण कुरूणामकरोद्‌ यश: ।। २९ ।। 

नरश्रेष्ठ जनमेजय! इस प्रकार वे पाण्डु काशी, सहा तथा पुण्ड्र देशोंपर विजय पाते हुए 
अपने बाहुबल और पराक्रमसे कुरुकुलके यशका विस्तार करने लगे || २९ ।। 

त॑ शरौघमहाच्वालं शस्त्रार्चिषमरिन्दमम्‌ | 

पाण्डुपावकमासाद्य व्यदह्युन्त नराधिपा: ।। ३० || 

उस समय शशत्रुदमन राजा पाण्डु प्रजजलित अग्निके समान सुशोभित थे। बाणोंका 
समुदाय उनकी बढ़ती हुई ज्वालाके समान जान पड़ता था। खड़्ग आदि शस्त्र लपटोंके 
समान प्रतीत होते थे। उनके पास आकर बहुतसे राजा भस्म हो गये ।। ३० ।। 

ते ससेना: ससेनेन विध्वंसितबला तपा: । 

पाण्डुना वशगा: कृत्वा कुरुकर्मसु योजिता: ।। ३१ ।। 


सेनासहित राजा पाण्डुने सामने आये हुए सैन्यसहित नरपतियोंकी सारी सेनाएँ नष्ट 
कर दीं और उन्हें अपने अधीन करके कौरवोंके आज्ञापालनमें नियुक्त कर दिया ।। ३१ ।। 

तेन ते निर्जिता: सर्वे पृथिव्यां सर्वपार्थिवा: । 

तमेकं मेनिरे शूरं देवेष्विव पुरंदरम्‌ ।। ३२ ।। 

पाण्डुके द्वारा परास्त हुए समस्त भूपालगण देवताओंमें इन्द्रकी भाँति इस पृथ्वीपर सब 
मनुष्योंमें एकमात्र उन्हींको शूरवीर मानने लगे ।। ३२ ।। 

त॑ कृताञज्जलय: सर्वे प्रणता वसुधाधिपा: । 

उपाजम्मुर्धनं गृह रत्नानि विविधानि च ।। ३३ ।। 

भूतलके समस्त राजाओंने उनके सामने हाथ जोड़कर मस्तक टेक दिये और नाना 
प्रकारके रत्न एवं धन लेकर उनके पास आये ।। ३३ ।। 

मणिमुक्ताप्रवालं च सुवर्ण रजतं बहु । 

गोरत्नान्यश्वरत्नानि रथरत्नानि कुड्जरान्‌ ।। ३४ ।। 

खरोष्टमहिषी श्वैव यच्च किंचिदजाविकम्‌ । 

कम्बलाजिनरत्नानि राड़कवास्तरणानि च । 

तत्‌ सर्व प्रतिजग्राह राजा नागपुराधिप: ।। ३५ ।। 

राजाओंके दिये हुए ढेर-के-ढेर मणि, मोती, मूँगे, सुवर्ण, चाँदी, गोरत्न, अश्वरत्न, 
रथरत्न, हाथी, गदहे, ऊँट, भैंसें, बकरे, भेंड़ें, कम्बल, मृगचर्म, रत्न, रंकु मृगके चर्मसे बने 
हुए बिछौने आदि जो कुछ भी सामान प्राप्त हुए, उन सबको हस्तिनापुराधीश राजा पाण्डुने 
ग्रहण कर लिया ।। ३४-३५ ।। 

तदादाय ययौ पाण्डु: पुनर्मुदितवाहन: । 

हर्षयिष्यन्‌ स्वराष्ट्राणि पुरं च गजसाह्दयम्‌ ॥। ३६ ।। 

वह सब लेकर महाराज पाण्डु अपने राष्ट्रके लोगोंका हर्ष बढ़ाते हुए पुनः हस्तिनापुर 
चले आये। उस समय उनकी सवारीके अश्व आदि भी बहुत प्रसन्न थे || ३६ ।। 

शन्तनो राजसिंहस्य भरतस्य च धीमत: । 

प्रणष्ट: कीर्तिज: शब्द: पाण्डुना पुनराहृत: ।। ३७ ।। 

राजाओंमें सिंहके समान पराक्रमी शन्तनु तथा परम बुद्धिमान्‌ भरतकी कीर्ति-कथा जो 
नष्ट-सी हो गयी थी, उसे महाराज पाण्डुने पुनरुज्जीवित कर दिया ।। ३७ ।। 

ये पुरा कुरुराष्ट्राणि जहुः कुरुधनानि च । 

ते नागपुरसिंहेन पाण्डुना करदीकृता: ।। ३८ ।। 

जिन राजाओंने पहले कुरुदेशके धन तथा कुरुराष्ट्रका अपहरण किया था, उनको 
हस्तिनापुरके सिंह पाण्डुने करद बना दिया ।। ३८ ।। 

इत्यभाषन्त राजानो राजामात्याश्व संगता: । 

प्रतीतमनसो हृष्टाः पौरजानपदै: सह ।। ३९ ।। 


बहुत-से राजा तथा राजमन्त्री एकत्र होकर इस तरहकी बातें कर रहे थे। उनके साथ 
नगर और जनपदके लोग भी इस चर्चामें सम्मिलित थे। उन सबके हृदयमें पाण्डुके प्रति 
विश्वास तथा हर्षोल्लास छा रहा था ।। ३९ |। 


प्रत्युद्ययुश्न त॑ प्राप्तं सर्वे भीष्मपुरोगमा: । 

ते नदूरमिवाध्वानं गत्वा नागपुरालयात्‌ ॥। ४० ।। 
आवृतं ददृशुर्ष्टा लोक॑ बहुविधेर्धने: । 
नानायानसमानीतै रत्नैरुच्चावचैस्तदा || ४१ ।। 
हस्त्यश्वरथरत्नैश्व गोभिरुष्टैस्तथाविभि: । 


नान्‍्तं ददृशुरासाद्य भीष्मेण सह कौरवा: ।। ४२ ।। 

राजा पाण्डु जब नगरके निकट आये, तब भीष्म आदि सब कौरव उनकी अगवानीके 
लिये आगे बढ़ आये। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक देखा, राजा पाण्डु और उनका दल बड़े 
उत्साहके साथ आ रहे हैं। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो वे लोग हस्तिनापुरसे थोड़ी 
ही दूरतक जाकर वहाँसे लौट रहे हों। उनके साथ भाँति-भाँतिके धन एवं नाना प्रकारके 
वाहनोंपर लादकर लाये हुए छोटे-बड़े रत्न, श्रेष्ठ हाथी, घोड़े, रथ, गौएँ, ऊँट तथा भेंड़ आदि 
भी थे। भीष्मके साथ कौरवोंने वहाँ जाकर देखा, तो उस धन-वैभवका कहीं अन्त नहीं 
दिखायी दिया || ४०--४२ ।। 

सो5भिवाद्य पितु: पादौ कौसल्यानन्दवर्धन: । 

यथा मानयामास पौरजानपदानपि ।। ४३ ।। 

कौसल्याका- आनन्द बढ़ानेवाले पाण्डुने निकट आकर पितृव्य भीष्मके चरणोंमें 
प्रणाम किया और नगर तथा जनपदके लोगोंका भी यथायोग्य सम्मान किया || ४३ ।। 

प्रमृद्य परराष्ट्राणि कृतार्थ पुनरागतम्‌ । 

पुत्रमाश्लिष्य भीष्मस्तु हर्षादश्रूण्यवर्तयत्‌ ।। ४४ ।। 

शत्रुओंके राज्योंको धूलमें मिलाकर कृतकृत्य होकर लौटे हुए अपने पुत्र पाण्डुका 
आलिंगन करके भीष्मजी हर्षके आँसू बहाने लगे || ४४ ।। 

स तूर्यशतशड्खानां भेरीणां च महास्वनै: । 

हर्षयन्‌ सर्वश: पौरान्‌ विवेश गजसाह्वयम्‌ ।। ४५ ।। 

सैकड़ों शंख, तुरही एवं नगारोंकी तुमुल ध्वनिसे समस्त पुरवासियोंको आनन्दित करते 
हुए पाण्डुने हस्तिनापुरमें प्रवेश किया || ४५ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डुदिग्विजये 
दादशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११२ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्ड्रविग्विजयविषयक एक सौ 
बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११२ ॥ 


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- किन्ध्यपर्वतके पूर्व-दक्षिणकी ओर स्थित उस प्रदेशका प्राचीन नाम दशार्ण है, जिससे होकर धसान नदी बहती है। 
विदिशा (आधुनिक भिलसा) इसी प्रदेशकी राजधानी थी। 


- काशिराज कोसलकी कन्या होनेसे अम्बिका और अम्बालिका दोनों ही कौसल्या कहलाती थीं। 


त्रयोदशाधिकशततमो< ध्याय: 


राजा पाण्डुका पत्नियोंसहित वनमें निवास तथा विदुरका 
विवाह 


वैशम्पायन उवाच 


धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञात: स्वबाहुविजितं धनम्‌ । 

भीष्माय सत्यवत्यै च मात्रे चोपजहार स: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! बड़े भाई धृतराष्ट्रकी आज्ञा लेकर राजा पाण्डुने 
अपने बाहुबलसे जीते हुए धनको भीष्म, सत्यवती तथा माता अम्बिका और अम्बालिकाको 
भेंट किया ।। १ ।। 

विदुराय च वै पाण्डुः प्रेषयामास तद्‌ धनम्‌ । 

सुहृदश्चापि धर्मात्मा धनेन समतर्पयत्‌ ।। २ ।। 

उन्होंने विदुरजीके लिये भी वह धन भेजा। धर्मात्मा पाण्डुने अन्य सुहृदोंको भी उस 
धनसे तृप्त किया ।। २ ।। 

ततः सत्यवती भीष्मं कौसल्यां च यशस्विनीम्‌ | 

शुभै: पाण्डुजितैररथ्थैस्तोषयामास भारत ।। ३ ।। 

ननन्द माता कौसल्या तमप्रतिमतेजसम्‌ । 

जयन्तमिव पौलोमी परिष्वज्य नरर्षभम्‌ ।। ४ ।। 

भारत! तत्पश्चात्‌ सत्यवतीने पाण्डुद्वारा जीतकर लाये हुए शुभ धनके द्वारा भीष्म और 
यशस्विनी कौसल्याको भी संतुष्ट किया। माता कौसल्याने अनुपम तेजस्वी नरश्रेष्ठ पाण्डुकी 
उसी प्रकार हृदयसे लगाकर उनका अभिनन्दन किया, जैसे शची अपने पुत्र जयन्तका 
अभिनन्दन करती हैं ।। ३-४ ।। 

तस्य वीरस्य विक्रान्तै: सहस्रशतदक्षिणै: । 

अश्वमेधशतैरीजे धृतराष्ट्री महामखै: ।। ५ ।। 

वीरवर पाण्डुके पराक्रमसे धृतराष्ट्रने बड़े-बड़े सौ अश्वमेध यज्ञ किये तथा प्रत्येक यज्ञमें 
एक-एक लाख स्वर्णमुद्राओंकी दक्षिणा दी ।। ५ ।। 

सम्प्रयुक्तस्तु कुन्त्या च माद्र्या च भरतर्षभ । 

जितलन्द्रीस्तदा पाण्डुर्बभूव वनगोचर: ।। ६ ।। 

हित्वा प्रासादनिलयं शुभानि शयनानि च । 

अरण्यनित्य: सततं बभूव मृगयापर: ।। ७ ।। 


भरतश्रेष्ठ! राजा पाण्डुने आलस्यको जीत लिया था। वे कुन्ती और माद्रीकी प्रेरणासे 
राजमहलोंका निवास और सुन्दर शय्याएँ छोड़कर वनमें रहने लगे। पाण्डु सदा वनमें रहकर 
शिकार खेला करते थे ।। ६-७ ।। 

स चरन्‌ दक्षिण पार्श्व॑ रम्यं हिमवतो गिरे: । 

उवास गिरिपृष्ठेषु महाशालवनेषु च ।। ८ ।। 

वे हिमालयके दक्षिण भागकी रमणीय भूमिमें विचरते हुए पर्वतके शिखरोंपर तथा ऊँचे 
शालवृक्षोंसे सुशोभित वनोंमें निवास करते थे ।। ८ ।। 

रराज कुन्त्या माद्रया च पाण्डु: सह वने चरन्‌ । 

करेण्वोरिव मध्यस्थ: श्रीमान्‌ पौरंदरो गज: ।। ९ ।। 

कुन्ती और माद्रीके साथ वनमें विचरते हुए महाराज पाण्डु दो हथिनियोंके बीचमें स्थित 
ऐरावत हाथीकी भाँति शोभा पाते थे ।। ९ ।। 

भारतं सह भार्याभ्यां खड़्गबाणधनुर्धरम्‌ । 

विचित्रकवचं वीरं परमास्त्रविदं नृपम्‌ 

देवो5यमित्यमन्यन्त चरन्तं वनवासिन: ।। १० ।। 

तलवार, बाण, धनुष और विचित्र कवच धारण करके अपनी दोनों पत्नियोंके साथ 
भ्रमण करनेवाले महान्‌ अस्त्रवेत्ता भरतवंशी राजा पाण्डुको देखकर वनवासी मनुष्य यह 
समझते थे कि ये कोई देवता हैं || १० ।। 

तस्य कामांश्व भोगांश्व नरा नित्यमतन्द्रिता: । 

उपाजहुर्वनान्तेषु धृतराष्ट्रेण चोदिता: ।। ११ ।। 

धृतराष्ट्रकी आज्ञासे प्रेरित हो बहुत-से मनुष्य आलस्य छोड़कर वनमें महाराज पाण्डुके 
लिये इच्छानुसार भोगसामग्री पहुँचाया करते थे || ११ ।। 

अथ पारशवीं कन्यां देवकस्य महीपते: । 

रूपयौवनसम्पन्नां स शुश्रावापगासुत: ।। १२ ।। 

एक समय गंगानन्दन भीष्मजीने सुना कि राजा देवकके यहाँ एक कन्या है, जो 
शूद्रजातीय स्त्रीके गर्भसे ब्राह्मणद्वारा उत्पन्न की गयी है। वह सुन्दर रूप और युवावस्थासे 
सम्पन्न है ।। १२ ।। 

ततस्तु वरयित्वा तामानीय भरतर्षभः । 

विवाहं कारयामास विदुरस्य महामते: ।। १३ ।। 

तब इन भरतश्रेष्ठने उसका वरण किया और उसे अपने यहाँ ले आकर उसके साथ 
परम बुद्धिमान्‌ विदुरजीका विवाह कर दिया ।। १३ ।। 

तस्यां चोत्पादयामास विदुर: कुरुनन्दन: । 

पुत्रान्‌ विनयसम्पन्नानात्मन: सदृशान्‌ गुणै: ॥। १४ ।। 


कुरुनन्दन विदुरने उसके गर्भसे अपने ही समान गुणवान्‌ और विनयशील अनेक पुत्र 
उत्पन्न किये ।। १४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि विदुरपरिणये 
त्रयोदशाधिकशततमो< ध्याय: ।। ११३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें विदुरविवाहविषयक एक सौ 
तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११३ ॥ 


अपन काल बछ। | अफ्-#-रल 


चतुर्दशाधिकशततमो< ध्याय: 


भूतराष्ट्रके गान्धारीसे एक सौ पुत्र तथा एक कन्याकी तथा 
करनेवाली वैश्यजातीय युवतीसे युयुत्सु नामक एक 
पुत्रकी उत्पत्ति 


वैशम्पायन उवाच 


ततः पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्या जनमेजय । 

धृतराष्ट्रस्य वैश्यायामेकश्चापि शतात्‌ पर: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर धृतराष्ट्रके उनकी पत्नी गान्धारीके 
गर्भसे एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्रकी एक दूसरी पत्नी वैश्यजातिकी कन्या थी। उससे 
भी एक पुत्रका जन्म हुआ। यह पूर्वोक्त सौ पुत्रोंसे भिन्न था ।। १ ।। 

पाण्डो: कुन्त्यां च माद्रयां च पुत्रा: पजच महारथा: । 

देवेभ्य: समपद्यन्त संतानाय कुलस्य वै ।। २ ।। 

पाण्डुके कुन्ती और माद्रीके गर्भसे पाँच महारथी पुत्र उत्पन्न हुए। वे सब कुरुकुलकी 
संतानपरम्पराकी रक्षाके लिये देवताओंके अंशसे प्रकट हुए थे ।। २ ।। 

जनमेजय उवाच 

कथं पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्या द्विजसत्तम | 

कियता चैव कालेन तेषामायुश्न कि परम्‌ ॥। ३ ।। 

जनमेजयने पूछा--द्विजश्रेष्ठ! गान्धारीसे सौ पुत्र किस प्रकार और कितने समयमें 
उत्पन्न हुए? और उन सबकी पूरी आयु कितनी थी? || ३ ।। 

कथं चैक: स वैश्यायां धृतराष्ट्रसुतो&भवत्‌ । 

कथं च सदृशीं भार्या गान्धारीं धर्मचारिणीम्‌ ॥। ४ ।। 

आनुकूल्ये वर्तमानां धृतराष्ट्रो भ्यवर्तत । 

कथं च शप्तस्य सत: पाण्डोस्तेन महात्मना ।। ५ ।। 

समुत्पन्ना दैवतेभ्य: पुत्रा: पठच महारथा: । 

एतदू विद्वन्‌ यथान्यायं विस्तरेण तपोधन ।। ६ ।। 

कथयस्व न मे तृप्ति: कथ्यमानेषु बन्धुषु । 


वैश्यजातीय स्त्रीके गर्भसे धृतराष्ट्रका वह एक पुत्र किस प्रकार उत्पन्न हुआ? राजा 
धृतराष्ट्र सदा अपने अनुकूल चलनेवाली योग्य पत्नी धर्मपरायणा गान्धारीके साथ कैसा 
बर्ताव करते थे? महात्मा मुनि-द्वारा शापको प्राप्त हुए राजा पाण्डुके वे पाँचों महारथी पुत्र 
देवताओंके अंशसे कैसे उत्पन्न हुए? विद्वान्‌ तपोधन! ये सब बातें यथोचित रूपसे 
विस्तारपूर्वक कहिये। अपने बन्धुजनोंकी यह चर्चा सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती || ४-६ $ई 
|| 
वैशम्पायन उवाच 


क्षुच्छूमाभिपरिग्लानं द्वैपायनमुपस्थितम्‌ ।। ७ ।। 

तोषयामास गान्धारी व्यासस्तस्यै वरं ददौ । 

सा वत्रे सदृशं भर्तु: पुत्राणां शतमात्मन: ।। ८ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! एक समयकी बात है, महर्षि व्यास भूख और 
परिश्रमसे खिन्न होकर धृतराष्ट्रके यहाँ आये। उस समय गान्धारीने भोजन और विश्रामकी 
व्यवस्थाद्वारा उन्हें संतुष्ट किया। तब व्यासजीने गान्धारीको वर देनेकी इच्छा प्रकट की। 
गान्धारीने अपने पतिके समान ही सौ पुत्र माँगे || ७-८ ।। 


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ततः कालेन सा गर्भ धृतराष्ट्रादथाग्रहीत्‌ । 


संवत्सरद्वयं तं तु गान्धारी गर्भभाहितम्‌ ।। ९ ।। 

अप्रजा धारयामास ततस्तां दुःखमाविशत्‌ | 

श्रुत्वा कुन्तीसुतं जातं॑ बालार्कसमतेजसम्‌ ।। १० ।। 

तदनन्तर समयानुसार गान्धारीने धृतराष्ट्रसे गर्भ धारण किया। दो वर्ष व्यतीत हो गये, 
तबतक गान्धारी उस गर्भको धारण किये रही। फिर भी प्रसव नहीं हुआ। इसी बीचमें 
गान्धारीने जब यह सुना कि कुन्तीके गर्भसे प्रातः:कालीन सूर्यके समान तेजस्वी पुत्रका 
जन्म हुआ है, तब उसे बड़ा दुःख हुआ ।। ९-१० || 

उदरस्यात्मन: स्थैर्यमुपलभ्यान्वचिन्तयत्‌ । 

अज्ञातं धृतराष्ट्रस्य यत्नेन महता तत: ।। ११ ।। 

सोदरं घातयामास गान्धारी दुःखमूर्च्छिता । 

ततो जज्ञे मांसपेशी लोहाषछ्ठीलेव संहता ।। १२ ।। 

उसे अपने उदरकी स्थिरतापर बड़ी चिन्ता हुई। गान्धारी दुः:खसे मूर्च्छित हो रही थी। 
उसने धृतराष्ट्रकी अनजानमें ही महान्‌ प्रयत्न करके अपने उदरपर आघात किया। तब 
उसके गर्भसे एक मांसका पिण्ड प्रकट हुआ, जो लोहेके पिण्डके समान कड़ा 
था ।। ११-१२ || 

द्विवर्षसम्भृता कुक्षौ तामुत्स्रष्ठं प्रचक्रमे । 

अथ दड्वैपायनो ज्ञात्वा त्वरित: समुपागमत्‌ ।। १३ ।। 

उसने दो वर्षोतक उसे पेटमें धारण किया था, तो भी उसने उसे इतना कड़ा देखकर 
फेंक देनेका विचार किया। इधर यह बात महर्षि व्यासको मालूम हुई। तब वे बड़ी 
उतावलीके साथ वहाँ आये ।। १३ ।। 

तां स मांसमयीं पेशीं ददर्श जपतां वर: । 

ततोअ<ब्रवीत्‌ सौबलेयीं किमिदं ते चिकीर्षितम्‌ ।। १४ ।। 

जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ व्यासजीने उस मांसपिण्डको देखा और गान्धारीसे पूछा--“तुम 
इसका क्या करना चाहती थीं?” ।। १४ ।। 

सा चात्मनो मतं सत्यं शशंस परमर्षये । 

और उसने महर्षिको अपने मनकी बात सच-सच बता दी। 

गान्धायुवाच 

ज्येष्ठ कुन्तीसुतं जात॑ श्रुत्वा रविसमप्रभम्‌ ।। १५ ।। 

दुःखेन परमेणेदमुदरं घातितं मया । 

शतं च किल पुत्राणां वितीर्ण मे त्वया पुरा ।। १६ ।। 

इयं च मे मांसपेशी जाता पुत्रशताय वै | 


गान्धारीने कहा--मुने! मैंने सुना है, कुन्तीके एक ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ है, जो सूर्यके 
समान तेजस्वी है। यह समाचार सुनकर अत्यन्त दुःखके कारण मैंने अपने उदरपर आघात 
करके गर्भ गिराया है। आपने पहले मुझे ही सौ पुत्र होनेका वरदान दिया था; परंतु आज 
इतने दिनों बाद मेरे गर्भसे सौ पुत्रोंकी जगह यह मांसपिण्ड पैदा हुआ है || १५-१६ ३ ।। 
व्यास उवाच 


एवमेतत्‌ सौबलेयि नैतज्जात्वन्यथा भवेत्‌ ॥। १७ ।। 

व्यासजीने कहा--सुबलकुमारी! यह सब मेरे वरदानके अनुसार ही हो रहा है; वह 
कभी अन्यथा नहीं हो सकता ।। १७ ।। 

वितथं नोक्तपूर्व मे स्वैरेष्वपि कुतो5न्यथा । 

घृतपूर्ण कुण्डशतं क्षिप्रमेव विधीयताम्‌ ।। १८ ।। 

मैंने कभी हास-परिहासके समय भी झूठी बात मुहसे नहीं निकाली है। फिर वरदान 
आदि अन्य अवसरोंपर कही हुई मेरी बात झूठी कैसे हो सकती है। तुम शीघ्र ही सौ मटके 
(कुण्ड) तैयार कराओ और उन्हें घीसे भरवा दो ।। १८ ।। 

सुगुप्तेषु च देशेषु रक्षा चैव विधीयताम्‌ 

शीताभिरद्धिरष्ठीलामिमां च परिषेचय ।। १९ |। 

फिर अत्यन्त गुप्त स्थानोंमें रखकर उनकी रक्षा की भी पूरी व्यवस्था करो। इस 
मांसपिण्डको ठंडे जलसे सींचो ।। १९ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


सा सिच्यमाना त्वष्ठीला बभूव शतधा तदा । 

अड्गुष्ठपर्वमात्राणां गर्भाणां पृथगेव तु ।। २० ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस समय सींचे जानेपर उस मांसपिण्डके सौ 
टुकड़े हो गये। वे अलग-अलग आँगूठेके पोरुवे बराबर सौ गर्भोंके रूपमें परिणत हो 
गये ।। २० ।॥। 

एकाधिकशतं पूर्ण यथायोगं विशाम्पते । 

मांसपेश्यास्तदा राजन्‌ क्रमश: कालपर्ययात्‌ || २१ ।। 

राजन! कालके परिवर्तनसे क्रमश: उस मांसपिण्डके यथायोग्य पूरे एक सौ एक भाग 
हुए || २१ ।। 

ततस्तांस्तेषु कुण्डेषु गर्भानवदधे तदा । 

स्वनुगुप्तेषु देशेषु रक्षां वै व्यद्धात्‌ ततः ।। २२ ।। 

तत्पश्चात्‌ गान्धारीने उन सभी गर्भोको उन पूर्वोक्त कुण्डोंमें रखा। वे सभी कुण्ड 
अत्यन्त गुप्त स्थानोंमें रखे हुए थे। उनकी रक्षाकी ठीक-ठीक व्यवस्था कर दी 
गयी ।। २२ ।। 


शशंस चैव भगवान्‌ कालेनैतावता पुन: । 

उद्घाटनीयान्येतानि कुण्डानीति च सौबलीम्‌ ।। २३ ।। 

तब भगवान्‌ व्यासने गान्धारीसे कहा--“इतने ही दिन अर्थात्‌ पूरे दो वर्षोतक प्रतीक्षा 
करनेके बाद इन कुण्डोंका ढककन खोल देना चाहिये" || २३ ।। 

इत्युक्त्वा भगवान्‌ व्यासस्तथा प्रतिनिधाय च । 

जगाम तपसे धीमान्‌ हिमवन्तं शिलोच्चयम्‌ ।। २४ ।। 

यों कहकर और पूर्वोक्त प्रकारसे रक्षाकी व्यवस्था कराकर परम बुद्धिमान्‌ भगवान्‌ 
व्यास हिमालय पर्वतपर तपस्याके लिये चले गये ।। २४ ।। 

जज्ञे क्रमेण चैतेन तेषां दुर्योधनो नृपः । 

जन्मतस्तु प्रमाणेन ज्येष्ठो राजा युधिछ्िर: || २५ ।। 

तदनन्तर दो वर्ष बीतनेपर जिस क्रमसे वे गर्भ उन कुण्डोंमें स्थापित किये गये थे, उसी 
क्रमसे उनमें सबसे पहले राजा दुर्योधन उत्पन्न हुआ। जन्मकालके प्रमाणसे राजा युधिष्ठिर 
उससे भी ज्येष्ठ थे || २५ ।। 

तदाख्यातं॑ तु भीष्माय विदुराय च धीमते । 

यस्मिन्नहनि दुर्धर्षो जज्ञे दुर्योधनस्तदा ।। २६ ।। 

तस्मिन्नेव महाबाहुर्जज्ञे भीमो5पि वीर्यवान्‌ । 

स जातमात्र एवाथ धृतराष्ट्रसुतो नृप ।। २७ ।। 

रासभारावसदृशं रुराव च ननाद च | 

त॑ खरा: प्रत्यभाषन्त गृध्रगोमायुवायसा: ।। २८ ।। 

दुर्योधनके जन्मका समाचार परम बुद्धिमान्‌ भीष्म तथा विदुरजीको बताया गया। जिस 
दिन दुर्धर्ष वीर दुर्योधनका जन्म हुआ, उसी दिन परम पराक्रमी महाबाहु भीमसेन भी उत्पन्न 
हुए। राजन! धृतराष्ट्रका वह पुत्र जन्म लेते ही गदहेके रेंकनेकी-सी आवाजमें रोने-चिल्लाने 
लगा। उसकी आवाज सुनकर बदलेमें दूसरे गदहे भी रेंकने लगे। गीध, गीदड़ और कौए भी 
कोलाहल करने लगे ।। २६--२८ ।। 

वाताश्ष प्रववुश्चापि दिग्दाहश्वाभवत्‌ तदा । 

ततस्तु भीतवद्‌ राजा धृतराष्ट्रोडब्रवीदिदम्‌ ।। २९ ।। 

समानीय बहून्‌ विप्रान्‌ भीष्मं विदुरमेव च । 

अन्‍्यांश्व सुह्ृदो राजन्‌ कुरून्‌ सर्वास्तथैव च ।। ३० ।। 

बड़े जोरकी आँधी चलने लगी। सम्पूर्ण दिशाओंमें दाह-सा होने लगा। राजन्‌! तब 
राजा धुृतराष्ट्र भयभीत-से हो उठे और बहुत-से ब्राह्मणोंको, भीष्मजी और विदुरजीको, 
दूसरे-दूसरे सुहृदों तथा समस्त कुरुवंशियोंको अपने समीप बुलवाकर उनसे इस प्रकार बोले 
-- || २९-३० || 

युधिष्ठिरो राजपुत्रो ज्येष्टो न: कुलवर्धन: । 


प्राप्त: स्वगुणतो राज्यं न तस्मिन्‌ वाच्यमस्ति न: ।। ३१ ।। 

“आदरणीय गुरुजनो! हमारे कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले राजकुमार युधिष्ठिर सबसे ज्येष्ठ 
हैं। वे अपने गुणोंसे राज्यको पानेके अधिकारी हो चुके हैं। उनके विषयमें हमें कुछ नहीं 
कहना है ।। ३१ ।। 

अयं त्वनन्तरस्तस्मादपि राजा भविष्यति । 

एतदू विन्रूत मे तथ्यं यदत्र भविता ध्रुवम्‌ || ३२ ।। 

“किंतु उनके बाद मेरा यह पुत्र ही ज्येष्ठ है। क्या यह भी राजा बन सकेगा? इस बातपर 
विचार करके आपलोग ठीक-ठीक बतायें। जो बात अवश्य होनेवाली है, उसे स्पष्ट 
कहें" ।। ३२ ।। 

वाक्यस्यैतस्य निधने दिक्षु सर्वासु भारत । 

क्रव्यादा: प्राणदन्‌ घोरा: शिवाश्चलाशिवशंसिन: ।। ३३ | 

जनमेजय! धृतराष्ट्रकी यह बात समाप्त होते ही चारों दिशाओंमें भयंकर मांसाहारी 
जीव गर्जना करने लगे। गीदड़ अमंगलसूचक बोली बोलने लगे ।। ३३ ।। 

लक्षयित्वा निमित्तानि तानि घोराणि सर्वश: । 

तेअब्रुवन्‌ ब्राह्मणा राजन्‌ विदुरश्ष महामति: ।। ३४ ।। 

यथेमानि निमित्तानि घोराणि मनुजाधिप । 

उत्थितानि सुते जाते ज्येछे ते पुरुषर्षभ ।। ३५ ।। 

व्यक्त कुलान्तकरणो भवितैष सुतस्तव । 

तस्य शान्ति: परित्यागे गुप्तावपनयों महान्‌ ।। ३६ ।। 

राजन्‌! सब ओर होनेवाले उन भयानक अप-शकुनोंको लक्ष्य करके ब्राह्मणलोग तथा 
परम बुद्धिमान्‌ विदुरजी इस प्रकार बोले--“नरश्रेष्ठ नरेश्वर! आपके ज्येष्ठ पुत्रके जन्म 
लेनेपर जिस प्रकार ये भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे स्पष्ट जान पड़ता है कि 
आपका यह पुत्र समूचे कुलका संहार करनेवाला होगा। यदि इसका त्याग कर दिया जाय 
तो सब विघ्नोंकी शान्ति हो जायगी और यदि इसकी रक्षा की गयी तो आगे चलकर बड़ा 
भारी उपद्रव खड़ा होगा || ३४--३६ ।। 

शतमेकोनमप्यस्तु पुत्राणां ते महीपते । 

त्यजैनमेकं शान्तिं चेत्‌ कुलस्येच्छसि भारत ।। ३७ ।। 

“महीपते! आपके निन्‍्यानबे पुत्र ही रहें; भारत! यदि आप अपने कुलकी शान्ति चाहते 
हैं तो इस एक पुत्रको त्याग दें ।। ३७ ।। 

एकेन कुरु वै क्षेमं कुलस्य जगतस्तथा । 

त्यजेदेकं॑ कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्‌ ।। ३८ ।। 

ग्रामं जनपदस्यार्थ आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्‌ । 

स तथा विदुरेणोक्तस्तैश्व सर्वैर्द्धिजोत्तमै: ।। ३९ ।। 


न चकार तथा राजा पुत्रस्नेहसमन्वित: । 

ततः पुत्रशतं पूर्ण धृतराष्ट्रस्य पार्थिव || ४० ।। 

“केवल एक पुत्रके त्यागद्वारा इस सम्पूर्ण कुलका तथा समस्त जगत्‌का कल्याण 
कीजिये। नीति कहती है कि समूचे कुलके हितके लिये एक व्यक्तिको त्याग दे, गाँवके 
हितके लिये एक कुलको छोड़ दे, देशके हितके लिये एक गाँवका परित्याग कर दे और 
आत्माके कल्याणके लिये सारे भूमण्डलको त्याग दे।” विदुर तथा उन सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके 
यों कहनेपर भी पुत्रस्नेहके बन्धनमें बँधे हुए राजा धृतराष्ट्रने वैला नहीं किया। जनमेजय! 
इस प्रकार राजा धृतराष्ट्रके पूरे सौ पुत्र हुए || ३८--४० ॥। 

मासमात्रेण संजज्ञे कन्या चैका शताधिका । 

गान्धार्या क्लिश्यमानायामुदरेण विवर्धता ।। ४१ ।। 

धृतराष्ट्रं महाराजं वैश्या पर्यचरत्‌ किल । 

तस्मिन्‌ संवत्सरे राजन्‌ धृतराष्ट्रान्महायशा: ।। ४२ ।। 

जज्ञे धीमांस्ततस्तस्यां युयुत्सु: करणो नृप । 

एवं पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमत: ।। ४३ ।। 

महारथानां वीराणां कन्या चैका शताधिका । 

युयुत्सुश्चन महातेजा वैश्यापुत्र: प्रतापवान्‌ ।। ४४ ।। 

तदनन्तर एक ही मासमें गान्धारीसे एक कन्या उत्पन्न हुई, जो सौ पुत्रोंके अतिरिक्त 
थी। जिन दिनों गर्भ धारण करनेके कारण गान्धारीका पेट बढ़ गया था और वह क्लेशमें 
पड़ी रहती थी, उन दिनों महाराज धृतराष्ट्रकी सेवामें एक वैश्यजातीय स्त्री रहती थी। 
राजन! उस वर्ष धृतराष्ट्रके अंशसे उस वैश्यजातीय भार्यके द्वारा महायशस्वी बुद्धिमान्‌ 
युयुत्सुका जन्म हुआ। जनमेजय! युयुत्सु करण कहे जाते थे। इस प्रकार बुद्धिमान्‌ राजा 
धृतराष्ट्रके एक सौ वीर महारथी पुत्र हुए। तत्पश्चात्‌ एक कन्या हुई, जो सौ पुत्रोंके अतिरिक्त 
थी। इन सबके सिवा महातेजस्वी परम प्रतापी वैश्यापुत्र युयुत्सु भी थे || ४१--४४ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि गान्धारीपूत्रोत्पत्तौ 
चतुर्दशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें गान्धारीपुत्रोत्पत्तिविषयक एक 
सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११४ ॥। 


अपन का बछ। | अपर 


पञ्चदशाधिकशततमो< ध्याय: 


दुःशलाके जन्मकी कथा 
जनमेजय उवाच 

धृतराष्ट्रस्य पुत्राणामादित: कथितं त्वया । 

ऋषे: प्रसादात्‌ तु शतं न च कन्या प्रकीर्तिता ।। १ ।। 

जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन! महर्षि व्यासके प्रसादसे धृतराष्ट्रके सौ पुत्र हुए, यह बात 
आपने मुझे पहले ही बता दी थी। परंतु उस समय यह नहीं कहा था कि उन्हें एक कन्या भी 
हुई ।। १ ।। 

वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्न कन्या चैका शताधिका । 

गान्धारराजदुहिता शतपुत्रेति चानघ ।। २ ।। 

उक्ता महर्षिणा तेन व्यासेनामिततेजसा । 

कथं त्विदानीं भगवन्‌ कन्यां त्व॑ं तु ब्रवीषि मे ।। ३ ।। 

अनघ! इस समय आपने वैश्यापुत्र युयुत्सु तथा सौ पुत्रोंके अतिरिक्त एक कन्याकी भी 
चर्चा की है। अमिततेजस्वी महर्षि व्यासने गान्धारराजकुमारीको सौ पुत्र होनेका ही वरदान 
दिया था। भगवन्‌! फिर आप मुझसे यह कैसे कहते हैं कि एक कन्या भी हुई ।। २-३ ।॥। 

यदि भागशतं पेशी कृता तेन महर्षिणा । 

न प्रजास्यति चेद्‌ भूय: सौबलेयी कथंचन ।। ४ ।। 

कथं तु सम्भवस्तस्या दुःशलाया वदस्व मे । 

यथावदिह वितप्रर्षे परं मेडत्र कुतूहलम्‌ ।। ५ ।। 

यदि महर्षिने उक्त मांसपिण्डके सौ भाग किये और यदि सुबलपुत्री गान्धारीने किसी 
प्रकार फिर गर्भ धारण या प्रसव नहीं किया, तो उस दु:शला नामवाली कनन्‍्याका जन्म किस 
प्रकार हुआ? ब्रह्मर्ष! यह सब यथार्थरूपसे मुझे बताइये। मुझे इस विषयमें कौतूहल हो रहा 
है ।। ४-५ || 

वैशम्पायन उवाच 


साध्वयं प्रश्न उद्दिष्ट: पाण्डवेय ब्रवीमि ते । 

तां मांसपेशीं भगवान्‌ स्वयमेव महातपा: ।। ६ ।। 
शीताभिरद्धिरासिच्य भागं भागमकल्पयत्‌ । 

यो यथा कल्पितो भागस्तं तं धात्रया तथा नूप ॥॥ ७ ।। 
घृतपूर्णेषु कुण्डेषु एकैकं प्राक्षिपत्‌ तदा । 
एतस्मिन्नन्तरे साध्वी गान्धारी सुदृढव्रता ।। ८ ।। 


दुहितुः स्नेहसंयोगमनुध्याय वराड़ना । 

मनसाचिन्तयद्‌ देवी एतत्‌ पुत्रशतं मम ।। ९ |। 

भविष्यति न संदेहो न ब्रवीत्यन्यथा मुनि: । 

ममेयं परमा तुष्टि्दुहिता मे भवेद्‌ यदि ।। १० ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--पाण्डवनन्दन! तुमने यह बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है। मैं तुम्हें 
इसका उत्तर देता हूँ। महातपस्वी भगवान्‌ व्यासने स्वयं ही उस मांसपिण्डको शीतल जलसे 
सींचकर उसके सौ भाग किये। राजन! उस समय जो भाग जैसा बना, उसे धायद्वारा वे 
एक-एक करके घीसे भरे हुए कुण्डोंमें डलवाते गये। इसी बीचमें पूर्ण दृढ़तासे सतीव्रतका 
पालन करनेवाली साध्वी एवं सुन्दरी गान्धारी कन्याके स्नेह-सम्बन्धका विचार करके मन- 
ही-मन सोचने लगी--इसमें संदेह नहीं कि इस मांसपिण्डसे मेरे सौ पुत्र उत्पन्न होंगे; क्योंकि 
व्यासमुनि कभी झूठ नहीं बोलते; परंतु मुझे अधिक संतोष तो तब होता, यदि एक पुत्री भी 
हो जाती ।। ६--१० ।। 

एका शताधिका बाला भविष्यति कनीयसी । 

ततो दौहित्रजालल्‍लोकादबाह्मोइसौ पतिर्मम || ११ ।। 

यदि सौ पुत्रोंके अतिरिक्त एक छोटी कन्या हो जायगी तो मेरे ये पति दौहित्रके पुण्यसे 
प्राप्त होनेवाले उत्तम लोकोंसे भी वंचित नहीं रहेंगे ।। ११ ।। 

अधिका किल नारीणां प्रीतिजामातृजा भवेत्‌ | 

यदि नाम ममापि स्याद्‌ दुहितैका शताधिका ।। १२ ।। 

कृतकृत्या भवेयं वै पुत्रदौहित्रसंवृता । 

यदि सत्यं तपस्तप्तं दत्तं वाप्यथवा हुतम्‌ ।। १३ ।। 

गुरवस्तोषिता वापि तथास्तु दुहिता मम । 

एतस्मिन्नेव काले तु कृष्णद्वैपायन: स्वयम्‌ ।। १४ ।। 

व्यभजत्‌ स तदा पेशीं भगवानृषिसत्तम: । 

गणयित्वा शतं पूर्णमंशानामाह सौबलीम्‌ ॥। १५ ।। 

कहते हैं, स्त्रियोंका दामादमें पुत्रसे भी अधिक स्नेह होता है। यदि मुझे भी सौ पुत्रोंके 
अतिरिक्त एक पुत्री प्राप्त हो जाय तो मैं पुत्र और दौहित्र दोनोंसे घिरी रहकर कृतकृत्य हो 
जाऊँ। यदि मैंने सचमुच तप, दान अथवा होम किया हो तथा गुरुजनोंको सेवाद्वारा प्रसन्न 
कर लिया हो, तो मुझे पुत्री अवश्य प्राप्त हो। इसी बीचमें मुनिश्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीकृष्णद्वैपायन 
वेदव्यासने स्वयं ही उस मांसपिण्डके विभाग कर दिये और पूरे सौ अंशोंकी गणना करके 
गान्धारीसे कहा || १२--१५ |। 


व्यास उवाच 
पूर्ण पुत्रशतं त्वेतन्न मिथ्या वागुदाह्नता । 


दौहित्रयोगाय भाग एक: शिष्ट: शतात्‌ पर: । 

एषा ते सुभगा कन्या भविष्यति यथेप्सिता ।। १६ ।। 

व्यासजी बोले--गान्धारी! मैंने झूठी बात नहीं कही थी; ये पूरे सौ पुत्र हैं। सौके 
अतिरिक्त एक भाग और बचा है, जिससे दौहित्रका योग होगा। इस अंशसे तुम्हें अपने 
मनके अनुरूप एक सौभाग्यशालिनी कन्या प्राप्त होगी || १६ ।। 

ततोअन्यं घृतकुम्भं च समानाय्य महातपा: । 

त॑ चापि प्राक्षिपत्‌ तत्र कन्याभागं तपोधन: ।। १७ ।। 

एतत्‌ ते कथितं राजन्‌ दुःशलाजन्म भारत । 

ब्रृहि राजेन्द्र कि भूयो वर्तयिष्यामि तेडनघ ।। १८ ।। 

यों कहकर महातपस्वी व्यासजीने घीसे भरा हुआ एक और घड़ा मँगाया और उन 
तपोधन मुनिने उस कन्याभागको उसीमें डाल दिया। भरतवंशी नरेश! इस प्रकार मैंने तुम्हें 
दुःशलाके जन्मका प्रसंग सुना दिया। अनघ! बोलो, अब पुन: और क्‍या कहूँ || १७-१८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि दु:ःशलोत्पत्तौ 
पजञ्चदशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें दुःशलाकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध 
रखनेवाला एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११५ ॥ 


ऑपनआक्रा छा अर: 2 


षोडशाधिकशततमोड< ध्याय: 
धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंकी नामावली 


जनमेजय उवाच 
ज्येष्ठानुज्येष्ठतां तेषां नामानि च पृथक्‌ पृथक्‌ । 
धृतराष्ट्रस्य पुत्राणामानुपूर्व्यात्‌ प्रकीर्तय | १ ।। 
जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन! धृतराष्ट्रके पुत्रोंमें सबसे ज्येष्ठ कौन था? फिर उससे छोटा 
और उससे भी छोटा कौन था? उन सबके अलग-अलग नाम क्या थे? इन सब बातोंका 
क्रमश: वर्णन कीजिये ।। १ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


दुर्योधनो युयुत्सुश्न राजन्‌ दुःशासनस्तथा । 
दुःसहो दुःशलश्चैव जलसंध: सम: सह: ।। २ ।। 
विन्दानुविन्दौ दुर्धर्ष: सुबाहुर्दुष्प्रधर्षण: । 
दुर्मर्षणो दुर्मुखश्न दुष्कर्ण: कर्ण एव च ।। ३ ।। 
विविंशतिर्विकर्णश्र शलः सत्त्वः सुलोचन: । 
चित्रोपचित्रौ चित्राक्षशक्षारुचित्रशरासन: ।। ४ || 
दुर्मदो दुर्विगाहश्न विवित्सुर्विकटानन: । 
ऊर्णनाभ: सुनाभश्न तथा नन्दोपनन्दकौ ।। ५ || 
चित्रबाणश्षित्रवर्मा सुवर्मा दुर्विरोचन: । 
अयोबाहुर्महाबाहुभ्रित्राज्ञश्चित्रकुण्डल: ।। 
भीमवेगो भीमबलो बलाकी बलवर्धन: । 
उग्रायुध: सुषेणश्न॒ कुण्डोदरमहोदरौ ।। ७ ।। 
चित्रायुधो निषद्गी च पाशी वृन्दारकस्तथा । 
दृढवर्मा दृढक्षत्र: सोमकीर्तिरनूदर: ।। 
दृढ्सन्धो जरासन्ध: सत्यसन्ध: सद:सुवाक्‌ । 
उम्रश्नवा उग्रसेन: सेनानीर्दुष्पराजय: ।। 
अपराजित: पण्डितको विशालाक्षो दुराधर: । 
दृढहस्त: सुहस्तश्न॒ वातवेगसुवर्चसौ || १० ।। 
आदित्यकेतुर्बह्नाशी नागदत्तो5ग्रयाय्यपि । 
कवची क्रथन: दण्डी दण्डधारो धरनुग्रह: |। ११ ।। 
उग्रभीमरथौ वीरौ वीरबाहुरलोलुप: । 


अभयो रीौद्रकर्मा च तथा दृढरथाश्रय: ।। १२ ।। 

अनाधृष्य: कुण्डभेदी विरावी चित्रकुण्डल: । 

प्रमथश्न प्रमाथी च दीर्घरोमश्न वीर्यवान्‌ ।। १३ ।। 

दीर्घबाहुर्महाबाहुर्व्यूडोरु: कनकध्वज: । 

कुण्डाशी विरजाश्वैव दुःशला च शताधिका ।। १४ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--(जनमेजय! धूृतराष्ट्रके पुत्रोंके नाम क्रमश: ये हैं--) १. 
दुर्योधन, २. युयुत्सु, ३. दुश्शासन, ४. दुस्सह, ५. दुश्शल, ६. जलसंध, ७. सम, ८. सह, ९. 
विन्द, १०. अनुविन्द, १३१, दुर्धर्ष, १२. सुबाहु, १३. दुष्प्रधर्षण, १४. दुर्मर्षण, १५. दुर्मुख, 
१६. दुष्कर्ण, १७. कर्ण, १८. विविंशति, १९. विकर्ण, २०. शल, २१. सत्त्व, २२. सुलोचन, 
२३. चित्र, २४. उपचित्र, २५. चित्राक्ष, २६. चारुचित्रशरासन (चित्र-चाप), २७. दुर्मद, २८. 
दुर्विगाह, २९. विवित्सु, ३०. विकटानन (विकट), ३१. ऊर्णनाभ, ३२. सुनाभ (पद्मनाभ), 
३३. नन्द, ३४. उपनन्द, ३५. चित्रबाण (चित्रबाहु), ३६. चित्रवर्मा, ३७. सुवर्मा, ३८. 
दुर्विरोचन, ३९. अयोबाहु, ४०. महाबाहु चित्रांग (चित्रांगद), ४१. चित्रकुण्डल (सुकुण्डल), 
४२. भीमवेग, ४३. भीमबल, ४४. बलाकी, ४५. बलवर्धन (विक्रम), ४६. उग्रायुध, ४७. 
सुषेण, ४८. कुण्डोदर, ४९. महोदर, ५०. चित्रायुध (दृढ़ायुध), ५१. निषंगी, ५२. पाशी, ५३. 
वृन्दारक, ५४. दृढ़वर्मा, ५५. दृढ़क्षत्र, ५६. सोमकीर्ति, ५७. अनूदर, ५८. दृढ़सन्ध, ५९, 
जरासन्ध, ६०. सत्यसन्ध, ६१. सद:सुवाक्‌ (सहख्रवाक्‌), ६२. उग्रश्नवा, ६३. उग्रसेन, ६४. 
सेनानी (सेनापति), ६५. दुष्पराजय, ६६. अपराजित, ६७. पण्डितक, ६८. विशालाक्ष, ६९. 
दुराधर (दुराधन), ७०. दृढ़हस्त, ७१. सुहस्त, ७२. वातवेग, ७३. सुवर्चा, ७४. आदित्यकेतु, 
७५. बह्लाशी, ७६. नागदत्त, ७७. अग्रयायी (अनुयायी), ७८. कवची, ७९, क्रथन, ८०. 
दण्डी, ८१. दण्डधार, ८२. धनुग्रह, ८३. उग्र, ८४. भीमरथ, ८५. वीरबाहु, ८६. अलोलुप, 
८७, अभय, ८८. रौद्रकर्मा, ८९. दृढ़रथाश्रय (दृढ़रथ), ९०. अनाधृष्य, ९१. कुण्डभेदी, ९२. 
विरावी, ९३. विचित्र कुण्डलोंसे सुशोभित प्रमथ, ९४. प्रमाथी, ९५. वीर्यवान्‌ दीर्घरोमा 
(दीर्घलोचन), ९६. दीर्घबाहु, ९७. महाबाहु व्यूढोरु, ९८. कनकध्वज (कनकांगद), ९९. 
कुण्डाशी (कुण्डज) तथा १००. विरजा--धृतराष्ट्रके ये सौ पुत्र थे। इनके सिवा दुःशला 
नामक एक कन्या थी, जो सौसे अधिक थी- || २--१४ ।। 

इति पुत्रशतं राजन्‌ कन्या चैव शताधिका । 

नामधेयानुपूर्व्येण विद्धि जन्मक्रमं नृप ।। १५ ।। 

राजन! इस प्रकार धृतराष्ट्रके सौ पुत्र और उन सौके अतिरिक्त एक कन्या बतायी गयी। 
राजन! जिस क्रमसे इनके नाम लिये गये हैं, उसी क्रमसे इनका जन्म हुआ 
समझो ।। १५ |। 

सर्वे त्वतिरथा: शूरा: सर्वे युद्धविशारदा: । 

सर्वे वेदविदश्नैव सर्वे सर्वास्त्रकोविदा: ।। १६ ।। 


ये सभी अतिरथी शूरवीर थे। सबने युद्धविद्यामें निपुणता प्राप्त कर ली थी। सब-के- 
सब वेदोंके विद्वान्‌ तथा सम्पूर्ण अस्त्रविद्याके मर्मज्ञ थे ।। १६ ।। 

सर्वेषामनुरूपाश्न कृता दारा महीपते । 

धृतराष्ट्रेण समये परीक्ष्य विधिवन्नूप ।। १७ ।। 

दुःशलां चापि समये धृतराष्ट्रो नराधिप: । 

जयद्रथाय प्रददौ विधिना भरतर्षभ ।। १८ ।। 

जनमेजय! राजा धृतराष्ट्रने समयपर भलीभाँति जाँच-पड़ताल करके अपने सभी 
पुत्रोंका उनके योग्य स्त्रियोंक साथ विवाह कर दिया। भरतश्रेष्ठ! महाराज धुृतराष्ट्रने 
विवाहके योग्य समय आनेपर अपनी पुत्री दुःशलाका राजा जयद्रथके साथ विधिपूर्वक 
विवाह किया ।। १७-१८ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि धृतराष्ट्रपुत्रनामकथने 
षोडशाधिकशततमोड<ध्याय: ।। ११६ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें धृतराष्ट्रपुत्रनामवर्णणविषयक एक 
सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११६ ॥। 


पाता पा. [धछ। ई>आब :क हे 5 


कम नी ्स्‍स्‍ॉज ४: 


- आदिपर्वके सरसठवें अध्यायमें भी धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंके नाम आये हैं। वहाँ जो नाम दिये गये हैं, उनमेंसे अधिकांश 
नाम इस अध्यायमें भी ज्यों-के-त्यों हैं। कुछ नामोंमें साधारण अन्तर है, जिन्हें यहाँ कोष्ठकमें दे दिया गया है। इस प्रकार 
यहाँ और वहाँके नामोंकी एकता की गयी है। थोड़े-से नाम ऐसे भी हैं, जिनका मेल नहीं मिलता। नामोंके क्रममें भी दोनों 
स्थलोंमें अन्तर है। सम्भव है, उनके दो-दो नाम रहे हों और दोनों स्थलोंमें भिन्न-भिन्न नामोंका उल्लेख हो। 


सप्तदशाधिकशततमो< ध्याय: 


राजा पाण्डुके द्वारा मृगरूपधारी मुनिका वध तथा उनसे 
शापकी प्राप्ति 


जनमेजय उवाच 
कथितो धार्तराष्ट्राणामार्ष: सम्भव उत्तम: | 
अमनुष्यो मनुष्याणां भवता ब्रह्मवादिना ।। १ ।। 
जनमेजयने कहा--भगवन्‌! आपने धृतराष्ट्रके पुत्रोंके जन्मका उत्तम प्रसंग सुनाया है, 
जो महर्षि व्यासकी कृपासे सम्भव हुआ था। आप ब्रह्मवादी हैं। आपने यद्यपि यह मनुष्योंके 
जन्मका वृतान्त बताया है, तथापि यह दूसरे मनुष्योंमें कभी नहीं देखा गया ।। १ ।। 
नामथेयानि चाप्येषां कथ्यमानानि भागश: । 
त्वत्त: श्रुतानि मे ब्रह्म॒न्‌ पाण्डवानां च कीर्तय ।। २ ।। 
ब्रह्मन! इन धृतराष्ट्रपुत्रोंक पृथक्‌ू-पृथक्‌ नाम भी जो आपने कहे हैं, वे मैंने अच्छी तरह 
सुन लिये। अब पाण्डवोंके जन्मका वर्णन कीजिये ।। २ ॥। 
ते हि सर्वे महात्मानो देवराजपराक्रमा: । 
त्वयैवांशावतरणे देवभागा: प्रकीर्तिता: ।॥ ३ ।। 
वे सब महात्मा पाण्डव देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी थे। आपने ही अंशावतरणके 
प्रसंगमें उन्हें देवताओंका अंश बताया था ।। ३ ।। 
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुमतिमानुषकर्मणाम्‌ । 
तेषामाजनन सर्व वैशम्पायन कीर्तय ।। ४ ।। 
वैशम्पायनजी! वे ऐसे पराक्रम कर दिखाते थे, जो मनुष्योंकी शक्तिके परे हैं; अतः मैं 
उनके जन्म-सम्बन्धी वृत्तान्तको सम्पूर्णतासे सुनना चाहता हूँ; कृपा करके कहिये ।। ४ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


राजा पाण्डुर्महारण्ये मृगव्यालनिषेविते । 

चरन्‌ मैथुनधर्मस्थं ददर्श मृगयूथपम्‌ ।। ५ ।। 

वैशम्पायनजी बोले--जनमेजय! एक समय राजा पाण्डु मृगों और सर्पोंसे सेवित 
विशाल वनमें विचर रहे थे। उन्होंने मृगोंके एक यूथपतिको देखा, जो मृगीके साथ मैथुन कर 
रहा था || ५ || 

ततस्तां च मृगीं तं च रुक्मपुड्खै: सुपत्रिभि: । 

निर्बिभेद शरैस्ती3्ष्णै: पाण्डु: पउचभिराशुगै: ।। ६ || 


उसे देखते ही राजा पाण्डुने पाँच सुन्दर एवं सुनहरे पंखोंसे युक्त तीखे तथा शीघ्रगामी 
बाणोंद्वारा, उस मृगी और मृगको भी बींध डाला ।। ६ ।। 

सच राजन्‌ महातेजा ऋषिपुत्रस्तपो धन: । 

भार्यया सह तेजस्वी मृगरूपेण संगत: ।। ७ ।। 

राजन! उस मृगके रूपमें एक महातेजस्वी तपोधन ऋषिपुत्र थे, जो अपनी 
मृगीरूपधारिणी पत्नीके साथ तेजस्वी मृग बनकर समागम कर रहे थे || ७ ।। 

संसक्तश्न तया मृग्या मानुषीमीरयन्‌ गिरम्‌ । 

क्षणेन पतितो भूमौ विललापाकुलेन्द्रिय: ॥॥ ८ ॥। 

वे उस मृगीसे सटे हुए ही मनुष्योंकी-सी बोली बोलते हुए क्षणभरमें पृथ्वीपर गिर पड़े। 
उनकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयीं और वे विलाप करने लगे ।। ८ ।। 





मृग उवाच 
काममन्युपरीता हि बुद्धा विरहिता अपि | 
वर्जयन्ति नृशंसानि पापेष्वपि रता नरा: ।। ९ |। 
न विधिं ग्रसते प्रज्ञा प्रज्ञां तु ग्रसते विधि: । 
विधिपर्यागतानर्थान्‌ प्राज्ञो न प्रतिपद्यते ।। १० ।। 


मृगने कहा--राजन्‌! जो मनुष्य काम और क्रोधसे घिरे हुए, बुद्धिशून्य तथा पापोंमें 
संलग्न रहनेवाले हैं, वे भी ऐसे क्रूरतापूर्ण कर्मको त्याग देते हैं। बुद्धि प्रारब्धको नहीं ग्रसती 
(नहीं लाँध सकती) प्रारब्ध ही बुद्धिको अपना ग्रास बना लेता है (भ्रष्ट कर देता है)। 
प्रारब्धसे प्राप्त होनेवाले पदार्थोंको बुद्धिमान्‌ पुरुष भी नहीं जान पाता ।। ९-१० ।। 

शश्वद्धर्मात्मनां मुख्ये कुले जातस्यथ भारत । 

कामलोभाभिभूतस्य कथं ते चलिता मति: ।। ११ ।। 

भारत! सदा धर्ममें मन लगानेवाले क्षत्रियोंके प्रधान कुलमें तुम्हारा जन्म हुआ है, तो 
भी काम और लोभके वशीभूत होकर तुम्हारी बुद्धि धर्मसे कैसे विचलित हुई? ।। ११ ।। 

पाण्डुरुवाच 

शत्रूणां या वधे वृत्ति: सा मृगाणां वधे स्मृता । 

राज्ञां मृग न मां मोहात्‌ त्वं ग्हयितुमहसि ।। १२ ।। 

पाण्डु बोले--शत्रुओंके वधमें राजाओंकी जैसी वृत्ति बतायी गयी है, वैसी ही मृगोंके 
वधमें भी मानी गयी है; अतः मृग! तुम्हें मोहवश मेरी निन्‍दा नहीं करनी चाहिये ।। १२ ।। 

अच्छटदटना मायया च मृगाणां वध इष्यते । 

स एव धर्मों राज्ञां तु तद्धि त्वं कि नु गर्हसे ।। १३ ।। 

प्रकट या अप्रकट रूपसे मृगोंका वध हमारे लिये अभीष्ट है। वह राजाओंके लिये धर्म 
है, फिर तुम उसकी निन्दा कैसे करते हो? ।। १३ ।। 

अगस्त्य: सत्रमासीनश्नकार मृगयामृषि: । 

आरण्यान्‌ सर्वदेवेभ्यो मृगान्‌ प्रेषन्‌ महावने ।। १४ ।। 

प्रमाणदृष्टधर्भेण कथमस्मान्‌ विगर्हसे । 

अगस्त्यस्याभिचारेण युष्माकं॑ विहितो वध: ।। १५ ।। 

महर्षि अगस्त्य एक सत्रमें दीक्षित थे, तब उन्होंने भी मृगया की थी। सभी देवताओंके 
हितके लिये उन्होंने सत्रमें विघ्न करनेवाले पशुओंको महान्‌ वनमें खदेड़ दिया था। अगस्त्य 
ऋषिके उक्त हिंसाकर्मके अनुसार (मुझ क्षत्रियके लिये तो) तुम्हारा वध करना ही उचित है। 
मैं प्रमाणसिद्ध धर्मके अनुकूल बर्ताव करता हूँ, तो भी तुम क्‍यों मेरी निन्‍दा करते 
हो? ।। १४-१५ ।। 

मगृग उवाच 

न रिपून्‌ वै समुद्दिश्य विमुड्चन्ति नरा: शरान्‌ | 

रन्ध्र एषां विशेषेण वध: काले प्रशस्यते ।। १६ ।। 

मृगने कहा--मनुष्य अपने शत्रुओंपर भी, विशेषत: जब वे संकटकालनमें हों, बाण नहीं 
छोड़ते। उपयुक्त अवसर (संग्राम आदि)-में ही शत्रुओंके वधकी प्रशंसा की जाती 
है ।। १६ || 


पाण्डुरुवाच 


प्रमत्तमप्रमत्तं वा विवृत्तं घ्नन्ति चौजसा । 

उपायैर्विविधैस्तीक्ष्णपै: कस्मान्मृग विगर्हसे || १७ ।। 

पाण्डु बोले--मृग! राजालोग नाना प्रकारके तीक्ष्ण उपायोंद्वारा बलपूर्वक खुले-आम 
मृगका वध करते हैं; चाहे वह सावधान हो या असावधान। फिर तुम मेरी निन्दा क्यों करते 
हो? ।। १७ ।। 

मृग उवाच 

नाहं घ्नन्तं मृगान्‌ राजन्‌ विगहें चात्मकारणात्‌ | 

मैथुन तु प्रतीक्ष्यं मे त्वयेहाद्यानृशंस्यत: ।। १८ ।। 

मृगने कहा--राजन्‌! मैं अपने मारे जानेके कारण इस बातके लिये तुम्हारी निन्दा नहीं 
करता कि तुम मृगोंको मारते हो। मुझे तो इतना ही कहना है कि तुम्हें दयाभावका आश्रय 
लेकर मेरे मैथुनकर्मसे निवृत्त होनेतक प्रतीक्षा करनी चाहिये थी ।। १८ ।। 

सर्वभूतहिते काले सर्वभूतेप्सिते तथा । 

को हि विद्वान्‌ मृगं हन्याच्चरन्तं मैथुनं वने | १९ ।। 

जो सम्पूर्ण भूतोंके लिये हितकर और अभीष्ट है, उस समयमें वनके भीतर मैथुन 
करनेवाले किसी मृगको कौन विवेकशील पुरुष मार सकता है? ।। १९ ।। 

अस्यां मृग्यां च राजेन्द्र हर्षान्मैथुनमाचरम्‌ । 

पुरुषार्थफलं कर्तु तत्‌ त्वया विफलीकृतम्‌ ॥। २० ।। 

राजेन्द्र! मैं बड़े हर्ष और उललासके साथ अपने कामरूपी पुरुषार्थको सफल करनेके 
लिये इस मृगीके साथ मैथुन कर रहा था; किंतु तुमने उसे निष्फल कर दिया ।। २० ।। 

पौरवाणां महाराज तेषामक्लिष्टकर्मणाम्‌ | 

वंशे जातस्य कौरव्य नानुरूपमिदं तव ।। २१ ।। 

महाराज! क्लेशरहित कर्म करनेवाले कुरुवंशियोंके कुलमें जन्म लेकर तुमने जो यह 
कार्य किया है, यह तुम्हारे अनुरूप नहीं है || २१ ।। 

नृशंसं कर्म सुमहत्‌ सर्वलोकविगर्हितम्‌ | 

अस्वर्ग्यमयशस्यं चाप्यधर्मिष्ठं च भारत ।। २२ ।। 

भारत! अत्यन्त कठोरतापूर्ण कर्म सम्पूर्ण लोकोंमें निन्दित है। वह स्वर्ग और यशको 
हानि पहुँचानेवाला है। इसके सिवा वह महान्‌ पापकृत्य है ।। २२ ।। 

स्त्रीभोगानां विशेषज्ञ: शास्त्रधर्मार्थतत्त्ववित्‌ 

नाहस्त्वं सुरसंकाश कर्तुमस्वर्ग्यमीदूशम्‌ ।। २३ ।। 

देवतुल्य महाराज! तुम स्त्री-भोगोंके विशेषज्ञ तथा शास्त्रीय धर्म एवं अर्थके तत्त्वको 
जाननेवाले हो। तुम्हें ऐसा नरकप्रद पापकार्य नहीं करना चाहिये था || २३ ।। 


त्वया नृशंसकर्तार: पापाचाराश्न मानवा: । 

निग्राह्या: पार्थिवश्रेष्ठ त्रिवर्गपरिवर्जिता: ।। २४ ।। 

नृूपशिरोमणे! तुम्हारा कर्तव्य तो यह है कि धर्म, अर्थ और कामसे हीन जो पापाचारी 
मनुष्य कठोरतापूर्ण कर्म करनेवाले हों, उन्हें दण्ड दो || २४ ।। 

कि कृतं ते नरश्रेष्ठ मामिहानागसं घ्नता । 

मुनिं मूलफलाहारं मृगवेषधरं नृप ।। २५ ।। 

वसमानमरण्येषु नित्यं शमपरायणम्‌ । 

त्वयाहं हिंसितो यस्मात्‌ तस्मात्‌ त्वामप्यहं शपे ।। २६ ।। 

नरश्रेष्ठ! मैं तो फल-मूलका आहार करनेवाला एक मुनि हूँ और मृगका रूप धारण 
करके शम-दमके पालनमें तत्पर हो सदा जंगलोंमें ही निवास करता हूँ। मुझ निरपराधको 
मारकर यहाँ तुमने क्या लाभ उठाया? तुमने मेरी हत्या की है, इसलिये बदलेमें मैं भी तुम्हें 
शाप देता हूँ || २५-२६ ।। 

द्वयोर्नुशंसकर्तारमवशं काममोहितम्‌ | 

जीवितान्तकरो भाव एवमेवागमिष्यति || २७ || 

तुमने मैथुन-धर्ममें आसक्त दो स्त्री-पुरुषोंका निष्ठुरता-पूर्वक वध किया है। तुम 
अजितेन्द्रिय एवं कामसे मोहित हो; अतः इसी प्रकार मैथुनमें आसक्त होनेपर जीवनका 
अन्त करनेवाली मृत्यु निश्चय ही तुमपर आक्रमण करेगी ।। २७ ।। 

अहं हि किंदमो नाम तपसा भावितो मुनि: । 

व्यपत्रपन्मनुष्याणां मृग्यां मैथुनमाचरम्‌ ।। २८ ।। 

मृगो भूत्वा मृगैः सार्थ चरामि गहने वने । 

नतुते ब्रह्महत्येयं भविष्यत्यविजानत: ।। २९ ।। 

मेरा नाम किंदम है। मैं तपस्यामें संलग्न रहनेवाला मुनि हूँ, अतः मनुष्योंमें--मानव- 
शरीरसे यह काम करनेमें मुझे लज्जाका अनुभव हो रहा था। इसीलिये मृग बनकर अपनी 
मृगीके साथ मैथुन कर रहा था। मैं प्रायः इसी रूपमें मृगोंके साथ घने वनमें विचरता रहता 
हूँ। तुम्हें मुझे मारनेसे ब्रह्महत्या तो नहीं लगेगी; क्योंकि तुम यह बात नहीं जानते थे (कि 
यह मुनि है) || २८-२९ ।। 

मृगरूपधरं हत्वा मामेवं काममोहितम्‌ । 

अस्य तु त्वं फल मूढ प्राप्स्यसीदूशमेव हि ।। ३० ।। 

परंतु जब मैं मृगरूप धारण करके कामसे मोहित था, उस अवस्थामें तुमने अत्यन्त 
क्रूरताके साथ मुझे मारा है; अतः मूढ़! तुम्हें अपने इस कर्मका ऐसा ही फल अवश्य 
मिलेगा ।। ३० ।। 

प्रियया सह संवासं प्राप्प कामविमोहित: । 

त्वमप्यस्यामवस्थायां प्रेतलोक॑ गमिष्यसि ।। ३१ ।। 


तुम भी जब कामसे सर्वथा मोहित होकर अपनी प्यारी पत्नीके साथ समागम करने 
लगोगे, तब इस--मेरी अवस्थामें ही यमलोक सिधारोगे ।। ३१ ।। 

अन्तकाले हि संवासं यया गन्तासि कान्तया । 

प्रेतराजपुरं प्राप्तं सर्वभूतदुरत्ययम्‌ । 

भक्‍त्या मतिमतां श्रेष्ठ सैव त्वानुगमिष्यति ।। ३२ ।। 

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ महाराज! अन्तकाल आनेपर तुम जिस प्यारी पत्नीके साथ समागम 
करोगे, वही समस्त प्राणियोंके लिये दुर्गण यमलोकमें जानेपर भक्तिभावसे तुम्हारा अनुसरण 
करेगी ।। ३२ ।। 

वर्तमान: सुखे दु:खं यथाहं प्रापितस्त्वया । 

तथा त्वां च सुखं प्राप्त दु:खमभ्यागमिष्यति ।। ३३ ।। 

मैं सुखमें मग्न था, तथापि तुमने जिस प्रकार मुझे दुःखमें डाल दिया, उसी प्रकार तुम 
भी जब प्रेयसी पत्नीके संयोग-सुखका अनुभव करोगे, उसी समय तुम्हारे ऊपर दुःख टूट 
पड़ेगा ॥। ३३ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


एवमुकक्‍्त्वा सुदुः:खारतोीं जीवितात्‌ स व्यमुच्यत । 
मृग: पाण्डुश्व दुःखार्त: क्षणेन समपद्यत ।। ३४ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--यों कहकर वे मृगरूप-धारी मुनि अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो 
गये और उनका देहान्त हो गया तथा राजा पाण्डु भी क्षणभरमें दुःखसे आतुर हो 
उठे ।। ३४ ।। 
इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डुमृगशापे 
सप्तदशाधिकशततमोड<ध्याय: ।। ११७ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डुकी गृगका शाप नामक 
एक सौ सत्रहवाँ अध्याय प्रा हुआ ॥। १९७ ॥ 


ऑपनआक्ाा बछ। अर: 


अष्टादशाधिकशततमोब<् ध्याय: 


पाण्डुका अनुताप, संन्यास लेनेका निश्चय तथा पत्नियोंके 
अनुरोधसे वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश 


वैशम्पायन उवाच 


तं॑ व्यतीतमतिक्रम्य राजा स्वमिव बान्धवम्‌ | 

सभार्य: शोकदु:खार्त: पर्यदेवयदातुर: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उन मृगरूपधारी मुनिको मरा हुआ छोड़कर 
राजा पाण्डु जब आगे बढ़े, तब पत्नीसहित शोक और दुःखसे आतुर हो अपने सगे भाई- 
बन्धुकी भाँति उनके लिये विलाप करने लगे तथा अपनी भूलपर पश्चात्ताप करते हुए कहने 
लगे ।। १ ।। 


पाण्डुरुवाच 


सतामपि कुले जाता: कर्मणा बत दुर्गतिम्‌ । 

प्राप्तुवन्त्यकृतात्मान: कामजालविमोहिता: ।। २ ।। 

पाण्डु बोले--खेदकी बात है कि श्रेष्ठ पुरुषोंके उत्तम कुलमें उत्पन्न मनुष्य भी अपने 
अन्तःकरणपर वश न होनेके कारण कामके फंदेमें फँसकर विवेक खो बैठते हैं और 
अनुचित कर्म करके उसके द्वारा भारी दुर्गतिमें पड़ जाते हैं ।। २ ।। 

शश्रद्धर्मात्मना जातो बाल एव पिता मम । 

जीवितान्तमनुप्राप्त: कामात्मैवेति न: श्रुतम्‌ ।। ३ ।। 

हमने सुना है, सदा धर्ममें मन लगाये रहनेवाले महाराज शन्तनुसे जिनका जन्म हुआ 
था, वे मेरे पिता विचित्रवीर्य भी कामभोगमें आसक्तचित्त होनेके कारण ही छोटी अवस्थामें 
ही मृत्युको प्राप्त हुए थे ।। ३ ।। 

तस्य कामात्मन: क्षेत्रे राज: संयतवागृषि: । 

कृष्णद्वैपायन: साक्षाद्‌ भगवान्‌ मामजीजनत्‌ ।। ४ ।। 

उन्हीं कामासक्त नरेशकी पत्नीसे वाणीपर संयम रखनेवाले ऋषिप्रवर साक्षात्‌ भगवान्‌ 
श्रीकृष्णद्वैपायनने मुझे उत्पन्न किया ।। ४ ।। 

तस्याद्य व्यसने बुद्धि: संजातेयं ममाधमा । 

त्यक्तस्य देवैरनयान्मृगयां परिधावत: ।। ५ ।। 

मैं शिकारके पीछे दौड़ता रहता हूँ; मेरी इसी अनीतिके कारण जान पड़ता है 
देवताओंने मुझे त्याग दिया है। इसीलिये तो ऐसे विशुद्ध वंशमें उत्पन्न होनेपर भी आज 
व्यसनमें फँसकर मेरी यह बुद्धि इतनी नीच हो गयी ।। ५ ।। 


मोक्षमेव व्यवस्यामि बन्धो हि व्यसनं महत्‌ | 

सुवृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम्‌ ।। ६ ।। 

अत: अब मैं इस निश्चयपर पहुँच रहा हूँ कि मोक्षके मार्गपर चलनेसे ही अपना कल्याण 
है। स्त्री-पुत्र आदिका बन्धन ही सबसे महान्‌ दुःख है। आजसे मैं अपने पिता 
वेदव्यासजीकी उस उत्तम वृत्तिका आश्रय लूँगा, जिससे पुण्यका कभी नाश नहीं 
होता ।। ६ || 

अतीव तपसा>5त्मानं योजयिष्याम्यसंशयम्‌ । 

तस्मादेको5हमेकाकी एकैकस्मिन्‌ वनस्पतौ ।। ७ ।। 

चरन्‌ भैक्ष्यं मुनिर्मुण्डश्नरिष्याम्याश्रमानिमान्‌ | 

पांसुना समवच्छन्न: शून्यागारकृतालय: ।। ८ ।॥। 

मैं अपने शरीर और मनको निःसंदेह अत्यन्त कठोर तपस्यामें लगाऊँगा। इसलिये अब 
अकेला (स्त्रीरहित) और एकाकी (सेवक आदिसे भी अलग) रहकर एक-एक वृक्षके नीचे 
फलकी भिक्षा माँगूगा। सिर मुँड़ाकर मौनी संन्यासी हो इन वानप्रस्थियोंके आश्रमोंमें 
विचरूँगा। उस समय मेरा शरीर धूलसे भरा होगा और निर्जन एकान्त स्थानमें मेरा निवास 
होगा ।। ७-८ |। 

वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रिय: । 

न शोचन्‌ न प्रद्नष्यंश्व तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति: ।। ९ ।। 

अथवा वृक्षोंका तल ही मेरा निवासगृह होगा। मैं प्रिय एवं अप्रिय सब प्रकारकी 
वस्तुओंको त्याग दूँगा। न मुझे किसीके वियोगका शोक होगा और न किसीकी प्राप्ति या 
संयोगसे हर्ष ही होगा। निनदा और स्तुति दोनों मेरे लिये समान होंगी ।। ९ ।। 

निराशीर्निनिमस्कारो निर्द॑न्द्धो निष्परिग्रह: । 

न चाप्यवहसन्‌ कच्चिन्न कुर्वन्‌ भ्रुकुटीं क्वचित्‌ ।। १० ।। 

न मुझे आशीर्वादकी इच्छा होगी न नमस्कारकी। मैं सुख-दुःख आदि द्वत्द्धोंसे रहित 
और संग्रह-परिग्रहसे दूर रहूँगा। न तो किसीकी हँसी उड़ाऊँगा और न क्रोधसे किसीपर 
भौंहें टेढ़ी करूँगा || १० |। 

प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वभूतहिते रत: । 

जड़माजड़मं सर्वमविहिंसंश्तुर्विधम्‌ ।। ११ ।। 

मेरे मुखपर प्रसन्नता छायी रहेगी तथा सदा सब भूतोंके हितसाधनमें संलग्न रहूँगा। 
(स्वेदज, उद्धिज्ज, अण्डज, जरायुज--) चार प्रकारके जो चराचर प्राणी हैं, उनमेंसे 
किसीकी भी मैं हिंसा नहीं करूँगा ।। ११ ।। 

स्वासु प्रजास्विव सदा सम: प्राणभूृतां प्रति । 

एककालं चरन्‌ भैक्ष्यं कुलानि दश पञ्च वा ॥। १२ ।। 


जैसे पिता अपनी अनेक संतानोंमें सर्ववा समभाव रखता है, उसी प्रकार समस्त 
प्राणियोंके प्रति मेरा सदा समानभाव होगा। (पहले कहे अनुसार) मैं केवल एक समय 
वक्षोंसे भिक्षा माँूँगा अथवा यह सम्भव न हुआ तो दस-पाँच घरोंमें घूमकर (थोड़ी-थोड़ी) 
भिक्षा ले लूँगा ।। १२ ।। 

असम्भवे वा भैक्ष्यस्थ चरन्ननशनान्यपि | 

अल्पमल्पं च भुज्जान: पूर्वालाभे न जातुचित्‌ ।। १३ ।। 

अन्यान्यपि चरँललोभादलाभे सप्त पूरयन्‌ | 

अलाभे यदि वा लाभे समदर्शी महातपा: ।। १४ ।। 

अथवा यदि भिक्षा मिलनी असम्भव हो जाय, तो कई दिनतक उपवास ही करता 
चलूँगा। (भिक्षा मिल जानेपर भी) भोजन थोड़ा-थोड़ा ही करूँगा। ऊपर बताये हुए एक 
प्रकारसे भिक्षा न मिलनेपर ही दूसरे प्रकारका आश्रय लूँगा। ऐसा तो कभी न होगा कि 
लोभवश दूसरे-दूसरे बहुत-से घरोंमें जाकर भिक्षा लूँ। यदि कहीं कुछ न मिला तो भिक्षाकी 
पूर्तिके लिये सात घरोंपर फेरी लगा लूँगा। यदि मिला तो और न मिला तो, दोनों ही 
दशाओंमें समान दृष्टि रखते हुए भारी तपस्यामें लगा रहूँगा ।। १३-१४ ।। 

वास्यैकं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकमुक्षत: । 

नाकल्याणं न कल्याणं चिन्तयन्नुभयोस्तयो: ।। १५ ।। 

न जिजीविषुवत्‌ किंचिन्न मुमूर्षवदाचरन्‌ । 

जीवितं मरणं चैव नाभिनन्दन्‌ न च द्विषन्‌ ।। १६ ।। 

एक आदमी बसूलेसे मेरी एक बाँह काटता हो और दूसरा मेरी दूसरी बाँहपर चन्दन 
छिड़कता हो तो उन दोनोंमेंसे एकके अकल्याणका और दूसरेके कल्याणका चिन्तन नहीं 
करूँगा। जीने अथवा मरनेकी इच्छावाले मनुष्य जैसी चेष्टाएँ करते हैं, वैसी कोई चेष्टा मैं 
नहीं करूँगा। न जीवनका अभिनन्दन करूँगा, न मृत्युसे द्वेष || १५-१६ ।। 

या: काश्चिज्जीवता शक्‍्या: कर्तुमभ्युदयक्रिया: । 

ता: सर्वा: समतिक्रम्य निमेषादिव्यवस्थिता: ।। १७ ।। 

तासु चाप्यनवस्थासू त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रिय: । 

सम्परित्यक्तधर्मार्थ: सुनिर्णिक्तात्मकल्मष: ।। १८ ।। 

जीवित पुरुषोंद्वारा अपने अभ्युदयके लिये जो-जो कर्म किये जा सकते हैं, उन समस्त 
सकाम कर्मोंको मैं त्याग दूँगा; क्योंकि वे सब कालसे सीमित हैं। अनित्य फल देनेवाली 
क्रियाओंके लिये जो सम्पूर्ण इन्द्रियोंद्वारा चेष्टा की जाती है, उस चेष्टाको भी मैं सर्वथा त्याग 
दूँगा; धर्मके फलको भी छोड़ दूँगा। अपने अन्तःकरणके मलको सर्वथा धोकर शुद्ध हो 
जाऊँगा || १७-१८ ।। 

निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यो व्यतीत: सर्ववागुरा: । 

न वशे कस्यचित्‌ तिष्ठन्‌ सधर्मा मातरिश्वन: ।। १९ ।। 


मैं सब पापोंसे सर्वथा मुक्त हो अविद्याजनित समस्त बन्धनोंको लाँघ जाऊँगा। किसीके 
वशमें न रहकर वायुके समान सर्वत्र विचरूँगा ।। १९ ।। 

एतया सतत धृत्या चरन्नेवंप्रकारया । 

देहं संस्थापयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थित: ।॥ २० || 

सदा इस प्रकारकी धृति (धारणा)-द्वारा उक्त रूपसे व्यवहार करता हुआ भयरहित 
मोक्षमार्गमें स्थित होकर इस देहका विसर्जन करूँगा ।। २० ।। 

नाहं सुकृपणे मार्ग स्ववीर्यक्षयशोचिते । 

स्वधर्मात्‌ सततापेते चरेय॑ वीर्यवर्जित: ।। २१ ।। 

मैं संतानोत्पादनकी शक्तिसे रहित हो गया हूँ। मेरा गृहस्थाश्रम संतानोत्पादन आदि 
धर्मसे सर्वथा शून्य है और मेरे लिये अपने वीर्यक्षयके कारण सर्वथा शोचनीय हो रहा है; 
अतः इस अत्यन्त दीनतापूर्ण मार्गपर अब मैं नहीं चल सकता ।। २१ ।। 

सत्कृतो5सत्कृतो वापि योअ<न्यं कृपणचक्षुषा | 

उपैति वृत्तिं कामात्मा स शुनां वर्तते पथि ॥। २२ ।। 

जो सत्कार या तिरस्कार पाकर दीनतापूर्ण दृष्टिसे देखता हुआ किसी दूसरे पुरुषके 
पास जीविकाकी आशासे जाता है, वह कामात्मा मनुष्य तो कुत्तोंके मार्गपपर चलता 
है ।। २२ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

एवमुकक्‍्त्वा सुदु:खार्तो नि:श्वासपरमो नृप: । 

अवेक्षमाण: कुन्तीं च माद्रीं च समभाषत ।। २३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! यों कहकर राजा पाण्डु अत्यन्त दुःखसे आतुर 
हो लंबी साँस खींचते और कुन्ती-माद्रीकी ओर देखते हुए उन दोनोंसे इस प्रकार बोले 
-- || २३ || 

कौसल्या विदुर: क्षत्ता राजा च सह बन्धुभि: । 

आर्या सत्यवती भीष्मस्ते च राजपुरोहिता: ।। २४ ।। 

ब्राह्मणाश्व महात्मान: सोमपा: संशितव्रता: । 

पौरवृद्धाश्न ये तत्र निवसन्त्यस्मदाश्रया: । 

प्रसाद्य सर्वे वक्तव्या: पाण्डु: प्रत्रजितो वनम्‌ ।। २५ ।। 

((देवियो! तुम दोनों हस्तिनापुरको लौट जाओ और) माता अम्बिका, अम्बालिका, भाई 
विदुर, संजय, बन्धुओंसहित राजा धुृतराष्ट्र,, दादी सत्यवती, चाचा भीष्मजी, 
राजपुरोहितगण, कठोरब्रतका पालन तथा सोमपान करनेवाले महात्मा ब्राह्मण तथा वृद्ध 
पुरवासीजन आदि जो लोग वहाँ हमलोगोंके आश्रित होकर निवास करते हैं, उन सबको 
प्रसन्न करके कहना, “राजा पाण्डु संन्‍्यासी होकर वनमें चले गये” || २४-२५ ।। 


निशम्य वचन भर्तुर्वनवासे धृतात्मन: । 

तत्समं वचन कुन्ती माद्री च समभाषताम्‌ ।। २६ ।। 

वनवासके लिये दृढ़ निश्चय करनेवाले पतिदेवका यह वचन सुनकर कुन्ती और माद्रीने 
उनके योग्य बात कही-- || २६ ।। 





अन्येडपि ह्यश्रमा: सन्ति ये शक्‍्या भरतर्षभ । 

आवाभ्यां धर्मपत्नीभ्यां सह तप्तुं तपो महत्‌ ।। २७ ।। 

“भरतश्रेष्ठ! संन्यासके सिवा और भी तो आश्रम हैं, जिनमें आप हम धर्मपत्नियोंके 
साथ रहकर भारी तपस्या कर सकते हैं ।। २७ ।। 

शरीरस्यापि मोक्षाय स्वर्ग्य प्राप्प महाफलम्‌ । 

त्वमेव भविता भर्ता स्वर्गस्यापि न संशय: ।। २८ ।। 

“आपकी वह तपस्या स्वर्गदायक महान्‌ फलकी प्राप्ति कराकर इस शरीरसे भी मुक्ति 
दिलानेमें समर्थ हो सकती है। इसमें संदेह नहीं कि उस तपके प्रभावसे आप ही स्वर्गलोकके 
स्वामी इन्द्र भी हो सकते हैं || २८ ।। 

प्रणिधायेन्द्रियग्रामं भर्तुलोकपरायणे । 

त्यक्तकामसुखे हाववां तप्स्थावो विपुलं तप: ।। २९ ।। 


“हम दोनों कामसुखका परित्याग करके पतिलोककी प्राप्तिका ही परम लक्ष्य लेकर 
अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको संयममें रखती हुई भारी तपस्या करेंगी ।। २९ ।। 

यदि चावां महाप्राज्ञ त्यक्ष्यसि त्वं विशाम्पते । 

अद्यैवावां प्रहास्यावो जीवितं नात्र संशय: ।। ३० ।। 

“महाप्राज्ञ नरेश्वर! यदि आप हम दोनोंको त्याग देंगे तो आज ही हम अपने प्राणोंका 
परित्याग कर देंगी, इसमें संशय नहीं है” || ३० ।। 

पाण्डुरुवाच 

यदि व्यवसितं होतद्‌ युवयोर्धर्मसंहितम्‌ । 

स्ववृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम्‌ ।। ३१ ।। 

पाण्डुने कहा--देवियो! यदि तुम दोनोंका यही धर्मयुक्त निश्चय है तो (ठीक है, मैं 
संन्यास न लेकर वानप्रस्थाश्रममें ही रहूँगा तथा) आजसे अपने पिता वेदव्यासजीकी अक्षय 
फलवाली जीवनचर्याका अनुसरण करूँगा ।। ३१ ।। 

त्यक्त्वा ग्राम्यसुखाहारं तप्यमानो महत्‌ तपः । 

वल्कली फलमूलाशी चरिष्यामि महावने ।। ३२ ।। 

भोगियोंके सुख और आहारका परित्याग करके भारी तपस्यामें लग जाऊँगा। वल्‍्कल 
पहनकर फल-मूलका भोजन करते हुए महान्‌ वनमें विचरूँगा ।। ३२ ।। 

अग्नौ जुद्धन्नुभी कालावुभौ कालावुपस्पृशन्‌ । 

कृश: परिमिताहारश्लीरचर्मजटाधर: ।। ३३ ।। 

दोनों समय स्नान-संध्या और अग्निहोत्र करूँगा। चिथड़े, मृगचर्म और जटा धारण 
करूँगा। बहुत थोड़ा आहार ग्रहण करके शरीरसे दुर्बल हो जाऊँगा ।। ३३ ।। 

शीतवातातपसह: क्षुत्पिपासानवेक्षक: । 

तपसा दुश्चरेणेदे शरीरमुपशोषयन्‌ ।। ३४ ।। 

एकान्तशीली विमृशन्‌ पक्‍्वापक्वेन वर्तयन्‌ । 

है [ देवांश्न॒ वन्येन वाग्भिरद्धिश्व॒ तर्पयन्‌ ।। ३५ ।। 

, गरमी और आँधीका वेग सहूँगा। भूख-प्यासकी परवा नहीं करूँगा तथा दुष्कर 
तपस्या करके इस शरीरको सुखा डालूँगा। एकान्तमें रहकर आत्म-चिन्तन करूँगा। कच्चे 
(कन्द-मूल आदि) और पके (फल आदि)-से जीवन-निर्वाह करूँगा। देवताओं और 
पितरोंको जंगली फल-मूल, जल तथा मन्त्रपाठ-द्वारा तृप्त करूँगा ।। ३४-३५ ।। 








वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कुलवासिनाम्‌ | 

नाप्रियाण्याचरिष्यामि कि पुनर्ग्रामवासिनाम्‌ ।। ३६ ।। 

मैं वानप्रस्थ आश्रममें रहनेवालोंका तथा कुट॒म्बी-जनोंका भी दर्शन और अप्रिय नहीं 
करूँगा; फिर ग्रामवासियोंकी तो बात ही क्या है? ।। ३६ ।। 

एवमारण्यशास्त्राणामुग्रमुग्रतरं विधिम्‌ । 

काड्क्षमाणो5हमास्थास्ये देहस्यास्या समापनात्‌ ॥। ३७ ।। 

इस प्रकार मैं वानप्रस्थ-आश्रमसम्बन्धी शास्त्रोंकी कठोर-से-कठोर विधियोंके पालनकी 
आकांक्षा करता हुआ तबतक वानप्रस्थ-आश्रममें स्थित रहूँगा जबतक कि शरीरका अन्त न 
हो जाय || ३७ |। 


वैशम्पायन उवाच 


इत्येवमुक्त्वा भार्ये ते राजा कौरवनन्दन: । 

ततश्नूडा्मणिं निष्कमड्रदे कुण्डलानि च ।। ३८ ।। 

वासांसि च महाहणि स्त्रीणामाभरणानि च । 

प्रदाय सर्व विप्रेभ्य: पाण्डु: पुनरभाषत ।। ३९ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले राजा पाण्डुने 
अपनी दोनों पत्नियोंसे यों कहकर अपने सिरपेंच, निष्क (वक्ष:स्थलके आभूषण), बाजूबंद, 
कुण्डल और बहुमूल्य वस्त्र तथा माद्री और कुन्तीके भी शरीरके गहने उतारकर सब 
ब्राह्मणोंको दे दिये। फिर सेवकोंसे इस प्रकार कहा-- ।। ३८-३९ |। 

गत्वा नागपुरं वाच्यं पाण्डु: प्रत्रजितो वनम्‌ । 

अर्थ काम॑ सुखं चैव रतिं च परमात्मिकाम्‌ ।। ४० ।। 

प्रतस्थे सर्वमुत्सृूज्य सभार्य: कुरुनन्दन: । 

“तुमलोग हस्तिनापुरमें जाकर कह देना कि कुरुनन्दन राजा पाण्डु अर्थ, काम, 
विषयसुख और स्त्रीविषयक रति आदि सब कुछ छोड़कर अपनी पत्नियोंके साथ वानप्रस्थ 
हो गये हैं! || ४० ३ ।। 

ततसस्‍्तस्यानुयातारस्ते चैव परिचारका: ।। ४१ ।। 

श्रुत्वा भरतसिंहस्य विविधा: करुणा गिर: । 

भीममार्तस्वरं कृत्वा हाहेति परिचुक्रुशु: ।। ४२ ।। 

भरतसिंह पाण्डुकी यह करुणायुक्त चित्र-विचित्र वाणी सुनकर उनके अनुचर और 
सेवक सभी हाय-हाय करके भयंकर आर्तनाद करने लगे || ४१-४२ ।। 

उष्णमश्रु विमुड्चन्तस्तं विहाय महीपतिम्‌ । 

ययुर्नागपुरं तूर्ण सर्वमादाय तद्‌ धनम्‌ ।। ४३ ।। 


उस समय नेत्रोंसे गरम-गरम आँसुओंकी धारा बहाते हुए वे सेवक राजा पाण्डुको 
छोड़कर और बचा हुआ सारा धन लेकर तुरंत हस्तिनापुरको चले गये ।। ४३ ।। 

ते गत्वा नगरं राज्ञो यथावृत्तं महात्मन: । 

कथयाज्चक्रिरे राज्ञस्तद्‌ धनं विविध ददु: ।। ४४ ।। 

उन्होंने हस्तिनापुरमें जाकर महात्मा राजा पाण्डुका सारा समाचार राजा धृतराष्ट्रसे 
ज्यों-का-त्यों कह सुनाया और वह नाना प्रकारका धन धृतराष्ट्रको ही सौंप दिया || ४४ ।। 

श्रुत्वा तेभ्यस्तत: सर्व यथावृत्तं महावने । 

धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठ: पाण्डुमेवान्वशोचत ।। ४५ || 

फिर उन सेवकोंसे उस महान्‌ वनमें पाण्डुके साथ घटित हुई सारी घटनाओंको यथावत्‌ 
सुनकर नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र सदा पाण्डुकी ही चिन्तामें दुःखी रहने लगे ।। ४५ ।। 

न शय्यासनभोगेषु रतिं विन्दति कहिचित्‌ | 

भ्रातृशोकसमाविष्टस्तमेवार्थ विचिन्तयन्‌ ।। ४६ ।। 

शय्या, आसन और नाना प्रकारके भोगोंमें कभी उनकी रुचि नहीं होती थी। वे भाईके 
शोकमें मग्न हो सदा उन्हींकी बात सोचते रहते थे || ४६ ।। 

राजपुत्रस्तु कौरव्य पाण्डुमूलफलाशन: । 

जगाम सह पत्नीभ्यां ततो नागशतं गिरिम्‌ ।। ४७ ।। 

जनमेजय! राजकुमार पाण्डु फल-मूलका आहार करते हुए अपनी दोनों पत्नियोंके 
साथ वहाँसे नागशत नामक पर्वतपर चले गये ।। ४७ ।। 

स चैत्ररथमासाद्य कालकूटमतीत्य च । 

हिमवन्तमतिक्रम्य प्रययौ गन्धमादनम्‌ ।। ४८ ।। 

तत्पश्चात्‌ चैत्रथ नामक वनमें जाकर कालकूट और हिमालय पर्वतको लाँघते हुए वे 
गन्धमादनपर चले गये ।। ४८ ।। 

रक्ष्यममाणो महाभूतै: सिद्धैश्व परमर्षिभि: । 

उवास स महाराज समेषु विषमेषु च ।। ४९ ।। 

इन्द्रद्युम्नसर: प्राप्य हंसकूटमतीत्य च । 

शतश्‌ड्रे महाराज तापस: समतप्यत ।। ५० ।। 

महाराज! उस समय महाभूत, सिद्ध और महर्षिगण उनकी रक्षा करते थे। वे ऊँची- 
नीची जमीनपर सो लेते थे। इन्द्रद्मम्मन सरोवरपर पहुँचकर तथा उसके बाद हंसकूटको 
लाँघते हुए वे शतशुंग पर्वतपर जा पहुँचे। जनमेजय! वहाँ वे तपस्वी-जीवन बिताते हुए 
भारी तपस्यामें संलग्न हो गये || ४९-५० ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि 
पाण्डुचरितेडष्टादशशाधिकशततमो< ध्याय: ।। ११८ ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डुचरितविषयक एक सौ 
अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११८ ॥। 


अपन छा | अ-णक्राछ 


एकोनविशत्यधिकशततमोड< ध्याय: 


पाण्डुका कुन्तीको पुत्र-प्राप्तिके लिये प्रयत्न करनेका 
आदेश 


वैशम्पायन उवाच 


तत्रापि तपसि श्रेष्ठे वर्तमान: स वीर्यवान्‌ | 

सिद्धचारणसड्घानां बभूव प्रियदर्शन: ।। १ | 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! वहाँ भी श्रेष्ठ तपस्यामें लगे हुए पराक्रमी राजा 
पाण्डु सिद्ध और चारणोंके समुदायको अत्यन्त प्रिय लगने लगे--इन्हें देखते ही वे प्रसन्न हो 
जाते थे || १ ।। 

शुश्रूषुरनहंवादी संयतात्मा जितेन्द्रिय: । 

स्वर्ग गन्तुं पराक्रान्तः स्वेन वीर्येण भारत ।। २ ।॥। 

भारत! वे ऋषि-मुनियोंकी सेवा करते, अहंकारसे दूर रहते और मनको वशगमें रखते थे। 
उन्होंने सम्पूर्ण इन्द्रियोंको जीत लिया था। वे अपनी ही शक्तिसे स्वर्गलोकमें जानेके लिये 
सदा सचेष्ट रहने लगे ।। २ ।। 

केषांचिदभवद्‌ भ्राता केषांचिदभवत्‌ सखा । 

ऋषयपस्त्वपरे चैनं पुत्रवत्‌ पर्यपालयन्‌ ।॥। ३ ।। 

कितने ही ऋषियोंका उनपर भाईके समान प्रेम था। कितनोंके वे मित्र हो गये थे और 
दूसरे बहुत-से महर्षि उन्हें अपने पुत्रके समान मानकर सदा उनकी रक्षा करते थे || ३ ।। 

स तु कालेन महता प्राप्य निष्कल्मषं तप: । 

ब्रह्मर्षिसदृश: पाण्डुबभूव भरतर्षभ ।। ४ ।। 

भरतश्रेष्ठ जनमेजय! राजा पाण्डु दीर्घकालतक पापरहित तपस्याका अनुष्ठान करके 
ब्रह्मर्षियोंके समान प्रभावशाली हो गये थे ।। ४ ।। 

अमावास्यां तु सहिता ऋषय: संशितव्रता: । 

ब्रह्माणं द्रष्टकामास्ते सम्प्रतस्थुर्महर्षय: ।। ५ ।। 

एक दिन अमावास्या तिथिको कठोर व्रतका पालन करनेवाले बहुत-से ऋषि-महर्षि 
एकत्र हो ब्रह्माजीके दर्शनकी इच्छासे ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थित हुए ।। ५ ।। 

सम्प्रयातानृषीन्‌ दृष्टवा पाण्डुर्वचनमब्रवीत्‌ | 

भवन्त: क्व गमिष्यन्ति ब्रूत मे वदतां वरा: ।। ६ ।। 

ऋषियोंको प्रस्थान करते देख पाण्डुने उनसे पूछा--“वक्ताओंमें श्रेष्ठ मुनीश्वरो! 
आपलोग कहाँ जायँगे? यह मुझे बताइये” ।। ६ ।। 


ऋषय ऊचु: 

समवायो महानद्य ब्रह्मलोके महात्मनाम्‌ | 

देवानां च ऋषीणां च पितृणां च महात्मनाम्‌ | 

वयं तत्र गमिष्यामो द्रष्टकामा: स्वयम्भुवम्‌ ।। ७ ।। 

ऋषि बोले--राजन्‌! आज ब्रह्मलोकमें महात्मा देवताओं, ऋषि-मुनियों तथा महामना 
पितरोंका बहुत बड़ा समूह एकत्र होनेवाला है। अतः हम वहीं स्वयम्भू ब्रह्माजीका दर्शन 
करनेके लिये जायँगे || ७ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

पाण्डुरुत्थाय सहसा गन्तुकामो महर्षिभि: । 

स्वर्गपारं तितीर्ष: स शतशूज्रादुदड्मुख: ।। ८ ।। 

प्रतस्थे सह पत्नीभ्यामन्रुवंस्तं च तापसा: । 

उपर्युपरि गच्छन्त: शैलराजमुदड्मुखा: ।। ९ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! यह सुनकर महाराज पाण्डु भी महर्षियोंके साथ 
जानेके लिये सहसा उठ खड़े हुए। उनके मनमें स्वर्गके पार जानेकी इच्छा जाग उठी और वे 
उत्तरकी ओर मुँह करके अपनी दोनों पत्नियोंके साथ शतशंग पर्वतसे चल दिये। यह देख 
गिरिराज हिमालयके ऊपर-ऊपर उत्तराभिमुख यात्रा करनेवाले तपस्वी मुनियोंने कहा 
-- || ८-९ || 

दृष्टवन्तो गिरौ रम्ये दुर्गान्‌ देशान्‌ बहून्‌ वयम्‌ | 

विमानशतसम्बाधां गीतस्वरनिनादिताम्‌ ।। १० ।। 

आक्रीडशभूमिं देवानां गन्धर्वाप्सरसां तथा । 

उद्यानानि कुबेरस्थ समानि विषमाणि च ।। १३१ ।। 

“भरतश्रेष्ठ इस रमणीय पर्वतपर हमने बहुत-से ऐसे प्रदेश देखे हैं, जहाँ जाना बहुत 
कठिन है। वहाँ देवताओं, गन्धर्वों तथा अप्सराओंकी क्रीड़ाभूमि है, जहाँ सैकड़ों विमान 
खचाखच भरे रहते हैं और मधुर गीतोंके स्वर गूँजते रहते हैं। इसी पर्वतपर कुबेरके अनेक 
उद्यान हैं, जहाँकी भूमि कहीं समतल है और कहीं नीची-ऊँची || १०-११ ।। 

महानदीनितम्बांश्न गहनान्‌ गिरिगह्दरान्‌ । 

सन्ति नित्यहिमा देशा निर्वक्षमृगपक्षिण: ।। १२ ।। 

“इस मार्गमें हमने कई बड़ी-बड़ी नदियोंके दुर्गण तट और कितनी ही पर्वतीय घाटियाँ 
देखी हैं। यहाँ बहुत-से ऐसे स्थल हैं, जहाँ सदा बर्फ जमी रहती है तथा जहाँ वृक्ष, पशु और 
पक्षियोंका नाम भी नहीं है ।। १२ ।। 

सन्ति क्वचिन्महादर्यों दुर्गा: काश्चिद्‌ दुरासदा: । 

नातिक्रामेत पक्षी यान्‌ कुत एवेतरे मृगा: ।। १३ ।। 


“कहीं-कहीं बहुत बड़ी गुफाएँ हैं, जिनमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है। कइयोंके तो 
निकट भी पहुँचना कठिन है। ऐसे स्थलोंको पक्षी भी नहीं पार कर सकता, फिर मृग आदि 
अन्य जीवोंकी तो बात ही क्‍या है? ।। १३ ।। 

वायुरेको हि यात्यत्र सिद्धाश्व परमर्षय: । 

गच्छन्त्यौ शैलराजेडस्मिन्‌ राजपुत्रयां कथं त्विमे || १४ ।। 

न सीदेतामदुःखाहें मा गमो भरतर्षभ । 

“इस मार्गपर केवल वायु चल सकती है तथा सिद्ध महर्षि भी जा सकते हैं। इस 
पर्वतराजपर चलती हुई ये दोनों राजकुमारियाँ कैसे कष्ट न पायेंगी? भरतवंशशिरोमणे! ये 
दोनों रानियाँ दुःख सहन करनेके योग्य नहीं हैं; अतः आप न चलिये' ।। १४३ ।। 

पाण्डुरुवाच 


अप्रजस्य महाभागा न द्वारं परिचक्षते ।। १५ ।। 

स्वर्गे तेनाभितप्तो5हमप्रजस्तु ब्रवीमि व: । 

पित्र्यादृणादनिर्मुक्तस्तेन तप्ये तपोधना: ।। १६ ।। 

पाण्डुने कहा--महाभाग महर्षिगण! संतानहीनके लिये स्वर्गका दरवाजा बंद रहता है, 
ऐसा लोग कहते हैं। मैं भी संतानहीन हूँ, इसलिये दुःखसे संतप्त होकर आपलोगोंसे कुछ 
निवेदन करता हूँ। तपोधनो! मैं पितरोंके ऋणसे अबतक छूट नहीं सका हूँ, इसलिये 
चिन्तासे संतप्त हो रहा हूँ ।। १५-१६ ।। 

देहनाशे ध्रुवोी नाश: पितृणामेष निश्चय: । 

ऋणैश्नतुर्भि: संयुक्ता जायन्ते मानवा भुवि ॥। १७ ।। 

निःसंतान-अवस्थामें मेरे इस शरीरका नाश होने-पर मेरे पितरोंका पतन अवश्य हो 
जायगा। मनुष्य इस पृथ्वीपर चार प्रकारके ऋणोंसे युक्त होकर जन्म लेते हैं ।। १७ ।। 

पितृदेवर्षिमनुजैददेयं तेभ्यश्व धर्मत: । 

एतानि तु यथाकालं यो न बुध्यति मानव: ।॥। १८ ।। 

न तस्य लोका: सन्तीति धर्मविद्धि: प्रतिष्ठितम्‌ । 

यज्ैस्तु देवान्‌ प्रीणाति स्वाध्यायतपसा मुनीन्‌ ।। १९ ।। 

(उन ऋणोंके नाम ये हैं--) पितृ-ऋण, देव-ऋण, ऋषि-ऋण और मनुष्य-ऋण। उन 
सबका ऋण धर्मतः हमें चुकाना चाहिये। जो मनुष्य यथासमय इन ऋणोंका ध्यान नहीं 
रखता, उसके लिये पुण्यलोक सुलभ नहीं होते। यह मर्यादा धर्मज्ञ पुरुषोंने स्थापित की है। 
यज्ञोंद्वारा मनुष्य देवताओंको तृप्त करता है, स्वाध्याय और तपस्याद्वारा मुनियोंको संतोष 
दिलाता है ।। १८-१९ ।। 

पुत्र: श्राद्धैः पितृश्षञापि आनृशंस्येन मानवान्‌ । 

ऋषिदेवमनुष्याणां परिमुक्तो5स्मि धर्मत: ।। २० ।। 


त्रयाणामितरेषां तु नाश आत्मनि नश्यति । 

पित्र्यादृणादनिर्मुक्त इदानीमस्मि तापसा: || २१ ।। 

पुत्रोत्पादन और श्राद्धकर्मोद्वारा पितरोंको तथा दयापूर्ण बर्तावद्वारा वह मनुष्योंको 
संतुष्ट करता है। मैं धर्मकी दृष्टिसे ऋषि, देव तथा मनुष्य--इन तीनों ऋणोंसे मुक्त हो चुका 
हूँ। अन्य अर्थात्‌ पितरोंक ऋणका नाश तो इस शरीरके नाश होनेपर भी शायद ही हो सके। 
तपस्वी मुनियो! मैं अबतक पितृ-ऋणसे मुक्त न हो सका ।। २०-२१ ।। 

इह तस्मात्‌ प्रजाहेतो: प्रजायन्ते नरोत्तमा: | 

यथैवाहं पितु: क्षेत्रे जातस्तेन महर्षिणा || २२ ।। 

तथैवास्मिन्‌ मम क्षेत्रे कथं वै सम्भवेत्‌ प्रजा । 

इस लोकमें श्रेष्ठ पुरुष पितृ-ऋणसे मुक्त होनेके लिये संतानोत्पत्तिका प्रयत्न करते और 
स्वयं ही पुत्ररूपमें जन्म लेते हैं। जैसे मैं अपने पिताके क्षेत्रमें महर्षि व्यासद्वारा उत्पन्न हुआ 
हूँ, उसी प्रकार मेरे इस क्षेत्रमें भी कैसे संतानकी उत्पत्ति हो सकती है? || २२६ ।। 

ऋषय ऊचु: 

अस्ति वै तव धर्मात्मन्‌ विद्यो देवोपमं शुभम्‌ ।। २३ ।। 

अपत्यमनघं राजन्‌ वयं दिव्येन चक्षुषा । 

दैवोद्दिष्टं नरव्यात्र कर्मणेहोपपादय ।। २४ ।। 

ऋषि बोले--धर्मात्मा नरेश! तुम्हें पापरहित देवोपम शुभ संतान होनेका योग है, यह 
हम दिव्यदृष्टिसे जानते हैं। नरव्याप्र! भाग्यने जिसे दे रखा है, उस फलको प्रयत्नद्वारा प्राप्त 
कीजिये ।। २३-२४ ।। 

अक्लिष्टं फलमव्यग्रो विन्दते बुद्धिमान्‌ नर: । 

तस्मिन्‌ दृष्टे फले राजन्‌ प्रयत्नं कर्तुमहसि || २५ ।। 

अपत्यं गुणसम्पन्नं लब्धा प्रीतिकरं हासि । 

बुद्धिमान्‌ मनुष्य व्यग्रता छड़कर बिना क्लेशके ही अभीष्ट फलको प्राप्त कर लेता है। 
राजन! आपको उस दृष्ट फलके लिये प्रयत्न करना चाहिये। आप निश्चय ही गुणवान्‌ और 
हर्षोत्पादक संतान प्राप्त करेंगे || २५३ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


नच्छुत्वा तापसवच: पाण्ड्श्विन्तापरो3भवत्‌ ।। २६ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तपस्वी मुनियोंका यह वचन सुनकर राजा 
पाण्डु बड़े सोच-विचारमें पड़ गये || २६ ।। 

आत्मनो मृगशापेन जानन्नुपहतां क्रियाम्‌ । 

सो<ब्रवीद्‌ विजने कुन्तीं धर्मपत्नीं यशस्विनीम्‌ । 

अपत्योत्पादने यत्नमापदि त्वं समर्थय ।। २७ ।। 


वे जानते थे कि मृगरूपधारी मुनिके शापसे मेरा संतानोत्पादन-विषयक पुरुषार्थ नष्ट 
हो चुका है। एक दिन वे अपनी यशस्विनी धर्मपत्नी कुन्तीसे एकान्तमें इस प्रकार बोले 
--देवि! यह हमारे लिये आपत्तिकाल है, इस समय संतानोत्पादनके लिये जो आवश्यक 
प्रयत्न हो, उसका तुम समर्थन करो ।। २७ ।। 

अपत्यं नाम लोकेषु प्रतिष्ठा धर्मसंहिता । 

इति कुन्ति विदुर्धीरा: शाश्व॒तं धर्मवादिन: ॥। २८ ।। 

इष्टं दत्तं तपस्तप्तं नियमश्न स्वनुछ्ित: । 

सर्वमेवानपत्यस्य न पावनमिहोच्यते ।। २९ ।। 

“सम्पूर्ण लोकोंमें संतान ही धर्ममयी प्रतिष्ठा है--कुन्ती! सदा धर्मका प्रतिपादन 
करनेवाले धीर पुरुष ऐसा ही मानते हैं। संतानहीन मनुष्य इस लोकमें यज्ञ, दान, तप और 
नियमोंका भलीभाँति अनुष्ठान कर ले, तो भी उसके किये हुए सब कर्म पवित्र नहीं कहे 
जाते ।। २८-२९ |। 

सो>हमेवं विदित्वैतत्‌ प्रपश्यामि शुचिस्मिते | 

अनपत्य: शुभॉल्लोकान्‌ न प्राप्स्यामीति चिन्तयन्‌ ॥। ३० ।। 

“पवित्र मुसकानवाली कुन्तिभोजकुमारी! इस प्रकार सोच-समझकर मैं तो यही देख 
रहा हूँ कि संतानहीन होनेके कारण मुझे शुभ लोकोंकी प्राप्ति नहीं हो सकती। मैं निरन्तर 
इसी चिन्तामें डूबा रहता हूँ || ३० ।। 

मृगाभिशापान्नष्टं मे जननं हाकृतात्मन: । 

नृशंसकारिणो भीरु यथैवोपहतं पुरा ।। ३१ ।। 

“मेरा मन अपने वशमें नहीं, मैं क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाला हूँ। भीरु! इसीलिये मृगके 
शापसे मेरी संतानोत्पादन-शक्ति उसी प्रकार नष्ट हो गयी है, जिस प्रकार मैंने उस मृगका 
वध करके उसके मैथुनमें बाधा डाली थी ।। ३१ ।। 

इमे वै बन्धुदायादा: षटू्‌ पुत्रा धर्मदर्शने । 

षडेवाबन्धुदायादा: पुत्रास्ताउछूणु मे पृथे | ३२ ।। 

'पृथे! धर्मशास्त्रमें ये आगे बताये जानेवाले छ: पुत्र “बन्धुदायाद' कहे गये हैं, जो 
कुट॒म्बी होनेसे सम्पत्तिके उत्तराधिकारी होते हैं और छ: प्रकारके पुत्र 'अबन्धुदायाद' हैं, जो 
कुट॒म्बी न होनेपर भी उत्तराधिकारी बताये गये हैं+। इन सबका वर्णन मुझसे सुनो || ३२ ।। 

स्वयंजात: प्रणीतश्न तत्सम: पुत्रिकासुत: । 

पौनर्भवश्ल कानीन: भगिन्यां यश्ष॒ जायते ।। ३३ ।। 

“पहला पुत्र वह है, जो विवाहिता पत्नीसे अपने द्वारा उत्पन्न किया गया हो; उसे 
'स्वयंजात' कहते हैं। दूसरा प्रणीत कहलाता है, जो अपनी ही पत्नीके गर्भसे किसी उत्तम 
पुरुषके अनुग्रहसे उत्पन्न होता है। तीसरा जो अपनी पुत्रीका पुत्र हो, वह भी उसके ही 


समान माना गया है। चौथे प्रकारके पुत्रकी पौनर्भवः संज्ञा है, जो दूसरी बार ब्याही हुई 
सत्रीसे उत्पन्न हुआ हो। पाँचवें प्रकारके पुत्रकी कानीन संज्ञा है (विवाहसे पहले ही जिस 
कन्याको इस शर्तके साथ दिया जाता है कि इसके गर्भसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र मेरा पुत्र 
समझा जायगा उस कन्याके पुत्रको “कानीन' कहते हैं)5। जो बहनका पुत्र (भानजा) है, वह 
छठा कहा गया है ।। ३३ ।। 

दत्त: क्रीतः कृत्रिमश्न॒ उपगच्छेत्‌ स्वयं च यः । 

सहोढो ज्ञातिरेताश्व हीनयोनिधृतश्च यः ।। ३४ ।। 

“अब छ: प्रकारके अबन्धुदायाद पुत्र कहे जाते हैं-दत्त (जिसे माता-पिताने स्वयं 
समर्पित कर दिया हो), क्रीत (जिसे धन आदि देकर खरीद लिया गया हो), कृत्रिम--जो 
स्वयं मैं आपका पुत्र हूँ, यों कहकर समीप आया हो, सहोढ (जो कन्यावस्थामें ही गर्भवती 
होकर ब्याही गयी हो, उसके गर्भसे उत्पन्न पुत्र सहोढ कहलाता है), ज्ञातिरेता (अपने 
कुलका पुत्र) तथा अपनेसे हीन जातिकी स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न हुआ पुत्र। ये सभी 
अबन्धुदायाद हैं ।। ३४ ।। 

पूर्वपूर्वतमाभावं मत्वा लिप्सेत वै सुतम्‌ । 

उत्तमादवरा: पुंस: काडुशक्षन्ते पुत्रमापदि ।। ३५ ।। 

“इनमेंसे पूर्व-पूर्वके अभावमें ही दूसरे-दूसरे पुत्रकी अभिलाषा करे। आपत्तिकालमें 
नीची जातिके पुरुष श्रेष्ठ पुरुषसे भी पुत्रोत्पत्तिकी इच्छा कर सकते हैं ।। ३५ ।। 

अपत्यं धर्मफलदं श्रेष्ठ विन्दन्ति मानवा: । 

आत्मशुक्रादपि पृथे मनु: स्वायम्भुवोडब्रवीत्‌ ।। ३६ ।। 

'पृथे! अपने वीर्यके बिना भी मनुष्य किसी श्रेष्ठ पुरुषके सम्बन्धसे श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त कर 
लेते हैं और वह धर्मका फल देनेवाला होता है, यह बात स्वायम्भुव मनुने कही है || ३६ ।। 

तस्मात्‌ प्रहेष्याम्यद्य त्वां हीन: प्रजननात्‌ स्वयम्‌ | 

सदृशाच्छेयसो वा त्वं विद्धापत्यं यशस्विनि ।। ३७ ।। 

“अतः यशस्विनी कुन्ती! मैं स्वयं संतानोत्पादनकी शक्तिसे रहित होनेके कारण तुम्हें 
आज दूसरेके पास भेजूँगा। तुम मेरे सदूश अथवा मेरी अपेक्षा भी श्रेष्ठ पुरुषसे संतान प्राप्त 
करो” || ३७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डुपृथासंवादे 
ऊनविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। ११९ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्माभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डु-पृथा-संवादाविषयक एक 
सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ११९ ॥। 


ऑपन-माज बक। डे 


$. बन्धु शब्दका अर्थ संस्कृत-शब्दार्थकौस्तुभमें आत्मबन्धु, पितृबन्धु, मातृबन्धु माना गया है, इसलिये बन्धुका अर्थ 
कुटुम्बी किया है। दायादका अर्थ उसी कोषमें “उत्तराधिकारी” है। इसीलिये बन्धुदायादका अर्थ “कुटुम्बी' होनेसे 
उत्तराधिकारी” किया है। इसके विपरीत, अबन्धुदायादका अर्थ अबन्धु यानी कुट॒म्बी न होनेपर उत्तराधिकारी किया है। 

२. 'पौनर्भव”का अर्थ पद्मचन्द्रकोषके अनुसार दूसरी बार ब्याही हुई स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र लिया गया है। 

3. कानीन--यह अर्थ नीलकण्ठजीने अपनी टीकामें किया है। 


विशर्त्याधिकशततमो< ध्याय: 


कुन्तीका पाण्डुको व्युषिताश्वके मृत शरीरसे उसकी 
पतिव्रता पत्नी भद्राके द्वारा पुत्र-प्राप्तिका कथन 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्ता महाराज कुन्ती पाण्डुमभाषत । 

कुरूणामृषभं वीरं तदा भूमिपतिं पतिम्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--महाराज जनमेजय! इस प्रकार कहे जानेपर कुन्ती अपने 
पति कुरुश्रेष्ठ वीरवर राजा पाण्डुसे इस प्रकार बोली-- ।। १ ।। 

न मा्महसि धर्मज्ञ वक्तुमेवं कथंचन । 

धर्मपत्नीमभिरतां त्वयि राजीवलोचने | २ ।। 

“धर्मज्ञ! आप मुझसे किसी तरह ऐसी बात न कहें; मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ और 
कमलके समान विशाल नेत्रोंवाले आपमें ही अनुराग रखती हूँ ।। २ ।। 

त्वमेव तु महाबाहो मय्यपत्यानि भारत । 

वीर वीर्योपपन्नानि धर्मतो जनयिष्यसि ।। ३ ।। 

“महाबाहु वीर भारत! आप ही मेरे गर्भसे धर्मपूर्वक अनेक पराक्रमी पुत्र उत्पन्न 
करेंगे ।। ३ ।। 

स्वर्ग मनुजशार्दूल गच्छेयं सहिता त्वया । 

अपत्याय च मां गच्छ त्वमेव कुरुनन्दन ।। ४ ।। 

“नरश्रेष्ठ! मैं आपके साथ ही स्वर्गलोकमें चलूँगी। कुरुनन्दन! पुत्रकी उत्पत्तिके लिये 
आप ही मेरे साथ समागम कीजिये ।। ४ ।। 

न हाहं मनसाप्यन्यं गच्छेयं त्वदृते नरम्‌ । 

त्वत्त: प्रतिविशिष्टश्ष॒ कोडन्यो5स्ति भुवि मानव: ।। ५ ।। 

“मैं आपके सिवा किसी दूसरे पुरुषसे समागम करनेकी बात मनमें भी नहीं ला सकती। 
फिर इस पृथ्वीपर आपसे श्रेष्ठ दूसरा मनुष्य है भी कौन ।। ५ ।। 

इमां च तावद्‌ धर्मात्मन्‌ पौराणीं शूणु मे कथाम्‌ । 

परिश्रुतां विशालाक्ष कीर्तयिष्यामि यामहम्‌ ।। ६ ।। 

“धर्मात्मन्‌! पहले आप मेरे मुँहसे यह पौराणिक कथा सुन लीजिये। विशालाक्ष! यह 
जो कथा मैं कहने जा रही हूँ, सर्वत्र विख्यात है ।। ६ ।। 

व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिव: । 

पुरा परमधर्मिष्ठ: पूरोर्वशविवर्धन: ।। ७ ।। 


“कहते हैं, पूर्वकालमें एक परम धर्मात्मा राजा हो गये हैं। उनका नाम था व्युषिताश्व। वे 
पूरुवंशकी वृद्धि करनेवाले थे ।। ७ ।। 

तस्मिंश्न॒ यजमाने वै धर्मात्मनि महाभुजे । 

उपागमंस्ततो देवा: सेन्द्रा देवर्षिभि: सह ।। ८ ।। 

“एक समय वे महाबाहु धर्मात्मा नरेश जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्द्र आदि देवता 
देवर्षियोंके साथ उस यज्ञमें पधारे थे ।। ८ ।। 

अमाद्यदिन्द्र: सोमेन दक्षिणाभिद्धिजातय: । 

व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मन: ।। ९ |। 

देवा ब्रह्मर्षयश्चैव चक्रुः कर्म स्वयं तदा । 

व्युषिताश्व॒स्ततो राजन्नति मर्त्यान्‌ व्यरोचत ।। १० ।। 

“उसमें देवराज इन्द्र सोमपान करके उन्मत्त हो उठे थे तथा ब्राह्मणलोग पर्याप्त दक्षिणा 
पाकर हर्षसे फूल उठे थे। महामना राजर्षि व्युषिताश्वके यज्ञमें उस समय देवता और ब्रह्मर्षि 
स्वयं सब कार्य कर रहे थे। राजन! इससे व्युषिताश्व सब मनुष्योंसे ऊँची स्थितिमें पहुँचकर 
बड़ी शोभा पा रहे थे ।। ९-१० ।। 

सर्वभूतान्‌ प्रति यथा तपन: शिशिरात्यये । 

स विजित्य गृहीत्वा च नृपतीन्‌ राजसत्तम: || ११ ।। 

प्राच्यानुदीच्यान्‌ पाश्चात्त्यान्‌ दाक्षिणात्यानकालयत्‌ । 

अश्वमेधे महायज्ञे व्युषिताश्वः प्रतापवान्‌ ।। १२ ।। 

'राजा व्युषिताश्व॒ समस्त भूतोंके प्रीतिपात्र थे। राजाओंमें श्रेष्ठ प्रतापी व्युषिताश्वने 
अश्वमेध नामक महान्‌ यजञ्ञमें पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण--चारों दिशाओंके राजाओंको 
जीतकर अपने वशमें कर लिया--ठीक जिस प्रकार शिशिरकालके अन्तमें भगवान्‌ सूर्य- 
देव सभी प्राणियोंपर विजय कर लेते हैं--सबको तपाने लगते हैं || ११-१२ ।। 

बभूव स हि राजेन्द्रो दशनागबलान्वित: । 

अप्यत्र गाथां गायन्ति ये पुराणविदो जना: ।। १३ ।। 

व्युषिताश्वे यशोवृद्धे मनुष्येन्द्रे कुरूत्तम । 

व्युषिताश्व: समुद्रान्तां विजित्येमां वसुंधराम्‌ ।। १४ ।। 

अपालयत्‌ सर्ववर्णान्‌ पिता पुत्रानिवौरसान्‌ । 

यजमानो महायज्जैत्रद्वाणेभ्यो धनं ददौ || १५ ।। 

“उन महाराजमें दस हाथियोंका बल था। कुरुश्रेष्ठ! पुराणवेत्ता विद्वान्‌ यशमें बढ़े-चढ़े 
हुए नरेन्द्र व्युषिताश्वके विषयमें यह यशोगाथा गाते हैं--“राजा व्युषिताश्व समुद्रपर्यन्त इस 
सारी पृथ्वीको जीतकर जैसे पिता अपने औरस पुत्रोंका पालन करता है, उसी प्रकार सभी 
वर्णके लोगोंका पालन करते थे। उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करके ब्राह्मणोंको बहुत 
धन दिया ।। १३--१५ |। 


अनन्तरत्नान्यादाय स जहार महाक्रतून्‌ । 

सुषाव च बहून्‌ सोमान्‌ सोमसंस्थास्ततान च ।। १६ ।। 

“अनन्त रत्नोंकी भेंट लेकर उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये। अनेक सोमयागोंका आयोजन 
करके उनमें बहुत-सा सोमरस संग्रह करके अग्निष्टोम-अत्यग्निष्टोम आदि सात प्रकारकी 
सोमयाग-संस्थाओंका भी अनुष्ठान किया ।। १६ ।। 

आसीत्‌ काक्षीवती चास्य भार्या परमसम्मता | 

भद्रा नाम मनुष्येन्द्र रूपेणासदृशी भुवि ।। १७ ।। 

“नरेन्द्र! राजा कक्षीवान्‌की पुत्री भद्रा उनकी अत्यन्त प्यारी पत्नी थी। उन दिनों इस 
पृथ्वीपर उसके रूपकी समानता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री न थी ।। १७ ।। 

कामयामासतुस्तौ च परस्परमिति श्रुतम्‌ । 

स तस्यां कामसम्पन्नो यक्ष्मणा समपद्यत ।। १८ ।। 

“मैंने सुना है, वे दोनों पति-पत्नी एक-दूसरेको बहुत चाहते थे। पत्नीके प्रति अत्यन्त 
कामासक्त होनेके कारण राजा व्युषिताश्व राजयक्ष्माके शिकार हो गये ।। १८ ।। 

तेनाचिरेण कालेन जगामास्तमिवांशुमान्‌ | 

तस्मिन्‌ प्रेते मनुष्येन्द्रे भार्यास्थ भृशदु:खिता ।। १९ ।। 

“इस कारण वे थोड़े ही समयमें सूर्यकी भाँति अस्त हो गये। उन महाराजके 
परलोकवासी हो जानेपर उनकी पत्नीको बड़ा दुःख हुआ ।। १९ |।। 

अपुत्रा पुरुषव्याप्र विललापेति न: श्रुतम्‌ । 

भद्रा परमदु:खार्ता तन्निबोध जनाधिप ।। २० ।। 

“नरव्याप्र जनेश्वर! हमने सुना है कि भद्राके तबतक कोई पुत्र नहीं हुआ था। इस 
कारण वह अत्यन्त दुःखसे आतुर होकर विलाप करने लगी; वह विलाप सुनिये” ।। २० ।। 

भद्रोवाच 


नारी परमधर्मज्ञ सर्वा भर्तृविनाकृता । 

पतिं विना जीवति या न सा जीवति दुःखिता ।। २१ ।। 

भद्रा बोली--परमधर्मज्ञ महाराज! जो कोई भी विधवा स्त्री पतिके बिना जीवन धारण 
करती है, वह निरन्तर दु:खमें डूबी रहनेके कारण वास्तवमें जीती नहीं, अपितु मृततुल्या 
है ।। २१ |। 

पतिं विना मृतं श्रेयो नार्या: क्षत्रियपुड्भव | 

त्वद्गतिं गन्तुमिच्छामि प्रसीदस्व नयस्व माम्‌ ।। २२ ।। 

त्वया हीना क्षणमपि नाहं जीवितुमुत्सहे । 

प्रसादं कुरु मे राजन्नितस्तूर्ण नयस्व माम्‌ ।। २३ ।। 


क्षत्रियशिरोमणे! पतिके न रहनेपर नारीकी मृत्यु हो जाय, इसीमें उसका कल्याण है। 
अतः मैं भी आपके ही मार्गपर चलना चाहती हूँ, प्रसन्न होइये और मुझे अपने साथ ले 
चलिये। आपके बिना एक क्षण भी जीवित रहनेका मुझमें उत्साह नहीं है। राजन्‌! कृपा 
कीजिये और यहाँसे शीघ्र मुझे ले चलिये || २२-२३ ।। 

पृष्ठतो$नुगमिष्यामि समेषु विषमेषु च । 

त्वामहं नरशार्दूल गच्छन्तमनिवर्तितुम्‌ । २४ ।। 

नरश्रेष्ठ आप जहाँ कभी न लौटनेके लिये गये हैं, वहाँका मार्ग समतल हो या विषम, मैं 
आपके पीछे-पीछे अवश्य चली चलूँगी || २४ ।। 

छायेवानुगता राजन्‌ सततं वशवर्तिनी | 

भविष्यामि नरव्याप्र नित्यं प्रियहिते रता ।। २५ ।। 

राजन! मैं छायाकी भाँति आपके पीछे लगी रहूँगी एवं सदा आपकी आज्ञाके अधीन 
रहूँगी। नरव्याप्र! मैं सदा आपके प्रिय और हितमें लगी रहूँगी || २५ ।। 

अद्यप्रभृति मां राजन्‌ कष्टा हृदयशोषणा: । 

आधयो<5भिभविष्यन्ति त्वामृते पुष्करेक्षण ।। २६ ।। 

कमलके समान नेत्रोंवाले महाराज! आपके बिना आजसे हृदयको सुखा देनेवाले कष्ट 
और मानसिक चिन्ताएँ मुझे सताती रहेंगी ।। २६ ।। 

अभाग्यया मया नून॑ वियुक्ता: सहचारिण: । 

तेन मे विप्रयोगो5यमुपपन्नस्त्वया सह ।। २७ ।। 

मुझ अभागिनीने निश्चय ही कितने ही जीवनसंगियों (स्त्री-पुरुषों)-में विछोह कराया 
होगा। इसीलिये आज आपके साथ मेरा वियोग घटित हुआ है ।। २७ ।। 

विप्रयुक्ता तु या पत्या मुहूर्तमपि जीवति । 

दुःखं जीवति सा पापा नरकस्थेव पार्थिव ।। २८ ।। 

महाराज! जो स्त्री पतिसे बिछुड़ जानेपर दो घड़ी भी जीवन धारण करती है, वह 
पापिनी नरकमें पड़ी हुई-सी दुःखमय जीवन बिताती है ।। २८ ।। 

संयुक्ता विप्रयुक्ता श्च पूर्वदेहे कृता मया । 

तदिदं कर्मभि: पापै: पूर्वदेहेषु संचितम्‌ । २९ ।। 

दुःखं मामनुसम्प्राप्तं राजंस्त्वद्विप्रयोगजम्‌ । 

अद्यप्रभृत्यहं राजन्‌ कुशसंस्तरशायिनी । 

भविष्याम्यसुखाविष्टा त्वद्दर्शनपरायणा ।॥। ३० ।। 

राजन! पूर्वजन्मके शरीरमें स्थित रहकर मैंने एक साथ रहनेवाले कुछ स्त्री-पुरुषोंमें 
अवश्य वियोग कराया है। उन्हीं पापकर्माद्वारा मेरे पूर्वशरीरोंमें जो बीजरूपसे संचित हो रहा 
था, वही यह आपके वियोगका दुःख आज मुझे प्राप्त हुआ है। महाराज! मैं दुःखमें डूबी हुई 
हूँ, अत: आजसे आपके दर्शनकी इच्छा रखकर मैं कुशके बिछौनेपर सोऊँगी || २९-३० ।। 


दर्शयस्व नरव्यापत्र शाधि मामसुखान्विताम्‌ | 

कृपणां चाथ करुणं विलपन्‍न्तीं नरेश्वर ।। ३१ ।। 

नरश्रेष्ठ नरेश्वरर करुण विलाप करती हुई मुझ दीन-दु:ःखिया अबलाको आज अपना 
दर्शन और कर्तव्यका आदेश दीजिये ।। ३१ ।। 


कुन्त्युवाच 

एवं बहुविध॑ तस्यां विलपन्त्यां पुन: पुनः । 

तं॑ शवं सम्परिष्वज्य वाक्‌ किलान्तर्तहिताब्रवीत्‌ ।। ३२ ।। 

कुन्तीने कहा--महाराज! इस प्रकार जब राजाके शवका आलिंगन करके वह बार- 
बार अनेक प्रकारसे विलाप करने लगी, तब आकाशवाणी बोली--- ।। ३२ ॥। 

उत्तिष्ठ भद्रे गच्छ त्वं ददानीह वरं तव । 

जनयिष्याम्यपत्यानि त्वय्यहं चारुहासिनि ।। ३३ |। 

“भद्रे! उठो और जाओ, इस समय मैं तुम्हें वर देता हूँ। चारुहासिनि! मैं तुम्हारे गर्भसे 
कई पुत्रोंकोी जन्म दूँगा || ३३ ।। 

आत्मकीये वरारोहे शयनीये चतुर्दशीम्‌ । 

अष्टमी वा ऋतुस्नाता संविशेथा मया सह ।। ३४ ।। 

“वरारोहे! तुम ऋतुस्नाता होनेपर चतुर्दशी या अष्टमीकी रातमें अपनी शय्यापर मेरे इस 
शवके साथ सो जाना” ।। ३४ ।। 

एवमुक्ता तु सा देवी तथा चक्रे पतिव्रता । 

यथोक्तमेव तद्वाक्यं भद्रा पुत्रार्थिनी तदा || ३५ ।। 

आकाशवाणीके यों कहनेपर पुत्रकी इच्छा रखनेवाली पतिव्रता भद्रादेवीने पतिकी 
पूर्वोक्त आज्ञाका अक्षरश: पालन किया ॥। ३५ || 

सा तेन सुषुवे देवी शवेन भरतर्षभ । 

त्रीन्‌ शाल्वांश्षतुरो मद्रान्‌ सुतान्‌ भरतसत्तम || ३६ ।। 

भरतमश्रेष्ठ! रानी भद्गराने उस शवके द्वारा सात पुत्र उत्पन्न किये, जिनमें तीन शाल्वदेशके 
और चार मद्रदेशके शासक हुए ।। ३६ ।। 

तथा त्वमपि मय्येवं मनसा भरतर्षभ । 

शक्तो जनयितु पुत्रांस्तपोयोगबलान्वित: ।। ३७ ।। 

भरतवंशशिरोमणे! इसी प्रकार आप भी मेरे गर्भसे मानसिक संकल्पद्वारा अनेक पुत्र 
उत्पन्न कर सकते हैं; क्योंकि आप तपस्या और योगबलसे सम्पन्न हैं || ३७ |। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि व्युषिताश्वोपाख्याने 
विंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२० ।। 


इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें व्यूषिताश्नोपाख्यानविषयक एक 
सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२० ॥। 


है अर ० बछ। | क्र 


एकविशर्त्याधेकशततमो< ध्याय: 


पाण्डुका कुन्तीको समझाना और कुन्तीका पतिकी 
आज्ञासे पुत्रोत्पत्तिके लिये धर्मदेवताका आवाहन करनेके 
लिये उद्यत होना 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्तस्तया राजा तां देवीं पुनरब्रवीत्‌ । 

धर्मविद्‌ धर्मसंयुक्तमिदं वचनमुत्तमम्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुन्तीके यों कहनेपर धर्मज्ञ राजा पाण्डुने देवी 
कुन्तीसे पुनः यह धर्मयुक्त बात कही || १ |। 

पाण्डुरुवाच 

एवमेतत्‌ पुरा कुन्ति व्युषिताश्वश्चकार ह | 

यथा त्वयोक्तं कल्याणि स ह्वासीदमरोपम: ।। २ ।। 

पाण्डु बोले--कुन्ती! तुम्हारा कहना ठीक है। पूर्वकालमें राजा व्युषिताश्वने जैसा 
तुमने कहा है, वैसा ही किया था। कल्याणी! वे देवताओंके समान तेजस्वी थे || २ ।। 

अथ विविदं प्रवक्ष्यामि धर्मतत्त्वं निबोध मे । 

पुराणमृषिभिरद्दष्ट धर्मविद्धिर्महात्मभि: ।। ३ ।। 

अब मैं तुम्हें यह धर्मका तत्त्व बतलाता हूँ, सुनो। यह पुरातन धर्मतत्त्व धर्मज्ञ महात्मा 
ऋषियोंने प्रत्यक्ष किया है ।। ३ ।। 

धर्ममेवं जना: सन्त: पुराणं परिचक्षते । 

भर्ता भार्या राजपुत्रि धर्म्य वाधर्म्यमेव वा ।। ४ ।। 

यद्‌ ब्रूयात्‌ तत्‌ तथा कार्यमिति वेदविदो विदु: । 

विशेषत: पुत्रगृध्यी हीन: प्रजननात्‌ स्वयम्‌ ।। ५ ।। 

यथाहमनवलद्याजड़ि पुत्रदर्शलालस: | 

तथा रक्ताड्गुलितलः पद्मपत्रनिभ: शुभे ।। ६ ।। 

प्रसादार्थ मया ते5यं शिरस्यभ्युद्यतो55जलि: । 

मन्नियोगात्‌ सुकेशान्ते द्विजातेस्तपसाधिकात्‌ ।। ७ ।। 

पुत्रान्‌ गुणसमायुक्तानुत्पादयितुमर्हसि । 

त्वत्कृतेडहं पृथुश्रोणि गच्छेयं पुत्रिणां गतिम्‌ ।। ८ ।। 

साधु पुरुष इसीको प्राचीन धर्म कहते हैं। राजकन्ये! पति अपनी पत्नीसे जो बात कहे, 
वह धर्मके अनुकूल हो या प्रतिकूल, उसे अवश्य पूर्ण करना चाहिये--ऐसा वेदज्ञ पुरुषोंका 


कथन है। विशेषतः ऐसा पति, जो पुत्रकी अभिलाषा रखता हो और स्वयं संतानोत्पादनकी 
शक्तिसे रहित हो, जो बात कहे, वह अवश्य माननी चाहिये। निर्दोष अंगोंवाली शुभलक्षणे! 
मैं चूँकि पुत्रका मुँह देखनेके लिये लालायित हूँ, अतएव तुम्हारी प्रसन्नताके लिये मस्तकके 
समीप यह अंजलि धारण करता हूँ, जो लाल-लाल अंगुलियोंसे युक्त तथा कमलदलके 
समान सुशोभित है। सुन्दर केशोंवाली प्रिये! तुम मेरे आदेशसे तपस्यामें बढ़े-चढ़े हुए किसी 
श्रेष्ठ ब्राह्मणके साथ समागम करके गुणवान्‌ पुत्र उत्पन्न करो। सुश्रोणि! तुम्हारे प्रयत्नसे मैं 
पुत्रवानोंकी गति प्राप्त करूँ, ऐसी मेरी अभिलाषा है || ४--८ ।। 
वैशम्पायन उवाच 

एवमुक्ता ततः कुन्ती पाण्डुं परपुरंजयम्‌ | 

प्रत्युवाच वरारोहा भर्तु: प्रियहिते रता ।। ९ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार कही जानेपर पतिके प्रिय और 
हितमें लगी रहनेवाली सुन्दरांगी कुन्ती शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले महाराज 
पाण्डुसे इस प्रकार बोली-- || ९ ।। 

(अधर्म: सुमहानेष स्त्रीणां भरतसत्तम । 

यत्‌ प्रसादयते भर्ता प्रसाद्य: क्षत्रियर्षभ ।। 

भृणु चेद॑ महाबाहो मम प्रीतिकरं वच: ।।) 

“भरतश्रेष्ठ! क्षत्रियशिरोमणे! स्त्रियोंके लिये यह बड़े अधर्मकी बात है कि पति ही उनसे 
प्रसन्न होनेके लिये बार-बार अनुरोध करे; क्योंकि नारीका ही यह कर्तव्य है कि वह पतिको 
प्रसन्न रखे। महाबाहो! आप मेरी यह बात सुनिये। इससे आपको बड़ी प्रसन्नता होगी। 

पितृवेश्मन्यहं बाला नियुक्तातिथिपूजने । 

उग्र॑ पर्यचरं तत्र ब्राह्मणं संशितव्रतम्‌ ।। १० ।। 

निगूढनिश्चयं धर्मे यं तं दुर्वाससं विदु: । 

तमहं संशितात्मानं सर्वयत्नैरतोषयम्‌ ।। ११ ।। 

बाल्यावस्थामें जब मैं पिताके घर थी, मुझे अतिथियोंके सत्कारका काम सौंपा गया 
था। वहाँ कठोर व्रतका पालन करनेवाले एक उग्रस्वभावके ब्राह्मणकी, जिनका धर्मके 
विषयमें निश्चय दूसरोंको अज्ञात है तथा जिन्हें लोग दुर्वासा कहते हैं, मैंने बड़ी सेवा-शुश्रूषा 
की। अपने मनको संयममें रखनेवाले उन महात्माको मैंने सब प्रकारके यत्नोंद्वारा संतुष्ट 
किया ।। १०-११ || 





स मे5भिचारसंयुक्तमाचष्ट भगवान्‌ वरम्‌ | 

मन्त्र त्विमं च मे प्रादादब्रवीच्चैव मामिदम्‌ ।। १२ ।। 

“तब भगवान्‌ दुर्वासाने वरदानके रूपमें मुझे प्रयोगविधिसहित एक मन्त्रका उपदेश 
दिया और मुझसे इस प्रकार कहा-- ।। १२ ।। 

य॑ य॑ देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि । 

अकामो वा सकामो वा वशं ते समुपैष्यति ।। १३ ।। 

“तुम इस मन्त्रसे जिस-जिस देवताका आवाहन करोगी, वह निष्काम हो या सकाम, 
निश्चय ही तुम्हारे अधीन हो जायगा ।। १३ ।। 

तस्य तस्य प्रसादात्‌ ते राज्ञि पुत्रो भविष्यति । 

इत्युक्ताहं तदानेन पितृवेश्मनि भारत ।। १४ ।। 

“राजकुमारी! उस देवताके प्रसादसे तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा।! भारत! इस प्रकार मेरे 
पिताके घरमें उस ब्राह्मणने उस समय मुझसे यह बात कही थी ।। १४ ।। 

ब्राह्मणस्य वचस्तथ्यं तस्य कालोडयमागत:ः । 

अनुज्ञाता त्वया देवमाह्दयेयमहं नृप । 

तेन मन्त्रेण राजर्षे यथास्यान्नौ प्रजा हिता ।। १५ ।। 


“उस ब्राह्मणकी बात सत्य ही होगी। उसके उपयोगका यह अवसर आ गया है। 
महाराज! आपकी आज्ञा होनेपर मैं उस मन्त्रद्वारा किसी देवताका आवाहन कर सकती हूँ। 
जिससे राजर्षे! हम दोनोंके लिये हितकर संतान प्राप्त हो ।। १५ ।। 

(यां मे विद्यां महाराज अददात्‌ स महायशा: । 

तयाहूत:ः सुर: पुत्र प्रदास्यति सुरोपमम्‌ । 

अनपत्यकृतं यस्ते शोकं हि व्यपनेष्यति ।। 

अपत्यकाम एवं स्यान्ममापत्यं भवेदिति ।) 

“महाराज! उन महायशस्वी महर्षिने जो विद्या मुझे दी थी, उसके द्वारा आवाहन 
करनेपर कोई भी देवता आकर देवोपम पुत्र प्रदान करेगा, जो आपके संतानहीनताजनित 
शोकको दूर कर देगा; इस प्रकार मुझे संतान प्राप्त होगी और आपकी पुत्रकामना सफल हो 
जायगी। 

आवाहयामि कं देवं ब्रूहि सत्यवतां वर । 

त्वत्तोड्नुज्ञाप्रतीक्षां मां विद्धास्मिन्‌ कर्मणि स्थिताम्‌ ।। १६ ।। 

'सत्यवानोंमें श्रेष्ठ नरेश! बताइये, मैं किस देवताका आवाहन करूँ। आप समझ लें, मैं 
(आपके संतोषार्थ) इस कार्यके लिये तैयार हूँ। केवल आपसे आज्ञा मिलनेकी प्रतीक्षामें 
हूँ" ।। १६ ।। 

पाण्डुरुवाच 

(धन्यो>स्म्यनुगृहीतो$स्मि त्वं नो धात्री कुलस्य हि । 

नमो महर्षये तस्मै येन दत्तो वरस्तव ।। 

न चाधधर्मेण धर्मज्ञे शक्या: पालयितुं प्रजा: ।।) 

अद्यैव त्वं वरारोहे प्रयतस्व यथाविधि । 

धर्ममावाहय शुभे स हि लोकेषु पुण्यभाक्‌ ।। १७ ।। 

पाण्डु बोले-प्रिये! मैं धन्य हूँ, तुमने मुझपर महान्‌ अनुग्रह किया। तुम्हीं मेरे कुलको 
धारण करनेवाली हो। उन महर्षिको नमस्कार है, जिन्होंने तुम्हें वैसा वर दिया। थधर्मज्ञि! 
अधर्मसे प्रजाका पालन नहीं हो सकता। इसलिये वरारोहे! तुम आज ही विधिपूर्वक इसके 
लिये प्रयत्न करो। शुभे! सबसे पहले धर्मका आवाहन करो, क्योंकि वे ही सम्पूर्ण लोकोंमें 
धर्मात्मा हैं | १७ || 

अधर्मेण न नो धर्म: संयुज्यति कथंचन । 

लोकक्षायं वरारोहे धर्मोडयमिति मन्यते ।। १८ ।। 

धार्मिकश्न कुरूणां स भविष्यति न संशय: । 

धर्मेण चापि दत्तस्य नाधर्मे रंस्यते मन: ।। १९ ।। 

तस्माद्‌ धर्म पुरस्कृत्य नियता त्वं शुचिस्मिते । 


उपचाराभिचाराभ्यां धर्ममावाहयस्व वै ।। २० || 

(इस प्रकार करनेपर) हमारा धर्म कभी किसी तरह अधर्मसे संयुक्त नहीं हो सकता। 
वरारोहे! लोक भी उनको साक्षात्‌ धर्मका स्वरूप मानता है। धर्मसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र 
कुरुवंशियोंमें सबसे अधिक धर्मात्मा होगा--इसमें संशय नहीं है। धर्मके द्वारा दिया हुआ 
जो पुत्र होगा, उसका मन अधर्ममें नहीं लगेगा। अतः शुचिस्मिते! तुम मन और इन्द्रियोंको 
संयममें रखकर धर्मको भी सामने रखते हुए उपचार (पूजा) और अभिचार (प्रयोगविधि)-के 
द्वारा धर्मदेवताका आवाहन करो ।। १८--२० || 

वैशम्पायन उवाच 


सा तथोक्ता तथेत्युक्त्वा तेन भर्त्रा वराड़ना | 

अभिवाद्याभ्यनुज्ञाता प्रदक्षिणमवर्तत || २१ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! अपने पति पाण्डुके यों कहनेपर नारियोंमें श्रेष्ठ 
कुन्तीने “तथास्तु/ कहकर उन्हें प्रणाम किया और आज्ञा लेकर उनकी परिक्रमा 
की ।। २१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि कुन्तीपुत्रोत्पत्त्यनुज्ञाने 
एकविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२१ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें कुन्तीको पुत्रोत्पत्तिके लिये 
आदेशविषयक एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२१ ॥। 


ऑपन--माजल बछ। |: 


द्वाविशर्त्याधेकशततमो< ध्याय: 
युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनकी उत्पत्ति 


वैशम्पायन उवाच 


संवत्सरधृते गर्भे गान्धार्या जनमेजय । 

आह्वयामास वै कुन्ती गर्भार्थे धर्ममच्युतम्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब गान्धारीको गर्भ धारण किये एक वर्ष बीत 
गया, उस समय कुन्तीने गर्भ धारण करनेके लिये अच्युतस्वरूप भगवान्‌ धर्मका आवाहन 
किया ।। १ |। 

सा बलिं त्वरिता देवी धर्मायोपजहार ह । 

जजाप विधिवज्जप्यं दत्तं दुर्वाससा पुरा ।। २ ।। 

देवी कुन्तीने बड़ी उतावलीके साथ धर्मदेवताके लिये पूजाके उपहार अर्पित किये। 
तत्पश्चात्‌ पूर्वकालमें महर्षि दुर्वासाने जो मन्त्र दिया था, उसका विधिपूर्वक जप 
किया ।। २ ।। 

आजगाम ततो देवो धर्मो मन्त्रबलातू ततः । 

विमाने सूर्यसंकाशे कुन्ती यत्र जपस्थिता ।। ३ ।। 

तब मन्त्रबलसे आकृष्ट हो भगवान्‌ धर्म सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर बैठकर उस 
स्थानपर आये, जहाँ कुन्तीदेवी जपमें लगी हुई थीं ।। ३ ।। 

विहस्य तां ततो ब्रूया: कुन्ति कि ते ददाम्यहम्‌ । 

सा त॑ विहस्यमानापि पुत्र देहुब्रवीदिदम्‌ | ४ ।। 

तब धर्मने हँसकर कहा--“कुन्ती! बोलो, तुम्हें क्या दूँ?” धर्मके द्वारा हास्यपूर्वक इस 
प्रकार पूछनेपर कुन्ती बोली--*मुझे पुत्र दीजिये” ।। ४ ।। 

संयुक्ता सा हि धर्मेण योगमूर्तिधरेण ह । 

लेभे पुत्र वरारोहा सर्वप्राणभूृतां हितम्‌ ।। ५ ।। 

तदनन्तर योगमूर्ति धारण किये हुए धर्मके साथ समागम करके सुन्दरांगी कुन्तीने एक 
ऐसा पुत्र प्राप्त किया, जो समस्त प्राणियोंका हित करनेवाला था ।। ५ ।। 

ऐन्द्रे चन्द्रसमायुक्ते मुहूर्तेडभिजितेडष्टमे । 

दिवामध्यगते सूर्य तिथौ पूर्णेडतिपूजिते ।। ६ ।। 

समृद्धयशसं कुन्ती सुषाव प्रवरं सुतम्‌ । 

जातमात्रे सुते तस्मिन्‌ वागुवाचाशरीरिणी ।। ७ ।। 

तदनन्तर जब चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्रपर थे, सूर्य तुला राशिपर विराजमान थे, शुक्ल 
पक्षकी 'पूर्णा' नामवाली पञजचमी तिथि थी और अत्यन्त श्रेष्ठ अभिजित्‌ नामक आठवाँ 


मुहूर्त विद्यमान था; उस समय कुन्तीदेवीने एक उत्तम पुत्रको जन्म दिया, जो महान्‌ यशस्वी 
था। उस पुत्रके जन्म लेते ही आकाशवाणी हुई-- ।। ६-७ ।। 

एष धर्मभूृतां श्रेष्ठो भविष्यति नरोत्तम: । 

विक्रान्त: सत्यवाक्‌ त्वेव राजा पृथ्व्यां भविष्यति ॥। ८ ।। 

युधिष्ठिर इति ख्यात:ः पाण्डो: प्रथमज: सुतः । 

भविता प्रथितो राजा त्रिषु लोकेषु विश्रुतः: ।। ९ ।। 

यशसा तेजसा चैव वृत्तेन च समन्वित: । 

“यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्माओंमें अग्रगण्य होगा और इस पृथ्वीपर पराक्रमी एवं सत्यवादी 
राजा होगा। पाण्डुका यह प्रथम पुत्र 'युधिष्ठिर' नामसे विख्यात हो तीनों लोकोंमें प्रसिद्धि 
एवं ख्याति प्राप्त करेगा; यह यशस्वी, तेजस्वी तथा सदाचारी होगा” ।। ८-९६ || 

धार्मिक त॑ सुतं लब्ध्वा पाण्डुस्तां पुनरब्रवीत्‌ ।। १० ।। 

उस धर्मात्मा पुत्रको पाकर राजा पाण्डुने पुनः (आग्रहपूर्वक) कुन्तीसे कहा 
-- || १० || 

प्राहु: क्षत्रे बलज्येष्ठं बलज्येष्ठं सुतं वृणु । 

(अश्वमेध: क्रतुश्रेष्ठो ज्योतिश्श्रेष्ठो दिवाकर: । 

ब्राह्मणों द्विपदां श्रेष्ठो बलश्रेष्ठस्तु मारुत: ।। 

मारुतं मरुतां श्रेष्ठ सर्वप्राणिभिरीडितम्‌ । 

आवाहय त्वं नियमात्‌ पुत्रार्थ वरवर्णिनि ।। 

स नो यं दास्यति सुतं स प्राणबलवान्‌ नृषु ।) 

ततस्तथोक्ता भर्त्रा तु वायुमेवाजुहााव सा ।। ११ ।। 

'प्रिये! क्षत्रियको बलसे ही बड़ा कहा गया है। अतः एक ऐसे पुत्रका वरण करो, जो 
बलमें सबसे श्रेष्ठ हो। जैसे अश्वमेध सब यज्ञोंमें श्रेष्ठ है, सूर्यदेव सम्पूर्ण प्रकाश करनेवालोंमें 
प्रधान हैं और ब्राह्मण मनुष्योंमें श्रेष्ठ है, उसी प्रकार वायुदेव बलमें सबसे बढ़-चढ़कर हैं। 
अतः सुन्दरी! अबकी बार तुम पुत्र-प्राप्तिके उद्देश्यसे समस्त प्राणियोंद्वारा प्रशंसित देवश्रेष्ठ 
वायुका विधिपूर्वक आवाहन करो। वे हमलोगोंके लिये जो पुत्र देंगे, वह मनुष्योंमें सबसे 
अधिक प्राणशक्तिसे सम्पन्न और बलवान होगा।' 

स्वामीके इस प्रकार कहनेपर कुन्तीने तब वायुदेवका ही आवाहन किया ।। ११ ।। 

ततस्तामागतो वायुर्मगारूढो महाबल: । 

किं ते कुन्ति ददाम्यद्य ब्रूहि यत्‌ ते हदि स्थितम्‌ ।। १२ ।। 

तब महाबली वायु मृगपर आरूढ़ हो कुन्तीके पास आये और यों बोले--“कुन्ती! 
तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा हो, वह कहो। मैं तुम्हें क्या दूँ?” ।। १२ ।। 

सा सलज्जा विहस्याह पुत्र देहि सुरोत्तम । 

बलवन्तं महाकायं सर्वदर्पप्रभञ्जनम्‌ ।। १३ ।। 


कुन्तीने लज्जित होकर मुसकराते हुए कहा--'सुरश्रेष्ठ)! मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये, 
जो महाबली और विशालकाय होनेके साथ ही सबके घमंडको चूर करनेवाला 
हो' ॥ १३ ।। 

तस्माज्जज्ञे महाबाहुर्भीमो भीमपराक्रम: । 

तमप्यतिबलं जात॑ वागुवाचाशरीरिणी ।। १४ ।। 

सर्वेषां बलिनां श्रेष्ठो जातो5यमिति भारत । 

इदमत्यद्भुतं चासीज्जातमात्रे वृकोदरे | १५ ।। 

यदड्कात्‌ पतितो मातु: शिलां गान्रैव्यचूर्णयत्‌ । 

(कुन्ती तु सह पुत्रेण यात्वा सुरुचिरं सर: । 

स्नात्वा तु सुतमादाय दशमे5हनि यादवी ।। 

दैवतान्यर्चयिष्यन्ती निर्जगामाश्रमात्‌ पृथा । 

शैलाभ्याशेन गच्छन्त्यास्तदा भरतसत्तम ।। 

निश्चक्राम महान्‌ व्याप्रो जिघांसन्‌ गिरिगह्नरात्‌ ।। 

तमापततन्तं शार्दूलं विकृष्याथ कुरूत्तम: । 

निर्बिभेद शरै: पाण्डस्त्रिभिस्त्रिदशविक्रम: ।। 

नादेन महता तां तु पूरयन्तं गिरेगुहाम्‌ ।) 

कुन्ती व्याप्रभयोद्धिग्ना सहसोत्पतिता किल ।। १६ ।। 

वायुदेवसे भयंकर पराक्रमी महाबाहु भीमका जन्म हुआ। जनमेजय! उस महाबली 
पुत्रको लक्ष्य करके आकाशवाणीने कहा--“यह कुमार समस्त बलवानोंमें श्रेष्ठ है। 
भीमसेनके जन्म लेते ही एक अद्भुत घटना यह हुई कि अपनी माताकी गोदसे गिरनेपर 
उन्होंने अपने अंगोंसे एक पर्वतकी चट्टानको चूर-चूर कर दिया। बात यह थी कि 
यदुकुलनन्दिनी कुन्ती प्रसवके दसवें दिन पुत्रको गोदमें लिये उसके साथ एक सुन्दर 
सरोवरके निकट गयी और स्नान करके लौटकर देवताओंकी पूजा करनेके लिये कुटियासे 
बाहर निकली। भरतनन्दन! वह पर्वतके समीप होकर जा रही थी कि इतनेमें ही उसको मार 
डालनेकी इच्छासे एक बहुत बड़ा व्याप्र उस पर्वतकी कन्दरासे बाहर निकल आया। 
देवताओंके समान पराक्रमी कुरुश्रेष्ठ पाण्डुने उस व्याप्रको दौड़कर आते देख धनुष खींच 
लिया और तीन बाणोंसे मारकर उसे विदीर्ण कर दिया। उस समय वह अपनी विकट 
गर्जनासे पर्वतकी सारी गुफाको प्रतिध्वनित कर रहा था। कुन्ती बाघके भयसे सहसा उछल 
पड़ी ।। १४--१६ || 

नान्वबुध्यत संसुप्तमुत्सड़े स्वे वृकोदरम्‌ । 

ततः स वज्रसंघात: कुमारो न्‍्यपतद्‌ गिरी ।। १७ ।। 

उस समय उसे इस बातका ध्यान नहीं रहा कि मेरी गोदमें भीमसेन सोया हुआ है। 
उतावलीमें वह वज्रके समान शरीरवाला कुमार पर्वतके शिखरपर गिर पड़ा ।। १७ ।। 


पतता तेन शतधा शिला गान्रैविंचूर्णिता । 

तां शिलां चूर्णितां दृष्टवा पाण्डुविस्मयमागत: ।। १८ ।। 

गिरते समय उसने अपने अंगोंसे उस पर्वतकी शिलाको चूर्ण-विचूर्ण कर दिया। 
पत्थरकी चट्टानको चूर-चूर हुआ देख महाराज पाण्डु बड़े आश्वर्यमें पड़ गये || १८ ।। 

(मघे चन्द्रमसा युक्ते सिंहे चाभ्युदिते गुरौ । 

दिवामध्यगते सूर्ये तिथौ पुण्ये त्रयोदशे ।। 

मैत्रे मुहूर्ते सा कुन्ती सुषुवे भीममच्युतम्‌ ।।) 

यस्मिन्नहनि भीमस्तु जज्ञे भरतसत्तम | 

दुर्योधनो5पि तत्रैव प्रजज्ञे वसुधाधिप ।। १९ ।। 

जब चन्द्रमा मघा नक्षत्रपर विराजमान थे, बृहस्पति सिंह लग्नमें सुशोभित थे, सूर्यदेव 
दोपहरके समय आकाशके मध्यभागमें तप रहे थे, उस समय पुण्यमयी त्रयोदशी तिथिको 
मैत्र मुहूर्तमें कुन्तीदेवीने अविचल शक्तिवाले भीमसेनको जन्म दिया था। भरतश्रेष्ठ भूपाल! 
जिस दिन भीमसेनका जन्म हुआ था, उसी दिन हस्तिनापुरमें दुर्योधनकी भी उत्पत्ति 
हुई ।। १९ || 

जाते वृकोदरे पाण्डुरिदं भूयो5न्वचिन्तयत्‌ | 

कथं नु मे वर: पुत्रो लोकश्रेष्ठो भवेदिति ।। २० ।। 

भीमसेनके जन्म लेनेपर पाण्डुने फिर इस प्रकार विचार किया कि मैं कौन-सा उपाय 
करूँ, जिससे मुझे सब लोगोंसे श्रेष्ठ उत्तम पुत्र प्राप्त हो || २० ।। 

दैवे पुरुषकारे च लोको<यं सम्प्रतिष्ठित: । 

तत्र दैवं तु विधिना कालयुक्तेन लभ्यते || २१ ।। 

यह संसार दैव तथा पुरुषार्थपर अवलम्बित है। इनमें दैव तभी सुलभ (सफल) होता है, 
जब समयपर उद्योग किया जाय || २१ ।। 

इन्द्रो हि राजा देवानां प्रधान इति नः श्रुतम्‌ 

अप्रमेयबलोत्साहो वीर्यवानमितद्युति: ।। २२ ।। 

त॑ तोषयित्वा तपसा पुत्र लप्स्ये महाबलम्‌ । 

यं दास्यति स मे पुत्र॑ं स वरीयान्‌ भविष्यति ॥। २३ ।। 

अमानुषान्‌ मानुषांश्व संग्रामे स हनिष्यति । 

कर्मणा मनसा वाचा तस्मात्‌ तप्स्ये महत्‌ तप: ।। २४ ।। 

मैंने सुना है कि देवराज इन्द्र ही सब देवताओंमें प्रधान हैं, उनमें अधाह बल और 
उत्साह है। वे बड़े पराक्रमी एवं अपार तेजस्वी हैं। मैं तपस्याद्वारा उन्हींको संतुष्ट करके 
महाबली पुत्र प्राप्त करूँगा। वे मुझे जो पुत्र देंगे, वह निश्चय ही सबसे श्रेष्ठ होगा तथा 
संग्राममें अपना सामना करनेवाले मनुष्यों तथा मनुष्येतर प्राणियों (दैत्य-दानव आदि)-को 


भी मारनेमें समर्थ होगा। अतः मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा बड़ी भारी तपस्या 
करूँगा || २२--२४ ।। 





बालक भीमके शरीरकी चोटसे चट्टान टूट गयी 


ततः पाणए्डुर्महाराजो मन्त्रयित्वा महर्षिभि: । 

दिदेश कुन्त्या: कौरव्यो व्र॒तं सांवत्सरं शुभम्‌ ।। २५ ।। 

ऐसा निश्चय करके कुरुनन्दन महाराज पाणए्डुने महर्षियोंसे सलाह लेकर कुन्तीको 
शुभदायक सांवत्सर व्रतका उपदेश दिया || २५ ।। 

आत्मना च महाबाहुरेकपादस्थितो5 भवत्‌ । 

उग्रं स तप आस्थाय परमेण समाधिना ।। २६ ।। 

आरिराधयिषुर्देव॑ त्रिदशानां तमीश्वरम्‌ 

सूर्येण सह धर्मात्मा पर्यतप्पत भारत ।। २७ ।। 

त॑ तु कालेन महता वासव: प्रत्यपद्यत । 

और भारत! वे महाबाहु धर्मात्मा पाण्डु स्वयं देवताओंके ईश्वर इन्द्रदेवकी आराधना 
करनेके लिये चित्तवृत्तियोंको अत्यन्त एकाग्र करके एक पैरसे खड़े हो सूर्यके साथ-साथ उग्र 
तप करने लगे अर्थात्‌ सूर्योदय होनेके समय एक पैरसे खड़े होते और सूर्यास्ततक उसी 
रूपमें खड़े रहते। 

इस तरह दीर्घकाल व्यतीत हो जानेपर इन्द्रदेव उनपर प्रसन्न हो उनके समीप आये और 
इस प्रकार बोले-- || २६-२७ ३ ।। 

शक्र उवाच 


पुत्रं तव प्रदास्यामि त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्‌ ।। २८ ।। 

इन्द्रने कहा--राजन! मैं तुम्हें ऐसा पुत्र दूँगा, जो तीनों लोकोंमें विख्यात 
होगा ।। २८ ।। 

ब्राह्मणानां गवां चैव सुह्दां चार्थसाधकम्‌ | 

दुर्ददां शोकजननं सर्वबान्धवनन्दनम्‌ ।। २९ |। 

सुतं ते5ग्रयं प्रदास्पामि सर्वामित्रविनाशनम्‌ | 

वह ब्राह्मणों, गौओं तथा सुहृदोंके अभीष्ट मनोरथकी पूर्ति करनेवाला, शत्रुओंको शोक 
देनेवाला और समस्त बन्धु-बान्धवोंको आनन्दित करनेवाला होगा, मैं तुम्हें सम्पूर्ण 
शत्रुओंका विनाश करनेवाला सर्वश्रेष्ठ पुत्र प्रदान करूँगा ।। २९३ ।। 

इत्युक्त: कौरवो राजा वासवेन महात्मना || ३० ।। 

उवाच कुन्तीं धर्मात्मा देवराजवच: स्मरन्‌ । 

उदर्कस्तव कल्याणि तुष्टो देवगणेश्वर: ।। ३१ ।। 

दातुमिच्छति ते पुत्रं यथा संकल्पितं त्वया । 

अतिमानुषकर्माणं यशस्विनमरिंदमम्‌ ।। ३२ |। 

नीतिमन्तं महात्मानमादित्यसमतेजसम्‌ । 

दुराधर्ष क्रियावन्तमतीवाद्भुतदर्शनम्‌ ।। ३३ ।। 


महात्मा इन्द्रके यों कहनेपर धर्मात्मा कुरुनन्दन महाराज पाण्डु बड़े प्रसन्न हुए और 
देवराजके वचनोंका स्मरण करते हुए कुन्तीदेवीसे बोले--“कल्याणि! तुम्हारे व्रतका भावी 
परिणाम मंगलमय है। देवताओंके स्वामी इन्द्र हमलोगोंपर संतुष्ट हैं और तुम्हें तुम्हारे 
संकल्पके अनुसार श्रेष्ठ पुत्र देना चाहते हैं। वह अलौकिक कर्म करनेवाला, यशस्वी, 
शत्रुदमन, नीतिज्ञ, महामना, सूर्यके समान तेजस्वी, दुर्धर्ष, कर्मठ तथा देखनेमें अत्यन्त 
अद्भुत होगा || ३०--३३ ।। 

पुत्र जनय सुश्रोणि धाम क्षत्रियतेजसाम्‌ | 

लब्ध: प्रसादो देवेन्द्रात्‌ तमाह्य शुचिस्मिते || ३४ ।। 

'सुश्रोणि! अब ऐसे पुत्रको जन्म दो, जो क्षत्रियोचित तेजका भंडार हो। पवित्र 
मुसकानवाली कुन्ती! मैंने देवेन्द्रकी कृपा प्राप्त कर ली है। अब तुम उन्हींका आवाहन 
करो' ।। ३४ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्ता तत: शक्रमाजुहाव यशस्विनी । 
अथाजगाम देवेन्द्रो जनयामास चार्जुनम्‌ ।। ३५ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--महाराज पाण्डुके यों कहने-पर यशस्विनी कुन्तीने इन्द्रका 





(उत्तराभ्यां तु पूर्वाभ्यां फल्गुनीभ्यां ततो दिवा । 

जातस्तु फाल्गुने मासि तेनासौ फाल्गुन: स्मृतः ।।) 

वह फाल्गुन मासमें दिनके समय पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रोंके 
संधिकालमें उत्पन्न हुआ। फाल्गुनमास और फाल्गुनी नक्षत्रमें जन्म लेनेके कारण उस 
बालकका नाम “फाल्गुन” हुआ। 

जातमात्रे कुमारे तु वागुवाचाशरीरिणी । 

महागम्भीरनिर्घोषा नभो नादयती तदा ।। ३६ || 

शृण्वतां सर्वभूतानां तेषां चाश्रमवासिनाम्‌ | 

कुन्तीमाभाष्य विस्पष्टमुवाचेदं शुचिस्मिताम्‌ ।। ३७ ।। 

कुमार अर्जुनके जन्म लेते ही अत्यन्त गम्भीर नादसे समूचे आकाशको गूँजाती हुई 
आकाशवाणीने पवित्र मुसकानवाली कुन्तीदेवीको सम्बोधित करके समस्त प्राणियों और 
आश्रमवासियोंके सुनते हुए अत्यन्त स्पष्ट भाषामें इस प्रकार कहा-- ।। ३६-३७ ।। 

कार्तवीर्यसम: कुन्ति शिवतुल्यपराक्रम: । 

एष शक्र इवाजय्यो यशस्ते प्रथयिष्यति ।। ३८ ।। 

अदित्या विष्णुना प्रीतिर्यथाभूदभिवर्धिता । 

तथा विष्णुसम: प्रीतिं वर्धयिष्यति ते$र्जुन: ।॥ ३९ ।। 

“कुन्तिभोजकुमारी! यह बालक कार्तवीर्य अर्जुनके समान तेजस्वी, भगवान्‌ शिवके 
समान पराक्रमी और देवराज इन्द्रके समान अजेय होकर तुम्हारे यशका विस्तार करेगा। 
जैसे भगवान्‌ विष्णुने वामनरूपमें प्रकट होकर देवमाता अदितिके हर्षको बढ़ाया था, उसी 
प्रकार यह विष्णुतुल्य अर्जुन तुम्हारी प्रसन्नताको बढ़ायेगा || ३८-३९ ।। 

एष मद्रान्‌ वशे कृत्वा कुरूंश्व सह सोमकै: । 

चेदिकाशिकरूषांश्व॒ कुरुलक्ष्मीं वहिष्पति ।। ४० ।। 

“तुम्हारा यह वीर पुत्र मद्र, कुर, सोमक, चेदि, काशि तथा करूष नामक देशोंको वशमें 
करके कुरुवंशकी लक्ष्मीका पालन करेगा || ४० ।। 

(गत्वोत्तरदिशं वीरो विजित्य युधि पार्थिवान्‌ । 

धनरत्नौघधममितमानयिष्यति पाण्डव: ।।) 

एतस्य भुजवीर्येण खाण्डवे हव्यवाहन: । 

मेदसा सर्वभूतानां तृप्तिं यास्यति वै पराम्‌ ।। ४१ ।। 

“वीर अर्जुन उत्तर दिशामें जाकर वहाँके राजाओंको युद्धमें जीतकर असंख्य धन- 
रत्नोंकी राशि ले आयेगा। इसके बाहुबलसे खाण्डववनमें अग्निदेव समस्त प्राणियोंके 
मेदका आस्वादन करके पूर्ण तृप्ति लाभ करेंगे || ४१ ।। 

ग्रामणीक्ष महीपालानेष जित्वा महाबल: । 

भ्रातृभि: सहितो वीरस्त्रीन्‌ मेधानाहरिष्यति ।। ४२ ।। 


“यह महाबली श्रेष्ठ वीर बालक समस्त क्षत्रियसमूहका नायक होगा और युद्धमें 
भूमिपालोंको जीतकर भाइयोंके साथ तीन अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करेगा || ४२ ।। 

जामदग्न्यसम: कुन्ति विष्णुतुल्यपराक्रम: । 

एष वीर्यवतां श्रेष्ठो भविष्यति महायशा: ।। ४३ ।। 

'कुन्ती! यह परशुरामके समान वीर योद्धा, भगवान्‌ विष्णुके समान पराक्रमी, 
बलवानोंमें श्रेष्ठ और महान्‌ यशस्वी होगा ।। ४३ ।। 

एष युद्धे महादेवं तोषयिष्यति शंकरम्‌ । 

अस्त्रं पाशुपतं नाम तस्मात्‌ तुष्टादवाप्स्यति || ४४ ।। 

निवातकववचा नाम दैत्या विबुधविद्विष: । 

शक्राज्ञया महाबाहुस्तान्‌ वधिष्यति ते सुत: ।। ४५ ।। 

“यह युद्धमें देवाधिदेव भगवान्‌ शंकरको संतुष्ट करेगा और संतुष्ट हुए उन महेश्वरसे 
पाशुपत नामक अस्त्र प्राप्त करेगा। निवातकवच नामक दैत्य देवताओंसे सदा द्वेष रखते हैं। 
तुम्हारा यह महाबाहु पुत्र इन्द्रकी आज्ञासे उन सब दैत्योंका संहार कर डालेगा ।। ४४-४५ ।। 

तथा दिव्यानि चास्त्राणि निखिलेनाहरिष्यति । 

विप्रणष्टां श्रियं चायमाहर्ता पुरुषर्षभ: ।। ४६ ।। 

“तथा पुरुषोंमें श्रेष्ठ यह अर्जुन सम्पूर्ण दिव्यास्त्रोंका पूर्ण रूपसे ज्ञान प्राप्त करेगा और 
अपनी खोयी हुई सम्पत्तिको पुन: वापस ले आयेगा' ।। ४६ ।। 


ं 24443 पंप कुन्ती शुश्राव सूतके । 

च्चारितामुच्चैस्तां निशम्य तपस्विनाम्‌ ।। ४७ ।। 

बभूव परमो हर्ष: शतशृड्शनिवासिनाम्‌ | 

तथा देवनिकायानां सेन्द्राणां च दिवौकसाम्‌ || ४८ ।। 

कुन्तीने सौरीमेंसे ही यह अत्यन्त अद्भुत बात सुनी। उच्चस्वरमें उच्चारित वह 
आकाशवाणी सुनकर शतशुंगनिवासी तपस्वी मुनियों तथा विमानोंपर स्थित इन्द्र आदि 
देवसमूहोंको बड़ा हर्ष हुआ || ४७-४८ ।। 

आकाशे दुन्दुभीनां च बभूव तुमुल: स्वनः । 

उदतिष्ठन्महाघोष: पुष्पवृष्टिभिरावृत: ।। ४९ ।। 

तदनन्तर आकाशमें फूलोंकी वर्षकि साथ देव-दुन्दुभियोंका तुमुल नाद बड़े जोरसे गूँज 
उठा ।। ४९ |। 

समवेत्य च देवानां गणा: पार्थमपूजयन्‌ । 

काद्रवेया वैनतेया गन्धर्वाप्सरसस्तथा । 

प्रजानां पतय: सर्वे सप्त चैव महर्षय: ।। ५० ।। 

भरद्वाज: कश्यपो गौतमश्न 

विश्वामित्रो जमदन्निर्वसिष्ठ: । 


यश्नोदितो भास्करे< भूत्‌ प्रणष्टे 
सो>प्यत्रात्रिर्भगवानाजगाम ।। ५१ ।। 

फिर झुंड-के-झुंड देवता वहाँ एकत्र होकर अर्जुनकी प्रशंसा करने लगे। कढद्रूके पुत्र 
(नाग), विनताके पुत्र (गरुड पक्षी), गन्धर्व, अप्सराएँ, प्रजापति, सप्तर्षिगण--भरद्वाज, 
कश्यप, गौतम, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ तथा जो नक्षत्रके रूपमें सूर्यास्त होनेके पश्चात्‌ 
उदित होते हैं, वे भगवान्‌ अत्रि भी वहाँ आये || ५०-५१ ।। 

मरीचिरद्;िराश्चैव पुलस्त्य: पुलह:ः क्रतुः । 

दक्ष: प्रजापतिश्रैव गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।। ५२ |। 

मरीचि और अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं प्रजापति दक्ष, गन्धर्व तथा अप्सराएँ भी 
आयीं ।। ५२ ।। 

दिव्यमाल्याम्बरधरा: सर्वालंकारभूषिता: । 

उपगायन्ति बीभत्सुं नृत्यन्तेडप्सरसां गणा: ।। ५३ ।। 

उन सबने दिव्य हार और दिव्य वस्त्र धारण कर रखे थे। वे सब प्रकारके आभूषणोंसे 
विभूषित थे। अप्सराओंका पूरा दल वहाँ जुट गया था। वे सभी अर्जुनके गुण गाने और 
नृत्य करने लगीं ।। ५३ ।। 

तथा महर्षयश्चापि जेपुस्तत्र समन्‍्ततः । 

गन्धर्वें: सहित: श्रीमान्‌ प्रागायत च तुम्बुरु: ।। ५४ ।। 

महर्षि भी वहाँ सब ओर खड़े होकर मांगलिक मन्त्रोंका जप करने लगे। गन्धर्वोंके 
साथ श्रीमान्‌ तुम्बुरुने मधुर स्वरसे गीत गाना प्रारम्भ किया || ५४ ।। 

भीमसेनोग्रसेनौ च ऊर्णायुरनघस्तथा । 

गोपतिर्धतराष्ट्रश्न सूर्यवर्चास्तथाष्टम: ।। ५५ ।। 

युगपस्तृणप: काष्णिनिन्दिश्षित्ररथस्तथा । 

त्रयोदश: शालिशिरा: पर्जन्यश्व चतुर्दश: ।। ५६ |। 

कलि: पञठ्चदशश्लैव नारदक्षात्र षोडश: । 

ऋत्वा बृहत्त्वा बृहक: करालश्न महामना: ।। ५७ ।। 

ब्रह्मचारी बहुगुण: सुवर्णश्रेति विश्वुतः । 

विश्वावसुर्भुगन्युश्व सुचन्द्रश्न शरुस्तथा ।। ५८ ।। 

गीतमाधुर्यसम्पन्नौ विख्यातौ च हहाहुहू । 

इत्येते देवगन्धर्वा जग्मुस्तत्र नराधिप ।। ५९ ।। 

भीमसेन तथा उग्रसेन, ऊर्णायु और अनघ, गोपति एवं धृतराष्ट्र, सूर्यवर्चा तथा आठवें 
युगप, तृणप, कार्ष्णि, नन्दि एवं चित्ररथ, तेरहवें शालिशिरा और चौदहवें पर्जन्य, पंद्रहवें 
कलि और सोलहवें नारद, ऋत्वा और बृहत्त्वा, बृहक एवं महामना कराल, ब्रह्मचारी तथा 


विख्यात गुणवान्‌ सुवर्ण, विश्वावसु एवं भुमन्यु, सुचन्द्र और शरु तथा गीतमाधुर्यसे सम्पन्न 
सुविख्यात हाहा और हूहू--राजन्‌! ये सब देवगन्धर्व वहाँ पधारे थे || ५५--५९ ।। 

तथैवाप्सरसो हृष्टा: सर्वालंकारभूषिता: । 

ननृतुर्वे महाभागा जगुश्वायतलोचना: ।। ६० ।। 

इसी प्रकार समस्त आभूषणोंसे विभूषित बड़े-बड़े नेत्रोंवाली परम सौभाग्यशालिनी 
अप्सराएँ भी हर्षोल्लासमें भरकर वहाँ नृत्य करने लगीं || ६० ।। 

अनूचानानवद्या च गुणमुख्या गुणावरा | 

अद्विका च तथा सोमा मिश्रकेशी त्वलम्बुषा ।। ६१ ।। 

मरीचि: शुचिका चैव विद्युत्पर्णा तिलोत्तमा । 

अम्बिका लक्षणा क्षेमा देवी रम्भा मनोरमा ।। ६२ ।। 

असिता च सुबाहुश्न सुप्रिया च वपुस्तथा । 

पुण्डरीका सुगन्धा च सुरसा च प्रमाथिनी ।। ६३ ।। 

काम्या शारद्वती चैव ननृतुस्तत्र सड्घश: । 

मेनका सहजन्या च कर्णिका पुज्जिकस्थला ।। ६४ ।। 

ऋतुस्थला घृताची च विश्वाची पूर्वचित्त्यपि । 

उम्लोचेति च विख्याता प्रम्लोचेति च ता दश ।। ६५ ।। 

उनके नाम इस प्रकार हैं--अनूचाना और अनवसद्या, गुणमुख्या एवं गुणावरा, अद्रिका 
तथा सोमा, मिश्रकेशी और अलम्बुषा, मरीचि और शुचिका, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, 
अम्बिका, लक्षणा, क्षेमा, देवी, रम्भा, मनोरमा, असिता और सुबाहु, सुप्रिया एवं वपु, 
पुण्डरीका एवं सुगन्धा, सुरसा और प्रमाथिनी, काम्या तथा शारद्वती आदि। ये झुंड-की-झुंड 
अप्सराएँ नाचने लगीं। इनमें मेनका, सहजन्या, कर्णिका और पुंजिकस्थला, ऋतुस्थला एवं 
घृताची, विश्वाची और पूर्वचित्ति, उम्लोचा और प्रम्लोचा--ये दस विख्यात हैं || ६१-- 
६५ || 

उर्वश्येकादशी तासां जगुश्नायतलोचना: । 

धातार्यमा च मित्रश्न वरुणों5शो भगस्तथा || ६६ ।। 

इन्द्रो विवस्वान्‌ पूषा च त्वष्टा च सविता तथा । 

पर्जन्यश्वैव विष्णुश्व॒ आदित्या द्वादश स्मृता: । 

महिमान॑ पाण्डवस्य वर्धयन्तो>म्बरे स्थिता: ।। ६७ ।। 

इन्हीं प्रधान अप्सराओंकी श्रेणीमें ग्यारहवीं उर्वशी है। ये सभी विशाल नेत्रोंवाली 
सुन्दरियाँ वहाँ गीत गाने लगीं। धाता और अर्यमा, मित्र और वरुण, अंश एवं भग, इन्द्र, 
विवस्वान्‌ और पूषा, त्वष्टा एवं सविता, पर्जन्य तथा विष्णु--ये बारह आदित्य माने गये हैं। 
ये सभी पाण्डुनन्दन अर्जुनका महत्त्व बढ़ाते हुए आकाशमें खड़े थे || ६६-६७ ।। 

मृगव्याधश्च सर्पश्न निर्क्रतिश्न महायशा: । 


अजैकपादहिर्बुध्न्य: पिनाकी च परंतप ।। ६८ ।। 

दहनो<थेश्व॒रशक्षेव कपाली च विशाम्पते । 

स्थाणुर्भगश्च भगवान्‌ रुद्रास्तत्रावतस्थिरे ।। ६९ ।। 

शत्रुदमन महाराज! मृगव्याध और सर्प, महा-यशस्वी निर्क्रति एवं अजैकपाद, 
अहिर्बुध््य और पिनाकी, दहन तथा ईश्वर, कपाली एवं स्थाणु तथा भगवान्‌ भग--ये ग्यारह 
रुद्र भी वहाँ आकाशमें आकर खड़े थे || ६८-६९ ।। 

अश्विनौ वसवश्चाष्टी मरुतश्न॒ महाबला: । 

विश्वेदेवास्तथा साध्यास्तत्रासन्‌ परित: स्थिता: ।। ७० |। 

दोनों अश्विनीकुमार तथा आठों वसु, महाबली मरुद्गण एवं विश्वेदेवणण तथा 
साध्यगण वहाँ सब ओर विद्यमान थे || ७० ।। 

कर्कोटको<थ सर्पश्च वासुकिश्न भुजड्रम: । 

कश्यपश्चाथ कुण्डश्न तक्षकश्न महोरग: ।। ७१ ।। 

आयसयुस्तपसा युक्ता महाक्रोधा महाबला: । 

एते चान्ये च बहवस्तत्र नागा व्यवस्थिता: ।। ७२ ।। 

कर्कोटक सर्प तथा वासुकि नाग, कश्यप और कुण्ड, महानाग और तक्षक--ये तथा 
और भी बहुत-से महाबली, महाक्रोधी और तपस्वी नाग वहाँ आकर खड़े थे || ७१-७२ ।। 

तार्कष्यक्षारिष्टनेमि श्व॒ गरुडश्षासितध्वज: । 

अरुणश्षारुणिश्लैव वैनतेया व्यवस्थिता: ।। ७३ ।। 

ताक्ष्य और अरिष्टनेमि, गरुड एवं असितध्वज, अरुण तथा आरुणि--विनताके ये पुत्र 
भी उस उत्सवमें उपस्थित थे ।। ७३ ।। 

तांश्व देवगणान्‌ सर्वास्तप:सिद्धा महर्षय: । 

विमानगिर्यग्रगतान्‌ ददृशुर्नेतरे जना: ।। ७४ ।। 

वे सब देवगण विमान और पर्वतके शिखरपर खड़े थे। उन्हें तप:सिद्ध महर्षि ही देख 
पाते थे, दूसरे लोग नहीं || ७४ ।। 

तद्‌ दृष्टवा महदाश्चर्य विस्मिता मुनिसत्तमा: । 

अधिकां सम ततो वृत्तिमवर्तन्‌ पाण्डवान्‌ प्रति | ७५ ।। 

वह महान्‌ आश्चर्य देखकर वे श्रेष्ठ मुनिगण बड़े विस्मयमें पड़े। तबसे पाण्डवोंके प्रति 
उनमें अधिक प्रेम और आदरका भाव पैदा हो गया || ७५ ।। 

पाण्डुस्तु पुनरेवैनां पुत्रलोभान्महायशा: । 

वक्तुमैच्छद्‌ धर्मपत्नीं कुन्ती त्वेममथाब्रवीत्‌ ।। ७६ ।। 

तदनन्तर महायशस्वी राजा पाण्डु पुत्र-लोभसे आकृष्ट हो अपनी धर्मपत्नी कुन्तीसे 
फिर कुछ कहना चाहते थे, किंतु कुन्ती उन्हें रोकती हुई बोली-- ।। ७६ ।। 

नातश्षतुर्थ प्रसवमापत्स्वपि वदन्त्युत । 


अतः: परं स्वैरिणी स्थाद्‌ बन्धकी पञ्चमे भवेत्‌ ।। ७७ ।। 

“आर्यपुत्र! आपत्तिकालमें भी तीनसे अधिक चौथी संतान उत्पन्न करनेकी आज्ञा 
शास्त्रोंने नहीं दी है। इस विधिके द्वारा तीनसे अधिक चौथी संतान चाहनेवाली स्त्री स्वैरिणी 
होती है और पाँचवें पुत्रके उत्पन्न होनेपर तो वह कुलटा समझी जाती है || ७७ ।। 

स त्वं विद्वन्‌ धर्ममिममधिगम्य कथं नु माम्‌ । 

अपत्यार्थ समुत्क्रम्य प्रमादादिव भाषसे || ७८ ।। 

“विद्वन! आप धर्मको जानते हुए भी प्रमादसे कहनेवालेके समान धर्मका लोप करके 
अब फिर मुझे संतानोत्पत्तिके लिये क्‍यों प्रेरित कर रहे हैं' || ७८ ।। 


(पाण्डुरुवाच 
एवमेतद्‌ धर्मशास्त्रं यथा वदसि तत्‌ तथा ।) 


पाण्डुने कहा--प्रिये! वास्तवमें धर्मशास्त्रका ऐसा ही मत है। तुम जो कुछ कहती हो, 
वह ठीक है। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डवोत्पत्तौ 
द्वाविशत्यधिकशततमो<ध्याय: ॥। १२२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डवोंकी उत्पत्तिविषयक एक 
सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२२ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १०३ श्लोक मिलाकर कुल ८८६ “लोक हैं) 


नशा (0) आल अस+- 
- यहाँ आदित्योंके तेरह नाम हैं। जान पड़ता है, बारह महीनोंके बारह आदित्य और अधिमास या मलमासके प्रकाशक 


तेरहवें विष्णु हैं। इसीलिये उसे पुरुषोत्तममास कहते हैं। अधिमासकी पृथक्‌ गणना न होनेसे बारह मासोंके प्रकाशक 
आदित्य बारह ही कहे गये हैं। 


त्रयोविशर्त्याधिकशततमो< ध्याय: 


नकुल और सहदेवकी उत्पत्ति तथा पाण्डु-पुत्रोंके 
नामकरण-संस्कार 


वैशम्पायन उवाच 

कुन्तीपुत्रेषु जातेषु धृतराष्ट्रात्मजेषु च । 

मद्रराजसुता पाण्डुं रहो वचनमबत्रवीत्‌ ।। १ ॥। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब कुन्तीके तीन पुत्र उत्पन्न हो गये और 
धृतराष्ट्रके भी सौ पुत्र हो गये, तब माद्रीने पाण्डुसे एकान्तमें कहा-- ।। १ ।। 

न मे$स्ति त्वयि संतापो विगुणे5पि परंतप । 

नावरत्वे वरार्हाया: स्थित्वा चानघ नित्यदा ।। २ ।। 

गान्धार्याश्विव नृपते जात॑ पुत्रशतं तथा । 

श्रुत्वा न मे तथा दुःखमभवत्‌ कुरुनन्दन ।। ३ ।। 

'शत्रुओंको संताप देनेवाले निष्पाप कुरुनन्दन! आप संतान उत्पन्न करनेकी शक्तिसे 
रहित हो गये, आपकी इस न्यूनता या दुर्बलताको लेकर मेरे मनमें कोई संताप नहीं है। 
यद्यपि मैं सदा कुन्तीदेवीकी अपेक्षा श्रेष्ठ होनेके कारण पटरानीके पदपर बैठनेकी 
अधिकारिणी थी, तो भी जो सदा मुझे छोटी बनकर रहना पड़ता है, इसके लिये भी मुझे 
कोई दुःख नहीं है। राजन! गान्धारी तथा राजा धृतराष्ट्रके जो सौ पुत्र हुए हैं, वह समाचार 
सुनकर भी मुझे वैसा दुःख नहीं हुआ था ।। २-३ ।। 

इदं तु मे महद्‌ दुःखं तुल्यतायामपुत्रता । 

दिष्ट्या व्विदानीं भर्तुर्मे कुन्त्यामप्यस्ति संतति: ।। ४ ।। 

'परंतु इस बातका मेरे मनमें बहुत दुःख है कि मैं और कुन्तीदेवी दोनों समानरूपसे 
आपकी पत6ििनियाँ हैं, तो भी उन्हें तो पुत्र हुआ और मैं संतानहीन ही रह गयी। यह 
सौभाग्यकी बात है कि इस समय मेरे प्राणनाथको कुन्तीके गर्भसे पुत्रकी प्राप्ति हो गयी 
है ।। ४ ।। 

यदि त्वपत्यसंतानं कुन्तिराजसुता मयि । 

कुर्यादनुग्रहो मे स्थात्‌ तव चापि हित॑ भवेत्‌ ।। ५ ।। 

“यदि कुन्तिराजकुमारी मेरे गर्भसे भी कोई संतान उत्पन्न करा सकें, तो यह उनका मेरे 
ऊपर महान्‌ अनुग्रह होगा और इससे आपका भी हित हो सकता है ।। ५ ।। 

संरम्भो हि सपत्नीत्वाद्‌ वक्तुं कुन्तिसुतां प्रति । 

यदि तु त्व॑ं प्रसन्नो मे स्वयमेनां प्रचोदय ।। ६ ।। 


“सौत होनेके कारण मेरे मनमें एक अभिमान है, जो कुन्तीदेवीसे कुछ निवेदन करनेमें 
बाधक हो रहा है; अत: यदि आप मुझपर प्रसन्न हों तो आप स्वयं ही मेरे लिये कुन्तीदेवीको 
प्रेरित कीजिये” ।। ६ ।। 

पाण्डुरुवाच 


ममाप्येष सदा माद्रि हृद्यर्थ: परिवर्तते । 

नतु॒त्वां प्रसहे वक्तुमिष्टानिष्टविवक्षया ।। ७ ।। 

पाण्डु बोले--माद्री! यह बात मेरे मनमें भी निरन्तर घूमती रहती है, किंतु इस विषयमें 
तुमसे कुछ कहनेका साहस नहीं होता था; क्योंकि पता नहीं, तुम यह प्रस्ताव सुनकर प्रसन्न 
होओगी या बुरा मान जाओगी। यह संदेह बराबर बना रहता था ।। ७ ।। 

तव व्विदं मतं मत्वा प्रयतिष्याम्यतः परम्‌ | 

मन्ये ध्रुवं मयोक्ता सा वचन प्रतिपत्स्यते ।। ८ ।। 

परंतु आज इस विषयमें तुम्हारी सम्मति जानकर अब मैं इसके लिये प्रयत्न करूँगा। 
मुझे विश्वास है, मेरे कहनेपर कुन्तीदेवी निश्चय ही मेरी बात मान लेंगी ।। ८ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

ततः कुन्तीं पुन: पाण्डुविंविक्त इदमब्रवीत्‌ | 

कुलस्य मम संतानं लोकस्य च कुरु प्रियम्‌ ।। ९ ।। 

मम चापिण्डनाशाय पूर्वेषामपि चात्मन: । 

मत्प्रियार्थ च कल्याणि कुरु कल्याणमुत्तमम्‌ ।। १० ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब राजा पाण्डुने एकान्तमें कुन्तीसे यह बात 
कही--“कल्याणि! मेरी कुलपरम्पराका विच्छेद न हो और सम्पूर्ण जगत्‌का प्रिय हो, ऐसा 
कार्य करो। मेरे तथा अपने पूर्वजोंके लिये पिण्डका अभाव न हो और मेरा भी प्रिय हो, 
इसके लिये तुम परम उत्तम कल्याणमय कार्य करो ।। ९-१० ।। 

यशसोर्थाय चैव त्वं कुरु कर्म सुदुष्करम्‌ । 

प्राप्पाधिपत्यमिन्द्रेण यज्ञैरिष्टं यशो<र्थिना ।। ११ ।। 

“अपने यशका विस्तार करनेके लिये तुम अत्यन्त दुष्कर कर्म करो, जैसे इन्द्रने स्वर्गका 
साम्राज्य प्राप्त कर लेनेके बाद भी केवल यशकी कामनासे अनेकानेक यज्ञोंका अनुष्ठान 
किया था ।। ११ ।। 

तथा मन्त्रविदो विप्रास्तपस्तप्त्वा सुदुष्करम्‌ । 

गुरूनभ्युपगच्छन्ति यशसो<र्थाय भाविनि ॥। १२ ।। 

'भामिनि! मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण अत्यन्त कठोर तपस्या करके भी यशके लिये गुरुजनोंकी 
शरण ग्रहण करते हैं ।। १२ ।। 

तथा राजर्षय: सर्वे ब्राह्मणाश्व तपोधना: । 


चक्रुरुच्चावचं कर्म यशसोअर्थाय दुष्करम्‌ ।। १३ ।। 

“सम्पूर्ण राजर्षियों तथा तपस्वी ब्राह्मणोंने भी यशके लिये छोटे-बड़े कठिन कर्म किये 
हैं ।। १३ ।। 

सा त्वं माद्रीं प्लवेनैव तारयैनामनिन्दिते । 

अपत्यसंविभागेन परां कीर्तिमवाप्रुहि ।। १४ ।। 

“अनिन्दिते! इसी प्रकार तुम भी इस माद्रीको नौकापर बिठाकर पार लगा दो; इसे भी 
संतति देकर उत्तम यश प्राप्त करो” || १४ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्‍त्वाब्रवीन्माद्री सकृच्चिन्तय दैवतम्‌ । 

तस्मात्‌ ते भवितापत्यमनुरूपमसंशयम्‌ ।। १५ |। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! महाराज पाण्डुके यों कहनेपर कुन्तीने माद्रीसे 
कहा--“तुम एक बार किसी देवताका चिन्तन करो, उससे तुम्हें योग्य संतानकी प्राप्ति होगी, 
इसमें संशय नहीं है” || १५ ।। 

ततो माद्री विचार्यव जगाम मनसाश्रिनौ । 

तावागम्य सुतौ तस्यां जनयामासतुर्यमौ ।। १६ ।। 

तब माद्रीने मन-ही-मन कुछ विचार करके दोनों अश्विनीकुमारोंका स्मरण किया। तब 
उन दोनोंने आकर माद्रीके गर्भसे दो जुड़वें पुत्र उत्पन्न किये || १६ ।। 

नकुल॑ सहदेवं च रूपेणाप्रतिमौ भुवि । 

तथैव तावपि यमौ वागुवाचाशरीरिणी ।। १७ ।। 

उनमेंसे एकका नाम नकुल था और दूसरेका सहदेव। पृथ्वीपर सुन्दर रूपमें उन 
दोनोंकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं था। पहलेकी तरह उन दोनों यमल संतानोंके 
विषयमें भी आकाशवाणीने कहा-- ।। १७ |। 

सत्त्वरूपगुणोपेतौ भवतोत्यश्विनाविति । 

भासतस्तेजसात्यर्थ रूपद्रविणसम्पदा ।। १८ ।। 

'ये दोनों बालक अश्विनीकुमारोंसे भी बढ़कर बुद्धि, रूप और गुणोंसे सम्पन्न होंगे। 
अपने तेज तथा बढ़ी-चढ़ी रूप-सम्पत्तिके द्वारा ये दोनों सदा प्रकाशित रहेंगे” || १८ ।। 

नामानि चक्रिरे तेषां शतशूड्रनिवासिन: । 

भक्‍त्या च कर्मणा चैव तथाशीर्भिविशाम्पते ।। १९ ।। 

तदनन्तर शतशुंगनिवासी ऋषियोंने उन सबके नामकरण-संस्कार किये। उन्हें 
आशीर्वाद देते हुए उनकी भक्ति और कर्मके अनुसार उनके नाम रखे ।। १९ ।। 

ज्येष्ठ युधिष्ठिरेत्येवे भीमसेनेति मध्यमम्‌ । 

अर्जुनेति तृतीयं च कुन्तीपुत्रानकल्पयन्‌ ।। २० ।। 


कुन्तीके ज्येष्ठ पुत्रका नाम युधिष्ठिर, मझलेका नाम भीमसेन और तीसरेका नाम अर्जुन 
रखा गया ।। २० ।। 

पूर्वजं नकुलेत्येवं सहदेवेति चापरम्‌ । 

माद्रीपुत्रावक थयंस्ते विप्रा: प्रीतमानसा: ।। २१ ।। 

उन प्रसन्नचित्त ब्राह्मणोंने माद्रीपुत्रोंमेंसे जो पहले उत्पन्न हुआ, उसका नाम नकुल और 
दूसरेका सहदेव निश्चित किया ।। २१ ।। 

अनुसंवत्सरं जाता अपि ते कुरुसत्तमा: । 

पाण्डुपुत्रा व्यराजन्त पञज्च संवत्सरा इव ।। २२ || 

वे कुरुश्रेष्ठ पाण्डवगण प्रतिवर्ष एक-एक करके उत्पन्न हुए थे, तो भी देवस्वरूप होनेके 
कारण पाँच संवत्सरोंकी भाँति एक-से सुशोभित हो रहे थे || २२ ।। 

महासत्त्वा महावीर्या महाबलपराक्रमा: । 

पाण्ड््दष्टवा सुतांस्तांस्तु देवरूपान्‌ महौजस: ।। २३ ।। 

मुर्दं परमिकां लेभे ननन्द च नराधिप: । 

ऋषीणामपि सर्वेषां शतशुड्शनिवासिनाम्‌ ।। २४ ।। 

प्रिया बभूवुस्तासां च तथैव मुनियोषिताम्‌ । 

कुन्तीमथ पुन: पाण्डुर्माद्रयर्थे समचोदयत्‌ ।। २५ ।। 

वे सभी महान्‌ धैर्यशाली, अधिक वीर्यवान, महाबली और पराक्रमी थे। उन देवस्वरूप 
महान्‌ तेजस्वी पुत्रोंकोी देखकर महाराज पाण्डुको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्दमें मग्न हो 
गये। वे सभी बालक शतशुंगनिवासी समस्त मुनियों और मुनिपत्नियोंके प्रिय थे। तदनन्तर 
पाण्डुने माद्रीसे संतानकी उत्पत्ति करानेके लिये कुन्तीको पुनः प्रेरित किया || २३--२५ ।। 

तमुवाच पृथा राजन्‌ रहस्युक्ता तदा सती । 

उक्ता सकृद्‌ द्न्ड्यमेषा लेभे तेनास्मि वज्चिता ।। २६ ।। 

राजन्‌! जब एकान्तमें पाण्डुने कुन्तीसे वह बात कही, तब सती कुन्ती पाण्डुसे इस 
प्रकार बोली--“महाराज! मैंने इसे एक पुत्रके लिये नियुक्त किया था, किंतु इसने दो पा 
लिये। इससे मैं ठगी गयी ।। २६ ।। 

बिभेम्यस्या: परिभवात्‌ कुस्त्रीणां गतिरीदृशी । 

नाज्ञासिषमहं मूढा द्वन्द्धाह्माने फलद्धयम्‌ ।। २७ ।। 

तस्मान्नाहं नियोक्तव्या त्वयैषो5स्तु वरो मम । 

एवं पाण्डो: सुता: पञज्च देवदत्ता महाबला: ।। २८ ।। 

सम्भूता: कीर्तिमन्तश्न॒ कुरुवंशविवर्धना: । 

शुभलक्षणसम्पन्ना: सोमवत्‌ प्रियदर्शना: ।। २९ |। 

“अब तो मैं इसके द्वारा मेरा तिरस्कार न हो जाय, इस बातके लिये डरती हूँ। खोटी 
स्त्रियोंकी ऐसी ही गति होती है। मैं ऐसी मूर्खा हूँ कि मेरी समझमें यह बात नहीं आयी कि 


दो देवताओंके आवाहनसे दो पुत्ररूप फलकी प्राप्ति होती है। अत: राजन्‌! अब मुझे इसके 
लिये आप इस कार्यमें नियुक्त न कीजिये। मैं आपसे यही वर माँगती हूँ।” इस प्रकार 
पाण्डुके देवताओंके दिये हुए पाँच महाबली पुत्र उत्पन्न हुए, जो यशस्वी होनेके साथ ही 
कुरुकुलकी वृद्धि करनेवाले और उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न थे। चन्द्रमाकी भाँति उनका दर्शन 
सबको प्रिय लगता था || २७--२९ |। 

सिंहदर्पा महेष्वासा: सिंहविक्रान्तगामिन: । 

सिंहग्रीवा मनुष्येन्द्रा ववृधुर्देवविक्रमा: ।। ३० ।। 

विवर्धमानास्ते तत्र पुण्ये हैमवते गिरौ । 

विस्मयं जनयामासुर्महर्षीणां समेयुषाम्‌ ।। ३१ ।। 

उनका अभिमान सिंहके समान था, वे बड़े-बड़े धनुष धारण करते थे। उनकी चाल- 
ढाल भी सिंहके ही समान थी। देवताओंके समान पराक्रमी तथा सिंहकी-सी गर्दनवाले वे 
नरश्रेष्ठ बढ़ने लगे। उस पुण्यमय हिमालयके शिखरपर पलते और पुष्ट होते हुए वे पाण्डुपुत्र 
वहाँ एकत्र होनेवाले महर्षियोंको आश्वर्यचकित कर देते थे || ३०-३१ ।। 

(जातमात्रानुपादाय शतशूज्शनिवासिन: । 

पाण्डो: पुत्रानमन्यन्त तापसा: स्वानिवात्मजान्‌ ।। 

ततस्तु वृष्णय: सर्वे वसुदेवपुरोगमा: । 

पाण्डु: शापभयाद्‌ भीत: शतशुड्रमुपेयिवान्‌ | 

तत्रैव मुनिभि: सार्थ तापसो5 भूत्‌ तपश्चरन्‌ ।। 

शाकमूलफलाहारस्तपस्वी नियतेन्द्रिय: । 

ध्यानयोगपरो राजा बभूवेति च वादका: ।। 

प्रब्न॒ुवन्ति सम बहवस्तच्छुत्वा शोककर्शिता: । 

पाण्डो: प्रीतिसमायुक्ता: कदा श्रोष्याम सत्कथा: ।। 

इत्येवं कथयन्तस्ते वृष्णय: सह बान्धवै: । 

पाण्डो: पुत्रागमं श्रुत्वा सर्वे हर्षसमन्विता: ।। 

सभाजयन्तस्ते<न्योन्यं वसुदेवं वचो<ब्रुवन्‌ 

शतशुंगनिवासी तपस्वी मुनि पाण्डुके पुत्रोंको जन्मकालसे ही संरक्षणमें लेकर अपने 
औरस पुत्रोंकी भाँति उनका लाड़-प्यार करते थे। उधर द्वारकामें वसुदेव आदि सब 
वृष्णिवंशी राजा पाण्डुके विषयमें इस प्रकार विचार कर रहे थे--“अहो! राजा पाण्डु किंदम 
मुनिके शापसे भयभीत हो शतशंग पर्वतपर चले गये हैं और वहीं ऋषि-मुनियोंके साथ 
तपस्यामें तत्पर हो पूरे तपस्वी बन गये हैं। वे शाक, मूल और फल भोजन करते हैं, तपमें 
लगे रहते हैं, इन्द्रियोंको काबूमें रखते हैं और सदा ध्यानयोगका ही साधन करते हैं। ये बातें 
बहुत-से संदेशवाहक मनुष्य बता रहे थे।” यह समाचार सुनकर प्राय: सभी यदुवंशी उनके 
प्रेमी होनेके नाते शोकमग्न रहते थे। वे सोचते थे--“कब हमें महाराज पाण्डुका शुभ संवाद 


सुननेको मिलेगा।' एक दिन अपने भाई-बन्धुओंके साथ बैठकर सब वृष्णिवंशी जब इस 
प्रकार पाण्डुके विषयमें कुछ बातें कर रहे थे, उसी समय उन्होंने पाण्डुके पुत्र होनेका 
समाचार सुना। सुनते ही सब-के-सब हर्षविभोर हो उठे और परस्पर सद्भाव प्रकट करते हुए 
वसुदेवजीसे इस प्रकार बोले-- 
वृष्णय ऊचु: 

न भवेरन्‌ क्रियाहीना: पाण्डो: पुत्रा महायश: । 

पाण्डो: प्रियहितान्वेषी प्रेषय त्वं पुरोहितम्‌ ।। 

वृष्णियोंने कहा--महायशस्वी वसुदेवजी! हम चाहते हैं कि राजा पाण्डुके पुत्र 
संस्कारहीन न हों; अत: आप पाण्डुके प्रिय और हितकी इच्छा रखकर उनके पास किसी 
पुरोहितको भेजिये। 

वैशम्पायन उवाच 

वसुदेवस्तथेत्युक्त्वा विससर्ज पुरोहितम्‌ । 

युक्तानि च कुमाराणां पारिबहण्यनेकश: ।। 

कुन्तीं माद्रीं च संदिश्य दासीदासपरिच्छदम्‌ । 

गाश्न रौप्यं हिरण्यं च प्रेषयामास भारत ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तब “बहुत अच्छा” कहकर वसुदेवजीने 
पुरोहितको भेजा; साथ ही उन कुमारोंके लिये उपयोगी अनेक प्रकारकी वस्त्राभूषण- 
सामग्री भी भेजी। कुन्ती और माद्रीके लिये भी दासी, दास, वस्त्राभूषण आदि आवश्यक 
सामान, गौएँ, चाँदी और सुवर्ण भिजवाये। 

तानि सर्वाणि संगृहा[ प्रययौ स पुरोहित: । 

तमागतं द्विजश्रेष्ठ काश्यपं वै पुरोहितम्‌ ।। 

पूजयामास विधिवत्‌ पाण्डु: परपुरञण्जय: । 

पृथा माद्री च संहृष्टे वसुदेव॑ प्रशंसताम्‌ ।। 

उन सब सामग्रियोंको एकत्र करके अपने साथ ले पुरोहितने वनको प्रस्थान किया। 
शत्रुओंकी नगरीपर विजय पानेवाले राजा पाण्डुने पुरोहित द्विजश्रेष्ठ काश्यपके आनेपर 
उनका विधिपूर्वक पूजन किया। कुन्ती और माद्रीने प्रसन्न होकर वसुदेवजीकी भूरि-भूरि 
प्रशंसा की। 

ततः पाण्डुः क्रिया: सर्वा: पाण्डवानामकारयत्‌ | 

गर्भाधानादिकृत्यानि चौलोपनयनानि च ।। 

काश्यप: कृतवान्‌ सर्वमुपाकर्म च भारत । 

चौलोपनयनादूर्ध्वमृषभाक्षा यशस्विन: ।। 

वैदिकाध्ययने सर्वे समपद्यन्त पारगा: । 


तब पाण्डुने अपने पुत्रोंके गर्भाधानसे लेकर चूडाकरण और उपनयनतक सभी 
संस्कार-कर्म करवाये। भारत! पुरोहित काश्यपने उनके सब संस्कार सम्पन्न किये। बैलोंके 
समान बड़े-बड़े नेत्रोंवाले वे यशस्वी पाण्डव चूडाकरण और उपनयनके पश्चात्‌ उपाकर्म 
करके वेदाध्ययनमें लगे और उसमें पारंगत हो गये। 

शर्याते: पृषतः पुत्र: शुको नाम परंतप: ।। 

येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही । 

अश्वमेधशतैरिष्टवा स महात्मा महामखै: ।। 

आराध्य देवता: सर्वा: पितृनपि महामति: । 

शतशज्रे तपस्तेपे शाकमूलफलाशन: ।। 

तेनोपकरणमश्रेष्ठीै: शिक्षया चोपबंहिता: । 

तत्प्रसादाद्‌ थनुर्वेदे समपद्यन्त पारगा: ।। 

भारत! शर्यातिवंशजके एक पुत्र पृषत्‌ थे, जिनका नाम था शुक। वे अपने पराक्रमसे 
शत्रुओंको संतप्त करनेवाले थे। उन शुकने किसी समय अपने धनुषके बलसे जीतकर 
समुद्रपर्यनत सारी पृथ्वीपर अधिकार कर लिया था। अश्वमेध-जैसे सौ बड़े-बड़े यज्ञोंका 
अनुष्ठान एवं सम्पूर्ण देवताओं तथा पितरोंकी आराधना करके परम बुद्धिमान्‌ महात्मा राजा 
शुक शतशुंग पर्ववपर आकर शाक और फल-मूलका आहार करते हुए तपस्या करने लगे। 
उन्हीं तपस्वी नरेशने श्रेष्ठ उपकरणों और शिक्षाके द्वारा पाण्डवोंकी योग्यता बढ़ायी। राजर्षि 
शुकके कृपा-प्रसादसे सभी पाण्डव धरनुर्वेदमें पारंगत हो गये। 

गदायां पारगो भीमस्तोमरेषु युधिष्िर: । 

असिचर्मणि निष्णातौ यमौ सच्त्ववतां वरौ ।। 

धनुर्वेदे गत: पारं सव्यसाची परंतप: । 

शुकेन समनुज्ञातो मत्समो5यमिति प्रभो । 

अनुज्ञाय ततो राजा शक्ति खड्गं तथा शरान्‌ ।। 

धनुश्न ददतां श्रेष्स्तालमात्र महाप्रभम्‌ । 

विपाठक्षुरनाराचान्‌ गृध्रपत्रानलंकृतान्‌ ।। 

ददौ पार्थाय संहृष्टो महोरगसमप्रभान्‌ । 

अवाप्य सर्वशस्त्राणि मुदितो वासवात्मज: ।। 

मेने सर्वान्‌ महीपालान्‌ अपर्याप्तान्‌ स्वतेजस: । 

भीमसेन गदा-संचालनमें पारंगत हुए और युधिष्छिर तोमर फेंकनेमें। धैर्यवान्‌ और 
शक्तिशाली पुरुषोंमें श्रेष्ठ दोनों माद्रीपुत्र ढाल-तलवार चलानेकी कलामें निपुण हुए। परंतप 
सव्यसाची अर्जुन धनुर्वेदके पारगामी विद्वान्‌ हुए। राजन्‌! जब दाताओंमें श्रेष्ठ शुकने जान 
लिया कि अर्जुन मेरे समान धरनुर्वेदके ज्ञाता हो गये, तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर शक्ति, 
खड्ग, बाण, ताड़के समान विशाल अत्यन्त चमकीला धनुष तथा विपाठ, क्षुर एवं नाराच 


अर्जुनको दिये। विपाठ आदि सभी प्रकारके बाण गीधकी पाँखोंसे युक्त तथा अलंकृत थे। वे 
देखनेमें बड़े-बड़े सर्पोके समान जान पड़ते थे। इन सब अस्त्र-शस्त्रोंको पाकर इन्द्रपुत्र 
अर्जुनको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे यह अनुभव करने लगे कि भूमण्डलके कोई भी नरेश तेजमें 
मेरी समानता नहीं कर सकते। 

(एकवर्षनन्तरास्त्वेवं परस्परमरिंदमा: । 

अन्ववर्धन्त पार्थाश्न माद्रीपुत्रौ तथैव च ।।) 

शत्रुदमन पाण्डवोंकी आयुमें परस्पर एक-एक वर्षका अन्तर था। कुन्ती और माद्री 
दोनों देवियोंके पुत्र दिन-दिन बढ़ने लगे। 

ते च पञज्च शतं चैव कुरुवंशविवर्धना: । 

सर्वे ववृधुरल्पेन कालेनाप्स्विव नीरजा: ।। ३२ ।। 

फिर तो जैसे जलमें कमल बढ़ता है, उसी प्रकार कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले जो एक 
सौ पाँच बालक हुए थे, वे सब थोड़े ही समयमें बढ़कर सयाने हो गये ।। ३२ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डवोत्पत्तौ 
त्रयोविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डवोंकी उत्पत्तिविषयक एक 
सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२३ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २३ श्लोक मिलाकर कुल ५५ श्लोक हैं) 


है ० बक। ] अतिफऑशाड< 


चतुर्विशर्त्याधकशततमो< ध्याय: 
राजा पाण्डुकी मृत्यु और माद्रीका उनके साथ चितारोहण 


वैशम्पायन उवाच 


दर्शनीयांस्तत: पुत्रान्‌ पाण्डु: पज्च महावने । 

तान्‌ पश्यन्‌ पर्वते रम्ये स्वबाहुबलमाश्रित: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस महान्‌ वनमें रमणीय पर्वत-शिखरपर 
महाराज पाण्डु उन पाँचों दर्शनीय पुत्रोंको देखते हुए अपने बाहुबलके सहारे प्रसन्नतापूर्वक 
निवास करने लगे ।। १ ।। 

(पूर्णे चतुर्दशे वर्षे फाल्गुनस्य च धीमत: । 

तदा उत्तरफन्गुन्यां प्रवृत्ते स्वस्तिवाचने ।। 

रक्षणे विस्मृता कुन्ती व्यग्रा ब्राह्मणभोजने । 

पुरोहितेन सहिता ब्राह्मणान्‌ पर्यवेषयत्‌ ।। 

तस्मिन्‌ काले समाहूय माद्रीं मदनमोहितः ।) 

सुपुष्पितवने काले कदाचिन्मधुमाधवे । 

भूतसम्मोहने राजा सभार्यो व्यचरद्‌ वनम्‌ ।। २ ।। 

एक दिनकी बात है, बुद्धिमान्‌ अर्जुनका चौदहवाँ वर्ष पूरा हुआ था। उनकी जन्म- 
तिथिको उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें ब्राह्मणलोगोंने स्वस्तिवाचन प्रारम्भ किया। उस समय 
कुन्तीदेवीको महाराज पाण्डुकी देखभालका ध्यान न रहा। वे ब्राह्मणोंको भोजन करानेमें 
लग गयीं। पुरोहितके साथ स्वयं ही उनको रसोई परोसने लगीं। इसी समय काममोहित 
पाण्डु माद्रीको बुलाकर अपने साथ ले गये। उस समय चैत्र और वैशाखके महीनोंकी 
संधिका समय था, समूचा वन भाँति-भाँतिके सुन्दर पुष्पोंसे अलंकृत हो अपनी अनुपम 
शोभासे समस्त प्राणियोंको मोहित कर रहा था, राजा पाण्डु अपनी छोटी रानीके साथ 
वनमें विचरने लगे || २ ।। 

पलाशैस्तिलकैश्षूतैश्वम्पकैः पारिभद्रकै: । 

अन्यैश्न बहुभिव॑क्षे: फलपुष्पसमृद्धिभि: ।। ३ ।। 

जलस्थानैश्व विविधै: पप्मिनीभिश्न शोभितम्‌ | 

पाण्डोर्वनं तत्‌ सम्प्रेक्ष्य प्रजज्ञे हूदि मन्मथ: ।। ४ ।। 

पलाश, तिलक, आम, चम्पा, पारिभद्रक तथा और भी बहुत-से वृक्ष फल-फूलोंकी 
समृद्धिसे भरे हुए थे, जो उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे। नाना प्रकारके जलाशयों तथा 
कमलोंसे सुशोभित उस वनकी मनोहर छटा देखकर राजा पाण्डुके मनमें कामका संचार हो 
गया ।। ३-४ ।। 


प्रहृष्मनसं तत्र विचरन्तं यथामरम्‌ । 

त॑ माद्रयनुजगामैका वसनं बिभ्रती शुभम्‌ ।। ५ ।। 

वे मनमें हर्षोल्लास भरकर देवताकी भाँति वहाँ विचर रहे थे। उस समय माद्री सुन्दर 
वस्त्र पहने अकेली उनके पीछे-पीछे जा रही थी ।। ५ ।। 

समीक्षमाण: स तु तां वयःस्थां तनुवाससम्‌ | 

तस्य काम: प्रववृथे गहने5ग्निरिवोद्गत: ।। ६ ।। 

वह युवावस्थासे युक्त थी और उसके शरीरपर झीनी-झीनी साड़ी सुशोभित थी। उसकी 
ओर देखते ही पाण्डुके मनमें कामनाकी आग जल उठी, मानो घने वनमें दावाग्नि प्रज्वलित 
हो उठी हो ।। ६ ।। 

रहस्येकां तु तां दृष्टवा राजा राजीवलोचनाम्‌ । 

न शशाक नियमन्तुं तं कामं कामवशीकृत: ।। ७ ।। 

एकान्त प्रदेशमें कमलनयनी माद्रीको अकेली देखकर राजा कामका वेग रोक न सके, 
वे पूर्णतः: कामदेवके अधीन हो गये थे ।। ७ ।। 

तत एनां बलादू राजा निजग्राह रहो गताम्‌ । 

वार्यमाणस्तया देव्या विस्फुरन्त्या यथाबलम्‌ ॥। ८ ।। 

अतः एकान्तमें मिली हुई माद्रीको महाराज पाण्डुने बलपूर्वक पकड़ लिया। देवी माद्री 
राजाकी पकड़से छूटनेके लिये यथाशक्ति चेष्टा करती हुई उन्हें बार-बार रोक रही 
थी ।। ८ ।। 

स तु कामपरीतात्मा तं शापं नान्वबुध्यत । 

माद्रीं मैथुनधर्मेण सो5न्वगच्छद्‌ बलादिव ।। ९ |। 

जीवितान्ताय कौरव्य मन्मथस्य वशं गत: । 

शापजं भयमुत्सृज्य विधिना सम्प्रचोदित: ।॥ १० ।। 

परंतु उनके मनपर तो कामका वेग सवार था; अतः उन्होंने मृगरूपधारी मुनिसे प्राप्त 
हुए शापका विचार नहीं किया। कुरुनन्दन जनमेजय! वे कामके वशमें हो गये थे, इसलिये 
प्रारब्धसे प्रेरित हो शापके भयकी अवहेलना करके स्वयं ही अपने जीवनका अन्त करनेके 
लिये बलपूर्वक मैथुन करनेकी इच्छा रखकर माद्रीसे लिपट गये ।। ९-१० ।। 

तस्य कामात्मनो बुद्धि: साक्षात्‌ कालेन मोहिता । 

सम्प्रमथ्येन्द्रियग्रामं प्रणष्टा सह चेतसा ।। ११ ।। 

साक्षात्‌ कालने कामात्मा पाण्डुकी बुद्धि मोह ली थी। उनकी बुद्धि सम्पूर्ण इन्द्रियोंको 
मथकर विचार-शक्तिके साथ-साथ स्वयं भी नष्ट हो गयी थी ।। ११ ।। 

स तया सह संगम्य भार्यया कुरुनन्दन: । 

पाण्डु: परमधर्मात्मा युयुजे कालधर्मणा ।। १२ ।। 


कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले परम धर्मात्मा महाराज पाण्डु इस प्रकार अपनी 
धर्मपत्नी माद्रीसे समागम करके कालके गालमें पड़ गये ।। १२ ।। 

ततो माद्री समालिड्र्य राजानं गतचेतसम्‌ । 

मुमोच दुःखजं शब्दं पुन: पुनरतीव हि ।। १३ ।। 

तब माद्री राजाके शवसे लिपटकर बार-बार अत्यन्त दुःखभरी वाणीमें विलाप करने 
लगी ।। १३ ।। 

सह पुत्रैस्तत: कुन्ती माद्रीपुत्रो च पाण्डवौ । 

आज म्मु: सहितास्तत्र यत्र राजा तथागत: ।। १४ ।। 

इतनेमें ही पुत्रोंसहित कुन्ती और दोनों पाण्डुनन्दन माद्रीकुमार एक साथ उस स्थानपर 
आ पहुँचे, जहाँ राजा पाण्डु मृतकावस्थामें पड़े थे || १४ ।। 

ततो माद्रयत्रवीद्‌ राजन्नार्ता कुन्तीमिदं वच: । 

एकैव त्वमिहागच्छ तिष्ठन्त्वत्रैव दारका: ।। १५ |।। 

जनमेजय! यह देख शोकातुर माद्रीने कुन्तीसे कहा--“बहिन! आप अकेली ही यहाँ 
आयें। बच्चोंको वहीं रहने दें” || १५ ।। 

तच्छुत्वा वचन तस्यास्तत्रैवाधाय दारकान्‌ । 

हताहमिति विक्रुश्य सहसैवाजगाम सा ।। १६ ।। 

माद्रीका यह वचन सुनकर कुन्तीने सब बालकोंको वहीं रोक दिया और “हाय! मैं मारी 
गयी” इस प्रकार आर्तनाद करती हुई सहसा माद्रीके पास आ पहुँची ।। १६ ।। 

दृष्टवा पाण्डुं च माद्रीं च शयानौ धरणीतले । 

कुन्ती शोकपरीताज़्ी विललाप सुदु:ःखिता ।। १७ ।। 

आकर उसने देखा, पाण्डु और माद्री धरतीपर पड़े हुए हैं। यह देख कुन्तीके सम्पूर्ण 
शरीरमें शोकाग्नि व्याप्त हो गयी और वह अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगी 
-- | १७ || 

रक्ष्यमाणो मया नित्यं वीर: सततमात्मवान्‌ । 

कथं त्वामत्यतिक्रान्त: शापं जानन्‌ वनौकस: ।। १८ ।। 

'माद्री! मैं सदा वीर एवं जितेन्द्रिय महाराजकी रक्षा करती आ रही थी। उन्होंने मृगके 
शापकी बात जानते हुए भी तुम्हारे साथ बलपूर्वक समागम कैसे किया? ।। १८ ।। 

ननु नाम त्वया माद्रि रक्षितव्यो नराधिप: । 

सा कथ॑ं लोभितवती विजने त्वं नराधिपम्‌ ।। १९ ।। 

'माद्री! तुम्हें तो महाराजकी रक्षा करनी चाहिये थी। तुमने एकान्तमें उन्हें लुभाया 
क्यों? ।। १९ ।। 

कथं दीनस्य सततं त्वामासाद्य रहोगताम्‌ | 

त॑ विचिन्तयत:ः शापं प्रहर्ष. समजायत ।। २० ।। 


“वे तो उस शापका चिन्तन करते हुए सदा दीन और उदास बने रहते थे, फिर तुझको 
एकान्तमें पाकर उनके मनमें कामजनित हर्ष कैसे उत्पन्न हुआ? ।। २० ।। 
धन्या त्वमसि बाह्नलीकि मत्तो भाग्यतरा तथा | 
दृष्टवत्यसि यद्‌ वक्‍त्रं प्रह्ृष्टस्य महीपते: ॥। २१ ।। 
“बाह्नलीकराजकुमारी! तुम धन्य हो, मुझसे बड़भागिनी हो; क्योंकि तुमने हर्षोल्लाससे 
भरे हुए महाराजके मुखचन्द्रका दर्शन किया है” || २१ ।। 
माद्रयुवाच 


विलपन्त्या मया देवि वार्यमाणेन चासकृत्‌ । 

आत्मा न वारितो<नेन सत्यं दिष्टं चिकीर्षणा ।। २२ ।। 

माद्री बोली--महारानी! मैंने रोते-बिलखते बार-बार महाराजको रोकनेकी चेष्टा की; 
परंतु वे तो उस शापजनित दुर्भाग्यको मोहके कारण मानो सत्य करना चाहते थे, इसलिये 
अपने-आपको रोक न सके ।। २२ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


(तस्यास्तद्‌ वचन श्रुत्वा कुन्ती शोकाग्नितापिता । 

पपात सहसा भूमौ छिन्नमूल इव द्रुम: ।। 

निश्चेष्ठा पतिता भूमौ मोहान्नेव चचाल सा ।। 

कुन्तीमुत्थाप्य माद्री च मोहेनाविष्टचेतनाम्‌ । 

एह्टोहीति तां कुन्तीं दर्शयामास कौरवम्‌ ।। 

पादयो: पतिता कुन्ती पुनरुत्थाय भूमिपम्‌ | 

सस्मितेन तु वक्त्रेण गदन्‍्तमिव भारत । 

परिरभ्य तदा मोहाद्‌ विललापाकुलेन्द्रिया ।। 

माद्री चापि समालिड्रय राजानं विललाप सा ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! माद्रीका यह वचन सुनकर कुन्ती शोकाग्निसे 
संतप्त हो जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी और गिरते ही मूर्च्छा आ 
जानेके कारण निनश्वेष्ट पड़ी रही, हिल-डुल भी न सकी। वह मूर्च्छावश अचेत हो गयी थी। 
माद्रीने उसे उठाया और कहा--'बहिन! आइये, आइये!” यों कहकर उसने कुन्तीको 
कुरुराज पाण्डुका दर्शन कराया। कुन्ती उठकर पुनः महाराज पाण्डुके चरणोंमें गिर पड़ी। 
महाराजके मुखपर मुसकराहट थी और ऐसा जान पड़ता था मानो वे अभी-अभी कोई बात 
कहने जा रहे हैं। उस समय मोहवश उन्हें हृदयसे लगाकर कुन्ती विलाप करने लगी। उसकी 
सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयी थीं। इसी प्रकार माद्री भी राजाका आलिंगन करके करुण 
विलाप करने लगी। 

त॑ तथाधिगतं पाण्डुमृषय: सह चारणै: । 


अभ्येत्य सहिता: सर्वे शोकादश्रूण्यवर्तयन्‌ ।। 

अस्तं गतमिवादित्यं सुशुष्कमिव सागरम्‌ | 

दृष्टवा पाणए्डुं नरव्याप्रं शोचन्ति सम महर्षय: ।। 

समानशोका ऋषय: पाण्डवाश्व बभूविरे । 

ते समाश्वासिते विप्रै: विलेपतुरनिन्दिते ।। 

इस प्रकार मृत्यु-शय्यापर पड़े हुए पाण्डुके पास चारणोंसहित सभी ऋषि-मुनि जुट 
आये और शोकवश आँसू बहाने लगे। अस्ताचलको पहुँचे हुए सूर्य तथा एकदम सूखे हुए 
समुद्रकी भाँति नरश्रेष्ठ पाण्डुको देखकर सभी महर्षि शोकमग्न हो गये। उस समय 
ऋषियोंको तथा पाण्डुपुत्रोंकी समानरूपसे शोकका अनुभव हो रहा था। ब्राह्मणोंने 
पाण्डुकी दोनों सती-साध्वी रानियोंकोी समझा-बुझाकर बहुत आश्वासन दिया, तो भी उनका 
विलाप बंद नहीं हुआ। 


कुन्त्युवाच 

हा राजन्‌ कस्य नौ हित्वा गच्छसि त्रिदशालयम्‌ ।। 

हा राजन्‌ मम मन्दाया: कथं माद्रीं समेत्य वै । 

निधन प्राप्तवान्‌ राजन्‌ मद्धाग्यपरिसंक्षयात्‌ ।। 

युधिष्ठिरें भीमसेनमर्जुनं च यमावुभौ । 

कस्य हित्वा प्रियान्‌ पुत्रान्‌ प्रयातो$सि विशाम्पते ।। 

नून॑ त्वां त्रिदशा देवा: प्रतिनन्दन्ति भारत | 

यथा हि तप उग्र ते चरितं विप्रसंसदि ।। 

आवाभ्यां सहितो राजन्‌ गमिष्यसि दिवं शुभम्‌ | 

आजमीढाजमीढानां कर्मणा चरितां गतिम्‌ ।। 

कुन्ती बोली--हा! महाराज! आप हम दोनोंको किसे सौंपकर स्वर्गलोकमें जा रहे हैं। 
हाय! मैं कितनी भाग्यहीना हूँ। मेरे राजा! आप किसलिये अकेली माद्रीसे मिलकर सहसा 
कालके गालमें चले गये। मेरा भाग्य नष्ट हो जानेके कारण ही आज यह दिन देखना पड़ा 
है। प्रजानाथ! युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव--इन प्यारे पुत्रोंको किसके 
जिम्मे छोड़कर आप चले गये? भारत! निश्चय ही देवता आपका अभिनन्दन करते होंगे; 
क्योंकि आपने ब्राह्मणोंकी मण्डलीमें रहकर कठोर तपस्या की है। अजमीढकुलनन्दन! 
आपके पूर्वजोंने पुण्य-कर्मोद्वारा जिस गतिको प्राप्त किया है, उसी शुभ स्वर्गीय गतिको 
आप हम दोनों पत्नियोंके साथ प्राप्त करेंगे। 

वैशम्पायन उवाच 
(विलपित्वा भृशं त्वेवं नि:संज्ञे पतिते भुवि । 
युधिष्ठिरमुखा: सर्वे पाण्डवा वेदपारगा: । 


तेडप्यागत्य पितुर्मूले नि:संज्ञा: पतिता भुवि ।। 

पाण्डो: पादौ परिष्वज्य विलपन्ति सम पाण्डवा: ।।) 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार अत्यन्त विलाप करके कुन्ती और 
माद्री दोनों अचेत हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डव वेदविद्यामें पारंगत हो 
चुके थे, वे भी पिताके समीप आकर संज्ञाशून्य हो पृथ्वीपर गिर पड़े। सभी पाण्डव पाण्डुके 
चरणोंको हृदयसे लगाकर विलाप करने लगे। 


कुन्त्युवाच 

अहं ज्येष्ठा धर्मपत्नी ज्येष्ठ॑ धर्मफलं मम । 

अवश्यम्भाविनो भावान्मा मां माद्रि निवर्तय ।। २३ ।। 

अन्विष्यामीह भर्तारिमहं प्रेतवशं गतम्‌ | 

उत्तिष्ठ त्वं विसृज्यैनमिमान्‌ पालय दारकान्‌ ।॥। २४ ।। 

अवाप्य पुत्रॉल्लब्धात्मा वीरपत्नीत्वमर्थये । 

कुन्तीने कहा--माद्री! मैं इनकी ज्येष्ठ धर्मपत्नी हूँ, अतः धर्मके ज्येष्ठ फलपर भी मेरा 
ही अधिकार है। जो अवश्यम्भावी बात है, उससे मुझे मत रोको। मैं मृत्युके वशमें पड़े हुए 
अपने स्वामीका अनुगमन करूँगी। अब तुम इन्हें छोड़कर उठो और इन बच्चोंका पालन 
करो। पुत्रोंकोी पाकर मेरा लौकिक मनोरथ पूर्ण हो चुका है; अब मैं पतिके साथ दग्ध होकर 
वीरपत्नीका पद पाना चाहती हूँ || २३-२४ ।। 


माद्रयुवाच 


अहमेवानुयास्यामि भर्तारमपलायिनम्‌ । 

न हि तृप्तास्मि कामानां ज्येष्ठा मामनुमन्यताम्‌ ।। २५ ।। 

माद्री बोली--रणभूमिसे कभी पीठ न दिखानेवाले अपने पतिदेवके साथ मैं ही 
जाऊँगी; क्योंकि उनके साथ होनेवाले कामभोगसे मैं तृप्त नहीं हो सकी हूँ। आप बड़ी 
बहिन हैं, इसलिये मुझे आपको आज्ञा प्रदान करनी चाहिये ।। २५ ।। 

मां चाभिगम्य क्षीणो5यं कामाद्‌ भरतसत्तम: । 

तमुच्छिन्द्यामस्य कामं कथं नु यमसादने || २६ ।। 

ये भरतश्रेष्ठ मेरे प्रति आसक्त हो मुझसे समागम करके मृत्युको प्राप्त हुए हैं; अतः मुझे 
किसी प्रकार परलोकमें पहुँचकर उनकी उस कामवासनाकी निवृत्ति करनी 
चाहिये ।। २६ ।। 

न चाप्यहं वर्तयन्ती निर्विशेषं सुनेषु ते । 

वृत्तिमार्ये चरिष्यामि स्पृशेदेनस्तथा च माम्‌ ।। २७ ।। 

आये! मैं आपके पुत्रोंके साथ अपने सगे पुत्रोंकी भाँति बर्ताव नहीं कर सकूँगी। उस 
दशामें मुझे पाप लगेगा || २७ ।। 


तस्मान्मे सुतयो: कुन्ति वर्तितव्यं स्वपुत्रवत्‌ 
मां च कामयमानो<यं राजा प्रेतवशं गत: ।। २८ ।। 
अतः आप ही जीवित रहकर मेरे पुत्रोंका भी अपने पुत्रोंके समान ही पालन 
कीजियेगा। इसके सिवा ये महाराज मेरी ही कामना रखकर मृत्युके अधीन हुए हैं || २८ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


(ऋषयस्तान्‌ समाश्चास्य पाण्डवान्‌ सत्यविक्रमान्‌ | 

ऊचुः कुन्तीं च माद्रीं च समाश्वास्य तपस्विन: ।। 

सुभगे बालपुत्रे तु न मर्तव्यं कथंचन । 

पाण्डवांश्षापि नेष्याम: कुरुराष्ट्रं परंतपान्‌ ।। 

अधर्मेष्वर्थजातेषु धृतराष्ट्रश्न लोभवान्‌ । 

स कदाचित्न वर्तेत पाण्डवेषु यथाविधि ।। 

कुन्त्याश्न वृष्णयो नाथा: कुन्तिभोजस्तथैव च । 

माद्रयाश्न बलिनां श्रेष्ठ; शल्यो भ्राता महारथ: ।। 

भर्त्रा तु मरणं सार्थ फलवन्नात्र संशय: । 

युवाभ्यां दुष्करं चैतद्‌ वदन्ति द्विजपुड्रवा: ।। 

मृते भर्तरि या साध्वी ब्रह्मचर्यव्रते स्थिता । 

यमैश्न नियमै: श्रान्ता मनोवाक्कायजै: शुभै: ।। 

व्रतोपवासनियमै: कृच्छैश्नान्द्रायणादिभि: । 

भूशय्यां क्षारलवणवर्जनं चैकभोजनम्‌ ।। 

येन केनापि विधिना देहशोषणतत्परा । 

देहपोषणसंयुक्ता विषयैह्वतचेतना ।। 

देहव्ययेन नरकं॑ महदाप्रोत्यसंशय: । 

तस्मात्संशोषयेद्‌ देहं विषया नाशमाप्तुयु: ।। 

भर्तरें चिन्तयन्ती सा भर्तरे निस्तरेच्छुभा | 

तारितश्चापि भर्ता स्यादात्मा पुत्रस्तथैव च ।। 

तस्माज्जीवितमेवैतद्‌ युवयोर्विद्य शोभनम्‌ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--तदनन्तर तपस्वी ऋषियोंने सत्यपराक्रमी पाण्डवोंको 
धीरज बँधाकर कुन्ती और माद्रीको भी आश्वासन देते हुए कहा--'सुभगे! तुम दोनोंके पुत्र 
अभी बालक हैं, अतः तुम्हें किसी प्रकार देह-त्याग नहीं करना चाहिये। हमलोग शत्रुदमन 
पाण्डवोंको कौरव राष्ट्रकी राजधानीमें पहुँचा देंगे। राजा धृतराष्ट्र अधर्ममय धनके लिये लोभ 
रखता है, अतः वह कभी पाण्डवोंके साथ यथायोग्य बर्ताव नहीं कर सकता। कुन्तीके 
रक्षक एवं सहायक वृष्णिवंशी और राजा कुन्तिभोज हैं तथा माद्रीके बलवानोंमें श्रेष्ठ 


महारथी शल्य उसके भाई हैं। इसमें संदेह नहीं कि पतिके साथ मृत्यु स्वीकार करना 
पत्नीके लिये महान्‌ फलदायक होता है; तथापि तुम दोनोंके लिये यह कार्य अत्यन्त कठोर 
है, यह बात सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण कहते हैं। जो स्त्री साध्वी होती है, वह अपने पतिकी मृत्यु हो 
जानेके बाद ब्रह्मचर्यके पालनमें अविचलभावसे लगी रहती है, यम और नियमोंके पालनका 
क्लेश सहन करती है और मन, वाणी एवं शरीरद्वारा किये जानेवाले शुभ कर्मों तथा 
कृच्छुचान्द्रायणादि व्रत, उपवास और नियमोंका अनुष्ठान करती है। वह क्षार (पापड़ आदि) 
और लवणका त्याग करके एक बार ही भोजन करती और भूमिपर शयन करती है। वह 
जिस किसी प्रकारसे अपने शरीरको सुखानेके प्रयत्नमें लगी रहती है। किंतु विषयोंके द्वारा 
नष्ट हुई बुद्धिवाली जो नारी देहको पुष्ट करनेमें ही लगी रहती है, वह तो इस (दुर्लभ 
मनुष्य-) शरीरको व्यर्थ ही नष्ट करके नि:संदेह महान्‌ नरकको प्राप्त होती है। अतः साध्वी 
सत्रीको उचित है कि वह अपने शरीरको सुखाये, जिससे सम्पूर्ण विषय-कामनाएँ नष्ट हो 
जायाँ। इस प्रकार उपर्युक्त धर्मका पालन करनेवाली जो शुभलक्षणा नारी अपने पतिदेवका 
चिन्तन करती रहती है, वह अपने पतिका भी उद्धार कर देती है। इस तरह वह स्वयं 
अपनेको, अपने पतिको एवं पुत्रको भी संसारसे तार देती है। अतः हमलोग तो यही अच्छा 
मानते हैं कि तुम दोनों जीवन धारण करो/। 


कुन्त्युवाच 

यथा पाण्डोश्व निर्देशस्तथा विप्रगणस्य च । 

आज्ञा शिरसि निक्षिप्ता करिष्यामि च तत्‌ तथा ।। 

यथा<<हुर्भगवन्तो हि तन्मन्ये शोभनं परम्‌ । 

भर्तुश्व॒ मम पुत्राणां मम चैव न संशय: ।। 

कुन्ती बोली--महात्माओ! हमारे लिये महाराज पाण्डुकी आज्ञा जैसे शिरोधार्य है, 
उसी प्रकार आप सब ब्राह्मणोंकी भी है। आपका आदेश मैं सिर-माथे रखती हूँ। आप जैसा 
कहेंगे, वैसा ही करूँगी। पूज्यपाद विप्रगण जैसा कहते हैं, उसीको मैं अपने पति, पुत्रों तथा 
अपने-आपके लिये भी परम कल्याणकारी समझती हूँ--इसमें तनिक भी संशय नहीं है। 

माद्रयुवाच 


कुन्ती समर्था पुत्राणां योगक्षेमस्य धारणे | 
अस्या हि न समा बुद्धा यद्यपि स्यादरुन्धती ।। 
कुन्त्याश्न वृष्णयो नाथा: कुन्तिभोजस्तथैव च । 
नाहं त्वमिव पुत्राणां समर्था धारणे तथा ।। 
साहं भर्तारिमन्वेष्ये अतृप्ता नन्वहं तथा । 
भर्तलोकस्य तु ज्येष्ठा देवी मामनुमन्यताम्‌ ।। 
धर्मज्ञस्य कृतज्ञस्य सत्यधर्मस्य धीमत: । 


पादौ परिचरिष्यामि तदायें हानुमन्यताम्‌ ।। 

माद्रीने कहा--कुन्तीदेवी सभी पुत्रोंके योग-क्षेमके निर्वाहमें--पालन-पोषणमें समर्थ 
हैं। कोई भी स्त्री, चाहे वह अरुन्धती ही क्‍यों न हो, बुद्धिमें इनकी समानता नहीं कर 
सकती। वृष्णिवंशके लोग तथा महाराज कुन्तिभोज भी कुन्तीके रक्षक एवं सहायक हैं। 
बहिन! पुत्रोंक॒ पालन-पोषणकी शक्ति जैसी आपमें है, वैसी मुझमें नहीं है। अत: मैं पतिका 
ही अनुगमन करना चाहती हूँ। पतिके संयोग-सुखसे मेरी तृप्ति भी नहीं हुई है। अत: आप 
बड़ी महारानीसे मेरी प्रार्थना है कि मुझे पतिलोकमें जानेकी आज्ञा दें। मैं वहीं धर्मज्ञ, कृतज्ञ, 
सत्यप्रतिज्ञ और बुद्धिमान पतिके चरणोंकी सेवा करूँगी। आर्ये! आप मेरी इस इच्छाका 
अनुमोदन करें। 

वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्‍्त्वा महाराज मद्रराजसुता शुभा । 

ददौ कुन्त्यै यमौ माद्री शिरसाभिप्रणम्य च ।। 

अभिवाद्य ऋषीन्‌ सर्वान्‌ परिष्वज्य च पाण्डवान्‌ | 

मूर्ध््युपाप्राय बहुश: पार्थानात्मसुतौ तथा ।। 

हस्ते युधिष्ठिरं गृह माद्री वाक्यमभाषत ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--महाराज! यों कहकर मद्रदेशकी राजकुमारी सती-साध्वी 
माद्रीने कुन्तीको प्रणाम करके अपने दोनों जुड़वें पुत्र उन्हींको सौंप दिये। तत्पश्चात्‌ उसने 
महर्षियोंको मस्तक नवाकर पाण्डवोंको हृदयसे लगा लिया और बारंबार कुन्तीके तथा 
अपने पुत्रोंके मस्तक सूँघकर युधिष्ठिरका हाथ पकड़कर कहा। 

माद्रयुवाच 

कुन्ती माता अहं धात्री युष्माकं तु पिता मृतः । 

युधिष्ठिर: पिता ज्येष्ठ श्नतुर्णा धर्मत: सदा ।। 

वृद्धानुशासने सक्ता: सत्यधर्मपरायणा: । 

तादृशा न विनश्यन्ति नैव यान्ति पराभवम्‌ ।। 

तस्मात्‌ सर्वे कुरुध्व॑ वै गुरुवृत्तिमतन्द्रिता: ।। 

माद्री बोली--बच्चो! कुन्तीदेवी ही तुम सबोंकी असली माता हैं, मैं तो केवल दूध 
पिलानेवाली धाय थी। तुम्हारे पिता तो मर गये। अब बड़े भैया युधिष्छिर ही धर्मतः तुम चारों 
भाइयोंके पिता हैं। तुम सब बड़े-बूढ़ों--गुरुजनोंकी सेवामें संलग्न रहना और सत्य एवं 
धर्मके पालनसे कभी मुँह न मोड़ना। ऐसा करनेवाले लोग कभी नष्ट नहीं होते और न कभी 
उनकी पराजय ही होती है। अतः तुम सब भाई आलस्य छोड़कर गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर 
रहना। 

वैशम्पायन उवाच 


ऋषीणां च पृथायाश्न नमस्कृत्य पुन: पुनः । 

आयासकृपणा माद्दी प्रत्युवाच पृथां तथा ।। 

धन्या त्वमसि वार्ष्णेयि नास्ति स्त्री सदृशी त्वया । 

वीर्य तेजश्न योगं च माहात्म्यं च यशस्विनाम्‌ ।। 

कुन्ति द्रक्ष्यसि पुत्राणां पज्चानाममितौजसाम्‌ | 

ऋषीणां संनिधावेषां मया वागभ्युदीरिता ।। 

स्वर्ग दिदृक्षमाणाया ममैषा न वृथा भवेत्‌ | 

आर्या चाप्यभिवाद्या च मम पूज्या च सर्वतः ।। 

ज्येष्ठा वरिष्ठा त्वं देवि भूषिता स्वगुणै: शुभै: । 

अभ्यनुज्ञातुमिच्छामि त्वया यादवनन्दिनि ।। 

धर्म स्वर्ग च कीर्ति च त्वत्कृतेडहमवाप्रुयाम्‌ । 

यथा तथा विधत्स्वेह मा च कार्षीविचारणाम्‌ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! तत्पश्चात्‌ माद्रीने ऋषियों तथा कुन्तीको बारंबार 
नमस्कार करके, कक्‍्लेशसे क्लान्त होकर कुन्तीदेवीसे दीनतापूर्वक कहा 
--वृष्णिकुलनन्दिनि! आप धन्य हैं। आपकी समानता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है; 
क्योंकि आपको इन अमिततेजस्वी तथा यशस्वी पाँचों पुत्रोंके बल, पराक्रम, तेज, योगबल 
तथा माहात्म्य देखनेका सौभाग्य प्राप्त होगा। मैंने स्वर्गलोकमें जानेकी इच्छा रखकर इन 
महर्षियोंक समीप जो यह बात कही है, वह कदापि मिथ्या न हो। देवि! आप मेरी गुरु, 
वन्दनीया तथा पूजनीया हैं; अवस्थामें बड़ी तथा गुणोंमें भी श्रेष्ठ हैं। समस्त नैसर्गिक 
सदगुण आपकी शोभा बढ़ाते हैं। यादवनन्दिनि! अब मैं आपकी आज्ञा चाहती हूँ। आपके 
प्रयत्नद्वारा जैसे भी मुझे धर्म, स्वर्ग तथा कीर्तिकी प्राप्ति हो, वैतला सहयोग आप इस 
अवसरपर करें। मनमें किसी दूसरे विचारको स्थान न दें'। 

बाष्पसंदिग्धया वाचा कुन्त्युवाच यशस्विनी ।। 

अनुज्ञातासि कल्याणि त्रिदिवे संगमो<स्तु ते । 

भर्त्रां सह विशालाश्षि क्षिप्रमद्यैव भामिनि ।। 

संगता स्वर्गलोके त्वं रमेथा: शाश्वती: समा: ।।) 

राज्ञ: शरीरेण सह ममापीदं कलेवरम्‌ । 

दग्धव्यं सुप्रतिच्छन्नमेतदार्ये प्रियं कुरु || २९ ।। 

तब यशस्विनी कुन्तीने बाष्पगद्गद वाणीमें कहा--“कल्याणि! मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी। 
विशाललोचने! तुम्हें आज ही स्वर्गलोकमें पतिका समागम प्राप्त हो। भामिनि! तुम स्वर्गमें 
पतिसे मिलकर अनन्त वर्षोतक प्रसन्न रहो।' 

माद्री बोली--“मेरे इस शरीरको महाराजके शरीरके साथ ही अच्छी प्रकार ढँककर 
दग्ध कर देना चाहिये। बड़ी बहिन! आप मेरा यह प्रिय कार्य कर दें | २९ ।। 


दारकेष्वप्रमत्ता च भवेथाशक्ष हिता मम । 
अतोजन्यन्न प्रपश्यामि संदेष्टव्यं हि किंचन ।। ३० ।। 
“मेरे पुत्रोंका हित चाहती हुई सावधान रहकर उनका पालन-पोषण करें। इसके सिवा 
दूसरी कोई बात मुझे आपसे कहनेयोग्य नहीं जान पड़ती” ।। ३० ।। 
वैशम्पायन उवाच 


इत्युक्त्वा तं चिताग्निस्थं धर्मपत्नी नरर्षभम्‌ । 

मद्रराजसुता तूर्णमन्वारोहदू यशस्विनी ।। ३१ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! कुन्तीसे यह कहकर पाण्डुकी यशस्विनी 
धर्मपत्नी माद्री चिताकी आगपर रखे हुए नरश्रेष्ठ पाण्डुके शवके साथ स्वयं भी चितापर जा 
बैठी || ३१ ।। 

(ततः पुरोहित: स्नात्वा प्रेतकर्मणि पारग: । 

हिरण्यशकलान्याज्यं तिलान्‌ दधि च तण्डुलान्‌ ।। 

उदकुम्भं सपरशुं समानीय तपस्विभि: । 

अश्वमेधाग्निमाहृत्य यथान्यायं समन्ततः ।। 

काश्यप: कारयामास पाण्डो: प्रेतस्य तां क्रियाम्‌ ।। 

तदनन्तर प्रेतकर्मके पारंगत विद्वान्‌ पुरोहित काश्यपने स्नान करके सुवर्णखण्ड, घृत, 
तिल, दही, चावल, जलसे भरा घड़ा और फरसा आदि वस्तुओंको एकत्र करके तपस्वी 
मुनियोंद्वारा अश्वमेधकी अग्नि मँगवायी और उसे चारों ओरसे चितासे छुलाकर यथायोग्य 
शास्त्रीय विधिसे पाण्डुका दाह-संस्कार करवाया। 

अहताम्बरसंवीतो भ्रातृभि: सहितो5नघ: । 

उदकं कृतवांस्तत्र पुरोहितमते स्थित: ।। 

अर्हतस्तस्य कृत्यानि शतशूड्ननिवासिन: । 

तापसा विधिवच्चक्रुश्नारणा ऋषिभि: सह ।।) 

भाइयोंसहित निष्पाप युधिष्ठिरने नूतन वस्त्र धारण करके पुरोहितकी आज्ञाके अनुसार 
जलांजलि देनेका कार्य पूरा किया। शतशृंगनिवासी तपस्वी मुनियों और चारणोंने 
आदरणीय राजा पाण्डुके परलोक-सम्बन्धी सब कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न किये। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डूपरमे 
चतुर्विशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डुके परलोकगमनविषयक 
एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२४ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५०६ श्लोक मिलाकर कुल ८१३६ *लोक हैं) 


भीकम (2 अमान 


पजञ्चविशर्त्याधिकशततमो< ध्याय: 


*आ ० और पाण्डवोंको लेकर हस्तिनापुर जाना 
उन्हें भीष्म आदिके हाथों सौंपना 


वैशम्पायन उवाच 
पाण्डोरुपरमं दृष्टवा देवकल्पा महर्षय: । 
ततो मन्त्रविद: सर्वे मन्त्रयांचक्रिरे मिथ: ।। १ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा पाण्डुकी मृत्यु हुई देख वहाँ रहनेवाले, 
देवताओंके समान तेजस्वी सम्पूर्ण मन्त्रज्ञ महर्षियोंने आपसमें सलाह की ।। १ ।। 
तापसा ऊचु 


हित्वा राज्यं च राष्ट्र च स महात्मा महायशा: । 

अस्मिन्‌ स्थाने तपस्तप्त्वा तापसाउ्शरणं गत: ।। २ ।। 

तपस्वी बोले--महान्‌ यशस्वी महात्मा राजा पाण्डु अपना राज्य तथा राष्ट्र छोड़कर 
इस स्थानपर तपस्या करते हुए तपस्वी मुनियोंकी शरणमें रहते थे ।। २ ।। 

स जातमात्रान पुत्रांश्व दारांश्न भवतामिह । 

प्रादायोपनिरधिं राजा पाण्डु: स्वर्गमितो गत: ।। ३ ।। 

वे राजा पाण्डु अपनी पत्नी और नवजात पुत्रोंकी आपलोगोंके पास धरोहर रखकर 
यहाँसे स्वर्गलोक चले गये ।। ३ ।। 

तस्येमानात्मजान्‌ देहं भारया च सुमहात्मन: । 

स्वराष्ट्र गृह गच्छामो धर्म एष हि नः स्मृतः ।। ४ ।। 

उनके इन पुत्रोंको, पाण्डु और माद्रीके शरीरोंकी अस्थियोंको तथा उन महात्मा 
नरेशकी महारानी कुन्तीको लेकर हमलोग उनकी राजधानीमें चलें। इस समय हमारे लिये 
यही धर्म प्रतीत होता है ।। ४ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


ते परस्परमामन्त्रय देवकल्पा महर्षय: । 

पाण्डो: पुत्रान्‌ पुरस्कृत्य नगरं नागसाह्दयम्‌ ।। ५ ।। 

उदारमनस: सिद्धा गमने चक्रिरे मन: । 

भीष्माय पाण्डवान्‌ दातुं धृतराष्ट्राय चैव हि || ६ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! इस प्रकार परस्पर सलाह करके उन देवतुल्य 
उदारचेता सिद्ध महर्षियोंने पाण्डवोंको भीष्म एवं धृतराष्ट्रके हाथों सौंप देनेके लिये 
पाण्डुपुत्रोंकोी आगे करके हस्तिनापुर नगरमें जानेका विचार किया ।। ५-६ ।। 


तस्मिन्नेव क्षणे सर्वे तानादाय प्रतस्थिरे । 

पाण्डोर्दारिंश् पुत्रांक्ष शरीरे ते च तापसा: ।। ७ ।। 

उन सब तपस्वी मुनियोंने पाण्डुपत्नी कुन्ती, पाँचों पाण्डवों तथा पाण्डु और माद्रीके 
शरीरकी अस्थियोंको साथ लेकर उसी क्षण वहाँसे प्रस्थान कर दिया ।। ७ ।। 

सुखिनी सा पुरा भूत्वा सततं पुत्रवत्सला । 

प्रपन्ना दीर्घमध्वानं संक्षिप्त तदमन्यत ।। ८ ।। 

पुत्रोपर सदा स्नेह रखनेवाली कुन्ती पहले बहुत सुख भोग चुकी थी, परंतु अब 
विपत्तिमें पड़कर बहुत लंबे मार्गपर चल पड़ी; तो भी उसने स्वदेश जानेकी उत्कण्ठा अथवा 
महर्षियोंके योगजनित प्रभावसे उस मार्गको अल्प ही माना ।। ८ ।। 

सा त्वदीर्घेण कालेन सम्प्राप्ता कुरुजाड्लम्‌ । 

वर्धमानपुरद्वारमाससाद यशस्विनी ।। ९ |। 

यशस्विनी कुन्ती थोड़े ही समयमें कुरुजांगल देशमें जा पहुँची और नगरके वर्धमान 
नामक द्वारपर गयी ।। ९ ।। 

द्वारिणं तापसा ऊचू राजानं च प्रकाशय । 

ते तु गत्वा क्षणेनैव सभायां विनिवेदिता: ।। १० ।। 

तब तपस्वी मुनियोंने द्वारपालसे कहा--'राजाको हमारे आनेकी सूचना दो!” 
द्वारपालने सभामें जाकर क्षणभरमें समाचार दे दिया || १० ।। 

त॑ चारणसहस्राणां मुनीनामागमं तदा । 

श्र॒त्वा नागपुरे नृणां विस्मय: समपद्यत ।। ११ ।। 

सहस्रों चारणोंसहित मुनियोंका हस्तिनापुरमें आगमन सुनकर उस समय वहाँके 
लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ ।। ११ ।। 

मुहूर्तोदित आदित्ये सर्वे बालपुरस्कृता: । 

सदारास्तापसान द्रष्टं निर्ययु: पुरवासिन: ।। १२ ।। 

दो घड़ी दिन चढ़ते-चढ़ते समस्त पुरवासी स्त्रियों और बालकोंको साथ लिये तपस्वी 
मुनियोंका दर्शन करनेके लिये नगरसे बाहर निकल आये ।। १२ ।। 

स्त्रीसड्घा: क्षत्रसड्घाश्व यानसड्घसमास्थिता: । 

ब्राह्मणैः सह निर्जम्मुत्राह्मिणानां च योषित: ।। १३ ।। 

झुंड-की-झुंड स्त्रियाँ और क्षत्रियोंके समुदाय अनेक सवारियोंपर बैठकर बाहर निकले। 
ब्राह्मणोंके साथ उनकी स्त्रियाँ भी नगरसे बाहर निकलीं ।। १३ ।। 

तथा विट्शूद्रसड्घानां महान्‌ व्यतिकरो5भवत्‌ | 

न कश्चिदकरोदीर्ष्यामभवन्‌ धर्मबुद्धयः ।। १४ ।। 

शूद्रों और वैश्योंके समुदायका बहुत बड़ा मेला जुट गया। किसीके मनमें ईष्याका भाव 
नहीं था। सबकी बुद्धि धर्ममें लगी हुई थी ।। १४ ।। 


तथा भीष्म: शान्तनव: सोमदत्तो5थ बाह्विक: । 

प्रज्ञाचक्षुश्न॒ राजर्षि: क्षत्ता च विदुर: स्वयम्‌ ।। १५ ।। 

इसी प्रकार शन्तनुनन्दन भीष्म, सोमदत्त, बाह्लीक, प्रज्ञाचक्षु राजर्षि धृतराष्ट्र, संजय 
तथा स्वयं विदुरजी भी वहाँ आ गये ।। १५ ।। 

सा च सत्यवती देवी कौसल्या च यशस्विनी । 

राजदारै: परिवृता गान्धारी चापि निर्यया ।। १६ ।। 

देवी सत्यवती, काशिराजकुमारी यशस्विनी कौसल्या तथा राजघरानेकी स्त्रियोंसे घिरी 
हुई गान्धारी भी अन्तःपुरसे निकलकर वहाँ आयीं ।। १६ ।। 

धृतराष्ट्रस्य दायादा दुर्योधनपुरोगमा: । 

भूषिता भूषणैश्षित्रै: शतसंख्या विनिर्ययु: ।॥ १७ ।। 

धृतराष्ट्रके दुर्योधन आदि सौ पुत्र विचित्र आभूषणोंसे विभूषित हो नगरसे बाहर 
निकले ।। १७ ।। 

तान्‌ महर्षिगणान्‌ दृष्टवा शिरोभिरभिवाद्य च । 

उपोपविविशु: सर्वे कौरव्या: सपुरोहिता: ।। १८ ।। 

उन महर्षियोंका दर्शन करके सबने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। फिर सभी कौरव 
पुरोहितके साथ उनके समीप बैठ गये ।। १८ ।। 

तथैव शिरसा भूमावभिवाद्य प्रणम्प च । 

उपोपविविशु: सर्वे पौरा जानपदा अपि ॥। १९ ।। 

इसी प्रकार नगर तथा जनपदके सब लोग भी धरतीपर माथा टेककर सबको 
अभिवादन और प्रणाम करके आसपास बैठ गये ।। १९ ।। 

तमकूजमभिकज्ञाय जनौघं सर्वशस्तदा । 

पूजयित्वा यथान्यायं पाद्येनाघ्येण च प्रभो ।। २० ।। 

भीष्मो राज्यं च राष्ट्र च महर्षिभ्यो न्‍न्यवेदयत्‌ । 

तेषामथो वृद्धतम: प्रत्युत्थाय जटाजिनी । 

ऋषीणां मतमाज्ञाय महर्षिरिदमब्रवीत्‌ ।। २१ ।। 

राजन्‌! उस समय वहाँ आये हुए समस्त जनसमुदायको चुपचाप बैठे देख भीष्मजीने 
पाद्य-अर्घ्य आदिके द्वारा सब महर्षियोंकी यथोचित पूजा करके उन्हें अपने राज्य तथा 
राष्ट्रका कुशल-समाचार निवेदन किया। तब उन महर्षियोंमें जो सबसे अधिक वृद्ध थे, वे 
जटा और मृगचर्म धारण करनेवाले मुनि अन्य सब ऋषियोंकी अनुमति लेकर इस प्रकार 
बोले--- || २०-२१ ।। 

य: स कौरव्य दायाद: पाण्डु्नाम नराधिप: । 

कामभोगान्‌ परित्यज्य शतशृड्भमितो गत: ॥। २२ ।। 

(स यथोक्तं तपस्तेपे तत्र मूलफलाशन: ।। 


पत्नीभ्यां सह धर्मात्मा कंचित्‌ कालमतन्द्रित: । 

तेन वृत्तसमाचारैस्तपसा च तपस्विन: । 

तोषितास्तापसास्तत्र शतशृुड्शनिवासिन: ।।) 

ब्रह्मचर्यव्रतस्थस्य तस्य दिव्येन हेतुना । 

साक्षाद्‌ धर्मादयं पुत्रस्तत्र जातो युधिछ्िर: || २३ ।। 

“कुरुनन्दन भीष्मजी! वे जो आपके पुत्र महाराज पाण्डु विषयभोगोंका परित्याग करके 
यहाँसे शतशंग पर्वतपर चले गये थे, उन धर्मात्माने वहाँ फल-मूल खाकर रहते हुए सावधान 
रहकर अपनी दोनों पत्नियोंके साथ कुछ कालतक शास्त्रोक्त विधिसे भारी तपस्या की। 
उन्होंने अपने उत्तम आचार-व्यवहार और तपस्यासे शतशुृंगनिवासी तपस्वी मुनियोंको 
संतुष्ट कर लिया था। वहाँ नित्य ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए महाराज पाण्डुको किसी 
दिव्य हेतुसे साक्षात्‌ धर्मराजद्वारा यह पुत्र प्राप्त हुआ है, जिसका नाम युधिष्छिर 
है | २२-२३ ।। 

तथैनं बलिनां श्रेष्ठ तस्य राज्ञो महात्मन: । 

मातरिश्वा ददौ पुत्र भीम॑ नाम महाबलम्‌ ।। २४ ।। 

“उसी प्रकार उन महात्मा राजाको साक्षात्‌ वायु देवताने यह महाबली भीम नामक पुत्र 
प्रदान किया है, जो समस्त बलवानोंमें श्रेष्ठ है ।। २४ ।। 

पुरुहृतादयं जज्ञे कुन्त्यामेव धनंजय: । 

यस्य कीर्तिमिहेष्वासान्‌ सर्वानभिभविष्यति ।। २५ ।। 

“यह तीसरा पुत्र धनंजय है, जो इन्द्रके अंशसे कुन्तीके ही गर्भसे उत्पन्न हुआ है। इसकी 
कीर्ति समस्त बड़े-बड़े धनुर्धरोंको तिरस्कृत कर देगी || २५ ।। 

यौ तु माद्री महेष्वासावसूत पुरुषोनमौ । 

अश्रिभ्यां पुरुषव्याप्राविमौ तावपि पश्यत ।। २६ ।। 

'माद्रीदेवीने अश्विनीकुमारोंसे जिन दो पुरुषरत्नोंको उत्पन्न किया है, वे ये ही दोनों 
महाधनुर्धर नरश्रेष्ठ हैं। इन्हें भी आपलोग देखें || २६ ।। 

(नकुल: सहदेवश्न तावप्यमिततेजसौ । 

पाण्डवौ नरशार्दूलाविमावपष्यपराजितौ ।।) 

चरता धर्मनित्येन वनवासं यशस्विना । 

नष्ट: पैतामहो वंश: पाण्डुना पुनरुद्धृत: | २७ ।। 

“इनके नाम हैं नकुल और सहदेव। ये दोनों भी अनन्त तेजसे सम्पन्न हैं। ये नरश्रेष्ठ 
पाण्डुकुमार भी किसीसे परास्त होनेवाले नहीं हैं। नित्य धर्ममें तत्पर रहनेवाले यशस्वी राजा 
पाण्डुने वनमें निवास करते हुए अपने पितामहके उच्छिन्न वंशका पुनः उद्धार किया 
है || २७ |। 

पुत्राणां जन्मवृद्धिं च वैदिकाध्ययनानि च । 


पश्यन्त: सततं पाण्डो: परां प्रीतिमवाप्स्यथ ।। २८ ।। 

'पाण्डुपुत्रोंके जन्म, उनकी वृद्धि तथा वेदाध्ययन आदि देखकर आपलोग सदा 
अत्यन्त प्रसन्न होंगे ।। २८ ।। 

वर्तमान: सतां वृत्ते पुत्रलाभमवाप्य च । 

पितृलोकं गत: पाण्डुरित: सप्तदशे5हनि ।। २९ ।। 

'साधु पुरुषोंके आचार-व्यवहारका पालन करते हुए राजा पाण्डु उत्तम पुत्रोंकी 
उपलब्धि करके आजसे सत्रह दिन पहले पितृलोकवासी हो गये ।। २९ ।। 

तं चितागतमाज्ञाय वैश्वानरमुखे हुतम्‌ । 

प्रविष्टा पावकं माद्री हित्वा जीवितमात्मन: ।। ३० ।। 

“जब वे चितापर सुलाये गये और उन्हें अग्निके मुखमें होम दिया गया, उस समय देवी 
माद्री अपने जीवनका मोह छोड़कर उसी अम्निमें प्रविष्ट हो गयी ।। ३० ।। 

सा गता सह तेनैव पतिलोकमनुव्रता । 

तस्यास्तस्य च यत्‌ कार्य क्रियतां तदनन्तरम्‌ ।। ३१ ।। 

“वह पतिव्रता देवी महाराज पाण्डुके साथ ही पतिलोकको चली गयी। अब आपलोग 
माद्री और पाण्डुके लिये जो कार्य आवश्यक समझें, वह करें ।। ३१ ।। 

(पृथां च शरणं प्राप्तां पाण्डवांश्व॒ यशस्विन: । 

यथावदनुगृह्नन्तु धर्मो होष सनातन: ।।) 

इमे तयो: शरीरे द्वे पुत्राश्नेमे तयोरवरा: । 

क्रियाभिरनुगृहान्तां सह मात्रा परंतपा: ।। ३२ ।। 

'शरणमें आयी हुई कुन्ती तथा यशस्वी पाण्डवोंको आपलोग यथोचित रूपसे 
अपनाकर अनुगृहीत करें; क्योंकि यही सनातन धर्म है। ये पाण्डु और माद्री दोनोंके 
शरीरोंकी अस्थियाँ हैं और ये ही उनके श्रेष्ठ पुत्र हैं, जो शत्रुओंको संतप्त करनेकी शक्ति 
रखते हैं। आप माद्री और पाण्डुकी श्राद्ध-क्रिया करनेके साथ ही मातासहित इन पुत्रोंको 
भी अनुगृहीत करें ।। ३२ ।। 

प्रेतकार्ये निवृत्ते तु पितृमेधं महायशा: । 

लभतां सर्वधर्मज्ञ: पाण्डु: कुरुकुलोद्वह: ।। ३३ ।। 

“सपिण्डीकरणपर्यन्त प्रेतकार्य निवृत्त हो जानेपर कुरुवंशके श्रेष्ठ पुरुष महायशस्वी एवं 
सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञाता पाण्डुको पितृमेध (यज्ञ)-का भी लाभ मिलना चाहिये” ।। ३३ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्‍त्वा कुरून्‌ सर्वान्‌ कुरूणामेव पश्यताम्‌ | 
क्षणेनान्तर्हिता: सर्वे तापसा गुह्र॒कः सह ।। ३४ ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! समस्त कौरवोंसे ऐसी बात कहकर उनके 
देखते-देखते वे सभी तपस्वी मुनि गुह्कोंके साथ क्षणभरमें वहाँसे अन्तर्धान हो 
गये ।। ३४ ।। 

गन्धर्वनगराकारं तथैवान्तर्तहितं पुन: । 

ऋषिसिद्धगणं दृष्टवा विस्मयं ते परं ययु: ।। ३५ ।। 

(कौरवा: सहसोत्पत्य साधु साध्विति विस्मिता: ।।) 

गन्धर्वनगरके समान उन महर्षियों और सिद्धोंके समुदायको इस प्रकार अन्तर्धान होते 
देख वे सभी कौरव सहसा उछलकर “साधु-साधु' ऐसा कहते हुए बड़े विस्मित 
हुए ।। ३५ |। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ऋषिसंवादे 
पजञ्चविंशत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १२५ |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें ऋषिसंवादाविषयक एक यौी 
पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२५ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ ३ श्लोक मिलाकर कुल ३९३ “लोक हैं) 


नफमशा+ (3) अमन न 


षड्विशरत्याधेकशततमो< ध्याय: 


पाण्डु और माद्रीकी अस्थियोंका दाह-संस्कार तथा भाई- 
बन्धुओंद्वारा उनके लिये जलांजलिदान 


धृतराष्ट उवाच 
पाण्डोर्विंदुर सर्वाणि प्रेतकार्याणि कारय । 
राजवद्‌ राजसिंहस्य माद्रयाश्रैव विशेषत: ।। १ ।। 
धृतराष्ट्र बोले--विदुर! राजाओंमें श्रेष्ठ पाण्डुके तथा विशेषतः माद्रीके भी समस्त 
प्रेतकार्य राजोचित ढंगसे कराओ ।। १ ।। 
पशून्‌ वासांसि रत्नानि धनानि विविधानि च । 
पाण्डो: प्रयच्छ माद्रयाश्न॒ येभ्यो यावच्च वाज्छितम्‌ ।। २ ।। 
यथा च कुन्ती सत्कारं कुर्यान्माद्रयास्तथा कुरु । 
यथा न वायुर्नादित्य: पश्येतां तां सुसंवृताम्‌ ।। ३ ।। 
पाण्डु और माद्रीके लिये नाना प्रकारके पशु, वस्त्र, रतन और धन दान करो। इस 
अवसरपर जिनको जितना चाहिये, उतना धन दो। कुन्तीदेवी माद्रीका जिस प्रकार सत्कार 
करना चाहें, वैसी व्यवस्था करो। माद्रीकी अस्थियोंको वस्त्रोंसे अच्छी प्रकार ढँक दो, 
जिससे उसे वायु तथा सूर्य भी न देख सकें ।। २-३ ।। 
न शोच्य: पाण्डुरनघ: प्रशस्य: स नराधिप: । 
यस्य पजञ्च सुता वीरा जाता: सुरसुतोपमा: ।। ४ ।। 
निष्पाप राजा पाण्डु शोचनीय नहीं, प्रशंसनीय हैं, जिन्हें देवकुमारोंके समान पाँच वीर 
पुत्र प्राप्त हुए हैं | ४ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


विदुरस्तं तथेत्युक्त्वा भीष्मेण सह भारत । 

पाण्डुं संस्कारयामास देशे परमपूजिते ।। ५ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! विदुरने धृतराष्ट्रसे “तथास्तु/ कहकर भीष्मजीके 
साथ परम पवित्र स्थानमें पाण्डुका अन्तिम-संस्कार कराया ।। ५ ।। 

ततस्तु नगरात्‌ तूर्णमाज्यगन्धपुरस्कृता: । 

निर्ह्वता: पावका दीप्ता: पाण्डो राजन्‌ पुरोहितैः ।। ६ ।। 

राजन! तदनन्तर शीघ्र ही पाण्डुका दाह-संस्कार करनेके लिये पुरोहितगण घृत और 
सुगन्ध आदिके साथ प्रज्वलित अग्नि लिये नगरसे बाहर निकले ।। ६ ।। 

अथैनामार्तवै: पुष्पैर्गन्धैश्व विविधैवरै: । 


शिबिकां तामलंकृत्य वाससा55च्छाद्य सर्वश: ।। ७ ।। 

इसके बाद वसन्त-ऋतुमें सुलभ नाना प्रकारके सुन्दर पुष्पों तथा श्रेष्ठ ग्रन्धोंसे एक 
शिबिका (वैकुण्ठी)-को सजाकर उसे सब ओरसे वस्त्रद्वारा ढँक दिया गया || ७ ।। 

तां तथा शोभितां माल्यैर्वासोभिश्व महाधनै: । 

अमात्या ज्ञातयश्रैनं सुहृदश्चषोपतस्थिरे | ८ ।। 

इस प्रकार बहुमूल्य वस्त्रों और पुष्पमालाओंसे सुशोभित उस शिबिकाके समीप मन्त्री, 
भाई-बन्धु और सुहृद-सम्बन्धी--सब लोग उपस्थित हुए ।। ८ ।। 

नृसिंहं नरयुक्तेन परमालंकृतेन तम्‌ । 

अवहन्‌ यानमुख्येन सह माद्र्या सुसंयतम्‌ ।। ९ ।। 

उसमें माद्रीके साथ पाण्डुकी अस्थियाँ भली-भाँति बाँधकर रखी गयी थीं। मनुष्योंद्वारा 
ढोई जानेवाली और अच्छी तरह सजायी हुई उस शिबिकाके द्वारा वे सभी बन्धु-बान्धव 
माद्रीसहित नरश्रेष्ठ पाण्डुकी अस्थियोंको ढोने लगे ।। ९ ।। 

पाण्डुरेणातपत्रेण चामरव्यजनेन च । 

सर्ववादित्रनादैश्व॒ समलंचक्रिरे तत: ।॥ १० || 

शिबिकाके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था। चँवर डुलाये जा रहे थे। सब प्रकारके बाजों- 
गाजोंसे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी ।। १० ।। 

रत्नानि चाप्युपादाय बहूनि शतशो नरा: । 

प्रददु: काड्क्षमाणेभ्य: पाण्डोस्तस्यौर्ध्वदेहिके || ११ ।॥ 

सैकड़ों मनुष्योंने उन महाराज पाण्डुके दाह-संस्कारके दिन बहुत-से रत्न लेकर 
याचकोंको दिये ।। ११ ।। 

अथच्छत्राणि शुभ्राणि चामराणि बृहन्ति च । 

आजहु: कौरवस्यार्थे वासांसि रुचिराणि च ।। १२ ।। 

इसके बाद कुरुराज पाण्डुके लिये अनेक श्वेत छत्र, बहुतेरे बड़े-बड़े चँवर तथा कितने 
ही सुन्दर-सुन्दर वस्त्र लोग वहाँ ले आये || १२ ।। 

याजकै: शुक्लवासोभिट्ठयमाना हुताशना: । 

अगच्छन्नग्रतस्तस्य दीप्यमाना: स्वलंकृता: ।। १३ ।। 

ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्राश्वैव सहस्रश: | 

रुदनत: शोकसंतप्ता अनुजम्मुर्नराधिपम्‌ ।। १४ ।। 

पुरोहितलोग सफेद वस्त्र धारण करके अग्निहोत्रकी अग्निमें आहुति डालते जाते थे। वे 
अग्नियाँ माला आदिसे अलंकृत एवं प्रज्वलित हो पाण्डुकी पालकीके आगे-आगे चल रही 
थीं। सहसों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र शोकसे संतप्त हो रोते हुए महाराज पाण्डुकी 
शिबिकाके पीछे जा रहे थे || १३-१४ ।। 

अयमस्मानपाहाय दु:खे चाधाय शाश्चते | 


कृत्वा चास्माननाथांश्व क्व यास्यति नराधिप: ।। १५ ।। 

वे कहते जाते थे--'हाय! ये महाराज हमलोगोंको छोड़कर, हमें सदाके लिये भारी 
दुःखमें डालकर और हम सबको अनाथ करके कहाँ जा रहे हैं! || १५ ।। 

क्रोशन्त: पाण्डवा: सर्वे भीष्मो विदुर एव च | 

रमणीये वनोद्देशे गज़ातीरे समे शुभे ।। १६ ।। 

न्यासयामासुरथ तां शिबिकां सत्यवादिन: । 

सभार्यस्य नृसिंहस्य पाण्डोरक्लिष्टकर्मण: ।। १७ ।। 

समस्त पाण्डव, भीष्म तथा विदुरजी क्रन्दन करते हुए जा रहे थे। वनके रमणीय 
प्रदेशमें गंगाजीके शुभ एवं समतल तटपर उन लोगोंने, अनायास ही महान्‌ पराक्रम 
करनेवाले सत्यवादी नरश्रेष्ठ पाण्डु और उनकी पत्नी माद्रीकी उस शिबिकाको 
रखा || १६-१७ || 

ततस्तस्य शरीरं तु सर्वगन्धाधिवासितम्‌ । 

शुचिकालीयकादिग्ध॑ दिव्यचन्दनरूषितम्‌ ॥। १८ ।। 

पर्यषिज्चञज्जलेनाशु शातकुम्भमयैर्घटै: । 

चन्दनेन च शुक्लेन सर्वतः समलेपयन्‌ ।। १९ ।। 

कालागुरुविमिश्रेण तथा तुड़्रसेन च । 

अथैनं देशजै: शुक्लैवासोभि: समयोजयन्‌ ।। २० || 

तदनन्तर राजा पाण्डुकी अस्थियोंको सब प्रकारकी सुगन्धोंसे सुवासित करके उनपर 
पवित्र काले अगरका लेप किया गया। फिर उन्हें दिव्य चन्दनसे चर्चित करके सोनेके 
कलशोंद्वारा लाये हुए गंगाजलसे भाई-बन्धुओंने उसका अभिषेक किया। तत्पश्चात्‌ उनपर 
सब ओरसे काले अगरसे मिश्रित तुंगरस नामक ग्रन्ध-द्रव्यका एवं श्वेत चन्दनका लेप किया 
गया। इसके बाद उन्हें सफेद स्वदेशी वस्त्रोंसे ढक दिया गया || १८--२० ।। 

संछन्न: स तु वासोभिर्जीवन्निव नराधिप: । 

शुशुभे स नरव्याप्रो महाहशयनोचित: ।। २१ ।। 

इस प्रकार बहुमूल्य शय्यापर शयन करनेयोग्य नरश्रेष्ठ राजा पाण्डुकी अस्थियाँ वस्त्रोंसे 
आच्छादित हो जीवित मनुष्यकी भाँति शोभा पाने लगीं || २१ ।। 

(हयमेधाग्निना सर्वे याजका: सपुरोहिता: । 

वेदोक्तेन विधानेन क्रियाश्चक्रु: समन्त्रकम्‌ ।।) 

याजकैरभ्यनुज्ञाते प्रेतकर्मण्यनुछिते । 

घृतावसिक्त राजानं सह माद्र्या स्वलंकृतम्‌ ।। २२ ।। 

समस्त याजकों और पुरोहितोंने अश्वमेधकी अग्निसे वेदोक्त विधिके अनुसार 
मन्त्रोच्चारणपूर्वक सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। याजकोंकी आज्ञा लेकर प्रेतकर्म आरम्भ करते 
समय माद्रीसहित अलंकारयुक्त राजाका घृतसे अभिषेक किया गया ।। २२ ।। 


तुड्पद्मकमिश्रेण चन्दनेन सुगन्धिना | 

अन्यैश्न विविधैर्गन्धर्विधिना समदाहयन्‌ ।। २३ ।। 

फिर तुंग और पद्मकमिश्रित सुगन्धित चन्दन तथा अन्य विविध प्रकारके गन्ध-द्रव्योंसे 
भाई-बन्धुओंने युधिष्लिरद्वारा विधिपूर्वक उन दोनोंका दाह-संस्कार कराया ।। २३ ।। 

ततस्तयो: शरीरे द्वे दृष्टया मोहवशं गता । 

हा हा पुत्रेति कौसल्या पपात सहसा भुवि ।। २४ ।। 

उस समय उन दोनोंकी अस्थियोंको देखकर माता कौसल्या (अम्बालिका) 'हा पुत्र! हा 
पुत्र!! कहती हुई सहसा मूर्च्छित हो पृथ्वीपर गिर पड़ी ।। २४ ।। 

तां प्रेक्ष्य पतितामार्ता पौरजानपदो जन: । 

रुरोद दुःखसंतप्तो राजभक्‍त्या कृपान्वित: ॥। २५ ।। 

उसे इस प्रकार शोकातुर हो भूमिपर पड़ी देख नगर और जनपदके लोग राजभक्ति 
तथा दयासे द्रवित एवं दुःखसे संतप्त हो फ़ूट-फूटकर रोने लगे || २५ ।। 

कुन्त्याश्वैवार्तनादेन सर्वाणि च विचुक्रुशु: । 

मानुषै: सह भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि ।। २६ ।। 

कुन्तीके आर्तनादसे मनुष्योंसहित समस्त पशु और पक्षी आदि प्राणी भी करुणक्रन्दन 
करने लगे || २६ ।। 

तथा भीष्म: शान्तनवो विदुरश्न महामतिः । 

सर्वश: कौरवाश्रैव प्राणदन्‌ भृशदु:ःखिता: ।। २७ ।। 

शन्तनुनन्दन भीष्म, परम बुद्धिमान्‌ विदुर तथा सम्पूर्ण कौरव भी अत्यन्त दुःखमें 
निमग्न हो रोने लगे || २७ ।। 

ततो भीष्मो5थ विदुरो राजा च सह पाण्डवै: । 

उदकं चक्रिरे तस्य सर्वाश्व कुरुयोषित: ।। २८ ।। 

तदनन्तर भीष्म, विदुर, राजा धृतराष्ट्र तथा पाण्डवोंके सहित कुरुकुलकी सभी स्त्रियोंने 
राजा पाण्डुके लिये जलांजलि दी ।। २८ ।। 

चुक्ुशु: पाण्डवा: सर्वे भीष्म: शान्तनवस्तथा । 

विदुरो ज्ञातयश्वैव चक्रुश्चाप्युदकक्रिया: ॥। २९ ।। 

उस समय सभी पाण्डव पिताके लिये रो रहे थे। शन्तनुनन्दन भीष्म, विदुर तथा अन्य 
भाई-बन्धुओंकी भी यही दशा थी। सबने जलांजलि देनेकी क्रिया पूरी की | २९ ।। 

कृतोदकांस्तानादाय पाण्डवाञ्छोककर्शितान्‌ । 

सर्वा: प्रकृतयो राजन्‌ शोचमाना न्यवारयन्‌ ।। ३० ।। 

जलांजलिदान करके शोकसे दुर्बल हुए पाण्डवोंको साथ ले मन्त्री आदि सब लोग स्वयं 
भी दुःखी हो उन सबको समझा-बुझाकर शोक करनेसे रोकने लगे ।। ३० ।। 

यथैव पाण्डवा भूमौ सुषुपु: सह बान्धवै: । 


तथैव नागरा राजन्‌ शिश्यिरे ब्राह्मणादय: ।। ३१ ।। 

तद्गतानन्दमस्वस्थमाकुमारमहृष्टवत्‌ । 

बभूव पाण्डवै: सार्ध नगरं द्वादश क्षपा: ।। ३२ ।। 

राजन! बारह रात्रियोंतक जिस प्रकार बन्धु-बान्धवों-सहित पाण्डव भूमिपर सोये, उसी 
प्रकार ब्राह्मण आदि नागरिक भी धरतीपर ही सोते रहे। उतने दिनोंतक हस्तिनापुर नगर 
पाण्डवोंके साथ आनन्द और हर्षोल्लाससे शून्य रहा। बूढ़ोंसे लेकर बच्चेतक सभी वहाँ 
दुःखमें डूबे रहे। सारा नगर ही अस्वस्थचित्त हो गया था ।। ३१-३२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डुदाहे 
षड्विंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२६ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डुके दाहसंस्कारसे सम्बन्ध 
रखनेवाला एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १२६ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३३ श्लोक हैं) 


सप्तविशर्त्याधिकशततमो< ध्याय: 


पाण्डवों तथा धृतराष्ट्रपुत्रोंकी बालक्रीड़ा, दुर्योधनका 
भीमसेनको विष खिलाना तथा गंगामें ढकेलना और 
भीमका नागलोकमें पहुँचकर आठ कुण्डोंके दिव्य रसका 
पान करना 


वैशम्पायन उवाच 

ततः कुन्ती च राजा च भीष्मश्न सह बन्धुभि: । 

ददुः श्राद्ध तदा पाण्डो: स्वधामृतमयं तदा ।॥। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर कुन्ती, राजा धृतराष्ट्र तथा बन्धुओंसहित 
भीष्मजीने पाण्डुके लिये उस समय अमृतस्वरूप स्वधामय श्राद्धदान किया ।। १ ।। 

कुरुंशश्च॒ विप्रमुख्यांश्व भोजयित्वा सहस्रश: । 

रत्नौघान्‌ विप्रमुख्येभ्यो दत्त्वा ग्रामवरांस्तथा ।। २ ।। 

उन्होंने समस्त कौरवों तथा सहसौ्रों मुख्य-मुख्य ब्राह्मगोंको भोजन कराकर उन्हें 
रत्नोंके ढेर तथा उत्तम-उत्तम गाँव दिये ।। २ ।। 

कृतशौचांस्ततस्तांस्तु पाण्डवान्‌ भरतर्षभान्‌ । 

आदाय विविशु: सर्वे पुरं वारणसाह्नयम्‌ ।। ३ ।। 

मरणाशौचसे निवृत्त होकर भरतवंशशिरोमणि पाण्डवोंने जब शुद्धिका स्नान कर 
लिया, तब उन्हें साथ लेकर सबने हस्तिनापुर नगरमें प्रवेश किया ।। ३ ।। 

सततं स्मानुशोचन्तस्तमेव भरतर्षभम्‌ | 

पौरजानपदा: सर्वे मृतं स्‍्वमिव बान्धवम्‌ ।। ४ ।। 

नगर और जनपदके सभी लोग मानो कोई अपना ही भाई-बन्धु मर गया हो, इस प्रकार 
उन भरतकुलतिलक पाण्डुके लिये निरन्तर शोकमग्न हो गये ।। ४ ।। 

भ्राद्धावसाने तु तदा दृष्टवा तं दु:खितं जनम्‌ । 

सम्मूढां दुःखशोकार्ता व्यासो मातरमब्रवीत्‌ ।। ५ ।। 

श्राद्धकी समाप्तिपर सब लोगोंको दुःखी देखकर व्यासजीने दुःख-शोकसे आतुर एवं 
मोहमें पड़ी हुई माता सत्यवतीसे कहा-- || ५ ।। 

अतिक्रान्तसुखा: काला: पर्युपस्थितदारुणा: । 

श्रः श्र: पापिष्ठदिवसा: पृथिवी गतयौवना ।। ६ ।। 

“माँ! अब सुखके दिन बीत गये। बड़ा भयंकर समय उपस्थित होनेवाला है। उत्तरोत्तर 
बुरे दिन आ रहे हैं। पृथ्वीकी जवानी चली गयी ।। ६ ।। 


बहुमायासमाकीर्णो नानादोषसमाकुल: । 

लुप्तधर्मक्रियाचारो घोर: कालो भविष्यति ॥। ७ ।। 

“अब ऐसा भयंकर समय आयेगा, जिसमें सब ओर छल-कपट और मायाका बोलबाला 
होगा। संसारमें अनेक प्रकारके दोष प्रकट होंगे और धर्म-कर्म तथा सदाचारका लोप हो 
जायगा” ।। ७ || 

कुरूणामनयाच्चापि पृथिवी न भविष्यति । 

गच्छ त्वं योगमास्थाय युक्ता वस तपोवने ।। ८ ।। 

“दुर्योधन आदि कौरवोंके अन्यायसे सारी पृथ्वी वीरोंसे शून्य हो जायगी; अतः तुम 
योगका आश्रय लेकर यहाँसे चली जाओ और योगपरायण हो तपोवनमें निवास 
करो ।। ८ ।। 

मा द्राक्षीस्त्वं कुलस्यास्य घोरं संक्षयमात्मन: । 

तथेति समनुज्ञाय सा प्रविश्याब्रवीत्‌ स्नुषाम्‌ ।। ९ ।। 

“तुम अपनी आँखोंसे इस कुलका भयंकर संहार न देखो।” तब व्यासजीसे “तथास्तु/ 
कहकर सत्यवती अंदर गयी और अपनी पुत्रवधूसे बोली-- ।। ९ ।। 

अम्बिके तव पौत्रस्य दुर्नयात्‌ किल भारता: । 

सानुबन्धा विनडृशक्ष्यन्ति पौराश्चैवेति नः श्रुतम्‌ ।। १० ।। 

“अम्बिके! तुम्हारे पौत्रके अन्यायसे भरतवंशी वीर तथा इस नगरके लोग सगे- 
सम्बन्धियोंसहित नष्ट हो जायँगे--ऐसी बात मैंने सुनी है ।। १० ।। 

तत्‌ कौसल्यामिमामार्ता पुत्रशोकाभिपीडिताम्‌ | 

वनमादाय भद्रं ते गच्छामि यदि मन्यसे ।। ११ ।। 

“अतः तुम्हारी राय हो, तो पुत्रशोकसे पीड़ित इस दुःखिनी अम्बालिकाको साथ ले मैं 
वनमें चली जाऊँ। तुम्हारा कल्याण हो” || ११ ।। 

तथेत्युक्ता त्वम्बिकया भीष्ममामन्त्रय सुव्रता । 

वन॑ ययौ सत्यवती स्नुषाभ्यां सह भारत ।। १२ ।। 

अम्बिका भी “तथास्तु” कहकर साथ जानेको तैयार हो गयी। जनमेजय! फिर उत्तम 
व्रतका पालन करनेवाली सत्यवती भीष्मजीसे पूछकर अपनी दोनों पतोहुओंको साथ ले 
वनको चली गयी ।। १२ ।। 

ता: सुघोरं तपस्तप्त्वा देव्यो भरतसत्तम । 

देहं त्यक्त्वा महाराज गतिमिष्टां ययुस्तदा ।। १३ ।। 

भरतवंशशिरोमणि महाराज जनमेजय! तब वे देवियाँ वनमें अत्यन्त घोर तपस्या करके 
शरीर त्यागकर अभीष्ट गतिको प्राप्त हो गयीं ।। १३ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


अथाप्तवन्तो वेदोक्तान्‌ संस्कारान्‌ पाण्डवास्तदा | 

संव्यवर्धन्त भोगांस्ते भुज्जाना: पितृवेश्मनि ।। १४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! उस समय पाण्डवोंके वेदोक्त (समावर्तन आदि) 
संस्कार हुए। वे पिताके घरमें नाना प्रकारके भोग भोगते हुए पलने और पुष्ट होने 
लगे ।। १४ ।। 

धार्तराष्ट्रश्न सहिता: क्रीडन्तो मुदिता: सुखम्‌ । 

बालक्रीडासु सर्वासु विशिष्टास्तेजसा भवन्‌ ।। १५ ।। 

धृतराष्ट्रके पुत्रोंके साथ सुखपूर्वक खेलते हुए वे सदा प्रसन्न रहते थे। सब प्रकारकी 
बालक्रीड़ाओंमें अपने तेजसे वे बढ़-चढ़कर सिद्ध होते थे || १५ ।। 

जवे लक्ष्याभिहरणे भोज्ये पांसुविकर्षणे | 

धार्तराष्ट्रान भीमसेन: सर्वान्‌ स परिमर्दति ।। १६ ।। 

दौड़नेमें, दूर रखी हुई किसी प्रत्यक्ष वस्तुको सबसे पहले पहुँचकर उठा लेनेमें, खान- 
पानमें तथा धूल उछालनेके खेलमें भीमसेन धृतराष्ट्रके सभी पुत्रोंका मानमर्दन कर डालते 
थे।। १६ |। 

हर्षात्‌ प्रक्रीडमानांस्तान्‌ गृह राजन्‌ निलीयते । 

शिर:सु विनिगृहौतान्‌ योधयामास पाण्डवै: ।। १७ ।। 

शतमेकोत्तरं तेषां कुमाराणां महौजसाम्‌ | 

एक एव निगृह्नाति नातिकृच्छाद्‌ वृकोदर: ।। १८ ।। 

कचेषु च निगृहौनान्‌ विनिहत्य बलाद्‌ बली | 

चकर्ष क्रोशतो भूमौ घृष्टजानुशिरोंड्सकान्‌ ।। १९ ।। 

राजन! हर्षसे खेल-कूदमें लगे हुए उन कौरवोंको पकड़कर भीमसेन कहीं छिप जाते 
थे। कभी उनके सिर पकड़कर पाण्डवोंसे लड़ा देते थे। धृतराष्ट्रके एक सौ एक कुमार बड़े 
बलवान थे; किंतु भीमसेन बिना अधिक कष्ट उठाये अकेले ही उन सबको अपने वशमें कर 
लेते थे। बलवान्‌ भीम उनके बाल पकड़कर बलपूर्वक उन्हें एक-दूसरेसे टकरा देते और 
उनके चीखने-चिल्लानेपर भी उन्हें धरतीपर घसीटते रहते थे। उस समय उनके घुटने, 
मस्तक और कंधे छिल जाया करते थे || १७--१९ ।। 

दश बालाज्जले क्रीडन्‌ भुजाभ्यां परिगृहार सः । 

आस्ते सम सलिले मग्नो मृतकल्पान्‌ विमुड्चति ।। २० ।। 

वे जलमें क्रीड़ा करते समय अपनी दोनों भुजाओंसे धृतराष्ट्रके दस बालकोंको पकड़ 
लेते और देरतक पानीमें गोते लगाते रहते थे। जब वे अधमरे-से हो जाते, तब उन्हें छोड़ते 
थे ।। २० |। 

फलानि वृक्षमारुह् विचिन्वन्ति च ते तदा । 

तदा पादप्रहारेण भीम: कम्पयते द्रुमान्‌ ।। २१ ।। 


जब कौरव वृक्षपर चढ़कर फल तोड़ने लगते, तब भीमसेन पैरसे ठोकर मारकर उन 
पेड़ोंको हिला देते थे || २१ ।। 

प्रहारवेगाभिहता द्रुमा व्याघूर्णितास्तत: । 

सफलाः: प्रपतन्ति स्म द्रुतं त्रस्ता: कुमारका: ।। २२ ।। 

उनके वेगपूर्वक प्रहारसे आहत हो वे वृक्ष हिलने लगते और उनपर चढ़े हुए 
धृतराष्ट्रकुमार भयभीत हो फलोंसहित नीचे गिर पड़ते थे || २२ ।। 

न ते नियुद्धे न जवे न योग्यासु कदाचन | 

कुमारा उत्तरं चक्कुः स्पर्धभाना वृकोदरम्‌ ।। २३ ।। 

कुश्तीमें, दौड़ लगानेमें तथा शिक्षाके अभ्यासमें धृतराष्ट्रकुमार सदा लाग-डाँट रखते 
हुए भी कभी भीमसेनकी बराबरी नहीं कर पाते थे ।। २३ ।। 

एवं स धारतराष्ट्रां क्ष स्पर्धभानो वृकोदर: । 

अप्रियेडतिष्ठदत्यन्तं बाल्यान्न द्रोहचेतसा ।। २४ ।। 

इसी प्रकार भीमसेन भी धृतराष्ट्रपुत्रोंसे स्पर्धा रखते हुए उनके अत्यन्त अप्रिय कार्योमें 
ही लगे रहते थे। परंतु उनके मनमें कौरवोंके प्रति द्वेष नहीं था, वे बाल-स्वभावके कारण ही 
वैसा करते थे ।। २४ ।। 

ततो बलमतिख्यात॑ धारतराष्ट्र: प्रतापवान्‌ । 

भीमसेनस्य तज्ज्ञात्वा दुष्टरभावमदर्शयत्‌ ।। २५ ।। 

तब धृतराष्ट्रका प्रतापी पुत्र दुर्योधन यह जानकर कि भीमसेनमें अत्यन्त विख्यात बल 
है, उनके प्रति दुष्टभाव प्रदर्शित करने लगा ।। २५ ।। 

तस्य धर्मादपेतस्य पापानि परिपश्यत: । 

मोहादैश्वर्यलोभाच्च पापा मतिरजायत ।। २६ |। 

वह सदा धर्मसे दूर रहता और पापकर्मोंपर ही दृष्टि रखता था। मोह और ऐश्वर्यके 
लोभसे उसके मनमें पापपूर्ण विचार भर गये थे ।। २६ ।। 

अयं बलवतां श्रेष्ठ: कुन्तीपुत्रो वृकोदर: । 

मध्यम: पाण्डुपुत्राणां निकृत्या संनिगृह्मुताम्‌ ।। २७ ।। 

वह अपने भाइयोंके साथ विचार करने लगा कि “यह मध्यम पाण्डुपुत्र कुन्तीनन्दन 
भीम बलवानोंमें सबसे बढ़कर है। इसे धोखा देकर कैद कर लेना चाहिये || २७ ।। 

प्राणवान्‌ विक्रमी चैव शौर्येण महतान्वित: । 

स्पर्थते चापि सहितानस्मानेको वृकोदर: ।। २८ ।। 

“यह बलवान्‌ और पराक्रमी तो है ही, महान्‌ शौर्यसे भी सम्पन्न है। भीमसेन अकेला ही 
हम सब लोगोंसे होड़ बद लेता है || २८ ।। 

तं तु सुप्तं पुरोद्याने गड्जायां प्रक्षिपामहे । 

अथ तस्मादवरजं श्रेष्ठ चैव युधिष्ठिरम्‌ ।। २९ ।। 


प्रसह बन्धने बद्ध्वा प्रशासिष्ये वसुंधराम्‌ । 

एवं स निश्चयं पाप: कृत्वा दुर्योधनस्तदा । 

नित्यमेवान्तरप्रेक्षी भीमस्यासीन्महात्मन: | ३० ।। 

“इसलिये नगरोद्यानमें जब वह सो जाय, तब उसे उठाकर हमलोग गंगाजीमें फेंक दें। 
इसके बाद उसके छोटे भाई अर्जुन और बड़े भाई युधिष्ठिरको बलपूर्वक कैदमें डालकर मैं 
अकेला ही सारी पृथ्वीका शासन करूँगा।' 

ऐसा निश्चय करके पापी दुर्योधन महात्मा भीमसेनका अनिष्ट करनेके लिये सदा मौका 
ढूँढ़ता रहता था || २९-३० ।। 

ततो जलविहारार्थ कारयामास भारत | 

चैलकम्बलवेश्मानि विचित्राणि महान्ति च ।। ३३ ।। 

जनमेजय! तदनन्तर दुर्योधनने गंगातटपर जल-विहारके लिये ऊनी और सूती 
कपड़ोंके विचित्र एवं विशाल गृह तैयार कराये ।। ३१ ।। 

सर्वकामै: सुपूर्णानि पताकोच्छायवन्ति च । 

तत्र संजनयामास नानागाराण्यनेकश: ।। ३२ ।। 

वे गृह सब प्रकारकी अभीष्ट सामग्रियोंसे भरे-पूरे थे। उनके ऊपर ऊँची-ऊँची पताकाएँ 
फहरा रही थीं। उनमें उसने अलग-अलग अनेक प्रकारके बहुत-से कमरे बनवाये 
थे ।। ३२ ।। 

उदकक्रीडनं नाम कारयामास भारत | 

प्रमाणकोट्यां तं देशं स्थलं किंचिदुपेत्य ह ।। ३३ ।। 

भारत! गंगातटवर्ती प्रमाणकोटि तीर्थमें किसी स्थानपर जाकर दुर्योधनने यह सारा 
आयोजन करवाया था। उसने उस स्थानका नाम रखा था उदकक्रीडन ।। ३३ ॥। 

भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च चोष्यं लेहुमथापि च । 

उपपादितं नरैस्तत्र कुशलै: सूदकर्मणि ।। ३४ ।। 

वहाँ रसोईके काममें कुशल कितने ही मनुष्योंने जुटकर खाने-पीनेके बहुत-से भक्ष्य, 
भोज्यर, पेयर, चोष्य* और लेह्यः पदार्थ तैयार किये ।। ३४ ।। 

न्यवेदयंस्तत्‌ पुरुषा धार्तराष्ट्राय वै तदा । 

ततो दुर्योधनस्तत्र पाण्डवानाह दुर्मति: ।। ३५ ।। 

तदनन्तर राजपुरुषोंने दुर्योधनको सूचना दी कि “सब तैयारी पूरी हो गयी है।' तब 
खोटी बुद्धिवाले दुर्योधनने पाण्डवोंसे कहा-- ।। ३५ ।। 

गड्जां चैवानुयास्याम उद्यानवनशोभिताम्‌ | 

सहिता भ्रातर: सर्वे जलक्रीडामवाप्नुम: ।। ३६ ।। 


“आज हमलोग भाँति-भाँतिके उद्यान और वनोंसे सुशोभित गंगाजीके तटपर चलें। वहाँ 
हम सब भाई एक साथ जलविहार करेंगे” || ३६ ।। 

एवमस्त्विति तं चापि प्रत्युवाच युधिष्ठिर: । 

ते रथैर्नगराकारैदेशजैक्ष गजोत्तमै: ।। ३७ ।। 

निर्ययुर्नगराच्छूरा: कौरवा: पाण्डवै: सह | 

उद्यानवनमासाद्य विसृज्य च महाजनम्‌ ।। ३८ ।। 

विशन्ति सम तदा वीरा: सिंहा इव गिरेगुहाम्‌ | 

उद्यानमभिपश्यन्तो भ्रातर: सर्व एव ते ।। ३९ ।। 

यह सुनकर युधिष्ठिरने 'एवमस्तु” कहकर दुर्योधनकी बात मान ली। फिर वे सभी 
शूरवीर कौरव पाण्डवोंके साथ नगराकार रथों तथा स्वदेशमें उत्पन्न श्रेष्ठ हाथियोंपर सवार 
हो नगरसे निकले और उद्यान-वनके समीप पहुँचकर साथ आये हुए प्रजावर्गके बड़े-बड़े 
लोगोंको विदा करके जैसे सिंह पर्वतकी गुफामें प्रवेश करे, उसी प्रकार वे सब वीर भ्राता 
उद्यानकी शोभा देखते हुए उसमें प्रविष्ट हुए || ३७--३९ ।। 

उपस्थानगहै: शुभ्रेवलभीभिश्न शोभितम्‌ । 

गवाक्षकैस्तथा जालैर्यन्त्रै: सांचारिकेरपि ।। ४० ।। 

सम्मार्जितं सौधकारैश्षित्रकारैश्व चित्रितम्‌ । 

दीर्घिकाभिश्न पूर्णाभिस्तथा पद्माकरैरपि ।। ४१ ।। 

जल तच्छुशुभे छन्न॑ फुल्लैर्जलरुहैस्तथा । 

उपच्छन्ना वसुमती तथा पुष्पैर्यथर्तुकै: ।। ४२ ।। 

वह उद्यान राजाओंकी गोष्ठी और बैठकके स्थानोंसे, श्वेत वर्णके छज्जोंसे, जालियों 
और झरोखोंसे तथा इधर-उधर ले जानेयोग्य जलवर्षक यन्त्रोंसे सुशोभित हो रहा था। महल 
बनानेवाले शिल्पियोंने उस उद्यान एवं क्रीड़ाभवनको झाड़-पोंछकर साफ कर दिया था। 
चित्रकारोंने वहाँ चित्रकारी की थी। जलसे भरी बावलियों तथा तालाबोंद्वारा उसकी बड़ी 
शोभा हो रही थी। खिले हुए कमलोंसे आच्छादित वहाँका जल बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। 
ऋतुके अनुकूल खिलकर झड़े हुए फूलोंसे वहाँकी सारी पृथ्वी ढँक गयी थी || ४०--४२ ।। 

तत्रोपविष्टास्ते सर्वे पाण्डवा: कौरवाश्न ह । 

उपपन्नान्‌ बहून्‌ कामांस्ते भुज्जन्ति ततस्ततः ।। ४३ ।। 

वहाँ पहुँचकर समस्त कौरव और पाण्डव यथायोग्य स्थानोंपर बैठ गये और स्वतः 
प्राप्त हुए नाना प्रकारके भोगोंका उपभोग करने लगे ।। ४३ ।। 

अथोयद्यानवरे तस्मिंस्तथा क्रीडागताश्न ते । 

परस्परस्य वक्त्रेभ्यो ददुर्भक्ष्यांस्ततस्तत: ।। ४४ ।। 

ततो दुर्योधन: पापस्तद्धक्ष्ये कालकूटकम्‌ । 

विषं प्रक्षेपपामास भीमसेनजिघांसया ।। ४५ ।। 


तदनन्तर उस सुन्दर उद्यानमें क्रीड़ाके लिये आये हुए कौरव और पाण्डव एक-दूसरेके 
मुँहमें खानेकी वस्तुएँ डालने लगे। उस समय पापी दुर्योधनने भीमसेनको मार डालनेकी 
इच्छासे उनके भोजनमें कालकूट नामक विष डलवा दिया || ४४-४५ ।। 

स्वयमुत्थाय चैवाथ हृदयेन क्षुरोपम: । 

स वाचामृतकल्पश्च भ्रातृवच्च सुहृदू यथा ।। ४६ ।। 

स्वयं प्रक्षिपते भक्ष्यं बहु भीमस्य पापकृत्‌ 

प्रतीच्छितं सम भीमेन त॑ं वै दोषमजानता ।। ४७ ।। 

ततो दुर्योधनस्तत्र हृदयेन हसन्निव | 

कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यते पुरुषाधम: ।। ४८ ।। 

उस पापात्माका हृदय छूरेके समान तीखा था; परंतु बातें वह ऐसी करता था, मानो 
उनसे अमृत झर रहा हो। वह सगे भाई और हितैषी सुहृदकी भाँति स्वयं भीमसेनके लिये 
भाँति-भाँतिके भक्ष्य पदार्थ परोसने लगा। भीमसेन भोजनके दोषसे अपरिचित थे; अतः 
दुर्योधनने जितना परोसा, वह सब-का-सब खा गये। यह देख नीच दुर्योधन मन-ही-मन 
हँसता हुआ-सा अपने-आपको कृतार्थ मानने लगा || ४६--४८ ।। 

ततस्ते सहिता: सर्वे जलक्रीडामकुर्वत । 

पाण्डवा धार्तराष्ट्रश्न तदा मुदितमानसा: ।। ४९ |। 

तब भोजनके पश्चात्‌ पाण्डव तथा धुतराष्ट्रके पुत्र सभी प्रसन्नचित्त हो एक साथ 
जलक्रीड़ा करने लगे || ४९ ।। 





क्रीडावसाने ते सर्वे शुचिवस्त्रा: स्वलंकृता: । 

दिवसान्ते परिश्रान्ता विहृत्य च कुरूद्वहा: ।। ५० ।। 

विहारावसथेष्वेव वीरा वासमरोचयन्‌ । 

खिन्नस्तु बलवान्‌ भीमो व्यायम्याभ्यधिकं तदा ।। ५१ |।। 

जलक्रीड़ा समाप्त होनेपर दिनके अन्तमें विहारसे थके हुए वे समस्त कुरुश्रेष्ठ वीर शुद्ध 
वस्त्र धारणकर सुन्दर आभूषणोंसे विभूषित हो उन क्रीड़ाभवनोंमें ही रात बितानेका विचार 
करने लगे। बलवान्‌ भीमसेन उस समय अधिक परिश्रम करनेके कारण बहुत थक गये 
थे ।। ५०-५१ || 

वाहयित्वा कुमारांस्ताञ्जलक्रीडागतांस्तदा । 

प्रमाणकोट्यां वासार्थी सुष्वापावाप्य तत्‌ स्थलम्‌ ।। ५२ ।। 

वे जलक्रीड़ाके लिये आये हुए उन कुमारोंको साथ लेकर विश्राम करनेकी इच्छासे 
प्रमाणकोटिके उस गृहमें आये और वहीं एक स्थानमें सो गये ।। ५२ ।। 

शीतं वातं समासाद्य श्रान्तो मदविमोहित: । 

विषेण च परीताड़्रो निश्रैष्ट: पाण्डुनन्दन: ।। ५३ ।। 

पाण्डुनन्दन भीम थके तो थे ही, विषके मदसे भी अचेत हो रहे थे। उनके अंग-अंगमें 
विषका प्रभाव फैल गया था। अतः वहाँ ठंडी हवा पाकर ऐसे सोये कि जडके समान निश्रेष्ट 


प्रतीत होने लगे || ५३ ।। 

ततो बद्ध्वा लतापाशैर्भीम॑ दुर्योधन: स्वयम्‌ | 

मृतकल्पं तदा वीर॑ स्थलाज्जलमपातयत्‌ ।। ५४ ।। 

तब दुर्योधनने स्वयं लताओंके पाशमें वीरवर भीमको कसकर बाँधा। वे मुर्देके समान 
हो रहे थे। फिर उसने गंगाजीके ऊँचे तटसे उन्हें जलमें ढकेल दिया ।। ५४ ।। 

स निःसज्रो जलस्यान्तमथ वै पाण्डवोडविशत्‌ । 

आक्रामन्नागभवने तदा नागकुमारकान्‌ ।। ५५ |। 

ततः समेत्य बहुभिस्तदा नागैर्महाविषै: । 

अदश्यत भृशं भीमो महादंष्टविषोल्बणै: || ५६ ।। 

भीमसेन बेहोशीकी ही दशामें जलके भीतर डूबकर नागलोकमें जा पहुँचे। उस समय 
कितने ही नागकुमार उनके शरीरसे दब गये। तब बहुत-से महाविषधर नागोंने मिलकर 
अपनी भयंकर विषवाली बड़ी-बड़ी दाढ़ोंसे भीमसेनको खूब डँसा ।। ५५-५६ ।। 

ततो<स्य दश्यमानस्य तद्‌ विषं कालकूटकम्‌ | 

हतं सर्पविषेणैव स्थावरं जड़मेन तु ।। ५७ ।। 

उनके द्वारा डँसे जानेसे कालकूट विषका प्रभाव नष्ट हो गया। सर्पोंके जंगम विषने 
खाये हुए स्थावर विषको हर लिया ।। ५७ || 

दंष्टाश्न देष्टिणां तेषां मर्मस्वपि निपातिता: । 

त्वचं नैवास्य बिभिदु: सारत्वात्‌ पृथुवक्षस: ।। ५८ ।। 

चौड़ी छातीवाले भीमसेनकी त्वचा लोहेके समान कठोर थी; अतः यद्यपि उनके 
मर्मस्थानोंमें सर्पोने दाँत गड़ाये थे, तो भी वे उनकी त्वचाको भेद न सके ।। ५८ ।। 

ततः प्रबुद्ध: कौन्तेय: सर्व संछिद्य बन्धनम्‌ | 

पोथयामास तान्‌ सर्वान्‌ केचिद्‌ भीताः: प्रदुद्रुवु: ।॥ ५९ ।। 

तत्पश्चात्‌ कुन्तीनन्दन भीम जाग उठे। उन्होंने अपने सारे बन्धनोंको तोड़कर उन सभी 
सर्पोंको पकड़-पकड़कर धरतीपर दे मारा। कितने ही सर्प भयके मारे भाग खड़े 
हुए ।। ५९ |। 

हतावशेषा भीमेन सर्वे वासुकिम भ्ययु: । 

ऊचुश्न सर्पराजानं वासुकिं वासवोपमम्‌ ।। ६० ।। 

भीमके हाथों मरनेसे बचे हुए सभी सर्प इन्द्रके समान तेजस्वी नागराज वासुकिके 
समीप गये और इस प्रकार बोले--- || ६० ।। 

अयं नरो वै नागेन्द्र हप्सु बद्ध्वा प्रवेशित: । 

यथा च नो मतिर्वीर विषपीतो भविष्यति ।। ६१ ।। 

“नागेन्द्र! एक मनुष्य है, जिसे बाँधकर जलमें डाल दिया गया है। वीरवर! जैसा कि 
हमारा विश्वास है, उसने विष पी लिया होगा || ६१ ।। 


निश्रैष्टोडस्माननुप्राप्त: स च दष्टोडन्वबुध्यत । 

ससंज्ञश्नापि संवृत्तश्छित््वा बन्धनमाशु न: ।। ६२ ।। 

पोथयन्तं महाबाहुं त्वं वै तं ज्ञातुमरहसि । 

“वह हमलोगोंके पास बेहोशीकी हालतमें आया था, किंतु हमारे डँसनेपर जाग उठा 
और होशमें आ गया। होशमें आनेपर तो वह महाबाहु अपने सारे बन्धनोंको शीघ्र तोड़कर 
हमें पछाड़ने लगा है। आप चलकर उसे पहचानें" || ६२ ३ ।। 

ततो वासुकिरभ्येत्य नागैरनुगतस्तदा ।। ६३ ।। 

पश्यति सम महाबाहुं भीम॑ भीमपराक्रमम्‌ । 

आर्यकेण च दृष्ट: स पृथाया आर्यकेण च ।। ६४ ।। 

तदा दौहित्रदौहित्र: परिष्वक्त: सुपीडितम्‌ । 

सुप्रीतश्चाभवत्‌ तस्य वासुकि: स महायशा: ।। ६५ ।। 

अब्रवीत्‌ तं च नागेन्द्र: किमस्य क्रियतां प्रियम्‌ 

धनौघो रत्ननिचयो वसु चास्य प्रदीयताम्‌ ।। ६६ ।। 

तब वासुकिने उन नागोंके साथ आकर भयंकर पराक्रमी महाबाहु भीमसेनको देखा। 
उसी समय नागराज आर्यकने भी उन्हें देखा, जो पृथाके पिता शूरसेनके नाना थे। उन्होंने 
अपने दौहित्रके दौहित्रको कसकर छातीसे लगा लिया। महायशस्वी नागराज वासुकि भी 
भीमसेनपर बहुत प्रसन्न हुए और बोले--“इनका कौन-सा प्रिय कार्य किया जाय? इन्हें धन, 
सोना और रत्नोंकी राशि भेंट की जाय” || ६३--६६ ।। 

एवमुक्तस्तदा नागो वासुकिं प्रत्यभाषत । 

यदि नागेन्द्र तुष्टो&सि किमस्य धनसंचयै: | ६७ ।। 

उनके यों कहनेपर आर्यक नागने वासुकिसे कहा--“नागराज! यदि आप प्रसन्न हैं तो 
यह धनराशि लेकर क्या करेगा” ।। ६७ ।। 

रसं पिबेत्‌ कुमारो<यं त्वयि प्रीते महाबल: । 

बल॑ नागसहस्रस्य यस्मिन्‌ कुण्डे प्रतिष्ठितम्‌ ।। ६८ ।। 

“आपके संतुष्ट होनेपर तो इस महाबली राजकुमारको आपकी आज्ञासे उस कुण्डका 
रस पीना चाहिये, जिससे एक हजार हाथियोंका बल प्राप्त होता है ।। ६८ ।। 

यावत्‌ पिबति बालो<यं तावदस्मै प्रदीयताम्‌ । 

एवमस्त्विति तं नागं वासुकि: प्रत्यभाषत ।। ६९ ।। 

“यह बालक जितना रस पी सके, उतना इसे दिया जाय।” यह सुनकर वासुकिने 
आर्यक नागसे कहा 'ऐसा ही हो” ।। ६९ |। 

ततो भीमस्तदा नागै: कृतस्वस्त्ययन: शुचि: । 

प्राड्मुखश्नोपविष्टश्न॒ रसं पिबति पाण्डव: || ७० || 


तब नागोंने भीमसेनके लिये स्वस्तिवाचन किया। फिर वे पाण्डुकुमार पवित्र हो 
पूर्वाभिमुख बैठकर कुण्डका रस पीने लगे || ७० ।। 

एकोच्छवासात्‌ तत: कुण्ड पिबति सम महाबल: । 

एवमष्टौ स कुण्डानि हापिबत्‌ पाण्डुनन्दन: ।। ७१ ।। 

वे एक ही साँसमें एक कुण्डका रस पी जाते थे। इस प्रकार उन महाबली पाण्डुनन्दनने 
आठ कुण्डोंका रस पी लिया || ७१ ।। 

ततस्तु शयने दिव्ये नागदत्ते महाभुज: । 

अशेत भीमसेनस्तु यथासुखमरिंदम: || ७२ || 

इसके बाद शत्रुओंका दमन करनेवाले महाबाहु भीमसेन नागोंकी दी हुई दिव्य शय्यापर 
सुखपूर्वक सो गये ।। ७२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीमसेनरसपाने 
सप्तविंशत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १२७ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें भीमसेनके रसपानसे सम्बन। 
रखनेवाला एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२७ ॥। 


अपन काल बा | अप्---#क्रञ 


३. दाँतोंसे काट-काटकर खाये जानेवाले मालपूए आदिको भक्ष्य कहते हैं। २. दाँतका सहारा न लेकर केवल जिल्लाके 
व्यापारसे जिसे भोजन किया जाता है, जैसे हलुआ, खीर आदि। ३. पीनेयोग्य दुग्ध आदि। ४. चूसनेयोग्य वस्तु जिसका 
रसमात्र ग्रहण किया जाय और बाकी चीजको त्याग दिया जाय, वह चोष्य है, जैसे ईख-आम आदि। ५. लेहा-- 
चाटनेयोग्य चटनी आदि। 


अष्टाविशर्त्याधेकशततमो< ध्याय: 


भीमसेनके न आनेसे कुन्ती आदिकी चिन्ता, नागलोकसे 
भीमसेनका आगमन तथा उनके प्रति दुर्योधनकी कुचेष्टा 


वैशम्पायन उवाच 


ततस्ते कौरवा: सर्वे विना भीम॑ं च पाण्डवा: । 

वृत्तक्रीडाविहारास्तु प्रतस्थुर्गजसाह्वयम्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर समस्त कौरव और पाण्डव क्रीड़ा और 
विहार समाप्त करके भीमसेनके बिना ही हस्तिनापुरकी ओर प्रस्थित हुए ।। १ ।। 

रथैर्गजैस्तथा चाश्नैयनिश्चान्यैरनेकश: । 

ब्रुवन्तो भीमसेनस्तु यातो हराग्रत एव नः ।। २ ।। 

ततो दुर्योधन: पापस्तत्रापश्यन्‌ वृकोदरम्‌ | 

भ्रातृभि: सहितो ह्ृष्टो नगरं प्रविवेश ह ।। ३ ।। 

रथ, हाथी, घोड़े तथा अन्य अनेक प्रकारकी सवारियोंद्वारा वहाँसे चलकर वे आपसमें 
यह कह रहे थे कि भीमसेन तो हमलोगोंसे आगे ही चले गये हैं। पापी दुर्योधनने भीमसेनको 
वहाँ न देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो भाइयोंके साथ नगरमें प्रवेश किया ।। २-३ ।। 

युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा हविदन्‌ पापमात्मनि । 

स्वेनानुमानेन पर॑ं साधुं समनुपश्यति ।। ४ ।। 

राजा युधिष्ठिर धर्मात्मा थे, उनके पवित्र हृदयमें दुर्योधनके पापपूर्ण विचारका भानतक 
न हुआ। वे अपने ही अनुमानसे दूसरेको भी साधु ही देखते और समझते थे ।। ४ ।। 

सो<भ्युपेत्य तदा पार्थों मातरं भ्रातृवत्सल: | 

अभिवाद्याब्रवीत्‌ कुन्तीमम्ब भीम इहागत: ।। ५ ।। 

भाईपर स्नेह रखनेवाले कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर उस समय माताके पास पहुँचकर उन्हें 
प्रणाम करके बोले--“माँ! भीमसेन यहाँ आया है क्या?” || ५ ।। 

क्व गतो भविता मातरनेंह पश्यामि त॑ शुभे । 

उद्यानानि वनं चैव विचितानि समन्ततः ।। ६ ।। 

तदर्थ न च त॑ वीरं दृष्टवन्तो वृकोदरम्‌ । 

मन्यमानास्तत: सर्वे यातो नः पूर्वमेव सः ।। ७ ।। 

“मात:! वह कहाँ गया होगा? शुभे! यहाँ भी तो मैं उसे नहीं देख रहा हूँ। वहाँ 
हमलोगोंने भीमसेनके लिये उद्यान और वनका कोना-कोना खोज डाला। फिर भी जब 


वीरवर भीमको हम देख न सके, तब सबने यही समझ लिया कि वह हमलोगोंसे पहले ही 
चला गया होगा ।। ६-७ ।। 

आगता: सम महाभागे व्याकुलेनान्तरात्मना । 

इहागम्य क्‍्व नु गतस्त्वया वा प्रेषित: क्‍्व नु ।। ८ ।। 

“महाभागे! हम उसके लिये अत्यन्त व्याकुल हृदयसे यहाँ आये हैं। यहाँ आकर वह 
कहीं चला गया? अथवा तुमने उसे कहीं भेजा है?” ।। ८ ।। 

कथयस्व महाबाहुं भीमसेनं यशस्विनि | 

न हि मे शुध्यते भावस्तं वीरं प्रति शोभने ।। ९ ।। 

“यशस्विनि! महाबाहु भीमसेनका पता बताओ। शोभने! वीर भीमसेनके विषयमें मेरा 
हृदय शंकित हो गया है ।। ९ ।। 

यतः प्रसुप्तं मन्ये5हं भीम॑ नेति हतस्तु सः । 

इत्युक्ता च ततः कुन्ती धर्मराजेन धीमता ॥। १० ।। 

हा हेति कृत्वा सम्भ्रान्ता प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्‌ । 

न पुत्र भीम॑ पश्यामि न मामभ्येत्यसाविति ।। ११ ।। 

“जहाँ मैं भीमसेनको सोया हुआ समझता था, वहीं किसीने उसे मार तो नहीं डाला?! 

बुद्धिमान्‌ धर्मराजके इस प्रकार पूछनेपर कुन्ती “हाय-हाय” करके घबरा उठी और 
युधिष्ठिससे बोली--“'बेटा! मैंने भीमको नहीं देखा है। वह मेरे पास आया ही 
नहीं || १०-११ |। 

शीघ्रमन्वेषणे यत्नं कुरु तस्यानुजै: सह । 

इत्युक्त्वा तनयं ज्येष्ठं हृदयेन विदूयता ।। १२ ।। 

क्षत्तारमानाय्य तदा कुन्ती वचनमत्रवीत्‌ । 

क्य गतो भगवतन क्षत्तर्भीमसेनो न दृश्यते ।। १३ ।। 

“तुम अपने छोटे भाइयोंके साथ शीघ्र उसे ढूँढ़नेका प्रयत्न करो।” कुन्तीका हृदय पुत्रकी 
चिन्तासे व्यथित हो रहा था, उसने ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिरसे उपर्युक्त बात कहकर विदुरजीको 
बुलवाया और इस प्रकार कहा--“भगवन्‌! भीमसेन नहीं दिखायी देता, वह कहाँ चला 
गया? ।। १२-१३ ।। 

उद्यानान्निर्गताः सर्वे भ्रातरो भ्रातृभि: सह । 

तत्रैकस्तु महाबाहुर्भीमो नाभ्येति मामिह ।। १४ ।। 

“उद्यानसे सब लोग अपने भाइयोंके साथ चलकर यहाँ आ गये, किंतु अकेला महाबाहु 
भीम अबतक मेरे पास लौटकर नहीं आया! ।। १४ ।। 

नच प्रीणयते चक्षु: सदा दुर्योधनस्य सः । 

क्रूरोडसौ दुर्मति: क्षुद्रो राज्यलुब्धोडनपत्रप: ।। १५ ।। 


“वह सदा दुर्योधनकी आँखोंमें खटकता रहता है। दुर्योधन क्रूर, दुर्बुद्धि, क्षुद्र, राज्यका 
लोभी तथा निर्लज्ज है || १५ ।। 
निहन्यादपि तं वीर॑ जातमन्यु: सुयोधन: । 
तेन मे व्याकुलं चित्त हृदयं दहुतीव च ।। १६ ।। 
“अतः सम्भव है, वह क्रोधमें वीर भीमसेनको धोखा देकर मार भी डाले। इसी चिन्तासे 
मेरा चित्त व्याकुल हो उठा है, हृदय दग्ध-सा हो रहा है” ।। १६ ।। 
विदुर उवाच 
मैवं वदस्व कल्याणि शेषसंरक्षणं कुरु । 
प्रत्यादिष्टो हि दुष्टात्मा शेषेडपि प्रहरेत्‌ तव ।। १७ ।। 
विदुरजीने कहा--कल्याणी! ऐसी बात मुहसे न निकालो, शेष पुत्रोंकी रक्षा करो। 
यदि दुर्योधनको उलाहना देकर इस विषयमें पूछ-ताछ की जायगी तो वह दुष्टात्मा तुम्हारे 
शैष पुत्रोंपर भी प्रहार कर सकता है || १७ ।। 
दीर्घायुषस्तव सुता यथोवाच महामुनि: । 
आगमिष्यति ते पुत्र: प्रीतिं चोत्पादयिष्यति ।। १८ ।। 
महामुनि व्यासने पहले जैसा कहा है, उसके अनुसार तुम्हारे ये सभी पुत्र दीर्घजीवी हैं, 
अतः तुम्हारा पुत्र भीमसेन कहीं भी क्‍यों न गया हो, अवश्य लौटेगा और तुम्हें आनन्द प्रदान 
करेगा ।। १८ ।। 
वैशम्पायन उवाच 
एवमुक्‍त्वा ययौ विद्वान्‌ विदुर: स्वं निवेशनम्‌ । 
कुन्ती चिन्तापरा भूत्वा सहासीना सुतैर्गुहि । १९ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! विद्वान्‌ विदुर यों कहकर अपने घरमें चले गये। 
इधर कुन्ती चिन्तामग्न होकर अपने चारों पुत्रोंके साथ चुपचाप घरमें बैठ रही ।। १९ ।। 
ततोड्ष्टमे तु दिवसे प्रत्यबुध्यत पाण्डव: । 
तस्मिंस्तदा रसे जीर्णे सो5प्रमेयबलो बली || २० ।। 
उधर, नागलोकमें सोये हुए बलवान्‌ भीमसेन आठवें दिन, जब वह रस पच गया, जगे। 
उस समय उनके बलकी कोई सीमा नहीं रही ।। २० ।। 
त॑ दृष्टवा प्रतिबुध्यन्तं पाण्डवं ते भुजड़मा: । 
सान्त्वयामासुरव्यग्रा वचनं चेदमन्रुवन्‌ ।। २१ ।। 
पाण्डुनन्दन भीमको जगा हुआ देख सब नागोंने शान्त-चित्तसे उन्हें आश्वासन दिया 
और यह बात कही-- || २१ ।। 
यत्‌ ते पीतो महाबाहो रसो<यं वीर्यसम्भूतः । 
तस्मान्नागायुतबलो रणे<धृष्यो भविष्यसि ।। २२ ।। 


“महाबाहो! तुमने जो यह शक्तिपूर्ण रस पीया है, इसके कारण तुम्हारा बल दस हजार 
हाथियोंके समान होगा और तुम युद्धमें अजेय हो जाओगे ।। २२ ।। 

गच्छाद्य त्वं च स्वगृहं स्नातो दिव्यैरिमैर्जलै: । 

भ्रातरस्ते5नुतप्यन्ति त्वां विना कुरुपुड़व ।। २३ ।। 

“आज तुम इस दिव्य जलसे स्नान करो और अपने घर लौट जाओ। कुरुश्रेष्ठ! तुम्हारे 
बिना तुम्हारे सब भाई निरन्तर दुःख और चिन्तामें डूबे रहते हैं! || २३ ।। 

ततः स्नातो महाबाहु: शुचि: शुक्लाम्बरस्रज: | 

ततो नागस्य भवने कृतकौतुकमड़्ल: ।। २४ ।। 

ओषधीभिरवविषध्नीभि: सुरभीभिर्विशेषत: । 

भुक्तवान्‌ परमान्नं च नागैर्दत्त महाबल: ।। २५ ।। 

तब महाबाहु भीमसेन स्नान करके शुद्ध हो गये। उन्होंने श्वेत वस्त्र और श्वेत पुष्पोंकी 
माला धारण की। तत्पश्चात्‌ नागराजके भवनमें उनके लिये कौतुक एवं मंगलाचार सम्पन्न 
किये गये। फिर उन महाबली भीमने विष-नाशक सुगन्धित ओषधियोंके साथ नागोंकी दी 
हुई खीर खायी || २४-२५ ।। 

पूजितो भुजगैर्वीर आशीर्भिश्चाभिनन्दित: । 

दिव्याभरणसंछजन्नो नागानामन्त्रय पाण्डव: || २६ ।। 

उदतिष्ठत्‌ प्रह्षश्ठात्मा नागलोकादरिंदम: । 

उत्क्षिप्त: स तु नागेन जलाज्जलरुहेक्षण: ।। २७ ।। 

तस्मिन्नेव वनोद्देशे स्थापित: कुरुनन्दन: । 

ते चान्तर्दधिरे नागा: पाण्डवस्यैव पश्यत: ।। २८ ।। 

इसके बाद नागोंने वीर भीमसेनका आदर-सत्कार करके उन्हें शुभाशीर्वादोंसे प्रसन्न 
किया। दिव्य आभूषणोंसे विभूषित शत्रुदमन भीमसेन नागोंकी आज्ञा ले प्रसन्नचित्त हो 
नागलोकसे जानेको उद्यत हुए। तब किसी नागने कमलनयन कुरुनन्दन भीमको जलसे 
ऊपर उठाकर उसी वनमें (गंगातटवर्ती प्रमाणकोटिमें) रख दिया। फिर वे नाग पाण्दुपुत्र 
भीमके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये || २६--२८ ।। 

तत उत्थाय कौन्तेयो भीमसेनो महाबल: । 

आजगाम महाबाहुर्मातुरन्तिकमञ्जसा ।। २९ |। 

तब महाबली कुन्तीकुमार महाबाहु भीमसेन वहाँसे उठकर शीघ्र ही अपनी माताके 
समीप आ गये ।। २९ ।। 

ततो5भिवाद्य जननी ज्येष्ठं भ्रातरमेव च । 

कनीयस: समाप्राय शिर:स्वरिविमर्दन: ।। ३० |। 

तदनन्तर शत्रुमर्दन भीमने माता और बड़े भाईको प्रणाम करके स्नेहपूर्वक छोटे 
भाइयोंका सिर सूँघा ।। ३० ।। 


तैश्वापि सम्परिष्वक्त: सह मात्रा नरषभै: | 

अन्योन्यगतसौहार्दाद्‌ दिष्ट्या दिष्ट्येति चाब्रुवन्‌ ।। ३१ ।। 

माता तथा उन नरश्रेष्ठ भाइयोंने भी उन्हें हृदयसे लगाया और एक-दूसरेके प्रति 
स्नेहाधिक्यके कारण सबने भीमके आगमनसे अपने सौभाग्यकी सराहना की 
--अहोभाग्य! अहोभाग्य!” कहा ।। ३१ ।। 

ततस्तत्‌ सर्वमाचष्ट दुर्योधनविचेष्टितम्‌ । 

भ्रातृणां भीमसेनश्व महाबलपराक्रम: ।। ३२ || 

तदनन्तर महान्‌ बल और पराक्रमसे सम्पन्न भीमसेनने दुर्योधनकी वे सारी कुचेष्टाएँ 
अपने भाइयोंको बतायीं ।। ३२ ।। 

नागलोके च यद्‌ वृत्तं गुणदोषमशेषत: । 

तच्च सर्वमशेषेण कथयामास पाण्डव: ।। ३३ ।। 

और नागलोकमें जो गुण-दोषपूर्ण घटनाएँ घटी थीं, उन सबको भी पाण्डुनन्दन भीमने 
पूर्णरूपसे कह सुनाया ।। ३३ ।। 

ततो युधिछिरो राजा भीममाह वचो<र्थवत्‌ | 

तृष्णीं भव न ते जल्प्यमिदं कार्य कथंचन ।। ३४ ।। 

तब राजा युधिष्ठिरने भीमसेनसे मतलबकी बात कही--“भैया भीम! तुम सर्वथा चुप हो 
जाओ। तुम्हारे साथ जो बर्ताव किया गया है, वह कहीं किसी प्रकार भी न 
कहना” ।। ३४ ।। 

एवमुक्‍्त्वा महाबाहुर्धर्मराजो युधिष्ठिर: । 

भ्रातृभि: सहित: सर्वैरप्रमत्तो5भवत्‌ तदा ॥। ३५ ।। 

यों कहकर महाबाहु धर्मराज युधिष्ठिर अपने सब भाइयोंके साथ उस समयसे खूब 
सावधान रहने लगे || ३५ ।। 

सारथिं चास्य दयितमपहस्तेन जध्निवान्‌ । 

धर्मात्मा विदुरस्तेषां पार्थानां प्रददौ मतिम्‌ ।। ३६ ।। 

दुर्योधनने भीमसेनके प्रिय सारथिको हाथसे गला घोंटकर मार डाला। उस समय भी 
धर्मात्मा विदुरने उन कुन्तीपुत्रोंकी यही सलाह दी कि वे चुपचाप सब कुछ सहन कर 
लें ।। ३६ |। 

भोजने भीमसेनस्य पुन: प्राक्षेपयद्‌ विषम्‌ 

कालकूटं नवं तीक्ष्णं सम्भूृतं लोमहर्षणम्‌ ।। ३७ ।। 

धृतराष्ट्रकुमारने भीमसेनके भोजनमें पुनः नया, तीखा और सत्त्वके रूपमें परिणत 
रोंगटे खड़े कर देनेवाला कालकूट नामक विष डलवा दिया ।। ३७ ।। 

वैश्यापुत्रस्तदाचष्ट पार्थानां हितकाम्यया । 

तच्चापि भुक्त्वाजरयदविकारं वृकोदर: ।। ३८ ।। 


वैश्यापुत्र युयुत्सुने कुन्तीपुत्रोंक हितकी कामनासे यह बात उन्हें बता दी। परंतु भीमने 
उस विषको भी खाकर बिना किसी विकारके पचा लिया ।। ३८ ।। 

विकारं न हाृजनयत्‌ सुतीक्षणमपि तद्‌ विषम्‌ । 

भीमसंहनने भीमे अजीर्यत वृकोदरे ।। ३९ ।। 

यद्यपि वह विष बड़ा तेज था, तो भी उनके लिये कोई बिगाड़ न कर सका। भयंकर 
शरीरवाले भीमसेनके उदरमें वृक नामकी अग्नि थी; अतः वहाँ जाकर वह विष पच 
गया ।। ३९ |। 

एवं दुर्योधन: कर्ण: शकुनिश्चापि सौबल: । 

अनेकैरभ्युपायैस्ताज्जिघांसन्ति सम पाण्डवान्‌ ।। ४० ।। 

इस प्रकार दुर्योधन, कर्ण तथा सुबलपुत्र शकुनि अनेक उपायोंद्वारा पाण्डवोंको मार 
डालना चाहते थे ।। ४० ।। 

पाण्डवाश्चापि ततू्‌ सर्व प्रत्यजानन्नमर्षिता: । 

उद्धावनमकुर्वन्तो विदुरस्थ मते स्थिता: ।। ४१ ।। 

पाण्डव भी यह सब जान लेते और क्रोधमें भर जाते थे, तो भी विदुरकी रायके 
अनुसार चलनेके कारण अपने अमर्षको प्रकट नहीं करते थे || ४१ ।। 

कुमारान्‌ क्रीडमानांस्तान्‌ दृष्टवा राजातिदुर्मदान्‌ । 

गुरुं शिक्षार्थमन्विष्य गौतमं तान्‌ न्‍न्यवेदयत्‌ ।। ४२ ।। 

शरस्तम्बे समुद्भूतं वेदशास्त्रार्थपारगम्‌ । 

अधिजममुश्न॒ कुरवो धनुर्वेदं कृपात्‌ तु ते । ४३ ।। 

राजा धृतराष्ट्रने उन कुमारोंको खेल-कूदमें लगे रहनेसे अत्यन्त उद्दण्ड होते देख उन्हें 
शिक्षा देनेके लिये गौतम-गोत्रीय कृपाचार्यकी खोज करायी, जो सरकंडेके समूहसे उत्पन्न 
हुए और विविध शास्त्रोंके पारंगत विद्वान्‌ थे। उन्हींको गुरु बनाकर कुरुकुल॒के उन सभी 
कुमारोंको उन्हें सौंप दिया गया; फिर वे कुरुवंशी बालक कृपाचार्यसे धनुर्वेदका अध्ययन 
करने लगे || ४२-४३ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीमप्रत्यागमने 
अष्टाविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें भीमसेनके लौटनेसे सम्बन्ध 
रखनेवाला एक सौ अद्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२८ ॥। 


ऑपन--माजल छा अ<-छऋाञ 


एकोनत्रिशदधिकशततमो< ध्याय: 


कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामाकी उत्पत्ति तथा द्रोणको 
परशुरामजीसे अस्त्र-शस्त्रकी प्राप्तिकी कथा 
जनमेजय उवाच 
कृपस्यापि मम ब्रद्मान्‌ सम्भवं वक्तुमरहसि । 
शरस्तम्बात्‌ कथं जज्ञे कथं वास्त्राण्यवाप्तवान्‌ ।। १ ।। 
जनमेजयने पूछा--्रह्मन्‌! कृपाचार्यका जन्म किस प्रकार हुआ? यह मुझे बतानेकी 
कृपा करें। वे सरकंडेके समूहसे किस तरह उत्पन्न हुए एवं उन्होंने किस प्रकार अस्त्र- 
शस्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त की? ।। १ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


महर्षेगौतमस्यासीच्छरद्वान्‌ नाम गौतम: । 

पुत्र: किल महाराज जात: सह शरैरविंभो ।। २ ॥। 

न तस्य वेदाध्ययने तथा बुद्धिरजायत । 

यथास्य बुद्धिरभवद्‌ धनुर्वेदे परंतप ।। ३ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--महाराज! महर्षि गौतमके शरद्वान्‌ गौतम- नामसे प्रसिद्ध एक 
पुत्र थे। प्रभो! कहते हैं, वे सरकंडोंके साथ उत्पन्न हुए थे। परंतप! उनकी बुद्धि धनुर्वेदमें 
जितनी लगती थी, उतनी वेदोंके अध्ययनमें नहीं ।। २-३ ।। 

अधिजम्मुर्यथा वेदांस्तपसा ब्रह्मचारिण: । 

तथा स तपसोपेत: सर्वाण्यस्त्राण्यवाप ह ।। ४ ।। 

जैसे अन्य ब्रह्मचारी तपस्यापूर्वक वेदोंका ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार उन्होंने 
तपस्यायुक्त होकर सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये || ४ ।। 

धनुर्वेदपरत्वाच्च तपसा विपुलेन च । 

भृशं संतापयामास देवराजं स गौतम: ।। ५ ।। 

वे धनुर्वेदमें पारंगत तो थे ही, उनकी तपस्या भी बड़ी भारी थी; इससे गौतमने देवराज 
इन्द्रको अत्यन्त चिन्तामें डाल दिया था ।। ५ ।। 

ततो जानपदीं नाम देवकन्यां सुरेश्वर: । 

प्राहिणोत्‌ तपसो विघ्नं कुरु तस्येति कौरव ।॥। ६ ।। 

कौरव! तब देवराजने जानपदी नामकी एक देवकन्याको उनके पास भेजा और यह 
आदेश दिया कि “तुम शरद्वानकी तपस्यामें विघ्न डालो” || ६ |। 


सा हि गत्वा55 श्रमं तस्य रमणीयं शरद्वत: । 

धनुर्बाणधरं बाला लोभयामास गौतमम्‌ ।। ७ ।। 

वह जानपदी शरद्वानके रमणीय आश्रमपर जाकर धनुष-बाण धारण करनेवाले 
गौतमको लुभाने लगी || ७ ।। 

तामेकवसनां दृष्टवा गौतमो5प्सरसं वने । 

लोके<प्रतिमसंस्थानां प्रोत्फूल्लनयनो5भवत्‌ ।। ८ ।। 

गौतमने एक वस्त्र धारण करनेवाली उस अप्सराको वनमें देखा। संसारमें उसके सुन्दर 
शरीरकी कहीं तुलना नहीं थी। उसे देखकर शरद्वानके नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे ।। ८ ।। 

धनुश्व हि शरास्तस्य कराभ्यामपतन्‌ भुवि । 

वेपथुश्नापि तां दृष्टवा शरीरे समजायत ।। ९ ।। 

उनके हाथोंसे धनुष और बाण छूटकर पृथ्वीपर गिर पड़े तथा उसकी ओर देखनेसे 
उनके शरीरमें कम्प हो आया ।। ९ ।। 

स तु ज्ञानगरीयस्त्वात्‌ तपसश्न समर्थनात्‌ | 

अवतस्थे महाप्राज्ञो धैर्यरेण परमेण ह ।। १० ।। 

शरद्वान्‌ ज्ञानमें बहुत बढ़े-चढ़े थे और उनमें तपस्याकी भी प्रबल शक्ति थी। अतः वे 
महाप्राज्ञ मुनि अत्यन्त धीरतापूर्वक अपनी मर्यादामें स्थित रहे || १० ।। 

यस्तस्य सहसा राजन्‌ विकार: समदृश्यत । 

तेन सुस्त्राव रेतो5स्य स च तन्नान्वबुध्यत ।। ११ ।। 

राजन! किंतु उनके मनमें सहसा जो विकार देखा गया, इससे उनका वीर्य स्खलित हो 
गया; परंतु इस बातका उन्हें भान नहीं हुआ ।। ११ ।। 

धनुश्न सशरं त्यक्त्वा तथा कृष्णाजिनानि च । 

स विहायाश्रमं तं च तां चैवाप्सरसं मुनि: ।। १२ ।। 

जगाम रेतस्तत्‌ तस्य शरस्तम्बे पपात च । 

शरस्तम्बे च पतितं द्विधा तदभवन्नूप ।। १३ ।। 

वे मुनि बाणसहित धनुष, काला मृगचर्म, वह आश्रम और वह अप्सरा--सबको वहीं 
छोड़कर वहाँसे चल दिये। उनका वह वीर्य सरकंडेके समुदाय-पर गिर पड़ा। राजन! वहाँ 
गिरनेपर उनका वीर्य दो भागोंमें बँट गया || १२-१३ ।। 

तस्याथ मिथुन जज्ञे गौतमस्य शरद्वत: । 

मृगयां चरतो राज्ञ: शन्तनोस्तु यदृच्छया ।। १४ ।। 

कश्चित्‌ सेनाचरो5रण्ये मिथुनं तदपश्यत । 

धनुश्व सशरं दृष्टवा तथा कृष्णाजिनानि च ॥। १५ ।। 

ज्ञात्वा द्विजस्य चापत्ये धनुर्वेदान्तगस्य ह । 

स राज्ञे दर्शयामास मिथुनं सशरं धनु: ॥। १६ ।। 


स तदादाय मिथुन राजा च कृपयान्वित: । 

आजगाम गृहानेव मम पुत्राविति ब्रुवन्‌ ।। १७ ।। 

तदनन्तर गौतमनन्दन शरद्वानके उसी वीर्यसे एक पुत्र और एक कन्याकी उत्पत्ति हुई। 
उस दिन दैवेच्छासे राजा शन्तनु वनमें शिकार खेलने आये थे। उनके किसी सैनिकने वनमें 
उन युगल संतानोंको देखा। वहाँ बाणसहित धनुष और काला मृगचर्म देखकर उसने यह 
जान लिया कि “ये दोनों किसी धरनुर्वेदके पारंगत विद्वान ब्राह्मणकी संतानें हैं” ऐसा निश्चय 
होनेपर उसने राजाको वे दोनों बालक और बाणसहित धनुष दिखाया। राजा उन्हें देखते ही 
कृपाके वशीभूत हो गये और उन दोनोंको साथ ले अपने घर आ गये। वे किसीके पूछनेपर 
यही परिचय देते थे कि “ये दोनों मेरी ही संतानें हैं" || १४--१७ ।। 

ततः संवर्धयामास संस्कारैश्वाप्पपोजयत्‌ । 

प्रातीपेयो नरश्रेष्ठो मिथुनं गौतमस्य तत्‌ ।। १८ ।। 

तदनन्तर नरश्रेष्ठ प्रतीपनन्दन शन्तनुने शरद्वानुके उन दोनों बालकोंका पालन-पोषण 
किया और यथासमय उन्हें सब संस्कारोंसे सम्पन्न किया ।। १८ ।। 

गौतमो<5पि ततो<भ्येत्य धनुर्वेदपरो5भवत्‌ | 

कृपया यन्मया बालाविमौ संवर्धिताविति ।। १९ ।। 

तस्मात्‌ तयोरनाम चक्रे तदेव स महीपति: । 

गोपितौ गौतमस्तत्र तपसा समविन्दत ।। २० ।। 

गौतम (शरद्वान) भी उस आश्रमसे अन्यत्र जाकर धरनुर्वेदके अभ्यासमें तत्पर रहने लगे। 
राजा शन्तनुने यह सोचकर कि मैंने इन बालकोंको कृपापूर्वक पाला-पोसा है, उन दोनोंके वे 
ही नाम रख दिये--कृप और कृपी। राजाके द्वारा पालित हुई अपनी दोनों संतानोंका हाल 
गौतमने तपोबलसे जान लिया ।। १९-२० || 

आगत्य तस्मै गोत्रादि सर्वमाख्यातवांस्तदा । 

चतुर्विधं धनुर्वेदं शास्त्राणि विविधानि च ।। २१ ।। 

निखिलेनास्य तत्‌ सर्व गुहमाख्यातवांस्तदा । 

सो<चिरेणैव कालेन परमाचार्यतां गत: ।। २२ ।। 

और वहाँ गुप्तरूपसे आकर अपने पुत्रको गोत्र आदि सब बातोंका पूरा परिचय दे 
दिया। चार प्रकारके- थनुर्वेद, नाना प्रकारके शास्त्र तथा उन सबके गूढ़ रहस्यका भी 
पूर्णरूपसे उसको उपदेश दिया। इससे कृप थोड़े ही समयमें धनुर्वेदके उत्कृष्ट आचार्य हो 
गये ।। २१-२२ ।। 

ततो<5थिजम्मु: सर्वे ते धनुर्वेदं महारथा: । 

धृतराष्ट्रात्मजाश्वैव पाण्डवा: सह यादवै: ।। २३ ।। 

धृतराष्ट्रके महारथी पुत्र, पाण्डव तथा यादव--सबने उन्हीं कृपाचार्यसे धनुर्वेदका 
अध्ययन किया ।। २३ ।। 


वृष्णयश्च नृपाश्चान्ये नानादेशसमागता: । 
वृष्णिवंशी तथा भिन्न-भिन्न देशोंसे आये हुए अन्य नरेश भी उनसे धरनुर्वेदकी शिक्षा लेते 
थे।। २३३६ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


विशेषार्थी ततो भीष्म: पौत्राणां विनयेप्सया ।। २४ ।। 

इष्वस्त्रज्ञान्‌ पर्यपृच्छदाचार्यान्‌ वीर्यसम्मतान्‌ | 

नाल्‍्पधीर्ना महाभागस्तथा नानास्त्रकोविद: ।। २५ ।। 

नादेवसत्त्वो विनयेत्‌ कुरूनस्त्रे महाबलान्‌ | 

इति संचिन्त्य गाड़्रेयस्तदा भरतसत्तम: ।। २६ ।। 

द्रोणाय वेदविदुषे भारद्वाजाय धीमते । 

पाण्डवान्‌ कौरवांश्वैव ददौ शिष्यान्‌ नरर्षभ ।। २७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! कृपाचार्यके द्वारा पूर्णतः शिक्षा मिल जानेपर 
पितामह भीष्मने अपने पौत्रोंमें विशिष्ट योग्यता लानेके लिये उन्हें और अधिक शिक्षा देनेकी 
इच्छासे ऐसे आचार्योकी खोज प्रारम्भ की, जो बाण-संचालनकी कलामें निपुण और अपने 
पराक्रमके लिये सम्मानित हों। उन्होंने सोचा--'जिसकी बुद्धि थोड़ी है, जो महान्‌ 
भाग्यशाली नहीं है, जिसने नाना प्रकारकी अस्त्र-विद्यामें निपुणता नहीं प्राप्त की है तथा जो 
देवताओंके समान शक्तिशाली नहीं है, वह इन महाबली कौरवोंको अस्त्र-विद्याकी शिक्षा 
नहीं दे सकता।” नरश्रेष्ठ) यों विचारकर भरतश्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्मने भरद्वाजवंशी, वेदवेत्ता 
तथा बुद्धिमान द्रोणको आचार्यके पदपर प्रतिष्ठित करके उनको शिष्यरूपमें पाण्डवों तथा 
कौरवोंको समर्पित कर दिया || २४--२७ ।। 

शास्त्रतः पूजितश्वैव सम्यक्‌ तेन महात्मना । 

स भीष्मेण महाभागस्तुष्टो5स्त्रविदुषां वर: ।। २८ ।। 

अस्त्र-विद्याके दिद्दानोंमें श्रेष्ठ महाभाग द्रोण महात्मा भीष्मके द्वारा शास्त्रविधिसे 
भलीभाँति पूजित होनेपर बहुत संतुष्ट हुए || २८ ।। 

प्रतिजग्राह तान्‌ सर्वान्‌ शिष्यत्वेन महायशा: । 

शिक्षयामास च द्रोणो धनुर्वेदमशेषत: ।। २९ ।। 

फिर उन महायशस्वी आचार्य द्रोणने उन सबको शिष्यरूपमें स्वीकार किया और 
सम्पूर्ण धनुर्वेदकी शिक्षा दी |। २९ ।। 

ते5चिरेणैव कालेन सर्वशस्त्रविशारदा: । 

बभूवु: कौरवा राजन्‌ पाण्डवाश्वलामितौजस: ।। ३० || 

राजन्‌! अमिततेजस्वी पाण्डव तथा कौरव--सभी थोड़े ही समयमें सम्पूर्ण शस्त्र- 
विद्यामें परम प्रवीण हो गये ।। ३० ॥। 


जनमेजय उवाच 

कथं समभवद्‌ द्रोण: कथं चास्त्राण्यवाप्तवान्‌ | 

कथं चागात्‌ कुरून्‌ ब्रह्मान्‌ कस्य पुत्र: स वीर्यवान्‌ ।। ३१ ।। 

जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन! द्रोणाचार्यकी उत्पत्ति कैसे हुई? उन्होंने किस प्रकार 
अस्त्र-विद्या प्राप्त की? वे कुरुदेशमें कैसे आये? तथा वे महापराक्रमी द्रोण किसके पुत्र 
थे? ।। ३१ ।। 

कथं चास्य सुतो जात: सो<श्चृत्थामास्त्रवित्तम: | 

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण प्रकीर्तय ।। ३२ ।। 

साथ ही अस्त्र-शस्त्रके विद्वानोंमें श्रेष्ठ अश्वत्थामा, जो द्रोणका पुत्र था, कैसे उत्पन्न 
हुआ? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ। आप विस्तारपूर्वक कहिये ।। ३२ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

गड़ाद्वारं प्रति महान्‌ बभूव भगवानृषि: । 

भरद्वाज इति ख्यात: सततं संशितव्रत: ।। ३३ ।। 

सोऊभिषेक्तुं ततो गड्जां पूर्वमेवागमन्नदीम्‌ । 

महर्षिभिर्भरद्वाजो हविर्धाने चरन्‌ पुरा || ३४ ।। 

ददर्शाप्सरसं साक्षाद्‌ घृताचीमाप्लुतामृषि: । 

रूपयौवनसम्पन्नां मददृप्तां मदालसाम्‌ ।। ३५ ।। 

तस्या: पुनर्नदीतीरे वसन॑ पर्यवर्तत | 

व्यपकृष्टाम्बरां दृष्टवा तामृषिश्चकमे तत: ।॥। ३६ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--जनमेजय! गंगाद्वारमें भगवान्‌ भरद्वाज नामसे प्रसिद्ध एक 
महर्षि रहते थे। वे सदा अत्यन्त कठोर व्रतोंका पालन करते थे। एक दिन उन्हें एक विशेष 
प्रकारके यज्ञका अनुष्ठान करना था। इसलिये वे भरद्वाज मुनि महर्षियोंको साथ लेकर 
गंगाजीमें स्नान करनेके लिये गये। वहाँ पहुँचकर महर्षिने प्रत्यक्ष देखा, घृताची अप्सरा 
पहलेसे ही स्नान करके नदीके तटपर खड़ी हो वस्त्र बदल रही है। वह रूप और यौवनसे 
सम्पन्न थी। जवानीके नशेमें मदसे उन्मत्त हुई जान पड़ती थी। उसका वस्त्र खिसक गया 
और उसे उस अवस्थामें देखकर ऋषिके मनमें कामवासना जाग उठी ।। ३३--३६ ।। 

तत्र संसक्तमनसो भरद्वाजस्य धीमतः । 

ततोअस्य रेतश्नस्कन्द तदृषिद्रोण आदधे | ३७ ।। 

परम बुद्धिमान्‌ भरद्वाजजीका मन उस अप्सरामें आसक्त हुआ; इससे उनका वीर्य 
स्खलित हो गया। ऋषिने उस वीर्यको द्रोण (यज्ञकलश)-में रख दिया ।। ३७ ।। 

ततः समभवद्‌ द्रोण: कलशे तस्य धीमत: । 

अध्यगीष्ट स वेदांश्न॒ वेदाड़ानि च सर्वश: ।। ३८ ।। 


तब उन बुद्धिमान्‌ महर्षिको उस कलशशसे जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वह द्रोणसे जन्म लेनेके 
कारण द्रोण नामसे ही विख्यात हुआ। उसने सम्पूर्ण वेदों और वेदांगोंका अध्ययन 
किया ।। ३८ ।। 

अग्निवेशं महाभागं भरद्वाज: प्रतापवान्‌ । 

प्रत्यपादयदाग्नेयमस्त्रमस्त्रविदां वर: ।। ३९ |। 

प्रतापी महर्षि भरद्वाज अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने महाभाग अग्निवेशको आग्नेय 
अस्त्रकी शिक्षा दी थी ।। ३९ ।। 

अग्नेस्तु जात: स मुनिस्ततो भरतसत्तम | 

भारद्वाजं तदाग्नेयं महास्त्र॑ प्रत्यपादयत्‌ ।। ४० ।। 

जनमेजय! अग्निवेश मुनि साक्षात्‌ अग्निके पुत्र थे। उन्होंने अपने गुरुपुत्र 
भरद्वाजनन्दन द्रोणको उस आग्नेय नामक महान्‌ अस्त्रकी शिक्षा दी || ४० ।। 

भरद्वाजसखा चासीत्‌ पृषतो नाम पार्थिव: । 

तस्यापि द्रुपदो नाम तदा समभवत्‌ सुत: ।। ४१ ।। 

उन दिनों पृषत नामसे प्रसिद्ध एक भूपाल महर्षि भरद्वाजके मित्र थे। उन्हें भी उसी 
समय एक पुत्र हुआ, जिसका नाम द्रुपद था ।। ४१ ।। 

स नित्यमाश्रमं गत्वा द्रोणेन सह पार्थिव: । 

चिक्रीडाध्ययनं चैव चकार क्षत्रियर्षभ: ।। ४२ ।। 

वह राजकुमार क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ था। वह प्रतिदिन भरद्वाज मुनिके आश्रममें जाकर 
द्रोणके साथ खेलता और अध्ययन करता था ।। ४२ ।। 

ततो व्यतीते पृषते स राजा द्रुपदो5भवत्‌ | 

पज्चालेषु महाबाहुरुत्तरेषु नरेश्वर ।। ४३ ।। 

नरेश्वर जनमेजय! पृषतकी मृत्यु हो जानेपर महाबाहु ट्रुपद उत्तर-पंचाल देशके राजा 
हुए ।। ४३ ।। 

भरद्वाजो5पि भगवानारुरोह दिवं तदा । 

तत्रैव च वसन्‌ द्रोणस्तपस्तेपे महातपा: ।। ४४ ।। 

कुछ दिनों बाद भगवान्‌ भरद्वाज भी स्वर्गवासी हो गये और महातपस्वी द्रोण उसी 
आश्रममें रहकर तपस्या करने लगे ।। ४४ ।। 

वेदवेदाड़विद्वान्‌ स तपसा दग्धकिल्बिष: । 

ततः पितृनियुक्तात्मा पुत्रलोभान्महायशा: || ४५ ।। 

शारद्वतीं ततो भार्या कृपी द्रोणो5न्वविन्दत । 

अन्निहोत्रे च धर्मे च दमे च सततं रताम्‌ ।। ४६ ।। 

वे वेदों और वेदांगोंके विद्वान्‌ तो थे ही, तपस्याद्वारा अपनी सम्पूर्ण पापराशिको दग्ध 
कर चुके थे। उनका महान्‌ यश सब ओर फैल चुका था। एक समय पितरोंने उनके मनमें 


पुत्र उत्पन्न करनेकी प्रेरणा दी; अतः द्रोणाचार्यने पुत्रके लोभसे शरद्वानकी पुत्री कृपीको 
धर्मपत्नीके रूपमें ग्रहण किया। कृपी सदा अन्निहोत्र, धर्मानुष्ठान तथा इन्द्रियसंयममें उनका 
साथ देती थी || ४५-४६ ।। 

अलभद्‌ गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमेव च । 

स जातमात्रो व्यनदद्‌ यथैवोच्चै:श्रवा हय: ।। ४७ ।। 

गौतमी कृपीने द्रोणसे अश्वत्थामा नामक पुत्र प्राप्त किया। उस बालकने जन्म लेते ही 
उच्चै:श्रवा घोड़ेके समान शब्द किया ।। ४७ ।। 

तच्छुत्वान्तहितं भूतमन्तरिक्षस्थमब्रवीत्‌ । 

अश्वस्येवास्य यत्‌ स्थाम नदत: प्रदिशो गतम्‌ ।। ४८ ।। 

अश्वृत्थामैव बालो<यं तस्मान्नाम्ना भविष्यति । 

सुतेन तेन सुप्रीतो भारद्वाजस्ततो5भवत्‌ ।। ४९ ।। 

उसे सुनकर अन्तरिक्षमें स्थित किसी अदृश्य चेतनने कहा--“इस बालकके चिल्लाते 
समय अश्वके समान शब्द सम्पूर्ण दिशाओंमें गूँज उठा है; अतः यह अअश्वत्थामा नामसे ही 
प्रसिद्ध होगा।” उस पुत्रसे भरद्वाजनन्दन द्रोणको बड़ी प्रसन्नता हुई ।। ४८-४९ ।। 

तत्रैव च वसन्‌ धीमान्‌ धर्नुर्वेदपरो5भवत्‌ | 

स शुश्राव महात्मानं जामदग्न्यं परंतपम्‌ ।। ५० ।। 

सर्वज्ञानविदं विप्र॑ सर्वशस्त्रभूृतां वरम्‌ । 

ब्राह्मणेभ्यस्तदा राजन्‌ दित्सन्तं वसु सर्वश: ।। ५१ ।। 

बुद्धिमान्‌ द्रोण उसी आश्रममें रहकर धरनुर्वेदका अभ्यास करने लगे। राजन्‌! किसी 
समय उन्होंने सुना कि “महात्मा जमदग्निनन्दन परशुरामजी इस समय सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण 
शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ हैं तथा शत्रुओंको संताप देनेवाले वे विप्रवर ब्राह्मणोंको अपना सर्वस्व 
दान करना चाहते हैं || ५०-५१ ।। 

स रामस्य धनुर्वेदं दिव्यान्यस्त्राणि चैव ह । 

श्रुत्वा तेषु मनश्नक्रे नीतिशास्त्रे तथैव च ।। ५२ ।। 

द्रोणने यह सुनकर कि परशुरामजीके पास सम्पूर्ण धनुर्वेद तथा दिव्यास्त्रोंका ज्ञान है, 
उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा की। इसी प्रकार उन्होंने उनसे नीति-शास्त्रकी शिक्षा लेनेका भी 
विचार किया || ५२ ।। 

ततः स व्रतिभि: शिष्यैस्तपोयुक्तैर्महातपा: । 

वृत: प्रायान्महाबाहुर्महेन्द्रं पर्वतोत्तमम्‌ । ५३ ।। 

फिर ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले तपस्वी शिष्योंसे घिरे हुए महातपस्वी महाबाहु 
द्रोण परम उत्तम महेन्द्र पर्वतपर गये ।। ५३ ।। 

ततो महेन्द्रमासाद्य भारद्वाजो महातपा: । 

क्षान्तं दान्तममित्रघ्नमपश्यद्‌ भूगुनन्दनम्‌ ।। ५४ ।। 


महेन्द्र पर्वतपर पहुँचकर महान्‌ तपस्वी द्रोणने क्षमा एवं शम-दम आदि गुणोंसे युक्त 
शत्रुनाशक भृगुनन्दन परशुरामजीका दर्शन किया ।। ५४ ।। 

ततो द्रोणो वृत: शिष्यैरुपगम्य भगूद्धहम्‌ । 

आचर्ख्यावात्मनो नाम जन्म चाजड्डिरस: कुले ।। ५५ ।। 

तत्पश्चात्‌ शिष्योंसहित द्रोणने भृगुश्रेष्ठ परशुरामजीके समीप जाकर अपना नाम बताया 
और यह भी कहा कि “मेरा जन्म आंगिरस कुलमें हुआ है' || ५५ ।। 

निवेद्य शिरसा भूमौ पादौ चैवाभ्यवादयत्‌ । 

ततस्तं सर्वमुत्सृूज्य वनं जिगमिषुं तदा ।। ५६ ।। 

जामदग्न्यं महात्मानं भारद्वाजोडब्रवीदिदम्‌ | 

भरद्वाजात्‌ समुत्पन्नं तथा त्वं मामयोनिजम्‌ ।। ५७ ।। 

आगतं वित्तकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजर्षभ । 

इस प्रकार नाम और गोत्र बताकर उन्होंने पृथ्वीपर मस्तक टेक दिया और 
परशुरामजीके चरणोंमें प्रणाम किया। तदनन्तर सर्वस्व त्यागकर वनमें जानेकी इच्छा 
रखनेवाले महात्मा जमदग्निकुमारसे द्रोणने इस प्रकार कहा--दद्विजश्रेष्ठ! मैं महर्षि 
भरद्वाजसे उत्पन्न उनका अयोनिज पुत्र हूँ। आपको यह ज्ञात हो कि मैं धनकी इच्छासे 
आया हूँ। मेरा नाम द्रोण है” || ५६-५७ $ || 

तमब्रवीन्महात्मा स सर्वक्षत्रियमर्दन: ।। ५८ ।। 

यह सुनकर समस्त क्षत्रियोंका संहार करनेवाले महात्मा परशुराम उनसे यों बोले 
-- | ५८ || 

स्वागतं ते द्विजश्रेष्ठ यदिच्छसि वदस्व मे । 

एवमुक्तस्तु रामेण भारद्वाजोडब्रवीद्‌ वच: ।। ५९ || 

राम॑ प्रहरतां श्रेष्ठ दित्सन्तं विविध वसु । 

अहं धनमनन्तं हि प्रार्थये विपुलव्रत ।। ६० ।। 

द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारा स्वागत है। तुम जो कुछ भी चाहते हो, मुझसे कहो।” उनके इस 
प्रकार पूछनेपर भरद्वाजकुमार द्रोणने नाना प्रकारके धन-रत्नोंका दान करनेकी इच्छावाले, 
योद्धाओंमें श्रेष्ठ परशुरामसे कहा--“महान्‌ व्रतका पालन करनेवाले महर्षे! मैं आपसे ऐसे 
धनकी याचना करता हूँ, जिसका कभी अन्त न हो” ।। ५९-६० ।। 

राम उवाच 

हिरण्यं मम यच्चान्यद्‌ वसु किंचिदिह स्थितम्‌ | 

ब्राह्मणेभ्यो मया दत्तं सर्वमेतत्‌ तपोधन ।। ६१ ।। 

तथैवेयं धरा देवी सागरान्ता सपत्तना । 

कश्यपाय मया दत्ता कृत्स्ना नगरमालिनी ॥। ६२ ।। 


परशुरामजी बोले--तपोधन! मेरे पास यहाँ जो कुछ सुवर्ण तथा अन्य प्रकारका धन 
था, वह सब मैंने ब्राह्मणोंको दे दिया। इसी प्रकार ग्राम और नगरोंकी पंक्तियोंसे सुशोभित 
होनेवाली समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी महर्षि कश्यपको दे दी है ।। ६१-६२ ।। 

शरीरमात्रमेवाद्य ममेदमवशेषितम्‌ | 

अस्त्राणि च महाहाणि शस्त्राणि विविधानि च ।। ६३ ।। 

अब मेरा यह शरीरमात्र बचा है। साथ ही नाना प्रकारके बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान 
अवशिष्ट है ।। ६३ ।। 

अस्त्राणि वा शरीरं वा वरयैतन्मयोद्यतम्‌ | 

वृणीष्व किं प्रयच्छामि तुभ्यं द्रोण वदाशु तत्‌ ।। ६४ ।। 

अतः तुम अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान अथवा यह शरीर माँग लो। इसे देनेके लिये मैं सदा 
प्रस्तुत हूँ। द्रोण! बोलो, मैं तुम्हें क्या दूँ? शीघ्र उसे कहो ।। ६४ ।। 

द्रोण उदाच 

अस्त्राणि मे समग्राणि ससंहाराणि भार्गव | 

सप्रयोगरहस्यानि दातुमर्हस्यशेषत: ।। ६५ ।। 

द्रोणगने कहा--भूगुनन्दन! आप मुझे प्रयोग, रहस्य तथा संहारविधिसहित सम्पूर्ण 
अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान प्रदान करें ।। ६५ ।। 

तथेत्युक्त्वा ततस्तस्मै प्रादादस्त्राणि भार्गव: । 

सरहस्यव्रतं चैव धनुर्वेदमशेषत: ।। ६६ ।। 

तब “तथास्तु” कहकर भृगुवंशी परशुरामजीने द्रोणको सम्पूर्ण अस्त्र प्रदान किये तथा 
रहस्य और व्रतसहित सम्पूर्ण धनुर्वेदका भी उपदेश किया ।। ६६ ।। 

प्रतिगृहा तु तत्सवव कृतास्त्रो द्विजसत्तम: | 

प्रियं सखायं सुप्रीतो जगाम द्रुपदं प्रति ॥। ६७ ।। 

वह सब ग्रहण करके द्विजश्रेष्ठ द्रोण अस्त्र-विद्याके पूरे पण्डित हो गये और अत्यन्त 
प्रसन्न हो अपने प्रिय सखा ट्रपदके पास गये ।। ६७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि द्रोणस्य भार्गवादस्त्रप्राप्तौ 
ऊनत्रिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १२९ |। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें द्रोणको परशुरामजीसे अस्त्र- 
विद्याकी प्राप्तिविषयक एक सौ उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२९ ॥। 


ऑपन--माज बक। चॉ-ज:ड: 


- गौतमगोत्रीय होनेके कारण शरद्वानूको भी गौतम कहा जाता था। 


- धर्नुर्वेदके चार भेद इस प्रकार हैं--मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त तथा मन्त्रमुक्त। छोड़े जानेवाले बाण आदिको "मुक्त! 
कहते हैं। जिन्हें हाथमें लेकर प्रहार किया जाय, उन खड़्ग आदिको “अमुक्त” कहते हैं। जिस अस्त्रको चलाने और 
समेटनेकी कला मालूम हो, वह अस्त्र 'मुक्तामुक्तर कहलाता है। जिसे मन्त्र पढ़कर चला तो दिया जाय किंतु उसके 
उपसंहारकी विधि मालूम न हो, वह अस्त्र 'मन्त्रमुक्त' कहा गया है, शस्त्र, अस्त्र, प्रत्यस्त्र और परमास्त्र--ये भी धरनुर्वेदके 
चार भेद हैं। इसी प्रकार आदान, संधान, विमोक्ष और संहार--इन चार क्रियाओंके भेदसे भी धनुर्वेदके चार भेद होते हैं। 


त्रिशर्दाधिकशततमो<्ध्याय: 


द्रोणका द्रुपदसे तिरस्कृत हो हस्तिनापुरमें आना, 
राजकुमारोंसे उनकी भेंट, उनकी बीटा* और अँगूठीको 
कुएँमेंसे निकालना एवं भीष्मका उन्हें अपने यहाँ 
सम्मानपूर्वक रखना 


वैशम्पायन उवाच 


ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाज: प्रतापवान्‌ | 

अनब्रवीत्‌ पार्थिवं राजन्‌ सखायं विद्धि मामिह ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! प्रतापी द्रोण राजा ट्रपदके यहाँ जाकर उनसे 
इस प्रकार बोले--'राजन! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैं तुम्हारा मित्र द्रोण यहाँ तुमसे 
मिलनेके लिये आया हूँ || १ ॥। 

इत्येवमुक्त: सख्या स प्रीतिपूर्व जनेश्वर: । 

भारद्वाजेन पाज्चालो नामृष्यत वचो<5स्य तत्‌ ।। २ ।। 

मित्र द्रोणके द्वारा इस प्रकार प्रेमपूर्वक कहे जानेपर पंचालदेशके नरेश ट्रपद उनकी 
इस बातको सह न सके ।। २ ।। 

सक्रोधामर्षजिद्दय भ्रू: कषघायीकृतलोचन: । 

ऐश्वर्यमदसम्पन्नो द्रोणं राजाब्रवीदिदम्‌ ।। ३ ।। 

क्रोध और अमर्षसे उनकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं, आँखोंमें लाली छा गयी; धन और 
ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त होकर वे राजा द्रोणसे यों बोले |। ३ ।। 

हुपद उवाच 


अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मनू नातिसमञ्जसा । 

यन्मां ब्रवीषि प्रसभं॑ सखा ते5हमिति द्विज ।। ४ ।॥ 

द्रपदने कहा--ब्रह्मन! तुम्हारी बुद्धि सर्वथा संस्कारशून्य--अपरिपक्व है। तुम्हारी यह 
बुद्धि यथार्थ नहीं है। तभी तो तुम धृष्टतापूर्वक मुझसे कह रहे हो कि “राजन! मैं तुम्हारा 
सखा हूँ ।। ४ ।। 

न हि रज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरै: क्वचित्‌ । 

सख्यं भवति मन्दात्मन्‌ श्रिया हीनैर्धनच्युतै: ।। ५ ।। 

ओ मूढ़! बड़े-बड़े राजाओंकी तुम्हारे-जैसे श्रीहीन और निर्धन मनुष्योंके साथ कभी 
मित्रता नहीं होती ।। ५ ।। 


सौह्दान्यपि जीर्यन्ते कालेन परिजीर्यत: । 

सौद्ददं मे त्वया हयासीत्‌ पूर्व सामर्थ्यबन्धनम्‌ ।। ६ ।। 

समयके अनुसार मनुष्य ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता है, त्यों-ही-त्यों उसकी मैत्री भी क्षीण 
होती चली जाती है। पहले तुम्हारे साथ जो मेरी मित्रता थी, वह सामर्थ्यको लेकर थी--उस 
समय मैं और तुम दोनों समान शक्तिशाली थे ।। ६ ।। 

न सख्यमजरं लोके हृदि तिष्ठति कस्यचित्‌ । 

कालो होन॑ विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत ।॥ ७ ।। 

लोकमें किसी भी मनुष्यके हृदयमें मैत्री अमिट होकर नहीं रहती। समय एक मित्रको 
दूसरेसे विलग कर देता है अथवा क्रोध मनुष्यको मित्रतासे हटा देता है || ७ ।। 

मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं भवत्वपाकृधि । 

आसीत्‌ सख्य॑ द्विजश्रेष्ठ त्वया मे5र्थनिबन्धनम्‌ ॥। ८ ।। 

इस प्रकार क्षीण होनेवाली मैत्रीका भरोसा न करो। हम दोनों एक-दूसरेके मित्र थे-- 
इस भावको हृदयसे निकाल दो। द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह 
साथ-साथ खेलने और अध्ययन करने आदि स्वार्थको लेकर हुई थी ।। ८ ।। 

न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान्‌ विदुष: सखा । 

न शूरस्य सखा क्लीब: सखिपूर्व किमिष्यते ।। ९ ।। 

सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवानका, मूर्ख विद्वान्‌का और कायर शूरवीरका 
सखा नहीं हो सकता; अतः पहलेकी मित्रताका क्या भरोसा करते हो ।। ९ ।। 

ययोरेव सम॑ वित्तं ययोरेव सम॑ श्रुतम्‌ । 

तयोरविवाह: सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयो: ।। १० ।। 

जिनका धन समान है, जिनकी विद्या एक-सी है, उन्हींमें विवाह और मैत्रीका सम्बन्ध 
हो सकता है। हृष्ट-पुष्ट और दुर्बलमें (धनवान्‌ और निर्धनमें) कभी मित्रता नहीं हो 
सकती ।। १० ।। 

नाश्रोत्रिय: श्रोत्रियस्थ नारथी रथिन: सखा । 

नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्व किमिष्यते ।। ११ ।। 

जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता)-का मित्र नहीं हो सकता। जो रथी नहीं है, 
वह रथीका सखा नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो राजा नहीं है, वह किसी राजाका मित्र 
कदापि नहीं हो सकता। फिर तुम पुरानी मित्रताका क्‍यों स्मरण करते हो? ।। ११ ।। 


वैशग्पायन उवाच 


द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाज: प्रतापवान्‌ | 
मुहूर्त चिन्तयित्वा तु मन्युनाभिपरिष्लुत: ॥। १२ ।। 
स विनिश्ित्य मनसा पाज्चालं प्रति बुद्धिमान्‌ 


जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम्‌ ।। १३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा द्रुपदके यों कहनेपर प्रतापी द्रोण क्रोधसे 
जल उठे और दो घड़ीतक गहरी चिन्तामें डूबे रहे। वे बुद्धिमान्‌ तो थे ही, पांचालनरेशसे 
बदला लेनेके विषयमें मन-ही-मन कुछ निश्चय करके कौरवोंकी राजधानी हस्तिनापुर नगरमें 
चले गये ।। १२-१३ ।। 

स नागपुरमागम्य गौतमस्य निवेशने । 

भारद्वाजो5वसत्‌ तत्र प्रच्छन्नं द्विजसत्तम: ।। १४ ।। 

हस्तिनापुरमें पहुँचकर द्विजश्रेष्ठ द्रोण गौतमगोत्रीय कृपाचार्यके घरमें गुप्तरूपसे 
निवास करने लगे ।। १४ ।। 

ततो<स्य तनुज: पार्थान्‌ कृपस्यानन्तरं प्रभु: । 

अस्त्राणि शिक्षयामास नाबुध्यन्त च तं जना: ।। १५ ।। 

वहाँ उनके पुत्र शक्तिशाली अभश्व॒त्थामा कृपाचार्यके बाद पाण्डवोंको स्वयं ही 
अस्त्रविद्याकी शिक्षा देने लगे; किंतु लोग उन्हें पहचान न सके ।। १५ ।। 

एवं स तत्र गूढात्मा कंचित्‌ कालमुवास ह । 

कुमारास्त्वथ निष्क्रम्प समेता गजसाह्दयात्‌ ।। १६ ।। 

क्रीडन्तो वीटया तत्र वीरा: पर्यचरन्‌ मुदा । 

पपात कूपे सा वीटा तेषां वै क्रीडतां तदा ।। १७ ।। 

इस प्रकार द्रोणने वहाँ अपने आपको छिपाये रखकर कुछ कालतक निवास किया। 
तदनन्तर एक दिन कौरव-पाण्डव सभी वीर कुमार हस्तिनापुरसे बाहर निकलकर बड़ी 
प्रसन्नताके साथ मिलकर वहाँ गुल्ली-डंडा खेलने लगे। उस समय खेलमें लगे हुए उन 
कुमारोंकी वह बीटा कुएँमें गिर पड़ी ।। १६-१७ ।। 

ततस्ते यत्नमातिष्ठन्‌ वीटामुद्धर्तुमादृता: । 

नच ते प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये ।। १८ ।। 

तब वे उस बीटाको निकालनेके लिये बड़ी तत्परताके साथ प्रयत्नमें लग गये; परंतु उसे 
प्राप्त करनेका कोई भी उपाय उनके ध्यानमें नहीं आया ।। १८ ।। 

ततोडन्योन्यमवैक्षन्त व्रीडयावनतानना: । 

तस्या योगमविन्दन्तो भृशं चोत्कण्ठिताभवन्‌ ।। १९ ।। 

इस कारण लज्जासे नतमस्तक होकर वे एक-दूसरेकी ओर देखने लगे। गुल्ली 
निकालनेका कोई उपाय न मिलनेके कारण वे अत्यन्त उत्कण्ठित हो गये ।। १९ ।। 

ते5पश्यन्‌ ब्राह्मणं श्याममापन्नं पलितं कृशम्‌ । 

कृत्यवन्तमदूरस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम्‌ ।। २० ।। 

इसी समय उन्होंने एक श्याम वर्णके ब्राह्मणको थोड़ी ही दूरपर बैठे देखा, जो 
अग्निहोत्र करके किसी प्रयोजनसे वहाँ रुके हुए थे। वे आपत्तिग्रस्त जान पड़ते थे। उनके 


सिरके बाल सफेद हो गये थे और शरीर अत्यन्त दुर्बल था || २० ।। 

ते तं दृष्टवा महात्मानमुपगम्य कुमारका: । 

भग्नोत्साहक्रियात्मानो ब्राह्मुणं पर्यवारयन्‌ ।। २३१ ।। 

उन महात्मा ब्राह्मगको देखकर वे सभी कुमार उनके पास गये और उन्हें घेरकर खड़े 
हो गये। उनका उत्साह भंग हो गया था। कोई काम करनेकी इच्छा नहीं होती थी। मनमें 
भारी निराशा भर गयी थी ।। २१ ।। 

अथ द्रोण: कुमारांस्तान्‌ दृष्टवा कृत्यवतस्तदा । 

प्रहस्य मन्दं पैशल्यादभ्यभाषत वीर्यवान्‌ ।। २२ ।। 

तदनन्तर पराक्रमी द्रोण यह देखकर कि इन कुमारोंका अभीष्ट कार्य पूर्ण नहीं हुआ है 
“-ये उसी प्रयोजनसे मेरे पास आये हैं, उस समय मन्द मुसकराहटके साथ बड़े कौशलसे 
बोले-- ।। २२ ।। 

अहो वो धिग्‌ बल क्षात्रं धिगेतां व: कृतास्त्राताम्‌ । 

भरतस्यान्वये जाता ये वीटां नाधिगच्छत ।। २३ ।। 

“अहो! तुमलोगोंके क्षत्रिययलको धिक्कार है और तुमलोगोंकी इस अस्त्र-विद्या- 
विषयक निपुणताको भी धिक्‍कार है; क्योंकि तुमलोग भरतवंशमें जन्म लेकर भी कुएँमें 
गिरी हुई गुल्लीको नहीं निकाल पाते ।। २३ ।। 

वीटां च मुद्रिकां चैव हाहमेतदपि द्वयम्‌ । 

उद्धरेयमिषीकाभिशर्भोजन मे प्रदीयताम्‌ ।। २४ ।। 

“देखो, मैं तुम्हारी गुल्ली और अपनी इस आअँगूठी दोनोंको सींकोंसे निकाल सकता हूँ। 
तुमलोग मेरी जीविकाकी व्यवस्था करो” ।। २४ ।। 

एवमुक्‍्त्वा कुमारांस्तान्‌ द्रोण: स्वाडुलिवेष्टनम्‌ । 

कूपे निरुदके तस्मिन्नपातयदरिंदम: || २५ ।। 

उन कुमारोंसे यों कहकर शत्रुओंका दमन करनेवाले द्रोणने उस निर्जल कुएँमें अपनी 
अँगूठी डाल दी || २५ ।। 

ततोअब्रवीत्‌ तदा द्रोणं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: । 

उस समय कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने द्रोणसे कहा || २५३ ।। 

युधिछिर उवाच 


कृपस्यानुमते ब्रह्मन्‌ भिक्षामाप्तुहि शाश्वतीम्‌ ।। २६ ।। 

एवमुक्त: प्रत्युवाच प्रहस्य भरतानिदम्‌ | 

युधिष्ठिर बोले--ब्रह्मन! आप कृपाचार्यकी अनुमति ले सदा यहीं रहकर भिक्षा प्राप्त 
करें। 

उनके यों कहनेपर द्रोणने हँसकर उन भरतवंशी राजकुमारोंसे कहा ।। २६३ ।। 


द्रोण उवाच 

एषा मुष्टिरिषीकाणां मयास्त्रेणाभिमन्त्रिता ।। २७ ।। 

द्रोण बोले--ये मुदट्ठीभर सींकें हैं, जिन्हें मैंने अस्त्र-मन्त्रके द्वारा अभिमन्त्रित किया 
है || २७ |। 

अस्या वीर्य निरीक्षध्वं यदन्यस्य न विद्यते । 

भेत्स्यामीषीकया वीटां तामिषीकां तथान्यया ।। २८ ।। 

तुमलोग इसका बल देखो, जो दूसरेमें नहीं है। मैं पहले एक सींकसे उस गुल्लीको बींध 
दूँगा; फिर दूसरी सींकसे उस पहली सींकको बींधूँगा || २८ ।। 

तामन्यया समायोगे वीटाया ग्रहणं मम । 

इसी प्रकार दूसरीको तीसरीसे बींधते हुए अनेक सींकोंका संयोग होनेपर मुझे गुल्ली 
मिल जायगी || २८३ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


ततो यथोक्तं द्रोणेन तत्‌ सर्व कृतमज्जसा ।। २९ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर द्रोणने जैसा कहा था, वह सब कुछ 
अनायास ही कर दिखाया || २९ || 

तददवेक्ष्य कुमारास्ते विस्मयोत्फुल्ललोचना: । 

आश्चर्यमिदमत्यन्तमिति मत्वा वचो<ब्रुवन्‌ ।। ३० ।। 

यह अद्भुत कार्य देखकर उन कुमारोंके नेत्र आश्वर्यसे खिल उठे। इसे अत्यन्त आश्चर्य 
मानकर वे इस प्रकार बोले || ३० ।। 

कुमारा ऊचु. 

मुद्रिकामपि विप्रर्षे शीघ्रमेतां समुद्धर । 

कुमारोंने कहा--ब्रह्मर्ष! अब आप शीघ्र ही इस अँगूठीको भी निकाल दीजिये ।। ३० 
१ 
कल 

वैशम्पायन उवाच 


ततः शरं समादाय भरनुद्रोणो महायशा: ।। ३१ ।। 

शरेण विद्‌ृध्वा मुद्रां तामूर्ध्वमावाहयत्‌ प्रभु: । 

सशरं समुपादाय कूपादड्जुलिवेष्टनम्‌ ।। ३२ ।। 

ददौ तत: कुमाराणां विस्मितानामविस्मित: । 

मुद्रिकामुद्धूतां दृष्टवा तमाहुस्ते कुमारका: ।। ३३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--तब महायशस्वी द्रोणने धनुष-बाण लेकर बाणसे उस 
अँगूठीको बींध दिया और उसे ऊपर निकाल लिया। शक्तिशाली द्रोणने इस प्रकार कुएँसे 


बाणसहित अँगूठी निकालकर उन आश्वर्यचकित कुमारोंके हाथमें दे दी; किंतु वे स्वयं 
तनिक भी विस्मित नहीं हुए। उस अँगूठीको कुएँसे निकाली हुई देखकर उन कुमारोंने 
द्रोणसे कहा || ३१--३३ ।। 
कुमारा ऊचु: 
अभिवादयामहे ब्रह्मन्‌ नैतदन्येषु विद्यते । 
को5सि कस्यासि जानीमो वयं कि करवामहे ।। ३४ ।। 
कुमार बोले--ब्रह्मन! हम आपको प्रणाम करते हैं। यह अस्त्र-कौशल दूसरे 
किसीमें नहीं है। आप कौन हैं, किसके पुत्र हैं--यह हम जानना हैं। बताइये, हमलोग 
आपकी कया सेवा करें? ।। ३४ ।। 
वैशम्पायन उवाच 
एवमुक्तस्ततो द्रोण: प्रत्युवाच कुमारकान्‌ । 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुमारोंके इस प्रकार पूछनेपर द्रोणने उनसे 
कहा ।। ३४३६ ।। 
द्रोण उदाच 
आचक्षध्वं च भीष्माय रूपेण च गुणैश्व माम्‌ ।। ३५ ।। 
स एव सुमहातेजा: साम्प्रतं प्रतिपत्स्यते । 
द्रोण बोले--तुम सब लोग भीष्मजीके पास जाकर मेरे रूप और गुणोंका परिचय दो। 
वे महातेजस्वी भीष्मजी ही मुझे इस समय पहचान सकते हैं ।। ३५३६ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


तथेत्युक्त्वा च गत्वा च भीष्ममूचु: कुमारका: ।। ३६ ।। 

ब्राह्मणस्य वचस्तथ्यं तच्च कर्म तथाविधम्‌ | 

भीष्म: श्रुत्वा कुमाराणां द्रोणं तं प्रत्यजानत ।। ३७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--“बहुत अच्छा” कहकर वे कुमार भीष्मजीके पास गये और 
ब्राह्यणकी सच्ची बातों तथा उनके उस अद्भुत पराक्रमको भी उन्होंने भीष्मजीसे कह 
सुनाया। कुमारोंकी बातें सुनकर भीष्मजी समझ गये कि वे आचार्य द्रोण हैं | ३६-३७ ।। 

युक्तरूप: स हि गुरुरित्येवमनुचिन्त्य च | 

अथैनमानीय तदा स्वयमेव सुसत्कृतम्‌ ।। ३८ ।। 

परिपप्रच्छ निपुणं भीष्म: शस्त्रभृतां वर: | 

हेतुमागमने तच्च द्रोण: सर्व न्यवेदयत्‌ ।। ३९ ।। 

फिर यह सोचकर कि द्रोणाचार्य ही इन कुमारोंके उपयुक्त गुरु हो सकते हैं, भीष्मजी 
स्वयं ही आकर उन्हें सत्कारपूर्वक घर ले गये। वहाँ शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ भीष्मने बड़ी 


बुद्धिमत्ताके साथ द्रोणाचार्यसे उनके आगमनका कारण पूछा और द्रोणने वह सब कारण 
इस प्रकार निवेदन किया ।। ३८-३९ ।। 
द्रोण उदाच 

महर्षेरग्निवेशस्य सकाशमहमच्युत । 

अन्त्रार्थमगमं पूर्व धनुर्वेदजिघृक्षया ।। ४० ।। 

द्रोणाचार्यने कहा--अपनी प्रतिज्ञासे कभी च्युत न होनेवाले भीष्मजी! पहलेकी बात 
है, मैं अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा तथा धरनुर्वेदका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये महर्षि अग्निवेशके 
समीप गया था ।। ४० ।। 

ब्रह्मचारी विनीतात्मा जटिलो बहुला: समा: । 

अवसं सुचिरं तत्र गुरुशुश्रूषणे रत: ।। ४१ ।। 

वहाँ मैं विनीत हृदयसे ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए सिरपर जटा धारण किये बहुत 
वर्षोतक रहा। गुरुकी सेवामें निरन्तर संलग्न रहकर मैंने दीर्घकालतक उनके आश्रममें 
निवास किया ।। ४१ ।। 

पाज्चालो राजपुत्रश्न यज्ञसेनो महाबल: । 

इष्वस्त्रहेतोर्न्यवसत्‌ तस्मिन्नेव गुरौ प्रभु: ।॥ ४२ ।। 

उन दिनों पंचालराजकुमार महाबली यज्ञसेन ट्रुपद भी, जो बड़े शक्तिशाली थे, 
धनुर्वेदकी शिक्षा पानेके लिये उन्हीं गुरुदेव अग्निवेशके समीप रहते थे ।। ४२ ।। 

स मे तत्र सखा चासीदुपकारी प्रियश्न मे । 

तेनाहं सह संगम्य वर्तयन्‌ सुचिरं प्रभो ।। ४३ ।। 

वे उस गुरुकुलमें मेरे बड़े ही उपकारी और प्रिय मित्र थे। प्रभो! उनके साथ मिल- 
जुलकर मैं बहुत दिनोंतक आश्रममें रहा || ४३ ।। 

बाल्यात्‌ प्रभृति कौरव्य सहाध्ययनमेव च । 

स मे सखा सदा तत्र प्रियवादी प्रियंकर: ।॥। ४४ ।। 

बचपनसे ही हम दोनोंका अध्ययन साथ-साथ चलता था। द्रुपद वहाँ मेरे घनिष्ठ मित्र 
थे। वे सदा मुझसे प्रिय वचन बोलते और मेरा प्रिय कार्य करते थे ।। ४४ ।। 

अब्रवीदिति मां भीष्म वचन प्रीतिवर्धनम्‌ 

अहं प्रियतमः पुत्र: पितुद्रोण महात्मन: ।। ४५ ।। 

भीष्मजी! वे एक दिन मुझसे मेरी प्रसन्नताको बढ़ानेवाली यह बात बोले--'द्रोण! मैं 
अपने महात्मा पिताका अत्यन्त प्रिय पुत्र हूँ || ४५ ।। 

अभिषेक्ष्यति मां राज्ये स पाड्चालो यदा तदा । 

त्वद्धोग्यं भविता तात सखे सत्येन ते शपे ।। ४६ ।। 

मम भोगाश्च वित्त च त्वदधीनं सुखानि च । 


एवमुक्‍्त्वाथ वबच्राज कृतास्त्र: पूजितो मया ।। ४७ ।। 

“तात! जब पांचालनरेश मुझे राज्यपर अभिषिक्त करेंगे, उस समय मेरा राज्य तुम्हारे 
उपभोगमें आयेगा। सखे! मैं सत्यकी सौगंध खाकर कहता हूँ--मेरे भोग, वैभव और सुख 
सब तुम्हारे अधीन होंगे।' यों कहकर वे अस्त्रविद्यामें निपुण हो मुझसे सम्मानित होकर 
अपने देशको लौट गये ।। ४६-४७ ।। 

तच्च वाक्यमहं नित्यं मनसा धारयंस्तदा । 

सो<हं पितृनियोगेन पुत्रलोभाद्‌ यशस्विनीम्‌ ।। ४८ ।। 

नातिकेशीं महाप्रज्ञामुपयेमे महाव्रताम्‌ । 

अन्निहोत्रे च सत्रे च दमे च सततं रताम्‌ ।। ४९ ।। 

उनकी उस समय कही हुई इस बातको मैं अपने मनमें सदा याद रखता था। कुछ 
दिनोंके बाद पितरोंकी प्रेरणासे मैंने पुत्र-प्राप्तिके लोभसे परम बुद्धिमती, महान्‌ व्रतका 
पालन करनेवाली, अन्निहोत्र, सत्र तथा शम-दमके पालनमें मेरे साथ सदा संलग्न रहनेवाली 
शरद्वानकी पुत्री यशस्विनी कृपीसे, जिसके केश बहुत बड़े नहीं थे, विवाह 
किया || ४८-४९ ।। 

अलभद्‌ गौतमी पुत्रमश्चत्थामानमौरसम्‌ । 

भीमविक्रमकर्माणमादित्यसमतेजसम्‌ ।। ५० ।। 

उस गौतमी कृपीने मुझसे मेरे औरस पुत्र अश्वत्थामाको प्राप्त किया, जो सूर्यके समान 
तेजस्वी तथा भयंकर पराक्रम एवं पुरुषार्थ करनेवाला है || ५० ।। 

पुत्रेण तेन प्रीतो5हं भरद्वाजो मया यथा । 

गोक्षीरं पिबतो दृष्टवा धनिनस्तत्र पुत्रकान्‌ 

अश्वत्थामारुदद्‌ बालस्तन्मे संदेहयद्‌ दिश: ।। ५१ ।। 

उस पुत्रसे मुझे उतनी ही प्रसन्नता हुई, जितनी मुझसे मेरे पिता भरद्वाजको हुई थी। 
एक दिनकी बात है, गोधनके धनी ऋषिकुमार गायका दूध पी रहे थे। उन्हें देखकर मेरा 
छोटा बच्चा अश्वत्थामा भी बाल-स्वभावके कारण दूध पीनेके लिये मचल उठा और रोने 
लगा। इससे मेरी आँखोंके सामने अँधेरा छा गया--मुझे दिशाओंके पहचाननेमें भी संशय 
होने लगा ।। ५१ ।। 

न सनातको<5वसीदेत वर्तमान: स्वकर्मसु । 

इति संचिन्त्य मनसा तं॑ देशं बहुशो भ्रमन्‌ ।। ५२ ।। 

विशुद्धमिच्छन्‌ गाड़ेय धर्मोपेतं प्रतिग्रहम्‌ 

अन्तादन्तं परिक्रम्य नाध्यगच्छ॑ पयस्विनीम्‌ ।। ५३ ।। 

मैंने मन-ही-मन सोचा, यदि मैं किसी कम गायवाले ब्राह्मणसे गाय माँगता हूँ तो कहीं 
ऐसा न हो कि वह अपने अग्निहोत्र आदि कर्मोंमें लगा हुआ स्नातक गोदुग्धके बिना कष्टमें 
पड़ जाय; अतः जिसके पास बहुत-सी गौएँ हों, उसीसे धर्मानुकूल विशुद्ध दान लेनेकी 


इच्छा रखकर मैंने उस देशमें कई बार भ्रमण किया। गंगानन्दन! एक देशसे दूसरे देशमें 
घूमनेपर भी मुझे दूध देनेवाली कोई गाय न मिल सकी ।। ५२-५३ ।। 

अथ पिष्टोदकेनैनं लोभयन्ति कुमारका: । 

पीत्वा पिष्टरसं बाल: क्षीरं॑ पीत॑ मयापि च ।। ५४ ।। 

ननर्तोत्थाय कौरव्य हृष्टो बाल्याद्‌ विमोहित: । 

त॑ दृष्टवा नृत्यमानं तु बालै: परिवृतं सुतम्‌ ।। ५५ ।। 

हास्यतामुपसम्प्राप्तं कश्मलं तत्र मे5भवत्‌ । 

द्रोणं धिगस्त्वधनिनं यो धनं नाधिगच्छति ।। ५६ ।। 

मैं लौटकर आया तो देखता हूँ कि छोटे-छोटे बालक आटेके पानीसे अभश्वत्थामाको 
ललचा रहे हैं और वह अज्ञानमोहित बालक उस आटेके जलको ही पीकर मारे हर्षके फ़ूला 
नहीं समाता तथा यह कहता हुआ उठकर नाच रहा है कि "मैंने दूध पी लिया'। कुरुनन्दन! 
बालकोंसे घिरे हुए अपने पुत्रको इस प्रकार नाचते और उसकी हँसी उड़ायी जाती देख मेरे 
मनमें बड़ा क्षोभ हुआ। उस समय कुछ लोग इस प्रकार कह रहे थे, 'इस धनहीन द्रोणको 
धिक्‍्कार है, जो धनका उपार्जन नहीं करता ।। ५४--५६ || 

पिष्टोदक॑ सुतो यस्य पीत्वा क्षीरस्य तृष्णया । 

नृत्यति सम मुदाविष्ट: क्षीरं पीत॑ मयाप्युत ।। ५७ ।। 

इति सम्भाषतां वाचं श्रुत्वा मे बुद्धिरच्यवत्‌ । 

आत्मानं चात्मना गर्हन्‌ मनसेदं व्यचिन्तयम्‌ ।। ५८ ।। 

अपि चाह ं पुरा विप्रैर्वर्जितो गर्हितो वसे । 

परोपसेवां पापिष्ठां न च कुर्या धनेप्सया ।। ५९ ।। 

“जिसका बेटा दूधकी लालसासे आटा मिला हुआ जल पीकर आनन्दमग्न हो यह 
कहता हुआ नाच रहा है कि “मैंने भी दूध पी लिया।” इस प्रकारकी बातें करनेवाले लोगोंकी 
आवाज मेरे कानोंमें पड़ी तो मेरी बुद्धि स्थिर न रह सकी। मैं स्वयं ही अपने-आपकी निन्दा 
करता हुआ मन-ही-मन इस प्रकार सोचने लगा--“मुझे दरिद्र जानकर पहलेसे ही ब्राह्मणोंने 
मेरा साथ छोड़ दिया। मैं धनाभावके कारण निन्दित होकर उपवास भले ही कर लूँगा, परंतु 
धनके लोभसे दूसरोंकी सेवा, जो अत्यन्त पापपूर्ण कर्म है, कदापि नहीं कर सकता” || ५७ 
“7५९ || 

इति मत्वा प्रियं पुत्र भीष्मादाय ततो हाहम्‌ । 

पूर्वस्नेहानुरागित्वात्‌ू सदार: सौमकि गत: ।। ६० ।। 

भीष्मजी! ऐसा निश्चय करके मैं अपने प्रिय पुत्र और पत्नीको साथ लेकर पहलेके स्नेह 
और अनुरागके कारण राजा ट्रुपदके यहाँ गया ।। ६० ।। 

अभिफषिक्तं तु श्र॒ुत्वैव कृतार्थो5स्मीति चिन्तयन्‌ । 

प्रियं सखायं सुप्रीतो राज्यस्थं समुपागमम्‌ ।। ६१ ।। 


मैंने सुन रखा था कि ट्रुपदका राज्याभिषेक हो चुका है, अतः मैं मन-ही-मन अपनेको 
कृतार्थ मानने लगा और बड़ी प्रसन्नताके साथ राज्यसिंहासनपर बैठे हुए अपने प्रिय सखाके 
समीप गया ।। ६१ ।। 

संस्मरन्‌ संगमं चैव वचन चैव तस्य तत्‌ | 

ततो द्रुपदमागम्य सखिपूर्वमहं प्रभो ।। ६२ ।। 

अब्रुवं पुरुषव्यात्र सखायं विद्धि मामिति । 

उपस्थितस्तु द्रुपदं सखिवच्चास्मि संगत: ।। ६३ ।। 

उस समय मुझे द्रुपदकी मैत्री और उनकी कही हुई पूर्वोक्त बातोंका बारंबार स्मरण हो 
आता था। तदनन्तर अपने पहलेके सखा द्रुपदके पास पहुँचकर मैंने कहा--“नरश्रेष्ठ! मुझ 
अपने मित्रको पहचानो तो सही।' प्रभो! मैं ट्रपदके पास पहुँचनेपर उनसे मित्रकी ही भाँति 
मिला || ६२-६३ ।। 

स मां निराकारमिव प्रहसन्निदमब्रवीत्‌ | 

अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मनू नातिसमञज्जसा ।। ६४ ।। 

परंतु द्रपदने मुझे नीच मनुष्यके समान समझकर उपहास करते हुए इस प्रकार कहा 
--ब्राह्मण! तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त असंगत एवं अशुद्ध है ।। ६४ ।। 

यदात्थ मां त्वं प्रसभं सखा ते5हमिति द्विज । 

संगतानीह जीर्यन्ति कालेन परिजीर्यत: ।। ६५ ।। 

“तभी तो तुम मुझसे यह कहनेकी धृष्टता कर रहे हो कि “राजन! मैं तुम्हारा सखा हूँ!” 
समयके अनुसार मनुष्य ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता है, त्यों-त्यों उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली 
जाती है || ६५ ।। 

सौद्दं मे त्वया हयासीत्‌ पूर्व सामर्थ्यबन्धनम्‌ । 

नाक्रोत्रिय: श्रोत्रियस्थ नारथी रथिन: सखा ।। ६६ ।। 

“पहले तुम्हारे साथ मेरी जो मित्रता थी, वह सामर्थ्यको लेकर थी--उस समय हम 
दोनोंकी शक्ति समान थी (किंतु अब वैसी बात नहीं है)। जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय 
(वेदवेत्ता)-का, जो रथी नहीं है, वह रथीका सखा नहीं हो सकता ।। ६६ || 

साम्याद्धि सख्यं भवति वैषम्यात्रोपपद्यते | 

न सख्यमजरं लोके विद्यते जातु कस्यचित्‌ ।। ६७ ।। 

सब बातोंमें समानता होनेसे ही मित्रता होती है। विषमता होनेपर मैत्रीका होना 
असम्भव है। फिर लोकमें कभी किसीकी मैत्री अजर-अमर नहीं होती || ६७ ।। 

कालो वैनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत । 

मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सत्यं भवत्वपाकृधि ।। ६८ ।। 

“समय एक मित्रको दूसरेसे विलग कर देता है अथवा क्रोध मनुष्यको मित्रतासे हटा 
देता है। इस प्रकार क्षीण होनेवाली मैत्रीकी उपासना (भरोसा) न करो। हम दोनों एक- 


दूसरेके मित्र थे, इस भावको हृदयसे निकाल दो” ।। ६८ ।। 
आसीत्‌ सख्य॑ द्विजश्रेष्ठ त्वया मे5र्थनिबन्धनम्‌ । 
न हानाढ्य: सखाढ्यस्य नाविद्वान्‌ विदुष: सखा ।। ६९ ।। 
न शूरस्य सखा क्लीब: सखिपूर्व किमिष्यते । 
न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरै: क्वचित्‌ ।। ७० ।। 
सख्यं भवति मन्दात्मन्‌ श्रियाहीनैर्धनच्युतै: । 
नाश्रोत्रिय: श्रोत्रियस्थ नारथी रथिन: सखा ।। ७१ ।। 
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्व किमिष्यते । 
अहं त्वया न जानामि राज्यार्थे संविदं कृताम्‌ ।। ७२ ।। 
द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह (साथ-साथ खेलने और 
अध्ययन करने आदि) स्वार्थको लेकर हुई थी। सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्य 
धनवान्‌का, मूर्ख विद्वान्‌कां और कायर शूरवीरका सखा नहीं हो सकता; अतः पहलेकी 
मित्रताका क्या भरोसा करते हो? मन्दमते! बड़े-बड़े राजाओंकी तुम्हारे-जैसे श्रीहीन और 
निर्धन मनुष्योंके साथ कभी मित्रता हो सकती है? जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रियका; जो 
रथी नहीं है, वह रथीका तथा जो राजा नहीं है, वह राजाका मित्र नहीं हो सकता। फिर तुम 
मुझे जीर्ण-शीर्ण मित्रताका स्मरण क्‍यों दिलाते हो? मैंने अपने राज्यके लिये तुमसे कोई 
प्रतिज्ञा की थी, इसका मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है ।। ६९--७२ ।। 
एकरात्र तु ते ब्रह्मन्‌ काम॑ दास्यामि भोजनम्‌ | 
एवमुक्तस्त्वहं तेन सदार: प्रस्थितस्तदा || ७३ ।। 
“ब्रह्मन! तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हें एक रातके लिये अच्छी तरह भोजन दे सकता 
' राजा ट्रुपदके यों कहनेपर मैं पत्नी और पुत्रके साथ वहाँसे चल दिया || ७३ ।। 
तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्तास्म्यचिरादिव । 
द्रुपदेनैवमुक्तो5हं मनन्‍्युनाभिपरिप्लुत: ॥। ७४ ।। 
चलते समय मैंने एक प्रतिज्ञा की थी, जिसे शीघ्र पूर्ण करूँगा। ट्रुपदके द्वारा जो इस 
प्रकार तिरस्कारपूर्ण वचन मेरे प्रति कहा गया है, उसके कारण मैं क्षोभसे अत्यन्त व्याकुल 
हो रहा हूँ || ७४ ।। 
अभ्यागच्छ॑ कुरून्‌ भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वितै: । 
ततो<हं भवतः काम॑ संवर्धयितुमागत: ।। ७५ ।। 
इदं नागपुर रम्यं ब्रूहि किं करवाणि ते । 
भीष्मजी! मैं गुणवान्‌ शिष्योंके द्वारा अपने अभीष्टकी सिद्धि चाहता हुआ आपके 
मनोरथको पूर्ण करनेके लिये पंचालदेशसे कुरुराज्यके भीतर इस रमणीय हस्तिनापुर 
नगरमें आया हूँ। बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? ।। ७५३ ।। 


हूँ 


वैशग्पायन उवाच 


एवमुक्तस्तदा भीष्मो भारद्वाजमभाषत ।। ७६ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--द्रोणाचार्यके यों कहनेपर भीष्मने उनसे कहा ।। ७६ ।। 


भीष्म उवाच 


अपज्यं क्रियतां चापं साध्वस्त्रं प्रतिपादय । 
भुड्क्ष्य भोगान्‌ भृशं प्रीत: पूज्यमान: कुरुक्षये || ७७ ।। 
भीष्मजी बोले--विप्रवर! अब आप अपने धनुषकी डोरी उतार दीजिये और यहाँ 
रहकर राजकुमारोंको धरनुर्वेद एवं अस्त्र-शस्त्रोंकी अच्छी शिक्षा दीजिये। कौरवोंके घरमें 
सदा सम्मानित रहकर अत्यन्त प्रसन्नताके साथ मनोवांछित भोगोंका उपभोग 
कीजिये ।। ७७ ।। 
कुरूणामस्ति यद्‌ वित्तं राज्यं चेद॑ सराष्ट्रकम्‌ । 
त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव ।। ७८ ।। 
कौरवोंके पास जो धन, राज्य-वैभव तथा राष्ट्र है, उसके आप ही सबसे बड़े राजा हैं। 
समस्त कौरव आपके अधीन हैं ।। ७८ ।। 
यच्च ते प्रार्थितं ब्रह्मन्‌ कृतं तदिति चिन्त्यताम्‌ । 
दिष्ट्या प्राप्तोडसि विप्रर्षे महान्‌ मेडनुग्रह: कृत: ।। ७९ ।। 
ब्रह्म! आपने जो माँग की है, उसे पूर्ण हुई समझिये। ब्रह्मर्ष] आप आये, यह हमारे 
लिये बड़े सौभाग्यकी बात है। आपने यहाँ पधारकर मुझपर महान्‌ अनुग्रह किया 
है ।। ७९ |। 
इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीष्मद्रोणसमागमे 
त्रिंशयधिकशततमो< ध्याय: ।। १३० ।॥। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें भीष्य-द्रोण-समागमविषयक एक 
सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३० ॥। 


- जौके आकारकी बनी हुई काठकी मोटी गुल्लीको “बीटा” कहते हैं। 


एकत्रिशदाधिकशततमो< ध्याय: 


द्रोणाचार्यद्वारा राजकुमारोंकी शिक्षा, एकलव्यकी गुरुभक्ति 
तथा आचार्यद्वारा शिष्योंकी परीक्षा 


वैशम्पायन उवाच 

ततः सम्पूजितो द्रोणो भीष्मेण द्विपदां वर: । 

विशश्राम महातेजा: पूजित: कुरुवेश्मनि ॥। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर मनुष्योंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी द्रोणाचार्यने 
भीष्मजीके द्वारा पूजित हो कौरवोंके घरमें विश्राम किया। वहाँ उनका बड़ा सम्मान किया 
गया ।। १ ।। 

विश्रान्तेडथ गुरौ तस्मिन्‌ पौत्रानादाय कौरवान्‌ | 

शिष्यत्वेन ददौ भीष्मो वसूनि विविधानि च । २ ।। 

गृहं च सुपरिच्छन्नं धनधान्यसमाकुलम्‌ । 

भारद्वाजाय सुप्रीत: प्रत्यपादयत प्रभु: ।। ३ ।। 

गुरु द्रोणाचार्य जब विश्राम कर चुके, तब सामर्थ्यशाली भीष्मजीने अपने कुरुवंशी 
पौत्रोंकी लेकर उन्हें शिष्यरूपमें समर्पित किया। साथ ही अत्यन्त प्रसन्न होकर 
भरद्वाजनन्दन द्रोणको नाना प्रकारके धन-रत्न और सुन्दर सामग्रियोंसे सुसज्जित तथा 
धन- धान्यसे सम्पन्न भवन प्रदान किया ।। २-३ ।। 

स ताज्थशिष्यान्‌ महेष्वास: प्रतिजग्राह कौरवान्‌ | 

पाण्डवान्‌ धार्तराष्ट्रांश् द्रोणो मुदितमानस: ।। ४ ।। 

महाधनुर्धर आचार्य द्रोणने प्रसन्नचित्त होकर उन धुृतराष्ट्र-पुत्रों तथा पाण्डवोंको 
शिष्यरूपमें ग्रहण किया ।। ४ ।। 

प्रतिगृह्य च तान्‌ सर्वान्‌ द्रोणो वचनमत्रवीत्‌ | 

रहस्येक: प्रतीतात्मा कृतोपसदनांस्तथा ।। ५ ।। 

उन सबको ग्रहण कर लेनेपर एक दिन एकान्तमें जब द्रोणाचार्य पूर्ण विश्वासयुक्त 
मनसे अकेले बैठे थे, तब उन्होंने अपने पास बैठे हुए सब शिष्योंसे यह बात कही ।। ५ ।। 

द्रोण उदाच 

कार्य मे काड्क्षितं किंचिद्धृदि सम्परिवर्तते | 

कृतास्त्रैस्तत्‌ प्रदेयं मे तदेतद्‌ वदतानघा: ।। ६ ।। 

द्रोण बोले--निष्पाप राजकुमारो! मेरे मनमें एक कार्य करनेकी इच्छा है। अस्त्रशिक्षा 
प्राप्त कर लेनेके पश्चात्‌ तुमलोगोंको मेरी वह इच्छा पूर्ण करनी होगी। इस विषयमें तुम्हारे 


क्या विचार हैं, बतलाओ ।। ६ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


8 त्वा कौरवेयास्ते तृष्णीमासन्‌ विशाम्पते । 

अजनसत ततः सर्व प्रतिजज्ञे परंतप ।। ७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--शत्रुओंको संताप देनेवाले राजा जनमेजय! आचार्यकी वह 
बात सुनकर सब कौरव चुप रह गये; परंतु अर्जुनने वह सब कार्य पूर्ण करनेकी प्रतिज्ञा कर 
ली ।।७।। 

ततोरर्जुनं तदा मूर्थ्नि समाप्राय पुन: पुन: । 

प्रीतिपूर्व परिष्वज्य प्ररुरोद मुदा तदा ।। ८ ।। 

तब आचार्यने बारंबार अर्जुनका मस्तक सूँघा और उन्हें प्रेमपूर्वक हृदयसे लगाकर वे 
हर्षके आवेशमें रो पड़े || ८ ।। 

ततो द्रोण: पाण्डुपुत्रानस्त्राणि विविधानि च । 

ग्राहयामास दिव्यानि मानुषाणि च वीर्यवान्‌ ।। ९ ।। 

तब पराक्रमी द्रोणाचार्य पाण्डवों (तथा अन्य शिष्यों)-को नाना प्रकारके दिव्य एवं 
मानव अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा देने लगे || ९ ।। 

राजपुत्रास्तथा चान्ये समेत्य भरतर्षभ । 

अभिजममुस्ततो द्रोणमस्त्रार्थे द्विजसत्तमम्‌ ।। १० ।। 

भरतश्रेष्ठ] उस समय दूसरे-दूसरे राजकुमार भी अस्त्रविद्याकी शिक्षा लेनेके लिये 
द्विजश्रेष्ठ द्रोणके पास आने लगे ।। १० ।। 

वृष्णयश्चान्धकाश्रैव नानादेश्याश्न पार्थिवा: | 

सूतपुत्रश्न राधेयो गुरु द्रोणमियात्‌ तदा ।। ११ ।। 

वृष्णिवंशी तथा अन्धकवंशी क्षत्रिय, नाना देशोंके राजकुमार तथा राधानन्दन सूतपुत्र 
कर्ण--ये सभी आचार्य द्रोणके पास (अस्त्र-शिक्षा लेनेके लिये) आये ।। ११ ।। 

स्पर्थमानस्तु पार्थेन सूतपुत्रो5त्यमर्षण: । 

दुर्योधनं समाश्रित्य सोडवमन्यत पाण्डवान्‌ ।। १२ ।। 

सूतपुत्र कर्ण सदा अर्जुनसे लाग-डाँट रखता और अत्यन्त अमर्षमें भरकर दुर्योधनका 
सहारा ले पाण्डवोंका अपमान किया करता था ।। १२ ।। 

अभ्ययात्‌ स ततो द्रोणं धनुर्वेदचिकीर्षया । 

शिक्षाभुजबलोेथ्योगैस्तेषु सर्वेषु पाण्डव: । 

अस्त्रविद्यानुरागाच्च विशिष्टो5भवदर्जुन: ।। १३ ।। 

तुल्येष्वस्त्रप्रयोगेषु लाघवे सौष्ठवेषु च । 

सर्वेषामेव शिष्याणां बभूवाभ्यधिको<र्जुन: ।। १४ ।। 


पाण्डुनन्दन अर्जुन (सदा अभ्यासमें लगे रहनेसे) धनुर्वेदकी जिज्ञासा, शिक्षा, बाहुबल 
और उद्योगकी दृष्टिसे उन सभी शिष्योंमें श्रेष्ठ एवं आचार्य द्रोणकी समानता करनेयोग्य हो 
गये। उनका अस्त्र-विद्यामें बड़ा अनुराग था, इसलिये वे तुल्य अस्त्रोंके प्रयोग, फुर्ती और 
सफाईमें भी सबसे बढ़-चढ़कर निकले ।। १३-१४ ।। 

ऐन्द्रिमप्रतिमं द्रोण उपदेशेष्वमन्यत । 

एवं सर्वकुमाराणामिष्वस्त्रं प्रत्यपादयत्‌ ।। १५ ।। 

आचार्य द्रोण उपदेश ग्रहण करनेमें अर्जुनको अनुपम प्रतिभाशाली मानते थे। इस 
प्रकार आचार्य सब कुमारोंको अस्त्र-विद्याकी शिक्षा देते रहे | १५ ।। 

कमण्डलुं च सर्वेषां प्रायच्छच्चिरकारणात्‌ । 

पुत्राय च ददौ कुम्भमविलम्बनकारणात्‌ ।। १६ ।। 

यावत्‌ ते नोपगच्छन्ति तावदस्मै परां क्रियाम्‌ 

द्रोण आचष्ट पुत्राय तत्‌ कर्म जिष्णुरौहत ।। १७ ।। 

वे अन्य सब शिष्योंको तो पानी लानेके लिये कमण्डलु देते, जिससे उन्हें लौटनेमें कुछ 
विलम्ब हो जाय; परंतु अपने पुत्र अश्वत्थामाको बड़े मुँहका घड़ा देते, जिससे उसके 
लौटनेमें विलम्ब न हो (अत: अभ्वत्थामा सबसे पहले पानी भरकर उनके पास लौट आता 
था)। जबतक दूसरे शिष्य लौट नहीं आते, तबतक वे अपने पुत्र अश्वत्थामाको अस्त्र- 
संचालनकी कोई उत्तम विधि बतलाते थे। अर्जुनने उनके इस कार्यको जान 
लिया ।। १६-१७ || 

ततः स वारुणास्त्रेण पूरयित्वा कमण्डलुम्‌ । 

सममाचार्यपुत्रेण गुरुम भ्येति फाल्गुन: ।। १८ ।। 

आचार्य पुत्रात्‌ तस्मात्‌ तु विशेषोपचयेडपृथक्‌ । 

न व्यहीयत मेधावी पार्थो5प्यस्त्रविदां वर: ।। १९ |। 

अर्जुन: परमं यत्नमातिष्ठद्‌ गुरुपूजने । 

अस्त्रे च परम॑ योगं प्रियो द्रोणस्प चाभवत्‌ ।। २० ।। 

अतः वे वारुणास्त्रसे तुरंत ही अपना कमण्डलु भरकर आचार्यपुत्रके साथ ही गुरुके 
समीप आ जाते थे, इसलिये आचार्यपुत्रसे किसी भी गुणकी वृद्धिमें वे अलग या पीछे न 
रहे। यही कारण था कि मेधावी अर्जुन अश्व॒त्थामासे किसी बातमें कम न रहे। वे 
अस्त्रवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ थे। अर्जुन अपने गुरुदेवकी सेवा-पूजाके लिये भी उत्तम यत्न 
करते थे। अस्त्रोंके अभ्यासमें भी उनकी अच्छी लगन थी। इसीलिये वे ट्रोणाचार्यके बड़े प्रिय 
हो गये ।। १८--२० ।। 

त॑ं दृष्टवा नित्यमुद्युक्तमिष्वस्त्रं प्रति फाल्गुनम्‌ । 

आहूय वचन द्रोणो रह: सूदमभाषत ।। २१ ।। 

अन्धकारेअर्जुनायान्नं न देयं ते कदाचन । 


न चाख्येयमिदं चापि मद्वाक्यं विजये त्वया ।। २२ ।। 

अर्जुनको धनुष-बाणके अभ्यासमें निरन्तर लगा हुआ देख द्रोणाचार्यने रसोइयेको 
एकान्तमें बुलाकर कहा--“तुम अर्जुनको कभी अँधेरेमें भोजन न परोसना और मेरी यह 
बात भी अर्जुनसे कभी न कहना” ।। २१-२२ ।। 

ततः कदाचिद्‌ भुज्जाने प्रववौ वायुरज्ुने । 

तेन तत्र प्रदीप: स दीप्यमानो विलोपित: ।। २३ ।। 

तदनन्तर एक दिन जब अर्जुन भोजन कर रहे थे, बड़े जोरसे हवा चलने लगी; उससे 
वहाँका जलता हुआ दीपक बुझ गया ।। २३ ।। 

भुड्ुक्त एव तु कौन्तेयो नास्यादन्यत्र वर्तते । 

हस्तस्तेजस्विनस्तस्य अनुग्रहणकारणात्‌ ।। २४ ।। 

उस समय भी कुन्तीनन्दन अर्जुन भोजन करते ही रहे। उन तेजस्वी अर्जुनका हाथ 
अभ्यासवश अँधेरेमें भी मुखसे अन्यत्र नहीं जाता था ।। २४ ।। 

तदभ्यासकृतं मत्वा रात्रावपि स पाण्डव: । 

योग्यां चक्रे महाबाहुर्धनुषा पाण्डुनन्दन: ।। २५ ।। 

उसे अभ्यासका ही चमत्कार मानकर महाबाहु पाण्डुनन्दन अर्जुन रातमें भी 
धनुर्विद्याका अभ्यास करने लगे || २५ ।। 

तस्य ज्यातलनिर्घोषं द्रोण: शुश्राव भारत । 

उपेत्य चैनमुत्थाय परिष्वज्येदमब्रवीत्‌ ।। २६ ।। 

भारत! उनके धनुषकी प्रत्यंचाका टंकार द्रोणने सोते समय सुना। तब वे उठकर उनके 
पास गये और उन्हें हृदयसे लगाकर बोले ।। २६ || 

द्रोण उदाच 

प्रयतिष्ये तथा कर्तु यथा नान्यो धरनुर्धर: । 

त्वत्समो भविता लोके सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते || २७ ।। 

द्रोणने कहा--अर्जुन! मैं ऐसा करनेका प्रयत्न करूँगा, जिससे इस संसारमें दूसरा 
कोई धनुर्धर तुम्हारे समान न हो। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ || २७ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

ततो द्रोणो<र्जुनं भूयो हयेषु च गजेषु च । 

रथेषु भूमावपि च रणशिक्षामशिक्षयत्‌ ॥। २८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर द्रोणाचार्य अर्जुनको पुनः घोड़ों, हाथियों, 
रथों तथा भूमिपर रहकर युद्ध करनेकी शिक्षा देने लगे || २८ ।। 

गदायुद्धे$सिचर्यायां तोमरप्रासशक्तिषु । 

द्रोण: संकीर्णयुद्धे च शिक्षयामास कौरवान्‌ ॥। २९ ।। 


उन्होंने कौरवोंको गदायुद्ध, खड्ग चलाने तथा तोमर, प्रास और शक्तियोंके प्रयोगकी 
कला एवं एक ही साथ अनेक शशण्त्रोंके प्रयोग अथवा अकेले ही अनेक शत्रुओंसे युद्ध 
करनेकी शिक्षा दी ।। २९ ।। 

तस्य तत्‌ कौशल श्रुत्वा धनुर्वेदजिघृक्षव: । 

राजानो राजपुत्राश्न समाजग्मु: सहस्रश: ।। ३० ।। 

द्रोणाचार्यका वह अस्त्रकौशल सुनकर सहस्रों राजा और राजकुमार धरनुर्वेदकी शिक्षा 
लेनेके लिये वहाँ एकत्रित हो गये || ३० ।। 

ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुष: सुतः । 

एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह ।। ३१ ।। 

महाराज! तदनन्तर निषादराज हिरण्यधनुका पुत्र एकलव्य द्रोणके पास 
आया ।। ३१ || 

नसतं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्‌ | 

शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्ववेक्षया ॥। ३२ ।। 

परंतु उसे निषादपुत्र समझकर धर्मज्ञ आचार्यने धनुर्विद्याविषयक शिष्य नहीं बनाया। 
कौरवोंकी ओर दृष्टि रखकर ही उन्होंने ऐसा किया || ३२ ।। 

स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ गृहा[ परंतप: । 

अरण्यमनुसम्प्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम्‌ ।। ३३ ।। 

तस्मिन्नाचार्यवृत्ति च परमामास्थितस्तदा । 

इष्वस्त्रे योगमातस्थे परं॑ नियममास्थित: ।। ३४ ।। 

शत्रुओंको संताप देनेवाले एकलव्यने द्रोणाचार्यके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम 
किया और वनमें लौटकर उनकी मिट्टीकी मूर्ति बनायी तथा उसीमें आचार्यकी परमोच्च 
भावना रखकर उसने थधर्नुर्विद्याका अभ्यास प्रारम्भ किया। वह बड़े नियमके साथ रहता 
था || ३३-३४ ।। 

परया श्रद्धयोपेतो योगेन परमेण च । 

विमोक्षादानसंधाने लघुत्वं परमाप सः ॥। ३५ ।। 

आचार्यमें उत्तम श्रद्धा रखकर उत्तम और भारी अभ्यासके बलसे उसने बाणोंके 
छोड़ने, लौटाने और संधान करनेमें बड़ी अच्छी फुर्ती प्राप्त कर ली || ३५ ।। 

अथ द्रोणाभ्यनुज्ञाता: कदाचित्‌ कुरुपाण्डवा: | 

रथैरविनिर्ययु: सर्वे मृगयामरिमर्दन ।। ३६ ।। 

शत्रुओंका दमन करनेवाले जनमेजय! तदनन्तर एक दिन समस्त कौरव और पाण्डव 
आचार्य द्रोणकी अनुमतिसे रथोंपर बैठकर (हिंसक पशुओंका) शिकार खेलनेके लिये 
निकले ॥। ३६ |। 

तत्रोपकरणं गृहा नरः कश्चिद्‌ यद्च्छया । 


राजन्ननुजगामैक: श्वानमादाय पाण्डवान्‌ ॥। ३७ ।। 

इस कार्यके लिये आवश्यक सामग्री लेकर कोई मनुष्य स्वेच्छानुसार अकेला ही उन 
पाण्डवोंके पीछे-पीछे चला। उसने साथमें एक कुत्ता भी ले रखा था || ३७ || 

तेषां विचरतां तत्र तत्तत्कर्मचिकीर्षया । 

ध्वा चरन्‌ स वने मूढो नैषादिं प्रति जग्मिवान्‌ ।। ३८ ।। 

वे सब अपना-अपना काम पूरा करनेकी इच्छासे वनमें इधर-उधर विचर रहे थे। उनका 
वह मूढ़ कुत्ता वनमें घूमता-घामता निषादपुत्र एकलव्यके पास जा पहुँचा ।। ३८ ।। 

स कृष्णं मलदिग्धाड़ंं कृष्णाजिनजटाधरम्‌ | 

नैषादिं श्वा समालक्ष्य भषंस्तस्थौ तदन्तिके ।। ३९ ।। 

एकलव्यके शरीरका रंग काला था। उसके अंगोंमें मैल जम गया था और उसने काला 
मृगचर्म एवं जटा धारण कर रखी थी। निषादपुत्रको इस रूपमें देखकर वह कुत्ता भौं-भौं 
करके भूकता हुआ उसके पास खड़ा हो गया ।। ३९ ।। 

तदा तस्याथ भषत: शुनः सप्त शरान्‌ मुखे । 

लाघवं दर्शयन्नस्त्रे मुमोच युगपद्‌ यथा ।। ४० ।। 

यह देख भीलने अपने अस्त्रलाघवका परिचय देते हुए उस भूकनेवाले कुत्तेके मुखमें 
मानो एक ही साथ सात बाण मारे || ४० ।। 

सतु श्वा शरपूर्णास्य: पाण्डवानाजगाम ह । 

त॑ दृष्टवा पाण्डवा वीरा: परं विस्मयमागता: ।। ४१ ।। 

उसका मुँह बाणोंसे भर गया और वह उसी अवस्थामें पाण्डवोंके पास आया। उसे 
देखकर पाण्डव वीर बड़े विस्मयमें पड़े || ४१ ।। 


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लाघवं शब्दवेधित्वं दृष्टवा तत्‌ परमं तदा । 

प्रेक्ष्य तं व्रीडिताश्वासन्‌ प्रशशंसुश्च सर्वश: ।। ४२ ।। 

वह हाथकी फुर्ती और शब्दके अनुसार लक्ष्य बेधनेकी उत्तम शक्ति देखकर उस समय 
सब राजकुमार उस कुत्तेकी ओर दृष्टि डालकर लज्जित हो गये और सब प्रकारसे बाण 
मारनेवालेकी प्रशंसा करने लगे || ४२ ।। 

त॑ ततो<न्वेषमाणास्ते वने वननिवासिनम्‌ | 

ददृशु: पाण्डवा राजन्नस्यन्तमनिशं शरान्‌ ।। ४३ ।। 

राजन! तत्पश्चात्‌ पाण्डवोंने उस वनवासी वीरकी वनमें खोज करते हुए उसे निरन्तर 
बाण चलाते हुए देखा ।। ४३ ।। 

न चैनमभ्यजानंस्ते तदा विकृतदर्शनम्‌ | 

अथीैनं परिपप्रच्छु: को भवान्‌ कस्य वेत्युत ।। ४४ ।। 

उस समय उसका रूप बदल गया था। पाण्डव उसे पहचान न सके; अतः पूछने लगे 
--“तुम कौन हो, किसके पुत्र हो?” ।। ४४ ।। 


एकलव्य उवाच 
निषादाधिपतेवीरा हिरण्यधनुष: सुतम्‌ । 


द्रोणशिष्यं च मां वित्त धनुर्वेदकृतश्रमम्‌ ॥। ४५ ।। 
एकलव्यने कहा--वीरो! आपलोग मुझे निषादराज हिरण्यधनुका पुत्र तथा 
द्रोणाचार्यका शिष्य जानें। मैंने धनुर्वेदमें विशेष परिश्रम किया है || ४५ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


ते तमाज्ञाय तत्त्वेन पुनरागम्य पाण्डवा: | 

यथावृत्तं वने सर्व द्रोणायाचख्युरद्भुतम्‌ ।। ४६ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! वे पाण्डवलोग उस निषादका यथार्थ परिचय पाकर 
लौट आये और वनमें जो अद्भुत घटना घटी थी, वह सब उन्होंने द्रोणाचार्यसे कह 
सुनायी ।। ४६ |। 

कौन्तेयस्त्वर्जुनो राजन्नेकलव्यमनुस्मरन्‌ । 

रहो द्रोणं समासाद्य प्रणयादिदमब्रवीत्‌ ।। ४७ ।। 

जनमेजय! कुन्तीनन्दन अर्जुन बार-बार एकलव्यका स्मरण करते हुए एकान्तमें द्रोणसे 
मिलकर प्रेमपूर्वक यों बोले || ४७ ।। 

अजुन उवाच 

तदाहं परिरभ्यैक: प्रीतिपूर्वमिदं वच: । 

भवतोक्तो न मे शिष्यस्त्वद्धिशिष्टो भविष्यति ।। ४८ ।। 

अर्जुनने कहा--आचार्य! उस दिन तो आपने मुझ अकेलेको हृदयसे लगाकर बड़ी 
प्रसन्नताके साथ यह बात कही थी कि मेरा कोई भी शिष्य तुमसे बढ़कर नहीं 
होगा || ४८ ।। 

अथ कस्मान्मद्विशिष्टो लोकादपि च वीर्यवान्‌ । 

अन्यो<5स्ति भवत: शिष्यो निषादाधिपते: सुत: ।। ४९ ।। 

फिर आपका यह अन्य शिष्य निषादराजका पुत्र अस्त्र-विद्यामें मुझसे बढ़कर कुशल 
और सम्पूर्ण लोकसे भी अधिक पराक्रमी कैसे हुआ? ।। ४९ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

मुहूर्तमिव त॑ द्रोणश्चिन्तयित्वा विनिश्वयम्‌ 

सव्यसाचिनमादाय नैषादिं प्रति जग्मिवान्‌ । ५० ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! आचार्य द्रोण उस निषादपुत्रके विषयमें दो 
घड़ीतक मानो कुछ सोचते-विचारते रहे; फिर कुछ निश्चय करके वे सव्यसाची अर्जुनको 
साथ ले उसके पास गये ।। ५० ।। 

ददर्श मलदिग्धाड़ं जटिलं चीरवाससम्‌ । 

एकलव्यं धनुष्याणिमस्यन्तमनिशं शरान्‌ ।। ५१ ।। 


वहाँ पहुँचकर उन्होंने एकलव्यको देखा, जो हाथमें धनुष ले निरन्तर बाणोंकी वर्षा कर 
रहा था। उसके शरीरपर मैल जम गया था। उसने सिरपर जटा धारण कर रखी थी और 
वस्त्रके स्थानपर चिथड़े लपेट रखे थे ।। ५१ ।। 

एकलव्यस्तु तं दृष्टवा द्रोणमायान्तमन्तिकात्‌ | 

अभिगम्योपसंगृहा जगाम शिरसा महीम्‌ ।। ५२ ।। 

इधर एकलव्यने आचार्य द्रोणको समीप आते देख आगे बढ़कर उनकी अगवानी की 
और उनके दोनों चरण पकड़कर पृथ्वीपर माथा टेक दिया ।। ५२ ।। 

पूजयित्वा ततो द्रोणं विधिवत्‌ स निषादज: । 

निवेद्य शिष्यमात्मानं तस्थौ प्राउ्जलिरग्रत: ।। ५३ ।। 

फिर उस निषादकुमारने अपनेको शिष्यरूपसे उनके चरणोंमें समर्पित करके गुरु 
द्रोणकी विधिपूर्वक पूजा की और हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो गया ।। ५३ ।। 

ततो द्रोणो<5ब्रवीद्‌ राजन्नेकलव्यमिदं वच: । 

यदि शिष्योडसि मे वीर वेतनं दीयतां मम ॥। ५४ ।। 

एकलव्यस्तु तच्छुत्वा प्रीयमाणो<ब्रवीदिदम्‌ । 

राजन! तब द्रोणाचार्यने एकलव्यसे यह बात कही--“वीर! यदि तुम मेरे शिष्य हो तो 
मुझे गुरुदक्षिणा दो'। 

यह सुनकर एकलव्य बहुत प्रसन्न हुआ और इस प्रकार बोला || ५४३ ।। 


एकलव्य उवाच 
कि प्रयच्छामि भगवन्नाज्ञापयतु मां गुरु: ।। ५५ ।। 
न हि किंचिददेयं मे गुरवे ब्रह्म॒वित्तम | 


एकलव्यने कहा--भगवन्‌! मैं आपको क्‍या दूँ? स्वयं गुरुदेव ही मुझे इसके लिये 
आज्ञा दें। ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ आचार्य! मेरे पास कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो गुरुके लिये अदेय 
हो || ५५६ || 
वैशम्पायन उवाच 


तमब्रवीत्‌ त्वयादुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति ।। ५६ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब द्रोणाचार्यने उससे कहा--“तुम मुझे दाहिने 
हाथका आँगूठा दे दो” || ५६ ।। 

एकलव्यस्तु तच्छुत्वा वचो द्रोणस्य दारुणम्‌ | 

प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन्‌ सत्ये च नियत: सदा ।। ५७ ।। 

तथैव हृष्टवदनस्तथैवादीनमानस: । 

छित्त्वाविचार्य तं प्रादाद्‌ द्रोणायाड्गुछ्ठमात्मन: ।। ५८ ।। 


द्रोणाचार्यका यह दारुण वचन सुनकर सदा सत्यपर अटल रहनेवाले एकलव्यने अपनी 
प्रतिज्ञाकी रक्षा करते हुए पहलेकी ही भाँति प्रसन्नमुख और उदारचित्त रहकर बिना कुछ 
सोच-विचार किये अपना दाहिना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्यको दे दिया || ५७-५८ ।। 


228 8 2022 
(आय 6 





(स सत्यसंध॑ नैषादिं दृष्टवा प्रीतो5ब्रवीदिदम्‌ । 

एवं कर्तव्यमिति वा एकलव्यमभाषत ।।) 

ततः शरं तु नैषादिरज्भुलीभिव्यकर्षत । 

न तथा च स शीघ्रो5भूद्‌ यथा पूर्व नराधिप ।। ५९ ।। 

द्रोणाचार्य निषादनन्दन एकलव्यको सत्यप्रतिज्ञ देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने 
संकेतसे उसे यह बता दिया कि तर्जनी और मध्यमाके संयोगसे बाण पकड़कर किस प्रकार 
धनुषकी डोरी खींचनी चाहिये। तबसे वह निषादकुमार अपनी अँगुलियोंद्वारा ही बाणोंका 
संधान करने लगा। राजन्‌! उस अवस्थामें वह उतनी शीघ्रतासे बाण नहीं चला पाता था, 
जैसे पहले चलाया करता था ।। ५९ || 

ततोअ्र्जुन: प्रीतमना बभूव विगतज्वर: । 

द्रोणश्न॒ सत्यवागासीन्नान्योडभिभवितार्जुनम्‌ ।। ६० ।। 


इस घटनासे अर्जुनके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी भारी चिन्ता दूर हो गयी। 
द्रोणाचार्यका भी वह कथन सत्य हो गया कि अर्जुनको दूसरा कोई पराजित नहीं कर 
सकता || ६० |। 

द्रोणस्य तु तदा शिष्यौ गदायोग्यौ बभूवतु: । 

दुर्योधनश्न भीमश्न सदा संरब्धमानसौ ।। ६१ ।। 

उस समय द्रोणके दो शिष्य गदायुद्धमें सुयोग्य निकले--दुर्योधन और भीमसेन। ये 
दोनों सदा एक-दूसरेके प्रति मनमें क्रोध (स्पर्द्धा)-से भरे रहते थे ।। ६१ ।। 

अश्वत्थामा रहस्येषु सर्वेष्वभ्यधिको5भवत्‌ | 

तथाति पुरुषानन्यान्‌ त्सारुकौ यमजावुभौ || ६२ ।। 

अश्वत्थामा धर्नुर्वेदके रहस्योंकी जानकारीमें सबसे बढ़-चढ़कर हुआ। नकुल और 
सहदेव दोनों भाई तलवारकी मूठ पकड़कर युद्ध करनेमें अत्यन्त कुशल हुए। वे इस कलामें 
अन्य सब पुरुषोंसे बढ़-चढ़कर थे ।। ६२ ।। 

युधिष्ठिरो रथश्रेष्ठ: सर्वत्र तु धनंजय: । 

प्रथित: सागरान्तायां रथयूथपयूथप: ।। ६३ ।। 

युधिष्ठिर रथपर बैठकर युद्ध करनेमें श्रेष्ठ थे। परंतु अर्जुन सब प्रकारकी युद्ध-कलाओंमें 
सबसे बढ़कर थे। वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीमें रथयूथपतियोंके भी यूथपतिके रूपमें प्रसिद्ध 
थे ।। ६३ ।। 

बुद्धियोगबलोत्साहै: सर्वास्त्रिषु च निष्ठित: । 

अस्त्रे गुर्वनुरागे च विशिष्टो5भवदर्जुन: ।। ६४ ।। 

बुद्धि, मनकी एकाग्रता, बल और उत्साहके कारण वे सम्पूर्ण अस्त्र-विद्याओंमें प्रवीण 
हुए। अस्त्रोंके अभ्यास तथा गुरुके प्रति अनुरागमें भी अर्जुनका स्थान सबसे ऊँचा 
था ।। ६४ ।। 

तुल्येष्वस्त्रोपदेशेषु सौष्ठवेन च वीर्यवान्‌ । 

एक: सर्वकुमाराणां बभूवातिरथो<र्जुन: ।। ६५ ।। 

यद्यपि सबको समानरूपसे अस्त्र-विद्याका उपदेश प्राप्त होता था तो भी पराक्रमी 
अर्जुन अपनी विशिष्ट प्रतिभाके कारण अकेले ही समस्त कुमारोंमें अतिरथी हुए ।। ६५ ।। 

प्राणाधिकं भीमसेनं कृतविद्यं धनंजयम्‌ । 

धार्तराष्ट्रा दुरात्मानो नामृष्यन्त परस्परम्‌ ।। ६६ ।। 

धृतराष्ट्रके पुत्र बड़े दुरात्मा थे। वे भीमसेनको बलमें अधिक और अर्जुनको 
अस्त्रविद्यामें प्रवीण देखकर परस्पर सहन नहीं कर पाते थे ।। ६६ ।। 

तांस्तु सर्वान्‌ समानीय सर्वविद्यास्त्रशिक्षितान्‌ । 

द्रोण: प्रहरणज्ञाने जिज्ञासु: पुरुषर्षभ: ।। ६७ ।। 


जब सम्पूर्ण धनुर्विद्या तथा अस्त्र-संचालनकी कलामें वे सभी कुमार सुशिक्षित हो गये, 
तब नरश्रेष्ठ द्रोणने उन सबको एकत्र करके उनके अस्त्रज्ञानकी परीक्षा लेनेका विचार 
किया || ६७ ।। 

कृत्रिमं भासमारोप्य वृक्षाग्रे शिल्पिभि: कृतम्‌ । 

अविज्ञातं कुमाराणां लक्ष्यभूतमुपादिशत्‌ ।। ६८ ।। 

उन्होंने कारीगरोंसे एक नकली गीध बनवाकर वृक्षके अग्रभागपर रखवा दिया। 
राजकुमारोंकों इसका पता नहीं था। आचार्यने उसी गीधको बींधनेयोग्य लक्ष्य 
बताया ।। ६८ || 

द्रोण उदाच 

शीघ्र भवन्त: सर्वेडपि धनूंष्यादाय सर्वश: । 

भासमेतं समुद्दिश्य तिष्ठ ध्वं संधितेषव: ।। ६९ ।। 

द्रोण बोले--तुम सब लोग इस गीधको बींधनेके लिये शीघ्र ही धनुष लेकर उसपर 
बाण चढ़ाकर खड़े हो जाओ ।। ६९ ।। 

मद्वाक्यसमकालं तु शिरो<स्य विनिपात्यताम्‌ | 

एकैकशो नियोक्ष्यामि तथा कुरुत पुत्रका: ।। ७० ।। 

फिर मेरी आज्ञा मिलनेके साथ ही इसका सिर काट गिराओ। पुत्रो! मैं एक-एकको 
बारी-बारीसे इस कार्यमें नियुक्त करूँगा; तुमलोग मेरे बताये अनुसार कार्य करो || ७० ।। 

वैशम्पायन उवाच 

ततो युधिष्ठिरं पूर्वमुवाचाज्धिरसां वर: । 

संधत्स्व बाणं दुर्धर्ष मद्वाक्यान्ते विमुडच तम्‌ । ७१ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर अंगिरागोत्रवाले ब्राह्मणोंमें सर्वश्रेष्ठ 
आचार्य द्रोणने सबसे पहले युधिष्ठिस्से कहा--*दुर्धर्ष वीर! तुम धनुषपर बाण चढ़ाओ और 
मेरी आज्ञा मिलते ही उसे छोड़ दो” ।। ७१ ।। 

ततो युधिष्ठिर: पूर्व धनुर्ग.ह्य परंतप: । 

तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदित: ।॥ ७२ ।। 

तब शत्रुओंको संताप देनेवाले युधिष्ठिर गुरुकी आज्ञासे प्रेरित हो सबसे पहले धनुष 
लेकर गीधको बींधनेके लिये लक्ष्य बनाकर खड़े हो गये || ७२ ।। 

ततो विततथन्‍्वानं द्रोणस्तं कुरुनन्दनम्‌ । 

स मुहूर्तादुवाचेदं वचन भरतर्षभ ।। ७३ ।। 

भरतश्रेष्ठ] तब धनुष तानकर खड़े हुए कुरुनन्दन युधिष्ठिरसे दो घड़ी बाद आचार्य 
द्रोणने इस प्रकार कहा-- ।। ७३ ।। 

पश्यैन॑ त॑ ट्रुमाग्रस्थं भासं नरवरात्मज । 


पश्यामीत्येवमाचार्य प्रत्युवाच युधिष्ठिर: ।। ७४ ।। 

“राजकुमार! वृक्षकी शिखापर बैठे हुए इस गीधको देखो।” तब युधिष्ठिरने आचार्यको 
उत्तर दिया--“भगवन्‌! मैं देख रहा हूँ || ७४ ।। 

स मुहूर्तादिव पुनद्रोंणस्तं प्रत्यभाषत । 

मानो दो घड़ी और बिताकर द्रोणाचार्य फिर उनसे बोले || ७४ $ ।। 

द्रोण उदाच 

अथ वृक्षमिमं मां वा भ्रातृन्‌ वापि प्रपश्यसि ।। ७५ ।। 

द्रोणगने कहा--क्या तुम इस वृक्षको, मुझको अथवा अपने भाइयोंको भी देखते 
हो? । ७५ |। 

तमुवाच स कौन्तेय: पश्याम्येनं वनस्पतिम्‌ । 

भवन्तं च तथा भ्रातृन्‌ भासं चेति पुनः पुनः ।। ७६ ।। 

यह सुनकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर उनसे इस प्रकार बोले--'हाँ, मैं इस वृक्षको, आपको, 
अपने भाइयोंको तथा गीधको भी बारंबार देख रहा हूँ” ।। ७६ ।। 

तमुवाचापसर्पेति द्रोणो5प्रीतमना इव । 

नैतच्छक्यं त्वया वेद्धुं लक्ष्यमित्येव कुत्सयन्‌ || ७७ ।। 

उनका उत्तर सुनकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन अप्रसन्न-से हो गये और उन्हें झिड़कते हुए 
बोले, “हट जाओ यहाँसे, तुम इस लक्ष्यको नहीं बींध सकते” ।। ७७ ।। 

ततो दुर्योधनादींसस्‍्तान्‌ धार्तराष्ट्रानू महायशा: । 

तेनैव क्रमयोगेन जिज्ञासु: पर्यपृच्छत ।। ७८ ।। 

तदनन्तर महायशस्वी आचार्यने उसी क्रमसे दुर्योधन आदि धूृतराष्ट्रपुत्रोंको भी उनकी 
परीक्षा लेनेके लिये बुलाया और उन सबसे उपर्युक्त बातें पूछीं || ७८ ।। 

अन्‍्यांश्व शिष्यान्‌ भीमादीन्‌ राज्ञश्वैवान्यदेशजान्‌ | 

तथा च सर्वे तत्‌ सर्व पश्याम इति कुत्सिता: ॥। ७९ ।। 

उन्होंने भीम आदि अन्य शिष्यों तथा दूसरे देशके राजाओंसे भी, जो वहाँ शिक्षा पा रहे 
थे, वैसा ही प्रश्न किया। प्रश्नके उत्तरमें सभीने (युधिष्ठिरकी भाँति ही) कहा--“हम सब कुछ 
देख रहे हैं।! यह सुनकर आचार्यने उन सबको झिड़ककर हटा दिया || ७९ || 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि 
द्रोणशिष्यपरीक्षायामेकत्रिंशदाधिकशततमो< ध्याय: ।। १३१ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत सम्भवपर्वनें आचार्य द्रोणके द्वारा शिष्योंकी 
परीक्षासे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३१ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ८० “लोक हैं।) 


भीकम (2 अमान 


द्वात्रिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


अर्जुनके द्वारा लक्ष्यवेध, द्रोणका ग्राहसे छुटकारा और 
अर्जुनको ब्रह्मशिर नामक अस्त्रकी प्राप्ति 


वैशम्पायन उवाच 


ततो धनंजयं द्रोण: स्मयमानो5 भ्यभाषत । 

त्वयेदानीं प्रहर्तव्यमेतल्लक्ष्यं विलोक्यताम्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर द्रोणाचार्यने अर्जुनसे मुसकराते हुए 
कहा--'अब तुम्हें इस लक्ष्यका वेध करना है। इसे अच्छी तरह देख लो' || १ ।। 

मद्वाक्यसमकाल ते मोक्तव्यो5त्र भवेच्छर: | 

वितत्य कार्मुकं पुत्र तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्‌ ।। २ ।। 

“मेरी आज्ञा मिलनेके साथ ही तुम्हें इसपर बाण छोड़ना होगा। बेटा! धनुष तानकर 
खड़े हो जाओ और दो घड़ी मेरे आदेशकी प्रतीक्षा करो” ।। २ ।। 

एवमुक्त: सव्यसाची मण्डलीकृतकार्मुक: । 

तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदित: ।। ३ || 

उनके ऐसा कहनेपर अर्जुनने धनुषको इस प्रकार खींचा कि वह मण्डलाकार (गोल) 
प्रतीत होने लगा। फिर वे गुरुकी आज्ञासे प्रेरित हो गीधकी ओर लक्ष्य करके खड़े हो 
गये ।। ३ ।। 





मुहूर्तादिव तं द्रोणस्तथैव समभाषत । 

पश्यस्थेनं स्थितं भासं द्रुमं मामपि चार्जुन ।। ४ ।। 

मानो दो घड़ी बाद द्रोणाचार्यने उनसे भी उसी प्रकार प्रश्न किया--'अर्जुन! क्या तुम 
उस वृक्षपर बैठे हुए गीधको, वृक्षको और मुझे भी देखते हो?” ।। ४ ।। 

पश्याम्येक॑ भासमिति द्रोणं पार्थो& भ्यभाषत । 

नतु वृक्ष भवन्तं वा पश्यामीति च भारत ॥। ५ ।। 

जनमेजय! यह प्रश्न सुनकर अर्जुनने द्रोणाचार्यसे कहा--“मैं केवल गीधको देखता हूँ। 
वृक्षको अथवा आपको नहीं देखता” ।। ५ ।। 

ततः प्रीतमना द्रोणो मुहूर्तादिव त॑ं पुनः । 

प्रत्यभाषत दुर्धर्ष: पाण्डवानां महारथम्‌ ।। ६ ।। 

इस उत्तरसे द्रोणका मन प्रसन्न हो गया। मानो दो घड़ी बाद दुर्धर्ष द्रोणाचार्यने पाण्डव- 
महारथी अर्जुनसे फिर पूछा-- ।। ६ ।। 

भासं पश्यसि यद्येनं तथा ब्रूहि पुनर्वच: । 

शिर: पश्यामि भासस्य न गात्रमिति सो<ब्रवीत्‌ ।। ७ ।। 

“वत्स! यदि तुम इस गीधको देखते हो तो फिर बताओ, उसके अंग कैसे हैं?” अर्जुन 
बोले--'मैं गीधका मस्तकभर देख रहा हूँ, उसके सम्पूर्ण शरीरको नहीं” ।। ७ ।। 


अर्जुनेनैवमुक्तस्तु द्रोणो हृष्टतनूरुह: । 

मुज्चस्वेत्यब्रवीत्‌ पार्थ स मुमोचाविचारयन्‌ ।। ८ ।। 

अर्जुनके यों कहनेपर द्रोणाचार्यके शरीरमें (हर्षातिरेकसे) रोमांच हो आया और वे 
अर्जुनसे बोले, 'चलाओ बाण”! अर्जुनने बिना सोचे-विचारे बाण छोड़ दिया ।। ८ ।। 

ततस्तस्य नगस्थस्य क्षुरेण निशितेन च । 

शिर उत्कृत्य तरसा पातयामास पाण्डव: ।। ९ |। 

फिर तो पाण्डुनन्दन अर्जुनने अपने चलाये हुए तीखे क्षुर नामक बाणसे वृक्षपर बैठे हुए 
उस गीधका मस्तक वेगपूर्वक काट गिराया ।। ९ |। 

तस्मिन्‌ कर्मणि संसिद्धे पर्यष्वजत पाण्डवम्‌ । 

मेने च द्रुपदं संख्ये सानुबन्धं पराजितम्‌ ।। १० ।। 

इस कार्यमें सफलता प्राप्त होनेपर आचार्यने अर्जुनको हृदयसे लगा लिया और उन्हें 
यह विश्वास हो गया कि राजा ट्रुपद युद्धमें अर्जुनद्वारा अपने भाई-बन्धुओंसहित अवश्य 
पराजित हो जायँगे ।। १० ।। 

कस्यचित्‌ त्वथ कालस्य सशिष्योडज़्िरसां वर: । 

जगाम गड्डामभितो मज्जितुं भरतर्षभ ।। ११ ।। 

भरतश्रेष्ठ। तदनन्तर किसी समय आंगिरसवंशियोंमें उत्तम आचार्य द्रोण अपने शिष्योंके 
साथ गंगाजीमें स्नान करनेके लिये गये ।। ११ ।। 

अवगाढमथो द्रोणं सलिले सलिलेचर: । 

ग्राहो जग्राह बलवाञ्जड्घान्ते कालचोदित: || १२ ।। 

वहाँ जलमें गोता लगाते समय कालसे प्रेरित हो एक बलवान्‌ जलजन्तु ग्राहने 
द्रोणाचार्यकी पिंडली पकड़ ली ।। १२ ।। 

स समर्थोडपि मोक्षाय शिष्यान्‌ सर्वानचोदयत्‌ | 

ग्राहं हत्वा मोक्षयध्वं मामिति त्वरयन्निव ।। १३ ।। 

वे अपनेको छुड़ानेमें समर्थ होते हुए भी मानो हड़बड़ाये हुए अपने सभी शिष्योंसे बोले 
--'इस ग्राहको मारकर मुझे बचाओ” ।। १३ ।। 

तद्वाक्यसमकाल तु बीभत्सुर्निशितै: शरै: । 

अवार्य: पज्चभिग्रहं मग्नमम्भस्यताडयत्‌ ।। १४ ।। 

उनके इस आदेशके साथ ही बीभत्सु (अर्जुन)-ने पाँच अमोघ एवं तीखे बाणोंद्वारा 
पानीमें डूबे हुए उस ग्राहपर प्रहार किया ।। १४ ।। 

इतरे त्वथ सम्मूढास्तत्र तत्र प्रपेदिरे । 

तंतु दृष्टवा क्रियोपेतं द्रोणोडमन्यत पाण्डवम्‌ ।। १५ ।। 

विशिष्ट सर्वशिष्येभ्य: प्रीतिमांश्वाभवत्‌ तदा | 

स पार्थबाणैर्बहुधा खण्डश: परिकल्पित: ।। १६ ।। 


ग्राह: पञ्चत्वमापेदे जड्घां त्यक्त्वा महात्मन: । 

अथाब्रवीन्महात्मानं भारद्वाजो महारथम्‌ ।। १७ ।। 

परंतु दूसरे राजकुमार हक्‍्के-बक्के-से होकर अपने-अपने स्थानपर ही खड़े रह गये। 
अर्जुनको तत्काल कार्यमें तत्पर देख द्रोणाचार्यने उन्हें अपने सब शिष्योंसे बढ़कर माना 
और उस समय वे उनपर बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुनके बाणोंसे ग्राहके टुकड़े-टुकड़े हो गये 
और वह महात्मा द्रोणकी पिंडली छोड़कर मर गया। तब द्रोणाचार्यने महारथी महात्मा 
अर्जुनसे कहा-- || १५--१७ |। 

गृहाणेदं महाबाहो विशिष्टमतिदुर्धरम्‌ । 

अस्त्रं ब्रहद्मशिरो नाम सप्रयोगनिवर्तनम्‌ ।। १८ ।। 

“महाबाहो! यह ब्रह्मशिर नामक अस्त्र मैं तुम्हें प्रयोग और उपसंहारके साथ बता रहा 
हूँ। यह सब अस्त्रोंसे बढ़कर है तथा इसे धारण करना भी अत्यन्त कठिन है। तुम इसे ग्रहण 
करो' ।। १८ ।। 

नच ते मानुषेष्वेतत्‌ प्रयोक्तव्यं कथंचन । 

जगद्‌ विनिर्दहेदेतदल्पतेजसि पातितम्‌ ।। १९ ।। 

“मनुष्योंपर तुम्हें इस अस्त्रका प्रयोग किसी भी दशामें नहीं करना चाहिये। यदि किसी 
अल्प तेजवाले पुरुषपर इसे चलाया गया तो यह उसके साथ ही समस्त संसारको भस्म कर 
सकता है ।। १९ || 

असामान्यमिदं तात लोकेष्वस्त्रं निगद्यते । 

तद्‌ धारयेथा: प्रयत: शृणु चेदं वचो मम || २० ।। 

“तात! यह अस्त्र तीनों लोकोंमें असाधारण बताया गया है। तुम मन और इन्द्रियोंको 
संयममें रखकर इस अस्त्रको धारण करो और मेरी यह बात सुनो ।। २० ।। 

बाधेतामानुष: शत्रुर्यदि त्वां वीर कश्नन । 

तद्वधाय प्रयुञज्जीथास्तदस्त्रमिदमाहवे || २१ ।। 

“वीर! यदि कोई अमानव शत्रु तुम्हें युद्धमें पीड़ा देने लगे तो तुम उसका वध करनेके 
लिये इस अस्त्रका प्रयोग कर सकते हो” || २१ ।। 

तथेति सम्प्रतिश्रुत्य बीभत्सु: स कृताञज्जलि: । 

जग्राह परमास्त्रं तदाह चैन पुनर्गुरु: । 

भविता त्वत्समो नान्य: पुमॉल्लोके धनुर्धर: ॥। २२ ।। 

तब अर्जुनने “तथास्तु' कहकर वैसा ही करनेकी प्रतिज्ञा की और हाथ जोड़कर उस 
उत्तम अस्त्रको ग्रहण किया। उस समय गुरु द्रोणने अर्जुनसे पुन: यह बात कही--*संसारमें 
दूसरा कोई पुरुष तुम्हारे समान धनुर्धर न होगा” || २२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि द्रोणग्राहमो क्षणे 
द्वात्रिशधिकशततमो<ध्याय: ॥। १३२ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें द्रोणाचार्यका ग्राहसे छुटकारा 
नामक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३२ ॥ 


ऑपनआक्राा बछ। अं 


त्रयस्त्रिंशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 
राजकुमारोंका रंगभूमिमें अस्त्र-कौशल दिखाना 


वैशम्पायन उवाच 


कृतास्त्रान्‌ धार्तराष्ट्रांक्ष पाण्डुपुत्रांश्व भारत । 

दृष्टवा द्रोणो5ब्रवीद्‌ राजन्‌ धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्‌ ।। १ ।। 

कृपस्य सोमदत्तस्य बाह्लीकस्य च धीमत: । 

गाड़ेयस्य च सांनिध्ये व्यासस्य विदुरस्थ च ॥। २ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--भारत! जब द्रोणने देखा कि धृतराष्ट्रके पुत्र तथा पाण्डव 
अस्त्र-विद्याकी शिक्षा समाप्त कर चुके, तब उन्होंने कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान्‌ बाह्लीक, 
गंगानन्दन भीष्म, महर्षि व्यास तथा विदुरजीके निकट राजा धृतराष्ट्रसे कहा-- ।। १-२ ।। 

राजन्‌ सम्प्राप्तविद्यास्ते कुमारा: कुरुसत्तम | 

ते दर्शयेयु: स्वां शिक्षां राजन्ननुमते तव ।। ३ ।। 

ततोड<ब्रवीन्महाराज: प्रहृष्टेनान्तरात्मना | 

“राजन! आपके कुमार अस्त्र-विद्याकी शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। कुरुश्रेष्ठ॒ यदि आपकी 
अनुमति हो तो वे अपनी सीखी हुई अस्त्र-संचालनकी कलाका प्रदर्शन करें'। 

यह सुनकर महाराज धृतराष्ट्र अत्यन्त प्रसन्नचित्तसे बोले | ३३ ।। 

धृतराष्ट उवाच 

भारद्वाज महत्‌ कर्म कृतं ते द्विजसत्तम ।। ४ ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--द्विजश्रेष्ठ भरद्वाजनन्दन! आपने (राजकुमारोंको अस्त्रकी शिक्षा 
देकर) बहुत बड़ा कार्य किया है || ४ ।। 

यदानुमन्यसे काल॑ यस्मिन्‌ देशे यथा यथा । 

तथा तथा विधानाय स्वयमाज्ञापयस्व माम्‌ ।। ५ ।। 

आप कुमारोंकी अस्त्र-शिक्षाके प्रदर्शनकके लिये जब जो समय ठीक समझें, जिस 
स्थानपर जिस-जिस प्रकारका प्रबन्ध आवश्यक मानें, उस-उस तरहकी तैयारी करनेके 
लिये स्वयं ही मुझे आज्ञा दें ।। ५ ।। 

स्पृहयाम्यद्य निर्वेदात्‌ पुरुषाणां सचक्षुषाम्‌ । 

अस्त्रहेतो: पराक्रान्तान्‌ ये मे द्रक्ष्यन्ति पुत्रकान्‌ ।। ६ ।। 

आज मैं नेत्रहीन होनेके कारण दुःखी होकर, जिनके पास आँँखें हैं, उन मनुष्योंके सुख 
और सौभाग्यको पानेके लिये तरस रहा हूँ; क्योंकि वे अस्त्र-कौशलका प्रदर्शन करनेके लिये 
भाँति-भाँतिके पराक्रम करनेवाले मेरे पुत्रोंकोी देखेंगे |। ६ ।। 


क्षत्तर्यद्‌ गुरुराचार्यो ब्रवीति कुरु तत्‌ तथा । 

न हीदृशं प्रियं मन्‍्ये भविता धर्मवत्सल ।। ७ ।। 

(आचार्यसे इतना कहकर राजा धुृतराष्ट्र विदुरसे बोले--) “धर्मवत्सल! विदुर! गुरु 
द्रोणाचार्य जो काम जैसे कहते हैं, उसी प्रकार उसे करो। मेरी रायमें इसके समान प्रिय कार्य 
दूसरा नहीं होगा” ।। ७ ।। 

ततो राजानमामन्त्र्य निर्गतो विदुरो बहिः | 

भारद्वाजो महाप्राज्ञो मापयामास मेदिनीम्‌ ।। ८ ।। 

तदनन्तर राजाकी आज्ञा लेकर विदुरजी (आचार्य द्रोणके साथ) बाहर निकले। 
महाबुद्धिमान्‌ भरद्वाजनन्दन द्रोणने रंगमण्डपके लिये एक भूमि पसंद की और उसका माप 
करवाया ।। ८ ।। 

समामवृक्षां निर्गुल्मामुदक्प्रस्रवणान्विताम्‌ । 

तस्यां भूमौ बलिं चक्रे तिथौ नक्षत्रपूजिते ।। ९ ।। 

अवचुष्टे समाजे च तदर्थ वदतां वर: | 

रड्रभूमौ सुविपुलं शास्त्रदृष्ट यथाविधि ।। १० ।। 

प्रेक्षागारं सुविहितं चक़ुस्ते तस्य शिल्पिन: । 

राज्ञ: सर्वायुधोपेतं स्त्रीणां चैव नरर्षभ ।। ११ ।। 

मज्चांश्व॒ कारयामासुस्तत्र जानपदा जना: । 

विपुलानुच्छुयोपेतान्‌ शिबिकाश्न महाधना: ।। १२ ।। 

वह भूमि समतल थी। उसमें वृक्ष या झाड़-झंखाड़ नहीं थे। वह उत्तरदिशाकी ओर 
नीची थी। वक्ताओंमें श्रेष्ठ द्रोणने वास्तुपूुजन देखनेके लिये डिण्डिम-घोष कराके 
वीरसमुदायको आमन्त्रित किया और उत्तम नक्षत्रसे युक्त तिथिमें उस भूमिपर वास्तुपूजन 
किया। तत्पश्चात्‌ उनके शिल्पियोंने उस रंगभूमिमें वास्तु-शास्त्रके अनुसार विधिपूर्वक एक 
अति विशाल प्रेक्षागहकी- नींव डाली तथा राजा और राजघरानेकी स्त्रियोंके बैठनेके लिये 
वहाँ सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न बहुत सुन्दर भवन बनाया। जनपदके लोगोंने अपने 
बैठनेके लिये वहाँ ऊँचे और विशाल मंच बनवाये तथा (स्त्रियोंको लानेके लिये) बहुमूल्य 
शिबिकाएँ तैयार करायीं || ९--१२ ।। 

तस्मिंस्ततो5हनि प्राप्ते राजा ससचिवस्तदा । 

भीष्म॑ प्रमुखत: कृत्वा कृप॑ं चाचार्यसत्तमम्‌ ।। १३ ।। 

(बाह्लीकं सोमदत्तं च भूरिश्रवसमेव च । 

कुरूनन्यांश्व सचिवानादाय नगरादू बहि: ।।) 

मुक्ताजालपरिक्षिप्तं वैदूर्यममणिशोभितम्‌ । 

शातकुम्भमयं दिव्यं प्रेक्षागारमुपागमत्‌ ।। १४ ।। 


तत्पश्चात्‌ जब निश्चित दिन आया, तब मन्त्रियोंसहित राजा धृतराष्ट्र भीष्मजी तथा 
आचार्यप्रवर कृपको आगे करके बाह्नलीक, सोमदत्त, भूरिश्रवा तथा अन्यान्य कौरवों और 
मन्त्रियोंको साथ ले नगरसे बाहर उस दिव्य प्रेक्षागृहमें आये। उसमें मोतियोंकी झालरें लगी 
थीं, वैदूर्यमणियोंसे उस भवनको सजाया गया था तथा उसकी दीवारोंमें स्वर्णखण्ड मढ़े गये 
थे ।। १३-१४ ।। 

गान्धारी च महाभागा कुन्ती च जयतां वर । 

स्त्रियश्व राज्ञ: सर्वास्ता: सप्रेष्या: सपरिच्छदा: ।। १५ |। 

हर्षादारुरुहुर्मज्चान्‌ मेरुं देवस्त्रियो यथा । 

ब्राह्मणक्षत्रियाद्यं च चातुर्वर्ण्य पुराद्‌ द्रतम्‌ ।। १६ ।। 

दर्शनेप्सु समभ्यागात्‌ कुमाराणां कृतास्त्रताम्‌ । 

क्षणेनैकस्थतां तत्र दर्शनेप्सु जगाम ह ।। १७ ।। 

विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ जनमेजय! परम सौभाग्यशालिनी गान्धारी, कुन्ती तथा 
राजभवनकी सभी स्ट्रियाँ वस्त्राभूषणोंस सज-धजकर दास-दासियों और आवश्यक 
सामग्रियोंके साथ उस भवनमें आयीं तथा जैसे देवांगनाएँ मेरुपर्वतपर चढ़ती हैं, उसी प्रकार 
वे हर्षपूर्वक मंचोंपर चढ़ गयीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्णोके लोग कुमारोंका अस्त्र- 
कौशल देखनेकी इच्छासे तुरंत नगरसे निकलकर आ गये। क्षणभरमें वहाँ विशाल 
जनसमुदाय एकत्र हो गया || १५--१७ |। 

प्रवादितैश्न वादित्रर्जनकौतूहलेन च । 

महार्णव इव क्षुब्ध: समाज: सो5भवत्‌ तदा ॥। १८ ।। 

अनेक प्रकारके बाजोंके बजनेसे तथा मनुष्योंके बढ़ते हुए कौतूहलसे वह जनसमूह 
उस समय क्षुब्ध महासागरके समान जान पड़ता था ॥। १८ ।। 

ततः शुक्लाम्बरधर: शुक्लयज्ञोपवीतवान्‌ | 

शुक्लकेश: सितश्मश्रु: शुक्लमाल्यानुलेपन: ।। १९ ।। 

रंगमध्यं तदा5<चार्य: सपुत्र: प्रविवेश ह | 

नभो जलधरैहीनं साड्रारक इवांशुमान्‌ ।। २० ।। 

तदनन्तर श्वैत वस्त्र और श्वेत यज्ञोपवीत धारण किये आचार्य द्रोणने अपने पुत्र 
अश्वृत्थामाके साथ रंगभूमिमें प्रवेश किया; मानो मेघरहित आकाशमें चन्द्रमाने मंगलके 
साथ पदार्पण किया हो। आचार्यके सिर और दाढ़ी-मूँछके बाल सफेद हो गये थे। वे श्वेत 
पुष्पोंकी माला और श्वेत चन्दनसे सुशोभित हो रहे थे || १९-२० ।। 

स यथासमयं चक्रे बलिं बलवतां वर: । 

ब्राह्माणांस्तु सुमन्त्रज्ञान्‌ कारयामास मज़लम्‌ ।। २१ ।। 

बलवानोंमें श्रेष्ठ द्रोणने यथासमय देवपूजा की और श्रेष्ठ मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणोंसे मंगलपाठ 
करवाया ।। २१ ।। 


(सुवर्णमणिरत्नानि वस्त्राणि विविधानि च । 

प्रददौ दक्षिणां राजा द्रोणस्य च कृपस्य च ।।) 

सुखपुण्याहघोषस्य पुण्यस्य समनन्तरम्‌ । 

विविशेुर्विविध॑ गृह्मु शस्त्रोपकरणं नरा: । २२ ।। 

उस समय राजा धुृतराष्ट्रने सुवर्ण, मणि, रत्न तथा नाना प्रकारके वस्त्र आचार्य द्रोण 
और कृपको दक्षिणारूपमें दिये। फिर सुखमय पुण्याहवाचन तथा दान-होम आदि 
पुण्यकर्मोंके अनन्तर नाना प्रकारकी शस्त्र-सामग्री लेकर बहुत-से मनुष्योंने उस रंगमण्डपमें 
प्रवेश किया || २२ ।। 

ततो बद्धाड्गुलित्राणा बद्धकक्षा महारथा: । 

बद्धतूणा: सधनुषो विविशुर्भरतर्षभा: ।। २३ ।। 

उसके बाद भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ वे वीर राजकुमार बड़े-बड़े रथोंके साथ दस्ताने पहने, 
कमर कसे, पीठपर तूणीर बाँधे और धनुष लिये हुए उस रंगमण्डपके भीतर आये ।। २३ ।। 

अनुज्येष्ठं तु ते तत्र युधिष्िरपुरोगमा: । 

(रणमध्ये स्थित॑ द्रोणमभिवाद्य नरर्षभा: । 

पूजां चक्कुर्यथान्यायं द्रोणस्थ च कृपस्य च ।। 

नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदि उन राजकुमारोंने जेठे-छोटेके क्रमसे स्थित हो उस रंगभूमिके 
मध्यभागमें बैठे हुए आचार्य द्रोणको प्रणाम करके द्रोण और कृप दोनों आचार्योंकी 
यथोचित पूजा की। 

आशीकभ्िरश्व प्रयुक्ताभि: सर्वे संहृष्टमानसा: । 

अभिवाद्य पुनः शस्त्रान्‌ बलिपुष्पै: समन्वितान्‌ ।। 

रक्तचन्दनसम्मिश्रै: स्वयमार्चन्त कौरवा: । 

रक्तचन्दनदिग्धाश्व रक्तमाल्यानुधारिण: ।। 

सर्वे रक्तपताकाश्न सर्वे रक्तान्तलोचना: । 

द्रोणेन समनुज्ञाता गृहा शस्त्र परंतपा: ।। 

धनूंषि पूर्व संगृह्द तप्तकाज्चनभूषिता: । 

सज्यानि विविधाकारै: शरै: संधाय कौरवा: ।। 

ज्याघोषं तलघोषं च कृत्वा भूतान्यपूजयन्‌ ।) 

चक्कुरस्त्रं महावीर्या: कुमारा: परमाद्भुतम्‌ ॥। २४ ।। 

फिर उनसे आशीर्वाद पाकर उन सबका मन प्रसन्न हो गया। तत्पश्चात्‌ पूजाके पुष्पोंसे 
आच्छादित अस्त्र-शस्त्रोंको प्रणाम करके कौरवोंने रक्त चन्दन और फूलोंद्वारा पुनः स्वयं 
उनका पूजन किया। वे सब-के-सब लाल चन्दनसे चर्चित तथा लाल रंगकी मालाओंसे 
विभूषित थे। सबके रथोंपर लाल रंगकी पताकाएँ थीं। सभीके नेत्रोंके कोने लाल रंगके थे। 
तदनन्तर तपाये हुए सुवर्णके आभूषणोंसे विभूषित एवं शत्रुओंको संताप देनेवाले कौरव 


राजकुमारोंने आचार्य द्रोणकी आज्ञा पाकर पहले अपने अस्त्र एवं धनुष लेकर डोरी चढ़ायी 
और उसपर भाँति-भाँतिकी आकृतिके बाणोंका संधान करके प्रत्यंचाका टंकार करते और 
ताल ठोंकते हुए समस्त प्राणियोंका आदर किया। तत्पश्चात्‌ वे महापराक्रमी राजकुमार वहाँ 
परम अद्भुत अस्त्र-कौशल प्रकट करने लगे ।। २४ ।। 

केचिच्छराक्षेपभयाच्छिरांस्यवननामिरे । 

मनुजा धृष्टमपरे वीक्षाज्चक्रु: सुविस्मिता: ।। २५ ।। 

कितने ही मनुष्य बाण लग जानेके डरसे अपना मस्तक झुका देते थे। दूसरे लोग 
अत्यन्त विस्मित होकर बिना किसी भयके सब कुछ देखते थे ।। २५ ।। 

ते सम लक्ष्याणि बिभिदुर्बाणै्नामाड्कशोभितै: । 

विविधैरलाघवोत्सूष्टैरुह्मुन्तो वाजिभिरद्द्रूतम्‌ ।। २६ ।। 

वे राजकुमार घोड़ोंपर सवार हो अपने नामके अक्षरोंसे सुशोभित और बड़ी फुर्तीके 
साथ छोड़े हुए नाना प्रकारके बाणोंद्वारा शीघ्रतापूर्वक लक्ष्यवेध करने लगे || २६ ।। 

तत्‌ कुमारबलं तत्र गृहीतशरकार्मुकम्‌ । 

गन्धर्वनगराकार  प्रेक्ष्य ते विस्मिताभवन्‌ ।। २७ ।। 

धनुष-बाण लिये हुए राजकुमारोंके उस समुदायको गन्धर्वनगरके समान अद्भुत देख 
वहाँ समस्त दर्शक आश्चर्यचकित हो गये || २७ ।। 

सहसा चुक्रुशुश्ान्ये नरा: शतसहसत्रश: । 

विस्मयोत्फुल्लनयना: साधु साध्विति भारत ।। २८ ।। 

जनमेजय! सैकड़ों और हजारोंकी संख्यामें एक-एक जगह बैठे हुए लोग 
आश्चर्यचकित नेत्रोंसे देखते हुए सहसा 'साधु-साधु (वाह-वाह)” कहकर कोलाहल मचा देते 
थे ।। २८ ।। 

कृत्वा धनुषि ते मार्गान्‌ रथचर्यासु चासकृत्‌ । 

गजपृष्ठे<श्वपृष्ठे च नियुद्धे च महाबल: ।। २९ ।। 

उन महाबली राजकुमारोंने पहले धनुष-बाणके पैंतरे दिखाये। तदनन्तर रथ-संचालनके 
विविध मार्गों (शीघ्र ले जाना, लौटा लाना, दायें, बायें और मण्डलाकार चलाना आदि)-का 
अवलोकन कराया। फिर कुश्ती लड़ने तथा हाथी और घोड़ेकी पीठपर बैठकर युद्ध 
करनेकी चातुरीका परिचय दिया ।। २९ ।। 

गृहीतखड््‌गचर्माणस्ततो भूय: प्रहारिण: । 

त्सरुमार्गान्‌ यथोद्दिष्टं श्लेरु: सर्वासु भूमिषु ।। ३० ।। 

इसके बाद वे ढाल और तलवार लेकर एक-दूसरेपर प्रहार करते हुए खड्ग चलानेके 
शास्त्रोक्त मार्ग (ऊपर-नीचे और अगल-बगलमें घुमानेकी कला)-का प्रदर्शन करने लगे। 
उन्होंने रथ, हाथी, घोड़े और भूमि--इन सभी भूमियोंपर यह युद्ध-कौशल 
दिखाया || ३० ।। 


लाघवं सीष्ठवं शोभां स्थिरत्वं दृढमुष्टिताम्‌ 

ददृशुस्तत्र सर्वेषां प्रयोग खड्गचर्मणो: ।। ३१ ।। 

दर्शकोंने उन सबके ढाल-तलवारके प्रयोगोंकों देखा। उस कलामें उनकी फुर्ती, 
चतुरता, शोभा, स्थिरता और मुद्ठीकी दृढ़ताका अवलोकन किया ।। ३१ ।। 

अथ तौ नित्यसंहृष्टोी सुयोधनवृकोदरौ । 

अवतीर्णों गदाहस्तावेकशुड्राविवाचलौ ।। ३२ ।। 

तदनन्तर सदा एक-दूसरेको जीतनेका उत्साह रखनेवाले दुर्योधन और भीमसेन हाथमें 
गदा लिये रंगभूमिमें उतरे। उस समय वे एक-एक शिखरवाले दो पर्वतोंकी भाँति शोभा पा 
रहे थे || ३२ ।। 

बद्धकक्षौ महाबाहू पौरुषे पर्यवस्थितौ । 

बृंहन्तौ वासिताहेतो: समदाविव कुञठ्जरौ ।। ३३ ।। 

वे दोनों महाबाहु कमर कसकर पुरुषार्थ दिखानेके लिये आमने-सामने डटकर खड़े थे 
और गर्जना कर रहे थे, मानो दो मतवाले गजराज किसी हथिनीके लिये एक-दूसरेसे 
भिड़ना चाहते और चिग्घाड़ते हों ।। ३३ ।। 

तौ प्रदक्षिणसव्यानि मण्डलानि महाबलौ । 

चेरतुर्मण्डलगतौ समदाविव कुठ्जरी ।। ३४ ।। 

वे दोनों महाबली योद्धा अपनी-अपनी गदाको दायें-बायें मण्डलाकार घुमाते हुए दो 
मदोन्मत्त हाथियोंकी भाँति मण्डलके भीतर विचरने लगे ।। ३४ ।। 

विदुरो धृतराष्ट्राय गान्धार्या: पाण्डवारणि: | 

न्यवेदयेतां तत्‌ सर्व कुमाराणां विचेष्टितम्‌ ।। ३५ ।। 

विदुर धृतराष्ट्रको और पाण्डव जननी कुन्ती गान्धारीको उन राजकुमारोंकी सारी चेष्टाएँ 
बताती जाती थीं ।। ३५ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वण्यस्त्रदर्शने 
त्रयस्त्रिंशयदधिकशततमो< ध्याय: ।। १३३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपवके अन्तर्गत यम्भवपर्वमें अस्त्र-कौशलदर्शनविषयक एक 
सौ तैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३३ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७३ श्लोक मिलाकर कुल ४२३ शलोक हैं) 


#ीी#ीि 2 हज श्रीस-शसीस 


> जो उत्सव या नाटक आदिको सुविधापूर्वक देखनेके उद्देश्यसे बनाया गया हो, उसे प्रेक्षागृह या प्रेक्षाभवन कहते हैं। 


चतुस्त्रिंशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


भीमसेन, दुर्योधन तथा अर्जुनके द्वारा अस्त्र-कौशलका 
प्रदर्शन 


वैशम्पायन उवाच 


कुरुराजे हि रड़स्थे भीमे च बलिनां वरे । 

पक्षपातकृतस्नेह: स द्विधेिवाभवज्जन: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब कुरुराज दुर्योधन और बलवानोंमें श्रेष्ठ 
भीमसेन रंगभूमिमें उतरकर गदायुद्ध कर रहे थे, उस समय दर्शक जनता उनके प्रति 
पक्षपातपूर्ण स्नेह करनेके कारण मानो दो दलोंमें बँट गयी ।। १ ।। 

ही वीर कुरुराजेति ही भीम इति जल्पताम्‌ | 

पुरुषाणां सुविपुला: प्रणादा: सहसोत्थिता: ।। २ ।। 

कुछ कहते, “अहो! वीर कुरुराज कैसा अद्भुत पराक्रम दिखा रहे हैं।” दूसरे बोल उठते, 
“वाह! भीमसेन तो गजबका हाथ मारते हैं।! इस तरहकी बातें करनेवाले लोगोंकी भारी 
आवाजें वहाँ सहसा सब ओर गूँजने लगीं ।। २ ।। 

ततः क्षुब्धार्णवनिभं रंगमालोक्य बुद्धिमान्‌ । 

भारद्वाज: प्रियं पुत्रमश्चत्थामानमब्रवीत्‌ ।। ३ ।। 

फिर तो सारी रंगभूमिमें क्षुब्ध महासागरके समान हलचल मच गयी। यह देख 
बुद्धिमान्‌ द्रोणाचार्यने अपने प्रिय पुत्र अश्वत्थामासे कहा ।। ३ ।। 

द्रोण उदाच 


वारयैतौ महावीरयों कृतयोग्यावुभावपि । 
मा भूद्‌ रज्भप्रकोपो5यं भीमदुर्योधनोद्धव: ।। ४ ।। 
द्रोण बोले--वत्स! ये दोनों महापराक्रमी वीर अस्त्र-विद्यामें अत्यन्त अभ्यस्त हैं। तुम 
इन दोनोंको युद्धसे रोको, जिससे भीमसेन और दुर्योधनको लेकर रंगभूमिमें सब ओर क्रोध 
न फैल जाय ।। ४ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


(तत उत्थाय वेगेन अश्वत्थामा न्यवारयत्‌ । 
गुरोराज्ञा भीम इति गान्धारे गुरुशासनम्‌ | 

अलं योग्यकृतं वेगमलं साहसमित्युत ।।) 
ततस्तावुद्यतगदौ गुरुपुत्रेण वारितौ । 
युगान्तानिलसंक्षुब्धी महावेलाविवार्णवी ।। ५ ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर अभ्र॒त्थामाने बड़े वेगसे उठकर 
भीमसेन और दुर्योधनको रोकते हुए कहा--'भीम! तुम्हारे गुरुकी आज्ञा है, गान्धारीनन्दन! 
आचार्यका आदेश है, तुम दोनोंका युद्ध बंद होना चाहिये। तुम दोनों ही योग्य हो, तुम्हारा 
एक-दूसरेके प्रति वेगपूर्वक आक्रमण अवांछनीय है। तुम दोनोंका यह दु:साहस अनुचित है। 
अतः इसे बंद करो।” इस प्रकार कहकर प्रलयकालीन वायुसे विक्षुब्ध उत्ताल तरंगोंवाले दो 
समुद्रोंकी भाँति गदा उठाये हुए दुर्योधन और भीमसेनको गुरुपुत्र अश्वत्थामाने युद्धसे रोक 
दिया ।। ५ ।। 

ततो रड्जराड़णगतो द्रोणो वचनमत्रवीत्‌ | 

निवार्य वादित्रगणं महामेघनिभस्वनम्‌ ।। ६ |। 

तत्पश्चात्‌ द्रोणाचार्यने महान्‌ मेघोंके समान कोलाहल करनेवाले बाजोंको बंद कराकर 
रंगभूमिमें उपस्थित हो यह बात कही-- || ६ ।। 

यो मे पुत्रात्‌ प्रियतर: सर्वशस्त्रविशारद: । 

ऐन्द्रिरिन्द्रानुजसम: स पार्थो दृश्यतामिति ।। ७ ।। 

“दर्शकगण! जो मुझे पुत्रसे भी अधिक प्रिय है, जिसने सम्पूर्ण शस्त्रोंमें निपुणता प्राप्त 
की है तथा जो भगवान्‌ नारायणके समान पराक्रमी है, उस इन्द्रकुमार कुन्तीपुत्र अर्जुनका 
कौशल आपलोग देखें" ।। ७ ।। 

आचार्यवचनेनाथ कृतस्वस्त्ययनो युवा । 

बद्धगोधाडलुलित्राण: पूर्णतूण: सकार्मुक: ।। ८ ।। 

काज्चनं कवचं बिश्रत्‌ प्रत्यदृश्यत फाल्गुन: । 

सार्क: सेन्द्रायुधतडित्‌ ससंध्य इव तोयद: ।। ९ |। 

तदनन्तर आचार्यके कहनेसे स्वस्तिवाचन कराकर तरुण वीर अर्जुन गोहके चमड़ेके 
बने हुए हाथके दस्ताने पहने, बाणोंसे भरा तरकस लिये धनुषसहित रंगभूमिमें दिखायी 
दिये। वे श्याम शरीरपर सोनेका कवच धारण किये ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो सूर्य, 
इन्द्रधनुष, विद्युत्‌ और संध्याकालसे युक्त मेघ शोभा पाता हो ।। ८-९ ।। 

ततः सर्वस्य रज्गस्य समुत्पिउजलको<5भवत्‌ | 

प्रावाद्यन्त च वाद्यानि सशड्खानि समन्ततः ।। १० ।। 

फिर तो समूचे रंगमण्डपमें हर्षोल्लास छा गया। सब ओर भाँति-भाँतिके बाजे और 
शंख बजने लगे ।। १० ।। 

एष कुन्तीसुत: श्रीमानेष मध्यमपाण्डव: । 

एष पुत्रो महेन्द्रस्य कुरूणामेष रक्षिता ।। ११ ।। 

एषो<अस्त्रविदुषां श्रेष्ठ एब धर्मभूृतां वर: । 

एष शीलवतां चापि शीलज्ञाननिधि: पर: ।। १२ | 

इत्येवं तुमुला वाच: शृण्वत्या: प्रेक्षकेरिता: । 


कुन्त्या: प्रस्रवसंयुक्तैरस्रै: क्लिन्नमुरो5भवत्‌ ।। १३ ।। 

'ये कुन्तीके तेजस्वी पुत्र हैं। ये ही पाण्डुके मझले बेटे हैं। ये देवराज इन्द्रकी संतान हैं। 
ये ही कुरुवंशके रक्षक हैं। अस्त्र-विद्याके विद्वानोंमें ये सबसे उत्तम हैं। ये धर्मात्माओं और 
शीलवानोंमें श्रेष्ठ हैं। शील और ज्ञानकी तो ये सर्वोत्तम निधि हैं।! उस समय दर्शकोंके मुखसे 
तुमुल ध्वनिके साथ निकली हुई ये बातें सुनकर कुन्तीके स्तनोंसे दूध और नेत्रोंसे स्नेहके 
आँसू बहने लगे। उन दुग्धमिश्रित आँसुओंसे कुन्तीदेवीका वक्ष:स्थल भीग गया || ११-- 
१३ || 

तेन शब्देन महता पूर्णश्रुतिरथाब्रवीत्‌ । 

धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठो विदुरं हृष्टमानस: ।। १४ ।। 

वह महान्‌ कोलाहल धृतराष्ट्रके कानोंमें भी गूँज उठा। तब नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र प्रसन्नचित्त 
होकर विदुरसे पूछने लगे-- || १४ ।। 

क्षत्त: क्षुब्धार्णवनिभ: किमेष सुमहास्वन: । 

सहसैवोत्थितो रज्ढे भिन्दन्निव नभस्तलम्‌ ।। १५ ।। 

“विदुर! विक्ष॒ब्ध महासागरके समान यह कैसा महान्‌ कोलाहल हो रहा है? यह शब्द 
मानो आकाशको विदीर्ण करता हुआ रंगभूमिमें सहसा व्यक्त हो उठा है” || १५ ।। 

विदुर उवाच 

एष पार्थो महाराज फाल्गुन: पाण्डुनन्दन: । 

अवतीर्ण: सकवचस्तत्रैष सुमहास्वन: ।। १६ ।। 

विदुरने कहा--महाराज! ये पाण्डुनन्दन अर्जुन कवच बाँधकर रंगभूमिमें उतरे हैं। 
इसी कारण यह भारी आवाज हो रही है || १६ ।। 

धृतराष्ट उवाच 

धन्यो>स्म्यनुगृहीतो5स्मि रक्षितो5स्मि महामते । 

पृथारणिसमुद्धूतैस्त्रिभि: पाण्डववह्निभि: ॥। १७ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--महामते! कुन्तीरूपी अरणिसे प्रकट हुए इन तीनों पाण्डवरूपी 
अग्नियोंसे मैं धन्य हो गया। इन तीनोंके द्वारा मैं सर्वथा अनुगृहीत और सुरक्षित हूँ || १७ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

तस्मिन्‌ प्रमुदिते रज़्े कथंचित्‌ प्रत्युपस्थिते । 

दर्शयामास बीभत्सुराचार्यायास्त्रलाघवम्‌ ।। १८ ।। 

आग्नेयेनासूजद्‌ वल्लिं वारुणेनासृजत्‌ पय: । 

वायव्येनासृजद्‌ वायुं पार्जन्येनासूजद्‌ घनान्‌ ।। १९ ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार आनन्दातिरेकसे मुखरित हुआ वह 
रंगमण्डप जब किसी तरह कुछ शान्त हुआ, तब अर्जुनने आचार्यको अपनी अस्त्र- 
संचालनकी फुर्ती दिखानी आरम्भ की। उन्होंने पहले आग्नेयास्त्रसे आग पैदा की, फिर 
वारुणास्त्रसे जल उत्पन्न करके उसे बुझा दिया। वायव्यास्त्रसे आँधी चला दी और 
पर्जन्यास्त्रसे बादल पैदा कर दिये || १८-१९ ।। 

भौमेन प्राविशद्‌ भूमिं पार्वतेनासृजद्‌ गिरीन्‌ । 

अन्तधनिन चास्त्रेण पुनरन्तर्हितो&भवत्‌ ।। २० ।। 

उन्होंने भौमास्त्रसे पृथ्वी और पार्वतास्त्रसे पर्वतोंको उत्पन्न कर दिया; फिर 
अन्तर्धानास्त्रके द्वारा वे स्वयं अदृश्य हो गये || २० ।। 

क्षणात्‌ प्रांशु: क्षणाद्‌ हस्व: क्षणाच्च रथधूर्गत: । 

क्षणेन रथमध्यस्थ: क्षणेनावतरन्महीम्‌ ।। २१ ।। 

वे क्षणभरमें बहुत लंबे हो जाते और क्षणभरमें ही बहुत छोटे बन जाते थे। एक क्षणमें 
रथके धुरेपर खड़े होते तो दूसरे क्षण रथके बीचमें दिखायी देते थे। फिर पलक मारते-मारते 
पृथ्वीपर उतरकर अस्त्र-कौशल दिखाने लगते थे ।। २१ ।। 

सुकुमारं च सूक्ष्मं च गुरुं चापि गुरुप्रिय: । 

सौष्ठवेनाभिसंक्षिप्त: सोडविध्यद्‌ विविधै: शरै: ॥। २२ ।। 

अपने गुरुके प्रिय शिष्य अर्जुनने बड़ी फुर्ती और खूबसूरतीके साथ सुकुमार, सूक्ष्म 
और भारी निशानेको भी बिना हिलाये-डुलाये नाना प्रकारके बाणोंद्वारा बींध 
दिया ।। २२ ।। 

भ्रमतश्न॒ वराहस्य लोहस्य प्रमुखे समम्‌ । 

पज्च बाणानसंयुक्तान्‌ सम्मुमोचैकबाणवत्‌ ।। २३ ।। 

रंगभूमिमें लोहेका बना हुआ सूअर इस प्रकार रखा गया था कि वह सब ओर चक्कर 
लगा रहा था। उस घूमते हुए सूअरके मुखमें अर्जुनने एक ही साथ एक बाणकी भाँति पाँच 
बाण मारे। वे पाँचों बाण एक-दूसरेसे सटे हुए नहीं थे || २३ ।। 

गव्ये विषाणकोषे च चले रज्ज्ववलम्बिनि । 

निचखान महावीर्य: सायकानेकविंशतिम्‌ ।। २४ ।। 

एक जगह गायका सींग एक रस्सीमें लटकाया गया था, जो हिल रहा था। महापराक्रमी 
अर्जुनने उस सींगके छेदमें लगातार इक्कीस बाण गड़ा दिये || २४ ।। 

इत्येवमादि सुमहत्‌ खड्गे धनुषि चानघ । 

गदायां शस्त्रकुशलो मण्डलानि हाादर्शयत्‌ ।। २५ ।। 

निष्पाप जनमेजय! इस प्रकार उन्होंने बड़ा भारी अस्त्र-कौशल दिखाया। खड्ग, धनुष 
और गदा आदिके भी शस्त्र-कुशल अर्जुनने अनेक पैंतरे और हाथ दिखलाये ।। २५ ।। 

ततः समाप्तभूयिष्ठे तस्मिन्‌ कर्मणि भारत । 


मन्दीभूते समाजे च वादित्रस्य च नि:स्वने ।। २६ ।। 

द्वारदेशात्‌ समुद्धूतो माहात्म्यबलसूचक: । 

वज्रनिष्पेषसदृश: शुश्रुवे भुजनि:स्वन: ।। २७ ।। 

भारत! इस प्रकार अस्त्र-कौशल दिखानेका अधिकांश कार्य जब समाप्त हो चला, 
मनुष्योंका कोलाहल और बाजे-गाजेका शब्द जब शान्त होने लगा, उसी समय दरवाजेकी 
ओरसे किसीका अपनी भुजाओंपर ताल ठोंकनेका भारी शब्द सुनायी पड़ा; मानो वज्र 
आपसमें टकरा रहे हों। वह शब्द किसी वीरके माहात्म्य तथा बलका सूचक 
था || २६-२७ |। 

दीर्यन्ते कि नु गिरयः किंस्विद्‌ भूमिर्विदीर्यते । 

किंस्विदापूर्यते व्योम जलधाराघनैर्घनी: ॥। २८ ।। 

उसे सुनकर लोग कहने लगे, “कहीं पहाड़ तो नहीं फट गये! पृथ्वी तो नहीं विदीर्ण हो 
गयी! अथवा जलकी धारासे परिपूर्ण घनीभूत बादलोंकी गम्भीर गर्जनासे आकाशमण्डल 
तो नहीं गूँज रहा है?” ।। २८ ।। 

रड्गस्यैवं मतिरभूत्‌ क्षणेन वसुधाधिप । 

द्वारं चाभिमुखा: सर्वे बभूवु: प्रेक्षकास्तदा || २९ |। 

राजन्‌! उस रंगमण्डपमें बैठे हुए लोगोंके मनमें क्षणभरमें उपर्युक्त विचार आने लगे। 
उस समय सभी दर्शक दरवाजेकी ओर मुँह घुमाकर देखने लगे ।। २९ ।। 

पज्चभि भ्रीतिभि: पार्थद्रोण: परिवृतो बभौ | 

पञ्चतारेण संयुक्त: सावित्रेणेव चन्द्रमा: ।। ३० ।। 

इधर कुन्तीकुमार पाँचों भाइयोंसे घिरे हुए आचार्य द्रोण पाँच तारोंवाले हस्त नक्षत्रसे 
संयुक्त चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे ।। ३० ।। 

अश्वत्थाम्ना च सह्िितं भ्रातृणां शतमूर्जितम्‌ । 

दुर्योधनममित्रघ्नमुत्थितं पर्यवारयत्‌ ।। ३१ ।। 

स तैस्तदा भ्रातृभिरुद्यतायुधै- 

गदाग्रपाणि: समवस्थितैर्वृत: । 
बभौ यथा दानवसंक्षये पुरा 
पुरन्दरो देवगणै: समावृत: ।। ३२ || 

शत्रुहन्ता बलवान्‌ दुर्योधन भी उठकर खड़ा हो गया। अश्वत्थामासहित उसके सौ 
भाइयोंने आकर उसे चारों ओरसे घेर लिया। हाथोंमें आयुध उठाये खड़े हुए अपने भाइयोंसे 
घिरा हुआ गदाधारी दुर्योधन पूर्वकालमें दानवसंहारके समय देवताओंसे घिरे देवराज इन्द्रके 
समान शोभा पाने लगा ।। ३१-३२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि अस्त्रदर्शने 
चतुस्त्रिंशदाधिकशततमो<ध्याय: ।। १३४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें अस्त्रदर्शविषयक एक सौ 
चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १३४ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६ श्लोक मिलाकर कुल ३३३ “लोक हैं) 


भस्न्ैमा+ () अिमनने 


पज्चत्रिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 
कर्णका रंगभूमिमें प्रवेश तथा राज्याभिषेक 


वैशम्पायन उवाच 


दत्तेडवकाशे पुरुषैर्विस्मयोत्फुल्ललोचनै: । 

विवेश रछ्ूं विस्तीर्ण कर्ण: परपुरंजय: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! आश्चर्यसे आँखें फाड़-फाड़कर देखते हुए 
द्वारपालोंने जब भीतर जानेका मार्ग दे दिया, तब शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले 
कर्णने उस विशाल रंगमण्डपमें प्रवेश किया ।। १ ।। 

सहजं कवचं बिश्रत्‌ कुण्डलोद्योतितानन: । 

सभरनुर्बद्धनिस्त्रिंश: पादचारीव पर्वत: ।॥। २ ॥। 

उसने शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए दिव्य कवचको धारण कर रखा था। दोनों कानोंके 
कुण्डल उसके मुखको उद्धासित कर रहे थे। हाथमें धनुष लिये और कमरमें तलवार बाँधे 
वह वीर पैरोंसे चलनेवाले पर्वतकी भाँति सुशोभित हो रहा था ।। २ ।। 

कन्यागर्भ: पृथुयशा: पृथाया: पृथुलोचन: । 

तीक्ष्णांशोर्भास्करस्यांश: कर्णोडरिगणसूदन: ।। ३ |। 

कुन्तीने कन्यावस्थामें ही उसे अपने गर्भमें धारण किया था। उसका यश सर्वत्र फैला 
हुआ था। उसके दोनों नेत्र बड़े-बड़े थे। शत्रुसमुदायका संहार करनेवाला कर्ण प्रचण्ड 
किरणोंवाले भगवान्‌ भास्करका अंश था ।। ३ ॥। 

सिंहर्षभगजेन्द्राणां बलवीर्यपराक्रम: । 

दीप्तिकान्तिद्युतिगुणै: सूर्येन्दुज्वलनोपम: ।। ४ ।। 

उसमें सिंहके समान बल, साँड़के समान वीर्य तथा गजराजके समान पराक्रम था, वह 
दीप्तिसे सूर्य, कान्तिसे चन्द्रमा तथा तेजरूपी गुणसे अग्निके समान जान पड़ता था ।। ४ ।। 

प्रांश:ः कनकतालाभ: सिंहसंहननो युवा । 

असंख्येयगुण: श्रीमान्‌ भास्करस्यात्मसम्भव: ।। ५ ।। 

उसका शरीर बहुत ऊँचा था, अतः वह सुवर्णमय ताड़के वृक्ष-सा प्रतीत होता था। 
उसके अंगोंकी गठन सिंह-जैसी जान पड़ती थी। उसमें असंख्य गुण थे। उसकी तरुण 
अवस्था थी। वह साक्षात्‌ भगवान्‌ सूर्यसे उत्पन्न हुआ था, अतः (उन्हींके समान) दिव्य 
शोभासे सम्पन्न था || ५ ।। 

स निरीक्ष्य महाबाहु: सर्वतो रड्भजमण्डलम्‌ । 

प्रणाम द्रोणकृपयोर्नात्यादृतमिवाकरोत्‌ ।। ६ ।। 


उस समय महाबाहु कर्णने रंगमण्डपमें सब ओर दृष्टि डालकर द्रोणाचार्य और 
कृपाचार्यको इस प्रकार प्रणाम किया, मानो उनके प्रति उसके मनमें अधिक आदरका भाव 
नहो।। ६ ।। 

स समाजजन: सर्वो निश्चल: स्थिरलोचन: । 

को<यमित्यागतक्षोभ: कौतूहलपरो5भवत्‌ ।। ७ ।। 

रंगभूमिमें जितने लोग थे, वे सब निश्चल होकर एकटक दृष्टिसे देखने लगे। यह कौन है, 
यह जाननेके लिये उनका चित्त चंचल हो उठा। वे सब-के-सब उत्कण्ठित हो गये ।। ७ ।। 

सो<ब्रवीन्मेघगम्भीरस्वरेण वदतां वर: । 

भ्राता भ्रातरमज्ञातं सावित्र: पाकशासनिम्‌ ।। ८ ।। 

इतनेमें ही वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूर्यपुत्र कर्ण, जो पाण्डवोंका भाई लगता था, अपने अज्ञात 
भ्राता इन्द्रकुमार अर्जुनसे मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोला-- ।। ८ ।। 

पार्थ यत्‌ ते कृतं कर्म विशेषवदहं ततः । 

करिष्ये कह | मा55तमना विस्मयं गम: ।। ९ ।। 

“कुन्तीनन्दन! हे इन दर्शकोंके समक्ष जो कार्य किया है, मैं उससे भी अधिक अद्भुत 
कर्म कर दिखाऊँगा। अत: तुम अपने पराक्रमपर गर्व न करो” ।। ९ ।। 

असमाप्ते ततस्तस्य वचने वदतां वर । 

यन्त्रोत्क्षिप्त इवोत्तस्थी क्षिप्रं वै सर्वती जन: ।। १० ।। 

वक्ताओंमें श्रेष्ठ जनमेजय! कर्णकी बात अभी पूरी ही न हो पायी थी कि सब ओरके 
मनुष्य तुरंत उठकर खड़े हो गये, मानो उन्हें किसी यन्त्रसे एक साथ उठा दिया गया 
हो ।। १० ।। 

प्रीतिश्च मनुजव्याप्र दुर्योधनमुपाविशत्‌ । 

द्वीक्ष क्रोधश्ष॒ बीभत्सुं क्षणेनान्‍वाविवेश ह ।। ११ ।। 

नरश्रेष्ठ उस समय दुर्योधनके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और अर्जुनके चित्तमें क्षणभरमें 
लज्जा और क्रोधका संचार हो आया || ११ ।। 

ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः कर्ण: प्रियरण: सदा । 

यत्‌ कृतं तत्र पार्थेन तच्चकार महाबल: ।। १२ ।। 

तब सदा युद्धसे ही प्रेम करनेवाले महाबली कर्णने द्रोणाचार्यकी आज्ञा लेकर, अर्जुनने 
वहाँ जो-जो अस्त्र-कौशल प्रकट किया था, वह सब कर दिखाया ।। १२ ।। 

अथ दुर्योधनस्तत्र भ्रातृभि: सह भारत । 

कर्ण परिष्वज्य मुदा ततो वचनमत्रवीत्‌ ।। १३ ।। 

भारत! तदनन्तर भाइयोंसहित दुर्योधनने वहाँ बड़ी प्रसन्नताके साथ कर्णको हृदयसे 
लगाकर कहा ।। १३ || 


दुर्योधन उवाच 


स्वागतं ते महाबाहो दिष्ट्या प्राप्तोडसि मानद | 
अहं च कुरुराज्यं च यथेष्टमुपभुज्यताम्‌ ।। १४ ।। 
दुर्योधन बोला--महाबाहो! तुम्हारा स्वागत है। मानद! तुम यहाँ पधारे, यह हमारे 
लिये बड़े सौभाग्यकी बात है। मैं तथा कौरवोंका यह राज्य सब तुम्हारे हैं। तुम इनका यसथेष्ट 
उपभोग करो ।। १४ ।। 
कर्ण उवाच 
कृतं सर्वमहं मन्ये सखित्वं च त्वया वृणे । 
डन्ड्ययुद्धं च पार्थेन कर्तुमिच्छाम्यहं प्रभो ।। १५ ।। 
कर्णने कहा--प्रभो! आपने जो कुछ कहा है, वह सब पूरा कर दिया, ऐसा मेरा 
विश्वास है। मैं आपके साथ मित्रता चाहता हूँ और अर्जुनके साथ मेरी द्वद्ध-युद्ध करनेकी 
इच्छा है || १५ ।। 
दुर्योधन उवाच 
भुड्क्ष्य भोगान्‌ मया सार्ध बन्धूनां पियकृद्‌ भव । 
दुर्हदां कुरु सर्वेषां मूर्थ्नि पादमरिंदम ।। १६ ।। 
दुर्योधन बोला--शत्रुदमन! तुम मेरे साथ उत्तम भोग भोगो। अपने भाई-बन्धुओंका 
प्रिय करो और समस्त शत्रुओंके मस्तकपर पैर रखो ।। १६ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


ततः क्षिप्तमिवात्मानं मत्वा पार्थो5 भ्यभाषत । 

कर्ण भ्रातृसमूहस्य मध्येडचलमिव स्थितम्‌ ।। १७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस समय अर्जुनने अपने-आपको कर्णद्वारा 
तिरस्कृत-सा मानकर दुर्योधन आदि सौ भाइयोंके बीचमें अविचल-से खड़े हुए कर्णको 
सम्बोधित करके कहा ।। १७ |। 

अजुन उवाच 

अनाहूतोपसृष्टानामनाहूतोपजल्पिनाम्‌ । 

ये लोकास्तान्‌ हत:ः कर्ण मया त्वं प्रतिपत्स्यसे || १८ ।। 

अर्जुन बोले--कर्ण! बिना बुलाये आनेवालों और बिना बुलाये बोलनेवालोंको जो 
(निन्दनीय) लोक प्राप्त होते हैं, मेरे द्वारा मारे जानेपर तुम उन्हीं लोकोंमें जाओगे ।। १८ ।। 


कर्ण उवाच 
रड्रो5यं सर्वसामान्य: किमत्र तव फाल्गुन । 
वीर्यश्रेष्ठाश्न॒ राजानो बल॑ धर्मोडनुवर्तते ।। १९ ।। 


कर्णने कहा--अर्जुन! यह रंगमण्डप तो सबके लिये साधारण है, इसमें तुम्हारा क्या 
लगा है? जो बल और पराक्रममें श्रेष्ठ होते हैं, वे ही राजा कहलानेयोग्य हैं। धर्म भी बलका 
ही अनुसरण करता है ।। १९ ।। 

कि क्षेपैर्दुर्बलायासै: शरै: कथय भारत । 

गुरो: समक्ष यावत्‌ ते हराम्यद्य शिर: शरै: ।। २० ।। 

भारत! आक्षेप करना तो दुर्बलोंका प्रयास है। इससे क्या लाभ है? साहस हो तो 
बाणोंसे बातचीत करो। मैं आज तुम्हारे गुरुके सामने ही बाणोंद्वारा तुम्हारा सिर धड़से 
अलग किये देता हूँ || २० ।। 

वैशम्पायन उवाच 

ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः पार्थ: परपुरंजय: । 

भ्रातृभिस्त्वरया55श्लिपष्टो रणायोपजगाम तम्‌ ।॥। २१ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर शत्रुओंके नगरको जीतनेवाले कुन्तीनन्दन 
अर्जुन आचार्य द्रोणकी आज्ञा ले तुरंत अपने भाइयोंसे गले मिलकर युद्धके लिये कर्णकी 
ओर बढ़े ।| २१ ।। 

ततो दुर्योधनेनापि स भ्रात्रा समरोद्यत: । 

परिष्वक्त: स्थित: कर्ण: प्रगृह्मा सशरं धनु: ॥। २२ ।। 

तब भाइयोंसहित दुर्योधनने भी धनुष-बाण ले युद्धके लिये तैयार खड़े हुए कर्णका 
आलिंगन किया ।। २२ ।। 

ततः सविद्युत्स्यनितै: सेन्द्रायुधपुरोगमै: । 

आवृतं गगन मेघैर्बलाकापड्क्तिहासिभि: || २३ ।। 

उस समय बकपंक्तियोंके व्याजसे हास्यकी छटा बिखेरनेवाले बादलोंने बिजलीकी 
चमक, गड़गड़ाहट और इन्द्रधनुषके साथ समूचे आकाशको ढक लिया ।। २३ ।। 

तत:ः स्नेहाद्धरिहयं दृष्टवा रड्भरावलोकिनम्‌ | 

भास्करो>5प्यनयन्नाशं समीपोपगतान्‌ घनान्‌ ॥। २४ ।। 

तत्पश्चात्‌ अर्जुनके प्रति स्नेह होनेके कारण इन्द्रको रंगभूमिका अवलोकन करते देख 
भगवान्‌ सूर्यने भी अपने समीपके बादलोंको छिलन्न-भिन्न कर दिया ।। २४ ।। 

मेघच्छायोपगूढस्तु ततो5दृश्यत फाल्गुन: । 

सूर्यातपपरिक्षिप्त: कर्णोडपि समदृश्यत ।। २५ ।। 

तब अर्जुन मेघकी छायामें छिपे हुए दिखायी देने लगे और कर्ण भी सूर्यकी प्रभासे 
प्रकाशित दीखने लगा ।। २५ ।। 

धार्तराष्ट्रा यत: कर्णस्तस्मिन्‌ देशो व्यवस्थिता: । 

भारद्वाज: कृपो भीष्मो यतः पार्थस्ततो5भवन्‌ ।। २६ ।। 


धृतराष्ट्रके पुत्र जिस ओर कर्ण था, उसी ओर खड़े हुए तथा द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और 
भीष्म जिधर अर्जुन थे, उस ओर खड़े थे | २६ ।। 

द्विधा रंग: समभवत्‌ स्त्रीणां द्वैधमजायत । 

कुन्तिभोजसुता मोहं विज्ञातार्था जगाम ह ॥। २७ ।। 

रंगभूमिके पुरुषों और स्त्रियोंमें भी कर्ण और अर्जुनको लेकर दो दल हो गये। 
कुन्तिभोजकुमारी कुन्तीदेवी वास्तविक रहस्यको जानती थीं (कि ये दोनों मेरे ही पुत्र हैं), 
अतः चिन्ताके कारण उन्हें मूर्च्छा आ गयी || २७ ।। 

तां तथा मोहमापचन्नां विदुर: सर्वधर्मवित्‌ । 

कुन्तीमाश्चवासयामास प्रेष्याभिश्चन्दनोदकै: ।। २८ ।। 

उन्हें इस प्रकार मूच्छामें पड़ी हुई देख सब धर्मोके ज्ञाता विदुरजीने दासियोंद्वारा 
चन्दनमिश्रित जल छिड़कवाकर होशमें लानेकी चेष्टा की | २८ ।। 

ततः प्रत्यागतप्राणा तावुभौ परिदंशितौ । 

पुत्री दृष्टवा सुसम्भ्रान्ता नान्वपद्यत किंचन ।। २९ ।। 

इससे कुन्तीको होश तो आ गया; किंतु अपने दोनों पुत्रोंको युद्धूके लिये कवच धारण 
किये देख वे बहुत घबरा गयीं। उन्हें रोकनेका कोई उपाय उनके ध्यानमें नहीं 
आया ।। २९ || 

तावुद्यतमहाचापौ कृप: शारद्वतोडब्रवीत्‌ 

डन्दरयुद्धसमाचारे कुशल: सर्वधर्मवित्‌ ।। ३० ।। 

उन दोनोंको विशाल धनुष उठाये देख द्वन्ड-युद्धकी नीति-रीतिमें कुशल और समस्त 
धर्मोके ज्ञाता शरद्वानके पुत्र कृपाचार्यने इस प्रकार कहा-- || ३० ।। 

अयं पृथायास्तनय: कनीयान्‌ पाण्डुनन्दन: । 

कौरवो भवता सार्ध द्वन्डयुद्धं करिष्यति ।। ३१ ।। 

त्वमप्येवं महाबाहो मातरं पितरं कुलम्‌ । 

कथयस्व नरेन्द्राणां येषां त्वं कुलभूषणम्‌ ।। ३२ ।। 

“कर्ण! ये कुन्तीदेवीके सबसे छोटे पुत्र पाण्डु-नन्दन अर्जुन कुरुवंशके रत्न हैं, जो 
तुम्हारे साथ इन्द्र-युद्ध करेंगे। महाबाहो! इसी प्रकार तुम भी अपने माता-पिता तथा कुलका 
परिचय दो और उन नरेशके नाम बताओ, जिनका वंश तुमसे विभूषित हुआ 
है ।। ३१-३२ ।। 

ततो विदित्वा पार्थस्त्वां प्रतियोत्स्यति वा न वा । 

वृथाकुलसमाचारैर्न युध्यन्ते नृपात्मजा: ।। ३३ ।। 

“इसे जान लेनेके बाद यह निश्चय होगा कि अर्जुन तुम्हारे साथ युद्ध करेंगे या नहीं; 
क्योंकि राजकुमार नीच कुल और हीन आचार-विचारवाले लोगोंके साथ युद्ध नहीं 
करते” ।। ३३ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्तस्य कर्णस्य व्रीडावनतमाननम्‌ | 
बभौ वर्षाम्बुविक्लिन्नं पच्ममागलितं यथा ।। ३४ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कृपाचार्यके यों कहनेपर कर्णका मुख लज्जासे 
नीचेको झुक गया। जैसे वर्षाके पानीसे भींगकर कमल मुरझा जाता है, उसी प्रकार कर्णका 
मुँह म्लान हो गया ।। ३४ ।। 
दुर्योधन उवाच 


आचार्य त्रिविधा योनी राज्ञां शास्त्रविनिश्षये | 

सत्कुलीनश्नव शूरश्न यश्व सेनां प्रकर्षति ।। ३५ ।। 

तब दुर्योधनने कहा--आचार्य! शास्त्रीय सिद्धान्तके अनुसार राजाओंकी तीन योनियाँ 
हैं--उत्तम कुलमें उत्पन्न पुरुष, शूरवीर तथा सेनापति (अत: शूरवीर होनेके कारण कर्ण भी 
राजा ही हैं) ।। ३५ ।। 

यद्ययं फाल्गुनो युद्धे नाराज्ञा योद्धुमिच्छति । 

तस्मादेषो5ड्भविषये मया राज्येडभिषिच्यते ।। ३६ ।। 

यदि ये अर्जुन राजासे भिन्न पुरुषके साथ रणभूमिमें लड़ना नहीं चाहते तो मैं कर्णको 
इसी समय अंगदेशके राज्यपर अभिषिक्त करता हूँ || ३६ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


(ततो राजानमामन्त्र्य गाड़ेयं च पितामहम्‌ । 

अभिषेकस्य सम्भारान्‌ समानीय द्विजातिभि: ।।) 

ततस्तस्मिन्‌ क्षणे कर्ण: सलाजकुसुमैर्घटै: । 

काज्चनै: काज्चने पीठे मन्त्रविद्धिर्महारथ: ।। ३७ ।। 

अभिषिक्तो$डूराज्ये स श्रिया युक्तो महाबल: । 

(समौलिहारकेयूरै: सहस्ताभरणाडूदै: । 

राजलिड्जैस्तथान्यैश्न भूषितो भूषणै: शुभे: ।।) 

सच्छत्रवालव्यजनो जयशब्दोत्तरेण च ।। ३८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर दुर्योधनने राजा धृतराष्ट्र और गंगानन्दन 
भीष्मकी आज्ञा ले ब्राह्मणोंद्वारा अभिषेकका सामान मँगवाया। फिर उसी समय महाबली 
एवं महारथी कर्णको सोनेके सिंहासनपर बिठाकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणोंने लावा और फूलोंसे 
युक्त सुवर्णमय कलशोंके जलसे अंगदेशके राज्यपर अभिषिक्त किया। तब मुकुट, हार, 
केयूर, कंगन, अंगद, राजोचित चिह्न तथा अन्य शुभ आभूषणोंसे विभूषित हो वह छत्र, 
चँवर तथा जय-जयकारके साथ राज्यश्रीसे सुशोभित होने लगा ।। ३७-३८ ।। 





(सभाज्यमानो विधप्रैश्न प्रदत्त्वा ह्यमितं वसु ।) 

उवाच कौरवं राजन्‌ वचनं स वृषस्तदा । 

अस्य राज्यप्रदानस्य सदृशं कि ददानि ते ।। ३९ ।। 

प्रत्रुहि राजशार्दूल कर्ता हास्मि तथा नृप । 

अत्यन्तं सख्यमिच्छामीत्याह तं॑ स सुयोधन: ।। ४० ।। 

फिर ब्राह्मणोंसे समादृत हो राजा कर्णने उन्हें असीम धन प्रदान किया। राजन्‌! उस 
समय उसने कुरुश्रेष्ठ दुर्योधनसे कहा--“नृपतिशिरोमणे! आपने मुझे जो यह राज्य प्रदान 
किया है, इसके अनुरूप मैं आपको क्‍या भेंट दूँ? बताइये, आप जैसा कहेंगे वैसा ही 
करूँगा।” यह सुनकर दुर्योधनने कहा--“अंगराज! मैं तुम्हारे साथ ऐसी मित्रता चाहता हूँ, 
जिसका कभी अन्त न हो” ।। ३९-४० ।। 

एवमुक्तस्तत: कर्णस्तथेति प्रत्युवाच तम्‌ । 

हर्षाच्चोभौ समाश्लिष्य परां मुदमवापतु: ।। ४१ ।। 

उसके यों कहनेपर कर्णने “तथास्तु” कहकर उसके साथ मैत्री कर ली। फिर वे दोनों 
बड़े हर्षसे एक-दूसरेको हृदयसे लगाकर आनन्दमग्न हो गये ।। ४१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि कर्णाभिषेके 
पज्चत्रिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १३५ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें कर्णके राज्याथिषेकसे सम्बन्ध 
रखनेवाला एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय प्रा हुआ ॥/ १३५ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २६ श्लोक मिलाकर कुल ४३३ “लोक हैं) 


न२््च्य्निनाय्ि श््य नी्-नत्तज्स 


षट्त्रिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


भीमसेनके द्वारा कर्णका तिरस्कार और दुर्योधनद्वारा 
उसका सम्मान 


वैशम्पायन उवाच 


ततः स्रस्तोत्तरपट: सप्रस्वेद: सवेपथु: । 

विवेशाधिरथो रऊझूं यष्टिप्राणो ह्वयन्निव ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर लाठी ही जिसका सहारा था, वह 
अधिरथ कर्णको पुकारता हुआ-सा काँपता-काँपता रंगभूमिमें आया। उसकी चादर 
खिसककर गिर पड़ी थी और वह पसीनेसे लथपथ हो रहा था ।। १ ॥। 

तमालोक्य धनुस्त्यक्त्वा पितृगौरवयन्त्रित: । 

कर्णोडभिषेकार्दशिरा: शिरसा समवन्दत ।। २ ।। 

पिताके गौरवसे बँधा हुआ कर्ण अधिरथको देखते ही धनुष त्यागकर सिंहासनसे नीचे 
उतर आया। उसका मस्तक अभिषेकके जलसे भीगा हुआ था। उसी दशामें उसने 
अधिरथके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया ।। २ ।। 

ततः पादाववच्छाद्य पटान्तेन ससम्भ्रम: । 

पुत्रेति परिपूर्णार्थमब्रवीद्‌ रथसारथि: ।। ३ ।। 

अधिरथने अपने दोनों पैरोंको कपड़ेके छोरसे छिपा लिया और “बेटा! बेटा!” पुकारते 
हुए अपनेको कृतार्थ समझा ।। ३ ।। 

परिष्वज्य च तस्याथ मूर्धानं स्‍्नेहविक्लव: । 

अंगराज्याभिषेकार्द्रम श्रुभि: सिषिचे पुन: ।। ४ ।। 

उसने स्नेहसे विह्लल होकर कर्णको हृदयसे लगा लिया और अंगदेशके राज्यपर 
अभिषेक होनेसे भीगे हुए उसके मस्तकको आँसुओंसे पुनः: अभिषिक्त कर दिया ।। ४ ।। 

त॑ दृष्टवा सूतपुत्रो5यमिति संचिन्त्य पाण्डव: । 

भीमसेनस्तदा वाक्यमतब्रवीत्‌ प्रहसन्निव ।। ५ ।। 

अधिरथको देखकर पाण्डुकुमार भीमसेन यह समझ गये कि कर्ण सूतपुत्र है; फिर तो 
वे हँसते हुए-से बोले-- ।। ५ ।। 

न त्वमर्हसि पार्थेन सूतपुत्र रणे वधम्‌ । 

कुलस्य सदृशस्तूर्ण प्रतोदो गृह्मुतां त्वया ।। ६ ।। 

“अरे ओ सूतपुत्र! तू तो अर्जुनके हाथसे मरने-योग्य भी नहीं है। तुझे तो शीघ्र ही 
चाबुक हाथमें लेना चाहिये; क्योंकि यही तेरे कुलके अनुरूप है || ६ ।। 


अड्डराज्यं च ना्हस्त्वमुपभोक्तुं नराधम । 

था हुताशसमीपस्थं पुरोडाशमिवाध्वरे ।। ७ ।। 

“नराधम! जैसे यज्ञमें अग्निके समीप रखे हुए पुरोडाशको कुत्ता नहीं पा सकता, उसी 
प्रकार तू भी अंगदेशका राज्य भोगनेयोग्य नहीं है” || ७ ।। 

एवमुक्तस्तत: कर्ण: किंचित्प्रस्फुरिताधर: । 

गगनस्थं विनि:श्वस्य दिवाकरमुदैक्षत ।। ८ ।। 

भीमसेनके यों कहनेपर क्रोधके मारे कर्णका होठ कुछ काँपने लगा और उसने लंबी 
साँस लेकर आकाशमण्डलमें स्थित भगवान्‌ सूर्यकी ओर देखा ।। ८ ।। 

ततो दुर्योधन: कोपादुत्पपात महाबल: । 

भ्रातृपड्मवनात्‌ तस्मान्मदोत्कट इव द्विप: ।। ९ ।। 

इसी समय महाबली दुर्योधन कुपित हो मदोन्मत्त गजराजकी भाँति भ्रातृसमूहरूपी 
कमलवनसे उछलकर बाहर निकल आया ।। ९ || 

सो<ब्रवीद्‌ भीमकर्माणं भीमसेनमवस्थितम्‌ । 

वृकोदर न युक्त ते वचन वक्तुमीदूशम्‌ ।। १० ।। 

उसने वहाँ खड़े हुए भयंकर कर्म करनेवाले भीमसेनसे कहा--“वृकोदर! तुम्हें ऐसी 
बात नहीं कहनी चाहिये” || १० ।। 

क्षत्रियाणां बल॑ ज्येष्ठं योद्धव्यं क्षत्रबन्धुना । 

शूराणां च नदीनां च दुर्विदा: प्रभवा: किल ।। ११ ।। 

'क्षत्रियोंमें बलकी ही प्रधानता है। बलवान होनेपर क्षत्रबन्धु (हीन क्षत्रिय)-से भी युद्ध 
करना चाहिये (अथवा मुझ क्षत्रियका मित्र होनेके कारण कर्णके साथ तुम्हें युद्ध करना 
चाहिये)। शूरवीरों और नदियोंकी उत्पत्तिके वास्तविक कारणको जान लेना बहुत कठिन 
है ।। ११ || 

सलिलादुत्थितो वल्लियेन व्याप्तं चराचरम्‌ । 

दधीचस्यास्थितो वज्ं कृतं दानवसूदनम्‌ ।। १२ ।। 

“जिसने सम्पूर्ण चराचर जगतको व्याप्त कर रखा है, वह तेजस्वी अग्नि जलसे प्रकट 
हुआ है। दानवोंका संहार करनेवाला वज्र महर्षि दधीचिकी हड्डियोंसे निर्मित हुआ 
है ।। १२ ।। 

आग्नेय: कृत्तिकापुत्रो रौद्रो गाज़ेय इत्यपि | 

श्रूयते भगवान्‌ देव: सर्वगुह्ममयों गुहः ।। १३ ।। 

“सुना जाता है, सर्वगुह्म॒स्वरूप भगवान्‌ स्कन्ददेव अग्नि, कृत्तिका, रुद्र तथा गंगा--इन 
सबके पुत्र हैं || १३ ।। 

क्षत्रियेभ्यश्व ये जाता ब्राह्मणास्ते च ते श्रुता: । 

विश्वामित्रप्रभूतयः प्राप्ता ब्रह्म॒त्वमव्ययम्‌ ।। १४ ।। 


'कितने ही ब्राह्मण क्षत्रियोंसे उत्पन्न हुए हैं, उनका नाम तुमने भी सुना ही होगा तथा 
विश्वामित्र आदि क्षत्रिय भी अक्षय ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो चुके हैं । १४ ।। 

आचार्य: कलशाज्जातो द्रोण: शस्त्रभूतां वर: । 

गौतमस्यान्ववाये च शरस्तम्बाच्च गौतम: ।। १५ ।। 

“समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ हमारे आचार्य द्रोणका जन्म कलशसे हुआ है। महर्षि 
गौतमके कुलमें कृपाचार्यकी उत्पत्ति भी सरकंडोंके समूहसे हुई है ।। १५ ।। 

भवतां च यथा जन्म तदप्यागमितं मया । 

सकुण्डलं सकवचं सर्वलक्षणलक्षितम्‌ | 

कथमादित्यसदृशं मृगी व्यात्रं जनिष्यति ।। १६ ।। 

“तुम सब भाइयोंका जन्म जिस प्रकार हुआ है, वह भी मुझे अच्छी तरह मालूम है। 
समस्त शुभ लक्षणोंसे सुशोभित तथा कुण्डल और कवचके साथ उत्पन्न हुआ सूर्यके समान 
तेजस्वी कर्ण किसी सूत जातिकी स्त्रीका पुत्र कैसे हो सकता है। क्या कोई हरिणी अपने 
पेटसे बाघ पैदा कर सकती है? ।। १६ ।। 

(कथमादित्यसंकाशं सूतो5मुं जनयिष्यति । 

एवं क्षत्रगुणैर्युक्ते शूरं समितिशो भनम्‌ ।।) 

पृथिवीराज्यमहों<यं नाड्रराज्यं नरेश्वर: । 

अनेन बाहुवीर्येण मया चाज्ञानुवर्तिना ।। १७ ।। 

“इस सूर्य-सदृश तेजस्वी वीरको, जो इस प्रकार क्षत्रियोचित गुणोंसे सम्पन्न तथा 
समरांगणको सुशोभित करनेवाला है, कोई सूत जातिका मनुष्य कैसे उत्पन्न कर सकता है? 
राजा कर्ण अपने इस बाहुबलसे तथा मुझ-जैसे आज्ञापालक मित्रकी सहायतासे अंग- 
देशका ही नहीं, समूची पृथ्वीका राज्य पानेका अधिकारी है ।। १७ ।। 

यस्य वा मनुजस्येद॑ न क्षान्तं मद्विचेष्टितम्‌ 

रथमारुहा[ पद्धयां स विनामयतु कार्मुकम्‌ ।। १८ ।। 

“जिस मनुष्यसे मेरा यह बर्ताव नहीं सहा जाता हो, वह रथपर चढ़कर पैरोंसे अपने 
धनुषको नवावे--हमारे साथ युद्धके लिये तैयार हो जाय” ।। १८ ।। 

ततः सर्वस्य रज्गस्य हाहाकारो महानभूत्‌ । 

साधुवादानुसम्बद्धः सूर्य श्षास्तमुपागमत्‌ ।। १९ |। 

यह सुनकर समूचे रंगमण्डपमें दुर्योधनको मिलने-वाले साधुवादके साथ ही (युद्धकी 
सम्भावनासे) महान्‌ हाहाकार मच गया। इतनेमें ही सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये ।। १९ |। 

ततो दुर्योधन: कर्णमालम्ब्याग्रकरे नृप: । 

दीपिकाग्निकृतालोकस्तस्माद्‌ रड्भाद्‌ विनिर्यया || २० ।। 

तब दुर्योधन कर्णके हाथकी अगुलियाँ पकड़कर मशालकी रोशनी करा उस रंगभूमिसे 
बाहर निकल गया ।। २० ।। 


पाण्डवाश्व सहद्रोणा: सकृपाश्न विशाम्पते । 

भीष्मेण सहिता: सर्वे ययु: स्वं स्‍्व॑ं निवेशनम्‌ ।। २१ ।। 

राजन! समस्त पाण्डव भी द्रोण, कृपाचार्य और भीष्मजीके साथ अपने-अपने 
निवासस्थानको चल दिये ।। २१ ।। 

अर्जुनेति जन: वलच्चित्‌ कश्चित्‌ कर्णेति भारत । 

वद्िद्‌ दुर्योधनेत्येवं ब्रुवन्त: प्रस्थितास्तदा | २२ ।। 

भारत! उस समय दर्शकोंमेंसे कोई अर्जुनकी, कोई कर्णकी और कोई दुर्योधनकी 
प्रशंसा करते हुए चले गये ।। २२ ।। 

कुन्त्याश्व प्रत्यभिज्ञाय दिव्यलक्षणसूचितम्‌ । 

पुत्रमज्ेश्वरं स्नेहाच्छन्ना प्रीतिरजायत ।। २३ ।। 

दिव्य लक्षणोंसे लक्षित अपने पुत्र अंगराज कर्णको पहचानकर कुन्तीके मनमें बड़ी 
प्रसन्नता हुई; किंतु वह दूसरोंपर प्रकट न हुई ।। २३ ।। 

दुर्योधनस्थापि तदा कर्णमासाद्य पार्थिव | 

भयमर्जुनसंजातं क्षिप्रमन्‍्तरधीयत ।। २४ ।। 

जनमेजय! उस समय कर्णको मित्रके रूपमें पाकर दुर्योधनका भी अर्जुनसे होनेवाला 
भय शीघ्र दूर हो गया || २४ ।। 

स चापि वीर: कृतशस्त्रनिश्रम: 

परेण साम्नाभ्यवदत्‌ सुयोधनम्‌ । 
युधिष्ठटिरस्याप्यभवत्‌ तदा मति- 
न कर्णतुल्यो5स्ति धनुर्धर: क्षितो ।। २५ ।। 

वीरवर कर्णने शस्त्रोंके अभ्यासमें बड़ा परिश्रम किया था, वह भी दुर्योधनके साथ परम 
स्नेह और सान्त्वनापूर्ण बातें करने लगा। उस समय युधिष्ठिरको भी यह विश्वास हो गया कि 
इस पृथ्वीपर कर्णके समान धनुर्धर कोई नहीं है || २५ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि अस्त्रदर्शने 
षट्त्रिंयधिकशततमो<्ध्याय: ।। १३६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपववके अन्तर्गत यम्भवपर्वमें अस्त्र- कौशलदर्शनविषयक एक 
सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३६ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं) 


ऑपन-माजल छा अकाल 


सप्तत्रिशर्दाधिकशततमोब< ध्याय: 


द्रोणका शिष्योंद्वारा द्रपदपर आक्रमण करवाना, अर्जुनका 
ट्रपदको बंदी बनाकर लाना और द्रोणद्वारा द्रपदको आधा 
राज्य देकर मुक्त कर देना 


वैशम्पायन उवाच 


पाण्डवान्‌ धार्तराष्टांश्व कृतास्त्रान्‌ प्रसमीक्ष्य सः । 

गुर्वर्थ दक्षिणाकाले प्राप्तेडमन्यत वै गुरु: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! पाण्डवों तथा धृतराष्ट्रके पुत्रोंको अस्त्र-विद्यामें 
निपुण देख द्रोणाचार्यने गुरु-दक्षिणा लेनेका समय आया जान मन-ही-मन कुछ निश्चय 
किया ।। १ |। 

ततः शिष्यात्‌ समानीय आचार्यो<5र्थमचोदयत्‌ । 

द्रोण: सर्वानशेषेण दक्षिणार्थ महीपते ।। २ ।। 

जनमेजय! तदनन्तर आचार्यने अपने शिष्योंको बुलाकर उन सबसे गुरुदक्षिणाके लिये 
इस प्रकार कहा-- || २ ।। 

पज्चालराजं ट्रुपदं गृहीत्वा रणमूर्धनि । 

पर्यानयत भद्र व: सा स्थात्‌ परमदक्षिणा ।। ३ |। 

'शिष्यो! पंचालराज ट्रुपदको युद्धमें कैद करके मेरे पास ले आओ। तुम्हारा कल्याण 
हो। यही मेरे लिये सर्वोत्तम गुरुदक्षिणा होगी” ।। ३ ।। 

तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे रथैस्तूर्ण प्रहारिण: । 

आचार्य धनदानार्थ द्रोणेन सहिता ययु: ।। ४ ।। 

तब “बहुत अच्छा” कहकर शीघ्रतापूर्वक प्रहार करनेवाले वे सब राजकुमार (युद्धके 
लिये उद्यत हो) रथोंमें बैठकर गुरुदक्षिणा चुकानेके लिये आचार्य द्रोणके साथ ही वहाँसे 
प्रस्थित हुए || ४ ।। 

ततो5भिजग्मु: पञ्चालान्‌ निध्नन्तस्ते नरर्षभा: । 

ममृदुस्तस्य नगर द्रुपदस्य महौजस: ।। ५ ।। 

दुर्योधनश्व कर्णश्न युयुत्सुश्न महाबल: । 

दुःशासनो विकर्णश्रव जलसंध: सुलोचन: ।। ६ ।। 

एते चान्ये च बहवः कुमारा बहुविक्रमा: । 

अहं पूर्वमहं पूर्वमित्येवं क्षत्रियर्षभा: ।। ७ ।। 


तदनन्तर दुर्योधन, कर्ण, महाबली युयुत्सु, दुःशासन, विकर्ण, जलसंध तथा सुलोचन-- 
ये और दूसरे भी बहुत-से महापराक्रमी नरश्रेष्ठ क्षत्रियशिरोमणि राजकुमार “पहले मैं युद्ध 
करूँगा, पहले मैं युद्ध करूँगा” इस प्रकार कहते हुए पंचालदेशमें जा पहुँचे और वहाँके 
निवासियोंको मारते-पीटते हुए महाबली राजा द्रुपदकी राजधानीको भी रौंदने लगे || ५-- 
७ ।। 

ततो वररथारूढा: कुमारा: सादिभि: सह । 

प्रविश्य नगरं सर्वे राजमार्गमुपाययु: ।। ८ ।। 

उत्तम रथोंपर बैठे हुए वे सभी राजकुमार घुड़सवारोंके साथ नगरमें घुसकर वहाँके 
राजपथपर चलने लगे ।। ८ ।। 

तस्मिन्‌ काले तु पाउ्चाल: श्रुत्वा दृष्टयवा महद्‌ बलम्‌ । 

भ्रातृभि: सहितो राजंस्त्वरया निर्ययौ गृहात्‌ ।। ९ ।। 

जनमेजय! उस समय पंचालराज ट्रुपद कौरवोंका आक्रमण सुनकर और उनकी 
विशाल सेनाको अपनी आँखों देखकर बड़ी उतावलीके साथ भाइयोंसहित राजभवनसे 
बाहर निकले ।। ९ ।। 

ततस्तु कृतसंनाहा यज्ञसेनसहोदरा: । 

शरवर्षाणि मुज्चन्त: प्रणेदु: सर्व एव ते ।। १० ।। 

महाराज यज्ञसेन (ट्रुपद) और उनके सब भाइयोंने कवच धारण किये। फिर वे सभी 
लोग बाणोंकी बौछार करते हुए जोर-जोरसे गर्जना करने लगे || १० ।। 

ततो रथेन शुभ्रेण समासाद्य तु कौरवान्‌ | 

यज्ञसेन: शरान्‌ घोरान्‌ ववर्ष युधि दुर्जय: ।। ११ ।। 

राजा ट्रुपदको युद्धमें जीतना बहुत कठिन था। वे चमकीले रथपर सवार हो कौरवोंके 
सामने जा पहुँचे और भयानक बाणोंकी वर्षा करने लगे || ११ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


पूर्वमेव तु सम्मन्त्रय पार्थो द्रोणमथाब्रवीत्‌ | 

दर्पोद्रेकात्‌ कुमाराणामाचार्य द्विजसत्तमम्‌ ।। १२ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कौरवों तथा अन्य राजकुमारोंको अपने बल 
और पराक्रमका बड़ा घमंड था; इसलिये अर्जुनने पहले ही अच्छी तरह सलाह करके 
विप्रवर द्रोणाचार्यसे कहा-- ।। १२ ।। 

एषां पराक्रमस्यान्ते वयं कुर्याम साहसम्‌ | 

एतैरशक्य: पाज्चालो ग्रहीतुं रणमूर्थनि || १३ ।। 

“गुरुदेव! इनके पराक्रम दिखानेके पश्चात्‌ हमलोग युद्ध करेंगे। हमारा विश्वास है, ये 
लोग युद्धमें पंचालराजको बंदी नहीं बना सकते” ।। १३ ।। 


एवमुकक्‍्त्वा तु कौन्तेयो भ्रातृभि: सहितो5नघ: । 

अर्धक्रोशे तु नगरादतिष्ठद्‌ बहिरेव स: ।। १४ ।। 

यों कहकर पापरहित कुन्तीनन्दन अर्जुन अपने भाइयोंके साथ नगरसे बाहर ही आधे 
कोसकी दूरीपर ठहर गये थे ।। १४ ।। 

द्रुपद: कौरवान्‌ दृष्टवा प्राधावत समन्ततः । 

शरजालेन महता मोहयन्‌ कौरवीं चमूम्‌ ।। १५ ।। 

तमुद्यतं रथेनैकमाशुकारिणमाहवे । 

अनेकमिव संत्रासान्मेनिरे तत्र कौरवा: ।। १६ ।। 

राजा ट्रुपदने कौरवोंको देखकर उनपर सब ओरसे धावा बोल दिया और बाणोंका बड़ा 
भारी जाल-सा बिछाकर कौरव-सेनाको मूर्च्छित कर दिया। युद्धमें फुर्ती दिखानेवाले राजा 
द्रपद रथपर बैठकर यद्यपि अकेले ही बाण-वर्षा कर रहे थे, तो भी अत्यन्त भयके कारण 
कौरव उन्हें अनेक-सा मानने लगे ।। १५-१६ ।। 

ट्रुपदस्य शरा घोरा विचेरु: सर्वतो दिशम्‌ । 

ततः शड्खाश्न भेर्यश्व मृदड़ाश्न सहस्रश: ।। १७ ।। 

प्रावाद्यन्त महाराज पाञ्चालानां निवेशने । 

सिंहनादश्न संजज्ञे पाज्चालानां महात्मनाम्‌ । १८ ।। 

धनुर्ज्यातलशब्दश्न संस्पृश्य गगनं महान्‌ | 

द्रपदके भयंकर बाण सब दिशाओंमें विचरने लगे। महाराज! उनकी विजय होती देख 
पांचालोंके घरोंमें शंख, भेरी और मृदंग आदि सहस्रों बाजे एक साथ बज उठे। महान्‌ 
आत्मबलसे सम्पन्न पांचाल-सैनिकोंका सिंहनाद बड़े जोरोंसे होने लगा। साथ ही उनके 
धनुषोंकी प्रत्यंचाओंका महान्‌ टंकार आकाशमें फैलकर गूँजने लगा ।। १७-१८ ३ ।। 

दुर्योधनो विकर्णश्न सुबाहुर्दीर्घलोचन: ।। १९ ।। 

दुःशासनश्न संक़्रुद्ध: शरवर्षैरवाकिरन्‌ । 

सो35तिविद्धो महेष्वास: पार्षतो युधि दुर्जय: ।। २० ।। 

व्यधमत्‌ तान्यनीकानि तत्क्षणादेव भारत । 

दुर्योधनं विकर्ण च कर्ण चापि महाबलम्‌ ।। २१ ।। 

नानानृपसुतान्‌ वीरान्‌ सैन्यानि विविधानि च । 

अलातचक्रवत्‌ सर्व चरन्‌ बाणैरतर्पयत्‌ ।। २२ ।। 

उस समय दुर्योधन, विकर्ण, सुबाहु, दीर्घलोचन और दुःशासन बड़े क्रोधमें भरकर 
बाणोंकी वर्षा करने लगे। भारत! युद्धमें परास्त न होनेवाले महान धनुर्थर ट्रुपदने अत्यन्त 
घायल होकर तत्काल ही उन सबकी सेनाओंको अत्यन्त पीड़ित कर दिया। वे 
अलातचक्रकी भाँति सब ओर घूमकर दुर्योधन, विकर्ण, महाबली कर्ण, अनेक वीर 
राजकुमार तथा उनकी विविध सेनाओंको बाणोंसे तृप्त करने लगे || १९--२२ ।। 


(दुःशासनं च दशभिर्विकर्ण विंशकै: शरै: | 

शकुनिं विंशकैस्ती&णैर्दशभिर्मर्म भेदिभि: ।। 

कर्णदुर्योधनौ चोभौ शरै: सर्वाज्भसंधिषु | 

अष्टाविंशतिभि: सर्वे: पृथक्‌ पृथगरिन्दम: ।। 

सुबाहुं पञ्चभिर्विद्ध्वा तथान्यान्‌ विविधै: शरै: । 

विव्याध सहसा भूयो ननाद बलवत्तरम्‌ ।। 

विनद्य कोपात्‌ पाज्चाल: सर्वशस्त्रभृतां वर: | 

धनूंषि रथयन्त्रं च हयांश्रित्रध्वजानपि । 

चकर्त सर्वपाज्चाला: प्रणेदु: सिंहसड्घवत्‌ ।।) 

ततस्तु नागरा: सर्वे मुसलैर्यष्टिभिस्तदा । 

अभ्यवर्षन्त कौरव्यान्‌ वर्षमाणा घना इव ।। २३ |। 

उन्होंने दःशासनको दस, विकर्णको बीस तथा शकुनिको अत्यन्त तीखे तीस मर्मभेदी 
बाण मारकर घायल कर दिया। तत्पश्चात्‌ शत्रुदमन द्रुपदने कर्ण और दुर्योधनके सम्पूर्ण 
अंगोंकी संधियोंमें पृथक्‌ू-पृथक्‌ अट्ठाईस बाण मारे। सुबाहुको पाँच बाणोंसे घायल करके 
अन्य योद्धाओंको भी अनेक प्रकारके सायकोंद्वारा सहसा बींध डाला और तब बड़े जोरसे 
सिंहनाद किया। इस प्रकार क्रोधपूर्वक गर्जना करके सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ पंचालराज 
द्रपदने शत्रुओंके धनुष, रथ, घोड़े तथा रंग-बिरंगी ध्वजाओंको भी काट दिया। तत्पश्चात्‌ 
सारे पांचाल सैनिक सिंह-समूहके समान गर्जना करने लगे। फिर तो उस नगरके सभी 
निवासी कौरवोंपर टूट पड़े और बरसनेवाले बादलोंकी भाँति उनपर मूसल एवं डंडोंकी वर्षा 
करने लगे ।। २३ ।। 

सबालवृद्धास्ते पौरा: कौरवानभ्यायुस्तदा । 

श्र॒ुत्वा सुतुमुलं युद्ध कौरवानेव भारत ।। २४ ।। 

द्रवन्ति सम नदन्ति सम क्रोशन्त: पाण्डवान्‌ प्रति । 

(पाञज्चालशरभिन्नाड़ो भयमासाद्य वै वृष: । 

कर्णो रथादवप्लुत्य पलायनपरो5 भवत्‌ ।।) 

पाण्डवास्तु स्वनं श्रुत्वा आर्तानां लोमहर्षणम्‌ । २५ ।। 

अभिवाद्य ततो द्रोणं रथानारुरुहुस्तदा । 

युधिष्ठिरं निवार्याशु मा युध्यस्वेति पाण्डवम्‌ ।। २६ ।। 

उस समय बालकसे लेकर बूढ़ेतक सभी पुरवासी कौरवोंका सामना कर रहे थे। 
जनमेजय! गुप्तचरोंके मुखसे यह समाचार सुनकर कि वहाँ तुमुल युद्ध हो रहा है, कौरव 
वहाँ नहींके बराबर हो गये हैं, पंचालराज ट्रुपदके बाणोंसे कर्णके सम्पूर्ण अंग क्षत-विक्षत हो 
गये, वह भयभीत हो रथसे कूदकर भाग चला है तथा कौरव-सैनिक चीखते-चिल्लाते और 
कराहते हुए हम पाण्डवोंकी ओर भागते आ रहे हैं; पाण्डवलोग पीड़ित सैनिकोंका 


रोमांचकारी आर्तनाद कानमें पड़ते ही आचार्य द्रोणको प्रणाम करके रथोंपर जा बैठे और 
शीघ्र वहाँसे चल दिये। अर्जुनने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको यह कहकर रोक दिया कि “आप 
युद्ध न कीजिये” || २४--२६ ।। 

माद्रेयौ चक्ररक्षौ तु फाल्गुनश्व॒ तदाकरोत्‌ 

सेनाग्रगो भीमसेन: सदाभूद्‌ गदया सह || २७ ।। 

उस समय अर्जुनने माद्रीकुमार नकुल और सहदेवको अपने रथके पहियोंका रक्षक 
बनाया, भीमसेन सदा गदा हाथमें लेकर सेनाके आगे-आगे चलते थे ।। २७ ।। 

तदा शत्रुस्वनं श्र॒त्वा भ्रातृभि: सहितो5नघ: । 

अयाज्जवेन कौन्तेयो रथेनानादयन्‌ दिश: ॥। २८ ।। 

तब शत्रुओंका सिंहनाद सुनकर भाइयोंसहित निष्पाप अर्जुन रथकी घरघराहटसे 
सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए बड़े वेगसे आगे बढ़े || २८ ।। 

जीप नो सहज अत णिरिवानक ततः :स्वनाम्‌ | 

भीमसेनो : ॥॥ २९ |। 

प्रविवेश महासेनां मकर: सागर यथा । 

स्वयमभ्यद्रवद्‌ भीमो नागानीकं॑ गदाधर: ॥। ३० || 

पांचालोंकी सेना उत्ताल तरंगोंवाले विक्षुब्ध महासागरकी भाँति गर्जना कर रही थी। 
महाबाहु भीमसेन दण्डपाणि यमराजकी भाँति उस विशाल सेनामें घुस गये, ठीक उसी तरह 
जैसे समुद्रमें मगर प्रवेश करता है। गदाधारी भीम स्वयं हाथियोंकी सेनापर टूट 
पड़े | २९-३० |। 

स युद्धकुशलः पार्थों बाहुवीयेण चातुल: । 

अहनत्‌ कुञ्जरानीकं गदया कालरूपधृत्‌ ।। ३१ ।। 

कुन्तीकुमार भीम युद्धमें कुशल तो थे ही, बाहुबलमें भी उनकी समानता करनेवाला 
कोई नहीं था। उन्होंने कालरूप धारणकर गदाकी मारसे उस गजसेनाका संहार आरम्भ 
किया ।। ३१ ।। 

ते गजा गिरिसंकाशा: क्षरन्तो रुधिरं बहु 

भीमसेनस्य गदया भिन्नमस्तकपिण्डका: ।। ३२ ।। 

पतन्ति द्विरदा भूमौ वज़घातादिवाचला: । 

गजानश्चान्‌ रथांश्वैव पातयामास पाण्डव: ॥। ३३ ।। 

पदातींश्व रथांश्चैव न्यवधीदर्जुनाग्रज: । 

गोपाल इव दण्डेन यथा पशुगणान्‌ वने ।। ३४ ।। 

चालयन्‌ रथनागांश्व॒ संचचाल वृकोदर: । 


भीमसेनकी गदासे मस्तक फट जानेके कारण वे पर्वतोंके समान विशालकाय गजराज 
लोहूके झरने बहाते हुए वज़्के आघातसे (पंख कटे हुए) पहाड़ोंकी भाँति पृथ्वीपर गिर 
पड़ते थे। अर्जुनके बड़े भाई पाण्डुनन्दन भीमने हाथियों, घोड़ों एवं रथोंको धराशायी कर 
दिया। पैदलों तथा रथियोंका संहार कर डाला। जैसे ग्वाला वनमें डंडेसे पशुओंको हाँकता 
है, उसी प्रकार भीमसेन रथियों और हाथियोंको खदेड़ते हुए उनका पीछा करने लगे ।। ३२ 
-३४३ | 
वैशम्पायन उवाच 


भारद्वाजप्रियं कर्तुमुद्यत: फाल्गुनस्तदा ।। ३५ ।। 

पार्षत॑ शरजालेन क्षिपन्नागात्‌ स पाण्डव: । 

हयौघांश्ष रथौघांक्ष॒ गजौघांश्व॒ समन्‍तत:ः ।। ३६ ।। 

पातयन्‌ समरे राजन्‌ युगान्ताग्निरिव ज्वलन्‌ | 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! उस समय द्रोणाचार्यका प्रिय करनेके लिये उद्यत 
हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन द्रुपदपर बाणसमूहोंकी वर्षा करते हुए उनपर चढ़ आये। वे 
रणभूमिमें घोड़ों, रथों और हाथियोंके झुंडोंका सब ओरसे संहार करते हुए प्रलयकालीन 
अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे || ३५-३६ $ ।। 

ततस्ते हन्यमाना वै पाउ्चाला: सृञज्जयास्तथा ।। ३७ ।। 

शरैनननाविधैस्तूर्ण पार्थ संछाद्य सर्वश: । 

सिंहनादं मुखै: कृत्वा समयुध्यन्त पाण्डवम्‌ ।। ३८ ।। 

उनके बाणोंसे घायल हुए पांचाल और संजय वीरोंने तुरंत ही नाना प्रकारके बाणोंकी 
वर्षा करके अर्जुनको सब ओरसे ढक दिया और मुखसे सिंहनाद करते हुए उनसे लोहा लेना 
आरम्भ किया ॥| ३७-३८ ।। 

तद्‌ युद्धमभवद्‌ घोर सुमहाद्भुतदर्शनम्‌ । 

सिंहनादस्वनं श्रुत्वा नामृष्पतत्‌ पाकशासनि: ।। ३९ ।। 

वह युद्ध अत्यन्त भयानक और देखनेमें बड़ा ही अद्भुत था। शत्रुओंका सिंहनाद 
सुनकर इन्द्रकुमार अर्जुन उसे सहन न कर सके ।। ३९ |। 

ततः किरीटी सहसा पाञ्चालान्‌ समरे<द्रवत्‌ । 

छादयन्निषुजालेन महता मोहयन्निव || ४० ।। 

उस युद्धमें किरीटधारी पार्थने बाणोंका बड़ा भारी जाल-सा बिछाकर पांचालोंको 
आच्छादित और मोहित-सा करते हुए उनपर सहसा आक्रमण किया ।। ४० ।। 

शीघ्रमभ्यस्यतो बाणान्‌ संदधानस्य चानिशम्‌ | 

नान्तरं ददृशे किंचित्‌ कौन्तेयस्य यशस्विन: ।। ४१ ।। 


यशस्वी अर्जुन बड़ी फुर्तीसे बाण छोड़ते और निरन्तर नये-नये बाणोंका संधान करते 
थे। उनके धनुषपर बाण रखने और छोड़नेमें थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं दिखायी पड़ता 
था ।। ४१ ।। 

(न दिशो नान्तरिक्षं च तदा नैव च मेदिनी । 

अदृश्यत महाराज तत्र किंचन संयुगे ।। 

बाणान्धकारे बलिना कृते गाण्डीवधन्वना ।) 

महाराज! उस युद्धमें न तो दिशाओंका पता चलता था न आकाशका और न पृथ्वी 
अथवा और कुछ भी ही दिखायी देता था। बलवान वीर गाण्डीवधारी अर्जुनने अपने 
बाणोंद्वारा घोर अन्धकार फैला दिया था। 

सिंहनादश्न संजज्ञे साधुशब्देन मिश्रित: । 

ततः पञ्चालराजस्तु तथा सत्यजिता सह ।। ४२ ।। 

त्वरमाणोभिदुद्राव महेन्द्र शम्बरो यथा । 

महता शरवर्षेण पार्थ: पाउ्चालमावृणोत्‌ ।। ४३ ।। 

उस समय पाण्डव-दलमें साधुवादके साथ-साथ सिंहनाद हो रहा था। उधर पंचालराज 
द्रपदने अपने भाई सत्यजित॒को साथ लेकर तीव्र गतिसे अर्जुनपर धावा किया, ठीक उसी 
तरह जैसे शम्बरासुरने देवराज इन्द्रपर आक्रमण किया था। परंतु कुन्तीनन्दन अर्जुनने 
बाणोंकी भारी बौछार करके पंचालनरेशको ढक दिया ।। ४२-४३ ।। 

ततो हलहलाशब्द आसीत्‌ पाञ्चालके बले । 

जिघृक्षति महासिंहो गजानामिव यूथपम्‌ ।। ४४ ।। 

और जैसे महासिंह हाथियोंके यूथपतिको पकड़नेकी चेष्टा करता है, उसी प्रकार अर्जुन 
द्रपदको पकड़ना ही चाहते थे कि पांचालोंकी सेनामें हाहाकार मच गया ।। ४४ ।। 

दृष्टवा पार्थ तदा5<यान्तं सत्यजित्‌ सत्यविक्रम: । 

पाज्चालं वै परिप्रेप्सुर्धनं॑ जयमुपाद्रवत्‌ ।। ४५ ।। 

ततस्त्वर्जुनपाञ्चालौ युद्धाय समुपागतौ । 

व्यक्षोभयेतां तौ सैन्यमिन्द्रवैरोचनाविव ।। ४६ ।। 

सत्यपराक्रमी सत्यजितने देखा कि कुन्तीपुत्र धनंजय पंचालनरेशको पकड़नेके लिये 
निकट बढ़े आ रहे हैं, तो वे उनकी रक्षाके लिये अर्जुनपर चढ़ आये; फिर तो इन्द्र और 
बलिकी भाँति अर्जुन और पांचाल सत्यजितने युद्धके लिये आमने-सामने आकर सारी 
सेनाओंको क्षोभमें डाल दिया || ४५-४६ ।। 

ततः सत्यजितं पार्थो दशभिर्मर्मभेदिभि: । 

विव्याध बलवद्‌ गाढं तदद्भुतमिवा भवत्‌ ।। ४७ ।। 

तब अर्जुनने दस मर्मभेदी बाणोंद्वारा सत्यजितपर बलपूर्वक गहरा आघात करके उन्हें 
घायल कर दिया। यह अद्भुत-सी बात हुई ।। ४७ ॥। 


ततः शरशतै: पार्थ पाज्चाल: शीघ्रमार्दयत्‌ । 

पार्थस्तु शरवर्षेण छाद्यमानो महारथ: ।। ४८ ।। 

वेग॑ चक्रे महावेगो धनुज्यामवमृज्य च । 

ततः सत्यजितश्चापं छित्त्वा राजानमभ्ययात्‌ ।। ४९ ।। 

फिर पांचाल वीर सत्यजितने भी शीघ्र ही सौ बाण मारकर अर्जुनको पीड़ित कर दिया। 
उनके बाणोंकी वर्षसे आच्छादित होकर महान्‌ वेगशाली महारथी अर्जुनने धनुषकी 
प्रत्यंचाको झाड़-पोंछकर बड़े वेगसे बाण छोड़ना आरम्भ किया और सत्यजितके धनुषको 
काटकर वे राजा ट्रुपदपर चढ़ आये ।। ४८-४९ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय सत्यजिद्‌ वेगवत्तरम्‌ | 

साश्वंं ससूतं सरथं पार्थ विव्याध सत्वर: ।। ५० || 

तब सत्यजितने दूसरा अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर तुरंत ही घोड़े, सारथि एवं 
रथसहित अर्जुनको बींध डाला || ५० || 

सतं न ममृषे पार्थ: पाज्चालेनार्दितो युधि । 

ततस्तस्य विनाशार्थ सत्वरं व्यसृजच्छरान्‌ ।। ५१ ।। 

युद्धमें पांचाल वीर सत्यजितसे पीड़ित हो अर्जुन उनके पराक्रमको न सह सके और 
उनके विनाशके लिये उन्होंने शीघ्र ही बाणोंकी झड़ी लगा दी || ५१ |। 

हयान्‌ ध्वजं धनुर्मुष्टिमुभौ तौ पार्ष्णिसारथी । 

स तथा भियद्यमानेषु कार्मुकेषु पुन: पुन: ।। ५२ ।। 

हयेषु विनियुक्तेषु विमुखो5भवदाहवे । 

स सत्यजितमालोक्य तथा विमुखमाहवे ।। ५३ ।। 

वेगेन महता राजन्नभ्यवर्षत पाण्डवम्‌ | 

तदा चक्रे महद्‌ युद्धमर्जुनो जयतां वर: ।। ५४ ।। 

सत्यजितके घोड़े, ध्वजा, धनुष, मुट्ठी तथा पार्श्वरक्षक एवं सारथि दोनोंको अर्जुनने 
क्षत-विक्षत कर दिया। इस प्रकार बार-बार धनुषके छिलन्न-भिन्न होने और घोड़ोंके मारे 
जानेपर सत्यजित्‌ समर-भूमिसे भाग गये। राजन! उन्हें इस तरह युद्धसे विमुख हुआ देख 
पंचालनरेश ट्रुपदने पाण्डुनन्दन अर्जुनपर बड़े वेगसे बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ की। तब विजयी 
वीरोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने उनसे बड़ा भारी युद्ध प्रारम्भ किया || ५२--५४ ।। 

तस्य पार्थो धनुश्कछित्त्वा ध्वजं चोव्यामपातयत्‌ | 

पजञ्चभिस्तस्य विव्याथ हयान्‌ सूतं च सायकै: ।। ५५ ।। 

उन्होंने पंचालराजका धनुष काटकर उनकी ध्वजाको भी धरतीपर काट गिराया। फिर 
पाँच बाणोंसे उनके घोड़ों और सारथिको घायल कर दिया ।। ५५ |। 

तत उत्सृज्य तच्चापमाददानं शरावरम्‌ । 

खड्गमुद्धृत्य कौन्तेय: सिंहनादमथाकरोत्‌ ।। ५६ ।। 


तत्पश्चात्‌ उस कटे हुए धनुषको त्यागकर जब वे दूसरा धनुष और तूणीर लेने लगे, उस 
समय अर्जुनने म्यानसे तलवार निकालकर सिंहके समान गर्जना की ।। ५६ |। 

पाञ्चालस्य रथस्येषामाप्लुत्य सहसापतत्‌ । 

पाञज्चालरथमास्थाय अवित्रस्तो धनंजय: ।। ५७ ।। 

विक्षोभ्याम्भोनिधिं पार्थस्तं नागमिव सो5ग्रहीत्‌ । 

ततस्तु सर्वपाञज्चाला विद्रवन्ति दिशो दश ।। ५८ ।। 

और सहसा पंचालनरेशके रथके डंडेपर कूद पड़े। इस प्रकार ट्रुपदके रथपर चढ़कर 
निर्भीक अर्जुनने जैसे गरुड़ समुद्रको क्षुब्ध करके सर्पको पकड़ लेता है, उसी प्रकार उन्हें 
अपने काबूमें कर लिया। तब समस्त पांचाल सैनिक (भयभीत हो) दसों दिशाओंमें भागने 
लगे ।। ५७-५८ ।। 

दर्शयन्‌ सर्वसैन्यानां स बाद्दोर्बलमात्मन: । 

सिंहनादस्वनं कृत्वा निर्जनाम धनंजय: ।। ५९ ।। 

समस्त सैनिकोंको अपना बाहुबल दिखाते हुए अर्जुन सिंहनाद करके वहाँसे 
लौटे ।। ५९ ।। 

आयान्तमर्जुनं दृष्टवा कुमारा: सहितास्तदा । 

ममृदुस्तस्य नगर टद्रुपदस्य महात्मन: ।। ६० ।। 

अर्जुनको आते देख सब राजकुमार एकत्र हो महात्मा ट्रपदके नगरका विध्वंस करने 
लगे ।। ६० ।। 

अर्जुन उवाच 

सम्बन्धी कुरुवीराणां द्रुपदो राजसत्तम: । 

मा वधीस्तद्धलं भीम गुरुदानं प्रदीयताम्‌ ।। ६१ ।। 

तब अर्जुनने कहा--भैया भीमसेन! राजाओंमें श्रेष्ठ द्रपद कौरववीरोंके सम्बन्धी हैं, 
अतः इनकी सेनाका संहार न करो; केवल गुरुदक्षिणाके रूपमें द्रोणके प्रति महाराज 
द्रपदको ही दे दो ।। ६१ ।। 


वैशमग्पायन उवाच 


भीमसेनस्तदा राजन्नर्जुनेन निवारित: । 

अतृप्तो युद्धधर्मेषु न्‍्यवर्तत महाबल: ।। ६२ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस समय अर्जुनके मना करनेपर महाबली 
भीमसेन युद्धधर्मसे तृप्त न होनेपर भी उससे निवृत्त हो गये || ६२ ।। 

ते यज्ञसेन द्रुपदं गृहीत्वा रणमूर्थनि । 

उपाजहु: सहामात्यं द्रोणाय भरतर्षभ ।। ६३ ।। 


भरतश्रेष्ठ जनमेजय! उन पाण्डवने यज्ञसेन द्रुपदको मन्त्रियोंसहित संग्रामभूमिमें बंदी 
बनाकर द्रोणाचार्यको उपहारके रूपमें दे दिया || ६३ ।। 

भग्नदर्प हृतधनं तं तथा वशमागतम्‌ | 

स वैरं मनसा ध्यात्वा द्रोणो द्रुपदमब्रवीत्‌ ।। ६४ ।। 

उनका अभिमान चूर्ण हो गया था, धन छीन लिया गया था और वे पूर्णरूपसे वशमें आ 
चुके थे; उस समय द्रोणाचार्यने मन-ही-मन पिछले वैरका स्मरण करके राजा ट्रुपदसे कहा 
-- || ६४ || 

विमृद्य तरसा राष्ट्र पुरं ते मृदितं मया । 

प्राप्प जीवं रिपुवशं सखिपूर्व किमिष्यते ।। ६५ ।। 

“राजन! मैंने बलपूर्वक तुम्हारे राष्ट्रको रौंद डाला। तुम्हारी राजधानी मिट्टीमें मिला दी। 
अब तुम शत्रुके वशमें पड़े हुए जीवनको लेकर यहाँ आये हो। बोलो, अब पुरानी मित्रता 
चाहते हो क्या?” || ६५ ।। 

एवमुक्‍्त्वा प्रहस्यैनं किंचित्‌ स पुनरब्रवीत्‌ । 

मा भे: प्राणभयाद्‌ वीर क्षमिणो ब्राह्मणा वयम्‌ ।। ६६ ।। 

यों कहकर द्रोणाचार्य कुछ हँसे। उसके बाद फिर उनसे इस प्रकार बोले--“वीर! 
प्राणोंपर संकट आया जानकर भयभीत न होओ। हम क्षमाशील ब्राह्मण हैं ।। ६६ ।। 

आश्रमे क्रीडितं यत्‌ तु त्वया बाल्ये मया सह । 

तेन संवर्द्धित: स्नेह: प्रीतिश्न क्षत्रियर्षभ ।। ६७ ।। 

'क्षत्रियशिरोमणे! तुम बचपनमें मेरे साथ आश्रममें जो खेले-कूदे हो, उससे तुम्हारे 
ऊपर मेरा स्नेह एवं प्रेम बहुत बढ़ गया है || ६७ ।। 

प्रार्थयेयं त्वया सख्यं पुनरेव जनाधिप । 

वरं ददामि ते राजन्‌ राज्यस्यार्धमवाप्रुहि ।। ६८ ।। 

“नरेश्वर! मैं पुनः तुमसे मैत्रीके लिये प्रार्थना करता हूँ। राजन! मैं तुम्हें वर देता हूँ, तुम 
इस राज्यका आधा भाग मुझसे ले लो ।। ६८ ।। 

अराजा किल नो राज्ञ: सखा भवितुमहसि । 

अतः: प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन मया तव ।। ६९ ।। 

'यज्ञसेन! तुमने कहा था--जो राजा नहीं है, वह राजाका मित्र नहीं हो सकता; 
इसीलिये मैंने तुम्हारा राज्य लेनेका प्रयत्न किया है ।। ६९ ।। 

राजासि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तरे । 

सखायं मां विजानीहि पाउ्चाल यदि मन्यसे || ७० |। 

“गंगाके दक्षिण प्रदेशके तुम राजा हो और उत्तरके भूभागका राजा मैं हूँ। पांचाल! अब 
यदि उचित समझो तो मुझे अपना मित्र मानो” || ७० ।। 


दुपद उवाच 


अनाश्षर्यत्रिदं ब्रह्मन्‌ विक्रान्तेषु महात्मसु । 
प्रीये त्वयाहं त्वत्तश्न॒ प्रीतिमिच्छामि शाश्व॒तीम्‌ ।। ७१ ।। 
द्रपदने कहा--ब्रह्मन! आप-जैसे पराक्रमी महात्माओंमें ऐसी उदारताका होना 
आश्चर्यकी बात नहीं है। मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूँ और आपके साथ सदा बनी रहनेवाली 
मैत्री एवं प्रेम चाहता हूँ || ७१ ।। 
वैशग्पायन उवाच 


एवमुक्त: स तं॑ द्रोणो मोक्षयामास भारत । 

सत्कृत्य चैनं प्रीतात्मा राज्यार्ध प्रत्यपादयत्‌ ।। ७२ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--भारत! ट्रुपदके यों कहनेपर द्रोणाचार्यने उन्हें छोड़ दिया 
और प्रसन्नचित्त हो उनका आदर-सत्कार करके उन्हें आधा राज्य दे दिया || ७२ ।। 

माकन्दीमथ गज्जायास्तीरे जनपदायुताम्‌ । 

सो<ध्यावसद्‌ दीनमना: काम्पिल्यं च पुरोत्तमम्‌ ।। ७३ ।। 

दक्षिणांश्नापि पञज्चालान्‌ यावच्चर्मण्वती नदी । 

द्रोणेन चैवं ट्रपद: परिभूयाथ पालित: || ७४ ।। 

तदनन्तर राजा द्र॒ुपद दीनतापूर्ण हृदयसे गंगा-तटवर्ती अनेक जनपदोंसे युक्त 
माकन्दीपुरीमें तथा नगरोंमें श्रेष्ठ काम्पिल्य नगरमें निवास एवं चर्मण्वती नदीके 
दक्षिणतटवर्ती पंचालदेशका शासन करने लगे। इस प्रकार द्रोणाचार्यने द्रपदको परास्त 
करके पुनः उनकी रक्षा की || ७३-७४ ।। 

क्षात्रेण च बलेनास्य नापश्यत्‌ स पराजयम्‌ | 

हीनं विदित्वा चात्मानं ब्राह्ेण स बलेन तु |। ७५ ।। 

पुत्रजन्म परीप्सन्‌ वै पृथिवीमन्वसंचरत्‌ । 

अहिच्छत्रं च विषयं द्रोणग: समभिपद्यत ।। ७६ ।। 

ट्रपदको अपने क्षात्रबलके द्वारा द्रोणाचार्यकी पराजय होती नहीं दिखायी दी। वे 
अपनेको ब्राह्मण-बलसे हीन जानकर (द्रोणाचार्यको पराजित करनेके लिये) शक्तिशाली पुत्र 
प्राप्त करनेकी इच्छासे पृथ्वीपर विचरने लगे। इधर द्रोणाचार्यने (उत्तर-पांचालवर्ती) 
अहिच्छत्र नामक राज्यको अपने अधिकारमें कर लिया || ७५-७६ ।। 

एवं राजन्नहिच्छत्रा पुरी जनपदायुता । 

युधि निर्जित्य पार्थेन द्रोणाय प्रतिपादिता ।। ७७ ।। 

राजन! इस प्रकार अनेक जनपदोंसे सम्पन्न अहिच्छत्रा नामवाली नगरीको युद्धमें 
जीतकर अर्जुनने द्रोणाचार्यको गुरु-दक्षिणामें दे दिया || ७७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि द्रुपदशासने 
सप्तत्रिंशदाधिकशततमो<ध्याय: ।। १३७ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें दुपदपर द्रोणके शासनका वर्णन 
करनेवाला एक सौ सैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३७ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७६ श्लोक मिलाकर कुल ८४३ “लोक हैं) 


न२्््च्य्निनास् श््य नी्-नत्तज्स 


अष्टात्रिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


युधिष्ठिरका युवराजपदपर अभिषेक, पाण्डवोंके शौर्य, 
कीर्ति और बलके विस्तारसे धृतराष्ट्रको चिन्ता 


वैशम्पायन उवाच 


ततः संवत्सरस्यान्ते यौवराज्याय पार्थिव । 

स्थापितो धृतराष्ट्रेण पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिर: || १ ।। 

धृतिस्थैर्यसहिष्णुत्वादानृशंस्यात्‌ तथार्जवात्‌ 

भृत्यानामनुकम्पार्थ तथैव स्थिरसौहृदात्‌ ।। २ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर एक वर्ष बीतनेपर धृतराष्ट्रने पाण्डुपुत्र 
युधिष्ठिरको धृति, स्थिरता, सहिष्णुता, दयालुता, सरलता तथा अविचल सौहार्द आदि 
सदगुणोंके कारण पालन करनेयोग्य प्रजापर अनुग्रह करनेके लिये युवराजपदपर अभिषिक्त 
कर दिया ।। १-२ || 

ततो<दीर्घेण कालेन कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: । 

पितुरन्तर्दधे कीर्ति शीलवृत्तसमाधिभि: ।। ३ ।। 

इसके बाद थोड़े ही दिनोंमें कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने अपने शील (उत्तम स्वभाव), वृत्त 
(सदाचार एवं सदव्यवहार) तथा समाधि (मनोयोगपूर्वक प्रजापालनकी प्रवृत्ति)-के द्वारा 
अपने पिता महाराज पाण्डुकी कीर्तिको भी ढक दिया ।। ३ ।। 

असियुद्धे गदायुद्धे रथयुद्धे च पाण्डव: । 

संकर्षणादशिक्षद्‌ वै शश्वच्छिक्षां वृकोदर: ।। ४ ।। 

पाण्डुनन्दन भीमसेन बलरामजीसे नित्यप्रति खड्गयुद्ध, गदायुद्ध तथा रथयुद्धकी 
शिक्षा लेने लगे ।। ४ ।। 

समाप्तशिक्षो भीमस्तु द्युमत्सेनसमो बले । 

पराक्रमेण सम्पन्नो भ्रातृणामचरद्‌ वशे ।। ५ ।। 

शिक्षा समाप्त होनेपर भीमसेन बलमें राजा द्युमत्सेनके समान हो गये और पराक्रमसे 
सम्पन्न हो अपने भाइयोंके अनुकूल रहने लगे ।। ५ ।। 

प्रगाढदृढमुष्टित्वे लाघवे वेधने तथा । 

क्षुनाराचभल्लानां विपाठानां च तत्त्ववित्‌ ।। ६ ।। 

ऋजुवक्रविशालानां प्रयोक्ता फाल्गुनो5भवत्‌ | 

लाघवे सौष्ठवे चैव नान्य: कश्षन विद्यते ।। ७ ।। 

बीभत्सुसदृशो लोके इति द्रोणो व्यवस्थित: । 


ततोअब्रवीद्‌ गुडाकेशं द्रोण: कौरवसंसदि ।। ८ ।। 

अर्जुन अत्यन्त दृढ़तापूर्वक मुद्ठीसे धनुषको पकड़नेमें, हाथोंकी फुर्तीमें और लक्ष्यको 
बींधनेमें बड़े चतुर निकले। वे क्षुरु, नाराचः, भललः और विपाठ४ नामक ऋजु, वक्र और 
विशाल” अस्त्रोंके संचालनका गूढ़ तत्त्व अच्छी तरह जानते और उनका सफलतापूर्वक 
प्रयोग कर सकते थे। इसलिये द्रोणाचार्यको यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि फुर्ती और 
सफाईमें अर्जुनके समान दूसरा कोई योद्धा इस जगतमें नहीं है। एक दिन द्रोणने कौरवोंकी 
भरी सभामें निद्राको जीतनेवाले अर्जुनसे कहा--- ।। ६--८ ।। 

अगस्त्यस्य थनुर्वेदे शिष्यो मम गुरु: पुरा । 

अग्निवेश इति ख्यातस्तस्य शिष्यो5स्मि भारत ।। ९ ।। 

तीर्थात्‌ तीर्थ गमयितुमहमेतत्‌ समुद्यत: । 

तपसा यन्मया प्राप्तममोघमशनिप्रभम्‌ ।। १० ।। 

अस्त्र ब्रह्मशिरो नाम यद्‌ दहेत्‌ पृथिवीमपि । 

ददता गुरुणा चोक्तं न मनुष्येष्विदं त्वया || ११ ।। 

भारद्वाज विमोक्तव्यमल्पवीर्येष्वपि प्रभो । 

त्वया प्राप्तमिदं वीर दिव्यं नान्‍्यो5हति त्विदम्‌ ।। १२ ।। 

समयस्तु त्वया रक्ष्यो मुनिसृष्टो विशाम्पते । 

आचार्यदक्षिणां देहि ज्ञातिग्रामस्य पश्यत: ।। १३ ।। 

“भारत! मेरे गुरु अग्निवेश नामसे विख्यात हैं। उन्होंने पूर्वकालमें महर्षि अगस्त्यसे 
धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त की थी। मैं उन्हीं महात्मा अग्निवेशका शिष्य हूँ। एक पात्र (गुरु)-से 
दूसरे (सुयोग्य शिष्य)-को इसकी प्राप्ति करानेके उद्देश्यसे सर्वथा उद्यत होकर मैंने तुम्हें यह 
ब्रह्मशिर नामक अस्त्र प्रदान किया, जो मुझे बड़ी तपस्यासे मिला था। वह अमोघ अस्त्र 
वज्रके समान प्रकाशमान है। उसमें समूची पृथ्वीको भी भस्म कर डालनेकी शक्ति है। मुझे 
वह अस्त्र देते समय गुरु अग्निवेशजीने कहा था, “शक्तिशाली भारद्वाज! तुम यह अस्त्र 
मनुष्योंपर न चलाना। मनुष्येतर प्राणियोंमें भी जो अल्पवीर्य हों, उनपर भी इस अस्त्रको न 
छोड़ना।” वीर अर्जुन! इस दिव्य अस्त्रको तुमने मुझसे पा लिया है। दूसरा कोई इसे नहीं 
प्राप्त कर सकता। राजकुमार! इस अस्त्रके सम्बन्धमें मुनिके बताये हुए इस नियमका तुम्हें 
भी पालन करना चाहिये। अब तुम अपने भाई-बन्धुओंके सामने ही मुझे एक गुरु-दक्षिणा 
दो' ।। ९--१३ ।। 

ददानीति प्रतिज्ञाते फाल्गुनेनाब्रवीद्‌ गुरु: । 

युद्धेडहं प्रतियोद्धव्यो युध्यमानस्त्वयानघ ।। १४ ।। 

तब अर्जुनने प्रतिज्ञा की--'अवश्य दूँगा।” उनके यों कहनेपर गुरु द्रोण बोले--“निष्पाप 
अर्जुन! यदि युद्धभूमिमें मैं भी तुम्हारे विरुद्ध लड़नेको आऊँ तो तुम (अवश्य) मेरा सामना 


करना” ।। १४ ।। 

तथेति च प्रतिज्ञाय द्रोणाय कुरुपुड्गव: । 

उपसंगृहा चरणौ स प्रायादुत्तरां दिशम्‌ ।। १५ ।। 

यह सुनकर कुरुश्रेष्ठ अर्जुनने 'बहुत अच्छा” कहते हुए उनकी इस आज्ञाका पालन 
करनेकी प्रतिज्ञा की और गुरुके दोनों चरण पकड़कर उन्होंने सर्वोत्तम उपदेश प्राप्त कर 
लिया ।। १५ || 

स्वभावादगमच्छब्दो महीं सागरमेखलाम्‌ | 

अर्जुनस्य समो लोके नास्ति कश्रिद्‌ धनुर्धर: ।। १६ ।। 

इस प्रकार समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर सब ओर अपने-आप ही यह बात फैल गयी कि 
संसारमें अर्जुनके समान दूसरा कोई धनुर्धर नहीं है ।। १६ ।। 

गदायुद्धे$सियुद्धे च रथयुद्धे च पाण्डव: । 

पारगश्न धनुर्युद्धे बभूवाथ धनंजय: ।। १७ ।। 

पाण्डुनन्दन धनंजय गदा, खड्ग, रथ तथा धनुषद्वारा युद्ध करनेकी कलामें पारंगत 
हुए || १७ ।। 

नीतिमान्‌ सकलां नीति विबुधाधिपतेस्तदा । 

अवाप्य सहदेवोडपि भ्रातृणां ववृते वशे ।। १८ ।। 

द्रोणेनेव विनीतश्च भ्रातृणां नकुल: प्रिय: । 

चित्रयोधी समाख्यातो बभूवातिरथोदित: ।। १९ |। 

सहदेव भी उस समय द्रोणके रूपमें अवतीर्ण देवताओंके आचार्य बृहस्पतिसे सम्पूर्ण 
नीतिशास्त्रकी शिक्षा पाकर नीतिमान्‌ हो अपने भाइयोंके अधीन (अनुकूल) होकर रहते थे। 
नकुलने भी द्रोणाचार्यसे ही अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा पायी थी। वे अपने भाइयोंको बहुत ही 
प्रिय थे और विचित्र प्रकारसे युद्ध करनेमें उनकी बड़ी ख्याति थी। वे अतिरथी वीर कहे 
जाते थे ।। १८-१९ |। 

त्रिवर्षकृतयज्ञस्तु गन्धर्वाणामुपप्लवे । 

अर्जुनप्रमुखै: पार्थ: सौवीर: समरे हत: ।। २० ।। 

न शशाक वशे कर्तु यं पाण्डुरपि वीर्यवान्‌ 

सो<र्जुनेन वशं॑ नीतो राजा5डसीद्‌ यवनाधिप: ।। २१ ।। 

सौवीर देशका राजा, जो गन्धर्वोंके उपद्रव करनेपर भी लगातार तीन वर्षोतक बिना 
किसी विघ्न-बाधाके यज्ञोंका अनुष्ठान करता रहा, युद्धमें अर्जुन आदि पाण्डवोंके हाथों 
मारा गया। पराक्रमी राजा पाण्डु भी जिसे वशमें न ला सके थे, उस यवनदेश (यूनान)-के 
राजाको भी जीतकर अर्जुनने अपने अधीन कर लिया ।। २०-२१ ।। 

अतीव बलसम्पन्न: सदा मानी कुरून्‌ प्रति । 

विपुलो नाम सौवीर: शस्तः पार्थेन धीमता ।। २२ ।। 


दत्तामित्र इति ख्यातं संग्रामे कृतनिश्चयम्‌ । 

सुमित्रं नाम सौवीरमर्जुनोडदमयच्छरै: || २३ ।। 

जो अत्यन्त बली तथा कौरवोंके प्रति सदा अभिमान एवं उद्दण्डतापूर्ण बर्ताव 
करनेवाला था, वह सौवीरनरेश विपुल भी बुद्धिमान्‌ अर्जुनके हाथसे संग्रामभूमिमें मारा 
गया। जो सदा युद्धके लिये दृढ़ संकल्प किये रहता था, जिसे लोग दत्तामित्रके नामसे 
जानते थे, उस सौवीरनिवासी सुमित्रका भी अर्जुनने अपने बाणोंसे दमन कर 
दिया ।। २२-२३ ।। 

भीमसेनसहायश्च रथानामयुतं च सः । 

अर्जुन: समरे प्राच्यान्‌ सर्वानेकरथो5जयत्‌ ।॥। २४ ।। 

इसके सिवा अर्जुनने केवल भीमसेनकी सहायतासे एकमात्र रथपर आरूढ़ हो युद्धमें 
पूर्व दिशाके सम्पूर्ण योद्धाओं तथा दस हजार रथियोंको जीत लिया || २४ ।। 

तथैवैकरथो गत्वा दक्षिणामजयद्‌ दिशम्‌ । 

धनौघं प्रापयामास कुरुराष्ट्र धनंजय: ।। २५ ।। 

इसी प्रकार एकमात्र रथसे यात्रा करके धनंजयने दक्षिण दिशापर भी विजय पायी और 
अपने “धनंजय” नामको सार्थक करते हुए कुरुदेशकी राजधनीमें धनकी राशि 
पहुँचायी || २५ ।। 

एवं सर्वे महात्मान: पाण्डवा मनुजोत्तमा: । 

परराष्ट्राणि निर्जित्य स्वराष्ट्र ववृधु: पुरा || २६ ।। 

जनमेजय! इस तरह नरश्रेष्ठ महामना पाण्डवोंने प्राचीन कालमें दूसरे राष्ट्रोंकोी जीतकर 
अपने राष्ट्रकी अभिवृद्धि की || २६ ।। 

ततो बलमतिख्यातं विज्ञाय दृढ्धन्विनाम्‌ । 

दूषित: सहसा भावो धृतराष्ट्रस्य पाण्डुषु । 

स चिन्तापरमो राजा न निद्रामलभन्निशि ।। २७ ।। 

तब दृढ़तापूर्वक धनुष धारण करनेवाले पाण्डवोंके अत्यन्त विख्यात बल-पराक्रमकी 
बात जानकर उनके प्रति राजा धृतराष्ट्रका भाव सहसा दूषित हो गया। अत्यन्त चिन्तामें 
निमग्न हो जानेके कारण उन्हें रातमें नींद नहीं आती थी ।। २७ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि 
धृतराष्ट्रचिन्तायामष्टात्रिंशयदधिकशततमो< ध्याय: ।। १३८ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें धृतराष्रकी चिन्ताविषयक एक 
सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३८ ॥। 


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. क्षुर उस बाणको कहते हैं, जिसके बगलमें तेज धार होती है, जैसे नाईका छूरा। 

. नाराच सीधे बाणको कहते हैं, जिसका अग्रभाग तीखा होता है। 

. भलल उस बाणको कहते हैं, जिसकी नोकका पिछला भाग चौड़ा और नोकदार होता है। 
. विपाठ नामक बाणकी आकृति खनतीकी भाँति होती है। यह दूसरे बाणोंसे बड़ा होता है। 
. उपर्युक्त बाणोंमें क्षुर और नाराच सीधा है, भल्ल टेढ़ा है और विपाठ विशाल है। 


एकोनचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 
कणिकका धृतराष्ट्रको कूटनीतिका उपदेश 


वैशम्पायन उवाच 


श्रुत्वा पाण्डुसुतान्‌ वीरान्‌ बलोद्रिक्तानू महौजस: । 

धृतराष्ट्रो महीपालश्चिन्तामगमदातुर: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पाण्डुके वीर पुत्रोंको महान्‌ तेजस्वी और बलमें 
बढ़े-चढ़े सुनकर महाराज धूृतराष्ट्र व्याकुल हो बड़ी चिन्तामें पड़ गये ।। १ ।। 

तत आहूय मन्त्रज्ञ राजशाल्त्रार्थवित्तमम्‌ 

कणिकं मन्त्रिणां श्रेष्ठ धृतराष्ट्रो डब्रवीदू वच: ।॥ २ ।। 

तब उन्होंने राजनीति और अर्थ-शास्त्रके पण्डित तथा उत्तम मन्त्रके ज्ञाता मन्त्रिप्रवर 
कणिकको बुलाकर इस प्रकार कहा ।। २ ।। 

ध्ृतराष्ट्र उवाच 

उत्सिक्ता: पाण्डवा नित्य॑ तेभ्योडसूये द्विजोत्तम । 

तत्र मे निश्चिततमं संधिविग्रहकारणम्‌ । 

कणिक त्वं ममाचक्ष्व करिष्ये वचनं तव ।। ३ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--द्विजश्रेष्ठ) पाण्डवोंकी दिनोंदिन उन्नति और सर्वत्र ख्याति हो रही है। 
इस कारण मैं उनसे डाह रखने लगा हूँ। कणिक! तुम भलीभाँति निश्चय करके बतलाओ, 
मुझे उनके साथ संधि करनी चाहिये या विग्रह? मैं तुम्हारी बात मानूँगा ।। ३ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


स प्रसन्नमनास्तेन परिपृष्टो द्विजोत्तम: । 

उवाच वचन तीक्ष्णं राजशास्त्रार्थदर्शनम्‌ ।। ४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! राजा धृतराष्ट्रके इस प्रकार पूछनेपर विप्रवर कणिक 
मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए तथा राजनीतिके सिद्धान्तका परिचय देनेवाली तीखी बात 
कहने लगे-- ।। ४ ।। 

शृणु राजन्निदं तत्र प्रोच्यमानं मयानघ । 

न मे5 भ्यसूया कर्तव्या श्र॒ुत्वैतत्‌ कुरुसत्तम ।। ५ ।। 

“निष्पाप नरेश! इस विषयमें मेरी कही हुई ये बातें सुनिये। कुरुवंशशिरोमणे! इसे 
सुनकर आप मेरे प्रति दोष-दृष्टि न कीजियेगा ।। ५ ।। 

नित्यमुद्यतदण्ड: स्यान्नित्यं विवृतपौरुष: । 

अच्छिद्रश्छिद्रदर्शी स्थात्‌ परेषां विवरानुग: ।। ६ ।। 


'राजाको सर्वदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहना चाहिये और सदा ही पुरुषार्थ प्रकट 
करना चाहिये। राजा अपना छिद्र--अपनी दुर्बलता प्रकट न होने दे; परंतु दूसरोंके छिद्र या 
दुर्बलतापर सदा ही दृष्टि रखे और यदि शत्रुओंकी निर्बलताका पता चल जाय तो उनपर 
आक्रमण कर दे ।। ६ || 

नित्यमुद्यतदण्डाद्धि भृशमुद्धिजते जन: । 

तस्मात्‌ सर्वाणि कार्याणि दण्डेनैव विधारयेत्‌ ।। ७ ।। 

“जो सदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहता है, उससे प्रजाजन बहुत डरते हैं; इसलिये सब 
कार्य दण्डके द्वारा ही सिद्ध करे || ७ ।। 

नास्यच्छिद्रं पर: पश्येच्छिटद्रेण परमन्वियात्‌ । 

गूहेत्‌ कूर्म इवाड्रानि रक्षेद्‌ विवरमात्मन: ।। ८ ।। 

नासम्यक्कृतकारी स्यादुपक्रम्प कदाचन । 

कण्टको हापि दुश्छिन्न आसत्रावं जनयेच्चिरम्‌ ।। ९ ।। 

“राजाको इतनी सावधानी रखनी चाहिये, जिससे शत्रु उसकी कमजोरी न देख सके 
और यदि शत्रुकी कमजोरी प्रकट हो जाय तो उसपर अवश्य चढ़ाई करे। जैसे कछुआ अपने 
अंगोंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा अपने सब अंगों (राजा, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, 
बल और सुहृद)-की रक्षा करे और अपनी कमजोरीको छिपाये रखे। यदि कोई कार्य शुरू 
कर दे तो उसे पूरा किये बिना कभी न छोड़े; क्योंकि शरीरमें गड़ा हुआ काँटा यदि आधा 
टूटकर भीतर रह जाय तो वह बहुत दिनोंतक मवाद देता रहता है ।। ८-९ ।। 

वधमेव प्रशंसन्ति शत्रूणामपकारिणाम्‌ । 

सुविदीर्ण सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम्‌ ।। १० ।। 

आपपसद्यापदि काले च कुर्वीत न विचारयेत्‌ । 

नावज्ञेयो रिपुस्तात दुर्बलोडपि कथंचन ।। ११ ।। 

“अपना अनिष्ट करनेवाले शत्रुओंका वध कर दिया जाय, इसीकी नीतिज्ञ पुरुष प्रशंसा 
करते हैं। अत्यन्त पराक्रमी शत्रुको भी आपत्तिमें पड़ा देख उसे सुगमतापूर्वक नष्ट कर दे। 
इसी प्रकार जो अच्छी तरह युद्ध करनेवाला शत्रु है, उसे भी आपत्तिकालमें ही अनायास ही 
मार भगाये। आपत्तिके समय शत्रुका संहार अवश्य ही करे। उस समय उसके सम्बन्ध या 
सौहार्द आदिका विचार कदापि न करे। तात! शत्रु दुर्बल हो, तो भी किसी प्रकार उसकी 
उपेक्षा न करे || १०-११ ।। 

अल्पोडप्यनिनिर्वनं कृत्स्नं दहत्याश्रयसंश्रयात्‌ । 

अन्ध: स्यादन्धवेलायां बाधिययमपि चाश्रयेत्‌ ।। १२ ।। 

“क्योंकि जैसे थोड़ी-तसी भी आग ईंधनका सहारा मिल जानेपर समूचे वनको जला देती 
है, उसी प्रकार छोटा शत्रु भी दुर्ग आदि प्रबल आश्रयका सहारा लेकर विनाशकारी बन 
जाता है। अंधा बननेका अवसर आनेपर अंधा बन जाय--अर्थात्‌ अपनी असमर्थताके 


समय शत्रुके दोषोंको न देखे। उस समय सब ओरसे धिक्‍्कार और निन्दा मिलनेपर भी उसे 
अनसुनी कर दे अर्थात्‌ उसकी ओरसे कान बंद करके बहरा बन जाय ।। १२ ।। 

कुर्यात्‌ तृणमयं चापं शयीत मृगशायिकाम्‌ । 

सान्त्वादिभिरुपायैस्तु हन्याच्छत्रुं वशे स्थितम्‌ ।। १३ ।। 

“ऐसे समयमें अपने धनुषको तिनकेके समान बना दे अर्थात्‌ शत्रुकी दृष्टिमें सर्वथा दीन- 
हीन एवं असमर्थ बन जाय; परंतु व्याधकी भाँति सोये--अर्थात्‌ जैसे व्याध झूठे ही नींदका 
बहाना करके सो जाता है और जब मृग विश्वस्त होकर आसपास चरने लगते हैं, तब उठकर 
उन्हें बाणोंसे घायल कर देता है, उसी प्रकार शत्रुको मारनेका अवसर देखते हुए ही अपने 
स्वरूप और मनोभावको छिपाकर असमर्थ पुरुषोंका-सा व्यवहार करे। इस प्रकार 
कपटपूर्ण बर्तावसे वशमें आये हुए शत्रुको साम आदि उपायोंसे विश्वास उत्पन्न करके मार 
डाले” ।। १३ ।। 

दया न तस्मिन्‌ कर्तव्या शरणागत इत्युत । 

निरुद्धिग्नो हि भवति नहताज्जायते भयम्‌ ।। १४ ।। 

“यह मेरी शरणमें आया है, यह सोचकर उसके प्रति दया नहीं दिखानी चाहिये। शत्रुको 
मार देनेसे ही राजा निर्भय हो सकता है। यदि शत्रु मारा नहीं गया तो उससे सदा ही भय 
बना रहता है || १४ ।। 

हन्यादमित्रं दानेन तथा पूर्वापकारिणम्‌ । 

हन्यात्‌ त्रीन्‌ पज्च सप्तेति परपक्षस्यथ सर्वश: ।। १५ ।। 

“जो सहज शत्रु है, उसे मुँहमाँगी वस्तु देकर--दानके द्वारा विश्वास उत्पन्न करके मार 
डाले। इसी प्रकार जो पहलेका अपकारी शत्रु हो और पीछे सेवक बन गया हो, उसे भी 
जीवित न छोड़े। शत्रुपक्षके त्रिवर्ग;, पंचवर्गग और सप्तवर्गकाः सर्वथा नाश कर 
डाले ।। १५ || 

मूलमेवादितश्कछिन्द्यात्‌ परपक्षस्य नित्यश: । 

ततः सहायांस्तत्पक्षान्‌ सर्वाश्ष॒ तदनन्तरम्‌ ।। १६ ।। 

“पहले तो सदा शत्रुपक्षके मूलका ही उच्छेद कर डाले। तत्पश्चात्‌ उसके सहायकों और 
शत्रुपक्षसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी लोगोंका संहार कर दे ।। १६ ।। 

छिन्नमूले हाधिष्ठाने सर्वे तज्जीविनो हता: । 

कथं नु शाखास्तिष्ठेरंश्छिन्नमूले वनस्पतौ ।। १७ ।। 

“यदि मूल आधार नष्ट हो जाय तो उसके आश्रयसे जीवन धारण करनेवाले सभी शत्रु 
स्वतः नष्ट हो जाते हैं। यदि वृक्षकी जड़ काट दी जाय तो उसकी शाखाएँ कैसे रह सकती 
हैं? | १७ |। 

एकाग्र: स्यादविवृतो नित्यं विवरदर्शक: । 

राजन्‌ नित्यं सपत्नेषु नित्योद्धिग्न: समाचरेत्‌ ।। १८ ।। 


“राजा सदा शत्रुकी गतिविधिको जाननेके लिये एकाग्र रहे। अपने राज्यके सभी 
अंगोंको गुप्त रखे। राजन! सदा अपने शत्रुओंकी कमजोरीपर दृष्टि रखे और उनसे सदा 
सतर्क (सावधान) रहे || १८ ।। 

अग्न्याधानेन यज्ञेन काषायेण जटाजिनै: । 

लोकान्‌ विश्वासयित्वैव ततो लुम्पेद्‌ यथा वृक: ।। १९ ।। 

“अग्निहोत्र और यज्ञ करके, गेरुए वस्त्र, जटा और मृगचर्म धारण करके पहले लोगोंमें 
विश्वास उत्पन्न करे; फिर अवसर देखकर भेड़ियेकी भाँति शत्रुओंपर टूट पड़े और उन्हें नष्ट 
कर दे | १९ |। 

अड्कुशं शौचमित्याहुरर्थानामुपधारणे । 

आनाम्य फलितां शाखां पक्‍वं पक्‍वं॑ प्रशातयेत्‌ ।। २० ।। 

'कार्यसिद्धिके लिये शौच-सदाचार आदिका पालन एक प्रकारका अंकुश (लोगोंको 
आकृष्ट करनेका साधन) बताया गया है। फलोंसे लदी हुई वृक्षकी शाखाको अपनी ओर 
कुछ झुकाकर ही मनुष्य उसके पके-पके फलको तोड़े ।। २० ।। 

फलार्थो5यं समारम्भो लोके पुंसां विपश्चिताम्‌ । 

वहेदमित्र॑ स्कन्धेन यावत्‌ कालस्य पर्यय: ।। २१ ।। 

“लोकमें विद्वान्‌ पुरुषोंका यह सारा आयोजन ही अभीष्ट फलकी सिद्धिके लिये होता 
है। जबतक समय बदलकर अपने अनुकूल न हो जाय, तबतक शत्रुको कंधेपर बिठाकर 
ढोना पड़े, तो ढोये भी || २१ ।। 

ततः प्रत्यागते काले भिन्द्याद्‌ घटमिवाश्मनि । 

अमित्रो न विमोक्तव्य: कृपणं बह्नपि ब्रुवन्‌ ।। २२ ।। 

कृपा न तस्मिन्‌ कर्तव्या हन्यादेवापकारिणम्‌ | 

हन्यादमित्रं सान्त्वेन तथा दानेन वा पुन: ॥। २३ ।। 

तथैव भेददण्डाभ्यां सर्वोपायै: प्रशातयेत्‌ । 

“परंतु जब अपने अनुकूल समय आ जाय, तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे, जैसे 
घड़ेको पत्थरपर पटककर फोड़ डालते हैं। शत्रु बहुत दीनतापूर्ण वचन बोले, तो भी उसे 
जीवित नहीं छोड़ना चाहिये। उसपर दया नहीं करनी चाहिये। अपकारी शत्रुको मार ही 
डालना चाहिये। साम अथवा दान तथा भेद एवं दण्ड सभी उपायोंद्वारा शत्रुकी मार डाले-- 
उसे मिटा दे” || २२-२३ ह ।। 

धृतराष्टर उवाच 
कथं सानन्‍्त्वेन दानेन भेदैर्दण्डेन वा पुन: ।। २४ ।। 
अमित्र: शक्‍्यते हन्तुं तन्मे ब्रूहि यथातथम्‌ । 


धृतराष्ट्रने पूछा--कणिक! साम, दान, भेद अथवा दण्डके द्वारा शत्रुका नाश कैसे 





28:44 श््् कमा 
काणिक उवाच 


शृणु राजन्‌ यथावृत्तं वने निवसत: पुरा ।। २५ ।। 

जम्बुकस्य महाराज नीतिशास्त्रार्थदर्शिन: । 

कणिकने कहा--महाराज! इस विषयमें नीतिशास्त्रके तत््वको जाननेवाले एक 
वनवासी गीदड़का प्राचीन वृत्तान्त सुनाता हूँ, सुनिये | २५६ ।। 

अथ वक्षित्‌ कृतप्रज्ञ: शृगाल: स्वार्थपण्डित: ।। २६ ।। 

सखिभिन््यवसत्‌ सार्ध व्याप्राखुवृकब भ्ुभि: । 

तेडपश्यन्‌ विपिने तस्मिन्‌ बलिनं मृगयूथपम्‌ ।। २७ ।। 

अशक्ता ग्रहणे तस्य ततो मन्त्रममन्त्रयन्‌ । 

एक वनमें कोई बड़ा बुद्धिमान्‌ और स्वार्थ साधनेमें कुशल गीदड़ अपने चार मित्रों-- 
बाघ, चूहा, भेड़िया और नेवलेके साथ निवास करता था। एक दिन उन सबने हरिणोंके एक 
सरदारको देखा, जो बड़ा बलवान्‌ था। वे सब उसे पकड़नेमें सफल न हो सके, अतः सबने 
मिलकर यह सलाह की ।। २६-२७ $ ।। 


जम्बुक उवाच 

असकृद्‌ यतितो होष हन्तुं व्यात्र वने त्वया ।। २८ ।। 

युवा वै जवसम्पन्नो बुद्धिशाली न शक्‍्यते । 

मूषिको5स्य शयानस्य चरणौ भक्षयत्वयम्‌ ।। २९ ।। 

यथैनं भक्षितै: पादैर्व्याप्रो गृह्नातु वै ततः । 

ततो वै भक्षयिष्याम: सर्वे मुदितमानसा: ।। ३० ।। 

गीदड़ने कहा--भाई बाघ! तुमने वनमें इस हरिणको मारनेके लिये कई बार यत्न 
किया, परंतु यह बड़े वेगसे दौड़नेवाला, जवान और बुद्धिमान्‌ है, इसलिये पकड़में नहीं 
आता। मेरी राय है कि जब यह हरिण सो रहा हो, उस समय यह चूहा इसके दोनों पैरोंको 
काट खाये। (फिर कटे हुए पैरोंसे यह उतना तेज नहीं दौड़ सकता।) उस अवस्थामें बाघ 
उसे पकड़ ले; फिर तो हम सब लोग प्रसन्नचित्त होकर उसे खायँगे || २८--३० ॥। 

जम्बुकस्य तु तद्‌ वाक्‍्यं तथा चक्रुः समाहिता: । 

मूषिकाभक्षितै: पादैर्मुगं व्याप्रोडवधीत्‌ तदा ।। ३१ ।। 

गीदड़की वह बात सुनकर सबने सावधान होकर वैसा ही किया। चूहेके द्वारा काटे हुए 
पैरोंसे लड़खड़ाते हुए मृगको बाघने तत्काल ही मार डाला ।। ३१ ।। 

दृष्टवैवाचेष्टमानं तु भूमौ मृगकलेवरम्‌ । 

स्नात्वा55गच्छत भद्रं वो रक्षामीत्याह जम्बुक: ।। ३२ ।। 

पृथ्वीपर हरिणके शरीरको निनश्रेष्ट पड़ा देख गीदड़ने कहा--“आपलोगोंका भला हो। 
स्नान करके आइये। तबतक मैं इसकी रखवाली करता हूँ” || ३२ ।। 

शृगालवचनात्‌ ते5पि गता: सर्वे नदीं ततः । 

स चिन्तापरमो भूत्वा तस्थौ तत्रैव जम्बुक: ।। ३३ ।। 

गीदड़के कहनेसे वे (बाघ आदि) सब साथी नदीमें (नहानेके लिये) चले गये। इधर वह 
गीदड़ किसी चिन्तामें निमग्न होकर वहीं खड़ा रहा ।। ३३ ।। 

अथाजगाम पूर्व तु स्नात्वा व्याप्रो महाबल: । 

ददर्श जम्बुकं॑ चैव चिन्ताकुलितमानसम्‌ ।। ३४ ।। 

इतनेमें ही महाबली बाघ स्नान करके सबसे पहले वहाँ लौट आया। आनेपर उसने 
देखा, गीदड़का चित्त चिन्तासे व्याकुल हो रहा है ।। ३४ ।। 

व्याप्र उवाच 

कि शोचसि महाप्राज्ञ त्वं नो बुद्धिमतां वर: । 

अशित्वा पिशितान्यद्य विहरिष्यामहे वयम्‌ ।। ३५ ।। 

तब बाघने पूछा--महामते! क्‍यों सोचमें पड़े हो? हमलोगोंमें तुम्हीं सबसे बड़े 
बुद्धिमान हो। आज इस हरिणका मांस खाकर हमलोग मौजसे घूमें-फिरेंगे || ३५ ।। 


जम्बुक उवाच 
शृणु मे त्वं महाबाहो यद्‌ वाक्‍्यं मूषिको<ब्रवीत्‌ | 

धिग्‌ बल॑ मृगराजस्य मयाद्यायं मृगो हतः ।। ३६ ।। 

गीदड़ बोला--महाबाहो! चूहेने (तुम्हारे विषयमें) जो बात कही है, उसे तुम मुझसे 
सुनो। वह कहता था, “मृगोंके राजा बाघके बलको धिक्कार है! आज इस मृगको तो मैंने 
मारा है | ३६ || 

मद्‌बाहुबलमाश्रित्य तृप्तिमद्य गमिष्यति । 

गर्जमानस्य तस्यैवमतो भक्ष्यं न रोचये ।। ३७ ।। 

“मेरे बाहुबलका आश्रय लेकर आज वह अपनी भूख बुझायेगा।” उसने इस प्रकार 
गरज-गरजकर (घमंडभरी) बातें कहीं हैं, अतः उसकी सहायतासे प्राप्त हुए इस भोजनको 
ग्रहण करना मुझे अच्छा नहीं लगता ।। ३७ ।। 

व्याप्र उवाच 


ब्रवीति यदि स होवं काले हास्मिन्‌ प्रबोधित: । 

स्वबाहुबलमाश्रित्य हनिष्ये5हं वनेचरान्‌ ।। ३८ ।। 

खादिष्ये तत्र मांसानि इत्युक्त्वा प्रस्थितो वनम्‌ । 

एतस्मिन्नेव काले तु मूषिको5प्याजगाम ह ।। ३९ ।। 

तमागतमभिप्रेत्य शृगालो<प्यब्रवीद्‌ वच: । 

बाघने कहा--यदि वह ऐसी बात कहता है, तब तो उसने इस समय मेरी आँखें खोल 
दीं--मुझे सचेत कर दिया। आजसे मैं अपने ही बाहुबलके भरोसे वन-जन्तुओंका वध 
किया करूँगा और उन्हींका मांस खाऊँगा। 

यों कहकर बाघ वनमें चला गया। इसी समय चूहा भी (नहा-धोकर) वहाँ आ पहुँचा। 
उसे आया देख गीदड़ने कहा ।। ३८-३९३ ।। 

जम्बुक उवाच 

शृणु मूषिक भद्रें ते नकुलो यदिहाब्रवीत्‌ | ४० ।॥ 

गीदड़ बोला--चूहा भाई! तुम्हारा भला हो। नेवलेने यहाँ जो बात कही है, उसे सुन 
लो || ४० ।। 

मृगमांसं न खादेयं गरमेतन्न रोचते । 

मूषिकं भक्षयिष्यामि तद्‌ भवाननुमन्यताम्‌ ।। ४१ ।। 

वह कह रहा था कि “बाघके काटनेसे इस हरिणका मांस जहरीला हो गया है, मैं तो 
इसे खाऊँगा नहीं; क्योंकि यह मुझे पसंद नहीं है। यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं चूहेको ही 
खा लूँ” ।। ४१ ।। 

तच्छुत्वा मूषिको वाक्य संत्रस्त: प्रगतो बिलम्‌ । 


ततः स्नात्वा स वै तत्र आजगाम वृको नृप ॥। ४२ ।। 

यह बात सुनकर चूहा अत्यन्त भयभीत होकर बिलमें घुस गया। राजन! तत्पश्चात्‌ 
भेड़िया भी स्नान करके वहाँ आ पहुँचा ।। ४२ ।। 

तमागतमिदं वाक्यमब्रवीज्जम्बुकस्तदा | 

मृगराजो हि संक्रुद्धो न ते साधु भविष्यति ।। ४३ ।। 

सकतल्नत्रस्त्विहायाति कुरुष्व यदनन्तरम्‌ | 

एवं संचोदितस्तेन जम्बुकेन तदा वृक: ।। ४४ ।। 

ततो<वलुम्पनं कृत्वा प्रयात: पिशिताशन: । 

एतस्मिन्नेव काले तु नकुलो5प्याजगाम ह ।। ४५ ।। 

उसके आनेपर गीदड़ने इस प्रकार कहा--'भेड़िया भाई! आज बाघ तुमपर बहुत 
नाराज हो गया है, अतः तुम्हारी खैर नहीं; वह अभी बाघिनको साथ लेकर यहाँ आ रहा है। 
इसलिये अब तुम्हें जो उचित जान पड़े, वह करो।” गीदड़के इस प्रकार कहनेपर कच्चा 
मांस खानेवाला वह भेड़िया दुम दबाकर भाग गया। इतनेमें ही नेवला भी आ पहुँचा ।। ४३ 
-४५ || 

तमुवाच महाराज नकुलं जम्बुको वने । 

स्वबाहुबलमाश्रित्य निर्जितास्तेडन्यतो गता: ।। ४६ ।। 

मम दत्त्वा नियुद्ध॑ त्वं भुड्क्ष्व मांसं यथेप्सितम्‌ 

महाराज! उस नेवलेसे गीदड़ने वनमें इस प्रकार कहा--'ओ नेवले! मैंने अपने 
बाहुबलका आश्रय ले उन सबको परास्त कर दिया है। वे हार मानकर अन्यत्र चले गये। यदि 
तुझमें हिम्मत हो तो पहले मुझसे लड़ ले; फिर इच्छानुसार मांस खाना' || ४६३ || 

नकुल उवाच 

मृगराजो वृकश्चैव बुद्धिमानपि मूषिक: ।। ४७ ।। 

निर्जिता यत्‌ त्वया वीरास्तस्माद्‌ वीरतरो भवान्‌ | 

न त्वयाप्युत्सहे योद्धुमित्युक्त्वा सो5प्युपागमत्‌ ।। ४८ ।। 

नेवलेने कहा--जब बाघ, भेड़िया और बुद्धिमान्‌ चूहा--ये सभी वीर तुमसे परास्त हो 
गये, तब तो तुम वीरशिरोमणि हो। मैं भी तुम्हारे साथ युद्ध नहीं कर सकता। यों कहकर 
नेवला भी चला गया || ४७-४८ ।। 

कणिक उवाच 

एवं तेषु प्रयातेषु जम्बुको हृष्टमानस: । 

खादति सम तदा मांसमेक: सन्‌ मन्त्रनिश्चयात्‌ || ४९ ।। 

कणिक कहते हैं--इस प्रकार उन सबके चले जानेपर अपनी युक्तिमें सफल हो 
जानेके कारण गीदड़का हृदय हर्षसे खिल उठा। तब उसने अकेले ही वह मांस 


खाया || ४९ || 

एवं समाचरन्नित्यं सुखमेधेत भूपति: । 

भयेन भेदयेद्‌ भीरुं शूरमज्जलिकर्मणा ।। ५० || 

राजन! ऐसा ही आचरण करनेवाला राजा सदा सुखसे रहता और उन्नतिको प्राप्त होता 
है। डरपोकको भय दिखाकर फोड़ ले तथा जो अपनेसे शूरवीर हो, उसे हाथ जोड़कर वशमें 
करे ।। ५० ।। 

लुब्धमर्थप्रदानेन सम॑ न्यूनं तथौजसा । 

एवं ते कथितं राजज्शृणु चाप्यपरं तथा ।। ५१ ।। 

लोभीको धन देकर तथा बराबर और कमजोरको पराक्रमसे वशमें करे। राजन्‌! इस 
प्रकार आपसे नीतियुक्त बर्तावका वर्णन किया गया। अब दूसरी बातें सुनिये || ५१ ।। 

पुत्र: सखा वा भ्राता वा पिता वा यदि वा गुरु: । 

रिपुस्थानेषु वर्तन्तो हन्तव्या भूतिमिच्छता ।। ५२ ।। 

पुत्र, मित्र, भाई, पिता अथवा गुरु--कोई भी क्‍यों न हो, जो शत्रुके स्थानपर आ जायाँ 
--शत्रुवत्‌ बर्ताव करने लगें, तो उन्हें वैभव चाहनेवाला राजा अवश्य मार डाले ।। ५२ ।। 

शपथेनाप्यरिं हन्यादर्थदानेन वा पुनः । 

विषेण मायया वापि नोपेक्षेत कथंचन । 

उभौ चेत्‌ संशयोपेतौ श्रद्धावांस्तत्र वर्द्धते ।। ५३ ।। 

सौगंध खाकर, धन अथवा जहर देकर या धोखेसे भी शत्रुको मार डाले। किसी तरह 
भी उसकी उपेक्षा न करे। यदि दोनों राजा समानरूपसे विजयके लिये यत्नशील हों और 
उनकी जीत संदेहास्पद जान पड़ती हो तो उनमें भी जो मेरे इस नीतिपूर्ण कथनपर श्रद्धा- 
विश्वास रखता है, वही उन्नतिको प्राप्त होता है ।। ५३ ।। 

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । 

उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्‌ ।। ५४ ।। 

यदि गुरु भी घमंडमें भरकर कर्तव्य और अकर्तव्यको न जानता हो तथा बुरे मार्गपर 
चलता हो तो उसे भी दण्ड देना उचित माना जाता है ।। ५४ ।। 

क्रुद्धो5प्यक्रुद्धसूप: स्यात्‌ स्मितपूर्वाभिभाषिता । 

न चाप्यन्यमपथध्वंसेत्‌ कदाचित्‌ कोपसंयुत: ।। ५५ ।। 

प्रहरिष्यन्‌ प्रियं ब्रूयात्‌ प्रहरन्नपि भारत । 

प्रहृत्य च कृपायीत शोचेत च रुदेत च ।। ५६ ।। 

मनमें क्रोध भरा हो, तो भी ऊपरसे क्रोधशून्य बना रहे और मुसकराकर बातचीत करे। 
कभी क्रोधमें आकर किसी दूसरेका तिरस्कार न करे। भारत! शत्रुपर प्रहार करनेसे पहले 
और प्रहार करते समय भी उससे मीठे वचन ही बोले। शत्रुको मारकर भी उसके प्रति दया 
दिखाये, उसके लिये शोक करे तथा रोये और आँसू बहाये || ५५-५६ ।। 


आश्चासयेच्चापि परं सान्त्वधर्मार्थिवृत्तिभि: । 

अथास्य प्रहरेत्‌ काले यदा विचलिते पथि ।। ५७ ।। 

शत्रुकोी समझा-बुझाकर, धर्म बताकर, धन देकर और सद्व्यवहार करके आश्वासन दे 
--अपने प्रति उसके मनमें विश्वास उत्पन्न करे; फिर समय आनेपर ज्यों ही वह मार्गसे 
विचलित हो, त्यों ही उसपर प्रहार करे || ५७ ।। 

अपि घोरापराधस्य धर्ममश्रित्य तिष्ठत: । 

स हि प्रच्छाद्यते दोष: शैलो मेघैरिवासितै: ।। ५८ ।। 

धर्मके आचरणका ढोंग करनेसे घोर अपराध करनेवालेका दोष भी उसी प्रकार ढक 
जाता है, जैसे पर्वत काले मेघोंकी घटासे ढक जाता है ।। ५८ ।। 

यः स्यादनुप्राप्तवधस्तस्यागारं प्रदीपयेत्‌ 

अधनान्‌ नास्तिकांश्लौरान्‌ विषये स्वे न वासयेत्‌ ।। ५९ ।। 

जिसे शीघ्र ही मार डालनेकी इच्छा हो, उसके घरमें आग लगा दे। धनहीनों, नास्तिकों 
और चोरोंको अपने राज्यमें न रहने दे ।। ५९ ।। 

प्रत्युत्थानासनाद्येन सम्प्रदानेन केनचित्‌ । 

प्रतिविश्रब्धघाती स्यात्‌ ती3्षणदंष्टो निमग्नक: ।। ६० ।। 

(शत्रुके) आनेपर उठकर अगवानी करे, आसन और भोजन दे और कोई प्रिय वस्तु भेंट 
करे। ऐसे बर्तावोंसे अपने प्रति जिसका पूर्ण विश्वास हो गया हो, उसे भी (अपने लाभके 
लिये) मारनेमें संकोच न करे। सर्पकी भाँति तीखे दाँतोंसे काटे, जिससे शत्रु फिर उठकर 
बैठ न सके ।। ६० ।। 

अशड्कितेभ्य: शड्केत शड्कितेभ्यश्व सर्वश: । 

अशड्क्‍्याद्‌ भयमुत्पन्नममपि मूलं निकृन्तति ।। ६१ ।। 

जिनसे भय प्राप्त होनेका संदेह न हो, उनसे भी सशंक (चौकन्ना) ही रहे और जिनसे 
भयकी आशंका हो, उनकी ओरसे तो सब प्रकारसे सावधान रहे ही। जिनसे भयकी शंका 
नहीं है, ऐसे लोगोंसे यदि भय उत्पन्न होता है तो वह मूलोच्छेद कर डालता है || ६१ ।। 

नविश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्‌ । 

विश्वासाद्‌ भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति ।। ६२ ।। 

जो विश्वासपात्र नहीं है, उसपर कभी विश्वास न करे; परंतु जो विश्वासपात्र है, उसपर 
भी अति विश्वास न करे; क्योंकि अति विश्वाससे उत्पन्न होनेवाला भय राजाकी जड़मूलका 
भी नाश कर डालता है ।। ६२ ।। 

चार: सुविहित: कार्य आत्मनश्न परस्य वा | 

पाषण्डांस्तापसादीं श्र परराष्ट्रेषु योजयेत्‌ ।। ६३ ।। 

भलीभाँति जाँच-परखकर अपने तथा शत्रुके राज्यमें गुप्तचर रखे। शत्रुके राज्यमें ऐसे 
गुप्तचरोंको नियुक्त करे, जो पाखण्ड-वेशधारी अथवा तपस्वी आदि हों ।। ६३ ।। 


उद्यानेषु विहारेषु देवतायतनेषु च । 

पानागारेषु रथ्यासु सर्वतीर्थेषु चाप्पथ ।। ६४ ।। 

चत्वरेषु च कूपेषु पर्वतेषु वनेषु च । 

समवायेषु सर्वेषु सरित्सु च विचारयेत्‌ ।। ६५ ।। 

उद्यान, घूमने-फिरनेके स्थान, देवालय, मद्यपानके अड्डे, गली या सड़क, सम्पूर्ण 
तीर्थस्थान, चौराहे, कुएँ, पर्वत, वन, नदी तथा जहाँ मनुष्योंकी भीड़ इकट्ठी होती हो, उन 
सभी स्थानोंमें अपने गुप्तचरोंको घुमाता रहे || ६४-६५ ।। 

वाचा भृशं विनीत: स्याद्‌ हृदयेन तथा क्षुर: । 

स्मितपूर्वाभिभाषी स्यात्‌ सृष्टो रौद्राय कर्मणे || ६६ ।। 

राजा बातचीतमें अत्यन्त विनयशील हो, परंतु हृदय छूरेके समान तीखा बनाये रखे। 
अत्यन्त भयानक कर्म करनेके लिये उद्यत हो तो भी मुसकराकर ही वार्तालाप 
करे ।। ६६ ।। 

अज्जलि: शपथ: सान्त्वं शिरसा पादवन्दनम्‌ | 

आशाकरणमित्येवं कर्तव्यं भूतिमिच्छता ।। ६७ ।। 

अवसर देखकर हाथ जोड़ना, शपथ खाना, आश्वासन देना, पैरोंपर मस्तक रखकर 
प्रणाम करना और आशा बँधाना--ये सब एऐश्वर्य-प्राप्तिकी इच्छावाले राजाके कर्तव्य 
हैं ।। ६७ ।। 

सुपुष्पित: स्थादफल: फलवान्‌ स्याद्‌ दुरारुह: । 

आम: स्यात्‌ पक्‍्वसंकाशो न च जीर्येत कहिचित्‌ ।। ६८ ।। 

नीतिज्ञ राजा ऐसे वृक्षके समान रहे, जिसमें फ़ूल तो खूब लगे हों परंतु फल न हों (वह 
बातोंसे लोगोंको फलकी आशा दिलाये, उसकी पूर्ति न करे)। फल लगनेपर भी उसपर 
चढ़ना अत्यन्त कठिन हो (लोगोंकी स्वार्थसिद्धिमें वह विघ्न डाले या विलम्ब करे)। वह रहे 
तो कच्चा, पर दीखे पकेके समान (अर्थात्‌ स्वार्थ-साथकोंकी दुराशाको पूर्ण न होने दे)। 
कभी स्वयं जीर्ण न हो (तात्पर्य यह कि अपना धन खर्च करके शत्रुओंका पोषण करते हुए 
अपने-आपको निर्धन न बना दे) ।। ६८ ।। 

त्रिवर्गे त्रेविधा पीडा हुनुबन्धस्तथैव च । 

अनुबन्धा: शुभा ज्ञेया: पीडास्तु परिवर्जयेत्‌ ।। ६९ ।। 

धर्म, अर्थ और काम--इन त्रिविध पुरुषार्थोंके सेवनमें तीन प्रकारकी बाधा--अड़चन 
उपस्थित होती है-। उसी प्रकार उनके तीन ही प्रकारके फल होते हैं। (धर्मका फल है अर्थ 
एवं काम अर्थात्‌ भोगकी प्राप्ति, अर्थका फल है धर्मका सेवन एवं भोगकी प्राप्ति और काम 
अर्थात्‌ भोगका फल है--इन्द्रियतृप्ति।। इन (तीनों प्रकारके) फलोंको शुभ (वरणीय) 
जानना चाहिये; परंतु (उक्त तीनों प्रकारकी) बाधाओंसे यत्नपूर्वक बचना चाहिये। (त्रिविध 


पुरुषार्थोका सेवन इस प्रकार करना चाहिये कि तीनों एक-दूसरेके बाधक न हों अर्थात्‌ 
जीवनमें तीनोंका सामंजस्य ही सुखदायक है।) ।। ६९ ।। 

धर्म विचरत: पीडा सापि द्वाभ्यां नियच्छति । 

अर्थ चाप्यर्थलुब्धस्य काम चातिप्रवर्तिन: ।। ७० |। 

धर्मका अनुष्ठान करनेवाले धर्मात्मा पुरुषके धर्ममें काम और अर्थ--इन दोनोंके द्वारा 
प्राप्त होनेवाली पीड़ा बाधा पहुँचाती है। इसी प्रकार अर्थलोभीके अर्थमें और अत्यन्त 
भोगासक्तके काममें भी शेष दो वर्गोद्वारा प्राप्त होनेवाली पीड़ा बाधा उपस्थित करती 
है || ७० || 

अगर्वितात्मा युक्तश्न सान्त्वयुक्तो5नसूयिता । 

अवेक्षितार्थ: शुद्धात्मा मन्त्रयीत द्विजैः सह ।। ७१ ।। 

राजा अपने हृदयसे अहंकारको निकाल दे। चित्तको एकाग्र रखे। सबसे मधुर बोले। 
दूसरोंके दोष प्रकाशित न करे। सब विषयोंपर दृष्टि रखे और शुद्धचित्त हो द्विजोंके साथ 
बैठकर मन्त्रणा करे || ७१ ।। 

कर्मणा येन केनैव मृदुना दारुणेन च । 

उद्धरेद्‌ दीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत्‌ ।। ७२ ।। 

राजा यदि संकटमें हो तो कोमल या भयंकर--जिस किसी भी कर्मके द्वारा उस 
दुरवस्थासे अपना उद्धार करे; फिर समर्थ होनेपर धर्मका आचरण करे || ७२ ।। 

न संशयमनारुहा नरो भद्राणि पश्यति । 

संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति ।। ७३ ।। 

कष्ट सहे बिना मनुष्य कल्याणका दर्शन नहीं करता। प्राण-संकटमें पड़कर यदि वह 
पुनः जीवित रह जाता है तो अपना भला देखता है || ७३ ।। 

यस्य बुद्धि: परिभवेत्‌ तमतीतेन सान्त्वयेत्‌ । 

अनागतेन दुर्बुद्धिं प्रत्युत्पन्नेन पण्डितम्‌ ।। ७४ ।। 

जिसकी बुद्धि संकटमें पड़कर शोकाभिभूत हो जाय, उसे भूतकालकी बातें (राजा नल 
तथा श्रीरामचन्द्रजी आदिके जीवनका वृत्तान्त) सुनाकर सान्त्वना दे। जिसकी बुद्धि अच्छी 
नहीं है, उसे भविष्यमें लाभकी आशा दिलाकर तथा विद्वान्‌ पुरुषको तत्काल ही धन आदि 
देकर शान्त करे || ७४ ।। 

योडरिणा सह संधाय शयीत कृतकृत्यवत्‌ । 

स वृक्षाग्रे यथा सुप्त: पतितः प्रतिबुध्यते || ७५ ।। 

जैसे वृक्षेके ऊपरकी शाखापर सोया हुआ पुरुष जब गिरता है, तब होशमें आता है 
उसी प्रकार जो अपने शत्रुके साथ संधि करके कृतकृत्यकी भाँति सोता (निश्चिन्त हो जाता) 
है, वह शत्रुसे धोखा खानेपर सचेत होता है || ७५ ।। 

मन्त्रसंवरणे यत्न: सदा कार्योडनसूयता । 


आकारमभिरक्षेत चारेणाप्यनुपालित: ।। ७६ ।। 

राजाको चाहिये कि वह दूसरोंके दोष प्रकाशित न करके अपनी गुप्त मन्त्रणाको सदा 
छिपाये रखनेकी चेष्टा करे। दूसरोंके गुप्तचरोंसे तो अपने आकारतकको (क्रोध और हर्ष 
आदिको सूचित करनेवाली चेष्टातकको) गुप्त रखे; परंतु अपने गुप्तचरसे भी सदा अपनी 
गुप्त मन्त्रणाकी रक्षा करे || ७६ ।। 

नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम्‌ । 

नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्रोति महतीं श्रियम्‌ ।। ७७ ।। 

राजा मछलीमारोंकी भाँति दूसरोंके मर्म विदीर्ण किये बिना, अत्यन्त क्रूर कर्म किये 
बिना तथा बहुतोंके प्राण लिये बिना बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं पाता || ७७ ।। 

कर्शित व्याधितं क्लिन्नमपानीयमघासकम्‌ | 

परिविश्वस्तमन्दं च प्रहर्तव्यमरेबलम्‌ ।। ७८ ।। 

जब शत्रुकी सेना दुर्बल, रोगग्रस्त, जल या कीचड़में फँसी, भूख-प्याससे पीड़ित और 
सब ओरसे विश्वस्त होकर निश्रेष्ट पड़ी हो, उस समय उसपर प्रहार करना चाहिये || ७८ ।। 

नार्थिको<र्थिनमभ्येति कृतार्थे नास्ति संगतम्‌ । 

तस्मात्‌ सर्वाणि साध्यानि सावशेषाणि कारयेत्‌ ।। ७९ ।। 

धनवान्‌ मनुष्य किसी धनीके पास नहीं जाता। जिसके सब काम पूरे हो चुके हैं, वह 
किसीके साथ मैत्री निभानेकी चेष्टा नहीं करता; अतः अपनेद्वारा सिद्ध होनेवाले दूसरोंके 
कार्य ही अधूरे रख दे (जिससे अपने कार्यके लिये उनका आना-जाना बना रहे) || ७९ |। 

संग्रहे विग्रहे चैव यत्न: कार्योडनसूयता । 

उत्साहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता ।। ८० ।। 

ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले राजाको दूसरोंके दोष न बताकर सदा आवश्यक सामग्रीके 
संग्रह और शत्रुओंके साथ विग्रह (युद्ध) करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये; साथ ही 
यत्नपूर्वक अपने उत्साहको बनाये रखना चाहिये || ८० ।। 

नास्य कृत्यानि बुध्येरन्‌ मित्राणि रिपवस्तथा । 

आरब्धान्येव पश्येरन्‌ सुपर्यवसितान्यपि ।। ८१ ।। 

मित्र और शत्रु--किसीको भी यह पता न चले कि राजा कब क्या करना चाहता है। 
कार्यके आरम्भ अथवा समाप्त हो जानेपर ही (सब) लोग उसे देखें ।। ८१ ।। 

भीतवत्‌ संविधातव्यं यावद्‌ भयमनागतम्‌ । 

आगतं तु भयं दृष्टवा प्रहर्तव्यमभीतवत्‌ ।। ८२ ।। 

जबतक अपने ऊपर भय आया न हो, तबतक डरे हुएकी भाँति उसको टालनेका 
प्रयत्न करना चाहिये; परंतु जब भयको सामने आया देखे, तब निडर होकर शत्रुपर प्रहार 
करना चाहिये ।। ८२ ।। 

दण्डेनोपनतं शत्रुमनुगृह्नाति यो नर: । 


स मृत्युमुपगृह्नीयाद्‌ गर्भमश्वतरी यथा ।। ८३ ।। 

जो मनुष्य दण्डके द्वारा वशमें किये हुए शत्रुपर दया करता है, वह मौतको ही अपनाता 
है--ठीक उसी तरह जैसे खच्चरी गर्भके रूपमें अपनी मृत्युको ही उदरमें धारण करती 
है || ८३ || 

अनागतं हि बुध्येत यच्च कार्य पुर: स्थितम्‌ । 

नतु बुद्धिक्षयात्‌ किंचिदतिक्रामेत्‌ प्रयोजनम्‌ ।। ८४ ।। 

जो कार्य भविष्यमें करना हो, उसपर बुद्धिसे विचार करे और विचारनेके पश्चात्‌ 
तदनुकूल व्यवस्था करे। इसी प्रकार जो कार्य सामने उपस्थित हो, उसे भी बुद्धिसे 
विचारकर ही करे। बुद्धिसे निश्चय किये बिना किसी भी कार्य या उद्देश्यका परित्याग न 
करे ।। ८४ ।। 

उत्साहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता । 

विभज्य देशकालौ च दैवं धर्मादयस्त्रय: । 

नै:श्रेयसौ तु तौ ज्ञेयौ देशकालाविति स्थिति: ।। ८५ |। 

ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले राजाको देश और कालका विभाग करके ही यत्नपूर्वक 
उत्साह एवं उद्यम करना चाहिये। इसी प्रकार देश-कालके विभाग-पूर्वक ही प्रारब्धकर्म 
तथा धर्म, अर्थ और कामका सेवन करना चाहिये। देश और कालको ही मंगलके प्रधान हेतु 
समझना चाहिये। यही नीतिशास्त्रका सिद्धान्त है ।। ८५ ।। 

तालवत  कुरुते मूलं बाल: शत्रुरुपेक्षित: । 

गहने<ग्निरिवोत्सृष्ट: क्षिप्रं संजायते महान्‌ ।। ८६ ।। 

छोटे शत्रुकी भी उपेक्षा कर दी जाय, तो वह ताड़के वृक्षकी भाँति जड़ जमा लेता है 
और घने वनमें छोड़ी हुई आगकी भाँति शीघ्र ही महान्‌ विनाशकारी बन जाता है ।। ८६ ।। 

अग्निं स्तोकमिवात्मानं संधुक्षयति यो नर: । 

स वर्धमानो ग्रसते महान्तमपि संचयम्‌ ।॥। ८७ ।। 

जो मनुष्य थोड़ी-सी अग्निकी भाँति अपने-आपको (सहायक सामग्रियोंद्वारा धीरे-धीरे) 
प्रज्वलित या समृद्ध करता रहता है, वह एक दिन बहुत बड़ा होकर शत्रुरूपी ईंधनकी बहुत 
बड़ी राशिको भी अपना ग्रास बना लेता है || ८७ ।। 

आशां कालववतीं कुर्यात्‌ कालं विघ्नेन योजयेत्‌ । 

विघ्नं निमित्ततो ब्रूयान्निमित्तं वापि हेतुत: ।। ८८ ।। 

यदि किसीको किसी बातकी आशा दे तो उसे शीघ्र पूरी न करके दीर्घकालतक 
लटकाये रखे। जब उसे पूर्ण करनेका समय आये, तब उसमें कोई विघ्न डाल दे और इस 
प्रकार समयकी अवधिको बढ़ा दे। उस विघ्नके पड़नेमें कोई उपयुक्त कारण बता दे और 
उस कारणको भी युक्तियोंसे सिद्ध कर दे || ८८ ।। 

क्षुरो भूत्वा हरेत्‌ प्राणानू निशित: कालसाधन: । 


प्रतिच्छन्नो लोमहारी द्विषतां परिकर्तन: ।। ८९ ।। 

लोहेका बना हुआ छूरा शानपर चढ़ाकर तेज किया जाता है और चमड़ेके सम्पुटमें 
छिपाकर रखा जाता है तो वह समय आनेपर (सिर आदि अंगोंके समस्त) बालोंको काट 
देता है। उसी प्रकार राजा अनुकूल अवसरकी अपेक्षा रखकर अपने मनोभावको छिपाये 
हुए अनुकूल साधनोंका संग्रह करता रहे और छूरेकी तरह तीक्ष्ण या निर्दय होकर शत्रुओंके 
प्राण ले ले--उनका मूलोच्छेद कर डाले ।। ८९ ।। 

पाण्डवेषु यथान्यायमन्येषु च कुरूद्वह | 

वर्तमानो न मज्जेस्त्वं तथा कृत्यं समाचर ।। ९० ।। 

सर्वकल्याणसम्पन्नो विशिष्ट इति निश्चय: । 

तस्मात्‌ त्वं पाण्डुपुत्रेभ्यो रक्षात्मानं नराधिप ।। ९१ |। 

कुरुश्रेष्ठी! आप भी इसी नीतिका अनुसरण करके पाण्डवों तथा दूसरे लोगोंके साथ 
यथोचित बर्ताव करते रहें। परंतु ऐसा कार्य करें, जिससे स्वयं संकटके समुद्रमें डूब न जाय॑ँ। 
आप समस्त कल्याणकारी साधनोंसे सम्पन्न और सबसे श्रेष्ठ हैं, यही सबका निश्चय है; अतः 
नरेश्वर! आप पाण्डुके पुत्रोंसे अपनी रक्षा कीजिये ।। ९०-९१ ।। 

भ्रातृव्या बलिनो यस्मात्‌ पाण्डुपुत्रा नराधिप । 

पश्चात्तापो यथा न स्यात्‌ तथा नीतिर्विधीयताम्‌ ।। ९२ ।। 

राजन! आपके भतीजे पाण्डव बहुत बलवान्‌ हैं; अतः ऐसी नीति काममें लाइये, 
जिससे आगे चलकर आपको पछताना न पड़े || ९२ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुकत्वा सम्प्रतस्थे कणिक: स्वगृहं ततः । 

धृतराष्ट्रोडपि कौरव्य: शोकार्त: समपद्यत ।। ९३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! यों कहकर कणिक अपने घरको चले गये। इधर 
कुरुवंशी धृतराष्ट्र शोकसे व्याकुल हो गये ।। ९३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि कणिकवाक्ये 
एकोनचत्वारिंशदिधिकशततमो<ध्याय: ।। १३९ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत सम्भवपर्वमें काणिकवाक्यविषयक एक यौ 
उनन्‍्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३९ ॥। 


ऑपन-माजल बछ। जज: 


३. तीन प्रकारकी शक्तियाँ ही यहाँ त्रिवर्ग कही गयी हैं। उनके नाम ये हैं--प्रभुशक्ति (ऐश्वर्यशक्ति), उत्साहशक्ति और 
मन्त्रशक्ति। दुर्ग आदिपर आक्रमण करके शत्रुकी ऐश्वर्यशक्तिका नाश करे। विश्वसनीय व्यक्तियोंद्वारा अपने उत्कर्षका 
वर्णन कराकर शत्रुको तेजोहीन बनाना, उसके उत्साह एवं साहसको घटा देना ही उत्साहशक्तिका नाश करना है। 
गुप्तचरोंद्वारा उनकी गुप्त मन्त्रणाको प्रकट कर देना ही मन्त्रशक्तिका नाश करना है। 


२. अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और सेना--ये पाँच प्रकृतियाँ ही पंचवर्ग हैं। 
3. साम, दान, भेद, दण्ड, उदबन्धन, विषप्रयोग और आग लगाना--शत्रुको वशमें करने या दबानेके ये सात साधन ही 
सप्तवर्ग हैं। 


- इन बाधाओंको श्लोक ७० में स्पष्ट किया गया है। 


(जतुगृहपर्व) 
चत्वारिंशदाधिकशततमो< ध्याय: 


पाण्डवोंके प्रति ना अनुराग देखकर दुर्योधनकी 
न्ता 


वैशम्पायन उवाच 

ततः सुबलपुत्रस्तु राजा दुर्योधनश्व ह । 

दुःशासनश्न कर्णश्न दुष्ट मन्त्रममन्त्रयन्‌ ।। १ ।। 

ते कौरव्यमनुज्ञाप्य धृतराष्ट्रं नराधिपम्‌ । 

दहने तु सपुत्राया: कुन्त्या बुद्धिमकारयन्‌ ।॥। २ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर सुबलपुत्र शकुनि, राजा दुर्योधन 
दुःशासन और कर्णने (आपसमें) एक दुष्टतापूर्ण गुप्त सलाह की। उन्होंने कुरुनन्दन 
महाराज धुृतराष्ट्रसे आज्ञा लेकर पुत्रोंसहित कुन्तीकों आगमें जला डालनेका विचार 
किया ।। १-२ ।। 

तेषामिज्धितभावज्ञो विदुरस्तत्त्वदर्शिवान्‌ । 

आकारेण च त॑ मन्त्र बुबुधे दुष्टचेतसाम्‌ ।। ३ ।। 

तत्वज्ञानी विदुर उनकी चेष्टाओंसे उनके मनका भाव समझ गये और उनकी आकृतिसे 
ही उन दुष्टोंकी गुप्त मन्त्रणाका भी उन्होंने पता लगा लिया ।। ३ ।। 

ततो विदिततवेद्यात्मा पाण्डवानां हिते रत: । 

पलायने मतिं चक्रे कुन्त्या: पुत्र: सहानघ: ।। ४ ।। 

विदुरजीने मन-ही-मन जाननेयोग्य सभी बातें जान लीं। वे सदा पाण्डवोंके हितमें 
संलग्न रहते थे, अतः निष्पाप विदुरने यही निश्चय किया कि कुन्ती अपने पुत्रोंके साथ 
यहाँसे भाग जाय ।। ४ ।। 

ततो वातसहां नावं यन्त्रयुक्तां पताकिनीम्‌ । 

ऊर्मिक्षमां दृढां कृत्वा कुन्तीमिदमुवाच ह ।। ५ ।। 

उन्होंने एक सुदृढ़ नाव बनवायी, जिसे चलानेके लिये उसमें यन्त्र- लगाया गया था। 
वह वायुके वेग और लहरोंके थपेड़ोंका सामना करनेमें समर्थ थी। उसमें झंडियाँ और 
पताकाएँ फहरा रही थीं। उस नावको तैयार कराके विदुरजीने कुन्तीसे कहा-- ।। ५ ।। 


एष जात: कुलस्यास्य कीर्तिवंशप्रणाशन: । 

धृतराष्ट्र: परीतात्मा धर्म त्यजति शाश्वतम्‌ ।। ६ ।। 

इयं वारिपथे युक्ता तरज्भरपवनक्षमा । 

नौर्यया मृत्युपाशात्‌ त्वं सपुत्रा मोक्ष्यसे शुभे ।। ७ ।। 

“देवि! राजा धृतराष्ट्र इस कुरुकुलकी कीर्ति एवं वंशपरम्पराका नाश करनेवाले पैदा हुए 
हैं। इनका चित्त पुत्रोंके प्रति ममतासे व्याप्त हुआ है, इसलिये ये सनातन धर्मका त्याग कर 
रहे हैं। शुभे! जलके मार्गमें यह नाव तैयार है, जो हवा और लहरोंके वेगको भलीभाँति सह 
सकती है। इसीके द्वारा (कहीं अन्यत्र जाकर) तुम पुत्रोंसहित मौतकी फाँसीसे छूट 
सकोगी” ।। ६-७ |। 

तच्छुत्वा व्यथिता कुन्ती पुत्रै: सह यशस्विनी । 

नावमारुहा गड़ायां प्रययौ भरतर्षभ ।। ८ ।। 

भरतश्रेष्ठ यह बात सुनकर यशस्विनी कुन्तीको बड़ी व्यथा हुई। वे पुत्रोंसहित 
(वारणावतके लाक्षागृहसे बचकर) नावपर जा चढ़ीं और गंगाजीकी धारापर यात्रा करने 
लगीं ।। ८ ।। 

ततो विदुरवाक्येन नावं विक्षिप्य पाण्डवा: । 

धनं चादाय तैर्दत्तमरिष्ट प्राविशन्‌ वनम्‌ ।। ९ ।। 

तदनन्तर विदुरजीके कहनेसे पाण्डवोंने नावको वहीं डुबा दिया और उन कौरवोंके दिये 
हुए धनको लेकर विघ्न-बाधाओंसे रहित वनमें प्रवेश किया ।। ९ ।। 

निषादी पज्चपुत्रा तु जातुषे तत्र वेश्मनि । 

कारणाभ्यागता दग्धा सह पुत्रैरनागसा ।। १० ।। 

वारणावतके उस लाक्षागृहमें निषाद जातिकी एक स्त्री किसी कारणवश अपने पाँच 
पुत्रोंके साथ आकर ठहर गयी थी। वह बेचारी निरपराध होनेपर भी उसमें पुत्रोंसहित 
जलकर भस्म हो गयी ।। १० ।। 

स च म्लेच्छाधम: पापो दग्धस्तत्र पुरोचन: । 

वज्चिताश्न दुरात्मानो धार्तराष्ट्रा: सहानुगा: ।। ११ ।। 

म्लेच्छोंमें (भी) नीच पापी पुरोचन भी उसी घरमें जल मरा और धृतराष्ट्रके दुरात्मा पुत्र 
अपने सेवकोंसहित धोखा खा गये ।। ११ ।। 

अविज्ञाता महात्मानो जनानामक्षतास्तथा । 

जनन्या सह कौन्तेया मुक्ता विदुरमन्त्रिता: ।। १२ ।। 

विदुरकी सलाहके अनुसार काम करनेवाले महात्मा कुन्तीपुत्र अपनी माताके साथ 
मृत्युसे बच गये। उन्हें किसी प्रकारकी क्षति नहीं पहुँची। साधारण लोगोंको उनके जीवित 
रहनेकी बात ज्ञात न हो सकी ।। १२ ।। 

ततस्तस्मिन्‌ पुरे लोका नगरे वारणावते । 


दृष्टवा जतुगृहं दग्धमन्वशोचन्त दु:ःखिता: ।। १३ ।। 

तदनन्तर वारणावत नगरमें वहाँके लोगोंने लाक्षागृहको दग्ध हुआ देख (अत्यन्त) दुःखी 
हो पाण्डवोंके लिये (बड़ा) शोक किया ।। १३ ।। 

राज्ञे च प्रेषयामासुर्य थावृत्तं निवेदितुम्‌ । 

संवृत्तस्ते महान्‌ काम: पाण्डवान्‌ दग्धवानसि ।। १४ ।। 

सकामो भव कौरव्य भुड्क्ष्व राज्यं सपुत्रक: । 

तच्छुत्वा धृतराष्ट्रस्तु सह पुत्रेण शोचयन्‌ ।। १५ ।। 

तथा राजा धृतराष्ट्रके पास यथावत्‌ समाचार कहनेके लिये किसीको भेजकर कहलाया 
--“कुरुनन्दन! तुम्हारा महान्‌ मनोरथ पूरा हो गया। पाण्डवोंको तुमने जला दिया। अब तुम 
कृतार्थ हो जाओ और पुत्रोंके साथ राज्य भोगो।” यह सुनकर पुत्रसहित धृतराष्ट्र शोकमग्न 
हो गये ।। १४-१५ ।। 

प्रेतकार्याणि च तथा चकार सह बान्धवै: । 

पाण्डवानां तथा क्षत्ता भीष्मश्न कुरुसत्तम: ।। १६ ।। 

उन्होंने, विदुरजीने तथा कुरुकुलशिरोमणि भीष्मजीने भी भाई-बन्धुओंके साथ 
(पुत्तल-विधिसे) पाण्डवोंके प्रेतकार्य (दाह और श्राद्ध आदि) सम्पन्न किये || १६ ।। 

जनमेजय उवाच 

पुनर्विस्तरश: श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम । 

दाहं जतुगृहस्यैव पाण्डवानां च मोक्षणम्‌ ।। १७ ।। 

जनमेजय बोले--विप्रवर! मैं लाक्षागृहके जलने और पाण्डवोंके उससे बच जानेका 
वृत्तान्त पुनः विस्तारसे सुनना चाहता हूँ || १७ ।। 

सुनृशंसमिदं कर्म तेषां क्रूरोपसंहितम्‌ । 

कीर्तयस्व यथावृत्तं परं कौतूहलं मम ।। १८ ।। 

क्रूर कणिकके उपदेशसे किया हुआ कौरवोंका यह कर्म अत्यन्त निर्दयतापूर्ण था। आप 
उसका ठीक-ठीक वर्णन कीजिये। मुझे यह सब सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही 
है ।। १८ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


शृणु विस्तरशो राजन्‌ वदतो मे परंतप । 

दाहं जतुगृहस्यैतत्‌ पाण्डवानां च मोक्षणम्‌ ।। १९ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! मैं लाक्षागृहके जलने और 
पाण्डवोंके उससे बच जानेका वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहता हूँ, सुनो |। १९ ।। 

प्राणाधिकं भीमसेनं कृतविद्यं धनंजयम्‌ । 

दुर्योधनो लक्षयित्वा पर्यतप्यत दुर्मना: ।। २० || 


भीमसेनको सबसे अधिक बलवान्‌ और अर्जुनको अस्त्र-विद्यामें सबसे श्रेष्ठ देखकर 
दुर्योधन सदा संतप्त होता रहता था। उसके मनमें बड़ा दुःख था ।। २० ।। 

ततो वैकर्तन: कर्ण: शकुनिश्चापि सौबल: । 

अनेकैरशभ्युपायैस्ते जिघांसन्ति सम पाण्डवान्‌ ।। २३१ ।। 

तब सूर्यपुत्र कर्ण और सुबलकुमार शकुनि आदि अनेक उपायोंसे पाण्डवोंको मार 
डालनेकी इच्छा करने लगे || २१ ।। 

पाण्डवा अपि तत्‌ सर्व प्रतिचक्रुर्यथागतम्‌ । 

उद्धावनमकुर्वन्तो विदुरस्यथ मते स्थिता: ।॥। २२ ।। 

पाण्डवोंने भी जब जैसा संकट आया, सबका निवारण किया और विदुरकी सलाह 
मानकर वे कौरवोंके षड़यन्त्रका कभी भंडाफोड़ नहीं करते थे | २२ ।। 

गुणै: समुदितान्‌ दृष्टवा पौरा: पाण्डुसुतांस्तदा । 

कथयांचक्रिरे तेषां गुणान्‌ संसत्सु भारत ।। २३ ।। 

भारत! उन दिनों पाण्डवोंको सर्वगुणसम्पन्न देख नगरके निवासी भरी सभाओंमें उनके 
सदगुणोंकी प्रशंसा करते थे || २३ ।। 

राज्यप्राप्तिं च सम्प्राप्तं ज्येष्ठं पाण्डुसुतं तदा । 

कथयन्ति सम सम्भूय चत्वरेषु सभासु च ।। २४ ।। 

वे जहाँ कहीं चौराहोंपर और सभाओंमें इकट्ठे होते वहीं पाण्डुके ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिरको 
राज्यप्राप्तिके योग्य बताते थे || २४ ।। 

प्रज्ञाचक्षुरचक्षुष्टवाद्‌ धृतराष्ट्रो जनेश्वर: । 

राज्यं न प्राप्तवान्‌ पूर्व स कथं नृपतिर्भवेत्‌ ।। २५ ।। 

वे कहते, 'प्रज्ञाचक्षु महाराज धृतराष्ट्र नेत्रहीन होनेके कारण जब पहले ही राज्य न पा 
सके, तब (अब) वे कैसे राजा हो सकते हैं ।। २५ ।। 

तथा शांतनवो भीष्म: सत्यसंधो महाव्रत: । 

प्रत्याख्याय पुरा राज्यं नस जातु ग्रहीष्यति ।। २६ ।। 

“महान्‌ व्रतका पालन करनेवाले शंतनुनन्दन भीष्म तो सत्यप्रतिज्ञ हैं। वे पहले ही राज्य 
ठुकरा चुके हैं, अत: अब उसे कदापि ग्रहण न करेंगे || २६ ।। 

ते वयं पाण्डवज्येष्ठं तरुणं वृद्धशीलिनम्‌ । 

अभिषिज्चाम साध्वद्य सत्यकारुण्यवेदिनम्‌ ।। २७ ।। 

'पाण्डवोंके बड़े भाई युधिष्ठिर यद्यपि अभी तरुण हैं, तो भी उनका शील-स्वभाव 
वृद्धोंके समान है। वे सत्यवादी, दयालु और वेदवेत्ता हैं; अतः अब हमलोग उन्हींका 
विधिपूर्वक राज्याभिषेक करें || २७ ।। 

स हि भीष्म शांतनवं धृतराष्ट्रं च धर्मवित्‌ । 

सपुत्रं विविधैभोंगिर्योजयिष्यति पूजयन्‌ ॥। २८ ।। 


“महाराज युधिष्ठिर बड़े धर्मज्ञ हैं। वे शंतनुनन्दन भीष्म तथा पुत्रोंसहित धृतराष्ट्रका 
आदर करते हुए उन्हें नाना प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न रखेंगे” || २८ ।। 

तेषां दुर्योधन: श्रुत्वा तानि वाक्यानि जल्पताम्‌ । 

युधिष्ठिरानुरक्तानां पर्यतप्यत दुर्मति: ।। २९ ।। 

युधिष्ठिरमें अनुरक्त हो उपर्युक्त उदगार प्रकट करनेवाले लोगोंकी बातें सुनकर खोटी 
बुद्धिवाला दुर्योधन भीतर-ही-भीतर जलने लगा ।। २९ ।। 

स तप्यमानो दुष्टात्मा तेषां वाचो न चक्षमे । 

ईर्ष्यया चापि संतप्तो धृतराष्ट्रमुपागमत्‌ ।। ३० ।। 

इस प्रकार संतप्त हुआ वह दुष्टात्मा लोगोंकी बातोंको सहन न कर सका। वह ईर्ष्याकी 
आगसे जलता हुआ धृतराष्ट्रके पास आया ।। ३० ।। 

ततो विरहितं दृष्टवा पितरं प्रतिपूज्य सः । 

पौरानुरागसंतप्त: पश्चादिदमभाषत ।। ३१ ।। 

वहाँ अपने पिताको अकेला पाकर पुरवासियोंके युधिष्ठिरविषयक अनुरागसे दुःखी हुए 
दुर्योधनने पहले पिताके प्रति आदर प्रदर्शित किया। तत्पश्चात्‌ इस प्रकार कहा ।। ३१ ।। 

दुर्योधन उवाच 


श्रुता मे जल्पतां तात पौराणामशिवा गिर: । 

त्वामनादृत्य भीष्म च पतिमिच्छन्ति पाण्डवम्‌ ।। ३२ ।। 

दुर्योधन बोला--'पिताजी! मैंने परस्पर वार्तालाप करते हुए पुरवासियोंके मुखसे 
(बड़ी) अशुभ बातें सुनी हैं। वे आपका और भीष्मजीका अनादर करके पाण्डुनन्दन 
युधिष्ठिरको राजा बनाना चाहते हैं || ३२ ।। 

मतमेतच्च भीष्मस्य न स राज्यं बुभुक्षति । 

अस्माकं तु परां पीडां चिकीर्षन्ति पुरे जना: ।। ३३ ।। 

भीष्मजी तो इस बातको मान लेंगे; क्योंकि वे स्वयं राज्य भोगना नहीं चाहते। परंतु 
नगरके लोग हमारे लिये बहुत बड़े कष्टका आयोजन करना चाहते हैं || ३३ ।। 

पितृतः प्राप्तवान्‌ राज्यं पाण्डुरात्मगुणै: पुरा । 

त्वमन्धगुणसंयोगात्‌ प्राप्तं राज्यं न लब्धवान्‌ ।। ३४ ।। 

पाण्डुने अपने सदगुणोंके कारण पितासे राज्य प्राप्त कर लिया और आप अंधे होनेके 
कारण अधिकारप्राप्त राज्यको भी नहीं पा सके ।। ३४ ।। 

स एष पाण्डोर्दायाद्य॑ यदि प्राप्रोति पाण्डव: । 

तस्य पुत्रो ध्रुवं प्राप्तस्तस्य तस्यापि चापर: ।। ३५ ।। 

यदि ये पाण्डुकुमार युधिष्छिर पाण्डुके राज्यको, जिसका उत्तराधिकारी पुत्र ही होता है, 
प्राप्त कर लेते हैं तो निश्चय ही उनके बाद उनका पुत्र ही इस राज्यका अधिकारी होगा और 


उसके बाद पुनः उसीकी पुत्रपरम्परामें दूसरे-दूसरे लोग इसके अधिकारी होते 
जायूँगे ।। ३५ ।। 


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ते वयं राजवंशेन हीना: सह सुतैरपि । 

अवज्ञाता भविष्यामो लोकस्य जगतीपते ।। ३६ ।। 

महाराज! ऐसी दशामें हमलोग अपने पुत्रोंसहित राजपरम्परासे वंचित होनेके कारण 
सब लोगोंकी अव-हेलनाके पात्र बन जायँगे || ३६ ।। 

सततं निरयं प्राप्ता: परपिण्डोपजीविन: । 

न भवेम यथा राजंस्तथा नीतिर्विधीयताम्‌ ।। ३७ ।। 

राजन! आप कोई ऐसी नीति काममें लाइये, जिससे हमें दूसरोंके दिये हुए अन्नसे 
गुजारा करके सदा नरकतुल्य कष्ट न भोगना पड़े ।। ३७ ।। 

यदि त्वं हि पुरा राजन्निदं राज्यमवाप्तवान्‌ | 

ध्रुवं प्राप्स्याम च वयं राज्यमप्यवशे जने ॥। ३८ ।। 

राजन्‌! यदि पहले ही आपने यह राज्य पा लिया होता तो आज हम अवश्य ही इसे 
प्राप्त कर लेते; फिर तो लोगोंका कोई वश नहीं चलता ।। ३८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि दुर्योधनेष्यायां 
चत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४० ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जदुय॒ृहपर्वमें दुर्योधनकी ईष्याविषयक एक 
सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४० ॥ 


अपना बा | अड-एक्राछ 


- इससे महाभारतकालमें यन्त्रयुक्त नौकाओं (जहाजों)-का निर्माण सूचित होता है। 


एकचत्वारिंशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


दुर्योधनका धृतराष्ट्रसे पाण्डवोंको वारणावत भेज देनेका 
प्रस्ताव 


वैशम्पायन उवाच 


एवं श्रुत्वा तु पुत्रस्य प्रज्ञाचक्षुर्नराधिप: । 

कणिकस्य च वाक्यानि तानि श्रुत्वा स सर्वश: ॥। १ ।। 

धृतराष्ट्रो द्विधाचित्त: शोकार्त: समपद्यत । 

दुर्योधनश्व॒ कर्णश्न शकुनि: सौबलस्तथा ।। २ ।। 

दुःशासनचतुर्थास्ति मन्त्रयामासुरेकत: । 

ततो दुर्योधनो राजा धृतराष्ट्रमभाषत ।। ३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! अपने पुत्रकी यह बात सुनकर तथा कणिकके उन 
वचानोंका स्मरण करके प्रज्ञाचक्षु महाराज धृतराष्ट्रका चित्त सब प्रकारसे दुविधामें पड़ गया। 
वे शोकसे आतुर हो गये। दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा चौथे दुःशासन इन सबने 
एक जगह बैठकर सलाह की; फिर राजा दुर्योधनने धृतराष्ट्रसे कहा-- ।। १--३ ।। 

पाण्डवेभ्यो भयं न स्यात्‌ तान्‌ विवासयतां भवान्‌ | 

निपुणेनाभ्युपायेन नगरं वारणावतम्‌ ।। ४ ।। 

“पिताजी! हमें पाण्डवोंसे भय न हो, इसलिये आप किसी उत्तम उपायसे उन्हें यहाँसे 
हटाकर वारणावत नगरमें भेज दीजिये” ।। ४ ।। 

धृतराष्ट्रस्तु पुत्रेण श्रुव्वा वचनमीरितम्‌ | 

मुहूर्तमिव संचिन्त्य दुर्योधनमथाब्रवीत्‌ ।। ५ ।। 

अपने पुत्रकी कही हुई यह बात सुनकर धृतराष्ट्र दो घड़ीतक भारी चिन्तामें पड़े रहे; 
फिर दुर्योधनसे बोले ।। ५ ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 

धर्मनित्य: सदा पाण्डुस्तथा धर्मपरायण: । 

सर्वेषु ज्ञातिषु तथा मयि त्वासीद्‌ विशेषत: ।। ६ ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--बेटा! पाण्डु अपने जीवनभर धर्मको ही नित्य मानकर सम्पूर्ण 
ज्ञातिजनोंके साथ धर्मानुकूल व्यवहार ही करते थे; मेरे प्रति तो विशेषरूपसे ।। ६ ।। 

नासौ किंचिद्‌ विजानाति भोजनादि चिकीर्षितम्‌ | 

निवेदयति नित्यं हि मम राज्यं धृतव्रतः ।। ७ ।। 


वे इतने भोले-भाले थे कि अपने स्नान-भोजन आदि अभीष्ट कर्तव्योंके सम्बन्धमें भी 
कुछ नहीं जानते थे। वे उत्तम व्रतका पालन करते हुए प्रतिदिन मुझसे यही कहते थे कि 
“यह राज्य तो आपका ही है” ॥। ७ ।। 

तस्य पुत्रो यथा पाण्डुस्तथा धर्मपरायण: । 

गुणवॉल्लोकविख्यात: पौरवाणां सुसम्मत: ।। ८ ।। 

उनके पुत्र युधिष्ठिर भी वैसे ही धर्मपरायण हैं, जैसे स्वयं पाण्डु थे। वे उत्तम गुणोंसे 
सम्पन्न, सम्पूर्ण जगत्‌में विख्यात तथा पूरुवंशियोंके अत्यन्त प्रिय हैं ।। ८ ।। 

स कथं शक्‍्यते<स्माभिरपाकर्तु बलादित: | 

पितृपैतामहाद्‌ राज्यात्‌ ससहायो विशेषतः ।। ९ ।। 

फिर उन्हें उनके बाप-दादोंके राज्यसे बलपूर्वक कैसे हटाया जा सकता है? विशेषत: 
ऐसे समयमें, जब कि उनके सहायक अधिक हैं ।। ९ ।। 

भृता हि पाण्डुनामात्या बल॑ च सततं भृतम्‌ । 

भृताः पुत्राश्न पौत्राश्ष॒ तेषामपि विशेषत: ।। १० ।। 

पाण्डुने सभी मन्त्रियों तथा सैनिकोंका सदा पालन-पोषण किया था। उनका ही नहीं, 
उनके पुत्र-पौत्रोंक भी भरण-पोषणका विशेष ध्यान रखा था ।। १० |। 

ते पुरा सत्कृतास्तात पाण्डुना नागरा जना: । 

कथं युधिष्ठिरस्यार्थे न नो हन्यु: सबान्धवान्‌ ।। ११ ।। 

तात! पाण्डुने पहले नागरिकोंके साथ बड़ा ही सद्धावपूर्ण व्यवहार किया है। अब वे 
विद्रोही होकर युधिष्ठिरके हितके लिये भाई-बन्धुओंके साथ हम सब लोगोंकी हत्या क्‍यों न 
कर डालेंगे? | ११ ।। 

दुर्योधन उवाच 


एवमेतन्मया तात भावितं दोषमात्मनि । 

दृष्टवा प्रकृतय: सर्वा अर्थमानेन पूजिता: ।। १२ ।। 

दुर्योधन बोला--पिताजी! मैंने भी अपने हृदयमें इस दोष (प्रजाके विरोधी होने)-की 
सम्भावना की थी और इसीपर दृष्टि रखकर पहले ही अर्थ और सम्मानके द्वारा समस्त 
प्रजाका आदर-सत्कार किया है ।। १२ ।। 

ध्रुवमस्मत्सहायास्ते भविष्यन्ति प्रधानतः । 

अर्थवर्ग: सहामात्यो मत्संस्थोड्द्य महीपते ।। १३ ।। 

अब निश्चय ही वे लोग मुख्यतासे हमारे सहायक होंगे। राजन! इस समय खजाना और 
मन्त्रिमण्डल हमारे ही अधीन हैं ।। १३ ।। 

स भवान्‌ पाण्डवानाशु विवासयितुम्ति । 

मृदुनैवाभ्युपायेन नगरं वारणावतम्‌ ।। १४ ।। 


अतः आप किसी मृदुल उपायसे ही जितना शीघ्र सम्भाव हो, पाण्डवोंको वारणावत 
नगरमें भेज दें ।। १४ ।। 

यदा प्रतिष्ठितं राज्यं मयि राजन्‌ भविष्यति । 

तदा कुन्ती सहापत्या पुनरेष्यति भारत ।। १५ ।। 

भरतवंशके महाराज! जब यह राज्य पूरी तरहसे मेरे अधिकारमें आ जायगा, उस 
समय कुन्तीदेवी अपने पुत्रोंके साथ पुनः: यहाँ आकर रह सकती हैं || १५ ।। 

धृतराष्ट उवाच 

दुर्योधन ममाप्येतद्‌ हृदि सम्परिवर्तते । 

अभिप्रायस्य पापत्वान्नैवं तु विवृणोम्पहम्‌ ।। १६ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--दुर्योधन! मेरे हृदयमें भी यही बात घूम रही है; किंतु हमलोगोंका यह 
अभिप्राय पापपूर्ण है, इसलिये मैं इसे खोलकर कह नहीं पाता ।। १६ ।। 

न च भीष्मो न च द्रोणो न च क्षत्ता न गौतम: । 

विवास्यमानान्‌ कौन्तेयाननुमंस्यन्ति कहिचित्‌ ।। १७ ।। 

मुझे यह भी विश्वास है कि भीष्म, द्रोण, विदुर और कृपाचार्य--इनमेंसे कोई भी 
कुन्तीपुत्रोंको यहाँसे अन्यत्र भेजे जानेकी कदापि अनुमति नहीं देंगे || १७ ।। 

समा हि कौरवेयाणां वयं ते चैव पुत्रक । 

नैते विषममिच्छेयुर्थर्मयुक्ता मनस्विन: ।। १८ ।। 

बेटा! इन सभी कुरुवंशियोंके लिये हमलोग और पाण्डव समान हैं। ये धर्मपरायण 
मनस्वी महापुरुष उनके प्रति विषम व्यवहार करना नहीं चाहेंगे ।। १८ ।। 

ते वयं कौरवेयाणामेतेषां च महात्मनाम्‌ । 

कथं न वध्यतां तात गच्छाम जगतस्तथा ।। १९ |। 

दुर्योधन! यदि हम पाण्डवोंके साथ विषम व्यवहार करेंगे तो सम्पूर्ण कुरुवंशी और ये 
(भीष्म, द्रोण आदि) महात्मा एवं सम्पूर्ण जगत्‌के लोग हमें वध करनेयोग्य क्‍यों न 
समझेंगे ।। १९ ।। 

दुर्योधन उवाच 


मध्यस्थ: सततं भीष्मो द्रोणपुत्रो मयि स्थित: । 

यतः: पुत्रस्ततो द्रोणो भविता नात्र संशय: ।। २० ।। 

दुर्योधन बोला--पिताजी! भीष्म तो सदा ही मध्यस्थ हैं, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा मेरे 
पक्षमें हैं, द्रोणाचार्य भी उधर ही रहेंगे, जिधर उनका पुत्र होगा--इसमें तनिक भी संशय 
नहीं है | २० ।। 

कृप: शारद्वतश्वैव यत एतौ ततो भवेत्‌ । 

द्रोणं च भागिनेयं च न स त्यक्ष्यति करहिचित्‌ ।। २१ ।। 


जिस पक्षमें ये दोनों होंगे, उसी ओर शरद्वानके पुत्र कृपाचार्य भी रहेंगे। वे अपने 
बहनोई द्रोण और भानजे अभ्वत्थामाको कभी छोड़ न सकेंगे || २१ ।। 

क्षत्तार्थबद्धस्त्वस्माकं प्रच्छन्न॑ संयत: परै: । 

न चैक: स समर्थोडस्मान्‌ पाण्डवार्थेडधिबाधितुम्‌ ।। २२ ।। 

विदुर भी हमारे आर्थिक बन्धनमें हैं, यद्यपि वे छिपे-छिपे हमारे शत्रुओंके स्नेहपाशमें 
बँधे हैं। परंतु वे अकेले पाण्डवोंके हितके लिये हमें बाधा पहुँचानेमें समर्थ न हो 
सकेंगे || २२ ।। 

स विस्रब्ध: पाण्डुपुत्रान्‌ सह मात्रा प्रवासय । 

वारणावतमद्यैव यथा यान्ति तथा कुरु || २३ ।। 

इसलिये आप पूर्ण निश्चिन्त होकर पाण्डवोंको उनकी माताके साथ वारणावत भेज 
दीजिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये, जिससे वे आज ही चले जायाँ ।। २३ ।। 

विनिद्रकरणं घोरं हृदि शल्यमिवार्पितम्‌ | 

शोकपावकमुद्धूतं कर्मणैतेन नाशय ।। २४ ।। 

मेरे हृदयमें भयंकर काँटा-सा चुभ रहा है, जो मुझे नींद नहीं लेने देता। शोककी आग 
प्रजवलित हो उठी है, आप (मेरे द्वारा प्रस्तावित) इस कार्यको पूरा करके मेरे हृदयकी 
शोकाग्निको बुझा दीजिये ।। २४ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि दुर्योधनपरामर्शे 
एकचत्वारिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १४१ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपरववके अन्तर्गत जदुगृहपर्वमें दुर्योधनपरामर्शविषयक एक सौ 
इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४१ ॥। 


ऑप---ह-< (_) हक २ 


द्विचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 
धृतराष्ट्रके आदेशसे पाण्डवोंकी वारणावत-यात्रा 


वैशम्पायन उवाच 


ततो दुर्योधनो राजा सर्वा: प्रकृतय: शनै: । 

अर्थमानप्रदानाभ्यां संजहार सहानुज: ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रप्रयुक्तास्ते केचित्‌ कुशलमन्त्रिण: । 

कथयांचक्रिरे रम्यं नगरं वारणावतम्‌ ।। २ ।। 

अयं समाज: सुमहान्‌ रमणीयतमो भुवि । 

उपस्थित: पशुपतेर्नगरे वारणावते ।। ३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर राजा दुर्योधन और उसके छोटे 
भाइयोंने धन देकर तथा आदर-सत्कार करके सम्पूर्ण अमात्य आदि प्रकृतियोंको धीरे-धीरे 
अपने वशमें कर लिया। कुछ चतुर मन्त्री धृतराष्ट्रकी आज्ञासे (चारों ओर) इस बातकी चर्चा 
करने लगे कि “वारणावत नगर बहुत सुन्दर है। उस नगरमें इस समय भगवान्‌ शिवकी 
पूजाके लिये जो बहुत बड़ा मेला लग रहा है, वह तो इस पृथ्वीपर सबसे अधिक मनोहर 
है' || १--३ ।। 
सर्वरत्नसमाकीर्णे पुंसां देशे मनोरमे । 
इत्येवं धृतराष्ट्रस्य वचनाच्चक्रिरे कथा: ।॥। ४ ।। 
“वह पवित्र नगर समस्त रत्नोंसे भरा-पूरा तथा मनुष्योंके मनको मोह लेनेवाला स्थान 
धृतराष्ट्रके कहनेसे वह इस प्रकारकी बातें करने लगे |। ४ ।। 
कथ्यमाने तथा रम्ये नगरे वारणावते । 
गमने पाण्डुपुत्राणां जज्ञे तत्र मतिर्नूप ।। ५ ।। 
राजन्‌! वारणावत नगरकी रमणीयताका जब इस प्रकार (यत्र-तत्र) वर्णन होने लगा, 
तब पाण्डवोंके मनमें वहाँ जानेका विचार उत्पन्न हुआ ।। ५ ।। 

यदा त्वमन्यत नृूपो जातकौतूहला इति । 

उवाचैतानेत्य तदा पाण्डवानम्बिकासुत: ।। ६ ।। 

जब अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रको यह विश्वास हो गया कि पाण्डव वहाँ जानेके लिये 
उत्सुक हैं, तब वे उनके पास जाकर इस प्रकार बोले-- ।। ६ ।। 

(अधीतानि च शास्त्राणि युष्माभिरिह कृत्स्नश: । 

अस्त्राणि च तथा द्रोणाद्‌ गौतमाच्च विशेषत: ।। 

इदमेवंगते ताताश्चिन्तयामि समन्तत: । 

रक्षणे व्यवहारे च राज्यस्य सततं हिते ।॥) 


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ममैते पुरुषा नित्यं कथयन्ति पुनः पुनः । 

रमणीयतमं लोके नगरं वारणावतम्‌ ।। ७ ।। 

“बेटो! तुमलोगोंने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिये। आचार्य द्रोण और कृपसे अस्त्र-शस्त्रोंकी भी 
विशेष-रूपसे शिक्षा प्राप्त कर ली। प्रिय पाण्डवो! ऐसी दशामें मैं एक बात सोच रहा हूँ। 
सब ओरसे राज्यकी रक्षा, राजकीय व्यवहारोंकी रक्षा तथा राज्यके निरन्तर हित-साधनमें 
लगे रहनेवाले मेरे ये मन्त्रीलोग प्रतिदिन बारंबार कहते हैं कि वारणावत नगर संसारमें सबसे 
अधिक सुन्दर है || ७ |। 

ते ताता यदि मन्यध्वमुत्सवं वारणावते । 

सगणा: सान्वयाश्रैव विहरध्वं यथामरा: ।। ८ ।॥। 

'पुत्रो! यदि तुमलोग वारणावत नगरमें उत्सव देखने जाना चाहो तो अपने कुटुम्बियों 
और सेवकवर्गके साथ वहाँ जाकर देवताओंकी भाँति विहार करो ।। ८ ।। 

ब्राह्मणेभ्यश्ष रत्नानि गायकेभ्यश्व सर्वश: । 

प्रयच्छध्वं यथाकामं देवा इव सुवर्चस: ।। ९ ।। 

कंचित्‌ काल विहृत्यैवमनुभूय परां मुदम्‌ । 

इदं वै हास्तिनपुरं सुखिन: पुनरेष्यथ ।। १० ।। 

“ब्राह्मणों और गायकोंको विशेषरूपसे रत्न एवं धन दो तथा अत्यन्त तेजस्वी 
देवताओंके समान कुछ कालतक वहाँ इच्छानुसार विहार करते हुए परम सुख प्राप्त करो। 
तत्पश्चात्‌ पुनः सुखपूर्वक इस हस्तिनापुर नगरमें ही चले आना” ।। ९-१० ।। 

वैशम्पायन उवाच 

धृतराष्ट्रस्य तं काममनुबुध्य युधिष्ठिर: । 

आत्मनश्लासहायत्वं तथेति प्रत्युवाच तम्‌ ।। ११ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! युधिष्छिर धृतराष्ट्रकी उस इच्छाका रहस्य समझ 
गये, परंतु अपनेको असहाय जानकर उन्होंने “बहुत अच्छा” कहकर उनकी बात मान 
ली |। ११ ।। 

ततो भीष्म॑ शांतनवं विदुरं च महामतिम्‌ | 

द्रोणं च बाह्विकं चैव सोमदत्तं च कौरवम्‌ ।। १२ ।। 

कृपमाचार्यपुत्रं च भूरिश्रवसमेव च । 

मान्यानन्यानमात्यांश्र ब्राह्मणांश्न तपोधनान्‌ ।। १३ ।। 

पुरोहितांश्व पौरांक्ष गान्धारीं च यशस्विनीम्‌ | 

युधिष्ठिर: शनैर्दीन उवाचेदं वचस्तदा ।। १४ ।। 

तदनन्तर युधिष्ठिरने शंतनुनन्दन भीष्म, परम बुद्धिमान्‌ विदुर, द्रोण, बाह्विक, कुरुवंशी 
सोमदत्त, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, अन्यान्य माननीय मन्त्रियों, तपस्वी ब्राह्मणों, 


पुरोहितों, पुरवासियों तथा यशस्विनी गान्धारीदेवीसे मिलकर धीरे-धीरे दीनभावसे इस 
प्रकार कहा-- ।। १२--१४ ।। 

रमणीये जनाकीणर्णे नगरे वारणावते । 

सगणास्तत्र यास्यामो धृतराष्ट्रस्य शासनात्‌ ।। १५ ।। 

“हम महाराज धृतराष्ट्रकी आज्ञासे रमणीय वारणावत नगरमें, जहाँ बड़ा भारी मेला लग 
रहा है, परिवारसहित जानेवाले हैं ।। १५ ।। 

प्रसन्नमनस: सर्वे पुण्या वाचो विमुज्चत । 

आशीर्भिब॑हितानस्मान्‌ न पापं प्रसहिष्यते ।। १६ ।। 

“आप सब लोग प्रसन्नचित्त होकर हमें अपने पुण्यमय आशीर्वाद दीजिये। आपके 
आशीर्वादसे हमारी वृद्धि होगी और पापका हमपर वश नहीं चल सकेगा' ।। १६ ।। 

एवमुक्तास्तु ते सर्वे पाण्डुपुत्रेण कौरवा: । 

प्रसन्नवदना भूत्वा तेडन्ववर्तन्त पाण्डवान्‌ ।। १७ ।। 

स्वस्त्यस्तु व: पथि सदा भूतेभ्यश्वैव सर्वश: । 

मा च वो>स्त्वशुभं किंचित्‌ सर्वश: पाण्डुनन्दना: ।। १८ ।। 

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके इस प्रकार कहनेपर वे समस्त कुरुवंशी प्रसन्नचदन होकर 
पाण्डवोंके अनुकूल हो कहने लगे--'पाण्डुकुमारो! मार्गमें सर्वदा सब प्राणियोंसे तुम्हारा 
कल्याण हो। तुम्हें कहींसे किसी प्रकारका अशुभ न प्राप्त हो” || १७-१८ ।। 

ततः कृतस्वस्त्ययना राज्यलम्भाय पार्थिवा: । 

कृत्वा सर्वाणि कार्याणि प्रययुर्वारणावतम्‌ ॥। १९ |। 

तब राज्य-लाभके लिये स्वस्तिवाचन करा समस्त आवश्यक कार्य पूर्ण करके 
राजकुमार पाण्डव वारणावत नगरको गये ।। १९ |। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि वारणावतयात्रायां 
द्विचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुय॒हपर्वमें वारणावतयात्राविषयक एक सौ 
बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४२ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २१ श्लोक हैं) 


ऑपन-सा बक। डे 


त्रिचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


दुर्योधनके आदेशसे पुरोचनका वारणावत नगरमें लाक्षागृह 
बनाना 


वैशम्पायन उवाच 

एवमुक्तेषु राज्ञा तु पाण्डुपुत्रेषु भारत | 

दुर्योधन: परं हर्षमगच्छत्‌ स दुरात्मवान्‌ ॥। १ ।। 

स पुरोचनमेकान्तमानीय भरतर्षभ । 

गृहीत्वा दक्षिणे पाणौ सचिवं वाक्यमब्रवीत्‌ ।। २ ।। 

ममेयं वसुसम्पूर्णा पुरोचन वसुंधरा । 

यथेयं मम तद्वत्‌ ते स तां रक्षितुमहसि ।। ३ ।। 

नहि मे ककश्षिदन्यो5स्ति विश्वासिकतरस्त्वया । 

सहायो येन संधाय मन्त्रयेयं यथा त्वया ।। ४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब राजा धूृतराष्ट्रने पाण्डवोंको इस प्रकार 
वारणावत जानेकी आज्ञा दे दी, तब दुरात्मा दुर्योधनको बड़ी प्रसन्नता हुई। भरतश्रेष्ठ) उसने 
अपने मन्त्री पुरोचनको एकान्तमें बुलाया और उसका दाहिना हाथ पकड़कर कहा, 
'पुरोचन! यह धन-धान्यसे सम्पन्न पृथ्वी जैसे मेरी है, वैसे ही तुम्हारी भी है; अतः तुम्हें 
इसकी रक्षा करनी चाहिये। मेरा तुमसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा विश्वासपात्र सहायक नहीं 
है, जिससे मिलकर इतनी गुप्त सलाह कर सकूँ, जैसे तुम्हारे साथ करता हूँ || १--४ ।। 

संरक्ष तात मन्त्र च सपत्नांश्व ममोद्धर । 

निपुणेनाभ्युपायेन यद्‌ ब्रवीमि तथा कुरु ।। ५ ।। 

“तात! तुम मेरी इस गुप्त मन्त्रणाकी रक्षा करो--इसे दूसरोंपर प्रकट न होने दो और 
अच्छे उपायद्वारा मेरे शत्रुओंको उखाड़ फेंको। मैं तुमसे जो कहता हूँ, वही करो || ५ ।। 







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पाण्डवा धृतराष्ट्रेण प्रेषिता वारणावतम्‌ । 

उत्सवे विहरिष्यन्ति धृतराष्ट्रस्य शासनात्‌ ।। ६ ।। 

'पिताजीने पाण्डवोंको वारणावत जानेकी आज्ञा दी है। वे उनके आदेशसे (कुछ 
दिनोंतक) वहाँ रहकर उत्सवमें भाग लेंगे--मेलेमें घूमे-फिरेंगे || ६ ।। 

स त्वं रासभयुक्तेन स्यन्दनेनाशुगामिना | 

वारणावतमद्यैव यथा यासि तथा कुरु ।। ७ ।। 

“अतः तुम खच्चर जुते हुए शीघ्रगामी रथपर बैठकर आज ही वहाँ पहुँच जाओ, ऐसी 
चेष्टा करो || ७ ।। 

तत्र गत्वा चतुःशालं॑ गृहं परमसंवृतम्‌ | 

नगरोपान्तमाश्रित्य कारयेथा महाधनम्‌ ।। ८ ।। 

“वहाँ जाकर नगरके निकट ही एक ऐसा भवन तैयार कराओ जिसमें चारों ओर कमरे 
हों तथा जो सब ओरसे सुरक्षित हो। वह भवन बहुत धन खर्च करके सुन्दर-से-सुन्दर 
बनवाना चाहिये ।। ८ ।। 

शणसर्जरसादीनि यानि द्रव्याणि कानिचित्‌ | 

आग्नेयान्युत सनन्‍्तीह तानि तत्र प्रदापय ।। ९ |। 


“सन तथा राल आदि, जो कोई भी आग भड़कानेवाले द्रव्य संसारमें हैं, उन सबको उस 
मकानकी दीवारोंमें लगवाना ।। ९ ।। 

सर्पिस्तैलवसाभिक्षु लाक्षया चाप्यनल्पया । 

मृत्तिकां मिश्रयित्वा त्वं लेपं कुड्येषु दापय ।। १० ।। 

'घी, तेल, चर्बी तथा बहुत-सी लाह मिट्टीमें मिलवाकर उसीसे दीवारोंको 
लिपवाना || १० || 

शणं तैलं घृतं चैव जतु दारूणि चैव हि । 

तस्मिन्‌ वेश्मनि सर्वाणि निक्षिपेथा: समन्‍्ततः ।। ११ ।। 

यथा च तन्न पश्येरन्‌ परीक्षन्तोडपि पाण्डवा: । 

आग्नेयमिति तत्‌ कार्यमपि चान्येडपि मानवा: ।। १२ |। 

वेश्मन्येवं कृते तत्र गत्वा तान्‌ परमार्चितान्‌ | 

वासयेथा: पाण्डवेयान्‌ कुन्तीं च ससुहृज्जनाम्‌ ।। १३ ।। 

“उस घरके चारों ओर सन, तेल, घी, लाह और लकड़ी आदि सब वस्तुएँ संग्रह करके 
रखना। अच्छी तरह देखभाल करनेपर भी पाण्डवों तथा दूसरे लोगोंको भी इस बातकी 
शंका न हो कि यह घर आग भड़कानेवाले पदार्थोंसे बना है, इस तरह पूरी सावधानीके 
साथ उस राजभवनका निर्माण कराना चाहिये। इस प्रकार महल बन जानेपर जब पाण्डव 
वहाँ जाये, तब उन्हें तथा सुहृदोंसहित कुन्तीदेवीको भी बड़े आदर-सत्कारके साथ उसीमें 
रखना || ११--१३ |। 

आसनानि च दिव्यानि यानानि शयनानि च । 

विधातव्यानि पाण्डूनां यथा तुष्येत वै पिता ।। १४ ।। 

यथा च तन्न जानन्ति नगरे वारणावते । 

तथा सर्व विधातव्यं यावत्‌ कालस्य पर्यय: ॥। १५ ।। 

“वहाँ पाण्डवोंके लिये दिव्य आसन, सवारी और शय्या आदिकी ऐसी (सुन्दर) व्यवस्था 
कर देना, जिसे सुनकर मेरे पिताजी संतुष्ट हों। जबतक समय बदलनेके साथ ही अपने 
अभीष्ट कार्यकी सिद्धि न हो जाय, तबतक सब काम इस तरह करना चाहिये कि वारणावत 
नगरके लोगोंको इसके विषयमें कुछ भी ज्ञात न हो सके ।। १४-१५ ।। 

ज्ञात्वा च तान्‌ सुविश्वस्ताउशयानानकुतो भयान्‌ । 

अग्निस्त्वया ततो देयो द्वारतस्तस्य वेश्मन: ।। १६ ।। 

“जब तुम्हें यह भलीभाँति ज्ञात हो जाय कि पाण्डवलोग यहाँ विश्वस्त होकर रहने लगे 
हैं, इनके मनमें कहींसे कोई खटका नहीं रह गया है, तब उनके सो जानेपर घरके दरवाजेकी 
ओरसे आग लगा देना ।। १६ ।। 

दहामाने स्वके गेहे दग्धा इति ततो जना: । 

न गर्हयेयुरस्मान्‌ वै पाण्डवार्थाय कहिचित्‌ ।। १७ ।। 


“उस समय लोग यही समझेंगे कि अपने ही घरमें आग लगी थी, उसीमें पाण्डव जल 
गये। अतः वे पाण्डवोंकी मृत्युके लिये कभी हमारी निन्दा नहीं करेंगे! || १७ ।। 

स तथेति प्रतिज्ञाय कौरवाय पुरोचन: । 

प्रायाद्‌ रासभयुक्तेन स्थन्दनेनाशुगामिना ।। १८ ।। 

पुरोचनने दुर्योधनके सामने वैसा ही करनेकी प्रतिज्ञा की एवं खच्चर जुते हुए शीघ्रगामी 
रथपर आरूढ़ हो वहाँसे वारणावत नगरके लिये प्रस्थान किया ।। १८ ।। 

स गत्वा त्वरितं राजन्‌ दुर्योधनमते स्थित: । 

यथोक्तं राजपुत्रेण सर्व चक्रे पुरोचन: ।। १९ ।। 

राजन! पुरोचन दुर्योधनकी रायके अनुसार चलता था। वारणावतमें शीघ्र ही पहुँचकर 
उसने राजकुमार दुर्योधनके कथनानुसार सब काम पूरा कर लिया ।। १९ |। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि पुरोचनोपदेशे 
त्रिचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जदुगृहपर्वमें पुरोचनके प्रति दुर्योधनकृत 
उपदेशविषयक एक सौ तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४३ ॥ 


अपना बछ। | अड-#-क- 


चतुश्नत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


पाण्डवोंकी वारणावत-यात्रा तथा उनको विदुरका गुप्त- 
उपदेश 


वैशम्पायन उवाच 


पाण्डवास्तु रथान्‌ युक्तान्‌ सदश्वैरनिलोपमै: । 

आरोहमाणा भीष्मस्य पादौ जगृहुरार्तवत्‌ ।। १ ।। 

राज्ञश्न धृतराष्ट्रस्य द्रोणस्प च महात्मन: । 

अन्‍्येषां चैव वृद्धानां कृपस्य विदुरस्थ च ॥। २ ।। 

एवं सर्वान्‌ कुरून्‌ वृद्धानभिवाद्य यतव्रता: । 

समालिज्गय समानान्‌ वै बालैश्लाप्पभिवादिता: || ३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! वायुके समान वेगशाली उत्तम घोड़ोंसे जुते हुए 
रथोंपर चढ़नेके लिये उद्यत हो उत्तम व्रतको धारण करनेवाले पाण्डवोंने अत्यन्त दुःखी-से 
होकर पितामह भीष्मके दोनों चरणोंका स्पर्श किया। तत्पश्चात्‌ राजा धृतराष्ट्र, महात्मा द्रोण, 
कृपाचार्य, विदुर तथा दूसरे बड़े-बूढ़ोंको प्रणाम किया। इस प्रकार क्रमश: सभी वृद्ध 
कौरवोंको प्रणाम करके समान अवस्थावाले लोगोंको हृदयसे लगाया। फिर बालकोंने 
आकर पाण्डवोंको प्रणाम किया || १--३ ।। 

सर्वा मातृस्तथा55पृच्छद्य कृत्वा चैव प्रदक्षिणम्‌ । 

सर्वाः प्रकृतयश्चैव प्रययुर्वारणावतम्‌ ।। ४ ।। 

इसके बाद सब माताओंसे आज्ञा ले उनकी परिक्रमा करके तथा समस्त प्रजाओंसे भी 
विदा लेकर वे वारणावत नगरकी ओर प्रस्थित हुए ।। ४ ।। 

विदुरश्न महाप्राज्ञस्तथान्ये कुरुपुड्रवा: । 

पौराश्च पुरुषव्याप्रानन्वीयु: शोककर्शिता: ।। ५ ।। 

तत्र केचिद्‌ ब्रुवन्ति सम ब्राह्मणा निर्भयास्तदा । 

दीनान्‌ दृष्टवा पाण्डुसुतानतीव भृशदु:खिता: ।। ६ ।। 

उस समय महाज्ञानी विदुर तथा कुरुकुलके अन्य श्रेष्ठ पुरुष एवं पुरवासी मनुष्य 
शोकसे कातर हो नरश्रेष्ठ पाण्डवोंके पीछे-पीछे चलने लगे। तब कुछ निर्भय ब्राह्मण 
पाण्डवोंको अत्यन्त दीन-दशामें देखकर बहुत दुःखी हो इस प्रकार कहने लगे-- ।। ५-६ ।। 

विषम पश्यते राजा सर्वथा स सुमन्दधी: । 

कौरव्यो धृतराष्ट्रस्तु न च धर्म प्रपश्यति ।। ७ ।। 


“अत्यन्त मन्दबुद्धि कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र पाण्डवोंको सर्वथा विषम दृष्टिसे देखते हैं। 
धर्मकी ओर उनकी दृष्टि नहीं है ।। ७ ।। 

न हि पापमपापात्मा रोचयिष्यति पाण्डव: । 

भीमो वा बलिनां श्रेष्ठ; कौन्तेयो वा धनंजय: ।। ८ ।। 

“निष्पाप अन्त:ःकरणवाले पाण्डुकुमार युधिष्ठिर, बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन अथवा 
कुन्तीनन्दन अर्जुन कभी पापसे प्रीति नहीं करेंगे || ८ ।। 

कुत एव महात्मानौ माद्रीपुत्रौ करिष्यत: । 

तान्‌ राज्यं पितृतः प्राप्तान्‌ धृतराष्ट्रो न मृष्यते ।। ९ ।। 

'फिर महात्मा दोनों माद्रीकुमार कैसे पाप कर सकेंगे। पाण्डवोंको अपने पितासे जो 
राज्य प्राप्त हुआ था, धृतराष्ट्र उसे सहन नहीं कर रहे हैं ।। ९ ।। 

अधर्म्यमिदमत्यन्तं कथं भीष्मोडनुमन्यते । 

विवास्यमानानस्थाने नगरे यो$भिमन्यते ।। १० ।। 

“इस अत्यन्त अधर्मयुक्त कार्यके लिये भीष्मजी कैसे अनुमति दे रहे हैं? पाण्डवोंको 
अनुचितरूपसे यहाँसे निकालकर जो रहनेयोग्य स्थान नहीं, उस वारणावत नगरमें भेजा जा 
रहा है! फिर भी भीष्मजी चुपचाप क्‍यों इसे मान लेते हैं? || १० ।। 

पितेव हि नृपो5स्माकमभूच्छांतनव: पुरा । 

विचित्रवीर्यो राजर्षि: पाण्डुश्न॒ कुरुनन्दन: ।। ११ ।। 

“पहले शंतनुकुमार राजर्षि विचित्रवीर्य तथा कुरुकुलको आनन्द देनेवाले महाराज 
पाण्डु हमारे राजा थे। केवल राजा ही नहीं, वे पिताके समान हमारा पालन-पोषण करते 
थे।। ११ |। 

स तस्मिन्‌ पुरुषव्याप्रे देवभावं गते सति । 

राजपुत्रानिमान्‌ बालान्‌ धृतराष्ट्रो न मृष्यते ।। १२ ।। 

“नरश्रेष्ठ पाण्डु जब देवभाव ([स्वर्ग)-को प्राप्त हो गये हैं, तब उनके इन छोटे-छोटे 
राजकुमारोंका भार धृतराष्ट्र नहीं सहन कर पा रहे हैं ।। १२ ।। 

वयमेतदनिच्छन्त: सर्व एव पुरोत्तमात्‌ | 

गृहान्‌ विहाय गच्छामो यत्र गन्ता युधिष्ठिर: ।। १३ ।। 

“हमलोग यह नहीं चाहते, इसलिये हम सब घर-द्वार छोड़कर इस उत्तम नगरीसे वहीं 
चलेंगे, जहाँ युधिष्ठिर जा रहे हैं! || १३ ।। 

तांस्तथावादिन: पौरान्‌ दुःखितान्‌ दुःखकर्शित: । 

उवाच मनसा ध्यात्वा धर्मराजो युधिष्ठिर: ।। १४ ।। 

शोकसे दुर्बल धर्मराज युधिष्ठिर अपने लिये दुःखी उन पुरवासियोंको ऐसी बातें करते 
देख मन-ही-मन कुछ सोचकर उनसे बोले-- ।। १४ ।। 

पिता मान्यो गुरु: श्रेष्ठी यदाह पृथिवीपति: । 


अशड्कमानैस्तत्‌ कार्यमस्माभिरिति नो व्रतम्‌ ।। १५ ।। 

“बन्धुओ! राजा धृतराष्ट्र मेरे माननीय पिता, गुरु एवं श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे जो आज्ञा दें, 
उसका हमें नि:शंक होकर पालन करना चाहिये; यही हमारा व्रत है ।। १५ ।। 

भवन्त: सुहृदो5स्माकमस्मान्‌ कृत्या प्रदक्षिणम्‌ 

प्रतिनन्द्य तथाशीर्भिनिविर्तध्वं यथा गृहम्‌ ।। १६ ।। 

यदा तु कार्यमस्माकं भवद्धिरुपपत्स्यते । 

तदा करिष्यथास्माकं प्रियाणि च हितानि च ॥। १७ ।। 

“आपलोग हमारे हितचिन्तक हैं, अतः हमें अपने आशीर्वादसे संतुष्ट करें और हमें 
दाहिने करते हुए जैसे आये थे, वैसे ही अपने घरको लौट जायँ। जब आपलोगोंके द्वारा 
हमारा कोई कार्य सिद्ध होनेवाला होगा, उस समय आप हमारे प्रिय और हितकारी कार्य 
कीजियेगा' ।। 

एवमुक्तास्तदा पौरा: कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्‌ 

आशीर्भिश्चवाभिनन्द्यैताञ्जमग्मुर्नगरमेव हि ।। १८ ।। 

उनके यों कहनेपर पुरवासी उन्हें आशीर्वादसे प्रसन्न करते हुए दाहिने करके नगरको ही 
लौट गये ।। १८ ।। 

पौरेषु विनिवृत्तेषु विदुर: सत्यधर्मवित्‌ | 

बोधयन्‌ पाण्डवश्रेष्ठमिदं वचनमब्रवीत्‌ ।। १९ ।। 

पुरवासियोंके लौट जानेपर सत्यधर्मके ज्ञाता विदुरजी पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिरको 
दुर्योधनके कपटका बोध कराते हुए इस प्रकार बोले ।। १९ ।। 

प्राज्ञ: प्राज्प्रलापज्ञ: प्रलापज्ञमिदं वच: । 

प्राज्ञ प्राज्ञ: प्रलापज्ञ: प्रलापज्ञं वचो5ब्रवीत्‌ ।। २० ।। 

विदुरजी बुद्धिमान्‌ तथा मूढ़ म्लेच्छोंकी निरर्थक-सी प्रतीत होनेवाली भाषाके भी ज्ञाता 
थे। इसी प्रकार युधिष्ठिर भी उस म्लेच्छभाषाको समझ लेनेवाले तथा बुद्धिमान्‌ थे। अतः 
उन्होंने युधिष्ठिस्से ऐसी कहनेयोग्य बात कही, जो म्लेच्छभाषाके जानकार एवं बुद्धिमान्‌ 
पुरुषको उस भाषामें कहे हुए रहस्यका ज्ञान करा देनेवाली थी, किंतु जो उस भाषाके 
अनभिभक्ञ पुरुषको वास्तविक अर्थका बोध नहीं कराती थी ।। २० ।। 

यो जानाति परप्रज्ञां नीतिशास्त्रानुसारिणीम्‌ । 

विज्ञायेह तथा कुर्यादापद॑ निस्तरेद्‌ यथा ।। २१ ।। 

“जो शत्रुकी नीति-शास्त्रका अनुसरण करनेवाली बुद्धिको समझ लेता है, वह उसे 
समझ लेनेपर कोई ऐसा उपाय करे, जिससे वह यहाँ शत्रुजनित संकटसे बच सके ।। 

अलोहं निशितं शस्त्र शरीरपरिकर्तनम्‌ । 

यो वेत्ति न तु त॑ घ्नन्ति प्रतिघातविदं द्विष: ।। २२ ।। 


“एक ऐसा तीखा शस्त्र है, जो लोहेका बना तो नहीं है, परंतु शरीरको नष्ट कर देता है। 
जो उसे जानता है, ऐसे उस शस्त्रके आघातसे बचनेका उपाय जाननेवाले पुरुषको शत्रु नहीं 


मार सकतेः || २२ ।। 

कक्षघ्न: शिशिरघ्नश्ष महाकक्षे बिलौकस: । 

न दहेदिति चात्मानं यो रक्षति स जीवति ॥। २३ ।। 

“घास-फ़ूस तथा सूखे वृक्षोंवाले जंगलको जलाने और सर्दीको नष्ट कर देनेवाली आग 
विशाल वनमें फैल जानेपर भी बिलमें रहनेवाले चूहे आदि जन्तुओंको नहीं जला सकती-- 
यों समझकर जो अपनी रक्षाका उपाय करता है, वही जीवित रहता है ।। २३ ।। 

नाचक्षुवेत्ति पन्थानं नाचक्षुविन्दते दिश: । 

नाधृतिर्बुद्धिमाप्रोति बुध्यस्वैवं प्रबोधित: ।॥। २४ ।। 

“जिसके आँखें नहीं हैं, वह मार्ग नहीं जान पाता; अंधेको दिशाओंका ज्ञान नहीं होता 
और जो धैर्य खो देता है, उसे सदबुद्धि नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार मेरे समझानेपर तुम मेरी 
बातको भलीभाँति समझ लोः || २४ ।। 

अनाप्तैर्दत्तमादत्ते नर: शस्त्रमलोहजम्‌ | 

श्वाविच्छरणमासाद्य प्रमुच्येत हुताशनात्‌ ।। २५ ।। 

'शत्रुओंके दिये हुए बिना लोहेके बने शस्त्रको जो मनुष्य ग्रहण कर लेता है, वह 
साहीके बिलमें घुसकर आगसे बच जाता हैं || २५ || 

चरन्‌ मार्गान्‌ विजानाति नक्षत्रैविन्दते दिश: | 

आत्मना चात्मन: पञज्च पीडयन्‌ नानुपीड्यते ।। २६ ।। 

“मनुष्य घूम-फिरकर रास्तेका पता लगा लेता है, नक्षत्रोंस दिशाओंको समझ लेता है 
तथा जो अपनी पाँचों इन्द्रियोंका स्वयं ही दमन करता है, वह शत्रुओंसे पीड़ित नहीं 
होता ।। २६ ।। 

एवमुक्त: प्रत्युवाच धर्मराजो युधिष्ठिर: । 

विदुरं विदुषां श्रेष्ठ ज्ञातमित्येव पाण्डव: ।। २७ ।। 

इस प्रकार कहे जानेपर पाण्डुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिरने दिद्वानोंमें श्रेष्ठ विदुरजीसे कहा 
--'मैंने आपकी बात अच्छी तरह समझ ली” ।। २७ ।। 

अनुशिक्ष्यानुगम्यैतान्‌ कृत्वा चैव प्रदक्षिणम्‌ । 

पाण्डवानभ्यनुज्ञाय विदुर: प्रययौ गृहान्‌ ।। २८ ।। 

इस तरह पाण्डवोंको बारंबार कर्तव्यकी शिक्षा देते हुए कुछ दूरतक उनके पीछे-पीछे 
जाकर विदुरजी उनको जानेकी आज्ञा दे उन्हें अपने दाहिने करके पुनः अपने घरको लौट 
गये ।। २८ ।। 

निवत्ते विदुरे चापि भीष्मे पौरजने तथा । 


अजातशशत्रुमासाद्य कुन्ती वचनमब्रवीत्‌ ।। २९ ।। 

विदुर, भीष्मजी तथा नगरनिवासियोंके लौट जानेपर कुन्ती अजातशत्रु युधिष्ठिरके पास 
जाकर बोली-- || २९ || 

क्षत्ता यदब्रवीद्‌ वाक्‍्यं जनमध्येडब्रुवन्निव । 

त्वया च स तथेत्युक्तो जानीमो न च तद्‌ वयम्‌ ।। ३० ।। 

“बेटा! विदुरजीने सब लोगोंके बीचमें जो अस्पष्ट-सी बात कही थी, उसे सुनकर तुमने 
“बहुत अच्छा' कहकर स्वीकार किया था; परंतु हमलोग वह बात अबतक नहीं समझ पा 
रहे हैं || ३० ।। 

यदीदं शक्‍्यमस्माभिज्ञातुं न च सदोषवत्‌ | 

श्रोतुमिच्छामि तत्‌ सर्व संवादं तव तस्य च ॥। ३१ ।। 

“यदि उसे हम भी समझ सकें और हमारे जाननेसे कोई दोष न आता हो तो तुम्हारी 
और उनकी सारी बातचीतका रहस्य मैं सुनना चाहती हूँ” ।। ३१ ।। 

युधिछिर उवाच 
गृहादग्निश्च बोद्धव्य इति मां विदुरोडब्रवीत्‌ । 
पन्थाश्च वो नाविदित: कश्रित्‌ स्यादिति धर्मधी: ।। ३२ ।। 

युधिष्ठिरने कहा--माँ! जिनकी बुद्धि सदा धर्ममें ही लगी रहती है, उन विदुरजीने 
(सांकेतिक भाषामें) मुझसे कहा था, “तुम जिस घरमें ठहरोगे, वहाँसे आगका भय है, यह 
बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिये। साथ ही वहाँका कोई भी मार्ग ऐसा न हो, जो तुमसे 
अपरिचित रहे ।। ३२ ।। 

जितेन्द्रियश्च वसुधां प्राप्स्यतीति च मेडब्रवीत्‌ । 

विज्ञातमिति तत्‌ सर्व प्रत्युक्तो विदुरो मया ।। ३३ ।। 

“यदि तुम अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखोगे तो सारी पृथ्वीका राज्य प्राप्त कर लोगे, यह 
बात भी उन्होंने मुझसे बतायी थी और इन्हीं बातोंके लिये मैंने विदुरजीको उत्तर दिया था 
कि “मैं सब समझ गया” ।। ३३ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


अष्टमे5हनि रोहिण्यां प्रयाता: फाल्गुनस्य ते । 

वारणावतमासाद्य ददृशुर्नागरं जनम्‌ ।। ३४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पाण्डवोंने फाल्गुन शुक्ला अष्टमीके दिन 
रोहिणी नक्षत्रमें यात्रा की थी। वे यथासमय वारणावत पहुँचकर वहाँके नागरिकोंसे 
मिले ।। ३४ ।। 


इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि वारणावतगमने 
चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जदुगृहपर्वमें पाण्डवोंकी 
वारणावतयात्राविषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४४ ॥। 


अपन करा बछ। ऑफ कातज 


३. यहाँ संकेतसे यह बात बतायी गयी है कि शत्रुओंने तुम्हारे लिये एक ऐसा भवन तैयार करवाया है, जो आगको 
भड़कानेवाले पदार्थोंसे बना है। शस्त्रका शुद्धरूप सस्त्र है, जिसका अर्थ घर होता है। 

२. तात्पर्य यह है, वहाँ जो तुम्हारा पार्श्ववर्ती होगा, वह पुरोचन ही तुम्हें आगमें जलाकर नष्ट करना चाहता है। तुम उस 
आगसे बचनेके लिये एक सुरंग तैयार करा लेना। कक्षघ्नका शुद्ध रूप कुक्षिघ्न है, जिसका अर्थ है कुक्षिचर या पार्श्ववर्ती। 

3. अर्थात्‌ दिशा आदिका ठीक ज्ञान पहलेसे ही कर लेना, जिससे रातमें भटकना न पड़े। 

४. तात्पर्य यह कि उस सुरंगसे यदि तुम बाहर निकल जाओगे तो लाक्षागृहमें लगी हुई आगसे बच सकोगे। 

५. अर्थात्‌ यदि तुम पाँचों भाई एकमत रहोगे तो शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। 


पजञज्चचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


वारणावतमें पाण्डवोंका स्वागत, पुरोचनका और युधिछिर र्वक 
उन्हें ठहराना, लाक्षागृहमें निवासकी व्यवस्था और युधिष्ठि 
एवं भीमसेनकी बातचीत 


वैशम्पायन उवाच 


ततः सर्वा: प्रकृतयो नगराद्‌ वारणावतात्‌ । 

सर्वमड्नलसंयुक्ता यथाशास्त्रमतन्द्रिता: । १ ।। 

श्रुत्वा55गतान्‌ पाण्डुपुत्रान्‌ नानायानै: सहस्रश: । 

अभिज ममुर्नरश्रेष्ठान्‌ क्षुत्वैव परया मुदा ।। २ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! नरश्रेष्ठ पाण्डवोंके शुभागमनका समाचार 
सुनकर वारणावत नगरसे वहाँके समस्त प्रजाजन अत्यन्त प्रसन्न हो आलस्य छोड़कर 
शास्त्रविधिके अनुसार सब तरहकी मांगलिक वस्तुओंकी भेंट लेकर हजारोंकी संख्यामें 
नाना प्रकारकी सवारियोंके द्वारा उनकी अगवानीके लिये आये ।। १-२ ।। 

ते समासाद्य कौन्तेयान्‌ वारणावतका जना: । 

कृत्वा जयाशिष: सर्वे परिवार्यावतस्थिरे ।। ३ ।। 

कुन्तीकुमारोंके निकट पहुँचकर वारणावतके सब लोग उनकी जय-जयकार करते और 
आशीर्वाद देते हुए उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये ।। ३ ।। 

तैर्वृतः पुरुषव्याप्रो धर्मराजो युधिष्ठिर: । 

विबभौ देवसंकाशो वज्रपाणिरिवामरै: ।। ४ ।। 

उनसे घिरे हुए पुरुषसिंह धर्मराज युधिष्ठिर, जो देवताओंके समान तेजस्वी थे, इस 
प्रकार शोभा पा रहे थे मानो देवमण्डलीके बीच साक्षात्‌ वजपाणि इन्द्र हों ।। ४ ।। 

सत्कृताश्चैव पौरैस्ते पौरान्‌ सत्कृत्य चानघ । 

अलंकृतं जनाकीर्ण विविशुर्वारणावतम्‌ ।। ५ ।। 

निष्पाप जनमेजय! पुरवासियोंने पाण्डवोंका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। फिर 
पाण्डवोंने भी नागरिकोंको आदरपूर्वक अपनाकर जनसमुदायसे भरे हुए सजे-सजाये 
वारणावत नगरमें प्रवेश किया ।। ५ ।। 

ते प्रविश्य पुरी वीरास्तूर्ण जग्मुरथो गृहान्‌ । 

ब्राह्मणानां महीपाल रतानां स्वेषु कर्मसु |। ६ ।। 

राजन! नगरमें प्रवेश करके वीर पाण्डव सबसे पहले शीघ्रतापूर्वक स्वधर्मपरायण 
ब्राह्मणोंके घरोंमें गये || ६ ।। 


नगराधिकृतानां च गृहाणि रथिनां तदा । 

उपतस्थुर्नरश्रेष्ठा वैश्यशूद्रगृहाण्यपि ।। ७ ।। 

तत्पश्चात्‌ वे नरश्रेष्ठ कुन्तीकुमार नगरके अधिकारी क्षत्रियोंके यहाँ गये। इसी प्रकार वे 
क्रमश: वैश्यों और शूद्रोंके घरोंपर भी उपस्थित हुए ।। ७ ।। 

अर्चिताश्च नरै: पौरै: पाण्डवा भरतर्षभ | 

जग्मुरावसथं पश्चात्‌ पुरोचनपुरस्सरा: ।। ८ ।। 

भरतश्रेष्ठ) नगरनिवासी मनुष्योंद्वारा पूजित एवं सम्मानित हो पाण्डवलोग पुरोचनको 
आगे करके डेरेपर गये ।। ८ ।। 

तेभ्यो भक्ष्याणि पानानि शयनानि शुभानि च | 

आसनानि च मुख्यानि प्रददौ स पुरोचन: ।। ९ ।। 

वहाँ पुरोचनने उनके लिये खाने-पीनेकी उत्तम वस्तुएँ, सुन्दर शय्याएँ और श्रेष्ठ आसन 
प्रस्तुत किये ।। ९ ।। 





तत्र ते सत्कृतास्तेन सुमहार्हपरिच्छदा: । 

उपास्यमाना: पुरुषैरूषु: पुरनिवासिभि: | १० || 

उस भवनमें पुरोचनद्वारा उनका बड़ा सत्कार हुआ। वे अत्यन्त बहुमूल्य सामग्रियोंका 
उपयोग करते थे और बहुत-से नगरनिवासी श्रेष्ठ पुरुष उनकी सेवामें उपस्थित रहते थे। इस 


प्रकार वे (बड़े आनन्दसे) वहाँ रहने लगे ।। १० ।। 

दशरात्रोषितानां तु तत्र तेषां पुरोचन: । 

निवेदयामास गृहं शिवाख्यमशिवं तदा ।। ११ ।। 

दस दिनोंतक वहाँ रह लेनेके पश्चात्‌ पुरोचनने पाण्डवोंसे उस नूतन गृहके सम्बन्धमें 
चर्चा की, जो कहनेको तो 'शिवभवन' था, परंतु वास्तवमें अशिव (अमंगलकारी) 
था ।। ११ || 

तत्र ते पुरुषव्याप्रा विविशु: सपरिच्छदा: । 

पुरोचनस्यथ वचनात्‌ कैलासमिव गुहुका: ।। १२ ।। 

पुरोचनके कहनेसे वे पुरुषसिंह पाण्डव अपनी सब सामग्रियों और सेवकोंके साथ उस 
नये भवनमें गये; मानो गुह्वकगण कैलास पर्वतपर जा रहे हों ।। १२ ।। 

तच्चागारमभिप्रेक्ष्य सर्वधर्मभूतां वर: । 

उवाचाग्नेयमित्येवं भीमसेनं युधिष्ठिर: ।। १३ ।। 

उस घरको अच्छी तरह देखकर समस्त धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिरने भीमसेनसे कहा 
--'भाई! यह भवन तो आग भड़कानेवाली वस्तुओंसे बना जान पड़ता है || १३ ।। 

जिप्राणो5स्य वसागन्ध॑ सर्पिर्जतुविमिश्रितम्‌ । 

कृतं हि व्यक्तमाग्नेयमिदं वेश्म परंतप ।। १४ ।। 

'शत्रुओंको संताप देनेवाले भीमसेन! मुझे इस घरकी दीवारोंसे घी और लाह मिली हुई 
चर्बीकी गन्ध आ रही है। अतः स्पष्ट जान पड़ता है कि इस घरका निर्माण अग्निदीपक 
पदार्थोंसे ही हुआ है || १४ ।। 

शणसर्जरसंव्यक्तमानीय गृहकर्मणि । 

मुज्जबल्वजवंशादि द्रव्यं सर्व घृतोक्षितम्‌ ।। १५ ।। 

शिल्पिभि: सुकृतं ह्ााप्तैर्विनीतैर्वेश्मकर्मणि । 

विश्वस्तं मामयं पापो दग्धुकाम: पुरोचन: ।। १६ ।। 

तथा हि वर्तते मन्द: सुयोधनवशे स्थित: । 

इमां तुतां महाबुद्धिर्विंदुरो दृष्टवांस्तथा ।। १७ ।। 

आपदं तेन मां पार्थ स सम्बोधितवान्‌ पुरा । 

ते वयं बोधितास्तेन नित्यमस्मद्धितैषिणा ।। १८ ।। 

पित्रा कनीयसा स्नेहाद्‌ बुद्धिमन्तो$शिवं गृहम्‌ । 

अनार्य: सुकृतं गूढैर्दु्योधनवशानुगै: ।। १९ ।। 

“गृहनिर्माणके कर्ममें सुशिक्षित एवं विश्वसनीय कारीगरोंने अवश्य ही घर बनाते समय 
सन, राल, मूँज, बल्वज (मोटे तिनकोंवाली घास) और बाँस आदि खब द्रव्योंको घीसे 
सींचकर बड़ी खूबीके साथ इन सबके द्वारा इस सुन्दर भवनकी रचना की है। यह मन्दबुद्धि 
पापी पुरोचन दुर्योधनकी आज्ञाके अधीन हो सदा इस घातमें लगा रहता है कि जब हमलोग 


विश्वस्त होकर सोये हों, तब वह आग लगाकर (घरके साथ ही) हमें जला दे। यही उसकी 
इच्छा है। भीमसेन! परम बुद्धिमान्‌ विदुरजीने हमारे ऊपर आनेवाली इस विपत्तिको 
यथार्थरूपमें समझ लिया था; इसीलिये उन्होंने पहले ही मुझे सचेत कर दिया। विदुरजी 
हमारे छोटे पिता और सदा हमलोगोंका हित चाहनेवाले हैं। अतः उन्होंने स्नेहवश हम 
बुद्धिमानोंको इस अशिव (अमंगलकारी) गृहके सम्बन्धमें, जिसे दुर्योधनके वशवर्ती दुष्ट 
कारीगरोंने छिपकर कौशलसे बनाया है, पहले ही सब कुछ समझा दिया” || १५--१९ |। 
भीमसेन उवाच 
यदीदं गृहमाग्नेयं विहितं मन्यते भवान्‌ | 
तथैव साधु गच्छामो यत्र पूर्वोषिता वयम्‌ ।। २० ।। 
भीमसेन बोले--भैया! यदि आप यह मानते हों कि इस घरका निर्माण अग्निको 
उद्दीप्त करनेवाली वस्तुओंसे हुआ है तो हमलोग जहाँ पहले रहते थे, कुशलपूर्वक पुनः उसी 
घरमें क्यों न लौट चलें? || २० ।। 
युधिछिर उवाच 


इह यत्तैर्निराकारैर्वस्तव्यमिति रोचये । 

अप्रमत्तैविचिन्वद्धिर्गतिमिष्टां ध्ुवामित: ।। २१ ।। 

युधिष्ठिर बोले--भाई! हमलोगोंको यहाँ अपनी बाह्य चेष्टाओंसे मनकी बात प्रकट न 
करते हुए और यहाँसे भाग छूटनेके लिये मनो<नुकूल निश्चित मार्गका पता लगाते हुए पूरी 
सावधानीके साथ यहीं रहना चाहिये। मुझे ऐसा करना ही अच्छा लगता है || २१ ।। 

यदि विन्देत चाकारमस्माकं स पुरोचन: । 

क्षिप्रकारी ततो भूत्वा प्रदह्मयादपि हेतुत: ॥। २२ ।। 

यदि पुरोचन हमारी किसी भी चेष्टासे हमारे भीतरी मनोभावको ताड़ लेगा तो वह 
शीघ्रतापूर्वक अपना काम बनानेके लिये उद्यत हो हमें किसी-न-किसी हेतुसे जला भी 
सकता है ॥| २२ ।। 

नायं बिभेत्युपक्रोशादधर्माद्‌ वा पुरोचन: । 

तथा हि वर्तते मन्द: सुयोधनवशे स्थित: ।। २३ ।। 

यह मूढ़ पुरोचन निन्‍दा अथवा अधर्मसे नहीं डरता एवं दुर्योधनके वशमें होकर उसकी 
आज्ञाके अनुसार आचरण करता है ।। २३ ।। 

अपि चेह प्रदग्धेषु भीष्मो5स्मासु पितामह: । 

कोपं कुर्यात्‌ किमर्थ वा कौरवान्‌ कोपयीत सः ।। २४ ।। 

यदि यहाँ हमारे जल जानेपर पितामह भीष्म कौरवोंपर क्रोध भी करें तो वह 
अनावश्यक है; क्योंकि फिर किस प्रयोजनकी सिद्धिके लिये वे कौरवोंको कुपित 
करेंगे ।। २४ ।। 


अथवापीह गग्धेषु भीष्मो5स्माकं पितामह: । 

धर्म इत्येव कुप्येरन्‌ ये चान्ये कुरुपुड्रवा: ।। २५ ।। 

अथवा सम्भव है कि यहाँ हमलोगोंके जल जानेपर हमारे पितामह भीष्म तथा 
कुरुकुलके दूसरे श्रेष्ठ पुरुष धर्म समझकर ही उन आततायियोंपर क्रोध करें (परंतु वह क्रोध 
हमारे किस कामका होगा?) ।। २५ |। 

वयं तु यदि दाहस्य बिभ्यत: प्रद्रवेमहि । 

स्पशै्निर्घितियेत्‌ सर्वान्‌ राज्यलुब्ध: सुयोधन: ।। २६ ।। 

यदि हम जलनेके भयसे डरकर भाग चलें तो भी राज्यलोभी दुर्योधन हम सबको अपने 
गुप्तचरोंद्वारा मरवा सकता है || २६ ।। 

अपदस्थान्‌ पदे तिष्ठन्नपक्षान्‌ पक्षसंस्थित: । 

हीनकोशान्‌ महाकोश: प्रयोगर्घातयेद्‌ भ्रुवम्‌ | २७ ।। 

इस समय वह अधिकारपूर्ण पदपर प्रतिष्ठित है और हम उससे वंचित हैं। वह 
सहायकोंके साथ है और हम असहाय हैं। उसके पास बहुत बड़ा खजाना है और हमारे 
पास उसका सर्वथा अभाव है। अत: निश्चय ही वह अनेक प्रकारके उपायोंद्वारा हमारी हत्या 
कर सकता है ।। २७ ।। 

तदस्माभिरिमं पाप॑ तं च पापं सुयोधनम्‌ । 

वज्चयद्/िर्निवस्तव्यं छन्नावासं क्वचित्‌ क्वचित्‌ ।। २८ ।। 

इसलिये इस पापात्मा पुरोचन तथा पापी दुर्योधनको भी धोखेमें रखते हुए हमें यहीं 
कहीं किसी गुप्त स्थानमें निवास करना चाहिये ।। २८ ।। 

ते वयं मृगयाशीलाश्चराम वसुधामिमाम्‌ | 

तथा नो विदिता मार्गा भविष्यन्ति पलायताम्‌ ।। २९ |।। 

हम सब मृगयामें रत रहकर यहाँकी भूमिपर सब ओर विचरें, इससे भाग निकलनेके 
लिये हमें बहुत-से मार्ग ज्ञात हो जायँगे ।। २९ ।। 

भौमं च बिलमगद्यैव करवाम सुसंवृतम्‌ । 

गूढश्वासान्न नस्तत्र हुताश: सम्प्रधक्ष्यति ।। ३० ।। 

इसके सिवा आजसे ही हम जमीनमें एक सुरंग तैयार करें, जो ऊपरसे अच्छी तरह 
ढकी हो। वहाँ हमारी साँसतक छिपी रहेगी (फिर हमारे कार्योकी तो बात ही क्‍या है)। उस 
सुरंगमें घुस जानेपर आग हमें नहीं जला सकेगी ।। ३० ।। 

वसतोऊत्र यथा चास्मान्न बुध्येत पुरोचन: । 

पौरो वापि जन: कश्चित्‌ तथा कार्यमतन्द्रितै: ॥ ३१ ।। 

हमें आलस्य छोड़कर इस प्रकार कार्य करना चाहिये, जिससे यहाँ रहते हुए भी हमारे 
सम्बन्धमें पुरोचनको कुछ भी ज्ञात न हो सके और किसी पुरवासीको भी हमारी कानोंकान 
खबर न हो ।। ३१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि भीमसेनयुधिष्ठिरसंवादे 
पज्चचत्वारिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १४५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपव॑के अन्तर्गत जदुगृहपर्वमें भीमसेन-युधिष्ठिर-संवादविषयक 
एक सौ पैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४५ ॥। 


अपना बा अर: 


षट्चत्वारिशर्दाधेिकशततमो< ध्याय: 
विदुरके भेजे हुए खनकद्दारा लाक्षागृहमें सुरंगका निर्माण 


वैशम्पायन उवाच 

विदुरस्य सुहृत्‌ कश्चित्‌ खनकः कुशलो नर: । 

विविक्ते पाण्डवान्‌ राजन्निदं वचनमब्रवीत्‌ ।। १ ॥। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! एक सुरंग खोदनेवाला मनुष्य विदुरजीका 
हितैषी एवं विश्वास-पात्र था। वह अपने काममें बड़ा चतुर था। एक दिन वह एकान्तमें 
पाण्डवोंसे मिला और इस प्रकार कहने लगा-- ।। १ ।। 

प्रहितो विदुरेणास्मि खनक: कुशलो हाहम्‌ | 

पाण्डवानां प्रियं कार्यमिति कि करवाणि व: ।। २ ।। 

प्रच्छन्नं विदुरेणोक्त: श्रेयस्त्वमिति पाण्डवान्‌ | 

प्रतिपादय विश्वासादिति कि करवाणि व: ।। ३ || 

“मुझे विदुरजीने भेजा है। मैं सुरंग खोदनेके काममें बड़ा निपुण हूँ। मुझे आप 
पाण्डवोंका प्रिय कार्य करना है, अतः आपलोग बतायें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? विदुरने 
गुप्तरूपसे मुझसे यह कहा है कि तुम वारणावतमें जाकर विश्वासपूर्वक पाण्डवोंका हित 
सम्पादन करो। अत: आप आज्ञा कीजिये कि मैं क्या करूँ? ।। २-३ ।। 





है कि 
४ #&#० २... न ४५॥| ॥| ॥॥॥॥ || | ॥! 


कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रात्रावस्यां पुरोचन: । 

भवनस्य तव द्वारि प्रदास्यति हुताशनम्‌ ।। ४ ।। 

“इसी कृष्णपक्षकी चतुर्दशीकी रातको पुरोचन आपके घरके दरवाजेपर आग लगा 
देगा ।। ४ ।। 

मात्रा सह प्रदग्धव्या: पाण्डवा: पुरुषर्षभा: । 

इति व्यवसितं तस्य धार्तराष्ट्रस्य दुर्मते: ।। ५ ।। 

दुर्बद्धि दुर्योधनकी यह चेष्टा है कि नरश्रेष्ठ पाण्डव अपनी माताके साथ जला दिये 
जायूँ ।। ५ |। 

किंचिच्च विदुरेणोक्तो म्लेच्छवाचासि पाण्डव | 

त्वया च तत्‌ तथेत्युक्तमेतद्‌ विश्वासकारणम्‌ ।। ६ ।। 

'पाण्डुनन्दन! विदुरजीने म्लेच्छभाषामें आपको कुछ संकेत किया था और आपने 
'तथास्तुग कहकर उसे स्वीकार किया था। यह बात मैं विश्वास दिलानेके लिये कहता 
हूँ! ।॥ ६ ।। 

उवाच त॑ सत्यधृति: कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: । 

अभिजानामि सौम्य त्वां सुहृदं विदुरस्य वै ।। ७ ।। 

शुचिमाप्तं प्रियं चैव सदा च दृढभक्तिकम्‌ । 


न विद्यते कवे: किंचिदविज्ञातं प्रयोजनम्‌ ।। ८ ।। 

तब सत्यवादी कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने उससे कहा--'सौम्य! मैं तुम्हें पहचानता हूँ। तुम 
विदुरजीके हितैषी, ईमानदार, विश्वसनीय, प्रिय तथा उनके प्रति सदा अविचल भक्ति 
रखनेवाले हो। हमारा कोई भी ऐसा प्रयोजन नहीं है, जो परम ज्ञानी विदुरजीको ज्ञात न 
हो || ७-८ ।। 

यथा तस्य तथा नस्त्व॑ं निर्विशेषा वयं त्वयि | 

भवतश्च यथा तस्य पालयास्मान्‌ यथा कवि: ॥। ९ | 

“तुम विदुरजीके लिये जैसे आदरणीय और विश्वसनीय हो, वैसे ही हमारे लिये भी हो। 
तुमसे हमारा कोई अन्तर नहीं है। हमलोग जिस प्रकार विदुरजीके पालनीय हैं, वैसे ही 
तुम्हारे भी हैं। जैसे वे हमारी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम भी करो ।। ९ ।। 

इदं शरणमाग्नेयं मदर्थमिति मे मति: । 

पुरोचनेन विहितं धार्तराष्ट्स्य शासनात्‌ ।। १० ।। 

“यह घर आग भड़कानेवाले पदार्थोंसे बना है। हमारा विश्वास है कि दुर्योधनके 
आदेशसे पुरोचनने हमारे लिये ही इसे बनवाया है || १० ।। 

स पाप: कोषवांश्वैव ससहायश्च दुर्मति: । 

अस्मानपि च पापात्मा नित्यकालं प्रबाधते ।। ११ ।। 

“पापी दुर्योधनके पास खजाना है और उसके बहुत-से सहायक भी हैं; इसीलिये वह 
दुर्बुद्धि पापात्मा सदा हमें सताया करता है | ११ ।। 

स भवान्‌ मोक्षयत्वस्मान्‌ यत्नेनास्माद्‌ हुताशनात्‌ । 

अस्मास्विह हि दग्धेषु सकाम: स्यात्‌ सुयोधन: ।। १२ ।। 

“तुम यत्न करके हमलोगोंको इस आगसे बचा लो; अन्यथा हमलोगोंके यहाँ दग्ध हो 
जानेपर दुर्योधनका मनोरथ सफल हो जायगा ।। १२ ।। 

समृद्धमायुधागारमिदं तस्य दुरात्मन: । 

वप्रान्तं निष्प्रतीकारमाश्रित्येदं कृतं महत्‌ ।। १३ ।। 

इदं तदशुभं॑ नूनं तस्य कर्म चिकीर्षितम्‌ । 

प्रागेव विदुरो वेद तेनास्मानन्वबोधयत्‌ ।। १४ ।। 

“यह उस दुरात्माका अस्त्र-शस्त्रोंसे भरा हुआ आयुधागार है। इसीके सहारे इस महान्‌ 
गृहका निर्माण किया गया है। इसमें चहारदीवारीके निकटतक कहीं कोई बाहर निकलनेका 
मार्ग नहीं है। अवश्य ही दुर्योधनका यह अशुभ कर्म, जिसे वह पूर्ण करना चाहता है, पहले 
ही विदुरजीको मालूम हो गया था। इसीलिये उन्होंने हमें इसकी जानकारी करा 
दी ।। १३-१४ ।। 

सेयमापदनुप्राप्ता क्षत्ता यां दृष्टवान्‌ पुरा । 

पुरोचनस्याविदितानस्मांस्त्वं प्रतिमोचय ।। १५ ।। 


“विदुरजीकी दृष्टिमें जो बहुत पहले आ चुकी थी, वही यह विपत्ति आज हमलोगोंपर 
आयी-की-आयी है। तुम हमें इस संकटसे इस तरह मुक्त करो, जिससे पुरोचनको हमारे 
विषयमें कुछ भी पता न चले” || १५ ।। 

स तथेति प्रतिश्रुत्य खनको यत्नमास्थित: । 

परिखामुत्किरन्नाम चकार च महाबिलम्‌ ।। १६ ।। 

तब उस सुरंग खोदनेवालेने “बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा”, यह प्रतिज्ञा की और 
कार्यसिद्धिके प्रयत्नमें लग गया। खाईकी सफाई करनेके व्याजसे उसने एक बहुत बड़ी 
सुरंग तैयार कर दी ।। १६ |। 

चक्रे च वेश्मनस्तस्य मध्येनातिमहद्‌ बिलम्‌ । 

कपाटसयुक्तमज्ञातं सम॑ भूम्याश्व भारत ।। १७ ।। 

भारत! उसने उस भवनके ठीक बीचसे वह महान्‌ सुरंग निकाली। उसके मुहानेपर 
किवाड़ लगे थे। वह भूमिके समान सतहमें ही बनी थी; अत: किसीको ज्ञात नहीं हो पाती 
थी ।। १७ ।। 

पुरोचनभयादेव व्यदधात्‌ संवृतं मुखम्‌ । 

स तस्य तु गृहद्वारि वसत्यशुभधी: सदा । 

तत्र ते सायुधा: सर्वे वसन्ति सम क्षपां नूप ।। १८ ।। 

दिवा चरन्ति मृगयां पाण्डवेया वनाद्‌ वनम्‌ | 

विश्वस्तवदविश्वस्ता वज्चयन्त: पुरोचनम्‌ । 

अतुष्टा तुष्टवद्‌ राजन्नूषु: परमविस्मिता: ।। १९ |। 

पुरोचनके भयसे उस सुरंग खोदनेवालेने उसके मुखको बंद कर दिया था। दुष्टबुद्धि 
पुरोचन सर्वदा मकानके द्वारपर ही निवास करता था और पाण्डवगण भी रात्रिके समय 
शस्त्र सँभाले सावधानीके साथ उस द्वारपर ही रहा करते थे। (इसलिये पुरोचनको आग 
लगानेका अवसर नहीं मिलता था।) वे दिनमें हिंस़र पशुओंके मारनेके बहाने एक वनसे दूसरे 
वनमें विचरते रहते थे। पाण्डव भीतरसे तो विश्वास न करनेके कारण सदा चौकजन्ने रहते थे, 
परंतु ऊपरसे पुरोचनको ठगनेके लिये विश्वस्तकी भाँति व्यवहार करते थे। राजन! वे संतुष्ट 
न होते हुए भी संतुष्टकी भाँति निवास करते और अत्यन्त विस्मययुक्त रहते 
थे।। १८-१९ |। 

न चैनानन्वबुध्यन्त नरा नगरवासिन: । 

अन्यत्र विदुरामात्यात्‌ तस्मात्‌ खनकसत्तमात्‌ ।। २० || 

विदुरके मन्त्री और खोदाईके काममें श्रेष्ठ उस खनकको छोड़कर नगरके निवासी भी 
पाण्डवोंके विषयमें कुछ नहीं जान पाते थे || २० ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि जतुगृहवासे 
षट्चत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुयृहपर्वमें जतुग॒ह्ववासविषयक एक सौ 
छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४६ ॥/ 


ऑपनआक्रात बछ। अकाल 


सप्तचत्वारिशर्दाधिकशततमोब ध्याय: 


लाक्षागृहका दाह और पाण्डवोंका सुरंगके रास्ते निकल 
जाना 


वैशम्पायन उवाच 


तांस्तु दृष्टया सुमनस: परिसंवत्सरोषितान्‌ । 

विश्वस्तानिव संलक्ष्य हर्ष चक्रे पुरोचन: ।। १ ।। 

पुरोचने तथा हृष्टे कौन्तेयो5थ युधिष्ठिर: । 

भीमसेनार्जुनौ चोभौ यमौ प्रोवाच धर्मवित्‌ ।। २ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पाण्डवोंको एक वर्षसे वहाँ प्रसन्नचित्त हो 
विश्वस्तकी तरह रहते हुए देख पुरोचनको बड़ा हर्ष हुआ। उसके इस प्रकार प्रसन्न होनेपर 
धर्मके ज्ञाता कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेवसे इस प्रकार कहा 
-- || १-२ || 

अस्मानयं सुविश्वस्तान्‌ वेत्ति पाप: पुरोचन: । 

वज्चितो<यं नृशंसात्मा काल॑ मन्ये पलायने ।। ३ ।। 

“पापी पुरोचन हमलोगोंको पूर्ण विश्वस्त समझ रहा है। इस क्रूरको अबतक हमलोगोंने 
धोखा दिया है। अब मेरी रायमें हमारे भाग निकलनेका यह उपयुक्त अवसर आ गया 
है ।। ३ ।। 

आयुधागारमादीप्य दग्ध्वा चैव पुरोचनम्‌ | 

षट्‌ प्राणिनो निधायेह द्रवामोडनभिलक्षिता: ।। ४ ।। 

“इस आयुधागारमें आग लगाकर पुरोचनको जला करके इसके भीतर छ: प्राणियोंको 
रखकर हम इस तरह भाग निकलें कि कोई हमें देख न सके” ।। ४ ।। 

अथ दानापदेशेन कुन्ती ब्राह्णभोजनम्‌ | 

चक्रे निशि महाराज आजम्मुस्तत्र योषित: ।। ५ ।। 

ता विहृत्य यथाकामं भुक्‍्त्वा पीत्वा च भारत । 

जम्मुर्निशि गृहानेव समनुज्ञाप्प माधवीम्‌ ।। ६ ।। 

महाराज! तदनन्तर एक दिन रात्रिके समय कुन्तीने दान देनेके निमित्त ब्राह्मणग-भोजन 
कराया। उसमें बहुत-सी स्त्रियाँ भी आयी थीं। भारत! वे सब स्त्रियाँ इच्छानुसार घूम- 
फिरकर खा-पी लेनेके बाद कुन्तीदेवीसे आज्ञा ले रातमें फिर अपने-अपने घरोंको ही लौट 
गयीं ।। ५-६ ।। 

निषादी पज्चपुत्रा तु तस्मिन्‌ भोज्ये यदृच्छया । 


अन्नार्थिनी समभ्यागात्‌ सपुत्रा कालचोदिता ।। ७ ।। 

सा पीत्वा मदिरां मत्ता सपुत्रा मदविह्वला | 

सह सर्व: सुतै राजंस्तस्मिन्नेव निवेशने ।। ८ ।। 

सुष्वाप विगतज्ञाना मृतकल्पा नराधिप । 

अथ प्रवाते तुमुले निशि सुप्ते जने तदा ।। ९ ।। 

तदुपादीपयद्‌ भीम: शेते यत्र पुरोचन: । 

ततो जतुगृहद्वारं दीपयामास पाण्डव: | १० || 

परंतु दैवेच्छासे उस भोजके समय एक भीलनी अपने पाँच बेटोंके साथ वहाँ भोजनकी 
इच्छासे आयी, मानो कालने ही उसे प्रेरित करके वहाँ भेजा था। वह भीलनी मदिरा पीकर 
मतवाली हो चुकी थी। उसके पुत्र भी शराब पीकर मस्त थे। राजन! शराबके नशेमें बेहोश 
होनेके कारण अपने सब पुत्रोंके साथ वह उसी घरमें सो गयी। उस समय वह अपनी सुध- 
बुध खोकर मृतक-सी हो रही थी। रातमें जब सब लोग सो गये, उस समय सहसा बड़े 
जोरकी आँधी चली। तब भीमसेनने उस जगह आग लगा दी, जहाँ पुरोचन सो रहा था। 
फिर उन्होंने लाक्षागृहके प्रमुख द्वारपर आग लगायी ।। ७--१० ॥। 

समन्ततो ददौ पश्चादग्निं तत्र निवेशने । 

ज्ञात्वा तु तद्‌ गृहं सर्वमादीप्तं पाण्डुनन्दना: ।। ११ ।। 

सुरड्भां विविशुस्तूर्ण मात्रा सार्थमरिंदमा: | 

ततः प्रताप: सुमहाञ्छब्दश्ैव विभावसो: ।। १२ ।। 

प्रादुरासीत्‌ तदा तेन बुबुधे स जनव्रज: । 

तदवेक्ष्य गृहं दीप्तमाहु: पौरा: कृशानना: ।। १३ ।। 

इसके पश्चात्‌ उन्होंने उस घरके चारों ओर आग लगा दी। जब वह सारा घर अग्निकी 
लपेटमें आ गया, तब यह जानकर शत्रुओंका दमन करनेवाले पाण्डव अपनी माताके साथ 
सुरंगमें घुस गये; फिर तो वहाँ अग्निकी भयंकर लपटें उठने लगीं, भीषण ताप फैल गया। 
घरको जलानेवाली उस आगका महान्‌ चट-चट शब्द सुनायी देने लगा। इससे उस नगरका 
जनसमूह जाग उठा। उस घरको जलता देख पुरवासियोंके मुखपर दीनता छा गयी। वे 
व्याकुल होकर कहने लगे || ११--१३ ।। 

पौरा ऊचु. 

दुर्योधनप्रयुक्तेन पापेनाकृतबुद्धिना । 

गृहमात्मविनाशाय कारितं दाहितं च तत्‌ ।। १४ ।। 

अहो धिग्‌ धृतराष्ट्रस्थ बुद्धिनातिसमञ्जसा । 

यः शुचीन्‌ पाण्डुदायादान्‌ दाहयामास शत्रुवत्‌ ।। १५ ।। 


पुरवासी बोले--अहो! पुरोचनका अन्तःकरण अपने वशमें नहीं था। उस पापीने 
दुर्योधनकी आज्ञासे अपने ही विनाशके लिये इस घरको बनवाया और जला भी दिया! 
अहो! धिककार है, धुृतराष्ट्रकी बुद्धि बहुत बिगड़ गयी है, जिसने शुद्ध हृदयवाले 
पाण्डुपुत्रोंको शत्रुकी भाँति आगमें जला दिया || १४-१५ ।। 

दिष्ट्या त्विदानीं पापात्मा दग्धो5यमतिदुर्मति: । 

अनागस: सुविश्वस्तान्‌ यो ददाह नरोत्तमान्‌ ।। १६ ।। 

सौभाग्यकी बात है कि यह अत्यन्त खोटी बुद्धिवाला पापात्मा पुरोचन भी इस समय 
दग्ध हो गया है, जिसने बिना किसी अपराधके अपने ऊपर पूर्ण विश्वास करनेवाले नरश्रेष्ठ 
पाण्डवोंको जला दिया है ।। १६ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवं ते विलपन्ति सम वारणावतका जना: । 

परिवार्य गृहं तच्च तस्थू रात्रौी समन्‍्ततः ।। १७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार वारणावतके लोग विलाप करने लगे। 
वे रातभर उस घरको चारों ओरसे घेरकर खड़े रहे || १७ ।। 

पाण्डवाश्वापि ते सर्वे सह मात्रा सुदु:ःखिता: । 

बिलेन तेन निर्गत्य जम्मुर्दतमलक्षिता: ।। १८ ।। 

उधर समस्त पाण्डव भी अत्यन्त दुःखी हो अपनी माताके साथ सुरंगके मार्गसे 
निकलकर तुरंत ही दूर चले गये। उन्हें कोई भी देख न सका ।। १८ ।। 

तेन निद्रोपरोधेन साध्वसेन च पाण्डवा: । 

न शेकु: सहसा गन्तुं सह मात्रा परंतपा: ॥। १९ |। 

नींद न ले सकनेके कारण आलस्य और भयसे युक्त परंतप पाण्डव अपनी माताके 
साथ जल्दी-जल्दी चल नहीं पाते थे ।। १९ ।। 

भीमसेनस्तु राजेन्द्र भीमवेगपराक्रम: । 

जगाम क्रातृनादाय सर्वान्‌ मातरमेव च ।। २० ।। 

स्कन्धमारोप्य जननीं यमावड्केन वीर्यवान्‌ | 

पार्थो गृहीत्वा पाणिभ्यां भ्रातरौ सुमहाबल: || २१ ।। 

राजेन्द्र! भयंकर वेग और पराक्रमवाले भीमसेन अपने सब भाइयों तथा माताको भी 
साथ लिये चल रहे थे। वे महान्‌ बल और पराक्रमसे सम्पन्न थे। उन्होंने माताको तो कंधेपर 
चढ़ा लिया और नकुल-सहदेवको गोदमें उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयोंको दोनों हाथोंसे 
पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे || २०-२१ ।। 

उरसा पादपान्‌ भज्जन्‌ महीं पद्भ्यां विदारयन्‌ | 

स जगामाशु तेजस्वी वातरंहा वृकोदर: ।। २२ ।। 


तेजस्वी भीम वायुके समान वेगशाली थे। वे अपनी छातीके धक्केसे वृक्षोंकों तोड़ते 
और पैरोंकी ठोकरसे पृथ्वीको विदीर्ण करते हुए तीव्र गतिसे आगे बढ़े जा रहे थे || २२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि जतुगृहदाहे 
सप्तचत्वारिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १४७ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जदुगृहपर्वमें जतुय॒ृहदाहविषयक एक सौ 
सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४७ ॥ 


अपना | | अत-#-#क+ 


अष्टचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


विदुरजीके भेजे हुए नाविकका पाण्डवोंको गंगाजीके पार 
उतारना 


वैशम्पायन उवाच 


एतस्मिन्नेव काले तु यथासम्प्रत्ययं कवि: । 

विदुर: प्रेषयामास तद्‌ वन॑ पुरुषं शुचिम्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! इसी समय परम ज्ञानी विदुरजीने अपने 
विश्वासके अनुसार एक शुद्ध विचारवाले पुरुषको उस वनमें भेजा ।। १ ।। 


सुरंगद्वारा मातासहित पाण्डवोंका लाक्षागृहसे निकलना 





भीम अपने चारों भाइयोंको तथा माताको उठाकर ले चले 


स गत्वा तु यथोद्देशं पाण्डवान्‌ ददृशे वने । 

जनन्या सह कौरव्य मापयानान्‌ नदीजलम्‌ ।। २ ।। 

कुरुनन्दन! उसने विदुरजीके बताये अनुसार ठीक स्थानपर पहुँचकर वनमें मातासहित 
पाण्डवोंको देखा, जो नदीमें कितना जल है, इसका अनुमान लगा रहे थे ।। २ ।। 

विदितं तन्महाबुद्धेर्विदुरस्य महात्मन: । 

ततस्तस्यापि चारेण चेष्टितं पापचेतस: ।। ३ ।। 

ततः प्रवासितो विद्वान्‌ विदुरेण नरस्तदा । 

पार्थानां दर्शयामास मनोमारुतगामिनीम्‌ ।। ४ ।। 

सर्ववातसहां नावं यन्त्रयुक्तां पताकिनीम्‌ । 

शिवे भागीरथीतीरे नरैर्विस्रम्भिभि: कृताम्‌ । ५ ।। 

परम बुद्धिमान्‌ महात्मा विदुरको गुप्तचरद्वारा उस पापासक्त पुरोचनकी चेष्टाओंका भी 
पता चल गया था। इसीलिये उन्होंने उस समय उस बुद्धिमान्‌ मनुष्यको वहाँ भेजा था। 
उसने मन और वायुके समान वेगसे चलनेवाली एक नाव पाण्डवोंको दिखायी, जो सब 
प्रकारसे हवाका वेग सहनेमें समर्थ और ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित थी। उस नौकाको 
चलानेके लिये यन्त्र लगाया गया था। वह नाव गंगाजीके पावन तटपर विद्यमान थी और 
उसे विश्वासी मनुष्योंने बनाकर तैयार किया था || ३--५ ।। 

ततः पुनरथोवाच ज्ञापकं पूर्वचोदितम्‌ 

युधिष्ठिर निबोधेदं संज्ञार्थ वचनं कवे: ।। ६ ।। 

तदनन्तर उस मनुष्यने कहा--'युधिष्छिरजी! ज्ञानी विदुरजीके द्वारा पहले कही हुई यह 
बात, जो मेरी विश्वसनीयताको सूचित करनेवाली है, पुनः सुनिये। मैं आपको संकेतके 
तौरपर स्मरण दिलानेके लिये इसे कहता हूँ ।। ६ ।। 

कक्षघ्न: शिशिरघ्नक्षु महाकक्षे बिलौकस: । 

न हन्तीत्येवमात्मानं यो रक्षति स जीवति ।। ७ ।। 

“(तुमसे विदुरजीने कहा था--) 'घास-फ़ूस तथा सूखे वृक्षोंके जंगलको जलानेवाली 
और सर्दीको नष्ट कर देनेवाली आग विशाल वनमें फैल जानेपर भी बिलमें रहनेवाले चूहे 
आदि जन्तुओंको नहीं जला सकती। यों समझकर जो अपनी रक्षाका उपाय करता है, वही 
जीवित रहता है” | ७ ।। 

तेन मां प्रेषितं विद्धि विश्वस्तं संज्ञयानया । 

भूयश्वैवाह मां क्षत्ता विदुर: सर्वतो<$र्थवित्‌ ।। ८ ।। 

कर्ण दुर्यो धनं चैव भ्रातृभि: सहितं रणे । 

शकुनिं चैव कौन्तेय विजेतासि न संशय: ।। ९ ।। 

“इस संकेतसे आप यह जान लें कि “मैं विश्वास-पात्र हूँ और विदुरजीने ही मुझे भेजा 
है।' इसके सिवा, सर्वतोभावेन अर्थसिद्धिका ज्ञान रखनेवाले विदुरजीने पुनः मुझसे आपके 


लिये यह संदेश दिया कि “कुन्ती-नन्दन! तुम युद्धमें भाइयोंसहित दुर्योधन, कर्ण और 
शकुनिको अवश्य परास्त करोगे, इसमें संशय नहीं है || ८-९ ।। 

इयं वारिपथे युक्ता नौरप्सु सुखगामिनी । 

मोचयिष्यति व: सर्वानस्माद्‌ देशान्न संशय: ।। १० ।। 

“यह नौका जलमार्गके लिये उपयुक्त है। जलमें यह बड़ी सुगमतासे चलनेवाली है। यह 
नाव तुम सब लोगोंको इस देशसे दूर छोड़ देगी, इसमें संदेह नहीं है” || १० ।। 

अथ तान्‌ व्यथितान्‌ दृष्टवा सह मात्रा नरोत्तमान्‌ | 

नावमारोप्य गड्जायां प्रस्थितानब्रवीत्‌ पुनः: ।। ११ ।। 

इसके बाद मातासहित नरश्रेष्ठ पाण्डवोंको अत्यन्त दुःखी देख नाविकने उन सबको 
नावपर चढ़ाया और जब वे गंगाके मार्गसे प्रस्थान करने लगे, तब फिर इस प्रकार कहा 
-- || ११ || 

विदुरो मूर्ध्न्युपाप्राय परिष्वज्य वचो मुहुः । 

अरिएटं गच्छताव्यग्रा: पन्थानमिति चाब्रवीत्‌ ।। १२ ।। 

“विदुरजीने आप सभी पाण्डुपुत्रोंको भावनाद्वारा हृदयसे लगाकर और मस्तक सूँघकर 
यह आशीर्वाद फिर कहलाया है कि “तुम शान्तचित्त हो कुशलपूर्वक मार्गपर बढ़ते 
जाओ” ।। १२ || 

इत्युक्त्वा स तु तान्‌ वीरान्‌ पुमान्‌ विदुरचोदित: । 

तारयामास राजेन्द्र गड़ां नावा नरर्षभान्‌ ।। १३ ।। 

राजेन्द्र! विदुरजीके भेजनेसे आये हुए उस नाविकने उन शूरवीर नरश्रेष्ठ पाण्डवोंसे 
ऐसी बात कहकर उसी नावसे उन्हें गंगाजीके पार उतार दिया ।। १३ ।। 

तारयित्वा ततो गड्जां पार प्राप्तांक्ष सर्वश: । 

जयाशिष: प्रयुज्याथ यथागतमगाद्धि सः ।। १४ ।। 

पार उतारनेके पश्चात्‌ जब वे गंगाजीके दूसरे तटपर जा पहुँचे, तब उन सबके लिये 
“जय हो, जय हो” यह आशीर्वाद सुनाकर वह नाविक जैसे आया था, उसी प्रकार लौट 
गया ।। १४ ।। 

पाण्डवाश्न महात्मान: प्रतिसंदिश्य वै कवे: । 

गड्जमुत्तीर्य वेगेन जम्मुर्गूढठमलक्षिता: ।। १५ ।। 

महात्मा पाण्डव भी विद्वान्‌ विदुरजीको उनके संदेशका उत्तर देकर गंगापार हो 
अपनेको छिपाते हुए वेगपूर्वक वहाँसे चल दिये। कोई भी उन्हें देख या पहचान न 
सका || १५ || 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि गड्जोत्तरणे 
अष्टचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४८ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जदुगृहपर्वमें पाण्डवोंके गंगापार होनेसे 
सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १४८ ॥। 


ऑपन--माजल छा जि 


एकोनपज्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


धृतराष्ट्र आदिके द्वारा पाण्डवोंके लिये शोकप्रकाश एवं 
जलांजलिदान तथा पाण्डवोंका वनमें प्रवेश 


वैशम्पायन उवाच 


अथ रात्र्यां व्यतीतायामशेषो नागरो जन: । 

तत्राजगाम त्वरितो दिदृक्षु: पाण्डुनन्दनान्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उधर रात व्यतीत होनेपर वारणावत नगरके सारे 
नागरिक बड़ी उतावलीके साथ पाण्डुकुमारोंकी दशा देखनेके लिये उस लाक्षागृहके समीप 
आये ।। १ ।। 

निर्वापयन्तो ज्वलनं ते जना ददृशुस्तत: । 

जातुषं तद्‌ गृहं दग्धममात्यं च पुरोचनम्‌ ।। २ ।। 

आते ही वे (सब) लोग आग बुझानेमें लग गये। उस समय उन्होंने देखा कि सारा घर 
लाखका बना था, जो जलकर खाक हो गया। उसीमें मन्त्री पुरोचन भी जल गया 
था।।२।। 

नूनं दुर्योधनेनेदं विहितं पापकर्मणा । 

पाण्डवानां विनाशायेत्येवं ते चुक्कुशुर्जना: ।। ३ ।। 

(यह देख) वे (सभी) नागरिक चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे कि “अवश्य ही पापाचारी 
दुर्योधनने पाण्डवोंका विनाश करनेके लिये इस भवनका निर्माण करवाया था ।। ३ ।। 

विदिते धृतराष्ट्रस्य धार्तराष्ट्रो न संशय: । 

दग्धवान्‌ पाण्डुदायादान्‌ न होन॑ प्रतिषिद्धवान्‌ ।। ४ ।। 

“इसमें संदेह नहीं कि धुृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने धृतराष्ट्रकी जानकारीमें पाण्डुपुत्रोंको 
जलाया है और धृतराष्ट्रने इसे मना नहीं किया ।। ४ ।। 

नूनं शांतनवो5पीह न धर्ममनुवर्तते । 

द्रोणश्न विदुरश्चैव कृपश्चान्ये च कौरवा: ।। ५ ।। 

“निश्चय ही इस विषयमें शंतनुनन्दन भीष्मजी भी धर्मका अनुसरण नहीं कर रहे हैं। 
द्रोण, विदुर, कृपाचार्य तथा अन्य कौरवोंकी भी यही दशा है ।। ५ ।। 

ते वयं धृतराष्ट्रस्य प्रेषयामो दुरात्मन: । 

संवृत्तस्ते पर: काम: पाण्डवान्‌ दग्धवानसि ।। ६ |। 

“अब हमलोग दुरात्मा धृतराष्ट्रके पास यह संदेश भेज दें कि तुम्हारी सबसे बड़ी कामना 
पूरी हो गयी। तुम पाण्डवोंको जलानेमें सफल हो गये” ।। ६ ।। 


ततो व्यपोहमानास्ते पाण्डवार्थे हुताशनम्‌ । 

निषादी ददृशुर्दग्धां पठ्चपुत्रामनागसम्‌ ।। ७ || 

तदनन्तर उन्होंने पाण्डवोंको ढूँढ़नेके लिये जब आगको इधर-उधर हटाया, तब पाँच 
पुत्रोंके साथ निरपराध भीलनीकी जली लाश देखी ।। ७ ।। 

खनकेन तु तेनैव वेश्म शोधयता बिलम्‌ । 

पांसुभि: पिहितं तच्च पुरुषैस्तैर्न लक्षितम्‌ ।। ८ ।। 

उसी सुरंग खोदनेवाले पुरुषने घरको साफ करते समय सुरंगके छेदको धूलसे ढक 
दिया था। इससे दूसरे लोगोंकी दृष्टि उसपर नहीं पड़ी ।। ८ ।। 

ततस्ते ज्ञापयामासुर्धुतराष्ट्रस्य नागरा: । 

पाण्डवानग्निना दग्धानमात्यं च पुरोचनम्‌ ।। ९ ।। 

तदनन्तर वारणावतके नागरिकोंने धृतराष्ट्रको यह सूचित कर दिया कि पाण्डव तथा 
मन्त्री पुरोचन आगमें जल गये ।। ९ ।। 

श्र॒ुत्वा तु धृतराष्ट्रस्तद् राजा सुमहदप्रियम्‌ । 

विनाशं पाण्डुपुत्राणां विललाप सुदु:खित: ।। १० ।। 

महाराज धूृतराष्ट्र पाण्डुपुत्रोंके विनाशका यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर बहुत 
दुःखी हो विलाप करने लगे--- || १० ।। 

अद्य पाण्डुर्मुतो राजा मम भ्राता महायशा: । 

तेषु वीरेषु दग्धेषु मात्रा सह विशेषतः ।। ११ ।। 

“अहो! मातासहित इन शूरवीर पाण्डवोंके दग्ध हो जानेपर विशेषरूपसे ऐसा लगता है, 
मानो मेरे भाई महायशस्वी राजा पाण्डुकी मृत्यु आज हुई है || ११ ।। 

गच्छन्तु पुरुषा: शीघ्र॑ं नगरं वारणावतम्‌ । 

सत्कारयन्तु तान्‌ वीरान्‌ कुन्तिराजसुतां च ताम्‌ ।। १२ ।। 

“मेरे कुछ लोग शीघ्र ही वारणावत नगरमें जायेँ और कुन्तिभोजकुमारी कुन्ती तथा 
वीरवर पाण्डवोंका आदरपूर्वक दाहसंस्कार करायें ।। १२ ।। 

कारयन्तु च कुल्यानि शुभानि च बृहन्ति च | 

ये च तत्र मृतास्तेषां सुहदो यान्तु तानपि ।। १३ ।। 

“उन सबके कुलोचित शुभ और महान्‌ संस्कारकी व्यवस्था करें तथा जो-जो उस घरमें 
जलकर मरे हैं, उनके सुहृद्‌ एवं सगे-सम्बन्धी भी उन मृतकोंका दाह-संस्कार करनेके लिये 
वहाँ जायूँ ।। १३ ।। 

एवं गते मया शक्‍्यं यद्‌ यत्‌ कारयितुं हितम्‌ | 

पाण्डवानां च कुन्त्याश्व तत्‌ सर्व क्रियतां धनै: ।। १४ ।। 

एवमुक्त्वा ततश्नक्रे ज्ञातिभि: परिवारित: । 

उदकं पाण्डुपुत्राणां धृतराष्ट्रोौडम्बिकासुत: ।। १५ ।। 


“इस दशामें मुझे पाण्डवों तथा कुन्तीका हित करनेके लिये जो-जो कार्य करना चाहिये 
या जो-जो कार्य मुझसे हो सकता है, वह सब धन खर्च करके सम्पन्न किया जाय।' यों 
कहकर अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्रने जातिभाइयोंसे घिरे रहकर पाण्डवोंके लिये जलांजलि 
देनेका कार्य किया || १४-१५ ।। 

(समेतास्तु ततः सर्वे भीष्मेण सह कौरवा: । 

धृतराष्ट्र: सपुत्रश्न गड़ामभिमुखा ययु: ।। 

एकवस्त्रा निरानन्दा निराभरणवेष्टना: । 

उदकं कर्तुकामा वै पाण्डवानां महात्मनाम्‌ ।।) 

उस समय भीष्म, सब कौरव तथा पुत्रोंसहित धृतराष्ट्र एकत्र हो महात्मा पाण्डवोंको 
जलांजलि देनेकी इच्छासे गंगाजीके निकट गये। उन सबके शरीरपर एक-एक ही वस्त्र था। 
वे सभी आभूषण और पगड़ी आदि उतारकर आनन्दशून्य हो रहे थे। 

रुरुदु: सहिता: सर्वे भूशं शोकपरायणा: । 

हा युधिष्ठिर कौरव्य हा भीम इति चापरे ।। १६ ।। 

उस समय सब लोग अत्यन्त शोकमग्न हो एक साथ रोने और विलाप करने लगे। कोई 
कहता--'हा कुरुवंश-विभूषण युधिष्ठिर!” दूसरे कहते--'हा भीमसेन!” ।। १६ ।। 

हा फाल्गुनेति चाप्यन्ये हा यमाविति चापरे | 

कुन्तीमार्ताश्न शोचन्त उदकं चक्रिरे जना: ।। १७ ।। 

अन्य कोई बोलते--'हा अर्जुन!” और इसी प्रकार दूसरे लोग “हा नकुल-सहदेव!' 
कहकर पुकार उठते थे। सब लोगोंने कुन्तीदेवीके लिये शोकार्त होकर जलांजलि 
दी ।। १७ || 

अन्ये पौरजनाश्वैवमन्वशोचन्त पाण्डवान्‌ | 

विदुरस्त्वल्पशश्षक्रे शोक॑ वेद परं हि सः ।। १८ ।। 

इसी प्रकार दूसरे-दूसरे पुरवासीजन भी पाण्डवोंके लिये बहुत शोक करने लगे। 
विदुरजीने बहुत थोड़ा शोक मनाया; क्‍योंकि वे वास्तविक वृत्तान्तसे परिचित थे ।। १८ ।। 

(ततः प्रव्यथितो भीष्म: पाण्डुराजसुतान्‌ मृतान्‌ । 

सह मात्रेति तच्छुत्वा विललाप रुरोद च ।। 


भीष्म उवाच 


न हि तौ नोत्सहेयातां भीमसेनधनंजयौ । 
तरसा वेगितात्मानौ निर्भेत्तुमपि मन्दिरम्‌ । 
परासुत्वं न पश्यामि पृथाया: सह पाण्डवै: ।। 
सर्वथा विकृतं नीत॑ यदि ते निधनं गता: । 
धर्मराज: स निर्दिष्टो ननु विप्रैर्युधिष्ठिर: ।। 


सत्यव्रतो धर्मदत्त: सत्यवाक्छुभलक्षण: । 

कथं कालवशं प्राप्त: पाण्डवेयो युधिष्ठिर: ।। 

आत्मानमुपमां कृत्वा परेषां वर्तते तु यः । 

सह मात्रा तु कौरव्य: कथं कालवशं गतः ।। 

यौवराज्ये5भिषिक्तेन पितुर्येनाहतं यश: । 

आत्मनश्न पितुश्चिव सत्यधर्मस्य वृत्तिभि: ।। 

कालेन स हि सम्भग्नो धिक्‌ कृतान्तमनर्थकम्‌ ।। 

यच्च सा वनवासेन क्लेशिता दुःखभागिनी । 

पुत्रगृध्नुतया कुन्ती न भर्तारें मृता त्वनु ।। 

अल्पकालं कुले जाता भर्तुः प्रीतिमवाप या । 

दग्धाद्य सह पुत्रै: सा असम्पूर्णममनोरथा ।। 

पीनस्कन्धश्चारुबाहुर्मेरुकूटसमो युवा । 

मृतो भीम इति श्रुत्वा मनो न श्रद्दधाति मे ।। 

अनिन्‍न्द्यानि च यो गच्छन्‌ क्षिप्रहस्तो दृढायुध: । 

प्रपत्तिमाँललब्धलक्ष्यो रथयानविशारद: ।। 

दूरपाती त्वसम्भ्रान्तो महावीर्यों महास्त्रवित्‌ । 

अदीनात्मा नरव्याप्र: श्रेष्ठ: सर्वधनुष्मताम्‌ ।। 

येन प्राच्या: ससौवीरा दाक्षिणात्याश्र निर्जिता: । 

ख्यापितं येन शूरेण त्रिषु लोकेषु पौरुषम्‌ ।। 

यस्मिज्जाते विशोकाभूत्‌ कुन्ती पाण्डुश्व वीर्यवान्‌ 

पुरन्दरसमो जिष्णु: कथं कालवशं गत: ।। 

कथं तावृषभस्कन्धौ सिंहविक्रान्तगामिनौ । 

मर्त्यधर्ममनुप्राप्ती यमावरिनिबर्हणौ ।। 

तदनन्तर भीष्मजी यह सुनकर कि राजा पाण्डुके पुत्र अपनी माताके साथ जल मरे हैं, 
अत्यन्त व्यथित हो उठे और रोने एवं विलाप करने लगे। 

भीष्मजी बोले--वे दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन उत्साह-शून्य हो गये हों, ऐसा तो 
नहीं प्रतीत होता। यदि वे वेगसे अपने शरीरका धक्का देते तो सुदृढ़ मकानको भी तोड़- 
फोड़ सकते थे। अतः पाण्डवोंके साथ कुन्तीकी मृत्यु हो गयी है, ऐसा मुझे नहीं दिखायी 
देता। यदि सचमुच उन सबकी मृत्यु हो चुकी है, तब तो यह सभी प्रकारसे बहुत बुरी बात 
हुई है। ब्राह्मणोंने तो धर्मराज युधिष्ठिरके विषयमें यह कहा था कि ये धर्मके दिये हुए 
राजकुमार सत्यव्रती, सत्यवादी एवं शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न होंगे। ऐसे वे पाण्डुनन्दन युधिष्छिर 
कालके अधीन कैसे हो गये? जो अपने-आपको आदर्श बनाकर तदनुरूप दूसरोंके साथ 
बर्ताव करते थे वे ही कुरुकुलशिरोमणि युधिष्ठिर अपनी माताके साथ कालके अधीन कैसे 


हो गये? जिन्होंने युवराजपदपर अभिषिक्त होते ही पिताके समान ही अपने सत्य एवं 
धर्मपूर्ण बर्तावके द्वारा अपना ही नहीं, राजा पाण्डुके भी यशका विस्तार किया था, वे 
युधिष्ठिर भी कालके अधीन हो गये। ऐसे निकम्मे कालको धिक्‍्कार है। उत्तम कुलमें उत्पन्न 
कुन्ती, जो पुत्रोंकी अभिलाषा रखनेके कारण ही वनवासका कष्ट भोगती और दुःखपर 
दुःख उठाती रही तथा पतिके मरनेपर भी उनका अनुगमन न कर सकी, जिसे बहुत थोड़े 
समयतक ही पतिका प्रेम प्राप्त हुआ था, वही कुन्तिभोजकुमारी अभी अपने मनोरथ पूरे 
भी न कर पायी थी कि पुत्रोंके साथ दग्ध हो गयी! जिनके भरे हुए कंधे और मनोहर भुजाएँ 
थीं, जो मेर-शिखरके समान सुन्दर एवं तरुण थे, वे भीमसेन मर गये, यह सुनकर भी 
मनको विश्वास नहीं होता। जो सदा उत्तम मार्गोंपर चलते थे, जिनके हाथोंमें बड़ी फुर्ती थी, 
जिनके आयुध अत्यन्त दृढ़ थे, जो गुरुजनोंके आश्रित रहते थे, जिनका निशाना कभी 
चूकता नहीं था, जो रथ हाँकनेमें कुशल, दूरतकका लक्ष्य बेधनेवाले, कभी व्याकुल न 
होनेवाले, महापराक्रमी और महान्‌ अस्त्रोंके ज्ञाता थे, जिनके हृदयमें कभी दीनता नहीं 
आती थी, जो मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी तथा सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ थे, जिन्होंने 
प्राच्य, सौवीर और दाक्षिणात्य नरेशोंको परास्त किया था, जिस शूरवीरने तीनों लोकोंमें 
अपने पुरुषार्थको प्रसिद्ध किया था और जिनके जन्म लेनेपर कुन्ती और महापराक्रमी 
पाण्डु भी शोकरहित हो गये थे, वे इन्द्रके समान विजयी वीर अर्जुन भी कालके अधीन कैसे 
हो गये? जो बैलके-से हृष्ट-पुष्ट कंधोंसे सुशोभित थे तथा सिंहकी-सी मस्तानी चालसे चलते 
थे, वे शत्रुओंका संहार करनेवाले नकुल-सहदेव सहसा मृत्युको कैसे प्राप्त हो गये? 
वैशम्पायन उवाच 


तस्य विक्रन्दितं श्रुत्वा उदकं॑ च प्रसिज्चत: । 

देशकालं समाज्ञाय विदुर: प्रत्यभाषत ।। 

मा शोचीस्त्वं नरव्यापत्र जहि शोकं महाव्रत । 

न तेषां विद्यते पापं प्राप्तकालं कृतं मया । 

एतच्च तेभ्य उदकं विप्रसिज्च न भारत ।। 

सो<ब्रवीत्‌ किंचिदुत्सार्य कौरवाणामशृण्वताम्‌ | 

क्षत्तारमुपसंगृहा बाष्पोत्पीडकलस्वर: ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जलांजलि-दान देते समय भीष्मजीका यह विलाप सुनकर 
विदुरजीने देश और कालका भलीभाँति विचार करके कहा--“नरश्रेष्ठ] आप दु:खी न हों। 
महाव्रती वीर! आप शोक त्याग दें, पाण्डवोंकी मृत्यु नहीं हुई है। मैंने उस अवसरपर जो 
उचित था, वह कार्य कर दिया है। भारत! आप उन पाण्डवोंके लिये जलांजलि न दें।” तब 
भीष्मजी विदुरका हाथ पकड़कर उन्हें कुछ दूर हटा ले गये, जहाँसे कौरवलोग उनकी बात 
न सुन सकें। फिर वे आँसू बहाते हुए गद्गद वाणीमें बोले। 


भीष्म उवाच 


कथं ते तात जीवन्ति पाण्डो: पुत्रा महारथा: । 

कथमस्मत्कृते पक्ष: पाण्डोर्न हि निपातितः ।। 

कथं मत्प्रमुखा: सर्वे प्रमुक्ता महतो भयात्‌ | 

जननी गरुडेनेव कुमारास्ते समुद्धृता: ।। 

भीष्मजीने कहा--तात! पाण्डुके वे महारथी पुत्र कैसे जीवित बच गये? पाण्डुका 
पक्ष किस तरह हमारे लिये नष्ट होनेसे बच गया? जैसे गरुड़ने अपनी माताकी रक्षा की थी, 
उसी प्रकार तुमने किस तरह पाण्डुकुमारोंको बचाकर हम सब लोगोंकी महान्‌ भयसे रक्षा 
की है? 

वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्तस्तु कौरव्य कौरवाणामशृण्वताम्‌ । 

आचचक्षे स धर्मात्मा भीष्मायाद्भुतकर्मणे ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार पूछे जानेपर धर्मात्मा विदुरने 
कौरवोंके न सुनते हुए अद्भुत कर्म करनेवाले भीष्मजीसे इस प्रकार कहा-- 

विदुर उवाच 

धृतराष्ट्रस्य शकुने राज्ञो दुर्योधनस्य च । 

विनाशे पाण्डुपुत्राणां कृतो मतिविनिश्चय: ।। 

ततो जतुगृहं गत्वा दहने5स्मिन्‌ नियोजिते । 

पृथायाश्न सपुत्राया धार्तराष्ट्स्य शासनात्‌ ।। 

ततः खनकमाहूय सुरझ्भां वै बिले तदा । 

सगुहां कारयित्वा ते कुन्त्या पाण्डुसुतास्तदा ।। 

निष्क्रामिता मया पूर्व मा सम शोके मन: कृथा: । 

निर्गता: पाण्डवा राजन्‌ मात्रा सह परंतपा: ।। 

अग्निदाहान्महाघोरान्मया तस्मादुपायत: । 

मा सम शोकमिमं कार्षीर्जीवन्त्येव च पाण्डवा: ।। 

प्रच्छन्ना विचरिष्यन्ति यावत्‌ कालस्य पर्यय: ।। 

तस्मिन्‌ युधिष्ठिरं काले दक्ष्यन्ति भुवि भूमिपा: ।) 

विदुर बोले--धूृतराष्ट्र शकुनि तथा राजा दुर्योधनका यह पक्का विचार हो गया था कि 
पाण्डवोंको नष्ट कर दिया जाय। तदनन्तर लाक्षागृहमें जानेपर जब दुर्योधनकी आज्ञासे 
पुत्रोंसहित कुन्तीको जला देनेकी योजना बन गयी, तब मैंने एक भूमि खोदनेवालेको 
बुलाकर भूगर्भमें गुफासहित सुरंग खुदवायी और कुन्तीसहित पाण्डवोंको घरमें आग 
लगनेसे पहले ही निकाल लिया, अतः आप अपने मनमें शोकको स्थान न दीजिये। राजन! 


शत्रुओंको संताप देनेवाले पाण्डव अपनी माताके साथ उस महाभयंकर अग्निदाहसे दूर 
निकल गये हैं। मेरे पूर्वोक्त उपायसे ही यह कार्य सम्भव हो सका है। पाण्डव निश्चय ही 
जीवित हैं, अतः आप उनके लिये शोक न कीजिये। जबतक यह समय बदलकर अनुकूल 
नहीं हो जाता, तबतक वे पाण्डव छिपे रहकर इस भूतलपर विचरेंगे। अनुकूल समय 
आनेपर सब राजा इस पृथ्वीपर युधिष्ठिरको देखेंगे। 

पाण्डवाश्वापि निर्गत्य नगराद्‌ वारणावतात्‌ | 

नदीं गड्जभामनुप्राप्ता मातृषष्ठा महाबला: ।। १९ |। 

(इधर) महाबली पाण्डव भी वारणावत नगरसे निकलकर माताके साथ गंगा नदीके 
तटपर पहुँचे ।। १९ ।। 

दाशानां भुजवेगेन नद्या: स्रोतोजवेन च | 

वायुना चानुकूलेन तूर्ण पारमवाप्रुवन्‌ ।। २० ।। 

वे नाविकोंकी भुजाओं तथा नदीके प्रवाहके वेगसे अनुकूल वायुकी सहायता पाकर 
जल्दी ही पार उतर गये ।। २० ।। 

ततो नावं परित्यज्य प्रययुर्दक्षिणां दिशम्‌ 

विज्ञाय निशि पन्थानं नक्षत्रगणसूचितम्‌ ।। २१ ।। 

तदनन्तर नाव छोड़ रातमें नक्षत्रोंद्वारा सूचित मार्गको पहचानकर वे दक्षिण दिशाकी 
ओर चल दिये ।। २१ ।। 

यतमाना वनं राजन्‌ गहन प्रतिपेदिरे । 

ततः श्रान्ता: पिपासार्ता निद्रान्धा: पाण्डुनन्दना: ।। २२ ।। 

पुनरूचुर्महावीर्य भीमसेनमिदं वच: । 

इत: कष्टतरं कि नु यद्‌ वयं गहने वने । 

दिशश्व न विजानीमो गन्तुं चैव न शकनुम: ।। २३ ।। 

राजन! इस प्रकार आगे बढ़नेकी चेष्टा करते हुए वे सब-के-सब एक घने जंगलमें जा 
पहुँचे। उस समय पाण्डवलोग थके-माँदे, प्याससे पीड़ित और (अधिक जगनेसे) नींदमें 
अंधे-से हो रहे थे। वे महापराक्रमी भीमसेनसे पुनः इस प्रकार बोले--'भारत! इससे बढ़कर 
महान्‌ कष्ट क्या होगा कि हमलोग इस घने जंगलमें फँसकर दिशाओंको भी नहीं जान पाते 
तथा चलने-फिरनेमें भी असमर्थ हो रहे हैं || २२-२३ ।। 

तं च पापं न जानीमो यदि दग्ध:ः पुरोचन: । 

कथं तु विप्रमुच्येम भयादस्मादलक्षिता: ।। २४ ।। 

“हमें यह भी पता नहीं है कि पापी पुरोचन जल गया या नहीं। हम दूसरोंसे छिपे रहकर 
किस प्रकार इस महान्‌ कष्टसे छुटकारा पा सकेंगे?” ।। २४ ।। 

पुनरस्मानुपादाय तथैव व्रज भारत । 

त्वं हि नो बलवानेको यथा सततगस्तथा ।। २५ ।। 


'भैया! तुम पुन: पूर्ववत्‌ हम सबको लेकर चलो। हमलोगोंमें एक तुम्हीं अधिक बलवान्‌ 
और उसी प्रकार निरन्तर चलने-फिरनेमें भी समर्थ हो' || २५ ।। 

इत्युक्तो धर्मराजेन भीमसेनो महाबल: । 

आदाय कुन्तीं भ्रातृंश्ष जगामाशु महाबल: ।। २६ ।। 

धर्मराजके यों कहनेपर महाबली भीमसेन माता कुन्ती तथा भाइयोंको अपने ऊपर 
चढ़ाकर बड़ी शीघ्रताके साथ चलने लगे || २६ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि पाण्डववनप्रवेशे 
एकोनपञ्चाशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४९ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुयृहपर्वरमें पाण्डवोंका वनमें प्रवेशविषयक 
एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४९ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २९ श्लोक मिलाकर कुल ५५ श्लोक हैं) 


अपन का छा | अत-४#-#कात 


पजञज्चाशर्दाधिकशततमोब् ध्याय: 


माता कुन्तीके लिये भीमसेनका जल ले आना, माता और 
भाइयोंको भूमिपर सोये देखकर भीमका विषाद एवं 
दुर्योधनके प्रति क्रोध 


वैशम्पायन उवाच 


तेन विक्रममाणेन ऊरुवेगसमीरितम्‌ । 

वन॑ सवृक्षविटपं व्याघूर्णितमिवाभवत्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! भीमसेनके चलते समय उनके महान्‌ वेगसे 
आन्दोलित हो वृक्ष और शाखाओंसहित वह सम्पूर्ण वन घूमता-सा प्रतीत होने लगा ।। १ ।। 

जड्घावातो ववौ चास्य शुचिशुक्रागमे यथा । 

आवर्जितलतावक्ष मार्ग चक्रे महाबल: ।। २ ।। 

जैसे ज्येष्ठ और आषाढ़ मासके संधिकालमें जोर-जोरसे हवा चलने लगती है, उसी 
प्रकार उनकी पिंडलियोंके वेगपूर्वक संचालनसे आँधी-सी उठ रही थी। महाबली भीम जिस 
मार्गसे चलते, वहाँकी लताओं और वृक्षोंकों पैरोंसे रौॉदकर जमीनके बराबर कर देते 
थे।।२।। 

स मृदनन्‌ पुष्यितांश्वैव फलितांश्व वनस्पतीन्‌ | 

अवरुज्य ययौ गुल्मान्‌ पथस्तस्य समीपजान्‌ ।। ३ ।। 

उनके मार्गके निकट जो फल और फूलोंसे लदे हुए वनस्पति एवं गुल्म आदि होते, उन्हें 
तोड़कर वे पैरोंसे रौंदते जाते थे ।। ३ ।। 

स रोषित इव क्ुद्धो वने भज्जन्‌ महाद्रुमान्‌ । 

त्रिप्रखुतमद: शुष्मी षष्टिवर्षी मतड़राट्‌ ।। ४ ।। 

जैसे तीन अंगोंसे मद बहानेवाला साठ वर्षका तेजस्वी गजराज (किसी कारणसे) 
कुपित हो वनके बड़े-बड़े वृक्षोंको तोड़ने लगता है, उसी प्रकार महातेजस्वी भीमसेन उस 
वनके विशाल वृक्षोंको धराशायी करते हुए आगे बढ़ रहे थे || ४ ।। 

गच्छतस्तस्य वेगेन ताक्ष्यमारुतरंहस: । 

भीमस्य पाणए्जुपुत्राणां मूर्च्छेव समजायत ।। ५ ।। 

गरुड़ और वायुके समान तीव्र गतिवाले भीमसेनके चलते समय उनके (महान) वेगसे 
अन्य पाण्जुपुत्रोंको मूर्च्छा-सी आ जाती थी ।। ५ ।। 

असकृच्चापि संतीर्य दूरपारं भुजप्लवै: | 

पथि प्रच्छन्नमासेदुर्धार्तराष्ट्रभयात्‌ तदा ।। ६ ।। 


मार्गमें आये हुए जल-प्रवाहको, जिसका पाट दूरतक फैला होता था, दोनों भुजाओंके 
बेड़ेद्वारा ही बारंबार पार करके वे सब पाण्डव दुर्योधनके भयसे किसी गुप्त स्थानमें जाकर 
रहते थे || ६ ।। 

कृच्छेण मातरं चैव सुकुमारी यशस्विनीम्‌ । 

अवहत्‌ स तु पृष्ठेन रोधस्तु विषमेषु च ।। ७ ।। 

भीमसेन अपनी सुकुमारी एवं यशस्विनी माता कुन्तीको पीठपर बिठाकर नदीके ऊँचे- 
नीचे कगारोंपर बड़ी कठिनाईसे ले जाते थे ।। ७ ।। 

अगमच्च वनोद्देशमल्पमूलफलोदकम्‌ | 

क्र्रपक्षिम॒गं घोरं सायाह्ले भरतर्षभ ।। ८ ।। 

भरतश्रेष्ठ! वे संध्या होते-होते वनके ऐसे भयंकर प्रदेशमें जा पहुँचे, जहाँ फल-मूल और 
जलकी बहुत कमी थी। वहाँ क्रूर स्वभाववाले पक्षी और हिंसक पशु रहते थे ।। ८ ।। 

घोरा समभवत्‌ संध्या दारुणा मृगपक्षिण: । 

अप्रकाशा दिश: सर्वा वातैरासन्ननार्तवै: ।। ९ ।। 

वह संध्या बड़ी भयानक प्रतीत होती थी। क्रूर स्वभाववाले पशु और पक्षी वहाँ वास 
करते थे। बिना ऋतुकी प्रचण्ड हवाओंके चलनेसे सम्पूर्ण दिशाएँ (धूलसे आच्छादित हो) 
अन्धकारपूर्ण हो रही थीं ।। ९ ।। 

शीर्णपर्णफलै राजन्‌ बहुगुल्मक्षुपैर्ट्रमै: । 

भग्नावभग्नभूयिष्ठैर्ननाद्रुमसमाकुलै: ।। १० ।। 

राजन! (हवाके झोंकोंसे) वनके बहुसंख्यक छोटे-बड़े वृक्ष और गुल्म-लता आदि झुक- 
झुककर टूट गये थे। उनके पत्ते और फल इधर-उधर बिखर गये थे और उनपर पक्षी शब्द 
कर रहे थे। इन सबके कारण सम्पूर्ण दिशाओंमें अँधेरा छा रहा था || १० ।। 

ते श्रमेण च कौरव्यास्तृष्णया च प्रपीडिता: । 

नाशवनुवंस्तदा गन्तुं निद्रया च प्रवृद्धया ।। ११ ।। 

वे कुरुकुलरत्न पाण्डव उस समय अधिक परिश्रम और प्यासके कारण बहुत कष्ट पा 
रहे थे। थकावटसे उनकी नींद भी बहुत बढ़ गयी थी, जिससे पीड़ित होकर वे आगे जानेमें 
असमर्थ हो गये ।। ११ ।। 

न्यविशन्त हि ते सर्वे निरास्वादे महावने । 

ततस्तृषापरिकलान्ता कुन्ती पुत्रानथाब्रवीत्‌ ।। १२ ।। 

तब उन सबने उस नीरस विशाल जंगलमें डेरा डाल दिया। तत्पश्चात्‌ प्याससे पीड़ित 
कुन्तीदेवी अपने पुत्रोंसे बोली-- || १२ ।। 

माता सती पाण्डवानां पज्चानां मध्यत:ः स्थिता । 

तृष्णया हि परीतास्मि पुत्रान्‌ भूशमथाब्रवीत्‌ ।। १३ ।। 


“मैं पाँच पाण्डुपुत्रोंकी माता हूँ और उन्हींके बीचमें स्थित हूँ, तो भी प्याससे व्याकुल हूँ 
इस प्रकार कुन्तीदेवीने अपने बेटोंके समक्ष यह बात बार-बार दुहरायी ।। १३ ।। 

तच्छुत्वा भीमसेनस्य मातृस्नेहात्‌ प्रजल्पितम्‌ । 

कारुण्येन मनस्तप्तं गमनायोपचक्रमे ।। १४ ।। 

माताका वात्सल्यसे कहा हुआ वह वचन सुनकर भीमसेनका हृदय करुणासे भर 
आया। वे मन-ही-मन संतप्त हो उठे और स्वयं ही (पानी लानेके लिये) जानेकी तैयारी करने 
लगे ।। १४ ।। 

ततो भीमो वन घोर प्रविश्य विजनं महत्‌ | 

न्यग्रोधं विपुलच्छायं रमणीयं ददर्श ह ।। १५ ।। 

उस समय भीमने उस विशाल, निर्जन एवं भयंकर वनमें प्रवेश करके एक बहुत सुन्दर 
और विस्तृत छायावाला बरगदका पेड़ देखा ।। १५ ।। 

तत्र निक्षिप्य तान्‌ सर्वानुवाच भरतर्षभ: । 

पानीयं मृगयामीह विश्रमध्वमिति प्रभो || १६ ।। 

राजन! भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ भीमसेनने उन सबको वहीं बिठाकर कहा--“आपलोग यहाँ 
विश्राम करें, तबतक मैं पानीका पता लगाता हूँ ।। १६ ।। 

एते रुवन्ति मधुरं सारसा जलचारिण: । 

ध्रुवमत्र जलस्थानं महच्येति मतिर्मम ।। १७ ।। 

'ये जलचर सारस पक्षी बड़ी मीठी बोली बोल रहे हैं; (अतः) यहाँ (पासमें) अवश्य 
कोई महान्‌ जलाशय होगा--ऐसा मेरा विश्वास है” || १७ ।। 

अनुज्ञातः स गच्छेति क्षात्रा ज्येष्देन भारत । 

जगाम तत्र यत्र सम सारसा जलचारिण: ।। १८ ।। 

भारत! तब बड़े भाई युधिष्ठिरने “जाओ!” कहकर उन्हें अनुमति दे दी। आज्ञा पाकर 
भीमसेन वहीं गये, जहाँ ये जलचर सारस पक्षी कलरव कर रहे थे ।। १८ ।। 

स तत्र पीत्वा पानीयं स्नात्वा च भरतर्षभ । 

तेषामर्थे च जग्राह भ्रातृणां भ्रातृवत्सल: । 

उत्तरीयेण पानीयमानयामास भारत ।। १९ |। 

भरतश्रेष्ठ! वहाँ पानी पीकर स्नान कर लेनेके पश्चात्‌ भाइयोंपर स्नेह रखनेवाले भीम 
उनके लिये भी चादरमें पानी ले आये ।। १९ ।। 

गव्यूतिमात्रादागत्य त्वरितो मातरं प्रति । 

शोकदुःखपरीतात्मा नि:शश्वासोरगो यथा ॥। २० ।। 

दो कोस दूरसे जल्दी-जल्दी चलकर भीमसेन अपनी माताके पास आये। उनका मन 
शोक और दु:खसे व्याप्त था और वे सर्पकी भाँति लंबी सांस खींच रहे थे || २० ।। 

स सुप्तां मातरं दृष्टवा क्षातृश्च वसुधातले । 


भृशं शोकपरीतात्मा विललाप वृकोदर: ।। २१ ।। 

माता और भाइयोंको धरतीपर सोया देख भीमसेन मन-ही-मन अत्यन्त शोकसे संतप्त 
हो गये और इस प्रकार विलाप करने लगे--- || २१ ।। 

अत: कष्टतरं कि नु द्रष्टव्यं हि भविष्यति । 

यत्‌ पश्यामि महीसुप्तान्‌ 20% सुमन्दभाक्‌ ॥। २२ ।। 

“हाय! मैं कितना भाग्यहीन हूँ कि आज अपने भाइयोंको पृथ्वीपर सोया देख रहा हूँ। 
इससे महान्‌ कष्टकी बात देखनेमें क्या आयेगी || २२ ।। 

शयनेषु पराघ्येषु ये पुरा वारणावते । 

नाधिजग्मुस्तदा निद्रां तेडद्य सुप्ता महीतले ।। २३ ।। 

“आजसे पहले जब हमलोग वारणावत नगरमें थे, उस समय जिन्हें बहुमूल्य 
शय्याओंपर भी नींद नहीं आती थी, वे ही आज धरतीपर सो रहे हैं! || २३ ।। 

स्वसारं वसुदेवस्य शत्रुसड्घावमर्दिन: । 

कुन्तिराजसुतां कुन्तीं सर्वलक्षणपूजिताम्‌ ।। २४ ।। 

स्‍्नुषां विचित्रवीर्यस्य भार्या पाण्डोर्महात्मन: । 

तथैव चास्मज्जननीं पुण्डरीकोदरप्रभाम्‌ ।। २५ ।। 

सुकुमारतरामेनां महारहशयनोचिताम्‌ | 

शयानां पश्यताद्येह पृथिव्यामतथोचिताम्‌ ॥। २६ ।। 

“जो शत्रुसमूहका संहार करनेवाले वसुदेवजीकी बहिन तथा महाराज कुन्तिभोजकी 
कन्या हैं, समस्त शुभ लक्षणोंके कारण जिनका सदा समादर होता आया है, जो राजा 
विचित्रवीर्यकी पुत्रवधू तथा महात्मा पाण्डुकी धर्मपत्नी हैं, जिन्होंने हम-जैसे पुत्रोंको जन्म 
दिया है, जिनकी अंगकान्ति कमलके भीतरी भागके समान है, जो अत्यन्त सुकुमार और 
बहुमूल्य शय्यापर शयन करनेके योग्य हैं, देखो, आज वे ही कुन्तीदेवी यहाँ भूमिपर सोयी 
हैं! ये कदापि इस तरह शयन करनेके योग्य नहीं हैं ।। २४--२६ ।। 

धर्मादिन्द्राच्च वाताच्च सुषुवे या सुतानिमान्‌ | 

सेयं भूमौ परिश्रान्ता शेते प्रासादशायिनी ।। २७ ।। 

“जिन्होंने धर्म, इन्द्र और वायुके द्वारा हम-जैसे पुत्रोंको उत्पन्न किया है, वे राजमहलमें 
सोनेवाली महारानी कुन्ती आज परिश्रमसे थककर यहाँ पृथ्वीपर पड़ी हैं || २७ ।। 

कि नु दुःखतरं शक्‍यं मया द्रष्टमत: परम्‌ | 

यो5हमद्य नरव्याप्रान्‌ सुप्तान्‌ पश्यामि भूतले ।। २८ ।। 

“इससे बढ़कर दुःख मैं और कया देख सकता हूँ जबकि अपने नरश्रेष्ठ भाइयोंको आज 
मुझे धरतीपर सोते देखना पड़ रहा है || २८ ।। 

त्रिषु लोकेषु यो राज्यं धर्मनित्यो$र्हते नृप: । 

सो<यं भूमौ परिश्रान्तः शेते प्राकृतवत्‌ कथम्‌ ॥। २९ |। 


“जो नित्य धर्मपरायण नरेश तीनों लोकोंका राज्य पानेके अधिकारी हैं, वे ही आज 
साधारण मनुष्योंकी भाँति थके-माँदे पृथ्वीपर कैसे पड़े हैं । २९ ।। 

अयं नीलाम्बुदश्यामो नरेष्वप्रतिमो<र्जुन: । 

शेते प्राकृतववद्‌ भूमौ ततो दुःखतरं नु किम्‌ ।। ३० ।। 

“मनुष्योंमें जिनकी कहीं समता नहीं है, वे नील मेघके समान श्याम कान्तिवाले अर्जुन 
आज प्राकृत जनोंकी भाँति पृथ्वीपर सो रहे हैं; इससे महान्‌ दुःख और क्या हो सकता 
है || ३० ।। 

अश्रिनाविव देवानां याविमौ रूपसम्पदा । 

तौ प्राकृतवदद्येमौ प्रसुप्ती धरणीतले ।। ३१ ।। 

“जो अपनी रूप-सम्पत्तिसे देवताओंमें अश्विनीकुमारोंक समान जान पढ़ते हैं, वे ही ये 
दोनों नकुल-सहदेव आज यहाँ साधारण मनुष्योंके समान जमीनपर सोये पड़े हैं ।। ३१ ।। 

ज्ञातयो यस्य नैव स्युर्विषमा: कुलपांसना: । 

स जीवेत सुखं लोके ग्रामद्रुम इवैकज: ।। ३२ ।। 

“जिसके कुट॒म्बी पक्षपातयुक्त और कुलको कलंक लगानेवाले नहीं होते, वह पुरुष 
गाँवके अकेले वृक्षकी भाँति संसारमें सुखपूर्वक जीवन धारण करता है || ३२ ।। 

एको वृक्षो हि यो ग्रामे भवेत्‌ पर्णफलान्वित: । 

चैत्यो भवति निर्ज्ञातिरर्चनीय: सुपूजित: ।। ३३ ।। 

'गाँवमें यदि एक ही वृक्ष पत्र और फल-फूलोंसे सम्पन्न हो तो वह दूसरे सजातीय 
वृक्षोंसे रहित होनेपर भी चैत्य (देववृक्ष) माना जाता है तथा उसे पूज्य मानकर उसकी खूब 
पूजा की जाती है ।। ३३ ।। 

येषां च बहव: शूरा ज्ञातयो धर्ममाश्रिता: । 

ते जीवन्ति सुखं लोके भवन्ति च निरामया: ।। ३४ ।। 

“जिनके बहुत-से शूरवीर भाई-बन्धु धर्म-परायण होते हैं, वे भी संसारमें नीरोग रहते 
और सुखसे जीते हैं || ३४ ।। 

बलवन्‍न्त: समृद्धार्था मित्रबान्धवनन्दना: । 

जीवन्त्यन्योन्यमाश्रित्य ट्रमा: काननजा इव ।। ३५ ।। 

“जो बलवान, धनसम्पन्न तथा मित्रों और भाई-बन्धुओंको आनन्दित करनेवाले हैं, वे 
जंगलके वृक्षोंकी भाँति एक-दूसरेके सहारे जीवन धारण करते हैं || ३५ ।। 

वयं तु धृतराष्ट्रेण सपुत्रेण दुरात्मना । 

विवासिता न दग्धाश्व॒ कथंचिद्‌ दैवसंश्रयात्‌ ।। ३६ ।। 

“दुरात्मा धृतराष्ट्र और उसके पुत्रोंने तो हमें घरसे निकाल दिया और जलानेकी भी चेष्टा 
की, परंतु किसी तरह भाग्यके भरोसे हम बच गये हैं || ३६ ।। 

तस्मान्मुक्ता वयं दाहादिमं वृक्षमुपाश्रिता: । 


कां दिशं प्रतिपत्स्यम: प्राप्ता: क्लेशमनुत्तमम्‌ ।। ३७ ।। 

“आज उस अग्निदाहसे मुक्त हो हम इस वृक्षके नीचे आश्रय ले रहे हैं। हमें किस 
दिशामें जाना है, इसका भी पता नहीं है। हम भारी-से-भारी कष्ट उठा रहे हैं ।। ३७ ।। 

सकामो भव दुर्बुद्धे धार्तराष्ट्राल्पदर्शन । 

नूनं देवा: प्रसन्नास्ते नानुज्ञां मे युधिष्ठिर: ।। ३८ ।। 

प्रयच्छति वधे तुभ्यं तेन जीवसि दुर्मते । 

नन्वद्य त्वां सहामात्यं सकर्णानुजसौबलम्‌ ।। ३९ |। 

गत्वा क्रोधसमाविष्ट: प्रेषयिष्ये यमक्षयम्‌ | 

कि नु शक्‍यं मया कर्तु यत्‌ ते न क्रुध्यते नृप: ।। ४० ।। 

धर्मात्मा पाण्डवश्रेष्ठ: पापाचार युधिष्ठिर: । 

एवमुक्‍्त्वा महाबाहु: क्रोधसंदीप्तमानस: ।। ४१ ।। 

करं करेण निष्पिष्य नि:श्वसन्‌ दीनमानस: । 

पुनर्दीनमना भूत्वा शान्तार्चिरिव पावक: ।। ४२ ।। 

भ्रातृन्‌ महीतले सुप्तानवैक्षत वृकोदर: । 

विश्वस्तानिव संविष्टान्‌ पृथग्जनसमानिव ।। ४३ ।। 

'ओ दुर्बुद्धि अल्पदर्शी धृतराष्ट्रकुमार दुर्योधन! आज तेरी कामना पूरी हुई। निश्चय ही 
देवता तुझपर प्रसन्न हैं। तभी तो राजा युधिष्ठिर मुझे तेरा वध करनेकी आज्ञा नहीं दे रहे हैं। 
दुर्मती! यही कारण है कि तू अबतक जी रहा है। रे पापाचारी! मैं आज ही जाकर कुपित हो 
मन्त्रियों, कर्ण, छोटे भाई और शकुनिसहित तुझे यमलोक भेज सकता हूँ। किंतु क्या करूँ, 
पाण्डवश्रेष्ठ धर्मात्मा युधिष्ठिर तुझपर कोप नहीं कर रहे हैं'। 

यों कहकर महाबाहु भीम मन-ही-मन क्रोधसे जलते और हाथ-से-हाथ मलते हुए 
दीनभावसे लंबी साँसें खींचने लगे। बुझी हुई लपटोंवाली अग्निकी भाँति दीनहृदय होकर वे 
पुनः धरतीपर सोये हुए भाइयोंकी ओर देखने लगे। उनके वे सभी भाई साधारण लोगोंकी 
भाँति भूमिधर ही निश्चिन्ततापूर्वक सो रहे थे || ३८--४३ ।। 

नातिदूरेण नगरं वनादस्माद्धि लक्षये | 

जागर्तव्ये स्वपन्तीमे हन्त जागर्म्यहं स्वयम्‌ ।। ४४ ।। 

पास्यन्तीमे जल पश्चात्‌ प्रतिबुद्धा जितक्लमा: । 

इति भीमो व्यवस्यैव जजागार स्वयं तदा ।। ४५ ।। 

उस समय भीम इस प्रकार विचार करने लगे--“अहो! इस वनसे थोड़ी ही दूरीपर कोई 
नगर दिखायी देता है। जबकि जागना चाहिये, ऐसे समय भी ये मेरे भाई सो रहे हैं। अच्छा, 
मैं स्वयं ही जागरण करूँ। थकावट दूर होनेपर जब ये नींदसे उठेंगे, तभी पानी पियेंगे।” 
ऐसा निश्चय करके भीमसेन स्वयं उस समय जागरण करने लगे ।। ४४-४५ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि भीमजलाहरणे 
पजञ्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५० || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जद्ुगृहपर्वमें भीमसेनके जल ले आनेसे 
सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १५० ॥/ 


ऑपन-आ क्र बछ। अर क्ज 


(हिडिम्बवधपर्व) 


एकपज्चाशदधिकशततमो< ध्याय: 


हिडिम्बके भेजनेसे हिडिम्बा राक्षसीका पाण्डवोंके पास 
आना और भीमसेनसे उसका वार्तालाप 


वैशम्पायन उवाच 


तत्र तेषु शयानेषु हिडिम्बो नाम राक्षस: । 

अविदूरे वनात्‌ तस्माच्छालवृक्षं समाश्रित: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जहाँ पाण्डव कुन्तीसहित सो रहे थे, उस वनसे 
थोड़ी दूरपर एक शालवृक्षका आश्रय ले हिडिम्ब नामक राक्षस रहता था ।। १ ।। 

क्रूरो मानुषमांसादो महावीर्यपराक्रम: । 

प्रावड्जलधरश्याम: पिज्ञाक्षो दारुणाकृति: ॥। २ ।। 

वह बड़ा क्रूर और मनुष्यमांस खानेवाला था। उसका बल और पराक्रम महान्‌ था। वह 
वर्षाकालके मेघकी भाँति काला था। उसकी आँखें भूरे रंगकी थीं और आकृतिसे क्रूरता 
टपक रही थी ।। २ ।। 

दंष्टाकरालवदन: पिशितेप्सु: क्षुधार्दित: । 

लम्बस्फिग्लम्बजठरो रक्तश्मश्रुशिरोरुह: ।। ३ ।। 

उसका मुख बड़ी-बड़ी दाढ़ोंक कारण विकराल दिखायी देता था। वह भूखसे पीड़ित 
था और मांस मिलनेकी आशामें बैठा था। उसके नितम्ब और पेट लम्बे थे। दाढ़ी, मूँछठ और 
सिरके बाल लाल रंगके थे ।। ३ ।। 

महावृक्षगलस्कन्ध: शड्कुकर्णो बिभीषण: । 

यदृच्छया तानपश्यत्‌ पाण्डुपुत्रान्‌ महारथान्‌ ।। ४ ।। 

उसका गला और कंधे महान्‌ वृक्षके समान जान पड़ते थे। दोनों कान भालेके समान 
लम्बे और नुकीले थे। वह देखनेमें बड़ा भयानक था। दैवेच्छासे उसकी दृष्टि उन महारथी 
पाण्डवोंपर पड़ी ।। ४ ।। 

विरूपरूप: पिड़ाक्ष: करालो घोरदर्शन: । 

पिशितेप्सु: क्षुधार्तश्न॒ तानपश्यद्‌ यदृच्छया ।। ५ ।। 

बेडौल रूप तथा भूरी आँखोंवाला वह विकराल राक्षस देखनेमें बड़ा डरावना था। 
भूखसे व्याकुल होकर वह कच्चा मांस खाना चाहता था। उसने अकस्मात्‌ पाण्डवोंको देख 


लिया ।। ५ ।। 


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ऊर्ध्वाड्गुलि: स कण्डूयन्‌ धुन्वन्‌ रूक्षान्‌ शिरोरुहान्‌ 

जृम्भमाणो महावकत्र: पुन: पुनरवेक्ष्य च ।। ६ ।। 

तब अंगुलियोंको ऊपर उठाकर सिरके रूखे बालोंको खुजलाता और फटकारता हुआ 
वह विशाल मुखवाला राक्षस पाण्डवोंकी ओर बार-बार देखकर जँभाई लेने लगा ।। ६ ।। 

हृष्टो मानुषमांसस्थ महाकायो महाबल: । 

आध्राय मानुषं गन्धं भगिनीमिदमब्रवीत्‌ ।। ७ ।। 

मनुष्यका मांस मिलनेकी सम्भावनासे उसे बड़ा हर्ष हुआ। उस महाबली विशालकाय 
राक्षसने मनुष्यकी गन्ध पाकर अपनी बहिनसे इस प्रकार कहा-- ।। ७ ।। 

उपपन्नश्चिरस्याद्य भक्षो5यं मम सुप्रिय: । 

स्नेहस्रवान्‌ प्रस्रवति जिह्दा पर्येति मे सुखम्‌ ।। ८ ।। 

“आज बहुत दिनोंके बाद ऐसा भोजन मिला है, जो मुझे बहुत प्रिय है। इस समय मेरी 
जीभ लार टपका रही है और बड़े सुखसे लप-लप कर रही है ।। ८ ।। 

अष्टौ दंष्टा: सुतीक्ष्णाग्राश्चिरस्पापातदुस्सहा: । 

देहेषु मज्जयिष्यामि स्निग्धेषु पिशितेषु च ।। ९ ।। 


“आज मैं अपनी आठों दाढ़ोंको, जिनके अग्रभाग बड़े तीखे हैं और जिनकी चोट 
प्रारम्भसे ही अत्यन्त दुःसह होती है, दीर्घकालके पश्चात्‌ मनुष्योंके शरीरों और चिकने 
मांसमें डुबाऊँगा ।। ९ ।। 

आक्रम्य मानुषं कण्ठमाच्छिद्य धमनीमपि । 

उष्णं नवं प्रपास्यामि फेनिलं रुधिरं बहु | १० ।। 

“मैं मनुष्यकी गर्दनपर चढ़कर उसकी नाड़ियोंको काट दूँगा और उसका गरम-गरम, 
फेनयुक्त तथा ताजा खून खूब छककर पीऊँगा ।। १० ।। 

गच्छ जानीहि के त्वेते शेरते वनमाश्रिता: । 

मानुषो बलवान गन्धो पघ्राणं तर्पपतीव मे ।। ११ ।। 

“बहिन! जाओ, पता तो लगाओ, ये कौन इस वनमें आकर सो रहे हैं? मनुष्यकी तीव्र 
गन्ध आज मेरी नासिकाको मानो तृप्त किये देती है ।। ११ ।। 

हत्वैतान्‌ मानुषान्‌ सर्वानानयस्व ममान्तिकम्‌ | 

अस्मद्विषयसुप्ते भ्यो नैतेभ्यो भयमस्ति ते ।। १२ ।। 

“तुम इन सब मनुष्योंको मारकर मेरे पास ले आओ। ये हमारी हदमें सो रहे हैं, 
(इसलिये) इनसे तुम्हें तनिक भी खटका नहीं है || १२ ।। 

एषामुत्कृत्य मांसानि मानुषाणां यथेष्टत: । 

भक्षयिष्याव सहितौ कुरु तूर्ण वचो मम ।। १३ ।। 

'फिर हम दोनों एक साथ बैठकर इन मनुष्योंके मांस नोच-नोचकर जी-भर खायेंगे। 
तुम मेरी इस आज्ञाका तुरंत पालन करो || १३ ।। 

भक्षयित्वा च मांसानि मानुषाणां प्रकामत: । 

नृत्याव सहितावावां दत्ततालावनेकश: ।। १४ ।। 

“इच्छानुसार मनुष्यमांस खाकर हम दोनों ताल देते हुए साथ-साथ अनेक प्रकारके 
नृत्य करें! || १४ ।। 

एवमुक्ता हिडिम्बा तु हिडिम्बेन तदा वने । 

भ्रातुर्वचनमाज्ञाय त्वरमाणेव राक्षसी ।। १५ ।। 

जगाम तत्र यत्र सम पाण्डवा भरतर्षभ । 

ददर्श तत्र सा गत्वा पाण्डवान्‌ पृथया सह | 

शयानान्‌ भीमसेनं च जाग्रतं त्वपराजितम्‌ ।। १६ ।। 

भरतश्रेष्ठ उस समय वनमें हिडिम्बके यों कहनेपर हिडिम्बा अपने भाईकी बात 
मानकर मानो बड़ी उतावलीके साथ उस स्थानपर गयी, जहाँ पाण्डव थे। वहाँ जाकर उसने 
कुन्तीके साथ पाण्डवोंको सोते और किसीसे परास्त न होनेवाले भीमसेनको जागते 
देखा ।। १५-१६ ।। 

दृष्टवैव भीमसेनं सा शालपोतमिवोदगतम्‌ । 


राक्षसी कामयामास रूपेणाप्रतिमं भुवि || १७ ।। 

धरतीपर उगे हुए साखूके पौधेकी भाँति मनोहर भीमसेनको देखते ही वह राक्षसी 
(मुग्ध हो) उन्हें चाहने लगी। इस पृथ्वीपर वे अनुपम रूपवान्‌ थे ।। १७ ।। 

अयं श्यामो महाबाहु: सिंहस्कन्धो महाद्युति: । 

कम्बुग्रीव: पुष्कराक्षो भर्ता युक्तो भवेन्‍न्मम ।। १८ ।। 

(उसने मन-ही-मन सोचा--) “इन श्यामसुन्दर तरुण वीरकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं, कंधे 
सिंहके-से हैं, ये महान्‌ तेजस्वी हैं, इनकी ग्रीवा शंखके समान सुन्दर और नेत्र कमलदलके 
सदृश विशाल हैं। ये मेरे लिये उपयुक्त पति हो सकते हैं ।। १८ ।। 

नाहं भ्रातृवचो जातु कुर्या क्रू्रोपसंहितम्‌ । 

पतिस्नेहो&तिबलवान्‌ न तथा भ्रातृसौहदम्‌ ।। १९ || 

मुहूर्तमेव तृप्तिश्न भवेद्‌ भ्रातुर्ममैव च । 

हतैरेतैरहत्वा तु मोदिष्ये शाश्व॒ती: समा: ।। २० ।। 

“मेरे भाईकी बात क्रूरतासे भरी है, अतः मैं कदापि उसका पालन नहीं करूँगी। 
(नारीके हृदयमें) पतिप्रेम ही अत्यन्त प्रबल होता है। भाईका सौहार्द उसके समान नहीं 
होता। इन सबको मार देनेपर इनके मांससे मुझे और मेरे भाईको केवल दो घड़ीके लिये 
तृप्ति मिल सकती है और यदि न मारूँ तो बहुत वर्षोतक इनके साथ आनन्द 
भोगूगी' ।। १९-२० ।। 

सा कामरूपिणी रूपं कृत्वा मानुषमुत्तमम्‌ | 

उपतस्थे महाबाहुं भीमसेनं शनै: शनै: ।। २१ ।। 

लज्जमानेव ललना दिव्याभरणभूषिता । 

स्मितपूर्वमिदं वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत्‌ ।। २२ ।। 

कुतस्त्वमसि सम्प्राप्त: कश्नासि पुरुषर्षभ । 

क इमे शेरते चेह पुरुषा देवरूपिण: ।। २३ ।। 

हिडिम्बा इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली थी। वह मानवजातिकी स्त्रीके समान 
सुन्दर रूप बनाकर लजीली ललनाकी भाँति धीरे-धीरे महाबाहु भीमसेनके पास गयी। दिव्य 
आभूषण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। तब उसने मुसकराकर भीमसेनसे इस प्रकार पूछा 
--'पुरुषरत्न! आप कौन हैं और कहाँसे आये हैं? ये देवताओंके समान सुन्दर रूपवाले 
पुरुष कौन हैं, जो यहाँ सो रहे हैं? || २१--२३ ।। 

केयं वै बृहती श्यामा सुकुमारी तवानघ । 

शेते वनमिदं प्राप्य विश्वस्ता स्वगृहे यथा ।। २४ ।। 


“और अनघ! ये सबसे बड़ी उम्रवाली श्यामा5ः सुकुमारी देवी आपकी कौन लगती हैं, 
जो इस वनमें आकर भी ऐसी नि:शंक होकर सो रही हैं, मानो अपने घरमें ही हों || २४ ।। 
नेदं जानाति गहन वन राक्षससेवितम्‌ | 


वसति हात्र पापात्मा हिडिम्बो नाम राक्षस: ।। २५ || 

“इन्हें यह पता नहीं है कि यह गहन वन राक्षसोंका निवासस्थान है। यहाँ हिडिम्ब 
नामक पापात्मा राक्षस रहता है | २५ ।। 

तेनाहं प्रेषिता क्रात्रा दुष्टभावेन रक्षसा । 

बिभक्षयिषता मांसं युष्माकममरोपम ।। २६ ।। 

“वह मेरा भाई है। उस राक्षसने दुष्टभावसे मुझे यहाँ भेजा है। देवोपम वीर! वह 
आपलोगोंका मांस खाना चाहता है || २६ || 

साहं त्वामभिसम्प्रेक्ष्य देवगर्भसमप्रभम्‌ । 

नान्‍्यं भर्तारमिच्छामि सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते || २७ ।। 

“आपका तेज देवकुमारोंका-सा है, मैं आपको देखकर अब दूसरेको अपना पति 
बनाना नहीं चाहती। मैं यह सच्ची बात आपसे कह रही हूँ ।। २७ ।। 

एतद्‌ विज्ञाय धर्मज्ञ युक्ते मयि समाचर | 

कामोपहतचित्ताड़ीं भजमानां भजस्व माम्‌ ।। २८ ।। 

“धर्मज्ञ! इस बातको समझकर आप मेरे प्रति उचित बर्ताव कीजिये। मेरे तन-मनको 
कामदेवने मथ डाला है। मैं आपकी सेविका हूँ, आप मुझे स्वीकार कीजिये ।। २८ ।। 

त्रास्यामि त्वां महाबाहो राक्षसात्‌ पुरुषादकात्‌ | 

वत्स्यावो गिरिदुर्गेषु भर्ता भव ममानघ ।। २९ ।। 

“महाबाहो! मैं इस नरभक्षी राक्षससे आपकी रक्षा करूँगी। हम दोनों पर्वतोंकी दुर्गम 
कन्दराओंमें निवास करेंगे। अनघ! आप मेरे पति हो जाइये ।। २९ ।। 

(इच्छामि वीर भद्र| ते मा मा प्राणा विहासिषु: । 

त्वया हाहं परित्यक्ता न जीवेयमरिंदम ।।) 

अन्तरिक्षचरी हास्मि कामतो विचरामि च । 

अतुलामाप्रुहि प्रीतिं तत्र तत्र मया सह ।। ३० ।। 

“वीर! आपका भला चाहती हूँ। कहीं ऐसा न हो कि आपके ठुकरानेसे मेरे प्राण ही मुझे 
छोड़कर चले जायेँ। शत्रुदमन! यदि आपने मुझे त्याग दिया तो मैं कदापि जीवित नहीं रह 
सकती। मैं आकाशगमें विचरनेवाली हूँ। जहाँ इच्छा हो, वहीं विचरण कर सकती हूँ। आप 
मेरे साथ भिन्न-भिन्न लोकों और प्रदेशोंमें विहार करके अनुपम प्रसन्नता प्राप्त 
कीजिये' ।। ३० ।। 


भीमसेन उवाच 


(एष ज्येष्ठो मम भ्राता मान्य: परमको गुरु: । 
अनिविष्ट क्ष॒ तन्माहं परिविद्यां कथंचन ।।) 
मातरं भ्रातरं ज्येष्ठं सुखसुप्तान्‌ कथं त्विमान्‌ | 


परित्यजेत को न्वद्य प्रभवन्निह राक्षसि ।। ३१ ।। 

भीमसेन बोले--राक्षसी! ये मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं, जो मेरे लिये परम सम्माननीय गुरु हैं; 
इन्होंने अभीतक विवाह नहीं किया है, ऐसी दशामें मैं तुझसे विवाह करके किसी प्रकार 
कविताः नहीं बनना चाहता। कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो इस जगतमें सामर्थ्यशाली होते 
हुए भी, सुखपूर्वक सोये हुए इन बन्धुओंको, माताको तथा बड़े भ्राताको भी किसी प्रकार 
अरक्षित छोड़कर जा सके? ।। ३१ ।। 

को हि सुप्तानिमान्‌ भ्रातृन्‌ दत्त्वा राक्षमभोजनम्‌ | 

मातरं च नरो गच्छेत्‌ कामार्त इव मद्विध: ।। ३२ ।। 

मुझ-जैसा कौन पुरुष कामपीड़ितकी भाँति इन सोये हुए भाइयों और माताको 
राक्षणषका भोजन बनाकर (अन्यत्र) जा सकता है? ।। ३२ ।। 

राक्षस्युवाच 

यत्‌ ते प्रियं तत्‌ करिष्ये सव॒नितान्‌ प्रबोधय । 

मोक्षयिष्याम्यहं काम राक्षसात्‌ पुरुषादकात्‌ ।। ३३ ।। 

राक्षसीने कहा--आपको जो प्रिय लगे, मैं वही करूँगी। आप इन सब लोगोंको जगा 
दीजिये। मैं इच्छानुसार उस मनुष्यभक्षी राक्षससे इन सबको छुड़ा लूँगी || ३३ ।। 

भीमसेन उवाच 
सुखसुप्तान्‌ 


तू के म्सेअक [_ मातरं चैव राक्षसि । 

न भयाद्‌ बो भ्रातुस्तव दुरात्मन: ।। ३४ ।। 

भीमसेनने कहा--राक्षसी! मेरे भाई और माता इस वनमें सुखपूर्वक सो रहे हैं, तुम्हारे 
दुरात्मा भाईके भयसे मैं इन्हें जगाऊँगा नहीं ।। ३४ ।। 

न हि मे राक्षसा भीरु सोढुं शक्ता: पराक्रमम्‌ । 

न मनुष्या न गन्धर्वा न यक्षाश्चवारुलोचने ।। ३५ ।। 

भीरु! सुलोचने! मेरे पराक्रमको राक्षस, मनुष्य, गन्धर्व तथा यक्ष भी नहीं सह सकते 
हैं । ३५ ।। 

गच्छ वा तिष्ठ वा भद्रे यद्‌ वापीच्छसि तत्‌ कुरु । 

तं वा प्रेषय तन्वज्धि भ्रातरं पुरुषादकम्‌ ।। ३६ ।। 

अतः भद्रे! तुम जाओ या रहो; अथवा तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वही करो। तन्‍्वंगि! 
अथवा यदि तुम चाहो तो अपने नरमांसभक्षी भाईको ही भेज दो || ३६ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि भीमहिडिम्बासंवादे 
एकपज्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५१ |। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तगत हिडिम्बवधपर्वमें भीम-हिडिग्बा- 
संवादविषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५१ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ३८ श्लोक हैं) 


ख्ञी की न कञन घना ऑन 


३. तपाये हुए सोनेके समान वर्णवाली स्त्रीको 'श्यामा” कहा जाता है, जैसा कि इस वचनसे सिद्ध है 
--तप्तकाञज्चनवर्णाभा सा स्त्री श्यामेति कथ्यते ।” 

२. जो निर्दोष बड़े भाईके अविवाहित रहते हुए ही अपना विवाह कर लेता है, वह “परिवेत्ता” कहलाता है। शास्त्रोंमें वह 
निन्दनीय माना गया है। 


द्विपज्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


हिडिम्बका आना, हिडिम्बाका उससे भयभीत होना और 
भीम तथा हिडिम्बासुरका युद्ध 


वैशम्पायन उवाच 


तां विदित्वा चिरगतां हिडिम्बो राक्षसेश्वर: । 

अवतीर्य द्रुमात्‌ तस्मादाजगामाशु पाण्डवान्‌ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तब यह सोचकर कि मेरी बहिनको गये बहुत 
देर हो गयी, राक्षसराज हिडिम्ब उस वृक्षसे उतरा और शीघ्र ही पाण्डवोंके पास आ 
गया ।। १ || 

लोहिताक्षो महाबाहुरूर्ध्वकेशो महानन: । 

मेघसंघातवर्ष्मा च तीक्ष्णदंष्टो भयानक: ।। २ ।। 

उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं, भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं, केश ऊपरको उठे हुए थे 
और विशाल मुख था। उसके शरीरका रंग ऐसा काला था, मानो मेघोंकी काली घटा छा रही 
हो। तीखे दाढ़ोंवाला वह राक्षस बड़ा भयंकर जान पड़ता था । २ ।। 

तमापततन्तं दृष्टवैव तथा विकृतदर्शनम्‌ । 

हिडिम्बोवाच वित्रस्ता भीमसेनमिदं वच: ।। ३ ।। 

देखनेमें विकराल उस राक्षस हिडिम्बको आते देखकर ही हिडिम्बा भयसे थर्रा उठी 
और भीमसेनसे इस प्रकार बोली-- ।। ३ ।। 

आपतत्येष दुष्टात्मा संक़रुद्ध: पुरुषादक: । 

साहं त्वां भ्रातृभि: सार्थ यद्‌ ब्रवीमि तथा कुरु ।। ४ ।। 

'(देखिये,) यह दुष्टात्मा नरभक्षी राक्षस क्रोधमें भरा हुआ इधर ही आ रहा है, अतः मैं 
भाइयोंसहित आपसे जो कहती हूँ, वैसा कीजिये ।। ४ ।। 

अहं कामगमा वीर रक्षोबलसमन्विता । 

आरुहेमां मम श्रोणिं नेष्यामि त्वां विहायसा ।। ५ ।। 

“वीर! मैं इच्छानुसार चल सकती हूँ, मुझमें राक्षसोंका सम्पूर्ण बल है। आप मेरे इस 
कटिप्रदेश या पीठपर बैठ जाइये। मैं आपको आकाशमार्गसे ले चलूँगी ।। ५ ।। 

प्रबोधयैतान्‌ संसुप्तान्‌ मातरं च परंतप । 

सवनिव गमिष्यामि गृहीत्वा वो विहायसा ।। ६ ।। 

“परंतप! आप इन सोये हुए भाइयों और माताजीको भी जगा दीजिये। मैं आप सब 
लोगोंको लेकर आकाशमार्गसे उड़ चलूँगी' ।। ६ ।। 


भीम उवाच 


मा भैस्त्वं पृथुसुश्रोणि नैष कश्चिन्मयि स्थिते । 

अहमेनं हनिष्यामि प्रेक्षन्त्यास्ते सुमध्यमे || ७ ।। 

भीमसेन बोले--सुन्दरी! तुम डरो मत, मेरे सामने यह राक्षस कुछ भी नहीं है। 
सुमध्यमे! मैं तुम्हारे देखते-देखते इसे मार डालूँगा ।। ७ ।। 

नायं प्रतिबलो भीरु राक्षसआापसदो मम । 

सोढुं युधि परिस्पन्दमथवा सर्वराक्षसा: ।। ८ ।। 

भीरु! यह नीच राक्षस युद्धमें मेरे आक्रमणका वेग सह सके, ऐसा बलवान नहीं है। ये 
अथवा सम्पूर्ण राक्षस भी मेरा सामना नहीं कर सकते ।। ८ ।। 

पश्य बाहू सुवृत्तौ मे हस्तिहस्तनिभाविमौ । 

ऊरू परिघसंकाशौ संहतं चाप्युरो महत्‌ ।। ९ ।। 

हाथीकी सूँड़-जैसी मोटी और सुन्दर गोलाकार मेरी इन दोनों भुजाओंकी ओर देखो। 
मेरी ये जाँघें परिघके समान हैं और मेरा विशाल वक्ष:स्थल भी सुदृढ़ एवं सुगठित है ।। ९ ।। 

विक्रमं मे यथेन्द्रस्य साद्य द्रक्ष्यसि शोभने । 

मावमंस्था: पृथुश्रोणि मत्वा मामिह मानुषम्‌ ।। १० ।। 

शोभने! मेरा पराक्रम (भी) इन्द्रके समान है, जिसे तुम अभी देखोगी। विशाल 
नितम्बोंवाली राक्षसी! तुम मुझे मनुष्य समझकर यहाँ मेरा तिरस्कार न करो || १० ।। 


हिडिग्बोवाच 


नावमन्ये नरव्याप्र त्वामहं देवरूपिणम्‌ | 
दृष्टप्रभावस्तु मया मानुषेष्वेव राक्षस: ।। ११ ।। 
हिडिम्बाने कहा--नरश्रेष्ठी आपका स्वरूप तो देवताओंके समान है ही। मैं आपका 
तिरस्कार नहीं करती। मैं तो इसलिये कहती थी कि मनुष्योंपर ही इस राक्षसका प्रभाव मैं 
(कई बार) देख चुकी हूँ || ११ ।। 
वैशग्पायन उवाच 


तथा संजल्पतस्तस्य भीमसेनस्य भारत । 

वाच: शुश्राव ता: क्रुद्धो राक्षस: पुरुषादक: ।। १२ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उस नरभक्षी राक्षस हिडिम्बने क्रोधमें भरकर 
भीमसेनकी कही हुई उपर्युक्त बातें सुनीं || १२ ।। 

अवेक्षमाणस्तस्याश्न हिडिम्बो मानुषं वपु: । 

स्रग्दामपूरितशिखं समग्रेन्दुनिभाननम्‌ ।। १३ ।। 

सुभ्रूनासाक्षिकेशान्तं सुकुमारनखत्वचम्‌ । 

सर्वाभरणसंयुक्त सुसूक्ष्माम्बरवाससम्‌ ।। १४ ।। 


(तत्पश्चात) उसने अपनी बहिनके मनुष्योचित रूपकी ओर दृष्टिपात किया। उसने 
अपनी चोटीमें फ़ूलोंके गजरे लगा रखे थे। उसका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर जान 
पड़ता था। उसकी भौंहें, नासिका, नेत्र और केशान्तभाग--सभी सुन्दर थे। नख और त्वचा 
बहुत ही सुकुमार थी। उसने अपने अंगोंको समस्त आभूषणोंसे विभूषित कर रखा था तथा 
शरीरपर अत्यन्त सुन्दर महीन साड़ी शोभा पा रही थी ।। १३-१४ ।। 

तां तथा मानुषं रूपं बिभ्रतीं सुमनोहरम्‌ । 

पुंस्कामां शड्कमानश्नव चुक्रोध पुरुषादक: ।। १५ ।। 

उसे इस प्रकार सुन्दर एवं मनोहर मानव-रूप धारण किये देख राक्षसके मनमें यह 
संदेह हुआ कि हो-न-हो यह पतिरूपमें किसी पुरुषका वरण करना चाहती है। यह विचार 
मनमें आते ही वह कुपित हो उठा ।। १५ ।। 

संक़रुद्धो राक्षसस्तस्या भगिन्या: कुरुसत्तम । 

उत्फाल्य विपुले नेत्रे ततस्तामिदमब्रवीत्‌ ।। १६ ।। 

कुरुश्रेष्ठ अपनी बहिनपर उस राक्षसका क्रोध बहुत बढ़ गया था। फिर तो उसने बड़ी- 
बड़ी आँखें फाड़-फाड़कर उसकी ओर देखते हुए कहा-- || १६ ।। 

को हि मे भोक्तुकामस्य विघ्नं चरति दुर्मति: । 

न बिभेषि हिडिम्बे कि मत्कोपाद्‌ विप्रमोहिता ।। १७ ।। 

'हिडिम्बे! मैं (भूखा हूँ और) भोजन चाहता हूँ। कौन दुर्बुद्धि मानव मेरे इस अभीष्टकी 
सिद्धिमें विघ्न डाल रहा है। तू अत्यन्त मोहके वशीभूत होकर क्‍या मेरे क्रोधसे नहीं डरती 
है? ।। १७ ।। 

धिक्‌ त्वामसति पुंस्कामे मम विप्रियकारिणि । 

पूर्वेषां राक्षसेन्द्राणां सर्वेषामयशस्करि ।। १८ ।। 

“मनुष्यको पति बनानेकी इच्छा रखकर मेरा अप्रिय करनेवाली दुराचारिणी! तुझे 
धिक्कार है। तू पूर्ववर्ती सम्पूर्ण राक्षसराजोंके कुलमें कलंक लगानेवाली है || १८ ।। 

यानिमानश्रिताकार्षीविंप्रियं सुमहन्मम । 

एष तानद्य वै सर्वान्‌ हनिष्यामि त्ववा सह ।। १९ |।। 

“जिन लोगोंका आश्रय लेकर तूने मेरा महान्‌ अप्रिय कार्य किया है, यह देख, मैं उन 
सबको आज तेरे साथ ही मार डालता हूँ" ।। १९ |। 

एवमुकक्‍्त्वा हिडिम्बां स हिडिम्बो लोहितेक्षण: । 

वधायाभिपपातैनान्‌ दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन्‌ ।। २० ।। 

हिडिम्बासे यों कहकर लाल-लाल आँखें किये हिडिम्ब दाँतों-से-दाँत पीसता हुआ 
हिडिम्बा और पाण्डवोंका वध करनेकी इच्छासे उनकी ओर झपटा ।। २० ।। 

तमापततन्तं सम्प्रेक्ष्य भीम: प्रहरतां वर: । 

भर्त्सयामास तेजस्वी तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ || २१ ।। 


योद्धाओंमें श्रेष्ठ तेजस्वी भीम उसे इस प्रकार हिडिम्बापर टूटते देख उसकी भर्त्सना 
करते हुए बोले--“अरे खड़ा रह, खड़ा रह” ।। २१ ।। 
वैशग्पायन उवाच 


भीमसेनस्तु त॑ दृष्ट्वा राक्षसं प्रहसन्निव । 

भगिनीं प्रति संक्रुद्धमिदं वचनमब्रवीत्‌ ।। २२ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! अपनी बहिनपर अत्यन्त क्रुद्ध हुए उस 
राक्षणषकी ओर देखकर भीमसेन हँसते हुए-से इस प्रकार बोले-- ।। २२ ।। 

कि ते हिडिम्ब एतैर्वा सुखसुप्तै: प्रबोधितै: । 

मामासादय दुर्बुद्धे तरसा त्वं नराशन ।। २३ ।। 

“हिडिम्ब! सुखपूर्वक सोये हुए मेरे इन भाइयोंको जगानेसे तेरा कया प्रयोजन सिद्ध 
होगा। खोटी बुद्धिवाले नरभक्षी राक्षस! तू पूरे वेगसे आकर मुझसे भिड़ ।। २३ ।। 

मय्येव प्रहरेहि त्वं न स्त्रियं हन्तुमरहसि । 

विशेषतो5नपकृते परेणापकृते सति ।। २४ ।। 

'“आ, मुझपर ही प्रहार कर। हिडिम्बा स्त्री है, इसे मारना उचित नहीं है--विशेषतः इस 
दशामें, जबकि इसने कोई अपराध नहीं किया है। तेरा अपराध तो दूसरेके द्वारा हुआ 
है || २४ ।। 

न हीय॑ स्ववशा बाला कामयत्यद्य मामिह । 

चोदितैषा हुनज्रेन शरीरान्तरचारिणा || २५ || 

“यह भोली-भाली स्त्री अपने वशमें नहीं है। शरीरके भीतर विचरनेवाले कामदेवसे 
प्रेरित होकर आज यह मुझे अपना पति बनाना चाहती है || २५ ।। 

भगिनी तव दुर्वत्त रक्षसां वै यशोहर । 

त्वन्नियोगेन चैवेयं रूपं मम समीक्ष्य च || २६ ।। 

कामयत्यद्य मां भीरुस्तव नैषापराध्यति । 

अनड्रेन कृते दोषे नेमां गर्हितुमहसि || २७ ।। 

'राक्षसोंकी कीर्तिको नष्ट करनेवाले दुराचारी हिडिम्ब! तेरी यह बहिन तेरी आज्ञासे ही 
यहाँ आयी है; परंतु मेरा रूप देखकर यह बेचारी अब मुझे चाहने लगी है, अतः तेरा कोई 
अपराध नहीं कर रही है। कामदेवके द्वारा किये हुए अपराधके कारण तुझे इसकी निन्दा 
नहीं करनी चाहिये | २६-२७ ।। 

मयि तिष्ठति दुष्टात्मन्‌ न स्त्रियं हन्तुमरहसि । 

संगच्छस्व मया सार्धमेकेनैको नराशन || २८ ।। 

“दुष्टात्मन! तू मेरे रहते इस स्त्रीको नहीं मार सकता। नरभक्षी राक्षस! तू मुझ अकेलेके 
साथ अकेला ही भिड़ जा ।। २८ ।। 


अहमेको नयिष्यामि त्वामद्य यमसादनम्‌ । 

अद्य मद्धलनिष्पिष्टं शिरो राक्षस दीर्यताम्‌ 

कुञ्जरस्येव पादेन विनिष्पिष्टं बलीयस: ।। २९ ।। 

“आज मैं अकेला ही तुझे यमलोक भेज दूँगा। निशाचर! जैसे अत्यन्त बलवान्‌ हाथीके 
पैरसे दबकर किसीका भी मस्तक पिस जाता है, उसी प्रकार मेरे बलपूर्वक आघातसे 
कुचला जाकर तेरा सिर फट जायगा ।। २९ |। 

अद्य गात्राणि ते कड्का: श्येना गोमायवस्तथा । 

कर्षन्तु भुवि संहृष्टा निहतस्य मया मृथे ।। ३० ॥। 

“आज मेरे द्वारा युद्धमें तेरा वध हो जानेपर हर्षमें भरे हुए गीध, बाज और गीदड़ 
धरतीपर पड़े हुए तेरे अंगोंको इधर-उधर घसीटेंगे || ३० ।। 

क्षणेनाद्य करिष्येडहमिदं वनमराक्षसम्‌ । 

पुरा यद्‌ दूषितं नित्यं त्वया भक्षयता नरान्‌ ।। ३१ ।। 

“आजसे पहले सदा मनुष्योंको खा-खाकर तूने जिसे अपवित्र कर दिया है, उसी वनको 
आज मैं क्षणभरमें राक्षसोंसे सूना कर दूँगा || ३१ ।। 

अद्य त्वां भगिनी रक्ष: कृष्पमाणं मयासकृत्‌ | 

द्रक्ष्यत्यद्रिप्रतिकाशं सिंहेनेव महाद्विपम्‌ ।। ३२ ।। 

'राक्षस! जैसे सिंह पर्ववाकार महान्‌ गजराजको घसीट ले जाता है, उसी प्रकार आज 
मेरे द्वारा बार-बार घसीटे जानेवाले तुझको तेरी बहिन अपनी आँखों देखेगी ।। ३२ ।। 

निराबाधास्त्वयि हते मया राक्षसपांसन | 

वनमेतच्चरिष्यन्ति पुरुषा वनचारिण: ।। ३३ ।। 

'राक्षसकुलांगार! मेरे द्वारा तेरे मारे जानेपर वनवासी मनुष्य बिना किसी विधघ्न-बाधाके 
इस वनमें विचरण करेंगे” || ३३ ।। 


हिडिग्ब उवाच 


गर्जितेन वृथा कि ते कत्थितेन च मानुष । 

कृत्वैतत्‌ कर्मणा सर्व कत्थेथा मा चिरं कृथा: ।। ३४ ।। 

हिडिम्ब बोला--अरे ओ मनुष्य! व्यर्थ गर्जने तथा बढ़-बढ़कर बातें बनानेसे क्या 
लाभ? यह सब कुछ पहले करके दिखा, फिर डींग हाँकना; अब देर न कर ।। ३४ ।। 

बलिनं मन्यसे यच्चाप्यात्मानं सपराक्रमम्‌ | 

ज्ञास्यस्यद्य समागम्य मया55त्मानं बलाधिकम्‌ ।। ३५ ।। 

न तावदेतान्‌ हिंसिष्ये स्वपन्त्वेते यथासुखम्‌ । 

एष त्वामेव दुर्बुद्धे निहन्म्यद्याप्रियंवदम्‌ ।। ३६ ।। 

पीत्वा तवासूग्‌ गात्रेभ्यस्तत: पश्चादिमानपि । 


हनिष्यामि ततः पश्चादिमां विप्रियकारिणीम्‌ ।। ३७ ।। 

तू अपने-आपको जो बड़ा बलवान्‌ और पराक्रमी समझ रहा है, उसकी सच्चाईका 
पता तो तब लगेगा, जब आज मेरे साथ भिड़ेगा। तभी तू जान सकेगा कि मुझसे तुझमें 
कितना अधिक बल है। दुर्बुद्धे! मैं पहले इन सबकी हिंसा नहीं करूँगा। ये थोड़ी देरतक 
सुखपूर्वक सो लें। तू मुझे बड़ी कड़वी बातें सुना रहा है, अतः सबसे पहले तुझे ही अभी 
मारे देता हूँ। पहले तेरे अंगोंका ताजा खून पीकर उसके बाद तेरे इन भाइयोंका भी वध 
करूँगा। तदनन्तर अपना अप्रिय करनेवाली इस हिडिम्बाको भी मार डालूँगा || ३५-- 
३७ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


एवमुकक्‍्त्वा ततो बाहूं प्रगृह् पुरुषादक: । 

अभ्यद्रवत संक़्रुद्धो भीमसेनमरिंदमम्‌ ।। ३८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! यों कहकर क्रोधमें भरा हुआ वह नरभक्षी राक्षस 
अपनी एक बाँह ऊपर उठाये शत्रुदमन भीमसेनपर टूट पड़ा ।। ३८ ।। 

तस्याभिद्रवतस्तूर्ण भीमो भीमपराक्रम: । 

वेगेन प्रहितं बाहुं निजग्राह हसन्निव ।। ३९ ।। 

झपटते ही बड़े वेगसे उसने भीमसेनपर हाथ चलाया। तब तो भयंकर पराक्रमी 
भीमसेनने तुरंत ही उसके हाथको हँसते हुए-से पकड़ लिया ।। ३९ ।। 

निगृहा तं बलाद्‌ भीमो विस्फुरन्तं चकर्ष ह । 

तस्माद्‌ देशाद्‌ धरनूष्यष्टौ सिंह: क्षुद्रमृगं यथा || ४० ।। 

वह राक्षस उनके हाथसे छूटनेके लिये छटपटाने और उछल-कूद मचाने लगा; परंतु 
भीमसेन उसे पकड़े हुए ही बलपूर्वक उस स्थानसे आठ धनुष (बत्तीस हाथ) दूर घसीट ले 
गये--उसी प्रकार जैसे सिंह किसी छोटे मृगको घसीटकर ले जाय ।। ४० ।। 

ततः स राक्षस: क्रुद्ध: पाण्डवेन बलार्दित: । 

भीमसेनं समालिड्ग्य व्यनदद्‌ भैरवं रवम्‌ ।। ४१ ।। 

पाण्डुनन्दन भीमके द्वारा बलपूर्वक पीड़ित होनेपर वह राक्षस क्रोधमें भर गया और 
भीमसेनको भुजाओंसे कसकर भयंकर गर्जना करने लगा || ४१ ।। 

पुनर्भीमो बलादेनं विचकर्ष महाबल: । 

मा शब्द: सुखसुप्तानां भ्रातृणां मे भवेदिति ।। ४२ ।। 

तब महाबली भीमसेन यह सोचकर पुनः उसे बलपूर्वक कुछ दूर खींच ले गये कि 
सुखपूर्वक सोये हुए भाइयोंके कानोंमें शब्द न पहुँचे || ४२ ।। 

अन्योन्यं तौ समासाद्य विचकर्षतुरोजसा । 

हिडिम्बो भीमसेनश्न विक्रमं चक्रनु: परम्‌ ।। ४३ ।। 


फिर तो दोनों एक-दूसरेसे गुथ गये और बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे। 
हिडिम्ब और भीमसेन दोनोंने बड़ा भारी पराक्रम प्रकट किया ।। ४३ ।। 

बभज्जतुस्तदा वृक्षॉल्लताश्चाकर्षतुस्तदा । 

मत्ताविव च संरब्धौ वारणौ षष्टिहायनौ ।। ४४ ।। 

जैसे साठ वर्षकी अवस्थावाले दो मतवाले गजराज कुपित हो परस्पर युद्ध करते हों, 
उसी प्रकार वे दोनों एक-दूसरेसे भिड़कर वृक्षोंको तोड़ने और लताओंको खींच-खींचकर 
उजाड़ने लगे ।। ४४ ।। 

(पादपानुद्गहन्तौ ताबुरुवेगेन वेगितौ । 

स्फोटयन्तौ लताजालान्यूरुभ्यां प्राप्प सर्वतः ।। 

वित्रासयन्तौ शब्देन सर्वतो मृगपक्षिण: । 

बलेन बलिनौ मत्तावन्योन्यवधकाड्क्षिणौ ।। 

भीमराक्षसयोर्युद्धे तदावर्तत दारुणम्‌ ।। 

ऊरुबाहुपरिक्लेशात्‌ कर्षन्तावितरेतरम्‌ । 

ततः शब्देन महता गर्जन्तौ तौ परस्परम्‌ ।। 

पाषाणसंघट्टनि भै: प्रहारैरभिजध्नतुः । 

अन्योन्यं तौ समालिड्ग्य विकर्षन्तौ परस्परम्‌ ।।) 

वे दोनों वृक्ष उठाये बड़े वेगसे एक-दूसरेकी ओर दौड़ते थे, अपनी जाँघोंकी टक्‍्करसे 
चारों ओरकी लताओंको छित्न-भिन्न किये देते थे तथा गर्जन-तर्जनके द्वारा सब ओर पशु- 
पक्षियोंको आतंकित कर देते थे। बलसे उन्मत्त हुए वे दोनों महाबली योद्धा एक-दूसरेको 
मार डालना चाहते थे। उस समय भीमसेन और हिडिम्बासुरमें बड़ा भयंकर युद्ध चल रहा 
था। वे दोनों एक-दूसरेकी भुजाओंको मरोड़ते और जाँघोंको घुटनोंसे दबाते हुए दोनों एक- 
दूसरेको अपनी ओर खींचते थे। तदनन्तर वे बड़े जोरसे गर्जते हुए परस्पर इस प्रकार प्रहार 
करने लगे, मानो दो चट्टानें आपसमें टकरा रही हों। तत्पश्चात्‌ वे एक-दूसरेसे गुथ गये और 
दोनों दोनोंको भुजाओंमें कसकर इधर-उधर खींच ले जानेकी चेष्टा करने लगे। 

तयो: शब्देन महता विबुद्धास्ते नरर्षभा: । 

सह मात्रा च ददृशुहिडिम्बामग्रत: स्थिताम्‌ ।। ४५ ।। 

उन दोनोंकी भारी गर्जनासे वे नरश्रेष्ठ पाण्डव मातासहित जाग उठे और उन्होंने अपने 
सामने खड़ी हुई हिडिम्बाको देखा ।। ४५ || 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि हिडिम्बयुद्धे 
द्विपज्चाशदधिकशततमो<्ध्याय: ।। १५२ |। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपवके अन्तर्गत हिडिम्बवधपर्वमें हिडिग्ब-युद्धविषयक एक 
सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १५२ ॥। 


(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ५० श्लोक हैं) 


ह >> छा >> अर अं 


त्रिपठ्चाशदाधिकशततमोब< ध्याय: 


हिडिम्बाका कुन्ती आदिसे अपना मनोभाव प्रकट करना 
तथा भीमसेनके द्वारा हिडिम्बासुरका वध 


वैशम्पायन उवाच 


प्रबुद्धास्ते हिडिम्बाया रूप॑ दृष्टवातिमानुषम्‌ । 

विस्मिता: पुरुषव्याप्रा बभूवु: पृथया सह ॥। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जागनेपर हिडिम्बाका अलौकिक रूप देख वे 
पुरुषसिंह पाण्डव माता कुन्तीके साथ बड़े विस्मयमें पड़े ।। १ ।। 

ततः कुन्ती समीक्ष्यैनां विस्मिता रूपसम्पदा । 

उवाच मधुरं वाक्यं सान्त्वपूर्वमिदं शनै: ।। २ ।। 

कस्य त्वं सुरगर्भाभे का वासि वरवर्णिनी । 

केन कार्येण सम्प्राप्ता कुतश्चञागमनं तव ।। ३ ।। 

तदनन्तर कुन्तीने उसकी रूप-सम्पत्तिसे चकित हो उसकी ओर देखकर उसे सान्त्वना 
देते हुए मधुर वाणीमें इस प्रकार धीरे-धीरे पूछा--“देवकन्याओंकी-सी कान्तिवाली सुन्दरी! 
तुम कौन हो और किसकी कन्या हो? तुम किस कामसे यहाँ आयी हो और कहाँसे तुम्हारा 
शुभागमन हुआ है? ।। २-३ ।। 

यदि वास्य वनस्य त्वं देवता यदि वाप्सरा: । 

आचक्ष्व मम तत्‌ सर्व किमर्थ चेह तिष्ठसि ।। ४ ।। 

“यदि तुम इस वनकी देवी अथवा अप्सरा हो तो वह सब मुझे ठीक-ठीक बता दो; साथ 
ही यह भी कहो कि किस कामके लिये यहाँ खड़ी हो?” ।। ४ ।। 





हिडिग्बोवाच 


यदेतत्‌ पश्यसि वन॑ नीलमेघनिभं महत्‌ । 

निवासो राक्षसस्यैष हिडिम्बस्य ममैव च ।। ५ ।। 

हिडिम्बा बोली--देवि! यह जो नील मेघके समान विशाल वन आप देख रही हैं, यह 
राक्षस हिडिम्बका और मेरा निवासस्थान है ।। ५ |। 

तस्य मां राक्षसेन्द्रस्य भगिनीं विद्धि भाविनि । 

भ्रात्रा सम्प्रेषितामार्ये त्वां सपुत्रां जिघांसता ।। ६ ।। 

महाभागे! आप मुझे उस राक्षसराज हिडिम्बकी बहिन समझें। आर्ये! मेरे भाईने मुझे 
आपकी और आपके पुत्रोंकी हत्या करनेकी इच्छासे भेजा था ।। ६ ।। 

क्रूरबुद्धेरहं तस्य वचनादागता त्विह । 

अद्राक्ष॑ं नवहेमाभं तव पुत्र महाबलम्‌ ।। ७ ।। 

उसकी बुद्धि बड़ी क्रूरतापूर्ण है। उसके कहनेसे मैं यहाँ आयी और नूतन सुवर्णकी-सी 
आभावाले आपके महाबली पुत्रपर मेरी दृष्टि पड़ी || ७ ।। 

ततोऊहं सर्वभूतानां भावे विचरता शुभे । 

चोदिता तव पुत्रस्य मन्मथेन वशानुगा ।॥। ८ ।। 


शुभे! उन्हें देखते ही समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें विचरनेवाले कामदेवसे प्रेरित 
होकर मैं आपके पुत्रकी वशवर्तिनी हो गयी ।। ८ ।। 

ततो वृतो मया भर्ता तव पुत्रो महाबल: । 

अपनेतुं च यतितो न चैव शकितो मया ।। ९ ।। 

तदनन्तर मैंने आपके महाबली पुत्रको पतिरूपमें वरण कर लिया और इस बातके लिये 
प्रयत्न किया कि उन्हें (त(था आप सब लोगोंको) लेकर यहाँसे अन्यत्र भाग चलूँ, परंतु 
आपके पुत्रकी स्वीकृति न मिलनेसे मैं इस कार्यमें सफल न हो सकी ।। ९ ।। 

चिरायमा्णां मां ज्ञात्वा ततः स पुरुषादक: । 

स्वयमेवागतो हन्तुमिमान्‌ सर्वास्तवात्मजान्‌ ।। १० ।। 

मेरे लौटनेमें देर होती जान वह मनुष्यभक्षी राक्षस स्वयं ही आपके इन सब पुत्रोंको मार 
डालनेके लिये आया ।। १० ।। 

स तेन मम कान्तेन तव पुत्रेण धीमता । 

बलादितो विनिष्पिष्य व्यपनीतो महात्मना ।। ११ ।। 

परंतु मेरे प्राणजवल्लभ तथा आपके बुद्धिमान्‌ पुत्र महात्मा भीम उसे बलपूर्वक यहाँसे 
रगड़ते हुए दूर हटा ले गये हैं || ११ ।। 

विकर्षन्तौ महावेगौ गर्जमानौ परस्परम्‌ | 

पश्यैवं युधि विक्रान्तावेती च नरराक्षसौ ।। १२ ।। 

देखिये, युद्धमें पराक्रम दिखानेवाले वे दोनों मनुष्य और राक्षस जोर-जोरसे गर्जि रहे हैं 
और बड़े वेगसे गुत्थम-गुत्थ होकर एक-दूसरेको अपनी ओर खींच रहे हैं ।। १२ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


तस्या: श्रुत्वैव वचनमुत्पपात युधिष्ठिर: । 

अर्जुनो नकुलश्चैव सहदेवश्व वीर्यवान्‌ ।। १३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! हिडिम्बाकी यह बात सुनते ही युधिष्छिर 
उछलकर खड़े हो गये। अर्जुन, नकुल और पराक्रमी सहदेवने भी ऐसा ही किया ।। १३ ।। 

तौ ते ददृशुरासक्तौ विकर्षन्तौ परस्परम्‌ | 

काड्क्षमाणौ जयं चैव सिंहाविव बलोत्कटौ ।। १४ ।। 

तदनन्तर उन्होंने देखा कि वे दोनों प्रचण्ड बलशाली सिंहोंकी भाँति आपसमें गुथ गये 
हैं और अपनी-अपनी विजय चाहते हुए एक-दूसरेको घसीट रहे हैं | १४ ।। 

अथान्योन्यं समश्लिष्य विकर्षन्तौ पुनः पुनः । 

दावाग्निधूमसदृशं चक्रतुः पार्थिवं रज: ।। १५ ।। 

एक-दूसरेको भुजाओंमें भरकर बार-बार खींचते हुए उन दोनों योद्धाओंने धरतीकी 
धूलको दावानलके धूएँके समान बना दिया ।। १५ ।। 


वसुधारेणुसंवीती वसुधाधरसंनिभौ । 

बभ्राजतुर्यथा शैलौ नीहारेणाभिसंवृतौ ।। १६ ।। 

दोनोंका शरीर पृथ्वीकी धूलमें सना हुआ था। दोनों ही पर्वतोंके समान विशालकाय थे। 
उस समय वे दोनों कुहरेसे ढँके हुए दो पहाड़ोंके समान सुशोभित हो रहे थे ।। १६ ।। 

राक्षसेन तदा भीम क्लिश्यमान निरीक्ष्य च । 

उवाचेदं वच: पार्थ: प्रहलज्छनकैरिव ।। १७ ।। 

भीमसेनको राक्षरद्वारा पीड़ित देख अर्जुन धीरे-धीरे हँसते हुए-से बोले-- ।। १७ ।। 

भीम मा भैर्महाबाहो न त्वां बुध्यामहे वयम्‌ । 

समेतं भीमरूपेण रक्षसा श्रमकर्शितम्‌ ॥। १८ ।। 

“महाबाहु भैया भीमसेन! डरना मत; अबतक हमलोग नहीं जानते थे कि तुम भयंकर 
राक्षससे भिड़कर अत्यन्त परिश्रमके कारण कष्ट पा रहे हो ।। १८ ।। 

साहाय्येडस्मि स्थित: पार्थ पातयिष्यामि राक्षसम्‌ | 

नकुलः सहदेवश्ल मातरं गोपयिष्यत: ।। १९ ।। 

“कुन्तीनन्दन! अब मैं तुम्हारी सहायताके लिये उपस्थित हूँ। इस राक्षसको अवश्य मार 
गिराऊँगा। नकुल और सहदेव माताजीकी रक्षा करेंगे” || १९ ।। 


भीम उवाच 


उदासीनो निरीक्षस्व न कार्य: सम्भ्रमस्त्वया | 

न जात्वयं पुनर्जीवेन्मद्वाह्वन्तरमागत: ।। २० || 

भीमसेनने कहा--अर्जुन! तटस्थ होकर चुपचाप देखते रहो। तुम्हें घबरानेकी 
आवश्यकता नहीं। मेरी दोनों भुजाओंके बीचमें आकर अब यह राक्षस कदापि जीवित नहीं 
रह सकता || २० || 

अजुन उवाच 

किमनेन चिरं भीम जीवता पापरक्षसा । 

गन्तव्ये न चिरं स्थातुमिह शक्‍्यमरिंदम ।। २१ |। 

अर्जुनने कहा--शत्रुओंका दमन करनेवाले भीम! इस पापी राक्षसको देरतक जीवित 
रखनेसे क्या लाभ? हमलोगोंको आगे चलना है, अतः यहाँ अधिक समयतक ठहरना 
सम्भव नहीं है || २१ ।। 

पुरा संरज्यते प्राची पुरा संध्या प्रवर्तते । 

रौद्रे मुहूर्ते रक्षांसि प्रबलानि भवन्त्युत ।। २२ ।। 

उधर सामने पूर्वदेशामें अरुणोदयकी लालिमा फैल रही है। प्रातःसंध्याका समय 
होनेवाला है। इस रौद्र मुहूर्तमें राक्षस प्रबल हो जाते हैं || २२ ।। 

त्वरस्व भीम मा क्रीड जहि रक्षो बिभीषणम्‌ | 


पुरा विकुरुते मायां भुजयो: सारमर्पय ।। २३ ।। 

अतः भीमसेन! जल्दी करो। इसके साथ खिलवाड़ न करो। इस भयानक राक्षसको 
मार डालो। यह अपनी माया फैलाये, इसके पहले ही इसपर अपनी भुजाओंकी शक्तिका 
प्रयोग करो ।। २३ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


अर्जुनेनैवमुक्तस्तु भीमो रोषाज्ज्वलन्निव । 

बलमाहारयामास यद्‌ वायोर्जगत: क्षये || २४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--अर्जुनके यों कहनेपर भीम रोषसे जल उठे और 
प्रलयकालमें वायुका जो बल प्रकट होता है, उसे उन्होंने अपने भीतर धारण कर 
लिया ।। २४ ।। 

ततस्तस्याम्बुदा भस्य भीमो रोषात्‌ तु रक्षस: । 

उत्क्षिप्या भ्रामयद्‌ देहं तूर्ण शतगुणं तदा ।। २५ ।। 





भीमसेन और घटोत्कच 


तत्पश्चात्‌ काले मेघके समान उस राक्षसके शरीरको भीमने क्रोधपूर्वक तुरंत ऊपर उठा 
लिया और उसे सौ बार घुमाया || २५ ।। 
भीम उवाच 
वृथामांसैर्व॑थापुष्टो वृथावृद्धो वृथामति: । 
वृथामरणमर्हस्त्वं वृथाद्य न भविष्यसि ।। २६ ।। 
इसके बाद भीम उस राक्षससे बोले--अरे निशाचर! तू व्यर्थ मांससे व्यर्थ ही पुष्ट 
होकर व्यर्थ ही बड़ा हुआ है। तेरी बुद्धि भी व्यर्थ है। इसीसे तू व्यर्थ मृत्युके योग्य है। 
इसलिये आज तू व्यर्थ ही अपनी इहलीला समाप्त करेगा (बाहुयुद्धमें मृत्यु होनेके कारण तू 
स्वर्ग और कीर्तिसे वंचित हो जायगा) ।। २६ ।। 
क्षेममद्य करिष्यामि यथा वनमकण्टकम्‌ | 
न पुनर्मनिषान्‌ हत्वा भक्षयिष्यसि राक्षस ।। २७ ।। 
राक्षस! आज तुझे मारकर मैं इस वनको निष्कण्टक एवं मंगलमय बना दूँगा, जिससे 
फिर तू मनुष्योंको मारकर नहीं खा सकेगा ।। २७ ।। 
अर्जुन उवाच 
यदि वा मन्यसे भार त्वमिमं राक्षसं युधि । 
करोमि तव साहाय्यं शीघ्रमेष निपात्यताम्‌ ।। २८ ।। 
अर्जुन बोले-भैया! यदि तुम युद्धमें इस राक्षसको अपने लिये भार समझ रहे हो तो 
मैं तुम्हारी सहायता करता हूँ। तुम इसे शीघ्र मार गिराओ ।। २८ ।। 
अथवाप्यहमेवैनं हनिष्यामि वृकोदर । 
कृतकर्मा परिश्रान्त: साधु तावदुपारम ।। २९ ।। 
वृकोदर! अथवा मैं ही इसे मार डालूँगा। तुम अधिक युद्ध करके थक गये हो। अतः 
कुछ देर अच्छी तरह विश्राम कर लो || २९ |।। 
वैशम्पायन उवाच 


तस्य तद्‌ वचन श्रुत्वा भीमसेनोत्यमर्षण: । 

निष्पिष्यैनं बलादू भूमौ पशुमारममारयत्‌ ।। ३० ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! अर्जुनकी यह बात सुनकर भीमसेन अत्यन्त 
क्रोधमें भर गये। उन्होंने बलपूर्वक राक्षसको पृथ्वीपर दे मारा और उसे रगड़ते हुए पशुकी 
तरह मारना आरम्भ किया || ३० ।। 

स मार्यमाणो भीमेन ननाद विपुलं स्वनम्‌ । 

पूरयंस्तद्‌ वन॑ सर्व जला इव दुन्दुभि: ।। ३१ ।। 


इस प्रकार भीमसेनकी मार पड़नेपर वह राक्षस जलसे भीगे हुए नगारेकी-सी ध्वनिसे 
सम्पूर्ण वनको गुँजाता हुआ जोर-जोरसे चीखने लगा || ३१ ।। 

बाहुभ्यां योक्‍त्रयित्वा तं बलवान्‌ पाण्डुनन्दन: । 

मध्ये भड़्क्त्वा महाबाहुर्हर्षयामास पाण्डवान्‌ ।। ३२ ।। 

तब महाबाहु बलवान्‌ पाण्डुनन्दन भीमसेनने उसे दोनों भुजाओंसे बाँधकर उलटा मोड़ 
दिया और उसकी कमर तोड़कर पाण्डवोंका हर्ष बढ़ाया || ३२ || 

हिडिम्बं निहतं दृष्टवा संहृष्टास्ते तरस्विन: । 

अपूजयन्‌ नरव्याप्रं भीमसेनमरिंदमम्‌ ।। ३३ ।। 

हिडिम्बको मारा गया देख वे महान्‌ वेगशाली पाण्डव अत्यन्त हर्षसे उललसित हो उठे 
और उन्होंने शत्रुओंका दमन करनेवाले नरश्रेष्ठ भीमसेनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की || ३३ ।। 

अभिपूज्य महात्मानं भीम॑ भीमपराक्रमम्‌ | 

पुनरेवार्जुनो वाक्यमुवाचेदं वृकोदरम्‌ ।। ३४ ।। 

इस प्रकार भयंकर पराक्रमी महात्मा भीमकी प्रशंसा करके अर्जुनने पुनः उनसे यह 
बात कही-- ।। ३४ || 

न दूरं नगरं मन्ये वनादस्मादहं विभो । 

शीघ्र गच्छाम भद्रं ते न नो विद्यात्‌ सुयोधन: ।। ३५ ।। 

'प्रभो! मैं समझता हूँ, इस वनसे नगर अब दूर नहीं है। तुम्हारा कल्याण हो। अब 
हमलोग शीघ्र चलें, जिससे दुर्योधनको हमारा पता न लग सके” ।। ३५ ।। 

ततः सर्वे तथेत्युक्त्वा सह मात्रा महारथा: । 

प्रययु: पुरुषव्याप्रा हिडिम्बा चैव राक्षसी || ३६ ।। 

तब सभी पुरुषसिंह महारथी पाण्डव “(ठीक है,) ऐसा ही करें” यों कहकर माताके 
साथ वहाँसे चल दिये। हिडिम्बा राक्षसी भी उनके साथ हो ली ।। ३६ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि हिडिम्बवधे 
त्रिपएण्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत हिडिग्बवधपर्वमें लिडिम्बायुरके वधसे सम्बन्ध 
रखनेवाला एक सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५३ ॥। 


ऑपन-माज बछ। डे 


चतुष्पञ्चाशर्दाधेिकशततमो< ध्याय: 


युधिष्ठिरका भीमसेनको हिडिम्बाके वधसे रोकना, 
हिडिम्बाकी भीमसेनके लिये प्रार्थना, भीमसेन और 
हिडिम्बाका मिलन तथा घटोत्कचकी उत्पत्ति 


(वैशग्पायन उवाच 


सा तानेवापतत्‌ तूर्ण भगिनी तस्य रक्षस: । 

अनब्रुवाणा हिडिम्बा तु राक्षसी पाण्डवान्‌ प्रति ।। 

अभिवाद्य तत: कुन्तीं धर्मराजं च पाण्डवम्‌ । 

अभिपूज्य च तान्‌ सर्वान्‌ भीमसेनमभाषत ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! हिडिम्बा-सुरकी बहिन राक्षसी हिडिम्बा बिना 
कुछ कहे-सुने तुरंत पाण्डवोंके ही पास आयी और फिर माता कुन्ती तथा पाण्डुनन्दन 
धर्मराज युधिष्ठिरको प्रणाम करके उन सबके प्रति समादरका भाव प्रकट करती हुई 
भीमसेनसे बोली। 


हिडिग्बोवाच 


अहं ते दर्शनादेव मन्मथस्य वशं गता । 

क्रूरं भ्रातृवचो हित्वा सा त्वामेवानुरुन्धती ।। 

राक्षसे रौद्रसंकाशे तवापश्यं विचेष्टितम्‌ । 

अहं शुश्रूषुरिच्छेयं तव गात्र॑ निषेवितुम्‌ ।।) 

हिडिम्बाने कहा--(आर्यपुत्र!) आपके दर्शनमात्रसे मैं कामदेवके अधीन हो गयी और 
अपने भाईके क्रूरतापूर्ण वचनोंकी अवहेलना करके आपका ही अनुसरण करने लगी। उस 
भयंकर आकृतिवाले राक्षसपर आपने जो पराक्रम प्रकट किया है, उसे मैंने अपनी आँखों 
देखा है; अतः मैं सेविका आपके शरीरकी सेवा करना चाहती हूँ। 


भीमसेन उवाच 


स्मरन्ति वैरं रक्षांसि मायामाश्रित्य मोहिनीम्‌ । 

हिडिम्बे व्रज पन्थानं त्वमिमं भ्रातृसेवितम्‌ ।। १ ।। 

भीमसेन बोले--हिडिम्बे! राक्षस मोहिनी मायाका आश्रय लेकर बहुत दिनोंतक 
वैरका स्मरण रखते हैं, अतः तू भी अपने भाईके ही मार्गपर चली जा ।। १ ।। 


युधिछिर उवाच 
क्रुद्धो5पि पुरुषव्याप्र भीम मा सम स्त्रियं वधी: । 


शरीरगुप्त्यभ्यधिकं धर्म गोपाय पाण्डव ॥। २ ।। 

यह सुनकर युधिष्ठिरने कहा--पुरुषसिंह भीम! यद्यपि तुम क्रोधसे भरे हुए हो, तो 
भी स्त्रीका वध न करो। पाण्डुनन्दन! शरीरकी रक्षाकी अपेक्षा भी अधिक तत्परतासे धर्मकी 
रक्षा करो || २ ॥। 

वधाभिप्रायमायान्तमवधीस्त्वं महाबलम्‌ । 

रक्षसस्तस्य भगिनी कि नः क्रुद्धा करिष्यति ।। ३ ।। 

महाबली हिडिम्ब हमलोगोंको मारनेके अभिप्रायसे आ रहा था। अतः तुमने जो उसका 
वध किया, वह उचित ही है। उस राक्षसकी बहिन हिडिम्बा यदि क्रोध भी करे तो हमारा 
क्या कर लेगी? ।। ३ ।। 


वैशमग्पायन उवाच 


हिडिम्बा तु ततः कुन्तीमभिवाद्य कृताञ्जलि: । 

युधिष्टिरं तु कौन्तेयमिदं वचनमत्रवीत्‌ ।। ४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर हिडिम्बाने हाथ जोड़कर कुन्तीदेवी 
तथा उनके पुत्र युधिष्ठिरको प्रणाम करके इस प्रकार कहा-- ।। ४ |। 

आर्ये जानासि यद्‌ दुःखमिह स्त्रीणामनजड्रजम्‌ | 

तदिदं मामनुप्राप्तं भीमसेनकृतं शुभे ।। ५ ।। 

'आर्ये! स्त्रियोंकोी इस जगत्‌में जो कामजनित पीड़ा होती है, उसे आप जानती ही हैं। 
शुभे! आपके पुत्र भीमसेनकी ओरसे मुझे वही कामदेवजनित वष्ट प्राप्त हुआ है ।। ५ ।। 

सोढं तत्‌ परमं दु:खं मया कालप्रतीक्षया । 

सोडयमभ्यागत: कालो भविता मे सुखोदय: ।॥। ६ ।। 

“मैंने समयकी प्रतीक्षामें उस महान्‌ दुःखको सहन किया है। अब वह समय आ गया है। 
आशा है, मुझे अभीष्ट सुखकी प्राप्ति होगी || ६ ।। 

मया हत्सृज्य सुहृदः स्वधर्म स्वजनं तथा । 

वृतो<यं पुरुषव्याप्रस्तव पुत्र: पति: शुभे ।। ७ ।। 

'शुभे! मैंने अपने हितैषी सुहृदों, स्वजनों तथा स्वधर्मका परित्याग करके आपके पुत्र 
पुरुषसिंह भीमसेनको अपना पति चुना है || ७ ।। 

वीरेणाहं तथानेन त्वया चापि यशस्विनि । 

प्रत्याख्याता न जीवामि सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते ।। ८ ।। 

“यशस्विनि! यदि ये वीरवर भीमसेन या आप मेरी इस प्रार्थनाको ठुकरा देंगी तो मैं 
जीवित नहीं रह सकूँगी। यह मैं आपसे सत्य कहती हूँ ।। ८ ।। 

तदर्हसि कृपां कर्तु मयि त्वं वरवर्णिनि । 

मत्वा मूढेति तन्मा त्वं भक्ता वानुगतेति वा ।। ९ ।। 


“अतः वरवर्णिनि! आपको मुझे एक मूढ़ स्वभावकी स्त्री मानकर या अपनी भक्ता 
जानकर अथवा अनुचरी (सेविका) समझकर मुझपर कृपा करनी चाहिये ।। ९ ।। 

भत्रानिन महाभागे संयोजय सुतेन ह । 

तमुपादाय गच्छेयं यथेष्टं देवरूपिणम्‌ | 

पुनश्चैवानयिष्यामि विस्रम्भं कुरु मे शुभे || १० ।। 

“महाभागे! मुझे अपने इस पुत्रसे, जो मेरे मनोनीत पति हैं, मिलनेका अवसर दीजिये। 
मैं इन देवस्वरूप स्वामीको लेकर अपने अभीष्ट स्थानपर जाऊँगी और पुनः निश्चित 
समयपर इन्हें आपके समीप ले आऊँगी। शुभे! आप मेरा विश्वास कीजिये ।। १० ।। 

अहं हि मनसा ध्याता सर्वान्‌ नेष्यामि व: सदा । 

(न यातुधान्यहं त्वार्ये न चास्मि रजनीचरी । 

कन्या रक्षस्सु साध्व्यस्मि राज्ञि सालकटड्कटी ।। 

पुत्रेण तव संयुक्ता युवतिर्देववर्णिनी । 

सर्वान्‌ वो5हमुपस्थास्ये पुरस्कृत्य वृकोदरम्‌ ।। 

अप्रमत्ता प्रमत्तेषु शुश्रूषुरसकृत्‌ त्वहम्‌ ।) 

वृजिनात्‌ तारयिष्यामि दुर्गेषु विषमेषु च ।। ११ ।। 

पृष्ठेन वो वहिष्यामि शीघ्रं गतिमभीप्सत: । 

यूयं प्रसादं कुरुत भीमसेनो भजेत माम्‌ ।। १२ ।। 

“आप अपने मनसे जब-जब मेरा स्मरण करेंगे, तब-तब सदा ही (सेवामें उपस्थित हो) 
मैं आपलोगोंको अभीष्ट स्थानोंमें पहुँचा दिया करूँगी। आर्ये! मैं न तो यातुधानी हूँ और न 
निशाचरी ही हूँ। महारानी! मैं राक्षस जातिकी सुशीला कन्या हूँ और मेरा नाम सालकटंकटी 
है। मैं देवोपम कान्तिसे युक्त और युवावस्थासे सम्पन्न हूँ। मेरे हृदयका संयोग आपके पुत्र 
भीमसेनके साथ हुआ है। मैं वृकोदरको सामने रखकर आप सब लोगोंकी सेवामें उपस्थित 
रहूँगी। आपलोग असावधान हों, तो भी मैं पूरी सावधानी रखकर निरन्तर आपकी सेवामें 
संलग्न रहूँगी। आपको संकटोंसे बचाऊँगी। दुर्गण एवं विषम स्थानोंमें यदि आप 
शीघ्रतापूर्वक अभीष्ट लक्ष्यतक जाना चाहते हों तो मैं आप सब लोगोंको अपनी पीठपर 
बिठाकर वहाँ पहुँचाऊँगी। आपलोग मुझपर कृपा करें, जिससे भीमसेन मुझे स्वीकार कर 
लें ।। ११-१२ ।। 

आपदस्तरणे प्राणान्‌ धारयेद्‌ येन तेन वा । 

सर्वमावृत्य कर्तव्यं तं धर्ममनुवर्तता ।। १३ ।। 

“जिस उपायसे भी आपत्तिसे छुटकारा मिले और प्राणोंकी रक्षा हो सके, धर्मका 
अनुसरण करनेवाले पुरुषको वह सब स्वीकार करके उस उपायको काममें लाना 
चाहिये ।। १३ ।। 

आपपत्सु यो धारयति धर्म धर्मविदुत्तम: । 


व्यसन होव धर्मस्य धर्मिणामापदुच्यते ।। १४ ।। 

“जो आपत्तिकालमें धर्मको धारण करता है, वही धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ है। धर्मपालनमें 
संकट उपस्थित होना ही धर्मात्मा पुरुषोंके लिये आपत्ति कही जाती है || १४ ।। 

पुण्यं प्राणान्‌ धारयति पुण्यं प्राणदमुच्यते । 

येन येनाचरेद्‌ धर्म तस्मिन्‌ गर्हा न विद्यते ।। १५ ।। 

“पुण्य ही प्राणोंको धारण करता है, इसलिये पुण्य प्राणदाता कहलाता है; अतः जिस- 
जिस उपायसे धर्मका आचरण हो सके, उसके करनेमें कोई निन्दाकी बात नहीं है || १५ ।। 

(महतोऊत्र स्त्रियं कामाद बाधितां त्राहि मामपि । 

धर्मार्थकाममोक्षेषु दयां कुर्वन्ति साधव: ।। 

तं तु धर्ममिति प्राहुर्मुन॒यो धर्मवत्सला: । 

दिव्यज्ञानेन पश्यामि अतीतानागतानहम्‌ ।। 

तस्माद्‌ वक्ष्यामि व: श्रेय आसन्न॑ सर उत्तमम्‌ | 

अद्यासाद्य सर: स्नात्वा विश्रम्य च वनस्पतौ ।। 

व्यासं कमलपत्राक्षं दृष्टवा शोक॑ विहास्यथ ।। 

धार्तराष्ट्राद्‌ विवासश्व दहनं वारणावते । 

त्राणं च विदुरात्‌ तुभ्यं विदितं ज्ञानचक्षुषा ।। 

आवासे शालिहोत्रस्य स च वासं विधास्यति । 

वर्षवातातपसह: अयं पुण्यो वनस्पति: ।। 

पीतमात्रे तु पानीये क्षुत्पिपासे विनश्यतः । 

तपसा शालिहोत्रेण सरो वक्षश्न निर्मित: ।। 

कादम्बा: सारसा हंसा: कुरर्य: कुररै:ः सह | 

रुवन्ति मधुरं गीत॑ गान्धर्वस्वनमिश्रितम्‌ ।। 

“मैं महती कामवेदनासे पीड़ित एक नारी हूँ, अतः आप मेरी भी रक्षा कीजिये। साधु 
पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी सिद्धिके सभी पुरुषार्थोके लिये शरणागतोंपर दया 
करते हैं। धर्मानुरागी महर्षि दयाको ही श्रेष्ठ धर्म मानते हैं। मैं दिव्य ज्ञानससे भूत और 
भविष्यकी घटनाओंको देखती हूँ। अतः आपलोगोंके कल्याणकी बात बता रही हूँ। यहाँसे 
थोड़ी ही दूरपर एक उत्तम सरोवर है। आपलोग आज वहाँ जाकर उस सरोवरमें स्नान 
करके वृक्षके नीचे विश्राम करें। कुछ दिन बाद कमलनयन व्यासजीका दर्शन पाकर 
आपलोग शोकमुक्त हो जायँगे। दुर्योधनके द्वारा आपलोगोंका हस्तिनापुरसे निकाला जाना, 
वारणावत नगरमें जलाया जाना और विदुरजीके प्रयत्नसे आप सब लोगोंकी रक्षा होनी 
आदि बातें उन्हें ज्ञानदृष्टिसे ज्ञात हो गयी हैं। वे महात्मा व्यास शालिहोत्र मुनिके आश्रममें 
निवास करेंगे। उनके आश्रमका वह पवित्र वृक्ष सर्दी, गर्मी और वर्षाको अच्छी तरह 
सहनेवाला है। वहाँ केवल जल पी लेनेसे भूख-प्यास दूर हो जाती है। शालिहोत्र मुनिने 


अपनी तपस्यद्वारा पूर्वोक्त सरोवर और वृक्षका निर्माण किया है। वहाँ कादम्ब, सारस, हंस, 
कुररी और कुरर आदि पक्षी संगीतकी ध्वनिसे मिश्रित मधुर गीत गाते रहते हैं'। 


वैशम्पायन उवाच 


तस्यास्तदू वचन श्रुत्वा कुन्ती वचनमत्रवीत्‌ । 

युधिष्ठिरं महाप्राज्ञं सर्वशास्त्रविशारदम्‌ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! हिडिम्बाका यह वचन सुनकर कुन्तीदेवीने 
सम्पूर्ण शास्त्रोंमें पारंगत परम बुद्धिमान्‌ युधिष्ठिससे इस प्रकार कहा। 


कुन्त्युवाच 

त्वं हि धर्मभृतां श्रेष्ठ मयोक्ते शूणु भारत । 

राक्षस्येषा हि वाक्येन धर्म वदति साधु वै ।। 

भावेन दुष्टा भीम॑ सा कि करिष्यति राक्षसी । 

भजतां पाण्डवं वीरमपत्यार्थ यदीच्छसि ।।) 

कुन्ती बोली--धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भारत! मैं जो कहती हूँ, उसे तुम सुनो; यह राक्षसी 
अपनी वाणीद्वारा तो उत्तम धर्मका ही प्रतिपादन करती है। यदि इसकी हार्दिक भावना 
भीमसेनके प्रति दूषित हो, तो भी यह उनका क्या बिगाड़ लेगी? अतः यदि तुम्हारी सम्मति 
हो तो यह संतानके लिये कुछ कालतक मेरे वीर पुत्र पाण्डुनन्दन भीमसेनकी सेवामें रहे। 


युधिछिर उवाच 


एवमेतद्‌ यथा<>त्थ त्वं हिडिम्बे नात्र संशय: । 

स्थातव्यं तु त्वया सत्ये यथा ब्रूयां सुमध्यमे || १६ ।। 

युधिष्ठिर बोले--हिडिम्बे! तुम जैसा कह रही हो, वह सब ठीक है; इसमें संशय नहीं 
है। परंतु सुमध्यमे! मैं जैसे कहूँ, उसी प्रकार तुम्हें सत्यपर स्थिर रहना चाहिये ।। १६ ।। 

स्‍्नातं॑ कृताद्विकं भद्रे कृतकौतुकमजलम्‌ । 

भीमसेनं भजेथास्त्व॑ प्रागस्तगमनाद्‌ रवे: || १७ ।। 

भद्रे! जब भीमसेन स्नान, नित्यकर्म तथा मांगलिक वेशभूषा आदि धारण कर लें, तब 
तुम प्रतिदिन उनके साथ रहकर सूर्यास्त होनेसे पहलेतक ही उनकी सेवा कर सकती 
हो ।। १७ ।। 

अहस्सु विहरानेन यथाकामं॑ मनोजवा | 

अयं त्वानयितव्यस्ते भीमसेन: सदा निशि | १८ ।। 

तुम मनके समान वेगसे चलने-फिरनेवाली हो, अतः दिनभर तो तुम इनके साथ अपनी 
इच्छाके अनुसार विहार करो, परंतु रातको सदा ही तुम्हें भीमसेनको (हमारे पास) पहुँचा 
देना होगा ।। १८ ।। 


(प्राक्‌ संध्यातो विमोक्तव्यो रक्षितव्यश्न नित्यश: । 

एवं रमस्व भीमेन यावद्‌ गर्भस्य वेदनम्‌ ।। 

एष ते समयो भगद्रे शुश्रूष्यश्चाप्रमत्तया । 

नित्यानुकूलया भूत्वा कर्तव्यं शोभनं त्वया ।। 

संध्याकाल आनेसे पहले ही इन्हें छोड़ देना होगा और नित्य-निरन्तर इनकी रक्षा करनी 
होगी। इस शर्तपर तुम भीमसेनके साथ सुखपूर्वक तबतक रहो, जबतक कि तुम्हें यह पता 
न चल जाय कि तुम्हारे गर्भमें बालक आ गया है। भद्रे! यही तुम्हारे लिये पालन करनेयोग्य 
नियम है। तुम्हें सावधान होकर भीमसेनकी सेवा करनी चाहिये और नित्य उनके अनुकूल 
होकर सदा उनकी भलाईमें संलग्न रहना चाहिये। 





३७ ५। ४९, ५७८ 


युधिष्ठिरेणैवमुक्ता कुन्त्या चाड्केडधिरोपिता । 
भीमार्जुनान्तरगता यमाभ्यां च पुरस्कृता ।। 
तिर्यग युधिष्ठिरे याति हिडिम्बा भीमगामिनी । 
शालिहोत्रसरो रम्यमासेदुस्ते जलार्थिन: ।। 
तत्‌ तथेति प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा | 
वनस्पतितलं गत्वा परिमृज्य गृहं यथा ।। 
पाण्डवानां च वासं सा कृत्वा पर्णमयं तथा । 


आत्मनश्व तथा कुन्त्या एकोद्देशे चकार सा ।। 

पाण्डवास्तु ततः स्नात्वा शुद्धा: संध्यामुपास्य च । 

तृषिता: क्षुत्पिपासार्ता जलमात्रेण वर्तयन्‌ ।। 

शालिहोगत्रस्ततो ज्ञात्वा क्षुधार्तान्‌ पाण्डवांस्तदा | 

मनसा चिन्तयामास पानीयं भोजन महत्‌ | 

ततस्ते पाण्डवा: सर्वे विश्रान्ता: पृथया सह ।। 

यथा जतुगृहे वृत्तं राक्षसेन कृतं च यत्‌ । 

कृत्वा कथा बहुविधा: कथान्ते पाण्डुनन्दनम्‌ ।। 

कुन्तिराजसुता वाक्‍्यं भीमसेनमथात्रवीत्‌ ।। 

युधिष्ठिरके यों कहनेपर कुन्तीने हिडिम्बाको अपने हृदयसे लगा लिया। तदनन्तर वह 
युधिष्ठिससे कुछ दूरीपर रहकर भीमके साथ चल पड़ी। वह चलते समय भीम और अर्जुनके 
बीचमें रहती थी। नकुल और सहदेव सदा उसे आगे करके चलते थे। (इस प्रकार) वे (सब) 
लोग जल पीनेकी इच्छासे शालिहोत्र मुनिके रमणीय सरोवरके तटपर जा पहुँचे। वहाँ कुन्ती 
तथा युधिष्ठिरने पहले जो शर्त रखी थी, उसे स्वीकार करके हिडिम्बा राक्षसीने वैसा ही कार्य 
करनेकी प्रतिज्ञा की। तत्पश्चात्‌ उसने वृक्षके नीचे जाकर घरकी तरह झाड़ू लगायी और 
पाण्डवोंके लिये निवास-स्थानका निर्माण किया। उन सबके लिये पर्णशाला तैयार करनेके 
बाद उसने अपने और कुन्तीके लिये एक दूसरी जगह कुटी बनायी। तदनन्तर पाण्डवोंने 
स्नान करके शुद्ध हो संध्योपासना किया और भूख-प्याससे पीड़ित होनेपर भी केवल 
जलका आहार किया। उस समय शालिठोगत्र मुनिने उन्हें भूखसे व्याकुल जान मन-ही-मन 
उनके लिये प्रचुर अन्न-पानकी सामग्रीका चिन्तन किया (और उससे पाण्डवोंको भोजन 
कराया)। तदनन्तर कुन्तीदेवीसहित सब पाण्डव विश्राम करने लगे। विश्रामके समय उनमें 
नाना प्रकारकी बातें होने लगीं--किस प्रकार लाक्षागृहमें उन्हें जलानेका प्रयत्न किया गया 
तथा फिर राक्षस हिडिम्बने उन लोगोंपर किस प्रकार आक्रमण किया इत्यादि प्रसंग उनकी 
चर्चाके विषय थे। बातचीत समाप्त होनेपर कुन्तिराजकुमारी कुन्तीने पाण्डुनन्दन 
भीमसेनसे इस प्रकार कहा। 


कुन्त्युवाच 
यथा पाण्डुस्तथा मान्यस्तव ज्येष्ठो युधिष्ठिर: । 
अहं धर्मविधानेन मान्या गुरुतरा तव ।। 
तस्मात्‌ पाण्डुहितार्थ मे युवराज हित॑ कुरु । 
निकृता धार्तराष्ट्रेण पापेनाकृतबुद्धिना । 
दुष्कृतस्य प्रतीकारं न पश्यामि वृकोदर ।। 
तस्मात्‌ कतिपयाहेन योगक्षेमं भविष्यति ।। 


क्षेमं दु्गमिमं वासं वसिष्यामो यथासुखम्‌ । 

इदमद्य महद्‌ दु:खं धर्मकृच्छं वृकोदर ।। 

दृष्टवैव त्वां महाप्राज्ञ अनड्रािप्रचोदिता । 

युधिष्ठिरं च मां चैव वरयामास धर्मतः ।। 

धर्मार्थ देहि पुत्र त्वं स न: श्रेय: करिष्यति । 

प्रतिवाक्यं तु नेच्छामि हयावाभ्यां वचनं कुरु ।।) 

कुन्ती बोली--युवराज! तुम्हारे लिये जैसे महाराज पाण्डु माननीय थे, वैसे ही बड़े 
भाई युधिष्ठिर भी हैं। धर्मशास्त्रकी दृष्टिसे मैं उनकी अपेक्षा भी अधिक गौरवकी पात्र तथा 
सम्माननीय हूँ। अतः तुम महाराज पाण्डुके हितके लिये मेरी एक हितकर आज्ञाका पालन 
करो। वृकोदर! अपवित्र बुद्धिवाले पापात्मा दुर्योधनने हमारे साथ जो दुष्टता की है, उसके 
प्रतिशोधका उपाय मुझे कोई नहीं दिखायी देता। अतः कुछ दिनोंके बाद भले ही हमारा 
योगक्षेम सिद्ध हो। यह निवासस्थान अत्यन्त दुर्गम होनेके कारण हमारे लिये कल्याणकारी 
सिद्ध होगा। हम यहाँ सुखपूर्वक रहेंगे। महाप्राज्ञ भीमसेन! आज यह हमारे सामने अत्यन्त 
दुःखद धर्मसंकट उपस्थित हुआ है कि हिडिगम्बा तुम्हें देखते ही कामसे प्रेरित हो मेरे और 
युधिष्ठिरके पास आकर धर्मतः तुम्हें पतिके रूपमें वरण कर चुकी है। मेरी आज्ञा है कि तुम 
उसे धर्मके लिये एक पुत्र प्रदान करो। वह हमारे लिये कल्याणकारी होगा। मैं इस विषयमें 
तुम्हारा कोई प्रतिवाद नहीं सुनना चाहती। तुम हम दोनोंके सामने प्रतिज्ञा करो। 


वैशम्पायन उवाच 


तथेति तत्‌ प्रतिज्ञाय भीमसेनो<ब्रवीदिदम्‌ । 

शृणु राक्षसि सत्येन समयं ते वदाम्यहम्‌ ।। १९ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! “बहुत अच्छा” कहकर भीमसेनने वैसा ही 
करनेकी प्रतिज्ञा की (और हिडिम्बाके साथ गान्धर्व-विवाह कर लिया)। तत्पश्चात्‌ भीमसेन 
हिडिम्बासे इस प्रकार बोले--'राक्षसी! सुनो, मैं सत्यकी शपथ खाकर तुम्हारे सामने एक 
शर्त रखता हूँ ।। १९ ।। 

यावत्‌ कालेन भवति पुत्रस्योत्पादनं शुभे । 

तावत्‌ कालं॑ गमिष्यामि त्वया सह सुमध्यमे ।। २० ।। 

'शुभे! सुमध्यमे! जबतक तुम्हें पुत्रकी उत्पत्ति न हो जाय तभीतक मैं तुम्हारे साथ 
विहारके लिये चलूँगा” | २० ।। 

वैशम्पायन उवाच 


तथेति तत्‌ प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा । 
भीमसेनमुपादाय सोर्ध्वमाचक्रमे तत: ।। २१ ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब “ऐसा ही होगा” यह प्रतिज्ञा करके हिडिम्बा 
राक्षसी भीमसेनको साथ ले वहाँसे ऊपर आकाशमें उड़ गयी ।। २१ ।। 

शैलशज्जेषु रम्येषु देवतायतनेषु च । 

मृगपक्षिविघुष्टेषु रमणीयेषु सर्वदा || २२ ।। 

कृत्वा च परमं रूप॑ सर्वाभरणभूषिता । 

संजल्पन्ती सुमधुरं रमयामास पाण्डवम्‌ ।। २३ |। 

तथैव वनदुर्गेषु पुष्पितद्रुमवल्लिषु । 

सरस्सु रमणीयेषु पद्मोत्पलयुतेषु च ।। २४ ।। 

नदीद्वीपप्रदेशेषु वैदूर्यसिकतासु च | 

सुतीर्थवनतोयासु तथा गिरिनदीषु च । २५ ।। 

काननेषु विचित्रेषु पुष्पितद्रुमवल्लिषु । 

हिमवद्‌गिरिकुगञ्जेषु गुहासु विविधासु च ।। २६ ।। 

प्रफुल्लशतपत्रेषु सरस्स्वमलवारिषु | 

सागरस्य प्रदेशेषु मणिहेमचितेषु च | २७ ।। 

पल्वलेषु च रम्येषु महाशालवनेषु च | 

देवारण्येषु पुण्येषु तथा पर्वतसानुषु || २८ ।। 

गुहाकानां निवासेषु तापसायतनेषु च । 

सर्वर्तुफलरम्येषु मानसेषु सरस्सु च ।। २९ ।। 

बिभ्रती परमं रूपं रमयामास पाण्डवम्‌ | 

रमयन्ती तथा भीमं तत्र तत्र मनोजवा ।। ३० ।। 

उसने रमणीय पर्वतशिखरोंपर, देवताओंके निवास-स्थानोंमें तथा जहाँ बहुत-से पशु- 
पक्षी मधुर शब्द करते रहते हैं, ऐसे सुरम्य प्रदेशोंमें सदा परम सुन्दर रूप धारण करके, सब 
प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हो मीठी-मीठी बातें करके पाण्डुनन्द्न भीमसेनको सुख 
पहुँचाया। इसी प्रकार पुष्पित वृक्षों और लताओंसे सुशोभित दुर्गम वनोंमें, कमल और 
उत्पल आदिसे अलंकृत रमणीय सरोवरोंमें, नदियोंके द्वीपोंमें तथा जहाँकी वालुका वैदूर्य- 
मणिके समान है, जिनके घाट, तटवर्ती वन तथा जल सभी सुन्दर एवं पवित्र हैं, उन पर्वतीय 
नदियोंमें, विकसित वृक्षों और लता-वल्लरियोंसे विभूषित विचित्र काननोंमें, हिमवान्‌ 
पर्वतके कुंजों और भाँति-भाँतिकी गुफाओंमें, खिले हुए कमलसमूहसे युक्त निर्मल जलवाले 
सरोवरोंमें, मणियों और सुवर्णसे सम्पन्न समुद्र-तटवर्ती प्रदेशोंमें, छोटे-छोटे सुन्दर तालाबोंमें, 
बड़े-बड़े शाल-वृक्षोंके जंगलोंमें, पवित्र देववनोंमें, पर्वतीय शिखरोंपर, गुह्मकोंके 
निवासस्थानोंमें, सभी ऋतुओंके फलोंसे सम्पन्न तपस्वी मुनियोंके सुरम्य आश्रमोंमें तथा 
मानसरोवर एवं अन्य जलाशयोंमें घूम-फिरकर हिडिम्बाने परम सुन्दर रूप धारण करके 


पाण्डुनन्दन भीमसेनके साथ रमण किया। वह मनके समान वेगसे चलनेवाली थी, अतः 
उन-उन स्थानोंमें भीमसेनको आनन्द प्रदान करती हुई विचरती रहती थी ।। २२-३० ।। 

प्रजज्ञे राक्षसी पुत्र भीमसेनान्महाबलम्‌ | 

विरूपाक्षं महावकत्र शड्कुकर्ण बिभीषणम्‌ ।। ३१ ।। 

कुछ कालके पश्चात्‌ उस राक्षसीने भीमसेनसे एक महान्‌ बलवान पुत्र उत्पन्न किया, 
जिसकी आँखें विकराल, मुख विशाल और कान शंकुके समान थे। वह देखनेमें बड़ा 
भयंकर जान पड़ता था ।। ३१ ।। 

भीमनादं सुताम्रोष्ठं तीक्ष्णदंष्टं महाबलम्‌ । 

महेष्वासं महावीर्य महासत्त्वं महाभुजम्‌ ।। ३२ ।। 

महाजवं महाकायं॑ महामायमरिंदमम्‌ । 

दीर्घधोणं महोरस्कं विकटोद्धद्धपिण्डिकम्‌ ।। ३३ ।। 

उसकी आवाज बड़ी भयानक थी। सुन्दर लाल-लाल ओठ, तीखी दाढ़ें, महान्‌ बल, 
बहुत बड़ा धनुष, महान्‌ पराक्रम, अत्यन्त धैर्य और साहस, बड़ी-बड़ी भुजाएँ, महान्‌ वेग 
और विशाल शरीर--ये उसकी विशेषताएँ थीं। वह महामायावी राक्षस अपने शत्रुओंका 
दमन करनेवाला था। उसकी नाक बहुत बड़ी, छाती चौड़ी तथा पैरोंकी दोनों पिंडलियाँ टेढ़ी 
और ऊँची थीं ।। ३२-३३ ।। 

अमानुषं मानुषजं भीमवेगं महाबलम्‌ | 

यः पिशाचानतीत्यान्यान्‌ बभूवातीव राक्षसान्‌ ।। ३४ ।। 

यद्यपि उसका जन्म मनुष्यसे हुआ था तथापि उसकी आकृति और शक्ति अमानुषिक 
थी। उसका वेग भयंकर और बल महान्‌ था। वह दूसरे पिशाचों तथा राक्षसोंसे बहुत अधिक 
शक्तिशाली था ।। ३४ ।। 

बालो<पि यौवन प्राप्तो मानुषेषु विशाम्पते । 

सवस्त्रिषु परं वीर: प्रकर्षमगमद्‌ बली ।॥। ३५ ।। 

राजन्‌! अवस्थामें बालक होनेपर भी वह मनुष्योंमें युवक-सा प्रतीत होता था। उस 
बलवान वीरने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंमें बड़ी निपुणता प्राप्त की थी ।। ३५ ।। 

सद्यो हि गर्भान्‌ राक्षस्थो लभन्ते प्रसवन्ति च । 

कामरूपधराश्चैव भवन्ति बहुरूपिका: ।। ३६ ।। 

राक्षसियाँ जब गर्भ धारण करती हैं, तब तत्काल ही उसको जन्म दे देती हैं। वे 
इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली और नाना प्रकारके रूप बदलनेवाली होती हैं || ३६ ।। 

प्रणम्य विकच: पादावगृह्नात्‌ स पितुस्तदा । 

मातुश्न परमेष्वासस्तौ च नामास्य चक्रतु: ।। ३७ ।। 

उस महान धनुर्धर बालकने पैदा होते ही पिता और माताके चरणोंमें प्रणाम किया। 
उसके सिरमें बाल नहीं उगे थे। उस समय पिता और माताने उसका इस प्रकार नामकरण 


किया || ३७ ।। 

घटो हास्योत्कच इति माता त॑ प्रत्यभाषत । 

अब्रवीत्‌ तेन नामास्य घटोत्कच इति सम ह ।। ३८ ।। 

बालककी माताने भीमसेनसे कहा--“इसका घट (सिर) उत्कच- अर्थात्‌ केशरहित है।' 
उसके इस कथनसे ही उसका नाम घटोत्कच हो गया ।। ३८ ।। 

अनुरक्तश्न तानासीत्‌ पाण्डवान्‌ स घटोत्कच: । 

तेषां च दयितो नित्यमात्मनित्यो बभूव ह ।। ३९ ।। 

घटोत्कचका पाण्डवोंके प्रति बड़ा अनुराग था और पाण्डवोंको भी वह बहुत प्रिय था। 
वह सदा उनकी आज्ञाके अधीन रहता था ।। ३९ ।। 

संवाससमयो जीर्ण इत्याभाष्य ततस्तु तान्‌ | 

हिडिम्बा समयं कृत्वा स्वां गतिं प्रत्यपद्यत || ४० ।। 

तदनन्तर हिडिम्बा पाण्डवोंसे यह कहकर कि भीमसेनके साथ रहनेका मेरा समय 
समाप्त हो गया, आवश्यकताके समय पुनः मिलनेकी प्रतिज्ञा करके अपने अभीष्ट स्थानको 
चली गयी ।। ४० ।। 

घटोत्कचो महाकाय: पाण्डवान्‌ पृथया सह । 

अभिवाद्य यथान्यायमत्रवीच्च प्रभाष्य तान्‌ ।। ४१ ।। 

कि करोम्यहमार्याणां निःशड्कं॑ वदतानघा: । 

त॑ ब्रुवन्तं भैमसेनिं कुन्ती वचनमत्रवीत्‌ ॥। ४२ ।। 

तत्पश्चात्‌ विशालकाय घटोत्कचने कुन्तीसहित पाण्डवोंको यथायोग्य प्रणाम करके 
उन्हें सम्बोधित करके कहा--“निष्पाप गुरुजन! आप नि:शंक होकर बतायें, मैं आपकी क्या 
सेवा करूँ?” इस प्रकार पूछनेवाले भीमसेनकुमारसे कुन्तीने कहा-- || ४१-४२ ।। 

त्वं कुरूणां कुले जात: साक्षाद्‌ भीमसमो हासि । 

ज्येष्ठ: पुत्रोडसि पञ्चानां साहाय्यं कुरु पुत्रक || ४३ ।। 

“बेटा! तुम्हारा जन्म कुरुकुलमें हुआ है। तुम मेरे लिये साक्षात्‌ भीमसेनके समान हो। 
पाँचों पाण्डवोंके ज्येष्ठ पुत्र हो, अत: हमारी सहायता करो” || ४३ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


पृथयाप्येवमुक्तस्तु प्रणम्यैव वचो<ब्रवीत्‌ | 

यथा हि रावणो लोके इन्द्रजिच्च महाबल: । 

वर्ष्णवीर्यसमो लोके विशिष्टश्चाभवं नृषु ।। ४४ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुन्तीके यों कहनेपर घटोत्कचने प्रणाम करके 
ही उनसे कहा--'दादीजी! लोकमें जैसे रावण और मेघनाद बहुत बड़े बलवान थे, उसी 


प्रकार इस मानव-जगत्‌में मैं भी उन्हींके समान विशालकाय और महापराक्रमी हूँ; बल्कि 
उनसे भी बढ़कर हूँ ।। ४४ ।। 





कृत्यकाल उपस्थास्ये पितृनिति घटोत्कच: । 

आमन्त्र्य रक्षसां श्रेष्ठ: प्रतस्थे चोत्तरां दिशम्‌ ।। ४५ ।। 

“जब मेरी आवश्यकता होगी, उस समय मैं स्वयं अपने पितृवर्गकी सेवामें उपस्थित हो 
जाऊँगा।' यों कहकर राक्षसश्रेष्ठ घटोत्कच पाण्डवोंसे आज्ञा लेकर उत्तर दिशाकी ओर चला 
गया ।। ४५ || 


पाण्डवोंकी व्यासजीसे भेंट 





धृष्टद्युम्नकी घोषणा 


स हि सृष्टो मघवता शक्तिहेतोर्महात्मना । 

कर्णस्याप्रतिवीर्यस्य प्रतियोद्धा महारथ: ।। ४६ ।। 

महामना इन्द्रने अनुपम पराक्रमी कर्णकी शक्तिका आघात सहन करनेके लिये 
घटोत्कचकी सृष्टि की थी। वह कर्णके सम्मुख युद्ध करनेमें समर्थ महारथी वीर 
था ।। ४६ |। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि घटोत्कचोत्पत्तौ 
चतुष्पड्चाशदधिकशततमो<्ध्याय: ।। १५४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत हिडिम्बवधपर्वमें घटोत्कचकी उत्पत्तिविषयक 
एक सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १५४ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३३ श्लोक मिलाकर कुल ७९ श्लोक हैं) 


अपर बक। है २ >> 


- कोई-कोई उत्कचका अर्थ “ऊपर उठे हुए बालोंवाला' भी करते हैं। 


पञ्चपञ्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


पाण्डवोंको व्यासजीका दर्शन और उनका एकचक्रा 
नगरीमें प्रवेश 


वैशम्पायन उवाच 

ते वनेन वन॑ गत्वा घ्नन्तो मृगगणान्‌ बहून्‌ । 

अपक्रम्य ययू राजंस्त्वरमाणा महारथा: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! वे महारथी पाण्डव उस स्थानसे हटकर एक वनसे 
दूसरे वनमें जाकर बहुत-से हिंसक पशुओंको मारते हुए बड़ी उतावलीके साथ आगे 
बढ़े ।। १ ।। 

मत्स्यांस्त्रिगर्तानू पज्चालान्‌ कीचकानन्तरेण च । 

रमणीयान्‌ वनोद्देशान्‌ प्रेक्षमाणा: सरांसि च ॥। २ ।। 

मत्स्य, त्रिगर्त, पंचाल तथा कीचक--इन जनपदोंके भीतर होकर रमणीय वनस्थलियों 
और सरोवरोंको देखते हुए वे लोग यात्रा करने लगे ।। २ ।। 

जटा: कृत्वा55त्मन: सर्वे वल्कलाजिनवासस: । 

सह कुन्त्या महात्मानो बिशभ्रतस्तापसं वपु: ।। ३ ।। 

क्वचिद्‌ वहन्तो जननीं त्वरमाणा महारथा: । 

क्वचिच्छन्देन गच्छन्तस्ते जग्मु: प्रसभं पुन: ।। ४ ।। 

उन सबने अपने सिरपर जटाएँ रख ली थीं। वल्कल और मृगचर्मसे अपने शरीरको 
ढक लिया था और तपस्वीका-सा वेष धारण कर रखा था। इस प्रकार वे महारथी महात्मा 
पाण्डव माता कुन्तीदेवीके साथ कहीं तो उन्हें पीठपर ढोते हुए तीव्र गतिसे चलते थे, कहीं 
इच्छानुसार धीरे-धीरे पाँव बढ़ाते थे और कहीं पुन: अपनी चाल तेज कर देते थे ।। ३-४ ।। 

बाह्यां वेदमधीयाना वेदाड़्नि च सर्वश: । 

नीतिशास्त्र च सर्वज्ञा ददृशुस्ते पितामहम्‌ ।। ५ ।। 

पाण्डवलोग सब शाम्त्रोंके ज्ञाता थे और प्रतिदिन उपनिषद्‌ वेद-वेदांग तथा 
नीतिशास्त्रका स्वाध्याय किया करते थे। एक दिन जब वे स्वाध्यायमें लगे थे, पितामह 
व्यासजीका दर्शन हुआ ।। ५ ।। 

तेडभिवाद्य महात्मानं॑ कृष्णद्वैपायनं तदा । 

तस्थु: प्राउजलय: सर्वे सह मात्रा परंतपा: ।। ६ ।। 

शत्रुओंको संताप देनेवाले पाण्डवोंने उस समय महात्मा श्रीकृष्णद्वैपायनको प्रणाम 
किया और अपनी माताके साथ वे सब लोग उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये || ६ ।। 


व्यास उवाच 


मयेदं व्यसन पूर्व विदितं भरतर्षभा: । 

यथा तु तैरधर्मेण धार्तराष्ट्र्विवासिता: ।। ७ ।। 

तद्‌ विदित्वास्मि सम्प्राप्तश्चिकीर्षु: परमं हितम्‌ । 

न विषादोऊत्र कर्तव्य: सर्वमेतत्‌ सुखाय व: ।। ८ ।। 

तब व्यासजीने कहा--भरतश्रेष्ठ पाण्डुकुमारो! मैंने पहले ही तुमलोगोंपर आये हुए 
इस संकटको जान लिया था। धुृतराष्ट्रके पुत्रोंने तुम्हें जिस प्रकार अधर्मपूर्वक राज्यसे 
बहिष्कृत किया है, वह सब जानकर तुम्हारा परम हित करनेके लिये मैं यहाँ आया हूँ। 
इसके लिये तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये; यह सब तुम्हारे भावी सुखके लिये हो रहा 
है || ७-८ ।। 

समास्ते चैव मे सर्वे यूयं चैव न संशय: । 

दीनतो बालतश्रैव स्नेहं कुर्वन्ति मानवा: । 

तस्मादभ्यधिक: स्नेहो युष्मासु मम साम्प्रतम्‌ ।। ९ ।। 

इसमें संदेह नहीं कि मेरे लिये तुमलोग और धुतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधन आदि सब समान ही 
हैं। फिर भी जहाँ दीनता और बचपन है, वहीं मनुष्य अधिक स्नेह करते हैं; इसी कारण इस 
समय तुमलोगोंपर मेरा अधिक स्नेह है ।। ९ ।। 

स्नेहपूर्व चिकीर्षामि हित॑ वस्तन्निबोधत । 

इदं नगरमभ्याशे रमणीयं निरामयम्‌ । 

वसतेह प्रतिच्छन्ना ममागमनकाड्क्षिण: ।। १० ॥। 

मैं स्नेहपूर्वक तुमलोगोंका हित करना चाहता हूँ। इसलिये मेरी बात सुनो। यहाँ पास ही 
जो यह रमणीय नगर है, इसमें रोग-व्याधिका भय नहीं है। अतः तुम सब लोग यहीं छिपकर 
रहो और मेरे पुनः आनेकी प्रतीक्षा करो || १० ।। 

वैशम्पायन उवाच 


एवं स तान्‌ समाश्चास्य व्यास: सत्यवतीसुत:ः । 

एकचक्रामभिगत: कुन्तीमाश्चासयत्‌ प्रभु: ।। ११ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार पाण्डवोंको भलीभाँति आश्वासन 
देकर सत्यवतीनन्दन भगवान्‌ व्यास उन सबके साथ एकचक्रा नगरीके निकट गये। वहाँ 
उन्होंने कुन्तीको इस प्रकार सान्त्वना दी || ११ ।। 

व्यास उवाच 

जीवत्पुत्रि सुतस्ते5यं धर्मनित्यो युधिष्ठिर: । 

धर्मेण पृथिवीं जित्वा महात्मा पुरुषर्षभ: । 

पथिव्यां पार्थिवान्‌ सर्वान्‌ प्रशासिष्यति धर्मराट्‌ || १२ ।। 


व्यासजी बोले--जीवित पुत्रोंवाली बहू! तुम्हारे ये पुत्र नरश्रेष्ठ महात्मा धर्मराज 
युधिष्ठिर सदा धर्मपरायण हैं; अतः ये धर्मसे ही सारी पृथ्वीको जीतकर भूमण्डलके सम्पूर्ण 
राजाओंपर शासन करेंगे ।। १२ ।। 

पृथिवीमखिलां जित्वा सर्वां सागरमेखलाम्‌ । 

भीमसेनार्जुनबलादू भोक्ष्यते नात्र संशय: ।। १३ ।। 

भीमसेन और अर्जुनके बलसे समुद्रपर्यनत सारी वसुधाको अपने अधिकारमें करके ये 
उसका उपभोग करेंगे; इसमें संशय नहीं है || १३ ।। 

पुत्रास्तव च माद्रयाश्व॒ सर्व एव महारथा: । 

स्वराष्ट्रे विहरिष्यन्ति सुखं सुमनस: सदा ।। १४ ।। 

तुम्हारे और माद्रीके सभी महारथी पुत्र सदा अपने राज्यमें प्रसन्नचित्त हो सुखपूर्वक 
विचरेंगे || १४ ।। 

यक्ष्यन्ति च नरव्याप्रा निर्जित्य पृथिवीमिमाम्‌ । 

राजसूयाश्चमेधाद्यै: क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।। १५ ।। 

पुरुषोंमें सिंहके समान बलवान पाण्डव इस पृथ्वीको जीतकर प्रचुर दक्षिणासे सम्पन्न 
राजसूय तथा अश्वमेध आदि यज्ञोंद्वारा भगवान्‌का यजन करेंगे || १५ ।। 

अनुगृहा सुद्दद्वर्ग भोगैश्वर्यसुखेन च । 

पितृपैतामहं राज्यमिमे भोक्ष्यन्ति ते सुता: ।। १६ ।। 

तुम्हारे ये पुत्र अपने सुहृदोंके समुदायको उत्तम भोग एवं ऐश्वर्य-सुखके द्वारा अनुगृहीत 
करके बाप-दादोंके राज्यका पालन एवं उपभोग करेंगे ।। १६ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


एवमुकक्‍्त्वा निवेश्यैनान्‌ ब्राह्मणस्यथ निवेशने । 

अब्रवीत्‌ पाण्डवश्रेष्ठमृषिद्वपायनस्तदा ।। १७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! यों कहकर महर्षि द्वैपायनने इन सबको एक 
ब्राह्मणके घरमें ठहरा दिया और पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिससे कहा-- ।। १७ ।। 

इह मासं प्रतीक्षध्वमागमिष्याम्यहं पुन: । 

देशकालौ विदित्वैव लप्स्यध्वं परमां मुदम्‌ ।। १८ ।। 

“तुमलोग यहाँ एक मासतक मेरी प्रतीक्षा करो। मैं पुन: आऊँगा। देश और कालका 
विचार करके ही कोई कार्य करना चाहिये; इससे तुम्हें बड़ा सुख मिलेगा” || १८ ।। 

स तै: प्राउ्जलिभि: सर्वस्तथेत्युक्तो नराधिप । 

जगाम भगवान्‌ व्यासो यथागतमृषि: प्रभु: ।। १९ ।। 

राजन! उस समय सबने हाथ जोड़कर उनकी आज्ञा स्वीकार की। तदनन्तर 
शक्तिशाली महर्षि भगवान्‌ व्यास जैसे आये थे, वैसे ही चले गये ।। १९ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि एकचक्राप्रवेशे व्यासदर्शने 
पजञ्चपञठ्चाशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १५५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत हिडिम्बवधपर्वमें पाण्डवोंका एकचक्रानगरीमें 
प्रवेश और व्यासयजीका दर्शनविषयक एक सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५५ ॥। 


ऑपनआक्रात बछ। 2 


(बकवधपर्व) 


षट्पञज्चाशदधिकशततमो< ध्याय: 


ब्राह्मणपरिवारका कष्ट दूर करनेके लिये कुन्तीकी 

भीमसेनसे बातचीत तथा ब्राह्मणके चिन्तापूर्ण उद्गार 
जनमेजय उवाच 

एकचक्रां गतास्ते तु कुन्तीपुत्रा महारथा: । 

अत ऊर्ध्व॑ द्विजश्रेष्ठ किमकुर्वत पाण्डवा: ।। १ ।। 

जनमेजयने पूछा--द्विजश्रेष्ठ! कुन्तीके महारथी पुत्र पाण्डव जब एकचक्रा नगरीमें 

पहुँच गये, उसके बाद उन्होंने क्या किया? ।। १ ।। 

वैशम्पायन उवाच 


एकचक्रां गतास्ते तु कुन्तीपुत्रा महारथा: । 

ऊषुर्नातिचिरं काल ब्राह्मणस्य निवेशने ।। २ ।॥। 

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! एकचक्रा नगरीमें जाकर महारथी कुन्तीपुत्र थोड़े 
दिनोंतक एक ब्राह्मणके घरमें रहे || २ ।। 

रमणीयानि पश्यन्तो वनानि विविधानि च । 

पार्थिवानपि चोद्देशान्‌ सरितश्न सरांसि च ।। ३ ।। 

चेरुभैक्षं तदा ते तु सर्व एव विशाम्पते । 

बभूवुर्नागराणां च स्वैर्गुणै: प्रियदर्शना: ।। ४ ।। 

जनमेजय! उस समय वे सभी पाण्डव भाँति-भाँतिके रमणीय वनों, सुन्दर भूभागों, 
सरिताओं और सरोवरोंका दर्शन करते हुए भिक्षाके द्वारा जीवन-निर्वाह करते थे। अपने 
उत्तम गुणोंके कारण वे सभी नागरिकोंके प्रीति-पात्र हो गये थे || ३-४ ।। 

(दर्शनीया द्विजा: शुद्धा देवगर्भोपमा: शुभा: | 

भैक्षानहश्वि राज्याह: सुकुमारास्तपस्विन: ।। 

सर्वलक्षणसम्पन्ना भैक्ष॑ ना्हन्ति नित्यश: । 

कार्यार्थिनश्चरन्तीति तर्कयन्त इति ब्रुवन्‌ ।। 

बन्धूनामागमान्नित्यमुपचिन्त्य तु नागरा: । 
भाजनानि च पूर्णानि भक्ष्यभोज्यैरकारयन्‌ ।। 


मौनव्रतेन संयुक्ता भैक्ष॑ गृह्लन्ति पाण्डवा: | 

माता चिरगतान्‌ दृष्टवा शोचन्तीति च पाण्डवा: | 

त्वरमाणा निवर्तन्ते मातृगौरवयन्त्रिता: ।।) 

उन्हें देखकर नगरनिवासी आपसमें तर्क-वितर्क करते हुए इस प्रकारकी बातें करते थे 
--'ये ब्राह्मणलोग तो देखने ही योग्य हैं। इनके आचार-विचार शुद्ध एवं सुन्दर हैं। इनकी 
आकृति देवकुमारोंके समान जान पड़ती है। ये भीख माँगनेयोग्य नहीं, राज्य करनेके योग्य 
हैं। सुकुमार होते हुए भी तपस्यामें लगे हैं। इनमें सब प्रकारके शुभ लक्षण शोभा पाते हैं। ये 
कदापि भिक्षा ग्रहण करनेयोग्य नहीं हैं। शायद किसी कार्यवश भिक्षुकोंके वेशमें विचर रहे 
हैं।' वे नागरिक पाण्डवोंके आगमनको अपने बन्धुजनोंका ही आगमन मानकर उनके लिये 
भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंसे भरे हुए पात्र तैयार रखते थे और मौनव्रतका पालन करनेवाले 
पाण्डव उनसे वह भिक्षा ग्रहण करते थे। हमें आये हुए बहुत देर हो गयी, इसलिये माताजी 
चिन्तामें पड़ी होंगी--यह सोचकर माताके गौरव-पाशमें बँधे हुए पाण्डव बड़ी उतावलीके 
साथ उनके पास लौट आते थे। 

निवेदयन्ति सम तदा कुन्त्या भैक्षं सदा निशि । 

तया विभक्तान्‌ भागांस्ते भुज्जते सम पृथक्‌ पृथक्‌ ।। ५ ।। 

प्रतिदिन रात्रिके आरम्भमें भिक्षा लाकर वे माता कुन्तीको सौंप देते और वे बाँटकर 
जिसके लिये जितना हिस्सा देतीं, उतना ही पृथक्‌-पृथक्‌ लेकर पाण्डवलोग भोजन करते 
थे।।५।। 

अर्ध ते भुञज्जते वीरा: सह मात्रा परंतपा: | 

अर्ध सर्वस्य भैक्षस्य भीमो भुड्क्ते महाबल: ।। ६ ।। 

वे चारों वीर परंतप पाण्डव अपनी माताके साथ आधी भिक्षाका उपयोग करते थे और 
सम्पूर्ण भिक्षाका आधा भाग अकेले महाबली भीमसेन खाते थे ।। ६ ।। 

तथा तु तेषां वसतां तस्मिन्‌ राष्ट्र महात्मनाम्‌ 

अतिचक्राम सुमहान्‌ कालो5थ भरतर्षभ ।। ७ ।। 

भरतवंशशिरोमणे! इस प्रकार उस राष्ट्रमें निवास करते हुए महात्मा पाण्डवोंका बहुत 
समय बीत गया ।। ७ ।। 

ततः कदाचित्‌ भैक्षाय गतास्ते पुरुषर्षभा: । 

संगत्या भीमसेनस्तु तत्रास्ते पूृथया सह ।। ८ ।। 

तदनन्तर एक दिन नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदि चार भाई भिक्षाके लिये गये; किंतु भीमसेन 
किसी कार्यविशेषके सम्बन्धसे कुन्तीके साथ वहाँ घरपर ही रह गये थे ।। ८ ।। 

अथार्तिजं महाशब्दं ब्राह्मणस्य निवेशने । 

भृशमुत्पतितं घोर कुन्ती शुश्राव भारत ।। ९ ।। 


भारत! उस दिन ब्राह्मणके घरमें सहसा बड़े जोरका भयानक आर्तनाद होने लगा, 
जिसे कुन्तीने सुना || ९ |। 

रोरूयमाणांस्तान्‌ दृष्टवा परिदेवयतश्न सा । 

कारुण्यात्‌ साधुभावाच्च कुन्ती राजन्‌ न चक्षमे ।। १० ।। 

राजन! उन ब्राह्मण-परिवारके लोगोंको बहुत रोते और विलाप करते देख कुन्तीदेवी 
अत्यन्त दयालुता तथा साधु-स्वभावके कारण सहन न कर सकीं ।। १० ।। 

मथ्यमानेन दुःखेन हृदयेन पृथा तदा । 

उवाच भीम॑ं कल्याणी कृपान्वितमिदं वच: ।। ११ ।। 

वसाम सुसुखं पुत्र ब्राह्मणस्य निवेशने । 

अज्ञाता धार्तराष्ट्रस्य सत्कृता वीतमन्यव: ।। १२ ।। 

उस समय उनका दु:ख मानो कुन्तीदेवीके हृदयको मथे डालता था। अत: कल्याणमयी 
कुन्ती भीमसेनसे इस प्रकार करुणायुक्त वचन बोलीं--“बेटा! हमलोग इस ब्राह्मणके घरमें 
दुर्योधनसे अज्ञात रहकर बड़े सुखसे निवास करते हैं। यहाँ हमारा इतना सत्कार हुआ है कि 
हम अपने दुःख और दैन्यको भूल गये हैं || ११-१२ ।। 

सा चिन्तये सदा पुत्र ब्राह्मणस्यास्य कि न्‍्वहम्‌ | 

प्रियं कुर्यामिति गृहे यत्‌ कुर्युरुषिता: सुखम्‌ ।॥। १३ ।। 

“इसलिये पुत्र! मैं सदा यही सोचती रहती हूँ कि इस ब्राह्मणका मैं कौन-सा प्रिय कार्य 
करूँ, जिसे किसीके घरमें सुखपूर्वक रहनेवाले लोग किया करते हैं ।। १३ ।। 

एतावान्‌ पुरुषस्तात कृतं यस्मिन्‌ न नश्यति । 

यावच्च कुर्यादन्यो<5स्य कुर्यादभ्यधिकं तत: ।। १४ ।। 

“तात! जिसके प्रति किया हुआ उपकार उसका बदला चुकाये बिना नष्ट नहीं होता, 
वही पुरुष है (और इतना ही उसका पौरुष--मानवता है कि) दूसरा मनुष्य उसके प्रति 
जितना उपकार करे, वह उससे भी अधिक उस मनुष्यका प्रत्युपकार कर दे ।। १४ ।। 

तदिदं ब्राह्मणस्यास्य दुःखमापतितं ध्रुवम्‌ । 

तत्रास्य यदि साहाय्यं कुर्यामुपकृतं भवेत्‌ ।। १५ ।। 

“इस समय निश्चय ही इस ब्राह्मणपर कोई भारी दुःख आ पड़ा है। यदि उसमें मैं इसकी 
सहायता करूँ तो वास्तविक उपकार हो सकता है” ।। १५ ।। 

भीमसेन उवाच 


ज्ञायतामस्य यद्‌ दुःखं यतश्नैव समुत्थितम्‌ । 

विदित्वा व्यवसिष्यामि यद्यपि स्यात्‌ सुदुष्करम्‌ ।। १६ ।। 

भीमसेन बोले--माँ! पहले यह मालूम करो कि इस ब्राह्मणको क्या दुःख है और वह 
किस कारणसे प्राप्त हुआ है। जान लेनेपर अत्यन्त दुष्कर होगा, तो भी मैं इसका कष्ट दूर 


करनेके लिये उद्योग करूँगा ।। १६ ।। 
वैशम्पायन उवाच 

एवं तौ कथयन्तौ च भूय: शुश्रुवतु: स्वनम्‌ | 

आर्तिजं तस्य विप्रस्य सभार्यस्य विशाम्पते ।। १७ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! वे माँ-बेटे इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि पुनः 
पत्नीसहित ब्राह्मणका आर्तनाद उनके कानोंमें पड़ा |। १७ ।। 

अन्त:पुरं ततस्तस्य ब्राह्मणस्य महात्मन: । 

विवेश त्वरिता कुन्ती बद्धवत्सेव सौरभी ।। १८ ।। 

तब कुन्तीदेवी तुरंत ही उस महात्मा ब्राह्मणके अन्तःपुरमें घुस गयीं--ठीक उसी तरह 
जैसे घरके भीतर बँधे हुए बछड़ेवाली गाय स्वयं ही उसके पास पहुँच जाती है ।। १८ ।। 

ततस्तं ब्राह्म॒णं तत्र भार्यया च सुतेन च । 

दुहित्रा चैव सहितं ददर्शावनताननम्‌ ।। १९ |। 

भीतर जाकर दुन्तीने ब्राह्मणको वहाँ पत्नी, पुत्र और कन्याके साथ नीचे मुँह किये बैठे 
देखा ।। १९ |। 

ब्राह्मण उवाच 

धिगिदं जीवितं लोके गतसारमनर्थकम्‌ | 

दुःखमूलं पराधीनं भृशमप्रियभागि च ।। २० ।। 

ब्राह्मणदेवता कह रहे थे--जगत्‌के इस जीवनको धिक्‍कार है; क्योंकि यह सारहीन, 
निरर्थक, दुःखकी जड़, पराधीन और अत्यन्त अप्रियका भागी है || २० ।। 

जीविते परम दुःखं जीविते परमो ज्वर: । 

जीविते वर्तमानस्य दुःखानामागमो ध्रुव: || २१ ।। 

जीनेमें महान्‌ दुःख है। जीवनकालमें बड़ी भारी चिन्ताका सामना करना पड़ता है। 
जिसने जीवन धारण कर रखा है, उसे दु:खोंकी प्राप्ति अवश्य होती है || २१ ।। 

आत्मा होको हि धर्मार्थों कामं चैव निषेवते | 

एतैश्व विप्रयोगोडपि दु:ःखं परमनन्तकम्‌ ।। २२ |। 

जीवात्मा अकेला ही धर्म, अर्थ और कामका सेवन करता है। इनका वियोग होना भी 
उसके लिये महान्‌ और अनन्त दुःखका कारण होता है ।। २२ ।। 

आहु: केचित्‌ परं मोक्ष स च नास्ति कथंचन | 

अर्थप्राप्ती तु नरक: कृत्स्न एवोपपद्यते ।। २३ ।। 

कुछ लोग चारों पुरुषार्थोमें मोक्षको ही सर्वोत्तम बतलाते हैं, किंतु वह भी मेरे लिये 
किसी प्रकार सुलभ नहीं है। अर्थकी प्राप्ति होनेपर तो नरकका सम्पूर्ण दुःख भोगना ही 
पड़ता है ।। २३ ।। 


अर्थेप्सुता परं दुःखमर्थप्राप्ती ततो5धिकम्‌ । 

जातस्नेहस्य चार्थेषु विप्रयोगे महत्तरम्‌ ।। २४ ।। 

धनकी इच्छा सबसे बड़ा दु:ख है, किंतु धन प्राप्त करनेमें तो और भी अधिक दु:ख है 
और जिसकी धनमें आसक्ति हो गयी है-, उसे उस धनका वियोग होनेपर इतना महान्‌ दुःख 
होता है, जिसकी कोई सीमा नहीं है || २४ ।। 

न हि योगं प्रपश्यामि येन मुच्येयमापद: । 

पुत्रदारेण वा सार्ध प्राद्रवेयमनामयम्‌ | २५ ।। 

मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे इस विपत्तिसे छुटकारा पा सकूँ 
अथवा पुत्र और स्त्रीके साथ किसी निरापद स्थानमें भाग चलूँ || २५ ।। 

यतितं वै मया पूर्व वेत्थ ब्राह्मणि तत्‌ तथा । 

क्षेमं यतस्ततो गन्तुं त्वया तु मम न श्रुतम्‌ ।। २६ ।। 

ब्राह्मणी! तुम इस बातको ठीक-ठीक जानती हो कि पहले तुम्हारे साथ किसी ऐसे 
स्थानमें चलनेके लिये जहाँ सब प्रकारसे अपना भला हो, मैंने प्रयत्न किया था; परंतु उस 
समय तुमने मेरी बात नहीं सुनी || २६ ।। 

इह जाता विवृद्धास्मि पिता चापि ममेति वै । 

उक्तवत्यसि दुर्मेधे याच्यमाना मयासकृत्‌ ।। २७ ।। 

मूठमते! मैं बार-बार तुमसे अन्यत्र चलनेके लिये अनुरोध करता। उस समय तुम कहने 
लगती थीं--“यहीं मेरा जन्म हुआ, यहीं बड़ी हुई तथा मेरे पिता भी यहीं रहते थे" || २७ ।। 

स्वर्गतोडपि पिता वृद्धस्तथा माता चिरं तव । 

बान्धवा भूतपूर्वाश्च तत्र वासे तु का रति: || २८ ।। 

अरी! तुम्हारे बूढ़े माता-पिता और पहलेके भाई-बन्धु जिसे छोड़कर बहुत दिन हुए 
स्वर्गलोकको चले गये, वहीं निवास करनेके लिये यह आसक्ति कैसी? || २८ ।। 

सो<यं ते बन्धुकामाया अशृण्वत्या वचो मम । 

बन्धुप्रणाश: सम्प्राप्तो भृशं॑ दुः:खकरो मम ।। २९ ।। 

तुमने बंधु-बान्धवोंके साथ रहनेकी इच्छा रखकर जो मेरी बात नहीं सुनी, उसीका यह 
फल है कि आज समस्त भाई-बंधुओंके विनाशकी घड़ी आ पहुँची है, जो मेरे लिये अत्यन्त 
दुःखका कारण है ।। २९ |। 

अथवा मद्विनाशो<यं न हि शक्ष्यामि कंचन । 

परित्यक्तुमहं बन्धुं स्वयं जीवन्‌ नृशंसवत्‌ ।। ३० ।। 

अथवा यह मेरे ही विनाशका समय है; क्योंकि मैं स्वयं जीवित रहकर क्रूर मनुष्यकी 
भाँति दूसरे किसी भाई-बंधुका त्याग नहीं कर सकूँगा ।। ३० ।। 

सहधर्मचरीं दान्तां नित्यं मातृसमां मम । 

सखायं विद्िितां देवैर्नित्यं परमिकां गतिम्‌ ।। ३१ ।। 


प्रिये! तुम मेरी सहधर्मिणी और इन्द्रियोंकों संयममें रखनेवाली हो। सदा सावधान 
रहकर माताके समान मेरा पालन-पोषण करती हो। देवताओंने तुम्हें मेरी सखी (सहायिका) 
बनाया है। तुम सदा मेरी परम गति (सबसे बड़ा सहारा) हो ।। ३१ ।। 

पित्रा मात्रा च विहितां सदा गार्हस्थ्यभागिनीम्‌ । 

वरयित्वा यथान्यायं मन्त्रवत्‌ परिणीय च ।। ३२ ।। 

तुम्हारे पिता-माताने तुम्हें सदाके लिये मेरे गृहस्थाश्रमकी अधिकारिणी बनाया है। मैंने 
विधिपूर्वक तुम्हारा वरण करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक तुम्हारे साथ विवाह किया है ।। ३२ ।। 

कुलीनां शीलसम्पन्नामपत्यजननीमपि । 

त्वामहं जीवितस्यार्थे साध्वीमनपकारिणीम्‌ ।। ३३ ।। 

परित्यक्तुं न शक्ष्यामि भार्या नित्यमनुव्रताम्‌ । 

कुत एव परित्यक्तुं सुतं शक्ष्याम्पहं स्वयम्‌ ॥। ३४ ।। 

बालमप्राप्तवयसमजातव्यञ्जनाकृतिम्‌ | 

भर्तुरर्थाय निक्षिप्तां न्यासं धात्रा महात्मना ।। ३५ |। 

यया दौहित्रजॉल्लोकानाशंसे पितृभि: सह । 

स्वयमुत्पाद्य तां बालां कथमुत्स्रष्टमुत्सहे || ३६ ।। 

तुम कुलीन, सुशीला और संतानवती हो, सती-साध्वी हो। तुमने कभी मेरा अपकार 
नहीं किया है। तुम नित्य मेरे अनुकूल चलनेवाली धर्मपत्नी हो। अतः मैं अपने जीवनकी 
रक्षाके लिये तुम्हें नहीं त्याग सकूँगा। फिर स्वयं ही अपने उस पुत्रका त्याग तो कैसे कर 
सकूँगा, जो अभी निरा बच्चा है, जिसने युवावस्थामें प्रवेश नहीं किया है तथा जिसके 
शरीरमें अभी जवानीके लक्षणतक नहीं प्रकट हुए हैं। साथ ही अपनी इस कन्याको कैसे 
त्याग दूँ, जिसे महात्मा ब्रह्माजीने उसके भावी पतिके लिये धरोहरके रूपमें मेरे यहाँ रख 
छोड़ा है? जिसके होनेसे मैं पितरोंके साथ दौहित्रजनित पुण्यलोकोंको पानेकी आशा रखता 
हूँ, उसी अपनी बालिकाको स्वयं ही जन्म देकर मैं मौतके मुखमें कैसे छोड़ सकता 
हूँ? ।। ३३-३६ ।। 

मन्यन्ते केचिदथशिकं स्नेहं पुत्रे पितुर्नरा: । 

कन्यायां केचिदपरे मम तुल्यावुभौ स्मृतो ।। ३७ ।। 

कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पिताका अधिक स्नेह पुत्रपर होता है तथा कुछ दूसरे लोग 
पुत्रीपर ही अधिक स्नेह बताते हैं; किंतु मेरे लिये तो दोनों ही समान हैं || ३७ ।। 

यस्यां लोकाः प्रसूतिश्व स्थिता नित्यमथो सुखम्‌ । 

अपापां तामहं बालां कथमुत्स्रष्टमुत्सहे || ३८ ।। 

जिसपर पुण्यलोक, वंशपरम्परा और नित्य सुख--सब कुछ सदा निर्भर रहते हैं, उस 
निष्पाप बालिकाका परित्याग मैं कैसे कर सकता हूँ ।। ३८ ।। 

आत्मानमपि चोत्सृज्य तप्स्यामि परलोकग: । 


त्यक्ता होते मया व्यक्त नेह शक्ष्यन्ति जीवितुम्‌ ।। ३९ ।। 
अपनेको भी त्यागकर परलोकमें जानेपर मैं सदा इस बातके लिये संतप्त होता रहूँगा 
कि मेरे द्वारा त्यागे हुए ये बच्चे अवश्य ही यहाँ जीवित नहीं रह सकेंगे ।। ३९ ।। 
एषां चान्यतमत्यागो नृशंसो गर्लहितो बुध: । 
आत्मत्यागे कृते चेमे मरिष्यन्ति मया विना ।। ४० ।। 
इनमेंसे किसीका भी त्याग दिद्वानोंने निर्दयतापूर्ण तथा निन्दनीय बताया है और मेरे मर 
जानेपर ये सभी मेरे बिना मर जायूँगे ।। ४० ।। 
स कृच्छामहमापन्नो न शक्तस्तर्तुमापदम्‌ । 
अहो धिक कां गतिं त्वद्य गमिष्यामि सबान्धव: । 
सर्वे: सह मृतं श्रेयो न च मे जीवितं क्षमम्‌ ।। ४१ ।। 
अहो! मैं बड़ी कठिन विपत्तिमें फँस गया हूँ। इससे पार होनेकी मुझमें शक्ति नहीं है। 
धिक्‍्कार है इस जीवनको। हाय! मैं बन्धु-बान्धवोंके साथ आज किस गतिको प्राप्त 
होऊँगा? सबके साथ मर जाना ही अच्छा है। मेरा जीवित रहना कदापि उचित नहीं 
है || ४१ ।। 
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि ब्राह्मणचिन्तायां 
षट्पञज्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५६ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत बकवधपर्वमें ब्राह्मणकी चिन्ताविषयक एक 
सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५६ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ ३ श्लोक मिलाकर कुल ४५३ श्लोक हैं) 


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- यावन्तो यस्य संयोगा द्रव्यैरिष्टर्भवन्त्युत । तावन्तो5स्य निखन्यन्ते हृदये शोकशड्भकव: ।। 


सप्तपञ्चाशर्दाधिकशततमोब ध्याय: 


ब्राह्मणीका स्वयं मरनेके लिये उद्यत होकर पतिसे जीवित 
रहनेके लिये अनुरोध करना 


ब्राह्मण्युवाच 

न संतापस्त्वया कार्य: प्राकृतेनेव कहिचित्‌ । 

न हि संतापकालो<थयं वैद्यस्य तव विद्यते ।। १ ।। 

ब्राह्मणी बोली--प्राणनाथ! आपको साधारण मनुष्योंकी भाँति कभी संताप नहीं 
करना चाहिये। आप विद्दान्‌ हैं, आपके लिये यह संतापका अवसर नहीं है ।। १ ।। 

अवश्यं निधन सर्वर्गन्तव्यमिह मानवै: । 

अवश्यम्भाविन्यर्थे वै संतापो नेह विद्यते ।। २ ।। 

एक-न-एक दिन संसारमें सभी मनुष्योंको अवश्य मरना पड़ेगा; अतः जो बात अवश्य 
होनेवाली है, उसके लिये यहाँ शोक करनेकी आवश्यकता नहीं है || २ ।। 

भार्या पुत्रो5थ दुहिता सर्वमात्मार्थमिष्यते । 

व्यथां जहि सुबुद्धया त्वं स्वयं यास्यामि तत्र च ॥। ३ ।। 

एतद्धि परम॑ नार्या: कार्य लोके सनातनम्‌ | 

प्राणानपि परित्यज्य यद्‌ भर्तृहितमाचरेत्‌ ।। ४ ।। 

पत्नी, पुत्र और पुत्री--ये सब अपने ही लिये अभीष्ट होते हैं। आप उत्तम बुद्धि- 
विवेकका आश्रय लेकर शोक-संताप छोड़िये। मैं स्वयं वहाँ (राक्षसके समीप) चली 
जाऊँगी। पत्नीके लिये लोकमें सबसे बढ़कर यही सनातन कर्तव्य है कि वह अपने प्राणोंको 
भी निछावर करके पतिकी भलाई करे ।। ३-४ ।। 

तच्च तत्र कृतं कर्म तवापीदं सुखावहम्‌ | 

भवत्यमुत्र चाक्षय्यं लोके5स्मिंश्व॒ यशस्करम्‌ ।। ५ ।। 

पतिके हितके लिये किया हुआ मेरा वह प्राणोत्सर्गरूप कर्म आपके लिये तो 
सुखकारक होगा ही, मेरे लिये भी परलोकमें अक्षय सुखका साधक और इस लोकमें यशकी 
प्राप्ति करानेवाला होगा ।। ५ ।। 

एष चैव गुरुर्धर्मो यं प्रवक्ष्याम्पहं तव । 

अर्थश्न तव धर्मश्न भूयानत्र प्रदृश्यते ।। ६ ।। 

यह सबसे बड़ा धर्म है, जो मैं आपसे बता रही हूँ। इसमें आपके लिये अधिक-से- 
अधिक स्वार्थ और धर्मका लाभ दिखायी देता है || ६ ।। 

यदर्थमिष्यते भार्या प्राप्त: सो<र्थस्त्वया मयि | 


कन्या चैका कुमारश्न॒ कृताहमनृणा त्वया ।। ७ ।। 

जिस उद्देश्यसे पत्नीकी अभिलाषा की जाती है, आपने वह उद्देश्य मुझसे सिद्ध कर 
लिया है। एक पुत्री और एक पुत्र आपके द्वारा मेरे गर्भसे उत्पन्न हो चुके हैं। इस प्रकार 
आपने मुझे भी उऋण कर दिया है || ७ ।। 

समर्थ: पोषणे चासि सुतयो रक्षणे तथा । 

न त्वहं सुतयो: शक्ता तथा रक्षणपोषणे ।॥। ८ ।। 

इन दोनों संतानोंका पालन-पोषण और संरक्षण करनेमें आप समर्थ हैं। आपकी तरह 
मैं इन दोनोंके पालन-पोषण तथा रक्षाकी व्यवस्था नहीं कर सकूँगी ।। ८ ।। 

मम हि त्वद्विहीनाया: सर्वप्राणधने श्वर । 

कथं स्यातां सुतौ बालौ भरेयं च कथं त्वहम्‌ ।। ९ ।। 

मेरे सर्वस्वके स्वामी प्राणेश्वर! आपके न रहनेपर मेरे इन दोनों बच्चोंकी क्या दशा 
होगी? मैं किस तरह इन बालकोंका भरण-पोषण करूँगी? ।। ९ ।। 

कथं हि विधवानाथा बालपुत्रा विना त्वया | 

मिथुनं जीवयिष्यामि स्थिता साधुगते पथि ।। १० ।। 

मेरा पुत्र अभी बालक है, आपके बिना मैं अनाथ विधवा सन्मार्गपर स्थित रहकर इन 
दोनों बच्चोंको कैसे जिलाऊँगी || १० ।। 

अहंकृतावलिप्तैश्व प्रार्थ्यमानामिमां सुताम्‌ । 

अयुक्तैस्तव सम्बन्धे कथं शक्ष्यामि रक्षितुम्‌ ।। ११ ।। 

जो आपके यहाँ सम्बन्ध करनेके सर्वथा अयोग्य हैं, ऐसे अहंकारी और घमंडीलोग जब 
मुझसे इस कन्याको माँगेंगे, तब मैं उनसे इसकी रक्षा कैसे कर सकूँगी ।। ११ ।। 

उत्सृष्टमामिषं भूमौ प्रार्थयन्ति यथा खगा: । 

प्रार्थयन्ति जना: सर्वे पतिहीनां तथा स्त्रियम्‌ ।। १२ ।। 

साहं विचाल्यमाना वै प्रार्थ्यमाना दुरात्मभि: । 

स्थातुं पथि न शक्ष्यामि सज्जनेष्टे द्विजोत्तम ।। १३ |। 

जैसे पक्षी पृथ्वीपर डाले हुए मांसके टुकड़ेको लेनेके लिये झपटते हैं, उसी प्रकार सब 
लोग विधवा स्त्रीको वशमें करना चाहते हैं। द्विजश्रेष्ठ) दुराचारी मनुष्य जब बार-बार मुझसे 
याचना करते हुए मुझे मर्यादासे विचलित करनेकी चेष्टा करेंगे, उस समय मैं श्रेष्ठ पुरुषोंके 
द्वारा अभिलषित मार्गपर स्थिर नहीं रह सकूँगी ।। १२-१३ ।। 

कथं तव कुलस्यैकामिमां बालामनागसम्‌ । 

पितृपैतामहे मार्गे नियोक्तुमहमुत्सहे || १४ ।। 

आपके कुलकी इस एकमात्र निरपराध बालिकाको मैं बाप-दादोंके द्वारा पालित 
धर्ममार्गपर लगाये रखनेमें कैसे समर्थ होऊँगी ।। १४ ।। 

कथं शक्ष्यामि बाले5स्मिन्‌ गुणानाधातुमीप्सितान्‌ । 


अनाथे सर्वतो लुप्ते यथा त्वं धर्मदर्शिवान्‌ ।। १५ ।। 

आप धर्मके ज्ञाता हैं, आप जैसे अपने बालकको सदगुणी बना सकते हैं, उस प्रकार मैं 
आपके न रहनेपर सब ओरसे आश्रयहीन हुए इस अनाथ बालकमें वांछनीय उत्तम गुणोंका 
आधान कैसे कर सकूँगी ।। १५ ।। 

इमामपि च ते बालामनाथां परिभूय माम्‌ । 

अनरह्: प्रार्थयिष्यन्ति शूद्रा वेदशरुतिं यथा ।। १६ ।। 

जैसे अनधिकारी शूद्र वेदकी श्रुतिको प्राप्त करना चाहता हो, उसी प्रकार अयोग्य पुरुष 
मेरी अवहेलना करके आपकी इस अनाथ बालिकाको भी ग्रहण करना चाहेंगे || १६ ।। 

तां चैदहं न दित्सेयं त्वद्गुणैरुपबृंहिताम्‌ । 

प्रमथ्यैनां हरेयुस्ते हविर्ध्वाड्क्षा इवाध्वरात्‌ ।। १७ ।। 

आपके ही उत्तम गुणोंसे सम्पन्न अपनी इस पुत्रीको यदि मैं उन अयोग्य पुरुषोंके हाथमें 
न देना चाहूँगी तो वे बलपूर्वक इसे उसी प्रकार हर ले जायँगे, जैसे कौए यज्ञसे हविष्यका 
भाग लेकर उड़ जायेँ ।। १७ ।। 

सम्प्रेक्षमाणा पुत्र ते नानुरूपमिवात्मन: । 

अनर्हवशमापन्नामिमां चापि सुतां तव ।। १८ ।। 

अवज्ञाता च लोकेषु तथा55त्मानमजानती । 

अवलिप्तैनरिब्रह्यन्‌ मरिष्यामि न संशय: ।। १९ |। 

ब्रह्म! आपके इस पुत्रको आपके अनुरूप न देखकर और आपकी इस पुत्रीको भी 
अयोग्य पुरुषके वशमें पड़ी देखकर तथा लोकमें घमंडी मनुष्योंद्वारा अपमानित हो 
अपनेको पूर्ववत्‌ सम्मानित अवस्थामें न पाकर मैं प्राण त्याग दूँगी, इसमें संशय नहीं 
है ।। १८-१९ || 

तौ च हीनौ मया बालौ त्वया चैव तथा55त्मजौ । 

विनश्येतां न संदेहो मत्स्याविव जलक्षये ।। २० ।। 

जैसे पानी सूख जानेपर वहाँकी मछलियाँ नष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार मुझसे और 
आपसे रहित होकर अपने ये दोनों बच्चे निस्संदेह नष्ट हो जायँगे || २० ।। 

त्रितयं सर्वथाप्येवं विनशिष्यत्यसंशयम्‌ । 

त्वया विहीनं तस्मात्‌ त्वं मां परित्यक्तुमहसि ।। २१ ।। 

नाथ! इस प्रकार आपके बिना मैं और ये दोनों बच्चे--तीनों ही सर्वथा विनष्ट हो जायाँगे 
--इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसलिये आप केवल मुझे त्याग दीजिये || २१ ।। 

व्युष्टिरेषा परा स्त्रीणां पूर्व भर्तु: परां गतिम्‌ । 

गन्तुं ब्रह्मन्‌ सपुत्राणामिति धर्मविदो विदु: |। २२ ।। 

ब्रह्मन! पुत्रवती स्त्रियाँ यदि अपने पतिसे पहले ही मृत्युको प्राप्त हो जाये तो यह उनके 
लिये परम सौभाग्यकी बात है। धर्मज्ञ विद्वान्‌ ऐसा ही मानते हैं || २२ ।। 


(मितं ददाति हि पिता मित॑ माता मितं सुतः । 

अमितस्य हि दातारं का पतिं नाभिनन्दति ।।) 

पिता, माता और पुत्र--ये सब परिमित मात्रामें ही सुख देते हैं, अपरिमित सुखको 
देनेवाला तो केवल पति है। ऐसे पतिका कौन स्त्री आदर नहीं करेगी? 

परित्यक्त: सुतश्नायं दुहितेयं तथा मया । 

बान्धवाश्ष परित्यक्तास्त्वदर्थ जीवितं च मे ।। २३ ।। 

आर्यपुत्र! आपके लिये मैंने यह पुत्र और पुत्री भी छोड़ दी, समस्त बन्धु-बान्धवोंको भी 
छोड़ दिया और अब अपना यह जीवन भी त्याग देनेको उद्यत हूँ || २३ ।। 

यज्ञैस्तपोभिरनियमैदनिश्व विविधैस्तथा । 

विशिष्यते स्त्रिया भर्तुर्नित्यं प्रियहिते स्थिति: ।॥ २४ ।। 

स्‍त्री यदि सदा अपने स्वामीके प्रिय और हितमें लगी रहे तो यह उसके लिये बड़े-बड़े 
यज्ञों, तपस्याओं, नियमों और नाना प्रकारके दानोंसे भी बढ़कर है ।। २४ ।। 

तदिदं यच्चिकीर्षामि धर्म परमसम्मतम्‌ । 

इष्टं चैव हितं चैव तव चैव कुलस्य च ।। २५ ।। 

अतः मैं जो यह कार्य करना चाहती हूँ, यह श्रेष्ठ पुरुषोंसे सम्मत धर्म है और आपके 
तथा इस कुलके लिये सर्वथा अनुकूल एवं हितकारक है ॥। २५ ।। 

इष्टानि चाप्यपत्यानि द्रव्याणि सुहृद: प्रिया: । 

आपद्धर्मप्रमोक्षाय भार्या चापि सतां मतम्‌ । २६ ।। 

अनुकूल संतान, धन, प्रिय, सुहृद्‌ तथा पत्नी--ये सभी आपद्धर्मसे छूटनेके लिये ही 
वांछनीय हैं; ऐसा साधु पुरुषोंका मत है || २६ ।। 

आपदर्थ धन रक्षेद्‌ दारान्‌ रक्षेद्‌ धनैरपि । 

आत्मानं सतत रक्षेद्‌ दारैरपि धनैरपि || २७ ।। 

आपफत्तिके लिये धनकी रक्षा करे, धनके द्वारा स्त्रीकी रक्षा करे और स्त्री तथा धन 
दोनोंके द्वारा सदा अपनी रक्षा करे ।। २७ ।। 

दृष्टादृष्टफलार्थ हि भार्या पुत्रो धनं गृहम्‌ । 

सर्वमेतद्‌ विधातव्यं बुधानामेष निश्चय: ।। २८ ।। 

पत्नी, पुत्र, धन और घर--ये सब वस्तुएँ दृष्ट और अदृष्ट फल (लौकिक और 
पारलौकिक लाभ)-के लिये संग्रहणीय हैं। विद्वानोंका यह निश्चय है ।। २८ ।। 

एकतो वा कुल कृत्स्नमात्मा वा कुलवर्धन: । 

न सम॑ सर्वमेवेति बुधानामेष निश्चय: ।। २९ |। 

एक ओर सम्पूर्ण कुल हो और दूसरी ओर उस कुलकी वृद्धि करनेवाला शरीर हो तो 
उन दोनोंकी तुलना करनेपर वह सारा कुल उस शरीरके बराबर नहीं हो सकता; यह 
विद्वानोंका निश्चय है ।। २९ ।। 


स कुरुष्व मया कार्य तारयात्मानमात्मना । 

अनुजानीहि मामार्य सुतौ मे परिपालय ।। ३० ।। 

आर्य! अतः आप मेरे द्वारा अभीष्ट कार्यकी सिद्धि कीजिये और स्वयं प्रयत्न करके 
अपनेको इस संकटसे बचाइये। मुझे राक्षसके पास जानेकी आज्ञा दीजिये और मेरे दोनों 
बच्चोंका पालन कीजिये ।। ३० ।। 

अवध्यां स्त्रियमित्याहुर्धर्मज्ञा धर्मनिश्चये 

धर्मज्ञान्‌ राक्षसानाहुर्न हन्यात्‌ स च मामपि ।॥। ३१ ।। 

धर्मज्ञ विद्वानोंने धर्म-निर्णयके प्रसंगमें नारीको अवध्य बताया है। राक्षसोंको भी लोग 
धर्मज्ञ कहते हैं। इसलिये सम्भव है, वह राक्षस भी मुझे स्त्री समझकर न मारे ।। ३१ ।। 

निस्संशयं वध: पुंसां स्त्रीणां संशयितो वध: । 

अतो मामेव धर्मज्ञ प्रस्थापयितुमहसि ।। ३२ ।। 

पुरुष वहाँ जायूँ, तो वह राक्षस उनका वध कर ही डालेगा इसमें संशय नहीं है; परंतु 
स्त्रियोंके वधमें संदेह है। (यदि राक्षसने धर्मका विचार किया तो मेरे बच जानेकी आशा है) 
अतः धर्मज्ञ आर्यपुत्र! आप मुझे ही वहाँ भेजें || ३२ ।। 

भुक्तं प्रियाण्यवाप्तानि धर्मश्न चरितो महान्‌ | 

त्वत्‌ प्रसूति: प्रिया प्राप्ता न मां तप्स्यत्यजीवितम्‌ ।। ३३ ।। 

मैंने सब प्रकारके भोग भोग लिये, मनको प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ प्राप्त कर लीं, महान्‌ 
धर्मका अनुष्ठान भी पूरा कर लिया और आपसे प्यारी संतान भी प्राप्त कर ली। अब यदि 
मेरी मृत्यु भी हो जाय तो उससे मुझे दुःख न होगा ।। ३३ ।। 

जाततपुत्रा च वृद्धा च प्रियकामा च ते सदा । 

समीक्ष्यैतदहं सर्व व्यवसायं करोम्यतः ।। ३४ ।। 

मुझसे पुत्र उत्पन्न हो गया, मैं बूढ़ी भी हो चली और सदा आपका प्रिय करनेकी इच्छा 
रखती आयी हूँ। इन सब बातोंपर विचार करके ही अब मैं मरनेका निश्चय कर रही 
हूँ ।। ३४ ।। 

उत्सृज्यापि हि मामार्य प्राप्स्यस्यन्यामपि स्त्रियम्‌ । 

ततः प्रतिष्ठितो धर्मो भविष्यति पुनस्तव ।॥। ३५ ।। 

आर्य! मुझे त्याग करके आप दूसरी स्त्री भी प्राप्त कर सकते हैं। उससे आपका 
गृहस्थ-धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो जायगा ।। ३५ ।। 

न चाप्यधर्म: कल्याण बहुपत्नीकृतां नृणाम्‌ । 

स्त्रीणामधर्म: सुमहान्‌ भर्तु: पूर्वस्य लड्घने ।। ३६ ।। 

कल्याणस्वरूप हृदयेश्वर! बहुत-सी स्त्रियोंसे विवाह करनेवाले पुरुषोंको भी पाप नहीं 
लगता। परंतु स्त्रियोंको अपने पूर्वपतिका उल्लंघन करनेपर बड़ा भारी पाप लगता 
है ।। ३६ || 


एतत्‌ सर्व समीक्ष्य त्वमात्मत्यागं च गर्हितम्‌ । 
आत्मानं तारयाद्याशु कुलं चेमौ च दारकौ ।। ३७ ।। 
इन सब बातोंको विचार करके और अपने देहके त्यागको निन्दित कर्म मानकर आप 
अब शीघ्र ही अपनेको, अपने कुलको और इन दोनों बच्चोंको भी संकटसे बचा 
लीजिये ।। ३७ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


एवमुक्तस्तया भर्ता तां समालिड्ग्य भारत । 

मुमोच बाष्पं शनकै: सभार्यों भृूशदु:खित: ।। ३८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--भारत! ब्राह्मणीके यों कहनेपर उसके पति ब्राह्मणदेवता 

अत्यन्त दुःखी हो उसे हृदयसे लगाकर उसके साथ ही धीरे-धीरे आँसू बहाने लगे ।। ३८ ।। 
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि ब्राह्मणीवाक्ये 
सप्तपञ्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५७ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत बकवधपर्वमें ब्राह्मणीवाक्यविषयक एक सौ 
सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५७ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३९ श्लोक हैं) 


अपना बछ। | अफ---रा+ >> 


अष्टपञ्चाशर्दाधिकशततमोब ध्याय: 


ब्राह्मण-कन्याके त्याग और विवेकपूर्ण वचन तथा कुन्तीका 
उन सबके पास जाना 


वैशम्पायन उवाच 


तयोर्दु:खितयोर्वाक्यमतिमात्र निशम्य तु । 

ततो दुःखपरीताज़्ी कन्या तावभ्यभाषत ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! दु:खमें डूबे हुए माता-पिताका यह (अत्यन्त 
शोकपूर्ण) वचन सुनकर कन्याके सम्पूर्ण अंगोंमें दुःख व्याप्त हो गया; उसने माता और 
पिता दोनोंसे कहा-- || १ ।। 

किमेवं भृशदुः:खार्तो रोरूयेतामनाथवत्‌ । 

ममापि श्रूयतां वाकयं श्रुत्वा च क्रियतां क्षमम्‌ ।। २ ।। 

“आप दोनों इस प्रकार अत्यन्त दुःखसे आतुर हो अनाथकी भाँति क्यों बार-बार रो रहे 
हैं? मेरी भी बात सुनिये और उसे सुनकर जो उचित जान पड़े, वह कीजिये ।। २ ।। 

धर्मतो<हं परित्याज्या युवयोर्नात्र संशय: । 

त्यक्तव्यां मां परित्यज्य त्राहि सर्व मयैकया ।। ३ ।। 

“इसमें संदेह नहीं कि एक-न-एक दिन आप दोनोंको धर्मतः मेरा परित्याग करना 
पड़ेगा। जब मैं त्याज्य ही हूँ, तब आज ही मुझे त्यागकर मुझ अकेलीके द्वारा इस समूचे 
कुलकी रक्षा कर लीजिये ।। ३ ।। 

इत्यर्थमिष्यते5पत्यं तारयिष्यति मामिति । 

अस्मिन्नुपस्थिते काले तरध्वं प्लववन्मया || ४ ।। 

'संतानकी इच्छा इसीलिये की जाती है कि यह मुझे संकटसे उबारेगी। अत: इस समय 
जो संकट उपस्थित हुआ है, उसमें नौकाकी भाँति मेरा उपयोग करके आपलोग 
शोकसागरसे पार हो जाइये ।। ४ ।। 

इह वा तारयेद्‌ दुर्गादुत वा प्रेत्य भारत । 

सर्वथा तारयेत्‌ पुत्र: पुत्र इत्युच्यते बुधै: ।। ५ ।॥। 

'जो पुत्र इस लोकमें दुर्गण संकटसे पार लगाये अथवा मृत्युके पश्चात्‌ परलोकमें उद्धार 
करे--सब प्रकार पिताको तार दे, उसे ही दविद्वानोंने वास्तवमें पुत्र कहा है ।। ५ ।। 

आकाडभक्षन्ते च दौहित्रान्‌ मयि नित्यं पितामहा: । 

तत्‌ स्वयं वै परित्रास्थे रक्षन्ती जीवितं पितु: ।। ६ ।। 


“पितरलोग मुझसे उत्पन्न होनेवाले दौहित्रसे अपने उद्धारकी सदा अभिलाषा रखते हैं, 
इसलिये मैं स्वयं ही पिताके जीवनकी रक्षा करती हुई उन सबका उद्धार करूँगी ।। ६ ।। 

भ्राता च मम बालो<यं गते लोकममुं त्वयि । 

अचिरेणैव कालेन विनश्येत न संशय: ।। ७ ।। 

“यदि आप परलोकवासी हो गये तो यह मेरा नन्हा-सा भाई थोड़े ही समयमें नष्ट हो 
जायगा, इसमें संशय नहीं है || ७ ।। 

ताते5पि हि गते स्वर्ग विनष्टे च ममानुजे । 

पिण्ड: पितृणां व्युच्छिद्येत्‌ तत्‌ तेषां विप्रियं भवेत्‌ ।। ८ ।। 

'पिता स्वर्गवासी हो जायेँ और मेरा भैया भी नष्ट हो जाय, तो पितरोंका पिण्ड ही लुप्त 
हो जायगा, जो उनके लिये बहुत ही अप्रिय होगा ।। ८ ।। 

पित्रा त्यक्ता तथा मात्रा भ्रात्रा चाहमसंशयम्‌ । 

दुःखाद्‌ दुःखतर प्राप्य म्रियेयमतथोचिता ।। ९ ।। 

“पिता, माता और भाई--तीनोंसे परित्यक्त होकर मैं एक दुःखसे दूसरे महान्‌ दुःखमें 
पड़कर निश्चय ही मर जाऊँगी। यद्यपि मैं ऐसा दुःख भोगनेके योग्य नहीं हूँ, तथापि आप 
लोगोंके बिना मुझे वह सब भोगना ही पड़ेगा ।। ९ ।। 

त्वयि त्वरोगे निर्मुक्ते माता भ्राता च मे शिशु: । 

संतानश्लैव पिण्डश्न प्रतिष्ठास्यत्यसंशयम्‌ ।। १० ।। 

“यदि आप मृत्युके संकटसे मुक्त एवं नीरोग रहे तो मेरी माता, मेरा नन्‍्हा-सा भाई, 
संतान-परम्परा और पिण्ड (श्राद्धकर्म)--ये सब स्थिर रहेंगे; इसमें संशय नहीं है || १० ।। 

आत्मा पुत्र: सखा भार्या कृच्छों तु दुहिता किल । 

स कृच्छान्मोचयात्मानं मां च धर्मे नियोजय ।। ११ ।। 

“कहते हैं पुत्र अपना आत्मा है, पत्नी मित्र है; किंतु पुत्री निश्चय ही संकट है, अत: आप 
इस संकटसे अपनेको बचा लीजिये और मुझे भी धर्ममें लगाइये || ११ ।। 

अनाथा कृपणा बाला यत्रक्वचनगामिनी । 

भविष्यामि त्वया तात विहीना कृपणा सदा ।। १२ ।। 

“पिताजी! आपके बिना मैं सदाके लिये दीन और असहाय हो जाऊँगी, अनाथ और 
दयनीय समझी जाऊँगी। अरक्षित बालिका होनेके कारण मुझे जहाँ कहीं भी जानेके लिये 
विवश होना पड़ेगा ।। १२ ।। 

अथवाहं करिष्यामि कुलस्यास्य विमोचनम्‌ | 

फलसंस्था भविष्यामि कृत्वा कर्म सुदुष्करम्‌ ।। १३ ।। 

“अथवा मैं अपनेको मृत्युके मुखमें डालकर इस कुलको संकटसे छुड़ाऊँगी। यह 
अत्यन्त दुष्कर कर्म कर लेनेसे मेरी मृत्यु सफल हो जायगी ।। १३ ।। 

अथवा यास्यसे तत्र त्यक्त्वा मां द्विजसत्तम । 


पीडिताहं भविष्यामि तदवेक्षस्व मामपि ।। १४ ।। 

'द्विजश्रेष्ठ पिताजी! यदि आप मुझे त्यागकर स्वयं राक्षसके पास चले जायूँगे तो मैं बड़े 
दुःखमें पड़ जाऊँगी। अतः मेरी ओर भी देखिये ।। १४ ।। 

तदस्मदर्थ धर्मार्थ प्रसवार्थ स सत्तम | 

आत्मानं परिरक्षस्व त्यक्तव्यां मां च संत्यज ।। १५ || 

“अत: हे साधुशिरोमणे! आप मेरे लिये, धर्मके लिये तथा संतानकी रक्षाके लिये भी 
अपनी रक्षा कीजिये और मुझे, जिसको एक दिन छोड़ना ही है, आज ही त्याग 
दीजिये ।। १५ ।। 

अवश्यकरणीये च मा त्वां कालो5त्यगादयम्‌ | 

कि त्वत: परम॑ दुःखं यद्‌ वयं स्वर्गते त्वयि ।। १६ ।। 

याचमाना: परादन्नं परिधावेमहि श्ववत्‌ । 

त्वयि त्वरोगे निर्मुक्ते क्लेशादस्मात्‌ सबान्धवे । 

अमृते वसती लोके भविष्यामि सुखान्विता ।। १७ ।। 

“पिताजी! जो काम अवश्य करना है, उसका निश्चय करनेमें आपको अपना समय 
व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये (शीघ्र मेरा त्याग करके इस कुलकी रक्षा करनी चाहिये)। 
हमलोगोंके लिये इससे बढ़कर महान्‌ दुःख और क्‍या होगा कि आपके स्वर्गवासी हो 
जानेपर हम दूसरोंसे अन्नकी भीख माँगते हुए कुत्तोंकी तरह इधर-उधर दौड़ते फिरें। यदि 
मुझे त्यागककर आप अपने भाई-बन्धुओंसहित इस क्लेशसे मुक्त हो नीरोग बने रहें तो मैं 
अमरलोकमें निवास करती हुई बहुत सुखी होऊँगी ।। १६-१७ ।। 

इतः प्रदाने देवाश्व॒ पितरश्रेति न श्रुतम्‌ । 

त्वया दत्तेन तोयेन भविष्यन्ति हिताय वै ।। १८ ।। 

“यद्यपि ऐसे दानसे देवता और पितर प्रसन्न नहीं होते, ऐसा मैंने सुन रखा है, तथापि 
आपके द्वारा दी हुई जलांजलिसे वे प्रसन्न होकर अवश्य हमारा हित-साधन करनेवाले 
होंगे” |। १८ ।। 

वैशग्पायन उवाच 


एवं बहुविधं तस्या निशम्य परिदेवितम्‌ | 

पिता माता च सा चैव कन्या प्ररुरुदुस्त्रय: || १९ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस तरह उस कन्याके मुखसे नाना प्रकारका 
विलाप सुनकर पिता-माता और वह कन्या तीनों फूट-फ़ूटकर रोने लगे ।। १९ ।। 

ततः प्ररुदितान्‌ सर्वान्‌ निशम्याथ सुतस्तदा | 

उत्फुल्लनयनो बाल: कलमव्यक्तमब्रवीत्‌ ।। २० ।। 


तब उन सबको रोते देख ब्राह्मणका नन्‍्हा-सा बालक उन सबकी ओर प्रफुल्ल नेत्रोंसे 
देखता हुआ तोतली भाषामें अस्पष्ट एवं मधुर वचन बोला-- || २० |। 

मा पिता रुद मा मातर्मा स्वसस्त्विति चाब्रवीत्‌ । 

प्रहसन्निव सर्वास्तानेकेकमनुसर्पति ।। २१ ।। 

तत: स तृणमादाय प्रह्ृष्ट: पुनरब्रवीत्‌ । 

अनेनाहं हनिष्यामि राक्षसं पुरुषादकम्‌ ।। २२ ।। 

“पिताजी! न रोओ, माँ! न रोओ, बहिन! न रोओ, वह हँसता हुआ-सा प्रत्येकके पास 
जाता और सबसे यही बात कहता था। तदनन्तर उसने एक तिनका उठा लिया और 
अत्यन्त हर्षमें भरकर कहा--'मैं इसीसे उस नरभक्षी राक्षसको मार डालूँगा” || २१-२२ ।। 

तथापि तेषां दुःखेन परीतानां निशम्य तत्‌ | 

बालस्य वाक्यमव्यक्तं हर्ष: समभवन्महान्‌ ।। २३ ।। 

यद्यपि वे सब लोग दु:खमें डूबे हुए थे, तथापि उस बालककी अस्पष्ट तोतली बोली 
सुनकर उनके हृदयमें सहसा अत्यन्त प्रसन्नताकी लहर दौड़ गयी ।। २३ ।। 

अयं काल इति ज्ञात्वा कुन्ती समुपसृत्य तान्‌ । 

गतासूनमृतेनेव जीवयन्तीदमब्रवीत्‌ ।। २४ ।। 

“अब यही अपनेको प्रकट करनेका अवसर है” यह जानकर कुन्तीदेवी उन सबके 
निकट गयीं और अपनी अमृतमयी वाणीसे उन मृतक (तुल्य) मानवोंको जीवन प्रदान 
करती हुई-सी बोलीं || २४ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि ब्राह्मणकन्यापुत्रवाक्ये 
अष्टपञज्चशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १५८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत बकवधपर्वमें ब्राह्मणकी कन्या और पुत्रके 
वचन-सम्बन्धी एक सौ अद्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५८ ॥। 


ऑपनआक्रात छा सं: 


एकोनषष्टर्याधेकशततमो< ध्याय: 


कुन्तीके पूछनेपर ब्राह्णका उनसे अपने दुःखका कारण 
बताना 


कुन्त्युवाच 

कुतोमूलमिदं दु:खं ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वत: । 

विदित्वाप्यपकर्षेयं शक्‍्यं चेदपकर्षितुम्‌ ।। १ ।। 

कुन्तीने पूछा--ब्रह्मम! आपलोगोंके इस दुःखका कारण क्‍या है? मैं यह ठीक-ठीक 
जानना चाहती हूँ। उसे जानकर यदि मिटाया जा सकेगा तो मिटानेकी चेष्टा करूँगी ।। १ ।। 

ब्राह्मण उवाच 

उपपन्नं सतामेतद्‌ यद्‌ ब्रवीषि तपोधने । 

न तु दुःखमिदं शक्‍यं मानुषेण व्यपोहितुम्‌ ।। २ ।। 

ब्राह्मणने कहा--तपोधने! आप जो कुछ कह रही हैं, वह आप-जैसे सज्जनोंके 
अनुरूप ही है; परंतु हमारे इस दुःखको मनुष्य नहीं मिटा सकता ।। २ ।। 

समीपे नगरस्यास्य बको वसति राक्षस: । 

(इतो गव्यूतिमात्रेडस्ति यमुनागद्नरे गुहा । 

तस्यां घोर: स वसति जिधघांसु: पुरुषादक: ।।) 

ईशो जनपदस्यास्य पुरस्थ च महाबल: ।। ३ ।। 

पुष्टो मानुषमांसेन दुर्बुद्धि: पुरुषादक: । 

(तेनेयं पुरुषादेन भक्ष्यमाणा दुरात्मना । 

अनाथा नगरी नाथं त्रातारं नाधिगच्छति ।।) 

रक्षत्यसुरराण्नित्यमिमं जनपदं बली ।। ४ ।। 

नगरं चैव देशं च रक्षोबलसमन्वित: । 

तत्कृते परचक्राच्च भूतेभ्यश्व न नो भयम्‌ ॥। ५ ।। 

इस नगरके पास ही यहाँसे दो कोसकी दूरीपर यमुनाके किनारे घने जंगलमें एक गुफा 
है, उसीमें एक भयंकर हिंसाप्रिय नरभक्षी राक्षस रहता है। उसका नाम है बक। वह राक्षस 
अत्यन्त बलवान्‌ है। वही इस जनपद और नगरका स्वामी है। वह खोटी बुद्धिवाला 
मनुष्यभक्षी राक्षस मनुष्यके ही मांससे पुष्ट हुआ है। उस दुरात्मा नरभक्षी निशाचरद्वारा 
प्रतिदिन खायी जाती हुई यह नगरी अनाथ हो रही है। इसे कोई रक्षक या स्वामी नहीं मिल 
रहा है। राक्षसोचित-बलसे सम्पन्न वह शक्तिशाली असुरराज सदा इस जनपद, नगर और 


देशकी रक्षा करता है। उसके कारण हमें शत्रुराज्यों तथा हिंसक प्राणियोंसे कभी भय नहीं 
होता || ३--५ ।। 

वेतनं तस्य विहितं शालिवाहस्य भोजनम्‌ । 

महिषौ पुरुषश्लैको यस्तदादाय गच्छति ।। ६ ।। 

उसके लिये कर नियत किया गया है--बीस खारी अगहनीके चावलका भात, दो भैंसे 
और एक मनुष्य, जो वह सब सामान लेकर उसके पास जाता है ।। ६ ।। 

एकैकश्चापि पुरुषस्तत्‌ प्रयच्छति भोजनम्‌ । 

स वारो बहुभिरवर्षैर्भवत्यसुकरो नरैः ।। ७ ।। 

प्रत्येक गृहस्थ अपनी बारी आनेपर उसे भोजन देता है। यद्यपि यह बारी बहुत वर्षोंके 
बाद आती है, तथापि लोगोंके लिये उसकी पूर्ति बहुत कठिन होती है || ७ ।। 

तद्विमोक्षाय ये केचिद्‌ यतन्ति पुरुषा: क्वचित्‌ । 

सपुत्रदारांस्तान्‌ हत्वा तद्‌ रक्षो भक्षयत्युत ।। ८ ।। 

जो कोई पुरुष कभी उससे छूटनेका प्रयत्न करते हैं, वह राक्षस उन्हें पुत्र और 
सत्रीसहित मारकर खा जाता है ।। ८ ।। 

वेत्रकीयगृहे राजा नायं नयमिहास्थित: । 

उपायं तं॑ न कुरुते यत्नादपि स मन्दधी: । 

अनामयं जनस्यास्य येन स्यादद्य शाश्वतम्‌ ॥। ९ ।। 

वास्तवमें जो यहाँका राजा है, वह वेत्रकीयगृह नामक स्थानमें रहता है। परंतु वह 
न्यायके मार्गपर नहीं चलता। वह मन्दबुद्धि राजा यत्न करके भी ऐसा कोई उपाय नहीं 
करता, जिससे सदाके लिये प्रजाका संकट दूर हो जाय ।। ९ ।। 

एतदर्हा वयं नूनं वसामो दुर्बलस्य ये । 

विषये नित्यवास्तव्या: कुराजानमुपाश्रिता: ।। १० |। 

निश्चय ही हमलोग ऐसा ही दुःख भोगनेके योग्य हैं; क्योंकि इस दुर्बल राजाके राज्यमें 
निवास करते हैं, यहाँके नित्य निवासी हो गये हैं और इस दुष्ट राजाके आश्रयमें रहते 
हैं ।। १० ।। 

ब्राह्मणा: कस्य वक्तव्या: कस्य वाच्छन्दचारिण: । 

गुणैरेते हि वत्स्यन्ति कामगा: पक्षिणो यथा ।। ११ ।। 

ब्राह्यगोंको कौन आदेश दे सकता है अथवा वे किसके अधीन रह सकते हैं। ये तो 
इच्छानुसार विचरनेवाले पक्षियोंकी भाँति देश या राजाके गुण देखकर ही कहीं भी निवास 
करते हैं || ११ ।। 

राजानं प्रथम विन्देत्‌ ततो भार्या ततो धनम्‌ | 

त्रयस्य संचयेनास्य ज्ञातीन्‌ पुत्रांश्व तारयेत्‌ ।। १२ ।। 


नीति कहती है, पहले अच्छे राजाको प्राप्त करे। उसके बाद पत्नीकी और फिर धनकी 
उपलब्धि करे। इन तीनोंके संग्रहद्वारा अपने जाति-भाइयों तथा पुत्रोंकी संकटसे 
बचाये ।। १२ || 

विपरीतं मया चेदं त्रयं सर्वमुपार्जितम्‌ । 

तदिमामापदं प्राप्य भृशं तप्यामहे वयम्‌ ।। १३ ।। 

मैंने इन तीनोंका विपरीत ढंगसे उपार्जन किया है (अर्थात्‌ दुष्ट राजाके राज्यमें निवास 
किया, कुराज्यमें विवाह किया और विवाहके पश्चात्‌ धन नहीं कमाया); इसलिये इस 
विपत्तिमें पड़कर हमलोग भारी कष्ट पा रहे हैं || १३ ।। 

सो<5यमस्माननुप्राप्तो वार: कुलविनाशन: । 

भोजन पुरुषश्वैक: प्रदेयं वेतन॑ मया ।। १४ ।। 

वही आज हमारी बारी आयी है, जो समूचे कुलका विनाश करनेवाली है। मुझे उस 
राक्षसको करके रूपमें नियत भोजन और एक पुरुषकी बलि देनी पड़ेगी || १४ ।। 

नच मे विद्यते वित्तं संक्रेतुं पुरुष क्वचित्‌ । 

सुहृज्जनं प्रदातुं च न शक्ष्यामि कदाचन ।। १५ ।। 

मेरे पास धन नहीं है, जिससे कहींसे किसी पुरुषको खरीद लाऊँ। अपने सुहृदों एवं 
सगे-सम्बन्धियोंको तो मैं कदापि उस राक्षसके हाथमें नहीं दे सकूँगा ।। १५ ।। 

गतिं चैव न पश्यामि तस्मान्मोक्षाय रक्षस: । 

सो<हं दुःखार्णवे मग्नो महत्यसुकरे भूशम्‌ ।। १६ ।। 

उस निशाचरसे छूटनेका कोई उपाय मुझे नहीं दिखायी देता; अतः मैं अत्यन्त दुस्तर 
दुःखके महासागरमें डूबा हुआ हूँ ।। १६ ।। 

सहैवैतैर्गमिष्यामि बान्धवैरद्य राक्षसम्‌ । 

ततो नः सहितान्‌ क्षुद्र: सर्वानिवोपभोक्ष्यति ।। १७ ।। 

अब इन बान्धवजनोंके साथ ही मैं राक्षसके पास जाऊँगा; फिर वह नीच निशाचर एक 
ही साथ हम सबको खा जायगा ।। १७ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि कुन्तीप्रश्ने 
एकोनषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १५९ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत बकवधपर्वमें कुन्तीप्रश्नविषयक एक सौ 
उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५९ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल १९ श्लोक हैं) 


ऑपनआक्रात बछ। अर: अं 


षष्टर्याधेिकशततमो< ध्याय: 
कुन्ती और ब्राह्णकी बातचीत 


कुन्त्युवाच 

न विषादस्त्वया कार्यो भयादस्मात्‌ कथंचन । 

उपाय: परिदृष्टो5त्र तस्मान्मोक्षाय रक्षस: ।। १ ।। 

कुन्ती बोली--ब्रह्म! आपको अपने ऊपर आये हुए इस भयसे किसी प्रकार विषाद 
नहीं करना चाहिये। इस परिस्थितिमें उस राक्षससे छूटनेका उपाय मेरी समझमें आ 
गया ।। १ ।। 

एकस्तव सुतो बाल: कन्या चैका तपस्विनी । 

न चैतयोस्तथा पत्न्या गमनं तव रोचये ॥। २ ।॥। 

आपके तो एक ही नन्‍्हा-सा पुत्र और एक ही तपस्विनी कन्या है, अतः इन दोनोंका 
तथा आपकी पत्नीका भी वहाँ जाना मुझे अच्छा नहीं लगता ।। २ ।। 

मम पज्च सुता ब्रह्मंस्तेषामेको गमिष्यति । 

त्वदर्थ बलिमादाय तस्य पापस्य रक्षस: ।। ३ ।। 


कुन्तीद्वारा ब्राह्म॒ण-दम्पतिको सान्त्वना 





बकासुरपर भीमका प्रहार 


विप्रवर! मेरे पाँच पुत्र हैं, उनमेंसे एक आपके लिये उस पापी राक्षसकी बलि-सामग्री 

लेकर चला जायगा ।। ३ ।। 
ब्राह्मण उवाच 

नाहमेतत करिष्यामि जीवितार्थी कथंचन । 

ब्राह्मणस्यातिथेश्रैव स्वार्थ प्राणान्‌ वियोजयन्‌ ।। ४ ।। 

ब्राह्मणने कहा--मैं अपने जीवनकी रक्षाके लिये किसी तरह ऐसा नहीं करूँगा। एक 
तो ब्राह्मण, दूसरे अतिथिके प्राणोंका नाश मैं अपने तुच्छ स्वार्थके लिये कराऊँ! यह कदापि 
सम्भव नहीं है ।। ४ ।। 

न त्वेतदकुलीनासु नाथर्मिष्ठासु विद्यते । 

यद्‌ ब्राह्मणार्थ विसृजेदात्मानमपि चात्मजम्‌ ।। ५ |। 

ऐसा निन्दनीय कार्य नीच और अधर्मी जनतामें भी नहीं देखा जाता। उचित तो यह है 
कि ब्राह्मणके लिये स्वयं अपनेको और अपने पुत्रको भी निछावर कर दे ।। ५ ।। 

आत्मनस्तु मया श्रेयो बोद्धव्यमिति रोचते । 

ब्रह्मवध्या55त्मवध्या वा श्रेयानात्मवधो मम ।। ६ ।। 

ब्रह्मवध्या परं पापं निष्कृतिनात्र विद्यते 

अबुद्धिपूर्व कृत्वापि वरमात्मवधो मम ॥। ७ ।। 

इसीमें मुझे अपना कल्याण समझना चाहिये तथा यही मुझे अच्छा लगता है। ब्रह्महत्या 
और आत्महत्यामें मुझे आत्महत्या ही श्रेष्ठ जान पड़ती है। ब्रह्महत्या बहुत बड़ा पाप है। 
इस जगत्‌में उससे छूटनेका कोई उपाय नहीं है। अनजानमें भी ब्रह्महत्या करनेकी अपेक्षा 
मेरी दृष्टिमें आत्महत्या कर लेना अच्छा है ।। ६-७ ।। 

न त्वहं वधमाकाडुक्षे स्वयमेवात्मन: शुभे | 

परै: कृते वधे पापं न किंचिन्मयि विद्यते ।। ८ ।। 

कल्याणि! मैं स्वयं तो आत्महत्याकी इच्छा करता नहीं; परंतु यदि दूसरोंने मेरा वध कर 
दिया तो उसके लिये मुझे कोई पाप नहीं लगेगा ।। ८ ।। 

अभिसंधिकृते तस्मिन्‌ ब्राह्मणस्य वधे मया । 

निष्कृतिं न प्रपश्यामि नृशंसं क्षुद्रमेव च ।। ९ ।। 

आगततस्य गृहं त्यागस्तथैव शरणार्थिन: । 

याचमानस्य च वधो नृशंसो गर्हितो बुधै: ।। १० ।। 

यदि मैंने जान-बूझकर ब्राह्मणका वध करा दिया तो वह बड़ा ही नीच और क्रूरतापूर्ण 
कर्म होगा। उससे छुटकारा पानेका कोई उपाय मुझे नहीं सूझता। घरपर आये हुए तथा 
शरणार्थीका त्याग और अपनी रक्षाके लिये याचना करनेवालेका वध--यह विद्दानोंकी 
रायमें अत्यन्त क्रूर एवं निन्दित कर्म है || ९-१० ।। 


कुर्यान्न निन्दितं कर्म न नृशंसं कथंचन । 

इति पूर्वे महात्मान आपद्धर्मविदो विदु: ।। ११ ।। 

श्रेयांस्तु सहदारस्य विनाशो5द्य मम स्वयम्‌ । 

ब्राह्मणस्य वधं नाहमनुमंस्थे कदाचन ।। १२ ।। 

आपद्धर्मके ज्ञाता प्राचीन महात्माओंने कहा है कि किसी प्रकार भी क्रूर एवं निन्दित 
कर्म नहीं करना चाहिये। अतः आज अपनी पत्नीके साथ स्वयं मेरा विनाश हो जाय, यह 
श्रेष्ठ है; किंतु ब्राह्यणवधकी अनुमति मैं कदापि नहीं दे सकता ।। ११-१२ ।। 


कुन्त्युवाच 

ममाप्येषा मतिर्ब्रह्मन्‌ विप्रा रक्ष्या इति स्थिरा | 

न चाप्यनिष्ट: पुत्रो मे यदि पुत्रशतं भवेत्‌ ।। १३ ।। 

न चासौ राक्षस: शक्तो मम पुत्रविनाशने । 

वीर्यवान्‌ मन्त्रसिद्धश्न तेजस्वी च सुतो मम ।। १४ ।। 

कुन्ती बोली--ब्रह्मन! मेरा भी यह स्थिर विचार है कि ब्राह्मणोंकी रक्षा करनी चाहिये। 
यों तो मुझे भी अपना कोई पुत्र अप्रिय नहीं है, चाहे मेरे सौ पुत्र ही क्‍यों न हों। किंतु वह 
राक्षस मेरे पुत्रका विनाश करनेमें समर्थ नहीं है; क्योंकि मेरा पुत्र पराक्रमी, मन्त्रसिद्ध और 
तेजस्वी है ।। १३-१४ ।। 

राक्षसाय च ततू सर्व प्रापयिष्यति भोजनम्‌ | 

मोक्षयिष्यति चात्मानमिति मे निश्चिता मति: ।। १५ ।। 

मेरा यह निश्चित विश्वास है कि वह सारा भोजन राक्षसके पास पहुँचा देगा और उससे 
अपने-आपको भी छुड़ा लेगा || १५ ।। 

समागताश्च वीरेण दृष्टपूर्वाश्व॒ राक्षसा: | 

बलवन्तो महाकाया निहताश्षाप्पनेकश: ।। १६ || 

मैंने पहले भी बहुत-से बलवान्‌ और विशालकाय राक्षस देखे हैं, जो मेरे वीर पुत्रसे 
भिड़कर अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे हैं || १६ ।। 

न त्विदं केषुचिद्‌ ब्रह्मन्‌ व्याहर्तव्यं कथंचन । 

विद्यार्थिनो हि मे पुत्रान्‌ विप्रकुर्य: कुतूहलात्‌ ।। १७ ।। 

परंतु ब्रह्म] आपको किसीसे भी किसी तरह यह बात कहनी नहीं चाहिये। नहीं तो 
लोग मन्त्र सीखनेके लोभसे कौतूहलवश मेरे पुत्रोंको तंग करेंगे || १७ ।। 

गुरुणा चाननुज्ञातो ग्राहयेद्‌ यत्‌ सुतो मम । 

न स कुर्यात्‌ तथा कार्य विद्ययेति सतां मतम्‌ ।। १८ ।। 

और यदि मेरा पुत्र गुरुकी आज्ञा लिये बिना अपना मन्त्र किसीको सिखा देगा तो वह 
सीखनेवाला मनुष्य उस मन्त्रसे वैसा कार्य नहीं कर सकेगा, जैसा मेरा पुत्र कर लेता है। इस 


विषयमें साधु पुरुषोंका ऐसा ही मत है || १८ ।। 

एवमुक्तस्तु पृथया स विप्रो भार्यया सह । 

हृष्ट: सम्पूजयामास तद्वाक्यममृतोपमम्‌ ।। १९ |। 

कुन्तीदेवीके यों कहनेपर पत्नीसहित वह ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कुन्तीके 
अमृत-तुल्य जीवनदायक मधुर वचनोंकी बड़ी प्रशंसा की || १९ ।। 

ततः कुन्ती च विप्रश्न सहितावनिलात्मजम्‌ | 

तमब्रूतां कुरुष्वेति स तथेत्यब्रवीच्च तौ || २० ।। 

तदनन्तर कुन्ती और ब्राह्मणने मिलकर वायु-नन्दन भीमसेनसे कहा--“तुम यह काम 
कर दो।” भीमसेनने उन दोनोंसे “तथास्तु' कहा ।। २० ।। 





)॥ $ । 7 ; 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि भीमबकवधाड्रीकारे 
षष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १६० ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत बकवधपर्वमें भीमके द्वारा बकवधकी 
स्वीकृतिविषयक एक सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६० ॥। 


भीप्स््नश्शा ह््य भीि४्ाधइन्जण 


एकषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: 


भीमसेनको राक्षसके पास भेजनेके विषयमें युधिष्ठिर और 
कुन्तीकी बातचीत 


वैशम्पायन उवाच 


करिष्य इति भीमेन प्रतिज्ञातेडथ भारत । 

आजम्मुस्ते ततः सर्वे भैक्षमादाय पाण्डवा: ।। १ || 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब भीमसेनने यह प्रतिज्ञा कर ली कि “मैं इस 
कार्यको पूरा करूँगा', उसी समय पूर्वोक्त सब पाण्डव भिक्षा लेकर वहाँ आये ।। १ ।। 

आकारेणैव त॑ ज्ञात्वा पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिर: । 

रह: समुपविश्यैकस्तत: पप्रच्छ मातरम्‌ ।। २ ।। 

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिने भीमसेनकी आकृतिसे ही समझ लिया कि आज ये कुछ 
करनेवाले हैं; फिर उन्होंने एकान्तमें अकेले बैठकर मातासे पूछा ।। २ ।। 

युधिछिर उवाच 


कि चिकीर्षत्ययं कर्म भीमो भीमपराक्रम: । 

भवत्यनुमते कच्चित्‌ स्वयं वा कर्तुमिच्छति ।। ३ ।। 

युधिष्ठिर बोले--माँ! ये भयंकर पराक्रमी भीमसेन कौन-सा कार्य करना चाहते हैं? वे 
आपकी रायसे अथवा स्वयं ही कुछ करनेको उतारू हो रहे हैं? ।। ३ ।। 


कुन्त्युवाच 

ममैव वचनादेष करिष्यति परंतप: । 

ब्राह्मणार्थे महत्‌ कृत्यं मोक्षाय नगरस्य च ।। ४ ।। 

कुन्तीने कहा--बेटा! शत्रुओंको संतप्त करनेवाला भीमसेन मेरी ही आज्ञासे ब्राह्मणके 
हितके लिये तथा सम्पूर्ण नगरको संकटसे छुड़ानेके लिये आज एक महान कार्य 
करेगा ।। ४ ।। 

युधिछिर उवाच 

किमिदं साहसं तीक्ष्णं भवत्या दुष्करं कृतम्‌ 

परित्यागं हि पुत्रस्य न प्रशंसन्ति साधव: ।। ५ ।। 

युधिष्ठिरने कहा--माँ! आपने यह असहा और दुष्कर साहस क्यों किया? साधु पुरुष 
अपने पुत्रके परित्यागको अच्छा नहीं बताते ।। ५ ।। 

कथं परसुतस्यार्थे स्वसुतं त्यक्तुमिच्छसि । 


लोकवेददविरुद्ध हि पुत्रत्यागात्‌ कृतं त्वया ॥। ६ ।। 

दूसरेके बेटेके लिये आप अपने पुत्रको क्‍यों त्याग देना चाहती हैं? पुत्रका त्याग करके 
आपने लोक और वेद दोनोंके विरुद्ध कार्य किया है ।। ६ ।। 

यस्य बाहू सम॒श्रित्य सुखं सर्वे शयामहे । 

राज्यं चापद्वतं क्षुद्रैराजिहीर्षामहे पुन: ।॥ ७ ।। 

जिसके बाहुबलका भरोसा करके हम सब लोग सुखसे सोते हैं और नीच शत्रुओंने 
जिस राज्यको हड़प लिया है, उसको पुनः वापस लेना चाहते हैं, || ७ ।। 

यस्य दुर्योधनो वीर्य चिन्तयन्नमितौजस: । 

न शेते रजनी: सर्वा दुः:खाच्छकुनिना सह ।। ८ ।। 

जिस अमिततेजस्वी वीरके पराक्रमका चिन्तन करके शकुनिसहित दुर्योधनको दुःखके 
मारे सारी रात नींद नहीं आती थी, ।। ८ ।। 

यस्य वीरस्य वीर्येण मुक्ता जतुगृहाद्‌ वयम्‌ । 

अन्येभ्यश्वैव पापेभ्यो निहतश्न पुरोचन: ।। ९ ।। 

जिस वीरके बलसे हमलोग लाक्षागृह तथा दूसरे-दूसरे पापपूर्ण अत्याचारोंसे बच पाये 
और दुष्ट पुरोचन भी मारा गया, ।। ९ ।। 

यस्य वीर्य समाश्रित्य वसुपूर्णा वसुन्धराम्‌ । 

इमां मन्यामहे प्राप्तां निहत्य धृतराष्ट्रजानू ।। १० ।। 

तस्य व्यवसितत्त्यागो बुद्धिमास्थाय कां त्वया । 

कच्चिन्नु दु:खैरबुद्धिस्ते विलुप्ता गतचेतस: ।। ११ ।। 

जिसके बल-पराक्रमका आश्रय लेकर हमलोग धृतराष्ट्रपुत्रोंको मारकर धन-धान्यसे 
सम्पन्न इस (सम्पूर्ण) पृथ्वीको अपने अधिकारमें आयी हुई ही मानते हैं, उस बलवान पुत्रके 
त्यागका निश्चय आपने किस बुद्धिसे किया है? क्या आप अनेक दु:खोंके कारण अपनी 
चेतना खो बैठी हैं? आपकी बुद्धि लुप्त हो गयी है ।। १०-११ ।। 


कुन्त्युवाच 
युधिछिर न संतापस्त्वया कार्यो वृकोदरे । 
नचायं बुद्धिदौर्बल्याद्‌ व्यवसाय: कृतो मया ।। १२ ।। 
कुन्तीने कहा--युथधिष्ठिर! तुम्हें भीमसेनके लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैंने जो 
यह निश्चय किया है, वह बुद्धिकी दुर्बलतासे नहीं किया है || १२ ।। 
इह विप्रस्य भवने वयं पुत्र सुखोषिता: । 
अज्ञाता धार्रराष्ट्राणां सत्कृता वीतमन्यव: ।। १३ ।। 
तस्य प्रतिक्रिया पार्थ मयेयं प्रसमीक्षिता | 
एतावानेव पुरुष: कृतं यस्मिन्‌ न नश्यति ।। १४ ।। 


बेटा! हमलोग यहाँ इस ब्राह्मणके घरमें बड़े सुखसे रहे हैं। धृतराष्ट्रके पुत्रोंको हमारी 
कानों-कान खबर नहीं होने पायी है। इस घरमें हमारा इतना सत्कार हुआ है कि हमने अपने 
पिछले दुःख और क्रोधको भुला दिया है। पार्थ! ब्राह्मणके इस उपकारसे उऋण होनेका 
यही एक उपाय मुझे दिखायी दिया। मनुष्य वही है, जिसके प्रति किया हुआ उपकार नष्ट न 
हो (जो उपकारको भुला न दे) ।। १३-१४ ।। 

यावच्च कुर्यादन्यो<स्य कुर्याद्‌ बहुगुणं ततः । 

दृष्टवा भीमस्य विक्रान्तं तदा जतुगृहे महत्‌ । 

हिडिम्बस्य वधाच्चैवं विश्वासो मे वृकोदरे || १५ ।। 

दूसरा मनुष्य उसके लिये जितना उपकार करे, उससे कई गुना अधिक प्रत्युपकार स्वयं 
उसके प्रति करना चाहिये। मैंने उस दिन लाक्षागृहमें भीमसेनका महान्‌ पराक्रम देखा तथा 
हिडिम्बवधकी घटना भी मेरी आँखोंके सामने हुई। इससे भीमसेनपर मेरा पूरा विश्वास हो 
गया है ।। १५ ।। 

बाद्वोर्बलं हि भीमस्य नागायुतसमं महत्‌ | 

येन यूयं गजप्रख्या निर्व्यूडा वारणावतात्‌ ।। १६ ।। 

भीमका महान्‌ बाहुबल दस हजार हाथियोंके समान है, जिससे वह हाथीके समान 
बलशाली तुम सब भाइयोंको वारणावत नगरसे ढोकर लाया है ।। १६ ।। 

वृकोदरेण सदृशो बलेनानयो न विद्यते । 

यो<भ्युदीयाद्‌ युधि श्रेष्ठमपि वजधरं स्वयम्‌ ।। १७ ।। 

भीमसेनके समान बलवान दूसरा कोई नहीं है। वह युद्धमें सर्वश्रेष्ठ वज्ञपाणि इन्द्रका 
भी सामना कर सकता है ।। १७ ।। 

जातमात्र: पुरा चैव ममाड्कात्‌ पतितो गिरौ । 

शरीरगौरवादस्य शिला गान्रैविंचूर्णिता ।। १८ ।। 

पहलेकी बात है, जब वह नवजात शिशुके रूपमें था, उसी समय मेरी गोदसे छूटकर 
पर्ववके शिखरपर गिर पड़ा था। जिस चट्टानपर यह गिरा, वह इसके शरीरकी गुरुताके 
कारण चूर-चूर हो गयी थी ।। १८ ।। 

तदहं प्रज्ञया ज्ञात्वा बल॑ भीमस्य पाण्डव । 

प्रतिकार्ये च विप्रस्य तत: कृतवती मतिम्‌ ।। १९ ।। 

अतः पाण्डुनन्दन! मैंने भीमसेनके बलको अपनी बुद्धिसे भलीभाँति समझकर तब 
ब्राह्मणके शत्रुरूपी राक्षससे बदला लेनेका निश्चय किया है ।। १९ ।। 

नेदं लोभान्न चाज्ञानान्न च मोहाद्‌ विनिश्चितम्‌ | 

बुद्धिपूर्व तु धर्मस्य व्यवसाय: कृतो मया ।। २० ।। 

मैंने न लोभसे, न अज्ञानसे और न मोहसे ऐसा विचार किया है, अपितु बुद्धिके द्वारा 
खूब सोच-समझकर विशुद्ध धर्मानुकूल निश्चय किया है || २० ।। 


अर्थो द्वावपि निष्पन्नौ युधिषछ्ठिर भविष्यत: । 

प्रतीकारश्न॒ वासस्य धर्मश्न॒ चरितो महान्‌ ।। २१ ।। 

युधिष्ठिर! मेरे इस निश्चयसे दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जायँगे। एक तो ब्राह्मणके यहाँ 
निवास करनेका ऋण चुक जायगा और दूसरा लाभ यह है कि ब्राह्मण और पुरवासियोंकी 
रक्षा होनेके कारण महान्‌ धर्मका पालन हो जायगा ।। २१ ।। 

यो ब्राह्मणस्य साहाय्य॑ कुर्यादर्थेषु कर्हिचित्‌ । 

क्षत्रियः स शुभाललोकानाप्लुयादिति मे मति: ।। २२ ।। 

जो क्षत्रिय कभी ब्राह्मणके कार्योंमें सहायता करता है, वह उत्तम लोकोंको प्राप्त होता 
है--यह मेरा विश्वास है || २२ ।। 

क्षत्रियस्यैव कुर्वाण: क्षत्रियो वधमोक्षणम्‌ | 

विपुलां कीर्तिमाप्रोति लोके5स्मिं क्ष परत्र च ।। २३ ।। 

यदि क्षत्रिय किसी क्षत्रियको ही प्राणसंकटसे मुक्त कर दे तो वह इस लोक और 
परलोकमें भी महान्‌ यशका भागी होता है ।। २३ ।। 

वैश्यस्यार्थे च साहाय्य॑ं कुर्वाण: क्षत्रियो भुवि । 

स सर्वेष्वपि लोकेषु प्रजा रज्जयते ध्रुवम्‌ || २४ ।। 

जो क्षत्रिय इस भूतलपर वैश्यके कार्यमें सहायता पहुँचाता है, वह निश्चय ही सम्पूर्ण 
लोकोंमें प्रजाको प्रसन्न करनेवाला राजा होता है || २४ ।। 

शूद्रं तु मोचयेद्‌ राजा शरणार्थिनमागतम्‌ । 

प्राप्नोतीह कुले जन्म सद्द्वव्ये राजपूजिते || २५ ।। 

इसी प्रकार जो राजा अपनी शरणमें आये हुए शूद्रको प्राणसंकटसे बचाता है, वह इस 
संसारमें उत्तम धन-धान्यसे सम्पन्न एवं राजाओंद्वारा सम्मानित श्रेष्ठ कुलमें जन्म लेता 
है ।। २५ ।। 

एवं मां भगवान्‌ व्यास: पुरा पौरवनन्दन । 

प्रोवाचासुकरप्रज्ञस्तस्मादेवं चिकीर्षितम्‌ ।। २६ ।। 

पौरववंशको आनन्दित करनेवाले युधिष्ठिर! इस प्रकार पूर्वकालमें दुर्लभ विवेक- 
विज्ञानसे सम्पन्न भगवान्‌ व्यासने मुझसे कहा था; इसीलिये मैंने ऐसी चेष्टा की है || २६ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि कुन्तीयुधिष्ठिरसंवादे 
एकषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १६१ || 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत बकवधपर्वमें कुन्ती-युधिष्िर-संवादविषयक 
एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६१ ॥। 


अपन का बछ। | अड-४#-रू- 


द्विषष्ट्याधिकशततमो< ध्याय: 


भीमसेनका भोजन-सामग्री लेकर बकासुरके पास जाना 
और स्वयं भोजन करना तथा युद्ध करके उसे मार गिराना 


युधिछिर उवाच 


उपपन्नमिदं मातस्त्वया यद्‌ बुद्धिपूर्वकम्‌ । 

आर्तस्य ब्राह्मणस्यैतदनुक्रोशादिदं कृतम्‌ ।। १ ।। 

युधिष्ठिर बोले--माँ! आपने समझ-बूझकर जो कुछ निश्चय किया है, वह सब उचित 
है। आपने संकटमें पड़े हुए ब्राह्मणपर दया करके ही ऐसा विचार किया है ।। १ ।। 

ध्रुवमेष्यति भीमो5यं निहत्य पुरुषादकम्‌ | 

सर्वथा ब्राह्मणस्यार्थे यदनुक्रोशवत्यसि ।। २ ।। 

निश्चय ही भीमसेन उस राक्षसको मारकर लौट आयेंगे; क्योंकि आप सर्वथा ब्राह्मणकी 
रक्षाके लिये ही उसपर इतनी दयालु हुई हैं || २ ।। 

यथा व्विदं न विन्देयुर्नरा नगरवासिन: । 

तथायं ब्राह्मणो वाच्य: परिग्राह्श्च यत्नत: ।। ३ ।। 

आपको यत्नपूर्वक ब्राह्मणपर अनुग्रह तो करना ही चाहिये; किंतु ब्राह्मगणसे यह कह 
देना चाहिये कि वे इस प्रकार मौन रहें कि नगरनिवासियोंको यह बात मालूम न होने 
पाये ।। ३ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


(युधिष्ठिरेण सम्मन्त्रय ब्राह्मुणार्थमरिंदम । 

कुन्ती प्रविश्य तान्‌ सर्वान्‌ सान्त्ववयामास भारत ।।) 

ततो रात्र्यां व्यतीतायामन्नमादाय पाण्डव: । 

भीमसेनो ययौ तत्र यत्रासौ पुरुषादक:ः ।। ४ ।। 

आसाद्य तु वनं तस्य रक्षस: पाण्डवो बली । 

आजुहाव ततो नाम्ना तदन्नमुपपादयन्‌ ।। ५ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ब्राह्मण (की रक्षा)-के निमित्त युधिष्ठिरसे इस 
प्रकार सलाह करके कुन्तीदेवीने भीतर जाकर समस्त ब्राह्मण-परिवारको सान्त्वना दी। 
तदनन्तर रात बीतनेपर पाण्डुनन्दन भीमसेन भोजनसामग्री लेकर उस स्थानपर गये, जहाँ 
वह नरभक्षी राक्षस रहता था। बक राक्षसके वनमें पहुँचकर महाबली पाण्डुकुमार भीमसेन 
उसके लिये लाये हुए अन्नको स्वयं खाते हुए राक्षसका नाम ले-लेकर उसे पुकारने 
लगे ।। ४-५ ।। 


ततः स राक्षस: क्रुद्धो भीमस्य वचनात्‌ तदा | 

आजगाम सुसंक्रुद्धो यत्र भीमो व्यवस्थित: ।। ६ ।। 

भीमके इस प्रकार पुकारनेसे वह राक्षस कुपित हो उठा और अत्यन्त क्रोधमें भरकर 
जहाँ भीमसेन बैठकर भोजन कर रहे थे, वहाँ आया ।। ६ ।। 

महाकायो महावेगो दारयन्निव मेदिनीम्‌ | 

लोहिताक्ष: करालश्न लोहितश्मश्रुमूर्थज: ।। ७ ।। 

उसका शरीर बहुत बड़ा था। वह इतने महान्‌ वेगसे चलता था, मानो पृथ्वीको विदीर्ण 
कर देगा। उसकी आँखें रोषसे लाल हो रही थीं। आकृति बड़ी विकराल जान पड़ती थी। 
उसके दाढ़ी, मूँछ और सिरके बाल लाल रंगके थे || ७ ।। 

आकर्णाद्‌ भिन्नवक्त्रश्न शड्कुर्णो बिभीषण: । 

त्रिशिखां भ्रुकुटिं कृत्वा संदश्य दशनच्छदम्‌ ।। ८ ।। 
मुँहका फैलाव कानोंके समीपतक था, कान भी शंकुके समान लंबे और नुकीले थे। 
बड़ा भयानक था वह राक्षस। उसने भौंहें ऐसी टेढ़ी कर रखी थीं कि वहाँ तीन रेखाएँ उभड़ 
आयी थीं और वह दाँतोंसे ओठ चबा रहा था ।। ८ ।। 

भुज्जानमन्नं तं दृष्टवा भीमसेनं स राक्षस: । 

विवृत्य नयने क्रुद्ध इंदं वचनमत्रवीत्‌ ।। ९ ।। 

भीमसेनको वह अन्न खाते देख राक्षसका क्रोध बहुत बढ़ गया और उसने आँखें 
तरेरकर कहा-- || ९ || 

को<यमन्नमिदं भुद्धतक्ते मदर्थमुपकल्पितम्‌ । 

पश्यतो मम दुर्बुद्धिर्यियासुर्यमसादनम्‌ ।। १० ।। 

“यमलोकमें जानेकी इच्छा रखनेवाला यह कौन दुर्बुद्धि मनुष्य है, जो मेरी आँखोंके 
सामने मेरे ही लिये तैयार करके लाये हुए इस अन्नको स्वयं खा रहा है?” ।। १० ।। 

भीमसेनस्तत: श्रुत्वा प्रहसन्निव भारत । 

राक्षसं तमनादृत्य भुड्क्त एव पराड्मुख: ।। ११ ।। 

भारत! उसकी बात सुनकर भीमसेन मानो जोर-जोरसे हँसने लगे और उस राक्षसकी 
अवहेलना करते हुए मुँह फेरकर खाते ही रह गये ।। ११ ।। 

रवं स भैरवं कृत्वा समुद्यम्य करावुभौ । 

अभ्यद्रवद्‌ भीमसेनं जिघांसु: पुरुषादक: || १२ ।। 

अब तो वह नरभक्षी राक्षस भीमसेनको मार डालनेकी इच्छासे भयंकर गर्जना करता 
हुआ दोनों हाथ ऊपर उठाकर उनकी ओर दौड़ा ।। १२ ।। 

तथापि परिभूयैन प्रेक्षमाणो वृकोदर: । 

राक्षसं भुझुक्त एवान्नं पाण्डव: परवीरहा ।। १३ ।। 

अमर्षेण तु सम्पूर्ण: कुन्तीपुत्रं वृकोदरम्‌ 


जघान पृष्ठे पाणिभ्यामुभाभ्यां पृष्ठत: स्थित: ।। १४ ।। 

तो भी शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पाण्डुनन्दन भीमसेन उस राक्षसकी ओर देखते हुए 
उसका तिरस्कार करके उस अन्नको खाते ही रहे। तब उसने अत्यन्त अमर्षमें भरकर 
कुन्तीनन्दन भीमसेनके पीछे खड़े हो अपने दोनों हाथोंसे उनकी पीठपर प्रहार 
किया ।। १३-१४ ।। 

तथा बलवता भीम: पाणिशभ्यां भूशमाहतः । 

नैवावलोकयामास राक्षसं भुड्क्त एव सः ।। १५ ।। 

इस प्रकार बलवान राक्षसके दोनों हाथोंसे भयानक चोट खाकर भी भीमसेनने उसकी 
ओर देखातक नहीं, वे भोजन करनेमें ही संलग्न रहे || १५ ।। 

ततः स भूय: संक्रुद्धो वृक्षमादाय राक्षस: । 

ताडयिष्यंस्तदा भीम॑ पुनरभ्यद्रवद्‌ बली ।। १६ ।। 

तब उस बलवान राक्षसने पुनः अत्यन्त कुपित हो एक वृक्ष उखाड़कर भीमसेनको 
मारनेके लिये फिर उनपर धावा किया ।। १६ ।। 

ततो भीम: शनैर्भुक्त्वा तदन्नं पुरुषर्षभ: । 

वार्युपस्पृश्य संहृष्टस्तस्थी युधि महाबल: ।। १७ ।। 

तदनन्तर नरश्रेष्ठ महाबली भीमसेनने धीरे-धीरे वह सब अन्न खाकर, आचमन करके 
मुँह-हाथ धो लिये, फिर वे अत्यन्त प्रसन्न हो युद्धके लिये डट गये ।। १७ ।। 

क्षिप्तं क्रुद्धेन त॑ वृक्ष॑ प्रतिजग्राह वीर्यवान्‌ । 

सव्येन पाणिना भीम: प्रहसन्निव भारत ।। १८ ।। 

जनमेजय! कुपित राक्षसके द्वारा चलाये हुए उस वृक्षको पराक्रमी भीमसेनने बायें 
हाथसे हँसते हुए-से पकड़ लिया ।। १८ ।। 

ततः स पुनरुद्यम्य वृक्षान्‌ बहुविधान्‌ बली । 

प्राहिणोद्‌ भीमसेनाय तस्मै भीमश्न पाण्डव: ।। १९ |। 

तब उस बलवान्‌ निशाचरने पुनः बहुत-से वृक्षोंको उखाड़ा और भीमसेनपर चला 
दिया। पाण्डुनन्दन भीमने भी उसपर अनेक वृक्षोंद्वारा प्रहार किया ।। १९ ।। 

तद्‌ वृक्षयुद्धम भवन्महीरुहविनाशनम्‌ । 

घोररूपं महाराज नरराक्षसराजयो: ।। २० ।। 

महाराज! नरराज तथा राक्षसराजका वह भयंकर वृक्षयुद्ध उस वनके समस्त वृक्षोंके 
विनाशका कारण बन गया ।। २० ।। 

नाम विश्राव्य तु बकः समभिद्रुत्य पाण्डवम्‌ । 

भुजाभ्यां परिजग्राह भीमसेनं महाबलम्‌ ।। २१ ।। 

तदनन्तर बकासुरने अपना नाम सुनाकर महाबली पाण्डुनन्दन भीमसेनकी ओर 
दौड़कर दोनों बाँहोंसे उन्हें पकड़ लिया ।। २१ ।। 


भीमसेनो<डपि तद्‌ रक्ष: परिरभ्य महाभुज: । 

विस्फुरन्तं महाबाहुं विचकर्ष बलादू बली ।। २२ ।। 

महाबाहु बलवान्‌ भीमसेनने भी उस विशाल भुजाओंवाले राक्षसको दोनों भुजाओंसे 
कसकर छातीसे लगा लिया और बलपूर्वक उसे इधर-उधर खींचने लगे। उस समय बकासुर 
उनके बाहुपाशसे छूटनेके लिये छटपटा रहा था ।। २२ ।। 

स कृष्यमाणो भीमेन कर्षमाणश्न पाण्डवम्‌ | 

समयुज्यत तीव्रेण क्लमेन पुरुषादक: ।। २३ ।। 

भीमसेन उस राक्षसको खींचते थे तथा राक्षस भीमसेनको खींच रहा था। इस खींचा- 
खींचीमें वह नरभक्षी राक्षस बहुत थक गया ।। २३ ।। 

तयोरवेंगेन महता पृथिवी समकम्पत । 

पादपांश्न महाकायांश्वूर्णयामासतुस्तदा | २४ ।। 

उन दोनोंके महान्‌ वेगसे धरती जोरसे काँपने लगी। उन दोनोंने उस समय बड़े-बड़े 
वृक्षोंके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले || २४ ।। 

हीयमान तु तद्‌ रक्ष: समीक्ष्य पुरुषादकम्‌ । 

निष्पिष्य भूमौ जानुभ्यां समाजघ्ने वृकोदर: ।। २५ |। 

उस नरभक्षी राक्षसको कमजोर पड़ते देख भीमसेन उसे पृथ्वीपर पटककर रगड़ने 
और दोनों घुटनोंसे मारने लगे || २५ ।। 

ततो<स्य जानुना पृष्ठठगवपीड्य बलादिव । 

बाहुना परिजग्राह दक्षिणेन शिरोधराम्‌ ।। २६ ।। 

सव्येन च कटीदेशे गृह वाससि पाण्डव: । 

तद्‌ रक्षो द्विगुणं चक्रे रुवन्तं भैरवं रवम्‌ ।। २७ ।। 

तदनन्तर उन्होंने अपने एक घुटनेसे बल-पूर्वक राक्षसकी पीठ दबाकर दाहिने हाथसे 
उसकी गर्दन पकड़ ली और बायें हाथसे कमरका लँगोट पकड़कर उस राक्षसको दुहरा मोड़ 
दिया। उस समय वह बड़ी भयानक आवाज में चीत्कार कर रहा था ।। २६-२७ ।|। 

ततो<स्य रुधिरं वकत्रात्‌ प्रादुरासीद्‌ विशाम्पते | 

भज्यमानस्य भीमेन तस्य घोरस्य रक्षस: ।। २८ ।। 

राजन! भीमसेनके द्वारा उस घोर राक्षसकी जब कमर तोड़ी जा रही थी, उस समय 
उसके मुखसे (बहुत-सा) खून गिरा || २८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि बकभीमसेनयुद्धे 
द्विषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ॥। १६२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत बकवधपर्वमें बकायुर और भीमयेनका 
युद्धविषयक एक सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६२ ॥। 


(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २९ श्लोक हैं) 


2: छा अंक 


त्रेषष्ट्याधिकशततमोब<् ध्याय: 


बकासुरके वधसे राक्षसोंका भयभीत होकर पलायन और 
नगरनिवासियोंकी प्रसन्नता 


वैशम्पायन उवाच 


ततः स भग्नपार्श्वाड्रो नदित्वा भैरवं रवम्‌ । 

शैलराजप्रतीकाशो गतासुरभवद्‌ बक:ः ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! पसलीकी हडियोंके टूट जानेपर पर्वतके समान 
विशालकाय बकासुर भयंकर चीत्कार करके प्राणरहित हो गया ।। १ ।। 

तेन शब्देन वित्रस्तो जनस्तस्याथ रक्षस: । 

निष्पपात गृहाद्‌ राजन्‌ सहैव परिचारिभि: ।। २ ।। 

तान्‌ भीतान्‌ विगतज्ञानान्‌ भीम: प्रहरतां वर: । 

सान्त्वयामास बलवान्‌ समये च न्यवेशयत्‌ ।। ३ ।। 

न हिंस्या मानुषा भूयो युष्माभिरिति करहिचित्‌ | 

हिंसतां हि वध: शीघ्रमेवमेव भवेदिति ।। ४ ।। 

जनमेजय! उस चीत्कारसे भयभीत हो उस राक्षसके परिवारके लोग अपने सेवकोंके 
साथ घरसे बाहर निकल आये। योद्धाओंमें श्रेष्ठ बलवान्‌ भीमसेनने उन्हें भयसे अचेत 
देखकर ढाढ़स बँधाया और उनसे यह शर्त करा ली कि “अबसे कभी तुमलोग मनुष्योंकी 
हिंसा न करना। जो हिंसा करेंगे, उनका शीघ्र ही इसी प्रकार वध कर दिया जायगा” || २-- 
४१।। 

तस्य तद्‌ वचन श्रुत्वा तानि रक्षांसि भारत | 

एवमस्त्विति त॑ प्राहुर्जगूहु: समयं च तम्‌ ॥। ५ ।। 

भारत! भीमकी यह बात सुनकर उन राक्षसोंने 'एवमस्तु” कहकर वह शर्त स्वीकार कर 
ली ।। ५ |। 

ततः प्रभृति रक्षांसि तत्र सौम्यानि भारत | 

नगरे प्रत्यदृश्यन्त नरैर्नगरवासिभि: ।। ६ ।। 

भारत! तबसे नगरनिवासी मनुष्योंने अपने नगरमें राक्षसोंकों बड़े सौम्य स्वभावका 
देखा ।। ६ || 

ततो भीमस्तमादाय गतासुं पुरुषादकम्‌ । 

द्वारदेशे विनिक्षिप्प जगामानुपलक्षित: ।। ७ ।॥। 


तदनन्तर भीमसेनने उस राक्षसकी लाश उठाकर नगरके दरवाजेपर गिरा दी और स्वयं 
दूसरोंकी दृष्टिसे अपनेको बचाते हुए चले गये ।। ७ ।। 

दृष्टवा भीमबलोद्धूतं बकं॑ विनिहतं तदा | 

ज्ञातयोअस्य भयोद्विग्ना: प्रतिजग्मुस्ततस्तत: ।। ८ ।। 

भीमसेनके बलसे बकासुरको पछाड़ा एवं मारा गया देख उस राक्षसके कुटुम्बीजन 
भयसे व्याकुल हो इधर-उधर भाग गये ।। ८ ।। 

ततः स भीमस्तं हत्वा गत्वा ब्राह्मणवेश्म तत्‌ । 

आचचक्षे यथावृत्तं राज्ञ: सर्वमशेषत: ।। ९ ।। 

उस राक्षसको मारनेके पश्चात्‌ भीमसेन ब्राह्मणके उसी घरमें गये तथा वहाँ उन्होंने राजा 
युधिष्ठिरसे सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक कह सुनाया ।। ९ ।। 

ततो नरा विनिष्क्रान्ता नगरात्‌ कल्यमेव तु । 

ददृशुर्निहतं भूमौ राक्षसं रुधिरोक्षितम्‌ ।। १० ।। 

तत्पश्चात्‌ जब सबेरा हुआ और लोग नगरसे बाहर निकले, तब उन्होंने देखा बकासुर 
खूनसे लथपथ हो पृथ्वीपर मरा पड़ा है || १० ।। 

तमद्रिकूटसदृशं विनिकीर्ण भयानकम्‌ | 

दृष्टवा संहृष्टरोमाणो बभूवुस्तत्र नागरा: ।। ११ ।। 

पर्ववशिखरके समान भयानक उस राक्षसको नगरके दरवाजेपर फेंका हुआ देखकर 
नगरनिवासी मनुष्योंके शरीरमें रोमांच हो आया ।। ११ ।। 

एकचक्रां ततो गत्वा प्रवृत्ति प्रददुः पुरे । 

ततः सहस्रशो राजन्‌ नरा नगरवासिन: ।। १२ ।। 

तत्राजम्मुर्बकं द्रष्टर सस्त्रीवृद्धकुमारका: । 

ततस्ते विस्मिता: सर्वे कर्म दृष्टवातिमानुषम्‌ | 

दैवतान्यर्चयांचक्रु: सर्व एव विशाम्पते ।। १३ ।। 

राजन! उन्होंने एकचक्रा नगरीमें जाकर नगरभरमें यह समाचार फैला दिया; फिर तो 
हजारों नगरनिवासी मनुष्य स्त्री, बच्चों और बूढ़ोंक साथ बकासुरको देखनेके लिये वहाँ 
आये। उस समय वह अमानुषिक कर्म देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। जनमेजय! उन 
सभी लोगोंने देवताओंकी पूजा की || १२-१३ ।। 

ततः प्रगणयामासु: कस्य वारोउद्य भोजने । 

ज्ञात्वा चागम्य तं विप्र॑ पप्रच्छु: सर्व एव ते ।। १४ ।। 

इसके बाद उन्होंने यह जाननेके लिये कि आज भोजन पहुँचानेकी किसकी बारी थी, 
दिन आदिकी गणना की। फिर उस ब्राह्णकी बारीका पता लगनेपर सब लोग उसके पास 
आकर पूछने लगे ।। १४ ।। 

एवं पृष्ट: स बहुशो रक्षमाणश्व पाण्डवान्‌ । 


उवाच नागरान्‌ सर्वानिदं विप्रर्षभस्तदा ।। १५ ।। 

इस प्रकार उनके बार-बार पूछनेपर उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने पाण्डवोंको गुप्त रखते हुए 
समस्त नागरिकोंसे इस प्रकार कहा-- || १५ || 

आज्ञापितं मामशने रुदन्तं सह बन्धुभि: । 

ददर्श ब्राह्मण: ककश्चिन्मन्त्रसिद्धो महामना: ।। १६ ।। 

“कल जब मुझे भोजन पहुँचानेकी आज्ञा मिली, उस समय मैं अपने बन्धुजनोंके साथ 
रो रहा था। इस दशामें मुझे एक विशाल हृदयवाले मन्त्रसिद्ध ब्राह्मणने देखा || १६ ।। 

परिपृच्छत्य स मां पूर्व परिक्लेशं पुरस्य च । 

अब्रवीद्‌ ब्राह्मणश्रेष्ठो विश्वास्य प्रहसन्निव ।। १७ |। 

“देखकर जन श्रेष्ठ ब्राह्मणदेवताने पहले मुझसे सम्पूर्ण नगरके कष्टका कारण पूछा। 
इसके बाद अपनी अलौकिक शक्तिका विश्वास दिलाकर हँसते हुए-से कहा-- || १७ ।। 

प्रापयिष्याम्यहं तस्मा अन्नमेतद्‌ दुरात्मने । 

मन्निमित्तं भयं चापि न कार्यमिति चाब्रवीत्‌ ।। १८ ।। 

“ब्रह्म! आज मैं स्वयं ही उस दुरात्मा राक्षसके लिये भोजन ले जाऊँगा।' उन्होंने यह 
भी बताया कि “आपको मेरे लिये भय नहीं करना चाहिये” ।। १८ ।। 

स तदन्नमुपादाय गतो बकवनं प्रति । 

तेन नूनं भवेदेतत्‌ कर्म लोकहितं कृतम्‌ ।। १९ ।। 

“वे वह भोजन-सामग्री लेकर बकासुरके वनकी ओर गये। अवश्य उन्होंने ही यह लोक- 
हितकारी कर्म किया होगा” ।। १९ || 

ततस्ते ब्राह्मणा: सर्वे क्षत्रियाश्व सुविस्मिता: । 

वैश्या: शृूद्राश्व मुदिताश्षक्रु्ब्रह्ममहं तदा ॥। २० ॥। 

तब तो वे सब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आश्वर्यचकित हो आनन्दमें निमग्न हो 
गये। उस समय उन्होंने ब्राह्मणोंके उपलक्ष्यमें महान्‌ उत्सव मनाया ।। २० ।। 

ततो जानपदा: सर्वे आजममुर्नगरं प्रति । 

तदद्भुततमं द्रष्ठुं पार्थास्तत्रैव चावसन्‌ ।। २१ ।। 

इसके बाद उस अद्भुत घटनाको देखनेके लिये जनपदमें रहनेवाले सब लोग नगरमें 
आये और पाण्डवलोग भी (पूर्ववत) वहीं निवास करने लगे ।। २१ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि बकवधे त्रिषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: 
॥| १६३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत बकवधपर्वमें बकायुरवधविषयक एक सौ 
तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६३ ॥। 


ऑपन- मा बछ। अि<--छऋा 


(चैत्ररथपर्व) 


चतुःषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: 
पाण्डवोंका एक ब्राह्मणसे विचित्र कथाएँ सुनना 


जनमेजय उवाच 
ते तथा पुरुषव्याप्रा निहत्य बकराक्षसम्‌ | 
अत ऊर्ध्व॑ ततो ब्रह्मन्‌ किमकुर्वत पाण्डवा: ।। १ ।॥। 


जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन्‌! पुरुषसिंह पाण्डवोंने उस प्रकार बकासुरका वध करनेके 
पश्चात्‌ कौन-सा कार्य किया? ।। १ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


तत्रैव न्‍न्यवसन्‌ राजन्‌ निहत्य बकराक्षसम्‌ | 

अधीयाना: पर ब्रद्द॒ ब्राह्मणस्य निवेशने ।। २ ॥। 

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! बकासुरका वध करनेके पश्चात्‌ पाण्डवलोग 
ब्रह्मतत््वका प्रतिपादन करनेवाले उपनिषदोंका स्वाध्याय करते हुए वहीं ब्राह्मणके घरमें 
रहने लगे |। २ ।। 

ततः कतिपयाहस्य ब्राह्मण: संशितव्रत: । 

प्रतिश्रयार्थी तद्‌ वेश्म ब्राह्मणस्य जगाम ह ।। ३ ।। 

तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद एक कठोर नियमोंका पालन करनेवाला ब्राह्मण ठहरनेके 
लिये उन ब्राह्मणदेवताके घरपर आया ।। ३ || 

स सम्यक्‌ पूजयित्वा तं॑ विप्रं विप्र्षभस्तदा । 

ददौ प्रतिश्रयं तस्मै सदा सर्वातिथिव्रतः ।। ४ ।। 

उन विप्रवरका सदा घरपर आये हुए सभी अतिथियोंकी सेवा करनेका व्रत था। उन्होंने 
आगन्तुक ब्राह्मणकी भलीभाँति पूजा करके उसे ठहरनेके लिये स्थान दिया ।। ४ ।। 

ततस्ते पाण्डवा: सर्वे सह कुन्त्या नरर्षभा: । 

उपासांचक्रिरे विप्रं कथयन्तं कथा: शुभा: ।। ५ ।। 

वह ब्राह्मण बड़ी सुन्दर एवं कल्याणमयी कथाएँ कह रहा था, (अतः उन्हें सुननेके 
लिये) सभी नरश्रेष्ठ पाण्डव माता कुन्तीके साथ उसके निकट जा बैठे ।। ५ ।। 

कथयामास देशांक्ष॒ तीर्थानि सरितस्तथा । 


राज्ञश्न विविधाश्चर्यान देशांश्वैव पुराणि च ।। ६ ।। 

उसने अनेक देशों, तीर्थों, नदियों, राजाओं, नाना प्रकारके आश्वर्यजनक स्थानों तथा 
नगरोंका वर्णन किया ।। ६ ।। 

स तत्राकथयद्‌ विप्र: कथान्ते जनमेजय । 

पज्चालेष्वद्धुताकारं याज्ञसेन्या: स्वयंवरम्‌ ।। ७ ।। 

जनमेजय! बातचीतके अन्तमें उस ब्राह्मणने वहाँ यह भी बताया कि पंचालदेशमें 
यज्ञसेनकुमारी द्रौपदीका अद्भुत स्वयंवर होने जा रहा है ।। ७ ।। 

धृष्टद्युम्नस्य चोत्पत्तिमुत्पत्ति च शिखण्डिन: । 

अयोनिजत्वं कृष्णाया द्रुपदस्य महामखे ।। ८ ।। 

धृष्टद्यम्म और शिखण्डीकी उत्पत्ति तथा द्रुपदके महायज्ञमें कृष्णा (द्रौपदी)-का बिना 
माताके गर्भके ही (यज्ञकी वेदीसे) जन्म होना आदि बातें भी उसने कहीं ।। ८ ।। 

तदद्भुततमं श्रुत्वा लोके तस्य महात्मनः । 

विस्तरेणैव पप्रच्छु: कथान्ते पुरुषर्षभा: ।। ९ ।। 

उस महात्मा ब्राह्मणका इस लोकमें अत्यन्त अद्भुत प्रतीत होनेवाला यह वचन सुनकर 
कथाके अन्तमें पुरुषशिरोमणि पाण्डवोंने विस्तारपूर्वक जाननेके लिये पूछा ।। ९ ।। 


पाण्डवा ऊचु. 
कथं ट्रुपदपुत्रस्य धृष्टद्युम्नस्प पावकात्‌ । 

वेदीमध्याच्च कृष्णाया: सम्भव: क हक ॥। १० || 

पाण्डव बोले--द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नका और कृष्णाका यज्ञवेदीके मध्यभागसे 


अद्भुत जन्म किस प्रकार हुआ? || १० ।। 

कथं द्रोणान्महेष्वासात्‌ सर्वाण्यस्त्राण्यशिक्षत | 

कथं विप्र सखायौ तौ भिन्नौ कस्य कृतेन वा ॥। ११ ।। 

धष्टद्युम्नने महाधनुर्थर द्रोणसे सब अस्त्रोंकी शिक्षा किस प्रकार प्राप्त की? ब्रह्मन! ट्रपद 
और द्रोणमें किस प्रकार मैत्री हुई? और किस कारणसे उनमें वैर पड़ गया? ।। ११ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

एवं तैश्वोदितो राजन्‌ स विप्र: पुरुषर्षभै: । 

कथयामास तत्‌ सर्व द्रौपदीसम्भवं तदा ।। १२ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्‌! पुरुषशिरोमणि पाण्डवोंके इस प्रकार पूछनेपर 
आगन्तुक ब्राह्मणने उस समय द्रौपदीकी उत्पत्तिका सारा वृत्तान्त सुनाना आरम्भ 
किया ।। १२ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि द्रौपदीसम्भवे 
चतुःषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें ब्राह्मगकथाविषयक एक सौ 
चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६४ ॥ 


अपन प्रा बछ। अं क्ाज 


पज्चषष्टर्याधेकशततमो< ध्याय: 
द्रोणके द्वारा द्रपदके अपमानित होनेका वृत्तान्त 


ब्राह्मण उवाच 

गड्जद्वारं प्रति महान्‌ बभूवर्षिमहातपा: । 

भरद्वाजो महाप्राज्ञ: सततं संशितव्रतः ।। १ ॥। 

आगन्तुक ब्राह्मणने कहा--गंगाद्वारमें एक महाबुद्धिमान्‌ और परम तपस्वी भरद्वाज 
नामक महर्षि रहते थे, जो सदा कठोर व्रतका पालन करते थे ।। १ ।। 

सोअभिषेक्तुं गतो गड्ां पूर्वमेवागतां सतीम्‌ । 

ददर्शाप्सरसं तत्र घृताचीमाप्लुतामृषि: ।। २ ।। 

एक दिन वे गंगाजीमें स्नान करनेके लिये गये। वहाँ पहलेसे ही आकर सुन्दरी अप्सरा 
घृताची नामवाली गंगाजीमें गोते लगा रही थी। महर्षिने उसे देखा || २ ।। 

तस्या वायुर्नदीतीरे वसन॑ व्यहरत्‌ तदा । 

अपकृष्टाम्बरां दृष्टवा तामृषिश्चकमे तदा ॥। ३ || 

जब नदीके तटपर खड़ी हो वह वस्त्र बदलने लगी, उस समय वायुने उसकी साड़ी उड़ा 
दी। वस्त्र हट जानेसे उसे नग्नावस्थामें देखकर महर्षिने उसे प्राप्त करनेकी इच्छा 
की ॥। ३ ।। 

तस्यां संसक्तमनस: कौमारब्रह्मचारिण: । 

चिरस्य रेतश्नस्कन्द तदृषिद्रोण आदधे ।। ४ ।। 

मुनिवर भरद्वाजने कुमारावस्थासे ही दीर्घकाल-तक ब्रह्मचर्यका पालन किया था। 
घृताचीमें चित्त आसक्त हो जानेके कारण उनका वीर्य स्खलित हो गया। महर्षिने उस 
वीर्यको द्रोण (यज्ञकलश)-में रख दिया ।। ४ ।। 

ततः समभवद्‌ द्रोण: कुमारस्तस्य धीमत:ः । 

अध्यगीष्ट स वेदांश्ष वेदाड़ानि च सर्वश: ।। ५ ।। 

उसीसे बुद्धिमान्‌ भरद्वाजजीके द्रोण नामक पुत्र हुआ। उसने सम्पूर्ण वेदों और 
वेदांगोंका भी अध्ययन कर लिया ।। ५ |। 

भरद्वाजस्य तु सखा पृषतो नाम पार्थिव: । 

तस्यापि द्रुपदो नाम तदा समभवत्‌ सुतः ।। ६ ।। 

पृषत नामके एक राजा भरद्वाज मुनिके मित्र थे। उन्हीं दिनों राजा पृषतके भी ट्रुपद 
नामक पुत्र हुआ || ६ |। 

स नित्यमाश्रमं गत्वा द्रोणेन सह पार्षत: | 

चिक्रीडाध्ययनं चैव चकार क्षत्रियर्षभ: ।। ७ ।। 


क्षत्रियशिरोमणि पृषतकुमार द्रुपद प्रतिदिन भरद्वाज मुनिके आश्रमपर जाकर द्रोणके 
साथ खेलते और अध्ययन करते थे ।। ७ ।। 

ततस्तु पृषते5तीते स राजा द्रुपदो5भवत्‌ | 

द्रोणोडपि राम॑ शुश्राव दित्सन्तं वसु सर्वश: ।। ८ ।। 

वनं तु प्रस्थितं राम॑ं भरद्वाजसुतोब्रवीत्‌ | 

आगतं वित्तकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजोत्तम ।। ९ ।। 

पृषतकी मृत्युके पश्चात्‌ ट्रपद राजा हुए। इधर द्रोणने भी यह सुना कि परशुरामजी 
अपना सारा धन दान कर देना चाहते हैं और वनमें जानेके लिये उद्यत हैं। तब वे 
भरद्वाजनन्दन द्रोण परशुरामजीके पास जाकर बोले--'द्विजश्रेष्ठ! मुझे द्रोण जानिये। मैं 
धनकी कामनासे यहाँ आया हूँ” || ८-९ ।। 

राम उवाच 


शरीरमात्रमेवाद्य मया समवशेषितम्‌ । 

अस्त्राणि वा शरीर वा ब्रह्मन्नेकतमं वृणु ।। १० ।। 

परशुरामजीने कहा--ब्रह्म! अब तो केवल मैंने अपने शरीरको ही बचा रखा है 
(शरीरके सिवा सब कुछ दान कर दिया)। अतः अब तुम मेरे अस्त्रों अथवा यह शरीर-- 
दोनोंमेंसे किसी एकको माँग लो | १० ।। 

द्रोण उदाच 

अस्त्राणि चैव सर्वाणि तेषां संहारमेव च । 

प्रयोगं चैव सर्वेषां दातुमहति मे भवान्‌ ।। ११ ।। 

द्रोण बोले--भगवन्‌! आप मुझे सम्पूर्ण अस्त्र तथा उन सबके प्रयोग और उपसंहारकी 
विधि भी प्रदान करें ।। ११ ।। 

ब्राह्मण उवाच 

तथेत्युक्त्वा ततस्तस्मै प्रददौ भूगुनन्दन: । 

प्रतिगृह्म तदा द्रोण: कृतकृत्यो&5भवत्‌ तदा ।। १२ ।। 

आगन्तुक ब्राह्मणने कहा--तब भृगुनन्दन परशुरामजीने “तथास्तु/ कहकर अपने 
सब अस्त्र द्रोणको दे दिये। उन सबको ग्रहण करके द्रोण उस समय कृतार्थ हो 
गये ।। १२ ।। 

सम्प्रह्ृष्टमना द्रोणो रामात्‌ परमसम्मतम्‌ । 

ब्रह्मास्त्रं समनुप्राप्य नरेष्वभ्यधिको5भवत्‌ ।। १३ ।। 

उन्होंने परशुरामजीसे प्रसन्नचित्त होकर परम सम्मानित ब्रह्मास्त्रका ज्ञान प्राप्त किया 
और मनुष्योंमें सबसे बढ़-चढ़कर हो गये ।। १३ ।। 


ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाज: प्रतापवान्‌ | 
अब्रवीत्‌ पुरुषव्याप्र: सखायं विद्धि मामिति ।। १४ ।। 
तब पुरुषसिंह प्रतापी द्रोणने राजा द्रुपदके पास जाकर कहा--'राजन्‌! मैं तुम्हारा 
सखा हूँ, मुझे पहचानो” ।। १४ ।। 
हुपद उवाच 


नाश्रोत्रिय: श्रोत्रियस्थ नारथी रथिन: सखा । 

नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्व किमिष्यते ।। १५ ।। 

द्रपदने कहा--जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रियका; जो रथी नहीं है, वह रथी वीरका 
और इसी प्रकार जो राजा नहीं है, वह किसी राजाका मित्र होनेयोग्य नहीं है; फिर तुम 
पहलेकी मित्रताकी अभिलाषा क्यों करते हो? ।। १५ ।। 

ब्राह्मण उवाच 

स विनिश्ित्य मनसा पाज्चाल्यं प्रति बुद्धिमान | 

जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्नयम्‌ ।। १६ ।। 

आगन्तुक ब्राह्मणने कहा--बुद्धिमान्‌ द्रोणने पांचालराज ट्रुपदसे बदला लेनेका मन- 
ही-मन निश्चय किया। फिर वे कुरुवंशी राजाओंकी राजधानी हस्तिनापुरमें गये || १६ ।। 

तस्मै पौत्रान्‌ समादाय वसूनि विविधानि च । 

प्राप्ताय प्रददौ भीष्म: शिष्यान्‌ द्रोणाय धीमते ।। १७ ।। 

वहाँ जानेपर बुद्धिमान द्रोणको नाना प्रकारके धन लेकर भीष्मजीने अपने सभी 
पौत्रोंको उन्हें शिष्यरूपमें सौंप दिया || १७ ।। 

द्रोण: शिष्यांस्तत: पार्थानिदं वचनमब्रवीत्‌ । 

समानीय तु ताज्शिष्यान्‌ द्रपदस्यासुखाय वै ।। १८ ।। 

तब द्रोणने सब शिष्योंको एकत्र करके, जिनमें कुन्तीके पुत्र तथा अन्य लोग भी थे, 
द्रपदको वष्ट देनेके उद्देश्यसे इस प्रकार कहा-- ।। १८ ॥। 

आचार्यवेतनं किंचिद्‌ हृदि यद्‌ वर्तते मम । 

कृतास्त्रैस्तत्‌ प्रदेयं स्थात्‌ तदृतं वदतानघा: । 

सोर्ड्जुनप्रमुखैरुक्तस्तथास्त्विति गुरुस्तदा || १९ ।। 

“निष्पाप शिष्यगण! मेरे मनमें तुमलोगोंसे कुछ गुरुदक्षिणा लेनेकी इच्छा है। 
अस्त्रविद्यामें पारंगत होनेपर तुम्हें वह दक्षिणा देनी होगी। इसके लिये सच्ची प्रतिज्ञा करो।' 
तब अर्जुन आदि शिष्योंने अपने गुरुसे कहा--“तथास्तु (ऐसा ही होगा)” ।। १९ ।। 

यदा च पाण्डवा: सर्वे कृतास्त्रा: कृतनिश्चया: । 

ततो द्रोणोडब्रवीद्‌ भूयो वेतनार्थमिदं वच: ।॥ २० ।। 


जब समस्त पाण्डव अस्त्रविद्यामें पारंगत हो गये और प्रतिज्ञापालनके निश्चयपर 
दृढ़तापूर्वक डटे रहे, तब द्रोणाचार्यने गुरुदक्षिणा लेनेके लिये पुनः यह बात कही 
-- || २० || 

पार्षतो द्रुपदो नामच्छत्रवत्यां नरेश्वर: । 

तस्मादाकृष्य तद्‌ राज्यं मम शीघ्र प्रदीयताम्‌ ।। २१ ।। 

“अहिच्छत्रा नगरीमें पृषतके पुत्र राजा ट्रपद रहते हैं। उनसे उनका राज्य छीनकर शीतघ्र 
मुझे अर्पित कर दो' || २१ ।। 

(धार्तराष्ट्रश्न सहिता: पञ्चालान्‌ पाण्डवा ययु: ।। 

यज्ञसेनेन संगम्य कर्णदुर्योधनादय: । 

निर्जिता: संन्यवर्तन्त तथान्ये क्षत्रियर्षभा: ।।) 

ततः पाण्डुसुता: पज्च निर्जित्य द्रुपदं युधि । 

द्रोणाय दर्शयामासुर्बद्ध्वा ससचिवं तदा ।। २२ ।। 

(गुरुकी आज्ञा पाकर) धृतराष्ट्रपुत्रोंसहित पाण्डव पंचाल देशमें गये। वहाँ राजा ट्रुपदके 
साथ युद्ध होनेपर कर्ण, दुर्योधन आदि कौरव तथा दूसरे-दूसरे प्रमुख क्षत्रिय वीर परास्त 
होकर रणभूमिसे भाग गये। तब पाँचों पाण्डवोंने ट्रुपदको युद्धमें परास्त कर दिया और 
मन्त्रियों-सहित उन्हें कैद करके द्रोणके सम्मुख ला दिया || २२ ।। 

(महेन्द्र इव दुर्धर्षो महेन्द्र इव दानवम्‌ । 

महेन्द्रपुत्र: पाउचालं जितवानर्जुनस्तदा ।। 

तद्‌ दृष्टवा तु महावीर्य फाल्गुनस्यामितौजस: । 

व्यस्मयन्त जना: सर्वे यज्ञसेनस्य बान्धवा: ।। 

नास्त्यर्जुनसमो वीर्ये राजपुत्र इति ब्रुवन्‌ ।।) 

महेन्द्रपुत्र अर्जुन महेन्द्र पर्वतके समान दुर्धर्ष थे। जैसे महेन्द्रने दानवराजको परास्त 
किया था, उसी प्रकार उन्होंने पांचालराजपर विजय पायी। अमिततेजस्वी अर्जुनका वह 
महान्‌ पराक्रम देख राजा ट्रुपदके समस्त बान्धवजन बड़े विस्मित हुए और मन-ही-मन 
कहने लगे--“'अर्जुनके समान शक्तिशाली दूसरा कोई राजकुमार नहीं है'। 

द्रोण उदाच 


प्रार्थयामि त्वया सख्यं पुनरेव नराधिप । 

अराजा किल नो राज्ञ: सखा भवितुमहति ।। २३ ।। 

अतः: प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन त्वया सह । 

राजासि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तरे || २४ ।। 

द्रोणाचार्य बोले--राजन्‌! मैं फिर भी तुमसे मित्रताके लिये प्रार्थना करता हूँ। यज्ञसेन! 
तुमने कहा था, जो राजा नहीं है, वह राजाका मित्र नहीं हो सकता; अतः मैंने राज्यप्राप्तिके 


लिये तुम्हारे साथ युद्धका प्रयास किया है। तुम गंगाके दक्षिणतटके राजा रहो और मैं 
उत्तरतटका ।। २३-२४ ।। 
ब्राह्मण उवाच 

एवमुक्तो हि पाज्चाल्यो भारद्वाजेन धीमता । 

उवाचास्त्रविदां श्रेष्ठो द्रोणं ब्राह्मणसत्तमम्‌ ।। २५ ।। 

आगन्तुक ब्राह्मण कहता है--बुद्धिमान्‌ भरद्वाज-नन्दन द्रोणके यों कहनेपर 
अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ पंचाल-नरेश द्रुपदने विप्रवर द्रोणसे इस प्रकार कहा-- ।। २५ ।। 

एवं भवतु भद्रें ते भारद्वाज महामते । 

सख्यं तदेव भवतु शश्वद्‌ यदभिमन्यसे ।। २६ ।। 

“महामते द्रोण! एवमस्तु, आपका कल्याण हो। आपकी जैसी राय है, उसके अनुसार 
हम दोनोंकी वही पुरानी मैत्री सदा बनी रहे” || २६ ।। 

एवमन्योन्यमुक्त्वा तौ कृत्वा सख्यमनुत्तमम्‌ । 

जम्मतुद्रोणपाञउ्चाल्यौ यथागतमरिंदमौ ।। २७ ।। 

शत्रुओंका दमन करनेवाले द्रोणाचार्य और द्रुपद एक दूसरेसे उपर्युक्त बातें कहकर परम 
उत्तम मैत्रीभाव स्थापित करके इच्छानुसार अपने-अपने स्थानको चले गये ।। २७ ।। 

असत्कार: स तु महान्‌ मुहूर्तमपि तस्य तु । 

नापैति हृदयाद्‌ राज्ञो दुर्मना: स कृशो5भवत्‌ ।। २८ ।। 

उस समय उनका जो महान्‌ अपमान हुआ, वह दो घड़ीके लिये भी राजा द्रुपदके 
हृदयसे निकल नहीं पाया। वे मन-ही-मन बहुत दुःखी थे और उनका शरीर भी बहुत दुर्बल 
हो गया ।। २८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि द्रौपदीसम्भवे 
पज्चषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १६५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें द्रौपदीजन्मविषयक एक सौ 
पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६५ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ३२ श्लोक हैं) 


ऑपन- मा बछ। ्-:डिअ 


षट्षष्ट्यधिेकशततमोड< ध्याय: 
ट्रपदके यज्ञसे धृष्टद्युम्न और द्रौपदीकी उत्पत्ति 


ब्राह्मण उवाच 

अमर्षी द्रुपदो राजा कर्मसिद्धान्‌ द्विजर्षभान्‌ | 

अन्विच्छन्‌ परिचक्राम ब्राह्मणावसथान्‌ बहून्‌ ।। १ ।। 

आगन्तुक ब्राह्मण कहता है--राजा ट्रुपद अमर्षमें भर गये थे, अतः उन्होंने कर्मसिद्ध 
श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको ढूँढ़नेके लिये बहुत-से ब्रह्मर्षियोंके आश्रमोंमें भ्रमण किया ।। १ ।। 

पुत्रजन्म परीप्सन्‌ वै शोकोपहतचेतन: । 

नास्ति श्रेष्ठमपत्यं मे इति नित्यमचिन्तयत्‌ ।। २ ।। 

वे अपने लिये एक श्रेष्ठ पुत्र चाहते थे। उनका चित्त शोकसे व्याकुल रहता था। वे रात- 
दिन इसी चिन्तामें पड़े रहते थे कि मेरे कोई श्रेष्ठ संतान नहीं है ।। २ ।। 

जातानू्‌ पुत्रान्‌ स निर्वेदाद्‌ धिग्‌ बन्धूनिति चाब्रवीत्‌ । 

निः:श्वासपरमश्नासीद्‌ द्रोणं प्रतिचिकीर्षया ।। ३ ।। 

जो पुत्र या भाई-बन्धु उत्पन्न हो चुके थे, उन्हें वे खेदवश धिक्कारते रहते थे। द्रोणसे 
बदला लेनेकी इच्छा रखकर राजा ट्रुपद सदा लंबी साँसें खींचा करते थे ।। ३ ।। 

प्रभाव विनयं शिक्षां द्रोणस्प चरितानि च । 

क्षात्रेण च बलेनास्य चिन्तयन्‌ नाध्यगच्छत ।। ४ ।। 

प्रतिकर्तु नृपश्रेष्ठी यतमानो5डपि भारत । 

अभित: सो5थ कल्माषीं गड्कूले परिभ्रमन्‌ ।। ५ ।। 

ब्राह्मणावसथं पुण्यमाससाद महीपति: । 

तत्र नास्नातक: वक्षिन्न चासीदव्रती द्विज: ।। ६ ।। 

जनमेजय! नृपश्रेष्ठ द्रुपद द्रोणाचार्यसे बदला लेनेके लिये यत्न करनेपर भी उनके 
प्रभाव, विनय, शिक्षा एवं चरित्रका चिन्तन करके क्षात्रबलके द्वारा उन्हें परास्त करनेका 
कोई उपाय न जान सके। वे कृष्णवर्णा यमुना तथा गंगा दोनोंके तटोंपर घूमते हुए 
ब्राह्मणोंकी एक पवित्र बस्तीमें जा पहुँचे। वहाँ उन महाभाग नरेशने एक भी ऐसा ब्राह्मण 
नहीं देखा, जिसने विधिपूर्वक ब्रह्मचर्यका पालन करके वेद-वेदांगकी शिक्षा न प्राप्त की 
हो ।। ४--६ |। 

तथैव च महाभाग: सो<पश्यत्‌ संशितव्रतौ । 

याजोपयाजोौ ब्रद्मर्षी शाम्यन्ती परमेष्ठिनौ |। ७ ।। 

इस प्रकार उन महाभागने वहाँ कठोर व्रतका पालन करनेवाले दो ब्रह्मर्षियोंको देखा, 
जिनके नाम थे याज और उपयाज। वे दोनों ही परम शान्त और परमेष्ठी ब्रह्माके तुल्य 


प्रभावशाली थे || ७ ।। 

संहिताध्ययने युक्तौ गोत्रतश्चापि काश्यपौ । 

तारणेयौ युक्तरूपीौ ब्राह्मणावृषिसत्तमौ ।। ८ ।। 

वे वैदिक संहिताके अध्ययनमें सदा संलग्न रहते थे। उनका गोत्र काश्यप था। वे दोनों 
ब्राह्मण सूर्यदेवके भक्त, बड़े ही योग्य तथा श्रेष्ठ ऋषि थे || ८ ।। 

स तावामन्त्रयामास सर्वकामैरतन्द्रित: । 

बुद्ध्वा बल॑ तयोस्तत्र कनीयांसमुपह्दरे ।। ९ ।। 

प्रपेदे छन्‍्दयन्‌ कामैरुपयाजं धृतव्रतम्‌ । 

पादशुश्रूषणे युक्त: प्रियवाक्‌ सर्वकामद: ।। १० ।। 

अर्चयित्वा यथान्यायमुपयाजमुवाच स: । 

येन मे कर्मणा ब्रह्मन्‌ पुत्र: स्याद्‌ द्रोणमृत्यवे || ११ ।। 

उपयाज कृते तस्मिन्‌ गवां दातास्मि ते<र्बुदम्‌ । 

यद्‌ वा तेडन्यद्‌ द्विजश्रेष्ठ मनस: सुप्रियं भवेत्‌ । 

सर्व तत्‌ ते प्रदाताहं न हि मेउत्रास्ति संशय: ।। १२ ।। 

उन दोनोंकी शक्तिको समझकर आलस्यरहित राजा ट्रुपदने उन्हें सम्पूर्ण मनोवांछित 
भोग-पदार्थ अर्पण करनेका संकल्प लेकर निमन्त्रित किया। उन दोनोंमेंसे जो छोटे उपयाज 
थे, वे अत्यन्त उत्तम व्रतका पालन करनेवाले थे। द्रपद एकान्तमें उनसे मिले और 
इच्छानुसार भोग्य वस्तुएँ अर्पण करके उन्हें अपने अनुकूल बनानेकी चेष्टा करने लगे। 
सम्पूर्ण मनोभिलषित पदार्थोंको देनेकी प्रतिज्ञा करके प्रिय वचन बोलते हुए द्रुपद मुनिके 
चरणोंकी सेवामें लग गये और यथायोग्य पूजन करके उपयाजसे बोले--“विप्रवर उपयाज! 
जिस कर्मसे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो द्रोणाचार्यको मार सके। उस कर्मके पूरा होनेपर मैं 
आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गायें दूँगा। द्विजश्रेष्ठी इसके सिवा और भी जो आपके 
मनको अत्यन्त प्रिय लगनेवाली वस्तु होगी, वह सब आपको अर्पित करूँगा, इसमें कोई 
संशय नहीं है” || ९--१२ ।। 

इत्युक्तो नाहमित्येवं तमृषि: प्रत्यभाषत । 

आराधयिष्यन्‌ ट्रुपद: स तं पर्यचरत्‌ पुन: ।। १३ ।। 

द्रपदके यों कहनेपर ऋषि उपयाजने उन्हें जवाब दे दिया, “मैं ऐसा कार्य नहीं करूँगा।” 
परंतु द्रुपद उन्हें प्रसन्न करनेका निश्चय करके पुनः उनकी सेवामें लगे रहे |। १३ ।। 

ततः संवत्सरस्यान्ते द्रुपदं स द्विजोत्तम: । 

उपयाजोडब्रवीत्‌ काले राजन्‌ मधुरया गिरा ।। १४ ।। 

ज्येष्ठो भ्राता ममागृह्नाद्‌ विचरन्‌ गहने वने । 

अपरिज्ञातशौचायां भूमौ निपतितं फलम्‌ ॥। १५ ।। 


तदनन्तर एक वर्ष बीतनेपर द्विजश्रेष्ठ उपयाजने उपयुक्त अवसरपर मधुर वाणीमें 
द्रपदसे कहा--'राजन! मेरे बड़े भाई याज एक समय घने वनमें विचर रहे थे। उन्होंने एक 
ऐसी जमीनपर गिरे हुए फलको उठा लिया, जिसकी शुद्धिके सम्बन्धमें कुछ भी पता नहीं 
था || १४-१५ || 

तदपश्यमहं भ्रातुरसाम्प्रतमनुव्रजन्‌ । 

विमर्श संकरादाने नायं कुर्यात्‌ कदाचन ।। १६ ।। 

“मैं भी भाईके पीछे-पीछे जा रहा था; अतः मैंने उनके इस अयोग्य कार्यको देख लिया 
और सोचा कि ये अपवित्र वस्तुको ग्रहण करनेमें भी कभी कोई विचार नहीं करते ।। १६ ।। 

दृष्टवा फलस्य नापश्यद्‌ दोषान्‌ पापानुबन्धकान्‌ | 

विविनक्ति न शौचं य: सोअन्यत्रापि कथं भवेत्‌ ।। १७ ।। 

“जिन्होंने देखकर भी फलके पापजनक दोषोंकी ओर दृष्टिपात नहीं किया, जो किसी 
वस्तुको लेनेमें शुद्धि-अशुद्धिका विचार नहीं करते, वे दूसरे कार्योंमें भी कैसा बर्ताव करेंगे, 
कहा नहीं जा सकता ।। १७ |। 

संहिताध्ययनं कुर्वन्‌ वसन्‌ गुरुकुले च यः । 

भैक्ष्यमुत्सृष्टमन्येषां भुड्क्ते सम च यदा तदा ।। १८ ।। 

कीर्तयन्‌ गुणमन्नानामघृणी च पुनः पुनः । 

त॑ वै फलार्थिन मन्ये भ्रातरं तर्कचक्षुषा ।। १९ ।। 

“गुरुकुलमें रहकर संहिताभागका अध्ययन करते हुए भी जो दूसरोंकी त्यागी हुई 
भिक्षाको जब-तब खा लिया करते थे और घृणाशून्य होकर बार-बार उस अन्नके गुणोंका 
वर्णन करते रहते थे, उन अपने भाईको जब मैं तर्ककी दृष्टिसे देखता हूँ तो वे मुझे फलके 
लोभी जान पड़ते हैं ।। १८-१९ |। 

त॑ं वै गच्छस्व नृपते स त्वां संयाजयिष्यति । 

जुगुप्समानो नृपतिर्मनसेदं विचिन्तयन्‌ ।। २० ।। 

उपयाजवच: श्र॒ुत्वा याजस्याश्रममभ्यगात्‌ । 

अभिसम्पूज्य पूजाहमथ याजमुवाच ह ।। २१ ।। 

“राजन! तुम उन्हींके पास जाओ। वे तुम्हारा यज्ञ करा देंगे।” राजा ट्रपद उपयाजकी 
बात सुनकर याजके इस चरित्रकी मन-ही-मन निन्दा करने लगे, तो भी अपने कार्यका 
विचार करके याजके आश्रमपर गये और पूजनीय याज मुनिका पूजन करके तब उनसे इस 
प्रकार बोले--- || २०-२१ ।। 





अयुतानि ददान्यष्टौ गवां याजय मां विभो । 

द्रोणवैराभिसंतप्तं प्रह्लादयितुमहसि ।। २२ ।। 

“भगवन्‌! मैं आपको अस्सी हजार गौएँ भेंट करता हूँ। आप मेरा यज्ञ करा दीजिये। मैं 
द्रोणके वैरसे संतप्त हो रहा हूँ। आप मुझे प्रसन्नता प्रदान करें || २२ ।। 

स हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठो ब्रह्मास्त्रे चाप्यनुत्तम: 

तस्माद्‌ द्रोण: पराजैष्ट मां वै स सखिविग्रहे ।। २३ ।। 

'द्रोणाचार्य ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ और ब्रह्मास्त्रके प्रयोगमें भी सर्वोत्तम हैं; इसलिये मित्र 
मानने-न-माननेके प्रश्नबको लेकर होनेवाले झगड़ेमें उन्होंने मुझे पराजित कर दिया 
है || २३ ।। 

क्षत्रियो नास्ति तस्यास्यां पृथिव्यां कश्निदग्रणी: । 

कौरवाचार्यमुख्यस्य भारद्वाजस्य धीमत: ।। २४ ।। 

“परम बुद्धिमान्‌ भरद्वाजनन्दन द्रोण इन दिनों कुरुवंशी राजकुमारोंके प्रधान आचार्य 
हैं। इस पृथ्वीपर कोई भी ऐसा क्षत्रिय नहीं है, जो अस्त्र-विद्यामें उनसे आगे बढ़ा 
हो ।। २४ ।। 

द्रोणस्य शरजालानि प्राणिदेहहराणि च । 

षडरत्नि धनुश्नास्य दृश्यते परमं महत्‌ ।। २५ ।। 

स हि ब्राह्मणवेषेण क्षात्रं वेगमसंशयम्‌ | 

प्रतिहन्ति महेष्वासो भारद्वाजो महामना: ।। २६ ।। 


“ट्रोणाचार्यके बाणसमूह प्राणियोंके शरीरका संहार करनेवाले हैं। उनका छः हाथका 
लंबा धनुष बहुत बड़ा दिखायी देता है। इसमें संदेह नहीं कि महान्‌ धनुर्धर महामना द्रोण 
ब्राह्मण-वेशमें (अपने ब्राह्मतेजके द्वारा) क्षत्रिय-तेजको प्रतिहत कर देते हैं || २५-२६ ।। 

क्षत्रोच्छेदाय विहितो जामदग्न्य इवास्थित: । 

तस्य हा[स्त्रबलं घोरमप्रधृष्यं नरैर्भुवि ॥। २७ ।। 

“मानो जमदग्निनन्दन परशुरामजीकी भाँति क्षत्रियोंका संहार करनेके लिये उनकी सृष्टि 
हुई है। उनका अस्त्रबल बड़ा भयंकर है। पृथ्वीके सब मनुष्य मिलकर भी उसे दबा नहीं 
सकते ।। २७ ।। 

बाह्य संधारयंस्तेजो हुताहुतिरिवानल: । 

समेत्य स दहत्याजौ क्षात्रधर्मपुरस्सर: ।। २८ ।। 

“घीकी आहुतिसे प्रज्वलित हुई अग्निके समान वे प्रचण्ड ब्राह्मतेज धारण करते हैं और 
युद्धमें क्षात्रधर्मको आगे रखकर विपक्षियोंसे भिड़ंत होनेपर वे उन्हें भस्म कर डालते 
हैं ।। २८ ।। 

ब्रह्मक्षत्रे च विहिते ब्राह्मंं तेजो विशिष्यते । 

सो क्षात्राद्‌ बलाद्धीनो बाह्यूं तेज: प्रपेदिवान्‌ ।। २९ ।। 

“यद्यपि द्रोणाचार्यमें ब्राह्मतेजके साथ-साथ क्षात्रतेज भी विद्यमान है, तथापि आपका 
ब्राह्मतेज उनसे बढ़कर है। मैं केवल क्षात्रबलके कारण द्रोणाचार्यसे हीन हूँ; अतः मैंने 
आपके ब्राह्मतेजकी शरण ली है ।। २९ ।। 

द्रोणाद्‌ विशिष्टमासाद्य भवन्तं ब्रह्मुवित्तमम्‌ । 

द्रोणान्तकमहं पुत्र लभेयं युधि दुर्जयम्‌ । ३० ।। 

“आप वेदवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ होनेके कारण द्रोणाचार्यसे बहुत बढ़े-चढ़े हैं। मैं आपकी 
शरण लेकर एक ऐसा पुत्र पाना चाहता हूँ, जो युद्धमें दुर्जय और द्रोणाचार्यका विनाशक 
हो ।। ३० ।। 

तत्‌ कर्म कुरु मे याज वितसम्यर्बुदं गवाम्‌ । 

तथेत्युक्त्वा तु तं याजो याज्यार्थमुपकल्पयत्‌ ।। ३१ ।। 

“याजजी! मेरे इस मनोरथको पूर्ण करनेवाला यज्ञ कराइये। उसके लिये मैं आपको एक 
अर्बुद गौएँ दक्षिणामें दूँगा।' 

तब याजने “तथास्तु” कहकर यजमानकी अभीष्ट-सिद्धिके लिये आवश्यक यज्ञ और 
उसके साधनोंका स्मरण किया ।। ३१ ।। 

गुर्वर्थ इति चाकाममुपयाजमचोदयत्‌ । 

याजो द्रोणविनाशाय प्रतिजज्ञे तथा च सः ।। ३२ ।। 

ततस्तस्य नरेन्द्रस्य उपयाजो महातपा: । 

आचर्ख्यौ कर्म वैतानं तदा पुत्रफलाय वै ।। ३३ ।। 


“यह बहुत बड़ा कार्य है” ऐसा विचार करके याजने इस कार्यके लिये किसी प्रकारकी 
कामना न रखनेवाले उपयाजको भी प्रेरित किया तथा याजने द्रोणके विनाशके लिये वैसा 
पुत्र उत्पन्न करनेकी प्रतिज्ञा कर ली। इसके बाद महातपस्वी उपयाजने राजा ट्रुपदको 
अभीष्ट पुत्ररूपी फलकी सिद्धिके लिये आवश्यक यज्ञकर्मका उपदेश किया ।। ३२--३३ ।। 

स च पुत्रो महावीर्यो महातेजा महाबल: । 

इष्यते यद्विधो राजन्‌ भविता ते तथाविध: ।। ३४ ।। 

और कहा--'राजन्‌! इस यज्ञसे तुम जैसा पुत्र चाहते हो, वैसा ही तुम्हें होगा। तुम्हारा 
वह पुत्र महान्‌ पराक्रमी, महातेजस्वी और महाबली होगा” ।। ३४ ।। 

भारद्वाजस्य हन्तारं सोडभिसंधाय भूपति: । 

आजउल्ठे तत्‌ तथा सर्व द्रुपद: कर्मसिद्धये ।। ३५ ।। 

तदनन्तर द्रोणके घातक पुत्रका संकल्प लेकर राजा द्रुपदने कर्मकी सिद्धिके लिये 
उपयाजके कथनानुसार सारी व्यवस्था की ।। ३५ ।। 

याजस्तु हवनस्यान्ते देवीमाज्ञापयत्‌ तदा । 

प्रेहि मां राज्ञि पृषति मिथुन त्वामुपस्थितम्‌ ।। ३६ ।। 

(कुमारश्न कुमारी च पितृवंशविवृद्धये ।) 

हवनके अन्तमें याजने द्रपदकी रानीको आज्ञा दी--'पृषतकी पुत्रवधू! महारानी! शीघ्र 
मेरे पास हविष्य ग्रहण करनेके लिये आओ। तुम्हें एक पुत्र और एक कन्याकी प्राप्ति 
होनेवाली है, वे कुमार और कुमारी अपने पिताके कुलकी वृद्धि करनेवाले होंगे” ।। ३६ ।। 

राज्युवाच 

अवलिपत॑ मुखं ब्रह्मन्‌ दिव्यान्‌ गन्धान्‌ बिभर्मि च । 

सुतार्थे नोपलब्धास्मि तिष्ठ याज मम प्रिये | ३७ ।। 

रानी बोली--ब्रह्मन! अभी मेरे मुखमें ताम्बूल आदिका रंग लगा है! मैं अपने अंगोंमें 
दिव्य सुगन्धित अंगराग धारण कर रही हूँ, अतः मुँह धोये और स्नान किये बिना पुत्रदायक 
हविष्यका स्पर्श करनेके योग्य नहीं हूँ, इसलिये याजजी! मेरे इस प्रिय कार्यके लिये थोड़ी 
देर ठहर जाइये ।। ३७ ।। 

याज उवाच 

याजेन श्रपितं हव्यमुपयाजाभिमन्त्रितम्‌ । 

कथं काम न संदध्यात्‌ सा त्वं विप्रेहि तिष्ठ वा ।। ३८ ।। 

याजने कहा--इस हविष्यको स्वयं याजने पकाकर तैयार किया है और उपयाजने इसे 
अभिमन्त्रित किया है; अतः तुम आओ या वहीं खड़ी रहो, यह हविष्य यजमानकी 
कामनाको पूर्ण कैसे नहीं करेगा? ।। ३८ ।। 

ब्राह्मण उवाच 


एवमुक्‍्त्वा तु याजेन हुते हविषि संस्कृते । 

उत्तस्थौ पावकात्‌ तस्मात्‌ कुमारो देवसंनिभ: ।। ३९ |। 

ब्राह्मण कहता है--यों कहकर याजने उस संस्कारयुक्त हविष्यकी आहुति ज्यों ही 
अग्निमें डाली, त्यों ही उस अग्निसे देवताके समान तेजस्वी एक कुमार प्रकट 
हुआ ।। ३९ || 

ज्वालावर्णो घोररूप: किरीटी वर्म चोत्तमम्‌ | 

बिभ्रत्‌ सखड्‌ग: सशरो धनुष्मान्‌ विनदन्‌ मुहुः ।। ४० ।। 

उसके अंगोंकी कान्ति अग्निकी ज्वालाके समान उद्धासित हो रही थी। उसका रूप 
भय उत्पन्न करनेवाला था। उसके माथेपर किरीट सुशोभित था। उसने अंगोंमें उत्तम कवच 
धारण कर रखा था। हाथोंमें खड्ग, बाण और धनुष धारण किये वह बार-बार गर्जना कर 
रहा था || ४० ।। 

सो<ध्यारोहद्‌ रथवरं तेन च प्रययौ तदा । 

ततः प्रणेदु: पञ्जाला: प्रह्ृष्ठा: साधु साथ्विति ।। ४१ ।। 

वह कुमार उसी समय एक श्रेष्ठ रथपर जा चढ़ा, मानो उसके द्वारा युद्धके लिये यात्रा 
कर रहा हो। यह देखकर पांचालोंको बड़ा हर्ष हुआ और वे जोर-जोरसे बोल उठे, “बहुत 
अच्छा', “बहुत अच्छा', || ४१ ।। 

हर्षाविष्टांस्ततश्वैतान्‌ नेयं सेहे वसुंधरा । 

भयापहो राजपुत्र: पाउ्चालानां यशस्कर: ।। ४२ ।। 

राज्ञ: शोकापहो जात एष द्रोणवधाय वै । 

इत्युवाच महद्‌ भूतमदृश्यं खेचरं तदा ।। ४३ ।। 

उस समय हर्षोल्लाससे भरे हुए इन पांचालोंका भार यह पृथ्वी नहीं सह सकी। 
आकाशमें कोई अदृश्य महाभूत इस प्रकार कहने लगा--“यह राजकुमार पांचालोंके भयको 
दूर करके उनके यशकी वृद्धि करनेवाला होगा। यह राजा द्रुपदका शोक दूर करनेवाला है। 
द्रोणाचार्यके वधके लिये ही इसका जन्म हुआ है' || ४२-४३ ।। 

कुमारी चापि पाज्चाली वेदीमध्यात्‌ समुत्थिता । 

सुभगा दर्शनीयड्री स्वसितायतलोचना ।। ४४ ।। 

तत्पश्चात्‌ यज्ञकी वेदीमेंसे एक कुमारी कन्या भी प्रकट हुई, जो पांचाली कहलायी। वह 
बड़ी सुन्दरी एवं सौभाग्यशालिनी थी। उसका एक-एक अंग देखने ही योग्य था। उसकी 
श्याम आँखें बड़ी-बड़ी थीं || ४४ ।। 

श्यामा पद्मपलाशाक्षी नीलकुज्चितमूर्थजा । 

ताम्रतुज़्नखी सुभ्रूश्षारूपीनपयोधरा ।। ४५ ।। 

उसके शरीरकी कान्ति श्याम थी। नेत्र ऐसे जान पड़ते मानो खिले हुए कमलके दल 
हों। केश काले-काले और घुँघराले थे। नख उभरे हुए और लाल रंगके थे। भौंहें बड़ी सुन्दर 


थीं। दोनों उरोज स्थूल और मनोहर थे ।। ४५ ।। 

मानुषं विग्रहं कृत्वा साक्षादमरवर्णिनी । 

नीलोत्पलसमो गन्धो यस्या: क्रोशात्‌ प्रधावति ।। ४६ ।॥ 

वह ऐसी जान पड़ती मानो साक्षात्‌ देवी दुर्गा ही मानवशरीर धारण करके प्रकट हुई 
हों। उसके अंगोंसे नील कमलकी-सी सुगन्ध प्रकट होकर एक कोसतक चारों ओर फैल 
रही थी ।। ४६ ।। 

या बिभर्ति परं रूप॑ यस्या नास्त्युपमा भुवि । 

देवदानवयक्षाणामीप्सितां देवरूपिणीम्‌ || ४७ ।। 

उसने परम सुन्दर रूप धारण कर रखा था। उस समय पृथ्वीपर उसके-जैसी सुन्दर स्त्री 
दूसरी नहीं थी। देवता, दानव और यक्ष भी उस देवोपम कन्याको पानेके लिये लालायित 
थे ।। ४७ |। 

तां चापि जातां सुश्रोणीं वागुवाचाशरीरिणी । 

सर्वयोषिद्धरा कृष्णा निनीषु: क्षत्रियान्‌ क्षयम्‌ || ४८ ।। 

सुन्दर कटिप्रदेशवाली उस कन्याके प्रकट होनेपर भी आकाशवाणी हुई--'इस 
कन्याका नाम कृष्णा है। यह समस्त युवतियोंमें श्रेष्ठ एवं सुन्दरी है और क्षत्रियोंका संहार 
करनेके लिये प्रकट हुई है || ४८ ।। 

सुरकार्यमियं काले करिष्यति सुमध्यमा । 

अस्या हेतो: कौरवाणां महतदुत्पत्स्यते भयम्‌ ।। ४९ ।। 

“यह सुमध्यमा समयपर देवताओंका कार्य सिद्ध करेगी। इसके कारण कौरवोंको बहुत 
बड़ा भय प्राप्त होगा" || ४९ ।। 

तच्छुत्वा सर्वपाञ्चाला: प्रणेदु: सिंहसड्घवत्‌ । 

न चैतान्‌ हर्षसम्पूर्णानियं सेहे वसुंधरा ।। ५० ।। 

वह आकाशवाणी सुनकर समस्त पांचाल सिंहोंके समुदायकी भाँति गर्जना करने लगे। 
उस समय हर्षमें भरे हुए उन पांचालोंका वेग पृथ्वी नहीं सह सकी ।। ५० ।। 

तो दृष्टवा पार्षती याजं प्रपेदे वै सुतार्थिनी । 

न वै मदन्यां जननीं जानीयातामिमाविति ।। ५१ ।। 

उन दोनों पुत्र और पुत्रीको देखकर पुत्रकी इच्छा रखनेवाली राजा पृषतकी पुत्रवधू 
महर्षि याजकी शरणमें गयी और बोली--“भगवन्‌! आप ऐसी कृपा करें, जिससे ये दोनों 
बच्चे मेरे सिवा और किसीको अपनी माता न समझें ।। ५१ ।। 

तथेत्युवाच तं याजो राज्ञ: प्रियचिकीर्षया । 

तयोश्व नामनी चक्रुर्द्धिजा: सम्पूर्णमानसा: ।। ५२ |। 

तब राजाका प्रिय करनेकी इच्छासे याजने कहा--'ऐसा ही होगा।/ उस समय सम्पूर्ण 
द्विजोंने सफल-मनोरथ होकर उन बालकोंके नामकरण किये ।। ५२ ।। 


धृष्टत्वादत्यमर्षित्वाद्‌ झुम्नादुत्सम्भवादपि | 

धृष्टद्युम्न: कुमारो<यं द्रुपदस्य भवत्विति ।। ५३ ।। 

यह द्रुपदकुमार धृष्ट, अमर्षशील तथा द्युम्न (तेजोमय कवच-कुण्डल एवं क्षात्रतेज) 
आदिके साथ उत्पन्न होनेके कारण *धृष्टद्युम्न' नामसे प्रसिद्ध होगा ।। ५३ ।। 

कृष्णेत्येवाब्रुवन्‌ कृष्णां कृष्णाभूत्‌ सा हि वर्णत: । 

तथा तन्मिथुनं जज्ञे द्रपदस्य महामखे ।। ५४ ।। 

तत्पश्चात्‌ उन्होंने कुमारीका नाम कृष्णा रखा; क्‍योंकि वह शरीरसे कृष्ण (श्याम) 
वर्णकी थी। इस प्रकार ट्रपदके महान्‌ यजञ्ञमें वे जुड़वीं संतानें उत्पन्न हुईं || ५४ ।। 

धृष्टद्युम्न॑ तु पाउ्चाल्यमानीय स्वं निवेशनम्‌ । 

उपाकरोदस्त्रहेतोर्भारद्वाज: प्रतापवान्‌ ।। ५५ || 

अमोक्षणीयं दैवं हि भावि मत्वा महामति: । 

तथा तत्‌ कृतवान्‌ द्रोण आत्मकीर्त्यनुरक्षणात्‌ ।। ५६ ।। 

परम बुद्धिमान प्रतापी भरद्वाजनन्दन द्रोण यह सोचकर कि प्रारब्धके भावी विधानको 
टालना असम्भव है, पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्मको अपने घर ले आये और उन्होंने उसे 
अस्त्र-विद्याकी शिक्षा देकर उसका बहुत बड़ा उपकार किया। द्रोणाचार्यने अपनी कीर्तिकी 
रक्षाके लिये वह उदारतापूर्ण कार्य किया | ५५-५६ ।। 

(ब्राह्मण उवाच 

श्रुत्वा जतुगृहे वृत्तं ब्राह्मणा: सपुरोहिता: । 

पाज्चालराजं द्रुपदमिदं वचनमन्रुवन्‌ ।। 

धार्तराष्ट्रा: सहामात्या मन्त्रयित्वा परस्परम्‌ । 

पाण्डवानां विनाशाय मतिं चक्कुः सुदुष्कराम्‌ ।। 

दुर्योधनेन प्रहित:ः पुरोचन इति श्रुत: । 

वारणावतमासाद्य कृत्वा जतुगृहं महत्‌ ।। 

तस्मिन्‌ गृहे सुविश्वस्तान्‌ पाण्डवान्‌ पृथया सह । 

अर्धरात्रे महाराज दग्धवान्‌ स पुरोचन: ।। 

अग्निना तु स्वयमपि दग्धः क्षुद्रो नृशंसकृत्‌ 

एतच्छुत्वा सुसंहृष्टो धृतराष्ट्र: सबान्धव: ।। 

श्रुत्वा तु पाण्डवान्‌ दग्धान्‌ धृतराष्ट्रोडम्बिकासुत: । 

एतावदुक्त्वा करुणं धृतराष्ट्रस्तु मारिष: ।। 

अल्पशोक: प्रह्ृष्टात्मा शशास विदुरं तदा | 

पाण्डवानां महाप्राज्ञ कुरु पिण्डोदकक्रियाम्‌ ।। 

अद्य पाण्डु्हत: क्षत्त: पाण्डवानां विनाशने । 


तस्माद्‌ भागीरथीं गत्वा कुरु पिण्डोदकक्रियाम्‌ ।। 

अहो विधिवशादेव गतास्ते यमसादनम्‌ । 

इत्युक्त्वा प्रारुदत्‌ तत्र धृतराष्ट्र: ससौबल: ।। 

श्रुत्वा भीष्मेण विधिवत्‌ कृतवानौर्ध्वदेहिकम्‌ । 

पाण्डवानां विनाशाय कृतं कर्म दुरात्मना ।। 

एतत्कार्यस्य कर्ता तु न दृष्टो श्रुत: पुरा । 

एतद्‌ वृत्तं महाराज पाण्डवान्‌ प्रति नः श्रुतम्‌ ।। 

श्रुत्वा तु वचन तेषां यज्ञसेनो महामति: । 

यथा तज्जनक: शोचेदौरसस्य विनाशने । 

तथातप्यत पाञ्चाल: पाण्डवानां विनाशने ।। 

समाहूय प्रकृतयः सहिता: सह बान्धवै: । 

कारुण्यादेव पाज्चाल: प्रोवाचेदं वचस्तदा ।। 

आगन्तुक ब्राह्मण कहता है--लाक्षागृहमें पाण्डवोंके साथ जो घटना घटित हुई थी, 
उसे सुनकर ब्राह्मणों तथा पुरोहितोंने पांचालराज द्रुपदसे इस प्रकार कहा--“राजन्‌! 
धृतराष्ट्रके पुत्रोंने अपने मन्त्रियोंक साथ परस्पर सलाह करके पाण्डवोंके विनाशका विचार 
कर लिया था। ऐसा क्रूरतापूर्ण विचार दूसरोंके लिये अत्यन्त कठिन है। दुर्योधनके भेजे हुए 
उसके पुरोचन नामक सेवकने वारणावत नगरमें जाकर एक विशाल लाक्षागृहका निर्माण 
कराया था। उस भवनमें पाण्डव अपनी माता कुन्तीके साथ पूर्ण विश्वस्त होकर रहते थे। 
महाराज! एक दिन आधी रातके समय पुरोचनने लाक्षागृहमें आग लगा दी। वह नीच और 
नृशंस पुरोचन स्वयं भी उसी आगमें जलकर भस्म हो गया। यह समाचार सुनकर कि 
'पाण्डव जल गये” अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्रको अपने भाई-बन्धुओंके साथ बड़ा हर्ष हुआ। 
धृतराष्ट्रकी आत्मा हर्षसे खिल उठी थी, तो भी ऊपरसे कुछ शोकका प्रदर्शन करते हुए 
उन्होंने विदुरजीसे बड़ी करुण भाषामें यह वृत्तान्त बताया और उन्हें आज्ञा दी कि “महामते! 
पाण्डवोंका श्राद्ध और तर्पण करो। विदुर! पाण्डवोंके मरनेसे मुझे ऐसा दुःख हुआ है मानो 
मेरे भाई पाण्डु आज ही स्वर्गवासी हुए हों। अतः गंगाजीके तटपर चलकर उनके लिये श्राद्ध 
और तर्पणकी व्यवस्था करो। अहो! भाग्यवश ही बेचारे पाण्डव यमलोकको चले गये।' यों 
कहकर धृतराष्ट्र और शकुनि फ़ूट-फ़ूटकर रोने लगे। भीष्मजीने यह समाचार सुनकर उनका 
विधिपूर्वक और्ध्वदैहिक संस्कार सम्पन्न किया है। इस प्रकार दुरात्मा दुर्योधनने पाण्डवोंके 
विनाशके लिये यह भयंकर षड़्यन्त्र किया था। आजसे पहले हमने किसीको ऐसा नहीं 
देखा या सुना था जो इस तरहका जघन्य कार्य कर सके। महाराज! पाण्डवोंके सम्बन्धमें 
यह वृत्तान्त हमारे सुननेमें आया है।' 

ब्राह्मण और पुरोहितका यह वचन सुनकर परम बुद्धिमान्‌ राजा ट्रुपद शोकमें डूब गये। 
जैसे अपने सगे पुत्रकी मृत्यु होनेपर उसके पिताको शोक होता है उसी प्रकार पाण्डवोंके 


नष्ट होनेका समाचार सुनकर पांचालराजको पीड़ा हुई। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओंके साथ 
समस्त प्रजाको बुलवाया और बड़ी करुणासे यह बात कही। 
हुपद उवाच 

अहो रूपमहो धैर्यमहो वीर्य च शिक्षितम्‌ | 

चिन्तयामि दिवारात्रमर्जुनं प्रति बान्धवा: ।। 

भ्रातृभि: सहितो मात्रा सो5दहृत हुताशने । 

किमाश्चर्यमिदं लोके कालो हि दुरतिक्रम: ।। 

मिथ्याप्रतिज्ञो लोकेषु कि वदिष्यामि साम्प्रतम्‌ । 

अन्तर्गतेन दुःखेन दहामानो दिवानिशम्‌ । 

याजोपयाजोौ सत्कृत्य याचितौ तौ मयानघौ ।। 

भारद्वाजस्य हन्तारं देवीं चाप्यर्जुनस्य वै । 

लोकस्तद्‌ वेद यच्चैव तथा याजेन वै श्रुतम्‌ ।। 

याजेन पुत्रकामीयं हुत्वा चोत्पादितावुभौ । 

धृष्टय्युम्नश्व॒ कृष्णा च मम तुष्टिकरावुभौ ।। 

कि करिष्यामि ते नष्टा: पाण्डवा: पृथया सह । 

द्रपद बोले--बन्धुओ! अर्जुनका रूप अद्भुत था। उनका धैर्य आश्चर्यजनक था। उनका 
पराक्रम और उनकी अस्त्र-शिक्षा भी अलौकिक थी। मैं दिन-रात अर्जुनकी ही चिन्तामें डूबा 
रहता हूँ। हाय! वे अपने भाइयों और माताके साथ आगमें जल गये। संसारमें इससे बढ़कर 
आश्चर्यकी बात और क्या हो सकती है? सच है, कालका उल्लंघन करना अत्यन्त कठिन है। 
मेरी तो प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। अब मैं लोगोंसे क्या कहूँगा। आन्तरिक दुःखसे दिन-रात दग्ध 
होता रहता हूँ। मैंने निष्पयाप याज और उपयाजका सत्कार करके उनसे दो संतानोंकी 
याचना की थी। एक तो ऐसा पुत्र माँगा, जो द्रोणाचार्यका वध कर सके और दूसरी ऐसी 
कन्याके लिये प्रार्थना की, जो वीर अर्जुनकी पटरानी बन सके। मेरे इस उद्देश्यको सब लोग 
जानते हैं और महर्षि याजने भी यही घोषित किया था। उन्होंने पुत्रेष्टियज्ञ करके धुृष्टद्युम्न 
और कृष्णाको उत्पन्न किया था। इन दोनों संतानोंको पाकर मुझे बड़ा संतोष हुआ। अब 
क्या करूँ? कुन्तीसहित पाण्डव तो नष्ट हो गये। 

ब्राह्मण उवाच 

इत्येवमुक्त्वा पाउचाल: शुशोच परमातुर: ।। 

दृष्टवा शोचन्तमत्यर्थ पाञज्चालगुरुरब्रवीत्‌ । 

पुरोधा: सत्त्वसम्पन्न: सम्यग्‌विद्याशेषवान्‌ ।। 

आगन्तुक ब्राह्मण कहता है--ऐसा कहकर पांचालराज ट्रुपद अत्यन्त दुःखी एवं 
शोकातुर हो गये। पांचालराजके गुरु बड़े सात््विक और विशिष्ट विद्वान्‌ थे। उन्होंने राजाको 


भारी शोकमें डूबा देखकर कहा। 
गुरुर्वाच 


वृद्धानुशासने सक्ता: पाण्डवा धर्मचारिण: । 

तादृशा न विनश्यन्ति नैव यान्ति पराभवम्‌ ।। 

मया दृष्टमिदं सत्यं शृणुष्व मनुजाधिप । 

ब्राह्मणै: कथितं सत्यं वेदेषु च मया श्रुतम्‌ ।। 

बृहस्पतिमुखेनाथ पौलोम्या च पुरा श्रुतम्‌ । 

नष्ट इन्द्रो बिसग्रन्थ्यामुपश्रुत्या तु दर्शितः ।। 

उपश्रुतिर्महाराज पाण्डवार्थ मया श्रुता । 

यत्र वा तत्र जीवन्ति पाण्डवास्ते न संशय: ।। 

गुरु बोले--महाराज! पाण्डवलोग बड़े-बूढ़ोंके आज्ञापालनमें तत्पर रहनेवाले तथा 
धर्मात्मा हैं। ऐसे लोग न तो नष्ट होते हैं और न पराजित ही होते हैं। नरेश्वर! मैंने जिस 
सत्यका साक्षात्कार किया है, वह सुनिये। ब्राह्मणोंने तो इस सत्यका प्रतिपादन किया ही है, 
वेदके मन्त्रोंमें भी मैंने इसका श्रवण किया है। पूर्वकालमें इन्द्राणीने बृहस्पतिजीके मुखसे 
उपश्रुतिकी महिमा सुनी थी। उत्तरायणकी अधिष्ठात्री देवी उपश्रुतिने ही अदृष्ट हुए इन्द्रका 
कमलनालकी ग्रन्थिमें दर्शन कराया था। महाराज! इसी प्रकार मैंने भी पाण्डवोंके विषयमें 
उपश्रुति सुन रखी है। वे पाण्डव कहीं-न-कहीं अवश्य जीवित हैं, इसमें संशय नहीं है। 

मया दृष्टानि लिड्डनि ध्रुवमेष्यन्ति पाण्डवा: । 

यन्निमित्तमिहायान्ति तच्छृणुष्व नराधिप ।। 

स्वयंवर: क्षत्रियाणां कन्यादाने प्रदर्शित: । 

स्वयंवरस्तु नगरे घुष्यतां राजसत्तम ।। 

यत्र वा निवसन्तस्ते पाण्डवा: पृथया सह । 

दूरस्था वा समीपस्था: स्वर्गस्था वापि पाण्डवा: ।। 

श्रुत्वा स्वयंवरं राजन्‌ समेष्यन्ति न संशय: । 

तस्मात्‌ स्वयंवरो राजन्‌ घुष्यतां मा चिरं कृथा: ।। 

मैंने ऐसे (शुभ) चिह्न देखे हैं, जिनसे सूचित होता है कि पाण्डव यहाँ अवश्य पधारेंगे। 
नरेश्वर! वे जिस निमित्तसे यहाँ आ सकते हैं, वह सुनिये--क्षत्रियोंके लिये कन्यादानका श्रेष्ठ 
मार्ग स्वयंवर बताया गया है। नृपश्रेष्ठत आप सम्पूर्ण नगरमें स्वयंवरकी घोषणा करा दें। फिर 
पाण्डव अपनी माता कुन्तीके साथ दूर हों, निकट हों अथवा स्वर्गमें ही क्यों न हों--जहाँ 
कहीं भी होंगे, स्वयंवरका समाचार सुनकर यहाँ अवश्य आयेंगे, इसमें संशय नहीं है। अतः 
राजन! आप (सर्वत्र) स्वयंवरकी सूवना करा दें, इसमें विलम्ब न करें। 

ब्राह्मण उवाच 


श्रुत्वा पुरोहितेनोक्तं पाउ्चाल: प्रीतिमांस्तदा । 

घोषयामास नगरे द्रौपद्यास्तु स्वयंवरम्‌ ।। 

पुष्यमासे तु रोहिण्यां शुक्लपक्षे शुभे तिथौ । 

दिवसै: पञ्चसप्तत्या भविष्यति स्वयंवर: ।। 

देवगन्धर्वयक्षाक्ष ऋषयश्न॒ तपोधना: । 

स्वयंवरं द्रष्टकामा गच्छन्त्येव न संशय: ।। 

तव पुत्रा महात्मानो दर्शनीया विशेषत: । 

यदृच्छया तु पाउ्चाली गच्छेद्‌ वा मध्यमं पतिम्‌ ।। 

को हि जानाति लोकेषु प्रजापतिविधिं परम्‌ । 

तस्मात्‌ सपुत्रा गच्छेथा ब्राह्माण्यै यदि रोचते ।। 

नित्यकालं सुभिक्षास्ते पज्चालास्तु तपोधने ।। 

यज्ञसेनस्तु राजासौ ब्रह्मण्य: सत्यसड्रर: । 

ब्रह्मण्या नागराश्षाथ ब्राह्मणाश्चातिथिप्रिया: ।। 

नित्यकालं प्रदास्यन्ति आमन्त्रणमयाचितम्‌ ।। 

अहं च तत्र गच्छामि ममैभि: सह शिष्यकै: । 

एक्सार्था: प्रयाता: स्मो ब्राद्माण्यै यदि रोचते ।। 

आगन्तुक ब्राह्मण कहता है--पुरोहितकी बात सुनकर पंचालराजको बड़ी प्रसन्नता 
हुई। उन्होंने नगरमें द्रौपदीका स्वयंवर घोषित करा दिया। पौषमासके शुक्लपक्षमें शुभ तिथि 
(एकादशी)-को रोहिणी नक्षत्रमें वह स्वयंवर होगा, जिसके लिये आजसे पचहत्तर दिन शेष 
हैं। ब्राह्मणी (कुन्ती)! देवता, गन्धर्व, यक्ष और तपस्वी ऋषि भी स्वयंवर देखनेके लिये 
अवश्य जाते हैं। तुम्हारे सभी महात्मा पुत्र देखनेमें परम सुन्दर हैं। पंचालराजपुत्री कृष्णा 
इनमेंसे किसीको अपनी इच्छासे पति चुन सकती है अथवा तुम्हारे मँझले पुत्रको अपना 
पति बना सकती है। संसारमें विधाताके उत्तम विधानको कौन जान सकता है? अतः यदि 
मेरी बात तुम्हें अच्छी लगे, तो तुम अपने पुत्रोंके साथ पंचालदेशमें अवश्य जाओ। तपोधने! 
पंचालदेशमें सदा सुभिक्ष रहता है। राजा यज्ञसेन सत्यप्रतिज्ञ होनेके साथ ही ब्राह्मणोंके 
भक्त हैं। वहाँके नागरिक भी ब्राह्मणोंके प्रति श्रद्धा-भक्ति रखनेवाले हैं। उस नगरके ब्राह्मण 
भी अतिथियोंके बड़े प्रेमी हैं। वे प्रतिदिन बिना माँगे ही न्यौता देंगे। मैं भी अपने इन 
शिष्योंके साथ वहीं जाता हूँ। ब्राह्मणी! यदि ठीक जान पड़े तो चलो। हम सब लोग एक 
साथ ही वहाँ चले चलेंगे। 

वैशम्पायन उवाच 
एतावदुक्त्वा वचन ब्राह्मणो विरराम ह ।) 
वैशम्पायनजी कहते हैं--इतना कहकर वे ब्राह्मण चुप हो गये। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि द्रौपदीसम्भवे 
षट्षष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें द्रौपदीप्रादु्भावविषयक एक सौ 
छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६६ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३८ श्लोक मिलाकर कुल ९४ श्लोक हैं) 


सप्तषष्ट्यधिेकशततमोड<ध्याय: 
कुन्तीकी अपने पुत्रोंसे पूछकर पंचालदेशमें जानेकी तैयारी 


वैशम्पायन उवाच 


एतच्छुत्वा तु कौन्तेया ब्राह्मणात्‌ संशितव्रतात्‌ । 

सर्वे चास्वस्थमनसो बभूवुस्ते महाबला: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कठोर व्रत-वाले उस ब्राह्मणसे यह सुनकर उन 
सब महाबली कुन्तीपुत्रोंका मन विचलित हो गया ।। १ ।। 

ततः कुन्ती सुतान्‌ दृष्टवा सर्वास्तद्गतचेतस: । 

युधिष्िरमुवाचेदं वचनं सत्यवादिनी ॥। २ ।। 

तब सत्यवादिनी कुन्तीने अपने सभी पुत्रोंका मन उस स्वयंवरकी ओर आकृष्ट देख 
युधिष्ठिसे इस प्रकार कहा ।। २ ।। 


कुन्त्युवाच 

चिररात्रोषिता: स्मेह ब्राह्मणस्य निवेशने । 

रममाणा: पुरे रम्ये लब्धभैक्षा महात्मन: ।। ३ ।। 

कुन्ती बोली--बेटा! हमलोग यहाँ इन महात्मा ब्राह्मणके घरमें बहुत दिनोंसे रह रहे 
हैं। इस रमणीय नगरमें हम आनन्दपूर्वक घूमे-फिरे और यहाँ हमें (पर्याप्त) भिक्षा भी 
उपलब्ध हुई ।। ३ ।। 

यानीह रमणीयानि वनान्युपवनानि च । 

सर्वाणि तानि दृष्टानि पुन: पुनररिंदम ।। ४ ।। 

शत्रुदमन! यहाँ जो रमणीय वन और उपवन हैं, उन सबको हमने बार-बार देख 
लिया ।। ४ ।। 

पुनर्द्र्ठैं हि तानीह प्रीणयन्ति न नस्तथा । 

भैक्षंच न तथा वीर लभ्यते कुरुनन्दन ।। ५ ।। 

वीर! यदि उन्हींको हम फिर देखनेके लिये जाये तो वे हमें उतनी प्रसन्नता नहीं दे 
सकते। कुरुनन्दन! अब भिक्षा भी यहाँ हमें पहले-जैसी नहीं मिल रही है ।। ५ ।। 

ते वयं साधु पञठ्चालान्‌ गच्छाम यदि मन्यसे । 

अपूर्वदर्शनं वीर रमणीयं भविष्यति ॥। ६ ।। 

यदि तुम्हारी राय हो तो अब हमलोग सुखपूर्वक पंचालदेशमें चलें। वीर! उस देशको 
हमने पहले कभी नहीं देखा है, इसलिये वह बड़ा रमणीय प्रतीत होगा ।। ६ ।। 

सुभिक्षाश्वैव पञज्चाला: श्रूयन्ते शत्रुकर्शन । 


यज्ञसेनश्व राजासौ ब्रह्माण्य इति शुश्रुम ।। ७ ।। 
शत्रुनाशन! सुना जाता है, पंचालदेशमें बड़ा सुकाल है (इसलिये भिक्षा बहुतायतसे 
मिलती है)। हमने यह भी सुना है कि राजा यज्ञसेन ब्राह्मणोंके बड़े भक्त हैं || ७ ।। 
एकत्र चिरवासश्ष क्षमो न च मतो मम । 
ते तत्र साधु गच्छामो यदि त्वं पुत्र मन्‍्यसे ।। ८ ।। 
बेटा! एक स्थानपर बहुत दिनोंतक रहना मुझे उचित नहीं जान पड़ता; अतः यदि तुम 
ठीक समझो तो हमलोग सुखपूर्वक वहाँ चलें || ८ ।। 
युधिषछ्िर उवाच 
भवत्या यन्मतं कार्य तदस्माकं परं हितम्‌ । 
अनुजांस्तु न जानामि गच्छेयुनेति वा पुन: ।। ९ ।। 
युधिष्ठिरने कहा--माँ! आप जिस कार्यको ठीक समझती हैं, वह हमारे लिये परम 
हितकर है; परंतु अपने छोटे भाइयोंके सम्बन्धमें मैं नहीं जानता कि वे जानेके लिये उद्यत हैं 
या नहीं ।। ९ ।। 
वैशम्पायन उवाच 


ततः कुन्ती भीमसेनमर्जुनं यमजौ तथा । 

उवाच गमन ते च तथेत्येवाब्रुवंस्तदा ।। १० ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब कुन्तीने भीमसेन, अर्जुन, नकुल और 
सहदेवसे भी चलनेके विषयमें पूछा। उन सबने भी “तथास्तु” कहकर स्वीकृति दे 
दी ।। १० || 

तत आमन्त्र्य तं विप्र॑ं कुन्ती राजन्‌ सुतैः सह । 

प्रतस्थे नगरीं रम्यां ट्रपदस्य महात्मन: ।। ११ ।। 

राजन्‌! तब कुन्तीने उन ब्राह्मणदेवतासे विदा लेकर अपने पुत्रोंके साथ महात्मा 
द्रपदकी रमणीय नगरीकी ओर जानेकी तैयारी की || ११ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि पञ्चालदेशयात्रायां 
सप्तषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६७ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें पंचालदेशकी यात्राविषयक एक 
सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६७ ॥ 


ऑपन-माज बक। डे 


अष्ट षष्ट्यांधिकशततमोब& ध्याय: 


व्यासजीका पाण्डवोंको द्रौपदीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त 
सुनाना 


वैशम्पायन उवाच 

वसत्सु तेषु प्रच्छन्न॑ पाण्डवेषु महात्मसु । 

आजगामाथ तानू द्र॒ष्ट व्यास: सत्यवतीसुत: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! महात्मा पाण्डव जब गुप्तरूपसे वहाँ निवास 
कर रहे थे, उसी समय सत्यवतीनन्दन व्यासजी उनसे मिलनेके लिये वहाँ आये ।। १ ।। 

तमागतमभिप्रेक्ष्य प्रत्युदूगम्य परंतपा: । 

प्रणिपत्याभिवाद्यैनं तस्थु: प्राउचलयस्तदा ।। २ ।। 

समनुज्ञाप्य तान्‌ सर्वानासीनान्‌ मुनिरब्रवीत्‌ । 

प्रच्छन्न॑ पूजित: पार्थ: प्रीतिपूर्वमिदं वच: ।॥ ३ ।। 

उन्हें आया देख शत्रुसंतापन पाण्डवोंने आगे बढ़कर उनकी अगवानी की और 
प्रणामपूर्वक उनका अभिवादन करके वे सब उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये। 
कुन्तीपुत्रोंद्वारा गुप्तरूपसे पूजित हो मुनिवर व्यासने उन सबको आज्ञा देकर बिठाया और 
जब वे बैठ गये, तब उनसे प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार पूछा-- ।। २-३ ।। 





अपि धर्मेण वर्तेध्वं शास्त्रेण च परंतपा: । 

अपि विप्रेषु पूजा वः पूजार्हेषु न हीयते ।। ४ ।। 

'शत्रुओंको संतप्त करनेवाले वीरो! तुमलोग शास्त्रकी आज्ञा और धर्मके अनुसार चलते 
हो न? पूजनीय ब्राह्मणोंकी पूजा करनेमें तो तुम्हारी ओरसे कभी भूल नहीं होती?' ।। ४ ।। 

अथ धर्मार्थवद्‌ वाक्‍्यमुक्त्वा स भगवानृषि: । 

विचित्राश्न कथास्तास्ता: पुनरेवेदमब्रवीत्‌ ।। ५ ।। 

तदनन्तर महर्षि भगवान्‌ व्यासने उनसे धर्म और अर्थयुक्त बातें कहीं। फिर विचित्र- 
विचित्र कथाएँ सुनाकर वे पुनः उनसे इस प्रकार बोले ।। ५ ।। 


व्यास उवाच 


आसीत्‌ तपोवने काचिदृषे: कन्या महात्मन: । 

विलग्नमध्या सुश्रोणी सुभ्रू: सर्वगुणान्विता ।। ६ ।। 

व्यासजीने कहा--पहलेकी बात है, तपोवनमें किसी महात्मा ऋषिकी कोई कन्या 
रहती थी, जिसकी कटि कृश तथा नितम्ब और भौंहें सुन्दर थीं। वह कन्या समस्त 
सदगुणोंसे सम्पन्न थी ।। ६ |। 

कर्मभि: स्वकृतै: सा तु दुर्भगा समपद्यत । 

नाध्यगच्छत्‌ पतिं सा तु कन्या रूपवती सती ।। ७ ।। 


परंतु अपने ही किये हुए कर्मोंके कारण वह कन्या दुर्भाग्यके वश हो गयी, इसलिये वह 
रूपवती और सदाचारिणी होनेपर भी कोई पति न पा सकी || ७ ।। 

ततस्तप्तुमथारेभे पत्यर्थमसुखा ततः । 

तोषयामास तपसा सा किलोग्रेण शंकरम्‌ ॥। ८ ।। 

तब पतिके लिये दुःखी होकर उसने तपस्या प्रारम्भ की और कहते हैं उग्र तपस्याके 
द्वारा उसने भगवान्‌ शंकरको प्रसन्न कर लिया ।। ८ ।। 

तस्या: स भगवांस्तुष्टस्तामुवाच यशस्विनीम्‌ । 

वरं वरय भद्रें ते वरदो5स्मीति शड्कर: ।। ९ |। 

उसपर संतुष्ट हो भगवान्‌ शंकरने उस यशस्विनी कन्यासे कहा--'शुभे! तुम्हारा 
कल्याण हो। तुम कोई वर माँगो। मैं तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ" ।। ९ ।। 

अथेश्वरमुवाचेदमात्मन: सा वचो हितम्‌ । 

पतिं सर्वगुणोपेतमिच्छामीति पुनः पुनः ।। १० ।। 

तब उसने भगवान्‌ शंकरसे अपने लिये हितकर वचन कहा--'प्रभो! मैं सर्वगुणसम्पन्न 
पति चाहती हूँ।” इस वाक्यको उसने बार-बार दुहराया ।। १० ।। 

तामथ प्रत्युवाचेदमीशानो वदतां वर: । 

पज्च ते पतयो भद्रे भविष्यन्तीति भारता: ।। ११ ।। 

तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ शिवने उससे कहा--“भद्रे! तुम्हारे पाँच भरतवंशी पति 
होंगे! || ११ ।। 

एवमुक्ता ततः कन्या देवं वरदमब्रवीत्‌ । 

एकमिच्छाम्यहं देव त्वत्प्रसादात्‌ पतिं प्रभो ।। १२ ।। 

उनके ऐसा कहनेपर वह कन्या उन वरदायक देवता भगवान्‌ शिवसे इस प्रकार बोली 
-- देव! प्रभो! मैं आपकी कृपासे एक ही पति चाहती हूँ ।। १२ ।। 

पुनरेवाब्रवीद्‌ देव इदं वचनमुत्तमम्‌ 

पज्चकृत्वस्त्वया हाक्तः पतिं देहीत्यहं पुनः ।। १३ ।। 

तब भगवानने पुनः उससे यह उत्तम बात कही--“भद्रे! तुमने मुझसे पाँच बार कहा है 
कि मुझे पति दीजिये ।। १३ ।। 

देहमन्यं गतायास्ते यथोक्तं तद्‌ भविष्यति । 

द्रुपदस्य कुले जज्ञे सा कन्या देवरूपिणी ।। १४ ।। 

“अतः दूसरा शरीर धारण करनेपर तुम्हें जैसा मैंने कहा है, वह वरदान प्राप्त होगा।' 
वही देवरूपिणी कन्या राजा ट्रुपदके कुलमें उत्पन्न हुई है ।। १४ ।। 

निर्दिष्टा भवतां पत्नी कृष्णा पार्षत्यनिन्दिता । 

पाञउ्चालनगरे तस्मान्निवसध्व॑ महाबला: । 

सुखिनस्तामनुप्राप्य भविष्यथ न संशय: ।। १५ ।। 


वह महाराज पृषतकी पौत्री सती-साध्वी कृष्णा तुमलोगोंकी पत्नी नियत की गयी है; 
अतः महाबली वीरो! अब तुम पंचालनगरमें जाकर रहो। द्रौपदीको पाकर तुम सब लोग 
सुखी होओगे, इसमें संशय नहीं है || १५ ।। 

एवमुक्‍्त्वा महाभाग: पाण्डवान्‌ स पितामह: । 

पार्थानामन्त्र्य कुन्तीं च प्रातिष्ठत महातपा: ।। १६ ।। 

महान्‌ सौभाग्यशाली और महातपस्वी पितामह व्यासजी पाण्डवोंसे ऐसा कहकर उन 
सबसे और कुन्तीसे विदा ले वहाँसे चल दिये || १६ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि द्रौपदीजन्मान्तरकथने 
अष्टषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १६८ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरवव॑के अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें द्रौपदीजन्मान्तरकथनविषयक 
एक सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६८ ॥। 


ऑपनआक्रात बछ। अर: अ2 


एकोनसप्तत्याधिकशततमो< ध्याय: 


पाण्डवोंकी पंचाल-यात्रा और अर्जुनके द्वारा चित्ररथ 
गन्धर्वकी पराजय एवं उन दोनोंकी मित्रता 


वैशम्पायन उवाच 


गते भगवति व्यासे पाण्डवा हृष्टमानसा: । 

ते प्रतस्थु: पुरस्कृत्य मातरं पुरुषर्षभा: ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भगवान्‌ व्यासके चले जानेपर पुरुषश्रेष्ठ पाण्डव 
प्रसन्नचित्त हो अपनी माताको आगे करके वहाँसे पंचालदेशकी ओर चल दिये ।। १ ।। 

आमन्त्य ब्राह्मा्ं पूर्वमभिवाद्यानुमान्य च । 

समैरुदड्मुखैर्मार्गर्यथोद्दिष्टं परंतपा: ।। २ ।। 

परंतप! कुन्तीकुमारोंने पहले ही अपने आश्रयदाता ब्राह्मणसे पूछकर जानेकी आज्ञा ले 
ली थी और चलते समय बड़े आदरके साथ उन्हें प्रणाम किया। वे सब लोग उत्तर दिशाकी 
ओर जानेवाले सीधे मार्गोॉद्वारा उत्तराभिमुख हो अपने अभीष्ट स्थान पंचालदेशकी ओर 
बढ़ने लगे |। २ ।। 

ते त्वगच्छन्नहोरात्रात्‌ तीर्थ सोमाश्रयायणम्‌ | 

आसेदु: पुरुषव्यात्रा गज्ञायां पाण्डुनन्दना: ।। ३ ।। 

एक दिन और एक रात चलकर वे नरश्रेष्ठ पाण्डव गंगाजीके तटपर सोमाश्रयायण 
नामक तीर्थमें जा पहुँचे ।। ३ ।। 

उल्मुकं तु समुद्यम्य तेषामग्रे धनंजय: । 

प्रकाशार्थ ययौ तत्र रक्षार्थ च महारथ: ।। ४ ।। 

उस समय उनके आगे-आगे महारथी अर्जुन उजाला तथा रक्षा करनेके लिये जलती 
हुई मशाल उठाये चल रहे थे ।। ४ ।। 

तत्र गज्भाजले रम्ये विविक्ते क्रीडयन्‌ स्त्रिय: । 

ईर्ष्युर्गन्धर्वराजो वै जलक्रीडामुपागत: ।। ५ ।। 

उस तीर्थकी गंगाके रमणीय तथा एकान्त जलमें गन्धर्वराज अंगारपर्ण (चित्ररथ) 
अपनी स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा कर रहा था। वह बड़ा ही ईर्ष्यालु था और जलक्रीड़ा करनेके 
लिये ही वहाँ आया था ।। ५ ।। 

शब्दं तेषां स शुश्राव नदीं समुपसर्पताम्‌ । 

तेन शब्देन चाविष्ट श्रुक्रोध बलवद्‌ बली ।। ६ ।। 


उसने गंगाजीकी ओर बढ़ते हुए पाण्डवोंके पैरोंकी धमक सुनी। उस शब्दको सुनते ही 
वह बलवान गन्धर्व क्रोधके आवेशमें आकर बड़े जोरसे कुपित हो उठा ।। ६ ।। 

स दृष्टवा पाण्डवांस्तत्र सह मात्रा परंतपान्‌ | 

विस्फारयन्‌ धनुर्घोरमिदं वचनमब्रवीत्‌ ।। ७ ।। 

परंतप पाण्डवोंको अपनी माताके साथ वहाँ देख वह अपने भयानक धनुषको 
टंकारता हुआ इस प्रकार बोला-- || ७ ।। 

संध्या संरज्यते घोरा पूर्वरात्रागमेषु या । 

अशीतिभिललवैहींन तन्मुहुर्त प्रचक्षते || ८ ।। 

विहितं कामचाराणां यक्षगन्धर्वरक्षसाम्‌ । 

शेषमन्यन्मनुष्याणां कर्मचारेषु वै स्मृतम्‌ । ९ ।। 

“रात्रि प्रारम्भ होनेके पहले जो पश्चिम दिशामें भयंकर संध्याकी लाली छा जाती है, उस 
समय अस्सी लवको छोड़कर सारा मुहूर्त इच्छानुसार विचरनेवाले यक्षों, गन्धर्वों तथा 
राक्षसोंके लिये निश्चित बताया जाता है। शेष दिनका सब समय मनुष्योंके कार्यवश 
विचरनेके लिये माना गया है || ८-९ ।। 

लोभात्‌ प्रचारं चरतस्तासु वेलासु वै नरान्‌ । 

उपक्रान्तानि गृह्नीमो राक्षसैः सह बालिशान्‌ ॥। १० ।। 

“जो मनुष्य लोभवश हमलोगोंकी वेलामें इधर घूमते हुए आ जाते हैं, उन मूर्खोंकी हम 
गन्धर्व और राक्षस कैद कर लेते हैं ।। १० ।। 

अतो रात्रौ प्राप्तुवन्तो जल॑ ब्रह्मविदो जना: । 

गर्हयन्ति नरान्‌ सर्वान्‌ बलस्थान्‌ नृपतीनपि ।। ११ ।। 

“इसीलिये वेदवेत्ता पुरुष रातके समय जलनमें प्रवेश करनेवाले सम्पूर्ण मनुष्यों और 
बलवान्‌ राजाओंकी भी निन्दा करते हैं ।। ११ ।। 

आरात्‌ तिष्ठत मा महां समीपमुपसर्पत । 

कस्मान्मां नाभिजानीत प्राप्त भागीरथीजलम्‌ ।। १२ |। 

अज्जरपर्ण गन्धर्व वित्त मां स्वबलाश्रयम्‌ । 

अहं हि मानी चेष्युश्व॒ कुबेरस्य प्रियः सखा ।। १३ ।। 

“अरे, ओ मनुष्यो! दूर ही खड़े रहो। मेरे समीप न आना। तुम्हें ज्ञात कैसे नहीं हुआ कि 
मैं गन्धर्वराज अंगारपर्ण गंगाजीके जलमें उतरा हुआ हूँ। तुमलोग मुझे (अच्छी तरह) जान 
लो, मैं अपने ही बलका भरोसा करनेवाला स्वाभिमानी, ईर्ष्यालु तथा कुबेरका प्रिय मित्र 
हूँ ।। १२-१३ ।। 

अड्जरपर्णमित्येवं ख्यातं चेदं वन॑ मम । 

अनुगड़ं चरन्‌ कामांश्रित्रं यत्र रमाम्पयहम्‌ ॥। १४ ।। 


“मेरा यह वन भी अंगारपर्ण नामसे विख्यात है। मैं गंगाजीके तटपर विचरता हुआ इस 
वनमें इच्छानुसार विचित्र क्रीड़ाएँ करता रहता हूँ ।। १४ ।। 

न कौणपा: शुज्िणो वा न देवा न च मानुषा: । 

इदं समुपसर्पन्ति तत्‌ कि समनुसर्पथ ।। १५ ।। 

“मेरी उपस्थितिमें यहाँ राक्षस, यक्ष, देवता अथवा मनुष्य--कोई भी नहीं आने पाते; 
फिर तुमलोग कैसे आ रहे हो?” ।। १५ ।। 

अजुन उवाच 

समुद्रे हिमवत्पाश्वे नद्यामस्यां च दुर्मते । 

रात्रावहनि संध्यायां कस्य गुप्त: परिग्रह: ।। १६ ।। 

अर्जुन बोले-<दुर्मते! समुद्र, हिमालयकी तराई और गंगानदीके तटपर रात, दिन 
अथवा संध्याके समय किसका अधिकार सुरक्षित है? ।। १६ ।। 

भुक्तो वाप्यथवाभुक्तो रात्रावहनि खेचर । 

न कालनियमो हास्ति गड्ढां प्राप्प सरिद्वराम्‌ ।। १७ ।। 

आकाशचारी गन्धर्व! सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाजीके तटपर आनेके लिये यह नियम नहीं है 
कि यहाँ कोई खाकर आये या बिना खाये, रातमें आये या दिनमें। इसी प्रकार काल आदिका 
भी कोई नियम नहीं है ।। १७ ।। 

वयं च शक्तिसम्पन्ना अकाले त्वामधृष्णुम । 

अशक्ता हि रणे क्रूर युष्मानर्चन्ति मानवा: ।। १८ ।। 

अरे, ओ क्रूर! हमलोग तो शक्तिसम्पन्न हैं। असमयमें भी आकर तुम्हें कुचल सकते हैं। 
जो युद्ध करनेमें असमर्थ हैं, वे दुर्बल मनुष्य ही तुमलोगोंकी पूजा करते हैं ।। १८ ।। 

पुरा हिमवतश्नैषा हेमशूज्राद्‌ विनिस्सृता | 

गड्ढा गत्वा समुद्राम्भ: सप्तथा समपद्यत ।। १९ ।। 

गड्जां च यमुनां चैव प्लक्षजातां सरस्वतीम्‌ । 

रथस्थां सरयूं चैव गोमतीं गण्डकीं तथा ।। २० ।। 

अपर्युषितपापास्ते नदी: सप्त पिबन्ति ये । 

इयं भूत्वा चैकवप्रा शुचिराकाशगा पुन: ॥। २१ ।। 

देवेषु गड्जा गन्धर्व प्राप्रोत्यलकनन्दताम्‌ | 

तथा पितृन्‌ वैतरणी दुस्तरा पापकर्मभि: । 

गड्जा भवति वै प्राप्य कृष्णद्वैपायनोडब्रवीत्‌ ॥। २२ ।। 

प्राचीन कालमें हिमालयके स्वर्णशिखरसे निकली हुई गंगा सात धाराओंमें विभक्त हो 
समुद्रमें जाकर मिल गयी हैं। जो पुरुष गंगा, यमुना, प्लक्षकी जड़से प्रकट हुई सरस्वती, 
रथस्था, सरयू, गोमती और गण्डकी--इन सात नदियोंका जल पीते हैं, उनके पाप तत्काल 


नष्ट हो जाते हैं। ये गंगा बड़ी पवित्र नदी हैं। एकमात्र आकाश ही इनका तट है। गन्धर्व! ये 
आकाशकभमार्गसे विचरती हुई गंगा देवलोकमें अलकनन्दा नाम धारण करती हैं। ये ही वैतरणी 
होकर पितृलोकमें बहती हैं। वहाँ पापियोंके लिये इनके पार जाना अत्यन्त कठिन होता है। 
इस लोकमें आकर इनका नाम गंगा होता है। यह श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीका कथन 
है || १९--२२ ।। 

असम्बाधा देवनदी स्वर्गसम्पादनी शुभा | 

कथमिच्छसि तां रोद्धुं नैष धर्म: सनातनः ।। २३ ।। 

ये कल्याणमयी देवनदी सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित एवं स्वर्गलोककी प्राप्ति 
करानेवाली हैं। तुम उन्हीं गंगाजीपर किसलिये रोक लगाना चाहते हो? यह सनातन धर्म 
नहीं है | २३ ।। 

अनिवार्यमसम्बाधं तव वाचा कथं वयम्‌ | 

न स्पृशेम यथाकामं पुण्यं भागीरथीजलम्‌ ।। २४ ।। 

जिसे कोई रोक नहीं सकता, जहाँ पहुँचनेमें कोई बाधा नहीं है, भागीरथीके उस पावन 
जलका तुम्हारे कहनेसे हम अपने इच्छानुसार स्पर्श क्‍यों न करें? ।। २४ ।। 


वैशम्पायन उवाच 


मम बा गन गला आग कार्मुकम्‌ । 
मुमोच बाणान्‌ निशि शीविषानिव ।। २५ ।। 


वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! अर्जुनकी वह बात सुनकर अंगारपर्ण क्रोधित 
हो गया और धनुष नवाकर विषैले साँपोंकी भाँति तीखे बाण छोड़ने लगा ।। २५ ।। 

उल्मुकं भ्रामयंस्तूर्ण पाण्डवश्नर्म चोत्तरम्‌ । 

व्यपोहत शरांस्तस्य स्वानिव धनंजय: ।। २६ ।। 

यह देख पाण्डुनन्दन धनंजयने तुरंत ही मशाल घुमाकर और उत्तम ढालसे रोककर 
उसके सभी बाण व्यर्थ कर दिये || २६ ।। 





अर्जुन उवाच 

बिभीषिका वै गन्धर्व नास्त्रज्ेषु प्रयुज्यते । 

अस्त्रज्ेषु प्रयुक्तेयं फेनवत्‌ प्रविलीयते ।। २७ ।। 

अर्जुनने कहा--गन्धर्व! जो अस्त्र-विद्याके विद्वान्‌ हैं, उनपर तुम्हारी यह घुड़की नहीं 
चल सकती। अस्त्र-विद्याके मर्मज्ञोंपर फैलायी हुई तुम्हारी यह माया फेनकी तरह विलीन हो 
जायगी ।। २७ ।। 

मानुषानतिगन्धर्वान्‌ सर्वान्‌ गन्धर्व लक्षये | 

तस्मादस्त्रेण दिव्येन योत्स्येडहं न तु मायया ।। २८ ।। 

गन्धर्व! मैं जानता हूँ कि सम्पूर्ण गन्धर्व मनुष्योंसे अधिक शक्तिशाली होते हैं, इसलिये 
मैं तुम्हारे साथ मायासे नहीं, दिव्यास्त्रसे युद्ध करूँगा ।। २८ ।। 

पुरास्त्रमिदमाग्नेयं प्रादात्‌ किल बृहस्पति: । 

भरद्वाजाय गन्धर्व गुरुर्मान्य: शतक्रतो: ।। २९ ।। 

गन्धर्व! यह आग्नेय अस्त्र पूर्वकालमें इन्द्रके माननीय गुरु बृहस्पतिजीने भरद्वाज 
मुनिको दिया था ।। २९ || 

भरद्वाजादग्निवेश्य अग्निवेश्याद्‌ गुरुर्मम । 

साथ्विदं महमददद्‌ द्रोणो ब्राह्मणसत्तम: || ३० ।। 


भरद्वाजसे इसे अग्निवेश्यने और अग्निवेश्यसे मेरे गुरु द्रोणाचार्यने प्राप्त किया है। फिर 

विप्रवर द्रोणाचार्यने यह उत्तम अस्त्र मुझे प्रदान किया || ३० ।। 
वैशम्पायन उवाच 

इत्युक्त्वा पाण्डव: क्रुद्धों गन्धर्वाय मुमोच ह । 

प्रदीप्तमस्त्रमाग्नेयं ददाहास्य रथं तु तत्‌ ।। ३१ ।। 

विरथं विप्लुतं तं तु स गन्धर्व महाबल: । 

अस्त्रतेज:प्रमूढं च प्रपतन्‍्तमवाड्मुखम्‌ ।। ३२ ।। 

शिरोरुहेषु जग्राह माल्यवत्सु धनंजय: । 

भ्रातृन्‌ प्रति चकर्षाथ सो<स्त्रपातादचेतसम्‌ ।। ३३ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन अर्जुनने कुपित हो 
गन्धर्वपर वह प्रज्वलित आग्नेय अस्त्र चला दिया। उस अस्त्रने गन्धर्वके रथको जलाकर 
भस्म कर दिया। वह रथहीन गन्धर्व व्याकुल हो गया और अस्त्रके तेजसे मूढ होकर नीचे 
मुँह किये गिरने लगा। महाबली अर्जुनने उसके फ़ूलकी मालाओंसे सुशोभित केश पकड़ 
लिये और घसीटकर अपने भाइयोंके पास ले आये। अस्त्रके आघातसे वह गन्धर्व अचेत हो 
गया था ।। ३१-३३ ।। 

युधिष्ठिरं तस्य भार्या प्रपेदे शरणार्थिनी । 

नाम्ना कुम्भीनसी नाम पतित्राणमभीप्सती ।। ३४ ।। 

उस गन्धर्वकी पत्नीका नाम कुम्भीनसी था। उसने अपने पतिके जीवनकी रक्षाके लिये 
महाराज युधिष्ठिरकी शरण ली ।। ३४ ।। 


गन्धर्व्युवाच 
त्रायस्व मां महाभाग पति चेम॑ विमुज्च मे । 
गन्धर्वी शरण प्राप्ता नाम्ना कुम्भीनसी प्रभो || ३५ ।। 
गन्धर्वी बोली--महाभाग! मेरी रक्षा कीजिये और मेरे इन पतिदेवको आप छोड़ 
दीजिये। प्रभो! मैं गन्धर्वपत्नी कुम्भीनसी आपकी शरणमें आयी हूँ || ३५ ।। 
युधिछिर उवाच 
युद्धे जितं यशोहीन स्त्रीनाथमपराक्रमम्‌ । 
को निहन्यादू रिपुं तात मुड्चेमं रिपुसूदन ।। ३६ ।। 
युधिष्ठिरने कहा--तात! शत्रुसूदन अर्जुन! यह गन्धर्व युद्धमें हार गया और अपना 
यश खो चुका। अब स्त्री इसकी रक्षिका बनकर आयी है। यह स्वयं कोई पराक्रम नहीं कर 
सकता। ऐसे दीन-हीन शत्रुको कौन मारता है? इसे जीवित छोड़ दो || ३६ ।। 
अजुन उवाच 


जीवितं प्रतिपद्यस्व गच्छ गन्धर्व मा शुच: । 

प्रदिशत्यभयं ते5द्य कुरुराजो युधिछिर: ।। ३७ ।। 

अर्जुन बोले--गन्धर्व! जीवन धारण करो। जाओ, अब शोक न करो। इस समय 
कुरुराज युधिष्ठिर तुम्हें अभयदान दे रहे हैं | ३७ ।। 

गन्धर्व उवाच 

जितोऊहं पूर्वक॑ नाम मुज्चाम्यड्रारपर्णताम्‌ । 

न च श्लाघे बलेनाड़ न नाम्ना जनसंसदि ।। ३८ ।। 

गन्धर्वने कहा--अर्जुन! मैं परास्त हो गया, अत: अपने पहले नाम अंगारपर्णको छोड़ 
देता हूँ। अब मैं जनसमुदायमें अपने बलकी श्लाघा नहीं करूँगा और न इस नामसे अपना 
परिचय ही दूँगा || ३८ ।। 

साध्विमं लब्धवॉल्लाभं योऊहं दिव्यास्त्रधारिणम्‌ | 

गान्धर्व्या माययेच्छामि संयोजयितुमर्जुनम्‌ ।। ३९ ।। 

(आजकी पराजयसे) मुझे सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि मैंने दिव्यास्त्रधारी 
अर्जुनको (मित्ररूपमें) प्राप्त किया है और अब मैं इन्हें गन्धर्वोकी मायासे संयुक्त करना 
चाहता हूँ ।। ३९ ।। 

अस्त्राग्निना विचित्रो<यं दग्धो मे रथ उत्तम: । 

सो हं चित्ररथो भूत्वा नाम्ना दग्धरथो5भवम्‌ ।। ४० ।। 

इनके दिव्यास्त्रकी अग्निसे मेरा यह विचित्र एवं उत्तम रथ दग्ध हो गया है। पहले मैं 
विचित्र रथके कारण “चित्ररथ” कहलाता था; परंतु अब मेरा नाम “दग्धरथ' हो 
गया ।। ४० ।। 

सम्भृता चैव विद्येयं तपसेह मया पुरा । 

निवेदयिष्ये तामद्य प्राणदाय महात्मने ।। ४१ ।। 

मैंने पूर्वकालमें यहाँ तपस्याद्वारा जो यह विद्या प्राप्त की है, उसे आज अपने प्राणदाता 
महात्मा मित्रको अर्पित करूँगा ।। ४१ |। 

संस्तम्भयित्वा तरसा जितं शरणमागतम्‌ । 

यो रिपुं योजयेत्‌ प्राण: कल्याणं कि न सो5हति ।। ४२ ।। 

जिन्होंने अपने वेगसे शत्रुकी शक्तिको कुण्ठित करके उसपर विजय पायी और फिर 
जब वह शत्रु शरणमें आ गया, तब जो उसे प्राणदान दे रहे हैं, वे किस कल्याणकी प्राप्तिके 
अधिकारी नहीं है? ।। ४२ ।। 

चाक्षुषी नाम विद्येयं यां सोमाय ददौ मनु: । 

ददौ स विश्वावसवे मम विश्वावसुर्ददी ।। ४३ ।। 


यह चाक्षुषी नामक विद्या है, जिसे मनुने सोमको दिया। सोमने विश्वावसुको दिया और 
विश्वावसुने मुझे प्रदान किया है || ४३ ।। 

सेयं कापुरुषं प्राप्ता गुरुदत्ता प्रणश्यति । 

आगमोडस्या मया प्रोक्तो वीर्य प्रतिनिबोध मे ।। ४४ ।। 

यह गुरुकी दी हुई विद्या यदि किसी कायरको मिल गयी तो नष्ट हो जाती है। (इस 
प्रकार) मैंने इसके उपदेशकी परम्पराका वर्णन किया है। अब इसका बल भी मुझसे सुन 
लीजिये ।। ४४ ।। 

यच्चक्षुषा द्रष्टमिच्छेत्‌ त्रिषु लोकेषु किंचन । 

तत्‌ पश्येद्‌ यादृशं चेच्छेत्‌ तादृशं द्रष्टमर्हति ॥। ४५ ।। 

तीनों लोकोंमें जो कोई भी वस्तु है, उसमेंसे जिस वस्तुको आँखसे देखनेकी इच्छा हो, 
उसे इस विद्याके प्रभावसे कोई भी देख सकता है और जिस रूपमें देखना चाहे, उसी रूपमें 
देख सकता है || ४५ || 

एकपादेन षण्मासान्‌ स्थितो विद्यां लभेदिमाम्‌ । 

अनुनेष्याम्यहं विद्यां स्वयं तुभ्यं ब्रतेडकृते ।। ४६ ।। 

जो एक पैरसे छ: महीनेतक खड़ा रहकर तपस्या करे, वही इस विद्याको पा सकता है। 
परंतु आपको इस व्रतका पालन या तपस्या किये बिना ही मैं स्वयं उक्त विद्याकी प्राप्ति 
कराऊँगा ।। ४६ ।। 

विद्यया हानया राजन्‌ वयं नृभ्यो विशेषिता: । 

अविशिष्टाश्न देवानामनुभावप्रदर्शिन: ।। ४७ ।। 

राजन! इस विद्याके बलसे ही हमलोग मनुष्योंसे श्रेष्ठ माने जाते हैं और देवताओंके 
तुल्य प्रभाव दिखा सकते हैं || ४७ ।। 

गन्धर्वजानामश्चानामहं पुरुषसत्तम | 

भ्रातृभ्यस्तव तुभ्यं च पृथग्दाता शतं शतम्‌ ।। ४८ ।। 

पुरुषशिरोमणे! मैं आपको और आपके भाइयोंको अलग-अलग गन्धर्वलोकके सौ-सौ 
घोड़े भेंट करता हूँ || ४८ ।। 

देवगन्धर्ववाहास्ते दिव्यवर्णा मनोजवा: । 

क्षीणाक्षीणा भवन्त्येते न हीयन्ते च रंहस: ।। ४९ ।। 

वे घोड़े देवताओं और गन्धर्वोंके वाहन हैं। उनके शरीरकी कान्ति दिव्य है। वे मनके 
समान वेगशाली और आवश्यकताके अनुसार दुबले-मोटे होते हैं; किंतु उनका वेग कभी 
कम नहीं होता ।। ४९ ।। 

पुरा कृतं महेन्द्रस्य वज् वृत्रनिबर्हणम्‌ । 

दशधा शतधा चैव तच्छीर्ण वृत्रमूर्धनि ।। ५० ।। 


पूर्वकालमें वृत्रासुरका संहार करनेके निमित्त इन्द्रके लिये जिस वज्रका निर्माण किया 
गया था, वृत्रासुरके मस्तकपर पड़ते ही उसके दस बड़े और सौ छोटे टुकड़े हो 
गये ।। ५० ।। 

ततो भागीकृतो देवैर्वज्ञभाग उपास्यते । 

लोके यशो धनं किंचित्‌ सैव वज्जतनु: स्मृता || ५१ ।। 

तबसे अनेक भागोंमें बँटे हुए उस वज्रके प्रत्येक भागकी देवतालोग उपासना करते हैं। 
लोकमें उत्कृष्ट धन और यश आदि जो कुछ भी वस्तु है, उसे वज्जका स्वरूप माना गया 
है ।। ५१ ।। 

वज्पाणित्रह्यिण: स्यात्‌ क्षत्रं वज़रथं स्मृतम्‌ । 

वैश्या वै दानवज्ाक्ष कर्मवज़ा यवीयस: ।। ५२ |। 

(अग्निमें आहुति देनेके कारण) ब्राह्मणका दाहिना हाथ वच्ञ है। क्षत्रियका रथ वज् है। 
वैश्यलोग जो दान करते हैं, वह भी वज्र है और शूद्रलोग जो सेवाकार्य करते हैं, उसे भी वज्र 
ही समझना चाहिये || ५२ ।। 

क्षत्रवज़्स्य भागेन अवध्या वाजिन: स्मृता: । 

रथाजूं वडवा सूते शूराश्नाश्वेषु ये मता: ॥। ५३ ।। 

क्षत्रियके रथरूपी वज्रका एक विशिष्ट अंग होनेसे घोड़ोंको अवध्य बताया गया है। 
गन्धर्वदेशकी घोड़ी रथको वहन करनेवाले रथांगस्वरूप (वज्रस्वरूप) घोड़ेको जन्म देती 
है। वे घोड़े सब अश्वोंमें शूरवीर माने जाते हैं ।। ५३ ।। 

कामवर्णा: कामजवा: कामत: समुपस्थिता: । 

इति गन्धर्वजा: काम॑ पूरयिष्यन्ति मे हया: ।। ५४ ।। 

गन्धर्व-देशके घोड़ोंकी यह विशेषता है कि वे इच्छानुसार अपना रंग बदल लेते हैं। 
सवारकी इच्छाके अनुसार अपने वेगको घटा-बढ़ा सकते हैं। जब आवश्यकता या इच्छा हो, 
तभी वे उपस्थित हो जाते हैं। इस प्रकार मेरे गन्धर्वदेशीय घोड़े आपकी इच्छापूर्ण करते 
रहेंगे || ५४ ।। 

अजुन उवाच 

यदि प्रीतेन मे दत्तं संशये जीवितस्य वा । 

विद्याधनं श्रुतं वापि न तद्‌ गन्धर्व रोचये ॥। ५५ ।। 

अर्जुनने कहा--गन्धर्व! यदि तुमने प्रसन्न होकर अथवा प्राणसंकटसे बचानेके कारण 
मुझे विद्या, धन अथवा शास्त्र प्रदान किया है तो मैं इस तरहका दान लेना पसंद नहीं 
करता ।। ५५ || 


गन्धर्व उवाच 
संयोगो वै प्रीतिकरो महत्सु प्रतिदृश्यते । 


जीवितस्य प्रदानेन प्रीतो विद्यां ददामि ते || ५६ ।। 

गन्धर्व बोला--महापुरुषोंके साथ जो समागम होता है, वह प्रीतिको बढ़ानेवाला होता 
है--ऐसा देखनेमें आता है। आपने मुझे जीवनदान दिया है, इससे प्रसन्न होकर मैं आपको 
चाक्षुषी विद्या भेंट करता हूँ || ५६ ।। 

त्वत्तो5प्यहं ग्रहीष्यामि अस्त्रमाग्नेयमुत्तमम्‌ । 

तथैव योग्यं बीभत्सो चिराय भरतर्षभ ।। ५७ ।। 

साथ ही आपसे भी मैं उत्तम आग्नेयास्त्र ग्रहण करूँगा। भरतकुलभूषण अर्जुन! ऐसा 
करनेसे ही हम दोनोंमें दीर्घधकालतक समुचित सौहार्द बना रहेगा || ५७ ।। 

अर्जुन उवाच 

त्वत्तोडस्त्रेण वृणोम्यश्वान्‌ संयोग: शाश्व॒तो<स्तु नौ । 

सखे तद्‌ ब्रूहि गन्धर्व युष्मभ्यो यद्‌ भयं भवेत्‌ ॥। ५८ ।। 

अर्जुनने कहा--ठीक है, मैं यह अस्त्र-विद्या देकर तुमसे घोड़े ले लूँगा। हम दोनोंकी 
मैत्री सदा बनी रहे। सखे गन्धर्वराज! बताओ तो सही, तुमलोगोंसे हम मनुष्योंको क्यों भय 
प्राप्त होता है? ।। ५८ ।। 





कारण ब्रूहि गन्धर्व कि तद्‌ येन सम धर्षिता: । 


यान्तो वेदविद: सर्वे सन्तो रात्रावरिंदमा: ।। ५९ || 

गन्धर्व! हम सब लोग वेदवेत्ता हैं और शत्रुओंका दमन करनेकी शक्ति रखते हैं; फिर 
भी रातमें यात्रा करते समय जो तुमने हमलोगोंपर आक्रमण किया है, इसका क्‍या कारण 
है? इसपर भी प्रकाश डालो ।। ५९ ।। 

गन्धर्व उवाच 

अनग्नयो<नाहुतयो न च विप्रपुरस्कृता: । 

यूयं ततो धर्षिता: स्थ मया वै पाण्डुनन्दना: ।। ६० ।। 

गन्धर्व बोला--पाण्डुकुमारो! आपलोग (विवाहित न होनेके कारण) त्रिविध 
अग्नियोंकी सेवा नहीं करते। (अध्ययन पूरा करके समावर्तन संस्कारसे सम्पन्न हो गये हैं, 
अतः) प्रतिदिन अग्निको आहुति भी नहीं देते। आपके आगे कोई ब्राह्मण पुरोहित भी नहीं 
है। इन्हीं कारणोंसे मैंने आपपर आक्रमण किया है ।। ६० ।। 

(जानता च मया तस्मात्‌ तेजश्चलाभिजनं च व: । 

इयं मतिमतां श्रेष्ठ धर्षितुं वै कृता मति: ।। 

को हि वस्त्रिषु लोकेषु न वेद भरतर्षभ | 

स्वैर्गुणैविस्तृतं श्रीमद्‌ यशो5ग्र्यं भूरिवर्चसाम्‌ ।।) 

यक्षराक्षसगन्धर्वा: पिशाचोरगदानवा: । 

विस्तरं कुरुवंशस्य धीमन्त: कथयन्ति ते ।। ६१ ।। 

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! इसीलिये मैंने आपलोगोंके तेज और कुलोचित प्रभावको 
जानते हुए भी आपपर आक्रमण करनेका विचार किया। भरतश्रेष्ठी] आपलोग महान्‌ 
तेजस्वी हैं। आपने अपने गुणोंसे जिस शोभाशाली श्रेष्ठ यशका विस्तार किया है, उसे तीनों 
लोकोंमें कौन नहीं जानता। बुद्धिमान्‌ यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, पिशाच, नाग और दानव 
कुरुकुलकी यशोगाथाका विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं ।। ६१ ।। 

नारदप्रभृतीनां तु देवर्षीणां मया श्रुतम्‌ । 

गुणान्‌ कथयतां वीर पूर्वेषां तव धीमताम्‌ ॥। ६२ ।। 

वीर! नारद आदि देवर्षियोंके मुखसे भी मैंने आपके बुद्धिमान्‌ पूर्वजोंका गुणगान सुना 
है ।। ६२ ।। 

स्वयं चापि मया दृष्टक्षरता सागराम्बराम्‌ । 

इमां वसुमतीं कृत्स्नां प्रभाव: सुकुलस्य ते ।। ६३ ।। 

तथा समुद्रसे घिरी हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वीपर विचरते हुए मैंने स्वयं भी आपके उत्तम 
कुलका प्रभाव प्रत्यक्ष देखा है ।। ६३ ।। 

वेदे धनुषि चाचार्यमभिजानामि तेडर्जुन । 

विश्रुतं त्रिषु लोकेषु भारद्वाजं यशस्विनम्‌ ।। ६४ ।। 


अर्जुन! तीनों लोकोंमें विख्यात यशस्वी भरद्वाजनन्दन द्रोणको भी, जो आपके वेद 
और थधरनुर्वेदके आचार्य रहे हैं, मैं अच्छी तरह जानता हूँ ।। ६४ ।। 

धर्म वायुं च शक्रं च विजानाम्यश्विनौ तथा । 

पाण्डुं च कुरुशार्टूल षडेतान्‌ कुरुवर्धनान्‌ । 

पितृनेतानहं पार्थ देवमानुषसत्तमान्‌ | ६५ ।। 

कुरुश्रेष्ठ! धर्म, वायु, इन्द्र, दोनों अश्विनीकुमार तथा महाराज पाण्डु--ये छः महापुरुष 
कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले हैं। पार्थ! ये देवताओं तथा मनुष्योंके सिर्मौर छहों व्यक्ति 
आपलोगोंके पिता हैं। मैं इन सबको जानता हूँ ।। ६५ ।। 

दिव्यात्मानो महात्मान: सर्वशस्त्रभृतां वरा: । 

भवन्तो भ्रातर: शूरा: सर्वे सुचरितव्रता: ।। ६६ ।। 

आप सब भाई देवस्वरूप, महात्मा, समस्त श्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ शूरवीर हैं तथा 
आपलोगोंने ब्रह्मचर्यव्रतका भलीभाँति पालन किया है ।। ६६ ।। 

उत्तमां च मनोबुद्धिं भवतां भावितात्मनाम्‌ | 

जानन्नपि च व: पार्थ कृतवानिह धर्षणाम्‌ ।। ६७ ।। 

आपलोगोंका अन्त:करण शुद्ध है, मन और बुद्धि भी उत्तम है। पार्थ! आपके विषयमें 
यह सब कुछ जानते हुए भी मैंने यहाँ आक्रमण किया था ।। ६७ ।। 

स्त्रीसकाशे च कौरव्य न पुमान्‌ क्षन्तुमरहति | 

धर्षणामात्मन: पश्यन्‌ बाहुद्रविणमाश्रित: ।। ६८ ।। 

कुरुनन्दन! इसका कारण यह है कि अपने बाहुबलका भरोसा रखनेवाला कोई भी 
पुरुष जब स्त्रीके समीप अपना तिरस्कार होता देखता है, तब उसे सहन नहीं कर 
पाता ।। ६८ ।। 

नक्तं च बलमस्माकं भूय एवाभिवर्धते | 

यतस्ततो मां कौन्तेय सदारं मन्युराविशत्‌ ।। ६९ ।। 

कुन्तीनन्दन! इसके सिवा एक बात यह भी है कि रातके समय हमलोगोंका बल बहुत 
बढ़ जाता है। इसीसे स्त्रीके साथ रहनेके कारण मुझमें क्रोधका आवेश हो गया 
था || ६९ || 

सो हं त्वयेह विजित: संख्ये तापत्यवर्धन । 

येन तेनेह विधिना कीर्त्यमानं निबोध मे ।। ७० ।। 

तपतीके कुलकी वृद्धि करनेवाले अर्जुन] आपने जिस कारण युद्धमें मुझे पराजित 
किया है, उसे (भी) बतलाता हूँ; सुनिये || ७० ।। 

ब्रह्मचर्य परो धर्म: स चापि नियतस्त्वयि । 

यस्मात्‌ तस्मादहं पार्थ रणेडस्मि विजितस्त्वया ।। ७१ ।। 


ब्रह्मचर्य! सबसे बड़ा धर्म है और वह तुममें निश्चितरूपसे विद्यमान है। कुन्तीनन्दन! 
इसीलिये युद्धमें मैं तुमसे हार गया हूँ || ७१ ।। 

यस्तु स्यात्‌ क्षत्रिय: कश्चित्‌ कामवृत्त: परंतप । 

नक्तं च युधि युध्येत न स जीवेत्‌ कथंचन ।। ७२ ।। 

शत्रुओंको संताप देनेवाले वीर! यदि दूसरा कोई कामासक्त क्षत्रिय रातमें मुझसे युद्ध 
करने आता तो किसी प्रकार जीवित नहीं बच सकता था || ७२ ।। 

यस्तु स्यात्‌ कामवृत्तो5पि पार्थ ब्रह्मपुरस्कृत: । 

जयेन्नक्तंचरान्‌ सर्वान्‌ स पुरोहितधूर्गत: ।। ७३ ।। 

किंतु कुन्तीकुमार! कामासक्त होनेपर भी यदि कोई पुरुष किसी ब्राह्मणको आगे करके 
चले तो वह समस्त निशाचरोंपर विजय पा सकता है; क्योंकि उस दशामें उसका सारा भार 
पुरोहितपर होता है ।। ७३ ।। 

तस्मात्‌ तापत्य यक्किंचिन्नृणां श्रेय इहेप्सितम्‌ | 

तस्मिन्‌ कर्मणि योक्तव्या दान्तात्मान: पुरोहिता: || ७४ ।। 

अतः तपतीनन्दन! मनुष्योंको इस लोकमें जो भी कल्याणकारी कार्य करना अभीष्ट 
हो, उसमें वह मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले पुरोहितोंको नियुक्त करे || ७४ ।। 

वेदे षडड़े निरता: शुचय: सत्यवादिन: । 

धर्मात्मान: कृतात्मान: स्युर्न॒पाणां पुरोहिता: ।। ७५ |। 

जो छहों अंगोंसहित वेदके स्वाध्यायमें तत्पर, ईमानदार, सत्यवादी, धर्मात्मा और 
मनको वशमें रखनेवाले हों, ऐसे ही ब्राह्मण राजाओंके पुरोहित होने चाहिये || ७५ ।। 

जयश्न नियतो राज्ञ: स्वर्गशक्ष तदनन्तरम्‌ । 

यस्य स्याद्‌ धर्मविद्‌ वाग्मी पुरोधा: शीलवान्‌ शुचि: ।। ७६ ।। 

जिसके यहाँ धर्मज्ञ, वक्ता, शीलवान्‌ और ईमानदार ब्राह्मण पुरोहित हो, उस राजाको 
इस लोकमें निश्चय ही विजय प्राप्त होती है और मरनेके बाद उसे स्वर्गलोक मिलता 
है | ७६ || 

लाभ॑ लब्धुमलब्धं वा लब्धं वा परिरक्षितुम्‌ । 

पुरोहितं प्रकुर्वीत राजा गुणसमन्वितम्‌ ।। ७७ ।। 

राजाको किसी अप्राप्त वस्तु या धनको प्राप्त करने अथवा उपलब्ध धन आदिकी रक्षा 
करनेके लिये गुणवान्‌ ब्राह्मणको पुरोहित बनाना चाहिये || ७७ ।। 

पुरोहितमते तिष्ठेद्‌ य इच्छेद्‌ भूतिमात्मन: । 

प्राप्तुं वसुमतीं सर्वा सर्वश: सागराम्बराम्‌ ।। ७८ ।। 

जो समुद्रसे घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वीपर अपना अधिकार चाहे या अपने लिये ऐश्वर्य पाना 
चाहे, उसे पुरोहितकी आज्ञाके अधीन रहना चाहिये ।। ७८ ।। 

न हि केवलशौर्येण तापत्याभिजनेन च । 


जयेदब्राह्मण: कश्चिद्‌ भूमिं भूमिपति: क्वचित्‌ । ७९ ।। 

तपतीनन्दन! कोई भी राजा कहीं भी पुरोहितकी सहायताके बिना केवल अपने बल 
अथवा कुलीनताके भरोसे भूमिपर विजय नहीं पाता || ७९ ।। 

तस्मादेवं विजानीहि कुरूणां वंशवर्धन । 

ब्राह्मणप्रमुखं राज्यं शक्‍्यं पालयितुं चिरम्‌ ।। ८० ।। 

अतः कौरवोंके कुलकी वृद्धि करनेवाले अर्जुन] आप यह जान लें कि जहाँ विद्वान्‌ 
ब्राह्मणोंकी प्रधानता हो, उसी राज्यकी दीर्घकालतक रक्षा की जा सकती है || ८० ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि गन्धर्वपराभवे 
एकोनसप्तत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १६९ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपववके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें गन्धर्वपराभवाविषयक एक सौ 
उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १६९ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ८२ श्लोक हैं) 


ऑपन- मा बछ। अकाल 


सप्तत्याधेकशततमो< ध्याय: 


सूर्यकन्या तपतीको देखकर राजा संवरणका मोहित होना 
अजुन उवाच 
तापत्य इति यद्‌ वाक्यमुक्तवानसि मामिह । 
तदहं ज्ञातुमिच्छामि तापत्यार्थ विनिश्चितम्‌ ।। १ ॥। 
अर्जुनने कहा--गन्धर्व! तुमने “तपतीनन्दन” कहकर जो बात यहाँ मुझसे कही है, 
उसके सम्बन्धमें मैं यह जानना चाहता हूँ कि तापत्यका निश्चित अर्थ क्या है? ।। १ ।। 
तपती नाम का चैषा तापत्या यत्कृते वयम्‌ । 
कौन्तेया हि वयं साधो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌ ।। २ ।। 
साधुस्वभाव गन्धर्वराज! यह तपती कौन है, जिसके कारण हमलोग तापत्य कहलाते 
हैं? हम तो अपनेको कुन्तीका पुत्र समझते हैं। अतः “तापत्य” का यथार्थ रहस्य क्या है, यह 
जाननेकी मुझे बड़ी इच्छा हो रही है ।। २ ।। 
वैशम्पायन उवाच 
एवमुक्त: स गन्धर्व: कुन्तीपुत्रं धनंजयम्‌ । 
विश्रुतां त्रिषु लोकेषु श्रावयामास वै कथाम्‌ ॥। ३ ।। 
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! उनके यों कहनेपर गन्धर्वने कुन्तीनन्दन 
धनंजयको वह कथा सुनानी प्रारम्भ की, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है ।। ३ ।। 
गन्धर्व उवाच 
हन्त ते कथयिष्यामि कथामेतां मनोरमाम्‌ | 
यथावदखिलां पार्थ सर्वबुद्धिमतां वर ।। ४ ।। 
गन्धर्व बोला--समस्त बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ कुन्तीकुमार! इस विषयमें एक बहुत मनोरम 
कथा है, जिसे मैं यथार्थ एवं पूर्णरूपसे आपको सुनाऊँगा ।। ४ ।। 
उक्तवानस्मि येन त्वां तापत्य इति यद्‌ वच: । 
तत्‌ ते5हं कथयिष्यामि शृणुष्वैकमना भव ।। ५ ।। 
मैंने जिस कारण अपने वक्तव्यमें तुम्हें 'तापत्य” कहा है, वह बता रहा हूँ, एकाग्रचित्त 
होकर सुनो ।। ५ ।। 
य एष दिवि धिष्ण्येन नाकं व्याप्रोति तेजसा । 
एतस्य तपती नाम बभूव सदृशी सुता ।। ६ ।। 
विवस्वतो वै देवस्य सावित्रयवरजा विभो । 
विश्रुता त्रिषु लोकेषु तपती तपसा युता ॥। ७ ।। 


ये जो आकाशगमें उदित हो अपने तेजोमण्डलके द्वारा यहाँसे स्वर्गलोकतक व्याप्त हो 
रहे हैं, इन्हीं भगवान्‌ सूर्यदेवके तपती नामकी एक पुत्री हुई, जो पिताके अनुरूप ही थी। 
प्रभो! वह सावित्रीदेवीकी छोटी बहिन थी। वह तपस्यामें संलग्न रहनेके कारण तीनों 
लोकोंमें तपती नामसे विख्यात हुई ।। ६-७ ।। 

न देवी नासुरी चैव न यक्षी न च राक्षसी | 

नाप्सरा न च गन्धर्वी तथा रूपेण काचन ।॥। ८ ।। 

उस समय देवता, असुर, यक्ष एवं राक्षस जातिकी स्त्री, कोई अप्सरा तथा गधर्वपत्नी 
भी उसके समान रूपवती न थी ।। ८ ।। 

सुविभक्तानवद्याज़ी स्वसितायतलोचना । 

स्वाचारा चैव साध्वी च सुवेषा चैव भामिनी ।। ९ ।। 

न तस्या: सदृशं कंचित्‌ त्रिषु लोकेषु भारत । 

भर्तरें सविता मेने रूपशीलगुणश्रुतै: ।। १० ।। 

उसके शरीरका एक-एक अवयव बहुत सुन्दर, सुविभक्त और निर्दोष था। उसकी आँखें 
बड़ी-बड़ी और कजरारी थीं। वह सुन्दरी सदाचार, साधु-स्वभाव और मनोहर वेशसे 
सुशोभित थी। भारत! भगवान्‌ सूर्यने तीनों लोकोंमें किसी भी पुरुषको ऐसा नहीं पाया, जो 
रूप, शील, गुण और शास्त्रज्ञानकी दृष्टिसे उसका पति होनेयोग्य हो ।। ९-१० ।। 

सम्प्राप्तयौवनां पश्यन्‌ देयां दुहितरं तु ताम्‌ । 

नोपलेभे ततः शान्तिं सम्प्रदानं विचिन्तयन्‌ ।। ११ ।। 

वह युवावस्थाको प्राप्त हो गयी। अब उसका किसीके साथ विवाह कर देना आवश्यक 
था। उसे उस अवस्थामें देखकर भगवान्‌ सूर्य इस चिन्तामें पड़े कि इसका विवाह किसके 
साथ किया जाय। यही सोचकर उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी ।। ११ ।। 

अथर्क्षपुत्र: कौन्तेय कुरूणामृषभो बली । 

सूर्यमाराधयामास नृप: संवरणस्तदा ।। १२ ।। 

कुन्तीनन्दन! उन्हीं दिनों महाराज ऋक्षके पुत्र राजा संवरण कुरुकुलके श्रेष्ठ एवं 
बलवान पुरुष थे। उन्होंने भगवान्‌ सूर्यकी आराधना प्रारम्भ की || १२ ।। 

अर्घ्यमाल्योपहाराद्यर्गन्धैश्व नियत: शुचि: । 

नियमैरुपवासैशक्ष तपोभिविविधैरपि ।। १३ ।। 

शुश्रूषुरनहंवादी शुचि: पौरवनन्दन । 

अंशुमन्तं समुद्यन्तं पूजयामास भक्तिमान्‌ ।। १४ ।। 

पौरवनन्दन! वे मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर पवित्र हो अर्घ्य, पुष्प, गन्ध एवं 
नैवेद्य आदि सामग्रियोंसे तथा भाँति-भाँतिके नियम, व्रत एवं तपस्याओंद्वारा बड़े 
भक्तिभावसे उदय होते हुए सूर्यकी पूजा करते थे। उनके हृदयमें सेवाका भाव था। वे शुद्ध 
तथा अहंकारशून्य थे ।। १३-१४ ।। 


ततः कृतज्ञं धर्मज्ञं रूपेणासदृशं भुवि | 

तपत्या: सदृशं मेने सूर्य: संवरणं पतिम्‌ ।। १५ ।। 

रूपमें इस पृथ्वीपर उनके समान दूसरा कोई पुरुष नहीं था। वे कृतज्ञ और धर्मज्ञ थे। 
अतः सूर्यदेवने राजा संवरणको ही तपतीके योग्य पति माना ।। १५ ।। 

दातुमैच्छत्‌ ततः कन्यां तस्मै संवरणाय ताम्‌ । 

नृपोत्तमाय कौरव्य विश्रुताभिजनाय च ।। १६ ।। 

कुरुनन्दन! उन्होंने नृपश्रेष्ठ संवरणको, जिनका उत्तम कुल सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात था, 
अपनी कन्या देनेकी इच्छा की ।। १६ ।। 

यथा हि दिवि दीप्तांशु: प्रभासयति तेजसा । 

तथा भुवि महीपालो दीप्त्या संवरणो5भवत्‌ ।। १७ ।। 

जैसे आकाशगमें उद्दीप्त किरणोंवाले सूर्यदेव अपने तेजसे प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार 
पृथ्वीपर राजा संवरण अपनी दिव्य कान्तिसे प्रकाशित थे ।। १७ ।। 

यथार्चयन्ति चादित्यमुद्रन्तं ब्रह्मवादिन: । 

तथा संवरणं पार्थ ब्राह्मणावरजा: प्रजा: ।। १८ ।। 

पार्थ! जैसे ब्रह्मवादी महर्षि उगते हुए सूर्यकी आराधना करते हैं, उसी प्रकार क्षत्रिय, 
वैश्य आदि प्रजाएँ महाराज संवरणकी उपासना करती थीं ।। १८ ।। 

स सोममति कान्तत्वादादित्यमति तेजसा । 

बभूव नृपति: श्रीमान्‌ सुहृदां दुर्ददामपि ।। १९ ।। 

वे अपनी कमनीय कान्तिसे चन्द्रमाको और तेजसे सूर्यदेवको भी तिरस्कृत करते थे। 
राजा संवरण मित्रों तथा शत्रुओंकी मण्डलीमें भी अपनी दिव्य शोभासे प्रकाशित होते 
थे।। १९ |। 

एवंगुणस्य नृपतेस्तथावृत्तस्य कौरव । 

तस्मै दातुं मनश्लक्रे तपतीं तपन: स्वयम्‌ ।। २० ।। 

कुरुनन्दन! ऐसे उत्तम गुणोंसे विभूषित तथा श्रेष्ठ आचार-व्यवहारसे युक्त राजा 
संवरणको भगवान्‌ सूर्यने स्वयं ही अपनी पुत्री तपतीको देनेका निश्चय कर लिया ।। २० ।॥। 

स कदाचिदथो राजा श्रीमानमितविक्रम: । 

चचार मृगयां पार्थ पर्वतोपवने किल ।। २१ ।। 

कुन्तीनन्दन! एक दिन अमितपराक्रमी श्रीमान्‌ राजा संवरण पर्वतके समीपवर्ती 
उपवनमें हिंसक पशुओंका शिकार कर रहे थे ।। २१ ।। 

चरतो मृगयां तस्य क्षुत्पिपासासमन्वित: । 

ममार राज्ञ: कौन्तेय गिरावप्रतिमो हय: ।। २२ ।। 

स मृताश्वश्चरन्‌ पार्थ पदभ्यामेव गिरौ नृपः । 

ददर्शासदृशीं लोके कन्‍न्यामायतलोचनाम्‌ ।। २३ ।। 


कुन्तीपुत्र! शिकार खेलते समय ही राजाका अनुपम अश्व पर्वतपर भूख-प्याससे 
पीड़ित हो मर गया। पार्थ! घोड़ेकी मृत्यु हो जानेसे राजा संवरण पैदल ही उस पर्वत- 
शिखरपर विचरने लगे। घूमते-घूमते उन्होंने एक विशाललोचना कन्या देखी, जिसकी समता 
करनेवाली स्त्री कहीं नहीं थी || २२-२३ ।। 

स एक एकामासाद्य कन्‍्यां परबलार्दन: । 

तस्थौ नृपतिशार्दूल: पश्यन्नविचलेक्षण: ।। २४ ।। 

शत्रुओंकी सेनाका संहार करनेवाले नृपश्रेष्ठ संवरण अकेले थे और वह कन्या भी 
अकेली ही थी। उसके पास पहुँचकर राजा एकटक नेत्रोंस उसकी ओर देखते हुए खड़े रह 
गये ।। २४ ।। 

स हि तां तर्कयामास रूपतो नृपति: श्रियम्‌ । 

पुन: संतर्कयामास रवेर्भ्रष्टामिव प्रभाम्‌ू ।। २५ ।। 

पहले तो उसका रूप देखकर नरेशने अनुमान किया कि हो-न-हो ये साक्षात्‌ लक्ष्मी हैं; 
फिर उनके ध्यानमें यह बात आयी कि सम्भव है, भगवान्‌ सूर्यकी प्रभा ही सूर्यमण्डलसे 
च्युत होकर इस कन्याके रूपमें आकाशसे पृथ्वीपर आ गयी हो ।। २५ ।। 

वपुषा वर्चसा चैव शिखामिव विभावसो: । 

प्रसन्नत्वेन कान्त्या च चन्द्ररेखामिवामलाम्‌ ।। २६ ।। 

शरीर और तेजसे वह आगकी ज्वाला-सी जान पड़ती थी। उसकी प्रसन्नता और 
कमनीय कान्तिसे ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह निर्मल चन्द्रकला हो || २६ ।। 

गिरिपृषछे तु सा यस्मिन्‌ स्थिता स्वसितलोचना । 

विभ्राजमाना शुशुभे प्रतिमेव हिरण्मयी ।। २७ ।। 

सुन्दर कजरारे नेत्रोंवाली वह दिव्य कन्या जिस पर्वत-शिखरपर खड़ी थी, वहाँ वह 
सोनेकी दमकती हुई प्रतिमा-सी सुशोभित हो रही थी ।। २७ ।। 

तस्या रूपेण स गिरिखवेंषेण च विशेषत: । 

स सवृक्षक्षुपलतो हिरण्मय इवाभवत्‌ ।। २८ ।। 

विशेषत: उसके रूप और वेशसे विभूषित हो वृक्ष, गुल्म और लताओंसहित वह पर्वत 
सुवर्णमय-सा जान पड़ता था ।। २८ ।। 

अवमेने च तां दृष्टवा सर्वलोकेषु योषित: । 

अवाप्तं चात्मनो मेने स राजा चक्षुष: फलम्‌ ॥। २९ ।। 

उसे देखकर राजा संवरणकी समस्त लोकोंकी सुन्दरी युवतियोंमें अनादर-बुद्धि हो 
गयी। राजा यह मानने लगे कि आज मुझे अपने नेत्रोंका फल मिल गया ।। २९ || 

जन्मप्रभूति यत्‌ किंचिद्‌ दृष्टवान्‌ स महीपति: । 

रूपं न सदृशं तस्यास्तर्कयामास किंचन || ३० ।। 


भूपाल संवरणने जन्मसे लेकर (उस दिनतक) जो कुछ देखा था, उसमें कोई भी रूप 
उन्हें उस (दिव्य किशोरी)-के सदृश नहीं प्रतीत हुआ ।। ३० ।। 

तया बद्धमनश्षक्षुः पाशैर्गुणमयैस्तदा । 

न चचाल ततो देशाद्‌ बुबुधे न च किंचन ।। ३१ ।। 

उस कन्याने उस समय अपने उत्तम गुणमय पाशोंसे राजाके मन और नेत्रोंको बाँध 
लिया। वे अपने स्थानसे हिल-डुलतक न सके। उन्हें किसी बातकी सुध-बुध (भी) न 
रही || ३१ ।। 

अस्या नूनं विशालाक्ष्या: सदेवासुरमानुषम्‌ । 

लोकं निर्मथ्य धात्रेदं रूपमाविष्कृतं कृतम्‌ ।। ३२ ।। 

वे सोचने लगे, निश्चय ही ब्रह्माने देवता, असुर और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण लोकोंके 
सौन्दर्य-सेन्धुको मथकर इस विशाल नेत्रोंवाली किशोरीके इस मनोहर रूपका आविष्कार 
किया होगा ।। ३२ ।। 

एवं संतर्कयामास रूपद्रविणसम्पदा । 

कन्यामसदृशीं लोके नृप: संवरणस्तदा ।। ३३ ।। 

इस प्रकार उस समय उसकी रूप-सम्पत्तिसे राजा संवरणने यही अनुमान किया कि 
संसारमें इस दिव्य कनन्‍्याकी समता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है ।। ३३ ।। 

तां च दृष्टवैव कल्याणीं कल्याणाभिजनो नृप: । 

जगाम मनसा चिन्तां कामबाणेन पीडित: ।। ३४ ।। 

कल्याणमय कुलमें उत्पन्न हुए वे नरेश उस कल्याणस्वरूपा कामिनीको देखते ही 
काम-बाणसे पीड़ित हो गये। उनके मनमें चिन्ताकी आग जल उठी ।। ३४ ।। 

दहामान: स तीव्रेण नृपतिर्मन्मथाग्निना । 

अप्रगल्भां प्रगल्भस्तां तदोवाच मनोहराम्‌ ।। ३५ ।। 

तदनन्तर तीव्र कामाग्निसे जलते हुए राजा संवरणने लज्जारहित होकर उस 
लज्जाशीला एवं मनोहारिणी कन्यासे इस प्रकार पूछा-- ।। ३५ ।। 

कासि कस्यासि रम्भोरु किमर्थ चेह तिष्ठसि । 

कथं च निर्जने5रण्ये चरस्येका शुचिस्मिते ।। ३६ ।। 

“रम्भोरु) तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? और किसलिये यहाँ खड़ी हो? पवित्र 
मुसकानवाली! तुम इस निर्जन वनमें अकेली कैसे विचर रही हो? ।। ३६ ।। 

त्वं हि सर्वानवद्याजी सर्वाभरणभूषिता । 

विभूषणमिवैतेषां भूषणानामभीप्सितम्‌ ।। ३७ ।। 

“तुम्हारे सभी अंग परम सुन्दर एवं निर्दोष हैं। तुम सब प्रकारके (दिव्य) आभूषणोंसे 
विभूषित हो। सुन्दरि! इन आभूषणोंसे तुम्हारी शोभा नहीं है, अपितु तुम स्वयं ही इन 
आभूषणोंकी शोभा बढ़ानेवाली अभीष्ट आभूषणके समान हो ।। ३७ ।। 


नददेवीं नासुरीं चैव न यक्षीं न च राक्षसीम्‌ । 

न च भोगवतीं मन्ये न गन्धर्वी न मानुषीम्‌ ।। ३८ ।। 

“मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, तुम न तो देवांगना हो न असुरकन्या, न यक्षकुलकी स्त्री 
हो न राक्षसवंशकी, न नागकन्या हो न गन्धर्वकन्या। मैं तुम्हें मानवी भी नहीं 
मानता ।। ३८ || 

या हि दृष्टा मया काश्रिच्छुता वापि वराड्ना: । 

न तासां सदृशीं मन्ये त्वामहं मत्तकाशिनि ।। ३९ ।। 

“यौवनके मदसे सुशोभित होनेवाली सुन्दरी! मैंने अबतक जो कोई भी सुन्दरी स्त्रियाँ 
देखी अथवा सुनी हैं, उनमेंसे किसीको भी मैं तुम्हारे समान नहीं मानता ।। ३९ ।। 

दृष्टवैव चारुवदने चन्द्रात्‌ कान्ततरं तव । 

वदन पद्मपत्राक्ष॑ मां मथ्नातीव मन्मथ: ।। ४० ।। 

'सुमुखि! जबसे मैंने चन्द्रमासे भी बढ़कर कमनीय एवं कमलदलके समान विशाल 
नेत्रोंसे युक्त तुम्हारे मुखका दर्शन किया है, तभीसे मनन्‍्मथ मुझे मथ-सा रहा है” ।। ४० ।। 

एवं तां स महीपालो बभाषे न तु सा तदा । 

कामार्त निर्जने3रण्ये प्रत्यभाषत किचन ।। ४१ ।। 

इस प्रकार राजा संवरण उस सुन्दरीसे बहुत कुछ कह गये; परंतु उसने उस समय उस 
निर्जन वनमें उन कामपीड़ित नरेशको कुछ भी उत्तर नहीं दिया || ४१ ।। 

ततो लालप्यमानस्य पार्थिवस्यायतेक्षणा । 

सौदामिनीव चाभ्रेषु तत्रैवान्तरधीयत ।। ४२ ।। 

राजा संवरण उन्मत्तकी भाँति प्रलाप करते रह गये और वह विशाल नेत्रोंवाली सुन्दरी 
वहीं उनके सामने ही बादलोंमें बिजलीकी भाँति अन्तर्धान हो गयी ।। ४२ ।। 

तामन्वेष्ट स नृपति: परिचक्राम सर्वतः । 

वन॑ वनजपत्राक्षीं भ्रमन्नुन्मत्ततत्‌ तदा || ४३ ।। 

तब वे नरेश कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाली उस (दिव्य) कन्याको ढूँढ़नेके लिये 
वनमें सब ओर उन्मत्तकी भाँति भ्रमण करने लगे ।। ४३ ।। 

अपश्यमान: स तु तां बहु तत्र विलप्य च । 

निश्वेष्ट: पार्थिवश्रेष्ठो मुहूर्त स व्यतिष्ठत ।। ४४ ।। 

जब कहीं भी उसे देख न सके, तब वे नृपश्रेष्ठ वहाँ बहुत विलाप करते-करते मूर्च्छित 
हो दो घड़ीतक निश्रेष्ट पड़े रहे || ४४ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि तपत्युपाख्याने 
सप्तत्यधिकशततमो<थध्याय: ।। १७० ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें तपती-उपाख्यानविषयक एक 
सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७० ॥ 


ऑपन---का< छा | अ-क्राछ 


एकसप्तत्याधिकशततमो< ध्याय: 
तपती और संवरणकी बातचीत 


गन्धर्व उवाच 

अथ तस्यामदृश्यायां नृपति: काममोहितः । 

पातन: शत्रुसड्घानां पपात धरणीतले ।। १ ।। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! जब तपती अदृश्य हो गयी, तब काममोहित राजा संवरण, 
जो शत्रुसमुदायको मार गिरानेवाले थे, स्वयं ही बेहोश होकर धरतीपर गिर पड़े ।। १ ।। 

तस्मिन्‌ निपतिते भूमावथ सा चारुहासिनी । 

पुन: पीनायतश्रोणी दर्शयामास तं नूपम्‌ ।। २ ।। 

जब वे इस प्रकार मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े, तब स्थूल एवं विशाल 
श्रोणीप्रदेशवाली तपतीने मन्द-मन्द मुसकराते हुए अपनेको राजा संवरणके सामने प्रकट 
कर दिया ।। २ ।। 

अथाबभाषे कल्याणी वाचा मधुरया नृपम्‌ । 

त॑ कुरूणां कुलकरं कामाभिहतचेतसम्‌ ।। ३ ।। 

उवाच मधुरं वाक्यं तपती प्रहसन्निव । 

उत्तिष्ोत्तिष्ठ भद्रं ते न त्वमर्हस्यरिंदम ।। ४ ।। 

मोहं नृपतिशार्दूल गन्तुमाविष्कृत: क्षितौ । 

एवमुक्तो5थ नृपतिर्वाचा मधुरया तदा ।। ५ ।। 

ददर्श विपुलश्रोणीं तामेवाभिमुखे स्थिताम्‌ | 

अथ तामसितापाद्जीमाबभाषे स पार्थिव: ।। ६ ।। 

मन्मथाग्निपरीतात्मा संदिग्धाक्षरया गिरा । 

साधु त्वमसितापाज्ञि कामार्त मत्तकाशिनि ।। ७ ।। 

भजस्व भजमान मां प्राणा हि प्रजहन्ति माम्‌ । 

त्वदर्थ हि विशालाक्षि मामयं निशितै: शरै: ।। ८ ।। 

काम: कमलगर्भाभे प्रतिविध्यन्‌ न शाम्यति । 

दष्टमेवमनाक्रन्दे भद्रे काममहाहिना ।। ९ ।। 

कुरुवंशका विस्तार करनेवाले राजा संवरण कामाग्निसे पीड़ित हो अचेत हो गये थे। 
उस समय जैसे कोई हँसकर मधुर वचन बोलता हो, उसी प्रकार कल्याणी तपती मीठी 
वाणीमें उन नरेशसे बोली--“शत्रुदमन! उठिये, उठिये; आपका कल्याण हो। राजसिंह! 
आप इस भूतलके विख्यात सम्राट्‌ हैं। आपको इस प्रकार मोहके वशीभूत नहीं होना 
चाहिये।' तपतीने जब मधुर वाणीमें इस प्रकार कहा, तब राजा संवरणने आँखें खोलकर 


देखा। वही विशाल नितम्बोंवाली सुन्दरी सामने खड़ी थी। राजाके अन्तःकरणमें कामजनित 
आग जल रही थी। वे उस कजरारे नेत्रोंवाली सुन्दरीसे लड़खड़ाती वाणीमें बोले 
-- श्यामलोचने! तुम आ गयीं, अच्छा हुआ। यौवनके मदसे सुशोभित होनेवाली सुन्दरी! मैं 
कामसे पीड़ित तुम्हारा सेवक हूँ। तुम मुझे स्वीकार करो, अन्यथा मेरे प्राण मुझे छोड़कर 
चले जायँगे। विशालाक्षि! कमलके भीतरी भागकी-सी कान्तिवाली सुन्दरि! तुम्हारे लिये 
कामदेव मुझे अपने तीखे बाणोंद्वारा बार-बार घायल कर रहा है। यह (एक क्षणके लिये 
भी) शान्त नहीं होता। भद्रे! ऐसे समयमें जब मेरा कोई भी रक्षक नहीं है, मुझे कामरूपी 
महासर्पने डस लिया है ।। ३-९ ।। 

सा त्वं पीनायतश्रोणि मामाप्लुहि वरानने | 

त्वदधीना हि मे प्राणा: किन्नरोद्गीतभाषिणि ।। १० ।। 

'स्थूल एवं विशाल नितम्बोंवाली वरानने! मेरे समीप आओ। किन्नरोंकी-सी मीठी बोली 
बोलनेवाली! मेरे प्राण तुम्हारे ही अधीन हैं || १० ।। 

चारुसर्वनवद्याड़ि पद्मेन्दुप्रतिमानने । 

न हाहं त्वदृते भीरु शक्ष्यामि खलु जीवितुम्‌ ।। ११ ।। 

'भीरु! तुम्हारे सभी अंग मनोहर तथा अनिन्‍्द्य सौन्दर्यसे सुशोभित हैं। तुम्हारा मुख 
कमल और चन्द्रमाके समान सुशोभित होता है। मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह 
सकूँगा ।। ११ ।। 

काम: कमलपत्राक्षि प्रतिविध्यति मामयम्‌ । 

तस्मात्‌ कुरु विशालाक्षि मय्यनुक्रोशमड़ने ।। १२ ।। 

“कमलदलके समान सुन्दर नेत्रोंवाली सुन्दरि! यह कामदेव मुझे (अपने बाणोंसे) घायल 
कर रहा है; विशाललोचने! इसलिये तुम मुझपर दया करो ।। १२ ।। 

भक्त मामसितापाज्ि न परित्यक्तुमहसि । 

त्वं हि मां प्रीतियोगेन त्रातुमहसि भाविनि ।। १३ ।। 

“कजरारे नेत्रोंवाली भामिनि! मैं तुम्हारा भक्त हूँ। तुम मेरा परित्याग न करो। तुम्हें तो 
प्रेमपूर्वक मेरी रक्षा करनी चाहिये || १३ ।। 

त्वद्दर्शनकृतस्नेहं मनश्वलति मे भृशम्‌ । 

नत्वां दृष्टवा पुनश्चान्यां द्रष्टूं कल्याणि रोचते ।। १४ ।। 

“मेरा मन तुम्हारे दर्शनके साथ ही तुमसे अनुरक्त हो गया है। इसलिये वह अत्यन्त 
चंचल हो उठा है। कल्याणि! तुम्हें देख लेनेके बाद फिर दूसरी स्त्रीकी ओर देखनेकी रुचि 
मुझे नहीं रह गयी है ।। १४ ।। 

प्रसीद वशगो<हं ते भक्त मां भज भाविनि | 

दृष्टवैव त्वां वरारोहे मन्मथो भृशमड़ने ।। १५ ।। 

अन्तर्गतं विशालाक्षि विध्यति सम पतत्त्रिभि: । 


मन्मथाग्निसमुद्धूतं दाहं कमललोचने ।। १६ ।। 

प्रीतिसंयोगयुक्ताभिरद्धि: प्रह्लादयस्व मे । 

पुष्पायुध॑ दुराधर्ष प्रचण्डशरकार्मुकम्‌ ।। १७ ।। 

त्वद्दर्शनसमुद्धूतं विध्यन्तं दुस्सहैः शरै: । 

उपशामय कल्याणि आत्मदानेन भाविनि ॥। १८ ।। 

“मैं सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ, मुझपर प्रसन्न हो जाओ। महानुभावे! मुझ भक्तको 
अंगीकार करो। वरारोहे! विशाल नेत्रोंवाली अंगने! जबसे मैंने तुम्हें देखा है, तभीसे कामदेव 
मेरे अन्तः:करणको अपने बाणोंद्वारा घायल कर रहा है। कमललोचने! तुम प्रेमपूर्वक 
समागमके जलसे मेरे कामाग्निजनित दाहको बुझाकर मुझे आह्वाद प्रदान करो। कल्याणि! 
तुम्हारे दर्शनसे उत्पन्न हुआ कामदेव फूलोंके आयुध लेकर भी अत्यन्त दुर्धर्ष हो रहा है। 
उसके धनुष और बाण दोनों ही बड़े प्रचण्ड हैं। वह अपने दुस्सह बाणोंसे मुझे बींध रहा है। 
महानुभावे! तुम आत्मदान देकर मेरे उस कामको शान्त करो || १५--१८ ।। 

गान्धर्वेण विवाहेन मामुपेहि वराड़ने । 

विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्व: श्रेष्ठ उच्यते ।। १९ |। 

“वरांगने! गान्धर्व विवाहद्वारा तुम मुझे प्राप्त होओ। सब विवाहोंमें गान्धर्व विवाह ही 
श्रेष्ठ बतलाया जाता है” ।। १९ ।। 

तपत्युवाच 


नाहमीशा55त्मनो राजन्‌ कन्या पितृमती हाहम्‌ | 

मयि चेदस्ति ते प्रीतिर्याचस्व पितरं मम ।। २० |। 

तपतीने कहा--राजन! मैं ऐसी कन्या हूँ, जिसके पिता विद्यमान हैं; अत: अपने इस 
शरीरपर मेरा कोई अधिकार नहीं है। यदि आपका मुझपर प्रेम है तो मेरे पिताजीसे मुझे 
माँग लीजिये ।। २० ।। 

यथा हि ते मया प्राणा: संगृहीता नरेश्वर । 

दर्शनादेव भूयस्त्वं तथा प्राणान्‌ ममाहर: ।। २१ ।। 

नरेश्वर! जैसे आपके प्राण मेरे अधीन हैं, उसी प्रकार आपने भी दर्शनमात्रसे ही मेरे 
प्राणोंको हर लिया है ।। २१ ।। 

न चाहमीशा देहस्य तस्मान्नपतिसत्तम । 

समीप॑ नोपगच्छामि न स्वतन्त्रा हि योषित: ।। २२ ।। 

का हि सर्वेषु लोकेषु विश्रुताभिजनं नृपम्‌ | 

कन्या नाभिलकषेन्नाथं भर्तारें भक्तवत्सलम्‌ ।। २३ || 

नृपश्रेष्ठ! मैं अपने शरीरकी स्वामिनी नहीं हूँ, इसलिये आपके समीप नहीं आ सकती; 
कारण कि स्त्रियाँ कभी स्वतन्त्र नहीं होती। आपका कुल सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात है। 


आप-जैसे भक्तवत्सल नरेशको कौन कन्या अपना पति बनानेकी इच्छा नहीं 
करेगी? ।। २२-२३ ।। 

तस्मादेवं गते काले याचस्व पितरं मम । 

आदित्यं प्रणिपातेन तपसा नियमेन च ।। २४ ।। 

ऐसी दशामें आप यथासमय नमस्कार, तपस्या और नियमके द्वारा मेरे पिता भगवान्‌ 
सूर्यको प्रसन्न करके उनसे मुझे माँग लीजिये ।। २४ ।। 

स चेत्‌ कामयते दातुं तव मामरिसूदन । 

भविष्याम्यद्य ते राजन्‌ सततं वशवर्तिनी ।। २५ ।। 

शत्रुसूदन नरेश! यदि वे मुझे आपकी सेवामें देना चाहेंगे तो मैं आजसे सदा आपकी 
आज्ञाके अधीन रहूँगी ।। २५ ।। 

अहं हि तपती नाम साविनत्र्यवरजा सुता । 

अस्य लोकप्रदीपस्य सवितु: क्षत्रियर्षभ ।। २६ ।। 

क्षत्रियशिरोमणे! मैं इन्हीं अखिलभुवनभास्कर भगवान्‌ सविताकी पुत्री और सावित्रीकी 
छोटी बहिन हूँ। मेरा नाम तपती है ।। २६ ।। 





इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि तपत्युपाख्याने 
एकसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७१ ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें तपती-उपाख्यानविषयक एक 
सौ इकद्ठत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७१ ॥। 


है अर छा | अ-क्राछ 


द्विसप्तत्याधिकशततमो< ध्याय: 
वसिष्ठदजीकी सहायतासे राजा संवरणको तपतीकी प्राप्ति 


गन्धर्व उवाच 

एवमुक्त्वा ततस्तूर्ण जगामोर्ध्वमनिन्दिता । 

सतु राजा पुनर्भूमौ तत्रैव निपपात ह ।। १ ।। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! यों कहकर वह अनिन्द्यसुन्दी तपती तत्काल ऊपर 
(आकाशमें) चली गयी और वे राजा संवरण फिर वहीं (मूर्च्छिंत हो) पृथ्वीपर गिर 
पड़े || १ ।। 

अन्वेषमाण: सबलस्तं राजानं नृपोत्तमम्‌ | 

अमात्य: सानुयात्रश्न तं ददर्श महावने ।। २ ।। 

इधर उनके मन्त्री सेना और अनुचरोंको साथ लिये उन श्रेष्ठ नरेशको खोजते हुए आ 
रहे थे। उस महान्‌ वनमें पहुँचकर मन्त्रीने राजाको देखा ।। २ ।। 

क्षितौ निपतितं काले शक्रध्वजमिवोच्छितम्‌ । 

तं हि दृष्टवा महेष्वासं निरस्तं पतितं भुवि ॥। ३ ।। 

बभूव सो<स्य सचिव: सम्प्रदीप्त इवाग्निना । 

त्वरया चोपसंगम्य स्नेहादागतसम्भ्रम: ।। ४ ।। 

वे समय पाकर गिरे हुए ऊँचे इन्द्रध्वजकी भाँति पृथ्वीपर पड़े थे। तपतीसे विमुक्त उन 
महान्‌ धनुर्धर महाराजको इस प्रकार पृथ्वीपर पड़ा देख राजमन्त्री ऐसे व्याकुल हो उठे 
मानो उनके शरीरमें आग लग गयी हो। वे तुरंत उनके पास जा पहुँचे। स्नेहवश उनके 
हृदयमें घबराहट पैदा हो गयी थी ।। ३-४ ।। 

त॑ समुत्थापयामास नृपतिं काममोहितम्‌ | 

भूतलाद भूमिपालेशं पितेव पतितं सुतम्‌ ।। ५ ।। 

प्रज्ञया वयसा चैव वृद्धः कीर्त्या नयेन च । 

अमात्यस्तं समुत्थाप्य बभूव विगतज्वर: ।। ६ ।। 

राजमन्त्री अवस्थामें तो बड़े-बूढ़े थे ही, बुद्धि, कीर्ति और नीतिमें भी बढ़े-चढ़े थे। 
उन्होंने जैसे पिता अपने गिरे हुए पुत्रको धरतीसे उठा ले, उसी प्रकार कामवेदनासे मूर्च्छित 
हुए भूमिपालोंके भी स्वामी महाराज संवरणको शीतघ्रतापूर्वक पृथ्वीपरसे उठा लिया। 
राजाको उठाकर और उन्हें जीवित पाकर उनकी चिन्ता दूर हो गयी ।। ५-६ ।। 

उवाच चैनं कल्याण्या वाचा मधुरयोत्थितम्‌ । 

मा भैर्मनुजशार्दूल भद्गरमस्तु तवानघ ।। ७ ।। 


वे उठकर बैठे हुए महाराजसे कल्याणमयी मधुर वाणीमें बोले--“नरश्रेष्ठ। आप डरें 
नहीं। अनघ! आपका कल्याण हो” ।। ७ ।। 

क्षुत्पिपासापरिश्रान्तं तर्कयामास वै नृपम्‌ । 

पतितं पातनं संख्ये शात्रवाणां महीतले ।। ८ ।। 

युद्धमें शत्रुदलको पृथ्वीपर गिरा देनेवाले नरेशको भूमिपर गिरा देख मन्त्रीने यह 
अनुमान लगाया कि ये भूख-प्याससे पीड़ित एवं थके-माँदे हैं |। ८ ।। 

वारिणा च सुशीतेन शिरस्तस्याभ्यषेचयत्‌ । 

अस्फुटन्मुकुटं राज्ञ: पुण्डरीकसुगन्धिना ।। ९ ।। 

गिरनेपर राजाका मुकुट छिन्न-भिन्न नहीं हुआ था (इससे अनुमान होता था कि राजा 
युद्धमें घायल नहीं हुए हैं)। मन्त्रीने राजाके मस्तकको कमलकी सुगन्धसे युक्त ठंडे जलसे 
सींचा || ९ |। 

ततः प्रत्यागतप्राणस्तद्‌ बल॑ बलवान्‌ नृपः । 

सर्व विसर्जयामास तमेकं॑ सचिवं विना ।। १० ।। 

उससे राजाको चेत हो आया। बलवान नरेशने एकमात्र अपने मन्त्रीके सिवा सारी 
सेनाको लौटा दिया ।। १० ।। 

ततस्तस्याज्ञया राज्ञो विप्रतस्थे महद्‌ बलम्‌ | 

स तु राजा गिरिप्रस्थे तस्मिन्‌ पुनरुपाविशत्‌ ।। ११ ।। 

महाराजकी आज्ञासे तुरंत वह विशाल सेना राजधानीकी ओर चल दी; परंतु वे राजा 
संवरण फिर उसी पर्वत-शिखरपर जा बैठे ।। ११ ।। 

ततस्तस्मिन्‌ गिरिवरे शुचिर्भूत्वा कृताउ्जलि: । 

आरिराधयिषु: सूर्य तस्थावूर्ध्वमुख: क्षितौ ।। १२ ।। 

तदनन्तर उस श्रेष्ठ पर्वतपर स्नानादिसे पवित्र हो भगवान्‌ सूर्यकी आराधना करनेके 
लिये हाथ जोड़ ऊपरकी ओर मुँह किये वे भूमिपर खड़े हो गये ।। १२ ।। 

जगाम मनसा चैव वसिष्ठमृषिसत्तमम्‌ | 

पुरोहितममित्रघ्नस्तदा संवरणो नृप: ।। १३ ।। 

उस समय शत्रुओंका नाश करनेवाले राजा संवरणने अपने पुरोहित मुनिवर वसिष्ठका 
मन-ही-मन स्मरण किया ।। १३ |। 

नक्तं दिनमथैकत्र स्थिते तस्मिउजनाधिपे । 

अथाजगाम विप्रर्षिस्तदा द्वादशमे5हनि ।। १४ ।। 

वे रात-दिन एक ही जगह खड़े होकर तपस्यामें लगे रहे। तब बारहवें दिन महर्षि 
वसिष्ठका (वहाँ) शुभागमन हुआ ।। १४ ।। 

स विदित्वैव नृपतिं तपत्या हृतमानसम्‌ | 

दिव्येन विधिना ज्ञात्वा भावितात्मा महानृषि: ।। १५ ।। 


विशुद्ध अन्तःकरणवाले महर्षि वसिष्ठ दिव्यज्ञानसे पहले ही जान गये कि सूर्यकन्या 
तपतीने राजाका चित्त चुरा लिया है || १५ ।। 

तथा तु नियतात्मानं त॑ नृपं मुनिसत्तम: | 

आबभाषे स धर्मात्मा तस्यैवार्थचिकीर्षया ।। १६ ।। 

इस प्रकार मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर तपस्यामें लगे हुए उक्त नरेशसे धर्मात्मा 
मुनिवर वसिष्ठने उन्हींकी कार्यसिद्धिके लिये कुछ बातचीत की ।। १६ ।। 

स तस्य मनुजेन्द्रस्य पश्यतो भगवानृषि: । 

ऊर्ध्वमाचक्रमे द्रष्ट भास्करं भास्करद्युति: । १७ ।। 

उक्त महाराजके देखते-देखते सूर्यके समान तेजस्वी भगवान्‌ वसिष्ठ मुनि सूर्यदेवसे 
मिलनेके लिये ऊपरको गये ।। १७ ।। 

सहस्रांशुं ततो विप्र: कृताञज्जलिरुपस्थित: । 

वसिष्ठो5हमिति प्रीत्या स चात्मानं न्यवेदयत्‌ ।। १८ ।। 

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ दोनों हाथ जोड़कर सहस्रों किरणोंसे सुशोभित भगवान्‌ सूर्यदेवके 
समीप गये और 'मैं वसिष्ठ हूँ” यों कहकर उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे अपना समाचार निवेदित 
किया ।। १८ ।। 

(वसिष्ठ उवाच 


अजाय लोकत्रयपावनाय 
भूतात्मने गोपतये वृषाय । 
सूर्याय सर्गप्रलयालयाय 
नमो महाकारुणिकोत्तमाय ।। 
विवस्वते ज्ञानभृदन्तरात्मने 
जगत्प्रदीपाय जगद्धितैषिणे | 
स्वयम्भुवे दीप्तसहस्नचक्षुषे 
सुरोत्तमायामिततेजसे नम: ।। 
नम: सवित्रे जगदेकचक्षुषे 
जगत्प्रसूतिस्थितिनाशहेतवे । 
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे 
विरिज्चिनारायणशड्करात्मने ।।) 
फिर वसिष्ठजी बोले--जो अजन्मा, तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाले, समस्त 
प्राणियोंके अन्तर्यामी, किरणोंके अधिपति, धर्मस्वरूप, सृष्टि और प्रलयके अधिष्ठान तथा 
परम दयालु देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं, उन भगवान्‌ सूर्यको नमस्कार है। जो ज्ञानियोंके 
अन्तरात्मा, जगत्‌को प्रकाशित करनेवाले, संसारके हितैषी, स्वयम्भू तथा सहस्रों उद्दीप्त 


नेत्रोंसे सुशोभित हैं, उन अमिततेजस्वी सुरश्रेष्ठ भगवन्‌ सूर्यको नमस्कार है। जो जगत्‌के 
एकमात्र नेत्र हैं, संसारकी सृष्टि, पालन और संहारके हेतु हैं, तीनों वेद जिनके स्वरूप हैं, जो 
त्रिगुणात्मक स्वरूप धारण करके ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामसे प्रसिद्ध हैं, उन भगवान्‌ 
सविताको नमस्कार है। 

तमुवाच महातेजा विवस्वान्‌ मुनिसत्तमम्‌ | 

महर्षे स्वागतं ते5स्तु कथयस्व यथेप्सितम्‌ ।। १९ ।। 

तब महातेजस्वी भगवान्‌ सूर्यने मुनिवर वसिष्ठसे कहा--“महर्षे! तुम्हारा स्वागत है! 
तुम्हारी जो अभिलाषा हो, उसे कहो ।। १९ ।। 

यदिच्छसि महाभाग मत्त: प्रवदतां वर । 

तत्‌ ते दद्यामभिप्रेतं यद्यपि स्यात्‌ सुदुष्करम्‌ । २० ।। 

“वक्ताओंमें श्रेष्ठ महाभाग! तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, तुम्हारी वह अभीष्ट वस्तु 
कितनी ही दुर्लभ क्‍यों न हो, तुम्हें अवश्य दूँगा || २० ।। 

(स्तुतो5स्मि वरदस्ते5हं वरं वरय सुव्रत । 

स्तुतिस्त्वयोक्ता भक्तानां जप्येयं वरदो<5स्म्यहम्‌ ।।) 

“उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षे! तुमने जो मेरा स्तवन किया है, इसके लिये मैं 
तुम्हें वर देनेको उद्यत हूँ, कोई वर माँगो। तुम्हारे द्वारा कही हुई वह स्तुति भक्तोंके लिये 
निरन्तर जप करनेयोग्य है। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। 

एवमुक्त: स तेनर्षिवसिष्ठ: प्रत्यभाषत । 

प्रणिपत्य विवस्वन्तं भानुमन्तं महातपा: ।। २१ ।। 

उनके यों कहनेपर महातपस्वी मुनिवर वसिष्ठ मरीचि-माली भगवान्‌ भास्करको प्रणाम 
करके इस प्रकार बोले || २१ ।। 


वसिष्ठ उवाच 


यैषा ते तपती नाम सावित्र्यवरजा सुता । 

तां त्वां संवरणस्यार्थे वरयामि विभावसो ।। २२ ।। 

वसिष्ठजीने कहा--विभावसो! यह जो आपकी तपती नामकी पुत्री एवं सावित्रीकी 
छोटी बहिन है, इसे मैं आपसे राजा संवरणके लिये माँगता हूँ || २२ ।। 

स हि राजा बृहत्कीर्तिर्थर्मार्थविदुदारधी: । 

युक्त: संवरणो भर्ता दुहितुस्ते विहंगम || २३ ।। 

उस राजाकी कीर्ति बहुत दूरतक फैली हुई है। वे धर्म और अर्थके ज्ञाता तथा उदार 
बुद्धिवाले हैं; अतः आकाशचारी सूर्यदेव! महाराज संवरण आपकी पुत्रीके लिये सुयोग्य 
पति होंगे || २३ ।। 

इत्युक्त: स तदा तेन ददानीत्येव निश्चित: । 


प्रत्यभाषत त॑ विप्रं प्रतिनन्द्य दिवाकर: ।। २४ ।। 

वसिष्ठजीके यों कहनेपर अपनी कन्या देनेका निश्चय करके भगवान्‌ सूर्यने ब्रह्मर्षिका 
अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा-- ।। २४ ।। 

वर: संवरणो राज्ञां त्वमृषीणां वरो मुने । 

तपती योषितां श्रेष्ठा किमन्‍न्यदपवर्जनात्‌ ।। २५ ।। 

“मुने! संवरण राजाओंमें श्रेष्ठ हैं, आप महर्षियोंमें उत्तम हैं और तपती युवतियोंमें 
सर्वश्रेष्ठ है; अतः उसके दानसे श्रेष्ठ और क्या हो सकता है” || २५ ।। 

ततः सर्वानिवद्याज़ीं तपतीं तपन: स्वयम्‌ । 

ददौ संवरणस्यार्थ वसिष्ठाय महात्मने || २६ ।। 

तदनन्तर साक्षात्‌ भगवान्‌ सूर्यने अनिन्द्यसुन्दरी तपतीको राजा संवरणकी पत्नी होनेके 
लिये महात्मा वसिष्ठको अर्पित कर दिया ॥। २६ ।। 

प्रतिजग्राह तां कन्यां महर्षिस्तपतीं तदा । 

वसिष्ठो5थ विसृष्टस्तु पुनरेवाजगाम ह ।। २७ ।। 

यत्र विख्यातकीर्ति: स कुरूणामृषभो5भवत्‌ । 

स राजा मन्मथाविष्टस्तद्गतेनान्तरात्मना ।। २८ ।। 

ब्रह्मर्षि वसिष्ठने उस कन्याको ग्रहण किया और वहाँसे विदा होकर वे तपतीके साथ 
पुनः उस स्थानपर आये, जहाँ विख्यातकीर्ति, कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ राजा संवरण कामके 
वशीभूत हो मन-ही-मन तपतीका चिन्तन करते हुए बैठे थे | २७-२८ ।। 

दृष्टवा च देवकन्यां तां तपतीं चारुहासिनीम्‌ । 

वसिष्ठेन सहायान्तीं संहृष्टो 5भ्यधिकं बभौ ॥। २९ ।। 

मनोहर मुसकानवाली देवकन्या तपतीको वसिष्ठजीके साथ आती देख राजा संवरण 
अत्यन्त हर्षोल्लाससे युक्त हो अधिक शोभा पाने लगे ।। २९ ।। 





रुरुचे साधिकं सुभ्रूरापतन्ती नभस्तलात्‌ | 

सौदामिनीव विजश्रष्टा द्योतयन्ती दिशस्त्विषा || ३० ।। 

सुन्दर भौंहोंवाली तपती आकाशसे पृथ्वीपर आते समय गिरी हुई बिजलीके समान 
सम्पूर्ण दिशाओंको अपनी प्रभासे प्रकाशित करती हुई अधिक सुशोभित हो रही 
थी ।। ३० ।। 

कृच्छाद्‌ द्वादशरात्रे तु तस्य राज्ञ: समाहिते । 

आजगाम विशुद्धात्मा वसिष्ठो भगवानृषि: || ३१ ।। 

राजाने क्लेश सहन करते हुए बारह राततक एकाग्रचित्त होकर ध्यान लगाया था। तब 
विशुद्ध अन्त:ः:करणवाले भगवान्‌ वसिष्ठ मुनि राजाके पास आये थे ।। ३१ ।। 

तपसाड<<राध्य वरदं देवं गोपतिमी श्वरम्‌ । 

लेभे संवरणो भार्या वसिष्ठस्यैव तेजसा ।॥। ३२ ।। 

सबके अधीश्वर वरदायक देवशिरोमणि भगवान्‌ सूर्यको तपस्याद्वारा प्रसन्न करके 
महाराज संवरणने वसिष्ठजीके ही तेजसे तपतीको पत्नीरूपमें प्राप्त किया || ३२ ।। 

ततस्तस्मिन्‌ गिरिश्रेष्ठे देवगन्धर्वसेविते । 

जग्राह विधिवत्‌ पार्णिं तपत्या: स नरर्षभ: ।। ३३ ।। 

तदनन्तर उन नरश्रेष्ठने देवताओं और गन्धर्वोंसे सेवित उस उत्तम पर्वतपर विधिपूर्वक 
तपतीका पाणिग्रहण किया ।। ३३ ।। 


वसिष्ठेनाभ्यनुज्ञातस्तस्मिन्नेव धराधरे । 

सो5कामयत राजर्षिविंहतु सह भार्यया ।। ३४ ।। 

उसके बाद वसिष्ठजीकी आज्ञा लेकर राजर्षि संवरणने उसी पर्वतपर अपनी पत्नीके 
साथ विहार करनेकी इच्छा की ।। ३४ ।। 

ततः पुरे च राष्ट्र च वनेषूपवनेषु च । 

आदिदेश महीपालस्तमेव सचिवं तदा ।। ३५ ।। 

उन दिनों भूपालने नगर, राष्ट्र वन तथा उपवनोंकी देखभाल एवं रक्षाके लिये मन्त्रीको 
ही आदेश देकर विदा किया ।। ३५ ।। 

नृपतिं त्वभ्यनुज्ञाप्य वसिष्ठो<थापचक्रमे । 

सो<थ राजा गिरौ तस्मिन्‌ विजहारामरो यथा ।॥। ३६ ।। 

वसिष्ठजी भी राजासे विदा ले अपने स्थानको चले गये। तदनन्तर राजा संवरण उस 
पर्वतपर देवताकी भाँति विहार करने लगे ।। ३६ ।। 

ततो द्वादश वर्षाणि काननेषु वनेषु च । 

रेमे तस्मिन्‌ गिरौ राजा तथैव सह भार्यया ।। ३७ ।। 

वे उसी पर्वतके वनों और काननोंमें अपनी पत्नीके साथ उसी प्रकार बारह वर्षोंतक 
रमण करते रहे ।। ३७ ।। 

तस्य राज्ञ: पुरे तस्मिन्‌ समा द्वादश सत्तम | 

न ववर्ष सहस्राक्षो राष्ट्रे चैवास्य भारत ।। ३८ ।। 

अर्जुन! उन दिनों महाराज संवरणके राज्य और नगरमें इन्द्रने बारह वर्षोतक वर्षा नहीं 
की || ३८ ।। 

ततस्तस्यामनावृष्ट्यां प्रवृत्तायामरिंदम । 

प्रजा: क्षयमुपाजग्मु: सर्वा: सस्थाणुजड़मा: ।। ३९ ।। 

शत्रुसूदन! उस अनावृष्टिके समय प्राय: स्थावर एवं जंगम सभी प्रकारकी प्रजाका क्षय 
होने लगा ।। ३९ |। 

तस्मिंस्तथाविधे काले वर्तमाने सुदारुणे । 

नावश्याय: पपातोर्व्या तत: सस्यानि नारुहन्‌ ।। ४० ।। 

ऐसे भयंकर समयमें पृथ्वीपर ओसकी एक बूँदतक न गिरी। परिणाम यह हुआ कि 
खेती उगती ही नहीं थी ।। ४० ।। 

ततो विश्रान्तमनसो जना: क्षुद्धयपीडिता: । 

गृहाणि सम्परित्यज्य बश्रमु: प्रदिशो दिश: ।। ४१ ।। 

तब सभी लोगोंका चित्त व्याकुल हो उठा। मनुष्य भूखके भयसे पीड़ित हो घरोंको 
छोड़कर दिशा-विदिशाओंमें मारे-मारे फिरने लगे || ४१ ।। 

ततस्तस्मिन्‌ पुरे राष्ट्र त्यक्तदारपरिग्रहा: । 


परस्परममर्यादा: क्षुधार्ता जध्निरे जना: ।। ४२ ।। 

तत्‌ क्षुधार्तर्निरासहारै: शवभूतैस्तथा नरैः । 

अभवत्‌  प्रेतराजस्य पुरं प्रेतेरिवावृतम्‌ ।। ४३ ।। 

फिर तो उस नगर और राष्ट्रके लोग क्षुधासे पीड़ित हो सनातन मर्यादाको छोड़कर स्त्री, 
पुत्र एवं परिवार आदिका त्याग करके परस्पर एक-दूसरेको मारने और लूटने-खसोटने लगे। 
राजाका नगर ऐसे लोगोंसे भर गया, जो भूखसे आतुर हो उपवास करते-करते मुर्दोंके 
समान हो रहे थे। उन नर-कंकालोंसे परिपूर्ण वह नगर प्रेतोंसे घिरे हुए यमराजके 
निवासस्थान-सा जान पड़ता था ।। ४२-४३ || 

ततस्तत्‌ तादृशं दृष्टवा स एव भगवानृषि: । 

अभ्यवर्षत धर्मात्मा वसिष्ठो मुनिसत्तम: ।। ४४ ।। 

प्रजाकी ऐसी दुरवस्था देख धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ भगवान्‌ वसिष्ठने ही (अपने तपोबलसे) 
उस राज्यमें वर्षा की || ४४ ।। 

त॑ च पार्थिवशार्टूलमानयामास तत्‌ पुरम्‌ । 

तपत्या सहित राजन व्युषितं शाश्वती: समा: । 

ततः प्रवृष्टस्तत्रासीदू्‌ यथापूर्व सुरारिहा || ४५ ।। 

साथ ही वे नृपश्रेष्ठ संवरणको, जो बहुत वर्षोंसे प्रवासी हो रहे थे, तपतीके साथ नगरमें 
ले आये। उनके आनेपर दैत्यहन्ता देवराज इन्द्र वहाँ पूर्ववत्‌ वर्षा करने लगे || ४५ ।। 

तस्मिन्‌ नृपतिशार्टूले प्रविष्टे नगरं पुनः । 

प्रववर्ष सहस्राक्ष: सस्यानि जनयन्‌ प्रभु: ।। ४६ ।। 

उन श्रेष्ठ राजाके नगरमें प्रवेश करनेपर भगवान्‌ इन्द्रने वहाँ अन्नका उत्पादन बढ़ानेके 
लिये पुनः अच्छी वर्षा की || ४६ ।। 

ततः सराष्ट्रं मुमुदे तत्‌ पुरं परया मुदा । 

तेन पार्थिवमुख्येन भावितं भावितात्मना ।। ४७ ।। 

तबसे शुद्ध अन्तःकरणवाले नृपश्रेष्ठ संवरणके द्वारा पालित सब लोग प्रसन्न रहने लगे। 
उस राज्य और नगरमें बड़ा आनन्द छा गया ।। ४७ ।। 

ततो द्वादश वर्षाणि पुनरीजे नराधिप: । 

तपत्या सहित: पत्न्या यथा शच्या मरुत्पति: ।। ४८ ।। 

तदनन्तर तपतीके सहित महाराज संवरणने शचीके साथ इन्द्रके समान सुशोभित होते 
हुए बारह वर्षोतक यज्ञ किया ।। ४८ ।। 


गन्धर्व उवाच 
एवमासीन्महाभागा तपती नाम पौर्विकी । 
तव वैवस्वती पार्थ तापत्यस्त्वं यया मत: ।। ४९ ।। 


गन्धर्व कहता है--कुन्तीनन्दन! इस प्रकार भगवान्‌ सूर्यकी पुत्री महाभागा तपती 
आपके पूर्वपुरुष संवरणकी पत्नी हुई थी, जिससे मैंने आपको तपतीनन्दन माना 
है ।। ४९ || 

तस्यां संजनयामास कुरुं संवरणो नृपः । 

तपत्यां तपतां श्रेष्ठ तापत्यस्त्वं ततोडर्जुन ।। ५० ।। 

तपस्वीजनोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! महाराज संवरणने तपतीके गर्भसे कुरुको उत्पन्न किया था; 
अतः उसी वंशमें जन्म लेनेके कारण आपलोग तापत्य हुए ।। ५० ।। 

(कुरूद्धवा यतो यूयं कौरवा: कुरवस्तथा । 

पौरवा आजमीढाक्ष भारता भरतर्षभ || 

तापत्यमखिल प्रोक्तं वृत्तान्तं तव पूर्वकम्‌ । 

पुरोहितमुखा यूय॑ भुड्ग्ध्वं वै पृथिवीमिमाम्‌ ।।) 

भरतश्रेष्ठ उन्हीं कुरुसे उत्पन्न होनेके कारण आप सब लोग “कौरव” तथा “कुरुवंशी' 
कहलाते हैं। इसी प्रकार पुरुसे उत्पन्न होनेके कारण “पौरव”, अजमीढकुलमें जन्म लेनेसे 
“आजमीढ' तथा भरतकुलमें उत्पन्न होनेसे भारत” कहलाते हैं। इस प्रकार आपलोगोंकी 
वंशजननी तपतीका सारा पुरातन वृत्तान्त मैंने बता दिया। अब आपलोग पुरोहितको आगे 
रखकर इस पृथ्वीका पालन एवं उपभोग करें। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि तपत्युपाख्यानसमाप्तौ 
द्विसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७२ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें तपती-उपाख्यानकी समाप्तिसे 
सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७२ ॥/ 


अपन ह< बक। हक २ 2 


त्रिसप्तत्यांधिकशततमोब<् ध्याय: 


गन्धर्वका वसिष्ठजीकी महत्ता बताते हुए किसी श्रेष्ठ 
ब्राह्मणको पुरोहित बनानेके लिये आग्रह करना 


वैशम्पायन उवाच 


स गन्धर्ववच: श्रुत्वा तत्‌ तदा भरतर्षभ । 

अर्जुन: परया भक्‍त्या पूर्णचन्द्र इवाबभौ ।। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--भरतश्रेष्ठ जनमेजय! गन्धर्वका यह कथन सुनकर अर्जुन 
अत्यन्त भक्तिभावके कारण पूर्ण चन्द्रमाके समान शोभा पाने लगे ।। १ ।। 

उवाच च महेष्वासो गन्धर्व कुरुसत्तम: । 

जातकौतूहलो$तीव वसिष्ठस्य तपोबलात्‌ ।। २ ।। 

फिर महाधनुर्धर कुरुश्रेष्ठ अर्जुनने गन्धर्वसे कहा--'सखे! वसिष्ठके तपोबलकी बात 
सुनकर मेरे हृदयमें बड़ी उत्कण्ठा पैदा हो गयी है |। २ ।। 

वसिष्ठ इति तस्यैतदृषेर्नाम त्वयेरितम्‌ । 

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं यथावत्‌ तद्‌ वदस्व मे ।। ३ ।। 

“तुमने उन महर्षिका नाम वसिष्ठ बताया था। उनका यह नाम क्‍यों पड़ा? इसे मैं सुनना 
चाहता हूँ। तुम यथार्थ रूपसे मुझे बताओ ।। ३ ।। 

य एष गन्धर्वपते पूर्वेषां न: पुरोहित: । 

आसीदेतन्ममाचक्ष्व क एष भगवानृषि: ।। ४ ।। 

“गन्धर्वराज! ये जो हमारे पूर्वजोंके पुरोहित थे, वे भगवान्‌ वसिष्ठ मुनि कौन हैं? यह 
मुझसे कहो” ।। ४ ।। 

गन्धर्व उवाच 

ब्रहद्मणो मानस: पुत्रो वसिष्ठो5रुन्धतीपति: । 

तपसा निर्जितौ शश्वदजेयावमरैरपि ।। ५ |। 

कामक्रोधावुभौ यस्य चरणौ संववाहतु: । 

इन्द्रियाणां वशकरो वसिष्ठ इति चोच्यते ।। ६ ।। 

गन्धर्वने कहा--वसिष्ठजी ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। उनकी पत्नीका नाम अरुन्धती 
है। जिन्हें देवता भी कभी जीत नहीं सके, वे काम और क्रोध नामक दोनों शत्रु वसिष्ठजीकी 
तपस्यासे सदाके लिये पराभूत होकर उनके चरण दबाते रहे हैं। इन्द्रियोंको वशमें करनेके 
कारण वे वसिष्ठ कहलाते हैं || ५-६ ।। 

यस्तु नोच्छेदनं चक्रे कुशिकानामुदारधी: । 


विश्वामित्रापराधेन धारयन्‌ मन्युमुत्तमम्‌ || ७ ।। 

विश्वामित्रके अपराधसे मनमें पवित्र क्रोध धारण करते हुए भी उन उदारबुद्धि महर्षिने 
कुशिकवंशका समूलोच्छेद नहीं किया ।। ७ ।। 

पुत्रव्यसनसंतप्त: शक्तिमानप्यशक्तवत्‌ | 

विश्वामित्रविनाशाय न चक्रे कर्म दारुणम्‌ । ८ ।। 

विश्वामित्रके द्वारा अपने सौ पुत्रोंके मारे जानेसे वे संतप्त थे, उनमें बदला लेनेकी शक्ति 
भी थी, तो भी उन्होंने असमर्थकी भाँति सब कुछ सह लिया एवं विश्वामित्रका विनाश 
करनेके लिये कोई दारुण कर्म नहीं किया ।। ८ ।। 

मृतांश्व पुनराहर्तु शक्त: पुत्रान्‌ यमक्षयात्‌ 

कृतान्तं नातिचक्राम वेलामिव महोदधि: ।। ९ |। 

वे अपने मरे हुए पुत्रोंकी यमलोकसे वापस ला सकते थे; परंतु जैसे महासागर अपने 
तटका उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार वे यमराजकी मर्यादाको लाँघनेके लिये उद्यत नहीं 
हुए || ९ |। 

यं प्राप्प विजितात्मानं महात्मानं नराधिपा: । 

इक्ष्वाकवो महीपाला लेभिरे पृथिवीमिमाम्‌ ।। १० ।। 

उन्हीं जितात्मा महात्मा वसिष्ठ मुनिको (पुरोहितरूपमें) पाकर इक्ष्वाकुवंशी भूपालोंने 
(दीर्घपवकालतक) इस (समूची) पृथ्वीपर अधिकार प्राप्त किया था || १० ।। 

पुरोहितमिमं प्राप्प वसिष्ठमृषिसत्तमम्‌ । 

ईजिरे क्रतुभिश्वचैव नृपास्ते कुरुनन्दन ।। ११ ।। 

कुरुनन्दन! इन्हीं मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको पुरोहित-रूपमें पाकर उन नरपतियोंने बहुत-से 
यज्ञ भी किये थे ।। ११ ।। 

स हि तान्‌ याजयामास सर्वान्‌ नृपतिसत्तमान्‌ | 

ब्रद्मर्षि: पाण्डवश्रेष्ठ बृहस्पतिरिवामरान्‌ ।। १२ ।। 

पाण्डवश्रेष्ठ! जैसे बृहस्पतिजी सम्पूर्ण देवताओंका यज्ञ कराते हैं, उसी प्रकार ब्रह्मर्षि 
वसिष्ठने उन सम्पूर्ण श्रेष्ठ राजाओंका यज्ञ कराया था ।। १२ ।। 

तस्माद्‌ धर्मप्रधानात्मा वेदधर्मविदीप्सित: । 

ब्राह्मणो गुणवान्‌ ककश्रित्‌ पुरोधा: प्रतिदृश्यताम्‌ ।। १३ ।। 

इसलिये जिसके मनमें धर्मकी प्रधानता हो, जो वेदोक्त धर्मका ज्ञाता और मनके 
अनुकूल हो; ऐसे किसी गुणवान्‌ ब्राह्मगको आपलोग भी पुरोहित बनानेका निश्चय 
करें ।। १३ ।। 

क्षत्रियेणाभिजातेन पृथिवीं जेतुमिच्छता । 

पूर्व पुरोहित: कार्य: पार्थ राज्याभिवृद्धये ।। १४ ।। 


पार्थ! पृथ्वीको जीतनेकी इच्छा रखनेवाले कुलीन क्षत्रियको अपने राज्यकी वृद्धिके 
लिये पहले (किसी श्रेष्ठ ब्राह्मणको) पुरोहित नियुक्त कर लेना चाहिये || १४ ।। 

महीं जिगीषता राज्ञा ब्रह्मकार्य पुरस्सरम्‌ | 

तस्मात्‌ पुरोहित: कश्चिद्‌ गुणवान्‌ विजितेन्द्रिय: । 

विद्वान्‌ भवतु वो विप्रो धर्मकामार्थतत्त्ववित्‌ ।। १५ ।। 

पृथ्वीको जीतनेकी इच्छावाले राजाको उचित है कि वह ब्राह्मणको अपने आगे रखे; 
अतः कोई गुणवान्‌, जितेन्द्रिय, वेदाभ्यासी, विद्वान्‌ तथा धर्म, काम और अर्थका तत्त्वज्ञ 
ब्राह्मण आपका पुरोहित हो | १५ ।। 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि पुरोहितकरणकथने 
त्रिसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें पुरोहित बनानेके लिये 
कथनसम्बन्धी एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७३ ॥/ 


अपन बछ। | अकाल 


चतुःसप्तरत्यांधेिकशततमो< ध्याय: 


वसिष्ठजीके अद्भुत क्षमा-बलके आगे विश्वामित्रजीका 


परा'भव 
अर्जुन उवाच 
किंनिमित्तमभूद्‌ वैरं विश्वामित्रवसिष्ठयो: । 
वसतोराश्रमे दिव्ये शंस न: सर्वमेव तत्‌ ॥ १ ।। 
अर्जुनने पूछा--गन्धर्वराज! विश्वामित्र और वसिष्ठ मुनि तो अपने-अपने दिव्य 
आश्रममें निवास करते हैं, फिर उनमें वैर किस कारण हुआ? ये सब बातें मुझसे 
कहो ।। १ ।। 
गन्धर्व उवाच 
इदं वासिष्ठमाख्यानं पुराणं परिचक्षते । 
पार्थ सर्वेषु लोकेषु यथावत्‌ तन्निबोध मे ॥। २ ।। 
गन्धर्वने कहा--पार्थ! वसिष्ठदजीके इस उपाख्यानको सब लोकोंमें बहुत पुराना 
बतलाते हैं। उसे यथार्थरूपसे कहता हूँ, सुनिये || २ ।। 
कान्यकुब्जे महानासीत्‌ पार्थिवो भरतर्षभ । 
गाधीति विश्रुतो लोके कुशिकस्यात्मसम्भव: ।। ३ ।। 
भरतवंशशिरोमणे! कान्यकुब्ज देशमें एक बहुत बड़े राजा थे, जो इस लोकमें गाधिके 
नामसे विख्यात थे। वे कुशिकके औरस पुत्र बताये जाते हैं ।। ३ ।। 
तस्य धर्मात्मन: पुत्र: समृद्धबलवाहन: । 
विश्वामित्र इति ख्यातो बभूव रिपुमर्दन: ।। ४ || 
उन्हीं धर्मात्मा नरेशके पुत्र विश्वामित्रके नामसे प्रसिद्ध हैं, जो सेना और वाहनोंसे 
सम्पन्न होकर शत्रुओंका मानमर्दन किया करते थे ।। ४ ।। 
स चचार सहामात्यो मृगयां गहने वने । 
मृगान्‌ विध्यन्‌ वराहांश्व रम्येषु मरुधन्वसु ।। ५ ।। 
व्यायामकर्शित: सो5थ मृगलिप्सु: पिपासित: । 
आजगाम नरश्रेष्ठ वसिष्ठस्याश्रमं प्रति ।। ६ ।। 
तमागतमभिप्रेक्ष्य वसिष्ठ: श्रेष्ठभागृषि: । 
विश्वामित्र नरश्रेष्ठ प्रतिजग्राह पूजया ।। ७ ।। 
एक दिन वे अपने मन्त्रियोंके साथ गहन वनमें आखेटके लिये गये। मरुप्रदेशके सुरम्य 
वनोंमें उन्होंने वराहों और अन्य हिंसक पशुओंको मारते हुए एक हिंसक पशुको पकड़नेके 


लिये उसका पीछा किया। अधिक परिश्रमके कारण उन्हें बड़ा कष्ट सहना पड़ा। नरश्रेष्ठ! वे 
प्याससे पीड़ित हो महर्षि वसिष्ठके आश्रममें आये। मनुष्योंमें श्रेष्ठ महाराज विश्वामित्रको 
आया देख पूजनीय पुरुषोंकी पूजा करनेवाले महर्षि वसिष्ठने उनका सत्कार करते हुए 
आतिथ्य ग्रहण करनेके लिये आमन्त्रित किया || ५--७ ।। 

पाद्यार्ष्याचमनीयैस्तं स्वागतेन च भारत । 

तथैव परिजग्राह वन्येन हविषा तदा ।। ८ ।। 

भारत! पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, स्वागत-भाषण तथा वन्य हविष्य आदिसे उन्होंने 
विश्वामित्रजीका सत्कार किया ।। ८ ।। 

तस्याथ कामधुग्‌ धेनुर्वसिष्ठस्थ महात्मन: । 

उक्ता कामान्‌ प्रयच्छेति सा कामान्‌ दुह्मुते सदा ।। ९ |। 

महात्मा वसिष्ठजीके यहाँ एक कामधेनु थी, जो “अमुक-अमुक मनोरथोंको पूर्ण करो' 
यह कहने-पर सदा उन-उन कामनाओं को पूर्ण कर दिया करती थी ।। ९ |। 

ग्राम्यारण्याश्लौषधी श्व दुदुहे पय एव च । 

षड़सं चामृतनिभं रसायनमनुत्तमम्‌ ।। १० ।। 

भोजनीयानि पेयानि भक्ष्याणि विविधानि च । 

लेह्यान्यमृतकल्पानि चोष्याणि च तथार्जुन ।। ११ ।। 

रत्नानि च महाहाणि वासांसि विविधानि च । 

तैः कामै: सर्वसम्पूर्ण: पूजितश्च महीपति: ।। १२ ।। 

ग्रामीण तथा जंगली अन्न, फल-मूल, दूध, षड्रस भोजन, अमृतके समान मधुर परम 
उत्तम रसायन, खाने, पीने और चबानेयोग्य भाँति-भाँतिके पदार्थ, अमृतके समान स्वादिष्ठ 
चटनी आदि तथा चूसनेयोग्य ईख आदि वस्तुएँ तथा भाँति-भाँतिके बहुमूल्य रत्न एवं वस्त्र 
आदि सब सामग्रियोंको उस कामधेनुने प्रस्तुत कर दिया। सब प्रकारसे उन सम्पूर्ण 
मनोवांछित वस्तुओंके द्वारा हे अर्जुन! राजा विश्वामित्र भलीभाँति पूजित हुए ।। १०-- 
१२ || 

सामात्य: सबलश्चैव तुतोष स भृशं तदा । 

षद्धन्नतां सुपाश्चोरुं पुथुपछ्चसमावृताम्‌ ।। १३ ।। 

उस समय वे अपनी सेना और मन्त्रियोंके साथ बहुत संतुष्ट हुए। महर्षिकी धेनुका 
मस्तक, ग्रीवा, जाँघें, गलकम्बल, पूँछ और थन--ये छः: अंग बड़े एवं विस्तृत थे।* उसके 
पारश्वभाग तथा ऊरु बड़े सुन्दर थे। वह पाँच पृथुल अंगोंसे सुशोभित थीः ।। १३ ।। 

मण्डूकनेत्रां स्‍्वाकारां पीनोधसमनिन्दिताम्‌ | 

सुवालर्धि शड्कुकर्णा चारुशुज्रां मनोरमाम्‌ ।। १४ ।। 


उसकी आँखें मेढक-जैसी थीं। आकृति बड़ी सुन्दर थी। चारों थन मोटे और फैले हुए 
थे। वह सर्वथा प्रशंसाके योग्य थी। सुन्दर पूँछ, नुकीले कान और मनोहर सींगोंके कारण 
वह बड़ी मनोरम जान पड़ती थी ।। १४ ।। 

पुष्टायतशिरोग्रीवां विस्मित: सो5भिवीक्ष्य ताम्‌ । 

अभिनन्द्य स तां राजा नन्दिनीं गाधिनन्दन: ।। १५ ।। 

उसके सिर और गर्दन विस्तृत एवं पुष्ट थे। उसका नाम नन्दिनी था। उसे देखकर 
विस्मित हुए गाधिनन्दन विश्वामित्रने उसका अभिनन्दन किया ।। १५ ।। 

अब्रवीच्च भृशं तुष्ट: स राजा तमृषिं तदा । 

अर्बुदेन गवां ब्रह्मन्‌ मम राज्येन वा पुन: ।। १६ ।। 

नन्दिनीं सम्प्रयच्छस्व भुड्क्ष्व राज्यं महामुने । 

और अत्यन्त संतुष्ट होकर राजा विश्वामित्रने उस समय उन महर्षिसे कहा--“ब्रह्मन्‌! 
आप दस करोड़ गायें अथवा मेरा सारा राज्य लेकर इस नन्दिनी-को मुझे दे दें। महामुने! 
इसे देकर आप राज्य भोग करें" || १६३ ।। 


वसिष्ठ उवाच 
देवतातिथिपित्रर्थ याज्यार्थ च पयस्विनी ।। १७ ।। 
अदेया नन्दिनीयं वै राज्येनापि तवानघ । 


वसिष्ठजीने कहा--अनघ! देवता, अतिथि और पितरोंकी पूजा एवं यज्ञके हविष्य 
आदिके लिये यह दुधारू गाय नन्दिनी अपने यहाँ रहती है, इसे तुम्हारा राज्य लेकर भी नहीं 
दिया जा सकता || १७६ || 
विश्वामित्र उवाच 
क्षत्रियो5हं भवान्‌ विप्रस्तपस्स्वाध्यायसाधन: ।। १८ ।। 
विश्वामित्रजी बोले--मैं क्षत्रिय राजा हूँ और आप तपस्या तथा स्वाध्यायका साधन 
करनेवाले ब्राह्मण हैं ।। १८ ।। 





ब्राह्मणेषु कुतो वीर्य प्रशान्तेषु धृतात्मसु । 

अर्बुदेन गवां यस्त्वं न ददासि ममेप्सितम्‌ ।। १९ |। 

स्वधर्म न प्रहास्यामि नेष्यामि च बलेन गाम्‌ | 

(क्षत्रियोडस्मि न विप्रो&हं बाहुवीय्योंडस्मि धर्मतः । 

तस्माद्‌ भुजबलेनेमां हरिष्यामीह पश्यत: ।।) 

ब्राह्मण अत्यधिक शान्त और जितात्मा होते हैं। उनमें बल और पराक्रम कहाँसे आ 
सकता है; फिर क्‍या बात है जो आप मेरी अभीष्ट वस्तुको एक अर्बुद गाय लेकर भी नहीं दे 
रहे हैं। मैं अपना धर्म नहीं छोडूँगा, इस गायको बलपूर्वक ले जाऊँगा। मैं क्षत्रिय हूँ, ब्राह्मण 
नहीं हूँ। मुझे धर्मतः अपना बाहुबल प्रकट करनेका अधिकार है; अत: बाहुबलसे ही आपके 
देखते-देखते इस गायको हर ले जाऊँगा ।। १९३ ।। 

वसिष्ठ उवाच 


बलस्थश्वासि राजा च बाहुवीर्यश्न क्षत्रिय: ।। २० ।। 
यथेच्छसि तथा क्षिप्रं कुरु मा त्वं विचारय । 
वसिष्ठजीने कहा--तुम सेनाके साथ हो, राजा हो और अपने बाहुबलका भरोसा 
रखनेवाले क्षत्रिय हो। जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा शीघ्र कर डालो, विचार न करो ।। २०६ 
|| 


गन्धर्व उवाच 


एवमुक्तस्तथा पार्थ विश्वामित्रो बलादिव ।। २१ ।। 

हंसचन्द्रप्रतीकाशां नन्दिनीं तां जहार गाम्‌ । 

कशादण्डप्रणुदितां काल्यमानामितस्तत: ।। २२ ।। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! वसिष्ठजीके यों कहनेपर विश्वामित्रने मानो बलपूर्वक ही 
हंस और चन्द्रमाके समान श्वेत रंगवाली उस नन्दिनी गायका अपहरण कर लिया। उसे 
कोड़ों और डंडोंसे मार-मारकर इधर-उधर हाँका जा रहा था ॥| २१-२२ |। 

हम्भायमाना कल्याणी वसिष्ठस्याथ नन्दिनी । 

आगम्याभिमुखी पार्थ तस्थौ भगवदुन्मुखी ।। २३ ।। 

भृशं च ताड्यमाना वै न जगामाश्रमात्‌ ततः । 

अर्जुन] उस समय कल्याणमयी नन्दिनी डकराती हुई महर्षि वसिष्ठके सामने आकर 
खड़ी हो गयी और उन्हींकी ओर मुँह करके देखने लगी। उसके ऊपर जोर-जोरसे मार पड़ 
रही थी, तो भी वह आश्रमसे अन्यत्र नहीं गयी ।। २३ ई ।। 

वसिष्ठ उवाच 

शृणोमि ते रवं भद्रे विनदन्त्या: पुनः पुनः ।। २४ ।। 

हियसे त्वं बलाद भद्रे विश्वामित्रेण नन्दिनि । 

कि कर्तव्यं मया तत्र क्षमावान्‌ ब्राह्म॒णो हाहम्‌ ।। २५ ।। 

वसिष्ठजी बोले--भद्रे! तुम बार-बार क्रन्दन कर रही हो। मैं तुम्हारा आर्तनाद सुनता 
हूँ, परंतु क्या करूँ? कल्याणमयी नन्दिनि! विश्वामित्र तुम्हें बलपूर्वक हर ले जा रहे हैं। इसमें 
मैं क्या कर सकता हूँ। मैं एक क्षमाशील ब्राह्मण हूँ || २४-२५ ।। 

गन्धर्व उवाच 

सा भयाजन्नन्दिनी तेषां बलानां भरतर्षभ । 

विश्वामित्रभयोद्धिग्ना वसिष्ठं समुपागमत्‌ ।। २६ ।। 

गन्धर्व कहता है--भरतवंशशिरोमणे! नन्दिनी विश्वामित्रके भयसे उद्विग्न हो उठी थी। 
वह उनके सैनिकोंके भयसे मुनिवर वसिष्ठकी शरणमें गयी ।। २६ ।। 


गौरुवाच 


कशाग्रदण्डाभिह्वतां क्रोशन्ती मामनाथवत्‌ | 
विश्वामित्रबलैघोरैर्भगवन्‌ किमुपेक्षसे || २७ ।। 
गौने कहा--भगवन! विश्वामित्रके निर्दय सैनिक मुझे कोड़ों और डंडोंसे पीट रहे हैं। मैं 
अनाथकी भाँति क्रन्दन कर रही हूँ। आप क्‍यों मेरी उपेक्षा कर रहे हैं? ।। २७ ।। 
गन्धर्व उवाच 
नन्दिन्यामेवं क्रन्दन्त्यां धर्षितायां महामुनि: । 


न चुक्षुभे तदा धैर्यान्न चचाल धृतव्रत: ।। २८ ।। 
गन्धर्व कहता है--अर्जुन! नन्दिनी इस प्रकार अपमानित होकर करुण क्रन्दन कर 
रही थी, तो भी दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले महामुनि वसिष्ठ न तो क्षुब्ध हुए और न 
धैर्यसे ही विचलित हुए ।। २८ ।। 
वसिष्ठ उवाच 
क्षत्रियाणां बल॑ तेजो ब्राह्मुणानां क्षमा बलम्‌ | 
क्षमा मां भजते यस्माद्‌ गम्यतां यदि रोचते ।। २९ ।। 
वसिष्ठजी बोले--भद्रे! क्षत्रियोंका बल उनका तेज है और ब्राह्मणोंका बल उनकी 
क्षमा है। चूँकि मुझे क्षमा अपनाये हुए है, अतः तुम्हारी रुचि हो, तो जा सकती हो ।। २९ ।। 
नन्दिन्युवाच 
कि नु त्यक्तास्मि भगवन्‌ यदेवं त्वं प्रभाषसे । 
अत्यक्ताहं त्वया ब्रद्मन्‌ नेतुं शक्या न वै बलात्‌ ।। ३० ।। 
नन्दिनीने कहा--भगवन्‌! क्‍या आपने मुझे त्याग दिया, जो ऐसी बात कहते हैं? 
ब्रह्मन! आपने त्याग न दिया हो, तो कोई मुझे बलपूर्वक नहीं ले जा सकता || ३० ।। 
वसिष्ठ उवाच 


न त्वां त्यजामि कल्याणि स्थीयतां यदि शक्‍्यते । 

दृढेन दाम्ना बद्ध्वैष वत्सस्ते द्वियते बलात्‌ || ३१ ।। 

वसिष्ठजी बोले--कल्याणि! मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता। तुम यदि रह सको तो यहीं 
रहो। यह तुम्हारा बछड़ा मजबूत रस्सीसे बाँधकर बलपूर्वक ले जाया जा रहा है ।। ३१ ।। 

गन्धर्व उवाच 

3644४ हब तच्छृत्वा वसिष्ठस्थ पयस्विनी । 

ऊर्ध्वाज्चितशि प्रबभौ रौद्रदर्शना ।। ३२ ।। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! “यहीं रहो" वसिष्ठजीका यह वचन सुनकर नन्दिनीने अपने 
सिर और गर्दनको ऊपरकी ओर उठाया। उस समय वह देखनेमें बड़ी भयानक जान पड़ती 
थी ।। ३२ ।। 

क्रोधरक्तेक्षणा सा गौर्हम्भारवघनस्वना । 

विश्वामित्रस्य तत्‌ सैन्यं व्यद्रावयत सर्वश: ।। ३३ ।। 

क्रोधसे उसकी आँखें लाल हो गयी थीं। उसके डकरानेकी आवाज जोर-जोरसे सुनायी 
देने लगी। उसने विश्वामित्रकी उस सेनाको चारों ओर खदेड़ना शुरू किया || ३३ ।। 

कशाग्रदण्डाभिहता काल्यमाना ततस्ततः । 

क्रोधरक्तेक्षणा क्रोधं भूय एव समाददे ।। ३४ ।। 


कोड़ोंके अग्रभाग और डंडोंसे मार-मारकर इधर-उधर हाँके जानेके कारण उसके नेत्र 
पहलेसे ही क्रोधके कारण रक्तवर्णके हो गये थे। फिर उसने और भी क्रोध धारण 
किया ।। ३४ ।। 





आदित्य इव मध्यद्े क्रोधदीप्तवपुर्बभौ | 

अज्भारवर्ष मुज्चन्ती मुहुर्वालधितो महत्‌ ।। ३५ ।। 

असृजत्‌ पदह्लवान्‌ पुच्छात्‌ प्रस्रवाद्‌ द्रविडाउछकान्‌ | 

योनिदेशाच्च यवनान्‌ शकृतः शबरान्‌ बहुन्‌ ।। ३६ ।। 

क्रोधके कारण उसके शरीरसे अपूर्व दीप्ति प्रकट हो रही थी। वह दोपहरके सूर्यकी 
भाँति उद्धासित हो उठी। उसने अपनी पूँछसे बारंबार अंगारकी भारी वर्षा करते हुए पूँछसे 
स पह्नवोंकी सृष्टि की, थनोंसे द्रविडों और शकोंको उत्पन्न किया, योनिदेशसे यवनों और 
गोबरसे बहुतेरे शबरोंको जन्म दिया || ३५-३६ |। 

मूत्रतश्नासृजत्‌ कांश्रिच्छबरांश्वैव पार्श्वतः । 

पौण्ड्ान्‌ किरातान्‌ यवनान्‌ सिंहलान्‌ बर्बरान्‌ खसान्‌ ।। ३७ ।। 

कितने ही शबर उसके मूत्रसे प्रकट हुए। उसके पाश्चभागसे पौण्ड्र, किरात, यवन, 
सिंहल, बर्बर और खसोंकी सृष्टि हुई || ३७ ।। 

चिबुकांश्व पुलिन्दांश्व चीनान्‌ हूणान्‌ सकेरलान्‌ | 


ससर्ज फेनत: सा गौम्लेच्छान्‌ बहुविधानपि ॥। ३८ ।। 
इसी प्रकार उस गौने फेनसे चिबुक, पुलिन्द, चीन, हूण, केरल आदि बहुत प्रकारके 
म्लेच्छोंकी सृष्टि की || ३८ ।। 





विश्वामित्रकी सेनापर नन्दिनीका कोप 


तैर्विसृष्टेमहासैन्यैर्नानाम्लेच्छगणैस्तदा । 

नानावरणसंच्छन्नैर्नानायुधधरैस्तथा ।। ३९ ।। 

अवाकीर्यत संरब्धैर्विश्वामित्रस्य पश्यत: । 

एकैकश्न तदा योध: पञ्चभि: सप्तभिव्वृत: | ४० ।। 

उसके द्वारा रचे गये नाना प्रकारके म्लेच्छगणोंकी वे विशाल सेनाएँ जो 
अनेक प्रकारके कवच आदिसे आच्छादित थीं। सबने भाँति-भाँतिके आयुध 
धारण कर रखे थे और सभी सैनिक क्रोधमें भरे हुए थे। उन्होंने विश्वामित्रके 
देखते-देखते उनकी सेनाको तितर-बितर कर दिया। विश्वामित्रके एक-एक 
सैनिकको म्लेच्छ-सेनाके पाँच-पाँच, सात-सात योद्धाओंने घेर रखा 
था || ३९-४० || 

अस्त्रवर्षेण महता वध्यमानं बल॑ तदा । 

प्रभग्नं सर्वतस्त्रस्तं विश्वामित्रस्य पश्यत: ।। ४१२ ।। 

उस समय अस्त्र-शस्त्रोंकी भारी वर्षसे घायल होकर विश्वामित्रकी सेनाके 
पाँव उखड़ गये और उनके सामने ही वे सभी योद्धा भयभीत हो सब ओर भाग 
चले || ४१ ।। 

नच प्राणैर्वियुज्यन्ते केचित्‌ तत्रास्य सैनिका: । 

विश्वामित्रस्य संक्रुद्धैर्वासिछ्ैर्भरतर्षभ ।। ४२ ।। 

भरतश्रेष्ठ! क्रोधमें भरे हुए होनेपर भी वसिष्ठसेनाके सैनिक विश्वामित्रके 
किसी भी योद्धाका प्राण नहीं लेते थे || ४२ ।। 

सा गौस्तत्‌ सकल सैन्यं कालयामास दूरत: । 

विश्वामित्रस्य तत्‌ सैन्यं काल्यमानं त्रियोजनम्‌ ।। ४३ ।। 

क्रोशमानं भयोद्धिग्नं त्रातारं नाध्यगच्छत । 

इस प्रकार नन्दिनी गायने उनकी सारी सेनाको दूर भगा दिया। विश्वामित्रकी 
वह सेना तीन योजनतक खदेड़ी गयी। वह सेना भयसे व्याकुल होकर चीखती- 
चिल्लाती रही; किंतु कोई भी संरक्षक उसे नहीं मिला || ४३ ह ।। 

(विश्वामित्रस्ततो दृष्टवा क्रोधाविष्ट: स रोदसी । 

ववर्ष शरवर्षाणि वसिष्ठे मुनिसत्तमे ।। 

घोररूपांश्व नाराचान्‌ क्षुरान्‌ भल्लान्‌ महामुनि: । 

विश्वामित्रप्रयुक्तांस्तान्‌ वैणवेन व्यमोचयत्‌ ।। 

वसिष्ठस्य तदा दृष्टवा कर्मकौशलमाहदवे ।। 

विश्वामित्रो5पि कोपेन भूय: शत्रुनिपातन: । 

दिव्यास्त्रवर्ष तस्मै तु प्राहिणोन्मुनये रुषा ।। 

आग्नेयं वारुणं चैन्द्रं याम्यं वायव्यमेव च । 


विससर्ज महाभागे वसिष्ठे ब्रह्मण: सुते ।। 

अस्त्राणि सर्वतो ज्वालां विसृजन्ति प्रपेदिरे । 

युगान्तसमये घोरा: पतड़स्येव रश्मय: ।। 

वसिष्ठो5पि महातेजा ब्रद्याशत्तिप्रयुक्तया । 

यष्ट्या निवारयामास सर्वाण्यस्त्राणि स स्मयन्‌ ।। 

ततस्ते भस्मसाद्धूता: पतन्ति सम महीतले । 

अपोहा दिव्यान्यस्त्राणि वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्‌ ।। 

यह देखकर विश्वामित्र क्रोधसे व्याप्त हो मुनि-श्रेष्ठ वसिष्ठको लक्षित करके 
पृथिवी और आकाशमें बाणोंकी वर्षा करने लगे; परंतु महामुनि वसिष्ठने 
विश्वामित्रके चलाये हुए भयंकर नाराच, क्षुर और भल्ल नामक बाणोंका केवल 
बाँसकी छड़ीसे निवारण कर दिया। युद्धमें वसिष्ठ मुनिका वह कार्य-कौशल 
देखकर शत्रुओंको मार गिरानेवाले विश्वामित्र भी पुन: कुपित हो महर्षि वसिष्ठपर 
रोषपूर्वक दिव्यास्त्रोंकी वर्षा करने लगे। उन्होंने ब्रह्माजीके पुत्र महाभाग 
वसिष्ठपर आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, ऐन्द्रास्त्र, याम्यास्त्र और वायव्यास्त्रका प्रयोग 
किया। वे सब अस्त्र प्रलयकालके सूर्यकी प्रचण्ड किरणोंके समान सब ओरसे 
आगकी लपटें छोड़ते हुए महर्षिपर टूट पड़े; परंतु महातेजस्वी वसिष्ठने 
मुसकराते हुए ब्राह्मबलसे प्रेरित हुई छड़ीके द्वारा इन सब अस्त्रोंको पीछे लौटा 
दिया। फिर तो वे सभी अस्त्र भस्मीभूत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। इस प्रकार उन 
दिव्यास्त्रोंका निवारण करके वसिष्ठजीने विश्वामित्रसे यह बात कही। 


वसिष्ठ उवाच 


निर्जितो5सि महाराज दुरात्मन्‌ गाधिनन्दन । 

यदि ते<स्ति परं शौर्य तद्‌ दर्शय मयि स्थिते ।। 

वसिष्ठजी बोले--महाराज दुरात्मा गाधिनन्दन! अब तू परास्त हो चुका है। 
यदि तुझमें और भी उत्तम पराक्रम है तो मेरे ऊपर दिखा। मैं तेरे सामने डटकर 
खड़ा हूँ। 

गन्धर्व उवाच 

विश्वामित्रस्तथा चोक्तो वसिष्ठेन नराधिप । 

नोवाच किंचिद्‌ व्रीडाढ्यो विद्रावितमहाबल: ।।) 

गन्धर्व कहता है--राजन! विश्वामित्रकी वह विशाल सेना खदेड़ी जा चुकी 
थी। वसिष्ठ के द्वारा पूर्वोक्तरूपसे ललकारे जानेपर वे लज्जित होकर कुछ भी 
उत्तर न दे सके। 

दृष्टवा तन्महदाश्चर्य ब्रह्मतेजोभवे तदा ।। ४४ ।। 


विश्वामित्र: क्षत्रभावान्निर्विण्णो वाक्‍्यमब्रवीत्‌ । 

धिग्‌ बल क्षत्रियबल ब्रह्मतेजोबलं बलम्‌ ।। ४५ ।। 

ब्रद्मतजका यह अत्यन्त आश्चर्यजनक चमत्कार देखकर विश्वामित्र 
क्षत्रियत्वसे खिन्न एवं उदासीन हो यह बात बोले--'“क्षत्रिय-बल तो नाममात्रका 
ही बल है, उसे धिक्कार है। ब्रह्मतेजजनित बल ही वास्तविक बल 
है! || ४४-४५ ।। 

बलाबल विनिश्चित्य तप एव परं बलम्‌ | 

स राज्यं स्फीतमुत्सज्य तां च दीप्तां नृपश्रियम्‌ ।। ४६ ।। 

भोगांश्व॒ पृष्ठतः कृत्वा तपस्येव मनो दधे | 

स गत्वा तपसा सिद्धि लोकान्‌ विष्ट भ्य तेजसा ।। ४७ ।। 

तताप सर्वान्‌ दीप्तौजा ब्राह्मणत्वमवाप्तवान्‌ | 

अपिबच्च तत: सोममिन्द्रेण सह कौशिक: ।। ४८ ।। 

इस प्रकार बलाबलका विचार करके उन्होंने तपस्याको ही सर्वोत्तम बल 
निश्चत किया और अपने समृद्धिशाली राज्य तथा देदीप्यमान राज्यलक्ष्मीको 
छोड़कर, भोगोंको पीछे करके तपस्यामें ही मन लगाया। इस तपस्यासे सिद्धिको 
प्राप्त हो उद्दीप्त तेजवाले विश्वामित्रजीने अपने प्रभावसे सम्पूर्ण लोकोंको स्तब्ध 
एवं संतप्त कर दिया और (अन्ततोगत्वा) ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया; फिर वे 
इन्द्रके साथ सोमपान करने लगे || ४६--४८ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि वासिष्े विश्वामित्रपरा भवे 
चतु:सप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें वसिष्ठजीके चरित्रके 
प्रसंगमें विश्वामित्र-पराभवविषयक एक सौ चौद्वत्तरवाँ अध्याय पूरा 
हुआ ॥/ १७४ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १०६३ श्लोक मिलाकर कुल ५८३ श्लोक हैं) 


नस्म्म (2 अमन +ा 


३. गौओंके मस्तक आदि छ: अंगोंका बड़ा एवं विस्तृत होना शुभ माना गया है। जैसा कि शास्त्रका 
वचन है-- 
शिरो ग्रीवा सक्थिनी च सास्ना पुच्छमथ सतना: । शुभान्येतानि धेनूनामायतानि प्रचक्षते ।। 
२. गौओंका ललाट, दोनों नेत्र और दोनों कान--ये पाँचों अंग पृथु (पुष्ट एवं विस्तृत) हों तो विद्दानोंद्वारा 
अच्छे माने जाते हैं। जैसा कि शास्त्रका वचन है-- 
ललाटं श्रवणौ चैव नयनद्वितयं तथा । पृथून्येतानि शस्यन्ते धेनूनां पडच सूरिभि: ।। [नीलकण्ठी 
टीकासे] 


पजञज्चसप्तत्याधेकशततमो< ध्याय: 


शक्तिके शापसे कल्माषपादका राक्षस होना, विश्वामित्रकी 
प्रेरणासे राक्षसद्वारा वसिष्ठके पुत्रोंका भक्षण और वसिष्ठका 
शोक 


गन्धर्व उवाच 

कल्माषपाद इत्येवं लोके राजा बभूव ह । 

इक्ष्वाकुवंशज: पार्थ तेजसासदृशो भुवि ।। १ ।। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! इक्ष्वाकुवंशमें एक राजा हुए, जो लोकमें कल्माषपादके 
नामसे प्रसिद्ध थे। इस पृथ्वीपर वे एक असाधारण तेजस्वी राजा थे ।। १ ॥। 

स कदाचिद्‌ वन राजा मृगयां निर्ययौ पुरात्‌ 

मृगान्‌ विध्यन्‌ वराहांश्व चचार रिपुमर्दन: ।। २ ।। 

एक दिन वे नगरसे निकलकर वनमें हिंसक पशुओंको मारनेके लिये गये। वहाँ वे 
रिपुमर्दन नरेश वराहों और अन्य हिंसक पशुओंको मारते हुए इधर-उधर विचरने 
लगे || २ ।। 

तस्मिन्‌ वने महाघोरे खड्गांश्न बहुशो5हनत्‌ । 

हत्वा च सुचिरं श्रान्तो राजा निववृते ततः ।। ३ ।। 

उस महाभयानक वनमें उन्होंने बहुत-से गैंडे भी मारे। बहुत देरतक हिंस़न पशुओंको 
मारकर जब राजा थक गये, तब वहाँसे नगरकी ओर लौटे || ३ ।। 

अकामयतृ त॑ याज्यार्थे विश्वामित्र: प्रतापवान्‌ । 

स तु राजा महात्मानं॑ वासिष्ठमृषिसत्तमम्‌ ।। ४ ।। 

तृषार्तश्न क्षुधार्तक्ष एकायनगत: पथि । 

अपश्यदजित: संख्ये मुनि प्रतिमुखागतम्‌ ।। ५ ।। 

प्रतापी विश्वामित्र उन्हें अपना यजमान बनाना चाहते थे। राजा कल्माषपाद युद्धमें 
कभी पराजित नहीं होते थे। उस दिन वे भूख-प्याससे पीड़ित थे और ऐसे तंग रास्तेपर आ 
पहुँचे थे, जहाँ एक ही आदमी आ-जा सकता था। वहाँ आनेपर उन्होंने देखा, सामनेकी 
ओससे मुनिश्रेष्ठ महामना वसिष्ठकुमार आ रहे हैं ।। ४-५ ।। 

शक्ति नाम महाभागं वसिष्ठकुलवर्धनम्‌ । 

ज्येष्ं पुत्र पुत्रशताद्‌ वसिष्ठस्थ महात्मन: ।। ६ ।। 

वे वसिष्ठजीके वंशकी वृद्धि करनेवाले महाभाग शक्ति थे। महात्मा वसिष्ठजीके सौ 
पुत्रोंमें सबसे बड़े वे ही थे ।। ६ ।। 


अपगच्छ पथोड<स्माकमित्येवं पार्थिवो<ब्रवीत्‌ । 

तथा ऋषिरुवाचैनं सान्त्वयउश्लक्षणया गिरा ।। ७ ।। 

उन्हें देखकर राजाने कहा--/हमारे रास्तेसे हट जाओ।” तब शक्ति मुनिने मधुर वाणीमें 
उन्हें समझाते हुए कहा-- ।। ७ ।। 

मम पन्था महाराज धर्म एष सनातन: । 

रज्ञा सर्वेषु धर्मेषु देय: पनथा द्विजातये ॥ ८ ॥। 

“महाराज! मार्ग तो मुझे ही मिलना चाहिये। यही सनातन धर्म है। सभी धर्मोमें राजाके 
लिये यही उचित है कि ब्राह्मणको मार्ग दे” ।। ८ ।। 

एवं परस्परं तौ तु पथो<र्थ वाक्यमूचतु: । 

अपसर्पापसर्पेति वागुत्तरमकुर्वताम्‌ ।। ९ ।। 

इस प्रकार वे दोनों आपसमें रास्तेके लिये वाग्युद्ध करने लगे। एक कहता, “तुम हटो' 
तो दूसरा कहता, “नहीं, तुम हटो।' इस प्रकार वे उत्तर-प्रत्युत्तर करने लगे || ९ ।। 

ऋषिस्तु नापचक्राम तस्मिन्‌ धर्मपथे स्थित: । 

नापि राजा मुनेर्मानात्‌ क्रोधाच्चाथ जगाम ह ।। १० ।। 

अमुज्चन्तं तु पन्थानं तमृषिं नृपसत्तम: । 

जघान कशया मोहात्‌ तदा राक्षसवन्मुनिम्‌ ।। ११ ।। 

ऋषि तो धर्मके मार्गमें स्थित थे, अतः वे रास्ता छोड़कर नहीं हटे। उधर राजा भी मान 
और क्रोधके वशीभूत हो मुनिके मार्गसे इधर-उधर नहीं हट सके। राजाओंमें श्रेष्ठ 
कल्माषपादने मार्ग न छोड़नेवाले शक्ति मुनिके ऊपर मोह-वश राक्षसकी भाँति कोड़ेसे 
आघात किया ।। १०-११ |। 

कशाप्रहाराभिहतस्तत: स मुनिसत्तम: | 

त॑ शशाप नृपश्रेष्ठ॑ वासिष्ठ: क्रोधमूर्च्छित: ।। १२ ।। 

कोड़ेकी चोट खाकर मुनिश्रष्ठ शक्तिने क्रोधसे मूर्च्छिंत हो उन उत्तम नरेशको शाप दे 
दिया ।। १२ ।। 

हंसि राक्षसवद्‌ यस्माद्‌ राजापसद तापसम्‌ | 

तस्मात्‌ त्वमद्यप्रभृति पुरुषादो भविष्यसि ।। १३ ।। 

मनुष्यपिशिते सक्तश्नरिष्यसि महीमिमाम्‌ | 

गच्छ राजाभमेत्युक्त: शक्तिना वीर्यशक्तिना ।। १४ ।। 

तपस्याकी प्रबल शक्तिसे सम्पन्न शक्तिमुनिने कहा--“राजाओंमें नीच कल्माषपाद! तू 
एक तपस्वी ब्राह्मणको राक्षसकी भाँति मार रहा है, इसलिये आजसे नरभक्षी राक्षस हो 
जायगा तथा अबसे तू मनुष्योंके मांसमें आसक्त होकर इस पृथ्वीपर विचरता रहेगा। 
नृूपाधम! जा यहाँसे” ।। १३-१४ ।। 


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५११ ॥/55 ० 


ततो याज्यनिमित्ते तु विश्वामित्रवसिष्ठयो: । 

वैरमासीत्‌ तदा त॑ तु विश्वामित्रो5न्वपद्यत ।। १५ ।। 

उन्हीं दिनों यजमानके लिये विश्वामित्र और वसिष्ठमें वैर चल रहा था। उस समय 
विश्वामित्र राजा कल्माषपादके पास आये ।। १५ ।। 

तयोरविवदतोरेवं समीपमुपचक्रमे । 

ऋषिरुग्रतपा: पार्थ विश्वामित्र: प्रतापवान्‌ ।। १६ ।। 

अर्जुन! जब राजा तथा ऋषिषपुत्र दोनों इस प्रकार विवाद कर रहे थे, उग्रतपस्वी प्रतापी 
विश्वामित्र मुनि उनके निकट चले गये ।। १६ ।। 

ततः स बुबुधे पश्चात्‌ तमृषिं नृपसत्तम: । 

ऋषे: पुत्र वसिष्ठस्य वसिष्ठमिव तेजसा ।। १७ ।। 

तदनन्तर नृपश्रेष्ठ कल्माषपादने वसिष्ठके समान तेजस्वी वसिष्ठ मुनिके पुत्र उन महर्षि 
शक्तिको पहचाना ।। १७ |। 

अन्तर्धाय तदा5>त्मानं विश्वामित्रोडपि भारत । 

तावुभावतिचक्राम चिकीर्षन्नात्मन: प्रियम्‌ ।। १८ ।। 

भारत! तब विश्वामित्रजीने भी अपनेको अदृश्य करके अपना प्रिय करनेकी इच्छासे 
राजा और शक्ति दोनोंको चकमा दिया ।। १८ ।। 


स तु शप्तस्तदा तेन शक्तिना वै नृपोत्तम: । 

जगाम शरणं शक्ति प्रसादयितुमरहयन्‌ ।। १९ ।। 

जब शक्तिने शाप दे दिया, तब नृपतिशिरोमणि कल्माषपाद उनकी स्तुति करते हुए 
उन्हें प्रसन्न करनेके लिये उनके शरण होने चले ।। १९ ।। 

तस्य भावं विदित्वा स नृपते: कुरुसत्तम । 

विश्वामित्रस्ततो रक्ष आदिदेश नृपं प्रति ।। २० ।। 

कुरुश्रेष्ठ॒ राजाके मनोभावको समझकर उक्त विश्वामित्रजीने एक राक्षसको राजाके 
भीतर प्रवेश करनेके लिये आज्ञा दी || २० ।। 

शापात्‌ तस्य तु विप्रर्षेविश्वामित्रस्य चाज्ञया । 

राक्षस: किंकरो नाम विवेश नृपतिं तदा ।। २१ ।। 

ब्रह्मर्षि शक्तिके शाप तथा विश्वामित्रजीकी आज्ञासे किंकर नामक राक्षसने तब राजाके 
भीतर प्रवेश किया || २१ ।। 

रक्षसा तं गृहीतं तु विदित्वा मुनिसत्तम: । 

विश्वामित्रो5प्यपाक्रामत्‌ तस्माद्‌ देशादरिंदम || २२ ।। 

शत्रुसूदन! राक्षसने राजाको आविष्ट कर लिया है, यह जानकर मुनिवर विश्वामित्रजी 
भी उस स्थानसे चले गये ।। २२ ।। 

ततः स नृपतिस्तेन रक्षसान्तर्गतेन वै । 

बलवत्‌ पीडित: पार्थ नान्यबुध्यत किंचन ।। २३ ।। 

कुन्तीनन्दन! भीतर घुसे हुए राक्षससे अत्यन्त पीड़ित हो उन नरेशको किसी भी 
बातकी सुध-बुध न रही ।। २३ ।। 

ददर्शाथ द्विज: वच्िद्‌ राजानं प्रस्थितं वनम्‌ । 

अयाचत क्षुधापन्न: समांसं भोजनं तदा ।। २४ ।। 

एक दिन किसी ब्राह्मणने (राक्षससे आविष्ट) राजाको वनकी ओर जाते देखा और 
भूखसे अत्यन्त पीड़ित होनेके कारण उनसे मांससहित भोजन माँगा ।। २४ ।। 

तमुवाचाथ राजर्षिद्धिजं मित्रसहस्तदा । 

आस्स्व ब्रह्म॒ंस्त्वमत्रैव मुहूर्त प्रतिपालयन्‌ ।। २५ ।। 

तब राजर्षि मित्रसह (कल्माषपाद)-ने उस द्विजसे कहा--'ब्रह्मन! आप यहीं बैठिये 
और दो घड़ीतक प्रतीक्षा कीजिये || २५ ।। 

निवृत्त: प्रतिदास्यामि भोजन ते यथेप्सितम्‌ । 

इत्युक्त्वा प्रययौ राजा तस्थौ च द्विजसत्तम: ।। २६ ।। 

“मैं वनसे लौटनेपर आपको यशथेष्ट भोजन दूँगा।। यह कहकर राजा चले गये और वह 
ब्राह्मण (वहाँ) ठहर गया ।। २६ ।। 

ततो राजा परिक्रम्य यथाकामं यथासुखम्‌ । 


निवृत्तो5न्तःपुरं पार्थ प्रविवेश महामना: ।। २७ ।। 

पार्थ! तत्पश्चात्‌ महामना राजा मित्रसह इच्छानुसार मौजसे घूम-फिरकर जब लौटे, तब 
अन्तःपुरमें चले गये || २७ ।। 

ततोडर्धरात्र उत्थाय सूदमानाय्य सत्वरम्‌ । 

उवाच राजा संस्मृत्य ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुतम्‌ ।। २८ ।। 

गच्छामुष्मिन्‌ वनोद्देशे ब्राह्मणो मां प्रतीक्षते । 

अन्नार्थी तं त्वमन्नेन समांसेनोपपादय ।। २९ |। 

वहाँ आधी रातके समय उन्हें ब्राह्मणको भोजन देनेकी प्रतिज्ञाका स्मरण हुआ। फिर 
तो वे उठ बैठे और तुरंत रसोइयेको बुलाकर बोले--“जाओ, वनके अमुक प्रदेशमें एक 
ब्राह्मण भोजनके लिये मेरी प्रतीक्षा करता है। उसे तुम मांसयुक्त भोजनसे तृप्त 
करो” ।। २८-२९ |। 

गन्धर्व उवाच 

एवमुक्तस्तत: सूद: सो5नासाद्यामिषं क्वचित्‌ | 

निवेदयामास तदा तस्मै राज्ञे व्यथान्वित: ।। ३० ।। 

गन्धर्व कहता है--उनके यों कहनेपर रसोइयेने मांसके लिये खोज की; परंतु जब 
कहीं भी मांस नहीं मिला, तब उसने दु:ःखी होकर राजाको इस बातकी सूचना दी ।। ३० ।। 

राजा तु रक्षसा5<विष्ट: सूदमाह गतव्यथ: । 

अप्येनं नरमांसेन भोजयेति पुन: पुन: ।। ३१ ।। 

राजापर राक्षसका आवेश था, अतः उन्होंने रसोइयेसे निश्चिन्त होकर कहा--“उस 
ब्राह्मणको मनुष्यका मांस ही खिला दो' यह बात उन्होंने बार-बार दुहरायी ।। ३१ ।। 

तथेत्युक्त्वा तत: सूद: संस्थानं वध्यघातिनाम्‌ । 

गत्वा55जहार त्वरितो नरमांसमपेतभी: ।। ३२ ।। 

तब रसोइया “तथास्तु' कहकर वध्यभूमिमें जल्लादोंके घर गया और (उनसे) निर्भय 
होकर तुरंत ही मनुष्यका मांस ले आया ।। ३२ ।। 

एतत्‌ संस्कृत्य विधिवदन्नोपहितमाशु वै । 

तस्मै प्रादाद्‌ ब्राह्मणाय क्षुधिताय तपस्विने ।। ३३ ।। 

फिर उसीको तुरंत विधिपूर्वक राँधकर अन्नके साथ उसे उस तपस्वी एवं भूखे 
ब्राह्मणको दे दिया ।। ३३ ।। 

स सिद्धचक्षुषा दृष्टवा तदन्नं द्विजसत्तम: । 

अभोज्यमिदमित्याह क्रोधपर्याकुलेक्षण: ।। ३४ ।। 

तब उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने तपःसिद्ध दृष्टिसे उस अन्नको देखा और “यह खानेयोग्य नहीं है' 
यों समझकर क्रोधपूर्ण नेत्रोंसे देखते हुए कहा ।। ३४ ।। 


ब्राह्मण उवाच 

यस्मादभोज्यमन्नं मे ददाति स नृपाधम: । 

तस्मात्‌ तस्यैव मूढस्य भविष्यत्यत्र लोलुपा ।। ३५ ।। 

ब्राह्मणने कहा--वह नीच राजा मुझे न खाने-योग्य अन्न दे रहा है, अतः उसी मूर्खकी 
जिह्ठा ऐसे अन्नके लिये लालायित रहेगी || ३५ |। 

सक्तो मानुषमांसेषु यथोक्तः शक्तिना तथा । 

उद्वेजनीयो भूतानां चरिष्यति महीमिमाम्‌ ।। ३६ ।। 

जैसा कि शक्ति मुनिने कहा है, वह मनुष्योंके मांसमें आसक्त हो समस्त प्राणियोंका 
उद्वेगपात्र बनकर इस पृथ्वीपर विचरेगा || ३६ ।। 

द्विरनुव्याह्वते राज्ञ: स शापो बलवानभूत्‌ । 

रक्षोबलसमाविष्टो विसंज्ञश्नाभवन्नूप: ।। ३७ ।। 

दो बार इस तरहकी बात कही जानेके कारण राजाका शाप प्रबल हो गया। उसके साथ 
उनमें राक्षसके बलका समावेश हो जानेके कारण राजाकी विवेकशक्ति सर्वथा लुप्त हो 
गयी ।। ३७ ।। 

ततः स नृपतिश्रेष्ठो रक्षसापद्वतेन्द्रिय: । 

उवाच शर्ति तं दृष्टवा न चिरादिव भारत ॥। ३८ ।। 

भारत! राक्षसने राजाके मन और इन्द्रियोंको काबूमें कर लिया था, अतः उन नृपश्रष्ठने 
कुछ ही दिनों बाद उक्त शक्ति मुनिको अपने सामने देखकर कहा-- ।। ३८ ।। 

यस्मादसदृश: शाप: प्रयुक्तोडयं मयि त्वया । 

तस्मात्‌ त्वत्त: प्रवर्तिष्ये खादितुं पुरुषानहम्‌ ।। ३९ ।। 

“चूँकि तुमने मुझे यह सर्वथा अयोग्य शाप दिया है, अतः अब मैं तुम्हींसे मनुष्योंका 
भक्षण आरम्भ करूँगा” ।। ३९ ।। 

एवमुक्‍्त्वा तत: सद्यस्तं प्राणैविप्रयुज्य च । 

शक्तिनं भक्षयामास व्यात्र: पशुमिवेप्सितम्‌ ।। ४० ।। 

यों कहकर राजाने तत्काल ही शक्तिके प्राण ले लिये और जैसे बाघ अपनी रुचिके 
अनुकूल पशुको चबा जाता है, उसी प्रकार वे भी शक्तिको खा गये ।। ४० ।। 

शक्तिनं तु मृतं दृष्टवा विश्वामित्र: पुन: पुनः । 

वसिष्ठस्यैव पुत्रेषु तद्‌ रक्ष: संदिदेश ह ।। ४१ ।। 

शक्तिको मारा गया देख विश्वामित्र बार-बार वसिष्ठके पुत्रोंपर ही आक्रमण करनेके 
लिये उस राक्षसको प्रेरित करते थे || ४१ ।। 

स ताउछत्त्यवरान्‌ पुत्रान्‌ वसिष्ठस्थ महात्मन: । 

भक्षयामास संक्रुद्धः सिंह: क्षुद्रमूगानिव || ४२ ।। 


जैसे क्रोधमें भरा हुआ सिंह छोटे मृगोंको खा जाता है, उसी प्रकार उन 
(राक्षसभावापन्न) नरेशने महात्मा वसिष्ठके उन सब पुत्रोंको भी, जो शक्तिसे छोटे थे, 
(मारकर) खा लिया ।। ४२ ।। 

वसिष्ठो घातिताउच्ूुत्वा विश्वामित्रेण तान्‌ सुतान्‌ | 

धारयामास तं॑ शोक महाद्रिरिव मेदिनीम्‌ ।। ४३ ।। 

वसिष्ठने यह सुनकर भी कि विश्वामित्रने मेरे पुत्रोंकी मरवा डाला है, अपने शोकके 
वेगको उसी प्रकार धारण कर लिया, जैसे महान्‌ पर्वत सुमेरु इस पृथ्वीको ।। ४३ ।। 

चक्रे चात्मविनाशाय बुद्धिं स मुनिसत्तम: । 

न त्वेव कौशिकोच्छेदं मेने मतिमतां वर: ।। ४४ ।। 

उस समय (अपनी पुत्रवधुओंके दुःखसे दुःखित हो) वसिष्ठने अपने शरीरको त्याग 
देनेका विचार कर लिया; परंतु विश्वामित्रका मूलोच्छेद करनेकी बात बुद्धि-मानोंमें श्रेष्ठ 
मुनिवर वसिष्ठके मनमें ही नहीं आयी ।। ४४ ।। 

स मेरुकूटादात्मानं मुमोच भगवानृषि: । 

गिरेस्तस्य शिलायां तु तूलराशाविवापतत्‌ ।। ४५ ।। 

महर्षि भगवान्‌ वसिष्ठने मेरुपर्वतके शिखरसे अपने-आपको उसी पर्वतकी शिलापर 
गिराया; परंतु उन्हें ऐसा जान पड़ा मानो वे रूईके ढेरपर गिरे हों || ४५ ।। 

न ममार च पातेन स यदा तेन पाण्डव | 

तदाग्निमिद्धं भगवान्‌ संविवेश महावने ।। ४६ ।। 

पाण्डुनन्दन! जब (इस प्रकार) गिरनेसे भी वे नहीं मरे, तब वे भगवान्‌ वसिष्ठ महान्‌ 
वनके भीतर धधकते हुए दावानलमें घुस गये ।। ४६ ।। 

त॑ तदा सुसमिद्धो5पि न ददाह हुताशन: । 

दीप्यमानो<प्यमित्रघ्न शीतोडग्निरभवत्‌ ततः ।। ४७ ।। 

यद्यपि उस समय अग्नि प्रचण्ड वेगसे प्रज्वलित हो रही थी, तो भी उन्हें जला न सकी। 
शत्रुसूदन अर्जुन! उनके प्रभावसे वह दहकती हुई आग भी उनके लिये शीतल हो 
गयी ।। ४७ ।। 

स समुद्रमभिप्रेक्ष्य शोकाविष्टो महामुनि: । 

बद्ध्वा कण्ठे शिलां गुर्वी निपषात तदाम्भसि ।। ४८ ।। 

तब शोकके आवेशसे युक्त महामुनि वसिष्ठने सामने समुद्र देखकर अपने कण्ठमें बड़ी 
भारी शिला बाँध ली और तत्काल जलमें कूद पड़े ।। ४८ ।। 

स समुद्रोर्मिवेगेन स्थले न्यस्तो महामुनि: । 

न ममार यदा विप्र: कथंचित्‌ संशितव्रत: । 

जगाम स ततः खिन्नः पुनरेवाश्रमं प्रति ।। ४९ ।। 


परंतु समुद्रकी लहरोंके वेगने उन महामुनिको किनारे लाकर डाल दिया। कठोर व्रतका 
पालन करनेवाले ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जब किसी प्रकार न मर सके, तब खिन्न होकर अपने 
आश्रमपर ही लौट पड़े || ४९ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि वासिष्ठे वसिष्ठ शोके 
पञ्चसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७५ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरवव॑के अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें वसिष्ठचरित्रके प्रसंगमें 
वसिष्ठशोकविषयक एक सौ पचह्तत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७५ ॥। 


अपर बछ। ] अत्णऑका: 


षट्सप्तरत्याधेकशततमो< ध्याय: 


कल्माषपादका शापसे उद्धार और वसिष्ठजीके द्वारा उन्हें 
अश्मक नामक पुत्रकी प्राप्ति 


गन्धर्व उवाच 

ततो दृष्टवा55श्रमपद॑ रहित तै: सुतैर्मुनि: । 

निर्जगाम सुदु:खार्त: पुनरप्याश्रमात्‌ तत: ।। १ ।। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! तदनन्तर मुनिवर वसिष्ठ आश्रमको अपने पुत्रोंसे सूना देख 
अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो गये और पुन: आश्रम छोड़कर चल दिये ।। १ ।। 

सो<पश्यत्‌ सरितं पूर्णा प्रावृटूुकाले नवाम्भसा । 

वृक्षान्‌ बहुविधान्‌ पार्थ हरन्तीं तीरजान्‌ बहून्‌ ।। २ ।। 

कुन्तीनन्दन! वर्षाका समय था; उन्होंने देखा, एक नदी नूतन जलसे लबालब भरी है 
और तटवर्ती बहुत-से वृक्षोंको (अपने जलकी धारामें) बहाये लिये जाती है || २ ।। 

अथ चिन्तां समापेदे पुन: कौरवनन्दन । 

अम्भस्यस्या निमज्जेयमिति दुःखसमन्वित: ।। ३ ।। 

कौरवनन्दन! (उसे देखकर) दुःखसे युक्त वसिष्ठजीके मनमें फिर यह विचार आया कि 
मैं इसी नदीके जलमें डूब जाऊँ ।। ३ ।। 

ततः पाशैस्तदा55त्मानं गाढं बद्ध्वा महामुनिः । 

तस्या जले महानद्या निममज्ज सुदु:ःखित: ।। ४ ।। 

तब अत्यन्त दुःखी हुए महामुनि वसिष्ठ अपने शरीरको पाशोंद्वारा अच्छी तरह बाँधकर 
उस महानदीके जलनमें कूद पड़े || ४ ।। 

अथ छित्त्वा नदी पाशांस्तस्यारिबलसूदन । 

स्थलस्थं तमृषिं कृत्वा विपाशं समवासृजत्‌ ।। ५ ।। 

शत्रुसेनाका संहार करनेवाले अर्जुन! उस नदीने वसिष्ठजीके बन्धन काटकर उन्हें 
स्थलमें पहुँचा दिया और उन्हें विपाश (बन्धनरहित) करके छोड़ दिया ।। ५ |। 

उत्ततार ततः पाशैरविमुक्त: स महानृषि: । 

विपाशेति च नामास्या नद्याक्षक्रे महानृषि: ।। ६ ।। 

तब पाशमुक्त हो महर्षि जलसे निकल आये और उन्होंने उस नदीका नाम “विपाशा' 
(व्यास) रख दिया ।। ६ ।। 

शोकबुद्धिं तदा चक्रे न चैकत्र व्यतिष्ठत । 

सो5गच्छत्‌ पर्वतांश्नैव सरितश्न सरांसि च । ७ ।। 


उस समय (पुत्रवधुओंके संतोषके लिये) उन्होंने शोकबुद्धि कर ली थी, इसलिये वे 
किसी एक स्थानमें नहीं ठहरते थे; पर्वतों, नदियों और सरोवरोंके तटपर चक्कर लगाते 
रहते थे |। ७ ।। 

दृष्टवा स पुनरेवर्षिन्नदीं हैमवर्ती तदा । 

चण्डग्राहवतीं भीमां तस्या: स्रोतस्यपातयत्‌ ।। ८ ।। 

(इस तरह घूमते-घूमते) महर्षिने पुन: हिमालय पर्वतसे निकली हुई एक भयंकर नदीको 
देखा, जिसमें बड़े प्रचण्ड ग्राह रहते थे। उन्होंने फिर उसीकी प्रखर धारामें अपने-आपको 
डाल दिया ।। ८ ।। 

सा तमग्निसमं विप्रमनुचिन्त्य सरिद्वरा । 

शतधा विद्रुता यस्माच्छतद्रुरिति विश्रुता ।। ९ ।। 

वह श्रेष्ठ नदी ब्रह्मर्षि वसिष्ठको अग्निके समान तेजस्वी जान सैकड़ों धाराओंमें फ़ूटकर 
इधर-उधर भाग चली। इसीलिये वह “शतद्र' नामसे विख्यात हुई ।। ९ ।। 

ततः स्थलगतं दृष्टवा तत्राप्यात्मानमात्मना । 

मर्तु न शक्‍्यमित्युक्त्वा पुनरेवाश्रमं ययौ ।। १० ।। 

वहाँ भी अपनेको स्वयं ही स्थलमें पड़ा देख “मैं मर नहीं सकता” यों कहकर वे फिर 
अपने आश्रमपर ही चले गये ।। १० ।। 

स गत्वा विविधाज्छैलान देशान्‌ बहुविधांस्तथा । 

अदृश्यन्त्याख्यया वध्वाथाश्रमेडनुसृतो5भवत्‌ ।। ११ ।। 

इस तरह नाना प्रकारके पर्वतों और बहुसंख्यक देशोंमें भ्रमण करके वे पुन: जब अपने 
आश्रमके समीप आये, उस समय उनकी पुत्रवधू अदृश्यन्ती उनके पीछे हो ली ।। ११ ।। 

अथ शुश्राव संगत्या वेदाध्ययननि:स्वनम्‌ । 

पृष्ठत: परिपूर्णार्थ षड़भिरज्जैरलंकृतम्‌ ।। १२ ।। 

मुनिको पीछेकी ओरसे संगतिपूर्वक छहों अंगोंसे अलंकृत तथा स्फुट अर्थोसे युक्त 
वेदमन्त्रोंके अध्ययनका शब्द सुन पड़ा ।। १२ ।। 

अनुव्रजति को न्वेष मामित्येवाथ सो<ब्रवीत्‌ । 

अहमित्यदृश्यन्तीमं सा स्नुषा प्रत्यभाषत । 

शक्तेर्भार्या महाभाग तपोयुक्ता तपस्विनी ।। १३ ।। 

तब उन्होंने पूछा--'मेरे पीछे-पीछे कौन आ रहा है?” उक्त पुत्रवधूने उत्तर दिया, 
“'महाभाग! मैं तपमें ही संलग्न रहनेवाली महर्षि शक्तिकी अनाथ पत्नी अदृश्यन्ती 
हूँ! ।। १३ |। 

वसिष्ठ उवाच 


पुत्रि कस्यैष साड्स्य वेदस्याध्ययनस्वन: । 


पुरा साड्स्य वेदस्य शक्तेरिव मया श्रुत: ।। १४ ।। 
वसिष्ठजीने पूछा--बेटी! पहले शक्तिके मुँहसे मैं अंगोंसहित वेदका जैसा पाठ सुना 
करता था, ठीक उसी प्रकार यह किसके द्वारा किये हुए सांग वेदके अध्ययनकी ध्वनि मेरे 
कानोंमें आ रही है? ।। १४ ।। 
अदृश्यन्त्युवाच 
अयं कुक्षौ समुत्पन्न: शक्तिर्गर्भ: सुतस्य ते । 
समा द्वादश तस्येह वेदानभ्यस्यतो मुने ।। १५ ।। 


अदृश्यन्ती बोली--भगवन्‌! यह मेरे उदरमें उत्पन्न हुआ आपके पुत्र शक्तिका बालक 
है। मुने! उसे मेरे गर्भमें ही वेदाभ्यास करते बारह वर्ष हो गये हैं ।। १५ ।। 





गन्धर्व उवाच 


एवमुक्तस्तया हृष्टो वसिष्ठ: श्रेष्ठ भागृषि: । 

अस्ति संतानमित्युक्त्वा मृत्यो: पार्थ न्यवर्तत ।। १६ ।। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! अदृश्यन्तीके यों कहनेपर भगवान्‌ पुरुषोत्तमका भजन 
करनेवाले महर्षि वसिष्ठ बड़े प्रसन्न हुए और “मेरी वंशपरम्पराका लोप नहीं हुआ है, यों 
कहकर मरनेके संकल्पसे विरत हो गये ।। १६ ।। 


ततः प्रतिनिवृत्त: स तया वध्वा सहानघ । 

कल्माषपादमासीनं ददर्श विजने वने ।। १७ ।। 

अनघ! तब वे अपनी पुत्रवधूके साथ आश्रमकी ओर लौटने लगे। इतनेमें ही मुनिने 
निर्जन वनमें बैठे हुए राजा कल्माषपादको देखा ।। १७ ।। 

स तु दृष्टवैव तं राजा क्रुद्ध उत्थाय भारत । 

आवदविष्टो रक्षसोग्रेण इयेषात्तुं तदा मुनिम्‌ । १८ ।। 

भारत! भयानक राक्षससे आविष्ट हुए राजा कल्माषपाद मुनिको देखते ही क्रोधमें 
भरकर उठे और उसी समय उन्हें खा जानेकी इच्छा करने लगे ।। १८ ।। 

अदृश्यन्ती तु तं दृष्टवा क्रूरकर्माणमग्रत: । 

भयसंविग्नया वाचा वसिष्ठमिदमब्रवीत्‌ ।। १९ ।। 

उस क्रूरकर्मी राक्षसको सामने देख अदृश्यन्तीने भयाकुल वाणीमें वसिष्ठजीसे यह कहा 
-- || १९ || 

असौ मृत्युरिवोग्रेण दण्डेन भगवन्नित: । 

प्रगृहीतेन काछेन राक्षसो5भ्येति दारुण: ।। २० ।। 

“भगवन्‌! वह भयंकर राक्षस एक बहुत बड़ा काठ लेकर इधर ही आ रहा है, मानो 
साक्षात्‌ यमराज भयानक दण्ड लिये आ रहे हैं || २० ।। 

त॑ निवारयितुं शक्तो नान्यो5स्ति भुवि कश्नन । 

त्वदृतेडद्य महाभाग सर्ववेदविदां वर || २३१ ।। 

“महाभाग! आप सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। (इस समय) इस भूतलपर आपके सिवा 
दूसरा कोई नहीं है, जो उस राक्षसका वेग रोक सके ।। २१ ।। 

पाहि मां भगवन्‌ पापादस्माद्‌ दारुणदर्शनात्‌ । 

राक्षसो&्यमिहात्तुं वै नूनमावां समीहते ।। २२ ।। 

“भगवन्‌! देखनेमें अत्यन्त भयंकर इस पापीसे मेरी रक्षा कीजिये। निश्चय ही यह राक्षस 
यहाँ हम दोनोंको खा जानेकी घातमें लगा है” || २२ ।। 


वसिष्ठ उवाच 


मा भै: पुत्रि न भेतव्यं राक्षसात्‌ तु कथंचन । 

नैतद्‌ रक्षो भयं यस्मात्‌ पश्यसि त्वमुपस्थितम्‌ ।। २३ ।। 

वसिष्ठजीने कहा--बेटी! भयभीत न हो। इस राक्षससे तो किसी प्रकार न डरो। 
जिससे तुम्हें भय उपस्थित दिखायी देता है, यह वास्तवमें राक्षस नहीं है ।। २३ ।। 

राजा कल्माषपादो<थयं वीर्यवान्‌ प्रथितो भुवि | 

स एषो<5स्मिन्‌ वनोद्देशे निवसत्यतिभीषण: || २४ ।। 


ये भूमण्डलमें विख्यात पराक्रमी राजा कल्माषपाद हैं। ये ही इस वनमें अत्यन्त भीषण 
रूप धारण करके रहते हैं ।। २४ ।। 


गन्धर्व उवाच 
तमापततन्तं सम्प्रेक्ष्य वसिष्ठो भगवानृषि: । 
वारयामास तेजस्वी हुंकारेणैव भारत ।। २५ ।। 
गन्धर्व कहता है--भारत! उस राक्षसको आते देख तेजस्वी भगवान्‌ वसिष्ठ मुनिने 
हुंकारमात्रसे ही रोक दिया || २५ ।। 





मन्त्रपूतेन च पुन: स तमभ्युक्ष्य वारिणा । 

मोक्षयामास वै शापात्‌ तस्माद्‌ योगान्नराधिपम्‌ ।। २६ ।। 

और मन्त्रपूत जलसे उसके छींटे देकर अपने योगके प्रभावसे राजाको उस शापसे मुक्त 
कर दिया ।। २६ ।। 

स हि द्वादश वर्षाणि वासिष्ठस्यैव तेजसा । 

ग्रस्त आसीद्‌ ग्रहेणेव पर्वकाले दिवाकर: ।। २७ ।। 

जैसे पर्वकालमें सूर्य राहुद्वारा ग्रस्त हो जाता है, उसी प्रकार राजा कल्माषपाद बारह 
वर्षोतक वसिष्ठजीके पुत्र शक्तिके ही तेज (शापके प्रभाव)-से ग्रस्त रहे || २७ ।। 


रक्षसा विप्रमुक्तो5थ स नृपस्तद्‌ वनं महत्‌ | 

तेजसा रज्जयामास संध्याभ्रमिव भास्कर: ।। २८ ।। 

उस (मन्त्रपूत जलके प्रभावसे) राक्षसने भी राजाको छोड़ दिया। फिर तो भगवान्‌ 
भास्कर जैसे संध्याकालीन बादलोंको अपनी (अरुण) किरणोंसे रँँग देते हैं, उसी प्रकार 
राजाने अपने (सहज) तेजसे उस महान्‌ वनको अनुरंजित कर दिया ।। २८ ।। 

प्रतिलभ्य तत: संज्ञामभिवाद्य कृताउ्जलि: । 

उवाच नृपति: काले वसिष्ठमृषिसत्तमम्‌ ।। २९ ।। 

तदनन्तर सचेत होनेपर राजा कल्माषपादने तत्काल ही मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको प्रणाम 
किया और हाथ जोड़कर कहा-- || २९ |। 

सौदासो<हं महाभाग याज्यस्ते मुनिसत्तम । 

अस्मिन्‌ काले यदि ते ब्रूहि किं करवाणि ते ।। ३० ।। 

“महाभाग मुनिश्रेष्ठ! मैं आपका यजमान सौदास हूँ। इस समय आपकी जो अभिलाषा 
हो, कहिये--मैं आपकी क्‍या सेवा करूँ?” || ३० ।। 

वसिष्ठ उवाच 


वृत्तमेतद्‌ यथाकालं गच्छ राज्यं प्रशाधि वै । 

ब्राह्माणं तु मनुष्येन्द्र मावमंस्था: कदाचन ।। ३१ ।। 

वसिष्ठजीने कहा--नरेन्द्र! मेरी जो अभिलाषा थी, वह समयानुसार सिद्ध हो गयी। 
अब जाओ, अपना राज्य सँभालो। (आजसे फिर) कभी ब्राह्मणका अपमान न 
करना ।। ३१ || 

राजोवाच 

नावमंस्ये महाभाग कदाचिद्‌ ब्राह्मणानहम्‌ । 

त्वन्निदेशे स्थित: सम्यक्‌ पूजयिष्याम्यहं द्विजान्‌ । ३२ ।। 

राजा बोले--महाभाग! मैं कभी ब्राह्मणोंका अपमान नहीं करूँगा। आपकी आज्ञाके 
पालनमें संलग्न हो (सदा) ब्राह्मणोंकी भलीभाँति पूजा करूँगा ।। ३२ ।। 

इक्ष्वाकूणां च येनाहमनृण: स्यां द्विजोत्तम । 

तत्‌ त्वत्त: प्राप्तुमिच्छामि सर्ववेदविदां वर | ३३ |। 

समस्त वेदवेत्ताओंमें अग्रगण्य द्विजश्रेष्ठ) मैं आपसे एक पुत्र प्राप्त करना चाहता हूँ, 
जिसके द्वारा मैं अपने इक्ष्वाक॒ुवंशी पितरोंक ऋणसे उऋण हो सकूँ ।। ३३ ।। 

अपत्यमीप्सितं महां दातुमरहसि सत्तम । 

शीलरूपगुणोपेतमिक्ष्वाकुकुलवृद्धये ॥। ३४ ।। 

साधुशिरोमणे।! इक्ष्वाकुवंशकी वृद्धिके लिये आप मुझे ऐसी अभीष्ट संतान दीजिये, जो 
उत्तम स्वभाव, सुन्दर रूप और श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न हो || ३४ ।। 


गन्धर्व उवाच 

ददानीत्येव तं तत्र राजानं प्रत्युवाच ह । 

वसिष्ठ: परमेष्वासं सत्यसंधो द्विजोत्तम: ।। ३५ ।। 

गन्धर्व कहता है--कुन्तीनन्दन! तब सत्यप्रतिज्ञ विप्रवर वसिष्ठने महान्‌ धनुर्धर राजा 
कल्माषपादसे उत्तरमें कहा-- "मैं तुम्हें वैसा ही पुत्र दूँगा” || ३५ ।। 

ततः प्रतिययौ काले वसिष्ठ: सह तेन वै । 

ख्यातां पुरीमिमां लोकेष्वयोध्यां मनुजेश्वर ।। ३६ ।। 

मनुजेश्वर! तदनन्तर यथासमय राजाके साथ वसिष्ठजी उनकी राजधानीमें गये, जो 
लोकोंमें अयोध्या पुरीके नामसे प्रसिद्ध है ।। ३६ ।। 

त॑ प्रजा: प्रतिमोदन्त्य: सर्वा: प्रत्युदूगतास्तदा । 

विपाप्मानं महात्मानं दिवौकस इवेश्वरम्‌ ।। ३७ ।। 

अपने पापरहित महात्मा नरेशका आगमन सुनकर अयोध्याकी सारी प्रजा अत्यन्त 
प्रसन्न हो उनकी अगवानीके लिये ठीक उसी तरह बाहर निकल आयी, जैसे देवतालोग 
अपने स्वामी इन्द्रका स्वागत करते हैं || ३७ ।। 

सुचिराय मनुष्येन्द्रो नगरीं पुण्यलक्षणाम्‌ | 

विवेश सहितस्तेन वसिष्ठेन महर्षिणा ।। ३८ ।। 

ददृशुस्तं महीपालमयोध्यावासिनो जना: । 

पुरोहितेन सहितं दिवाकरमिवोदितम्‌ ।। ३९ ।। 

बहुत वर्षोंके बाद राजाने उस पुण्यमयी नगरीमें प्रसिद्ध महर्षि वसिष्ठके साथ प्रवेश 
किया। अयोध्या-वासी लोगोंने पुरोहितके साथ आये हुए राजा कल्माष-पादका उसी प्रकार 
दर्शन किया, जैसे (प्रातःकाल) प्रजा उदित हुए भगवान्‌ सूर्यका दर्शन करती 
है ।। ३८-३९ || 

सच तां पूरयामास लक्ष्म्या लक्ष्मीवतां वर: । 

अयोध्यां व्योम शीतांशु: शरत्काल इवोदित: ।। ४० ।। 

जैसे शीतल किरणोंवाले चन्द्रमा शरत्कालमें उदित हो आकाशको अपनी ज्योत्स्नासे 
जगमग कर देते हैं, उसी प्रकार लक्ष्मीवानोंमें श्रेष्ठ नरेशने उस अयोध्यापुरीको शोभासे 
परिपूर्ण कर दिया || ४० ।। 

संसिक्तमृष्टपन्थानं पताकाध्वजशोभितम्‌ । 

मन: प्रह्लादयामास तस्य तत्‌ पुरमुत्तमम्‌ ।। ४१ ।। 

नगरकी सड़कोंको झाड़-बुहारकर उनपर छिड़काव किया गया था। सब ओर लगी हुई 
ध्वजा-पताकाएँ उस पुरीकी शोभा बढ़ा रही थीं। इस प्रकार राजाकी वह उत्तम नगरी 
दर्शकोंके मनको उत्तम आह्वाद प्रदान कर रही थी ।। ४१ ।। 

तुष्टपपुष्टजनाकीर्णा सा पुरी कुरुनन्दन । 


अशोभत तदा तेन शक्रेणेवामरावती ।। ४२ ।। 

कुरुनन्दन! जैसे इन्द्रसे अमरावतीकी शोभा होती है, उसी प्रकार संतुष्ट एवं पुष्ट 
मनुष्योंसे भरी हुई अयोध्यापुरी उस समय महाराज कल्माषपादकी उपस्थितिसे बड़ी शोभा 
पा रही थी ।। ४२ ।। 

ततः प्रविष्टे राजर्षो तस्मिंस्तत्‌ पुरमुत्तमम्‌ । 

राज्ञस्तस्याज्ञया देवी वसिष्ठमुपचक्रमे ।। ४३ ।। 

राजर्षि कल्माषपादके उस उत्तम नगरीमें प्रवेश करनेके पश्चात्‌ उक्त महाराजकी 
आज्ञाके अनुसार महारानी (मदयन्ती) महर्षि वसिष्ठजीके समीप गयीं ।। ४३ ।। 

ऋतावथ महर्षि: स सम्बभूव तया सह । 

देव्या दिव्येन विधिना वसिष्ठ: श्रेष्ठभागृषि: ।। ४४ ।। 

तत्पश्चात्‌ भगवद्धक्त महर्षि वसिष्ठने ऋतुकालमें शास्त्रकी अलौकिक विधिके अनुसार 
महारानीके साथ नियोग किया ।। ४४ ।। 

ततस्तस्यां समुत्पन्ने गर्भे स मुनिसत्तम: । 

राज्ञाभिवादितस्तेन जगाम मुनिराश्रमम्‌ ।। ४५ ।। 

तदनन्तर रानीकी कुक्षिमें गर्भ स्थापित हो जानेपर उक्त राजासे वन्दित हो (उनसे विदा 
लेकर) मुनिवर वसिष्ठ अपने आश्रमको लौट गये ।। ४५ ।। 

दीर्घकालेन सा गर्भ सुषुवे न तु तं॑ यदा । 

तदा देव्यश्मना कुक्षिं निर्बिभेद यशस्विनी ।। ४६ ।। 

जब बहुत समय बीतनेके बाद (भी) वह गर्भ बाहर न निकला, तब यशस्विनी रानी 
(मदयन्ती)-ने अश्म (पत्थर)-से अपने गर्भाशयपर प्रहार किया ।। ४६ ।। 

ततोडपि द्वादशे वर्षे स जज्ञे पुरुषर्षभ: । 

अश्मको नाम राजर्षि: पौदन्यं यो न्यवेशयत्‌ ।। ४७ ।। 

तदनन्तर बारहवें वर्षमें बालकका जन्म हुआ। वही पुरुषश्रेष्ठ राजर्षि अश्मकके नामसे 
प्रसिद्ध हुआ, जिन्होंने पौदन्‍य नामका नगर बसाया था ।। ४७ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि वासिछ्े सौदाससुतोत्पत्तौ 
षट्सप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑ीके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें वसिष्ठचरित्रके प्रसंगें सौदासको 
पुत्र-प्राप्तिविषयक एक सौ छिह्वत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७६ ॥/ 


ऑपन--माज बक। अकाल 


सप्तसप्तत्याधेकशततमोब< ध्याय: 


शक्तिपुत्र पपशरका जन्म और पिताकी हाल 
सुनकर कुपित हुए पराशरको शान्त करनेके लिये 
वसिष्ठजीका उन्हें और्वोपाख्यान सुनाना 
गन्धर्व उवाच 


आश्रमस्था तत: पुत्रमदृश्यन्ती व्यजायत । 

शक्ते: कुलकरं राजन्‌ द्वितीयमिव शक्तिनम्‌ ।। १ ।। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! तदनन्तर (वसिष्ठजीके) आश्रममें रहती हुई अदृश्यन्तीने 
शक्तिके वंशको बढ़ानेवाले एक पुत्रको जन्म दिया, मानो उस बालकके रूपमें दूसरे शक्ति 
मुनि ही हों ।। १ ।। 

जातकर्मादिकास्तस्य क्रिया: स मुनिसत्तम: । 

पौत्रस्य भरतश्रेष्ठ चकार भगवान्‌ स्वयम्‌ ।। २ ।। 

भरतश्रेष्ठ! मुनिवर भगवान्‌ वसिष्ठने स्वयं अपने पौत्रके जातकर्म आदि संस्कार 
किये ।। २ ।। 

परासु: स यतस्तेन वसिष्ठ: स्थापितो मुनि: । 

गर्भस्थेन ततो लोके पराशर इति स्मृतः ।। ३ ।। 

उस बालकने गर्भमें आकर परासु (मरनेकी इच्छावाले) वसिष्ठ मुनिको पुनः जीवित 
रहनेके लिये उत्साहित किया था; इसलिये वह लोकमें “पराशर” के नामसे विख्यात 
हुआ ।। ३ ।। 

अमन्यत स धर्मात्मा वसिष्ठ पितरं मुनि: । 

जन्मप्रभृति तस्मिंस्तु पितरीवान्ववर्तत ।। ४ ।। 

धर्मात्मा पराशर मुनि वसिष्ठको ही अपना पिता मानते थे और जन्मसे ही उनके प्रति 
पितृभाव रखते थे ।। ४ ।। 

स तात इति विप्रर्षिवसिष्ठं प्रत्यभाषत । 

मातु: समक्ष कौन्तेय अदृश्यन्त्या: परंतप ।। ५ ।। 

परंतप कुन्तीकुमार! एक दिन ब्रह्मर्षि पराशरने अपनी माता अदृश्यन्तीके सामने ही 
वसिष्ठजीको “तात” कहकर पुकारा ।। ५ |। 

तातेति परिपूर्णार्थ तस्य तन्मधुरं वच: । 

अदृश्यन्त्यश्रुपूर्णाक्षी शृण्वती तमुवाच ह ।। ६ ।। 


बेटेके मुखसे परिपूर्ण अर्थका बोधक “तात” यह मधुर वचन सुनकर अदृश्यन्तीके 
नेत्रोमें आँसू भर आये और वह उससे बोली-- || ६ |। 

मा तात तात तातेति ब्रूहोनं पितरं पितु: । 

रक्षसा भक्षितस्तात तव तातो वनान्तरे ।। ७ ।। 

“बेटा! ये तुम्हारे पिताके भी पिता हैं। तुम इन्हें 'तात तात!” कहकर न पुकारो। वत्स! 
तुम्हारे पिताको तो वनके भीतर राक्षस खा गया ।। ७ ।। 

मन्यसे यं तु तातेति नैष तातस्तवानघ । 

आर्य एष पिता तस्य पितुस्तव यशस्विन: ।। ८ ।। 

“अनघ! तुम जिन्हें तात मानते हो, ये तुम्हारे तात नहीं हैं। ये तो तुम्हारे यशस्वी पिताके 
भी पूजनीय पिता हैं! || ८ ।। 

स एवमुक्तो दु:खार्त: सत्यवागृषिसत्तम: । 

सर्वलोकविनाशाय मतिं चक्रे महामना: ।। ९ ।। 

माताके यों कहनेपर सत्यवादी मुनिश्रेष्ठ महामना पराशर दुःखसे आतुर हो उठे। उन्होंने 
उसी समय सब लोकोंको नष्ट कर डालनेका विचार किया ।। ९ |। 

तं॑ तथा निश्चितात्मानं स महात्मा महातपा: । 

ऋषिर्त्रह्मविदां श्रेष्ठो मैत्रावरुणिरन्त्यधी: ।। १० ।। 

वसिष्ठो वारयामास हेतुना येन तच्छूणु । 

उनके मनका ऐसा निश्चय जान ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महातपस्वी, महात्मा एवं ताच्चिक 
बुद्धिवाले मित्रावरुणनन्दन वसिष्ठजीने पराशरको ऐसा करनेसे रोक दिया। जिस हेतु और 
युक्तिसे वे उन्हें रोकनेमें सफल हुए, वह (बताता हूँ,) सुनिये || १०३ ।। 

वसिष्ठ उवाच 


कृतवीर्य इति ख्यातो बभूव पृथिवीपति: ।। ११ ।। 

याज्यो वेदविदां लोके भृगूणां पार्थिवर्षभ: । 

स तानग्रभुजस्तात धान्येन च धनेन च ।। १२ ।। 

सोमान्ते तर्पयामास विपुलेन विशाम्पति: । 

तस्मिन्‌ नृपतिशार्दूले स्वर्यातेडथ कथंचन ।। १३ ।। 

बभूव तत्कुलेयानां द्रव्यकार्यमुपस्थितम्‌ । 

भगूणां तु धन ज्ञात्वा राजान: सर्व एव ते ।। १४ ।। 

याचिष्णवो5भिजममुस्तांस्ततो भार्गवसत्तमान्‌ | 

भूमौ तु निदधु: केचिद्‌ भूगवों धनमक्षयम्‌ ॥। १५ ।। 

वसिष्ठजीने (पराशरसे) कहा--वत्स! इस पृथ्वीपर कृतवीर्य नामसे प्रसिद्ध एक 
राजा थे। वे नृपश्रेष्ठ वेदज्ञ भृगुवंशी ब्राह्मणोंक यजमान थे। तात! उन महाराजने सोमयज्ञ 


करके उसके अन्तमें उन अग्रभोजी भार्गवोंको विपुल धन और धान्य देकर उसके द्वारा पूर्ण 
संतुष्ट किया। राजाओंमें श्रेष्ठ कृतवीर्यके स्वर्गवासी हो जानेपर उनके वंशजोंको किसी तरह 
द्रव्यकी आवश्यकता आ पड़ी। भृगुवंशी ब्राह्मणोंके यहाँ धन है, यह जानकर वे सभी 
राजपुत्र उन श्रेष्ठ भार्गवोंके पास याचक बनकर गये। उस समय कुछ भार्गवोंने अपनी 
अक्षय धनराशिको धरतीमें गाड़ दिया || ११--१५ ।। 

ददुः केचिद्‌ द्विजातिभ्यो ज्ञात्वा क्षत्रियतो भयम्‌ | 

भृगवस्तु ददुः केचित्‌ तेषां वित्तं यथेप्सितम्‌ ।। १६ ।। 

कुछने क्षत्रियोंस भय समझकर अपना धन ब्राह्मणोंको दे दिया और कुछ भृगुवंशियोंने 
उन क्षत्रियोंको यथेष्ट धन दे भी दिया || १६ ।। 

क्षत्रियाणां तदा तात कारणान्तरदर्शनात्‌ । 

ततो महीतल  तात क्षत्रियेण यदृच्छया ।। १७ ।। 

खनताधिगतं वित्तं केनचिद्‌ भुगुवेश्मनि । 

तद्‌ वित्त ददृशु: सर्वे समेता: क्षत्रियर्षभा: || १८ ।। 

तात! कुछ दूसरे-दूसरे कारणोंका विचार करके उस समय उन्होंने क्षत्रियोंको धन प्रदान 
किया था। वत्स! तदनन्तर किसी क्षत्रियने अकस्मात्‌ धरती खोदते-खोदते किसी 
भुगुवंशीके घरमें गड़ा हुआ धन पा लिया। तब सभी श्रेष्ठ क्षत्रियोंने एकत्र होकर उस धनको 
देखा ।। १७-१८ ।। 

अवमन्य ततः क्रोधाद्‌ भृगूंस्ताउछरणागतान्‌ | 

निजषघ्नु: परमेष्वासा: सर्वास्तान्‌ निशितै: शरै: ।। १९ |। 

फिर तो उन्होंने क्रोधमें भरकर शरणमें आये हुए भूगुवंशियोंका भी अपमान किया। उन 
महान्‌ धनुर्धर वीरोंने (वहाँ आये हुए) समस्त भार्गवोंको तीखे बाणोंसे मारकर यमलोक 
पहुँचा दिया ।। १९ |। 

आगर्भादवकृन्तन्तश्वेरु: सर्वा वसुन्धराम्‌ । 

तत उच्छिद्यमानेषु भृगुष्वेवं भयात्‌ तदा ।। २० ।। 

भगुपत्न्यो गिरिं दुर्ग हिमवन्तं प्रपेदिरे । 

तासामन्यतमा गर्भ भयाद्‌ दश्ने महौजसम्‌ ।। २१ ।। 

ऊरुणैकेन वामोरुर्भ्तु: कुलविवृद्धये । 

तद्‌ गर्भमुपलभ्याशु ब्राह्मणी या भयार्दिता ।। २२ ।। 

गत्वैका कथयामास क्षत्रियाणामुपद्नरे । 

ततस्ते क्षत्रिया जम्मुस्तं गर्भ हन्तुमुद्यता: ॥। २३ ।। 

तदनन्तर भृगुवंशियोंके गर्भस्थ बालकोंकी भी हत्या करते हुए वे क्रोधान्ध क्षत्रिय सारी 
पृथ्वीपर विचरने लगे। इस प्रकार भृगुवंशका उच्छेद आरम्भ होनेपर भृगुवंशियोंकी पत्नियाँ 
उस समय भयके मारे हिमालयकी दुर्गम कन्दरामें जा छिपीं। उनमेंसे एक स्त्रीने अपने 


महान्‌ तेजस्वी गर्भकों भयके मारे एक ओरकी जाँघको चीरकर उसमें रख लिया। उस 
वामोरुने अपने पतिके वंशकी वृद्धिके लिये ऐसा साहस किया था। उस गर्भका समाचार 
जानकर कोई ब्राह्मणी बहुत डर गयी और उसने शीघ्र ही अकेली जाकर क्षत्रियोंके समीप 
उसकी खबर पहुँचा दी। फिर तो वे क्षत्रियलोग उस गर्भकी हत्या करनेके लिये उद्यत हो 
वहाँ गये || २०--२३ ।। 

ददृशु््राह्मणीं तेडथ दीप्यमानां स्वतेजसा । 

अथ गर्भ: स भित्त्वोरुं ब्राह्माण्या निर्जागम ह ।। २४ ।। 

उन्होंने देखा, वह ब्राह्मणी अपने तेजसे प्रकाशित हो रही है। उसी समय उस 
ब्राह्मणीका वह गर्भस्थ शिशु उसकी जाँघ फाड़कर बाहर निकल आया ।। २४ ।। 

मुष्णन्‌ दृष्टी: क्षत्रियाणां मध्याह्न इव भास्कर: | 

ततकश्नक्षुविहीनास्ते गिरिदुर्गेषु बच्रमु: ।। २५ ।। 

बाहर निकलते ही दोपहरके प्रचण्ड सूर्यकी भाँति उस तेजस्वी शिशुने (अपने तेजसे) 
उन क्षत्रियोंकी आँखोंकी ज्योति छीन ली। तब वे अंधे होकर उस पर्वतके बीहड़ स्थानोंमें 
भटकने लगे || २५ ।। 

ततस्ते मोहमापन्ना राजानो नष्टदृष्टय: । 

ब्राह्मणीं शरणं जममुर्दृष्ट्यूर्थ तामनिन्दिताम्‌ ।। २६ ।। 

फिर मोहके वशीभूत हो अपनी दृष्टिको खो देनेवाले क्षत्रियोंने पुनः दृष्टि प्राप्त करनेके 
लिये उसी सती-साध्वी ब्राह्मगीकी शरण ली || २६ ।। 

ऊचुश्चैनां महाभागां क्षत्रियास्ते विचेतस: । 

ज्योतिः प्रहीणा दु:खार्ता: शान्तार्चिष इवाग्नय: ।। २७ ।। 

भगवत्या: प्रसादेन गच्छेत्‌ क्षत्र॑ं सचक्षुषम्‌ । 

उपारम्य च गच्छेम सहिता: पापकर्मिण: ।। २८ ।। 

वे क्षत्रिय उस समय आँखकी ज्योतिसे वंचित हो बुझी हुई लपटोंवाली आगके समान 
अत्यन्त दुःखसे आतुर एवं अचेत हो रहे थे। अतः वे उस महान्‌ सौभाग्यशालिनी देवीसे इस 
प्रकार बोले--'देवि! यदि आपकी कृपा हो तो नेत्र पाकर यह क्षत्रियोंका दल अब लौट 
जायगा, थोड़ी देर विश्राम करके हम सभी पापाचारी यहाँसे साथ ही चले 
जायँगे” || २७-२८ ।। 

सपुत्रा त्वं प्रसाद नः कर्तुमहसि शोभने । 

पुनर्दृष्टिप्रदानेन राज्ञ: संत्रातुमहिसि ।। २९ |। 

'शोभने! तुम अपने पुत्रके साथ हम सबपर प्रसन्न हो जाओ और पुन: नूतन दृष्टि देकर 
हम सभी राजपुत्रोंकी रक्षा करो” || २९ |। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वण्यौवोपाख्याने 
सप्तसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७७ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें औवोपाख्यानविषयक एक सौ 
सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७७ ॥। 


ऑपनआक्रात बछ। अ-काज जा 


अष्टस प्तरत्याधेकशततमो< ध्याय: 
पितरोंद्वारा और्वके क्रोधका निवारण 


ब्राह्मण्युवाच 

नाहं गृह्नामि वस्ताता दृष्टी्नास्मि रुषान्विता । 

अयं तु भार्गवो नूनमूरुज: कुपितो5चद्य व: ।। १ ।। 

ब्राह्मणीने कहा--पुत्रो! मैंने तुम्हारी दृष्टि नहीं ली है; मुझे तुमपर क्रोध भी नहीं है। 
परंतु मेरी जाँघसे पैदा हुआ यह भृगुवंशी बालक निश्चय ही तुम्हारे ऊपर आज कुपित हुआ 
है।। १।। 

तेन चक्षूंषि वस्ताता व्यक्त कोपान्महात्मना । 

स्मरता निहतान्‌ बन्धूनादत्तानि न संशय: ॥। २ ।। 

पुत्रो! यह स्पष्ट जान पड़ता है कि इस महात्मा शिशुने तुमलोगोंद्वारा मारे गये अपने 
बन्धु-बान्धवोंका स्मरण करके क्रोधवश तुम्हारी आँखें ले ली हैं, इसमें संशय नहीं 
है।। २ ।। 

गर्भानपि यदा यूय॑ भृगूणां घ्नत पुत्रका: । 

तदायमूरुणा गर्भो मया वर्षशतं धृत: ।॥। ३ ।। 

बच्चो! जबसे तुमलोग भृगुवंशियोंके गर्भस्थ बालकोंकी भी हत्या करने लगे, तबसे मैंने 
अपने इस गर्भको सौ वर्षोतक एक जाँघमें छिपाकर रखा था ।। ३ ।। 

षडड्रश्चाखिलो वेद इमं गर्भस्थमेव ह । 

विवेश भृगुवंशस्य भूय: प्रियचिकीर्षया ।। ४ ।। 

भूगुकुलका पुनः प्रिय करनेकी इच्छासे छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेद इस बालकको 
गर्भमें ही प्राप्त हो गये थे ।। ४ ।। 

सो<यं पितृवधाद्‌ व्यक्त क्रोधाद्‌ वो हन्तुमिच्छति । 

तेजसा तस्य दिव्येन चक्षूंषि मुषितानि व: ।। ५ ।। 

अतः यह बालक अपने पिताके वधसे कुपित हो निश्चय ही तुमलोगोंको मार डालना 
चाहता है। इसीके दिव्य तेजसे तुम्हारी नेत्र-ज्योति छिन गयी है ।। ५ ।। 

तमेव यूयं याचध्वमौर्व मम सुतोत्तमम्‌ । 

अयं व: प्रणिपातेन तुष्टो दृष्टी: प्रमोक्ष्यति ।। ६ ।। 

इसलिये तुमलोग मेरे इस उत्तम पुत्र और्वसे ही याचना करो। यह तुमलोगोंके 
नतमस्तक होनेसे संतुष्ट होकर पुनः तुम्हारी खोयी हुई नेत्रोंकी ज्योति दे देगा |। ६ ।। 


वसिष्ठ उवाच 


एवमुक्तास्तत: सर्वे राजानस्ते तमूरुजम्‌ । 

ऊचुः प्रसीदेति तदा प्रसादं च चकार स: ।। ७ ।। 

वसिष्ठजी कहते हैं--पराशर! ब्राह्मणीके यों कहनेपर उन सब क्षत्रियोंने तब और्वको 
(प्रणाम करके) कहा--'“आप प्रसन्न होइये।" तब (उनके विनययुक्त वचन सुनकर) औरर्वने 
प्रसन्न हो (अपने तपके प्रभावसे) उनको नेत्रोंकी ज्योति दे दी || ७ ।। 

अनेनैव च विख्यातो नाम्ना लोकेषु सत्तम: । 

स ऑर्व इति विप्रर्षिरूरुं भित्तता व्यजायत ।। ८ ।। 

वे साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षि अपनी माताका ऊरु भेदन करके उत्पन्न हुए थे, इसी कारण 
लोकमें “और्व” नामसे उनकी ख्याति हुई ।। ८ ।। 

चक्षूंषि प्रतिलब्ध्वा च प्रतिजग्मुस्ततो नृपा: । 

भार्गवस्तु मुनिर्मेने सर्वतलोकपराभवम्‌ ।। ९ ।। 

तदनन्तर अपनी खोयी हुई आँखें पाकर वे क्षत्रियलोग लौट गये; इधर भृगुवंशी और्व 
मुनिने सम्पूर्ण लोकोंके पराभवका विचार किया ।। ९ ।। 

स चक्रे तात लोकानां विनाशाय महामना: । 

सर्वेषामेव कार्त्स्न्येन मन: प्रवणमात्मन: ।। १० ।। 

वत्स पराशर! उन महामना मुनिने समस्त लोकोंका पूर्णरूपसे विनाश करनेकी ओर 
अपना मन लगाया ।। १० || 

इच्छन्नपचितिं कर्तु भूगूणां भूगुनन्दन: । 

सर्वलोकविनाशाय तपसा महतैधित: ।। ११ ।। 

भगुकुलको आनन्दित करनेवाले उस कुमारने (क्षत्रियोंद्वारा मारे गये) अपने भृगुवंशी 
पूर्वजोंका सम्मान करने (अथवा उनके वधका बदला लेने)-के लिये सब लोकोंके विनाशका 
निश्चय किया और बहुत बड़ी तपस्याद्वारा अपनी शक्तिको बढ़ाया ।। ११ ।। 

तापयामास तॉल्लोकान्‌ सदेवासुरमानुषान्‌ । 

तपसोग्रेण महता नन्दयिष्यन्‌ पितामहान्‌ ।। १२ ।। 

उसने अपने पितरोंको आनन्दित करनेके लिये अत्यन्त उग्र तपस्याद्वारा देवता, असुर 
और मनुष्योंसहित उन सभी लोकोंको संतप्त कर दिया ।। १२ ।। 

ततस्तं पितरस्तात विज्ञाय कुलनन्दनम्‌ । 

पितृलोकादुपागम्य सर्व ऊचुरिदं वच: ।। १३ ।। 

तात! तदनन्तर सभी पितरोंने अपने कुलका आनन्द बढ़ानेवाले और्व मुनिका वह 
निश्चय जानकर पितृलोकसे आकर यह बात कही ।। १३ ।। 


पितर ऊचु. 
और्व दृष्ट: प्रभावस्ते तपसोग्रस्य पुत्रक | 


प्रसादं कुरु लोकानां नियच्छ क्रोधमात्मन: ।। १४ ।। 

पितर बोले--बेटा और्व! तुम्हारी उग्र तपस्याका प्रभाव हमने देख लिया। अब अपना 
क्रोध रोको और सम्पूर्ण लोकोंपर प्रसन्न हो जाओ ।। १४ ।। 

नानीशैहिं तदा तात भगुभिभवितात्मभि: | 

वधो हापेक्षित: सर्व: क्षत्रियाणां विहिंसताम्‌ । १५ ।। 

तात! यह न समझना कि जिस समय क्षत्रियलोग हमारी हिंसा कर रहे थे, उस समय 
शुद्ध अन्तःकरणवाले हम भृगुवंशी ब्राह्मणोंने असमर्थ होनेके कारण अपने कुलके वधको 
चुपचाप सह लिया ।। १५ ।। 

आयुषा विप्रकृष्टेन यदा न: खेद आविशत्‌ | 

तदास्माभिरवर् धस्तात क्षत्रियैरीप्सित: स्वयम्‌ ।। १६ ।। 

वत्स! जब हमारी आयु बहुत बड़ी हो गयी (और तब भी मौत नहीं आयी), उस दशामें 
हमलोगोंको (बड़ा) खेद हुआ और हमने (जान-बूझकर) क्षत्रियोंसे स्वयं अपना वध 
करानेकी इच्छा की ।। १६ ।। 

निखातं यच्च वै वित्तं केनचिद्‌ भृगुवेश्मनि । 

वैरायैव तदा न्यस्तं क्षत्रियान्‌ कोपयिष्णुभि: ।। १७ ।। 

किसी भृगुवंशीने अपने घरमें जो धन गाड़ दिया था, वह भी वैर बढ़ानेके लिये ही 
किया गया था। हम चाहते थे कि क्षत्रियलोग हमारे ऊपर कुपित हो जायेँ ।। १७ ।। 

कि हि वित्तेन नः कार्य स्वर्गेप्सूनां द्विजोत्तम । 

यदस्माकं धनाध्यक्ष: प्रभूतं धनमाहरत्‌ ।। १८ ।। 

द्विजश्रेष्ठ) (यदि ऐसी बात न होती तो) स्वर्ग-लोककी इच्छावाले हम भार्गवोंको धनसे 
क्या काम था; क्योंकि साक्षात्‌ कुबेरने हमें प्रचुर धनराशि लाकर दी थी ।। १८ ।। 

यदा तु मृत्युरादातुं न न: शकक्‍नोति सर्वशः । 

तदास्माभिरयं दृष्ट उपायस्तात सम्मत: ।। १९ |। 

तात! जब मौत हमें अपने अंकमें न ले सकी, तब हमलोगोंने सर्वसम्मतिसे यह उपाय 
ढूँढ़ निकाला था ।। १९ ।। 

आत्महा च पुमांस्तात न लोकॉल्लभते शुभान्‌ | 

ततोअस्माभि: समीक्ष्यैवं नात्मना55त्मा निपातित: ।। २० || 

बेटा! आत्महत्या करनेवाला पुरुष शुभ लोकोंको नहीं पाता, इसीलिये हमने खूब 
सोच-विचारकर अपने ही हाथों अपना वध नहीं किया || २० ।। 

न चैतन्न: प्रियं तात यदिदं कर्तुमिच्छसि । 

नियच्छेदं मन: पापात्‌ सर्वलोकपराभवात्‌ ॥। २१ ।। 

वत्स! तुम जो यह (सब) करना चाहते हो, वह भी हमें प्रिय नहीं है। सम्पूर्ण लोकोंका 
पराभव बहुत बड़ा पाप है, अतः उधरसे मनको रोको ।। २१ ।। 


मा वधी: क्षत्रियांस्तात न लोकान्‌ सप्त पुत्रक | 
दूषयन्तं तपस्तेज: क्रोधमुत्पतितं जहि ।। २२ ।। 
तात! क्षत्रियोंको न मारो। बेटा! भू आदि सात लोकोंका भी संहार न करो। यह जो 
क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह (तुम्हारे) तपस्याजनित तेजको दूषित करनेवाला है, अतः इसीको 
मारो || २२ ।। 
इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वण्यौर्ववारणे 
अष्टसप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७८ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपव॑के अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें और्वक्रोधनिवारण-विषयक एक 
सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १७८ ॥। 


जज बक। अकाल 


एकोनाशीरत्याधिेकशततमो< ध्याय: 


ऑऔर्व और पितरोंकी बातचीत तथा और्वका अपनी 
क्रोधाग्निको बडवानलरूपसे समुद्रमें त्यागना 


ऑर्व उवाच 


उक्तवानस्मि यां क्रोधात्‌ प्रतिज्ञां पितरस्तदा । 

सर्वलोकविनाशाय न सा मे वितथा भवेत्‌ ।। १ ।। 

औरवने कहा--पितरो! मैंने क्रोधवश उस समय जो सम्पूर्ण लोकोंके विनाशकी प्रतिज्ञा 
कर ली थी, वह झूठी नहीं होनी चाहिये ।। १ ।। 

वृथारोषप्रतिज्ञो वै नाहं भवितुमुत्सहे । 

अनिस्तीर्णो हि मां रोषो देहेदग्निरिवारणिम्‌ ।। २ ।। 

जिसका क्रोध और प्रतिज्ञा निष्फल होते हों, ऐसा बननेकी मेरी इच्छा नहीं है। यदि मेरा 
क्रोध सफल नहीं हुआ तो वह मुझको उसी प्रकार जला देगा, जैसे आग अरणी काष्ठको 
जला देती है || २ ।। 

यो हि कारणत:ः क्रोध॑ संजातं क्षन्तुमर्हति । 

नालं स मनुज: सम्यक्‌ त्रिवर्ग परिरक्षितुम्‌ ।। ३ ।। 

जो किसी कारणवश उत्पन्न हुए क्रोधको सह लेता है, वह मनुष्य धर्म, अर्थ और 
कामकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं होता ।। ३ ।। 

अशिष्टानां नियन्ता हि शिष्टानां परिरक्षिता । 

स्थाने रोष: प्रयुक्त: स्यान्नूपै: सर्वजिगीषुभि: ।। ४ ।। 

सबको जीतनेकी इच्छा रखनेवाले राजाओंद्वारा उचित अवसरपर प्रयोगमें लाया हुआ 
रोष दुष्टोंका दमन और साधु पुरुषोंकी रक्षा करनेवाला हो ।। ४ ।। 

अश्रौषमहमूरुस्थो गर्भशय्यागतस्तदा । 

आसवं मातृवर्गस्थ भगूणां क्षत्रियैर्वथे ।। ५ ।। 

मैं जिन दिनों माताकी एक जाँघमें गर्भ-शय्यापर सोता था, उन दिनों क्षत्रियोंद्वारा 
भार्गवोंका वध होनेपर माताओंका करुण क्रन्दन मुझे स्पष्ट सुनायी देता था ।। ५ ।। 

संहारो हि यदा लोके भृगूणां क्षत्रियाधमै: । 

आगर्भोच्छेदनात्‌ क्रान्तस्तदा मां मन्युराविशत्‌ ।। ६ ।। 

इन नीच क्षत्रियोंने जब गर्भके बच्चोंतकके सिर काट-काटकर संसारमें भृगुवंशी 
ब्राह्मणोंका संहार आरम्भ कर दिया, तब मुझमें क्रोधका आवेश हुआ ।। ६ ।। 

सम्पूर्णकोशा: किल मे मातर: पितरस्तथा । 


भयात्‌ सर्वेषु लोकेषु नाधिजग्मु: परायणम्‌ ।। ७ ।। 

जिनकी कोख भरी हुई थी, वे मेरी माताएँ और पितृगण भी भयके मारे समस्त लोकोंमें 
भागते फिरे; किंतु उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिली ।। ७ ।। 

तान्‌ भूगूणां यदा दारान्‌ वक्रिन्नाभ्युपपद्यत । 

माता तदा दधारेयमूरुणैकेन मां शुभा ।। ८ ।। 

जब भार्गवोंकी पत्नियोंका कोई भी रक्षक नहीं मिला, तब मेरी इस कल्याणमयी 
माताने मुझे अपनी एक जाँघमें छिपाकर रखा था ।। ८ ।। 

प्रतिषेद्धा हि पापस्य यदा लोकेषु विद्यते । 

तदा सर्वेषु लोकेषु पापकृन्नोपपद्यते ।। ९ ।। 

जबतक जगत्‌में कोई भी पापकर्मको रोकनेवाला होता है, तबतक सम्पूर्ण लोकोंमें 
पापियोंका होना सम्भव नहीं होता ।। ९ |। 

यदा तु प्रतिषेद्धारं पापों न लभते क्वचित्‌ | 

तिष्ठन्ति बहवो लोकास्तदा पापेषु कर्मसु || १० ।। 

जब पापी मनुष्यको कहीं कोई रोकनेवाला नहीं मिलता, तब बहुतेरे मनुष्य पाप 
करनेमें लग जाते हैं || १० ।। 

जानन्नपि च यः पापं शक्तिमान्‌ न नियच्छति । 

ईश: सन्‌ सो$पि तेनैव कर्मणा सम्प्रयुज्यते || ११ ।। 

जो मनुष्य शक्तिमान्‌ एवं समर्थ होते हुए भी जान-बूझकर पापको नहीं रोकता, वह भी 
उसी पापकर्मसे लिप्त हो जाता है || ११ ।। 

राजभिश्रेश्वरैश्वेव यदि वै पितरो मम । 

शक्तैर्न शकितास्त्रातुमिष्टं मत्वेह जीवितम्‌ ।। १२ ।। 

अत एषामहं क़ुद्धो लोकानामी श्वरो हाहम्‌ । 

भवतां च वचो नालमहं समभिवर्तितुम्‌ ।। १३ ।। 

इस लोकमें अपना जीवन सबको प्रिय है, यह समझकर सबका शासन करनेवाले 
राजालोग सामर्थ्य होते हुए भी मेरे पिताओंकी रक्षा न कर सके, इसीलिये मैं भी इन सब 
लोकोंपर कुपित हुआ हूँ। मुझमें इन्हें दण्ड देनेकी शक्ति है। अतः (इस विषयमें) मैं 
आपलोगोंका वचन माननेमें असमर्थ हूँ || १२-१३ ।। 

ममापि चेद्‌ भवेदेवमी श्वरस्य सतो महत्‌ | 

उपेक्षमाणस्य पुनर्लोकानां किल्बिषाद्‌ भयम्‌ ।। १४ ।। 

यदि मैं भी शक्ति रहते हुए लोगोंके इस महान्‌ पापाचारको उदासीनभावसे चुपचाप 
देखता रहूँ, तो मुझे भी उनलोगोंके पापसे भय हो सकता है ।। १४ ।। 

यश्चायं मन्युजो मेडग्निलोकानादातुमिच्छति । 

दहेदेष च मामेव निगृहीत: स्वतेजसा ।। १५ ।। 


मेरे क्रोधसे उत्पन्न हुई जो यह आग (सम्पूर्ण) लोकोंको अपनी लपटोंसे लपेट लेना 
चाहती है, यदि मैं इसे रोक दूँ तो यह मुझे ही अपने तेजसे जलाकर भस्म कर 
डालेगी ।। १५ ।। 

भवतां च विजानामि सर्वलोकहितेप्सुताम्‌ । 

तस्माद्‌ विधध्व॑ यच्छेयो लोकानां मम चेश्वरा: ।। १६ ।। 

मैं यह भी जानता हूँ कि आपलोग समस्त जगत्‌का हित चाहनेवाले हैं। अतः 
शक्तिशाली पितरो! आपलोग ऐसा करें, जिससे इन लोकोंका और मेरा भी कल्याण 
हो ।॥। १६ ।। 

पितर ऊचु. 

य एष मन्युजस्तेडग्निलोंकानादातुमिच्छति । 

अप्सु तं मुज्च भद्रं ते लोका हाप्सु प्रतिष्ठिता: ।। १७ ।। 

पितर बोले--ओऔर्व! तुम्हारे क्रोधसे उत्पन्न हुई जो यह अग्नि सब लोकोंको अपना 
ग्रास बनाना चाहती है, उसे तुम जलमें छोड़ दो, तुम्हारा कल्याण हो; क्योंकि (सभी) लोक 
जलनमें प्रतिष्ठित हैं || १७ ।। 

आपोमया: सर्वरसा: सर्वमापोमयं जगत्‌ | 

तस्मादप्सु विमुञ्चेम॑ क्रोधाग्निं द्विजसत्तम || १८ ।। 

सभी रस जलके परिणाम हैं तथा सम्पूर्ण जगत्‌ (भी) जलका परिणाम माना गया है। 
अतः द्विजश्रेष्ठ) तुम अपनी इस क्रोधाग्निको जलमें ही छोड़ दो ।। १८ ।। 

अयं तिष्ठतु ते विप्र यदीच्छसि महोदधौ । 

मन्युजोग्निर्दहन्नापो लोका ह्यापोमया: स्मृता: ।। १९ ।। 

विप्रवर! यदि तुम्हारी इच्छा हो तो यह क्रोधाग्नि जलको जलाती हुई समुद्रमें स्थित रहे; 
क्योंकि सभी लोक जलके परिणाम माने गये हैं ।। १९ ।। 

एवं प्रतिज्ञा सत्येयं तवानघ भविष्यति । 

न चैवं सामरा लोका गमिष्यन्ति पराभवम्‌ ।। २० ।। 

अनघ! ऐसा करनेसे तुम्हारी प्रतिज्ञा भी सच्ची हो जायगी और देवताओंसहित समस्त 
लोक भी नष्ट नहीं होंगे || २० ।। 

वसिष्ठ उवाच 

ततस्तं क्रोधजं तात और्वोडग्निं वरुणालये । 

उत्ससर्ज स चैवाप उपयुद्धक्ते महोदधौ ।। २१ ।। 

महद्धयशिरो भूत्वा यत्‌ तद्‌ वेदविदो विदुः । 

तमग्निमुद्गिरद्‌ वक्त्रात्‌ पिबत्यापो महोदधौ ॥। २२ ।। 


वसिष्ठजी कहते हैं--पराशर! तब और्वने (अपनी) उस क्रोधाग्निको समुद्रमें डाल 
दिया। आज भी वह बहुत बड़ी घोड़ीके मुखकी-सी आकृति धारण करके महासागरके 
जलका पान करती रहती है। वेदज्ञ पुरुष उससे (भली-भाँति) परिचित हैं। वह बड़वा अपने 
मुखसे वही आग उगलती हुई महासागरका जल पीती रहती है || २१-२२ ।। 

तस्मात्‌ त्वमपि भद्ठं ते न लोकान्‌ हन्तुमरहसि । 

पराशर परॉल्लोकान्‌ जानउज्ञानवतां वर ॥। २३ ।। 

ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ पराशर! तुम्हारा कल्याण हो, तुम परलोकको भलीभाँति जानते हो; 
अतः तुम्हें भी समस्त लोकोंका विनाश नहीं करना चाहिये ।। २३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वण्यौर्वोपाख्याने 
एकोनाशीत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १७९ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें औवॉपाख्यानविषयक एक सौ 
उनासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७९ ॥। 


अप हा बछ। | अर-क्रा् 


अशीर्त्याधिकशततमो<& ध्याय: 


पुलस्त्य आदि महर्षियोंके समझानेसे पराशरजीके द्वारा 
राक्षससत्रकी समाप्ति 


गन्धर्व उवाच 

एवमुक्तः स विप्रर्षिवसिष्ठेन महात्मना । 

न्ययच्छदात्मन: क्रोधं॑ सर्वलोकपराभवात्‌ ।। १ |। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! महात्मा वसिष्ठके यों कहनेपर उन ब्रह्मर्षि पराशरने अपने 
क्रोधको समस्त लोकोंके पराभवसे रोक लिया ॥। १ || 

ईजे च स महातेजा: सर्ववेदविदां वर: । 

ऋषी राक्षससत्रेण शाक्तेयोडथ पराशर: || २ ।। 

तब सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी शक्ति-नन्दन पराशरने राक्षससत्रका अनुष्ठान 
किया ।। २ ।। 

ततो वृद्धांश्व बालांश्व राक्षसान्‌ स महामुनि: । 

ददाह वितते यज्ञे शक्तेव॑ंधमनुस्मरन्‌ ।। ३ ।। 

उस विस्तृत यज्ञमें अपने पिता शक्तिके वधका बार-बार चिन्तन करते हुए महामुनि 
पराशरने राक्षसजातिके बूढ़ों तथा बालकोंको भी जलाना आरम्भ किया ।। ३ ।। 

न हि तं वारयामास वसिष्ठो रक्षसां वधात्‌ । 

द्वितीयामस्य मा भाडुक्ष॑ प्रतिज्ञामिति निश्चयात्‌ ।। ४ ।। 

उस समय महर्षि वसिष्ठने यह सोचकर कि इसकी दूसरी प्रतिज्ञाको न तोड़ूँ, उन्हें 
राक्षसोंके वधसे नहीं रोका ।। ४ ।। 

त्रयाणां पावकानां च सत्रे तस्मिन्‌ महामुनिः । 

आसीतू पुरस्ताद्‌ दीप्तानां चतुर्थ इव पावक: ।। ५ ।। 

उस सत्रमें तीन प्रज्वलित अग्नियोंके समक्ष महामुनि पराशर चौथे अग्निके समान 
प्रकाशित हो रहे थे || ५ ।। 

तेन यज्ञेन शुभ्रेण हूयमानेन शक्तिज: । 

तद्विदीपितमाकाशं सूर्येणेव घनात्यये ।। ६ ।। 

(पापी राक्षसोंका संहार करनेके कारण) वह यज्ञ अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध समझा 
जाता था। शक्तिनन्दन पराशरद्वारा उसमें यज्ञसामग्रीका हवन आरम्भ होते ही (वह इतना 
प्रज्वलित हो उठा कि) उसके तेजसे सम्पूर्ण आकाश ठीक उसी तरह उद्धासित होने लगा, 
जैसे वर्षा बीतनेपर सूर्यकी प्रभासे उद्दीप्त हो उठता है ।। ६ ।। 


त॑ वसिष्ठादय: सर्वे मुनयस्तत्र मेनिरे । 

तेजसा दीप्यमानं वै द्वितीयमिव भास्करम्‌ ।। ७ ।। 

उस समय वसिष्ठ आदि सभी मुनियोंको वहाँ तेजसे प्रकाशमान महर्षि पराशर दूसरे 
सूर्यके समान जान पड़ते थे ।| ७ ।। 

ततः परमदुष्प्रापमन्यैर्क्रषिरुदारधी: । 

समापिपयिषु: सत्र तमत्रि: समुपागमत्‌ ।। ८ ।। 

तदनन्तर दूसरोंके लिये उस यज्ञको बंद करना अत्यन्त कठिन जानकर उदारबुद्धि 
महर्षि अत्रि स्वयं उस यज्ञको समाप्त करानेकी इच्छासे पराशरके पास आये ।। ८ ॥। 

तथा पुलस्त्य: पुलहः क्रतुश्चैव महाक्रतुः । 

तत्राजग्मुरमित्रघ्न रक्षसां जीवितेप्सया ।। ९ ।। 

शत्रुओंका नाश करनेवाले अर्जुन! उसी प्रकार पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और महाक्रतुने भी 
राक्षसोंके जीवनकी रक्षाके लिये वहाँ पदार्पण किया ।। ९ ।। 

पुलस्त्यस्तु वधात्‌ तेषां रक्षसां भरतर्षभ | 

उवाचेदं वच: पार्थ पराशरमरिंदमम्‌ ।। १० ।। 

भरतकुलभूषण कुन्तीकुमार! उन राक्षसोंका विनाश होता देख महर्षि पुलस्त्यने 
शत्रुसूदन पराशरसे यह बात कही-- ।। १० ।। 

कच्चित्‌ तातापविषध्नं ते कच्चिन्नन्दसि पुत्रक | 

अजानतामदोषाणां सर्वेषां रक्षसां वधात्‌ ।। ११ ।। 

“तात! तुम्हारे इस यज्ञमें कोई विघ्न तो नहीं पड़ा? बेटा! तुम्हारे पिताकी हत्याके 
विषयमें कुछ भी न जाननेवाले इन सभी निर्दोष राक्षसोंका वध करके कया तुम्हें प्रसन्नता 
होती है? ।। ११ ।। 

प्रजोच्छेदमिमं महां न हि कर्तु त्वमर्हसि । 

नैष तात द्विजातीनां धर्मो दृष्टस्तपस्विनाम्‌ ।। १२ ।। 

“वत्स! मेरी संततिका तुम्हें इस प्रकार उच्छेद नहीं करना चाहिये। तात! यह हिंसा 
तपस्वी ब्राह्मणोंका धर्म कभी नहीं मानी गयी || १२ ।। 

शम एव परो धर्मस्तमाचर पराशर । 

अधर्मिष्ठ वरिष्ठ: सन्‌ कुरुषे त्वं पराशर ।। १३ ।। 

“पराशर! शान्त रहना ही (ब्राह्मणोंका) श्रेष्ठ धर्म है, अतः उसीका आचरण करो। तुम 
श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी यह पापकर्म करते हो? ।। १३ ।। 

शक्ति चापि हि धर्मज्ञ नातिक्रान्तुमिहाहसि । 

प्रजायाश्न ममोच्छेदं न चैवं कर्तुमहिसि ।। १४ ।। 

“तुम्हारे पिता शक्ति धर्मके ज्ञाता थे, तुम्हें (इस अधर्मकृत्यद्वारा) उनकी मर्यादाका 
उल्लंघन नहीं करना चाहिये। फिर मेरी संतानोंका विनाश करना तुम्हारे लिये कदापि उचित 


नहीं है ।। १४ ।। 

शापाद्धि शक्तेवासिष्ठ तदा तदुपपादितम्‌ | 

आत्मजेन स दोषेण शक्ति्नीत इतो दिवम्‌ ।। १५ ।। 

वसिष्ठकुलभूषण! शक्तिके शापसे ही उस समय वैसी दुर्घटना हो गयी थी। वे अपने ही 
अपराधसे इस लोकको छोड़कर स्वर्गवासी हुए हैं (इसमें राक्षमोंका कोई दोष नहीं 
है) ।। १५ ।। 

नहितं राक्षस: कश्चिच्छक्तो भक्षयितु मुने । 

आत्मनैवात्मनस्तेन दृष्टो मृत्युस्तदाभवत्‌ ।। १६ ।। 

“मुने! कोई भी राक्षस उन्हें खा नहीं सकता था। अपने ही शापसे (राजाको नरभक्षी 
राक्षस बना देनेके कारण) उन्हें उस समय अपनी मृत्यु देखनी पड़ी ।। १६ ।। 

निमित्तभूतस्तत्रासीद्‌ विश्वामित्र: पराशर | 

राजा कल्माषपादश्च दिवमारुह्मु मोदते || १७ ।। 

“पराशर! विश्वामित्र तथा राजा कल्माषपाद भी इसमें निमित्तमात्र ही थे (तुम्हारे 
पूर्वजोंकी मृत्युमें तो प्रारब्ध ही प्रधान है)। इस समय तुम्हारे पिता शक्ति स्वर्गमें जाकर 
आनन्द भोगते हैं ।। १७ ।। 

ये च शक्त्यवरा: पुत्रा वसिष्ठस्य महामुने । 

ते च सर्वे मुदा युक्ता मोदन्ते सहिता: सुरै: ।। १८ ।। 

“महामुने! वसिष्ठजीके शक्तिसे छोटे जो पुत्र थे, वे सभी देवताओंके साथ 
प्रसन्नतापूर्वक सुख भोग रहे हैं || १८ ।। 

सर्वमेतद्‌ वसिष्ठस्य विदितं वै महामुने । 

रक्षसां च समुच्छेद एघ तात तपस्विनाम्‌ ।। १९ ।। 

निमित्तभूतस्त्वं चात्र क्रतो वासिष्ठनन्दन | 

तत्‌ सत्र मुछच भद्रं ते समाप्तमिदमस्तु ते | २० ।। 

“महर्षे! तुम्हारे पितामह वसिष्ठजीको ये सब बातें विदित हैं। तात शक्तिनन्दन! तेजस्वी 
राक्षसोंक विनाशके लिये आयोजित इस यज्ञमें तुम भी निमित्तमात्र ही बने हो (वास्तवमें यह 
सब उन्हींके पूर्वकर्मोका फल है)। अतः अब इस यज्ञको छोड़ दो। तुम्हारा कल्याण हो, 
तुम्हारे इस सत्रकी समाप्ति हो जानी चाहिये” ।। १९-२० ।। 

गन्धर्व उवाच 

एवमुक्त: पुलस्त्येन वसिष्ठदेन च धीमता । 

तदा समापयामास सत्र शाक्तो महामुनि: ।। २१ ।। 

गन्धर्व कहता है--अर्जुन! पुलस्त्यजी तथा परम बुद्धिमान्‌ वसिष्ठजीके यों कहनेपर 
महामुनि शक्तिपुत्र पराशरने उसी समय यज्ञको समाप्त कर दिया ।। २१ ।। 


सर्वराक्षससत्राय सम्भूृतं पावकं तदा । 

उत्तरे हिमवत्पाश्वें उत्ससर्ज महावने ।। २२ ।। 

सम्पूर्ण राक्षसोंके विनाशके उद्देश्यसे किये जाने-वाले उस सत्रके लिये जो अग्नि संचित 
की गयी थी, उसे उन्होंने उत्तरदिशामें हिमालयके आस-पासके विशाल वनमें छोड़ 
दिया ।। २२ || 

स तत्राद्यापि रक्षांसि वृक्षानश्मन एव च | 

भक्षयन्‌ दृश्यते वह्निः सदा पर्वणि पर्वणि ।। २३ ।। 

वह अग्नि आज भी वहाँ सदा प्रत्येक पर्वके अवसरपर राक्षसों, वृक्षों और पत्थरोंको 
जलाती हुई देखी जाती है || २३ ।। 


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वण्यौवोपाख्याने 
अशीत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १८० ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपरव्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें औवॉपाख्यानविषयक एक सौ 
अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १८० ॥। 


ऑपनआक्रात [छ। अंक 


एकाशीरत्याधिकशततमो< ध्याय: 


राजा कल्माषपादको ब्राह्मणी आंगिरसीका शाप 
अजुन उवाच 

राज्ञा कल्माषपादेन गुरी ब्रह्मविदां वरे । 

कारणं कि पुरस्कृत्य भार्या वै संनियोजिता ।। १ ।। 

अर्जुनने पूछा--गन्धर्वराज! किस कारणको सामने रखकर राजा कल्माषपादने 
ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ गुरु वसिष्ठजीके साथ अपनी पत्नीका नियोग कराया था? ।। १ |। 

जानता वै परं धर्म वसिष्ठेन महात्मना । 

अगम्यागमनं कस्मात्‌ कृतं तेन महर्षिणा ।। २ ।। 

तथा उत्तम धर्मके ज्ञाता महात्मा महर्षि वसिष्ठने यह परस्त्रीगमनका पाप कैसे 
किया? ।। २ ।। 

अधर्मिष्ठं वसिछेन कृतं चापि पुरा सखे । 

एतन्मे संशयं सर्व छेत्तुमहसि पृच्छत: ।। ३ ।। 

सखे! पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठने जो यह अधर्म-कार्य किया, उसका क्या कारण है? 
यह मेरा संशय है, जिसे मैं पूछता हूँ। आप मेरे इन सारे संशयोंका निवारण कीजिये ।। ३ ।। 

गन्धर्व उवाच 

धनंजय निबोधेदं यन्मां त्वं परिपृच्छसि । 

वसिष्ठ प्रति दुर्धर्ष तथा मित्रसहं नृपम्‌ || ४ ।। 

गन्धर्वने कहा--दुर्धर्ष वीर धनंजय! आप महर्षि वसिष्ठ तथा राजा मित्रसहके विषयमें 
जो कुछ मुझसे पूछ रहे हैं, उसका समाधान सुनिये ।। ४ ।। 

कथितं ते मया सर्व यथा शप्तः स पार्थिव: । 

शक्तिना भरतश्रेष्ठ वासिछ्लेन महात्मना ।। ५ ।। 

भरतश्रेष्ठ! वसिष्ठपुत्र महात्मा शक्तिसे राजा कल्माषपादको जिस प्रकार शाप प्राप्त 
हुआ, वह सब प्रसंग मैं आपसे कह चुका हूँ ।। ५ ।। 

स तु शापवशं प्राप्त: क्रोधपर्याकुलेक्षण: । 

निर्जगाम पुराद्‌ राजा सहदार: परंतप: ।। ६ ।। 

शत्रुओंको संताप देनेवाले राजा कल्माषपाद शापके परवश हो अपनी पत्नीके साथ 
नगरसे बाहर निकल गये। उस समय उनकी आँखें क्रोधसे व्याप्त हो रही थीं ।। ६ ।। 

अरण्यं निर्जनं गत्वा सदार: परिचक्रमे । 

नानामृगगणाकीर्ण नानासत्त्वसमाकुलम्‌ ।। ७ ।। 


अपनी स्त्रीके साथ निर्जन वनमें जाकर वे चारों ओर चक्कर लगाने लगे। वह महान्‌ 
वन भाँति-भाँतिके मृगोंसे भरा हुआ था। उसमें नाना प्रकारके जीव-जन्तु निवास करते 
थे।। ७ ।। 

नानागुल्मलताच्छन्न॑ नानाद्रुमसमावृतम्‌ | 

अरण्यं घोरसंनादं शापग्रस्त: परिभ्रमन्‌ ।। ८ ।। 

अनेक प्रकारकी लताओं तथा गुल्मोंसे आच्छादित और विविध प्रकारके वृक्षोंसे आवृत 
वह (गहन) वन भयंकर शब्दोंसे गूँजता रहता था। शापग्रस्त राजा कल्माषपाद उसीमें 
भ्रमण करने लगे ।। ८ ।। 

स कदाचित क्षुधाविष्टो मृगयन्‌ भक्ष्यमात्मन: । 

ददर्श सुपरिक्लिष्ट: कम्मिंश्रिन्निर्जने वने ।। ९ ।। 

ब्राह्मणं ब्राह्मणीं चैव मिथुनायोपसंगतौ । 

तौतं वीक्ष्य सुवित्रस्तावकृतार्थोी प्रधावितो ।। १० ।। 

एक दिन भूखसे व्याकुल हो वे अपने लिये भोजनकी तलाश करने लगे। बहुत क्लेश 
उठानेके बाद उन्होंने देखा कि उस वनके किसी निर्जन प्रदेशमें एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी 
मैथुनके लिये एकत्र हुए हैं। वे दोनों अभी अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर पाये थे, इतनेहीमें उन 
राक्षसाविष्ट कल्माषपादको देखकर अत्यन्त भयभीत हो (वहाँसे) भाग चले ।। ९-१० ।। 

तयो: प्रद्रवतोर्विप्रं जग्राह नृपतिर्बलात्‌ | 

दृष्टवा गृहीतं भर्तारमथ ब्राह्म॒ण्यभाषत ।। ११ ।। 

उन भागते हुए दम्पतिमेंसे ब्राह्मणको राजाने बलपूर्वक पकड़ लिया। पतिको राक्षसके 
हाथमें पड़ा देख ब्राह्मणी बोली-- || ११ ।। 

शृणु राजन्‌ मम वचो यत्‌ त्वां वक्ष्यामि सुव्रत । 

आदित्यवंशप्रभवस्त्वं हि लोके परिश्रुत: |। १२ ।। 

“राजन! मैं आपसे जो बात कहती हूँ, उसे सुनिये। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले 
नरेश! आपका जन्म सूर्यवंशमें हुआ है। आप सम्पूर्ण जगत्‌में विख्यात हैं || १२ ।। 

अप्रमत्त: स्थितो धर्मे गुरुशुश्रूषणे रत: । 

शापोपहत दुर्धर्ष न पापं कर्तुमहसि ।। १३ ।। 

“आप रुदा प्रमादशून्य होकर धर्ममें स्थित रहनेवाले हैं। गुरुजनोंकी सेवामें सदा संलग्न 
रहते हैं। दुर्धर्ष वीर! यद्यपि आप इस समय शापसे ग्रस्त हैं, तो भी आपको पापकर्म नहीं 
करना चाहिये ।। १३ ।। 

ऋतुकाले तु सम्प्राप्ते भर्तृव्यसनकर्शिता । 

अकृतार्था हाहं भर्त्रा प्रसवार्थ समागता ।। १४ ।। 

प्रसीद नृपतिश्रेष्ठ भर्तायं मे विसृज्यताम्‌ । 


“मेरा ऋतुकाल प्राप्त है, मैं पतिके कष्टसे दुःख पा रही हूँ। मैं संतानकी इच्छासे पतिके 
समीप आयी थी और उनसे मिलकर अभी अपनी इच्छा पूर्ण नहीं